करीब दस करोड़ रुपये की रैली में सवा लाख लोगो का जुगाड कोई सस्ता सौदा नहीं है। वह भी ऐसी जगह जिसकी पहचान लंगोटी और चरखा कात कर खादी बनाते हाथ हो। जहां सवा लाख से ज्यादा किसान सिर्फ दो जून की रोटी ना जुगाड़ पाने की जद्दोजहद में खुदकुशी करने पर आमादा हों। और बीते 10 साल में नौ हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर भी चुके हों। ऐसी जगह दो दर्जन से ज्यादा अरबपति और एक हजार से ज्यादा करोडपति अगर जुटे तो फिर रैली के लिये दस करोड रुपये का खर्चा कहने पर शर्म ही महसूस हो सकती है। और यह सब बातें अगर गांधी के वर्धाग्राम में गांधी परिवार की रैली को लेकर बात हो रही हों तो शर्म जरूर आ सकती है। कांग्रेस के सवा सौ बरस पूरे होने पर 15 अक्टूबर को वर्धा में जो नजारा नजर आया उसमें राहुल गांधी के उन सवालो का जवाब छिपा था जिसे वह लगातार यह कहकर देश नाप रहे है कि देश के भीतर बनते दो देश को कैसे पाटा जा सकता है और राजनीति में युवा आयें तो फिर राजनीति से बेहतर कोई माध्यम है नहीं कि इस विषमता को दूर करने का।
पहला भारत वर्धा में मौजूद है जहां की प्रति व्यक्ति आय सालाना 18 से 20 हजार रुपये है। यानी महीने का डेढ हजार। लेकिन, सरकारी आंकड़ा यह भी बताता है वर्धा में साठ फीसदी ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। कुल 32 फीसदी लोग बीपीएल में हैं। और यहां नरेगा से भी बडा काम या कहें रोजगार अपनी जमीन को किसी बिल्डर या उद्योगपति के हवाले कर कंस्ट्रक्शन मजदूरी करना है। खेती के लिये बीज और खाद से सस्ता और सुलभ सीमेंट और लोहा है। वर्धा शहर में सिर्फ 18 दुकानें बीज खाद की हैं मगर सीमेंट-लोहे की छड़ या कंस्ट्रक्शन मैटेरियल की नब्बे से ज्यादा दुकानें यहां चल रही हैं। खासकर बीते तीन साल में यहां जब से थर्मल पावर प्रोजेक्ट का काम शुरु हुआ है तब से खेतीहर किसानों के मजदूर में बदलने की रफ्तार में 20 फीसदी की तेजी आ गयी है। पहले वर्धा के बारबडी गांव की जमीन को यूजीसीएल ने सौदेबाजी में हड़पा। फिर दुकान-मकान का खेल इसके अगल-बगल के छह गांव को निगल रहा है।
करीब साढ़े सात सौ किसानों ने अपनी जमीन सरकारी बाबूओं के कहने पर बेच डाली की अब यहां खेती हो नहीं सकती। यह अलग मसला है कि कभी राजीव गांधी ने वर्धा के ही भू-गांव में यह कह कर स्टील प्लांट लगने नहीं दिया था कि वर्धा बापू की पहचान है और यहां खेती नष्ट की नहीं जा सकती। इसलिये कंक्रीट की इजाजत नहीं दी जायेगी। उसी का असर है कि बापू कुटिया हैरिटेज साइट बन गया। और नरसिंह राव के दौर तक में किसी कंपनी की हिम्मत नहीं हुई कि वह वर्धा में उद्योग लगाने की सोचे जिससे खेती नष्ट हो या फिर वहां के पर्यावरण पर असर पड़े।
लेकिन दूसरे भारत का आधुनिक नजारा सोनिया गांधी की रैली में तब नजर आया जब बीस लाख से सवा करोड की गाडि़यां वर्धा में दौड़ती दिखीं और मंच से सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी सरकार भूख से लडने के लिये तैयार है। लिवोजीन से लेकर उच्च कवालिटी वाली मर्सिडिज और स्पोर्ट्स कार से लेकर दुनिया की जो भी बेहतरीन गाड़ी कोई भी सोच सकता है वह सभी गाडियां 15 अक्टूबर को वर्धा पहुंचीं। दर्जनों अरबपति और हजारों करोडपति कांग्रेसी नेता-कार्यकर्ताओं की फौज जो विदर्भ की है वह सभी एकजूट हो जाये तो देश की चकाचौंध कितनी निखर सकती है इसका खुला नजारा नागपुर से वर्धा की सड़क पर नजर आ रहा है। लेकिन वर्धा का नाम सेवाग्राम भी है और रैली झंडा यात्रा थी तो अरबपति दत्ता मेधे हो या फिर करोडपति शैला पाटिल। और इन सब के बीच में हजारों कांग्रेसी करोडपति कार्यकर्ता।
करीब दो से चार किलोमीटर सभी पैदल चले। यह देश के लिये कुछ सेवा करने का कांग्रेसी जज्बा था। कुछ करोडपति कार्यकर्ता तो जनता के बीच भी बैठे। संयोग से यह भी खबर बनी और करोडपति कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के अखबारों में यह छपवाने में भी कोताही नहीं बरती कि वह दो किलोमीटर चरखा छपा तिंरगा लेकर चले। लेकिन किसी ने भी यह नहीं बताया कि नागपुर से वर्धा का 70 किलोमिटर का रास्ता चय करने के लिये उन्होने मुबंई, नासिक, पुणे,औरगाबंद से लेकर हर जिले से अपनी अपनी गाडि़यां पहले ही नागपुर हवाई अड्डे पर लगवा ली थी। और महाराष्ट्र सरकार का पूरा कांग्रेसी मंत्रिमंडल ही उस दिन नागपुर से वर्धा के बीच सोनिया गांधी को सलामी देने जुटा जिसमें राज्य सरकार का खजाना किताना खाली हुआ इसका ना कोई हिसाब है और नाही किसी ने कैमरे के सामने इसकी उस तरह गुफ्तगु की जैसी रैली के लिये दस करोड जुगाडने की गुफ्त-गु प्रदेश अध्यक्ष मणिकराव ठाकरे और नागपुर के कांग्रेसी नेता सतीश चतुर्वेदी ने हल्के अंदाज में कर ली।
लेकिन इस दो भारत से इतर भी एक तीसरे भारत की तस्वीर भी उभरी। जब देश के रक्षा राज्य मंत्री पल्लमराजू अचानक बिना कार्यक्रम नागपुर पहुंचे और नागपुर के सोनेगांव वायुसेना स्टेशन से लेकर अम्बाझरी के आयुध फैक्ट्री में इस बिना पर घुम आये कि जिस वायुसेना के जहाज को लेकर वह दिल्ली से नागपुर पहुंचे उसकी उपयोगिता कुछ दिखायी जा सके। यानी किसी सरकारी बाबू की तरह सरकारी वाहन का इस्तेमाल कर फाइल भरने सरीखा काम ही रक्षा राज्य मंत्री पल्लमराजू ने किया। असल में वायुसेना का विमान देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर दिल्ली से नागपुर पहुंचा था तो आरोपों से बचने के लिये रक्षा राज्य मंत्री भी नागपुर चल पडे। और नागपुर के रक्षा विभाग में जहां-जहां वह पहुंचे वहां अधिकारी कम और कुर्सियां ही ज्यादा थी। सोनिया ने पौने दो घंटे वर्धा में बिताये तो रक्षा राज्य मंत्री ने कुर्सियों के साथ बैठक और नागपुर शहर में कार से सफर में पौने दो घंटे बिताये। सोनिया वर्धा से नागपुर लौटीं और वापस वायुसेना के विमान में सवार होकर दिल्ली लौट आयीं।
यानी किसान-मजदूर पर भारी नेता-मंत्री और उसपर भारी केन्द्र सरकार -सोनिया गांधी। इस तीन भारत में किस से कौन सा सवाल ऐसा किया जा सकता है जिसमें यह लगे कि कोई तो है जो इन दूरियों को पाटने की हैसियत रखता है। या फिर तीन भारत की इमारत ही जब ऊपर से शुरू होती है तो फिर नीचे के किसान-मजदूर सेवाग्राम में जाकर बापू के सामने क्या कहते होगें। क्योकि वर्धा पहुंच कर सबसे पहले सोनिया गांधी भी बापू कुटिया ही गई थी, जहां उन्होंने चरखा कातते बापू भक्तों को देखा। बापू को याद किया। मिट्टी और घास-फूस से बने बापू कुटिया के दर्शन किये। उन तस्वीरों को देखा जो 1936 से 1943 तक सेवाग्राम में रहते हुये बापू काम किया करते थे। आत्याधुनिक हवाई गाडियों पर सवार कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने माना कि दस करोड रुपये में झंडा रैली सफल हुई क्योंकि बापू से कांग्रेस को जोडकर इससे बेहतर याद करने का कोई तरीका हो ही नहीं सकता है। सेवाग्राम के किसान मजदूर भी गांधी परिवार की शख्सियत सोनिया गांधी को देखकर तर गये क्योकि उन्होने माना कि बापू कुटिया में लिखी बापू की उस टिपप्णी को भी सोनिया गांधी ने जरुर पढा होगा जहां लिखा है , देश को असली आजादी तभी मिलेगी जब किसान का पेट भरा होगा और देश स्वाबलंबी होगा।
Wednesday, October 27, 2010
Friday, October 22, 2010
पूर्व मु्ख्यमंत्रियों के बच्चों की रेस में गुम है बिहार
तीन दशक पहले उम्मीदवारों की सूची देख कर कर्पूरी ठाकुर ने एक ही नाम सूची में से काटा था और वह नाम खुद कर्पूरी ठाकुर का था। इससे पहले तमाम नेता आपत्ती करते खुद कर्पूरी ठाकुर ही बोल पड़े कि मेरे परिवार से एक ही व्यक्ति चुनाव लड़ेगा। और अगर आपको लगता है कि रामानाथ को चुनाव लड़ना चाहिये तो फिर मेरे चुनाव लड़ ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। यह बात 1979 की है । और उस चुनाव में आखिरकार उनका नाम काटा गया और वह तमाम नेता जो अपने बच्चों या परिवारवालो के लिये टिकट चाहते थे , सभी ने खामोशी ओढ़ ली ।
समस्तीपुर से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रहे रामानाथ ठाकुर आज भी अपनी चुनावी सभा में गाहे-बगाहे कर्पूरी ठाकुर का जिक्र कुछ इसी अंदाज में करते हैं , जिससे कर्पूरी की महक अब के दौर में भी आने लगे। वहीं समस्तीपुर का किसान-मजदूर तबका अब भी कर्पूरी ठाकुर के दौर की महक याद करने के लिये रामानाथ ठाकुर से कुछ ऐसे सवाल जरुर करता है जो आज के दौर में काफुर हो चुके हैं । मसलन खेत में सिंचाई नहीं है। बीज-खाद महंगे है । साग-सब्जी बाजार तक ले जाने का साधन नहीं हैं । अन्न की कीमत कुछ है नहीं। मजदूरी में जो मिलता है, उससे पेट भरता नहीं। दवाईखाने में कोई डाक्टर बाबू नहीं रहता। थानेदार मारता -पीटता है। और रामानाथ ठाकुर की सभा किसी शिकायत केन्द्र की खिड़की बन जाती है।
80 बरस के रामाधार को तो यह भी याद है, कैसे 1970 में मुख्यमंत्री बनने से पहले कर्पूरी ठाकुर एक चुनावी सभा में लगे हर वोटर की कमाई ओर खर्चे का हिसाब करने। रामाधार की बारी आई तो हिसाब जोडने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें बीस रुपये पच्चतर पैसे गुटका-पान का खर्चा कम करने को कहा। और हमनें खर्चा कम भी कर दिया। फिर दिसंबर 1970 में कर्पूरी जब पहली बार सात महीने के लिये सीएम बने तो गांव में आकर फिर पूछा गुटका-पान कम हुआ कि नहीं। तो क्या रामानाथ ठाकुर भी कर्पूरी सरीखे हैं। नहीं रामानाथ में कर्पूरी ठाकुर का कोई गुण नही है, वह तो पैतृक घर छोड गांव में ही शानदार हवेली बनाये हुये हैं। लेकिन उनमें कर्पूंरी ठाकुर को देखने से तसल्ली तो मिलती ही है। आखिर कर्पूरी ठाकुर का बेटा है। लेकिन इस बार चुनाव में बेटों को देखने का चलन और साठ-सत्तर के दशक के दौर को याद करने की खुमारी भी खूब रेंग रही है। कांग्रेस के दमदार भूमिहार नेता एलपी साही की बेटी उज्ज्वला हाजीपुर से चुनाव लड रही हैं । कभी एल पी साही के बगैर बिहार में कांग्रेस में चूं-चपड नहीं होती थी। लेकिन बेटी को टिकट सोनिया गांधी के दरबार में आंसू बहाने के बाद मिला।
हाजीपुर के भूमिहार अब उज्जवला में एलपी साही के दौर को देखने की कोशिश कर रहे हैं । वैशाली के ट्रांसपोर्टर सत्येन्द्र नारायण क के मुताबिक हालांकि एलपी साही की पुत्रवधु वीणा साही पहले से ही लालू यादव के जरीये वैशाली से चुनाव मैदान में रही है। लेकिन बेटा-बेटी में बाप के गुण देखने का मतलब अलग है। और उज्जवला ने साही जी का उठान बचपन से देखा है तो कुछ गुण तो बाप का झलकेगा ही। लेकिन संघ परिवार तो पूरे परिवार को ही एक सरीखा मानता है। इसलिये आरएसएस के पुराने स्वयंसेवक खुश है कि कभी बिहार में भीष्मपितामह कहे जाने वाले कैलाशपति मिश्र की पुत्रवधु दिलमानो देवी ब्रह्मपुर से चुनाव लड़ रही हैं। कैलाशपति मिश्र आरएसएस के उन स्वयंसेवकों में से एक रहे हैं, जिन्हें महात्मा गांधी की हत्या के बाद जेल में डाल दिया गया था। और उससे पहले गांधी के भारत छोड़ों आंदोलन में भी भागेदारी की थी।
अब वह दौर तो नहीं है लेकिन परिवार का कोई व्यक्ति चुनाव मैदान में आता है तो आस तो बंधती ही है। संघ के पुराने स्वयंसेवक अखिलेश तिवारी इस बात से खफा है कि स्वयंसेवकों को बिहार में नीतिश कुमार के पीछे चलना पड़ रहा है । लेकिन कैलाशपति के परिवार का कोई भी चुनाव लड़े तो संघ पीछे तो हमेशा खड़ा ही रहेगा । वहीं 1970 में दस महिने मुख्यमंत्री रहे दारोगा प्रसाद राय की पहचान सबसे बडे यादव नेता के तौर पर है। लेकिन लालू यादव के दौर में यादवों का उनसे बड़ा नेता कोई माना नहीं जाता है । लेकिन लालू की फिसलन में यादव अब जब पुराने यादव नेताओ को याद कर रहे हैं तो परसा से आरजेडी के टिकट पर लड रहे दारोगा प्रसाद राय के बेटे चन्द्रिका और कांग्रेस के टिकट पर अमनौर से लड रहे दूसरे बेटे विनानचन्द्र राय में ही दारोगा राय के गुण-दोष देखने को अभिशप्त है।
वहीं यादवो में सबसे ठसक नेता के तौर पर पहचाने जाने वाले लालू यादव के ठीक पहले रामलखन यादव ही थे। रामलखन यादव की तूती बिहार में कितनी जबरदस्त थी इसका जिक्र पालीगंज के महेन्द्र यादव करते हुये बताते है कि 1981 में गांधी मैदान की एक सभा में रामलखन यादव ने यादवों की सभा में जब ऐलान किया कि अब वक्त आ गया है कि यादव एक साथ दो कदम आगे बढाये तो हजारो की तादाद में बैठे सभी यादव गांधी मैदान में ही खड़े होकर दो कदम आगे बढ़ाकर बैठ गये। अब रामलखन यादव के पौत्र जयवर्द्वन यादव पालीगंज से चुनाव लड रहे हैं तो महेन्द्र यादव उन्हीं में रामलखन यादव की यादों को खोज रहे है।
कुछ यही हाल 1973 से 1975 कर मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर के पौत्र आशिक गफूर का है। जो कांग्रेस के टिकट पर बरौली से चुनाव मैदान में है और 1979-80 में मुख्यमंत्री रहे रामसुंदर दास के बेटे संजय कुमार दास का है, जो कि जदयू के टिकट पर राजापाकड क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। हर पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे-बेटियों के जरीये अगर पुराने दौर के नेताओ को यादकर बिहार की पुरानी यादों की महक को सूंघने का प्रयास हो रहा है तो कुछ एहसास ताजे ताजे भी हैं, जिसमें कांग्रेस के आखरी दमदार सीएम जगन्नाथ मिश्र के बेटे-भतीजे से लेकर पूर्व मुखयमंत्री राबडी देवी के भाइयों के चुनाव मैदान में होने से लेकर खुद राबडी देवी के दो जगह चुनाव लड़ ने का भी खेल है, जो पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के दौर में पहले सीएम नही फिर नेता। और अब दो जगहों से चुनाव लड़ रही हैं । और इन सब के बीच रामविलास पासवान के फिल्मी बेटे और लालू के क्रिकेटर बेटे जिस तरह चुनाव प्रचार में नजर आ रहे हैं, उसमें कर्पूरी ठाकुर अब बिहार में किसी को सपने में भी दिखायी देंगे, यह सोचना ही 2010 के चुनावी गणित को बिगाड़ना होगा।
समस्तीपुर से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रहे रामानाथ ठाकुर आज भी अपनी चुनावी सभा में गाहे-बगाहे कर्पूरी ठाकुर का जिक्र कुछ इसी अंदाज में करते हैं , जिससे कर्पूरी की महक अब के दौर में भी आने लगे। वहीं समस्तीपुर का किसान-मजदूर तबका अब भी कर्पूरी ठाकुर के दौर की महक याद करने के लिये रामानाथ ठाकुर से कुछ ऐसे सवाल जरुर करता है जो आज के दौर में काफुर हो चुके हैं । मसलन खेत में सिंचाई नहीं है। बीज-खाद महंगे है । साग-सब्जी बाजार तक ले जाने का साधन नहीं हैं । अन्न की कीमत कुछ है नहीं। मजदूरी में जो मिलता है, उससे पेट भरता नहीं। दवाईखाने में कोई डाक्टर बाबू नहीं रहता। थानेदार मारता -पीटता है। और रामानाथ ठाकुर की सभा किसी शिकायत केन्द्र की खिड़की बन जाती है।
80 बरस के रामाधार को तो यह भी याद है, कैसे 1970 में मुख्यमंत्री बनने से पहले कर्पूरी ठाकुर एक चुनावी सभा में लगे हर वोटर की कमाई ओर खर्चे का हिसाब करने। रामाधार की बारी आई तो हिसाब जोडने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें बीस रुपये पच्चतर पैसे गुटका-पान का खर्चा कम करने को कहा। और हमनें खर्चा कम भी कर दिया। फिर दिसंबर 1970 में कर्पूरी जब पहली बार सात महीने के लिये सीएम बने तो गांव में आकर फिर पूछा गुटका-पान कम हुआ कि नहीं। तो क्या रामानाथ ठाकुर भी कर्पूरी सरीखे हैं। नहीं रामानाथ में कर्पूरी ठाकुर का कोई गुण नही है, वह तो पैतृक घर छोड गांव में ही शानदार हवेली बनाये हुये हैं। लेकिन उनमें कर्पूंरी ठाकुर को देखने से तसल्ली तो मिलती ही है। आखिर कर्पूरी ठाकुर का बेटा है। लेकिन इस बार चुनाव में बेटों को देखने का चलन और साठ-सत्तर के दशक के दौर को याद करने की खुमारी भी खूब रेंग रही है। कांग्रेस के दमदार भूमिहार नेता एलपी साही की बेटी उज्ज्वला हाजीपुर से चुनाव लड रही हैं । कभी एल पी साही के बगैर बिहार में कांग्रेस में चूं-चपड नहीं होती थी। लेकिन बेटी को टिकट सोनिया गांधी के दरबार में आंसू बहाने के बाद मिला।
हाजीपुर के भूमिहार अब उज्जवला में एलपी साही के दौर को देखने की कोशिश कर रहे हैं । वैशाली के ट्रांसपोर्टर सत्येन्द्र नारायण क के मुताबिक हालांकि एलपी साही की पुत्रवधु वीणा साही पहले से ही लालू यादव के जरीये वैशाली से चुनाव मैदान में रही है। लेकिन बेटा-बेटी में बाप के गुण देखने का मतलब अलग है। और उज्जवला ने साही जी का उठान बचपन से देखा है तो कुछ गुण तो बाप का झलकेगा ही। लेकिन संघ परिवार तो पूरे परिवार को ही एक सरीखा मानता है। इसलिये आरएसएस के पुराने स्वयंसेवक खुश है कि कभी बिहार में भीष्मपितामह कहे जाने वाले कैलाशपति मिश्र की पुत्रवधु दिलमानो देवी ब्रह्मपुर से चुनाव लड़ रही हैं। कैलाशपति मिश्र आरएसएस के उन स्वयंसेवकों में से एक रहे हैं, जिन्हें महात्मा गांधी की हत्या के बाद जेल में डाल दिया गया था। और उससे पहले गांधी के भारत छोड़ों आंदोलन में भी भागेदारी की थी।
अब वह दौर तो नहीं है लेकिन परिवार का कोई व्यक्ति चुनाव मैदान में आता है तो आस तो बंधती ही है। संघ के पुराने स्वयंसेवक अखिलेश तिवारी इस बात से खफा है कि स्वयंसेवकों को बिहार में नीतिश कुमार के पीछे चलना पड़ रहा है । लेकिन कैलाशपति के परिवार का कोई भी चुनाव लड़े तो संघ पीछे तो हमेशा खड़ा ही रहेगा । वहीं 1970 में दस महिने मुख्यमंत्री रहे दारोगा प्रसाद राय की पहचान सबसे बडे यादव नेता के तौर पर है। लेकिन लालू यादव के दौर में यादवों का उनसे बड़ा नेता कोई माना नहीं जाता है । लेकिन लालू की फिसलन में यादव अब जब पुराने यादव नेताओ को याद कर रहे हैं तो परसा से आरजेडी के टिकट पर लड रहे दारोगा प्रसाद राय के बेटे चन्द्रिका और कांग्रेस के टिकट पर अमनौर से लड रहे दूसरे बेटे विनानचन्द्र राय में ही दारोगा राय के गुण-दोष देखने को अभिशप्त है।
वहीं यादवो में सबसे ठसक नेता के तौर पर पहचाने जाने वाले लालू यादव के ठीक पहले रामलखन यादव ही थे। रामलखन यादव की तूती बिहार में कितनी जबरदस्त थी इसका जिक्र पालीगंज के महेन्द्र यादव करते हुये बताते है कि 1981 में गांधी मैदान की एक सभा में रामलखन यादव ने यादवों की सभा में जब ऐलान किया कि अब वक्त आ गया है कि यादव एक साथ दो कदम आगे बढाये तो हजारो की तादाद में बैठे सभी यादव गांधी मैदान में ही खड़े होकर दो कदम आगे बढ़ाकर बैठ गये। अब रामलखन यादव के पौत्र जयवर्द्वन यादव पालीगंज से चुनाव लड रहे हैं तो महेन्द्र यादव उन्हीं में रामलखन यादव की यादों को खोज रहे है।
कुछ यही हाल 1973 से 1975 कर मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर के पौत्र आशिक गफूर का है। जो कांग्रेस के टिकट पर बरौली से चुनाव मैदान में है और 1979-80 में मुख्यमंत्री रहे रामसुंदर दास के बेटे संजय कुमार दास का है, जो कि जदयू के टिकट पर राजापाकड क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। हर पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे-बेटियों के जरीये अगर पुराने दौर के नेताओ को यादकर बिहार की पुरानी यादों की महक को सूंघने का प्रयास हो रहा है तो कुछ एहसास ताजे ताजे भी हैं, जिसमें कांग्रेस के आखरी दमदार सीएम जगन्नाथ मिश्र के बेटे-भतीजे से लेकर पूर्व मुखयमंत्री राबडी देवी के भाइयों के चुनाव मैदान में होने से लेकर खुद राबडी देवी के दो जगह चुनाव लड़ ने का भी खेल है, जो पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के दौर में पहले सीएम नही फिर नेता। और अब दो जगहों से चुनाव लड़ रही हैं । और इन सब के बीच रामविलास पासवान के फिल्मी बेटे और लालू के क्रिकेटर बेटे जिस तरह चुनाव प्रचार में नजर आ रहे हैं, उसमें कर्पूरी ठाकुर अब बिहार में किसी को सपने में भी दिखायी देंगे, यह सोचना ही 2010 के चुनावी गणित को बिगाड़ना होगा।
Wednesday, October 20, 2010
पत्नियों ने बदली बिहार में बाहुबलियों की परिभाषा
मनमोहन सिंह चाहे केन्द्र की अधूरी पड़ी योजनाओं के लिये नीतीश कुमार को कटघरे में खड़ा कर ‘विकास का दिल्ली राग’ बिहार में चाहे गा आयें। लेकिन बिहार में घूमते वक्त पग पग पर इसका एहसास साफ हो जाता है कि बिहार में विकास का मतलब है कानून व्यवस्था। चुनावी गीत ढोल और चौपाल भी बिहार में अब शाम ढलने के बाद ही सजती है। जो पांच साल पहले शाम ढलते ही समेट ली जाती थी। इलाका सीमाचंल का हो या गया का या फिर पूर्णिया या मुंगेर का। कोई हो इलाका। जहां विकास के नाम पर सड़क नहीं पहुंची। जहां विकास तले नरेगा फेल है। जहां विकास के जरिये रोजगार मुहाल है...वहां लालटेन-डिबरी या पेट्रोमेक्स की रोशनी में चुनावी चौपाल सज रही हो और इसे ही विकास का पर्याय माना जा रहा हो तब आप क्या कहेंगे?
सवाल पांच साल में करीब 46 हजार अपराधियों को सजा देने के आंकडों का नहीं है, जिसे नीतीश कुमार यह कह कर गिनवा रहे हैं कि 2005 में तो वह शाम सात बजे लौट जाते थे और 2010 में सात बजे के बाद ही सभा सजती है। सवाल है कि अपराधियो की पत्नियां अब यह कहने से डर रही हैं कि उन्होंने कभी बंदूक को छुआ भी है। या फिर हथियारों को घर में भी रखा। गया जिले के अतरी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रही कुंती देवी की रात नौ बजे सभा होती है जो पंचायत या चौपाल सरीखी ही गांव-गांव में सजती है और कुंती देवी मासूमियत से कहती हैं कि हमने तो कभी बंदूक तक नहीं देखी। पति को अपराधियों ने जाति संघर्ष में फंसाया। कुंती देवी के पति राजेन्द्र यादव जेल में हैं और लालू ने उनकी पत्नी को टिकट दे कर अपराध से हाय-तौबा करने का नया मंत्र दे दिया है। अपराध या अपराधियों को खारिज कर अपराधविहिन समाज की कल्पना इस चुनाव में नयी परिबाषा के साथ उभर रही है।
कुख्यात आंनद मोहन की पत्नी लवली आनंद कांग्रेस के टिकट पर आलमनगर की चुनावी सभाओं में आंनद मोहन के प्रेमी दिल को भी बताने से नहीं चूकतीं। वहीं शाहपुर से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रही मुन्नी देवी हो या रुपौली सीट से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रही बीमा भारती। दोनों अपनी पति के किस्से कुछ इस तर्ज पर सुनाती है, जिससे प्रेम की गंगा में भी खौफ का एहसास हो। मुन्नी देवी के पति भुअर ओझा हो या जेठ विश्वेस्वर ओझा दोनो के अपराध बंदूक तले ही पनपे। लेकिन मुन्नी देवी का घूंघट हर खौफ में नजाकत भरते हुये डराता है या कभी बंदूक का साया न पड़ने देने का भरोसा दिलाता है, इसे अभी भी शाहपुर के वोटर समझ नहीं पा रहे हैं। जबकि बीमा भारती तो अपने पति के अपराधिक छवि को नीतीश कुमार के अपराध पर नकेल कसने में ही जीत मान चुकी हैं। बीमा भारती का संवाद भी सीधा होता है, जिस नेता ने साल दर साल अपराधियो को सजा दिलाने में पांच साल गुजार दिये उससे बेहतर सीएम कोई दूसरा कैसे हो सकता है।
रुपौली में तो बकायदा पोस्टर भी ऐसा बनाकर चिपकाया है, जो बताता है कि 2006 में 6839 , 2007 में 9853, 2008 में 12007, 2009 में 13146 और 2010 में चुनाव ऐलान से पहले यानी अगस्त तक 7256 अपराधियों को सजा दी गयी । जिसके नीचे लिखा है अल्पसमय में कायालपट । खास बात यह भी है कि यह पोस्टर जदयू और भाजपा के उन आधे दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में ही दिखायी देता है, जहां अपराधियों के परिवार में से किसी ना किसी को इन दलों टिकट दिया है। हालांकि इस पोस्टर का मजाक भी यह कर खूब उड़ाया जा रहा है कि अल्प समय में कायापलट का मतलब यही है.....अपराधियों को सजा और परिवार वालो को टिकट।
लेकिन बाहुबलियों की गाथा से न कोई दल बचा है और न ही किसी भी अपराधी के परिवार वाले अपने बाहुबली पति या भाई के किस्सों से कोताही कर रहे हैं। गोविंदगंज में लोजपा के टिकट से चुनाव लड रहे मंटू तिवारी की सभा ही राजन तिवारी के किस्सों से शुरु होती है। अगर मंटू की माने तो राजन तिवारी से बडा न्यायविद् और कोई हो ही नहीं सकता । क्योकि राजन तिवारी ने कभी अपराध नहीं किया, हमेशा न्याय किया । इसका दूसरा चेहरा लालगंज में जदयू के टिकट से चुनाव लड रही मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला में नजर आता है। जहां एक ही किस्सा है न्यायप्रिय नीतीश कुमार न होते तो मुन्ना शुक्ला कभी सुधरता नहीं। यह धमकी है या वोट मांगने का सुशासित तरीका इसे अभी भी लालगंज का वोटर समझ नहीं पाया है।
वहीं बिहारी गंज से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड रही पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन का मानना है कि जब अजित सरकार का बेटा अमित मेलबोर्न से लौट आया है और अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहा तो अब पप्पू यादव अपराधी कैसे रहे। फैसला तो चुनावी मैदान में ही होना चाहिये। यानी अपराध की परिभाषा अपराधियो के साथ चुनाव में उसी कानून व्यवस्था से इतर न्याय तलाश रही है, जिसके आसरे नीतीश कुमार बिहार में घूम घूम कर बता रहे है कि उनके सुशासन में विकास का मतलब है कानून व्यवस्था का पटरी पर लौटना । वैसे बाहुबल की नयी परिभाषा जमुई और चकाई में भी गूंज रही है जहां नरेन्द्र सिंह के बेटे चुनाव लड़ रहे हैं। जदयू में मंत्री नरेन्द्र सिंह वही शख्स हैं, जिन्होंने नीतीश कुमार को नक्सलियो के अपरहण संकट से उबारा था। और इस बार उनका एक बेटा अजय सिंह जमुई से जदयू के टिकट पर तो दूसरा बेटा सुमित सिंह चकाई से झामुमो के टिकट पर चुनाव मैदान में है। और यहां एक ही नारा गूंज रहा है। बाहुबली और अपराधियो में दम है तो नक्सलियों का सामना कर दिखायें। जैसे नरेन्द्र सिंह ने किया । इसका असर यह हुआ है कि लालू और पासवान भी नक्सल मुद्दे पर अब यही कह रहे हैं कि सत्ता में आये तो नक्सली संगठनों पर दमन के बजाये बातचीत करके रास्ता निकालेंगे। क्योकि नक्सलवाद की बुनियादी वजह सामाजिक उत्पीड़न है। और यहां समाधान बंदूक से नहीं निकल सकता है। यानी पहली बार बिहार चुनाव में बंदूक के आतंक की जगह उसके एहसास हा खौफ है। और विकास इसी को कहते हैं।
सवाल पांच साल में करीब 46 हजार अपराधियों को सजा देने के आंकडों का नहीं है, जिसे नीतीश कुमार यह कह कर गिनवा रहे हैं कि 2005 में तो वह शाम सात बजे लौट जाते थे और 2010 में सात बजे के बाद ही सभा सजती है। सवाल है कि अपराधियो की पत्नियां अब यह कहने से डर रही हैं कि उन्होंने कभी बंदूक को छुआ भी है। या फिर हथियारों को घर में भी रखा। गया जिले के अतरी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रही कुंती देवी की रात नौ बजे सभा होती है जो पंचायत या चौपाल सरीखी ही गांव-गांव में सजती है और कुंती देवी मासूमियत से कहती हैं कि हमने तो कभी बंदूक तक नहीं देखी। पति को अपराधियों ने जाति संघर्ष में फंसाया। कुंती देवी के पति राजेन्द्र यादव जेल में हैं और लालू ने उनकी पत्नी को टिकट दे कर अपराध से हाय-तौबा करने का नया मंत्र दे दिया है। अपराध या अपराधियों को खारिज कर अपराधविहिन समाज की कल्पना इस चुनाव में नयी परिबाषा के साथ उभर रही है।
कुख्यात आंनद मोहन की पत्नी लवली आनंद कांग्रेस के टिकट पर आलमनगर की चुनावी सभाओं में आंनद मोहन के प्रेमी दिल को भी बताने से नहीं चूकतीं। वहीं शाहपुर से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रही मुन्नी देवी हो या रुपौली सीट से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रही बीमा भारती। दोनों अपनी पति के किस्से कुछ इस तर्ज पर सुनाती है, जिससे प्रेम की गंगा में भी खौफ का एहसास हो। मुन्नी देवी के पति भुअर ओझा हो या जेठ विश्वेस्वर ओझा दोनो के अपराध बंदूक तले ही पनपे। लेकिन मुन्नी देवी का घूंघट हर खौफ में नजाकत भरते हुये डराता है या कभी बंदूक का साया न पड़ने देने का भरोसा दिलाता है, इसे अभी भी शाहपुर के वोटर समझ नहीं पा रहे हैं। जबकि बीमा भारती तो अपने पति के अपराधिक छवि को नीतीश कुमार के अपराध पर नकेल कसने में ही जीत मान चुकी हैं। बीमा भारती का संवाद भी सीधा होता है, जिस नेता ने साल दर साल अपराधियो को सजा दिलाने में पांच साल गुजार दिये उससे बेहतर सीएम कोई दूसरा कैसे हो सकता है।
रुपौली में तो बकायदा पोस्टर भी ऐसा बनाकर चिपकाया है, जो बताता है कि 2006 में 6839 , 2007 में 9853, 2008 में 12007, 2009 में 13146 और 2010 में चुनाव ऐलान से पहले यानी अगस्त तक 7256 अपराधियों को सजा दी गयी । जिसके नीचे लिखा है अल्पसमय में कायालपट । खास बात यह भी है कि यह पोस्टर जदयू और भाजपा के उन आधे दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में ही दिखायी देता है, जहां अपराधियों के परिवार में से किसी ना किसी को इन दलों टिकट दिया है। हालांकि इस पोस्टर का मजाक भी यह कर खूब उड़ाया जा रहा है कि अल्प समय में कायापलट का मतलब यही है.....अपराधियों को सजा और परिवार वालो को टिकट।
लेकिन बाहुबलियों की गाथा से न कोई दल बचा है और न ही किसी भी अपराधी के परिवार वाले अपने बाहुबली पति या भाई के किस्सों से कोताही कर रहे हैं। गोविंदगंज में लोजपा के टिकट से चुनाव लड रहे मंटू तिवारी की सभा ही राजन तिवारी के किस्सों से शुरु होती है। अगर मंटू की माने तो राजन तिवारी से बडा न्यायविद् और कोई हो ही नहीं सकता । क्योकि राजन तिवारी ने कभी अपराध नहीं किया, हमेशा न्याय किया । इसका दूसरा चेहरा लालगंज में जदयू के टिकट से चुनाव लड रही मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नू शुक्ला में नजर आता है। जहां एक ही किस्सा है न्यायप्रिय नीतीश कुमार न होते तो मुन्ना शुक्ला कभी सुधरता नहीं। यह धमकी है या वोट मांगने का सुशासित तरीका इसे अभी भी लालगंज का वोटर समझ नहीं पाया है।
वहीं बिहारी गंज से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड रही पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन का मानना है कि जब अजित सरकार का बेटा अमित मेलबोर्न से लौट आया है और अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहा तो अब पप्पू यादव अपराधी कैसे रहे। फैसला तो चुनावी मैदान में ही होना चाहिये। यानी अपराध की परिभाषा अपराधियो के साथ चुनाव में उसी कानून व्यवस्था से इतर न्याय तलाश रही है, जिसके आसरे नीतीश कुमार बिहार में घूम घूम कर बता रहे है कि उनके सुशासन में विकास का मतलब है कानून व्यवस्था का पटरी पर लौटना । वैसे बाहुबल की नयी परिभाषा जमुई और चकाई में भी गूंज रही है जहां नरेन्द्र सिंह के बेटे चुनाव लड़ रहे हैं। जदयू में मंत्री नरेन्द्र सिंह वही शख्स हैं, जिन्होंने नीतीश कुमार को नक्सलियो के अपरहण संकट से उबारा था। और इस बार उनका एक बेटा अजय सिंह जमुई से जदयू के टिकट पर तो दूसरा बेटा सुमित सिंह चकाई से झामुमो के टिकट पर चुनाव मैदान में है। और यहां एक ही नारा गूंज रहा है। बाहुबली और अपराधियो में दम है तो नक्सलियों का सामना कर दिखायें। जैसे नरेन्द्र सिंह ने किया । इसका असर यह हुआ है कि लालू और पासवान भी नक्सल मुद्दे पर अब यही कह रहे हैं कि सत्ता में आये तो नक्सली संगठनों पर दमन के बजाये बातचीत करके रास्ता निकालेंगे। क्योकि नक्सलवाद की बुनियादी वजह सामाजिक उत्पीड़न है। और यहां समाधान बंदूक से नहीं निकल सकता है। यानी पहली बार बिहार चुनाव में बंदूक के आतंक की जगह उसके एहसास हा खौफ है। और विकास इसी को कहते हैं।
Monday, October 18, 2010
कोसी के मैले आंचल में चुनावी बीन
सुबह उठते ही कोसी का पानी बर्तन, डिब्बो,बाल्टी में भरना। फिर कोसी के पानी को ही छान कर पीना। कोसी के पानी में ही नहाना-धोना। कोसी के पानी से ही सब्जी-दाल-चावल धोना और बनाना। और कोसी के किनारे रात गुजार कर फिर सुबह उठ कर जिन्दगी का अगला दिन काटना। कोसी के तटबंध पर यह जीवन सौ-दो सौ परिवारों का नहीं करीब चार से पांच हजार लोगों का जीवन है। वह भी साल भर से। यानी जिस कोसी ने जिन्दगी बर्बाद कर दी, वही कोसी ही हजारों हजार परिवार को आश्रय दिये हुये है। और इस दौर में कभी कोई राजनीतिक व्यवस्था या सरकारी व्यवस्था ने उनके झोपड़ की कुंडी पर दस्तक नहीं दी।
ऐसे में एकाएक कोई भी राजनीतिक दल अगर भोजन, पानी, कपड़े और घर दिलाने का वायदा करें तो कौन किस पर भरोसा करेगा? नीतिश कुमार कोसी इलाके का कायाकल्प करने का भरोसा दिला रहे हैं। तो भाजपा कोसी बाढ़ से प्रभावितों को एक बेहतर जीवन देने का वायदा कर रही है। वहीं लालू यादव कोसी के तटबंधो पर आश्रय लिये परिवारों को भोजन,पीने का पानी, इलाज की सुविधा और घर देना का भरोसा दिला रहे हैं। लेकिन कांग्रेस यह कहने से बच रही है कि उसने कोसी बाढ़ पीडितों के लिये कितनी मदद दी। कांग्रेस यह जरुर कह रही है कोसी को राष्ट्रीय विपदा मनमोहन सरकार ने ही माना। मगर उसकी एवज में तटबंधों पर टिके हजारों परिवारों को क्या राहत मिली इस पर कांग्रेस खामोश है।
भाजपा भी यह बोलने से कतरा रही है कि नीतीश कुमार ने कोसी बाढ़ राहत के लिये नरेन्द्र मोदी के पांच करोड़ रुपये क्यों लौटा दिये । जबकि कोसी के तटबंध पर टिके परिवारों के लिये पांच रुपया भी दिनभर के जीने का जरिया बन जाता है। तटबंध पर टिके पांच हजार परिवारों को जाति और इलाकों में बांटना मुश्किल है। महादलित से लेकर मैथली ब्राह्मण परिवार भी सबकुछ डूब जाने के बाद एकसाथ एक कतार में तटबंध पर जी रहे हैं, और कुछ मुस्लिम परिवार भी इसी कतार में रह रहे हैं। और इलाके तो कई जिलों को यहां एक किये हुये हैं। बारा पंचायत, कोनापट्टी , घमदट्टा, चौसा से लेकर पसराहा तक के क्षेत्रों में रहने वाले तटबंधों पर टिके हुये हैं। तटबंधो पर टिका कुशवाहा परिवार हो या रामजनम का परिवार या फिर अंसारी परिवार। सभी की जरुरत एक सी है और राजनीतिक दलों के जातीय खांचे में बंटे लुभावने वायदों में इन्हे बांटा भी नहीं जा सकता।
पांच साल पहले किसी के इलाके में नीतीश कुमार का तीर चला था तो किसी के इलाके में लालू यादव की लालटेन जली थी। लेकिन पांच साल पहले यह तमाम इलाके किसी राजनीतिक दल के लिये मायने नहीं रखते थे मगर पांच साल बाद आज की तारीख में हर राजनीतिक दल के लिये यह इलाके इतने मायने रखते हैं कि हर के चुनावी घोषणापत्र में इन्हे जगह मिली है। मगर चुनाव को लेकर हो रहे दावों-प्रतिदावों से दूर यह पूरा इलाके में नीतीश कुमार का बीते पांच बरस का विकास मायने नहीं रखता। क्योंकि यहा सिर्फ पगडंडी है। सड़क नहीं। कानून व्यवस्था का सुधार मायने नहीं रखता। क्योंकि अपराध है नहीं। कभी पुलिस वाला या कोई नेतानुमा जरुर दो से पांच रुपये प्रति घर वसूली कर ले जाता है। लेकिन यह अपराध नहीं भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। और नीतीश कुमार ने चुनाव प्रचार के दौरान यहा वायदा किया है कि वह सत्ता में लौटे तो अगली लड़ाई भ्रष्टाचार को लेकर शुरु करेंगे। यहां राहुल गांधी प्रचार में नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी और आरएसएस का साथी बता कर उनकी घर्मनिरपेक्ष छवि पर हमला करते हैं। लेकिन यह प्रचार भी यहां मायने नहीं रखता। क्योंकि हिन्दु-मुस्लिम दोनों ही तटबंध पर घर-परिवार के साथ न्यूनतम जरुरतो के जुगाड़ की बराबर की लडाई एकसाथ लड रहे है। लालू यादव यहा नीतीश के विकास को फर्जी करार देते हुये कोसी पीड़ितो को सबकुछ दिलाने का चुनावी प्रचार करते हैं। लेकिन यहां यह भी मायने नहीं रखता। क्योंकि हर दिन खाना-पानी जुगाड़ने से लेकर रोजगार की तलाश में व्यवस्था का फर्जीवाडा उन्हें हर रोज भोगना पड़ता है। राशन कार्ड होने पर भी सस्ता गेहूं चावल नहीं मिलता। नरेगा का रोजगार कार्ड होने पर भी रोजगार नहीं मिलता। और तटबंध के किनारे टिके लोगों को रिहायशी इलाके में पीने का पानी तक चंपाकल से भरने नहीं दिया जाता। तटबंध पर टिके बडे बूढ़ों को चुनावी राजनीति से ज्यादा अतीत याद आ रहा है। कैसे चार दशक पहले बाढ़ के कहर से बचाने में संघ के स्वयंसेवक लगे। कैसे सरकार ने सालो साल तक पूड़ी-सब्जी की व्यवस्था करायी थी। कैसे उस वक्त पीने का पानी टैंकर में भर कर आता था। कैसे इलाज के लिये कैंप लगे थे और डाक्टर रात में भी डिबरी की रोशनी में उलाज करने से नहीं कतराते थे। और कैसे कुछ जगहो पर बच्चों को पढ़ाने के लिये कुछ स्वंयसेवी संगठनों ने ब्लैक बोर्ड लटकाया था।
लेकिन तटबंध पर टिके हजारों परिवारों का साथ छोड़ते ही महज एक किलोमीटर चलने के बाद ही नीतिश,लालू और राहुल की गूंज साफ सुनायी देने लगती है। चूंकि वोटिंग का आगाज कोसी के इलाके से ही होना है। और 21 अक्टूबर को सहरसा,अररिया, किशनगंज,पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा और मधुबनी की 47 सीटो के लिये वोट डाले जायेंगे तो जिन रिहायशी इलाको में तटबंध पर टिके लोगों को पानी भरने नहीं दिया जाता, उन जगहों पर चुनाव को लेकर अभी से असली चिल्लम-पौ इसी बात को लेकर है कि कोसी के इलाके में पांच साल पहले नीतीश कुमार को वोट मिले थे...क्या वह इस बार भी मिलेंगे या बंट जायेंगे। और मुस्लिम वोट किधर जायेंगे या वह किस नेता का दामन थामेंगे।
ऐसे में एकाएक कोई भी राजनीतिक दल अगर भोजन, पानी, कपड़े और घर दिलाने का वायदा करें तो कौन किस पर भरोसा करेगा? नीतिश कुमार कोसी इलाके का कायाकल्प करने का भरोसा दिला रहे हैं। तो भाजपा कोसी बाढ़ से प्रभावितों को एक बेहतर जीवन देने का वायदा कर रही है। वहीं लालू यादव कोसी के तटबंधो पर आश्रय लिये परिवारों को भोजन,पीने का पानी, इलाज की सुविधा और घर देना का भरोसा दिला रहे हैं। लेकिन कांग्रेस यह कहने से बच रही है कि उसने कोसी बाढ़ पीडितों के लिये कितनी मदद दी। कांग्रेस यह जरुर कह रही है कोसी को राष्ट्रीय विपदा मनमोहन सरकार ने ही माना। मगर उसकी एवज में तटबंधों पर टिके हजारों परिवारों को क्या राहत मिली इस पर कांग्रेस खामोश है।
भाजपा भी यह बोलने से कतरा रही है कि नीतीश कुमार ने कोसी बाढ़ राहत के लिये नरेन्द्र मोदी के पांच करोड़ रुपये क्यों लौटा दिये । जबकि कोसी के तटबंध पर टिके परिवारों के लिये पांच रुपया भी दिनभर के जीने का जरिया बन जाता है। तटबंध पर टिके पांच हजार परिवारों को जाति और इलाकों में बांटना मुश्किल है। महादलित से लेकर मैथली ब्राह्मण परिवार भी सबकुछ डूब जाने के बाद एकसाथ एक कतार में तटबंध पर जी रहे हैं, और कुछ मुस्लिम परिवार भी इसी कतार में रह रहे हैं। और इलाके तो कई जिलों को यहां एक किये हुये हैं। बारा पंचायत, कोनापट्टी , घमदट्टा, चौसा से लेकर पसराहा तक के क्षेत्रों में रहने वाले तटबंधों पर टिके हुये हैं। तटबंधो पर टिका कुशवाहा परिवार हो या रामजनम का परिवार या फिर अंसारी परिवार। सभी की जरुरत एक सी है और राजनीतिक दलों के जातीय खांचे में बंटे लुभावने वायदों में इन्हे बांटा भी नहीं जा सकता।
पांच साल पहले किसी के इलाके में नीतीश कुमार का तीर चला था तो किसी के इलाके में लालू यादव की लालटेन जली थी। लेकिन पांच साल पहले यह तमाम इलाके किसी राजनीतिक दल के लिये मायने नहीं रखते थे मगर पांच साल बाद आज की तारीख में हर राजनीतिक दल के लिये यह इलाके इतने मायने रखते हैं कि हर के चुनावी घोषणापत्र में इन्हे जगह मिली है। मगर चुनाव को लेकर हो रहे दावों-प्रतिदावों से दूर यह पूरा इलाके में नीतीश कुमार का बीते पांच बरस का विकास मायने नहीं रखता। क्योंकि यहा सिर्फ पगडंडी है। सड़क नहीं। कानून व्यवस्था का सुधार मायने नहीं रखता। क्योंकि अपराध है नहीं। कभी पुलिस वाला या कोई नेतानुमा जरुर दो से पांच रुपये प्रति घर वसूली कर ले जाता है। लेकिन यह अपराध नहीं भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। और नीतीश कुमार ने चुनाव प्रचार के दौरान यहा वायदा किया है कि वह सत्ता में लौटे तो अगली लड़ाई भ्रष्टाचार को लेकर शुरु करेंगे। यहां राहुल गांधी प्रचार में नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी और आरएसएस का साथी बता कर उनकी घर्मनिरपेक्ष छवि पर हमला करते हैं। लेकिन यह प्रचार भी यहां मायने नहीं रखता। क्योंकि हिन्दु-मुस्लिम दोनों ही तटबंध पर घर-परिवार के साथ न्यूनतम जरुरतो के जुगाड़ की बराबर की लडाई एकसाथ लड रहे है। लालू यादव यहा नीतीश के विकास को फर्जी करार देते हुये कोसी पीड़ितो को सबकुछ दिलाने का चुनावी प्रचार करते हैं। लेकिन यहां यह भी मायने नहीं रखता। क्योंकि हर दिन खाना-पानी जुगाड़ने से लेकर रोजगार की तलाश में व्यवस्था का फर्जीवाडा उन्हें हर रोज भोगना पड़ता है। राशन कार्ड होने पर भी सस्ता गेहूं चावल नहीं मिलता। नरेगा का रोजगार कार्ड होने पर भी रोजगार नहीं मिलता। और तटबंध के किनारे टिके लोगों को रिहायशी इलाके में पीने का पानी तक चंपाकल से भरने नहीं दिया जाता। तटबंध पर टिके बडे बूढ़ों को चुनावी राजनीति से ज्यादा अतीत याद आ रहा है। कैसे चार दशक पहले बाढ़ के कहर से बचाने में संघ के स्वयंसेवक लगे। कैसे सरकार ने सालो साल तक पूड़ी-सब्जी की व्यवस्था करायी थी। कैसे उस वक्त पीने का पानी टैंकर में भर कर आता था। कैसे इलाज के लिये कैंप लगे थे और डाक्टर रात में भी डिबरी की रोशनी में उलाज करने से नहीं कतराते थे। और कैसे कुछ जगहो पर बच्चों को पढ़ाने के लिये कुछ स्वंयसेवी संगठनों ने ब्लैक बोर्ड लटकाया था।
लेकिन तटबंध पर टिके हजारों परिवारों का साथ छोड़ते ही महज एक किलोमीटर चलने के बाद ही नीतिश,लालू और राहुल की गूंज साफ सुनायी देने लगती है। चूंकि वोटिंग का आगाज कोसी के इलाके से ही होना है। और 21 अक्टूबर को सहरसा,अररिया, किशनगंज,पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा और मधुबनी की 47 सीटो के लिये वोट डाले जायेंगे तो जिन रिहायशी इलाको में तटबंध पर टिके लोगों को पानी भरने नहीं दिया जाता, उन जगहों पर चुनाव को लेकर अभी से असली चिल्लम-पौ इसी बात को लेकर है कि कोसी के इलाके में पांच साल पहले नीतीश कुमार को वोट मिले थे...क्या वह इस बार भी मिलेंगे या बंट जायेंगे। और मुस्लिम वोट किधर जायेंगे या वह किस नेता का दामन थामेंगे।
Friday, October 15, 2010
आश्रम से कंक्रीट में बदल चुकी है बिहार कांग्रेस
हो-हल्ला और जोर जोर की आवाज सुनकर सदाकत आश्रम के पीछे जैसे ही घुसा तो सैकड़ों पार्सल पैकेटों पर नजर पड़ी। इन पैकेटों को लेने को लेकर कुछ कांग्रेसी चिल्ला रहे थे। किसको कितने पार्सल देने हैं यह फाइल लिये एक महिला बता रही थी, बल्कि वो बाकियों पर चिल्ला रही थी। सैकड़ों की तादाद में जमीन पर बिखरे पड़े इन पार्सलों में है क्या... पूछने पर पता चला कि दो किलोग्राम से दस किलोग्राम तक के इन पार्सल पैकटों में चुनाव प्रचार की सामग्री है। जो हर कांग्रेसी उम्मीदवार को बांटी जा रही है। जिसमें गांधी परिवार के सदस्यों की ही तस्वीर,पोस्टर या बैनर है। इसके अलावा बैच और गले में लपेटने के लिये कांग्रेसी गमछा भी है, जिसमें गांधी परिवार की ही तस्वीर है। इस हंगामे को सुनता या कुछ और जानना चाहता, इससे पहले अचानक कांग्रेस हेडक्वार्टर के पिछवाड़े में टीन के शेड तले गदंगी और कूड़े के बीच पड़ी राजीव गांधी की मटमैली मूर्ति पर नजर पड़ी। शेड के नीचे एक एम्बेसडर कार लगी थी और पास कूड़े तले राजीव गांधी की डेढ फुट की इस मूर्ति की छांव में एक कुत्ता भी मजे में सो रहा था।
असल में यह पूरी तस्वीर ही बिहार में कांग्रेस के हाल को बयां कर रही थी। जिस जगह पर पार्सल में प्रचार के लिये गांधी परिवार को लेने की होड़ थी वह सदाकत आश्रम का मजबूत कंक्रीट का हिस्सा था। जबकि जिस टीन के शेड में राजीव गांधी की मूर्ति आंसू बहा रही थी, वह 1966 से पहले के कुछ बरस के दौरान सदाकत आश्रम की पहचान समेटे हुये था। पता चला कि जिस शेड में आज राजीव गांधी की मूर्ति तले कुत्ता मजे में सो रहा है कभी इसी शेड पर खपरैल थी और इसके तले सैकड़ों कांग्रेसी भी सोये हैं। 1962 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन पहली और आखिरी बार पटना में हुआ था। तब सदाकत आश्रम की इमारत तैयार नहीं हुई थी। लेकिन, सदाकत आश्रम की नींव इसी टीन के शेड में थी और बडी तादाद में कांग्रेसियों का हूजुम यहां पुआल-दरी और सफेद चादर के ऊपर पटा पडा रहता था। 1962 में नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस के अध्य़क्ष थे और नेहरू ने अपने भाषण में चंपारण की यात्रा के जरिये महात्मा गांधी को याद किया था लेकिन राजेन्द्र प्रसाद पर खामोशी बरती थी जिनकी मौजूदगी से सदाकत आश्रम आबाद हुआ था। इस अदिवेसन के अगले ही साल 1963 में राजेन्द्र प्रसाद की मौत हुई और सदाकत आश्रम में सूनापन छा गया।
मगर 2 अक्टूबर 1966 को जैसे ही सदाकत आश्रम की कंक्रीट की इमारत का उद्घाटन हुआ वैसे ही सदाकत आश्रम का मिजाज बदला और आश्रम दफ्तर में तब्दील हो गया। लेकिन सदाकत आश्रम की पहचान बदलने के 44 साल बाद कांग्रेस की इबारतें भी बदल जायेंगी...यह किसने सोचा होगा। कंक्रीट के बने सदाकत आश्रम की पहली मंजिल में एयर कंडीशनर फिट कर रहे रामानुज को इस बात से परेशान है कि तीन एसी तो वह फिट कर देंगें लेकिन करंट कहा से आयेगा इसकी कोई व्यवस्था बिल्डिंग में है ही नहीं । यानी पावर प्वाइंट है लेकिन उसमें करंट नहीं है यानी तार तक नहीं है। यह एसी बिहार प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष लल्लन कुमार के कमरे में लग रहा है। जहां तक करंट यानी पावर नहीं पहुंचा है। लेकिन, कांग्रेसियों को क्या लगने लगा है कि अब बिहार में पावर उनके हाथ आ सकता है। शायद सदाकत आश्रम की इमारत की तरह ही बिहार में कांग्रेस भी है। एसी है तो पावर नहीं...इसी तरह पैसा है लेकिन उम्मीदवार नहीं। कोई नेता ऐसा नहीं जिसके आसरे मुद्दों को लेकर आस जगायी जा सके या फिर कांग्रेस में आस जगे कि वह चुनावी दौड़ में है। दिल्ली की छांव तले बिहार में कांग्रेस को जगाने की कवायद का असर सिर्फ इतना है कि बाजार का ग्लैमर विकास की परिभाषा में जोड़ने की सोच प्रवक्ताओ में रेंगनी लगी है।
दीवारों पर महात्मा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक के दौर के बीच तमाम उन कांग्रेसियो की तस्वीरें धूमिल हो चुकी हैं जिन्होंने बिहार में कभी कांग्रेस को खडा किया था। इसलिये उम्मीदवारों की होड़ चुनाव में जीतने या कांग्रेस की पैठ बढ़ाने से ज्यादा कांग्रेसी पैसे को कमाने पर है। उम्मीदवारों को 75 लाख रूपये लड़ने के लिये मिलेंगे...यह सच हो या शिगूफा लेकिन कांग्रेस का टिकट पाने के लिये असली होड़ की वजह यही है। क्योंकि सदाकत आश्रम का इतिहास किसी सूचना पटल की तरह एकदम सीढि़यों पर चढ़ने से पहले ही नजर आता है। जिसमें 1921 से लेकर 2010 तक के 37 अध्यक्षों को जिक्र है। बीते इक्कीस साल यानी 1989 से लेकर 2010 के दौरान कांग्रेस ने सबसे बुरे दिन बिहार में देखे हैं और इसी दौर में सबसे ज्यादा अध्यक्ष भी बने और बदले गये। 13 प्रदेश अध्यक्ष इन 21 साल में बने और हटे। लेकिन कोई भरोसे का चेहरा ऐसा नहीं मिला जो कांग्रेस की वैतरणी को पार लगा दे।
1921 में पहले अध्य़क्ष मो. मजरुल हक थे और 90 साल बाद 2010 में अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कौसर हैं। लेकिन, मुस्लिमों का भरोसा बिहार में डगमगाया हुआ है। सिर्फ नाम के जरिये नुमाइंदगी किसी भी कौम में कैसे हो सकती है यह सवाल कोई आम मुस्लिम नहीं बल्कि टिकट की चाहत में सदाकत आश्रम पहुंचे बेलागंज के मो. इकराम और आरा के डॉ. अब्दुल मलिक भी खडा करते हैं। चुनाव के ऐलान से ऐन पहले बिहार प्रदेश अध्यक्ष बन महबूब अली कौसर इतनी हिम्मत नहीं दिखा पा रहे हैं कि वह सदाकत आश्रम में आकर बैठ जायें। कौसर ही नहीं पदों पर बैठे किसी भी कांग्रेसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वह जूते-चप्पल और गाली गलौज को रोककर कांग्रेसी परंपरा की दुहाई दे। सदाकत आश्रम के दरवाजे दरवाजे पर अपनी हूकुमती अंदाज में घुमते कांग्रेसी कार्यकर्ता जयलक्ष्मी तो सीधे कहती हैं, जो हो रहा है उसमें तो कांग्रेस का लालूकरण हो जायेगा। इसे रोकिये हर कोई राहुल गांधी और सोनिया गांधी की ओर ही टकटकी लगाये बैठा है। यहां ना कोई महिला है, ना कोई युवा, और ना ही कोई पुराना कांग्रेसी। जो धंधेबाज है, माफिया है वही टिकट ले जा रहे हैं। क्योंकि टिकट की भी कीमत लग रही है और कांग्रेसी खुश हैं कि पहली बार टिकटों को लेकर मारामारी है यानी कांग्रेस लोकप्रिय हो चली है।
लेकिन कांग्रेस का सच तो कांग्रेस शताब्दी कक्ष तले भी रो रहा है। 14 अक्टूबर 1984 को चन्द्रशेखर सिंह ने शताब्दी कक्ष का उद्घाटन करते हुये कहा था अब कांग्रेस ही देश का सच है और देश के इतिहास के साथ कांग्रेस का इतिहास जुड़ चुका है और इस इबारत को मिटाने की हैसियत इस देश में किसी राजनीतिक दल की नहीं है। लेकिन शताब्दी कक्ष की चौखट पर ताश में रमे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को देख यही लगा कि सदाकत आश्रम एक आधुनिक आश्रम में बहल रहा है। और सदाकत आश्रम के गेट पर राहुल गांधी और सोनिया गांधी की लटकती तस्वीरों के पीछे बैनर-पोस्टर की दुकान लगाये आशीष सिंह ने यह कहकर आखिरी कील ठोंकी कि साहब इन तस्वीरों से काग्रेस की नैया बिहार में पार नहीं लगेगी इन्हे सशरीर आना होना। सशरीर मतलब.....मतलब सिर्फ भाषण नहीं... जुटना होगा खुद को बिहार से जोड़ना होगा। एक दिन में सौ रुपये का भी पोस्टर बैनर नहीं बिकता तो फिर काग्रेस पर बटन कौन दबायेगा।
असल में यह पूरी तस्वीर ही बिहार में कांग्रेस के हाल को बयां कर रही थी। जिस जगह पर पार्सल में प्रचार के लिये गांधी परिवार को लेने की होड़ थी वह सदाकत आश्रम का मजबूत कंक्रीट का हिस्सा था। जबकि जिस टीन के शेड में राजीव गांधी की मूर्ति आंसू बहा रही थी, वह 1966 से पहले के कुछ बरस के दौरान सदाकत आश्रम की पहचान समेटे हुये था। पता चला कि जिस शेड में आज राजीव गांधी की मूर्ति तले कुत्ता मजे में सो रहा है कभी इसी शेड पर खपरैल थी और इसके तले सैकड़ों कांग्रेसी भी सोये हैं। 1962 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन पहली और आखिरी बार पटना में हुआ था। तब सदाकत आश्रम की इमारत तैयार नहीं हुई थी। लेकिन, सदाकत आश्रम की नींव इसी टीन के शेड में थी और बडी तादाद में कांग्रेसियों का हूजुम यहां पुआल-दरी और सफेद चादर के ऊपर पटा पडा रहता था। 1962 में नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस के अध्य़क्ष थे और नेहरू ने अपने भाषण में चंपारण की यात्रा के जरिये महात्मा गांधी को याद किया था लेकिन राजेन्द्र प्रसाद पर खामोशी बरती थी जिनकी मौजूदगी से सदाकत आश्रम आबाद हुआ था। इस अदिवेसन के अगले ही साल 1963 में राजेन्द्र प्रसाद की मौत हुई और सदाकत आश्रम में सूनापन छा गया।
मगर 2 अक्टूबर 1966 को जैसे ही सदाकत आश्रम की कंक्रीट की इमारत का उद्घाटन हुआ वैसे ही सदाकत आश्रम का मिजाज बदला और आश्रम दफ्तर में तब्दील हो गया। लेकिन सदाकत आश्रम की पहचान बदलने के 44 साल बाद कांग्रेस की इबारतें भी बदल जायेंगी...यह किसने सोचा होगा। कंक्रीट के बने सदाकत आश्रम की पहली मंजिल में एयर कंडीशनर फिट कर रहे रामानुज को इस बात से परेशान है कि तीन एसी तो वह फिट कर देंगें लेकिन करंट कहा से आयेगा इसकी कोई व्यवस्था बिल्डिंग में है ही नहीं । यानी पावर प्वाइंट है लेकिन उसमें करंट नहीं है यानी तार तक नहीं है। यह एसी बिहार प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष लल्लन कुमार के कमरे में लग रहा है। जहां तक करंट यानी पावर नहीं पहुंचा है। लेकिन, कांग्रेसियों को क्या लगने लगा है कि अब बिहार में पावर उनके हाथ आ सकता है। शायद सदाकत आश्रम की इमारत की तरह ही बिहार में कांग्रेस भी है। एसी है तो पावर नहीं...इसी तरह पैसा है लेकिन उम्मीदवार नहीं। कोई नेता ऐसा नहीं जिसके आसरे मुद्दों को लेकर आस जगायी जा सके या फिर कांग्रेस में आस जगे कि वह चुनावी दौड़ में है। दिल्ली की छांव तले बिहार में कांग्रेस को जगाने की कवायद का असर सिर्फ इतना है कि बाजार का ग्लैमर विकास की परिभाषा में जोड़ने की सोच प्रवक्ताओ में रेंगनी लगी है।
दीवारों पर महात्मा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक के दौर के बीच तमाम उन कांग्रेसियो की तस्वीरें धूमिल हो चुकी हैं जिन्होंने बिहार में कभी कांग्रेस को खडा किया था। इसलिये उम्मीदवारों की होड़ चुनाव में जीतने या कांग्रेस की पैठ बढ़ाने से ज्यादा कांग्रेसी पैसे को कमाने पर है। उम्मीदवारों को 75 लाख रूपये लड़ने के लिये मिलेंगे...यह सच हो या शिगूफा लेकिन कांग्रेस का टिकट पाने के लिये असली होड़ की वजह यही है। क्योंकि सदाकत आश्रम का इतिहास किसी सूचना पटल की तरह एकदम सीढि़यों पर चढ़ने से पहले ही नजर आता है। जिसमें 1921 से लेकर 2010 तक के 37 अध्यक्षों को जिक्र है। बीते इक्कीस साल यानी 1989 से लेकर 2010 के दौरान कांग्रेस ने सबसे बुरे दिन बिहार में देखे हैं और इसी दौर में सबसे ज्यादा अध्यक्ष भी बने और बदले गये। 13 प्रदेश अध्यक्ष इन 21 साल में बने और हटे। लेकिन कोई भरोसे का चेहरा ऐसा नहीं मिला जो कांग्रेस की वैतरणी को पार लगा दे।
1921 में पहले अध्य़क्ष मो. मजरुल हक थे और 90 साल बाद 2010 में अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कौसर हैं। लेकिन, मुस्लिमों का भरोसा बिहार में डगमगाया हुआ है। सिर्फ नाम के जरिये नुमाइंदगी किसी भी कौम में कैसे हो सकती है यह सवाल कोई आम मुस्लिम नहीं बल्कि टिकट की चाहत में सदाकत आश्रम पहुंचे बेलागंज के मो. इकराम और आरा के डॉ. अब्दुल मलिक भी खडा करते हैं। चुनाव के ऐलान से ऐन पहले बिहार प्रदेश अध्यक्ष बन महबूब अली कौसर इतनी हिम्मत नहीं दिखा पा रहे हैं कि वह सदाकत आश्रम में आकर बैठ जायें। कौसर ही नहीं पदों पर बैठे किसी भी कांग्रेसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वह जूते-चप्पल और गाली गलौज को रोककर कांग्रेसी परंपरा की दुहाई दे। सदाकत आश्रम के दरवाजे दरवाजे पर अपनी हूकुमती अंदाज में घुमते कांग्रेसी कार्यकर्ता जयलक्ष्मी तो सीधे कहती हैं, जो हो रहा है उसमें तो कांग्रेस का लालूकरण हो जायेगा। इसे रोकिये हर कोई राहुल गांधी और सोनिया गांधी की ओर ही टकटकी लगाये बैठा है। यहां ना कोई महिला है, ना कोई युवा, और ना ही कोई पुराना कांग्रेसी। जो धंधेबाज है, माफिया है वही टिकट ले जा रहे हैं। क्योंकि टिकट की भी कीमत लग रही है और कांग्रेसी खुश हैं कि पहली बार टिकटों को लेकर मारामारी है यानी कांग्रेस लोकप्रिय हो चली है।
लेकिन कांग्रेस का सच तो कांग्रेस शताब्दी कक्ष तले भी रो रहा है। 14 अक्टूबर 1984 को चन्द्रशेखर सिंह ने शताब्दी कक्ष का उद्घाटन करते हुये कहा था अब कांग्रेस ही देश का सच है और देश के इतिहास के साथ कांग्रेस का इतिहास जुड़ चुका है और इस इबारत को मिटाने की हैसियत इस देश में किसी राजनीतिक दल की नहीं है। लेकिन शताब्दी कक्ष की चौखट पर ताश में रमे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को देख यही लगा कि सदाकत आश्रम एक आधुनिक आश्रम में बहल रहा है। और सदाकत आश्रम के गेट पर राहुल गांधी और सोनिया गांधी की लटकती तस्वीरों के पीछे बैनर-पोस्टर की दुकान लगाये आशीष सिंह ने यह कहकर आखिरी कील ठोंकी कि साहब इन तस्वीरों से काग्रेस की नैया बिहार में पार नहीं लगेगी इन्हे सशरीर आना होना। सशरीर मतलब.....मतलब सिर्फ भाषण नहीं... जुटना होगा खुद को बिहार से जोड़ना होगा। एक दिन में सौ रुपये का भी पोस्टर बैनर नहीं बिकता तो फिर काग्रेस पर बटन कौन दबायेगा।
Saturday, October 9, 2010
बिहार चुनाव की खामोशी
जहां राजनीति का ककहरा अक्षर ज्ञान से पहले बच्चे सीख लेते हों, वहां चुनाव का मतलब सिर्फ लोकतंत्र को ढोना भर नहीं होता। उसका अर्थ सामाजिक जीवन में अपनी हैसियत का एहसास करना भी होता है। लेकिन इस बार ऐसा कुछ भी नहीं है तो मतलब साफ है राजनीति की हैसियत अब चुनाव से खिसक कर कहीं और जा रही है। चुनाव के ऐलान के बाद से बिहार में जिस तरह की खामोशी चुनाव को लेकर है, उसने पहली बार वाकई यह संकेत दिये हैं कि राजनीतिक तौर पर सत्ता की महत्ता का पुराना मिजाज बदल रहा है। लालू यादव के दौर तक चुनाव का मतलब सत्ता की दबंगई का नशा था। यानी जो चुनाव की प्रक्रिया से जुड़ा उसकी हैसियत कहीं न कहीं सत्ताधारी सरीखी हो गयी। और सत्ता का मतलब चुनाव जीतना भर नहीं था, बल्कि कहीं भी किसी भी पक्ष में खड़े होकर अपनी दबंगई का एहसास कराना भी होता है।
लालू 15 बरस तक बिहार में इसीलिये राज करते रहे क्योंकि उन्होंने सत्ता के इस एहसास को दिमागी दबंगई से जोड़ा। लालू जब सत्ता में आये तो 1989-90 में सबसे पहले यही किस्से निकले की कैसे उंची जाति के चीफ सेक्रेट्ररी से अपनी चप्पल उठवा दी। या फिर उंची जाति के डीजीपी को पिछड़ी जाति के थानेदार के सामने ही माफी मंगवा दी। यानी राजनीतिक तौर पर लालू यादव ने नेताओ को नहीं बल्कि जातियों की मानसिकता में ही दबंगई के जरीये समूचे समाज के भीतर सत्ता की राजनीति के उस मिजाज को जगाया, जिसमें चुनाव में जीत का मतलब सिर्फ सत्ता नहीं बल्कि अपने अपने समाज में अपनो को सत्ता की चाबी सौंपना भी था। सत्ता की कई चाबी का मतलब है लोकतंत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ताकत। यानी पुलिस प्रशासन से लेकर व्यवस्था बनाये रखने वाले किसी भी संस्थान की हैसियत चाहे मायने रखे लेकिन चुनौती देने और अपने पक्ष में हर निर्णय को कराने की क्षमता दबंगई वाले सत्ताधारी की ही है।
चूंकि जातीय समीकरण के आसरे चुनाव जीतने की मंशा चाहे लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार में हो, लेकिन लालू के दौर में जातीय समीकरण का मतलब हारी हुई जातियों के भीतर भी दबंगई करता एक नेता हमेशा रहता था। फिर यह सत्ता आर्थिक तौर पर अपने घेरे में यानी अपने समाज में रोजगार पैदा करने का मंत्र भी होता है। इसलिये चुनाव का मतलब बिहार में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को प्रभावित करने वाला भी है। लेकिन नीतीश कुमार के दौर में यह परिस्थितियां न सिर्फ बदली बल्कि नीतीश की राजनीति और इस दौर की आर्थिक परिस्थितियो ने दबंगई सत्ता के तौर तरीको को ही बदल दिया। 1990 से 1995 तक सत्ता की जो दबंगई कानून व्यवस्था को खारिज कर रही थी, बीते पांच बरस में नीतीश ने समाज के भीतर जातियों के उस दबंग मिजाज को ही झटका दिया और राजनीतिक बाहुबली इसी दौर में कानून के शिकंजे में आये।
सवाल यह नहीं है कि नीतीश कुमार के शासन में करीब 45 हजार अपराधियों को पकड़ा गया या कहें कानून के तहत कार्रवाई की गई। असल में अपराधियो पर कार्रवाई के दौरान वह राजनीति भी खारिज हुई जिसमें सत्ता की खुमारी सत्ताधारी जातीय दबंगई को हमेशा बचा लेती थी। यानी पहली बार मानसिक तौर पर जातीय सत्ता के पीछे आपराधिक समझ कत्म हुई। यह कहना ठीक नहीं होगा कि बिहार में जातीय समिकरण की राजनीति ही खत्म हो गई। हकीकत तो यह है कि राजद या जेडीयू में जिस तरह टिकटों की मांग को लेकर हंगामा हो रहा है, वह जातीय समीकरण के दुबारा खड़े होने को ही जतला रहा है। यानी अपराध पर नकेल कसने या बाहुबलियों को सलाखों के पीछे अगर बीते पांच साल में नीतीश सरकार ने भेजा है तो भी जातीय समीकरण को वह भी नहीं तोड़ पाये हैं। वहीं नीतीश के दौर में एक बडा परिवर्तन बाजार अर्थव्यवस्था के फैलने का भी है। सिर्फ सड़कें बनना ही नहीं बल्कि उनपर दौडती गाड़ियों की खरीद फरोख्त में बीत पांच साल में करीब तीन सौ फिसदी की वृद्धि लालू यादव के 15 साल के शासन की तुलना में बढ़ी। और रियल इस्टेट में भी बिहार के शहरी लोगों ने जितनी पूंजी चार साल में लगायी, उतनी पूंजी 1990 से 2005 के दौरान भी नहीं लगी।
यह परिवर्तन सिर्फ बिहारियो के अंटी में छुपे पैसे के बाहर आने भर का नहीं है बल्कि पुरानी मानसिकता तोड़ कर उपभोक्ता मानसिकता में ढलने का भी है। इस मानसिकता में बदलाव की वजह ग्रामीण क्षेत्रों या कहें खेती पर टिकी अर्थव्यवस्था को लेकर नीतीश सरकार की उदासी भी है। नीतीश कुमार ने चाहे मनमोहन इक्नामिक्स को बिहार में अभी तक नहीं अपनाया है, लेकिन मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में जिस तरह बाजार और पूंजी को महत्ता दी जा रही है, नीतीश कुमार उससे बचे भी नहीं है। इसका असर भी यही हुआ है कि खेती अर्थव्यस्था को लेकर अभी भी बिहार में कोई सुधार कार्यक्रम शुरु नहीं हो पाया है। जमीन उपजाऊ है और बाजार तक पहुंचने वाले रास्ते ठीक हो चले हैं, इसके अलावे कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नही बनाया गया। बल्कि नीतीश कुमार की विश्वास यात्रा पर गौर करें तो 31 जिलों में 12416 योजनाओं का उद्घाटन नीतिश कुमार ने किया। सभी योजनाओ की राशि को अगर मिला दिया जाये तो वह 35 अरब 51 करोड 95 लाख के करीब बैठती है। इसमें सीधे कृषि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली योजनायें 18 फीसदी ही हैं। जबकि नीतीश कुमार ने 25 दिसंबर 2009 से 25 जून 2010 के दौरान जो भी प्रवास यात्रा की उसमें ज्यादातर जगहों पर उनके टेंट गांवों में ही लगे। यानी जो ग्रामीण समाज सत्ता की दबंगई लालू यादव के दौर में देखकर खुद उस मिजाज में शरिक होने के लिये चुनाव को अपना हथियार मानता और बनाता था...वही मिजाज नीतीश के दौर में दोधारी तलवार हो गया। यानी चुनाव के जरीये सत्ता की महत्ता विकास की ऐसी महीन लकीर को खींचना है, जिसमें खेती या ग्रामीण जीवन कितना मायने रखेगा यह दूर की गोटी हो गई। यानी देश में मनमोहन इक्नामिक्स में बजट तैयार करते वक्त अब वित्त मंत्री को कृषि से जुड़े समाज की जरुरत नहीं पड़ती और बिहार में नीतिश की इक्नामिक्स लालू के दौर की जर्जरता की नब्ज पकड कर विकास को शहरी-ग्रामीण जीवन का हिस्सा बनाकर राजनीति भी साधती है और मनमोहन के विकास की त्रासदी में बिहार का सम्मान भी चाहती है।
यानी चुनाव को लेकर बिहार में बदले बदले से माहौल का एक सच यह भी है कि राजनीति अब रोजगार नहीं रही। रोजगार का मतलब सिर्फ रोजी-रोटी की व्यवस्था भर नहीं है बल्कि राजनीतिक कैडर बनाने की थ्योरी भी है और सत्ता को समानांतर तरीके से चुनौती देना भी है। दरअसल, नीतीश के सुशासन का एक सच यह भी है कि समूची सत्ता ही नीतीश कुमार ने अपने में सिमटा ली है और खुद नीतीश कुमार सत्ताधारी होकर भी दबगंई की लालू सोच से हटकर खुद को पेश कर रहे हैं, जिनके वक्त सत्ता का मतलब जाति या समाज पर धाक होती थी। बिहार में राजनीतिक विकास का चेहरा इस मायने में भी पारपंरिक राजनीति से हटकर है, क्योकि नीतीश कुमार की करोड़ों-अरबो की योजनाएं बिहारियों को सरकार की नीतियों के भरोसे ही जीवन दे रही हैं। जो कि पहले जातीय आधार पर जीवन देती थी। मसलन राज्यभर के शिक्षको के वेतन की व्यवस्था कराने का ऐलान हो या फिर दो लाख से ज्यादा प्रारंभिक शिक्षकों की नियुक्ति या फिर 20 हजार से ज्यादा रिटायर सौनिकों को काम में लगाना। और इसी तरह कमोवेश हर क्षेत्र के लिये बजट की व्यवस्था कर सभी तबके को राहत देने की बात। लेकिन यह पूरी पहल मनरेगा सरीखी ही है। जिसमें लोगो को एकमुश्त वेतन तो मिल रहा है लेकिन इसका असर राज्य के विकास पर क्या पड़ रहा है, यह समझ पाना वाकई मुश्किल है। क्योंकि सारे बजट लक्ष्यविहिन है। एक लिहाज से कहें तो वेतन या रोजगार के साधन खड़ा न कर पाने की एवज में यह धन का बंटवारा है। लेकिन इसका असर भी राजनीति की पारंपरिक धार को कम करता है और राजनीति को किसी कारपोरेट की तर्ज पर देखने से भी नहीं कतराता। कहा यह भी जा सकता है कि बिहार में भी पहली बार चुनाव के वक्त यह धारणा ही प्रबल हो रही है कि जिसके पास पूंजी है, वह सबसे बडी सत्ता का प्रतीक है। और सत्ता के जरीये पूंजी बनाना अब मुश्किल है।
कहा यह भी जा सकता है कि विकास के जिस ढांचे की बिहार में जरुरत है, उसमें मनमोहन सिंह का विकास फिट बैठता नहीं और नीतीश कुमार के पास उसका विकल्प नहीं है। और लालू यादव की पारंपरिक छवि नितीश के अक्स से भी छोटी पड़ रही है। इसका चुनावी असर परिवर्तन के तौर पर यही उभरा है कि जातियों के समीकरण में पांच बरस पहले जो अगड़ी जातियां नीतिश के साथ थीं, अब उनके लिये कोई खास दल मायने नहीं रख रहा। जो कांग्रेस पांच बरस पहले अछूत थी, अब उसे मान्यता मिलने लगी है। और विकास पहली बार एक मुद्दा रहा है। लेकिन यह तीनों परिवर्तन भी बिहार की राजनीतिक नब्ज से दूर हैं, जहां जमीन और खेती का सवाल अब भी सबसे बड़ा है। यानी भूमि सुधार से लेकर खेती को विकास के बाजार मॉडल के विकल्प के तौर पर जो नेता खड़ा करेगा, भविष्य का नेता वहीं होगा। नीतीश कुमार ने तीन साल पहले भू-अर्जन पुनस्थार्पन एंव पुनर्वास नीति के जरीये पहल करने की कोशिश जरुर की लेकिन महज कोशिश ही रही क्योकि बिहार की पारंपरिक राजनीति की आखिरी सांसें अभी भी चल रही हैं। शायद इसीलिये इसबार चुनाव में जेपी की राह से निकले नीतीश-लालू आमने-सामने खड़े हैं। जबकि बिहार की राह जेपी से आगे की है और संयोग से यह रास्ता कांग्रेस के युवराज भी समझ पा रहे हैं, इसलिये वह युवा राजनीति को उस बिहार में खोज रहे हैं, जहां राजनीति का ककहरा बचपन में ही पढ़ा जाता है।
लालू 15 बरस तक बिहार में इसीलिये राज करते रहे क्योंकि उन्होंने सत्ता के इस एहसास को दिमागी दबंगई से जोड़ा। लालू जब सत्ता में आये तो 1989-90 में सबसे पहले यही किस्से निकले की कैसे उंची जाति के चीफ सेक्रेट्ररी से अपनी चप्पल उठवा दी। या फिर उंची जाति के डीजीपी को पिछड़ी जाति के थानेदार के सामने ही माफी मंगवा दी। यानी राजनीतिक तौर पर लालू यादव ने नेताओ को नहीं बल्कि जातियों की मानसिकता में ही दबंगई के जरीये समूचे समाज के भीतर सत्ता की राजनीति के उस मिजाज को जगाया, जिसमें चुनाव में जीत का मतलब सिर्फ सत्ता नहीं बल्कि अपने अपने समाज में अपनो को सत्ता की चाबी सौंपना भी था। सत्ता की कई चाबी का मतलब है लोकतंत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ताकत। यानी पुलिस प्रशासन से लेकर व्यवस्था बनाये रखने वाले किसी भी संस्थान की हैसियत चाहे मायने रखे लेकिन चुनौती देने और अपने पक्ष में हर निर्णय को कराने की क्षमता दबंगई वाले सत्ताधारी की ही है।
चूंकि जातीय समीकरण के आसरे चुनाव जीतने की मंशा चाहे लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार में हो, लेकिन लालू के दौर में जातीय समीकरण का मतलब हारी हुई जातियों के भीतर भी दबंगई करता एक नेता हमेशा रहता था। फिर यह सत्ता आर्थिक तौर पर अपने घेरे में यानी अपने समाज में रोजगार पैदा करने का मंत्र भी होता है। इसलिये चुनाव का मतलब बिहार में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को प्रभावित करने वाला भी है। लेकिन नीतीश कुमार के दौर में यह परिस्थितियां न सिर्फ बदली बल्कि नीतीश की राजनीति और इस दौर की आर्थिक परिस्थितियो ने दबंगई सत्ता के तौर तरीको को ही बदल दिया। 1990 से 1995 तक सत्ता की जो दबंगई कानून व्यवस्था को खारिज कर रही थी, बीते पांच बरस में नीतीश ने समाज के भीतर जातियों के उस दबंग मिजाज को ही झटका दिया और राजनीतिक बाहुबली इसी दौर में कानून के शिकंजे में आये।
सवाल यह नहीं है कि नीतीश कुमार के शासन में करीब 45 हजार अपराधियों को पकड़ा गया या कहें कानून के तहत कार्रवाई की गई। असल में अपराधियो पर कार्रवाई के दौरान वह राजनीति भी खारिज हुई जिसमें सत्ता की खुमारी सत्ताधारी जातीय दबंगई को हमेशा बचा लेती थी। यानी पहली बार मानसिक तौर पर जातीय सत्ता के पीछे आपराधिक समझ कत्म हुई। यह कहना ठीक नहीं होगा कि बिहार में जातीय समिकरण की राजनीति ही खत्म हो गई। हकीकत तो यह है कि राजद या जेडीयू में जिस तरह टिकटों की मांग को लेकर हंगामा हो रहा है, वह जातीय समीकरण के दुबारा खड़े होने को ही जतला रहा है। यानी अपराध पर नकेल कसने या बाहुबलियों को सलाखों के पीछे अगर बीते पांच साल में नीतीश सरकार ने भेजा है तो भी जातीय समीकरण को वह भी नहीं तोड़ पाये हैं। वहीं नीतीश के दौर में एक बडा परिवर्तन बाजार अर्थव्यवस्था के फैलने का भी है। सिर्फ सड़कें बनना ही नहीं बल्कि उनपर दौडती गाड़ियों की खरीद फरोख्त में बीत पांच साल में करीब तीन सौ फिसदी की वृद्धि लालू यादव के 15 साल के शासन की तुलना में बढ़ी। और रियल इस्टेट में भी बिहार के शहरी लोगों ने जितनी पूंजी चार साल में लगायी, उतनी पूंजी 1990 से 2005 के दौरान भी नहीं लगी।
यह परिवर्तन सिर्फ बिहारियो के अंटी में छुपे पैसे के बाहर आने भर का नहीं है बल्कि पुरानी मानसिकता तोड़ कर उपभोक्ता मानसिकता में ढलने का भी है। इस मानसिकता में बदलाव की वजह ग्रामीण क्षेत्रों या कहें खेती पर टिकी अर्थव्यवस्था को लेकर नीतीश सरकार की उदासी भी है। नीतीश कुमार ने चाहे मनमोहन इक्नामिक्स को बिहार में अभी तक नहीं अपनाया है, लेकिन मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में जिस तरह बाजार और पूंजी को महत्ता दी जा रही है, नीतीश कुमार उससे बचे भी नहीं है। इसका असर भी यही हुआ है कि खेती अर्थव्यस्था को लेकर अभी भी बिहार में कोई सुधार कार्यक्रम शुरु नहीं हो पाया है। जमीन उपजाऊ है और बाजार तक पहुंचने वाले रास्ते ठीक हो चले हैं, इसके अलावे कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नही बनाया गया। बल्कि नीतीश कुमार की विश्वास यात्रा पर गौर करें तो 31 जिलों में 12416 योजनाओं का उद्घाटन नीतिश कुमार ने किया। सभी योजनाओ की राशि को अगर मिला दिया जाये तो वह 35 अरब 51 करोड 95 लाख के करीब बैठती है। इसमें सीधे कृषि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली योजनायें 18 फीसदी ही हैं। जबकि नीतीश कुमार ने 25 दिसंबर 2009 से 25 जून 2010 के दौरान जो भी प्रवास यात्रा की उसमें ज्यादातर जगहों पर उनके टेंट गांवों में ही लगे। यानी जो ग्रामीण समाज सत्ता की दबंगई लालू यादव के दौर में देखकर खुद उस मिजाज में शरिक होने के लिये चुनाव को अपना हथियार मानता और बनाता था...वही मिजाज नीतीश के दौर में दोधारी तलवार हो गया। यानी चुनाव के जरीये सत्ता की महत्ता विकास की ऐसी महीन लकीर को खींचना है, जिसमें खेती या ग्रामीण जीवन कितना मायने रखेगा यह दूर की गोटी हो गई। यानी देश में मनमोहन इक्नामिक्स में बजट तैयार करते वक्त अब वित्त मंत्री को कृषि से जुड़े समाज की जरुरत नहीं पड़ती और बिहार में नीतिश की इक्नामिक्स लालू के दौर की जर्जरता की नब्ज पकड कर विकास को शहरी-ग्रामीण जीवन का हिस्सा बनाकर राजनीति भी साधती है और मनमोहन के विकास की त्रासदी में बिहार का सम्मान भी चाहती है।
यानी चुनाव को लेकर बिहार में बदले बदले से माहौल का एक सच यह भी है कि राजनीति अब रोजगार नहीं रही। रोजगार का मतलब सिर्फ रोजी-रोटी की व्यवस्था भर नहीं है बल्कि राजनीतिक कैडर बनाने की थ्योरी भी है और सत्ता को समानांतर तरीके से चुनौती देना भी है। दरअसल, नीतीश के सुशासन का एक सच यह भी है कि समूची सत्ता ही नीतीश कुमार ने अपने में सिमटा ली है और खुद नीतीश कुमार सत्ताधारी होकर भी दबगंई की लालू सोच से हटकर खुद को पेश कर रहे हैं, जिनके वक्त सत्ता का मतलब जाति या समाज पर धाक होती थी। बिहार में राजनीतिक विकास का चेहरा इस मायने में भी पारपंरिक राजनीति से हटकर है, क्योकि नीतीश कुमार की करोड़ों-अरबो की योजनाएं बिहारियों को सरकार की नीतियों के भरोसे ही जीवन दे रही हैं। जो कि पहले जातीय आधार पर जीवन देती थी। मसलन राज्यभर के शिक्षको के वेतन की व्यवस्था कराने का ऐलान हो या फिर दो लाख से ज्यादा प्रारंभिक शिक्षकों की नियुक्ति या फिर 20 हजार से ज्यादा रिटायर सौनिकों को काम में लगाना। और इसी तरह कमोवेश हर क्षेत्र के लिये बजट की व्यवस्था कर सभी तबके को राहत देने की बात। लेकिन यह पूरी पहल मनरेगा सरीखी ही है। जिसमें लोगो को एकमुश्त वेतन तो मिल रहा है लेकिन इसका असर राज्य के विकास पर क्या पड़ रहा है, यह समझ पाना वाकई मुश्किल है। क्योंकि सारे बजट लक्ष्यविहिन है। एक लिहाज से कहें तो वेतन या रोजगार के साधन खड़ा न कर पाने की एवज में यह धन का बंटवारा है। लेकिन इसका असर भी राजनीति की पारंपरिक धार को कम करता है और राजनीति को किसी कारपोरेट की तर्ज पर देखने से भी नहीं कतराता। कहा यह भी जा सकता है कि बिहार में भी पहली बार चुनाव के वक्त यह धारणा ही प्रबल हो रही है कि जिसके पास पूंजी है, वह सबसे बडी सत्ता का प्रतीक है। और सत्ता के जरीये पूंजी बनाना अब मुश्किल है।
कहा यह भी जा सकता है कि विकास के जिस ढांचे की बिहार में जरुरत है, उसमें मनमोहन सिंह का विकास फिट बैठता नहीं और नीतीश कुमार के पास उसका विकल्प नहीं है। और लालू यादव की पारंपरिक छवि नितीश के अक्स से भी छोटी पड़ रही है। इसका चुनावी असर परिवर्तन के तौर पर यही उभरा है कि जातियों के समीकरण में पांच बरस पहले जो अगड़ी जातियां नीतिश के साथ थीं, अब उनके लिये कोई खास दल मायने नहीं रख रहा। जो कांग्रेस पांच बरस पहले अछूत थी, अब उसे मान्यता मिलने लगी है। और विकास पहली बार एक मुद्दा रहा है। लेकिन यह तीनों परिवर्तन भी बिहार की राजनीतिक नब्ज से दूर हैं, जहां जमीन और खेती का सवाल अब भी सबसे बड़ा है। यानी भूमि सुधार से लेकर खेती को विकास के बाजार मॉडल के विकल्प के तौर पर जो नेता खड़ा करेगा, भविष्य का नेता वहीं होगा। नीतीश कुमार ने तीन साल पहले भू-अर्जन पुनस्थार्पन एंव पुनर्वास नीति के जरीये पहल करने की कोशिश जरुर की लेकिन महज कोशिश ही रही क्योकि बिहार की पारंपरिक राजनीति की आखिरी सांसें अभी भी चल रही हैं। शायद इसीलिये इसबार चुनाव में जेपी की राह से निकले नीतीश-लालू आमने-सामने खड़े हैं। जबकि बिहार की राह जेपी से आगे की है और संयोग से यह रास्ता कांग्रेस के युवराज भी समझ पा रहे हैं, इसलिये वह युवा राजनीति को उस बिहार में खोज रहे हैं, जहां राजनीति का ककहरा बचपन में ही पढ़ा जाता है।
Wednesday, October 6, 2010
कॉमनवेल्थ की चकाचौंध की अंधेरी तलछट
जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम में एक हजार रूपये का टिकट लेकर कॉमनवेल्थ गेम्स को देखते हुये जो 15 से 18 हजार लोग देश का तिरंगा लहरा कर चकाचौंध से सराबोर थे...अगर उनसे यह कहा जाये कि हो सकता है दस बरस बाद उन्हें ऐसे ही किसी आयोजन से पहले दिल्ली छोड़ने को कहा जाये या फिर गाडियों में ठूंस कर उन्हे भी आयोजन से दूर कर दिया जायेगा तो बहुत हैरत करने की जरुरत नहीं । देश की अर्थव्यवस्था जिस चकाचौंध को बढ़ाकर अपना घेरा सिमटाती जा रही है, उसमें यह सवाल जायज है कि भविष्य में आपकी या हमारी कितनी जरुरत इस चकाचौंध को होगी । चाहे पैंसठ हजार दर्शकों ने नंगी आंखो से कॉमनवेल्थ के उद्घाटन को देखा लेकिन किसी ने सवाल किया किया कि दिल्ली के बारह लाख से ज्यादा भिखारी कहां गये।
दिल्ली के प्रगति मैदान की पहचान 1982 के इंडिया इन्टरनेशनल ट्रेड फेयर से जुडी है और प्रगति मैदान के ठीक सामने भैरव मंदिर की पहचान मुगलिया दौर से है । इस भैरव मंदिर से जुड़े हैं तीन हजार भिखारी। जिनके परिवारों को समेट लें तो दस हजार से ज्यादा लोगों की परवरिश यह मंदिर करता है। भैरव मंदिर में साठ से ज्यादा ऐसे अपंग भिखारी भी हैं जिन्हें सोनिया गांधी ने राजीव गांधी या इंदिरा गांधी के जन्मदिन के मौके पर कभी ना कभी विकलांग चेयर भेंट की है। कुछ दूसरे नेता भी हैं जो जननेता बनने की धुन में अपंग भिखारियों को राहत दे कर अपना मान बढाते हैं। चूंकि हर व्हील चेयर पर राजीव गांधी के जन्मदिन या सोनिया गांधी की भेंट का नाम खुदा हुआ है.... तो उनका मान सम्मान कौन नहीं करेगा।
ऐसे में कॉमनवेल्थ के शुरू होने के दस दिन पहले से कई खेप में मंदिर के भिखारियों को दिल्ली के बाहर पहुंचाने की पहल शुरु हुई। लेकिन व्हील चेयर को भैरव मंदिर के एक ऐसे हिस्से में रखा गया जहां भक्तों की आवाजाही नहीं होती। भिखारियों को कहा गया कि लौटकर आने पर उनकी संपत्ति उन्हें ज्यों की त्यों दे दी जायेगी। और भिखारियों को ट्रकों में लाद कर भैरव मंदिर की जगह गढ़ मुक्तेश्वर के राम मंदिर के पास यह कहकर छोड़ा गया कि 15 दिन बाद उन्हें वापस दिल्ली के भैरव मंदिर में ले जाया जायेगा। तब तक भगवान बदल लो। मंदिर बदल लो। जगह बदल लो। और भक्तों का रेला तो गढमुक्तेश्वर में हमेशा लगा ही रहता है तो उनकी आमदनी में कोई कमी नही होगी। और वह भूखों इसलिये भी नहीं मरेंगे क्योकि मंदिर की तरफ से लगातार हर दिन खाना बांटा जायेगा।
यूं हर दोपहर और शाम में गढमुक्तेश्ववर में राममंदिर और जैन समाज की तरफ से वैसे भी खाना बंटता ही है। लेकिन अचानक भिखारियों की तादाद में तीन गुना वृद्धि से गढमुक्ततेश्वर भरा-भरा सा लगने ला है। जगह, भगवान और मंदिर बदला है तो गोरखपुर को 17 साल पहले छोड़कर दिल्ली के भैरव मंदिर पहुंचे रामानुज अब इसे भी भगवान की ही लीला मानते हैं। क्योंकि गढमुक्तेश्वर पहुंच कर उन्हे 17 साल बाद गंगा स्नान का मौका मिला। लेकिन बुदेलखंड के कृष्णानंद महाराज का मानना है कि गांव में जमीन परती हुई है। वहां सरकारी बाबू ने कागजी कार्रवाई कर प्रभावशाली लोगों का साथ देकर उनकी जमीन हड़पी तो 9 साल पहले कमाई के लिये दिल्ली पहुंचे। लेकिन, पिछले पांच साल से भैरव मंदिर ही ठिकाना है। लेकिन, पहली बार है कि कोई जगह चमक रही है तो उन्हें वहां से भगाया जा रहा है।
क्योंकि इससे पहले उन्होने सिर्फ गरीबी और भूखों मरने के हालात आने पर ही लोगों को गांव छोड़ते देखा। असल में कृष्णानंद महाराज का असली नाम कृष्णा है और समूचे परिवार के साथ भैरव मंदिर के किनारे की सडक पर रहते हुये ही अपनी बीबी और बच्चों को भी जिस तरह पुरानी दिल्ली में ठेला खींचने से लेकर पटरी दुकान में मदद के लिये लगाया और खुद भैरव मंदिर की परिसर की दीवार से सटी झोपड़ी बनायी उसी वजह से उनके नाम के आगे महाराज जुड गया। लेकिन 27 सितंबर की रात उन्हें ट्रक पर लाद कर गढमुक्तेश्वर यह कह कर लाया गया कि 15 अक्तूबर के बाद उन्हें वापस उसी जगह छोड़ दिया जायेगा। बच्चे-बीबी छोड़कर कृष्णा इसीलिये गढमुक्तेश्वर आ गया कि क्योंकि भैरव मंदिर उससे ना छिने। और ट्रक पर लादकर लाने वालों ने वचन भी दिया है कि जो जहां रह रहा था उसे वहीं छोड़ेंगे और कोई दूसरा इस बीच कब्जा नहीं करेगा।
गढमुक्तेश्वर में गंगा किनारे सीढियों पर पांव से अपंग अधलेटे मालवीय के मुताबिक भैरव मंदिर के बाहर कोई भी रुपया कम देता नहीं और यहां कोई भी रुपया से ज्यादा देता नहीं। यहां चवन्नी -अठन्नी तो ठीक दस पैसे भी दान देने वाले देते हैं और भिखारी लेते हैं। जबकि दिल्ली में रूपये से कम की कोई वेल्यू नहीं है। मालवीय मध्यप्रदेश के अपने गांव से चार साल पहले ही आये। पुरानी दिल्ली में रेलवे लाइन पर गिरने से पांव कटा। उसके बाद पहचान वालो ने लोधी रोड के सांईं मंदिर के बाहर छोड़ा। दो साल पहले जब राजीव गांधी के जन्मदिन के मौके पर एक नेता ने व्हील चेयर बांटी तो उसका नंबर भी आ गया। और पिछले डेढ़ साल से वह भैरव मंदिर में ही टिका है।
बारहवीं पास मालवीय रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंचा और अब अपना असली नाम-घर कुछ भी बताने में इसलिये हिचकिचाता है कि बूढे मां-बाप का वही श्रवण कुमार था और अंतिम वक्त में जब मां-बाप को यह जानकारी मिलेगी तो उन पर क्या बीतेगी।
डबडबायी आंखो से मालवीय को डर यही है कि कहीं वह लोग धोखा ना दे दें जो यह कहकर छोड़ गये हैं कि 15 दिन बाद वापस ले जायेंगे, क्योंकि उसकी व्हील चेयर तो भैरव मंदिर में ही पड़ी है, जिस पर उसका नाम भी लिखा है। कॉमनवेल्थ की चकाचौंध की एवज में कमोवेश दिल्ली के हर मंदिर के बाहर हाथ फैलाये लोग अगले 15 दिन दिखायी नहीं देंगे। जाहिर है दिल्ली पहली बार खूबसूरत,हसीन और व्यवस्थित लग रही है। लेकिन इसकी एवज में सवाल सिर्फ भिखारियों का नहीं है। स्कूल, कॉलेज से लेकर हर वह संस्थान बंद है जहां से कमाई नहीं होती। यानी दुकान, माल-प्रतिष्ठान को छोड़ दें तो दिल्ली में किसी की जरूरत नहीं। लाखों की तादाद में मिडिल क्लास परिवार समेत दिल्ली छोड़ घूमने-फिरने निकल चुका है।
बड़ी तादाद में छात्र शिक्षा-दीक्षा छोड़ कॉमनवेल्थ की छतरी तले लगायी दुकानो में कमाई करने में जुटे हैं। दिहाड़ी से लेकर एकमुश्त रकम पढ़ाई के बीच राहत देगी। और इसी दौर में कॉमनवेल्थ को सफल बनाने के लिये पुल से लेकर स्टेडियम तक बनाने में जुटे सवा लाख से ज्यादा कस्ट्रक्शन मजदूरों को पेंमट कर दिल्ली छुड़वायी जा चुकी है। कोई हरियाणा, तो कोई यूपी, तो कोई राजस्थान और पंजाब का रास्ता नाप रहा है। जो दिल्ली में हैं और उनकी जुबान पर अगर कॉमनवेल्थ की चकाचौंध नहीं है, तो फिर मखमल में टाट के पैंबद सरीखे ही है। क्योंकि पुलिस से लेकर सेना और प्रधानमंत्री से लेकर मुखयमंत्री तक मान चुके है कि कॉमनवेल्थ ही देश की नाक है जो कटनी नहीं चाहिये । और इसीलिये पहली बार दिल्ली में सिर्फ चकाचौंध भरे बाजार और रोशनी से नहायी इमारतें ही बची हैं। ऐसे में अगर आप गा नहीं सकते कि खेलो....बढो...जीतो तो फिर दिल्ली में क्या कर रहे हैं। इस बार भिखारी निकाले गये हैं अगली बार घेरा बड़ा होगा इसलिये एक हजार का टिकट खरीदने वाले या तो हैसियत 25 से 50 हजार की करें अन्यथा दस बरस बाद निकाले जाने के लिये वह भी तैयार रहें।
दिल्ली के प्रगति मैदान की पहचान 1982 के इंडिया इन्टरनेशनल ट्रेड फेयर से जुडी है और प्रगति मैदान के ठीक सामने भैरव मंदिर की पहचान मुगलिया दौर से है । इस भैरव मंदिर से जुड़े हैं तीन हजार भिखारी। जिनके परिवारों को समेट लें तो दस हजार से ज्यादा लोगों की परवरिश यह मंदिर करता है। भैरव मंदिर में साठ से ज्यादा ऐसे अपंग भिखारी भी हैं जिन्हें सोनिया गांधी ने राजीव गांधी या इंदिरा गांधी के जन्मदिन के मौके पर कभी ना कभी विकलांग चेयर भेंट की है। कुछ दूसरे नेता भी हैं जो जननेता बनने की धुन में अपंग भिखारियों को राहत दे कर अपना मान बढाते हैं। चूंकि हर व्हील चेयर पर राजीव गांधी के जन्मदिन या सोनिया गांधी की भेंट का नाम खुदा हुआ है.... तो उनका मान सम्मान कौन नहीं करेगा।
ऐसे में कॉमनवेल्थ के शुरू होने के दस दिन पहले से कई खेप में मंदिर के भिखारियों को दिल्ली के बाहर पहुंचाने की पहल शुरु हुई। लेकिन व्हील चेयर को भैरव मंदिर के एक ऐसे हिस्से में रखा गया जहां भक्तों की आवाजाही नहीं होती। भिखारियों को कहा गया कि लौटकर आने पर उनकी संपत्ति उन्हें ज्यों की त्यों दे दी जायेगी। और भिखारियों को ट्रकों में लाद कर भैरव मंदिर की जगह गढ़ मुक्तेश्वर के राम मंदिर के पास यह कहकर छोड़ा गया कि 15 दिन बाद उन्हें वापस दिल्ली के भैरव मंदिर में ले जाया जायेगा। तब तक भगवान बदल लो। मंदिर बदल लो। जगह बदल लो। और भक्तों का रेला तो गढमुक्तेश्वर में हमेशा लगा ही रहता है तो उनकी आमदनी में कोई कमी नही होगी। और वह भूखों इसलिये भी नहीं मरेंगे क्योकि मंदिर की तरफ से लगातार हर दिन खाना बांटा जायेगा।
यूं हर दोपहर और शाम में गढमुक्तेश्ववर में राममंदिर और जैन समाज की तरफ से वैसे भी खाना बंटता ही है। लेकिन अचानक भिखारियों की तादाद में तीन गुना वृद्धि से गढमुक्ततेश्वर भरा-भरा सा लगने ला है। जगह, भगवान और मंदिर बदला है तो गोरखपुर को 17 साल पहले छोड़कर दिल्ली के भैरव मंदिर पहुंचे रामानुज अब इसे भी भगवान की ही लीला मानते हैं। क्योंकि गढमुक्तेश्वर पहुंच कर उन्हे 17 साल बाद गंगा स्नान का मौका मिला। लेकिन बुदेलखंड के कृष्णानंद महाराज का मानना है कि गांव में जमीन परती हुई है। वहां सरकारी बाबू ने कागजी कार्रवाई कर प्रभावशाली लोगों का साथ देकर उनकी जमीन हड़पी तो 9 साल पहले कमाई के लिये दिल्ली पहुंचे। लेकिन, पिछले पांच साल से भैरव मंदिर ही ठिकाना है। लेकिन, पहली बार है कि कोई जगह चमक रही है तो उन्हें वहां से भगाया जा रहा है।
क्योंकि इससे पहले उन्होने सिर्फ गरीबी और भूखों मरने के हालात आने पर ही लोगों को गांव छोड़ते देखा। असल में कृष्णानंद महाराज का असली नाम कृष्णा है और समूचे परिवार के साथ भैरव मंदिर के किनारे की सडक पर रहते हुये ही अपनी बीबी और बच्चों को भी जिस तरह पुरानी दिल्ली में ठेला खींचने से लेकर पटरी दुकान में मदद के लिये लगाया और खुद भैरव मंदिर की परिसर की दीवार से सटी झोपड़ी बनायी उसी वजह से उनके नाम के आगे महाराज जुड गया। लेकिन 27 सितंबर की रात उन्हें ट्रक पर लाद कर गढमुक्तेश्वर यह कह कर लाया गया कि 15 अक्तूबर के बाद उन्हें वापस उसी जगह छोड़ दिया जायेगा। बच्चे-बीबी छोड़कर कृष्णा इसीलिये गढमुक्तेश्वर आ गया कि क्योंकि भैरव मंदिर उससे ना छिने। और ट्रक पर लादकर लाने वालों ने वचन भी दिया है कि जो जहां रह रहा था उसे वहीं छोड़ेंगे और कोई दूसरा इस बीच कब्जा नहीं करेगा।
गढमुक्तेश्वर में गंगा किनारे सीढियों पर पांव से अपंग अधलेटे मालवीय के मुताबिक भैरव मंदिर के बाहर कोई भी रुपया कम देता नहीं और यहां कोई भी रुपया से ज्यादा देता नहीं। यहां चवन्नी -अठन्नी तो ठीक दस पैसे भी दान देने वाले देते हैं और भिखारी लेते हैं। जबकि दिल्ली में रूपये से कम की कोई वेल्यू नहीं है। मालवीय मध्यप्रदेश के अपने गांव से चार साल पहले ही आये। पुरानी दिल्ली में रेलवे लाइन पर गिरने से पांव कटा। उसके बाद पहचान वालो ने लोधी रोड के सांईं मंदिर के बाहर छोड़ा। दो साल पहले जब राजीव गांधी के जन्मदिन के मौके पर एक नेता ने व्हील चेयर बांटी तो उसका नंबर भी आ गया। और पिछले डेढ़ साल से वह भैरव मंदिर में ही टिका है।
बारहवीं पास मालवीय रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंचा और अब अपना असली नाम-घर कुछ भी बताने में इसलिये हिचकिचाता है कि बूढे मां-बाप का वही श्रवण कुमार था और अंतिम वक्त में जब मां-बाप को यह जानकारी मिलेगी तो उन पर क्या बीतेगी।
डबडबायी आंखो से मालवीय को डर यही है कि कहीं वह लोग धोखा ना दे दें जो यह कहकर छोड़ गये हैं कि 15 दिन बाद वापस ले जायेंगे, क्योंकि उसकी व्हील चेयर तो भैरव मंदिर में ही पड़ी है, जिस पर उसका नाम भी लिखा है। कॉमनवेल्थ की चकाचौंध की एवज में कमोवेश दिल्ली के हर मंदिर के बाहर हाथ फैलाये लोग अगले 15 दिन दिखायी नहीं देंगे। जाहिर है दिल्ली पहली बार खूबसूरत,हसीन और व्यवस्थित लग रही है। लेकिन इसकी एवज में सवाल सिर्फ भिखारियों का नहीं है। स्कूल, कॉलेज से लेकर हर वह संस्थान बंद है जहां से कमाई नहीं होती। यानी दुकान, माल-प्रतिष्ठान को छोड़ दें तो दिल्ली में किसी की जरूरत नहीं। लाखों की तादाद में मिडिल क्लास परिवार समेत दिल्ली छोड़ घूमने-फिरने निकल चुका है।
बड़ी तादाद में छात्र शिक्षा-दीक्षा छोड़ कॉमनवेल्थ की छतरी तले लगायी दुकानो में कमाई करने में जुटे हैं। दिहाड़ी से लेकर एकमुश्त रकम पढ़ाई के बीच राहत देगी। और इसी दौर में कॉमनवेल्थ को सफल बनाने के लिये पुल से लेकर स्टेडियम तक बनाने में जुटे सवा लाख से ज्यादा कस्ट्रक्शन मजदूरों को पेंमट कर दिल्ली छुड़वायी जा चुकी है। कोई हरियाणा, तो कोई यूपी, तो कोई राजस्थान और पंजाब का रास्ता नाप रहा है। जो दिल्ली में हैं और उनकी जुबान पर अगर कॉमनवेल्थ की चकाचौंध नहीं है, तो फिर मखमल में टाट के पैंबद सरीखे ही है। क्योंकि पुलिस से लेकर सेना और प्रधानमंत्री से लेकर मुखयमंत्री तक मान चुके है कि कॉमनवेल्थ ही देश की नाक है जो कटनी नहीं चाहिये । और इसीलिये पहली बार दिल्ली में सिर्फ चकाचौंध भरे बाजार और रोशनी से नहायी इमारतें ही बची हैं। ऐसे में अगर आप गा नहीं सकते कि खेलो....बढो...जीतो तो फिर दिल्ली में क्या कर रहे हैं। इस बार भिखारी निकाले गये हैं अगली बार घेरा बड़ा होगा इसलिये एक हजार का टिकट खरीदने वाले या तो हैसियत 25 से 50 हजार की करें अन्यथा दस बरस बाद निकाले जाने के लिये वह भी तैयार रहें।