जनलोकपाल अगर सरकारी लोकपाल नहीं हो सकता और सरकारी लोकपाल का मतलब अगर भ्रष्टाचार का लाइसेंस सरकार के ही पास रखने वाला है, तो फिर अन्ना हजारे का आंदोलन भी अब महज भ्रष्टाचार के खिलाफ मुनादी वाला नहीं हो सकता। क्योंकि सिविल सोसायटी के लिये जो मुद्दे भ्रष्टाचार के घेरे में आते हैं सरकार के लिये वह संसदीय व्यवस्था का तंत्र है। शायद इसलिये पहली बार लोकतंत्र के तीनो पाये चैक एंड बैलेंस करने की जगह आपसी गठजोड़ बनाये दिख रहे हैं। और सरकार यह कहने से नहीं हिचक रही है कि नौकरशाही पर सत्ता का नियंत्रण जरूरी है।
न्यायपालिका की संवैधानिक सत्ता को चुनौती देना संविधान में सेंध लगाना है और संसद के सर्वोपरि होने पर कोई सवाल खड़ा करना सामानांतर सत्ता को बनाने की दिशा में बढ़ने वाला कदम है। जबकि सिविल सोसायटी सत्ता के नियत्रंण में सब कुछ को ही भ्रष्टाचार की जड़ मान कर देशभर में बहस शुरु करने पर आमादा है। और सरकार नियत्रंण को ही संसदीय व्यवस्था मान रही है। कह सकते हैं इस बहस ने जनता की ताकत है क्या इसे ही चुनौती दी है, क्योंकि जिस जनता के लिये संविधान बना और जिस संसद को जनता की नुमाइन्दगी करने वाला मंच माना गया 61 बरस में पहली बार उसी जनता की जरुरत, उसकी असल नुमाइन्दगी और जरुरतों को पूरा करने वाले तंत्र को बनाने के लिये संसद नहीं सड़क को मंच बनाने की बात हो रही है।
सवाल यहीं से निकल रहे है कि क्या आंदोलन संसद बनाम सिविल सोसायटी का हो चुका है। क्या संविधान से संसद को मिलने वाली ताकत पर सिविल सोसायटी सवालिया निशान लगा रही है। क्या लोकपाल राजनेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ की संसदीय व्यवस्था को तोड़ देगा। क्या सरकार यह मान चुकी है कि सिविल सोसायटी का रास्ता सत्ता के उस तंत्र को ही खत्म कर देगा जिसके आसरे नीतियों को देश में लागू किया जाता है और रुपये का दस पैसा भी गांव तक नहीं पहुंच पाता। क्या अन्ना हजारे वाकई आंदोलन को अब देश की दूसरी आजादी का सवाल बनाकर आम लोगों को सरकार के खिलाफ खड़ा करने पर आ तुले हैं। और पहली बार देश को 15 अगस्त का नहीं 16 अगस्त का इंतजार है। यानी इस बार लाल किले पर प्रधानमंत्री के तिरंगा फहराने से ज्यादा इंतजार 16 अगस्त को जंतर-मंतर पर हजारों हाथों में तिरंगा लहराते देखे जाने का इंतजार देश को है। अगर ऐसा है तो फिर कांग्रेस के लिये स्थिति 1947 वाली ही है। क्योंकि 15 अगस्त 1947 को जब जवाहर लाल नेहरु तिरंगा पहरा रहे थे, तो महात्मा गांधी कोलकत्ता के एक घर में अंधेरा किये बैठे थे। उन्होंने उस वक्त अपने घर में रोशनी करने से इंकार किया था। बीबीसी के रिपोर्टर के उस लालच पर भी मौन रखा था जब इंटरव्यू देने की दरख्वास्त कर रिपोर्टर ने दुनिया की कई भाषाओं में इंटरव्यू को अनुवाद करने की बात कही थी।
क्या इस बार 16 अगस्त को अन्ना हजारे कुछ इसी रुप में ले जाने की तैयारी में हैं और आजादी की दूसरी लड़ाई का मतलब 15 अगस्त के मायने बदल देगा, क्या देश की जनता में नैतिक तौर पर इतना साहस आ चुका है कि गैर-राजनीतिक आंदोलन के जरिये वह राजनीतिक व्यवस्था की चूले हिला दें। क्या शहरी मध्य-वर्ग में राजनीतिक तौर पर इतना पैनापन आ चुका है कि वह जिन्दगी की तमाम जद्दोजहद के बीच आंदोलन के रास्ते व्यवस्था सुधार का सपना पाल सकें। जाहिर है, अन्ना के आंदोलन का एसिड टेस्ट 15-16 अगस्त को होना है। लेकिन, इस दौर में जो सवाल सरकार ने उठाये उसने ही संसदीय राजनीति में सत्ता की तानाशाही का चेहरा भी पारदर्शी बना दिया। 5 अप्रैल को अन्ना हजारे के आंदोलन में अगर देश भर में आम आदमी को अपने आक्रोश का मंच दिखायी दिया, तो सरकार ने भी तीन दिन के भीतर जनता के आक्रोश में सफल होती सिविल सोसायटी के जरिये संसदीय व्यवस्था को गांठने के बदले सिर्फ कांग्रेस की सियासी ताकत को ही उभारा। यानी दो दर्जन से ज्यादा राजनीतिक दलों की अनदेखी कर सत्ता की महत्ता को ही जनलोकपाल के डॉफ्ट से जोड़ा। जबकि इस दौर का सच यही है कि भ्रष्टाचार में सरकार और कांग्रेसियों के दामन पर ही सबसे ज्यादा दाग दिखायी दिये।
यानी सत्ता भ्रष्ट हो या ईमानदार संसदीय राजनीति में महत्व सत्ता का ही होता है और संसदीय चुनाव का मतलब सत्ता पाने के लिये संघर्ष करना होता है। ऐसे में विपक्ष या सकारात्मक विरोधी की भूमिका संसदीय राजनीतिक व्यवस्था के लिये मायने नहीं रखती। इसलिये सिविल सोसायटी ने जब सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरा और अपनी भूमिका विरोधी या विपक्ष की बनायी तो सियासी दलो ने आंदोलन को हवा में ही उड़ाया, क्योंकि संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक दलों को ट्रेनिंग ही यही मिली है कि विरोध या विपक्ष की भूमिका सत्ता पाने के लिये होती है ना कि मुद्दों के आसरे व्यवस्था बदलने की। और नीतियों में परिवर्तन जब संसद के जरिये ही होता है तो फिर संसद पहुंचना ही हर नेता और राजनीतिक दल का पहला और आखिरी संघर्ष होता है। ऐसे में सिविल सोसायटी के उठाये मुद्दों को भी जब संसद के रास्ते ही गुजरना है, तो संसद में ठसक के साथ बैठे सांसदों में यह सहमति भी है कि उनकी सत्ता को इस दोष में कोई चुनौती नहीं दे सकता। और सत्ता का मतलब जब नौकरशाही पर राजनेताओं की नकेल, सीबीआई सरीखे स्वायत्त जांच एंजेसियों पर भी नियंत्रण और सीवीसी पद तक पर भ्रष्टाचार का दाग लगे व्यक्ति को बैठाने से गुरेज ना होना हो, तो फिर संसद के जरिये रास्ता निकल कैसे सकता है।
इन सबके बीच पहली बार पूर्व चीफ जस्टिस बालाकृष्णन समेत एक दर्जन से ज्यादा जज भ्रष्टाचार के घेरे में आते हो और खुले तौर पर मंत्री, नौकरशाह और कारपोरेट का गठबंधन एक वक्त देश के विकास की लकीर खींचता हुआ भी दिखता है और पकड़ में आने पर देश के राजस्व की लूट करता हुआ भी दिखायी देता हो, तो रास्ता संसद से कैसे निकल सकता है। इतना नहीं भ्रष्टाचार की अंगुली पीएमओ पर भी उठे और उसी दौर में लोकपाल के दायरे से पीएम को बाहर रखने की खुली मुनादी करने से सरकार भी ना हिचके, तो इसका एक मतलब तो साफ है कि सिविल सोसायटी के आंदोलन को अब भी सरकार अपनी बिसात पर प्यादे से ज्यादा नहीं मान रही है। यानी अन्ना हजारे का आंदोलन अभी संसदीय सत्ता या सरकार को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है या फिर अन्ना को सरकार अपने मुताबिक महत्व देकर संसदीय राजनीति की गडबडि़यों से आम आदमी का ध्यान बांट रही है और मौका पड़ने पर अपनी ताकत दिखा भी सकती है।
हो सकता है सरकार के जेहन में ऐसा ही कुछ हो लेकिन सरकार, सत्ता, संसदीय व्यवस्था या सिविल सोसायटी की सोच में चलेगी किसकी, यह संगठन, राजनीतिक दल या चुनावी राजनीति को नहीं बल्कि देश के नागरिकों को तय करना है। और पहली बार अन्ना हजारे के जरिये 61 बरस के संसदीय व्यवस्था से बाहर इन्हीं नागरिकों को एक मंच दिखायी दे रहा है। इसलिये इस बार सवाल चुनाव जीतकर संसद पहुंचने वाले आंदोलन का नहीं है जिसे लोहिया, जेपी से लेकर वीपी सिंह और अयोध्या के आसरे बीजेपी ने जीया। बल्कि इस बार रास्ता आजादी की तारीख 15 अगस्त पर भारी पड़ते 16 अगस्त का है। और अगर देश के नागरिकों ने तय कर लिया कि 15 अगस्त को लाल किले पर प्रधानमंत्री को झंडा फहराते देखने की जगह 16 अगस्त को जंतर-मंतर पर दूसरी आजादी की लडाई को लडने तिरंगा लेकर उतरेंगे। तो यह सत्ताधारियों के लिये खतरे की घंटी है।
Thursday, June 30, 2011
Monday, June 27, 2011
सूचना और तकनीक से आगे थी एसपी की पत्रकारिता
एसपी की पुण्यतिथि - 27 जून
जब सड़क के आंदोलन सरकार को चेता रहे हों और सरकार संसद की दुहाई दे कर सामानांतर सत्ता खड़ी ना हो, इसका रोना रो रही है तब लोकतंत्र के चौथे पाये की भूमिका क्या हो। यह सवाल अगर चौदह बरस पहले कोई एसपी सिंह से पूछता, तो जवाब यही आता कि इसमें खबर कहां है। 1995 में आज तक शुरू करने वाले एसपी सिंह ने माना जो कैमरा पकडे वह तकनीक है, जो नेता कहे वह सूचना है और इन दोनों के पीछे की जो कहानी पत्रकार कहे- वह खबर है। तो क्या इस दौर में खबर गायब है और सिर्फ सूचना या तकनीक ही रेंग रही है। अगर ईमानदारी की जमीन बनाने में भिड़े अहं के आंदोलन के दौर को परखें तो एसपी के मिजाज में अब के न्यूज चैनल क्या-क्या कर सकते हैं, यह तस्वीर घुघंली ही सही उभर तो सकती है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अन्ना के आंदोलन की जमीन आम आदमी के आक्रोश से बनी और फैल रही है। जिसमें संसद, सरकार की नाकामी है। जिसमें मंत्रियों के कामकाज के सरोकार आम आदमी से ना जुड़ कर कारपोरेट और निजी कंपनियो से जुड़ रहे हैं।
तो फिर मीडिया क्या करे। संसद में जनता के उठते मुद्दों को लेकर राजनीतिक दलों का टकराव चरम पर पहुंचता है, तो न्यूज चैनलों को टीआरपी दिखायी देती है। टकराव खत्म होता है तो किसी दूसरे टकराव की खोज में मीडिया निकल पड़ता है या फिर राजनेता भी मीडिया की टीआरपी की सोच के अनुसार टकराव भरे वक्तव्य देकर खुद की अहमियत बनाये रखने का स्कीनिंग बोल बोलते है। तो मीडिया उसे जश्न के साथ दिखाता है। नेता खुश होता है, क्योंकि उसकी खिंची लकीर पर मीडिया चल पडता है और उन्माद के दो पल राजनीति को जगाये रखते है। हर पार्टी का नेता हर सुबह उठकर अखबार यही सोच कर टटोलता है कि शाम होते-होते कितने न्यूज चैनलों के माइक उसके मुंह में ठूंसे होंगे और रात के प्राईम टाइम में किस पार्टी के कौन से नेता या प्रवक्ता की बात गूंजेगी। कह सकते हैं मीडिया यहीं आकर ठहर गया है और राजनेता इसी ठहरी हुयी स्क्रीन में एक-एक कंकड़ फेंक कर अपनी हलचल का मजा लेने से नहीं कतराते है। अगर अन्ना के आंदोलन से ठीक पहले महंगाई और भ्रष्टाचार के सवालो को लेकर संसद, नेता और मीडिया की पहल देखें, तो अब उस दौर की हर आवाज जश्न में डूबी हुई सी लगती है।
पहले महंगाई के दर्द ने ही टीस दी। संसद में पांच दिन तक महंगाई का रोना रोया गया। कृषि मंत्री शरद पवार निशाने पर आये। कांग्रेस ने राजनीति साधी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने तो पवार के हंसने को आम आदमी के दर्द पर नमक डालना तक कहा। और मीडिया ने बखूबी हर शब्द पर हेंडिग बनायी। इसे नीतियों का फेल होना बताया। चिल्ला-चिल्ला कर महंगाई पर लोगों के दर्द को शब्दों में घोलकर न्यूज चैनलो ने पिलाया। लेकिन हुआ क्या। वित्त मंत्री तो छोडि़ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक ने महंगाई थमने का टारगेट पांच बार तय किया। सितंबर 2010. फिर नवंबर 2010. फिर दिसंबर 2010, फिर फरवरी 2011 फिर मार्च 2011। प्रधानमंत्री ने जो कहा, वो हेडलाइन बना। तीन बार तो टारगेट संसद में तय किया। तो क्या मीडिया ने यह सवाल उठाया कि संसद की जिम्मेदारी क्या होनी चाहिये। यानी मनमोहन सिंह ने देश को बतौर प्रधानमंत्री धोखा दे दिया यह कहने की हिम्मत तो दूर मीडिया मार्च के बाद यह भी नहीं कह पायी कि प्रधानमंत्री कीमतें बढ़ाकर किन-किन कारपोरेट सेक्टर की हथेली पर मुनाफा मुनाफा समेटा। गैस के मामले पर कैग की रिपोर्ट ने रिलायंस को घेरा और पीएमओ ने मुकेश अंबानी पर अंगुली उठाने की बजाये तुरंत मिलने का वक्त दे दिया। क्या मीडिया ने यह सवाल उठाया कि जिस पर आरोप लगे हैं उससे पीएम की मुलाकात का मतलब क्या है। जबकि एक वक्त राजीव गांधी ने पीएमओ का दरवाजा धीरुभाई अंबानी के लिये इसलिये बंद कर दिया था, कि सरकार पाक-साफ दिखायी दे। तब मीडिया ने कारपोरेट की लड़ाई और सरकार के भीतर बैठे मंत्रियों के कच्चे-चिट्ठे भी जमकर छापे थे। लेकिन अब मीडिया यह हिम्मत क्यो नहीं दिखा पाता है।
याद कीजिये संसद में भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली आवाज आईपीएल को लेकर ही उठी। क्या-क्या संसद में नहीं कहा गया। लेकिन हुआ क्या। आईपीएल को कामनवेल्थ घोटाला यानी सीडब्ल्यूजी निगल गया। सीडब्ल्यूजी को आदर्श घोटाला निगल गया। आदर्श को येदुयरप्पा के घोटाले निगल गये। और इन घोटालों ने महंगाई की टीस को ही दबा दिया। लेकिन हर घोटाले के साथ मीडिया सोये हुये शेर की तरह जागा। उसने अखबारों के पन्नों से लेकर न्यूज स्क्रीन तक रंग दिये। लेकिन लोकतंत्र का प्रहरी है कौन, यह सवाल हर उठती-बैठती खबर के साथ उसी जनता के दिमाग में कौंधा, जिसने नेताओं को संसद पहुंचाया और जिसने मीडिया को टीआरपी दे रखी है। क्योंकि हर आवाज से बड़ी आवाज लगाने वाले सामने आते गये। देश के इतिहास में पहली बार कोई चीफ जस्टिस घोटाले के घेरे में भी आया और सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार किसी घोटाले में केबिनेट मंत्री, सांसद, नौकरशाह, कारपोरेट कंपनी के कर्त्ता-धर्त्ताओं को जेल भी भेजा। मीडिया ने हर पहल को खबर माना और हंगामे के साथ उसके रंग में भी रेंग गयी। लेकिन, इस पूरे दौर में यह सवाल कभी नहीं खड़ा हुआ कि संसद चूक रही है। प्रधानमंत्री का पद गरिमा खो रहा है। लोकतंत्र के तीनों पाये चैक-एंड-बैलेंस खोकर एक दूसरे को संभालने में लगे हैं। और ऐसे में चौथा पाया क्या करे।
असल में अन्ना हजारे के आंदोलन को कवर करते मीडिया के सामने यही चुनौती है कि वह कैसे लोकतंत्र के पायों पर निगरानी भी करे और आंदोलन की जमीन को भी उभारे, जहां ऐसे सवाल दबे हुये हैं जिनका जवाब सरकार या राजनेता यह सोच कर देना नहीं चाहेंगे कि संसद मूल्यहीन ना ठहरा दी जाये। और सिविल सोसायटी यह सोच कर टकराव नहीं लेगी कि कहीं उसे राजनीतिक तौर पर ना ठहरा दिया जाये। और आखिर में संसद के भीतर के संघर्ष की तर्ज पर सड़क का संघर्ष भी धूमिल ना हो जाये। न्यूज चैनलों की पत्रकारिता के इस मोड़ पर 14 बरस पहले के एसपी सिंह के प्रयोग सीख दे सकते है। जो चल रहा है वह सूचना है, लेकिन वह खबर नहीं है। अब के न्यूज चैनल को देखकर कोई भी कह सकता है कि जो चल रहा है वही खबर है। दिग्विजय सिंह का तोतारंटत हो या या फिर सरकार का संसद की दुहाई देने का मंत्र। विपक्ष के तौर पर बीजेपी की सियासी चाल। जो अयोध्या मुद्दे पर फैसला सड़क पर चाहती है, लेकिन लोकपाल के घेरे में प्रधानमंत्री आये या नहीं इस पर संसद के सत्र का इंतजार करना चाहती है।
महंगाई और भ्रष्टाचार पर ममता के तेवर भी मनमोहन सिंह के दरवाजे पर अब नतमस्तक हो जाते हैं। करुणानिधि भी बेटी के गम में यूपीए-2 की बैठक में नहीं जाते हैं। शरद पवार मदमस्त रहते है। और अन्ना की टीम इस दौर में सिर्फ एक गुहार लगाती है कि संसद अपना काम करने लगे। सभी मंत्री इमानदार हो जायें। न्यायापालिका भ्रष्ट रास्ते पर ना जाये, नौकरशाही और मंत्री की सांठगांठ खत्म हो और प्रधानमंत्री भी जो संसद में कहें कम से कम उस पर तो टिकें। संसद ठप हो तो प्रधानमंत्री विदेश यात्रा करने की जगह देश के मुद्दों को सुलझाने में तो लगें। क्या इन परिस्थितियों को टटोलना खबर नहीं है। यानी सत्ता जो बात कहती है, उसका पोस्टमार्टम करने से मीडिया अब परहेज क्यों करने लगा है। सरकार का कोई मंत्री कैग जैसी संवैधानिक संस्था पर भी अंगुली उठाता है और सिविल सोसायटी से टकराने के लिये संविधान की दुहाई भी देता है। फिर भी वह सरकार के लिये सबसे महत्वपूर्ण बना रह जाता है।
दरअसल 1995 में एसपी सिंह ने जब सरकार की नाक तले ही आज तक शुरु किया, उस वक्त भी साथी पत्रकारों को पहला पाठ यही दिया, सरकार जो कह रही है वह खबर नहीं हो सकती। और हमें खबर पकड़नी है। खबर पकड़ने के इस हुनर ने ही एसपी को घर-घर का चहेता बनाया। एसपी उस वक्त भी यह कहने से नहीं चूकते थे कि टीवी से ज्यादा सशक्त माध्यम हो नहीं सकता। लेकिन तकनीक पर चलने वाले रोबोट की जगह उसमें खबर डालकर ही तकनीक से ज्यादा पत्रकारिता को सशक्त बनाया जा सकता है। और अगर सूचना या तकनीक के सहारे ही रिपोर्टर ने खुद को पत्रकार मान लिया, तो यह फैशन करने सरीखा है। तो क्या अब न्यूज चैनल इससे चूक रहे हैं और इसलिये अन्ना की सादगी और केजरीवाल की तल्खी भी सिब्बल और दिग्विजय की सियासी चालों में खो जाती है। और संपादक असल खबर को पकड़ना नहीं चाहता और रिपोर्टर झटके में कैमरे को लेकर भागता या माईक थामे फैशन कर हाफंता ही नजर आता है।
जब सड़क के आंदोलन सरकार को चेता रहे हों और सरकार संसद की दुहाई दे कर सामानांतर सत्ता खड़ी ना हो, इसका रोना रो रही है तब लोकतंत्र के चौथे पाये की भूमिका क्या हो। यह सवाल अगर चौदह बरस पहले कोई एसपी सिंह से पूछता, तो जवाब यही आता कि इसमें खबर कहां है। 1995 में आज तक शुरू करने वाले एसपी सिंह ने माना जो कैमरा पकडे वह तकनीक है, जो नेता कहे वह सूचना है और इन दोनों के पीछे की जो कहानी पत्रकार कहे- वह खबर है। तो क्या इस दौर में खबर गायब है और सिर्फ सूचना या तकनीक ही रेंग रही है। अगर ईमानदारी की जमीन बनाने में भिड़े अहं के आंदोलन के दौर को परखें तो एसपी के मिजाज में अब के न्यूज चैनल क्या-क्या कर सकते हैं, यह तस्वीर घुघंली ही सही उभर तो सकती है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अन्ना के आंदोलन की जमीन आम आदमी के आक्रोश से बनी और फैल रही है। जिसमें संसद, सरकार की नाकामी है। जिसमें मंत्रियों के कामकाज के सरोकार आम आदमी से ना जुड़ कर कारपोरेट और निजी कंपनियो से जुड़ रहे हैं।
तो फिर मीडिया क्या करे। संसद में जनता के उठते मुद्दों को लेकर राजनीतिक दलों का टकराव चरम पर पहुंचता है, तो न्यूज चैनलों को टीआरपी दिखायी देती है। टकराव खत्म होता है तो किसी दूसरे टकराव की खोज में मीडिया निकल पड़ता है या फिर राजनेता भी मीडिया की टीआरपी की सोच के अनुसार टकराव भरे वक्तव्य देकर खुद की अहमियत बनाये रखने का स्कीनिंग बोल बोलते है। तो मीडिया उसे जश्न के साथ दिखाता है। नेता खुश होता है, क्योंकि उसकी खिंची लकीर पर मीडिया चल पडता है और उन्माद के दो पल राजनीति को जगाये रखते है। हर पार्टी का नेता हर सुबह उठकर अखबार यही सोच कर टटोलता है कि शाम होते-होते कितने न्यूज चैनलों के माइक उसके मुंह में ठूंसे होंगे और रात के प्राईम टाइम में किस पार्टी के कौन से नेता या प्रवक्ता की बात गूंजेगी। कह सकते हैं मीडिया यहीं आकर ठहर गया है और राजनेता इसी ठहरी हुयी स्क्रीन में एक-एक कंकड़ फेंक कर अपनी हलचल का मजा लेने से नहीं कतराते है। अगर अन्ना के आंदोलन से ठीक पहले महंगाई और भ्रष्टाचार के सवालो को लेकर संसद, नेता और मीडिया की पहल देखें, तो अब उस दौर की हर आवाज जश्न में डूबी हुई सी लगती है।
पहले महंगाई के दर्द ने ही टीस दी। संसद में पांच दिन तक महंगाई का रोना रोया गया। कृषि मंत्री शरद पवार निशाने पर आये। कांग्रेस ने राजनीति साधी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने तो पवार के हंसने को आम आदमी के दर्द पर नमक डालना तक कहा। और मीडिया ने बखूबी हर शब्द पर हेंडिग बनायी। इसे नीतियों का फेल होना बताया। चिल्ला-चिल्ला कर महंगाई पर लोगों के दर्द को शब्दों में घोलकर न्यूज चैनलो ने पिलाया। लेकिन हुआ क्या। वित्त मंत्री तो छोडि़ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक ने महंगाई थमने का टारगेट पांच बार तय किया। सितंबर 2010. फिर नवंबर 2010. फिर दिसंबर 2010, फिर फरवरी 2011 फिर मार्च 2011। प्रधानमंत्री ने जो कहा, वो हेडलाइन बना। तीन बार तो टारगेट संसद में तय किया। तो क्या मीडिया ने यह सवाल उठाया कि संसद की जिम्मेदारी क्या होनी चाहिये। यानी मनमोहन सिंह ने देश को बतौर प्रधानमंत्री धोखा दे दिया यह कहने की हिम्मत तो दूर मीडिया मार्च के बाद यह भी नहीं कह पायी कि प्रधानमंत्री कीमतें बढ़ाकर किन-किन कारपोरेट सेक्टर की हथेली पर मुनाफा मुनाफा समेटा। गैस के मामले पर कैग की रिपोर्ट ने रिलायंस को घेरा और पीएमओ ने मुकेश अंबानी पर अंगुली उठाने की बजाये तुरंत मिलने का वक्त दे दिया। क्या मीडिया ने यह सवाल उठाया कि जिस पर आरोप लगे हैं उससे पीएम की मुलाकात का मतलब क्या है। जबकि एक वक्त राजीव गांधी ने पीएमओ का दरवाजा धीरुभाई अंबानी के लिये इसलिये बंद कर दिया था, कि सरकार पाक-साफ दिखायी दे। तब मीडिया ने कारपोरेट की लड़ाई और सरकार के भीतर बैठे मंत्रियों के कच्चे-चिट्ठे भी जमकर छापे थे। लेकिन अब मीडिया यह हिम्मत क्यो नहीं दिखा पाता है।
याद कीजिये संसद में भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली आवाज आईपीएल को लेकर ही उठी। क्या-क्या संसद में नहीं कहा गया। लेकिन हुआ क्या। आईपीएल को कामनवेल्थ घोटाला यानी सीडब्ल्यूजी निगल गया। सीडब्ल्यूजी को आदर्श घोटाला निगल गया। आदर्श को येदुयरप्पा के घोटाले निगल गये। और इन घोटालों ने महंगाई की टीस को ही दबा दिया। लेकिन हर घोटाले के साथ मीडिया सोये हुये शेर की तरह जागा। उसने अखबारों के पन्नों से लेकर न्यूज स्क्रीन तक रंग दिये। लेकिन लोकतंत्र का प्रहरी है कौन, यह सवाल हर उठती-बैठती खबर के साथ उसी जनता के दिमाग में कौंधा, जिसने नेताओं को संसद पहुंचाया और जिसने मीडिया को टीआरपी दे रखी है। क्योंकि हर आवाज से बड़ी आवाज लगाने वाले सामने आते गये। देश के इतिहास में पहली बार कोई चीफ जस्टिस घोटाले के घेरे में भी आया और सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार किसी घोटाले में केबिनेट मंत्री, सांसद, नौकरशाह, कारपोरेट कंपनी के कर्त्ता-धर्त्ताओं को जेल भी भेजा। मीडिया ने हर पहल को खबर माना और हंगामे के साथ उसके रंग में भी रेंग गयी। लेकिन, इस पूरे दौर में यह सवाल कभी नहीं खड़ा हुआ कि संसद चूक रही है। प्रधानमंत्री का पद गरिमा खो रहा है। लोकतंत्र के तीनों पाये चैक-एंड-बैलेंस खोकर एक दूसरे को संभालने में लगे हैं। और ऐसे में चौथा पाया क्या करे।
असल में अन्ना हजारे के आंदोलन को कवर करते मीडिया के सामने यही चुनौती है कि वह कैसे लोकतंत्र के पायों पर निगरानी भी करे और आंदोलन की जमीन को भी उभारे, जहां ऐसे सवाल दबे हुये हैं जिनका जवाब सरकार या राजनेता यह सोच कर देना नहीं चाहेंगे कि संसद मूल्यहीन ना ठहरा दी जाये। और सिविल सोसायटी यह सोच कर टकराव नहीं लेगी कि कहीं उसे राजनीतिक तौर पर ना ठहरा दिया जाये। और आखिर में संसद के भीतर के संघर्ष की तर्ज पर सड़क का संघर्ष भी धूमिल ना हो जाये। न्यूज चैनलों की पत्रकारिता के इस मोड़ पर 14 बरस पहले के एसपी सिंह के प्रयोग सीख दे सकते है। जो चल रहा है वह सूचना है, लेकिन वह खबर नहीं है। अब के न्यूज चैनल को देखकर कोई भी कह सकता है कि जो चल रहा है वही खबर है। दिग्विजय सिंह का तोतारंटत हो या या फिर सरकार का संसद की दुहाई देने का मंत्र। विपक्ष के तौर पर बीजेपी की सियासी चाल। जो अयोध्या मुद्दे पर फैसला सड़क पर चाहती है, लेकिन लोकपाल के घेरे में प्रधानमंत्री आये या नहीं इस पर संसद के सत्र का इंतजार करना चाहती है।
महंगाई और भ्रष्टाचार पर ममता के तेवर भी मनमोहन सिंह के दरवाजे पर अब नतमस्तक हो जाते हैं। करुणानिधि भी बेटी के गम में यूपीए-2 की बैठक में नहीं जाते हैं। शरद पवार मदमस्त रहते है। और अन्ना की टीम इस दौर में सिर्फ एक गुहार लगाती है कि संसद अपना काम करने लगे। सभी मंत्री इमानदार हो जायें। न्यायापालिका भ्रष्ट रास्ते पर ना जाये, नौकरशाही और मंत्री की सांठगांठ खत्म हो और प्रधानमंत्री भी जो संसद में कहें कम से कम उस पर तो टिकें। संसद ठप हो तो प्रधानमंत्री विदेश यात्रा करने की जगह देश के मुद्दों को सुलझाने में तो लगें। क्या इन परिस्थितियों को टटोलना खबर नहीं है। यानी सत्ता जो बात कहती है, उसका पोस्टमार्टम करने से मीडिया अब परहेज क्यों करने लगा है। सरकार का कोई मंत्री कैग जैसी संवैधानिक संस्था पर भी अंगुली उठाता है और सिविल सोसायटी से टकराने के लिये संविधान की दुहाई भी देता है। फिर भी वह सरकार के लिये सबसे महत्वपूर्ण बना रह जाता है।
दरअसल 1995 में एसपी सिंह ने जब सरकार की नाक तले ही आज तक शुरु किया, उस वक्त भी साथी पत्रकारों को पहला पाठ यही दिया, सरकार जो कह रही है वह खबर नहीं हो सकती। और हमें खबर पकड़नी है। खबर पकड़ने के इस हुनर ने ही एसपी को घर-घर का चहेता बनाया। एसपी उस वक्त भी यह कहने से नहीं चूकते थे कि टीवी से ज्यादा सशक्त माध्यम हो नहीं सकता। लेकिन तकनीक पर चलने वाले रोबोट की जगह उसमें खबर डालकर ही तकनीक से ज्यादा पत्रकारिता को सशक्त बनाया जा सकता है। और अगर सूचना या तकनीक के सहारे ही रिपोर्टर ने खुद को पत्रकार मान लिया, तो यह फैशन करने सरीखा है। तो क्या अब न्यूज चैनल इससे चूक रहे हैं और इसलिये अन्ना की सादगी और केजरीवाल की तल्खी भी सिब्बल और दिग्विजय की सियासी चालों में खो जाती है। और संपादक असल खबर को पकड़ना नहीं चाहता और रिपोर्टर झटके में कैमरे को लेकर भागता या माईक थामे फैशन कर हाफंता ही नजर आता है।
Wednesday, June 22, 2011
माओवाद से आगे जाते आंदोलन
अगर अल्ट्रा लेफ्ट यानी नक्सलवाद से लेकर माओवाद हिंसा की जगह अहिंसा की शक्ल में आये तो उसका चेहरा क्या होगा। जाहिर है हिंसा का मतलब है व्यवस्था परिवर्तन के लिये पहले सत्ता परिवर्तन ही है। जिसमें राज्य से दो-दो हाथ करने की स्थिति आती ही है। और नक्सलवाद से लेकर माओवाद का चेहरा चाहे किसान-आदिवासी के सवाल को लेकर खड़ा हो या नयी परिस्थितियों में जमीन से लेकर विकास की बाजारवादी सोच को मुद्दा बनाकर संघर्ष की स्थिति पैदा करने वाला हो, लेकिन शुऱुआत सत्ता परिवर्तन से ही होती है। जबकि अहिंसा का मतलब है सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन।
यानी यहां चल रही सत्ता को सिर्फ इतनी ही चेतावनी दी जाती है कि जो व्यवस्था उसने अपनायी हुई है वह सही नहीं है। और संघर्ष का यह चेहरा व्यवस्था परिवर्तन उसी घेरे में चाहता है, जिसमें सत्ता चल रही है। लेकिन,इस व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को क्या अल्ट्रा लेफ्ट यानी नक्सलवाद से माओवाद की किसी श्रेणी में अगर नही रखा जा सकता, तो इसका किस रूप में मान्यता दी जाये। असल में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव का संघर्ष, मुद्दों को लेकर सत्ता को चेताने वाले संघर्षों में एक नया सवाल है।
यहां यह कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे, संसदीय राजनीति ने भी उठाये हैं। और अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के सवाल चुकी हुई संसदीय राजनीति पर महज एक सवालिया निशान भर है। लेकिन, संसदीय राजनीति ने हमेशा चुनावी राजनीति को महत्ता दी। संसद को हर मुद्दे के समाधान का रास्ता करार दिया। जवाहरलाल नेहरु पर लोहिया ने जब भ्रष्टाचार के आरोप जड़े, तो गैर कांग्रेसवाद से आगे संघर्ष की लकीर ना खिंच सकी। इंदिरा गांधी की सत्ता के भ्रष्ट तौर-तरीकों को लेकर जब जेपी ने आंदोलन की शुरुआत की, तो भी कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ विरोधी राजनीतिक दलों का एक मंच जनता पार्टी के तौर पर निकला। वीपी सिंह ने भी जब बोफोर्स घोटाले के घेरे में राजीव गांधी की सत्ता को घेरा, तो भी संसदीय राजनीति के घेरे में ही सत्ता परिवर्तन का ही चेहरा समूचे संघर्ष में उभरा। लेकिन, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने चाहे संसदीय राजनीति में उठ चुके सवालों को मुद्दों में बदला, लेकिन पहली बार उसका रास्ता भी संसदीय राजनीति से इतर खोजने की सोच भी पैदा की।
सत्ताधारी दल के तार भ्रष्टाचार से जुड़ने के बाद कालेधन के जरिये संसदीय राजनीति का खेल कैसे खेला जाता है,यह सवाल भी उठा। और पहली बार तमाम राजनीतिक दलों के सामने यह बड़ा सवाल गूंजा कि अगर संसदीय चुनावी राजनीति का चेहरा ही पूंजी पर टिका है और पूंजी का मतलब भ्रष्टाचार या कालेधन को प्रश्रय देना है, तो फिर मुद्दा चाहे पुराना हो, लेकिन उसके सवाल नये हैं और रास्ता भी नया खोजना जरूरी है। असल में यह समझ आंदोलन के बीच में सत्ताधारी दल से लेकर तमाम राजनीतिक दलों की आपसी एकजुटता से भी निकली और आंदोलन से टकराव ने भी इन सवालों को जन्म दिया। खासकर सिविल सोसायटी ने जन- लोकपाल कानून के जरिये जिस तरह कानून पर टिके संसदीय लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाया।
लोकतंत्र का नारा लगाते संसदीय दलों को भी समझ नही आया कि जो काम संसद को करना है अगर उसका मसौदा संसद के बाहर तय होने लगे, उस पर बहस बिना राजनीतिक दलों की शिरकत के होने लगे, अगर सडक पर संसद के तौर-तरीको को लेकर आम आदमी संघर्ष की शक्ल में अपनी सहमति सिविल सोसायटी को लेकर देने लगे, तो फिर चुनावी लोकतंत्र पर देश ठहाके नहीं लगायेगा तो और क्या करेगा। और अगर ऐसा होगा तो फिर आंदोलन की बोली भी व्यवस्था परिवर्तन की ऐसी लकीर खिंचने वाली होगी जिसमें यह तयकर पाना वाकई मुश्किल होगा कि संघर्ष सिर्फ वयवस्था के तौर-तरीको को बदलने वाला है या फिर सत्ता की नुमाइन्दगी करने के लिये बैचैन राजनीतिक दलों के खिलाफ संघर्ष की मुनादी हो रही है। यानी जो नक्सलवाद से लेकर माओवाद के नारे नक्सलबाडी से लेकर तेलागांना और हाल के दिनों में बस्तर से लेकर नंदीग्राम और लालगढ़ में सुनायी दिये वही अहिंसा की आवाज की शक्ल में दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान और आखिर में राजघाट तक भी सुनायी पड़े। क्योंकि दिल्ली के इन लोकतांत्रिक मंचो को संसदीय लोकतंत्र ने ही खुद को लोकतांत्रिक बताने-ठहराने के लिये बनाया है, तो यहां की आवाज में विरोध के स्वर विद्रोह के नहीं लगते है। और इससे पहले इसी का जश्न संसदीय सत्ता मनाती आयी है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भी भरती रही है।
लेकिन पहली बार अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने उन्हीं प्रतीकों को जड़ से पकड़ा। कहा यह भी जा सकता है कि खेल - खेल में संसदीय लोकतंत्र के यह प्रतीक पकड़ में आ गये। रामदेव का मतलब चूंकि रामलीला मैदान रहा और रामलीला मैदान जेपी से लेकर वीपी तक के संघर्ष की मुनादी स्थल रहा है। संघ परिवार की दस्तक खुले तौर पर नजर आने के बाद संसदीय सत्ता रामलीला मैदान के जरिये संघ परिवार के भगवापन को रामदेव के बाबापन से जोड़कर अपने उपर उठने वाली अंगुली को सियासी दांव तले दबा सकती है। चूंकि बाबा रामदेव की रामलीला का जुड़ाव भी आस्था और भगवा रहस्य में ज्यादा खोया रहा, इसलिये इस संघर्ष को राजनीतिक तीर बनाने में सफलता कितनी किस रूप में मिलती यह तो दूर की गोटी है।
लेकिन रामलीला मैदान में संसदीय राजनीतिक दलों की अलोकतांत्रिक भूमिका को लेकर जो सवाल बाबा रामदेव ने उठाये और जिस तरह व्यवस्था परिवर्तन की बात कहते हुये सत्ता के तौर-तरीकों पर परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर निशाना साधा। कैबिनेट, रामदेव मंत्रियों से रामदेव की हुई बातचीत को भी कितना जनविरोधी करार करने के लिये दबाव बना रही है, इसे सार्वजनिक मंच पर जिस तेवर से कहा, उसमें यह सवाल कोई भी पूछ सकता है कि अगर यह तेवर कोई माओवादी दिखाता तो वह राष्ट्रविरोधी करार दिया जा सकता था। वही अन्ना हजारे की जंतर-मंतर की सभा हो या राजघाट की, दोनों जगहों पर ना सिर्फ मंच से बल्कि सार्वजनिक तौर अलग-अलग सामाजिक संगठनो से लेकर निजी पहल करते आम शहरी मध्यम वर्ग ने प्ले-कार्ड से लेकर नारों की शक्ल में जो-जो कहा, अगर उस पर गौर करें तो नंदीग्राम से लेकर बस्तर तक में जो आवाज सत्ता के खिलाफ जिन शब्दों को लेकर उठती है, उससे कहीं ज्यादा तल्खी इनकी आवाजों में थी। शब्दों में थी। खासकर विकास का जो खांचा 1991 के बाद से देश में आर्थिक सुधार के नाम पर अपनाया जा रहा है, उसका चेहरा ही भ्रष्ट है तो फिर भ्रष्टाचार पर नकेल कैसे कसी जा सकती है।
यह सवाल भी सिविल सोसायटी ने उठाया। और इस दौर में माओवाद के राजनीतिक घोषणा पत्र में जब समूची विकास प्रक्रिया को ही चंद हथेलियों में पूंजी समेटने वाला करार दिया है, उसी भाषा में भ्रष्टाचार पर फंदा भी अन्ना हजारे ने कसे। इतना ही नही, किसानों,आदिवासियों के जिन मुद्दों को लेकर नंदीग्राम में आग सुलगी और वामपंथियों को कटघरे में खड़ा किया गया उसी तरह सिविल-सोसायटी ने भी जनलोकपाल की बैठकों में सरकार पर यह कहकर नकेल कसी कि इसके दायरे में किसी को भी बख्शने का मतलब होगा भ्रष्टाचार करने का लाईसेंस देना। वामपंथियों ने सत्ता पर रहते हुये ममता बनर्जी पर यही सवाल उठाये थे कि जब जनता ने उन्हें चुना है तो वह जनता के खिलाफ कैसे जा सकते हैं और फैसला भी जनता को ही करना होगा।
जाहिर है बंगाल में वामपंथियों के विकल्प के लिये ममता उसी रास्ते पर खड़ी थी जिसे वामपंथियो ने चुना था। संसदीय चुनाव का रास्ता। और बंगाल में तो कानून के लिये राष्ट्रविरोधी माओवादी भी चुनाव के जरिये परिवर्तन के पक्ष में थे। लेकिन दिल्ली में सिविल सोसायटी ने तो अल्ट्रा लेफ्ट या कहे माओवादियों से भी आगे के सवाल सरकार के साथ एक ही टेबल पर बैठ कर उठा दिये। असल में पहली बार सबसे बड़ा सवाल देश के लिये यही खड़ा हो रहा है कि क्या संसदीय राजनीति अपनी भूमिका निभा चुका है। क्या संसदीय राजनीति के सरोकार आम आदमी से पूरी तरह खत्म हो चुके है। क्या समूची चुनावी प्रक्रिया को देश का शहरी वर्ग धोखा मान चुका है। यह सारे सवाल इसलिये जरूरी हैं क्योंकि सिविल सोसायटी के उठाये सवाल इससे पहले नक्सली या माओवादी भी नहीं कह पाये।
उन्होंने व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर सत्ता परिवर्तन की बात कही। लेकिन अन्ना हजारे के सवाल तो सीधे प्रधानमंत्री और देश के मुख्य न्यायाधीश को भी यह कहते हुये कटघरे में खडा कर रहे हैं कि अगर यह जन लोकपाल के दायरे में नहीं आये तो भ्रष्टाचार करने के इन्हे ही मंच बना लिया जायेगा। यानी सरकार को जिस मंत्रालय में बड़ा घोटाला करना है वह मंत्रालय प्रधानमंत्री अपने पास रखेंगे। इसी तरह चीफ जस्टिस आफ इंडिया के फैसलों के जरिये सरकार अपनी सहूलियत के अनुसार कानून बनाने या कानून बिगाड़ने से नहीं हिचकेगी। क्या यह बात कहकर माओवादी इससे बच सकता है कि सरकार उसे राष्ट्रविरोधी ना करार दे।
जाहिर है माओवाद का मतलब हिंसा है। और अन्ना हजारे राजघाट पर बैठकर गांधी और भगत सिंह का ऐसा मिश्रण बना रहे हैं, जिसके घेरे में संसदीय राजनीति के शुद्धीकरण का सवाल उठेगा ही। और कानूनी तौर पर सरकार के सामने इन्हें रोकने के लिये आपातकाल सरीखा वातावरण बनाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता बचता नहीं है। जिसे सरकार ला नहीं सकती है। लेकिन, इन्हें रोक भी नहीं सकती है। तो क्या यह माना जा सकता है कि जिस मध्यवर्ग को माओवादी या अल्ट्रा-लेफ्ट शहरी बुर्जुआ कहकर खारिज करता रहा है, नयी परिस्थितियों में यही शहरी मध्यवर्ग अब सत्ता में अपने हक को उसी तरह खोज रहा है जैसे किसान, मजदूर, आदिवासियों के हक की बात नक्सलवादी से लेकर माओवादी करते रहे हैं। और किसी अल्ट्रा-लेफ्ट संगठन के महासचिव की जगह गांधी टोपी पहले अन्ना हजारे आंदोलन के एक नये प्रतीक बन गये हैं। जिससे टकराया कैसे जाये या संसदीय सत्ता किस तरह इन्हें खारिज करें यह रास्ता फिलहाल ना तो सरकार के पास है ना ही संसदीय राजनीति के पास।
लेकिन, 1948 के किसान आंदोलन से लेकर नक्सलबाड़ी होते हुये तेलागंना, बस्तर और नंदीग्राम में जो लकीर खिंची उसी सोच को राष्ट्रीय पटल पर सामूहिकता का बोध लिये सामाजिक आंदोलन की नयी जमीन पहली बार बदलने का संकेत भी दे रही है और बदलते संकेत में संसदीय सत्ता को भी चेता रही है कि कोई रास्ता उसने नहीं निकाला गया, तो देश में आंदोलन सत्ता की धारा बदल भी सकते है। यह संकेत अभी सांकेतिक हैं, लेकिन कल बदलाव की लकीर भी खिंच सकती है और इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
यानी यहां चल रही सत्ता को सिर्फ इतनी ही चेतावनी दी जाती है कि जो व्यवस्था उसने अपनायी हुई है वह सही नहीं है। और संघर्ष का यह चेहरा व्यवस्था परिवर्तन उसी घेरे में चाहता है, जिसमें सत्ता चल रही है। लेकिन,इस व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को क्या अल्ट्रा लेफ्ट यानी नक्सलवाद से माओवाद की किसी श्रेणी में अगर नही रखा जा सकता, तो इसका किस रूप में मान्यता दी जाये। असल में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव का संघर्ष, मुद्दों को लेकर सत्ता को चेताने वाले संघर्षों में एक नया सवाल है।
यहां यह कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे, संसदीय राजनीति ने भी उठाये हैं। और अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के सवाल चुकी हुई संसदीय राजनीति पर महज एक सवालिया निशान भर है। लेकिन, संसदीय राजनीति ने हमेशा चुनावी राजनीति को महत्ता दी। संसद को हर मुद्दे के समाधान का रास्ता करार दिया। जवाहरलाल नेहरु पर लोहिया ने जब भ्रष्टाचार के आरोप जड़े, तो गैर कांग्रेसवाद से आगे संघर्ष की लकीर ना खिंच सकी। इंदिरा गांधी की सत्ता के भ्रष्ट तौर-तरीकों को लेकर जब जेपी ने आंदोलन की शुरुआत की, तो भी कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ विरोधी राजनीतिक दलों का एक मंच जनता पार्टी के तौर पर निकला। वीपी सिंह ने भी जब बोफोर्स घोटाले के घेरे में राजीव गांधी की सत्ता को घेरा, तो भी संसदीय राजनीति के घेरे में ही सत्ता परिवर्तन का ही चेहरा समूचे संघर्ष में उभरा। लेकिन, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने चाहे संसदीय राजनीति में उठ चुके सवालों को मुद्दों में बदला, लेकिन पहली बार उसका रास्ता भी संसदीय राजनीति से इतर खोजने की सोच भी पैदा की।
सत्ताधारी दल के तार भ्रष्टाचार से जुड़ने के बाद कालेधन के जरिये संसदीय राजनीति का खेल कैसे खेला जाता है,यह सवाल भी उठा। और पहली बार तमाम राजनीतिक दलों के सामने यह बड़ा सवाल गूंजा कि अगर संसदीय चुनावी राजनीति का चेहरा ही पूंजी पर टिका है और पूंजी का मतलब भ्रष्टाचार या कालेधन को प्रश्रय देना है, तो फिर मुद्दा चाहे पुराना हो, लेकिन उसके सवाल नये हैं और रास्ता भी नया खोजना जरूरी है। असल में यह समझ आंदोलन के बीच में सत्ताधारी दल से लेकर तमाम राजनीतिक दलों की आपसी एकजुटता से भी निकली और आंदोलन से टकराव ने भी इन सवालों को जन्म दिया। खासकर सिविल सोसायटी ने जन- लोकपाल कानून के जरिये जिस तरह कानून पर टिके संसदीय लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाया।
लोकतंत्र का नारा लगाते संसदीय दलों को भी समझ नही आया कि जो काम संसद को करना है अगर उसका मसौदा संसद के बाहर तय होने लगे, उस पर बहस बिना राजनीतिक दलों की शिरकत के होने लगे, अगर सडक पर संसद के तौर-तरीको को लेकर आम आदमी संघर्ष की शक्ल में अपनी सहमति सिविल सोसायटी को लेकर देने लगे, तो फिर चुनावी लोकतंत्र पर देश ठहाके नहीं लगायेगा तो और क्या करेगा। और अगर ऐसा होगा तो फिर आंदोलन की बोली भी व्यवस्था परिवर्तन की ऐसी लकीर खिंचने वाली होगी जिसमें यह तयकर पाना वाकई मुश्किल होगा कि संघर्ष सिर्फ वयवस्था के तौर-तरीको को बदलने वाला है या फिर सत्ता की नुमाइन्दगी करने के लिये बैचैन राजनीतिक दलों के खिलाफ संघर्ष की मुनादी हो रही है। यानी जो नक्सलवाद से लेकर माओवाद के नारे नक्सलबाडी से लेकर तेलागांना और हाल के दिनों में बस्तर से लेकर नंदीग्राम और लालगढ़ में सुनायी दिये वही अहिंसा की आवाज की शक्ल में दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान और आखिर में राजघाट तक भी सुनायी पड़े। क्योंकि दिल्ली के इन लोकतांत्रिक मंचो को संसदीय लोकतंत्र ने ही खुद को लोकतांत्रिक बताने-ठहराने के लिये बनाया है, तो यहां की आवाज में विरोध के स्वर विद्रोह के नहीं लगते है। और इससे पहले इसी का जश्न संसदीय सत्ता मनाती आयी है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भी भरती रही है।
लेकिन पहली बार अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने उन्हीं प्रतीकों को जड़ से पकड़ा। कहा यह भी जा सकता है कि खेल - खेल में संसदीय लोकतंत्र के यह प्रतीक पकड़ में आ गये। रामदेव का मतलब चूंकि रामलीला मैदान रहा और रामलीला मैदान जेपी से लेकर वीपी तक के संघर्ष की मुनादी स्थल रहा है। संघ परिवार की दस्तक खुले तौर पर नजर आने के बाद संसदीय सत्ता रामलीला मैदान के जरिये संघ परिवार के भगवापन को रामदेव के बाबापन से जोड़कर अपने उपर उठने वाली अंगुली को सियासी दांव तले दबा सकती है। चूंकि बाबा रामदेव की रामलीला का जुड़ाव भी आस्था और भगवा रहस्य में ज्यादा खोया रहा, इसलिये इस संघर्ष को राजनीतिक तीर बनाने में सफलता कितनी किस रूप में मिलती यह तो दूर की गोटी है।
लेकिन रामलीला मैदान में संसदीय राजनीतिक दलों की अलोकतांत्रिक भूमिका को लेकर जो सवाल बाबा रामदेव ने उठाये और जिस तरह व्यवस्था परिवर्तन की बात कहते हुये सत्ता के तौर-तरीकों पर परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर निशाना साधा। कैबिनेट, रामदेव मंत्रियों से रामदेव की हुई बातचीत को भी कितना जनविरोधी करार करने के लिये दबाव बना रही है, इसे सार्वजनिक मंच पर जिस तेवर से कहा, उसमें यह सवाल कोई भी पूछ सकता है कि अगर यह तेवर कोई माओवादी दिखाता तो वह राष्ट्रविरोधी करार दिया जा सकता था। वही अन्ना हजारे की जंतर-मंतर की सभा हो या राजघाट की, दोनों जगहों पर ना सिर्फ मंच से बल्कि सार्वजनिक तौर अलग-अलग सामाजिक संगठनो से लेकर निजी पहल करते आम शहरी मध्यम वर्ग ने प्ले-कार्ड से लेकर नारों की शक्ल में जो-जो कहा, अगर उस पर गौर करें तो नंदीग्राम से लेकर बस्तर तक में जो आवाज सत्ता के खिलाफ जिन शब्दों को लेकर उठती है, उससे कहीं ज्यादा तल्खी इनकी आवाजों में थी। शब्दों में थी। खासकर विकास का जो खांचा 1991 के बाद से देश में आर्थिक सुधार के नाम पर अपनाया जा रहा है, उसका चेहरा ही भ्रष्ट है तो फिर भ्रष्टाचार पर नकेल कैसे कसी जा सकती है।
यह सवाल भी सिविल सोसायटी ने उठाया। और इस दौर में माओवाद के राजनीतिक घोषणा पत्र में जब समूची विकास प्रक्रिया को ही चंद हथेलियों में पूंजी समेटने वाला करार दिया है, उसी भाषा में भ्रष्टाचार पर फंदा भी अन्ना हजारे ने कसे। इतना ही नही, किसानों,आदिवासियों के जिन मुद्दों को लेकर नंदीग्राम में आग सुलगी और वामपंथियों को कटघरे में खड़ा किया गया उसी तरह सिविल-सोसायटी ने भी जनलोकपाल की बैठकों में सरकार पर यह कहकर नकेल कसी कि इसके दायरे में किसी को भी बख्शने का मतलब होगा भ्रष्टाचार करने का लाईसेंस देना। वामपंथियों ने सत्ता पर रहते हुये ममता बनर्जी पर यही सवाल उठाये थे कि जब जनता ने उन्हें चुना है तो वह जनता के खिलाफ कैसे जा सकते हैं और फैसला भी जनता को ही करना होगा।
जाहिर है बंगाल में वामपंथियों के विकल्प के लिये ममता उसी रास्ते पर खड़ी थी जिसे वामपंथियो ने चुना था। संसदीय चुनाव का रास्ता। और बंगाल में तो कानून के लिये राष्ट्रविरोधी माओवादी भी चुनाव के जरिये परिवर्तन के पक्ष में थे। लेकिन दिल्ली में सिविल सोसायटी ने तो अल्ट्रा लेफ्ट या कहे माओवादियों से भी आगे के सवाल सरकार के साथ एक ही टेबल पर बैठ कर उठा दिये। असल में पहली बार सबसे बड़ा सवाल देश के लिये यही खड़ा हो रहा है कि क्या संसदीय राजनीति अपनी भूमिका निभा चुका है। क्या संसदीय राजनीति के सरोकार आम आदमी से पूरी तरह खत्म हो चुके है। क्या समूची चुनावी प्रक्रिया को देश का शहरी वर्ग धोखा मान चुका है। यह सारे सवाल इसलिये जरूरी हैं क्योंकि सिविल सोसायटी के उठाये सवाल इससे पहले नक्सली या माओवादी भी नहीं कह पाये।
उन्होंने व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर सत्ता परिवर्तन की बात कही। लेकिन अन्ना हजारे के सवाल तो सीधे प्रधानमंत्री और देश के मुख्य न्यायाधीश को भी यह कहते हुये कटघरे में खडा कर रहे हैं कि अगर यह जन लोकपाल के दायरे में नहीं आये तो भ्रष्टाचार करने के इन्हे ही मंच बना लिया जायेगा। यानी सरकार को जिस मंत्रालय में बड़ा घोटाला करना है वह मंत्रालय प्रधानमंत्री अपने पास रखेंगे। इसी तरह चीफ जस्टिस आफ इंडिया के फैसलों के जरिये सरकार अपनी सहूलियत के अनुसार कानून बनाने या कानून बिगाड़ने से नहीं हिचकेगी। क्या यह बात कहकर माओवादी इससे बच सकता है कि सरकार उसे राष्ट्रविरोधी ना करार दे।
जाहिर है माओवाद का मतलब हिंसा है। और अन्ना हजारे राजघाट पर बैठकर गांधी और भगत सिंह का ऐसा मिश्रण बना रहे हैं, जिसके घेरे में संसदीय राजनीति के शुद्धीकरण का सवाल उठेगा ही। और कानूनी तौर पर सरकार के सामने इन्हें रोकने के लिये आपातकाल सरीखा वातावरण बनाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता बचता नहीं है। जिसे सरकार ला नहीं सकती है। लेकिन, इन्हें रोक भी नहीं सकती है। तो क्या यह माना जा सकता है कि जिस मध्यवर्ग को माओवादी या अल्ट्रा-लेफ्ट शहरी बुर्जुआ कहकर खारिज करता रहा है, नयी परिस्थितियों में यही शहरी मध्यवर्ग अब सत्ता में अपने हक को उसी तरह खोज रहा है जैसे किसान, मजदूर, आदिवासियों के हक की बात नक्सलवादी से लेकर माओवादी करते रहे हैं। और किसी अल्ट्रा-लेफ्ट संगठन के महासचिव की जगह गांधी टोपी पहले अन्ना हजारे आंदोलन के एक नये प्रतीक बन गये हैं। जिससे टकराया कैसे जाये या संसदीय सत्ता किस तरह इन्हें खारिज करें यह रास्ता फिलहाल ना तो सरकार के पास है ना ही संसदीय राजनीति के पास।
लेकिन, 1948 के किसान आंदोलन से लेकर नक्सलबाड़ी होते हुये तेलागंना, बस्तर और नंदीग्राम में जो लकीर खिंची उसी सोच को राष्ट्रीय पटल पर सामूहिकता का बोध लिये सामाजिक आंदोलन की नयी जमीन पहली बार बदलने का संकेत भी दे रही है और बदलते संकेत में संसदीय सत्ता को भी चेता रही है कि कोई रास्ता उसने नहीं निकाला गया, तो देश में आंदोलन सत्ता की धारा बदल भी सकते है। यह संकेत अभी सांकेतिक हैं, लेकिन कल बदलाव की लकीर भी खिंच सकती है और इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
Thursday, June 9, 2011
सत्ता-सत्याग्रह की बिसात पर देश
क्या देश में पहली बार संसदीय राजनीति चूक रही है। क्या पहली बार सामाजिक आंदोलन की पीठ पर सवार होकर संसदीय राजनीति अपनी महत्ता तलाश रही है। क्या प्रधानमंत्री महत्ता बनाने के रास्ते टटोल रहे हैं। क्या विपक्ष को इन्हीं आंदोलनो से सत्ता की खुशबू आने लगी है। क्या संसदीय सियासत और राजनेताओ से लोगो का भरोसा उठने लगा है।
अगर सरकार के निर्देश के बाद जंतर मंतर की जगह राजघाट का रास्ता पकड़ें और अन्ना हजारे के साथ खड़े लोगों को देखें तो यकीनन यह सवाल बड़ा होता दिखायी देता है कि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था कहीं खतरे में तो नहीं है। राजघाट पर अन्ना के साथ खड़े शहरी मध्यम वर्ग और उसमें पढे-लिखे युवा वर्ग के छौंक ने पहली बार यह सवाल खड़े किये कि क्या सरकार थानेदार की भूमिका में आ चुकी है। जहां वह सिविल सोसायटी से तो सवाल पूछती है कि रैली के लिये उसके पास कहां से पैसा आया, कहां खर्च किया। लेकिन अपने जमा-खाते पर खामोश रहती है।
क्या इस दौर में ईमानदारी इतनी महंगी हो चुकी है कि अन्ना का फक्कड होना और बाबा रामदेव में साधु तत्व ही ईमानदार आंदोलन के प्रतीक बन गये हैं। जाहिर है यह सारे ऐसे सवाल हैं, जिसने इस दौर में कांग्रेस से लेकर बीजेपी और सामाजिक संगठनो से लेकर सुप्रीम कोर्ट हीं नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज तक को ऐसी हरकत में ला खड़ा किया, जहां लोकतंत्र भी शर्मसार हो जाये। संयोग से जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने रामलीला मैदान पर पुलिसिया कार्रवाई पर सवालिया निशान लगाया, उसी दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पुलिसिया कार्रवाई को जायज ठहराया और उसी दिन सुषमा स्वराज ने राजघाट पर ठुमके लगाने से परहेज भी नहीं किया। लेकिन देश की आम अवाम के लिये यह तीनों पहल कितना मायने रखती हैं जबकि अन्ना से लेकर बाबा रामदेव के उठाये सवालो का अगर वाकई समाधान निकल जाये तो देश के 120 करोड़ लोग जरुर राहत से सांस ले सकते हैं। हां , बाकि एक करोड़ के लिये जरुर मुश्किल वक्त की शुरुआत हो सकती है। तो क्या देश एक करोड़ लोगों के लिये ऐसे रास्ते पर आ खड़ा हुआ है, जहां आजादी के 64 बरस बाद लोकतंत्र का हर स्तम्भ दागदार हो गया है। संविधान महज एक दस्तावेजी सच बनकर रह गया है। संसदीय प्रणाली में आम आदमी अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस भी नहीं कर पा रहा है। अगर राजनेताओ की फौज से लेकर अलग अलग संस्थानों तले सत्ता संभाले वीवीआईपी समूहो को परखे तो वाकई यह तादाद एक करोड़ लोगों से द्या नहीं होगी । जबकि भ्र्रष्टाचार से लेकर कालेधन के मुद्दे पर अन्ना से लेकर बाबा रामदेव से जुडे देश भर के लोगों के समूहों को देखें तो कोई भी ना तो सत्ता का प्रतीक लगा और ना ही लोकतंत्र के संवैधानिक पहरुओं की कतार का नजर आया । तो क्या इस देश में नया संघर्ष सत्ता का नहीं व्यवस्था परिवर्तन का है। और जिसमें वह शब्द छोटे पड़ रहे हैं जिन्हें आजादी के बाद सत्ता संभालने वालो ने गढ़ा।
हो सकता है यह ना भी हो। लेकिन इस दौर में जो नजर आ रहा है उसके पीछे कौन सी हकीकत ऐस परिस्थितियों की गवाह है, इसे जानना जरुरी है। आंदोलन की पीठ पर सवाल राजनीतिक दलो को सत्ता मिलेगी या नहीं या फिर आंदोलन ही वक्त बीतने के साथ राजनीतिक आवरण ओढ़ लेंगे,, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता की ऐसी हैसियत क्यों नहीं है, उसके उठाए मुद्दो पर भरोसा कर देश में सहमति बन जाये। संसद में भ्र्रष्टाचार का भी मुद्दा उठ चुका है और कालेधन का भी। लेकिन संसद के गलियारे के बाहर सिर्फ मीडिया ने ही उसे तरजीह दी। और एक वक्त के बाद वह भी बंद कर दिया। यानी संसद के गलियारे में गूंजते मुद्दों का असर आम जनता पर जूं रेगने से भी कम हुआ। तो क्या लोगो का भरोसा संसद पर नहीं रहा या राजनेताओ ने अपनी जरुरत तले संसद की महत्ता को भी अपने मुनाफे तले दबा दिया। माना कुछ भी जा सकता है लेकिन इस वक्त संसद के भीतर 90 से ज्यादा सांसद ऐसे है जिनके खिलाफ भ्र्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं। इसी संसद में देश के 180 से ज्यादा सांसदो के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। पढ़-लिखकर नवाब बनने की चाह में बने देश के 375 से ज्यादा आईएएस अधिकारियो के खिलाफ भ्र्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं। 425 से ज्यादा आईपीएस अधिकारियो के खिलाफ भ्रष्टाचार और आपराधिक मामले दर्ज हैं। दर्जन भर ज्यादा जजो पर इस दौर में भ्र्रष्टाचार के आरोप लगे । यह फेरहिस्त हर संसथान को लेकर खींची जा सकती है। और इसका एक बेहतरीन प्रतीक दिल्ली का तिहाड जेल है। जहां राजनीति,नौकरशाही और कारपोरेट का वीवीआईपी काकटेल भ्र्रष्टाचार के आरोप में बंद है ।
बड़ा सवाल यहीं से शुरु होता है कि देश को जिनके भरोसे छोड़ा गया है या फिर देश के लिये जिन संस्थानों को गूथ कर एक समूची व्यवस्था बनायी गयी अगर वही अंदर से खोखला हो चुका है तो फिर रास्ता क्या है। बाबा रामदेव के रामलीला मैदान के पंडाल में ग्रामीण भारत की महक थी। और जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के सत्याग्रह में शहरी मध्य वर्ग की खुशबू थी। बाबा की भीड में बाबा पर भरोसा था तो अन्ना के साथ जुटे समूह में सरकार या सत्ता पर कानून की नकेल कसने का सवाल था। बाबा के सवाल उस ग्रामीण मानसिकता में हिलोरे पैदा कर रहे थे जिसके लिये सरकार-सत्ता का कोई मतलब नहीं है। उसके लिये राष्ट्रवाद तले सबकुछ न्योछावर करना ही पुण्य है। वहीं अन्ना हजारे के साथ खडा तबका बेईमान सत्ताधारियो से गुस्से में था। उसी अपनी शिक्षा का सही मूल्य भी चाहिये और इमानदार व्यवस्था भी। वह राजनीतिक व्यवस्था तले लोकतंत्र के नारों से परेशान है। यानी बाबा रामदेव जहां बिना रास्ता निकाले समाज के भीतर आक्रोश के सैलाब को एक मंच पर लाना चाहते हैं, वही अन्ना हजारे उसी आक्रोष के लिये एक रास्ता निकालने पर भिड़े हैं। लेकिन दोनो के हाथ खाली हैं, क्योंकि दोनो की सीमा जहां खत्म होती है, उसी जगह से संसदीय सत्ता शुरु होती है। और इस सत्ता का मतलब कांग्रेस या बीजेपी सरीखे राजनीतिक दल भी है और सत्ता के लिये हिचकोले खाते मुलायम,, मायावती, ममता बनर्जी या शरद पवार सरीखे नेता भी है। जिन्हे पता है कि मुद्दे ना सिर्फ सियासत डगमगा सकते है बल्कि सियासी समझ को भी बदल सकते है और उनकी जरुरत पर भी सवालिया निशान लगा सकते है। लेकिन मुद्दो को ही अगर राजनीतिक रंग में रंग दिया जाये तो फिर मुद्दे बिना सियासी चाल के आगे बढ़ नहीं सकते। इसलिये चंद हथेलियो का कालाधन देश में लाना जरुरी है या बाबा रामदेव के पीछे संघ परिवार है, इसे समझना जरुरी है। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये जन-लोकपाल कानून बना कर उसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर जजो को लाना जरुरी है या फिर अन्ना हजारे के रिश्ते बीजेपी या आरएसएस से है इसका पता लगाना जरुरी है। भ्र्रष्टाचार से लेकर महंगाई में डूबे देश को इनसे निजात दिलाने की जरुरत है या फिर मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में मुश्किल क्यो आयी और यही मुद्दे यूपीए-एक के वक्त क्यो नहीं उभरे, इसका आकलन जरुरी है। बाबा रामदेव से सरकार के चार मंत्री क्यों मिलने गये और फिर उसी सरकार ने रामदेव अण्णा टकराव लेकर आंदोलन को तहस-नहस कर दिया यह समझन जरुरी है या फिर मनमोहन सिंह के नये ट्रबल -शूटर वकीलो की तिकडी कपिल सिब्बल, पी चिदबंरम और पवन बंसल काग्रेस के पुराने ट्रबल शूटर गुलाम नबी आजाद, कमलनाथ,अंबिका सोनी पर भारी क्यों पड रहे हैं, इसे समझना जरुरी है।
सोनिया गांधी क्यों सरकार से इतर अपनी एक आम-लोगों के साथ खड़ी छवि बरकरार रखने में लगी है या फिर विपक्ष में सुषमा-जेटली के झगडे में बार-बार चूके आडवाणी से इतर कोई नेता कुछ दिखायी क्यों नही दिखायी देता है। क्या संघ परिवार जेपी आंदोलन के 37 बरस बाद अन्ना या रामदेव तले अपनी बिसात बिछाकर बीजेपी को ही हाशिये पर ढकेलने की तैयारी में है। यह सारे सवाल देश की आम आवाम के लिये कितने मौजूं हैं, यह सोचना उतना ही रोमानीपन है, जितना यह समझना कि आंदोलन से उठे मुद्दों पर आखिरकार वही राजनीति सक्रिय होगी और वही सरकार कानून बनायेगी, जिसकी जरुरतो ने यह मुद्दे पैदा किये।
जाहिर है यह सोच का टकराव भी है और आम लोगों के सामने सवाल भी है कि कैसे सरकार प्रधानमंत्री, सांसदों या नौकरशाहो को उसी लोकपाल के घेरे में लाने को तैयार हो जायेगी जिसपर उनका बस ना चले। और कैसे संसदीय व्यवस्था अपनी भ्रष्ट ताकत को बांधने के लिये कानून बनाने पर राजी हो जायेगी। अगर यह संभव नहीं है तो फिर आंदोलनों की महत्ता है क्या और अगर यह संभव है तो रामलीला मैदान पर सोये आम मासूमों से सरकार डरकर क्यों हिंसक हो गयी। फिर कानून के रास्ते भ्र्रष्टाचार रोकने की अन्ना की नयी पहल अगर सरकार की नीयत पर रामदेव को लेकर सवाल खडा करती है तो फिर सरकार भी अन्ना की तर्ज पर ही बिना सिविल सोसायटी के लोकपाल बिल ड्राफ्ट करने की धमकी क्यों देती है। यानी देश के सामने अब बड़ी चुनौती राजनीतिक सौदेबाजी को खत्म करना है। या फिर जनवादी मुद्दो से लेकर जन-आंदोलन तक को कानूनी और राजनीतिक मान्यता दिलाना है । इसके तरीके क्या होंगे और व्यवस्था का खांका कौन खींचेगा या फिर अन्ना या रामदेव से कोई नयी लकीर भी निकलेगी जो सियासी समझ को भी बदलेगी या साठ बरस की संसदीय राजनीति ने जो पूंजी बनायी है, उसको बचाने के लिये कही ज्यादा तीखे स्तर पर रामलीला मैदान सरीखा महाभारत देश में कई जगहों पर खेला जायेगा। यह तो इतिहास के गर्भ में है लेकिन इस दौर में इकसे संकेत मिलने लगे है कि सत्ता के लिये विपक्ष अपनी राजनीति को आंदोलन की शक्ल भी देगा और एक वक्त के बाद संसदीय चुनावी राजनीति करने वाली सभी पार्टियों को एक मंच पर भी लायेगा और पहली बार हर आंदोलन के अक्स में संसदीय प्रणाली को टक्कर देती परिस्थितियां भी उभरेगी। यह समूचे समाज को अपने हद में इसलिये लेंगी क्योंकि पहली बार संघर्ष में सरोकार की खुशबू है जबकि सत्ता सरोकार को छोड़ हिंसक हो रही है।
अगर सरकार के निर्देश के बाद जंतर मंतर की जगह राजघाट का रास्ता पकड़ें और अन्ना हजारे के साथ खड़े लोगों को देखें तो यकीनन यह सवाल बड़ा होता दिखायी देता है कि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था कहीं खतरे में तो नहीं है। राजघाट पर अन्ना के साथ खड़े शहरी मध्यम वर्ग और उसमें पढे-लिखे युवा वर्ग के छौंक ने पहली बार यह सवाल खड़े किये कि क्या सरकार थानेदार की भूमिका में आ चुकी है। जहां वह सिविल सोसायटी से तो सवाल पूछती है कि रैली के लिये उसके पास कहां से पैसा आया, कहां खर्च किया। लेकिन अपने जमा-खाते पर खामोश रहती है।
क्या इस दौर में ईमानदारी इतनी महंगी हो चुकी है कि अन्ना का फक्कड होना और बाबा रामदेव में साधु तत्व ही ईमानदार आंदोलन के प्रतीक बन गये हैं। जाहिर है यह सारे ऐसे सवाल हैं, जिसने इस दौर में कांग्रेस से लेकर बीजेपी और सामाजिक संगठनो से लेकर सुप्रीम कोर्ट हीं नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज तक को ऐसी हरकत में ला खड़ा किया, जहां लोकतंत्र भी शर्मसार हो जाये। संयोग से जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने रामलीला मैदान पर पुलिसिया कार्रवाई पर सवालिया निशान लगाया, उसी दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पुलिसिया कार्रवाई को जायज ठहराया और उसी दिन सुषमा स्वराज ने राजघाट पर ठुमके लगाने से परहेज भी नहीं किया। लेकिन देश की आम अवाम के लिये यह तीनों पहल कितना मायने रखती हैं जबकि अन्ना से लेकर बाबा रामदेव के उठाये सवालो का अगर वाकई समाधान निकल जाये तो देश के 120 करोड़ लोग जरुर राहत से सांस ले सकते हैं। हां , बाकि एक करोड़ के लिये जरुर मुश्किल वक्त की शुरुआत हो सकती है। तो क्या देश एक करोड़ लोगों के लिये ऐसे रास्ते पर आ खड़ा हुआ है, जहां आजादी के 64 बरस बाद लोकतंत्र का हर स्तम्भ दागदार हो गया है। संविधान महज एक दस्तावेजी सच बनकर रह गया है। संसदीय प्रणाली में आम आदमी अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस भी नहीं कर पा रहा है। अगर राजनेताओ की फौज से लेकर अलग अलग संस्थानों तले सत्ता संभाले वीवीआईपी समूहो को परखे तो वाकई यह तादाद एक करोड़ लोगों से द्या नहीं होगी । जबकि भ्र्रष्टाचार से लेकर कालेधन के मुद्दे पर अन्ना से लेकर बाबा रामदेव से जुडे देश भर के लोगों के समूहों को देखें तो कोई भी ना तो सत्ता का प्रतीक लगा और ना ही लोकतंत्र के संवैधानिक पहरुओं की कतार का नजर आया । तो क्या इस देश में नया संघर्ष सत्ता का नहीं व्यवस्था परिवर्तन का है। और जिसमें वह शब्द छोटे पड़ रहे हैं जिन्हें आजादी के बाद सत्ता संभालने वालो ने गढ़ा।
हो सकता है यह ना भी हो। लेकिन इस दौर में जो नजर आ रहा है उसके पीछे कौन सी हकीकत ऐस परिस्थितियों की गवाह है, इसे जानना जरुरी है। आंदोलन की पीठ पर सवाल राजनीतिक दलो को सत्ता मिलेगी या नहीं या फिर आंदोलन ही वक्त बीतने के साथ राजनीतिक आवरण ओढ़ लेंगे,, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता की ऐसी हैसियत क्यों नहीं है, उसके उठाए मुद्दो पर भरोसा कर देश में सहमति बन जाये। संसद में भ्र्रष्टाचार का भी मुद्दा उठ चुका है और कालेधन का भी। लेकिन संसद के गलियारे के बाहर सिर्फ मीडिया ने ही उसे तरजीह दी। और एक वक्त के बाद वह भी बंद कर दिया। यानी संसद के गलियारे में गूंजते मुद्दों का असर आम जनता पर जूं रेगने से भी कम हुआ। तो क्या लोगो का भरोसा संसद पर नहीं रहा या राजनेताओ ने अपनी जरुरत तले संसद की महत्ता को भी अपने मुनाफे तले दबा दिया। माना कुछ भी जा सकता है लेकिन इस वक्त संसद के भीतर 90 से ज्यादा सांसद ऐसे है जिनके खिलाफ भ्र्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं। इसी संसद में देश के 180 से ज्यादा सांसदो के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। पढ़-लिखकर नवाब बनने की चाह में बने देश के 375 से ज्यादा आईएएस अधिकारियो के खिलाफ भ्र्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं। 425 से ज्यादा आईपीएस अधिकारियो के खिलाफ भ्रष्टाचार और आपराधिक मामले दर्ज हैं। दर्जन भर ज्यादा जजो पर इस दौर में भ्र्रष्टाचार के आरोप लगे । यह फेरहिस्त हर संसथान को लेकर खींची जा सकती है। और इसका एक बेहतरीन प्रतीक दिल्ली का तिहाड जेल है। जहां राजनीति,नौकरशाही और कारपोरेट का वीवीआईपी काकटेल भ्र्रष्टाचार के आरोप में बंद है ।
बड़ा सवाल यहीं से शुरु होता है कि देश को जिनके भरोसे छोड़ा गया है या फिर देश के लिये जिन संस्थानों को गूथ कर एक समूची व्यवस्था बनायी गयी अगर वही अंदर से खोखला हो चुका है तो फिर रास्ता क्या है। बाबा रामदेव के रामलीला मैदान के पंडाल में ग्रामीण भारत की महक थी। और जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के सत्याग्रह में शहरी मध्य वर्ग की खुशबू थी। बाबा की भीड में बाबा पर भरोसा था तो अन्ना के साथ जुटे समूह में सरकार या सत्ता पर कानून की नकेल कसने का सवाल था। बाबा के सवाल उस ग्रामीण मानसिकता में हिलोरे पैदा कर रहे थे जिसके लिये सरकार-सत्ता का कोई मतलब नहीं है। उसके लिये राष्ट्रवाद तले सबकुछ न्योछावर करना ही पुण्य है। वहीं अन्ना हजारे के साथ खडा तबका बेईमान सत्ताधारियो से गुस्से में था। उसी अपनी शिक्षा का सही मूल्य भी चाहिये और इमानदार व्यवस्था भी। वह राजनीतिक व्यवस्था तले लोकतंत्र के नारों से परेशान है। यानी बाबा रामदेव जहां बिना रास्ता निकाले समाज के भीतर आक्रोश के सैलाब को एक मंच पर लाना चाहते हैं, वही अन्ना हजारे उसी आक्रोष के लिये एक रास्ता निकालने पर भिड़े हैं। लेकिन दोनो के हाथ खाली हैं, क्योंकि दोनो की सीमा जहां खत्म होती है, उसी जगह से संसदीय सत्ता शुरु होती है। और इस सत्ता का मतलब कांग्रेस या बीजेपी सरीखे राजनीतिक दल भी है और सत्ता के लिये हिचकोले खाते मुलायम,, मायावती, ममता बनर्जी या शरद पवार सरीखे नेता भी है। जिन्हे पता है कि मुद्दे ना सिर्फ सियासत डगमगा सकते है बल्कि सियासी समझ को भी बदल सकते है और उनकी जरुरत पर भी सवालिया निशान लगा सकते है। लेकिन मुद्दो को ही अगर राजनीतिक रंग में रंग दिया जाये तो फिर मुद्दे बिना सियासी चाल के आगे बढ़ नहीं सकते। इसलिये चंद हथेलियो का कालाधन देश में लाना जरुरी है या बाबा रामदेव के पीछे संघ परिवार है, इसे समझना जरुरी है। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये जन-लोकपाल कानून बना कर उसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर जजो को लाना जरुरी है या फिर अन्ना हजारे के रिश्ते बीजेपी या आरएसएस से है इसका पता लगाना जरुरी है। भ्र्रष्टाचार से लेकर महंगाई में डूबे देश को इनसे निजात दिलाने की जरुरत है या फिर मनमोहन सिंह की दूसरी पारी में मुश्किल क्यो आयी और यही मुद्दे यूपीए-एक के वक्त क्यो नहीं उभरे, इसका आकलन जरुरी है। बाबा रामदेव से सरकार के चार मंत्री क्यों मिलने गये और फिर उसी सरकार ने रामदेव अण्णा टकराव लेकर आंदोलन को तहस-नहस कर दिया यह समझन जरुरी है या फिर मनमोहन सिंह के नये ट्रबल -शूटर वकीलो की तिकडी कपिल सिब्बल, पी चिदबंरम और पवन बंसल काग्रेस के पुराने ट्रबल शूटर गुलाम नबी आजाद, कमलनाथ,अंबिका सोनी पर भारी क्यों पड रहे हैं, इसे समझना जरुरी है।
सोनिया गांधी क्यों सरकार से इतर अपनी एक आम-लोगों के साथ खड़ी छवि बरकरार रखने में लगी है या फिर विपक्ष में सुषमा-जेटली के झगडे में बार-बार चूके आडवाणी से इतर कोई नेता कुछ दिखायी क्यों नही दिखायी देता है। क्या संघ परिवार जेपी आंदोलन के 37 बरस बाद अन्ना या रामदेव तले अपनी बिसात बिछाकर बीजेपी को ही हाशिये पर ढकेलने की तैयारी में है। यह सारे सवाल देश की आम आवाम के लिये कितने मौजूं हैं, यह सोचना उतना ही रोमानीपन है, जितना यह समझना कि आंदोलन से उठे मुद्दों पर आखिरकार वही राजनीति सक्रिय होगी और वही सरकार कानून बनायेगी, जिसकी जरुरतो ने यह मुद्दे पैदा किये।
जाहिर है यह सोच का टकराव भी है और आम लोगों के सामने सवाल भी है कि कैसे सरकार प्रधानमंत्री, सांसदों या नौकरशाहो को उसी लोकपाल के घेरे में लाने को तैयार हो जायेगी जिसपर उनका बस ना चले। और कैसे संसदीय व्यवस्था अपनी भ्रष्ट ताकत को बांधने के लिये कानून बनाने पर राजी हो जायेगी। अगर यह संभव नहीं है तो फिर आंदोलनों की महत्ता है क्या और अगर यह संभव है तो रामलीला मैदान पर सोये आम मासूमों से सरकार डरकर क्यों हिंसक हो गयी। फिर कानून के रास्ते भ्र्रष्टाचार रोकने की अन्ना की नयी पहल अगर सरकार की नीयत पर रामदेव को लेकर सवाल खडा करती है तो फिर सरकार भी अन्ना की तर्ज पर ही बिना सिविल सोसायटी के लोकपाल बिल ड्राफ्ट करने की धमकी क्यों देती है। यानी देश के सामने अब बड़ी चुनौती राजनीतिक सौदेबाजी को खत्म करना है। या फिर जनवादी मुद्दो से लेकर जन-आंदोलन तक को कानूनी और राजनीतिक मान्यता दिलाना है । इसके तरीके क्या होंगे और व्यवस्था का खांका कौन खींचेगा या फिर अन्ना या रामदेव से कोई नयी लकीर भी निकलेगी जो सियासी समझ को भी बदलेगी या साठ बरस की संसदीय राजनीति ने जो पूंजी बनायी है, उसको बचाने के लिये कही ज्यादा तीखे स्तर पर रामलीला मैदान सरीखा महाभारत देश में कई जगहों पर खेला जायेगा। यह तो इतिहास के गर्भ में है लेकिन इस दौर में इकसे संकेत मिलने लगे है कि सत्ता के लिये विपक्ष अपनी राजनीति को आंदोलन की शक्ल भी देगा और एक वक्त के बाद संसदीय चुनावी राजनीति करने वाली सभी पार्टियों को एक मंच पर भी लायेगा और पहली बार हर आंदोलन के अक्स में संसदीय प्रणाली को टक्कर देती परिस्थितियां भी उभरेगी। यह समूचे समाज को अपने हद में इसलिये लेंगी क्योंकि पहली बार संघर्ष में सरोकार की खुशबू है जबकि सत्ता सरोकार को छोड़ हिंसक हो रही है।
Thursday, June 2, 2011
क्या भाजपा को दफन करने की तैयारी में है संघ
क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कही गुम हो गया है। क्या संघ परिवार के भीतर आतंकवादी हिंसा के दाग का दर्द है। क्या आरएसएस अयोध्या पर जा रुके हिन्दुत्व को नये तरीके से परिभाषित करना चाहता है। क्या स्वयंसेवक अब भाजपा के पीछे चलने को तैयार नहीं है। क्या संघ कोई नयी व्यूह रचना में लगा है। चाहे यह सारे सवाल हों, लेकिन संघ परिवार के भीतर यही सवाल ऑक्सीजन का काम कर रहे हैं। क्योंकि पहली बार आरएसएस यह मान रहा है कि बिछी हुई बिसात में ना तो भाजपा सियासी फन काढ़ सकती है और ना ही संघ सामाजिक तौर पर अपनी ताकत बढ़ा सकता है। और अगर वह फेल है तो पास होने के लिये उसे नये सिरे से नयी परिस्थितियां खड़ी करनी होंगी। इस सवाल ने संघ ने कुछ ऐसे निर्णयों पर सोचने का मन भी बनाया है जिन पर अभी तक रास्ता निकालने की जद्दोजहद ही समायी रहती थी। यानी जहां फेल हो रहे हैं उसके कारण खोजे जायें। उन्हें ठीक किया जाये। क्योंकि अखिरकार सभी को साथ लेकर ही तो चलना है। यह सोच पहली बार बदल रही है। राजनीति का रास्ता भाजपा तभी तय करती जब आरएसएस सामाजिक लकीर खींच देता है। लेकिन, संघ लकीर ना खींचे तो पाकिस्तान से लेकर महंगाई तक और किसान से लेकर भ्रष्टाचार तक के मुद्दों पर भाजपा कहीं नजर नहीं आती है। ऐसे में राजनीति में हाथ जलाये बगैर कौन सा प्रयोग संघ को सामाजिक तौर पर मान्यता दिलाते हुये सियासत पलट सकता है।
1974 के बाद पहली बार संघ में इस बात पर कुलबुलाहट शुरू हुई है। पहली सहमति है कि तरीका सियासी या भाजपा के कांधे पर सवार होकर नहीं चलेगा। दूसरी सहमति है कि संघ परिवार के सभी संगठन अपने अपने दायरे को बड़ा करते हुये अगर आदिवासी, किसान, स्वदेशी अर्थव्यवस्था, लघु उघोग से लेकर छात्र और मजदूरों के सवालों को ही उंठाये, तो नयी बिसात बिछाने में कोई परेशानी हो नही सकती। यानी किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ, लघु उद्योग भारती समेत चालीस से ज्यादा क्षेत्रों में कार्यरत संघ के स्वयंसेवक बीते सात बरस में रुक गये हैं। सात बरस पहले संघ साप्तहिक या मासिक तौर पर देश भर में 5827 स्थानो पर बैठक किया करता था। लेकिन, उसके बाद से यह घटते-घटते तीन हजार तक आ पहुंचा। वहीं 2004 तक यानी भाजपा की सत्ता रहते हुये भी सत्ता भोग रहे स्वयंसेवक भी विभिन्न संगठनों में शिरकत किया करते थे। लेकिन सत्ता गंवाने के बाद भाजपा और आरएसएस के बीच के तार सिर्फ राजनीतिक मुद्दों को लेकर ही जुड़े। धीरे-धीरे यह संबंध ऐसे बेअसर हो चुके हैं कि संघ की किसी भी पाठशाला में भाजपा नेताओं की मौजूदगी संघियों में गुस्सा पैदा करती है और भाजपा भी संघ को अयोध्या के घेरे से बाहर देख नहीं पाती। इसलिये भाजपा की राजनीतिक बैठकों में संघ के स्वयंसेवकों की मौजूदगी दिल्ली के माडरेट राजनेताओं को दूर कर देती है। इसका पहला असर तो यही हुआ है कि आरएसएस संघ मंडलियां घटकर 5629 तक आ पहुंची हैं, जो 2003 में 7037 हुआ करती थीं। हालांकि देश के भीतर के हालातों ने संघ के महत्व को भी बढ़ाया है और 2700 से ज्यादा प्रचारकों में से करीब साढे पांच सौ प्रचारक जो अलग-अलग संगठनों में लगे हैं उनके काम बढ़े हैं। आम-आदमी से जुड़े जो मुद्दे प्रचारकों की बैठको में उठते हैं उसमें पहली बार यह सवाल भी उठे हैं कि राजनीतिक तौर पर जब भाजपा इन सवालो का सामना करने को तैयार नहीं है या फिर भाजपा सफल नहीं हो पा रही है, तो संघ को भाजपा के पीछे क्यों खड़े होना चाहिये।
भ्रष्टाचार और महंगाई का सवाल भाजपा ने ना सिर्फ उठाया बल्कि उसकी राजनीतिक शुरुआत असम से की। और असम के चुनाव में संघ परिवार भी भाजपा के पीछे खड़ा हुआ। यहां तक कि संघ की शाखायें भी राजनीतिक तौर पर असम में मुद्दों पर चर्चा करने लगीं। लेकिन, भाजपा का हाथ खाली ही रहा। और इस चुनावी हार ने आरएसएस के उत्तर-पूर्वी राज्यों के बोडोलैण्ड से लेकर बांग्लादेशी जैसे मुद्दों को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया। यानी संघ के भीतर नया सवाल यह भी है कि जिन सामाजिक मुद्दों पर संघ ने अपनी पहचान बनायी और जिन मुद्दों पर भाजपा की सियासत में सामाजिक सरोकार के टांके लगे वही सुनहरे टांके अब संघ परिवार को भाजपा की वजह से चुभ रहे हैं। ऐसे ही सवाल किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच के दायरे में भी हैं। इसलिये आरएसएस अब खुद को मथने के लिये तैयार हो रहा है। और मथने के इस दौर में मुद्दों के आसरे जिन स्थितियों को संघ बनाने में जुटा है उसमें सामाजिक-राजनीतिक का ऐसा घोल भी घुल रहा है जो भाजपा के विकल्प की दिशा में बढता कदम भी हो सकता है। अन्ना हजारे के मंच पर संघ की पहल। बाबा रामदेव के साथ खडे गोविन्दाचार्य की अनदेखी कर रामदेव के उठाये मुद्दों पर स्वयंसेवकों को साथ खडा करने की सोच। स्पेक्ट्रम घोटाले के खिलाफ खडे सु्ब्रहमण्यम स्वामी के जरिये संघ के सवालों को धार देने का प्रयास। किसानों की त्रासदी को बिगड़ी अर्थवयवस्था से जोड़ने का प्रयास और महंगाई को समाज में बढ़ती असमानता के अक्स में देखने और दिखाने की जद्दोजेहद।
और इन सारे प्रयासों में आरएसएस कभी भी भाजपा के नेताओं या उनकी राजनीतिक शिरकत के साथ नहीं रही। तो क्या संघ राजनीतिक तौर पर भाजपा की वर्तमान जरुरतों को दूसरे आंदोलन वाले चेहरो के आसरे पूरा कर रही है। या फिर पहले आरएसएस की पारंपरिक परिभाषा को नये कलेवर में रखना चाह रही है। क्योंकि एक तरफ सुब्रहमण्यम स्वामी संकेत देते हैं कि हिन्दुत्व की नयी परिभाषा संघ को गढनी होगी। और सोनिया गांधी का जवाब अब भाजपा के पास नहीं है और अयोध्या में ठिठका हिन्दुत्व भी सोनिया के सेक्यूलरवाद में सेंध नहीं लगा सकता। वहीं स्वदेशी जागरण मंच से गुरुमूर्त्ति संकेत देते है कि मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के भ्रष्टाचार से भाजपा इसलिये नहीं लड़ सकती क्योंकि उसके पास न तो वैकल्पिक इकनॉमी का कोई मॉडल है और ना ही वह खुद भ्रष्टाचार से मुक्त है। जबकि आरएसएस को स्वदेशी मॉडल को बदलना होगा। यही सवाल मजदूर संघ को लेकर भी हैं। क्योंकि मनमोहन सिंह की अर्थवयवस्था में जब ट्रेड यूनियन ही मायने नही रख पा रही है और बाजार अर्थव्यवस्था पर नकेल कसने का सवाल खडा करने वाली वाम सत्ता को भी जब जनता ने ध्वस्त कर दिया तो फिर आरएसएस की संख्या किसी भी राजनीति पार्टी को कितना लाभ पहुंचा सकती है। अब यह भाजपा भी जान रही है और संघ भी। इसलिये संघ के सामने नया सवाल यही है कि संघ के मुद्दे जब तक राजनीति के केन्द्र में ना आयेंगे तबक आरएसएस के सवाल भाजपा के पीछे ही चलेगे और भाजपा कांग्रेस की कार्बन कापी ही नजर आयेगी। इसलिये आरएसएस के भीतर नयी वैचारिक उठा-पटक उन मुद्दों के आसरे अपने संगठनो को खड़ा कर राजनीति की धारा को अपने अनुकूल करने की ही है।
संघ समझ रहा है कि राजनीतिक तौर पर 1974 की तर्ज पर जेपी का कोई राजनीतिक प्रयोग तो संभव नहीं है, लेकिन बाबा रामदेव के आसरे ही सही अगर संघ को जगाया जा सकता है और सरकार को चेताया जा सकता है तो 2014 तक भाजपा के बदले एक नया राजनीतिक संगठन भी खड़ा किया जा सकता है, जो राजनीतिक दल के तौर पर मान्यता पाये और विकल्प भी बने। क्योंकि मनमोहन सरकार से आम आदमी को मोह भंग हो चुका है, लेकिन काग्रेस का विकल्प भाजपा हो इसे लोग स्वीकारने की स्थिति में नहीं हैं। और संघ अब भाजपा को शह देने की स्थिति में भी नहीं है। नयी परिस्तितियों में रामदेव हों या अन्ना हजारे, हर किसी को आंदोलन के लिये जो संगठन चाहिये वह सिर्फ आरएसएस के पास है, और नयी परिस्थितियां पहली बार संघ को उसी दिशा में ले जा रही है जहां रेड्डी बंधुओ पर आपस में भिड़ी भाजपा को दफन किया जा सके और संघ ही एक वैकल्पिक सोच का आईना बने । जहां भविष्य में संघ में किसी मुद्दे को लेकर अयोध्या की तर्ज पर ठहराव ना हो। और नयी पीढी यानी युवा तबका संघ को पारंपरिक ना मान कर भारतीय सामाजिक परिस्थितियों को वैज्ञानिक तरीके से अपने अनुकुल पाये, और संघ की पहल इसी सोच को जोड़ते हुये उन खतरों को उठाते चले जो देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान लगाये हुये हैं। पहला प्रयोग बाबा रामदेव से शुरू होना है इसलिये इंतजार कीजिये। क्योंकि संघ का नया रास्ता इससे भी तय होगा लेकिन संघ जीते या हारे दोनों स्थितियों में भाजपा खतरे में है यह तो तय है।
1974 के बाद पहली बार संघ में इस बात पर कुलबुलाहट शुरू हुई है। पहली सहमति है कि तरीका सियासी या भाजपा के कांधे पर सवार होकर नहीं चलेगा। दूसरी सहमति है कि संघ परिवार के सभी संगठन अपने अपने दायरे को बड़ा करते हुये अगर आदिवासी, किसान, स्वदेशी अर्थव्यवस्था, लघु उघोग से लेकर छात्र और मजदूरों के सवालों को ही उंठाये, तो नयी बिसात बिछाने में कोई परेशानी हो नही सकती। यानी किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ, लघु उद्योग भारती समेत चालीस से ज्यादा क्षेत्रों में कार्यरत संघ के स्वयंसेवक बीते सात बरस में रुक गये हैं। सात बरस पहले संघ साप्तहिक या मासिक तौर पर देश भर में 5827 स्थानो पर बैठक किया करता था। लेकिन, उसके बाद से यह घटते-घटते तीन हजार तक आ पहुंचा। वहीं 2004 तक यानी भाजपा की सत्ता रहते हुये भी सत्ता भोग रहे स्वयंसेवक भी विभिन्न संगठनों में शिरकत किया करते थे। लेकिन सत्ता गंवाने के बाद भाजपा और आरएसएस के बीच के तार सिर्फ राजनीतिक मुद्दों को लेकर ही जुड़े। धीरे-धीरे यह संबंध ऐसे बेअसर हो चुके हैं कि संघ की किसी भी पाठशाला में भाजपा नेताओं की मौजूदगी संघियों में गुस्सा पैदा करती है और भाजपा भी संघ को अयोध्या के घेरे से बाहर देख नहीं पाती। इसलिये भाजपा की राजनीतिक बैठकों में संघ के स्वयंसेवकों की मौजूदगी दिल्ली के माडरेट राजनेताओं को दूर कर देती है। इसका पहला असर तो यही हुआ है कि आरएसएस संघ मंडलियां घटकर 5629 तक आ पहुंची हैं, जो 2003 में 7037 हुआ करती थीं। हालांकि देश के भीतर के हालातों ने संघ के महत्व को भी बढ़ाया है और 2700 से ज्यादा प्रचारकों में से करीब साढे पांच सौ प्रचारक जो अलग-अलग संगठनों में लगे हैं उनके काम बढ़े हैं। आम-आदमी से जुड़े जो मुद्दे प्रचारकों की बैठको में उठते हैं उसमें पहली बार यह सवाल भी उठे हैं कि राजनीतिक तौर पर जब भाजपा इन सवालो का सामना करने को तैयार नहीं है या फिर भाजपा सफल नहीं हो पा रही है, तो संघ को भाजपा के पीछे क्यों खड़े होना चाहिये।
भ्रष्टाचार और महंगाई का सवाल भाजपा ने ना सिर्फ उठाया बल्कि उसकी राजनीतिक शुरुआत असम से की। और असम के चुनाव में संघ परिवार भी भाजपा के पीछे खड़ा हुआ। यहां तक कि संघ की शाखायें भी राजनीतिक तौर पर असम में मुद्दों पर चर्चा करने लगीं। लेकिन, भाजपा का हाथ खाली ही रहा। और इस चुनावी हार ने आरएसएस के उत्तर-पूर्वी राज्यों के बोडोलैण्ड से लेकर बांग्लादेशी जैसे मुद्दों को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया। यानी संघ के भीतर नया सवाल यह भी है कि जिन सामाजिक मुद्दों पर संघ ने अपनी पहचान बनायी और जिन मुद्दों पर भाजपा की सियासत में सामाजिक सरोकार के टांके लगे वही सुनहरे टांके अब संघ परिवार को भाजपा की वजह से चुभ रहे हैं। ऐसे ही सवाल किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच के दायरे में भी हैं। इसलिये आरएसएस अब खुद को मथने के लिये तैयार हो रहा है। और मथने के इस दौर में मुद्दों के आसरे जिन स्थितियों को संघ बनाने में जुटा है उसमें सामाजिक-राजनीतिक का ऐसा घोल भी घुल रहा है जो भाजपा के विकल्प की दिशा में बढता कदम भी हो सकता है। अन्ना हजारे के मंच पर संघ की पहल। बाबा रामदेव के साथ खडे गोविन्दाचार्य की अनदेखी कर रामदेव के उठाये मुद्दों पर स्वयंसेवकों को साथ खडा करने की सोच। स्पेक्ट्रम घोटाले के खिलाफ खडे सु्ब्रहमण्यम स्वामी के जरिये संघ के सवालों को धार देने का प्रयास। किसानों की त्रासदी को बिगड़ी अर्थवयवस्था से जोड़ने का प्रयास और महंगाई को समाज में बढ़ती असमानता के अक्स में देखने और दिखाने की जद्दोजेहद।
और इन सारे प्रयासों में आरएसएस कभी भी भाजपा के नेताओं या उनकी राजनीतिक शिरकत के साथ नहीं रही। तो क्या संघ राजनीतिक तौर पर भाजपा की वर्तमान जरुरतों को दूसरे आंदोलन वाले चेहरो के आसरे पूरा कर रही है। या फिर पहले आरएसएस की पारंपरिक परिभाषा को नये कलेवर में रखना चाह रही है। क्योंकि एक तरफ सुब्रहमण्यम स्वामी संकेत देते हैं कि हिन्दुत्व की नयी परिभाषा संघ को गढनी होगी। और सोनिया गांधी का जवाब अब भाजपा के पास नहीं है और अयोध्या में ठिठका हिन्दुत्व भी सोनिया के सेक्यूलरवाद में सेंध नहीं लगा सकता। वहीं स्वदेशी जागरण मंच से गुरुमूर्त्ति संकेत देते है कि मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के भ्रष्टाचार से भाजपा इसलिये नहीं लड़ सकती क्योंकि उसके पास न तो वैकल्पिक इकनॉमी का कोई मॉडल है और ना ही वह खुद भ्रष्टाचार से मुक्त है। जबकि आरएसएस को स्वदेशी मॉडल को बदलना होगा। यही सवाल मजदूर संघ को लेकर भी हैं। क्योंकि मनमोहन सिंह की अर्थवयवस्था में जब ट्रेड यूनियन ही मायने नही रख पा रही है और बाजार अर्थव्यवस्था पर नकेल कसने का सवाल खडा करने वाली वाम सत्ता को भी जब जनता ने ध्वस्त कर दिया तो फिर आरएसएस की संख्या किसी भी राजनीति पार्टी को कितना लाभ पहुंचा सकती है। अब यह भाजपा भी जान रही है और संघ भी। इसलिये संघ के सामने नया सवाल यही है कि संघ के मुद्दे जब तक राजनीति के केन्द्र में ना आयेंगे तबक आरएसएस के सवाल भाजपा के पीछे ही चलेगे और भाजपा कांग्रेस की कार्बन कापी ही नजर आयेगी। इसलिये आरएसएस के भीतर नयी वैचारिक उठा-पटक उन मुद्दों के आसरे अपने संगठनो को खड़ा कर राजनीति की धारा को अपने अनुकूल करने की ही है।
संघ समझ रहा है कि राजनीतिक तौर पर 1974 की तर्ज पर जेपी का कोई राजनीतिक प्रयोग तो संभव नहीं है, लेकिन बाबा रामदेव के आसरे ही सही अगर संघ को जगाया जा सकता है और सरकार को चेताया जा सकता है तो 2014 तक भाजपा के बदले एक नया राजनीतिक संगठन भी खड़ा किया जा सकता है, जो राजनीतिक दल के तौर पर मान्यता पाये और विकल्प भी बने। क्योंकि मनमोहन सरकार से आम आदमी को मोह भंग हो चुका है, लेकिन काग्रेस का विकल्प भाजपा हो इसे लोग स्वीकारने की स्थिति में नहीं हैं। और संघ अब भाजपा को शह देने की स्थिति में भी नहीं है। नयी परिस्तितियों में रामदेव हों या अन्ना हजारे, हर किसी को आंदोलन के लिये जो संगठन चाहिये वह सिर्फ आरएसएस के पास है, और नयी परिस्थितियां पहली बार संघ को उसी दिशा में ले जा रही है जहां रेड्डी बंधुओ पर आपस में भिड़ी भाजपा को दफन किया जा सके और संघ ही एक वैकल्पिक सोच का आईना बने । जहां भविष्य में संघ में किसी मुद्दे को लेकर अयोध्या की तर्ज पर ठहराव ना हो। और नयी पीढी यानी युवा तबका संघ को पारंपरिक ना मान कर भारतीय सामाजिक परिस्थितियों को वैज्ञानिक तरीके से अपने अनुकुल पाये, और संघ की पहल इसी सोच को जोड़ते हुये उन खतरों को उठाते चले जो देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान लगाये हुये हैं। पहला प्रयोग बाबा रामदेव से शुरू होना है इसलिये इंतजार कीजिये। क्योंकि संघ का नया रास्ता इससे भी तय होगा लेकिन संघ जीते या हारे दोनों स्थितियों में भाजपा खतरे में है यह तो तय है।