चुनाव परिणाम आने के 48 घंटे बाद मायावती के गांव बादलपुर के निवासी रामप्रवेश से जब मैंने चुनाव में बीएसपी को मिली शिकस्त पर सवाल पूछा तो बिना कुछ बोले रामप्रवेश ने अपनी अंगुली मायावती के घर की तरफ उठा दी। रामप्रवेश का घर मायावती की इमारत के पीछे करीब पांच सौ मीटर की दूरी पर है। जहां से मायावती का बंगला साफ दिखायी देता है। खपरैल और कच्ची मिट्टी में ईंट के सहारे बने रामप्रवेश के घर से मायावती का बंगला पत्थर से बना दिखता है। हांलाकि यह कमाल रंग-रोगन का भी है।
खैर मायावती के बंगले की तरफ उठी रामप्रवेश की अंगुली को देखकर मैंने फिर पूछा- इसमें इस बंगले का क्या कसूर। रामप्रवेश ने बिना बोले अंगुली उन घरों की तरफ उठा दी, जो कुकरमुत्ते की तरह बंगले के इर्द-गिर्द नजर आ रहे थे। तभी रामप्रवेश की पत्नी ननकी घर से बाहर निकली और मेरे सवाल पूछते ही बिदक गयीं। हर सवाल के सैकड़ों जबाब उसके पास थे। लेकिन चुनाव में मायावती की खस्ता हुई हालत पर एक ही टिप्पणी थी, जो बोओगो, वही काटागे। इस सवाल का जबाब बादलपुर की गलियों में लगातार घूमते हुये मैं भी टटोलता रहा कि मायावती ने ऐसा बोया क्या जो चुनावी परिणाम में उसे वही काटना पड़ रहा है।
नुक्कड पर पुलिस पिकेट के सामने चाय की चुस्कियो के बीच बार बार मैंने यह सवाल चाय पीने वालो के बीच सीधे उछाला कि मायावती का चुनाव परिणाम तो वैसे ही है, जैसे जो बोया वही काटने को मिला । मैंने देखा विरोध किसी ने किया नहीं । हां, चुनावी तिकड़म के इस सच को सभी बताने से नहीं चूके की बहनजी के पास हर कोई टिकट के लिये इसीलिय चल कर आता है, क्योकि हमारा वोट हाथी पर ही लगता है। हम भी जानते है और बहनजी भी कि हाथी का रिश्ता चुनाव का नही बहुजन का है। लेकिन बहनजी ने ऐसा क्या बोया जो चुनाव परिणाम दगा दे गये , इस सवाल पर चाय पीने बालों से हटकर चाय बनाकर पिलाने वाले जगत ने केतली में उबलते पानी को दिखाकर मुझ पर ही सवाल ठोंका कि अगर बाल्टी में पडी इस सडी चाय पत्ती को पानी में दुबारा डाल दे तो फिर आप इस दुकान पर चाय पीने आओगे। फिर खुद ही कहा जब स्वाद आयेगा नही तो आओगे नहीं और उसपर प्लास्टिक के कप की जगह चमकती प्याली में भी चाय दे दू तो प्याली का झटका तो एक बार ही खाओगे ना। जगत रुका नही कि करीब अस्सी साल के बुजुर्गवार बीडी फूंकते हुये बोले, जीत-हार से जिन्दगी नहीं संवरती। कांशीराम चुनाव को हथियार बनाये थे, बहनजी हथियार को ही चुनाव माने बैठी हैं।
जाहिर है बातचीत में चुनाव और हथियार पर भी चर्चा शुरु हुई, जिसमें बहुजन से सर्वजन को चुनावी हथियार बनाने को लेकर भी कई तरह के सवाल उठे लेकिन मायावती की राजनीतिक धार जिस राजनीतिक अंतर्विरोध को पकड कर लाभ उठाती है, उसमें अगर कोई दूसरा मायावती के अंतर्विरोध को ही अपना हथियार बना ले तो मायावती क्या करेगी।
इस सवाल पर बादलपुर की आंखो के सामने कांशीराम के न होने का दर्द और मायावती के भटकने की त्रासदी पहली बार दिखी। मायावती का उत्तरप्रदेश में जनाधार बहुत ज्यादा सिकुड़ा हो ऐसा भी नहीं है । राष्ट्रीय स्तर पर भी मायावती को मिलने वाले वोट में दशमलव का ही अंतर आया है । लेकिन पहली बार मायावती का चुनावी हथियार ही अगर उन हाथों को पूरी तरह ट्रेंड नहीं पा रहा है जो हथियार चला रहे है , तो सवाल गहरा है। इसमें दो मत नही कांशीराम ने आंबेडकर के उस राजनीतिक मुहावरे को कई बार कहा कि चुनावी राजनीति साधन है, साध्य नहीं। लेकिन मायावती ने सत्ता को साध्य माना यह भी अबूझ नहीं है। मायावती ने उस भोक्तावादी समाज को भी पकडने की कोशिश की जिसको लेकर अंबेडकर और कांशीराम दोनो यह कहने से नहीं चूके कि दलित राजनीति को उन मुद्दों से अलग नहीं किया जा सकता जो दैनन्दनी से जुडे हों और समाज के भीतर उसको लेकर प्रतिस्पर्धा हो। आंबेडकर चाहते थे कि दलितो के भौतिक पक्षो को भी नेतृत्व देखें। लेकिन कांशीराम की राजनीति ने जिस तरह इसकी अनदेखी की उससे दलित समस्याएं रहस्मय बनती चली गयी। वहीं मायावती की भौतिकवादी समझ उस पूंजी पर टिकी जिसने चुनावी तिकडमो को तो जुबान दी लेकिन दलित आंदोलन में जीवन के वास्तविक मुद्दो को लेकर एक तरह की अरुचि पैदा कर दी। हो सकता है बादलपुर के रामप्रवेश की अंगुली इसीलिये मायावती के बंगले की तरफ उठी होगी।
असल में दलित राजनीति की यह कमजोरी आंबेडकर से लेकर मायावती तक पहुंचते पहुंचते ऐसा रुप धारण कर लेगी, जहां संघर्ष और मुद्दों को भी भौतिकता के आधार पर टटोला जायेगा, यह किसी ने सोचा ना होगा । लेकिन न्यू इकनामी में जिस तरह समाज के भीतर जातीय बंधनो से इतर भी सामाजिक संबंध बनने लगे, वह गौरतलब है। युवा दलित पहचान के लिये दलित पैंथर की लीक पकडने के बदले अब उस धारा को पकड़ना चाह रहा है, जो वर्ग और जाति को तोडकर पूंजी प्रेम में समा रहे हैं। यह युवा मायावती की राजनीति पर सवाल नहीं करता लेकिन मायावती की तर्ज पर अपने घेरे में सौदेबाजी करने से भी नही चूकना चाहता। मनमोहन की अर्थव्यवस्था में समाने के बाद वह अपनी सौदेबाजी का दायरा सामाजिक और राजनीतिक दोनो तौर पर बठता हुआ देख रहा है। इसलिये बादलपुर का युवा बीएसपी को वोट डालने के बावजूद मनमोहन की जीत में अपना नफा-नुकसान टटोलने लगा है। ग्रेजुएट राधव और बलवान यह कहने से नहीं कतराते कि मंदी में शेयर बाजार को एनडीए उस तरह नहीं संभाल पाती, जैसा यूपीए संभाल लेगी । मायावती के पास इस समझ की काट कबतक आयेगी यह दूर की कौडी है लेकिन दो दशकों से जिस तरह मायावती की समूची राजनीति दलित भावना को हवा देती रही है, पहली बार उसपर भी भौतिक जरुरत सवाल उठा रही है।
लेकिन, सवाल सिर्फ बादलपुर या उत्तर प्रदेश का नही है, सवाल महाराष्ट् सरीखे राज्य का भी है, जहा मायावती का हर उम्मीदवार औसतन सौ करोड़ का मालिक था। इसमें हर जाति-धर्म के उम्मीदवार थे। बिल्डर से लेकर अंडरवर्ल्ड से जुड़े उम्मीदवार भी हाथी की सवारी कर रहे थे। लेकिन मायावती के समूचे समीकरण सीधे वोट बैंक के आसरे टिके रहे। जबकि महाराष्ट्र आंबेडकर के राजनीतिक प्रयोग की जमीन रही है। जहा राजनीतिक तौर पर दलितो को चुनाव में पहला मंच आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पक्ष बनाकर दिया था। अस्पृश्य समाज के राजनीतिक अधिकारो के लिये 15 अगस्त 1936 में इसकी स्थापना मुबंई में की गयी। आंबेडकर के इस राजनीतिक मंच बनाने के पीछे 16 जून 1934 की गांधी के साथ पहली मुलाकात की खटास भी थी। पहली मुलाकात में ही आंबेडकर ने गांधी जी के सामने अस्पृश्य समाज की मुश्कलों को उठाया। आंबेडकर ने कहा कि हिन्दुओं के अमानवीय अत्याचार अस्पृश्य समाज पर होते हैं और न्याय के लिये अस्पृश्य ना तो पुलिस के पास जा पाता है ना ही अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है । ऐसे में हरीजन सेवक संघ को अस्पृश्य समाज के लिये काम करना चाहिये। उनके लिये एक बजट बनाकर न्याय की दिशा में बढ़ना चाहिये । लेकिन गांधी इसपर राजी नहीं हुये । आंबेडकर की पहली राजनीतिक पहल यही से शुरु हुई। लेकिन उनके जहन में इस मंच के जरीये मजदूर-श्रमिको को भी साथ लाने की योजना थी। जिसपर कांग्रेस ने फूट डलवाकर पानी में मिला दिया।
नया सवाल मायावती की राजनीतिक पहल का है । मायावती आंबेडकर-कांशीरामऔर खुद की प्रतिमाओ और अपनी वैभवता के आसरे दलित वोट बैक में जो रंग भरती रही है, वह दलितों के भीतर नये भौतिक मूल्यों से टकरा रहे हैं। इसका अंदाजा बादलपुर ही नही नागपुर में भी मिलता है। 1993 में पहली बार मायवती ने सभा की थी। नागपुर के यशंवत स्टेडियम में तीन पायदान का मंच बना था। सबसे उपर कांशीराम और मायावती बैठी थी। उसके नीचे रिपब्लिकन खोब्राग़डे के नेता और उसके नीचे स्थानीय दलित नेता। मायावती की इस सभा में दलित रंगभूमि के युवा कलाकारो ने आंबेडकर पर एक नुक्कड नाटक भी किया था। उस वक्त रिपब्लिकन पार्टी के जेबी पार्टी बनने से दुखी युवा दलित मायावती में अपना नायक देख रहे थे जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने बूते दखल दे चुकी थी। लेकिन जिस तरह की राजनीतिक सोशल इंजिनियरिंग की परिभाषा इस चुनाव में मायावती ने उम्मीदवारों के जरीये गढ़ी, उसका परिणाम यही रहा कि चुनाव में दलित रंगभूमि के कलाकार कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के लिये नाटक करते नजर आये और बीएसपी को महज साढे चार फिसदी वोट मिले जो अन्य को मिलने वाले वोट का भी एक चौथायी है । और विधानसभा की तुलना में आधे से भी कम है। यहां सवाल यह नहीं है कि मायावती के चुनावी धंधे का पाठ अब सर्वव्यापी हो चुका है और धंधे का टकराव मायावती के वोट बैंक में भी टकरा रहा है । बडा सवाल यह है कि पथरीले समाज को राजनीति उसी मखमली चादर से ढकना चाह रही है, जिसके जरीये देश के भीतर दो देश खडे किये गये। क्योंकि राहुल गांधी जिस कलावती का नाम लेकर मखमली राजनीति को चौंकाते है और सरकार किसानों की खुदकुशी रोकने के लिये करोड़ों के पैकेज का ऐलान कर अपनी जिम्मेदारी से निजात पाना चाहती है। वहां कांग्रेस को भी चुनाव में शिकस्त मिलती है और मायावती की जमीन भी नजर नही आती। वहां का दलित-किसान-पिछडा-गरीब-मजदूर हर उस नेता में अपनी जिन्दगी देखता है जो न्यूनतम का जुगाड कराते हुये आंखो के सामने नजर आते रहे। असल में अमरावती की कलावती के लिये राहुल जितने दूर हैं, उससे कही ज्यादा की दूरी बादलपुर की ननकी की लखनउ की मायावती से हो चली है। बादलपुर से निकलते वक्त रामप्रवेश की पत्नी ननकी ने जब यह कहते हुये पानी का गिलास बढाया कि रामप्रवेश अबकि गुड घर लाये नहीं है, इसलिये खाली पानी दे रहे है तो झटके में लगा रामप्रवेश की उठी अंगुली कही मायावती के बंगले में बंद हाथी और कुकरमुत्ते की तरह उगे घरो में पडी जंजीर तो नहीं दिखा रहे थे।
अगर ऐसा है तो बड़ा सवाल यह भी है कि जिस जंजीर के आसरे दलित राजनीति को मायावती बांधे हुये है उसे तो झोपडी में रात गुजारने की राहुल नीति और पैकेज देने की मनमोहन नीति ही तोड देगी । फिर आंबेडकर के उस दलित संधर्ष का क्या होगा जिन्होने कभी कांग्रेस को जलता हुआ मकान कहते हुये दलितो में अपने बूते संघर्ष करने का अलख जलाया था ।
Tuesday, May 26, 2009
Thursday, May 21, 2009
मनमोहन, सोनिया और राहुल की "दीवार"
1975 की प्रसिद्द फिल्म ‘दीवार’ का वह दृश्य याद कीजिये, जिसमें मंदिर में मां की पूजा के बाद अमिताभ और शशिकपूर दो अलग अलग रास्तों पर नौकरी के लिये निकल जाते हैं। अमिताभ एक ऐसे रास्ते चल पड़ता है, जहां पैसा है, सुविधा है। वहीं पैसा बनाने के इस धंधे में अपराध करते अमिताभ को रोकने के लिये उसी का भाई शशि कपूर सामने आता है। न्याय और अपराध के खिलाफ शशिकपूर की पहल को मां की हिम्मत मिलती है। अमिताभ मारा जाता है लेकिन उसका दम उसी मां की गोद में निकलता है, जिसकी हिम्मत से शशिकपूर अमिताभ पर गोली दागता है।
कांग्रेस को लेकर जनादेश के डायलॉग भी कुछ इसी तरह की एक नयी राजनीति गढ़ रहे हैं। जिसमें मनमोहन और राहुल गांधी के कामकाज के रास्ते अलग अलग हैं। मनमोहन उस अर्थव्यवस्था से समाज को विकसित बनाने निकले हैं, जिसमें देश के भीतर दो देश बनने ही हैं। वहीं, राहुल देश के भीतर चौड़ी होती इस खाई को पाटना चाहते हैं। वह न्याय और सुशासन का ऐसा मेल राजनीति में चाहते हैं, जहां चकाचौंध से पहले सबका पेट भरा हुआ हो। और सोनिया राहुल को हिम्मत दे रही हैं।
मनमोहन, राहुल और सोनिया गांधी की इस राजनीति को पांच साल के कामकाज के बाद ही ऐसी सफलता मिलेगी, यह उन राजनीतिक दलो ने सोचा भी न था जो मंडल-कमंडल के फार्मूले तले सत्ता की मलाई पिछले बीस साल से चखते रहे। असल में राहुल न्याय और सुशासन के जरिये जिस अलोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल उठा रहे हैं, वह मनमोहन की राजनीति का ही किया-धरा है। कह सकते है- पैसे से पैसा बनाने के मनमोहनोमिक्स के सामानांतर राहुल की रोजी रोटी की इमानदारी को कुछ इस तरीके से खड़ा किया गया है, जो बीस साल के फार्मूले को तोड़ सकती है।
सवाल यह नही है कि इस बार चुनाव में जनादेश के जरिये वोटर ने ही राजनीतिक दलों की उस मुश्किल को आसान कर दिया जो गठबंधन के दौर में सौदेबाजी दर सौदेबाजी में उलझती जा रही थी। और हर राजनीतिक दल मुश्किल के दौर में हाथ खड़ा कर संसदीय राजनीति की त्रासदी भरी वर्तमान स्थिति का आईना सभी को दिखाता रहा। दरअसल, इस दौर में पहली बार कांग्रेस के भीतर ही उस राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयास शुरु हुआ, जिसमें कांग्रेस के महज बड़ी पार्टी होने भर का मिथ टूटे और एकला चलो की रणनीति का राजनीतिक प्रयोग सफल हो। लेकिन सत्ता तक पहुंचने और सत्ता चलाने की चुनौती अब उसी दो राहे पर कांग्रेस को खड़ा करेगी, जैसे अमिताभ को अंडरवर्ल्ड की कुर्सी ऐसे वक्त मिलती है, जब शशिकपूर को पुलिस की नौकरी इधर उधर भटकने और दर दर नौकरी के लिये ठोंकरे खाने के बाद मिलती है । मनमोहन सिंह की जीत उस अनिश्चय भरे माहौल से निजात पाने वालों को सुकून दे रही है, जो आर्थिक मंदी के दौर में लगातार सबकुछ गंवाते हुये समझ ही नहीं पा रहे थे कि राजनीति का उलटफेर उन्हें खुदकुशी की तरफ न ले जाये । उसपर वामपंथियो की हार ने उन्हे उल्लास से भर दिया। वजह भी यही है कि जनादेश के बाद सोमवार को जब शेयर बाजार खुला तो एक मिनट में तीन हजार करोड के वारे-न्यारे का लाभ छह लाख करोड रुपये तक जा पहुंचा।
जाहिर है यह सलामी मनमोहनोमिक्स को है, लेकिन यह चकाचौंध राहुल की राजनीति के लिये टीस भी है। राजनीतिक तौर पर जो प्राथमिकता मनमोहन सिंह की है, उसी पर तिरछी रेखा की तरह राहुल की प्राथमिकता उभरती है। मनमोहन सिंह को मंदी का डर लोगों के जहन से निकालना है। सरकारी पूंजी के जरीये बेल-आउट की व्यवस्था पहले करनी है फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर की मजबूती का सवाल उठाकर उन सेक्टरों को मजबूती देनी है, जो मंदी की मार से निढाल हैं। अंतराष्ट्रीय बाजार से आहत निर्यात करने वालो के मुनाफे को देश के भीतर की अर्थव्यवस्था से भी जोड़ना है और बीपोओ से लेकर रोजगार की उसी लकीर को मजबूत करते हुये दिखाना-बताना है, जिससे राहुल के चकाचौंध युवा तबके का सपना बरकरार रहे। इन सवालो में आंतरिक सुरक्षा से लेकर शेयर बाजार की गारंटी सुरक्षा का ढांचा भी खड़े करना है, जिससे लचीली अर्थव्यवस्था की मजबूती नजर आने लगे।
वहीं, राहुल गांधी का राजनीतिक संवाद ठीक उसके उलट है। सरकार का पैसा आम आदमी तक बिना रोक-टोक के पहुंच जाये, इसकी व्यवस्था उन्हें पहले करनी है। इस व्यवस्था का मतलब है नौकशाही पर लगाम और सामूहिक जिम्मदारी का खांचा खड़ा करना। दूसरा सवाल दलित-पिछड़ों की रोजी रोटी के जुगाड़ से लेकर रोजगार की व्यवस्था का एक ऐसा खांका खड़ा करना है, जो नरेगा से आगे ले जाये और सामाजिक विकास में एक तबके को दूसरे तबके से जोड़ सके। यह ग्रामीण परिवेश में स्वालंबन देने सरीखा भी है। किसान को बाबुओ की फाइल से होते हुये मुख्यधारा से जोड़ना कितना मुश्किल काम है, इसका एहसास राहुल गांधी को विदर्भ में किसानों से मुलाकात में भी मिला होगा। जहां मनमोहन सरकार का राहत पैकेज किसानों को आहत ज्यादा कर गया। खुदकुशी करने वाले किसानो की संख्या में पैकेज के ऐलान के बाद इजाफा हो गया। असल में राहत के नाम पर बडे उघोगों को ही राहत मिल सकती है, जो बेल-आउट को कम होते अपने मुनाफे से जोडते हैं, जबकि किसान के लिये राहत न्यूनतम जरुरत से जुड़ा होता है, जिसके बदले राजनीति अपना लाभ साधती है। राहुल की राजनीति को इसमें सेंध लगानी है। मनमोहन की प्राथमिकता औघोगिक विकास को बढाना होगा । जिसके लिये कृर्षि अर्थव्यवस्था पर चोट होगी। खेती योग्य जमीन भी उघोगो और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये खत्म की जायेगी। जबकि राहुल की सोच को अमली जामा पहनाने के लिये खेती से औघोगिक विकास को जोड़ना होगा। कृषि उत्पादन में वृद्दि किये बगैर औघोगिक विकास संभव तो है, लेकिन इसे भारत जैसे देश में बरकरार नही रखा जा सकता है। पारंपरिक अर्थव्यवस्था अपनानी होगी। कपास की पैदावार बढती है, तो कपडा उघोग बढ़ता है। जूट की पैदावार बढेगी तो जूट उघोग बढेगा। चीनी,खाने के तेल का उत्पादन,घी, बीडी, सरीखे सैकडो ऐसे उघोग है जो कृषि पर टिके है ।
राहुल की जिस थ्योरी को जनादेश मिला है उसमें देश की वर्तमान स्थिति पर सवालिया निशान लगाना भी है। क्योकि मनमोहनोमिक्स तले जो बेकारी, असमानता , गैरबराबरी बढ़ती गयी है, उससे समाज के भीतर आर्थिक कुंठा की स्थिति भी पैदा हुई है। इससे विकास भी रुका है और गतिरोध की स्थिति में कई ऐसे बुरे नतीजे भी निकले हैं, जो राहुल की राजनीति में भी दुबारा सेंध लगा सकते हैं। समाज के अंदर विभिन्न वर्ग है, आर्थिक विभाग है,धार्मिक अल्पसंख्यक गुट है और खास कर के प्रादेशिक और भाषिक गुट है, इनमें तनाव बहुत तेजी से बढ़ा है।
सवाल यह नहीं है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था सिर्फ आर्थिक खुशहाली के जरीये समाधान देखती है। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की थ्योरी भी आर्थिक समृद्दि के जरीये सामाजिक, भाषिक, धार्मिक, राष्ट्रीय जैसे सारे सवालो का हल देख रही है । असल में राहुल की थ्योरी लागू हो जाये तो इन सवालो को सुलझाना आसान हो जायेगा। अन्यथा आर्थिक तनाव इतने ज्यादा हैं कि आंदोलन की राह पर हर तबका चल पड़ेगा और जिस जनादेश ने कांग्रेस को राजनीतिक राहत दी है, पांच साल बाद फिर बंदर बांट की राजनीति शुरु हो जायेगी । सवाल है कि अगर वाकई न्याय और सुशासन की हिमम्त राहुल को मिली है तो उसी कांग्रेस को उस भूमि सुधार के मुद्दे को छूना होगा, जिससे नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी तक ने परहेज किया। राहुल को भूमि-धारण सीमा के कानून को, वितरण के कानून को लागू करने की इच्छा शक्ति दिखानी होगी। जमींदारो का प्रभाव अभी भी अदालतो पर है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। राजनीति के सामानातंर अदालते भी पहल करें तो संपत्ति के प्रति मोह और पूंजीपरस्त वातावरण का वह मिथ टूट सकता है, जिसमें सत्ता और सरकार चलाने या डिगाने के पीछे पूंजी की सोच रेंगती रहती है। राजनीति ने तो हिम्मत नहीं दिखायी लेकिन जनादेश ने अर्से बाद यह महसूस कराया कि कारपोरेट सेक्टर की पूंजी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार कह तो सकती है, लेकिन बनाना उसी जनता के हाथ में है, जो सरकार की कारपोरेट नीतियो की मार तले दबा जा रहा है।
सवाल है फिल्म दीवार में तो न्याय की बात करने वाले शशिकपूर को मेडल दे कर पोयेटिक जस्टिस किया गया लेकिन वहां अमिताभ की मौत में मां की हार भी छुपी रही। वहीं, कांग्रेस में सोनिया का संकट यही है कि जबतक मनमोहन की नीतियां हैं तभी तक राहुल गांधी के पोयटिक जस्टिस के सवाल हैं। ऐसे में राहुल जिस दिन कमान थामेंगे, उस दिन सोनिया जीत कर हारेंगी या हार कर जीतेंगी यह राहुल के अब के कामकाज पर टिका है, जिस पर जनता की बडी पैनी निगाह है।
कांग्रेस को लेकर जनादेश के डायलॉग भी कुछ इसी तरह की एक नयी राजनीति गढ़ रहे हैं। जिसमें मनमोहन और राहुल गांधी के कामकाज के रास्ते अलग अलग हैं। मनमोहन उस अर्थव्यवस्था से समाज को विकसित बनाने निकले हैं, जिसमें देश के भीतर दो देश बनने ही हैं। वहीं, राहुल देश के भीतर चौड़ी होती इस खाई को पाटना चाहते हैं। वह न्याय और सुशासन का ऐसा मेल राजनीति में चाहते हैं, जहां चकाचौंध से पहले सबका पेट भरा हुआ हो। और सोनिया राहुल को हिम्मत दे रही हैं।
मनमोहन, राहुल और सोनिया गांधी की इस राजनीति को पांच साल के कामकाज के बाद ही ऐसी सफलता मिलेगी, यह उन राजनीतिक दलो ने सोचा भी न था जो मंडल-कमंडल के फार्मूले तले सत्ता की मलाई पिछले बीस साल से चखते रहे। असल में राहुल न्याय और सुशासन के जरिये जिस अलोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल उठा रहे हैं, वह मनमोहन की राजनीति का ही किया-धरा है। कह सकते है- पैसे से पैसा बनाने के मनमोहनोमिक्स के सामानांतर राहुल की रोजी रोटी की इमानदारी को कुछ इस तरीके से खड़ा किया गया है, जो बीस साल के फार्मूले को तोड़ सकती है।
सवाल यह नही है कि इस बार चुनाव में जनादेश के जरिये वोटर ने ही राजनीतिक दलों की उस मुश्किल को आसान कर दिया जो गठबंधन के दौर में सौदेबाजी दर सौदेबाजी में उलझती जा रही थी। और हर राजनीतिक दल मुश्किल के दौर में हाथ खड़ा कर संसदीय राजनीति की त्रासदी भरी वर्तमान स्थिति का आईना सभी को दिखाता रहा। दरअसल, इस दौर में पहली बार कांग्रेस के भीतर ही उस राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयास शुरु हुआ, जिसमें कांग्रेस के महज बड़ी पार्टी होने भर का मिथ टूटे और एकला चलो की रणनीति का राजनीतिक प्रयोग सफल हो। लेकिन सत्ता तक पहुंचने और सत्ता चलाने की चुनौती अब उसी दो राहे पर कांग्रेस को खड़ा करेगी, जैसे अमिताभ को अंडरवर्ल्ड की कुर्सी ऐसे वक्त मिलती है, जब शशिकपूर को पुलिस की नौकरी इधर उधर भटकने और दर दर नौकरी के लिये ठोंकरे खाने के बाद मिलती है । मनमोहन सिंह की जीत उस अनिश्चय भरे माहौल से निजात पाने वालों को सुकून दे रही है, जो आर्थिक मंदी के दौर में लगातार सबकुछ गंवाते हुये समझ ही नहीं पा रहे थे कि राजनीति का उलटफेर उन्हें खुदकुशी की तरफ न ले जाये । उसपर वामपंथियो की हार ने उन्हे उल्लास से भर दिया। वजह भी यही है कि जनादेश के बाद सोमवार को जब शेयर बाजार खुला तो एक मिनट में तीन हजार करोड के वारे-न्यारे का लाभ छह लाख करोड रुपये तक जा पहुंचा।
जाहिर है यह सलामी मनमोहनोमिक्स को है, लेकिन यह चकाचौंध राहुल की राजनीति के लिये टीस भी है। राजनीतिक तौर पर जो प्राथमिकता मनमोहन सिंह की है, उसी पर तिरछी रेखा की तरह राहुल की प्राथमिकता उभरती है। मनमोहन सिंह को मंदी का डर लोगों के जहन से निकालना है। सरकारी पूंजी के जरीये बेल-आउट की व्यवस्था पहले करनी है फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर की मजबूती का सवाल उठाकर उन सेक्टरों को मजबूती देनी है, जो मंदी की मार से निढाल हैं। अंतराष्ट्रीय बाजार से आहत निर्यात करने वालो के मुनाफे को देश के भीतर की अर्थव्यवस्था से भी जोड़ना है और बीपोओ से लेकर रोजगार की उसी लकीर को मजबूत करते हुये दिखाना-बताना है, जिससे राहुल के चकाचौंध युवा तबके का सपना बरकरार रहे। इन सवालो में आंतरिक सुरक्षा से लेकर शेयर बाजार की गारंटी सुरक्षा का ढांचा भी खड़े करना है, जिससे लचीली अर्थव्यवस्था की मजबूती नजर आने लगे।
वहीं, राहुल गांधी का राजनीतिक संवाद ठीक उसके उलट है। सरकार का पैसा आम आदमी तक बिना रोक-टोक के पहुंच जाये, इसकी व्यवस्था उन्हें पहले करनी है। इस व्यवस्था का मतलब है नौकशाही पर लगाम और सामूहिक जिम्मदारी का खांचा खड़ा करना। दूसरा सवाल दलित-पिछड़ों की रोजी रोटी के जुगाड़ से लेकर रोजगार की व्यवस्था का एक ऐसा खांका खड़ा करना है, जो नरेगा से आगे ले जाये और सामाजिक विकास में एक तबके को दूसरे तबके से जोड़ सके। यह ग्रामीण परिवेश में स्वालंबन देने सरीखा भी है। किसान को बाबुओ की फाइल से होते हुये मुख्यधारा से जोड़ना कितना मुश्किल काम है, इसका एहसास राहुल गांधी को विदर्भ में किसानों से मुलाकात में भी मिला होगा। जहां मनमोहन सरकार का राहत पैकेज किसानों को आहत ज्यादा कर गया। खुदकुशी करने वाले किसानो की संख्या में पैकेज के ऐलान के बाद इजाफा हो गया। असल में राहत के नाम पर बडे उघोगों को ही राहत मिल सकती है, जो बेल-आउट को कम होते अपने मुनाफे से जोडते हैं, जबकि किसान के लिये राहत न्यूनतम जरुरत से जुड़ा होता है, जिसके बदले राजनीति अपना लाभ साधती है। राहुल की राजनीति को इसमें सेंध लगानी है। मनमोहन की प्राथमिकता औघोगिक विकास को बढाना होगा । जिसके लिये कृर्षि अर्थव्यवस्था पर चोट होगी। खेती योग्य जमीन भी उघोगो और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये खत्म की जायेगी। जबकि राहुल की सोच को अमली जामा पहनाने के लिये खेती से औघोगिक विकास को जोड़ना होगा। कृषि उत्पादन में वृद्दि किये बगैर औघोगिक विकास संभव तो है, लेकिन इसे भारत जैसे देश में बरकरार नही रखा जा सकता है। पारंपरिक अर्थव्यवस्था अपनानी होगी। कपास की पैदावार बढती है, तो कपडा उघोग बढ़ता है। जूट की पैदावार बढेगी तो जूट उघोग बढेगा। चीनी,खाने के तेल का उत्पादन,घी, बीडी, सरीखे सैकडो ऐसे उघोग है जो कृषि पर टिके है ।
राहुल की जिस थ्योरी को जनादेश मिला है उसमें देश की वर्तमान स्थिति पर सवालिया निशान लगाना भी है। क्योकि मनमोहनोमिक्स तले जो बेकारी, असमानता , गैरबराबरी बढ़ती गयी है, उससे समाज के भीतर आर्थिक कुंठा की स्थिति भी पैदा हुई है। इससे विकास भी रुका है और गतिरोध की स्थिति में कई ऐसे बुरे नतीजे भी निकले हैं, जो राहुल की राजनीति में भी दुबारा सेंध लगा सकते हैं। समाज के अंदर विभिन्न वर्ग है, आर्थिक विभाग है,धार्मिक अल्पसंख्यक गुट है और खास कर के प्रादेशिक और भाषिक गुट है, इनमें तनाव बहुत तेजी से बढ़ा है।
सवाल यह नहीं है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था सिर्फ आर्थिक खुशहाली के जरीये समाधान देखती है। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की थ्योरी भी आर्थिक समृद्दि के जरीये सामाजिक, भाषिक, धार्मिक, राष्ट्रीय जैसे सारे सवालो का हल देख रही है । असल में राहुल की थ्योरी लागू हो जाये तो इन सवालो को सुलझाना आसान हो जायेगा। अन्यथा आर्थिक तनाव इतने ज्यादा हैं कि आंदोलन की राह पर हर तबका चल पड़ेगा और जिस जनादेश ने कांग्रेस को राजनीतिक राहत दी है, पांच साल बाद फिर बंदर बांट की राजनीति शुरु हो जायेगी । सवाल है कि अगर वाकई न्याय और सुशासन की हिमम्त राहुल को मिली है तो उसी कांग्रेस को उस भूमि सुधार के मुद्दे को छूना होगा, जिससे नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी तक ने परहेज किया। राहुल को भूमि-धारण सीमा के कानून को, वितरण के कानून को लागू करने की इच्छा शक्ति दिखानी होगी। जमींदारो का प्रभाव अभी भी अदालतो पर है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। राजनीति के सामानातंर अदालते भी पहल करें तो संपत्ति के प्रति मोह और पूंजीपरस्त वातावरण का वह मिथ टूट सकता है, जिसमें सत्ता और सरकार चलाने या डिगाने के पीछे पूंजी की सोच रेंगती रहती है। राजनीति ने तो हिम्मत नहीं दिखायी लेकिन जनादेश ने अर्से बाद यह महसूस कराया कि कारपोरेट सेक्टर की पूंजी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार कह तो सकती है, लेकिन बनाना उसी जनता के हाथ में है, जो सरकार की कारपोरेट नीतियो की मार तले दबा जा रहा है।
सवाल है फिल्म दीवार में तो न्याय की बात करने वाले शशिकपूर को मेडल दे कर पोयेटिक जस्टिस किया गया लेकिन वहां अमिताभ की मौत में मां की हार भी छुपी रही। वहीं, कांग्रेस में सोनिया का संकट यही है कि जबतक मनमोहन की नीतियां हैं तभी तक राहुल गांधी के पोयटिक जस्टिस के सवाल हैं। ऐसे में राहुल जिस दिन कमान थामेंगे, उस दिन सोनिया जीत कर हारेंगी या हार कर जीतेंगी यह राहुल के अब के कामकाज पर टिका है, जिस पर जनता की बडी पैनी निगाह है।
Wednesday, May 13, 2009
राहुल गांधी की मैराथन राजनीति में सौ मीटर की रणनीति
राहुल गांधी ने ऐसे वक्त राजनीति के तार छेड़े, जब कोई भी नेता या पार्टी अपनी राजनीतिक लीक को गाढ़ा करने पर भरोसा करता है, उसे मिटाना नहीं चाहता। चुनाव के वक्त वोट बैंक को लेकर सामाजिक समझ और अपने सहयोगियो को लेकर राजनीतिक समझ में कोई भी नेता या पार्टी दरार नहीं चाहती। लेकिन राहुल के तार ने कांग्रेस को लेकर बनायी गयी, उस राजनीतिक समझ को डिगाना चाहा है, जिसको परिभाषित करने वाले और कोई नहीं बल्कि उसके अपने ही साथी है। ऐसे साथी, जो भाजपा को राजनीतिक लकीर मान कर कांग्रेस के जरीये सेक्यूलरिज्म का अनूठा तमगा ठोंक रहे है । चुनाव के वक्त राहुल की राजनीति जब विरोधियों का गुणगान करती है, तो महज राहुल की सतही राजनीतिक समझ के दायरे में देखना भूल होगी। राहुल की राजनीतिक ट्रेनिंग को समझना होगा। राहुल उस गांधी परिवार के सदस्य हैं, जिसके साथ राजनीतिक अनुभव जैसे शब्द मायने नहीं रखते। किसी भी पद से बड़ी गांधी परिवार की परछाई है जो राजनीति को अपनी आगोश में ले ही लेती है।
इसलिये, राहुल के साथ राजनीति करने से ज्यादा बड़ा सत्य प्रधानमंत्री होना जुड़ा है । क्योंकि भारतीय राजनीति में कांग्रेस खारिज हो नहीं सकती। लेकिन जिस दौर या कहें जिन मुद्दो के आसरे कांग्रेस को लेकर सवालिया निशान राजनीति में उठे, उसके कटघरे में भी सबसे पहले गांधी परिवार ही आया। राहुल गांधी की उम्र जब वोट डालने लायक हुई, संयोग से उसी साल राजीव गांधी पर भष्ट्राचार का आरोप उनके अपने ही वित्त मंत्री वीपी सिंह ने जड़ा था । 1988 में जिस बोफोर्स घोटाले के आसरे वीपी सिंह ने राजीव गींधी के खिलाफ देशव्यापी राजनीतिक मुहिम छेडी । उसका असर सिर्फ 1989 में राजीव की दो तिहायी बहुमत वाली सरकार का भरभराकर गिरना भर नही था, बल्कि गांधी परिवार पर भष्ट्राचार का धब्बा लगना था।
हो सकता है कि उस वक्त राहुल गांधी के दिमाग में यह सवाल उठा हो कि किसी सरकार में प्रधानमंत्री भष्ट्र हो और वित्त मंत्री बेदाग हो, यह कैसे हो सकता है । राहुल ने पहली बार 1989 में ही वोट डाला होगा । लेकिन उसी चुनाव परिणाम के बाद गठबंधन की अनूठी राजनीति राहुल की समझ में आयी होगी, जब वीपी सिंह को उस भाजपा का समर्थन मिला, जिसके खिलाफ चुनाव में जमकर राजनीतिक पींगे वीपी ने दिखायी । कांग्रेस के लिये यह साल बिहार को लेकर भी खासा महत्वपूर्ण रहा, जहां भागलपुर दंगों के बाद लालूयादव की राजनीति को सहारा देने के लिये कांग्रेस को आगे आना पड़ा और उसके बाद वही बिहार कांग्रेस के लिये दूर की कौड़ी बनता चला गया, जहां कभी कांग्रेस के दिग्गजों ने इंदिरा गांधी तक को हड़काया।
वोट का अधिकार मिलने के बाद अगर राजनीतिक समझ वोटरो में आ जाती है, जैसा अब के दौर में चुनाव आयोग वोट को वोटर की ताकत से जोड़ कर राजनीतिक समझ आने की बात कर रहा है, तो राहुल गांधी में निश्चित तौर पर राजनीतिक समझ उस दौर में विकसित हो चुकी होगी । बीस साल पहले 19 साल के राहुल अगर राजनीति समझ रहे होगे तो वीपी,लालू ही नहीं पचास से भी कम सांसदो के समर्थन वाले चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने और सरकार गिरने की वजहो की राजनीति को भी समझ रहे रहे होगे। मंडल की आग में धू-धू कर जलते कांग्रेस के वोट बैक को भी देख रहे होंगे और कमंडल के जरीये भाजपा की राजनीति में मौलाना होते क्षेत्रिय दलों के नेताओं का राजनीतिक चरित्र भी देख रहे होंगे ।
इसी दौर में शरद पवार का कांग्रेस की जमीन पर सेंध लगाकर अपना राजनीतिक प्रबंधन खड़ा करना भी राहुल ने देखा समझा होगा । राहुल गांधी के यह सारे एहसास 1991 में कही ज्यादा गहरे हुये होंगे, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने खुद को घर में बंद कर लिया होगा । हो सकता है राजीव गांधी की हत्या से उठे भावनात्मक वोट की जमीन पर बनी नरसिंह राव सरकार के दौर में राहुल ने हर क्षण यही महसूस किया हो कि राजनीतिक सत्ता मुद्दों से नहीं भावनाओं से चलती है । उसी दौर में बाबरी मस्जिद का सवाल अयोध्या के राम मंदिर के नारे तले भवनाओं का ऐसा आतंक खडा कर सकता है, जिसके तले देश की राजनीति न सिर्फ बंट जाये बल्कि सत्ता भी दिला दे, यह एहसास राहुल के लिये कांग्रेस से ज्यादा देश को समझने वाला हो।
जाहिर है 19 से 39 साल के दौरान यानी बीस सालों तक जिस शख्स के सामने यह सारे राजनीतिक दृश्य घूमते रहे होंगे और वह शख्स यह समझ रहा हो कि उसे एक न एक दिन राजनीतिक पटल पर अपनी भूमिका निभाने के लिये आना ही होगा तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी । राहुल गांधी की राजनीतिक समझ को परिभाषित करना मुश्किल इसलिये भी है, क्योकि जो राजनीतिक किरदार अभी मंच पर अपनी भूमिका निभा रहे हैं, वह उस बीस साल के दौर की उपज है, जिसे राहुल गांधी अपने लिये फिट नहीं मानते हैं। इसका दूसरा जबाब यह भी हो सकता है कि जो राजनीति बीस साल से चली आ रही है, उसमें राहुल गांधी भी फिट नहीं बैठते है। जाहिर है यही से राहुल गांधी की असल राजनीति शुरु होती है, जिसमें टकराव के बाद चुनाव परिणाम चाहिये । इस राजनीति में बिहार या उत्तर प्रदेश या फिर महाराष्ट्र में कांग्रेस के लिये जमीन बनाना भर नहीं है । बल्कि उस राजनीति से टकराना है, जिसे लालू यादव,मुलायम यादव या शरद पवार ने शह दी है। यहां राहुल की राजनीतिक समझ सतही लग सकती है क्योंकि पिछडे वर्ग की राजनीति के चैम्पियन होने के बावजूद मुलायम , मायावती और लालू क्रमश लोहियावादी, अंबेडकरवादी और मध्यमार्गी पिछड़ा वर्ग राजनीति के सिरों पर खडे हुये है। लेकिन राहुल की हिम्मत की वजह अंबेडकरवादी मायावती की वह सोशल इंजिनियरिंग है, जिसे अंबेडकर ने जीते जी दलितो के खिलाफ माना, लेकिन मायावती ने उसे सत्ता का सफल समीकरण करके दिखा दिया।
वहीं लोहियावादी मुलायम उसी कल्याण की थ्योरी को अपने घेरे में आजमाने लगे, जिसे कल्याण सांप्रदायिकता की राजनीति के जरीये पिछडे वर्गो और सवर्णो के गठजोड की अपील करते। मुलायम उसे मुसिलम-यादव-लोघ में जोड़ने मे जुटते । वही लालू यादव की थ्योरी यादव-पासवान-मुसलमान के रंग में कांग्रेस को धमकाने से नहीं कतराते। इस दौर में ठाकरे ब्राह्ममणवाद विरोधी हिन्दुत्वादी के तौर पर खुद को जमाते हैं, जो जयललिता द्रविड राजनीति और तमिल फिल्मो के संयोग पर टिकती हैं।
लेकिन इन नेताओ की चमक के पीछे सत्ता और आर्थिक लाभ उन तबकों और जातियो तक भी पहुंचना भी है, जो आजादी के बाद सामाजिक श्रेणी में पहले से जमी बैठी जातियो तक ही सीमित थीं। राहुल गांधी की राजनीतिक समझ यानी 1989 से पहले जो दलित या गैर ब्रह्मण नेता उभरे भी वह अपने अपने तबके में अपेक्षाकृत संपन्न पृष्ठभूमि वाले ही थे। मसलन जगजीवन राम हो या चरण सिंह । खास बात े भी है कि उस दौर में इस तरह के नेताओ में जुझारु जाति चेतना थी भी नहीं और ये जाति चेतना को राष्ट निर्माण के खिलाफ भी मानते थे। कह सकते है कि उस दौर में सेक्यूलर अथवा धर्म-जाति निरपेक्ष समाज की परिकल्पना में ही सभी जीते थे ।
इसीलिये गांधी परिवार के लिये नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में वह संकट नहीं आया जो राहुल गांधी के सामने है । मसला सिर्फ इतना नही है कि महाराष्ट्र में ब्राह्ममण बनाम गैर ब्राह्मण के बदले मराठा बनाम महार और गुजरात में बनिया बनाम ब्रह्ममण की जगह पट्टीदार बनाम क्षेत्रिय शुरु हो गया। असल में संकट कहीं गहरा इसलिये है क्योकि राहुल गांधी के दौर में सत्ता की आकांक्षा और आर्थिक लाभों की मांग उपलब्ध संसधानो से कहीं ज्यादा हो चुकी है। कांग्रेस इस राजनीति में चूकी इसलिये भी जाति समूह के भीतर भी स्पर्धा शुरु हुई है, जिसमें राहुल जातिगत राजनीतिक उम्मदवारो के जरीये तो सेंध लगा सकते है लेकिन जाति समूहो की अगुवाई संभव नहीं है। कह सकते है कि जातिगत स्पर्धा भी है, जो राहुल की राजनीति को फिट बैठने नहीं देगी।
जाहिर है राहुल जिस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिये तार छेड़ रहे हैं, उसमें नेहरु से इंदिरा युग की याद भी आ सकती है, जिसमें नेताओ की छवि चमकदार, आमतौर पर इमानदार, विवादो से परे, और राजनीति से उपर उठकर राष्ट्र निर्माण की चिंताओ में खोये रहने रहने वाले थी। आजादी के बाद की इस राजनीति को अपना चक्र पूरा करने में करीब चालीस साल लग गये । लेकिन अब राहुल इसके संकेत देना चाह रहे हैं कि राजनीति का दूसरा चरण जो 1989 में शुरु हुआ, उसका चक्र 2009 में यानी बीस साल में पूरा हो चुका है । लेकिन सवाल है कि वंशवाद जब कांग्रेस से निकलकर हर पार्टी का मूलमंत्र बन चुका हो । गांधीवादी प्रयोग अपनी सार्थकता खो चुका हो । मार्क्सवादी खुद ही क्रांति की बातों से बोर हो चुके हो । और राष्ट्रीय पार्टियां आंकडों के खेल में कथित बन चुकी हों, तब राहुल के राजनीतिक तार में से कौन सा संगीत निकलेगा, यह भविष्य नहीं वर्तमान में मौजूद है, जिसमें राहुल मैराथन दौडते हुये सौ मीटर की रणनीति अपनाते हैं, और कांग्रेस सौ मीटर दौड़ने के लिये मैराथन की रणनीति अपनाना चाहती है ।
इसलिये, राहुल के साथ राजनीति करने से ज्यादा बड़ा सत्य प्रधानमंत्री होना जुड़ा है । क्योंकि भारतीय राजनीति में कांग्रेस खारिज हो नहीं सकती। लेकिन जिस दौर या कहें जिन मुद्दो के आसरे कांग्रेस को लेकर सवालिया निशान राजनीति में उठे, उसके कटघरे में भी सबसे पहले गांधी परिवार ही आया। राहुल गांधी की उम्र जब वोट डालने लायक हुई, संयोग से उसी साल राजीव गांधी पर भष्ट्राचार का आरोप उनके अपने ही वित्त मंत्री वीपी सिंह ने जड़ा था । 1988 में जिस बोफोर्स घोटाले के आसरे वीपी सिंह ने राजीव गींधी के खिलाफ देशव्यापी राजनीतिक मुहिम छेडी । उसका असर सिर्फ 1989 में राजीव की दो तिहायी बहुमत वाली सरकार का भरभराकर गिरना भर नही था, बल्कि गांधी परिवार पर भष्ट्राचार का धब्बा लगना था।
हो सकता है कि उस वक्त राहुल गांधी के दिमाग में यह सवाल उठा हो कि किसी सरकार में प्रधानमंत्री भष्ट्र हो और वित्त मंत्री बेदाग हो, यह कैसे हो सकता है । राहुल ने पहली बार 1989 में ही वोट डाला होगा । लेकिन उसी चुनाव परिणाम के बाद गठबंधन की अनूठी राजनीति राहुल की समझ में आयी होगी, जब वीपी सिंह को उस भाजपा का समर्थन मिला, जिसके खिलाफ चुनाव में जमकर राजनीतिक पींगे वीपी ने दिखायी । कांग्रेस के लिये यह साल बिहार को लेकर भी खासा महत्वपूर्ण रहा, जहां भागलपुर दंगों के बाद लालूयादव की राजनीति को सहारा देने के लिये कांग्रेस को आगे आना पड़ा और उसके बाद वही बिहार कांग्रेस के लिये दूर की कौड़ी बनता चला गया, जहां कभी कांग्रेस के दिग्गजों ने इंदिरा गांधी तक को हड़काया।
वोट का अधिकार मिलने के बाद अगर राजनीतिक समझ वोटरो में आ जाती है, जैसा अब के दौर में चुनाव आयोग वोट को वोटर की ताकत से जोड़ कर राजनीतिक समझ आने की बात कर रहा है, तो राहुल गांधी में निश्चित तौर पर राजनीतिक समझ उस दौर में विकसित हो चुकी होगी । बीस साल पहले 19 साल के राहुल अगर राजनीति समझ रहे होगे तो वीपी,लालू ही नहीं पचास से भी कम सांसदो के समर्थन वाले चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने और सरकार गिरने की वजहो की राजनीति को भी समझ रहे रहे होगे। मंडल की आग में धू-धू कर जलते कांग्रेस के वोट बैक को भी देख रहे होंगे और कमंडल के जरीये भाजपा की राजनीति में मौलाना होते क्षेत्रिय दलों के नेताओं का राजनीतिक चरित्र भी देख रहे होंगे ।
इसी दौर में शरद पवार का कांग्रेस की जमीन पर सेंध लगाकर अपना राजनीतिक प्रबंधन खड़ा करना भी राहुल ने देखा समझा होगा । राहुल गांधी के यह सारे एहसास 1991 में कही ज्यादा गहरे हुये होंगे, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने खुद को घर में बंद कर लिया होगा । हो सकता है राजीव गांधी की हत्या से उठे भावनात्मक वोट की जमीन पर बनी नरसिंह राव सरकार के दौर में राहुल ने हर क्षण यही महसूस किया हो कि राजनीतिक सत्ता मुद्दों से नहीं भावनाओं से चलती है । उसी दौर में बाबरी मस्जिद का सवाल अयोध्या के राम मंदिर के नारे तले भवनाओं का ऐसा आतंक खडा कर सकता है, जिसके तले देश की राजनीति न सिर्फ बंट जाये बल्कि सत्ता भी दिला दे, यह एहसास राहुल के लिये कांग्रेस से ज्यादा देश को समझने वाला हो।
जाहिर है 19 से 39 साल के दौरान यानी बीस सालों तक जिस शख्स के सामने यह सारे राजनीतिक दृश्य घूमते रहे होंगे और वह शख्स यह समझ रहा हो कि उसे एक न एक दिन राजनीतिक पटल पर अपनी भूमिका निभाने के लिये आना ही होगा तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी । राहुल गांधी की राजनीतिक समझ को परिभाषित करना मुश्किल इसलिये भी है, क्योकि जो राजनीतिक किरदार अभी मंच पर अपनी भूमिका निभा रहे हैं, वह उस बीस साल के दौर की उपज है, जिसे राहुल गांधी अपने लिये फिट नहीं मानते हैं। इसका दूसरा जबाब यह भी हो सकता है कि जो राजनीति बीस साल से चली आ रही है, उसमें राहुल गांधी भी फिट नहीं बैठते है। जाहिर है यही से राहुल गांधी की असल राजनीति शुरु होती है, जिसमें टकराव के बाद चुनाव परिणाम चाहिये । इस राजनीति में बिहार या उत्तर प्रदेश या फिर महाराष्ट्र में कांग्रेस के लिये जमीन बनाना भर नहीं है । बल्कि उस राजनीति से टकराना है, जिसे लालू यादव,मुलायम यादव या शरद पवार ने शह दी है। यहां राहुल की राजनीतिक समझ सतही लग सकती है क्योंकि पिछडे वर्ग की राजनीति के चैम्पियन होने के बावजूद मुलायम , मायावती और लालू क्रमश लोहियावादी, अंबेडकरवादी और मध्यमार्गी पिछड़ा वर्ग राजनीति के सिरों पर खडे हुये है। लेकिन राहुल की हिम्मत की वजह अंबेडकरवादी मायावती की वह सोशल इंजिनियरिंग है, जिसे अंबेडकर ने जीते जी दलितो के खिलाफ माना, लेकिन मायावती ने उसे सत्ता का सफल समीकरण करके दिखा दिया।
वहीं लोहियावादी मुलायम उसी कल्याण की थ्योरी को अपने घेरे में आजमाने लगे, जिसे कल्याण सांप्रदायिकता की राजनीति के जरीये पिछडे वर्गो और सवर्णो के गठजोड की अपील करते। मुलायम उसे मुसिलम-यादव-लोघ में जोड़ने मे जुटते । वही लालू यादव की थ्योरी यादव-पासवान-मुसलमान के रंग में कांग्रेस को धमकाने से नहीं कतराते। इस दौर में ठाकरे ब्राह्ममणवाद विरोधी हिन्दुत्वादी के तौर पर खुद को जमाते हैं, जो जयललिता द्रविड राजनीति और तमिल फिल्मो के संयोग पर टिकती हैं।
लेकिन इन नेताओ की चमक के पीछे सत्ता और आर्थिक लाभ उन तबकों और जातियो तक भी पहुंचना भी है, जो आजादी के बाद सामाजिक श्रेणी में पहले से जमी बैठी जातियो तक ही सीमित थीं। राहुल गांधी की राजनीतिक समझ यानी 1989 से पहले जो दलित या गैर ब्रह्मण नेता उभरे भी वह अपने अपने तबके में अपेक्षाकृत संपन्न पृष्ठभूमि वाले ही थे। मसलन जगजीवन राम हो या चरण सिंह । खास बात े भी है कि उस दौर में इस तरह के नेताओ में जुझारु जाति चेतना थी भी नहीं और ये जाति चेतना को राष्ट निर्माण के खिलाफ भी मानते थे। कह सकते है कि उस दौर में सेक्यूलर अथवा धर्म-जाति निरपेक्ष समाज की परिकल्पना में ही सभी जीते थे ।
इसीलिये गांधी परिवार के लिये नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में वह संकट नहीं आया जो राहुल गांधी के सामने है । मसला सिर्फ इतना नही है कि महाराष्ट्र में ब्राह्ममण बनाम गैर ब्राह्मण के बदले मराठा बनाम महार और गुजरात में बनिया बनाम ब्रह्ममण की जगह पट्टीदार बनाम क्षेत्रिय शुरु हो गया। असल में संकट कहीं गहरा इसलिये है क्योकि राहुल गांधी के दौर में सत्ता की आकांक्षा और आर्थिक लाभों की मांग उपलब्ध संसधानो से कहीं ज्यादा हो चुकी है। कांग्रेस इस राजनीति में चूकी इसलिये भी जाति समूह के भीतर भी स्पर्धा शुरु हुई है, जिसमें राहुल जातिगत राजनीतिक उम्मदवारो के जरीये तो सेंध लगा सकते है लेकिन जाति समूहो की अगुवाई संभव नहीं है। कह सकते है कि जातिगत स्पर्धा भी है, जो राहुल की राजनीति को फिट बैठने नहीं देगी।
जाहिर है राहुल जिस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिये तार छेड़ रहे हैं, उसमें नेहरु से इंदिरा युग की याद भी आ सकती है, जिसमें नेताओ की छवि चमकदार, आमतौर पर इमानदार, विवादो से परे, और राजनीति से उपर उठकर राष्ट्र निर्माण की चिंताओ में खोये रहने रहने वाले थी। आजादी के बाद की इस राजनीति को अपना चक्र पूरा करने में करीब चालीस साल लग गये । लेकिन अब राहुल इसके संकेत देना चाह रहे हैं कि राजनीति का दूसरा चरण जो 1989 में शुरु हुआ, उसका चक्र 2009 में यानी बीस साल में पूरा हो चुका है । लेकिन सवाल है कि वंशवाद जब कांग्रेस से निकलकर हर पार्टी का मूलमंत्र बन चुका हो । गांधीवादी प्रयोग अपनी सार्थकता खो चुका हो । मार्क्सवादी खुद ही क्रांति की बातों से बोर हो चुके हो । और राष्ट्रीय पार्टियां आंकडों के खेल में कथित बन चुकी हों, तब राहुल के राजनीतिक तार में से कौन सा संगीत निकलेगा, यह भविष्य नहीं वर्तमान में मौजूद है, जिसमें राहुल मैराथन दौडते हुये सौ मीटर की रणनीति अपनाते हैं, और कांग्रेस सौ मीटर दौड़ने के लिये मैराथन की रणनीति अपनाना चाहती है ।
Saturday, May 9, 2009
मोदी पर एसिड़ टेस्ट का वक्त आ गया है
गुजरात दंगों की सुनवायी गुजरात में ही कराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से किसी की आंखो में सबसे ज्यादा चमक आयी होगी तो वह नरेन्द्र मोदी ही होंगे । दंगों के बाद मोदी ने जिस तरह समाज में खिंची लकीर का राजनीतिकरण किया, उसमें चुनावी जीत बीजेपी को नहीं मोदी को मिली। सात साल में मोदी ने जिस गुजरात की अस्मिता को हवा दी, उसमें मोदी की पहचान राष्ट्रीय नेता की जगह एक ऐसे कद्दावर क्षेत्रिय नेता के तौर पर उभरी, जिसके बगैर बीजेपी अधूरी है। बीजेपी के इसी अधूरेपन का लाभ मोदी को मिला और अपनी बनायी राजनीतिक जमीन पर ही मोदी ने सारे प्रयोग किये । इसलिये मोदी का कोई प्रयोग गुजरात की सीमा के बाहर नहीं निकला।
राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का प्रयोग उस एनडीए के भीतर भी स्वीकार नहीं हुआ, जिसकी अगुवाई बीजेपी कर रही है। यानी मोदी सफल और चपल नेता अगर दिखे तो गुजरात के भीतर ही। मोदी के इसी मोदीत्व ने कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन की तरह काम किया। मोदी का ऑक्सीजन सिलेन्डर कांग्रेस को 28 फरवरी 2002 को मिला। इससे पहले के दस साल में कांग्रेस के लिये लालकृष्ण आडवाणी का राम मंदिर प्रेम ऑक्सीजन की तरह काम कर रहा था। 1992 से 2002 तक बाबरी मस्जिद-अयोध्या की राजनीति ने कांग्रेस-बीजेपी के जरिए समाज के भीतर जो लकीर खींची. उसमें सत्ता किसी को भी मिली लेकिन नुकसान दोश को ही उठाना पड़ा। मगर 2002 को गुजरात में जो हुआ उस लकीर को गुजरात से उठाकर देश के भीतर खींचने का राजनीतिक प्रयास चौतरफा हुआ।
दंगो का सकारात्मक-नकारात्मक लाभ राजनीति ने जी भर के उठाया लेकिन नायक -खलनायक की तस्वीर नरेन्द्र मोदी के ही साथ जुड़ी। कह सकते हैं मोदी चाहते भी यही होंगे । लेकिन जिस तरह आडवाणी ने जिन्ना प्रकरण के जरिए संघ परिवार को झटका देकर खुद को उस राष्ट्रीय राजनीति में मान्य कराने की पहल शुरु की, वो वाजपेयी की जगह भरने की जद्दोजहद थी, जो वाजपेयी के दौर में आडवाणी को असल चेहरा माने हुये थी। ऐसे में सवाल उठा कि क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी मोदी को गुजरात की सीमा से बाहर स्थापित होने का जरीया तो नहीं बनेगा। देश की कमान संभालने के लिये जो राष्ट्रीय राजनीति देश में चल निकली है, उसमें कांग्रेस को बीजेपी के भीतर कट्टर हिन्दुत्व का एक ऐसा चेहरा चाहिये ही, जिसके मुंह में खून लगा हुआ हो। वहीं बीजेपी को अपने भीतर ऐसा कोई नेता चाहिये ही, जो संगठन को जयश्रीराम के नारे तले जोड़े लेकिन गठबंधन के सामने उसका चेहरा श्रीमान वाला ही हो।
जिस वक्त लोहिया गैर कांग्रेसवाद का नारा लगा रहे थे, उस वक्त जनसंघ में दीनदयाल उपाध्याय ऐसा ही चेहरा थे। इसलिये 1963 के उपचुनाव में लोहिया ने जनसंघ के दीनदयाल जी को जौनपुर से लड़वाया । उस दौर में बलराज मधोक कट्टर चेहरा थे। लेकिन जब मधोक सॉफ्ट हुये तो उस समय वाजपेयी का चेहरा कट्टर हो चुका था । लेकिन जेपी के दौर में वाजपेयी ने राष्ट्रीय राजनीति की लकीर को पकड़ा और सॉफ्ट होते गये तो आडवाणी कट्टर चेहरे के तौर पर उभरे। लेकिन वाजपेयी काल खत्म होते ही आडवाणी को मोदी सरीखा चेहरा मिल गया तो श्रीमान का मुखौटा खुद-ब-खुद आडवाणी के चेहरे पर लग गया।
लेकिन गुजरात दंगों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक साथ कई अंतर्विरोध को उभार दिया है। मोदी का सबसे बडा संकट यही रहा है कि गुजरात के विकास मॉडल से लेकर आंतकवाद के खिलाफ उनकी आवाज में दंगों की गूंज कुछ इस तरह समायी रही कि गुजरात में वह तानाशाह लगे तो गुजरात से बाहर अलोकतांत्रिक नेता। यानी हर प्रयोग के पीछे दंगों के दर्द पर सत्ता का आंतक ही उभरा। जिस लोकतांत्रिक मूल्यों की बात संसदीय राजनीति करती है, उसमें मोदीत्व ने कील ठोंक कर एहसास कराया कि मूल्यो को पालने का मतलब अपना राजनीतिक जनाजा उठाना है। लेकिन अब गुजरात में दंगों की सुनवायी फास्ट ट्रैक अदालतों में शुरु होते ही अगर यह राजनीतिक संकेत मिलने लगें कि मुक्तभोगियों को न्याय मिल रहा है। तो क्या नरेन्द्र मोदी का चेहरा बदलने लगेगा। पांच करोड़ गुजरातियों में अल्पसंख्यकों के लिये भी न्याय मौजूद है, अगर संवाद दिल्ली तक होता है तो कांग्रेस को ऑक्सीजन कहां से मिलेगा। कांग्रेस के लिये मोदी सरीखा ऑक्सीजन कितना जरुरी है, यह गुलबर्गा सोसायटी में कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी समेत 70 लोगो के मामले तले देखा जा सकता है। जिस पर पुलिस ने कभी मुकदमा दर्ज नहीं किया और कांग्रेस ने कभी मुकदमा दर्ज कराने की पहल नहीं की।
सोनिया गांधी इस दौर में तीन बार अहमदाबाद के इस इलाके में गयीं, लेकिन कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी से उसके घर पर जाकर मिलने की जरुरत नहीं समझी। कांग्रेस का सॉफ्ट हिन्दुत्व इससे डगमगा सकता था। इसे कांग्रेस के सलाहकारो ने समझा। लेकिन एसआईटी की रिपोर्ट ने ही जब गुजरात में न्याय न मिल पाने के तर्क को खारिज किया तो सवाल फिर उसी राजनीतिक ऑक्सीजन का उठा, जो मोदी के जरिए कांग्रेस को मिलता। ऐसे में सिटिजन फॉर जस्टिस ऐंड पीस ने जाकिया जाफरी के जरीये गुलबर्गा सोसायटी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की, जिससे मोदी एक बार फिर संदेह के घेरे में आ गये। यानी गुलबर्गा को लेकर संदेह और गुजरात में न्याय मिलने को लेकर लाभ की गोधारी लकीर मोदी को लेकर चार दिनो के बीतर उभर गयी। असल में राजनीति का यही अंतर्विरोध कांग्रेस को भी चाहिये और बीजेपी को भी । क्योकि मोदी की पहल दंगों के बाद गुजरात में जो रही, उसमें कांग्रेस-बीजेपी दोनो ने निर्णय कभी नहीं दिया। दोनों ने मोदीत्व का खेल ही खेला।
सवाल है कि जिस तर्ज पर सैकडों मंदिरो को अपने काल में ही गिरा कर सड़क चौड़ी और शहर खूबसूरत बनाने की प्रक्रिया मोदी ने शुरु की, क्या उसी अंदाज में दंगाइयों को सजा दिलाने की दिशा में मोदी बढ़ पाएंगे । जब सडक़ों के किनारे के मंदिर गिराये जा रहे थे तो विश्व हिन्दु परिषद समेत तमाम हिन्दुवादी संगठनो में खासा आक्रोष था। इसकी शिकायत आरएसएस से भी हुई । मोदी को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। लेकिन उस दौर में संघ के भीतर भी खटपट कहीं ज्यादा थी और मोदी का कद गुजरात में बीजेपी से कही बड़ा हो चुका था, इसलिये उन्हे कोई छू न सका लेकिन उस दौर में कांग्रेस खामोश रही। मोदी की वजह से बीजेपी छोड़ कांग्रेस में आये शंकर सिंह बधेला भी चौंके थे कि मंदिर कैसे गिर रहे हैं। उन्हें कहना पड़ा कि मोदी बिल्डरों और कोरपोरेट की सुविधा-असुविधा देख रहे हैं।
सवाल है क्या दंगो पर न्याय की तलवार अगर मोदी चलवाने में मदद करते है तो कांग्रेस फिर खामोश रहेगी या वह कट्टर हिन्दुत्व को उकसायेगी । जिससे उसे राजनीतिक ऑक्सीजन मिलती रहे । मोदी यह कर नहीं सकते है, इसे कोई भी कांग्रेसी खुल कर कह सकता है। लेकिन मोदी की खुद पर की गयी पहल पर गौर करे तो कई सवालो के जबाब खुद-ब-खुद मिलेंगे। मसलन 2001 में पहली बार मुख्यमंत्री की शपद लेने के बाद अपने कंधो का सहारा देकर मोदी केशुभाई पटेल को लेकर मंच पर पहुंचे थे। आज केशुभाई का नाम लेना भी मोदी के सामने किसी भी बीजेपी नेता को खुद को मुशकिल में डालने वाला साबित होगा। दंगों के बाद जिन अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राजधर्म का पाठ पढ़ने का वक्तव्य दिया, वही वाजपेयी 2002 में चुनाव में जीत के बाद मोदी के साथ मंच पर खडे होकर मोदी की पीठ थपथपा रहे थे । साथ में आडवाणी भी मंच पर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। वही मोदी जब 2007 में तीसरी बार चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो मंच पर सिर्फ वही थे। निरे अकेले । बाद में आडवाणी-राजनाथ के साथ स्टेडियम का चक्कर जरुर गाड़ी पर सवार होकर लगाया। यानी मोदी इस हकीकत को असलियत का जामा पहनाते गये कि कद तभी बढ़ सकता है, जब कदवालो को दरकिनार कर अपनी जमीन पर अपना कद मापने की व्यवस्था हो। इसलिये राजनीतिक तौर पर जो प्रयोग केन्द्र में होने थे, मोदी ने उसे गुजरात में किया।
हर उस मुद्दे को गुजरात की जमीन पर आजमाया, जो देश के सामने बड़ा होता जा रहा । मनमोहन की न्यू-इकनॉमी में वाइब्रेंट गुजरात । वामपंथियो की जनवादी कार नैनो का अपहरण । आंतकवाद के दर्द का खांटी इलाज । बिहारी और मराठी मानुस में क्षेत्रिय राजनीतिक दलों के सन आफ सॉयल की लड़ाई के बीच गुजराती अस्मिता का वैभव। यानी मोदी ने राजनीतिक काट हर तबके को दी, लेकिन सीमा गुजरात में ही बांधी रही। लेकिन इस बार सवाल कही बड़ा है । नरेन्द्र मोदी का नाम कारपोरेट जगत से लेकर उनकी अपनी पार्टी के भीतर से पीएम बनने की काबिलियत रखने वाले नेता के तौर पर उठा है। वह भी उस दौर में जब आडवाणी पीएम बनने को बेताब खड़े हैं। कांग्रेस पूंजी का नशा पैदा कर मध्यम वर्ग को डरा रही है कि मनमोहन के पीएम न बनने का मतलब है, मंदी के गर्त में डूबते चले जाना। और कम से कम आधे दर्जन दूसरे नेताओ को लगने लगा है कि राजनीतिक सौदेबाजी में चुनाव परिणाम उन्हे पीएम की कुर्सी तक पहुंचा सकते हैं।
ऐसे में नरेन्द्र मोदी को लेकर अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बीजेपी के चश्मे से ही देखा जाये कि मोदी की प्रशासनिक काबिलियत में सुप्रीम कोर्ट का भरोसा जगा है, इसलिये दंगो पर न्याय करवाने का जिम्मा सौपा गया । तो सवाल उस मोदी का ही उठेगा, जिसने भरोसा डिगाकर मोदीत्व पैदा किया और कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन का काम किया। अगर मोदी ऑक्सीजन नहीं है और बीजेपी के चश्मे के पीछे की आंख नहीं है, तो फिर मोदी की जरुरत बीजेपी या कांग्रेस को कितनी होगी। और जो चमक अभी मोदी की आंखो में दिखायी दे रही है, वह कब तक कायम रह पायेगी ।
बड़ा सवाल यही है कि इस सवाल का जबाब बीजेपी और कांग्रेस को एक सरीखा चाहिये जो पहली बार मोदीत्व तले नहीं मिल रहा । इसलिये नयी लडाई बीजेपी को कांग्रेस से भी लड़नी है और आरएसएस से भी । यह नयी लड़ाई क्या गुल खिलायेगी....कुछ इंतजार करना होगा ।
राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का प्रयोग उस एनडीए के भीतर भी स्वीकार नहीं हुआ, जिसकी अगुवाई बीजेपी कर रही है। यानी मोदी सफल और चपल नेता अगर दिखे तो गुजरात के भीतर ही। मोदी के इसी मोदीत्व ने कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन की तरह काम किया। मोदी का ऑक्सीजन सिलेन्डर कांग्रेस को 28 फरवरी 2002 को मिला। इससे पहले के दस साल में कांग्रेस के लिये लालकृष्ण आडवाणी का राम मंदिर प्रेम ऑक्सीजन की तरह काम कर रहा था। 1992 से 2002 तक बाबरी मस्जिद-अयोध्या की राजनीति ने कांग्रेस-बीजेपी के जरिए समाज के भीतर जो लकीर खींची. उसमें सत्ता किसी को भी मिली लेकिन नुकसान दोश को ही उठाना पड़ा। मगर 2002 को गुजरात में जो हुआ उस लकीर को गुजरात से उठाकर देश के भीतर खींचने का राजनीतिक प्रयास चौतरफा हुआ।
दंगो का सकारात्मक-नकारात्मक लाभ राजनीति ने जी भर के उठाया लेकिन नायक -खलनायक की तस्वीर नरेन्द्र मोदी के ही साथ जुड़ी। कह सकते हैं मोदी चाहते भी यही होंगे । लेकिन जिस तरह आडवाणी ने जिन्ना प्रकरण के जरिए संघ परिवार को झटका देकर खुद को उस राष्ट्रीय राजनीति में मान्य कराने की पहल शुरु की, वो वाजपेयी की जगह भरने की जद्दोजहद थी, जो वाजपेयी के दौर में आडवाणी को असल चेहरा माने हुये थी। ऐसे में सवाल उठा कि क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी मोदी को गुजरात की सीमा से बाहर स्थापित होने का जरीया तो नहीं बनेगा। देश की कमान संभालने के लिये जो राष्ट्रीय राजनीति देश में चल निकली है, उसमें कांग्रेस को बीजेपी के भीतर कट्टर हिन्दुत्व का एक ऐसा चेहरा चाहिये ही, जिसके मुंह में खून लगा हुआ हो। वहीं बीजेपी को अपने भीतर ऐसा कोई नेता चाहिये ही, जो संगठन को जयश्रीराम के नारे तले जोड़े लेकिन गठबंधन के सामने उसका चेहरा श्रीमान वाला ही हो।
जिस वक्त लोहिया गैर कांग्रेसवाद का नारा लगा रहे थे, उस वक्त जनसंघ में दीनदयाल उपाध्याय ऐसा ही चेहरा थे। इसलिये 1963 के उपचुनाव में लोहिया ने जनसंघ के दीनदयाल जी को जौनपुर से लड़वाया । उस दौर में बलराज मधोक कट्टर चेहरा थे। लेकिन जब मधोक सॉफ्ट हुये तो उस समय वाजपेयी का चेहरा कट्टर हो चुका था । लेकिन जेपी के दौर में वाजपेयी ने राष्ट्रीय राजनीति की लकीर को पकड़ा और सॉफ्ट होते गये तो आडवाणी कट्टर चेहरे के तौर पर उभरे। लेकिन वाजपेयी काल खत्म होते ही आडवाणी को मोदी सरीखा चेहरा मिल गया तो श्रीमान का मुखौटा खुद-ब-खुद आडवाणी के चेहरे पर लग गया।
लेकिन गुजरात दंगों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक साथ कई अंतर्विरोध को उभार दिया है। मोदी का सबसे बडा संकट यही रहा है कि गुजरात के विकास मॉडल से लेकर आंतकवाद के खिलाफ उनकी आवाज में दंगों की गूंज कुछ इस तरह समायी रही कि गुजरात में वह तानाशाह लगे तो गुजरात से बाहर अलोकतांत्रिक नेता। यानी हर प्रयोग के पीछे दंगों के दर्द पर सत्ता का आंतक ही उभरा। जिस लोकतांत्रिक मूल्यों की बात संसदीय राजनीति करती है, उसमें मोदीत्व ने कील ठोंक कर एहसास कराया कि मूल्यो को पालने का मतलब अपना राजनीतिक जनाजा उठाना है। लेकिन अब गुजरात में दंगों की सुनवायी फास्ट ट्रैक अदालतों में शुरु होते ही अगर यह राजनीतिक संकेत मिलने लगें कि मुक्तभोगियों को न्याय मिल रहा है। तो क्या नरेन्द्र मोदी का चेहरा बदलने लगेगा। पांच करोड़ गुजरातियों में अल्पसंख्यकों के लिये भी न्याय मौजूद है, अगर संवाद दिल्ली तक होता है तो कांग्रेस को ऑक्सीजन कहां से मिलेगा। कांग्रेस के लिये मोदी सरीखा ऑक्सीजन कितना जरुरी है, यह गुलबर्गा सोसायटी में कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी समेत 70 लोगो के मामले तले देखा जा सकता है। जिस पर पुलिस ने कभी मुकदमा दर्ज नहीं किया और कांग्रेस ने कभी मुकदमा दर्ज कराने की पहल नहीं की।
सोनिया गांधी इस दौर में तीन बार अहमदाबाद के इस इलाके में गयीं, लेकिन कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी से उसके घर पर जाकर मिलने की जरुरत नहीं समझी। कांग्रेस का सॉफ्ट हिन्दुत्व इससे डगमगा सकता था। इसे कांग्रेस के सलाहकारो ने समझा। लेकिन एसआईटी की रिपोर्ट ने ही जब गुजरात में न्याय न मिल पाने के तर्क को खारिज किया तो सवाल फिर उसी राजनीतिक ऑक्सीजन का उठा, जो मोदी के जरिए कांग्रेस को मिलता। ऐसे में सिटिजन फॉर जस्टिस ऐंड पीस ने जाकिया जाफरी के जरीये गुलबर्गा सोसायटी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की, जिससे मोदी एक बार फिर संदेह के घेरे में आ गये। यानी गुलबर्गा को लेकर संदेह और गुजरात में न्याय मिलने को लेकर लाभ की गोधारी लकीर मोदी को लेकर चार दिनो के बीतर उभर गयी। असल में राजनीति का यही अंतर्विरोध कांग्रेस को भी चाहिये और बीजेपी को भी । क्योकि मोदी की पहल दंगों के बाद गुजरात में जो रही, उसमें कांग्रेस-बीजेपी दोनो ने निर्णय कभी नहीं दिया। दोनों ने मोदीत्व का खेल ही खेला।
सवाल है कि जिस तर्ज पर सैकडों मंदिरो को अपने काल में ही गिरा कर सड़क चौड़ी और शहर खूबसूरत बनाने की प्रक्रिया मोदी ने शुरु की, क्या उसी अंदाज में दंगाइयों को सजा दिलाने की दिशा में मोदी बढ़ पाएंगे । जब सडक़ों के किनारे के मंदिर गिराये जा रहे थे तो विश्व हिन्दु परिषद समेत तमाम हिन्दुवादी संगठनो में खासा आक्रोष था। इसकी शिकायत आरएसएस से भी हुई । मोदी को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। लेकिन उस दौर में संघ के भीतर भी खटपट कहीं ज्यादा थी और मोदी का कद गुजरात में बीजेपी से कही बड़ा हो चुका था, इसलिये उन्हे कोई छू न सका लेकिन उस दौर में कांग्रेस खामोश रही। मोदी की वजह से बीजेपी छोड़ कांग्रेस में आये शंकर सिंह बधेला भी चौंके थे कि मंदिर कैसे गिर रहे हैं। उन्हें कहना पड़ा कि मोदी बिल्डरों और कोरपोरेट की सुविधा-असुविधा देख रहे हैं।
सवाल है क्या दंगो पर न्याय की तलवार अगर मोदी चलवाने में मदद करते है तो कांग्रेस फिर खामोश रहेगी या वह कट्टर हिन्दुत्व को उकसायेगी । जिससे उसे राजनीतिक ऑक्सीजन मिलती रहे । मोदी यह कर नहीं सकते है, इसे कोई भी कांग्रेसी खुल कर कह सकता है। लेकिन मोदी की खुद पर की गयी पहल पर गौर करे तो कई सवालो के जबाब खुद-ब-खुद मिलेंगे। मसलन 2001 में पहली बार मुख्यमंत्री की शपद लेने के बाद अपने कंधो का सहारा देकर मोदी केशुभाई पटेल को लेकर मंच पर पहुंचे थे। आज केशुभाई का नाम लेना भी मोदी के सामने किसी भी बीजेपी नेता को खुद को मुशकिल में डालने वाला साबित होगा। दंगों के बाद जिन अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राजधर्म का पाठ पढ़ने का वक्तव्य दिया, वही वाजपेयी 2002 में चुनाव में जीत के बाद मोदी के साथ मंच पर खडे होकर मोदी की पीठ थपथपा रहे थे । साथ में आडवाणी भी मंच पर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। वही मोदी जब 2007 में तीसरी बार चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो मंच पर सिर्फ वही थे। निरे अकेले । बाद में आडवाणी-राजनाथ के साथ स्टेडियम का चक्कर जरुर गाड़ी पर सवार होकर लगाया। यानी मोदी इस हकीकत को असलियत का जामा पहनाते गये कि कद तभी बढ़ सकता है, जब कदवालो को दरकिनार कर अपनी जमीन पर अपना कद मापने की व्यवस्था हो। इसलिये राजनीतिक तौर पर जो प्रयोग केन्द्र में होने थे, मोदी ने उसे गुजरात में किया।
हर उस मुद्दे को गुजरात की जमीन पर आजमाया, जो देश के सामने बड़ा होता जा रहा । मनमोहन की न्यू-इकनॉमी में वाइब्रेंट गुजरात । वामपंथियो की जनवादी कार नैनो का अपहरण । आंतकवाद के दर्द का खांटी इलाज । बिहारी और मराठी मानुस में क्षेत्रिय राजनीतिक दलों के सन आफ सॉयल की लड़ाई के बीच गुजराती अस्मिता का वैभव। यानी मोदी ने राजनीतिक काट हर तबके को दी, लेकिन सीमा गुजरात में ही बांधी रही। लेकिन इस बार सवाल कही बड़ा है । नरेन्द्र मोदी का नाम कारपोरेट जगत से लेकर उनकी अपनी पार्टी के भीतर से पीएम बनने की काबिलियत रखने वाले नेता के तौर पर उठा है। वह भी उस दौर में जब आडवाणी पीएम बनने को बेताब खड़े हैं। कांग्रेस पूंजी का नशा पैदा कर मध्यम वर्ग को डरा रही है कि मनमोहन के पीएम न बनने का मतलब है, मंदी के गर्त में डूबते चले जाना। और कम से कम आधे दर्जन दूसरे नेताओ को लगने लगा है कि राजनीतिक सौदेबाजी में चुनाव परिणाम उन्हे पीएम की कुर्सी तक पहुंचा सकते हैं।
ऐसे में नरेन्द्र मोदी को लेकर अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बीजेपी के चश्मे से ही देखा जाये कि मोदी की प्रशासनिक काबिलियत में सुप्रीम कोर्ट का भरोसा जगा है, इसलिये दंगो पर न्याय करवाने का जिम्मा सौपा गया । तो सवाल उस मोदी का ही उठेगा, जिसने भरोसा डिगाकर मोदीत्व पैदा किया और कांग्रेस के लिये ऑक्सीजन का काम किया। अगर मोदी ऑक्सीजन नहीं है और बीजेपी के चश्मे के पीछे की आंख नहीं है, तो फिर मोदी की जरुरत बीजेपी या कांग्रेस को कितनी होगी। और जो चमक अभी मोदी की आंखो में दिखायी दे रही है, वह कब तक कायम रह पायेगी ।
बड़ा सवाल यही है कि इस सवाल का जबाब बीजेपी और कांग्रेस को एक सरीखा चाहिये जो पहली बार मोदीत्व तले नहीं मिल रहा । इसलिये नयी लडाई बीजेपी को कांग्रेस से भी लड़नी है और आरएसएस से भी । यह नयी लड़ाई क्या गुल खिलायेगी....कुछ इंतजार करना होगा ।
Wednesday, May 6, 2009
कामरेड की मां
कामरेडअब आप आगे क्या करेंगे ? मैं जंगल लौट जाऊंगा । लेकिन आपकी उम्र और सेहत जंगल की स्थितियों को सह पायेगी ! सवाल सहने या जीने का नहीं है । मै जंगल में मरना चाहता हूं । शहर में मेरा दम यूं ही घुट जाएगा। यहां मैं ज्यादा अकेला हूं । वहां जो भी काम बनेगा करुंगा...कम से कम जिस सपने को पाल कर यहां तक पहुंचे हैं, वह तो नहीं मरा है । शहर में तो जीने के लिये अब कुछ भी नहीं बचा । न मां...न सपने ।
ये वाक्या ठीक एक साल पहले का है । कामरेड नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य है। दो साल पहले कामरेड की 82 साल की मां की हालत बिगडती गयी तो भूमिगत गतिविधियो को छोड़कर या कहें लगातार आंध्र प्रदेश से बंगाल-बिहार में अपने नक्सली संगठन को मजबूती देने में लगे कामरेड को मां की सेवा में शहर लौटना पड़ा । क्योंकि बाकी तीनों भाई या छह बहनें देश की मुख्यधारा से जुड़ कर उस व्यवस्था में जीने की जद्दोजहद कर रहे थे, जहां नौकरी से लेकर उनके अपने परिवार इस सच को नही मान पा रहे थे कि बुढी हो चली मां की सेवा के लिये भी वक्त निकाला जाना चाहिए ।
आखिरकार पार्टी ने निर्णय लिया कि कामरेड को मां की सेवा के लिये घर लौटना चाहिये । काफी चर्चा और तर्क इस बात को लेकर पार्टी में हुये कि किसी भी कामरेड के लिये अगर मां ही सबकुछ हो जायेगी तो उस माओवादी आंदोलन का क्या होगा, जिसने हर मां के लिये एक खूबसूरत दुनिया का सपना उन तमाम कामरेड में पैदा किया है, जो अपनी मां को छोड़कर सपने को सच बनाने में जान गंवा रहे हैं । कामरेड के घर लौटने के वक्त तर्क यह भी आया कि अगर सपना बेटे ने पाला है तो इसमें मां का क्या कसूर । जिन्दगी के आखिरी पड़ाव में अगर मां को बेटे की जरुरत है, तो कामरेड को लौटना चाहिये। पार्टी में बहस इस हद तक भी गयी कि 82 साल की उम्र में कई बीमारियो से लैस मां ज्यादा दिन नही टिकेगी । ऐसे में जल्द ही कामरेड लौट कर संगठन का कामकाज संभाल भी सकता है।
लेकिन कामरेड की मां सेवा ने असर दिखाया और जिन बेटे बेटियो के हंसते-खेलते परिवार ने मान लिया था कि मां एक महीने से ज्यादा जिन्दा रह ही नहीं सकती, वह मां कामरेड के घर लौटने पर सवा साल तक न सिर्फ जीवित रही, बल्कि 27 साल बाद घर लौटे कामरेड बेटे के साथ हर क्षण गुजारने के दौरान कामरेड के सपने को ही अपना सच भी मानने लगी।
कामरेड के मुताबिक, मां अगर इलाज जारी रखती तो एक-दो साल तो और जिन्दा रह सकती थी । लेकिन दिसंबर 2007 को एक दिन अचानक मां ने निर्णय लिया कि वह अब डॉक्टर से अपना इलाज नहीं करवायेंगी । और चार महीने बाद अप्रैल 2008 को मां की मौत हो गयी । इलाज न करवाने वाले चार महीने में मां ने कामरेड से उसके सपनो को लेकर हर उस तरह के सवाल किये, जो बचपन में कामरेड ने अपनी मां से किये होगे। अगर सपने न हों तो जीने का मतलब बेमानी है। सपने तो बहलाने और फुसलाने के लिये होते हैं लेकिन यह जिन्दगी बन जायें, यह कामरेड ने कैसे सीख लिया । मां ने बचपन में तो ऐसा कोई किस्सा नहीं सुनाया, जिसे बेटा गांठ बनाकर जीना शुरु कर दे।
वो कौन से लोग हैं, जिनके बीच 27 साल कामरेड बेटे ने गुजार दिये । क्यों कभी मां या भाई बहनों को देखने.... उनसे बातचीत कर प्यार करने की इच्छा कामरेड बेटे को नहीं हुई। घर के सबसे बड़े बेटे ने आखिर एक दिन सरकारी नौकरी छोड़ कर क्यों कामरेड का नाम अपना लिया। मां इतनी बुरी तो नहीं थी। इस तरह के ढेरों सवाल उन आखिरी चार महिनों में मां लगातार कामरेड से पूछती रहती और दिन-रात हर सवाल का जबाब भी 60 साल का कामरेड 82 साल की मां को देता रहता । अप्रैल 2007 से लेकर अप्रैल 2008 तक जब मां की मौत हुई...इस एक साल में कामरेड ने मां को अपने संजोये सपनों का हर ताना-बाना उघाड़ कर बताया, जो पिछले 27 सालो में कामरेड ने गांव,जंगल, आदिवासी, गरीब- पिछड़ों के बीच काम करते हुये किया। सिर्फ दो जून की रोटी की सहूलियत और परिवार बनाने का सुकुन कामरेड को क्यों नहीं बांध पाया..यह सारे सवाल मां के थे, जिसका महज जबाब देना भर जरुरी नहीं था, बल्कि कामरेड के लिये जीवन का यह सबसे बडा संघर्ष था कि 27 साल पहले जब उसकी उम्र 33 की थी और 29 साल की उम्र में ही जब उसकी मेहनत से उसे सरकारी नौकरी मिल गयी तो महज चार साल बाद ही वह घर-मां सबकुछ छोड़कर क्यो जंगल की दिशा में भाग गया।
कामरेड को समझाना था कि वह पलायनवादी नहीं है। वह जिम्मेदारी छोड़कर भागा नहीं था, बल्कि बड़ी जिम्मेदारी का एहसास उसके भीतर समा गया था । जिसे शायद मां ने बेटे के दिल में बचपन से संजोया होगा। घर का परिवेश और शिक्षा-दिक्षा के असर ने भी उस लौ का काम किया होगा, जिसे उसने 27 साल से सपने की तरह संजोया है। मां के सवालों का जबाब कामरेड ने उस हिम्मत से भी जोड़ा, जिसे मां ने दिया । कामरेड कभी रिटायर नहीं होता । लेकिन 27 साल पहले की सरकारी नौकरी करते-करते तो मै भी रिटायर हो जाता और उम्र का गणित सरकारी तौर पर भी मुझे रिटायर कर देता । शायद कामरेड के इसी तर्क ने मां के भीतर भी संघर्ष की लौ जलायी होगी। इसीलिये कामरेड बेटे को घर की चारदीवारी में न बांधने की सोच ने ही डाक्टरी इलाज को पूरी तरह बंद करा दिया।
आखिरी चार महिनों में वहीं मां कामरेड बेटे को सपनो को पूरा करने के लिये उकसती रही, जिसे 27 साल पहले मां ने ढकोसला माना था । बेटे के घर छोडने के निर्णय को जिम्मेदारी से भागना करार दिया था । कोई दूसरा बेटा कामरेड के चक्कर में न आ जाये, इसके लिये मां ने बडे बेटे को सबसे बडा नालायक करार दिया था। लेकिन कामरेड के सपने अब अधूरे ना रह जायें. इसके लिये मां खुद मरने की राह पर चल पड़ी । बिना इलाज अप्रैल 2008 में मां की मौत हो गयी । कामरेड अब क्या करेगा, यह सवाल पूछना जायज नहीं था लेकिन उस दिन मां के अंतिम संसकार के बाद कामरेड के शहरी साथियो ने पूछा था । और मां के मरने के ठीक एक साल बाद संयोग से कामरेड से फिर मुलाकात हुई तो मां की आखिरी यादो पर चर्चा के बीच ही कामरेड ने मां को भी राजनीतिक दांव पर लगाने का जिक्र कर दिया । मेरी मां को छोडो, तुम तो पत्रकार हो वरुण की मां का उत्तर प्रदेश में क्या असर है । और राहुल की मां का देश पर क्या असर है । मैने कहा वरुण की मां मेनका जरुर राजनीतिक दांव पर है लेकिन राहुल अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है कि वह मां के आसुओं का सवाल उठा सके । राजनीतिक तौर पर अभी राहुल मां का बेटा ही है । लेकिन कामरेड आपकी चर्चा में अक्सर उस बंदूक का जिक्र नही होता, जिसपर सरकार और समाज दोनो सवालिया निशान लगाते हैं । क्या आपकी मां ने कभी यह सवाल नहीं उठाया या आपने कभी इसका जिक्र नहीं किया। खुलकर बताया। लेकिन उस तरह नहीं जैसे सरकार बताती है। देश के सामने माओवाद प्रभावित इलाको को भारत के नकशे पर रख कर देख लें । हमारे हथियारबंद कामरेडों की संख्या को देश के सुरक्षाकर्मियों की संख्या के सामने लिख कर देख लें । सभी बेहद छोटे हैं । रंग भी और संख्या भी । लेकिन सवाल देश के भीतर के कई देशों का है । हर राजनीतिक दल आज चुनाव में अपनी जीत का रंग अपने प्रदेश में रंगता है । अगर उन आंखो से देश का नक्शा देखेंगे तो माओवाद का रंग कांग्रेस,बीजेपी,वामपंथी या किसी भी राजनीतिक दल के रंग से ज्यादा बडा हमारे आंदोलन का इलाका नजर आयेगा । ठीक इसी तरह एक देश का सवाल सुरक्षाकर्मियो को लेकर भी कहां है । ज्यादा सुरक्षाकर्मी तो नेता और रईसों को ही सुरक्षा देने में लगे रहते है । फिर हर राज्य की अलग अलग सरकार अपनी सहूलियत के लिये सुरक्षाकर्मियो का प्रयोग करती हैं । अगर आपको सुरक्षाकर्मियों का कामकाज देखना है, तो तेलगांना से लेकर बंगाल-बिहार तक के हमारे दंडकाराण्य या सरकारी रेड कारीडोर में देख सकते हैं। यहा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियो की परियोजनाओ की सुरक्षा में ही समूची फौज सरकार लगाये हुये है। झारखंड,छत्तीसगढ,उडीसा में तो अर्से से यह सब चल रहा है । नया नजारा बंगाल की वामपंथी सरकार ने भी अपना लिया है । नंदीग्राम के बाद लालगढ के इलाके में जा कर देखे, वहा सुरक्षाकर्मियो की तादाद आपको कश्मीर की याद दिला देगी। इन जगहो पर दो जून की रोटी मिलती नही है, लेकिन पचास हजार का बारुद से भरा लांचर सुरक्षाकर्मियो के पास पड़ा रहता है । आप झारखंड में जाइये । वहां के हालात को देखिये ।
इन हालातों पर मैंने मां को मरने से पहले सबकुछ बताया। आप कह सकते है कि इन हालात पर देश का कोई भी शख्स भरोसा कर ले तो उसे अपने होने पर शर्म आने लगेगी। हो सकता है मेरी मां को भी शर्म आने लगी है क्योकि झारखंड में अब भी 25 पैसे की मजदूरी भी होती है । और 25 पैसे में पेट भी भरता है । आप वहा 25 पैसे के अर्थशास्त्र में साफ पानी,स्कूल,डाक्टर की कल्पना भी कर सकते है । मां के इलाज में डॉक्टर को हर हफ्ते दवाई समेत पांच सौ रुपये देने पडते थे । उसके दूसरो बेटो के पास पैसा था, वक्त नहीं था इसलिये मां का इलाज तो करा ही सकते थे। लेकिन सवाल है, जिस दिन मां ने मेरे संघर्ष और सपने को मान्यता दे कर डाक्टरी इलाज बंद करने के निर्णय लिया उस दिन मुझे उनका चेहरा चमकता हुआ लगा । वह संतुष्ट थी कि मेरे सपनो का कोई सौदागर नहीं है बल्कि संघर्ष ही सपना है ।
ये वाक्या ठीक एक साल पहले का है । कामरेड नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य है। दो साल पहले कामरेड की 82 साल की मां की हालत बिगडती गयी तो भूमिगत गतिविधियो को छोड़कर या कहें लगातार आंध्र प्रदेश से बंगाल-बिहार में अपने नक्सली संगठन को मजबूती देने में लगे कामरेड को मां की सेवा में शहर लौटना पड़ा । क्योंकि बाकी तीनों भाई या छह बहनें देश की मुख्यधारा से जुड़ कर उस व्यवस्था में जीने की जद्दोजहद कर रहे थे, जहां नौकरी से लेकर उनके अपने परिवार इस सच को नही मान पा रहे थे कि बुढी हो चली मां की सेवा के लिये भी वक्त निकाला जाना चाहिए ।
आखिरकार पार्टी ने निर्णय लिया कि कामरेड को मां की सेवा के लिये घर लौटना चाहिये । काफी चर्चा और तर्क इस बात को लेकर पार्टी में हुये कि किसी भी कामरेड के लिये अगर मां ही सबकुछ हो जायेगी तो उस माओवादी आंदोलन का क्या होगा, जिसने हर मां के लिये एक खूबसूरत दुनिया का सपना उन तमाम कामरेड में पैदा किया है, जो अपनी मां को छोड़कर सपने को सच बनाने में जान गंवा रहे हैं । कामरेड के घर लौटने के वक्त तर्क यह भी आया कि अगर सपना बेटे ने पाला है तो इसमें मां का क्या कसूर । जिन्दगी के आखिरी पड़ाव में अगर मां को बेटे की जरुरत है, तो कामरेड को लौटना चाहिये। पार्टी में बहस इस हद तक भी गयी कि 82 साल की उम्र में कई बीमारियो से लैस मां ज्यादा दिन नही टिकेगी । ऐसे में जल्द ही कामरेड लौट कर संगठन का कामकाज संभाल भी सकता है।
लेकिन कामरेड की मां सेवा ने असर दिखाया और जिन बेटे बेटियो के हंसते-खेलते परिवार ने मान लिया था कि मां एक महीने से ज्यादा जिन्दा रह ही नहीं सकती, वह मां कामरेड के घर लौटने पर सवा साल तक न सिर्फ जीवित रही, बल्कि 27 साल बाद घर लौटे कामरेड बेटे के साथ हर क्षण गुजारने के दौरान कामरेड के सपने को ही अपना सच भी मानने लगी।
कामरेड के मुताबिक, मां अगर इलाज जारी रखती तो एक-दो साल तो और जिन्दा रह सकती थी । लेकिन दिसंबर 2007 को एक दिन अचानक मां ने निर्णय लिया कि वह अब डॉक्टर से अपना इलाज नहीं करवायेंगी । और चार महीने बाद अप्रैल 2008 को मां की मौत हो गयी । इलाज न करवाने वाले चार महीने में मां ने कामरेड से उसके सपनो को लेकर हर उस तरह के सवाल किये, जो बचपन में कामरेड ने अपनी मां से किये होगे। अगर सपने न हों तो जीने का मतलब बेमानी है। सपने तो बहलाने और फुसलाने के लिये होते हैं लेकिन यह जिन्दगी बन जायें, यह कामरेड ने कैसे सीख लिया । मां ने बचपन में तो ऐसा कोई किस्सा नहीं सुनाया, जिसे बेटा गांठ बनाकर जीना शुरु कर दे।
वो कौन से लोग हैं, जिनके बीच 27 साल कामरेड बेटे ने गुजार दिये । क्यों कभी मां या भाई बहनों को देखने.... उनसे बातचीत कर प्यार करने की इच्छा कामरेड बेटे को नहीं हुई। घर के सबसे बड़े बेटे ने आखिर एक दिन सरकारी नौकरी छोड़ कर क्यों कामरेड का नाम अपना लिया। मां इतनी बुरी तो नहीं थी। इस तरह के ढेरों सवाल उन आखिरी चार महिनों में मां लगातार कामरेड से पूछती रहती और दिन-रात हर सवाल का जबाब भी 60 साल का कामरेड 82 साल की मां को देता रहता । अप्रैल 2007 से लेकर अप्रैल 2008 तक जब मां की मौत हुई...इस एक साल में कामरेड ने मां को अपने संजोये सपनों का हर ताना-बाना उघाड़ कर बताया, जो पिछले 27 सालो में कामरेड ने गांव,जंगल, आदिवासी, गरीब- पिछड़ों के बीच काम करते हुये किया। सिर्फ दो जून की रोटी की सहूलियत और परिवार बनाने का सुकुन कामरेड को क्यों नहीं बांध पाया..यह सारे सवाल मां के थे, जिसका महज जबाब देना भर जरुरी नहीं था, बल्कि कामरेड के लिये जीवन का यह सबसे बडा संघर्ष था कि 27 साल पहले जब उसकी उम्र 33 की थी और 29 साल की उम्र में ही जब उसकी मेहनत से उसे सरकारी नौकरी मिल गयी तो महज चार साल बाद ही वह घर-मां सबकुछ छोड़कर क्यो जंगल की दिशा में भाग गया।
कामरेड को समझाना था कि वह पलायनवादी नहीं है। वह जिम्मेदारी छोड़कर भागा नहीं था, बल्कि बड़ी जिम्मेदारी का एहसास उसके भीतर समा गया था । जिसे शायद मां ने बेटे के दिल में बचपन से संजोया होगा। घर का परिवेश और शिक्षा-दिक्षा के असर ने भी उस लौ का काम किया होगा, जिसे उसने 27 साल से सपने की तरह संजोया है। मां के सवालों का जबाब कामरेड ने उस हिम्मत से भी जोड़ा, जिसे मां ने दिया । कामरेड कभी रिटायर नहीं होता । लेकिन 27 साल पहले की सरकारी नौकरी करते-करते तो मै भी रिटायर हो जाता और उम्र का गणित सरकारी तौर पर भी मुझे रिटायर कर देता । शायद कामरेड के इसी तर्क ने मां के भीतर भी संघर्ष की लौ जलायी होगी। इसीलिये कामरेड बेटे को घर की चारदीवारी में न बांधने की सोच ने ही डाक्टरी इलाज को पूरी तरह बंद करा दिया।
आखिरी चार महिनों में वहीं मां कामरेड बेटे को सपनो को पूरा करने के लिये उकसती रही, जिसे 27 साल पहले मां ने ढकोसला माना था । बेटे के घर छोडने के निर्णय को जिम्मेदारी से भागना करार दिया था । कोई दूसरा बेटा कामरेड के चक्कर में न आ जाये, इसके लिये मां ने बडे बेटे को सबसे बडा नालायक करार दिया था। लेकिन कामरेड के सपने अब अधूरे ना रह जायें. इसके लिये मां खुद मरने की राह पर चल पड़ी । बिना इलाज अप्रैल 2008 में मां की मौत हो गयी । कामरेड अब क्या करेगा, यह सवाल पूछना जायज नहीं था लेकिन उस दिन मां के अंतिम संसकार के बाद कामरेड के शहरी साथियो ने पूछा था । और मां के मरने के ठीक एक साल बाद संयोग से कामरेड से फिर मुलाकात हुई तो मां की आखिरी यादो पर चर्चा के बीच ही कामरेड ने मां को भी राजनीतिक दांव पर लगाने का जिक्र कर दिया । मेरी मां को छोडो, तुम तो पत्रकार हो वरुण की मां का उत्तर प्रदेश में क्या असर है । और राहुल की मां का देश पर क्या असर है । मैने कहा वरुण की मां मेनका जरुर राजनीतिक दांव पर है लेकिन राहुल अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है कि वह मां के आसुओं का सवाल उठा सके । राजनीतिक तौर पर अभी राहुल मां का बेटा ही है । लेकिन कामरेड आपकी चर्चा में अक्सर उस बंदूक का जिक्र नही होता, जिसपर सरकार और समाज दोनो सवालिया निशान लगाते हैं । क्या आपकी मां ने कभी यह सवाल नहीं उठाया या आपने कभी इसका जिक्र नहीं किया। खुलकर बताया। लेकिन उस तरह नहीं जैसे सरकार बताती है। देश के सामने माओवाद प्रभावित इलाको को भारत के नकशे पर रख कर देख लें । हमारे हथियारबंद कामरेडों की संख्या को देश के सुरक्षाकर्मियों की संख्या के सामने लिख कर देख लें । सभी बेहद छोटे हैं । रंग भी और संख्या भी । लेकिन सवाल देश के भीतर के कई देशों का है । हर राजनीतिक दल आज चुनाव में अपनी जीत का रंग अपने प्रदेश में रंगता है । अगर उन आंखो से देश का नक्शा देखेंगे तो माओवाद का रंग कांग्रेस,बीजेपी,वामपंथी या किसी भी राजनीतिक दल के रंग से ज्यादा बडा हमारे आंदोलन का इलाका नजर आयेगा । ठीक इसी तरह एक देश का सवाल सुरक्षाकर्मियो को लेकर भी कहां है । ज्यादा सुरक्षाकर्मी तो नेता और रईसों को ही सुरक्षा देने में लगे रहते है । फिर हर राज्य की अलग अलग सरकार अपनी सहूलियत के लिये सुरक्षाकर्मियो का प्रयोग करती हैं । अगर आपको सुरक्षाकर्मियों का कामकाज देखना है, तो तेलगांना से लेकर बंगाल-बिहार तक के हमारे दंडकाराण्य या सरकारी रेड कारीडोर में देख सकते हैं। यहा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियो की परियोजनाओ की सुरक्षा में ही समूची फौज सरकार लगाये हुये है। झारखंड,छत्तीसगढ,उडीसा में तो अर्से से यह सब चल रहा है । नया नजारा बंगाल की वामपंथी सरकार ने भी अपना लिया है । नंदीग्राम के बाद लालगढ के इलाके में जा कर देखे, वहा सुरक्षाकर्मियो की तादाद आपको कश्मीर की याद दिला देगी। इन जगहो पर दो जून की रोटी मिलती नही है, लेकिन पचास हजार का बारुद से भरा लांचर सुरक्षाकर्मियो के पास पड़ा रहता है । आप झारखंड में जाइये । वहां के हालात को देखिये ।
इन हालातों पर मैंने मां को मरने से पहले सबकुछ बताया। आप कह सकते है कि इन हालात पर देश का कोई भी शख्स भरोसा कर ले तो उसे अपने होने पर शर्म आने लगेगी। हो सकता है मेरी मां को भी शर्म आने लगी है क्योकि झारखंड में अब भी 25 पैसे की मजदूरी भी होती है । और 25 पैसे में पेट भी भरता है । आप वहा 25 पैसे के अर्थशास्त्र में साफ पानी,स्कूल,डाक्टर की कल्पना भी कर सकते है । मां के इलाज में डॉक्टर को हर हफ्ते दवाई समेत पांच सौ रुपये देने पडते थे । उसके दूसरो बेटो के पास पैसा था, वक्त नहीं था इसलिये मां का इलाज तो करा ही सकते थे। लेकिन सवाल है, जिस दिन मां ने मेरे संघर्ष और सपने को मान्यता दे कर डाक्टरी इलाज बंद करने के निर्णय लिया उस दिन मुझे उनका चेहरा चमकता हुआ लगा । वह संतुष्ट थी कि मेरे सपनो का कोई सौदागर नहीं है बल्कि संघर्ष ही सपना है ।