Sunday, November 29, 2009

26/11 की पहली बरसी के 48 घंटे बाद मुंबई की सुबह

बडा जज़्बा है आपके शहर में ? सही कहा आपने ...लेकिन जज़्बा ही अगर जिन्दगी का प्रतीक हो और जज़्बे के बगैर पेट ना भरे तो फिर कहा जा सकता है......बड़ा जज़्बा है आपके शहर में । तो क्या 26 नवंबर को जिस तरह मुंबई की आंखों में पानी और दिल में दर्द का गुबार था....फिर सामने जलती मोमबत्ती...यह जिन्दगी की जरुरत है? लगता है आप न्यूज चैनलो को देखकर मुंबई को माप रहे हैं। जनाब 26/11 तो 27/11 को ही घुल गया। एक साल बाद न्यूज चैनलों की यादों में अगर आप 26 नवंबर को टटोलते हुये उसे मुंबई का सच मान लेंगे तो आप मुंबई से वाकिफ नहीं हैं। यहां जिन्दगी पेट से लेकर गोरी और मुलायम चमडी पर रेंगती है। यह ऐसा शहर है जहां एक ही जमीन पर फक्कड-मुफलिस से लेकर दुनिया के सबसे रईस और सिल्वर स्क्रीन पर चमकते सितारे चलते हैं। और सभी की भावनाएं एक सी रहती हैं। पांच सितारा जिन्दगी जीने वाले की मय्यत में अगर आंखों में काला चश्मा लगाकर कोई रईस पहुचता है तो सवाल उसके आंसुओं को देखने या छुपाने का नहीं है। उसे पता है मय्यत से निकलते ही उसे काम पर लग जाना है। और किसी मजदूर या मच्छीमार की मौत के बाद जमा लोग हाथो में अपने कामकाज का सामान ले कर पहुचते हैं....कि मय्यत से निपटे तो बस काम पर निकल लें। हर का अपना घेरा है और हर कोई अपने घेरे में अपने तरीके से मरता है।


तो अड़तालिस घंटे पहले जो टीवी पर दिखायी दे रहा था, वह सब झूठ था? न्यूज चैनल वाले उसे अपने हिसाब से गढ़ रहे थे? यह तो आप जाने और आप ही जैसा समझना चाहते है वैसा समझें। लेकिन कैमरे के लैंस को अगर आप अपनी आंख मान लेंगे तो और वह सबसे बड़ा धोखा होगा। क्यों कैमरा तो कभी झूठ बोलता नहीं...? लेकिन कैमरे से झूठ छिपाया तो जा सकता है। कमाल है कैसे..? अच्छा अगर कोई न्यूज चैनल वाला अभी टैक्सी रोक कर 26/11 पर आपसे सवाल करे तो आप क्या कहोगे। मै कहूंगा कि जो मारे गये उनके परिजनो के दर्द को मैं महसूस कर सकता हूं। मैं उनके साथ हूं । और मुझसे कोई पूछेगा तो मैं कहूंगा....मुंबई एक है। हमला कहीं भी हो वह हमारे सीने पर होता है । टेरररिज्म के खिलाफ समूची मुंबई एक है। बस मैं भी ताज-नरीमन जा रहा हूं श्रद्धांजलि देने। वह तो एक पैसेन्जर मिल गया। बस इन्हे छोडूंगा और निकल लूंगा।

तो यह जज्बा है? जी जनाब यही जज़्बा है मुंबई का। अगर यह ना कहूं तो फिर यवतमाल और मुंबई में अंतर ही क्या है। यही ग्लैमर है जनाब मुंबई का। आपने जिस दिन यह सच समझ लिया उसी दिन आप मुंबईकर हो जाते हैं। फिर आपका दर्द सभी का हो जाता है और सभी का दर्द आपका। क्योंकि काम करते रहना मुंबई का जज़्बा है । जिसमें चूके तो सबकुछ गया । टेरररिज्म इसमें रुकावट डालता है। आप तो साहब नरीमन हाउस गये होंगे । वह है यहूदियो का लेकिन उसमें तीन सौ से ज्यादा लोग काम करते हैं। एक तो मेरे गांव का भी है। कौन सा गांव ? यवतमाल का खेडका गांव। आप विदर्भ के हो ? जी जनाब उसी यवतमाल का जहां विदर्भ में सबसे किसान आत्महत्या कर रहा है। कर रहा है, मतलब ? मतलब की दो दिन पहले जब सभी न्यूज चैनल में मुबंई को 26/11 कह कर पुकारा जा रहा था, तो उस दिन भी हमारे गाव में मौनू देखमुख ने आत्महत्या कर ली। और यवतमाल में उस दिन कुल तीन किसानों ने आत्महत्या की।

मेरे भी दिमाग में कौंधा की विदर्भ के किशोर तिवारी का एसएमएस 26 नवंबर की रात को आया था कि विदर्भ में छह किसानों ने आत्महत्या कर ली। लेकिन टीवी पर 26/11 को याद करने का जुनून कुछ इस तरह छाया हुआ था कि रात बुलेटिन में मैं भी 10 सेकेंड भी किसानों की आत्महत्या के लिये नहीं निकाल सका। लगा जैसे 26/11 का जायका कहीं खराब ना हो जाये।

अच्छा आप बता रहे थे नरीमन हाउस के बारे में। जी जनाब....अब आप ही बताइये कि जो दो सौ-तीन सौ लोग वहा काम करते हैं, उन्हें 26 नवंबर को तो दिन भर काम ही यही दिया गया कि मोमबत्ती जलाकर श्रदांजलि देनी है। न्यूज चैनलों के कैमरे उन्हें टकटकी लगाकर देखते रहे और जाने क्या कुछ उनके जज्बे को लेकर कहते रहे। लेकिन किसी ने उनसे अगर पूछ लिया होता कि सुबह से मोमबत्ती जलाकर शोक मना रहे हो तो आज की दिहाड़ी कहां से आयेगी। तो खुद ही सच निकल जाता कि यही दिहाड़ी है। और मुबंई में जिस दिन दिहाड़ी से चुके उस दिन जिन्दगी से चूके। और जो जिन्दगी से चुका उसकी जगह दिहाड़ी लेने कोई दूसरा आ जायेगा।

तो क्या 26/11 में जान जाने से ज्यादा तबाही दिहाड़ी जाने में है? अब आप समझ रहे है जनाब। यहां जिन्दगी सस्ती है लेकिन उसकी भी दिहाड़ी मिल जाये तो चलेगा। लेकिन मौत अनमोल है जो बिक जाये तो चलेगा नहीं तो शोक ही चलेगा।

कमाल है अगाशे साहेब....आपका नाम ही फिल्मी कलाकार का नहीं है बल्कि काम और अंदाज भी निराला है। जी, टैक्सी ड्राईवर का नाम मोहन अगाशे ही है। असल में शनिवार 28 नवबंर को मुंबई हवाई अड्डे पर सुबह जब मित्र की कार लेने नहीं पहुची तो मुझे बैग उठाये बाहर टहलते देखकर टैक्सी ड्राइवर खुद ही आ गये और बोले मी मोहन अगाशे जनाब। कुठे चालणार। और इस शख्स के खुलेपन में मैं भी खिंचा सा इन्हीं की टैक्सी में बैठते ही बोला- अंधेरी चलो। अगाशे साहब ने बोलना शुरु किया- मोहन अगाशे के नाम के चक्कर में मै एक मराठी फिल्म में काम भी कर चुका हूं। यवतमाल ही आये थे कलाकार। फिल्म की शूंटिग हमारे गांव के बगल में ही हो रही थी। मराठी फिल्म के बड़े कलाकार नीलू फूले ने मुझे देखते ही कहा था...काम करोगे । फिर मुझे किसान बनाकर कुछ डायलॉग भी बुलवाये। वह मुझे जनाब कहते। फिर कहते वाकई कमाल का काम किया तुमने । अब मैं उन्हें कैसे बताता कि जिस किसान का काम वह मुझसे करवा रहे थे....वही तो मेरे घर में मेरे बाप ने जिन्दगी में किया। सब कुछ चौपट हुआ तो आत्महत्या कर ली ।

तुमने नीलू फूले को बताया
? बताया जनाब । उसी के बाद से तो मुंबई आ गया । उन्होंने कहा फिल्मों में ही काम करो । लेकिन मैंने कहा मुझसे जो कराना है करा लो। लेकिन एक टैक्सी ही खरीदवा दो। वही चलाउंगा। फिल्म में एक्टिंग होती नहीं है, जो जिंन्दगी में देखा हो । पता नहीं फूले जी क्या लगा । उन्होंने साठ हजार रुपये दिलवाये। पुरानी टैक्सी मैंने खरीदी और पिछले नौ साल से टैक्सी चला रहा हूं। तो यवतमाल लौटना नहीं होता ? जाता हूं जनाब । लेकिन मुंबई से लौटता हूं तो यहां की मुश्किलों को यहीं छोड़ कर लौटता हूं। क्यो वहां घर पर कोई नहीं कहता कि मुंबई से वापस घर लौट आओ। वहां तो 26/11 होता रहता है ? साहब यही तो जज़्बा है । लौटता हूं तो मुंबई के किस्से ही गांव वालो को सुनाता हूं ....वह भी उसे सुनकर यही समझते है कि टेररिज्म में भी भी मुबंई वाले खुश रहते हैं। जबकि सच बताऊं मुंबई मौत का सागर है, लेकिन यवतमात तो मौत का कुआं है । अब यहां कुछ बताने या छुपाने की बात नहीं है। जिसे जो अच्छा लगे उसे वहीं दे दो....यही काफी है । ऐसे में अगर मुंबईकर मुंबई की पहचान को ही मिटाने में लग जाये तो वह जायेगा कहां। मुझे लगा यही मुंबईकर का जज्बा है जो मुबंई को जिलाये हुये है। नहीं तो क्या मुंबई का एक 26/11 और यवतमाल में हर दिन 26/11 .....

Tuesday, November 24, 2009

मुलायम अखाड़े में कुश्ती होगी या नूरा कुश्ती

23 नवंबर 2009 को संसद में मुलायम को कहना पड़ा कि 1992 में बाबरी मस्जिद की असल लड़ाई उन्होंने ही लड़ी थी। और संकेत में यह भी कह गये कि कहीं ऐसा न हो कि दुबारा नब्बे के दशक के दौर की परिस्थितियां आ जाये। मुलायम यह बात और किसी को देखकर नहीं कह रहे थे बल्कि उनकी नजरें और जवाब दोनों आडवाणी की तरफ था। उनके ठीक पहले आडवाणी ने मंदिर के लिये मर मिटने की तान छेड़ी थी। तो क्या यह संकेत मुलायम को अपनी पुरानी राजनीति में लौटने की है।

संयोग देखिये 1992 में कांशीराम को इटावा संसदीय सीट से उपचुनाव जीतने में मुलायम की जरुरत पड़ी थी और 2009 में इटावा विधानसभा उप चुनाव में मायावती ने मुलायम को पटखनी दे दी। तो क्या मुलायम की राजनीति का चक्र पूरा हो चुका है। क्योंकि जो राजनीतिक जमीन नब्बे के दशक में मुलायम बनाते रहे, वह 2009 में चूक चुके है। अगर राजनीतिक बिसात पर पहली एफआईआर दर्ज हो तो लिखा जा सकता है....हां।

लेकिन मुलायम की बिसात की एक-एक तह को हटाया जाये तो राजनीतिक चूक की एफआईआर में शायद... हां-नहीं दोनों लिखना होगा। और मुलायम को परखने का एक मौका और देना होगा। राजनीतिक तौर पर मुलायम की शुरुआत शिकोहाबाद से हुई, जहां समाजवादी नेता नत्थू सिंह ने नगला अंबर की प्रतियोगिता में मुलायम को अपने से बडे पहलवान को चित्त करते देखा। बस मुलायम की यही अदा नत्थू सिंह को भा गयी, जो सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से जसवंतनगर से चुनाव लड़ रहे थे। मुलायम ने जमकर चुनाव प्रचार किया। नत्थू जीते और मुलायम के राजनीतिक गुरु बन गये। गैर-कांग्रेस का पहला पाठ मुलायम ने इसी वक्त पढ़ा और उसे अपनी रगों में कैसे दौड़ाया यह 14 जुलाई 1966 को तब नजर आया, जब कांग्रेस सरकार की नीतियों के खिलाफ उत्तर प्रदेश बंद का ऐलान किया गया। और जो दो जिले पूरी तरह बंद रहे, उनमें जसवंतनगर और इटावा ही थे और इसके हीरो और कोई नहीं मुलायम सिंह यादव ही रहे। इसीलिये कुछ दिनो बाद राममनोहर लोहिया जब इटावा पहुचे तो मुलायम से मिले। मुलायम के कंघे पर हाथ रखकर कहा ....यह कल का भविष्य है। और इसे अगले ही साल 1967 में मुलायम ने जसवंतनगर सीट पर कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को चित्त कर साबित भी कर दिया। मुलायम ने 28 साल पूरे नहीं किये थे और चुनावी जीत के साथ अपने चाहने वालों को बता दिया कि उनके लिये राजनीतिक मैदान भी अखाड़े की तरह है, जहां बड़ों-बड़ों को वह चित्त करेंगे।

पहली राजनीतिक पहल मुलायम की तरफ से अलाभकारी खेती पर टैक्स माफ, अंग्रेजी पर प्रतिबंध और फौजदारी कानून के प्रतिक्रियावादी अनुच्छेदों को मुल्तवी करने की खुली वकालत से शुरु हुआ। लेकिन मुलायम उस दौर में एक साथ कई पांसो को संभालते थे। ब्राह्मण विरोध के लिये आरक्षण का समर्थन किया और युवकों को साथ लाने के लिये उनके सामाजिक और आर्थिक मसलों को उठाया। 18 मार्च 1975 को जब जेपी संपूर्ण क्रांति का नारा दे रहे थे, उस दिन विधानसभा में मुलायम कह रहे थे... नौजवानो की नाराजगी की वजह सामाजिक और आर्थिक है। अपने ही बच्चों के खिलाफ सरकार लाठी, गोली, डीआईआर, मीसा और गुंडा एक्ट का इस्तेमाल कर अच्छा नहीं कर रही है। ...अपनी कुर्सी बचाने के लिये सरकार दमन कर के लाठी चार्ज करवा कर अपनी कब्र खोद रही है। मुलायम के इस रुख ने गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में युवाओं को एक समाजवादी नायक दिया, जिसकी बिसात पर हर तबके को साथ जोड़ते हुये भी एक नयी राजनीति की महक दिखायी दे रही थी। इस राजनीति का लाभ मुलायम को अस्सी के दशक के दौर में तब मिला, जब वीपी सिंह दस्यु विरोधी अभियान के नाम पर फर्जी इनकाउंटर में पिछडे युवाओं को निशाना बना रही थी।

मुलायम ने इसी दौर में आंदोलन छेड़ा। आंदोलन छेड़ा कैसे जाता है, मुलायम ने एक नयी परिभाषा दी। पुलिसिया आतंक से सड़क पर सीधा संघर्ष किया और सरकार के तौर तरीकों के खिलाफ यानी फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ खुद ही अखबारों में लेख लिखने से लेकर मानवाधिकार संगठन एमेनस्टी इंटरनेशनल तक को बेकसूरों की सूची भेजी। अपने कैनवास को राजनीतिक तौर पर मुलायम ने नया आयाम तब दिया जब राजीव गांधी ने उत्तर प्रदेश की गद्दी पर वीर बहादुर सिंह को बैठा दिया। मुलायम ने कटाक्ष किया...जहां कभी गोविंद वल्लभ पंत बैठते थे, वहां आप जैसे माफिया का बैठना भी जनता को देखना था। बिलकुल लोहियावादी शैली में मुलायम ने कांग्रेस को घेरा। राजनीतिक माफिया और माफिया की राजनीति को जन्म देने वाली कांग्रेस को घेरा। और इसी के सामानांतर साप्रंदायिक दंगे, भ्रष्टाचार,बिजली,हरिजन और किसानों की समस्याओ को उठाया। लेकिन मुलायम की इस राजनीतिक बिसात में सत्ता कही नहीं थी। वहीं 5 दिसंबर 1989 को लखनउ के कुंवर दिग्विजय सिंह स्टेडियम में राज्य की सर्वोच्च गद्दी की शपथ लेने के साथ ही यही बिसात उलटने लगी जो इटावा से लखनऊ तक तो पहुंचाती थी, लेकिन इसके आगे की पटरी किसी को पता नहीं थी। अब मुलायम की छाती पर जो तमगे लग रहे थे वह गैर कांग्रेसवाद से छिटक कर गैर भाजपा की दिशा में ले गये।

मुलायम की राजनीतिक पटरी सांप्रदायिकता के खिलाफ चलते हुये बहुसंख्यक तबके को समाजवादी नीति तले एकजूट करने वाली होनी थी। लेकिन साप्रंदायिकता के खिलाफ सवारी करते मुलायम बाबरी मस्जिद की रक्षा में इस तरह उतरे की कल्याण सिंह से लोहा लेते भी मुलायम नजर आ रहे थे और कल्याण को राम बनाकर खुद मौलाना होना भी उन्हें अच्छा लग रहा था। यानी मुलायम एक कुशल नट की तरह समाजवादी बने रहने को राज्य में परिभाषित करने में लगे रहे तो दूसरी तरफ वीपी,देवीलाल,चन्द्रशेखर गुटों में संतुलन बनाने का खेल भी खेल रहे थे। वह टिकैत को लखनऊ आने से और स्वरुपानंद सरस्वती को अयोध्या जाने से रोकने में भी सफल हुये। लेकिन 1991 में सत्ता जब फिसली तो मुलायम खुद इतने फिसल चुके थे कि उनकी मौजूदगी हिन्दी का सवाल उठाने और बाबरी मस्जिद की रक्षा करने वाले तक जा सिमटी। इसी सिमटती राजनीति को तोड़ने के लिये मुलायम ने 1992 में इटावा से कांशीराम को जीता कर दलित मुख्यता जाटव और यादव वोटों की एकता बनायी। मुसलमान भी उनके साथ जुड़े। कांशीराम ने सपा-बसपा गठजोड को लोहिया-आंबेडकर के छोडे गये कार्यो को पूरा करने के उद्देश्य से जोड़ दिया। लेकिन बाबरी मस्जिद गिरायी गयी तो मुसलमान मुलायम के पीछे थे। अछूत कांशीराम के और सवर्ण भाजपा के।

जाहिर है यही वह राजनीति है जो कांग्रेस को हाशिये पर ले जाती है। इसे मुलायम नहीं समझ पाये। लेकिन मायावती ने इसी काट को समझा कि अगर कांग्रेस इस तिकडी में दखल देने आ जाये तो मुलायम की जमीन खिसकायी जा सकती है। इसलिये मायावती ने खुद के खिलाफ हमेशा कांग्रेस को तरजीह दी। और इसी दौर में मुलायम के काग्रेस प्रेम से लेकर कल्याण प्रेम किसी से छुपा नहीं। और संकीर्ण यादवो के साथ भी रोटी-बेटी के संबंधो को ना निभा पाना भी भारी पड़ा। लेकिन अब जब मुलायम को अपनी राजनीतिक जमीन पर ही पटखनी मिली है तो पहला काम वह यही कर रहे हैं कि कल्याण और कांग्रेस से पल्ला झाड़ रहे हैं। और इसमें कल्याण सिंह अब यह कर मदद कर रहे है कि उनका काम तो हिन्दुत्व को जगाने और रक्षा करने का है। लेकिन मुलायम समझ रहे हैं कि गोमती किनारे खड़े होकर वह बाबरी ढांचे का राग नहीं अलाप पायेंगे। क्योकि आजम खान की माने तो , बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद मुलायम ने पहला टेलीफोन बेनी प्रसाद वर्मा को किया था...और कहा था अब सत्ता भी मिल जायेगी....खामोश हो जाइये। लेकिन अब सवाल यही है कि मुलायम अपनी पुरानी राजनीति पर लौटते हुये अपनी बिसात बिछाते है या बिछ रही राजनीतिक बिसात में फिर अपने उन्हीं मोहरो को बचाने में जुटते हैं, जिन्होंने अपने ही अखाड़े में मुलायम को चित्त करा दिया।

Tuesday, November 17, 2009

अमिताभ बच्चन से साक्षात्कार

कुछ दिनों पहले अमिताभ बच्चन से इंटरव्यू का वीडियो यहाँ ब्लॉग पर पोस्ट किया था। कुछ पाठकों ने उसका टेक्स्ट वर्जन पढ़ने की इच्छा जतायी थी। उस इच्छा को पूरा करने के लिए पेश है यह लिखित संस्करण -

सत्तर के दशक का विद्रोही, अस्सी के दशक का बगावती, और नब्बे में शहँशाह और इक्क्सवीं सदी में पा, जी पापा... लेकिन सवाल है ये सारे चरित्र जिस समाज के भीतर सिनेमाई सिलवर स्क्रीन पर जो शख्स जीता है, वो जिन्न होना चाहता है। वो शख्स साथ ही है हमारे। अमिताभ जी, तमाम चरित्रों को जीने के बाद जिन्न का खयाल आपके जहन में आया या लगा कि समाज वैसा हो गया है?
यह ख़्याल आया दरअसल निर्देशक के दिमाग़ में, हमारे दिमाग़ में तो हमको काम करने का एक अवसर मिल गया... और इस उम्र में काम मिलना बड़ा कठिन होता है, तो जब उन्होंने हमारे सामने ये प्रस्ताव रखा जिन्न का, तो हमने स्वीकार कर लिया। बचपन में कहानी सुनी थी अलादीन की और जिस तरह से सुजॉय ने इस कहानी को... इसकी पठकथा को बनाया, उससे लगा कि ये उस तरह की कहानी नहीं है, उसके गुण वही हैं। लेकिन उसको थोड़ा सा कन्टेम्प्रराइज़ कर दिया है आजकल के ज़माने के लिए।

यह जवाब एक कलाकार दे तो ठीक है लेकिन अमिताभ बच्चन दे, ये पचता नहीं है।
नहीं, सही कह रहा हूँ मैं। इसके अलावा मेरे मन के अन्दर कुछ और बात ही नहीं है।

हरिवंशराय बच्चन के बेटे हैं, नेहरू परिवार के क़रीबी, उस दशक को देखा, उस दौर को देखा जिस दौर में इमरजेंसी, उस दौर को देखा जब राजनीति हाशिए पर, जनता के बीच एक कुलबुलाहट... तमाम चरित्रों को जीने के बाद अब लगता है कि समाज में एक जिन्न की जरूरत आन पड़ी है?
काश कि ऐसा हो सकता, तो मैं अवश्य जिन्न बनता और बहुत सारे सुधार लाने का प्रयत्न करता। लेकिन हूँ नहीं ऐसा।

इस फ़िल्म के जरिए लगता नहीं है कि वो तमाम मिथ टूटेंगे, जो नॉस्टालजिआ है आपको लेकर?
नहीं, ऐसा तो नहीं है। मैं नहीं मानता हूँ कि... ये जीवन है, ये संसार है, इसमें मुलाक़ातें होती रहती हैं, लोग बिछड़ जाते हैं, नए मित्र मिलते हैं, सब जीवन है, इसके साथ हम...

ये नॉस्टेलजिआ हमने देखा कि हाल में जब छोटे पर्दे पर आप दुबारा आए बिग बी के जरिए, तो शुरुआत में उन तमाम चरित्रों के उन बेहतरीन डायलॉग्स को दुबारा दिखाया गया, जिसके जरिए आपकी पहचान है और लोगों की कहें तो आप शिराओं में दौड़ते थे। उसको उभारने की जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि मेरे ख्याल से आपकी छवि उसी में दिखाई देती है।
ये जो प्रोड्यूसर हैं टेलिविज़न चैनल के, उनकी ऐसी धारणा थी कि इस तरह का कुछ एक प्रज़ेंटेशन करना चाहिए, ये उनका क्रियेटिव डिसीज़न था। मैं उसमें मानता नहीं हूँ। ये केवल एक किरदार है और यदि लोग उन किरदारों से मेरा संबंध बनना चाहते हैं, तो मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ।

अमिताभ बच्चन महज एक किरदार हैं?
सिनेमा के लिए... और व्यक्तिगत जीवन में एक अलग किरदार है।

निजी जीवन का निर्णय था या सिनेमाई जीवन की तर्ज पर निर्णय था कि कभी राजनीति में आ गए थे आप?
हाँ, उसमें व्यक्तिगत निर्णय था ये। हमारे मित्र थे राजीवजी और लगा कि उस समय जो दुर्घटना हुई देश में, उस समय एक नौजवान देश की बागडोर को सम्हालने के लिए खड़ा हो रहा है। तो ऐसा मन हुआ कि हमें उसके साथ रहना चाहिए, उसके पीछे रहना चाहिए, उसका हाथ बँटाना चाहिए, तो हमने अपने आप को समर्पित किया और उन्होंने हमसे कहा कि आप चुनाव लड़िए, तो हम इलाहबाद से चुनाव लड़ गए और भाग्यवश उसे जीत गए बहुत ही दिग्गज हेमवती नन्दन बहुगणा जी के सामने। और फिर जब पार्लियामेंट में आए और धीरे-धीरे जब राजनीति को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला, तो लगा कि हम इस लायक नहीं है कि हम राजनीति कर सकें, हमें राजनीति आती नहीं थी और हमने अपने आप को असमर्थ समझा राजनीति में रहने के क़ाबिल और इसलिए हमने वहाँ से त्यागपत्र दे दिया।

आपकी हम एक किताब देख रहे थे, सुदीप बंधोपाध्याय ने लिखी है, उस पीरियड में आपने कहा है कि पिताजी कहते थे कि जिन्दगी में मन का हो तो अच्छा और न हो तो बहुत अच्छा...
ज़्यादा अच्छा।

...तो ज्यादा अच्छा, तो आपको क्या लगता है कि ज्यादा अच्छा हुआ कि कम अच्छा हुआ?
ज़्यादा अच्छा हुआ।

और व्यक्तिगत तौर पर आपके जीवन में सब कुछ ज्यादा ही अच्छा होता रहा है?
जब कभी ऐसा लगा कि मन का नहीं हो रहा है या मन के अन्दर ऐसी भावना पैदा हुई कि अरे! यदि ये ऐसा क्यों नहीं हुआ, ये तो ग़लत हो गया... लेकिन फिर थोड़ी-सी सांत्वना हम लेते हैं जो बाबूजी की सिखाई बातें हैं, कि अगर हमारे मन का नहीं हो रहा है तो फिर ईश्वर के मन का हो रहा है। और फिर वो तो हमारे लिए अच्छा ही चाहेगा।

कुछ पीड़ा नहीं होती है कि एक दौर में अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन के जरिए लोगों के अन्दर समाया हुआ था... वो कह सकते हैं कि वो टीम-वर्क था, सलीम-जावेद की अपनी जोड़ी थी, किशोर कुमार का गीत था, लेकिन धीरे-धीरे जो सारी चीजें खत्म होती गयीं, तो अमिताभ भी खत्म होता गया।
कलाकार के जीवन में होगा ऐसा। एक बार शुरुआत में अगर आप चरम सीमा छू लेंगे तो वहाँ से फिर आपको नीचे ही उतरना है। ये जीवन है।

नहीं-नहीं, चरम पर तो अब भी आप ही हैं...
नहीं-नहीं, ऐसा कहना ग़लत है। न...

कोई और लगता है?
और क्या, बहुत सारे। जितनी नौजवान पीढ़ी है, वो सब है।

नहीं, नौजवान पीढ़ी उम्र के लिहाज से है। हम एक्टिंग के लिहाज से कह रहे हैं।
नहीं-नहीं, वो तो जनता बताएगी न।

जनता तो बताती है। तभी तो आपको एक्सेप्ट करती है।
तो ये मेरा भाग्य है कि कुछ फ़िल्में जो हैं देख लेती है, कुछ नहीं देखती है, कुछ उसकी आलोचना करती है। पर ये उम्र के साथ होगा... अब धीरे-धीरे हमारा जो है शान्ति हो जाएगी, हमारी जो लौ है वो धीमी पड़ जाएगी और एक दिन बुझ जाएगी।

अक्सर कहते थे... कि उस दौर में आपसे पूछा जाता था कि ये आक्रोश आपके भीतर कहाँ से आता है? आप कहते मैंने वो पीड़ा देखी है, पीड़ा भोगी है, पिता के संघर्ष को देखा है।
नहीं, मैंने ये कहा था कि मैं मानता हूँ कि प्रत्येक इंसान के अन्दर कहीं-न-कहीं क्रोध होता है, और वो सबके अन्दर होता है और यदि उसके साथ अन्याय होगा तो वो क्रोध निकलता है। मेरे अन्दर से इस प्रकार से निकला जिस प्रकार लेखकों ने जो पटकथा थी, उसे लिखा और जिस प्रकार जनता ने जो देखा, उसे पसंद आया, तो वो एक व्यवसाय बन गया। लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ कि आपके अन्दर भी उतना ही क्रोध है जितना मेरे अन्दर है और यदि आपके साथ भी वही अन्याय होगा जो आम आदमी के साथ होता है, तो आपके अन्दर से भी वही क्रोध निकलेगा। उसमें कोई ऐसी बड़ी बात नहीं है।

अब नहीं आता है किसी बात पर क्रोध?
नहीं, अब आता है और उसे हम व्यक्त भी करते हैं।

मसलन?
कई ऐसी बातें होती हैं, निजी बातें होती हैं, व्यक्तिगत बातें होती हैं।

कोई पीड़ा नहीं होती है कि जिस मित्र की वजह से आप उस चीज को छोड़ के आ गए जो आपके जीवन का एक बड़ा हिस्सा था, एक सपना था? आप राजनीति में आ गए और उसी परिवार की वजह से आपको कहना पड़ता है “वो राजा हैं, हम रंक हैं”। ये सब भाव कहीं आता है?
मैंने उस बात से कभी अपने आप को दूर नहीं किया है। मैं तब भी मानता था और अब भी मानता हूँ।

आप छवि देखते हैं अपने मित्र की राहुल के भीतर?
हो सकता है...

नहीं, आप देखते हैं?
वो हमारे सामने पैदा हुए हैं और वो होनहार हैं, शिक्षित हैं और उनके हृदय में, मैं ऐदा मानता हूँ, दिल है।

नहीं, अकस्मात राजीव गांधी को देश सम्हालना पड़ा था। अकस्मात आपका आगमन हो गया था। शायद कहा गया बाद में कि आपने भावावेश में एक निर्णय ले लिया था?
हो सकता है। मैंने स्वयं माना है इस बात को कि ये एक भावनात्मक निर्णय था और मैं ऐसा मानता हूँ कि राजनीति में भावना जो है, उसका कोई दर्जा नहीं होता है।

भावनाएँ मायने नहीं रखती हैं?
नहीं।

ईमानदारी?
हो सकता है। मैं ऐसा मानाता हूँ कि बहुत से लोग हैं जो ईमानदारी से राजनीति करते हैं। वो चलती है, नहीं चलती – इसका मैं विवरण नहीं कर सकता।

वो लायक हैं, समझदार हैं, पढ़े-लिखे हैं...
जी, सभी हैं।

उनमें एक छवि भी देखते हैं कि वो देश को भी सम्हाल सकते हैं वो शख्स... राहुल गांधी?
क्यों नहीं, क्यों नहीं सम्हाल सकते। अगर जिस तरह से... और ये तो जनता बताएगी जब वो...

नहीं, हमें लगता है कि पता नहीं खाली बात कहते हैं, निकल जाते हैं दाएँ-बाएँ से, देश कोई और सम्हाल रहा है, आपके पास पावर है आप कुछ भी कह दीजिए... हमें ऐसा लगता है।
इतनी अगर मुझमें जिज्ञासा होती तो मैं राजनीति में होता, लेकिन मैं हूँ नहीं। इतनी जिज्ञासा मुझमें है नहीं कि किसी को परख सकूँ।

आपके मित्र राजनीति में हैं, पत्नी राजनीति में हैं।
जी।

फिर कैसे माना जाए आप नहीं हैं?
ये उनका अपना निर्णय है। मैं अमर सिंह जी से न कभी राजनीति की बात करता हूँ और न ही जया से। और न ही अमर सिंह जी मेरे से फ़िल्मों की बातें करते हैं कि आपने ऐसा किरदार क्यों किया, या ऐसी एक्टिंग क्यों की।

नहीं, वो तमाम प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में आपकी बड़ी तारीफ़ करते हैं आपकी - देखिए कमाल की एक्टिंग की है।
ठीक है, हम भी उनकी तारीफ़ करते हैं। और मैं उनको मित्र थोड़े न मानता हूँ, उनको परिवार का एक सदस्य मानता हूँ।

क्या आपको कहीं महसूस कभी होता है कि अब जो बॉलीवुड जिस रंग में रंग चुका है...
भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री, “बॉलीवुड” शब्द से हमको...

अच्छा ठीक है, भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री... इंडस्ट्री ही हो गयी है सिर्फ़, फ़िल्म गायब हो गया है?
नहीं, ऐसा नहीं है। फ़िल्म की वजह से ही है। इंडस्ट्री एक नाम कहते हैं, क्योंकि यहाँ पर व्यवसाय होता है। लोग काम करते हैं।

हम प्रोमो देख रहे हैं अलादीन का। आप नाक पकड़ते हैं, वो कुछ गुब्बारे की तरह फूल... क्या है ये? मतलब ये तो कमाल है न? ऐसा होता नहीं है जबकि।
जादू है, जिन्न का जादू। सिनेमा भी तो एक तरह से जादू है। सिंगल डाइमेंशन है, कहाँ थ्री डाइमेंशन है। कहाँ बैकग्राउण्ड म्यूज़िक बजता है, जब आप अपने निजी जीवन में किसी को मारते हैं या किसी के साथ प्रेम करते हैं। कभी सुना है आपने? यह एक मीडियम है।

ये भटकाव नहीं है?
नहीं।

वजह क्या है इसकी कि इस तरह की फ़िल्में होने लगीं?
हर क्रियेटिव इंसान को ये छूट मिलनी चाहिए कि वो अपनी क्रिएटिविटी को व्यक्त करे और फ़्रीडम मिले उसे। अगर हम एक प्रजातन्त्र में रह रहे हैं, तो हमें फ़्रीडम मिलना चाहिए एक्स्प्रेशन का, वो हमारे कॉन्स्टिट्यूशन में लिखा हुआ है।

कुछ भी किया जाए? कैसे भी पैसा कमाया जाए?
नहीं-नहीं, पैसा तो आप सभी कमा रहे हैं। आप भी कमा रहे हैं, हम भी कमा रहे हैं।

तरीका कुछ भी हो?
हाँ।

कोई भी तरीका आजमाया जा सकता है?
नहीं, हम यह नहीं कह रहे हैं। कानून के अनुसार, माध्यम के जो... जो माध्यम हमको दिया हुआ है कॉन्स्टीट्यूशन के अनुसार, उसके माध्यम से हम अगर पैसा कमा रहे हैं तो सही है।

कई बार पता नहीं क्यों ये फ़ीलिंग होती है कि अमिताभ बच्चन अपनी जो मौलिक चीज़ें थीं, उसे छोड़ रहा है। मसलन हमने बिग बॉस में बड़ा लम्बा-चौड़ा आप पर आर्टिकल लिखा भी है। आपका चश्मा जो है, आपकी आई कॉण्टेक्ट में रुकावट डालता है जो दर्शकों के साथ होता था। और उसमें वो नजर आ रहा था बहुत क्लीयर। तो हमें बड़ा अजीबो-गरीब लग रहा था, हम बोले ये यार क्या मतलब है इससे ये आई कॉण्टेक्ट...
अब क्या करें अगर वृद्धावस्था है, नज़र धुंधली हो गयी है।

अच्छा, राजनीति में जिस समय आपमें अरुचि पैदा हो रही थी, उस समय एक मीटिंग करायी गयी थी केतन देसाई के द्वारा आपकी और अनिल अम्बानी की। उस समय उन्होंने एक पत्र दिया था आपको, जो फ़ेयरफ़ेक्स के जरिए जांच का था, वो भी हमने आपकी बायोग्राफ़ी में चूँकि देखा है, तो हमें लगता है कि वो हिस्सा होगा आपके...
मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं है।

नहीं याद है?
न।

तब से आपकी दोस्ती हो चली अनिल अम्बानी से और अम्बानी परिवार से। तभी से वो चली आ रही है?
जी हाँ, जी हाँ। बहुत पुरानी दोस्ती है।

एक तरफ़ अमर सिंह हैं, एक तरफ़ अनिल अम्बानी, बीच में अमिताभ – ये शख्सियत तो देश को भी हिला सकते हैं अगर तय कर लें कि राजनीति...
ये आप लोगों की नज़र से ऐसा होगा, हम तो कभी इसे ऐसा देखते नहीं और न ही कभी हम मानते हैं। हमें जो चीज़ें एक मित्र की हैसियत से अच्छी लगती हैं, उसे हम करते हैं। हमने कभी इसको इस नज़र से नहीं देखा कि ये बहुत बड़े उद्योगपति हैं या अमर सिंह जी बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हैं। हमें उनकी दोस्ती, उनका प्यार, उनका स्नेह मिलता है और उसी के अनुसार हम अपना जीवन व्यतीत करते हैं।

फ़िल्म इंडस्ट्री में माना जाता है एक तरफ़ ख़ान बन्धु, हम उसका जिक्र नहीं करेंगे, लेकिन दूसरी तरफ़ ठाकरे बंधु – ये जीवन को प्रभावित करता है आपके?
किस नज़रिए से आप कहना चाह रहे हैं प्रभावित करता है?

एक ऐसा शख्स जो आपका फ़ैन भी है, वही शख्स कहता है कि अमिताभ बच्चन तो यूपी चले जाएँ।
जी, जी।

दर्द नहीं होता है कि क्या है ये?
ये प्रजातन्त्र है। हर एक को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की छूट है। ये भारत देश जो है, यहाँ सबको उतनी ही आज़ादी है, वो किसी भी जगह पर जा कर रहें। मैंने ऐसे चुना है कि मैं मुम्बई में आ कर के रहूँ और वहाँ पर रहूँ, जियूँ, सब-कुछ मुझे उसी शहर से मिला है। अब मैं उसे छोड़कर कहाँ जाऊँगा? अब उनके कहने से और करने से इसपर मैं आलोचना करूँ या उसको स्वीकार करूँ, इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। उनको जो कहना था, सो उन्होंने कह दिया है। लेकिन मैं तो मुम्बई में ही रहूँगा। क़ानूनन मुझे बताइए अगर मैं कोई ग़लत काम कर रहा हूँ?

नहीं-नहीं, आप गलत नहीं कह रहे हैं। हम कह रहे हैं कि आपकी अपनी शख्सियत, अपनी जो पहचान है...
ये होना चाहिए, ये होता है कई बार। कई लोग ऐसे होते हैं जो जब पब्लिक लाइफ़ में होते हैं या जो सिलेब्रिटी होते हैं, उनके ख़िलाफ़ बहुत-सी बातें कही जाती हैं। उनके ऊपर अन्याय होता है, क़ानूनन बहुत-सी चीज़ें हो जाती हैं, आरोप लगाए जाते हैं। ये होता है, ये जीवन है। हमारे साथ बहुत हुआ है। शायद ज़रूरत से ज़्यादा हुआ है। लेकिन मैं ऐसे मानता हूँ कि शुरु-शुरू में जब ये इसकी शुरुआत हुई थी, तो मुझे लगा कि ये क्यों हो रहा है और ये ग़लत चीज़ हो रही है और उससे बहुत कष्ट हुआ है, दुःख हुआ है। लेकिन अब मैंने मान लिया है कि हमारा जीवन ऐसा है, जहाँ पर हमारे ऊपर इस तरह के आरोप लगाए जाएंगे। यदि वो आरोप सही हैं, तो उसका हमें दण्ड दीजिए। लेकिन अगर सही नहीं हैं, तो हमें उसे सहना पड़ेगा।

कई दशकों से आपका एक दौर देखा गया है...
अरे, तो क्या... उसमें कौन-सी बड़ी बात हो गयी?

नहीं देखा गया?
नहीं।

चलिए आगे बढ़ते हैं। जो बालीवुड में अभी फ़िल्में बन रही हैं, आपको अच्छी लगती हैं। गुरुदत्त भी अच्छे लगते हैं, दिलीप कुमार साहब की आपको एक्टिंग भी अच्छी लगती थी और माना जाता था कुछ छवि भी वो दिखाई देती थी। अब के दौर में जब शाहरुख खान खड़े होते हैं, सलमान खान खड़े होते हैं। लगता क्या है कि अमिताभ बच्चन एक ऐसी जगह खड़ा है, जो एक तरफ़ यह परिस्थितियाँ थीं और दूसरी तरफ़ ये परिस्थितियाँ हैं।
नहीं, जो आपने कहा “ये परिस्थितियाँ हैं”, इस पर मुझे ऐसा लगा कि आप कह रहे हैं थोड़ी-सी कमज़ोरी है उनमें। मैं ऐसा नहीं मानता हूँ कि उनमें कोई कमज़ोरी है। सब अपनी-अपनी जगह सक्षम हैं और सब अपनी-अपनी जगह पर हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि हर युग में नई पीढ़ी को सामने आना चाहिए। नए कलाकार आएँ। कहाँ तक हम लोग उसको खीचेंगे या हम लोग ऐसा सोचेंगे कि सारी ज़िन्दगी जो है, जनता हमें ही प्रेम करती रहे, ऐसा होगा नहीं। और इस बात को हमने पहले ही मान लिया था।

बड़े लिब्रल डेमोक्रेटिक आन्सर होते हैं आपके।
नहीं-नहीं, बिल्कुल सही बात है। ये बिल्कुल सही बात है। प्रत्येक युग में आप देखेंगे या प्रत्येक दशक में नये कलाकार आए... और ये नयी पीढ़ी है। आपके हर व्यवसाय में ऐसा ही होगा। पिता जो है अपनी ज़िम्मेदारी पुत्र पर छोड़ देता है, चाहे वो बड़ा बिज़नेस हो, या वो मीडिया हो, चाहे वो फ़िल्म कलाकार हो, राजनीति हो। सब जगह ऐसा ही होता है।

एक सवाल बताइएगा। आखिरी सवाल आपसे जानना चाहेंगे कि ये आपका कमाल है या आपको लगता है कि हर चीज़ सिनेमाई हो गयी है। क्योंकि जब सिलसिला आयी थी तब ये कहा गया था कि अमिताभ बच्चन ही वह शख्स है जो पत्नी को भी ले आया और रेखा जी को भी ले आया...
वो दो कलाकार की हैसियत से लाए हम...

हम उसको आगे बढ़ा रहे हैं, उसको आगे बढ़ा रहे हैं... और एक वो दौर आता है जहाँ बेटा भी है, बहू भी है। सभी करेक्टर्स एक साथ स्क्रीन पर हैं।
अगर निर्देशक की नज़रों में कोई ऐसा कलाकार है, जो उनको लगता है कि ये सही है, ये जो सक्षम है इस रोल को निभाने के लिए, तो उसमें हम कभी भी रुकाव नहीं डालेंगे। मैंने आजतक कभी भी किसी निर्देशक से ये नहीं कहा, किभी निर्माता से नहीं कहा कि फ़लाँ को लो या फ़लाँ को न लो। ये उनके ऊपर निर्भर है। हाँ, वो मुझसे पूछते हैं कि हम फ़लाँ को ले रहे हैं, ये करेक्टर सूट करता है? मैं कहता हूँ ठीक है भैया। ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। मेरी ज़िम्मेदारी थोड़े ही न है। जो मेरी ज़िम्मेदारी है...

निजीपन स्क्रीन पर आ गया है?
कहाँ आया निजीपन?

नहीं आया?
नहीं, कैसे आ सकता है?

नहीं, वो केरेक्टर्स में तब्दील हो गए और वो परिवार के हिस्से भी हैं। जिन्दगी के हिस्से भी हैं।
नहीं, वो तो केवल एक इत्तेफ़ाक था। लेकिन वो केरेक्टर जो था, वो उसके अनुसार उन्होंने उन किरदारों को लिया। अब चाहे वो हमारी बहू हो, चाहे बेटा हो, चाहे पत्नी हो।

अलादीन की तीन इच्छाएँ हैं जिसे जिन्न पूरी करेगा, जो जीनियस है। आपकी भी कोई इच्छा है?
इक्यावनवाँ प्रश्न है जिसका अभी तक मैं उत्तर नहीं दे पाया। (हँसते हैं)

चलिए सर, बहुत-बहुत शुक्रिया। तो ये हैं अमिताभ बच्चन। इक्कसवीं सदी में पा की भूमिका के बाद जीनियस यानी अब जिन्न। और वो दौर भूल जाइए... भूल जाएँ न हम लोग... आक्रोश, विद्रोह, बगावत, शहंशाह...?
क्या पता कल फिर से जीवित हो जाए! कोई भरोसा नहीं है। (फिर हँसते हैं)

ये है मन का हो तो ठीक, न हो तो और ठीक। बहुत-बहुत शुक्रिया अमिताभ जी, बहुत-बहुत शुक्रिया।
धन्यवाद सर, धन्यवाद।

Sunday, November 15, 2009

बच्चे....

सोचा था 14 नवबंर को बच्चों के बारे में लिखूंगा । लेकिन हिम्मत पड़ी नहीं...क्योंकि बच्चों के लिये हमने छोड़ा ही क्या है या क्या बना रहे हैं....जो लिखकर संतोष हो। अर्से पहले हरीश चन्द्र पाण्डे की एक कविता पढ़ी थी । याद आ गयी । तो आप भी इसे पढ़ें । इसका शीर्षक ‘बच्चे’ है।

बच्चे
चूंकि बच्चे
विपक्षी की भूमिका नहीं निभा सकते
चूंकि बच्चों की
कोई सरकार नहीं होती
चूंकि बच्चे
अपने खिलाफ जांच में
जेबों के अस्तर तक उलट कर रख देते है
इसलिये बच्चो के बारे में
गंभीरता से सोचो
सोचो
केवल भूख लगने पर ही क्यों रोते हैं बच्चे
ब्रेक फास्ट के समय
राष्ट्रगान गाते हैं बच्चे
हंसी के एवज में
कभी वोट नहीं मांगते बच्चे
बच्चे / पेड़ पर लटके फल होते हैं
इसलिये
संजीदगी से सोचो / बच्चो के बारे में
बच्चों के बारे में किए गए निर्णय
कागज पर कुएं खोदने या
वृक्षारोपण के निर्णय नहीं
बच्चो के बारे में किए गए निर्णय
काली मिट्टी में
कपास उगाने का निर्णय है ।

Wednesday, November 11, 2009

विकल्प देते देते प्रधानमंत्री विकल्प क्यों तालाश रहे हैं

नक्सलियों के हिमायतियों ने भी ग्रामीण-आदिवासियों के विकास का कोई वैकल्पिक समाधान नहीं दिया है। यह बात और किसी ने नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कही है। दिल्ली में आदिवासियों के मसले पर जुटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को विकास और कल्याण का पाठ पढ़ाते हुये पहली बार प्रधानमंत्री फिसले और माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई का फरमान सुनाने वाले वित्त मंत्री की बनायी लीक छोड़ते हुये उन्होंने आदिवासियों के सवाल पर सरकार को घेरने वाले और माओवादियो के खिलाफ सरकार की कार्रवाई का विरोध करने वालों पर निशाना साधते हुये कहा कि आदिवासियों के लिये वैकल्पिक अर्थव्यवस्था या सामाजिक लीक किस तरह की होनी चाहिये इसे भी तो कोई सुझाये।

जाहिर है, इस वक्तव्य को आसानी से पचाना मुश्किल है क्योंकि आदिवासियो के लेकर बीते साठ वर्षों में हर सरकार दावा करती रही है कि उसकी समझ आदिवासियो को लेकर ना सिर्फ संवेदनशील है बल्कि जो नीतियां वह बना रही है, उससे आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ जायेंगे । नेहरु का पहला प्रयास और मनमोहन का अभी का प्रयास आदिवासियों को आधुनिक ड्राईंग रुम में टेबल पर रखकर चिंतन वाला ही रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 1991 से पहले तक आदिवासियों को लेकर बनायी जाने वाली हर योजना में आदिवासियों को जंगल से जोड़कर ऱखा गया । जंगल गांव की परिभाषा भी तभी तक जीवित रही।

लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री के दौर में जब आर्थिक सुधार की बयार बही तो पहली बार 1991 में ही जंगल गांव की मौजूदगी पर सवाल उठे। टाइगर परियोजना से लेकर एसईजेड तक के दो दशक के सफर में जमीन से आदिवासियो को बेदखल करने की योजना और कहीं नहीं बनी बल्कि उसी नार्थ-साउथ ब्लॉक में पेपर तैयार हुआ, जहां आदिवासियों के कल्याण के लिये प्रधानमंत्री के भाषण का पर्चा 4 नवबंर 2009 के लिये तैयार किया गया। यानी बीते 18 सालों में करीब पांच करोड़ आदिवासियों के पलायन या कहे अपनी जमीन छोड़ बेदखल होने के दर्द को प्रधानमंत्री कार्यालय ने कितना समझा, इस पर सवाल उठाना वाजिब नही होगा बनिस्पत प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाना कि 4 नवबंर 2009 को उन्हें पहली बार लगा कि विकल्प भी कोई सोच होती है।

यह अलग मसला है कि इस दौर में परियोजनाओं पर सत्तर हजार करोड़ खर्च हो गये और आदिवासी कल्याण के लिये महज सत्तर करोड़ ही सरकार को पोटली से निकले। जिस रौ में मनमोहन सरकार आर्थिक सुधार की हवा बहाने को लेकर लगातार बैचेन रही है उसमें विकल्प शब्द भी बेमानी सा लगने लगा। क्योंकि विकास की जो लकीर आर्थिक सुधार तले खिंची गयी उसी का परिणाम है कि गरीब और दलित के घर रात बिताकर राहुल गांधी बार बार देश के सच से कांग्रेस को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। राहुल गांधी का कोई भी बयान जो ग्रामीण-आदिवासियों से लेकर गरीब-दलितों को लेकर दिया गया हो, अगर उसके आईने में आर्थिक सुधार की नीतियों को रख लें तो समझा जा सकता है कि अचानक प्रधानमंत्री के जेहन में विकल्प शब्द क्यों आ गया।

अभी तक चिदंबरम-मोटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह की तिकड़ी ने उन्हीं आर्थिक नीतियों को विकल्प माना, जिसके विकल्प देने का चैलेंज वह नक्सलियों के हिमायतियो से कर रहे हैं। इसका एक मतलब तो साफ है कि जो नीतियां परोसी जा रही हैं, वह बहुसंख्यक समाज के लिये विकल्प नहीं है बल्कि त्रासदी ज्यादा हैं। और इसका दूसरा मतलब यही है कि सरकार के पास विकल्प की अर्थव्यस्था का कोई खाका नहीं है। जो अचानक नक्सली समस्या के साथ जरुरत बनती जा रही है। लेकिन आर्थिक सुधार के दौर में योजना आयोग से लेकर पीएमओ तक में बैठे अर्थशास्त्री कैसे आंखों पर सेंसेक्स और औघोगिक विकास की पट्टी बांध कर काम करते रहे, यह उस किसी से नहीं छुपा है जो बजट से पहले या फिर गाहे-बगाहे सुझावो के साथ नार्थ-साउथ ब्लाक में आमंत्रित किये जाते रहे हैं।
"जो सुझाव आप दे रहे है वह तो ठीक है लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये यह तो आप बताईये। " हर वैकल्पिक सुझाव के बाद पीएमओ में बैठे अर्थशास्त्रियों या नौकरशाहों की यही आवाज गूंजती है । किसानों की त्रासदी से लेकर बुंदेलखंड की बदहाली और औघोगिक विकास को जन भागीदारी के साथ जोड़ने से लेकर पंचायत स्तर पर स्वरोजगार का सवाल कमोवेश हर बजट से पहले और बाद में लाल पत्थरों के नार्थ-साउथ ब्लाक में हर साल अलग अलग खेमो और अलग अलग विचारधारा के तहत काम करने वाले लोगो ने उठाये। लेकिन इस दौर में हर सवाल का स्वागत कर जब बड़ा सवाल सामने रखा गया कि आपके विचार तो जायज है और सुझाव का भी स्वागत लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये तब हर विकल्प छोड़ा पड जाता है कि सरकार का संकट जब लागू तक ना करा पाने का है तो विकल्प शब्द का मतलब क्या है। वाकई बाजार और मुनाफे की थ्योरी में विकल्प शब्द ना सिर्फ गौण हुआ बल्कि धीरे धीरे विकल्प का सुझाव देने वालो की तादाद भी सरकार के दरबार में घटती चली गयी। इसलिये जो सवाल राहुल गांधी उठाने लगे अचानक देश को वही विकल्प भी लगने लगे। दो देश में बंटता देश। ग्रामीण आदिवासियों और गरीब दलितों को मौका ना मिलना। यह बयान राहुल गांधी के हैं, जो इंगित करते हैं कि आर्थिक सुधार की नीतियों से देश का बंटाधार हुआ है।

लेकिन इसका विकल्प क्या है यह सवाल प्रधानमंत्री को राहुल गांधी से भी पूछना चाहिये कि आपने भी तो कोई विकल्प बताया नहीं फिर देश के बदतर हालात पर अंगुली उठा कर प्रधाननमंत्री पद की गरिमा को क्यों मिटा रहे हैं। पीएमओ की दीवारों में इतनी ताकत है नहीं कि राहुल से विकल्प का सवाल उठा लें ऐसे में खुद लोग कैसे कैसे विकल्प पैदा कर रहे हैं, जिसपर नजर पीएमओ की भी नहीं होगी वह गौरतलब है । संयोग से जिस वक्त प्रधानमंत्री ग्रामीण-आदिवासियों के समाधान के लिये विकल्प का सवाल उठाकर नक्सलियो के हिमायितियों पर उंगली उटा रहे थे, उसी वक्त विदर्भ में छह किसान आत्महत्या की तैयारी कर रहे थे। और किसानों की खुदकुशी के बाद अब किसानों की विधवाओ ने मदद के लिये अपना विकल्प खुद तैयार किया है कि वह 11 नवबंर से अनिश्चितकालिन भूख-हडताल करेंगी जिससे कोई राहत उनतक पहुंच सके। यानी जिस भूख ने उन्हें विधवा बना दिया उसी भूख को वे जीने का विकल्प बना रही हैं। क्योकि सरकार को यही परिभाषा समझ में आती है । तो विकल्प का मतलब ही जिस व्यवस्था में जान जाना या जान बचाना भर हो, वहां पहले विकल्प की बात होगी या जान बचाने की इसे प्रधानमंत्री समझेंगे यह आस तो लगायी ही जा सकती है।

Sunday, November 8, 2009

............और अब

सामने प्रभाष जोशी और सन्नाटा छा जाए। जो डराने लगे। असम्भव है। लेकिन यह भी हुआ। पहली बार डर लगा... दिमाग में कौंधा, अब। एम्बुलेंस का दरवाजा बंद होते ही खामोशी इस तरह पसरी कि अंदर चार लोगों की मौजूदगी के बीच भी हर कोई अकेला हो गया और साथ कोई रहा तो चिरनिद्रा में प्रभाष जोशी। पहली बार लगा...अब सन्नाटे को कौन तोड़ेगा ? हर खामोशी को भेदने वाला शख्स अगर खामोश हो गया तो अब ? लगा शायद एकटक प्रभाष जोशी को देखते रहने से वही हौसला और गर्व महसूस हो, जिसे बीते 25 बरस की पहचान में हर क्षण प्रभाषजी के भीतर देखा। अचानक लगा प्रभाष जी बात कर रहे हैं। और खुद ही कह रहे हैं...पंडित....अब ?



अब........के इस सवाल ने मेरे भीतर प्रभाष जी के हर तब को जिला दिया। गुरुवार 1 नवंबर 1984 को सुबह साठ पैसे खुले लेकर जनसत्ता की तलाश में पटना रेलवे स्टेशन तक गया। "इंदिरा गांधी की हत्या"। काले बार्डर से खींची लकीरों के बीच अखबार के पर सिर्फ यही शीर्षक था। और उसके नीचे प्रभाष जी का संपादकीय, जिसकी शुरुआत..... "वे महात्मा गांधी की तरह नहीं आई थीं, न उनके सिद्दांतों पर उनकी तरह चल रही थीं। लेकिन गईं तो महात्मा गांधी की तरह गोलियों से छलनी होकर ।"

चार साल बाद 1988 में प्रभाष जी से जब पहली बार मिलने का मौका जनसत्ता के चड़ीगढ़ संस्करण के लिये इंटरव्यू के दौरान मिला तो उनके किसी सवाल से पहले ही मैंने उसी संपादकीय का जिक्र कर सवाल पूछा...1984 में इंदिरा की हत्या पर गांधी को याद कर आप कहना क्या चाहते थे ? उन्होंने कहा, चडीगढ़ घूमे..काम करोगे जनसत्ता में ? पहले जवाब दीजिये तो सोचेंगे। उन्होंने कहा, गांधी होते तो देश में आपातकाल नहीं लगता, लेकिन इंदिरा की हत्या के दिन इंदिरा पर लिखते वक्त आपातकाल के घब्बे को कैसे लिखा जा सकता है....फिर कुछ खामोश रह कर कहा , लेकिन भूला भी कैसे जा सकता है। मेरे मुंह से झटके में निकला... जी, काम करुंगा...लेकिन बीए का रिजल्ट अभी निकला नहीं है। तो जिस दिन निकल आये, रिजल्ट लेकर आ जाना। नौकरी दे दूंगा। अभी बाहर जा कर पटना से आने-जाने का किराया ले लो। और हां, घूमना-फिरना ना छोड़ना।

कमाल है, जिस अखबार को खरीदने और फिर हर दिन पढ़ने का नशा लिये मैं पटना में रहता हूं उसके संपादक से मिलने में कहीं ज्यादा नशा हो सकता है। प्रभाष जी जैसे संपादक से मिलने का नशा क्या हो सकता है, यह नागपुर, औरंगाबाद, छत्तीसगढ़, तेलांगना, मुंबई,भोपाल की पत्रकारीय खाक छानते रहने के दौरान हर मुलाकात में समझा। विदर्भ के आदिवासियों को नक्सली करार देने का जिक्र 1990 में जब दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग के उनके कैबिन में दोपहर दो-ढाई बजे के दौरान किया तो वे अचानक बोले- जो कह रहे हो लिखने में कितना वक्त लगाओगे ? मैंने कहा, आप जितना वक्त देंगे। दो घंटे काफी होंगे ? यह परीक्षा है या छाप कर पैसे भी दीजियेगा । वे हंसते हुये बोले...घूमते रहना पंडित। फिर मेरे लिये कैबिन के किनारे में कुर्सी लगायी। टाइपिस्ट सफेद कागज लाया। सवा चार बजे मैंने विदर्भ के आदिवासियों की त्रासदी लिखी..जिसे पढ़कर शीर्षक बदल दिया...आदिवासियों पर चला पुलिसिया हंटर। कंपोजिंग में भिजवाते हुये कहा, इसे आज ही छापें और लेख का पेमेंट करा दें। जहां जाओ, वहीं लिखो। घूमना...लिखना दोनों न छोड़ो। अगली बार जरा शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन पर लिखवाऊंगा। और हां, संभव हो तो पीपुल्सवार के सीतारमैय्या का इंटरव्यू करो। पता तो चले कि नक्सली जमीन की दिशा क्या है।

संपादक में कितनी भूख हो सकती है, खबरों को जानने की। प्रभाष जी, नब्ज पकड़ना चाहते हैं और वह अपने रिपोर्टरों को दौड़ाते रहते है लेकिन मैं तो उनका रिपोर्टर भी नही था फिर भी संपादकीय पेज पर मेरी बड़ी बड़ी रिपोर्ट को जगह देते। और हमेशा चाहते कि मै रिपोर्टर के तौर पर आर्टिकल लिखूं।

6 दिसबंर 1992 की घटना के बाद प्रभाष जी ने किस तरह अपनी कलम से संघ की ना सिर्फ घज्जियां उड़ायीं बल्कि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष का जो बिगुल बजाया, वह किसी से छुपा नहीं है। फरवरी 1993 में जब दिल्ली में जनसत्ता के कैबिन में उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने नागपुर के हालात पर चर्चा कर अचानक कहा , पंडित तुम तो ऐसी जगह हो जहां संघ भी है और अंबेडकर भी और तो और नक्सली भी। अच्छा यह बताओ तुम्हारा जन्मदिन कब है ?......18 मार्च । तो रहा सौदा । मुझे आर्टिकल चाहिये संघ, दलित और नक्सली के सम्मिश्रण का सच। जो बताये कि आखिर व्यवस्था परिवर्तन क्यों नहीं हो रहा है। और 18 मार्च को उनका बधाई कार्ड मिला। जनसत्ता मिले तो देखना..."आखिर क्यों नहीं हो पा रहा है व्यवस्था परिवर्तन"। जन्मदिन की बधाई..घूमना और लिखना । प्रभाष जोशी।

कमाल है क्या यह वही शख्स है जो मेरे सामने चिरनिद्रा में है। व्यवस्था परिवर्तन का ही तो सवाल इसी शख्स ने मनमोहन सरकार की दूसरी पारी शुरु होने वाले दिन शपथ ग्रहण समारोह के वक्त ज़ी न्यूज में चर्चा के दौरान कहा था...बाजारवाद ने सबकुछ हड़प लिया है । व्यवस्था परिवर्तन का माद्दा भी। फिर लगे बताने कि कौन से सासंद का कौन का जुगाड या जरुरत है, जो मंत्री बन रहा है । खुद कितनी यात्रा कर कितनों के बारे में क्या क्या जानते, यह सब किदवंती की तरह मेरे दिमाग में बार बार कौंध रहा था कि तभी सिसकियों के बीच बगल में बैठे रामबहादुर राय ने मेरे कंघे पर हाथ रख दिया। अचानक अतीत से जागा तो देखा राय साहब ( अपनत्व में रामबहादुर राय को यही कहता रहा हूं) की आंखों से आंसू टपक रहे हैं। अकेले हो गये ना । ऐसा पत्रकार कहां मिलेगा। मैं तो पिछले 50 दिनों से जुटा हूं उन वजहों को तलाशने, जिसने जनसत्ता को पैदा किया। प्रभाष जी के बारे जितना खोजता हूं, उतना ही लगता है कि कुछ नहीं जानता। प्रभाष जी ने पत्रकारिता हथेली पर नोट्स लिखकर रिपोर्टिग करते हुये शुरु की थी। 1960 में विनोबा भावे जब इंदौर पहुचे तो नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते और राजेन्द्र माथुर ने प्रभाष जी को ही रिपोर्टिंग पर लगाया। इंटर की परीक्षा छोड़ इंदौर से सटे एक गांव सुनवानी महाकाल में जा कर प्रभाषजी अकेले रहने लगे। दाढ़ी बढ़ी तो कुछ ने कहा की साधु हो गये हैं। गांववालों को पढ़ाने और उनकी मुश्किलों को हल करने पर कांग्रेसी सोचने लगे कि यह व्यक्ति अपना चुनावी क्षेत्र बना रहा है। लेकिन विनोबा भावे के इंदौर प्रवास पर प्रभाष जी की रिपोर्टिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि फिर रास्ता पत्रकारिता....

लेकिन इस रिपोर्टिंग की तैयारी पिताजी को रात ढाई बजे ही करनी पड़ती थी। एम्बुलेंस में साथ प्रभाष जी के सिर की तरफ बैठे सोपान (प्रभाष जी के छोटे बेटे) ने बीच में लगभग भर्राते हुये कहा । विनोबा जी सुबह तीन बजे से काम शुरु कर देते थे तो पिताजी ढाई बजे ही तैयार होकर विनोबा जी के निवास स्थान पर पहुंच जाते। राय साहब बोले उस वक्त गांववाले इंदौर अनाज बेचने जाते तो प्रभाष जी के कोटे का दाना-पानी उनके दरवाजे पर रख जाते। और प्रभाष जी खुद ही गेंहू पीसते। और गांव की महिलायें उन्हें गद्दी-गद्दी कहती। सोपान यह कह कर बोले कि चक्की को वहां गद्दी ही कहा जाता है।

फिर रामनाथ गोयनका से मुलाकात भी तो एक इतिहास है। सोपान के यह कहते ही राय साहब कहने लगे जेपी ने ही आरएनजी के पास प्रभाष जी को भेजा था। और प्रभाष जी ने जनसत्ता तो जिस तरह निकाला यह तो सभी जानते है लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के तीन एडिशन चड़ीगढ़, अहमदाबाद और दिल्ली के संपादक भी रहे और चडीगढ़ के इंडियन एक्सप्रेस को दिल्ली से ज्यादा क्रेडेबल और लोकप्रिय बना दिया। अंग्रेजी अखबार में ऐसा कभी होता नहीं है कि संपादक के ट्रांसफर पर समूचा स्टाफ रो रहा हो। चड़ीगढ़ से दिल्ली ट्रासंपर होने पर इस नायाब स्थिति की जानकारी आरएनजी को भी मिली। वह चौंके भी। लेकिन जब जनसत्ता का सवाल आया तो प्रभाष जी ने आरएनजी को संकेत यही दिया कि पटेगी नहीं और झगड़ा हो जायेगा। आरएनजी ने कहा झगड़ लेंगे। लेकिन जनसत्ता तुम्ही निकालो।

राय साहब और सोपान लगातार झलकते आंसूओं के बीच हर उस याद को बांट रहे थे जो बार बार यह एहसास भी करा रहा था कि इसे बांटने के लिये अब हमें खुद की ही खामोशी तोड़नी होगी। तभी ड्राइवर ने हमें टोका और पूछा गांधी शांति प्रतिष्ठान आ गया है, किस गेट से गांडी अंदर करुं ? सोपान बोले, पहले वाले से फिर कहा यहां तो रुकना ही होगा। इमरजेन्सी की हर याद तो यहीं दफ्न है। पिताजी भी इमरजेन्सी के दिन अगर दिल्ली में रहते हैं तो गांधी पीस फाउंडेशन जरुर आते हैं। हमने भी कई काली राते सन्नाटे और खौफ के बीच काटी हैं। लेकिन मुझे लगा पत्रकारिता आज जिस मुहाने पर है और प्रभाष जोशी जिस तरह अकेले उससे दो दो हाथ करने समूचे देश को लगातार नाप रहे थे, उसमें सवाल अब कहीं ज्यादा बड़ा हो चुका है क्योकि एम्बुलेंस के भीतर की खामोशी तो आपसी दर्द बांटकर टूट गयी लेकिन बाहर जो सन्नाटा है, उसे कौन तोड़ेगा ? मैंने देखा गांधी पीस फाउंडेशन से हवाई अड्डे के लिये एम्बुलेंस के रवाना होने से चंद सेकेंड पहले प्रधानमंत्री की श्रदांजलि लिये एक अधिकारी भी पहुंच गया। और फिर मेरे दिमाग में यही सवाल कौंधा.......और अब।

Thursday, November 5, 2009

पहले दुश्मन बनाओ फिर सेना खुद खड़ी होगी

बालासाहेब से राज ठाकरे तक का राजनीतिक मंत्र

महाराष्ट्रियनों को एक दुश्मन चाहिये और राज ठाकरे उसी की संरचना में जुटे हैं। और उन दुश्मनों पर हमला करने के लिय राज की सेना धीरे धीरे महाराष्ट्र निर्माण सेना के नाम पर गढ़ी जा रही है। यह मराठी मानुस राजनीति की हकीकत है, जिसे साठ के दशक में बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिये उभारा और 21 वी सदी में राजठाकरे उभार रहे है । राज ठाकरे का उभार महज लुंपन राजनीति की देन नहीं है ना ही 40 साल पहले बालासाहेब का उभार लुंपन राजनीति की देन थी। याद कीजिये बीस के दशक से लेकर 40 के दशक तक महाराष्ट्रीय नेता भाषा, संस्कृति,इतिहास और परंपरा के नाम पर अलग महाराष्ट्र गठित करवाने का प्रयास चलाते रहे। आजादी के बाद संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने एकीकृत महाराष्ट्र का आंदोलन चलाया और उस दौर में ना सिर्फ महाराष्ट्रीय अस्मिता एकबद्द् हुई बल्कि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशो से जितने भी राज्य बने उसमें केवल महाराष्ट्र ही था जिसने आयोग के प्रस्ताव के खिलाफ संघर्ष किया।

विदर्भ के उन जिलो को अपने में शामिल करने की कोशिश की जिनका अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव था । फिर सुनिश्तचित किया किया की मुंबई अलग राज्य ना बने । फिर गुजरात को द्विभाषी राज्य से बाहर निकालवाने में सफलता प्राप्त की। अभी भी कर्नाटक के बेलगांव और करवार जिलों का करीब 2806 वर्ग मील क्षेत्र को महाराष्ट्रीय अपना मानते है और गाहे बगाहे दावा ठोकते हैं। वहीं गोवा का महाराष्ट्र में विलय उनका अधूरा सपना है। असल में माराठी मानुस की समझ सिर्फ युवा पीढ़ी को लुभाने या उत्तर भारतीयों के खिलाफ जहर उगने भर की नहीं है। आजादी के बाद मराठाभाषियों की स्मृति में दो ही बाते रहीं । पहली शिवाजी और उनके उत्ताराधिकारियों द्वारा स्थापित किये गये शानदार मराठा साम्राज्य की यादें जो मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लडने वाले मराठों को एक पराक्रमी जाति के रुप में गौरान्वित करती है और दूसरी स्वतंत्रता आंदोलन में तिलक, गोखले और रानाडे जैसे महान नेताओ की भूमिका जो उन्हे आजादी के लाभो में अपने हिस्से के दावे का हक देती हैं।

मराठी मानुस की महक हुतात्मा चौक से भी समझी जा सकती है जो कभी फलोरा फाउन्टेन के नाम से जाना जाता था लेकिन इस चौक को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जोड़ दिया गया । वहीं गेटवे आफ इंडिया पर शिवाजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा के मुकाबले पूरे महाराष्ट्र में गांधी की कोई प्रतिमा नहीं मिलेगी। गांधी जी के बारे में मराठी मानुस की समझ निजी बातचीत में समझी जा सकती है, गांधी मराठियो की एकजुटता से घबराते थे कि कही फिर मराठे सूरत को ना लूट लें। एक तरह से गांधी को सिर्फ गुजराती बनिये के तौर पर सीमित कर मराठी मानुस आज भी मराठों के विगत साम्राज्य को याद कर लेता है। असल में शिवसेना ने जब 60 के दशक में मराठी मानुस का आंदोलन थामा और जिस मराठी मिथक का निर्माण किया , वह कुछ इस तरह का था जिसमें साजिश की बू आती। यानी मुबंई में मराठी लोगो की हैसियत अगर सिर्फ क्लर्क, मजदूर,अध्यापक और घरेलू नौकर से ज्यादा की नहीं थी तो वह साजिश के तहत की गयी। बालासाहेब की राजनीति के दौर में गुजराती,पारसी,पंजाबी, दक्षिण भारतीयों का प्रभाव मुबंई में था और शिवसेना इसे साजिश बताते हुये दुश्मन भी बना रही थी और उनसे लडने के लिये मराठियों को एकजुट कर अपनी सेना भी बना रही थी।

ठीक इसी तर्ज पर राज ठाकरे भी दुश्मन खोज उनसे लड़ने के लिये अपनी सेना को बनाने में जुटे हैं । बालासाहेब ने लुंगी को पुंगी पहनाने की बात कर दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अपनी सेना बढ़ायी तो राज ठाकरे भईया और दूध वालो पर चोट कर उत्तर भारतीयों को दुश्मन बनाकर अपनी सेना बनाना चाहते हैं। यानी दुशमन की जरुरत सेना को बढाने के लिये जरुरी है इसका एहसास बाला साहेब को भी था और राजठाकरे को भी है। इस सेना में युवा मराठी मानुस सबसे ताकतवर हो सकता है, इसका अहसास बाला साहेब को भी रहा और अब राजठाकरे भी समझ चुके हैं। 60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूंजीप्रधान क्षेत्रो में हुआ जिससे रोजगार के मौके कम हुये । फिर साक्षरता बढने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्रीयों की ही थी । इन परिस्थितयों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रियनों के लिये एक बडा सामाजिक और आर्थिक आघात था । बालासाहेब ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपने अखबार मार्मिक के जरीये महाराष्ट्र और मुबंई के किन रोजगार में कितने मराठी है इसका आंकडा रखना शुरु किया।

बालासाहेब ने बेरोजगारी को भी हथियार बनाते हुये उसकी वजह दूसरे राजनीतिक दलों का लचीलापन करार दिया और अगले दौर में कामगारों को साथ करने के लिये वाम ट्रेड यूनियनों पर निसाना साधा और भारतीय कामगार सेना बनाकर एक तीर से कई निशाने साधे । दक्षिण भारतीयों के खिलाफ युवा मराठी को खडा करने के लिये यहां तक कहा कि सभी लुंगी वाले अपराधी , जुआरी , अबैध शराब खींचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट हैं। ....मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीय हो, गुंडा भी महाराष्ट्रीयन हो, और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । इस तेवर के बीच जैसे ही ठाकरे ने ट्रेड यूनियन बनायी वैसे ही कई उघोगपतियों ने बाल ठाकरे के साथ दोस्ती कर ली । नयी परिस्थियो में राज ठाकरे भईया यानी उत्तर भारतीयों पर अपराधी, जुआरी,दलाल,अंडरवर्ल्ड से जुड़े होने के आरोप लगाते हुये युवा मराठी के बीच उनके हक को छिने जाने को साजिश ही करार दे रहे हैं। राज ठाकरे की राजनीति अभी ट्रेड यूनियन के जरिए शुरु नहीं हुई है लेकिन चाचा बालासाहेब की ही तर्ज पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का पेंपलेट छपवा कर नौकरी के लिये कामगारों की नियुक्ति को प्रभावित करने लगे हैं।

बाला साहेब से इतर राज की राजनीति आधुनिक परिपेक्ष्य में उघोगपतियों से संबंध गांठकर अपनों के लिये रोजगार और पूंजी बनाने की जगह सीधे पूंजी पर कब्जा करने की रमनीति ज्यादा है। मुंबई, पुणे, नासिक, कोल्हापुर से लेकर कोंकण के इलाके में राजठाकरे सीधे जमीन को हथियाने पर ज्यादा जोर देते हैं। कोई उघोग या मिल बीमार होकर बंद होती है तो उसकी जमीन पर पहला कब्जा उनका खुद का हो या फिर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के ही किसी बंदे का हो, इस दिशा में उनकी पहल सीधी होती है। बाला साहेब के दौर में कामगारो को साथ जोडने में खाली नौकरियों पर शिवसैनिक ध्यान रखते थे और फिर कामगार सेना के पर्चे पर फार्म भर कर नौकरी देने के लिये उघोगपतियों को हडकाया जाता था। वहीं राज ठाकरे के दौर में महाराष्ट्र के हर जिले में एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम बन चुका है तो नयी पहल के तहत राजठाकरे की नजर हर एमआईडीसी पर है । अपने जोर पर एमआईडीसी में अपने से जुडे कामगारों को नौकरिया दिलाना और एमआईडीसी में उघोग के लिये जमीन चाहने वाले किसी को भी सरकार पर दबाब बनाकर जमीन दिलवाना और फिर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से जोड़ना नयी रणनिति है। बाल ठाकरे राजनीति करते हुये स्टार वेल्यू के महत्व को भी बाखूबी समझते ते और अब राज ठाकरे भी इस स्टार वेल्यू को समझने लगे हैं। बालासाहेब ने युसुफ भाई यानी दिलीप कुमार पर पहला निशाना साधा था तो राज ठाकरे ने अमिताभ बच्चन पर निशाना साधा। बाला साहेब से समझौता करने एक वक्त शत्रुध्न सिन्हा को ठाकरे के घर मातोश्री जाना पडा था तो करण जौहर को राज के घर कृष्ण निवास जाना पड़ा। यानी दुश्मन हर वक्त ठाकरे ने बनाया और सेना को मजबूत किया। बालासाहेब ने तो बकायदा चित्रपट शाखा खोली। जहां शुरुआती दौर में मराठी कलाकारो को ईगे बढाने की बात कही गयी लेकिन बाद में यह बालठाकरे की स्टार वेल्यू से जुड़ गया। कमोवेश यही स्टार वेल्यू का अंदाज राजठाकरे ने भी समझा । कांग्रेस के जरीये राजनीति आगे बढायी जा सकती है और खुद को खड़ाकर कांग्रेस से सौदेबाजी की जा सकती है , यह पाठ सिर्फ राजठाकरे के भूमिपुत्र आंदोलन में ही सामने आया ऐसा भी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के हस्ताक्षेप के बावजूद राज को लेकर महाराष्ट्र सरकार की ढिलायी ने भी राज को हिरो बना दिया इसमें दो मत नहीं।

लेकिन याद किजिये 1995 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले की राजनीति । शिवसेना के मुखपत्र में विधानसभा अध्यक्ष का अपमानजनक कार्टून छपा । विधानसभा में हंगामा हुआ । विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष शंकर राव जगताप ने ठाकरे को सात दिन का कारावास देने की सिफारिश की । मुख्यमंत्री शरद पवार ने मामला टालने के लिये और ज्यादा कड़ी सजा देने की सिफारिश कर दी । पवार के सुझाव पर पुनर्विचार की बात उठी और माना गया कि टेबल के नीचे पवार और सेना ने हाथ मिला लिया। लेकिन 1995 के चुनाव में बालासाहेब ने पवार को अपना दुश्मन बना लिया और सेना के गढ़ को मजबूत करने में जुटे। विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही बालासाहेब ने पवार को झटका दिया और दाउद इब्राहिम के ओल्गा टेलिस को दिये उस इटरव्यू को खूब उछाला जिसमें दाउद ने पवार से पारिवारिक रिश्ते होने का दावा किया था। फिर खैरनार के आरोपों को भी पवार के मत्थे सेना ने जमकर फोड़ा। परिणाम यही हुआ मुंबई के मंत्रालय पर भगवा लहराने का बालासाहेब ठाकरे का सपना साकार हो गया। और शपथ समारोह में मंच पर और कोई नहीं वही खैरनार अतिथि के तौर पर आंमत्रित थे जिन्होने पवार के खिलाफ भ्रष्ट्राचार की मुहिम चलायी थी । संयोग से राज ठकरे का कद अभी इतना नहीं बढा है कि वह महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का झंडा मंत्रालय पर लहरा सके लेकिन जिस तर्ज पर कांग्रेस की राजनीति पवार को शह और शिवसेना को मात देने के लिये राजठाकरे सरीखे प्यादे से एकसाथ कई चाल चलवा रही है उसमें आने वाले दिनो में राज को रोकना मुश्किल भी होगा यह भी तय है । क्योंकि दुश्मन बनाकर सेना जुगाड़ना राज ने भी सिखा है और महाराष्ट्र में चाहे कांग्रेस-एनसीपी की सत्ता तीसरी बार लगातार मिल गयी हो लेकिन महाराष्ट्र के सामाजिक आर्थिक हालात इस दौर में बद से बदतर हुये है , इसे हर राजनीतिक दल समझ रहा है। शहर बिजली से और गांव खेती से परेशान है। युवा बेरोजगारी से और बुजुर्ग महंगाई से मुश्किल में है। यह परिस्थितियां कब अशोक चव्हाण की कलई खोल देगी कहना मुश्किल है। और तबतक राजठाकरे ऐसे ही औने बौने रहेंगे-सोचना नादानी होगी । 19 अगस्त 1967 को बालासाहेब ने कहे था, -- " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है ? आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है। ....भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहा तो हमें हिटलर चाहिये । " इसी बात को 2009 में राजठाकरे कुछ यूं कहते है..."मै तानाशाह नहीं हूं । लेकिन ऐसी राजनीति मुझे नहीं करनी । जो साजिश करें । मराठी मानुस को ही मुबंई से महाराष्ट्र से बेदखल कर दे। अब हम विधानसभा में पहुंचे है और अंदर मेरी सेना है तो सड़क पर मै हूं । देखे अब मुंबई या महाराष्ट्र में किसकी चलती है।"