Sunday, September 27, 2009
रात के अंधेरे में लालगढ़ से दिल्ली तक माओवादी नज़रिया
- कोबाड के एनकाउंटर की तैयारी झारखंड में हो चुकी थी
माओवादी कोबाड गांधी को पुलिस एनकाउंटर में मारना चाहती थी। लेकिन मीडिया में कोबाड की गिरफ्तारी की बात आने पर सरकार को कहना पड़ा कि कोबाड गांधी नामक बड़े माओवादी को दिल्ली में पकड़ा गया है, जो सीपीआई माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य है। यह बात अचानक किसी ने टेलीफोन पर कही। 24 सितंबर की रात के वक्त मोबाइल की घंटी बजी और एक नया नंबर देख कर थोडी हिचकिचाहट हुई कि कौन होगा...रात में किस मुद्दे पर कौन सी खबर की बात कहेगा....यह सोचते सोचते हुये ही मोबाइल का हरा बटन दब गया और दूसरी तरफ से पहली आवाज यही आयी कि मैं आपको यही जानकारी देना चाहता हूं कि सीपीआई माओवादी संगठन के जिस पोलित ब्यूरो सदस्य कोबाड गांधी को पुलिस ने पकड़ा है, उसके एनकाउंटर की तैयारी पुलिस कर रही थी।
लोकिन आप कौन बोल रहे हैं ? मैं लालगढ़ का किशनजी बोल रहा हूं । किशनजी ....यानी सीपीआई माओवादी का पोलितब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव ...यह नाम मेरे दिमाग में आया तो मैंने पूछा, किशनजी अगर इनकाउंटर करना होता तो पुलिस कोबाड को अदालत में पेश नहीं करती।
आप सही कह रहें है लेकिन पहले मेरी पूरी बात सुन लें .....जी कहिये । उन्होंने कहा, हमें कोबाड गांधी के पकडे जाने की जानकारी 22 सितबर की सुबह ही लग गयी थी । इसका मतलब है कोबाड को 22 सितंबर से पहले पकड़ा गया था। हमनें दिल्ली में पुलिस से पूछवाया। लेकिन पुलिस ने जब कोबाड को पकड़ने की खबर को गलत माना तो हमने 22 सितंबर को दोपहर बाद से ही तमाम राष्ट्रीय अखबारो को इसकी जानकारी दी। इसके बाद मीडिया के लगातार पूछने के बाद ही सरकार की तरफ से रात में कोबाड गांधी की गिरफ्तारी की पुष्टि की गयी। अगर मीडिया सामने नहीं आता तो दिल्ली पुलिस झारंखड पुलिस को भरोसे में ले चुकी थी और कोबाड के एनकाउंटर की तैयारी कर रही थी। क्योंकि दिल्ली पुलिस के विशेष सेल ने जब झारखंड पुलिस को कोबाड गांधी के पकड़ने की जानकारी दी तो झारखंड पुलिस ने इतना ही कहा कि कोबाड गांधी को एनकाउटर में मार देना चाहिये। नहीं तो माओवादी झारखंड समेत अपने प्रभावित क्षेत्रो में तबाही मचा देगे। हमारे एक साथी को झारखंड पुलिस ने पकड़ा था और दो महीने पहले ही हमने पांच राज्यो में बंद का ऐलान किया था। झारखंड में हमारी ताकत से सरकार वाकिफ है। इसलिये झारखंड में भी जब हमने पता किया तो यही पता चला कि 21 सितंबर को ही झारखंड पुलिस की तरफ से कोबाड गांधी के एनकाउंटर को हरी झंडी दे दी गयी थी।
लेकिन दिल्ली में एनकाउंटर करना खेल नहीं है। क्योंकि मीडिया है, सरकारी तंत्र है...फिर लोकतंत्र पर इस तरह का दाग सरकार भी लगने नहीं देगी!
मै कब कह रहा हूं कि एनकाउंटर दिल्ली में होना था । झारखंड पुलिस चाहती थी कि 22 सितंबर की रात ही कोबाड गांधी को डाल्टेनगंज ले जाया जाये । वहां डाल्टेनगंज और चतरा के बीच पांकी इलाके में पहुंचाया जाये और एनकाउंटर में मारने का ऐलान अगले ही दिन 23 सितंबर को कर दिया जाये। माओवादी नेता कोटेश्ववर राव की मानें तो कोबाड गांधी के एनकाउंटर के जरीये झारखंड पुलिस के आईजी रैंक के एक अधिकारी इसके जरिए मेडल और बडा ओहदा भी चाहते थे, जो उन्हें इसके बाद गृह मंत्रालय की सिफारिश पर मिल भी जाता। मुझे लगा माओवादी पूरे मामले को सनसनीखेज बनाकर सरकार की क्रूर छवि को ही उभारना चाहते है। मैंने बात मोड़ते हूये पूछा, कोबाड गांधी की गिरफ्तारी का असर माओवाद के विस्तार कार्यक्रम पर कितना पड़ेगा ? करीब दो-तीन महीने तक संगठन का काम रुकेगा, जबतक दूसरे सदस्य कोबाड का काम नहीं संभाल लेते। मैंने देखा, रात के करीब साढे बारह बज रहे है..तो सोचा लालगढ के बार में भी माओवादियो की पहल और सोच क्या चल रही है, जरा इसे जान लेना भी अच्छा है, यह सोच मैने जैसे ही कहा, लालगढ़ मे तो आपको फोर्स ने घेर लिया है तो पल में जवाब आया, बिलकुल नहीं...आप यह जरुर कह सकते है कि लालगढ के जरीये पहली बार बंगाल में माओवादी कैडर और सीपीएम के हथियारबंद दस्ते आमने सामने आ खडे हुये हैं। प्रभावित इलाको के तीन ब्लाक मिदनापुर, सेलबनी और वाल्तोर में बीते तीन महिने की हिंसक झडपो में सीपीएम के सौ से ज्यादा हथियार बंद कैडर मारे जा चुके है । अभी तक इन क्षेत्रो में सीपीएम के चार सौ से ज्यादा हथियारबंद कैडर को जमीन छोड़नी पडी है जो कि 12 कैंपो में मौजूद थे।
कैंप का मतलब...क्या सेना का कैंप ? जी नहीं. सीपीएम का कैंप, जहां उनके हथियारबंद कैडर रहते हैं। सबसे बड़ा कैप तो सीपीएम नेता अनिल विश्वास के घर पर ही था, जहां सीपीएम के 35 कैडर मारे गये। इसी के बाद सीपीएम के एक दूसरे बडे नेता सुशांतो घोष ने सार्वजनिक सभा में ऐलान किया कि "नंदीग्राम की तरह लालगढ़ पर हमला कर जीत लेगें।" तो इसका असर लोगो में किस तरह हुआ यह बेकरा गांव की सभी में देखने को मिला, जहां के गांववालों ने सुशांतो घोष की सभा नहीं होने दी । जब वह सभा को संबोधित करने पहुंचे तो गांववालो ने उन्हें खदेड़ दिया। गांववालों में सीपीएम को लेकर कितना आक्रोष है, इसका नजारा मिदनापुर में हमनें देखा । मिदनापुर में इनायतपुर के पोलकिया गांव में 21 सितंबर की रात सीपीएम के पांच लोग मारे गये। दस घायल हुये । यहां की तीन आदिवासी महिलाओ के साथ सीपीएम के हथियार बंद कैडर ने बदसलूकी की थी । जिसके बाद गांववालो में आक्रोष आ गया । गांववालो ने सीपीएम की शिकायत यहां तैनात ज्वाइंट फोर्स से की । लेकिन गांववालो की मदद ज्वाइंट फोर्स ने नहीं की । माओवादियो से गांववालो ने मदद मांगी । 10 घंटे तक फायरिंग हुई । जिसके बाद सीपीएम के पांच लोग मारे गये । इसी तरह सोनाचूरा में 8 सीपीएम कैडर मारे गये । सीपीएम को लेकर लोगो में आक्रोष है । यही हमें ताकत भी दे रहा है और हम उसी जनता के भरोसे संघर्ष भी कर रहे है।
लेकिन अब केन्द्र सरकार भी माओवादियो को चारो तरफ से घेरने की तैयारी कर रही है। कैसे सामना करेंगे ? सवाल हमारा सामने करने का नहीं है । हम जानते है कि अबूझमाड यानी माओवादी प्रभावित क्षेत्र में घुसने के लिये 8 हैलीपैड बनाये गये है । आंध्र प्रदेश से सीमावर्ती चित्तूर , भद्राचलम से लेकर छत्तीसगढ के बीजापुर तक में अर्धसैनिक बलो को तैनात किया जा रहा है । लेकिन इसमें जितना नुकसान हमारा है, उतना ही सरकार का भी होगा। इसका एक चेहरा छत्तीसगढ के दंत्तेवाडा के पालाचेलिना गांव में सामने भी आया, जहां कोबरा फोर्स को पीछे हटना पड़ा। तो क्या यह चलता रहेगा। यह सरकार पर है। क्योंकि यहां के आदिवासी ग्रामीणो में गुस्सा है। वह हमसे कहते हैं मिलकर लडेगें, मिलकर मरेंगे। यह सरकार का काम है कि उनकी जरुरतो को उनके अनुसार समाधान करे। नहीं तो हम भी उन्हीं के साथ मिलकर लडेंगे, मिलकर मरेंगे ।
तो क्या सरकार समझती है कि गांववालो की जरुरत क्या है ? देखिये , सवाल समझने का नहीं है । जिन पांच राज्यो को लेकर सरकार परेशान है। उनमें झारंखंड, छत्तीसगढ और उड़ीसा में सबसे ज्यादा खनिज संसाधन है। खनिज संसाधन की लूट के लिये तब तक रास्ता नहीं खुल सकता है, जब तक यहां के ग्रामीण आंदोलन कर रहे है और हम उनके साथ खड़े हैं। लेकिन सरकार विकास के रास्ते भी खनिज संपदा का उपयोग कर सकती है ? सही कह रहे हैं आप लेकिन आंध्रप्रदेश से लेकर बंगाल तक के रेड कारिडोर पर पहली बार अमेरिका की नजर है । उसे भारत का यह खनिज औने पौने दाम में मल्टीनेशनल कंपनियो को दिलाने का रास्ता खोलना है। हाल ही में गृह मंत्री चिदबंरम साहब पेंटागन गये थे। वहीं उन्हें ब्लू प्रिट दिया गया कि कैसे माओवादियो को इन इलाको से खत्म करना है। इसी लिये कश्मीर से फौज हटायी जा रही है, जिसे माओवादी प्रभावित इलाको में हमारे खिलाफ लगाया जा रहा है। लेकिन यह समझ भारत की नही, अमेरिका की है । अमेरिका समझ रहा है कि विश्व बाजार जब तक पहले की तरह चालू नहीं हो जाता तब तक मंदी का असर बरकरार रहेगा। इन इलाको के खनिज संसाधन अगर विश्वबाजार में पहुंच जायें तो दुनिया के सामने करीब पचास लाख करोड़ से ज्यादा का व्यापार आयेगा, जो झटके में मुर्दा पडी दुनिया की दर्जनों बड़ी कंपनियो में जान फूंक देगा। आप यही देखो की एस्सार का 15 हजार करोड का प्रोजेक्ट इसी दिशा में काम कर रहा है । बैलेडिला से लेकर बंदरगाह तक पाइप लाइन का उसका प्रोजेक्ट शुरु हुआ है । यानी यहां की खनिज संपदा कैसे बाहर भेजी इस दिशा में पहल शुरु हो चुकी है।
लेकिन माना जाता है कि आप लोगो को राजनीतिक मदद भी है । आप लोगो को ममता बनर्जी की मदद मिल रही है। ऐसे मुद्दो को आप संसदीय राजनीति के जरीये उठा सकते है । इसके लिये हथियार उठाने की क्या जरुरत है ? आप ममता की क्या बात कर रहे हैं। वह तो खुद सौ फीसदी प्राइवेटाइजेशन की वकालत कर रही है । मैं आपको एक केस बताता हू ....आप खुद जांच लें । कोलकत्ता हवाइअड्डा से जब आप शहर की तरफ आते है तो रास्ते में राजारहाट पडता है । यहां उपनगरी तैयार की जा रही है । जहां अत्याधुनिक सबकुछ होगा । किसानों की जमीन हथियायी जा रही है । विप्रो और इन्फोसिस को दुबारा मनाकर लाया जा रहा है । लेकिन किस तरह राजनीति यहां एकजुट है, जरा इसका नजारा देखिये। यहां जो सक्रिय हैं, उनमें सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य गौतम देव, ज्योति बसु के बेटे चंदन बसु, तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय विधायक शामिल हैं। उसके अलावा बिल्डिग माफिया कमल नामक शख्स भी साथ है। सैन्ट्रल बैक आफ इंडिया इनका प्रमोटर है । और राजारहाट में अभी तक 600 किसान जमीन गंवा चुके है । जिसमें से 60 किसान मारे भी गये है । 100 से ज्यादा घायल होकर घर में भी पड़े हैं। लेकिन इन किसानो को राजनीतिक हिंसा का शिकार बता दिया गया । यानी किसान को भी राजनीतिक दल से जोडकर उपनगरी के मुनाफे में बंदरबांट सीपीएम और तृणमूल दोनो कर रही हैं ।
तो क्या इसे जनता समझ नहीं रही है ? समझ क्यों नहीं रही है। ईद के दिन ही यानी 21 सिंतबर को ही तृणमूल का एक नेता निशिकांत मंडल मारा गया । निशिकांत सोनाचूरा ग्राम पंचायत का प्रधान था । तृणमूल नेता को क्या ग्रामीणों ने मारा ? आप कह सकते हैं कि ग्रामीण आदिवासियो की सहमति के बगैर इस तरह की पंचायत के प्रधान की हत्या हो ही नहीं सकती है । निशिकांत पहले सीपीएम में था। फिर तृणमूल में आ गया । ऐसे बहुत सारे सीपीएम के नेता है तो पंचायत स्तर पर अब ममता बनर्जी के साथ आ गये है । एसे में गांववाले मान रहे हैं कि ममता नयी सीपीएम हो गयी हैं। जबकि यह लड़ाई सीपीएम की नीतियो के खिलाफ और उसके कैडर की तानाशाही के खिलाफ शुरु हुई थी। वहीं स्थिति अब ममता की बन रही है। इसलिये अब देखिए निशिकांत की हत्या नंदीग्राम में हुई, जहां से ममता बनर्जी को राजनीतिक पहचान और लाभ मिला।
तो क्या यह माना जाये कि 2011 के चुनाव में ममता नहीं जीत पायेगी ? यह तो हम नहीं कह सकते है कि चुनाव कौन जीतेगा या कौन हारेगा लेकिन अब ग्रामीण आदिवासी मानने लगे है कि ममता बनर्जी भी उसी रास्ते पर है, जिस पर सीपीएम थी । यानी ममता का मतलब एक नयी सीपीएम है । बाचतीत करते रात के डेढ़ बज चुके थे मैने फोन काटने के ख्याल से कहा कि .....चलिये इस पर फिर बात होगी। क्या आपके इस मोबाइल पर फोन करने पर आप फिर मिल जायेगे ? नहीं... फोन आप मत करिये। जब हमें बात करनी होगी तो हमीं फोन करेगे । बातचीत खत्म हुई तो मुझे यही लगा कि माओवादियो को लेकर सरकार का जो नजरिया है, उसके ठीक विपरित माओवादियो का नजरिया व्यवस्था और सरकार को लेकर है...यह रास्ता बंदूक के जरिये कैसे एक हो सकता है, चाहे वह बंदूक किसी भी तरफ से उठायी गयी हो।
Wednesday, September 23, 2009
समझ लीजिये विकास तले कैसे बर्बाद होते हैं किसान
नासिक शहर से करीब दस किलोमीटर दूर गंगापुर होते हुए करीब चार किलोमीटर आगे बनी देश की सबसे प्रसिद्ध वाइन फैक्ट्री जाने का रास्ता भी देश के सबसे हसीन रास्तों में से एक है। सह्याद्री हिल्स के बीच गंगापुर झील और चारों तरफ हरे-भरे खेत। इन सबके बीच सैकड़ों एकड़ की जमीन पर अंगूर की खेती। इन सबके बीच सांप की तरह शानदार सड़क और उस सड़क पर रफ्तार से भागती आधुनिकतम गाड़ियाँ। जाहिर है आधुनिक होते भारत की यह तस्वीर किसी भी शहरी को भा सकती है। खासकर जब यह रास्ता वाइन फैक्ट्री ले जाए।
यह तस्वीर दिसंबर 2009 में होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले ही है, लेकिन इसी तस्वीर को अगर पाँच साल पीछे यानी 2004 में विधानसभा चुनाव के दौरान देखें तो नासिक शहर से दस किलोमीटर दूर गंगापुर जाना किसी जंगल में जाने जैसा था। टूटी-फूटी सड़कें। बैलगाड़ी और ट्रैक्टर ही सबसे ज्यादा दौड़ते नजर आते थे। और यहाँ से वाइन फैक्ट्री तक जाना धूल-मिट्टी उड़ाते हुए। उबड़-खाबड़ सड़क पर कीचड़ से बचते-बचाते हुए फैक्ट्रीनुमा एक शेड में पहुँचना होता था। जहाँ शेड की छांव में या अंगूर के झाड़ तले शराब की चुस्की ली जाती थी। पाँच साल में विकास की यह लकीर इतनी गाढ़ी हो गई कि 2004 में जहाँ कोई पुलिस-प्रशासन का अधिकारी इस तरफ झाँकने नहीं जाता था और नासिक पहुँचा कोई भी पर्यटक त्रयंबकेश्वर मंदिर और पांडव की गुफाओं को देखकर लौट जाता था। वही वाइन फैक्ट्रियाँ अब 2009 में पुलिस प्रशासन के अधिकारियों का अड्डा हैं। पर्यटक अब गंगापुर झील के किनारे वाइन फैक्टरी के हट्स में रात गुजारने यूरोप से भी आते हैं। शुक्रवार-शनिवार की रात रेव पार्टियाँ आयोजित की जाती हैं।
लेकिन पाँच साल के दौर में सिर्फ यही नजारा बदला, ऐसा भी नहीं है। इस बदली तस्वीर की कीमत किसे चुकानी पड़ी और बदली हुई इस तस्वीर का दूसरा रुख भी कैसे नासिक के इसी क्षेत्र में तैयार हुआ यह मनोहर बाबूराव पटोले के परिवार को देखकर भी समझा जा सकता है। 2004 में पटोले परिवार के पास 20 एकड़ जमीन थी। जहाँ अंगूर उगाकर यह परिवार जिंदगी बसर करता था। अंगूर का बाजार भाव नासिक में कभी बढ़ा नहीं, इसलिए बढ़ती महंगाई में परिवार का पेट पालने के लिए पटोले परिवार ने शराब बनाने वालों से संपर्क किया। शराब बनाने वालों ने समझौता किया कि अगर 20 एकड़ में वाइन के लिए पटोले परिवार अंगूर उगाएगा तो उसे वह खरीद लेंगे। वाइन का अंगूर सामान्य अंगूर से अलग होता है, इसलिए इस अंगूर को उगाने से लाभ भी था, क्योंकि वाइन फैक्ट्री से उसे तयशुदा अच्छी पूंजी मिल जाएगी। लेकिन खतरा भी था कि इससे अंगूर की पूरी फसल ही शराब बनाने वालों पर निर्भर हो जाएगी। पहले साल तो लाभ हुआ, लेकिन संकट 2006 से शुरू हुआ, जब वाइन फैक्ट्री वालों ने अपने हाल को खस्ताहाल करार देते हुए अंगूर लेने से मना कर दिया फिर औने-पौने दाम में पटोले परिवार को वाइन अंगूर बेचना पड़ा। यह हाल सिर्फ पटोले परिवार का नहीं हुआ, बल्कि शिवाजी पवार, भंधू मोहिते से लेकर मजाम पाटिल सरीखे दर्जनों बड़े किसानों की माली हालत बिगड़ी। तीस से ज्यादा छोटे किसान, जिनके पास पाँच एकड़ तक जमीन थी, उनके लिए मुसीबत यही आई कि साल दर साल अंगूर की फसल बोने-उगाने में जो खर्च हो, उसके भी लाले पड़ने लगे। बड़े किसानों को जमीन का टुकड़ा-दर-टुकड़ा बेचना पड़ा तो छोटे किसानों को जिंदा रहने के लिए जमीनें गिरवी रखनी पड़ी। विकास की अनूठी लकीर के गाढ़ेपन में 2004 के किसान 2009 में मजदूर से लेकर माल ढोने वाले तक हो गए। कुछ किसान तो जीते जी अपनी जमीन से पूरी तरह उजड़ गए। खासकर जिनकी जमीन गंगापुर झील केकिनारे थी और जो कई तरह की फसलों के जरिए जिंदगी की गाड़ी चलाते थे। जब उनकी फसल शराब पर टिकी और धीरे-धीरे फसल उगाने की पूंजी तक नहीं बची तो जमीन बेच दी।
महत्वपूर्ण है कि झील के किनारे की जमीन को शहरीकरण के दायरे में लाने की बात अधिकारियों ने की और मुआवजा लेकर जमीन बेचने का सुझाव भी नासिक विकास प्रधिकरण से ही निकला। इस जमीन को भी पर्यटन के लिए वाइन फैक्ट्री वालों ने ही हथियाया यानी पांच साल पहले जो अपनी जमीन पर मेहनत कर जिंदगी की गाड़ी को खींचता था, वह 2009 में तेज रफ्तार से सांप सरीखी सड़कों पर दौड़ती गाडि़यों के रुकने का इंतजार कर उनके सामानों को ढोकर अपनी ही जमीन पर बने हट्स यानी रईसी की झोपडि़यों में पहंुचाता है। जहां एक रात गुजारने की कीमत उसके साल भर की कमाई पर भी भारी पड़ती है। इन पांच सालों में कितना फर्क बाजार और खेती में आ गया, इसका अंदाज इससे भी लग सकता है कि बाजार ने वाइन की प्रति बोतल में औसतन तीन सौ फीसदी की बढ़ोतरी की और खेती में जुटे किसान की फसल में दस फीसदी की बढ़ोतरी भी नही हो पाई। पांच साल पहले भी नासिक शहर में अंगूर आठ से दस रुपये किलोग्राम मिलता था, वहीं 2009 में भी अंगूर की कीमत बारह रुपये प्रति किलो नहीं हो पाई है। नासिक से सटे इलाको में नांदगांव, चांदवाड़ा से लेकर येवला और मालेगांव तक केकरीब बीस लाख किसानों के सामने इन पांच सालों में सबसे बड़ा संकट यही आया है कि उनकी खेती में लगने वाले बीज, खाद और बांस जिस पर अंगूर की झाड़ को टिकाया जाता है, उसकी कीमत में पचास फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है, लेकिन अंगूर की कीमत पांच साल में पच्चीस रुपये पेटी से तीस रुपये पेटी तक ही पहुंची है। ऐसे में किसान मजदूर बनने से भी नही कतराता, लेकिन जब बर्बाद होकर मजदूर बनने वाले किसानों की तादाद मजदूरों से कई गुना हो तो मजदूरों को भी कौन पूछता है।
नासिक में एक दर्जन से ज्यादा वाइन की फैक्टि्रयों में करीब पांच हजार कर्मचारी हैं। इन कर्मचारियों को औसतन सौ रुपये रोज के मिलते है, जो खेत मजदूर से पैंतीस रुपये ज्यादा है और नरेगा में मिलने वाले काम केबराबर है। स्थाई मजदूर कोई नहीं है चाहे वह बरसों बरस से काम कर रहा हो। दूसरी तरफ बडे़ किसान और वाइन फैक्ट्री मालिक का अंतर जमीन आसमान का है। जिसमें पटोले परिवार 20 एकड़ जमीन का मालिक होकर भी सालाना तीन लाख से ज्यादा 2004 तक कभी नहीं कमा पाया। और अब सालाना एक लाख भी नहीं जुगाड़ पाता। वहीं 2004 में जिस वाइन फैक्ट्री की लागत बीस लाख थी, वह 2009 में 200 करोड़ पार कर चुकी है। विकास की यह मोटी, लेकिन अंधी लकीर नेताओं को कितनी भाती है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नासिक के भाजपा नेता और डिप्टी मेयर अजय बोरस्ते ने इसी दौर में वाइन फैक्ट्री खोल ली। एनसीपी नेता वंसत पवार निफाड में वाइन फैक्ट्री चलाते हैं तो राज्य के पूर्व गृह मंत्री और अभी के गृहमंत्री यानी आरआर पाटील और जयंत पाटील दोनों सांगली में वाइन फैक्ट्री खोल रहे हैं। और तो और कृर्षि मंत्री शरद पवार भी बारामती में वाइन फैक्ट्री खोलने की दिशा में कदम उठा चुके हैं।
Monday, September 21, 2009
माओवादी गठबंधन के पांच साल का मतलब
जहानाबाद जेल ब्रेक से लेकर लालगढ के दौर में न सिर्फ माओवादियो की मारक क्षमता बढ़ती हुई दिखायी दी बल्कि संसदीय राजनीति और राज्य व्यवस्था माओवादी प्रभावित इलाकों में प्रभावहीन होकर उभरी। इस गठबंधन ने एकतरफ जहां पीपुल्स वार को एमसीसी के आम लोगो की भागेदारी के साथ सांगठनिक तौर तरीको को सिखाया, वही एमसीसी को पीपुल्सवार की तर्ज पर गुरिल्ला युद्द की ट्रेनिंग मिल गयी। वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक दलों को गठबंधन के जरीये सत्ता तो मिली लेकिन माओवादियों के खिलाफ अलग अलग समझ रखने की वजह से कोई ठोस नीति कहीं नहीं बन सकी।
2004 में ही आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के साथ टीआरएस जुड़ी। तेलागंना इलाके में पैठ बनाने वाली टीआरएस ने माओवादियों के खिलाफ कांग्रेस को कोई ठोस नीति नही बनाने दी। छत्तीसगढ में भाजपा ने सलवाजुडुम का नायाब प्रयोग कर जिस तरह आदिवासियो के हाथ में हथियार थमा दिये, उससे कांग्रेस माओवादियों से ज्यादा भाजपा की नीतियो के खिलाफ हो गयी या कहे राजनीतिक तौर पर निशाना साधने लगी। वहीं, उड़ीसा में भाजपा जो कार्रवाई माओवादियो के खिलाफ करना चाहती थी, उससे बीजू जनता दल इत्तिफाक नहीं रखती। झारखंड में कांग्रेस और झामुमो के बीच माओवादियो के खिलाफ कार्रवाई को लेकर कोई सहमति नहीं बनी। वहीं बंगाल में सीपीएम की राय और रणनीति दोनो से न तो सीपीआई ने कभी इत्तेफाक किया और ना ही फारवर्ड ब्लाक ने सहमति जतायी।
ऐसी ही उलझने केन्द्र स्तर पर भी रहीं। लेकिन माओवादियो के गठबंधन ने इसी दौर में पहली बार संसदीय राजनीति में हाथ जलाये बगैर राजनीतिक दलों को भी अपने प्रयोग में मोहरा बनाया। इसका सबसे ताजा उदाहरण अगर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है तो 2004 में पहला उदाहरण चन्द्रशेखर राव की टीआरएस थी । 21 सितंबर 2004 को जब दोनो माओवादी संगठनो ने गठबंधन का ऐलान किया था तो उस वक्त एमसीसी के महासचिव कामरेड किशन से जब यह सवाल पूछा गया था कि इस गठबंधन का असर क्या होगा तो किशन का जबाब था कि, " इसका प्रभाव मजदूरों,किसानों और मेहनतकश जनसमुदाय समेत समूची जनता पर पड़ेगा । क्योंकि आज तमाम गांधीवादी, बोटबाज और नकली कम्युनिस्ट पार्टियों का जनप्रेमी मुखौटा काफी हद तक उतर चुका है। ऐसी परिस्थिति में जनता भी एक ऐसी पार्टी का इंतजार कर रही है जो उनके मुक्ति संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर सके । और आने वाले दिनो में इसका सकारात्मक प्रभाव नये तरीके से वोटबाज राजनीति में मेहनतकश समुदाय महसूस करेगा। क्योकि गठबंधन के बाद सीपीआई माओवादी क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष के साथ साथ कृषि क्रांतिकारी गुरिल्ला युद्द के जरीये भी बदलाव का नया रुप देखेगी"।
दरअसल, एमसीसी के महासचिव पांच साल पहले जब यह बात कह रहे थे, उससे पहले एमसीसी की पहल बंगाल में थी जरुर लेकिन वाममोर्चा सरकार के सामने उसने कभी ऐसी चुनौती किसी मुद्दे के आसरे नहीं रखी, जिससे नक्सलबाडी संघर्ष या आम जनता की भागीदारी का कोई एहसास माओवादियो के साथ जागे। लेकिन गठबंधन के बाद जिस तर्ज पर बंगाल में सिंगूर, नंदीग्राम और लालगढ़ में माओवादियो की मौजूदगी नजर आयी और जमीन अधिग्रहण के मुद्दो को खेत मजदूर और आदिवासियो के हक में करने के लिये उसी संसदीय राजनीति को औजार बना लिया, जिसकी नीतियां इसके खिलाफ शुरु से रही, वह गौरतलब हैं। रणनीति के तौर पर बंगाल में पहली बार आंध्र प्रदेश के माओवादियो ने अगुवाई की और उसे सांगठनिक या कहे प्रभावित लोगो को गोलबंद करने में जिस तरह एमसीसी का कैडर जुटा उसने राजनीतिक तौर पर गठबंधन के महत्व को सामने रखा। सिंगूर, नंदीग्राम के बाद लालगढ में पीपुल्स वार के पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव जिस तरह मीडिया के सामने खुल कर लाये गये, उसने राजनीतिक दलों के गठबंधन में सत्ता की खिंचतान को ही एक सीख दी कि गठबंधन के जरीये ताकत बढाने का मतलब अपनी जमीन पर साथी को बडे कद में रखना भी होता है।
संसदीय राजनीति के गठबंधन में महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक में और खासकर बंगाल में कभी अपनी जमीन पर किसी राजनीतिक दल ने अपने सहयोगी को आगे बढ़ने नहीं दिया, उल्टे साथी की राजनीति को भी हड़पने का मंत्र जरुर फूंका । असल में राजनीतिक दलों में जब खुद का कद बड़ा और बड़ा करने और दिखाने की होड़ है, ऐसे वक्त अगर बीते पांच साल के दौर में उसी पीपुल्स वार की पहल को देखे जो उससे पहले के 35 साल में कभी एमएल के वार जोन में माओवादियो को घुसने नहीं देता था और वैचारिक तौर पर संघर्ष से ज्यादा एक-दूसरे के कैडर को खत्म करने की दिशा में ही बढ़ता चला गया । गठबंधन के बाद पीपुल्स वार ने एमसीसी के साथ मिलकर एमएल शब्द छोडकर सिर्फ संगठन का नया नाम सीपीआई माओवादी पर ही सहमति नहीं बनायी बल्कि एमसीसी को गुरिल्ला जोन विकसित करने की जो ट्रेनिग दी, उसी का असर है कि देश का गृहमंत्रालय आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे को सबसे गंभीर मान रहा है। क्योंकि रिपोर्ट साफ बतलाती है कि देश में पहली बार गुरिल्ला जोन ना सिर्फ विकसित किये गये हैं, बल्कि रणनीति के तौर पर इस जोन को दो स्तरो पर बांटा गया है, जिसमें आधार क्षेत्र में जन राजनीतिक सत्ता स्थापित करते हुये नये निर्माण क्षेत्र को विकसित करने की दिशा में माओवादी बढ़ रहे हैं।
असल में 2004 में पीपुल्स वार के महासचिव गणपति से यही सवाल किया गया था कि जंगल से बाहर माओवादियो की पकड़-पहुंच को लेकर गठबंधन की रणनीति क्या होगी। उस वक्त गणपति ने कहा था , " शत्रु के साथ छोटी झड़पों से बड़ी लड़ाइयों में विकास, छोटे सैन्य रुपों से बडे सैन्य रुपों का निर्माण, थोडी संख्या से बड़ी संख्या बनना, कमान और कमीशनों के रुप से ज्यादा व्यवस्थित ढांचो में विकास और शत्रु से हथियार छिनते हुये स्वयं को सशस्त्र करते में ज्यादा क्षमता। साथ ही आंतरिक पार्टी संघर्षो से बचने के लिये नये तरीके से राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्पीड़न के मुद्दो के लिये कैडर को लगातार संघर्ष से जोडे रखना। " माओवादियो की इस सोच को अगर रेड कॉरिडोर में टटोल कर देखे तो पहली बार कई ऐसी स्थितिया सामने आयेंगी, जिसमें यह साफ लगेगा कि जिस तैयारी में माओवादी पांच साल पहले गठबंधन के जरीये जुटे और इन पांच सालो में छत्तीसगढ़, उड़ीसा,झारखंड और बंगाल में जो चेहरा माओवादियो का उभरा, उसने पहली बार विकास से कोसों दूर होते इलाको में ही विकास की लकीर के जरीये लूटतंत्र का संसदीय चेहरा भी उभार दिया है । इससे पहले के 35 सालों में रेड कॉरिडोर को लेकर यही सवाल सबसे ज्यादा गूंजता था कि नक्सल प्रभावित इलाको में विकास हुआ नहीं है या फिर सरकार की किसी योजना को माओवादी पहुंचने नहीं देते हैं। लेकिन बीते पांच सालो में जिस तेजी से रेडकॉरिडोर में किसान-आदिवासियो की जमीन पर विकास की लकीर खिंचने का प्रयास हुआ और प्राकृतिक संसाधनो की लूट खासकर खनिज पदार्थो को बहुराष्ट्रीय कंपनियो को बेचेने का प्रक्रिया शुरु हुई, उसने सरकार-माओवादी टकराव को एक नया कलेवर दे दिया। क्योंकि नक्सल प्रभावित सवा सौ जिलो के छह सौ गांव की स्थिति सामाजिक-आर्थिक तौर पर आज भी सबसे पिछड़े क्षेत्रों की त्रासदी ही बयान करती है। यह वैसे गांव हैं, जहा प्राथमिक शिक्षा,प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और पीने का पानी तक मुहैया नहीं है। वहीं, अड़तालिस जिले ऐसे हैं, जहां की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियो में आजादी के बाद से इतना ही बदलाव आया है कि अंग्रेजों की जगह स्थानीय जमींदारो और राज्य सत्ता के नुमाइन्दो ने ले ली है। इन क्षेत्रो में नया बदलाव उनकी जमीन पर दखल और खनन है। यहां स्पेशल इकनामी जोन के नाम पर सिर्फ जमीन अधिग्रहण ही नहीं बल्कि उड़ीसा, छत्तीसगढ और झारखंड में खनिज के लिये यूरोप,एशिया और अफ्रीका की दो दर्जन से ज्यादा बहुराष्ट्रीय कंपनियो से देश की टॉप दस कंपनिया इस बात की होड़ कर रही है कि खनिजों की माइनिंग का अधिकार किसे मिलता है।
अगर रेडकारिडोर में बंगाल को छोड भी दिया जाये तो भी इस लालगलियारे के छह प्रमुख राज्यों आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र ,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ,उड़ीसा और झारखंड में करीब अठारह लाख करोड़ की माइनिंग की बोली बीते पांच साल में लगायी गयी। जिसकी कीमत विश्व बाजार में साठ लाख करोड़ से ज्यादा की है । जाहिर है मुनाफे के इतने बडे अंतर का मतलब राज्यों में कमीशन को लेकर भी होड़ होगी। इस होड़ का असर यही है कि जिन इलाको में खनन होना है उन्हीं इलाको में सबसे ज्यादा माओवादियो के प्रभाव को बताया दिखाया गया है और राज्य पुलिस से लेकर अर्द्दसैनिक बलो की जो तैनाती दिखायी जा रही है, वह भी इन्हीं इलाको में केन्द्रित है । इसका असर माओवादियो के लिये दोहरे फायदे वाला भी साबित हुआ है । एक तरफ जिन इलाको में खनन हो रहा है या होना है वहां ग्रामीण-आदिवासी सरकार की नीतियो के खिलाफ एकजूट हुये हैं। इनके बीच माओवादियो की पैठ किस तेजी से बढ़ी है, इसका एहसास इसी से हो सकता है कि आंकडों के लिहाज से माओवादियों के निर्माण कैडर में दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ है। निर्माण कैडर का मतलब है, जहां माओवादी निर्माण की अवस्था में हैं। वहीं पांच साल पहले जिस रणनीति का जिक्र पीपुल्सवार के महासचिव गणपति कर रहे थे कि उसी घेरे में सरकार घिरने भी आ रही है । क्योंकि उसी दौर में सुरक्षा बलों को सबसे ज्यादा नुकसान माओवादियों के हमले में हुआ है। हथियारों की लूट से लेकर अर्द्धसैनिकों की मौत बारुदी सुरंग के साथ साथ मुठभेढ़ के दौरान हुई है । इसकी एक वजह माओवादियों से ज्यादा खनन में कोई मुश्किल ना आने देने की राज्य सरकारो की सोच भी है। लेकिन माओवादियो को इसका सबसे बडा लाभ उन नये क्षेत्रो में मिल रहा है, जिसे विकास की श्रेणी में रखकर सरकार गांव से शहरो में तब्दील होते हुये देख रही है।
इस दौर में रेड कॉरिडोर में ही पचास से ज्यादा नये शहर सरकार के दस्तावेजों में बने हैं। लेकिन आर्थिक नीतियो को लेकर जो तनाव इन क्षेत्रो में पनपा है, उसमें वैचारिक तौर पर माओवादियों को एक बड़ा आधार भी इन्हीं क्षेत्र में बनता जा रहा है । क्योकि माओवादी इन इलाकों में उन मुद्दों को छू रहे हैं, जिससे जनता को हर क्षण दो-चार होना पडता है। मसलन , माओवादियो ने राष्ट्रीयता से लेकर दलित उत्पीडन और महिलाओ से लेकर अल्पसंख्यक समुदायों के उत्पीडन के मुद्दो को लेकर विशिष्ट नीतियां तैयार की हैं। लेकिन गठबंधन के इस दौर में संसदीय राजनीति या माओवादियों से इतर आम लोगो का परिस्थतियों को देखे तो उनके सामने सबसे मुश्किल वक्त है। एक तरफ राज्य की भूमिका ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बनाने वाली हो चली हैं और वैसी नीतियों को ही लागू कराने वाली बन चुकी हैं, जिसमें उनका वोट बैक समा जाये।
वहीं, माओवादियो का चाहे विस्तार इन इलाको में खूब हो रहा है लेकिन उनके रणनीति अभी भी खुद को बचाते हुये अपनी पकड़ को मजबूत बनाने की है। यानी माओवादी अभी उस स्थिति में नहीं आये हैं, जहां प्रभावित इलाको की आर्थिक परिस्थियों को बदल दें । या फिर जिस सर्वहारा का सवाल जिन इलाको में गूजता है, उन इलाको के लिये कोई वैक्लिपिक ढांचा खड़ा कर सके । वही दूसरी तरफ केन्द्र सरकार का नजरिया माओवादियो को लेकर कितनी सतही समझ वाला है, यह माओवादियो के आत्मसमर्पण और उनके पुनर्वास के लिये जारी सुविधाओ के ऐलान से समझा जा सकता है, जिसके तहत मुआवजे-दर-मुआवजे का जिक्र किया गया है । यानी गठबंधन में जिस तरह छोटे सहयोगी दलो को सत्ता की मलाई चखाकर सत्ता बरकरार रखी जाती है, उसी तर्ज पर माओवादियो की समस्या का समाधान भी देखा जा रहा है । जबकि माओवादियो की पहल बताती है कि संसदीय राजनीति के इसी तौर तरीकों में पिछले चालीस साल में माओवादी न सिर्फ फैलते चले गये हैं बल्कि राजनीतिक दलों से कही ज्यादा प्रयोग कर उन्होंने खुद का खासा मजबूत बना लिया है और गठबंधन उसका नया हथियार है।
Wednesday, September 9, 2009
देश की असल जांच रिपोर्ट के लिए तो कई मजिस्ट्रेट चाहिए
कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पिछले एक दशक के दौरान आतंकवाद के जरिए समाज के भीतर भी गढ़ा गया । चूंकि यह कूची सिल्वर स्क्रीन की तरह सलीम-जावेद की नहीं थी, जिसमें किसी अमिताभ बच्चन को महज अपनी अदाकारी दिखानी थी। बल्कि आतंकवाद को परिभाषित करने की कूची सरकारों की थी। लेकिन इस व्यवस्था में जो नायक गढ़ा जा रहा था, उसमें पटकथा लेखन संघ परिवार का था। और जिस नायक को लोगों के दिलो में उतारना था-वह नरेन्द्र मोदी थे। आतंकवाद से लड़ते इस नायक की नकल सिनेमायी पर्दे पर भी हुई । लेकिन इस दौर में नरेन्द्र मोदी को अमिताभ बच्चन की तरह महज एक्टिंग नहीं करनी थी बल्कि डर और भय का एक ऐसा वातावरण उसी समाज के भीतर बनाना था, जिसमें हर समुदाय-संप्रदाय के लोग दुख-दर्द बांटते हुये सहज तरीके से रह रहे हों।
हां, अदाकारी इतनी दिखानी थी कि राज्य व्यवस्था के हर तंत्र पर उन्हें पूरा भरोसा है और हर तंत्र अपने अपने घेरे में बिलकुल स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर काम कर रहा है। इसलिये जब 15 जून 2004 को सुबह सुबह जब अहमदाबाद के रिपोर्टर ने टेलीफोन पर ब्रेकिंग न्यूज कहते हुये यह खबर दी कि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोएबा में लड़कियां भी जुड़ी है और गुजरात पुलिस ने पहली बार लश्कर की ही एक लड़की को एनकांउटर में मार गिराया है तो मेरे जेहन में तस्वीर यही उभरी कि कोई लड़की हथियारो से लैस किसी आतंकवादी की तर्ज पर किसी मिशन पर निकली होगी और रास्ते में पुलिस आ गयी होगी, जिसके बाद एनकाउंटर। लेकिन अहमदाबाद के उस रिपोर्टर ने तुरंत अगली लकीर खुद ही खिंच दी। बॉस, यह एक और फर्जी एनकाउंटर है। लेकिन लड़की। यही तो समझ नहीं आ रहा है कि लडकी को जिस तरह मारा गया है और उसके साथ तीन लड़को को मारा गया है, जबकि इस एनकाउंटर में कहीं नहीं लगता कि गोलिया दोनों तरफ से चली हैं। लेकिन शहर के ठीक बाहर खुली चौड़ी सडक पर चारों शव सड़क पर पड़े हैं। एक लड़के की छाती पर बंदूक है। कार का शीशा छलनी है। अंदर सीट पर कुछ कारतूस के खोखे और एक रिवॉल्वर पड़ी है। और पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारो के ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं।
घटना स्थल पर पुलिस कमिशनर कौशिक, क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमीशनर पांधे और डीआईजी वंजारा खुद मौजूद है, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम प्लान बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल खड़ा कौन करे । 6 बजे सुबह से लेकर 10 बजे तक यानी चार घंटो के भीतर ही जिस शोर -हंगामे में लश्कर का नया आंतक और निशाने पर मोदी के साथ हर न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी फर्जी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत करें कौन, यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था । क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह भी परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वाले में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाये।
लेकिन एक खास व्यवस्था में किस तरह हर किसी की जरुरत कमोवेश एक सी होती चली जाती है, और राज्य की ही अगर उसमें भागीदारी हो जाये तो सच और झूठ के बीच की लकीर कितनी महीन हो जाती है, यह इशरत जहां के एनकाउंटर के बाद कई स्तरों पर बार बार साबित होती चली गयी। एनकाउटर के बाद मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पुलिस प्रशासन की पीठ थपथपायी, तब मोदी राज्य व्सवस्था को आतंकवाद के खिलाफ मजबूती प्रदान करने वाले किसी नायक सरीखे दिखे। लड़की के लश्कर के संबंध को लेकर जब मोदी ने एक खास समुदाय को घेरा तो आंतकवाद के खिलाफ मोदी हिन्दुत्व के नायक सरीखे लगे। इस नायकत्व पर उस वक्त किसी भी राजनीतिक दल ने अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं की। क्योंकि जो राजनीति उस वक्त उफान पर थी, उसमें पाकिस्तान या कहें सीमा पार आतंकवाद का नाम ऑक्सीजन का काम कर रहा था। वहीं, आंतकवाद के ब्लास्ट दर ब्लास्ट उसी पुलिस प्रशासन को कुछ भी करके आतंकवाद से जोड़ने का हथियार दे रहे थे, जो किसी भी आतंकवादी को पकड़ना तो दूर, कोई सुराग भी कभी नहीं दे पा रही थी।
यह हथियार सत्ताधारियों के लिये हर मुद्दे को अपने अनुकूल बनाने का ऐसा मंत्र साबित हो रहा था जिस पर कोई अंगुली उठाता तो वह खुद आतंकवादी करार दिया जा सकता था। कई मानवाधिकार संगठनों को इस फेरहिस्त में एनडीए के दौर में खड़ा किया भी गया । इसका लाभ कौन कैसे उठाता है, इसकी भी होड़ मची । इसी दौर में नागपुर के संघ मुख्यालय को जिस तरह आतंकवादी हमले से बचाया गया, उसने देशभर में चाहे आतंकवाद के फैलते जाल पर बहस शुरु की, लेकिन नागपुर में संघ मुख्यालय जिस घनी बस्ती में मौजूद है, उसमें उसी बस्ती यानी महाल के लोगो को भी समझ नहीं आया कि कैसे मिसाइल सरीखे हथियार से लैस होकर कोई उनकी बस्ती में घुस गया और इसकी जानकारी उन्हें सुबह न्यूज चैनल चालू करने पर मिली। इस हमले को भी फर्जी कहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओ का पुलिस ने जीना मुहाल कर दिया। सुरेश खैरनार नामक एक कार्यकर्ता तो दिल्ली में तमाम न्यूज चैनलो में हमले की जांच रिपोर्ट को दिखाने की मन्नत करते हुये घूमता रहा लेकिन किसी ने संघ हेडक्वार्टर की रिपोर्ट को फर्जी कहने की हिम्मत नहीं की क्योंकि शायद इसे दिखाने का मतलब एक अलग लकीर खिंचना होता । और उस लकीर पर चलने का मतलब सत्ताधारियो का साथ छोड़ एक ऐसी पत्रकारिता को शुरु करना होता, जहां संघर्ष का पैमाना व्यवसायिकता में अवरोध पैदा कर सकता है।
अहमदाबाद में इशरत जहां को जब लश्कर से जोड़ने की बात गुजरात की पुलिस और उसे आधार बनाकर मुख्यमंत्री ने कही तो मेरे जेहन में लश्कर-ए-तोएबा के मुखिया का वह कथन घूमने लगा, जिसका जिक्र लश्कर के चीफ हाफिज सईद ने 2001 में मुझे इंटरव्यू देने से पहले किया था। हाफिज सईद ने इंटरव्यू से पहले मुझसे कहा थी कि मै पहला भारतीय हूं, जिसे वह इंटरव्यू दे रहे हैं। लेकिन भारत से कई और न्यूज चैनलो ने उनसे इंटरव्यू मांगा है । संयोग से कई नाम के बीच बरखा दत्त का नाम भी उसने लिया, लेकिन फिर सीधे कहा खवातिन को तो इंटरव्यू दिया नहीं जा सकता। यानी किसी महिला को लेकर लश्कर का चीफ जब इतना कट्टर है कि वह प्रोफेशनल पत्रकार को भी इंटरव्यू नहीं दे सकता है तो यह सवाल उठना ही था कि अहमदाबाद में पुलिस किस आधार पर कह रही है इशरत जहां के ताल्लुकात लश्कर से हैं ।
यह सवाल उस दौर में मैंने अपने वरिष्ठों के सामने उठाया भी लेकिन फिर एक नयी धारा की पत्रकारिता करने तक बात जा पहुंची, जिसके लिये या तो संघर्ष की क्षमता होनी चाहिये या फिर पत्रकारिता का एक ऐसा विजन, जिसके जरिए राज्य सत्ता को भी हकीकत बताने का माद्दा हो और उस पर चलते हुये उस वातावरण में भी सेंध लगाने की क्षमता हो जो कार्बनडाइऑक्साइड होते हुये भी राजनीतिक सत्ता के लिये ऑक्सीजन का काम करने लगती है।
जाहिर है गुजरात हाईकोर्ट ने कुछ दिनो पहले ही तीन आईएएस अधिकारियो को इस एनकाउंटर का सच जानने की जांच में लगाया है। लेकिन किसी भी घटना के बाद शुरु होने वाली मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट ने ही जिस तरह इशरत जहां के एनकाउंटर को ‘पुलिस मेडल पाने के लिये की गयी हत्या’ करार दिया है, उसने एक साथ कई सवालों को खड़ा किया है । अगर मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाये। खासकर कई रिपोर्ट तो मुबंई के बाहरी क्षेत्र में, जहां इसरत रहती थी, उन इलाको को भी संदेह के घेरे में लाने वाली बनी। उस दौर में मीडिया रिपोर्ट ने ही इशरत की मां और बहन का घर से बाहर निकलता दुश्वार किया। उसको कौन सुधारेगा। फिर 2004 के लोकसभा चुनावों में आतंकवाद का जो डर राजनेताओ ने ऐसे ही मीडिया रिपोर्ट को बताकर दिखाया, अब उनकी भूमिका को किस रुप में देखा जाये । 2004 के लोकसभा चुनाव में हर दल ने जिस तरह गुजरात को आतंकवाद और हिन्दुत्व की प्रयोगशाला करार देकर मोदी के गुजरात की तर्ज पर वहां के पांच करोड़ लोगों को अलग थलग कर दिया, उसने यह भी सवाल खड़ा किया कि समाज का वह हिस्सा जो, इस तरह की प्रयोगशाला का हिस्सा बना दिया जाता है उसकी भूमिका देश के भीतर किस रुप में बचेगी। क्योंकि पांच साल पहले के आतंकवाद को लेकर विसंगतियां अब भी हैं, लेकिन 2009 में उससे लड़ने के तरीके इतने बदल गये हैं कि समाज की विसंगतियों की परिभाषा भी सिल्वर स्क्रीन से लेकर लोगो के जहन तक में बदल चुकी है। नयी परिस्थितियों में समाज से लड़ने के लिये राजनीति में न तो नरेन्द्र मोदी चाहिये, न ही सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ बच्चन। नयी परिस्थितियों में इशरत जहां के एनकाउटर का तरीका भी बदल गया है । अब सामूहिकता का बोध है। सिल्वर स्क्रीन पर कई कद वाले कलाकारो की सामूहिक हंसी-ठठ्टा का ऐसा जाल है, जहां सच को जानना या उसका सामना करना हंसी को ही ठसक के साथ जी लेना है । वहीं समाज में मुनाफा सबसे बडी सत्ता है जो सामूहिक कर्म से ही पायी जा सकती है । और एनकाउटंर के तरीके अब सच से भरोसा नहीं उठाते बल्कि विकास की अनूठी लकीर खींच कर विकसित भारत का सपना संजोते है।
सवाल है इसकी मजिस्ट्रेट जांच कब होगी और इसकी रिपोर्ट कब आयेगी। जिसके घेरे में कौन कौन आएगा कहना मुश्किल है लेकिन इसका इंतजार कर फिलहाल इताना तो कह सकते हैं-इशरत हमें माफ कर दो ।
Tuesday, September 8, 2009
क्यों नागपुर से दिल्ली चली संघ एक्सप्रेस
इन 17 सालो में फर्क यही आया कि जवानों के पास आधुनिकतम हथियार और दूरबीन आ गयी और महाल का मतलब संघ का असल मुख्यालय हो गया, जहा सारी शतरंज खेली जाती है। असल इसलिये क्योंकि हेडगेवार ने इसी घर से संघ कार्यालय की शुरुआत की थी। और 1948 के बाद प्रतिबंध का स्वाद 1993 में ही संघ के इस मुख्यालय ने भोगा। इमरजेन्सी के प्रतिबंध का एहसास यहां इसलिये नहीं हुआ, क्योकि तब पूरे देश में एक तरह का प्रतिबंध था।
6 दिसबंर 1992 को जब समूचॆ देश में हंगामा मचा हुआ था तो बेहद खामोशी के साथ देवरस को इसी घर में नजरबंद करने के आदेश प्रशासन ने दे दिये । इस दिन से पहले महाल के इसी घर से करीब चार किलोमीटर दूर रेशमबाग के हेडगेवार भवन को ही हर कोई संघ मुख्यालय मानता और समझता था। चूंकि हेडगेवार भवन एकदम खुली सड़क और खुले मैदान से जुड़ा है और हर सुबह- शाम जितनी बड़ी तादाद में यहां शाखा लगती और खुला मैदान होने की वजह से खेल का शोर कुछ इस तरह रहता कि पुराने नागपुर की दिशा में जाने वाला हर किसी शख्स को दूर से ही दिखायी पड़ जाता है।
लेकिन नागपुर के मिजाज में संघ की मौजूदगी कभी घुली नहीं । जनसंघ को कभी नागपुर में जीत मिली नहीं और इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब समूचे देश में जनता लहर थी तो भी नागपुर समेत समूचे विदर्भ सभी 11 सीटो में से कोई भी जनता पार्टी का उम्मीदवार न जीत सका । उस वक्त देवरस को भी आश्चर्य हुआ था कि उनके राजनीति प्रयोग को जेपी के जरीये जब काग्रेस को मात दी गयी तो नागपुर में संघ समर्थित उम्मीदवार को कांग्रेस ने मात दे दी। यही हाल बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद भी हुआ, जब कांग्रेस जीत गयी । यानी नागपुर में संघ की पहचान कभी राजनीतिक तौर पर निकल कर नहीं आयी, जिससे लगे कि उसकी अपनी जमीन पर राजनीति तो खड़ी हो सकती है।
यह नागपुर में हुआ नहीं और भाजपा के लिये संघ की समझनुसार वैसी जमीन बनी नहीं जैसा देश के सार्वजनिक जीवन में हिन्दुत्व का पाठ पढाते हुये संघ, भाजपा को राजनीतिक तौर पर इसका लाभ दिलाता । ऐसा भी नहीं है कि संघ के सामने मौके नहीं आये कि वह नागपुर में अपनी पहचान बना ले। गांधी को लेकर संघ के क्या विचार थे, यह कोई छुपा नहीं है। लेकिन दलितो को लेकर आंबेडकर के साथ भी संघ खड़ा नहीं हुआ क्योकि तब भी संघ हिन्दु राष्ट्र का एक अनोखा सपना पाले हुआ था । नागपुर में दलितो के संघर्ष से लेकर बुनकरो का संघर्ष आजादी के बाद ही शुरु हुआ । लेकिन संघ साथ खड़ा नहीं हुआ । नागपुर में बुनकरो के संघर्ष का प्रतीक गोलीबार चौक भी है, जहां पुलिस की गोली से बुनकर मारे गये थे। वहीं नागपुर में ही अंग्रेजो के दौर में ही सबसे बडी काटन मिल स्थापित हुई। और बड़ी बात यह है कि संघ की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ यानी बीएमएस ने सबसे पहले इसी काटन मिल में अपनी यूनियन बनायी।
लेकिन जब नब्बे दे दशक में जब यह मिल बंद होने का आयी तो बीएमएस ने मजदूरो के हक की लड़ाई में अपना कंधा अलग कर लिया । असल में नागपुर में संघ मुख्यालय होने के बावजूद आरएसएस से ज्यादा हिन्दू महासभा की यादें लोगों के जहन में है । हालांकि संघ का विस्तार हिन्दू महासभा से ज्यादा होता गया, लेकिन सच यह भी है कि पहली बार सावरकर जब नागपुर पहुंचे तो उन्होने काटन मार्केट की एक सभा में संघ के तौर तरीको को किसी मंदिर के पूजा पाठ सरीखा ही माना और राजनीतिक समझ से कोसो दूर बताते हुये खारिज भी किया । उस वक्त हेडगेवार चाहते थे कि सावरकर संघ मुख्यालय आये । लेकिन सावरकर राजनीतिक तौर पर हिन्दुओ को जिस तरह संगठित कर रहे थे, उसमें संघ उनके तरीको को कमजोर कर देता इसलिये संघ मुख्यालय तक नहीं गये।
वहीं मुस्लिमो को लेकर संघ की समझ नागपुर में ही 7 दिसबंर 1992 को उभरी थी । 6 दिसबंर को देवरस के नजरबंद होने के बाद बाबरी मस्जिद ढहाने के विरोध में अपने गुस्से का इजहार मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में हुआ । मोमिनपुरा के लोग रैली की शक्ल में जैसे ही मोमिनपुरा के बाहर सड़क पर निकले, वहां खड़ी पुलिस ने ताबडतोब गोलियां दागनी शुरु कर दी । 9 युवा समेत 13 लोग मारे गये। उसके बाद नागपुर में यह बहस शुरु हुई कि एक तरफ 6 दिसबंर को संघ से जुडे संगठन खुले तौर पर प्रदर्शन करते है, दुर्गा वाहिनी हथियारो का प्रदर्शन करती है और उन्हें कोई रोकता नहीं और सरसंघचालक को नजरबंद कर मामले को वहीं का वहीं खत्म किया जाता है। वहीं, मुस्लिमो के प्रदर्शन मात्र को कानून व्यवस्था के लिये खतरा बता दिया जाता है। हालांकि इस घटना के बाद नागपुर के पुलिस कमीशनर इनामदार का तबादला हुआ लेकिन तीन साल बाद शिवसेना-भाजपा के सत्ता में आने पर इनामदार को पदोन्नति भी मिली । मगर बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद देश में तुरंत कहीं लोग मरे तो वह नागपुर रहा, जहां 13 लोगो की मौत हुई । और इस घटना को भी नागपुर में संघ ने अपनी उस नयी पहचान से जोडने की पहल की जो इससे पहले उसे मिली नहीं थी । यानी अयोध्या पर संघ की इस प्रयोगशाला में हिन्दुत्व के लिये जगह है, बाकियो की अभिव्यक्ति भी बर्दाश्त नहीं है । लेकिन नागपुर ने संघ की इस पहचान को भी नहीं स्वीकारा । ना सामाजिक तौर पर ना राजनीतिक तौर पर । इसका मलाल देवरस को हमेशा रहा । इसलिय 1993 में जब कल्याण सिंह नागपुर पहुचे और संघ मुख्यालय में देवरस से मिलने के लिये बेताब हुये तो उन्हें टाला गया और मिलने का वक्त भी मिनटो में सिमटाया गया ।
नागपुर की इस नब्ज को टटोलने के लिये जब कल्याण सिंह नागपुर के तिलक पत्रकार भवन पहुंचे । तो उन्हे वहीं समझ में आ गया कि संघ की पकड़ नागपुर में कितनी कम है और जिनके भीतर संघ समाया हुआ है, वह कल्याण सिंह को संघ के सोशल इंजिनियरिंग का एक औजार भर मानते हैं। नागपुर की इन्हीं परिस्थितियो को जानते समझते हुये मोहनराव भागवत सरसंघचालक बने हैं। इसलिये दिल्ली पहुंच कर भागवत का भाजपा को पाठ पढ़ाने के अंदाज को समझना जरुरी है । क्योंकि राजनीतिक तौर पर भागवत हेडगेवार की उसी थ्योरी को समझते है कि जब राजनीति दिशाहीन हो जाये तो सामाजिक तौर पर हिन्दुत्व ही एकमात्र रास्ता बचता है। बदलाव सत्ता के जरीये नहीं बल्कि समाज के जरीये आता है। और सत्ता जोड़तोड़ की माथापच्ची के अलावा और कुछ नहीं है जबकि संघ सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, जो समाज में राजनीति से ज्यादा घुसपैठ करता है । कई मौको पर हिन्दु महासभा से टकराव के दौर पर हेडगेवार ने कई जगहो पर इस समझ को रखा ।
लेकिन सवाल है जो संगठन अपने जड़ में यानी नागपुर में ही बेअसर है, उसका असर दिल्ली में क्यों नजर आता है । जाहिर है दिल्ली में समाज नहीं सिर्फ राजनीति है और राजनीति को पटरी पर लाने के लिये समाज का भय दिखा कर संघ अपना औरा खड़ा कर सकता है । सवाल है क्या मोहन राव भागवत इस भय के सहारे भाजपा को संघ से बांध रहे है या फिर भाजपा संघ के बनाये गये इस भय से अपना राजनीतिक हित साधना चाहती है। अगर संघ की मौजूदगी को राजनीतिक तौर पर देखा परखा जाये तो आजादी के बाद से किसी भी संकट के वक्त संघ का कार्य किसी एनजीओ और सामाजिक संगठन के मिले जुले रुप के तौर पर उभर कर आता है । लेकिन अयोध्या कांड के वक्त पहली बार संघ की भूमिका उसी सावरकर की राजनीतिक समझ के करीब लगी, जिससे संघ हमेशा कतराता रहा । जिस तेजी से भाजपा ने 1992 के बाद राजनीति सत्ता की सीढियों को चढ़ना शुरु किया और संघ की नयी पहचान में वह समाज में घुलने मिलने की जगह कहीं ज्यादा अलग साफ दिखायी पड़ने लगा, उसने वैचारिक तौर पर समूचे संघ परिवार को ट्रासंफार्म के दौर में ला खड़ा किया । क्योंकि जिस संघ में चेहरे से ज्यादा संगठन को महत्वपूर्ण माना गया, वहां अयोध्या के बाद संघ को पहले संघ के ही संगठन और फिर संगठनों के चेहरो में केन्द्रित करने की राजनीति भी शुरु हुई । भागवत इसी चेहरे से कतरा रहे हैं। क्योकि उनकी पूरी ट्रेनिग नागपुर में हुई है, जहां के समाज में संघ का कोई चेहरा मान्य नहीं है। यानी हेडगेवार के बाद से गुरुगोलवरकर हो या देवरस या फिर रज्जू भैया किसी की पहचान इस रुप में नहीं बनी कि जिससे संघ भी चेहरा केन्द्रित लगे । इसका राजनीतिक खामियाजा नागपुर के हर चुनाव में हर बार उभरा । भाजपा का उम्मीदवार अगर खाकी नेकर में नजर आया तो वह संघ का माना गया। जो खाकी नेकर में कभी नजर नहीं आया उसे बाहरी माना गया । संघ का भी जोर भी उसी बात पर रहा कि भाजपा उम्मीदवारो को लेकर समाज के भीतर बहस संघ के काम को लेकर हो और उम्मीदवार उसी सच से जुडे । यह अलग बात है कि संघ का काम नागपुर में ऐसा उभरा नहीं, जिससे भाजपा के उम्मीदवार को राजनीतिक लाभ मिले । लेकिन भागवत इसी सोच के आसरे भाजपा को दिल्ली में ढालना चाहते है। क्योकि इससे संघ पहचाना जाता है और इस पहचान के जरीये अगर राजनीतिक संगठन सत्ता पाता है तो संघ को लगता है कि हिन्दु राष्ट्र के नारे को इससे बल मिला।
इसलिये भागवत का जोर एक महत्वपूर्ण चेहेरे की जगह सौ स्वयसेवको को काम पर लगाने की थ्योरी है । संघ की सोच और भागवत की निजी पहल इसीलिये दोहरे स्तर पर काम कर रही है । संघ उस चूक से निकलना चाहता है जिस चूक से धीरे धीरे भाजपा का मतलब लालकृष्ण आडवाणी होता चला गया । वहीं भागवत निजी तौर पर इस संदेश को साफ करना चाहते है कि वह आडवाणी के पीछे नहीं खड़े है जैसा की भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद प्रचारित किया गया । भागवत का मानना है कि 2007 से लेकर 2009 तक आडवाणी के विरोध के बावजूद संघ ने स्वयसेवकों को को ना सिर्फ पूरी तरह शांत किया बल्कि चुनाव पूरे होने तक विरोध का हर स्वर भी दबा दिया । लेकिन आडवाणी ने संघ को भाजपा केन्द्रित बनाने की पहल चुनाव में हार के बाद भी जारी रखी। इसीलिये उन्हे दिल्ली में ना सिर्फ तीन दिन तक डेरा डालना पडा बल्कि हर निर्णय में अपने साथ उस पूरी टीम को साथ रखना पडा जो संघ का केन्द्र है। यानी सरकार्यवाह भैयाजी जोशी से लेकर दत्तात्रेय होसबले और मदनदास देवी से लेकर मनमोहन वैघ तक की मौजूदगी दिल्ली के हर बैठक में रही और हर बैठक में एक ही बात स्वयंसेवकों के लिये खुलकर कही गयी कि आडवाणी को जाना होगा । लेकिन खास बात यह भी है कि भागवत को छोडकर हर वरिष्ठ स्वयंसेवक खामोश ही रहा । कैमरे के सामने भी और बातचीत के दौर में भी । संघ के अपने इतिहास में भी यह पहली बार हुआ जब संघ के छह महत्वपूर्ण पदाधिकारी सारे काम छोड कर अपने ही किसी संगठन के झगड़ों को निपटाने के लिये नागपुर से बाहर जुटे। इस जुटान का मतलब भाजपा का बढ़ा कद भी है और संघ का सिकुड़ना भी । इसका मतलब भाजपा के खिलाफ पहल करने के लिये संघ का सबसे कमजोर वक्त का इंतजार करना भी था और भाजपा के भीतर भी स्वयंसेवक और गैर स्वयंसेवकों के युद्द छिड़ने का इंतजार करना भी था । असल में नागपुर में बिना पहचान के 84 साल गुजारने वाले आरएसएस की मान्यता बनाने या पाने की रणनीति का अक्स भाजपा आपरेशन से भी समझा जा सकता है ।
संघ की पहल भाजपा के खिलाफ तब हुई जब भाजपा के भीतर से ही नहीं बल्कि गैर स्वयंसेवक अरुण शौरी से लेकर भाजपा के समर्थन में खड़े बाहरी लोगों ने भी जब यह कहना शुरु कर दिया संघ को अब भाजपा का टेकओवर कर लेना चाहिये । यानी संघ की मान्यता जैसे ही भाजपा से बड़ी हुई भागवत ने हलाल तरीके से झटका दिया जो गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर उस टिप्पणी पर भी भारी पडी कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बजी तो ठीक है नहीं तो खा जाएंगे । असल में संघ अब भाजपा को जनसंघ ही बनाना चाहता है, जिसमें आडवाणी की विदायी के साथ मई से दिल्ली में बैठे संजय जोशी सरीखे सौ स्वयंसेवक सक्रिय हो जाये और स्वदेशी आंदोलन को ठेगडी के बाद दिशा देने में लगे मुरलीधर राव सरीखे स्वयंसेवक भाजपा नेतृत्व संभाल लें। लेकिन संघ की इस पहल से सिर्फ भाजपा बदलेगी ऐसा भी नहीं है। असर संघ के भीतर बाहर भी है । इसका अक्स अयोध्या कांड के बाद नागपुर में संघ मुख्यालय से सटे खाली प्लाट को लेकर भी समझा जा सकता है । उस वक्त संघ मुख्यालय की सुरक्षा के लिये प्रशासन ने खाली प्लाट को संघ से जोड़ दिया, वही 17 साल बाद संघ को लग रहा है कि भाजपा को संघ में ढालकर वह उस राजनीतिक प्लाट को अपने घेरे में ले आयेगी जहां से टूटते-बिखरते संघ को एक नया जीवन मिलेगा ।
Tuesday, September 1, 2009
जनादेश की हवा में मनमोहन की रफ्तार
सत्ता सभालते वक्त मनमोहन सिंह ने दो बातों पर खास जोर दिया था। पहला अर्थव्यवस्था और दूसरा आंतरिक सुरक्षा । मंदी को लेकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का जो सपना विकास दर के आंकडों में देखने-दिखाने की कोशिश की जानी थी, उस सपने को सूखे ने सबसे पहले तोड़ा। विकास दर के आंकडो से लेकर महंगाई दर के आंकड़ों के लिये सरकार की कोई नीति काम करती है, इस पर तो कयास ही लगाये जा सकते है लेकिन सूखा से लड़ने के लिये नीति होनी चाहिये नहीं तो देश डगमगा सकता है, इसका अंदाज सूखे में डगमगाते देश और सरकार से लग गया। मानसून के हवा-हवाई होने के वक्त ही संसद का मानसून सत्र शुरु हुआ था। लेकिन सरकार ने सूखा तो दूर मानसून की कमी को भी नहीं माना। सूखे से देश के सत्तर करोड़ लोग जब सीधे प्रभावित हो रहे थे, तब सरकार शर्म-अल-शेख और बलूचिस्तान को लेकर संसद में उलझी थी। किसी ने हिम्मत नहीं दिखायी कि सूखा और उसके बाद महंगाई से खस्ता होते हालातों को लेकर संसद से कोई पहल हो।
संसद का मानसून सत्र बिना मानसून जब आखिरी दौर में पहुचा तो सरकार और सांसदों को लगा कि उन्हें तो अब अपने लोकसभा क्षेत्र में भी जाना होगा तो रस्मअदायगी के लिये मानसून-सूखा-महंगाई का रोना रोया गया । जिसमें बहस के दौरान लोकसभा में कभी भी सौ सासंद भी नजर नहीं आये । सरकार के पहले बजट ने भी जतला दिया कि उसकी नजर वोट बैंक को खुद पर आश्रित किये रखने की है। इसलिये बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर के जरीये देश को मजबूत आधार देने के बदले मंत्रालयों को ग्रामीण समाज के विकास का पाठ पढाते हुये बजट का साठ फीसदी बांटा गया। यानी यह जानते समझते हुये किया गया कि अगर केन्द्र से साठ लाख करोड़ रुपया ग्रामीण विकास के लिये चलेगा तो निचले स्तर तक महज छह से नौ लाख रुपया ही पहुंच पायेगा । बाकि तो उस तंत्र में खप जायेगा जो सरकार के जरिये बीच का आदमी होकर वोटबैक भी बनाता-बनता है और इसी तंत्र को रोजगार मान कर सरकारो की नीतियों पर तालिया पीटता है ।
राष्ट्रीय रोजगार योजना यानी नरेगा इसी तंत्र में सबसे मजबूत होकर उभरा तो उसको चुनाव की जीत से जोड़ते हुये उस पर करोड़ों लुटाने की नीति बनी । नरेगा के तहत हर महीने साढ़े तीन हजार करोड़ से कुछ ज्यादा और साल भर में 44 हजार करोड का प्रवधान किया गया । लेकिन पहले सौ दिन में 12 हजार करोड़ रुपये नरेगा में देकर सरकार ने क्या किया, इसका कोइ लेखा-जोखा नही है । सिवाय इसके कि किस गांव पंचायत में किस किस नाम के किस ग्रामीण को रोजगार दिया गया । जो दिल्ली में बैठ कर फर्जी बनाया जा सकता है । सवाल है कि इसी नरेगा को किसी इन्फ्रास्ट्रक्चर की योजना से जोड़ा जाता तो नजर में काम भी आता और रोजगार भी। लेकिन यहा सिर्फ रुपया नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री कभी दुखी नहीं हुये कि उनके मंत्रालय में कैबिनेट स्तर के कृषि मंत्री ही सूखा और महंगाई को लेकर जमाखोरो और मुनाफाखोरो को लगातार संकेत दे रहे है कि जो कमाना है तो चीनी, दाल, चावल की जमाखोरी कर लो।
यह पहली बार हुआ कि कृषि मंत्री शरद पवार ने देश में भरोसा पैदा करने की जगह संसद के परिसर से लेकर कृषि मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर कहा कि चावल-चीनी के दाम आने वाले वक्त में बढ़ सकते है । दाल की कमी हो सकती है । इस दौर में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने भी सूखे और महंगाई के मद्देनजर शरद पवार पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी टीम के वरिष्ठ मंत्री को लेकर न दुखी हुये न ही उन्होने कोई प्रतिक्रिया दी । बात हवा में उड़ा दी गयी।
इसी दौर में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के इलाको को चिन्हित कर बुदेलखंड प्राधिकरण का सवाल राहुल गांधी ने उठाया । प्राधिकरण या कहे राहुल गांधी को लेकर उस राजनीति में भरोसा जरुर उठा जो बुंदेलखंड को संवार कर अपनी राजनीतिक जमीन बनाना चाहते है, लेकिन बुंदेलखंड के लोगो में कोई आस नही जगी । क्योंकि इन सौ दिनो में यहां के पांच लाख से ज्यादा लोगों को रोजी रोटी के लिये घरबार छोड़ना पड़ा। वहीं, इसी दौर में इसी इलाके में खनिज संपादा की लूट में हजारों एकड़ जमीन पर सिर्फ बारुद ही महकता रहे। माइनिंग के जरिये खनिज संपदा को निकालने के प्रक्रिया में तीन हजार से ज्यादा विस्फोट तो इन्हीं सौ दिनो में किये गये । और विश्व बाजार में दस हजार करोड़ से ज्यादा का खनिज यहां से निकाला गया।
किसानो को लेकर राहत का सवाल इन सौ दिनो में तीन बार सरकार की तरफ से किया गया, जिसमें दो बार वित्तमंत्री तो एक बार पीएम को ख्याल आया । याद करने के दौरान हर बार कुछ राहत देने की बात कही गयी लेकिन मुश्किल आसान करने की कोई नीति सरकार ने नहीं रखी । इन सौ दिनों में सरकार की तरफ से ऐसी कोई नीति लाने की भी नहीं सोची गयी, जिससे किसाने को कहा जा सके कि 2014 के चुनाव के वक्त कोई किसान आत्महत्या नहीं करेगा, ऐसी नीतिया हम ला रहे हैं। मनमोहन सिंह स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले से जब देश में दूसरी हरित क्रांति की जरुरत बता रहे थे, तब विदर्भ के पांच किसान खुदकुशी कर रहे थे। 2008 में भी मनमोहन सिंह ने ही लालकिले पर झंडा फहराया था और 2009 में भी । किसानो को लेकर दर्द दोनो मौकों पर उभारा था । लेकिन इस एक साल में देश भर में तीन करोड़ से ज्यादा किसान मजदूर हो गये । संयोग से आजादी के बाद मजदूरों में तब्दील होने का किसानो का यह सिलसिला सबसे तेजी से उभरा है। जिस आंध्र प्रदेश में वायएसआर ने किसानो का ही सवाल उठाकर सत्ता पायी और सौ दिन पहले दूसरी बार सत्ता जीत कर नायडू के इन्फोटेक को मात दी, वही वायएसआर ने भी कैसे किसानों से मुंह मोड़ लिया, यह भी इन्हीं सौ दिनो में नजर आया। सबसे ज्यादा किसानो ने इन्हीं सौ दिनो में खुदकुशी की। आंकड़ा पचास पार कर गया ।
लेकिन सवाल यह उभरा कि पीएम ने दूसरी हरित क्रांति को लाने के लिये किसे कहा। उनकी खुद की पहल क्या है । यह सवाल मौन है । पंचायती स्तर की राजनीति की वकालत तो पीएम भी करते हैं । लेकिन दिल्ली से महज सौ किलोमीटर की दूरी पर इन्ही सौ दिनो कोई पंचायत छह प्रेमी जोड़ों की हत्या कर दे और राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर पीएम तक खामोश रहे , तो क्या इसे महज सामाज की त्रासदी बताकर खामोशी ओढी जा सकती है। हरियाणा में तो वही कांग्रेसी सरकार है जो दुबारा सत्ता पाने के लिये सबकुछ योजनाबद्द तरीके से कर रही है। सोनिया गांधी से मुलाकात कर जल्द चुनाव कराकर सत्ता में दोबारा लौटने का जो बल्यू प्रिंट कांग्रेसी सीएम हुड्डा ने रखा, उसमें वह 8 हजार करोड़ का प्रचार भी था जो विधानसभा भंग करने से पहले न्यूज चैनलों, समाचार पत्रों, एफएम और तमाम हिन्दी-अंग्रेजी की पत्रिकाओं के लिये बुक कर लिये गये थे । अगर यही नीति और पैसा उन पंचायतो को आधुनिक समाज से जोड़ने में लगाया जाता, जहां पुलिस कानून को ठेंगा दिखाकर नौजवान प्रेमियो की हत्या कर दी जाती है तो कुछ बात होती । लेकिन हत्याओ के बाद सीएम का बयान भी यही आया कि समाज को भी देखना पड़ता है । पीएम तो देश का होता है । जब सरकार के ही आंकडे बताते है कि देस में 38 फीसदी गरीबी की रेखा से नीचे है और सत्तर करोड लोग दिन भर में महज बीस रुपये कमा पाते है तो फिर दस सेकेंड के लिये बीस हजार से लेकर नब्बे हजार तक न्यूज चैनलो में अपनी उपल्बधि बताने के लिये कोई कांग्रेसी कैसे लुटा सकता है।
अर्थव्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा के छेद खुद सरकार भी बताती है । इन्ही सौ दिनो में हजार और पांच सौ रुपये के नकली नोट देश की अर्थव्यवस्था को खोखला करते गये । सरकार के माथे पर भी शिकन साफ दिखायी दी । बडे स्तर पर जांच की तैयारी भी की गयी लेकिन रिजर्व बैक ने जब यह कहा कि हर पांच नोट पर एक नकली नोट हो सकता है तो मामला जांच से आगे जाता है। लेकिन पीएम ने कोई पहल नहीं की। क्या यह संभव नही कि पांच सौ और हजार रुपये तत्काल बंद कर सिर्फ सौ रुपये का ही चलन कर दिया जाता। वैसे भी उन नोटो को रखने वाले देश के बीस फीसदी ही लोग हैं। लेकिन बात तो देश की होनी चाहिये। हां, इसमें काला धन रखने वालो को परेशानी जरुर होती। जो शेयर बाजार से लेकर अर्थव्यवस्था डांवाडोल कर सकते हैं। लेकिन उनके लिये भविष्य में कोई भी अनुकूल नीति बन सकती है। बात को पहले देश बचाने की होनी चाहिये। जहा तक आंतरिक सुरक्षा का सवाल है तो देश में सूखा साढे तीन सौ जिलों में है और माओवादी करीब दो सौ पच्चतर जिलों में । ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा का प्रभाव इतने जिलों में है । बीते सौ दिनो में माओवादियों ने बंगाल के छह नये जिलों को अपने प्रभाव में लिया है। लालगढ में कार्रवाइ के बाद इनके कैडर में करीब पांच हजार लोग जुड़े हैं। सौ दिनों में माओवादियों के दो दर्जन हमले हुये । जिसमें तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गये । छत्तीसगढ़ में तो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी मारे गये । आंकडे के लिहाज से इसी सौ दिनो में सबसे ज्यादा हि्सा माओवादियो के जरीये हुई है, और इन्हीं सौ दिनो में पुलिस प्रशासन सबसे निरीह नजर आया है।
इसलिये सवाल भाजपा का नहीं है जिसकी अस्थिरता में लोकतंत्र की कमजोरी टटोली जाये , और दुखी हुआ जाये । कहा यह भी जा सकता है कि कमजोर नीति और मजबूत इरादे अगर सरकार में न हों तो लोकतंत्र कहीं ज्यादा कमजोर पड़ता है, जो सौ दिनो के दौरान नजर आया है। और इससे देश दुखी है।