
अब........के इस सवाल ने मेरे भीतर प्रभाष जी के हर तब को जिला दिया। गुरुवार 1 नवंबर 1984 को सुबह साठ पैसे खुले लेकर जनसत्ता की तलाश में पटना रेलवे स्टेशन तक गया। "इंदिरा गांधी की हत्या"। काले बार्डर से खींची लकीरों के बीच अखबार के पर सिर्फ यही शीर्षक था। और उसके नीचे प्रभाष जी का संपादकीय, जिसकी शुरुआत..... "वे महात्मा गांधी की तरह नहीं आई थीं, न उनके सिद्दांतों पर उनकी तरह चल रही थीं। लेकिन गईं तो महात्मा गांधी की तरह गोलियों से छलनी होकर ।"
चार साल बाद 1988 में प्रभाष जी से जब पहली बार मिलने का मौका जनसत्ता के चड़ीगढ़ संस्करण के लिये इंटरव्यू के दौरान मिला तो उनके किसी सवाल से पहले ही मैंने उसी संपादकीय का जिक्र कर सवाल पूछा...1984 में इंदिरा की हत्या पर गांधी को याद कर आप कहना क्या चाहते थे ? उन्होंने कहा, चडीगढ़ घूमे..काम करोगे जनसत्ता में ? पहले जवाब दीजिये तो सोचेंगे। उन्होंने कहा, गांधी होते तो देश में आपातकाल नहीं लगता, लेकिन इंदिरा की हत्या के दिन इंदिरा पर लिखते वक्त आपातकाल के घब्बे को कैसे लिखा जा सकता है....फिर कुछ खामोश रह कर कहा , लेकिन भूला भी कैसे जा सकता है। मेरे मुंह से झटके में निकला... जी, काम करुंगा...लेकिन बीए का रिजल्ट अभी निकला नहीं है। तो जिस दिन निकल आये, रिजल्ट लेकर आ जाना। नौकरी दे दूंगा। अभी बाहर जा कर पटना से आने-जाने का किराया ले लो। और हां, घूमना-फिरना ना छोड़ना।
कमाल है, जिस अखबार को खरीदने और फिर हर दिन पढ़ने का नशा लिये मैं पटना में रहता हूं उसके संपादक से मिलने में कहीं ज्यादा नशा हो सकता है। प्रभाष जी जैसे संपादक से मिलने का नशा क्या हो सकता है, यह नागपुर, औरंगाबाद, छत्तीसगढ़, तेलांगना, मुंबई,भोपाल की पत्रकारीय खाक छानते रहने के दौरान हर मुलाकात में समझा। विदर्भ के आदिवासियों को नक्सली करार देने का जिक्र 1990 में जब दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग के उनके कैबिन में दोपहर दो-ढाई बजे के दौरान किया तो वे अचानक बोले- जो कह रहे हो लिखने में कितना वक्त लगाओगे ? मैंने कहा, आप जितना वक्त देंगे। दो घंटे काफी होंगे ? यह परीक्षा है या छाप कर पैसे भी दीजियेगा । वे हंसते हुये बोले...घूमते रहना पंडित। फिर मेरे लिये कैबिन के किनारे में कुर्सी लगायी। टाइपिस्ट सफेद कागज लाया। सवा चार बजे मैंने विदर्भ के आदिवासियों की त्रासदी लिखी..जिसे पढ़कर शीर्षक बदल दिया...आदिवासियों पर चला पुलिसिया हंटर। कंपोजिंग में भिजवाते हुये कहा, इसे आज ही छापें और लेख का पेमेंट करा दें। जहां जाओ, वहीं लिखो। घूमना...लिखना दोनों न छोड़ो। अगली बार जरा शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन पर लिखवाऊंगा। और हां, संभव हो तो पीपुल्सवार के सीतारमैय्या का इंटरव्यू करो। पता तो चले कि नक्सली जमीन की दिशा क्या है।
संपादक में कितनी भूख हो सकती है, खबरों को जानने की। प्रभाष जी, नब्ज पकड़ना चाहते हैं और वह अपने रिपोर्टरों को दौड़ाते रहते है लेकिन मैं तो उनका रिपोर्टर भी नही था फिर भी संपादकीय पेज पर मेरी बड़ी बड़ी रिपोर्ट को जगह देते। और हमेशा चाहते कि मै रिपोर्टर के तौर पर आर्टिकल लिखूं।
6 दिसबंर 1992 की घटना के बाद प्रभाष जी ने किस तरह अपनी कलम से संघ की ना सिर्फ घज्जियां उड़ायीं बल्कि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष का जो बिगुल बजाया, वह किसी से छुपा नहीं है। फरवरी 1993 में जब दिल्ली में जनसत्ता के कैबिन में उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने नागपुर के हालात पर चर्चा कर अचानक कहा , पंडित तुम तो ऐसी जगह हो जहां संघ भी है और अंबेडकर भी और तो और नक्सली भी। अच्छा यह बताओ तुम्हारा जन्मदिन कब है ?......18 मार्च । तो रहा सौदा । मुझे आर्टिकल चाहिये संघ, दलित और नक्सली के सम्मिश्रण का सच। जो बताये कि आखिर व्यवस्था परिवर्तन क्यों नहीं हो रहा है। और 18 मार्च को उनका बधाई कार्ड मिला। जनसत्ता मिले तो देखना..."आखिर क्यों नहीं हो पा रहा है व्यवस्था परिवर्तन"। जन्मदिन की बधाई..घूमना और लिखना । प्रभाष जोशी।
कमाल है क्या यह वही शख्स है जो मेरे सामने चिरनिद्रा में है। व्यवस्था परिवर्तन का ही तो सवाल इसी शख्स ने मनमोहन सरकार की दूसरी पारी शुरु होने वाले दिन शपथ ग्रहण समारोह के वक्त ज़ी न्यूज में चर्चा के दौरान कहा था...बाजारवाद ने सबकुछ हड़प लिया है । व्यवस्था परिवर्तन का माद्दा भी। फिर लगे बताने कि कौन से सासंद का कौन का जुगाड या जरुरत है, जो मंत्री बन रहा है । खुद कितनी यात्रा कर कितनों के बारे में क्या क्या जानते, यह सब किदवंती की तरह मेरे दिमाग में बार बार कौंध रहा था कि तभी सिसकियों के बीच बगल में बैठे रामबहादुर राय ने मेरे कंघे पर हाथ रख दिया। अचानक अतीत से जागा तो देखा राय साहब ( अपनत्व में रामबहादुर राय को यही कहता रहा हूं) की आंखों से आंसू टपक रहे हैं। अकेले हो गये ना । ऐसा पत्रकार कहां मिलेगा। मैं तो पिछले 50 दिनों से जुटा हूं उन वजहों को तलाशने, जिसने जनसत्ता को पैदा किया। प्रभाष जी के बारे जितना खोजता हूं, उतना ही लगता है कि कुछ नहीं जानता। प्रभाष जी ने पत्रकारिता हथेली पर नोट्स लिखकर रिपोर्टिग करते हुये शुरु की थी। 1960 में विनोबा भावे जब इंदौर पहुचे तो नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते और राजेन्द्र माथुर ने प्रभाष जी को ही रिपोर्टिंग पर लगाया। इंटर की परीक्षा छोड़ इंदौर से सटे एक गांव सुनवानी महाकाल में जा कर प्रभाषजी अकेले रहने लगे। दाढ़ी बढ़ी तो कुछ ने कहा की साधु हो गये हैं। गांववालों को पढ़ाने और उनकी मुश्किलों को हल करने पर कांग्रेसी सोचने लगे कि यह व्यक्ति अपना चुनावी क्षेत्र बना रहा है। लेकिन विनोबा भावे के इंदौर प्रवास पर प्रभाष जी की रिपोर्टिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि फिर रास्ता पत्रकारिता....
लेकिन इस रिपोर्टिंग की तैयारी पिताजी को रात ढाई बजे ही करनी पड़ती थी। एम्बुलेंस में साथ प्रभाष जी के सिर की तरफ बैठे सोपान (प्रभाष जी के छोटे बेटे) ने बीच में लगभग भर्राते हुये कहा । विनोबा जी सुबह तीन बजे से काम शुरु कर देते थे तो पिताजी ढाई बजे ही तैयार होकर विनोबा जी के निवास स्थान पर पहुंच जाते। राय साहब बोले उस वक्त गांववाले इंदौर अनाज बेचने जाते तो प्रभाष जी के कोटे का दाना-पानी उनके दरवाजे पर रख जाते। और प्रभाष जी खुद ही गेंहू पीसते। और गांव की महिलायें उन्हें गद्दी-गद्दी कहती। सोपान यह कह कर बोले कि चक्की को वहां गद्दी ही कहा जाता है।
फिर रामनाथ गोयनका से मुलाकात भी तो एक इतिहास है। सोपान के यह कहते ही राय साहब कहने लगे जेपी ने ही आरएनजी के पास प्रभाष जी को भेजा था। और प्रभाष जी ने जनसत्ता तो जिस तरह निकाला यह तो सभी जानते है लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के तीन एडिशन चड़ीगढ़, अहमदाबाद और दिल्ली के संपादक भी रहे और चडीगढ़ के इंडियन एक्सप्रेस को दिल्ली से ज्यादा क्रेडेबल और लोकप्रिय बना दिया। अंग्रेजी अखबार में ऐसा कभी होता नहीं है कि संपादक के ट्रांसफर पर समूचा स्टाफ रो रहा हो। चड़ीगढ़ से दिल्ली ट्रासंपर होने पर इस नायाब स्थिति की जानकारी आरएनजी को भी मिली। वह चौंके भी। लेकिन जब जनसत्ता का सवाल आया तो प्रभाष जी ने आरएनजी को संकेत यही दिया कि पटेगी नहीं और झगड़ा हो जायेगा। आरएनजी ने कहा झगड़ लेंगे। लेकिन जनसत्ता तुम्ही निकालो।
राय साहब और सोपान लगातार झलकते आंसूओं के बीच हर उस याद को बांट रहे थे जो बार बार यह एहसास भी करा रहा था कि इसे बांटने के लिये अब हमें खुद की ही खामोशी तोड़नी होगी। तभी ड्राइवर ने हमें टोका और पूछा गांधी शांति प्रतिष्ठान आ गया है, किस गेट से गांडी अंदर करुं ? सोपान बोले, पहले वाले से फिर कहा यहां तो रुकना ही होगा। इमरजेन्सी की हर याद तो यहीं दफ्न है। पिताजी भी इमरजेन्सी के दिन अगर दिल्ली में रहते हैं तो गांधी पीस फाउंडेशन जरुर आते हैं। हमने भी कई काली राते सन्नाटे और खौफ के बीच काटी हैं। लेकिन मुझे लगा पत्रकारिता आज जिस मुहाने पर है और प्रभाष जोशी जिस तरह अकेले उससे दो दो हाथ करने समूचे देश को लगातार नाप रहे थे, उसमें सवाल अब कहीं ज्यादा बड़ा हो चुका है क्योकि एम्बुलेंस के भीतर की खामोशी तो आपसी दर्द बांटकर टूट गयी लेकिन बाहर जो सन्नाटा है, उसे कौन तोड़ेगा ? मैंने देखा गांधी पीस फाउंडेशन से हवाई अड्डे के लिये एम्बुलेंस के रवाना होने से चंद सेकेंड पहले प्रधानमंत्री की श्रदांजलि लिये एक अधिकारी भी पहुंच गया। और फिर मेरे दिमाग में यही सवाल कौंधा.......और अब।
72 साल की नौजवान उम्मीद हमेशा के लिए सो गई...शरीर बेशक प्रभाष जी का सांध्यकाल का था लेकिन उनकी सोच हमेशा सूरज की पहली किरण वाली रही...युवाओं से हीं ज्यादा युवा...इस उम्र में भी अखबारों ने पैसा खाकर चुनाव में ईमान बेचा तो प्रभाष जी ने पूरी ताकत के साथ विरोध किया...प्रभाष जी को अपना अंत निकट होने का जैसे आभास हो गया था...तभी उन्होंने हाल में एक लेख में लिखा था कि उनके पिताजी का भी 72साल की उम्र में ही निधन हुआ था...क्रिकेट के लिए सोने-जागने वाला इंसान क्रिकेट देखते देखते ही दुनिया से विदा हुआ...अलविदा प्रभाष जी लेकिन आपकी सोच हमेशा हमारे साथ रहेगी...उसे भगवान भी हमसे अलग नहीं कर सकता...
ReplyDeleteजय हिंद...
प्रभाष जी का जीवन अनुकरणीय है-मेरी विनम्र श्रद्धांजलि- पुण्य प्रसून जी आपने उनके विषय मे हमारी जानकारी मे वृद्धि की-आभार
ReplyDeleteजय माता दी,
ReplyDelete" लेख का पेमेंट करा दें "उनके इसी जज्बे को मेरा सलाम .मेरी यादास्त बता रही है जब खेल पेज पर एक पेज का लेख छफा था तो जनसत्ता ने मुझे एक मह्नीने में पेमेंट कराया था .लेकिन आपके हुनर को उन्होंने समय रहते पहचान लिया था और हो सकता है ये भी जान लिया था की आपका हुनर तभी मुकाम पायेगा जब पारिश्रमिक भी समय से होगा .
मार्मिक संस्मरण! प्रभाषजी को मेरी श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteप्रभाष जी अद्वितीय थे। उन की बेहद जरूरत थी इस समय में। उन्हें जिस तरह स्मरण किया जा रहा है उस से उम्मीद बंधती है कि फिर लोग निकल कर आएंगे।
ReplyDeleteमार्मिक..
ReplyDeletepata nahi kyon lekin ise padhte hue aankhein nam ho aai.
ReplyDeleteshraddhanjali shikhar purush ko, yah bhartiya patrakarita jagat ki aisi kshati hai jise bhar pana bahut bahut hi mushkil hoga.
सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से जोशी जी को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !
ReplyDeleteये नही जानता कि कब कैसे "कागद कारे" से मुलाकात हुई और फिर एक ऐसा रिशता बना कि हर रविवार को सुबह सुबह "कागद कारे" का ही इंतजार रहता। कभी पढकर होंसला मिला,कभी व्यस्था से लड़ने का जज्बा मिला, कभी नई तस्वीर देखने को मिली, कभी आँखो में आँशु आए...... एक भावानत्मक लगाव हो गया था। एक लेखक और पाठक के बीच। और परसो जब वो गए तो सोचा ना था कि इतनी जल्दी और ऐसे चले जाऐगे अब आगे कहाँ मिलेगा ऐसा मिट्टी से जुड़ा पत्रकार.........
ReplyDeleteधर्मेन्द्र प्रताप सिंह, एम.फिल., दिल्ली वि.वि. द
ReplyDeleteप्रभाष जी के जाने से पत्रकारिता का जो कोना खाली हो गया है, उसे भर पाना थोडा मुश्किल जरूर है। 'कागद कारे' की उनकी लेखनी अब बहुत याद आयेगी। प्रभाष जी के बारे में जो सबसे बडी बात मैंने महसूस की है वह यह की उनके जाने के बाद भी यह किसी को एहसास नहीं हो रहा है कि वह हमसे इतनी दूर चले गये हैं। सही मायनों में यही प्रभाष जी के व्यक्तित्व का यही रंग है। प्रभाष जी के इस जीवट व्यक्तित्व को सलाम...
प्रभाष जोशी जी को नमन
ReplyDelete'मालूम हो, ख़्याल रहे' ... कागद अब हमेशा के लिए कोरे हो गए ...|
ReplyDeleteअश्रुपूरित श्रद्धांजलि ...
एंबुलेंस की खामोशी...अब के बाद की खामोशी और फिर आपके इस लेख में छिपी-चिरती हुई खामोशी।कितना अजीब है ना गुरूवर सबकुछ बिकता है इस बाजार में, एक पत्रकार की भावुकता भी प्रभाज जोशी जैसे कालजयी पत्रकारों की चीर खामोशी भी।
ReplyDeleteपता नहीं वे आपके कितने करीब थे लेकिन दिल्ली से पांच सौ चालीस किलोमीटर दूर बीकानेर में रविवार को हुई उनकी श्रद्धांजलि सभा में बैठे पचासों लोगों ने दावा किया कि प्रभाष का स्नेह उनसे जैसा था किसी और से कैसे हो सकता है। अंत में सभा के अध्यक्ष ने कहा कि सभी इतना दंभ कर रहे हैं तो मुझे तो लगता है कि मैं बहुत पीछे हूं लेकिन मुझे भी उनका सानिध्य और प्रेम मिला है।
ReplyDeleteबस सभा में बैठा-बैठा सोच ही रहा था कि पता नहीं इस पत्रकार ने कितने लोगों को अपने करीब रख रखा था। यह उस विशाल हृदय की ही करामात हो सकती है।
प्रभाष जी को हृदय से श्रद्धांजलि...
सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब उनके द्वारा स्थापित किए गए मूल्यों पर कभी चल पाउंगा... ऐसा मेरा विचार है।
apko print media men dhoondh raha tha un par apki pratikriya ke liye , bahut achchi tarah se aapne prabhash ji ko samjha hai....
ReplyDeleteऔर अब ................ बताईये सर ? क्या होगा उजालो का?अब कौन रोकेगा उन कलमकारों को ",जो अंधेरो का समर्थन कर रहे है".
ReplyDeleteप्रभाष जी को शत शत नमन
shat-shat naman!
ReplyDeleteप्रभाष जोशी जी को नमन
ReplyDeleteprabhash joshi ek krantikari patrkar the apka lekh padhkar aisa laga ki aapki patrkarita mein unka kafi sahyog raha hai aur agar aisa hai to main unhe aur bhi adhik pasand karti hun kyonki is zamane mein sahi pathpradarshak milna bahut badi bat hoti hai alvida prabhash ji aap aur aapki soch sath lekar chalne vale hamesha hamaren sath rahenge
ReplyDeletebhagvan aapki aatma ko shanti de
नमस्कार सर ,
ReplyDeleteजामिया में M.A.पत्रकारिता का छात्र हूँ और आदरनीय प्रभाष जी पर रेडियो के लिए एक छोटा फीचर बना रहा हूँ , जिसमे आपकी राय की आकांशा है , यदि आप अपने कीमती पलों में से कुछ पल दे तो मेरा सौभाग्य होगा , मेरा मोबाइल है 9278116999
पुण्य जी प्रणाम,
ReplyDeleteनि:संदेह प्रभाष जी पत्रकारिता के सूर्य थे। वो सूर्य जिससे उजास तो मिलता ही था साथ ही पत्रकारिता करने और उसमें खुद झोंकने के लिए आत्मशक्ति भी। आप भाग्यशाली थे आपको उनका सानिध्य मिला। पर आपके लिए आप जैसे मझे लोगों के लिए ये सवाल लाज़मी है कि प्रभाष जी के बाद अब....
लेकिन हमारे लिए अभी राहें आप तक पहुंचती हैं।