ताजमहल ने अगर आगरा को पहचान दिलायी तो आगरा के जूतों ने आगरा के कलेक्टर को। और आगरा के कलेक्टर का एक मतलब है स्टाम्प ड्यूटी का ऐसा खेल, जिसके शिकंजे में जूतो का जो उघोगपति फंसा तो या तो उसका धंधा चौपट हुआ या फिर करोड़ों रुपये का हार कलेक्टर को पहनाया गया। करोड़ों का इसलिये क्योंकि आगरा के जूतों की पहचान समूचे यूरोप-अमेरिका में है। आगरा का कलेक्टर आगरा के जूते नहीं बल्कि आगरा के जूता मालिको के रुतबे को देखता है। और अपने मुताबिक नियमों का खेल कर सालाना पांच सौ करोड़ बनाना कोई बड़ी बात होती नहीं। सिर्फ फंसाने का अंदाज सरकारी होना चाहिये। इसमें नियम-कायदे सरकारी नहीं कलक्टर के चलें। और जांच से लेकर डराने-वसूलने तक जूता मालिक खुद के जूते पहनने तक झुके नहीं, तब तक खेल चलाना आना चाहिये।
जाहिर है इसमें जूता मालिक पर डीएम यानी जिलाअधिकारी का रौब और एसपी का खौफ रेंगना चाहिये। और कलेक्टर के इस खेल के नये शिकार हैं महाशय शाहरु मोहसिन। आगरा के बिचपुरी रोड पर मटगई गांव में जूता उघोग मै. यंगस्टाइल ओवरसीज के नाम से चलाते हैं। इनके जूते इटली, जर्मनी और फ्रांस में साल्ट एंड पीपर के नाम से बिकते हैं। विदेशी बाजार में धाक है। आगरा के जूतों को लेकर अंतर्र्राष्ट्रीय साख है तो कलेक्टर का खेल तो जम ही सकता है। बस, फांसने का खेल शुरु हुआ। शाहरु मोहसिन जिस किराये के घर-जमीन पर इंटस्ट्री चलाते थे, उस जगह के मालिक ने बैंक से करोड़ों का लोन लिया था। चुकता नहीं किया। तो कैनरा और ओवरसिज बैंक ने उस जगह को बेचने की निविदा अखबारों में निकाल दी। छह खरीदार पहुंचे। चूंकि शाहरु मोहसिन उसी जमीन पर इंडस्ट्री चला रहे थे तो बैंक ने उन्हें प्राथमिकता दी। और ढाई हजार वर्ग मीटर की इस जमीन की कीमत दो करोड़ दो लाख रुपए तय हुई। बैंक ने शहरु मोहसिन को नया मालिक बना दिया और अखबारों में विज्ञापन के जरीये जानकारी निकाल दी कि दो करोड दो लाख में मडगई ग्राम की गाटा संख्या 191-192 बेच दी गयी।
बस नजरें कलेक्टर की पड़ीं। सरकारी काम शुरु हुआ। जमीन को लेकर सरकारी दस्तावेजों के साथ नोटिस जूतों के मालिक के घर पहुंचा। इसमें लिखा गया कि सरकारी निरीक्षण में पाया गया कि जमीन लगभग चार हजार वर्ग मीटर की है। और जमीन निर्धारित बाजार रेट से बेहद कम पर खरीदी गई। लिहाजा जमीन की कीमत दो करोड़ दो लाख नहीं बल्कि 39 करोड़ 91 लाख 31 हजार 180 रुपया होना चाहिये। और कम कीमत में जमीन खरीद कर सरकारी स्टाम्प ड्यूटी की चोरी की गई है। ऐसे में दो करोड़ 65 लाख 24 हजार 940 रुपये स्टाम्प रुपये और अलग से दो लाख रु दंड के तौर पर चुकाये जाने चाहिये।
साफ है कि ऐसे में कोई भी उघोगपति दो ही काम कर सकता है। एक तो जमीन की माप की सरकारी जांच कराने की दरख्वास्त कर जमीन की कीमत, जो कलक्टर ने ही पहले से तय कर रखी होगी, उसकी कॉपी निकलवाकर दिखाये। या फिर कलक्टर के आगे नतमस्तक होकर पूछे-आपको क्या चाहिये। तो शाहरु मोहसिन ने पहला रास्ता चुना और यहीं से आगरा के बाबूओं के उस गुट को लगने लगा कि उनके ही जिले में कोई उनकी माफियागिरी को चुनौती दे रहा है। डीएम के नोटिस में जमीन की कीमत 19 हजार रुपये प्रति वर्ग मीटर बताया गया। जबकि कलेक्टर के ही दस्तख्त से जमीन की कीमत 3500 रुपये वर्ग मीटर पहले से निर्धारित थी।
मामला यहां गड़बड़ाया तो झटके में कलेक्ट्रेट ऑफिस ने जमीन को व्यवसायिक करार दिया। लेकिन चूक यहां भी हो गई। क्योंकि यूपी सरकार के नियम तले व्यवसायिक जमीन की परिभाषा में उघोग आता नहीं है। लेकिन उसके बाद जमीन की माप को गलत बताया गया। लेकिन यहां भी बैंक के दस्तावेज ने बाबूओ की नींद उड़ा दी। फिर जमीन को मापने की बात कहकर जिस तरह सरकारी बाबू यानी तत्कालिन एडीएम अपर जिलाधिकारी उदईराम ने लगभग चार हजार वर्ग मीटर का जिक्र किया, उससे कलेक्टर का खेल और गड़बड़ाया। लेकिन कलेक्टर तो कलेक्टर है। उसने न आव देखा न ताव। तुरंत स्टाम्प ड्यूटी ना चुकाने पर जूता फैक्ट्री में ही ताला लगाने के आदेश दे दिये। शहरु मोहसिन ने तुरंत लखनऊ के दरवाजे पर दस्तक दी। लखनऊ तुरंत हरकत में आया। कमिश्नर को पत्र लिख कर पूछा कि यह स्टाम्प ड्यूटी का मामला क्या है। इस पर कमिश्नर ने अपर आयुक्त प्रमोद कुमार अग्रवाल को चिठ्टी लिखी। फिर प्रमोद अग्रवाल ने 19 जुलाई 2011 को आगरा के जिलाधिकारी अजय चौहान को चिठ्टी [पत्र संख्या 844] लिखकर 15 दिन के भीतर समूची जानकारी मांगी। लेकिन खेल तो पैसा वसूली का था और दांव पर आगरा के नौकरशाहों की दादागिरी लगी थी, जो आपस में चिठ्टी का खेल खेल रहे थे। तो नतीजा चिट्ठी को फाइल में ही दबा दिया गया। लेकिन लखनऊ से दुबारा 30 अगस्त को जब दुबारा पत्र आया कि जांच रिपोर्ट अभी तक नहीं आयी है, जिसे पन्द्रह दिनों में आना चाहिए था। अब हफ्ते भर में रिपोर्ट दें कि सच है क्या।
जाहिर है सच बताने के काम का मतलब सरकारी नियम-कायदो से लेकर बैंक द्वारा बेची गई फैक्ट्री की जमीन पर उठायी अंगुली को लेकर भी फंसना था। और स्टाम्प ड्यूटी की चिंता कर जूता फैक्ट्रियों के मालिक से अवैध वसूली के धंधे पर से भी पर्दा उठना था। ऐसे में जिलाधिकारी ने अपनी दादागिरी का आखिरी तुरुप का पत्ता फैक्ट्री के मालिक के खिलाफ गिरफ्तारी का आदेश देकर फैक्ट्री पर ताला लगवाकर फेंका। आनन फानन में एसडीएम ने नोटिस निकाला और 22 सितंबर को नेशनल बैंक में फैक्ट्री के बैंक अकाउंट को सीज कर लिया। चूंकि ज्यादातर ट्रांजेक्शन यूरोपीय देशों में होते हैं तो झटके में सबकुछ रुक गया। इस दौर में फैक्ट्री के मालिक शहरु मोहसिन इटली में आगरा के जूतों की मार्केटिंग में व्यस्त थे तो खबर मिलते ही उल्टे पांव दौड़े। दो दिन में दिल्ली पहुंचे। तो आगरा से पत्नी ने फोन कर बताया कि फैक्ट्री का अकाउंट भी सील कर दिया गया है। और पुलिस घर और फैक्ट्री के बाहर डीएम के आदेश का डंडा गाढ़ कर बैठी है कि शहरु मोहसिन आगरा में पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर ले। अब शहरु मोहसिन दिल्ली में बैठे हैं। हर दस्तावेज दिखाने और समूची कहानी कहने के बाद इतना ही कहते हैं- मैंने सिर्फ इतनी ही गलती की कि उनको पैसा नहीं दिया। यह उसी की सजा है। 50 लाख की मांग अधिकारी सौदेबाजी में अपने कमीशन के तौर पर कर रहे थे। लेकिन मैंने गलत क्या किया। अन्ना के बारह दिन के उपवास के बाद भरोसा हमारा भी जागा था। लेकिन यह तो अत्याचार है। आगरा में घुस नहीं सकता। बीबी, बच्चो से मिल नहीं सकता । बूढ़े अब्बा आगरा से बार बार फोन पर कहते हैं डीएम- कलेक्टर तो खुदा से बढ़कर हैं। अम्मी कहती हैं खुदा पर भरोसा रखूं। अब लखनऊ जा रहा हूं । देखूं वहा सेक्रेटिएट की पांचवीं मंजिल से न्याय मिलता है या नहीं । वहां से आगरा जाने का रास्ता बनता है या नहीं। जहां पूरा परिवार खौफ में है।
Monday, September 26, 2011
Saturday, September 24, 2011
हैरी और आयत में छिपे "मौसम" का मिजाज
किसी फिल्म को देखते-देखते यह लगने लगे कि शानदान प्लॉट बर्बाद हो रहा है। या फिर एक व्यापक कैनवास को पकड़ते पकड़ते फिल्म कमजोर होती जा रही है। कहीं लगे कि फिल्म को जहां ठहरना चाहिये वहां वह सरपट भाग रही है और जहां सरपट भागना चाहिये, वहां फिल्म ठहरी हुई है। बहुत कुछ यह सारे सवाल फिल्म "मौसम" देखने के बाद जिस तरह जेहन में उठे उसमें मेरे सामने पहला सवाल यही आया कि जैसा मैं सोच रहा हूं, क्या फिल्म " मौसम " के निर्देशक पंकज कपूर के जेहन में भी यह सब होगा। कैनवास पर किसी पेंटिंग की तरह पंकज कपूर का निर्देशन यह सवाल तो उठा रहा था कि हिंसा और प्रेम को एक लकीर में पिरोया जा सकता है। लेकिन बार बार हिंसा का सवाल प्रेम को रोकता या फिर प्रेम की कशिश हिंसा को जानबूझकर अमानवीय ठहराने की जिद में ही खोती नजर आती।
खैर पहला सवाल फिल्म का नाम "मौसम" ही क्यों। तो भारत भौगोलिक तौर पर इतना बेहतरीन देश है, जहां साल भर में छह मौसम आते हैं। और हर मौसम में प्यार की परिभाषा नये तरीके से गढ़ी भी जाती है। संयोग से "मौसम" में छह मौसम की जगह हिंसा के छह ऐसे दौर हैं, जिसने मानवीय मूल्यों को लेकर विरोध को आतंक की आग में झुलसना दिखाया है। फिल्म 1989 के कश्मीर हिंसा से पीडित कश्मीर पंडितों के दर्द से शुरु होती है। जिसका चेहरा एक खूबसूरत लेकिन सहमी बला आयत की कहानी कहता है। आयत यानी "मौसम" की नायिका सोनम कपूर। संयोग से जिसका दिल उस वक्त मचलता है, जब 6 दिसंबर 1992 दस्तक देता है। पंजाब के एक छोटे से गांव के खुशनुमा माहौल में नायक हैरी यानी शाहिद कपूर का दिल आयत को देखकर जब अटखेलिया करना चाहता है और गांव में अयोध्या के आतंक की हलकी लकीर खौफ पैदा करते हुये कुछ कहना चाहती है। तो पंकज कपूर का निर्देशन गर्म होती सांसों के हदले जिस खूबसूरती से गर्म होते देश के माहौल को पकड़ने के लिये बिना किसी हिंसा के दिल में टीस पैदा कर बंबई के 1993 के सीरियल ब्लास्ट की कहानी को स्वीटजरलैंड में फूलो के बाजार के बीच महकने के लिये छोड़ते हैं, अदभूत है।
यहां "मौसम" की जरुरत ठहरने की होनी चाहिये थी, जो कश्मीर, अयोध्या और मुंबई ब्लास्ट तले आयत और हैरी के प्यार की कोपलों के जरीये हिंसा को चुनौती दे,लेकिन तभी सामने करगिल हमले की दास्तान में नायक की कहानी शुरु करने की जल्दबाजी में पंकज कपूर खो जाते है। और यहां से फिल्म एकदम "मौसम" की रवानगी छोड़ एक ऐसे पटल पर ला पटकती है। जहां संयोग और सूचना तकनीक की धीमापन जिन्दगी को जीने से दूर करता नजर आता है। कैनवास पर खूबसूरत पेंटिंग की तरह सोनम को पंकज कपूर का कैमरा पकड़ता जरुर है, लेकिन वह यहा भूल जाते हैं कि हर हसीन पेंटिग का महत्व तभी है जब उसे देखने वाली आंखे हों। कुछ इसी तर्ज पर नायक हैरी की बेबसी भी अकेलेपन में एक ऐसे माहौल को जगाना चाहती है, जहां संवाद बनाने के लिये तकनीक नहीं है और संयोग ऐसे हैं कि दर्शक कुर्सी पर कसमसा कर रह जाये।
हिंसा और प्रेम के कॉकटेल में "मौसम" का अगला पड़ाव 9-11 यानी अमेरिका के ट्विन टॉवर पर हमले की हिंसा के बाद अमेरिका की निगाह में मुस्लिमों को लेकर शक के रुप में सामने आता है। लेकिन यहां भी फिल्म ठहरने के बदले जब सरपट भागती है तो एक ऐसे शक का शिकार होती है, जिसे कोई भी प्रेमी या प्रेमिका बर्दाश्त नहीं कर सकते। आयत को लेकर एक ऐसे संयोग के दायरे में हैरी शक कर बैठता है, जिससे यह लगता है कि पंकज कपूर के जहन में हिंसा के छठे मौसम को जीने की कुलबुलाहट है। और "मौसम" बिना सरोकार गुजरात की हिंसा को जीने के लिये अहमदाबाद की उन गलियों में जा ठहरती है, जो 28 फरवरी 2002 को धू-धू जले। इसे छठे हिंसक " मौसम" को जीते आयत और हैरी जब एक दूसरे की बांहो में होते हैं तो अतीत के पन्नों तले हिंसा और दंगों की अमानवीयता को खारिज करते हुये न सिर्फ धर्म के भेद को मिटाते हैं बल्कि कश्मीर के दर्द को समेटे आयत की गर्म सांसों को 84 के दंगों में अपने दर्द की टीस भी हैरी यानी शाहिद कपूर रखकर यह एहसास तो कराता है कि मानवियता तले ही जिन्दगी और प्यार पनप सकते हैं। लेकिन सिल्वर स्क्रीन पर जिस तेजी से इस एहसास को जीने के लिये किसी सी ग्रेड का नायक मचलता है, कुछ उसी अंदाज में पंकज कपूर भी "मौसम" में नायक खोजने निकल पड़ते हैं। और फिल्म आखिरी हिस्से के छोर को पकड़ने की छटपटाहट में न सिर्फ सिरे को छोड़ देती है बल्कि "मौसम" के बदलने के प्रवाह को भी रोक देती है। असल में यहीं पर पंकज कपूर हारते नजर आते हैं और "मौसम" पटरी से उतर कर उस बाजारु मिजाज में तब्दील हो जाती है, जो लोकप्रिय अंदाज पाना चाहती है। परीकथा को "मौसम" का आसरा चाहिये और फिर किसी सुपरमैन को परीकथा का आसरा। संगीत को सूफियाना अंदाज चाहिये और सूफियाना अंदाज को कहानी की किस्सागोई। यह चक्रव्यूह ही "मौसम" को कमजोर कर देता है। मौका मिले तो बिना प्रेमिका के "मौसम" का लुत्फ उठाया जा सकता है। बस नजर और मिजाज साथ होना चाहिये। और पंकज कपूर के पास संयोग से यही दोनों हैं।
खैर पहला सवाल फिल्म का नाम "मौसम" ही क्यों। तो भारत भौगोलिक तौर पर इतना बेहतरीन देश है, जहां साल भर में छह मौसम आते हैं। और हर मौसम में प्यार की परिभाषा नये तरीके से गढ़ी भी जाती है। संयोग से "मौसम" में छह मौसम की जगह हिंसा के छह ऐसे दौर हैं, जिसने मानवीय मूल्यों को लेकर विरोध को आतंक की आग में झुलसना दिखाया है। फिल्म 1989 के कश्मीर हिंसा से पीडित कश्मीर पंडितों के दर्द से शुरु होती है। जिसका चेहरा एक खूबसूरत लेकिन सहमी बला आयत की कहानी कहता है। आयत यानी "मौसम" की नायिका सोनम कपूर। संयोग से जिसका दिल उस वक्त मचलता है, जब 6 दिसंबर 1992 दस्तक देता है। पंजाब के एक छोटे से गांव के खुशनुमा माहौल में नायक हैरी यानी शाहिद कपूर का दिल आयत को देखकर जब अटखेलिया करना चाहता है और गांव में अयोध्या के आतंक की हलकी लकीर खौफ पैदा करते हुये कुछ कहना चाहती है। तो पंकज कपूर का निर्देशन गर्म होती सांसों के हदले जिस खूबसूरती से गर्म होते देश के माहौल को पकड़ने के लिये बिना किसी हिंसा के दिल में टीस पैदा कर बंबई के 1993 के सीरियल ब्लास्ट की कहानी को स्वीटजरलैंड में फूलो के बाजार के बीच महकने के लिये छोड़ते हैं, अदभूत है।
यहां "मौसम" की जरुरत ठहरने की होनी चाहिये थी, जो कश्मीर, अयोध्या और मुंबई ब्लास्ट तले आयत और हैरी के प्यार की कोपलों के जरीये हिंसा को चुनौती दे,लेकिन तभी सामने करगिल हमले की दास्तान में नायक की कहानी शुरु करने की जल्दबाजी में पंकज कपूर खो जाते है। और यहां से फिल्म एकदम "मौसम" की रवानगी छोड़ एक ऐसे पटल पर ला पटकती है। जहां संयोग और सूचना तकनीक की धीमापन जिन्दगी को जीने से दूर करता नजर आता है। कैनवास पर खूबसूरत पेंटिंग की तरह सोनम को पंकज कपूर का कैमरा पकड़ता जरुर है, लेकिन वह यहा भूल जाते हैं कि हर हसीन पेंटिग का महत्व तभी है जब उसे देखने वाली आंखे हों। कुछ इसी तर्ज पर नायक हैरी की बेबसी भी अकेलेपन में एक ऐसे माहौल को जगाना चाहती है, जहां संवाद बनाने के लिये तकनीक नहीं है और संयोग ऐसे हैं कि दर्शक कुर्सी पर कसमसा कर रह जाये।
हिंसा और प्रेम के कॉकटेल में "मौसम" का अगला पड़ाव 9-11 यानी अमेरिका के ट्विन टॉवर पर हमले की हिंसा के बाद अमेरिका की निगाह में मुस्लिमों को लेकर शक के रुप में सामने आता है। लेकिन यहां भी फिल्म ठहरने के बदले जब सरपट भागती है तो एक ऐसे शक का शिकार होती है, जिसे कोई भी प्रेमी या प्रेमिका बर्दाश्त नहीं कर सकते। आयत को लेकर एक ऐसे संयोग के दायरे में हैरी शक कर बैठता है, जिससे यह लगता है कि पंकज कपूर के जहन में हिंसा के छठे मौसम को जीने की कुलबुलाहट है। और "मौसम" बिना सरोकार गुजरात की हिंसा को जीने के लिये अहमदाबाद की उन गलियों में जा ठहरती है, जो 28 फरवरी 2002 को धू-धू जले। इसे छठे हिंसक " मौसम" को जीते आयत और हैरी जब एक दूसरे की बांहो में होते हैं तो अतीत के पन्नों तले हिंसा और दंगों की अमानवीयता को खारिज करते हुये न सिर्फ धर्म के भेद को मिटाते हैं बल्कि कश्मीर के दर्द को समेटे आयत की गर्म सांसों को 84 के दंगों में अपने दर्द की टीस भी हैरी यानी शाहिद कपूर रखकर यह एहसास तो कराता है कि मानवियता तले ही जिन्दगी और प्यार पनप सकते हैं। लेकिन सिल्वर स्क्रीन पर जिस तेजी से इस एहसास को जीने के लिये किसी सी ग्रेड का नायक मचलता है, कुछ उसी अंदाज में पंकज कपूर भी "मौसम" में नायक खोजने निकल पड़ते हैं। और फिल्म आखिरी हिस्से के छोर को पकड़ने की छटपटाहट में न सिर्फ सिरे को छोड़ देती है बल्कि "मौसम" के बदलने के प्रवाह को भी रोक देती है। असल में यहीं पर पंकज कपूर हारते नजर आते हैं और "मौसम" पटरी से उतर कर उस बाजारु मिजाज में तब्दील हो जाती है, जो लोकप्रिय अंदाज पाना चाहती है। परीकथा को "मौसम" का आसरा चाहिये और फिर किसी सुपरमैन को परीकथा का आसरा। संगीत को सूफियाना अंदाज चाहिये और सूफियाना अंदाज को कहानी की किस्सागोई। यह चक्रव्यूह ही "मौसम" को कमजोर कर देता है। मौका मिले तो बिना प्रेमिका के "मौसम" का लुत्फ उठाया जा सकता है। बस नजर और मिजाज साथ होना चाहिये। और पंकज कपूर के पास संयोग से यही दोनों हैं।
Friday, September 23, 2011
रालेगण की हवा में घुमड़ने लगी है राजनीतिक बदलाव की बेचैनी
मैं पंजाब के कपूरथला से आया हूं। मैं रिटायर हो चुका हूं। सेना में था। दो बेटियां हैं। दोनों की शादी हो चुकी है। मुझे पेंशन मिलती है। रिटायर होने के बाद जो पैसा मिला वह मेरे बैंक में है। अब मैं अपनी सारी पूंजी आपको देना चाहता हूं। मेरी पेंशन भी। बस मैं आपके कहने पर आपके साथ काम करना चाहता हूं। आप जहां कहेंगे वहां तैनात हो जाऊंगा। देखिये मैं लिखकर भी लाया हूं, समाज को कैसे भ्रष्टाचार से मुक्त कर दें। यह मेरी पत्नी है। जो जानती है कि समाजसेवा के काम के लिये मैं आधा पागल हूं। बस आप मुझे बता दो कहा काम करना है। कैसे काम करना है।
.....आधा पागल होने से काम नहीं चलेगा । इसमें पूरा पागल होना होगा। जो ठान लेना है, तो उसे पूरा करना है। लेकिन ईमानदारी से। सदाचार छोडना नहीं है । निष्कलंक जीवन रखना है।
...आप जो कहोगे वही करेंगे।
यह बातचीत रालेगण सिद्दि में अन्ना हजारे से मिलने आने वाले सैकडों लोगों में से एक की है। 15 गुना 15 फीट के कमरे के बीचोबीच लोहे के सिगल बेड पर एक मोटी सी बिछी तोसक के उपर सफेद चादर पर आलथी-पालथी मार कर बैठे अन्ना हजारे। सफेद धोती, सफेद कुर्ता और सर पर सफेद गांधी टोपी। और पलंग के नीचे जमीन पर घुटनों के बल पर बैठे पंजाब से आये इस शख्स के दोनों हाथ अन्ना हजारे के पांव के पास ही हाथ जोडे पड़े रहे। अपनी सारी बात कहते वक्त भी इस शख्स ने अपना सिर तक उठा कर अन्ना को नहीं देखा। रामलीला मैदान से हुकांर भर सरकार को घुटनो के बल लाने वाले अन्ना हजारे के सामने इस तरह संघर्ष में साथ खडे होने के इस दृश्य ने एक साथ कई सवाल खड़े किये। क्योंकि 12 सितंबर की दोपहर जब मैं दिल्ली से रालेगण सिद्दि के लिये रवाना हुआ तो दिमाग में जनलोकपाल के लागू हो पाने या ना हो पाने की उन परिस्थितियों के सवाल थे, जिन पर उन्हीं सांसदो की मुहर भी लगनी है, जिनके खिलाफ जांच की कार्रवाई जनलोकपाल बनते ही शुरु होंगे।
लेकिन शाम को जब रालेगण सिद्दि पहुंचकर अन्ना हजारे से मिलने कमरे में पहुंचा और दस-बारह लोगों से घिरे अन्ना हजारे के संघर्ष में शामिल लोगों की इस गुहार को सुना तो पहली बार लगा कि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की जो परिभाषा जनलोकपाल के जरीये दिल्ली में गढ़ी जा रही है, दरअसल रालेगण सिद्दि में वही भ्रष्टाचार का सवाल लोगों के जीवन से जुड़कर समाज के तौर तरीके बदलने पर आमादा है। या फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम ने हर उस सवाल को झटके में जगा दिया है, जिसने भागती-दौड़ती जिन्दगी में जीने की जद्दोजहद तले हर वस्तु की कीमत लगा दी है। और ज्यादा कीमत लगाकर ज्यादा पुख्ता मान्यता पाने की सोच में ज्यादा कमाने का चक्रव्यूह ही व्यवस्था बन चुकी है।
जीने की यह होड़ ही दिल्ली में विकसित होते समाज का मंत्र है। लेकिन रालेगण सिद्दि में इसी मंत्र के खिलाफ अन्ना हजारे एक ऐसे प्रतीक बन चुके हैं, जहां बनारस के गोपाल राय को होटल मैनेजमेंट करने के बाद भी अन्ना के साथ खड़ा होना ज्यादा बड़ा काम लग रहा है और आस्ट्रेलिया से उत्तराखंड के एनआरआई अपना सारा धंधा समेटकर अब उत्तराखंड के गांवों में जाकर अन्ना के सपनों को वहां की जमीन पर उतारने की बैचेनी लिये रालेगण सिद्दि में ही रालेगण सिद्दि की ही युवा टोली के साथ डेरा जमाये हुये हैं। अन्ना के कमरे में अपनी बारी आने पर एनआरआई अशोक भी अन्ना से नजर नहीं मिलाता बल्कि उनके पलंग के बगल में खडा होकर बाकि खड़े लोगों की तरफ देखकर जब यह कहना शुरु करता है कि अन्ना हजारे के संघर्ष में लहराते तिरंगे ने वह काम कर दिया जो उसके मां-बाप नहीं कर सके।
मां-बाप चाहते थे अशोक आस्ट्रेलिया छोड़ भारत लौट आये लेकिन कमाने की घुन ने उसे वही बांधे रखा। लेकिन अन्ना के आंदोलन ने देश को जगाया तो वह भी अपने देश लौट आया। अन्ना भावुक हो जाते हैं। लेकिन अशोक अपनी बात रहने से रुकता नहीं है। उसे पता है हर दिन सैकड़ों लोग अन्ना से मिलने पहुंच रहे हैं तो फिर मौका ना मिले। अशोक बताता है कि अन्ना के गांव रालेगण सिद्दि में ही उसने युवाओ की टोली बनायी है। कई दिनो से गांव में घूमकर हर चीज का बारीकी से अध्ययन किया है। और वह अन्ना से इस बात की इजाजत चाहता है कि रालेगण सिद्दि के युवाओं को साथ ले जाकर वह उत्तराखंड के गांवों का वातावरण भी बदले। गांव को स्वावलंबी बनाये । रालेगण सिद्दि की तरह ही कोई गांव ना छोड़े इस मंत्र को रालेगण के युवाओ के आसरे ही बिखेरे। पैसे की कोई चिंता अन्ना आपको नहीं करनी है। मेरे पास सबकुछ है । बस मैं भी आपकी खिंची लीक पर चलकर आदर्श गांव बनाना चाहता हूं। क्योंकि हर सरकार तो यही पाठ पढ़ा रही है कि जितने ज्यादा गांव शहर में बदलेंगे उतना ही देश का विकास होगा।
लेकिन शहरों का क्या हाल है यह तो रालेगण सिद्दि से बाहर जाते ही पता चल जाता है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा शहरी गरीब लोग है। अब अन्ना आप इजाजत दें तो गांव बनाने के लिये यहा के लड़कों के साथ निकलूं। कुछ दिन और रुक कर गांव देख लो। सिर्फ पैसे के आधार पर जो तुम्हारे साथ खड़ा हो उससे गांव का निर्माण नहीं होगा। बल्कि गांव की ताकत गांव में ही होती है। इसलिये पहले गांव को समझो फिर निकलना। यानी हर मिलने वाले के सामने देश को सहेजने के सवाल और उस पर अन्ना का गुरु मंत्र। तो क्या जंतर-मंतर से रामलीला मैदान ने संघर्ष को चाहे आंदोलन में बदला लेकिन रामलीला मैदान की आहट अब रालेगण सिद्दि में कोई नया इतिहास रचने की दिशा में बढ़ रहा है। या फिर जनलोकपाल का सवाल व्यवस्था सुधार का महज एक पेंच भर है। तो क्या दिल्ली में अन्ना के आंदोलन की आहट से सकपकायी सरकार के भीतर भ्रष्टाचार को लेकर जो सियासी सवाल खड़े हो रहे है और भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की दिशा में सरकार अब पहल करना चाह रही है उसके उलट रालेगण सिद्दि में अब यह सवाल खड़ा होने लगे है कि लड़ाई तो जीतने के लिये लड़नी होगी। और उन हाथों में आंदोलन की कमाई नहीं थमाई जा सकती जो चुनावी बिसात पर अपना धाटा-मुनाफा टटोल कर भ्रष्ट्राचार से भी दोस्ती-दुश्मनी दिखाते हैं।
यानी दिल्ली में चाहे अन्ना टीम जनलोकपाल को कानून की शक्ल में लाने की जद्दोजहद कर रही है और सरकारी मुलाकातों के दौर में बिसात यही बिछ रही हो कि जनलोकपाल लाने पर कांग्रेस को कितना फायदा होगा या सरकार की छवि कितनी सुधरेगी या फिर बीजेपी आडवाणी के रथयात्रा से कितना लाभ उठा पायेगी। लेकिन रालेगण सिद्दि का रास्ता जनलोकपाल को पीछे छोड राजनीतिक शुद्दिकरण की दिशा में आगे बढ़ चला है। जहां हर दिन अन्ना के दरवाजे पर दस्तक देते सैकड़ों लोग उन मुश्किलों से जुझने के लिये खुद को तैयार कर रहे हैं, जहां दिल्ली की समझ विकास मान बैठी है। किसान मुआवजे की कितनी रकम पर भी खेती की जमीन देना नहीं चाहता। उसे अन्ना से राहत मिलती है क्योंकि रालेगण सिद्दि में खेती और किसान ही जीवन है। अन्ना यह कहने से नहीं चूकते की भारत तो कृषि प्रधान देश है। नोट बांटकर जमीन हड़पने का वह विरोध करेंगे।
किसानों को लगता है कि अन्ना हजारे की अगली लड़ाई उन्हीं के लिये होगी। देश हाथों में तिरंगा लेकर वैसे ही शहर दर शहर जमा हो जायेगा जैसे जनलोकपाल को लेकर खड़ा हुआ। गरीब-मजदूर से लेकर छात्र और युवाओं की टोलियां भी रालेगण सिद्दि यह सोच कर पहुंच रही है कि उनके सवालों पर भी तिरंगा लहराया जा सकता है अगर अन्ना हजारे पहल करें। वह स्कूल, पीने का पानी, स्वस्थ्य सेवा से लेकर सरकार की नीतियों को लागू करने में भी अंडगा डालते नेता और बाबूओं की टोली के खिलाफ सीधे संघर्ष का ऐलान करें तो सरकार पटरी पर दौड़ने लगेगी। सैकडों हाथ तो अन्ना के सामने सिर्फ इसलिये जुड़े हैं कि अन्ना हजारे को संघर्ष से रुकना नहीं है।
रोटी-रोजगार कुछ भी नहीं चाहिये लेकिन देश की हालत जो सत्ताधारियों ने बना दी है और लूट-खसोट का राज जिस तरह चल रहा है, उसमें अन्ना अगुवाई करें तो सैकडों हाथ पीछे चल पडेंगे। असल में रालेगण सिद्दि का सबसे बडा एहसास यही है कि हर दिन सैकडो नये नये चेहरो के लिये अन्ना हजारे एक ऐसा प्रतीक बन गये हैं, जहां दिल्ली की सत्ता भी छोटी लगती है। भरोसा इस बात को लेकर है कि अन्ना का रास्ता सौदेबाजी में गुम नहीं होगा। अन्ना का साथ उस सियासी बिसात को डिगा देगा जहां लाखों लोगों को अलग अलग कर प्यादा बना दिया गया है। अन्ना का संघर्ष इस अहसास को जगा देगा कि देश का मतलब यहां के लोग। यहां की जमीन है। यहां की खनिज संपदा। यहां के सरोकार हैं। इसलिये पहली बार अन्ना के दरवाजे पर दस्तक देने वालो में छत्तीसगढ और उड़ीसा के वह किसान-आदिवासी भी हैं, जहां की जमीन खनन के लिये कॉरपोरेट हाथो को सरकार ने विकास का नाम लेकर बांट दी। छत्तीसगढ के जिस दल्ली-राजहरा के इलाके में शंकरगुहा नियागी ने अस्सी के दशक में लंबा संघर्ष किया और वामपंथी पार्टियो ने ट्रेड-यूनियनो के जरीये मजदूरो के सवाल उठाये, वहां के मजदूर और किसान भी रालेगण सिद्दि में अन्ना की चौखट पर यह कहते हुये दस्तक देते दिखे कि संघर्ष रुकना नहीं चाहिये। वहीं बिहार के उन पचास पार उम्र के लोगो की आवाजाही भी खूब है, जिन्होंने जेपी आंदोलन के लिये अपना सबकुछ छोड़ दिया अब वह अन्ना के सामने नतमस्तक होकर यह कहते हुये अपने अनुभव की पोटली खोल रहे है कि जेपी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। लेकिन जेपी के बाद सत्ता की होड में सभी भ्रष्ट हो गये। जो नेता निकले वह भी भ्रष्टाचार में ही अबतक गोते लगा रहे हैं। अन्ना उन्हें भी सीख देते हैं, हारना नहीं है। जो भ्रष्ट हैं, उनके खिलाफ तो देश अब जाग रहा है। युवा शक्ति समझ रही है। इसलिये अब संघर्ष थमेगा नहीं। और अन्ना जेपी के दौर के निराश लोगों से भी कहते हैं मै बेदाग हूं। निषकंलक होना ही इस आंदोलन की ताकत है। आप सब अपनी अपनी जगह खड़े हो जाईये। रास्ता जनसंसद से ही निकलेगा। और संसद में बैठे सांसद खुद को जिस तरह मालिक माने बैठे हैं इन्हें सेवक की तरह काम करना ही होगा। नही तो देश अब सोयेगा नहीं। अन्ना के साथ घंटों बैठने का एहसास और रालेगण सिद्दि में ही पूरा दिन पूरी रात गुजारने के बाद जब दिल्ली के लिये रवाना हुआ तो पहली बार लगा कि दिल्ली में जनलोकपाल को लागू कराने के लिये अन्ना टीम के सदस्य जिस तरह सरकार से बातचीत कर रहे है इससे इतर अन्ना की सोच एक नयी विजन के साथ अब देश में बदलाव के लिये आंदोलन की एक नयी जमीन बनाने की दिशा में बढ़ रही है। और आने वाले दौर में अन्ना का सफर रालेगण सिद्दि से निकलकर कहा जायेगा यह अन्ना टीम को भी शायद तबतक समझ में ना आये जबतक वह जनलोकपाल बिल के तकनीकी दायरे से बाहर ना निकले।
हालांकि अन्ना की रालेगण सिद्दि की समझ का असर दिल्ली में बैठी अन्ना टीम पर भी हो रहा है और प्रशांत भूषण सरीखे अल्ट्रा लेफ्ट भी संघ परिवार का सवाल उछालने पर यह कहने से नहीं चूकते कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में आरएसएस अगर पहल कर रहा है तो इसमें गलत क्या है। सही मायने में अन्ना हजारे की सामाजिक-आर्थिक समझ के कैनवास में जो राजनीतिक ककहरा अब अन्ना टीम के पढ़-लिखे लोग सीख रहे हैं, वह आने वाले वक्त में आंदोलन के मुद्दो को लेकर एक नयी दिशा में जा सरके हैं। और अगर अन्ना टीम का ट्रांसफॉरमोरशन हुआ तो समझना यह भी होगा कि जो सवाल रालेगण सिद्दि में आज उठ रहे हैं, उसके दायरे में दिल्ली भी आयेगी। क्योंकि अन्ना टीम का मतलब आधुनिक एनजीओ से जुड़े पढ़े-लिखे युवाओ की टोली भी है। बाबूगिरि छोड़ आंदोलन में कूदे केजरीवाल सरीखे पूर्व नौकरशाह भी है और पुलिसिया ठसक से व्यवस्था को अनुशासन में बांधने का पाठ पढ चुकी किरण बेदी हैं। यानी जिस दौर में शहर की चकाचौंध गांव को निगल लेने पर आमादा हैं, उस दौर में शहर ही अगर गांव की राजनीतिक पाठशाला तले संसदीय सत्ता को बदलने निकला तो यह रास्ता जायेगा कहा यह तो कोई नहीं कह सकता लेकिन रालेगण सिद्दि से उठते सवाल इसी रास्ते पर जाने की बैचेनी लिये हुये है, अब इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता।
.....आधा पागल होने से काम नहीं चलेगा । इसमें पूरा पागल होना होगा। जो ठान लेना है, तो उसे पूरा करना है। लेकिन ईमानदारी से। सदाचार छोडना नहीं है । निष्कलंक जीवन रखना है।
...आप जो कहोगे वही करेंगे।
यह बातचीत रालेगण सिद्दि में अन्ना हजारे से मिलने आने वाले सैकडों लोगों में से एक की है। 15 गुना 15 फीट के कमरे के बीचोबीच लोहे के सिगल बेड पर एक मोटी सी बिछी तोसक के उपर सफेद चादर पर आलथी-पालथी मार कर बैठे अन्ना हजारे। सफेद धोती, सफेद कुर्ता और सर पर सफेद गांधी टोपी। और पलंग के नीचे जमीन पर घुटनों के बल पर बैठे पंजाब से आये इस शख्स के दोनों हाथ अन्ना हजारे के पांव के पास ही हाथ जोडे पड़े रहे। अपनी सारी बात कहते वक्त भी इस शख्स ने अपना सिर तक उठा कर अन्ना को नहीं देखा। रामलीला मैदान से हुकांर भर सरकार को घुटनो के बल लाने वाले अन्ना हजारे के सामने इस तरह संघर्ष में साथ खडे होने के इस दृश्य ने एक साथ कई सवाल खड़े किये। क्योंकि 12 सितंबर की दोपहर जब मैं दिल्ली से रालेगण सिद्दि के लिये रवाना हुआ तो दिमाग में जनलोकपाल के लागू हो पाने या ना हो पाने की उन परिस्थितियों के सवाल थे, जिन पर उन्हीं सांसदो की मुहर भी लगनी है, जिनके खिलाफ जांच की कार्रवाई जनलोकपाल बनते ही शुरु होंगे।
लेकिन शाम को जब रालेगण सिद्दि पहुंचकर अन्ना हजारे से मिलने कमरे में पहुंचा और दस-बारह लोगों से घिरे अन्ना हजारे के संघर्ष में शामिल लोगों की इस गुहार को सुना तो पहली बार लगा कि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की जो परिभाषा जनलोकपाल के जरीये दिल्ली में गढ़ी जा रही है, दरअसल रालेगण सिद्दि में वही भ्रष्टाचार का सवाल लोगों के जीवन से जुड़कर समाज के तौर तरीके बदलने पर आमादा है। या फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम ने हर उस सवाल को झटके में जगा दिया है, जिसने भागती-दौड़ती जिन्दगी में जीने की जद्दोजहद तले हर वस्तु की कीमत लगा दी है। और ज्यादा कीमत लगाकर ज्यादा पुख्ता मान्यता पाने की सोच में ज्यादा कमाने का चक्रव्यूह ही व्यवस्था बन चुकी है।
जीने की यह होड़ ही दिल्ली में विकसित होते समाज का मंत्र है। लेकिन रालेगण सिद्दि में इसी मंत्र के खिलाफ अन्ना हजारे एक ऐसे प्रतीक बन चुके हैं, जहां बनारस के गोपाल राय को होटल मैनेजमेंट करने के बाद भी अन्ना के साथ खड़ा होना ज्यादा बड़ा काम लग रहा है और आस्ट्रेलिया से उत्तराखंड के एनआरआई अपना सारा धंधा समेटकर अब उत्तराखंड के गांवों में जाकर अन्ना के सपनों को वहां की जमीन पर उतारने की बैचेनी लिये रालेगण सिद्दि में ही रालेगण सिद्दि की ही युवा टोली के साथ डेरा जमाये हुये हैं। अन्ना के कमरे में अपनी बारी आने पर एनआरआई अशोक भी अन्ना से नजर नहीं मिलाता बल्कि उनके पलंग के बगल में खडा होकर बाकि खड़े लोगों की तरफ देखकर जब यह कहना शुरु करता है कि अन्ना हजारे के संघर्ष में लहराते तिरंगे ने वह काम कर दिया जो उसके मां-बाप नहीं कर सके।
मां-बाप चाहते थे अशोक आस्ट्रेलिया छोड़ भारत लौट आये लेकिन कमाने की घुन ने उसे वही बांधे रखा। लेकिन अन्ना के आंदोलन ने देश को जगाया तो वह भी अपने देश लौट आया। अन्ना भावुक हो जाते हैं। लेकिन अशोक अपनी बात रहने से रुकता नहीं है। उसे पता है हर दिन सैकड़ों लोग अन्ना से मिलने पहुंच रहे हैं तो फिर मौका ना मिले। अशोक बताता है कि अन्ना के गांव रालेगण सिद्दि में ही उसने युवाओ की टोली बनायी है। कई दिनो से गांव में घूमकर हर चीज का बारीकी से अध्ययन किया है। और वह अन्ना से इस बात की इजाजत चाहता है कि रालेगण सिद्दि के युवाओं को साथ ले जाकर वह उत्तराखंड के गांवों का वातावरण भी बदले। गांव को स्वावलंबी बनाये । रालेगण सिद्दि की तरह ही कोई गांव ना छोड़े इस मंत्र को रालेगण के युवाओ के आसरे ही बिखेरे। पैसे की कोई चिंता अन्ना आपको नहीं करनी है। मेरे पास सबकुछ है । बस मैं भी आपकी खिंची लीक पर चलकर आदर्श गांव बनाना चाहता हूं। क्योंकि हर सरकार तो यही पाठ पढ़ा रही है कि जितने ज्यादा गांव शहर में बदलेंगे उतना ही देश का विकास होगा।
लेकिन शहरों का क्या हाल है यह तो रालेगण सिद्दि से बाहर जाते ही पता चल जाता है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा शहरी गरीब लोग है। अब अन्ना आप इजाजत दें तो गांव बनाने के लिये यहा के लड़कों के साथ निकलूं। कुछ दिन और रुक कर गांव देख लो। सिर्फ पैसे के आधार पर जो तुम्हारे साथ खड़ा हो उससे गांव का निर्माण नहीं होगा। बल्कि गांव की ताकत गांव में ही होती है। इसलिये पहले गांव को समझो फिर निकलना। यानी हर मिलने वाले के सामने देश को सहेजने के सवाल और उस पर अन्ना का गुरु मंत्र। तो क्या जंतर-मंतर से रामलीला मैदान ने संघर्ष को चाहे आंदोलन में बदला लेकिन रामलीला मैदान की आहट अब रालेगण सिद्दि में कोई नया इतिहास रचने की दिशा में बढ़ रहा है। या फिर जनलोकपाल का सवाल व्यवस्था सुधार का महज एक पेंच भर है। तो क्या दिल्ली में अन्ना के आंदोलन की आहट से सकपकायी सरकार के भीतर भ्रष्टाचार को लेकर जो सियासी सवाल खड़े हो रहे है और भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की दिशा में सरकार अब पहल करना चाह रही है उसके उलट रालेगण सिद्दि में अब यह सवाल खड़ा होने लगे है कि लड़ाई तो जीतने के लिये लड़नी होगी। और उन हाथों में आंदोलन की कमाई नहीं थमाई जा सकती जो चुनावी बिसात पर अपना धाटा-मुनाफा टटोल कर भ्रष्ट्राचार से भी दोस्ती-दुश्मनी दिखाते हैं।
यानी दिल्ली में चाहे अन्ना टीम जनलोकपाल को कानून की शक्ल में लाने की जद्दोजहद कर रही है और सरकारी मुलाकातों के दौर में बिसात यही बिछ रही हो कि जनलोकपाल लाने पर कांग्रेस को कितना फायदा होगा या सरकार की छवि कितनी सुधरेगी या फिर बीजेपी आडवाणी के रथयात्रा से कितना लाभ उठा पायेगी। लेकिन रालेगण सिद्दि का रास्ता जनलोकपाल को पीछे छोड राजनीतिक शुद्दिकरण की दिशा में आगे बढ़ चला है। जहां हर दिन अन्ना के दरवाजे पर दस्तक देते सैकड़ों लोग उन मुश्किलों से जुझने के लिये खुद को तैयार कर रहे हैं, जहां दिल्ली की समझ विकास मान बैठी है। किसान मुआवजे की कितनी रकम पर भी खेती की जमीन देना नहीं चाहता। उसे अन्ना से राहत मिलती है क्योंकि रालेगण सिद्दि में खेती और किसान ही जीवन है। अन्ना यह कहने से नहीं चूकते की भारत तो कृषि प्रधान देश है। नोट बांटकर जमीन हड़पने का वह विरोध करेंगे।
किसानों को लगता है कि अन्ना हजारे की अगली लड़ाई उन्हीं के लिये होगी। देश हाथों में तिरंगा लेकर वैसे ही शहर दर शहर जमा हो जायेगा जैसे जनलोकपाल को लेकर खड़ा हुआ। गरीब-मजदूर से लेकर छात्र और युवाओं की टोलियां भी रालेगण सिद्दि यह सोच कर पहुंच रही है कि उनके सवालों पर भी तिरंगा लहराया जा सकता है अगर अन्ना हजारे पहल करें। वह स्कूल, पीने का पानी, स्वस्थ्य सेवा से लेकर सरकार की नीतियों को लागू करने में भी अंडगा डालते नेता और बाबूओं की टोली के खिलाफ सीधे संघर्ष का ऐलान करें तो सरकार पटरी पर दौड़ने लगेगी। सैकडों हाथ तो अन्ना के सामने सिर्फ इसलिये जुड़े हैं कि अन्ना हजारे को संघर्ष से रुकना नहीं है।
रोटी-रोजगार कुछ भी नहीं चाहिये लेकिन देश की हालत जो सत्ताधारियों ने बना दी है और लूट-खसोट का राज जिस तरह चल रहा है, उसमें अन्ना अगुवाई करें तो सैकडों हाथ पीछे चल पडेंगे। असल में रालेगण सिद्दि का सबसे बडा एहसास यही है कि हर दिन सैकडो नये नये चेहरो के लिये अन्ना हजारे एक ऐसा प्रतीक बन गये हैं, जहां दिल्ली की सत्ता भी छोटी लगती है। भरोसा इस बात को लेकर है कि अन्ना का रास्ता सौदेबाजी में गुम नहीं होगा। अन्ना का साथ उस सियासी बिसात को डिगा देगा जहां लाखों लोगों को अलग अलग कर प्यादा बना दिया गया है। अन्ना का संघर्ष इस अहसास को जगा देगा कि देश का मतलब यहां के लोग। यहां की जमीन है। यहां की खनिज संपदा। यहां के सरोकार हैं। इसलिये पहली बार अन्ना के दरवाजे पर दस्तक देने वालो में छत्तीसगढ और उड़ीसा के वह किसान-आदिवासी भी हैं, जहां की जमीन खनन के लिये कॉरपोरेट हाथो को सरकार ने विकास का नाम लेकर बांट दी। छत्तीसगढ के जिस दल्ली-राजहरा के इलाके में शंकरगुहा नियागी ने अस्सी के दशक में लंबा संघर्ष किया और वामपंथी पार्टियो ने ट्रेड-यूनियनो के जरीये मजदूरो के सवाल उठाये, वहां के मजदूर और किसान भी रालेगण सिद्दि में अन्ना की चौखट पर यह कहते हुये दस्तक देते दिखे कि संघर्ष रुकना नहीं चाहिये। वहीं बिहार के उन पचास पार उम्र के लोगो की आवाजाही भी खूब है, जिन्होंने जेपी आंदोलन के लिये अपना सबकुछ छोड़ दिया अब वह अन्ना के सामने नतमस्तक होकर यह कहते हुये अपने अनुभव की पोटली खोल रहे है कि जेपी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। लेकिन जेपी के बाद सत्ता की होड में सभी भ्रष्ट हो गये। जो नेता निकले वह भी भ्रष्टाचार में ही अबतक गोते लगा रहे हैं। अन्ना उन्हें भी सीख देते हैं, हारना नहीं है। जो भ्रष्ट हैं, उनके खिलाफ तो देश अब जाग रहा है। युवा शक्ति समझ रही है। इसलिये अब संघर्ष थमेगा नहीं। और अन्ना जेपी के दौर के निराश लोगों से भी कहते हैं मै बेदाग हूं। निषकंलक होना ही इस आंदोलन की ताकत है। आप सब अपनी अपनी जगह खड़े हो जाईये। रास्ता जनसंसद से ही निकलेगा। और संसद में बैठे सांसद खुद को जिस तरह मालिक माने बैठे हैं इन्हें सेवक की तरह काम करना ही होगा। नही तो देश अब सोयेगा नहीं। अन्ना के साथ घंटों बैठने का एहसास और रालेगण सिद्दि में ही पूरा दिन पूरी रात गुजारने के बाद जब दिल्ली के लिये रवाना हुआ तो पहली बार लगा कि दिल्ली में जनलोकपाल को लागू कराने के लिये अन्ना टीम के सदस्य जिस तरह सरकार से बातचीत कर रहे है इससे इतर अन्ना की सोच एक नयी विजन के साथ अब देश में बदलाव के लिये आंदोलन की एक नयी जमीन बनाने की दिशा में बढ़ रही है। और आने वाले दौर में अन्ना का सफर रालेगण सिद्दि से निकलकर कहा जायेगा यह अन्ना टीम को भी शायद तबतक समझ में ना आये जबतक वह जनलोकपाल बिल के तकनीकी दायरे से बाहर ना निकले।
हालांकि अन्ना की रालेगण सिद्दि की समझ का असर दिल्ली में बैठी अन्ना टीम पर भी हो रहा है और प्रशांत भूषण सरीखे अल्ट्रा लेफ्ट भी संघ परिवार का सवाल उछालने पर यह कहने से नहीं चूकते कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में आरएसएस अगर पहल कर रहा है तो इसमें गलत क्या है। सही मायने में अन्ना हजारे की सामाजिक-आर्थिक समझ के कैनवास में जो राजनीतिक ककहरा अब अन्ना टीम के पढ़-लिखे लोग सीख रहे हैं, वह आने वाले वक्त में आंदोलन के मुद्दो को लेकर एक नयी दिशा में जा सरके हैं। और अगर अन्ना टीम का ट्रांसफॉरमोरशन हुआ तो समझना यह भी होगा कि जो सवाल रालेगण सिद्दि में आज उठ रहे हैं, उसके दायरे में दिल्ली भी आयेगी। क्योंकि अन्ना टीम का मतलब आधुनिक एनजीओ से जुड़े पढ़े-लिखे युवाओ की टोली भी है। बाबूगिरि छोड़ आंदोलन में कूदे केजरीवाल सरीखे पूर्व नौकरशाह भी है और पुलिसिया ठसक से व्यवस्था को अनुशासन में बांधने का पाठ पढ चुकी किरण बेदी हैं। यानी जिस दौर में शहर की चकाचौंध गांव को निगल लेने पर आमादा हैं, उस दौर में शहर ही अगर गांव की राजनीतिक पाठशाला तले संसदीय सत्ता को बदलने निकला तो यह रास्ता जायेगा कहा यह तो कोई नहीं कह सकता लेकिन रालेगण सिद्दि से उठते सवाल इसी रास्ते पर जाने की बैचेनी लिये हुये है, अब इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता।
रालेगण की हवा में घुमड़ने लगी है राजनीतिक बदलाव की बेचैनी
मैं पंजाब के कपूरथला से आया हूं। मैं रिटायर हो चुका हूं। सेना में था। दो बेटियां हैं। दोनों की शादी हो चुकी है। मुझे पेंशन मिलती है। रिटायर होने के बाद जो पैसा मिला वह मेरे बैंक में है। अब मैं अपनी सारी पूंजी आपको देना चाहता हूं। मेरी पेंशन भी। बस मैं आपके कहने पर आपके साथ काम करना चाहता हूं। आप जहां कहेंगे वहां तैनात हो जाऊंगा। देखिये मैं लिखकर भी लाया हूं, समाज को कैसे भ्रष्टाचार से मुक्त कर दें। यह मेरी पत्नी है। जो जानती है कि समाजसेवा के काम के लिये मैं आधा पागल हूं। बस आप मुझे बता दो कहा काम करना है। कैसे काम करना है।
.....आधा पागल होने से काम नहीं चलेगा । इसमें पूरा पागल होना होगा। जो ठान लेना है, तो उसे पूरा करना है। लेकिन ईमानदारी से। सदाचार छोडना नहीं है । निष्कलंक जीवन रखना है।
...आप जो कहोगे वही करेंगे।
यह बातचीत रालेगण सिद्दि में अन्ना हजारे से मिलने आने वाले सैकडों लोगों में से एक की है। 15 गुना 15 फीट के कमरे के बीचोबीच लोहे के सिगल बेड पर एक मोटी सी बिछी तोसक के उपर सफेद चादर पर आलथी-पालथी मार कर बैठे अन्ना हजारे। सफेद धोती, सफेद कुर्ता और सर पर सफेद गांधी टोपी। और पलंग के नीचे जमीन पर घुटनों के बल पर बैठे पंजाब से आये इस शख्स के दोनों हाथ अन्ना हजारे के पांव के पास ही हाथ जोडे पड़े रहे। अपनी सारी बात कहते वक्त भी इस शख्स ने अपना सिर तक उठा कर अन्ना को नहीं देखा। रामलीला मैदान से हुकांर भर सरकार को घुटनो के बल लाने वाले अन्ना हजारे के सामने इस तरह संघर्ष में साथ खडे होने के इस दृश्य ने एक साथ कई सवाल खड़े किये। क्योंकि 12 सितंबर की दोपहर जब मैं दिल्ली से रालेगण सिद्दि के लिये रवाना हुआ तो दिमाग में जनलोकपाल के लागू हो पाने या ना हो पाने की उन परिस्थितियों के सवाल थे, जिन पर उन्हीं सांसदो की मुहर भी लगनी है, जिनके खिलाफ जांच की कार्रवाई जनलोकपाल बनते ही शुरु होंगे।
लेकिन शाम को जब रालेगण सिद्दि पहुंचकर अन्ना हजारे से मिलने कमरे में पहुंचा और दस-बारह लोगों से घिरे अन्ना हजारे के संघर्ष में शामिल लोगों की इस गुहार को सुना तो पहली बार लगा कि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की जो परिभाषा जनलोकपाल के जरीये दिल्ली में गढ़ी जा रही है, दरअसल रालेगण सिद्दि में वही भ्रष्टाचार का सवाल लोगों के जीवन से जुड़कर समाज के तौर तरीके बदलने पर आमादा है। या फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम ने हर उस सवाल को झटके में जगा दिया है, जिसने भागती-दौड़ती जिन्दगी में जीने की जद्दोजहद तले हर वस्तु की कीमत लगा दी है। और ज्यादा कीमत लगाकर ज्यादा पुख्ता मान्यता पाने की सोच में ज्यादा कमाने का चक्रव्यूह ही व्यवस्था बन चुकी है।
जीने की यह होड़ ही दिल्ली में विकसित होते समाज का मंत्र है। लेकिन रालेगण सिद्दि में इसी मंत्र के खिलाफ अन्ना हजारे एक ऐसे प्रतीक बन चुके हैं, जहां बनारस के गोपाल राय को होटल मैनेजमेंट करने के बाद भी अन्ना के साथ खड़ा होना ज्यादा बड़ा काम लग रहा है और आस्ट्रेलिया से उत्तराखंड के एनआरआई अपना सारा धंधा समेटकर अब उत्तराखंड के गांवों में जाकर अन्ना के सपनों को वहां की जमीन पर उतारने की बैचेनी लिये रालेगण सिद्दि में ही रालेगण सिद्दि की ही युवा टोली के साथ डेरा जमाये हुये हैं। अन्ना के कमरे में अपनी बारी आने पर एनआरआई अशोक भी अन्ना से नजर नहीं मिलाता बल्कि उनके पलंग के बगल में खडा होकर बाकि खड़े लोगों की तरफ देखकर जब यह कहना शुरु करता है कि अन्ना हजारे के संघर्ष में लहराते तिरंगे ने वह काम कर दिया जो उसके मां-बाप नहीं कर सके।
मां-बाप चाहते थे अशोक आस्ट्रेलिया छोड़ भारत लौट आये लेकिन कमाने की घुन ने उसे वही बांधे रखा। लेकिन अन्ना के आंदोलन ने देश को जगाया तो वह भी अपने देश लौट आया। अन्ना भावुक हो जाते हैं। लेकिन अशोक अपनी बात रहने से रुकता नहीं है। उसे पता है हर दिन सैकड़ों लोग अन्ना से मिलने पहुंच रहे हैं तो फिर मौका ना मिले। अशोक बताता है कि अन्ना के गांव रालेगण सिद्दि में ही उसने युवाओ की टोली बनायी है। कई दिनो से गांव में घूमकर हर चीज का बारीकी से अध्ययन किया है। और वह अन्ना से इस बात की इजाजत चाहता है कि रालेगण सिद्दि के युवाओं को साथ ले जाकर वह उत्तराखंड के गांवों का वातावरण भी बदले। गांव को स्वावलंबी बनाये । रालेगण सिद्दि की तरह ही कोई गांव ना छोड़े इस मंत्र को रालेगण के युवाओ के आसरे ही बिखेरे। पैसे की कोई चिंता अन्ना आपको नहीं करनी है। मेरे पास सबकुछ है । बस मैं भी आपकी खिंची लीक पर चलकर आदर्श गांव बनाना चाहता हूं। क्योंकि हर सरकार तो यही पाठ पढ़ा रही है कि जितने ज्यादा गांव शहर में बदलेंगे उतना ही देश का विकास होगा।
लेकिन शहरों का क्या हाल है यह तो रालेगण सिद्दि से बाहर जाते ही पता चल जाता है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा शहरी गरीब लोग है। अब अन्ना आप इजाजत दें तो गांव बनाने के लिये यहा के लड़कों के साथ निकलूं। कुछ दिन और रुक कर गांव देख लो। सिर्फ पैसे के आधार पर जो तुम्हारे साथ खड़ा हो उससे गांव का निर्माण नहीं होगा। बल्कि गांव की ताकत गांव में ही होती है। इसलिये पहले गांव को समझो फिर निकलना। यानी हर मिलने वाले के सामने देश को सहेजने के सवाल और उस पर अन्ना का गुरु मंत्र। तो क्या जंतर-मंतर से रामलीला मैदान ने संघर्ष को चाहे आंदोलन में बदला लेकिन रामलीला मैदान की आहट अब रालेगण सिद्दि में कोई नया इतिहास रचने की दिशा में बढ़ रहा है। या फिर जनलोकपाल का सवाल व्यवस्था सुधार का महज एक पेंच भर है। तो क्या दिल्ली में अन्ना के आंदोलन की आहट से सकपकायी सरकार के भीतर भ्रष्टाचार को लेकर जो सियासी सवाल खड़े हो रहे है और भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की दिशा में सरकार अब पहल करना चाह रही है उसके उलट रालेगण सिद्दि में अब यह सवाल खड़ा होने लगे है कि लड़ाई तो जीतने के लिये लड़नी होगी। और उन हाथों में आंदोलन की कमाई नहीं थमाई जा सकती जो चुनावी बिसात पर अपना धाटा-मुनाफा टटोल कर भ्रष्ट्राचार से भी दोस्ती-दुश्मनी दिखाते हैं।
यानी दिल्ली में चाहे अन्ना टीम जनलोकपाल को कानून की शक्ल में लाने की जद्दोजहद कर रही है और सरकारी मुलाकातों के दौर में बिसात यही बिछ रही हो कि जनलोकपाल लाने पर कांग्रेस को कितना फायदा होगा या सरकार की छवि कितनी सुधरेगी या फिर बीजेपी आडवाणी के रथयात्रा से कितना लाभ उठा पायेगी। लेकिन रालेगण सिद्दि का रास्ता जनलोकपाल को पीछे छोड राजनीतिक शुद्दिकरण की दिशा में आगे बढ़ चला है। जहां हर दिन अन्ना के दरवाजे पर दस्तक देते सैकड़ों लोग उन मुश्किलों से जुझने के लिये खुद को तैयार कर रहे हैं, जहां दिल्ली की समझ विकास मान बैठी है। किसान मुआवजे की कितनी रकम पर भी खेती की जमीन देना नहीं चाहता। उसे अन्ना से राहत मिलती है क्योंकि रालेगण सिद्दि में खेती और किसान ही जीवन है। अन्ना यह कहने से नहीं चूकते की भारत तो कृषि प्रधान देश है। नोट बांटकर जमीन हड़पने का वह विरोध करेंगे।
किसानों को लगता है कि अन्ना हजारे की अगली लड़ाई उन्हीं के लिये होगी। देश हाथों में तिरंगा लेकर वैसे ही शहर दर शहर जमा हो जायेगा जैसे जनलोकपाल को लेकर खड़ा हुआ। गरीब-मजदूर से लेकर छात्र और युवाओं की टोलियां भी रालेगण सिद्दि यह सोच कर पहुंच रही है कि उनके सवालों पर भी तिरंगा लहराया जा सकता है अगर अन्ना हजारे पहल करें। वह स्कूल, पीने का पानी, स्वस्थ्य सेवा से लेकर सरकार की नीतियों को लागू करने में भी अंडगा डालते नेता और बाबूओं की टोली के खिलाफ सीधे संघर्ष का ऐलान करें तो सरकार पटरी पर दौड़ने लगेगी। सैकडों हाथ तो अन्ना के सामने सिर्फ इसलिये जुड़े हैं कि अन्ना हजारे को संघर्ष से रुकना नहीं है।
रोटी-रोजगार कुछ भी नहीं चाहिये लेकिन देश की हालत जो सत्ताधारियों ने बना दी है और लूट-खसोट का राज जिस तरह चल रहा है, उसमें अन्ना अगुवाई करें तो सैकडों हाथ पीछे चल पडेंगे। असल में रालेगण सिद्दि का सबसे बडा एहसास यही है कि हर दिन सैकडो नये नये चेहरो के लिये अन्ना हजारे एक ऐसा प्रतीक बन गये हैं, जहां दिल्ली की सत्ता भी छोटी लगती है। भरोसा इस बात को लेकर है कि अन्ना का रास्ता सौदेबाजी में गुम नहीं होगा। अन्ना का साथ उस सियासी बिसात को डिगा देगा जहां लाखों लोगों को अलग अलग कर प्यादा बना दिया गया है। अन्ना का संघर्ष इस अहसास को जगा देगा कि देश का मतलब यहां के लोग। यहां की जमीन है। यहां की खनिज संपदा। यहां के सरोकार हैं। इसलिये पहली बार अन्ना के दरवाजे पर दस्तक देने वालो में छत्तीसगढ और उड़ीसा के वह किसान-आदिवासी भी हैं, जहां की जमीन खनन के लिये कॉरपोरेट हाथो को सरकार ने विकास का नाम लेकर बांट दी। छत्तीसगढ के जिस दल्ली-राजहरा के इलाके में शंकरगुहा नियागी ने अस्सी के दशक में लंबा संघर्ष किया और वामपंथी पार्टियो ने ट्रेड-यूनियनो के जरीये मजदूरो के सवाल उठाये, वहां के मजदूर और किसान भी रालेगण सिद्दि में अन्ना की चौखट पर यह कहते हुये दस्तक देते दिखे कि संघर्ष रुकना नहीं चाहिये। वहीं बिहार के उन पचास पार उम्र के लोगो की आवाजाही भी खूब है, जिन्होंने जेपी आंदोलन के लिये अपना सबकुछ छोड़ दिया अब वह अन्ना के सामने नतमस्तक होकर यह कहते हुये अपने अनुभव की पोटली खोल रहे है कि जेपी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। लेकिन जेपी के बाद सत्ता की होड में सभी भ्रष्ट हो गये। जो नेता निकले वह भी भ्रष्टाचार में ही अबतक गोते लगा रहे हैं। अन्ना उन्हें भी सीख देते हैं, हारना नहीं है। जो भ्रष्ट हैं, उनके खिलाफ तो देश अब जाग रहा है। युवा शक्ति समझ रही है। इसलिये अब संघर्ष थमेगा नहीं। और अन्ना जेपी के दौर के निराश लोगों से भी कहते हैं मै बेदाग हूं। निषकंलक होना ही इस आंदोलन की ताकत है। आप सब अपनी अपनी जगह खड़े हो जाईये। रास्ता जनसंसद से ही निकलेगा। और संसद में बैठे सांसद खुद को जिस तरह मालिक माने बैठे हैं इन्हें सेवक की तरह काम करना ही होगा। नही तो देश अब सोयेगा नहीं। अन्ना के साथ घंटों बैठने का एहसास और रालेगण सिद्दि में ही पूरा दिन पूरी रात गुजारने के बाद जब दिल्ली के लिये रवाना हुआ तो पहली बार लगा कि दिल्ली में जनलोकपाल को लागू कराने के लिये अन्ना टीम के सदस्य जिस तरह सरकार से बातचीत कर रहे है इससे इतर अन्ना की सोच एक नयी विजन के साथ अब देश में बदलाव के लिये आंदोलन की एक नयी जमीन बनाने की दिशा में बढ़ रही है। और आने वाले दौर में अन्ना का सफर रालेगण सिद्दि से निकलकर कहा जायेगा यह अन्ना टीम को भी शायद तबतक समझ में ना आये जबतक वह जनलोकपाल बिल के तकनीकी दायरे से बाहर ना निकले।
हालांकि अन्ना की रालेगण सिद्दि की समझ का असर दिल्ली में बैठी अन्ना टीम पर भी हो रहा है और प्रशांत भूषण सरीखे अल्ट्रा लेफ्ट भी संघ परिवार का सवाल उछालने पर यह कहने से नहीं चूकते कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में आरएसएस अगर पहल कर रहा है तो इसमें गलत क्या है। सही मायने में अन्ना हजारे की सामाजिक-आर्थिक समझ के कैनवास में जो राजनीतिक ककहरा अब अन्ना टीम के पढ़-लिखे लोग सीख रहे हैं, वह आने वाले वक्त में आंदोलन के मुद्दो को लेकर एक नयी दिशा में जा सरके हैं। और अगर अन्ना टीम का ट्रांसफॉरमोरशन हुआ तो समझना यह भी होगा कि जो सवाल रालेगण सिद्दि में आज उठ रहे हैं, उसके दायरे में दिल्ली भी आयेगी। क्योंकि अन्ना टीम का मतलब आधुनिक एनजीओ से जुड़े पढ़े-लिखे युवाओ की टोली भी है। बाबूगिरि छोड़ आंदोलन में कूदे केजरीवाल सरीखे पूर्व नौकरशाह भी है और पुलिसिया ठसक से व्यवस्था को अनुशासन में बांधने का पाठ पढ चुकी किरण बेदी हैं। यानी जिस दौर में शहर की चकाचौंध गांव को निगल लेने पर आमादा हैं, उस दौर में शहर ही अगर गांव की राजनीतिक पाठशाला तले संसदीय सत्ता को बदलने निकला तो यह रास्ता जायेगा कहा यह तो कोई नहीं कह सकता लेकिन रालेगण सिद्दि से उठते सवाल इसी रास्ते पर जाने की बैचेनी लिये हुये है, अब इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता।
.....आधा पागल होने से काम नहीं चलेगा । इसमें पूरा पागल होना होगा। जो ठान लेना है, तो उसे पूरा करना है। लेकिन ईमानदारी से। सदाचार छोडना नहीं है । निष्कलंक जीवन रखना है।
...आप जो कहोगे वही करेंगे।
यह बातचीत रालेगण सिद्दि में अन्ना हजारे से मिलने आने वाले सैकडों लोगों में से एक की है। 15 गुना 15 फीट के कमरे के बीचोबीच लोहे के सिगल बेड पर एक मोटी सी बिछी तोसक के उपर सफेद चादर पर आलथी-पालथी मार कर बैठे अन्ना हजारे। सफेद धोती, सफेद कुर्ता और सर पर सफेद गांधी टोपी। और पलंग के नीचे जमीन पर घुटनों के बल पर बैठे पंजाब से आये इस शख्स के दोनों हाथ अन्ना हजारे के पांव के पास ही हाथ जोडे पड़े रहे। अपनी सारी बात कहते वक्त भी इस शख्स ने अपना सिर तक उठा कर अन्ना को नहीं देखा। रामलीला मैदान से हुकांर भर सरकार को घुटनो के बल लाने वाले अन्ना हजारे के सामने इस तरह संघर्ष में साथ खडे होने के इस दृश्य ने एक साथ कई सवाल खड़े किये। क्योंकि 12 सितंबर की दोपहर जब मैं दिल्ली से रालेगण सिद्दि के लिये रवाना हुआ तो दिमाग में जनलोकपाल के लागू हो पाने या ना हो पाने की उन परिस्थितियों के सवाल थे, जिन पर उन्हीं सांसदो की मुहर भी लगनी है, जिनके खिलाफ जांच की कार्रवाई जनलोकपाल बनते ही शुरु होंगे।
लेकिन शाम को जब रालेगण सिद्दि पहुंचकर अन्ना हजारे से मिलने कमरे में पहुंचा और दस-बारह लोगों से घिरे अन्ना हजारे के संघर्ष में शामिल लोगों की इस गुहार को सुना तो पहली बार लगा कि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की जो परिभाषा जनलोकपाल के जरीये दिल्ली में गढ़ी जा रही है, दरअसल रालेगण सिद्दि में वही भ्रष्टाचार का सवाल लोगों के जीवन से जुड़कर समाज के तौर तरीके बदलने पर आमादा है। या फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम ने हर उस सवाल को झटके में जगा दिया है, जिसने भागती-दौड़ती जिन्दगी में जीने की जद्दोजहद तले हर वस्तु की कीमत लगा दी है। और ज्यादा कीमत लगाकर ज्यादा पुख्ता मान्यता पाने की सोच में ज्यादा कमाने का चक्रव्यूह ही व्यवस्था बन चुकी है।
जीने की यह होड़ ही दिल्ली में विकसित होते समाज का मंत्र है। लेकिन रालेगण सिद्दि में इसी मंत्र के खिलाफ अन्ना हजारे एक ऐसे प्रतीक बन चुके हैं, जहां बनारस के गोपाल राय को होटल मैनेजमेंट करने के बाद भी अन्ना के साथ खड़ा होना ज्यादा बड़ा काम लग रहा है और आस्ट्रेलिया से उत्तराखंड के एनआरआई अपना सारा धंधा समेटकर अब उत्तराखंड के गांवों में जाकर अन्ना के सपनों को वहां की जमीन पर उतारने की बैचेनी लिये रालेगण सिद्दि में ही रालेगण सिद्दि की ही युवा टोली के साथ डेरा जमाये हुये हैं। अन्ना के कमरे में अपनी बारी आने पर एनआरआई अशोक भी अन्ना से नजर नहीं मिलाता बल्कि उनके पलंग के बगल में खडा होकर बाकि खड़े लोगों की तरफ देखकर जब यह कहना शुरु करता है कि अन्ना हजारे के संघर्ष में लहराते तिरंगे ने वह काम कर दिया जो उसके मां-बाप नहीं कर सके।
मां-बाप चाहते थे अशोक आस्ट्रेलिया छोड़ भारत लौट आये लेकिन कमाने की घुन ने उसे वही बांधे रखा। लेकिन अन्ना के आंदोलन ने देश को जगाया तो वह भी अपने देश लौट आया। अन्ना भावुक हो जाते हैं। लेकिन अशोक अपनी बात रहने से रुकता नहीं है। उसे पता है हर दिन सैकड़ों लोग अन्ना से मिलने पहुंच रहे हैं तो फिर मौका ना मिले। अशोक बताता है कि अन्ना के गांव रालेगण सिद्दि में ही उसने युवाओ की टोली बनायी है। कई दिनो से गांव में घूमकर हर चीज का बारीकी से अध्ययन किया है। और वह अन्ना से इस बात की इजाजत चाहता है कि रालेगण सिद्दि के युवाओं को साथ ले जाकर वह उत्तराखंड के गांवों का वातावरण भी बदले। गांव को स्वावलंबी बनाये । रालेगण सिद्दि की तरह ही कोई गांव ना छोड़े इस मंत्र को रालेगण के युवाओ के आसरे ही बिखेरे। पैसे की कोई चिंता अन्ना आपको नहीं करनी है। मेरे पास सबकुछ है । बस मैं भी आपकी खिंची लीक पर चलकर आदर्श गांव बनाना चाहता हूं। क्योंकि हर सरकार तो यही पाठ पढ़ा रही है कि जितने ज्यादा गांव शहर में बदलेंगे उतना ही देश का विकास होगा।
लेकिन शहरों का क्या हाल है यह तो रालेगण सिद्दि से बाहर जाते ही पता चल जाता है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा शहरी गरीब लोग है। अब अन्ना आप इजाजत दें तो गांव बनाने के लिये यहा के लड़कों के साथ निकलूं। कुछ दिन और रुक कर गांव देख लो। सिर्फ पैसे के आधार पर जो तुम्हारे साथ खड़ा हो उससे गांव का निर्माण नहीं होगा। बल्कि गांव की ताकत गांव में ही होती है। इसलिये पहले गांव को समझो फिर निकलना। यानी हर मिलने वाले के सामने देश को सहेजने के सवाल और उस पर अन्ना का गुरु मंत्र। तो क्या जंतर-मंतर से रामलीला मैदान ने संघर्ष को चाहे आंदोलन में बदला लेकिन रामलीला मैदान की आहट अब रालेगण सिद्दि में कोई नया इतिहास रचने की दिशा में बढ़ रहा है। या फिर जनलोकपाल का सवाल व्यवस्था सुधार का महज एक पेंच भर है। तो क्या दिल्ली में अन्ना के आंदोलन की आहट से सकपकायी सरकार के भीतर भ्रष्टाचार को लेकर जो सियासी सवाल खड़े हो रहे है और भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की दिशा में सरकार अब पहल करना चाह रही है उसके उलट रालेगण सिद्दि में अब यह सवाल खड़ा होने लगे है कि लड़ाई तो जीतने के लिये लड़नी होगी। और उन हाथों में आंदोलन की कमाई नहीं थमाई जा सकती जो चुनावी बिसात पर अपना धाटा-मुनाफा टटोल कर भ्रष्ट्राचार से भी दोस्ती-दुश्मनी दिखाते हैं।
यानी दिल्ली में चाहे अन्ना टीम जनलोकपाल को कानून की शक्ल में लाने की जद्दोजहद कर रही है और सरकारी मुलाकातों के दौर में बिसात यही बिछ रही हो कि जनलोकपाल लाने पर कांग्रेस को कितना फायदा होगा या सरकार की छवि कितनी सुधरेगी या फिर बीजेपी आडवाणी के रथयात्रा से कितना लाभ उठा पायेगी। लेकिन रालेगण सिद्दि का रास्ता जनलोकपाल को पीछे छोड राजनीतिक शुद्दिकरण की दिशा में आगे बढ़ चला है। जहां हर दिन अन्ना के दरवाजे पर दस्तक देते सैकड़ों लोग उन मुश्किलों से जुझने के लिये खुद को तैयार कर रहे हैं, जहां दिल्ली की समझ विकास मान बैठी है। किसान मुआवजे की कितनी रकम पर भी खेती की जमीन देना नहीं चाहता। उसे अन्ना से राहत मिलती है क्योंकि रालेगण सिद्दि में खेती और किसान ही जीवन है। अन्ना यह कहने से नहीं चूकते की भारत तो कृषि प्रधान देश है। नोट बांटकर जमीन हड़पने का वह विरोध करेंगे।
किसानों को लगता है कि अन्ना हजारे की अगली लड़ाई उन्हीं के लिये होगी। देश हाथों में तिरंगा लेकर वैसे ही शहर दर शहर जमा हो जायेगा जैसे जनलोकपाल को लेकर खड़ा हुआ। गरीब-मजदूर से लेकर छात्र और युवाओं की टोलियां भी रालेगण सिद्दि यह सोच कर पहुंच रही है कि उनके सवालों पर भी तिरंगा लहराया जा सकता है अगर अन्ना हजारे पहल करें। वह स्कूल, पीने का पानी, स्वस्थ्य सेवा से लेकर सरकार की नीतियों को लागू करने में भी अंडगा डालते नेता और बाबूओं की टोली के खिलाफ सीधे संघर्ष का ऐलान करें तो सरकार पटरी पर दौड़ने लगेगी। सैकडों हाथ तो अन्ना के सामने सिर्फ इसलिये जुड़े हैं कि अन्ना हजारे को संघर्ष से रुकना नहीं है।
रोटी-रोजगार कुछ भी नहीं चाहिये लेकिन देश की हालत जो सत्ताधारियों ने बना दी है और लूट-खसोट का राज जिस तरह चल रहा है, उसमें अन्ना अगुवाई करें तो सैकडों हाथ पीछे चल पडेंगे। असल में रालेगण सिद्दि का सबसे बडा एहसास यही है कि हर दिन सैकडो नये नये चेहरो के लिये अन्ना हजारे एक ऐसा प्रतीक बन गये हैं, जहां दिल्ली की सत्ता भी छोटी लगती है। भरोसा इस बात को लेकर है कि अन्ना का रास्ता सौदेबाजी में गुम नहीं होगा। अन्ना का साथ उस सियासी बिसात को डिगा देगा जहां लाखों लोगों को अलग अलग कर प्यादा बना दिया गया है। अन्ना का संघर्ष इस अहसास को जगा देगा कि देश का मतलब यहां के लोग। यहां की जमीन है। यहां की खनिज संपदा। यहां के सरोकार हैं। इसलिये पहली बार अन्ना के दरवाजे पर दस्तक देने वालो में छत्तीसगढ और उड़ीसा के वह किसान-आदिवासी भी हैं, जहां की जमीन खनन के लिये कॉरपोरेट हाथो को सरकार ने विकास का नाम लेकर बांट दी। छत्तीसगढ के जिस दल्ली-राजहरा के इलाके में शंकरगुहा नियागी ने अस्सी के दशक में लंबा संघर्ष किया और वामपंथी पार्टियो ने ट्रेड-यूनियनो के जरीये मजदूरो के सवाल उठाये, वहां के मजदूर और किसान भी रालेगण सिद्दि में अन्ना की चौखट पर यह कहते हुये दस्तक देते दिखे कि संघर्ष रुकना नहीं चाहिये। वहीं बिहार के उन पचास पार उम्र के लोगो की आवाजाही भी खूब है, जिन्होंने जेपी आंदोलन के लिये अपना सबकुछ छोड़ दिया अब वह अन्ना के सामने नतमस्तक होकर यह कहते हुये अपने अनुभव की पोटली खोल रहे है कि जेपी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। लेकिन जेपी के बाद सत्ता की होड में सभी भ्रष्ट हो गये। जो नेता निकले वह भी भ्रष्टाचार में ही अबतक गोते लगा रहे हैं। अन्ना उन्हें भी सीख देते हैं, हारना नहीं है। जो भ्रष्ट हैं, उनके खिलाफ तो देश अब जाग रहा है। युवा शक्ति समझ रही है। इसलिये अब संघर्ष थमेगा नहीं। और अन्ना जेपी के दौर के निराश लोगों से भी कहते हैं मै बेदाग हूं। निषकंलक होना ही इस आंदोलन की ताकत है। आप सब अपनी अपनी जगह खड़े हो जाईये। रास्ता जनसंसद से ही निकलेगा। और संसद में बैठे सांसद खुद को जिस तरह मालिक माने बैठे हैं इन्हें सेवक की तरह काम करना ही होगा। नही तो देश अब सोयेगा नहीं। अन्ना के साथ घंटों बैठने का एहसास और रालेगण सिद्दि में ही पूरा दिन पूरी रात गुजारने के बाद जब दिल्ली के लिये रवाना हुआ तो पहली बार लगा कि दिल्ली में जनलोकपाल को लागू कराने के लिये अन्ना टीम के सदस्य जिस तरह सरकार से बातचीत कर रहे है इससे इतर अन्ना की सोच एक नयी विजन के साथ अब देश में बदलाव के लिये आंदोलन की एक नयी जमीन बनाने की दिशा में बढ़ रही है। और आने वाले दौर में अन्ना का सफर रालेगण सिद्दि से निकलकर कहा जायेगा यह अन्ना टीम को भी शायद तबतक समझ में ना आये जबतक वह जनलोकपाल बिल के तकनीकी दायरे से बाहर ना निकले।
हालांकि अन्ना की रालेगण सिद्दि की समझ का असर दिल्ली में बैठी अन्ना टीम पर भी हो रहा है और प्रशांत भूषण सरीखे अल्ट्रा लेफ्ट भी संघ परिवार का सवाल उछालने पर यह कहने से नहीं चूकते कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में आरएसएस अगर पहल कर रहा है तो इसमें गलत क्या है। सही मायने में अन्ना हजारे की सामाजिक-आर्थिक समझ के कैनवास में जो राजनीतिक ककहरा अब अन्ना टीम के पढ़-लिखे लोग सीख रहे हैं, वह आने वाले वक्त में आंदोलन के मुद्दो को लेकर एक नयी दिशा में जा सरके हैं। और अगर अन्ना टीम का ट्रांसफॉरमोरशन हुआ तो समझना यह भी होगा कि जो सवाल रालेगण सिद्दि में आज उठ रहे हैं, उसके दायरे में दिल्ली भी आयेगी। क्योंकि अन्ना टीम का मतलब आधुनिक एनजीओ से जुड़े पढ़े-लिखे युवाओ की टोली भी है। बाबूगिरि छोड़ आंदोलन में कूदे केजरीवाल सरीखे पूर्व नौकरशाह भी है और पुलिसिया ठसक से व्यवस्था को अनुशासन में बांधने का पाठ पढ चुकी किरण बेदी हैं। यानी जिस दौर में शहर की चकाचौंध गांव को निगल लेने पर आमादा हैं, उस दौर में शहर ही अगर गांव की राजनीतिक पाठशाला तले संसदीय सत्ता को बदलने निकला तो यह रास्ता जायेगा कहा यह तो कोई नहीं कह सकता लेकिन रालेगण सिद्दि से उठते सवाल इसी रास्ते पर जाने की बैचेनी लिये हुये है, अब इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता।
Tuesday, September 20, 2011
कांग्रेस के भीतर 10 जनपथ की कंपन
बैंक का मुनाफा दर देश के महंगाई दर के आगे घुटने टेके हुये हैं। न्यूनतम जरुरतों की कीमत देश के औसत प्रति व्यक्ति आय पर भारी पड़ रही है। पैसे की कीमत बनाये रखने के लिये सोना का उछाल और फिर एकदम धड़ाम की स्थिति ने भरोसा यहां भी डिगा दिया है। फिर रियल-इस्टेट और भूमि कब्जा का रास्ता हवाला और मनी-लॉंडरिंग के हाथों हर दिन नया उछाल दर्ज कर रहा है। और इन परिस्थितियों के बीच कैबिनेट मंत्रियों की जमात देश को छोड़ कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे के लिये जिस तरह सरकारी नियमों की धज्जियों को उड़ाते दिख रही है, उसमें पहली बार सरकार भी फंसी है और सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस भी। अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था फेल दिख रही है तो कांग्रेस का हाथ भी आमआदमी पर पकड़ बना नहीं पा रहा है। और चूंकि दोनों के आगे-पीछे 10 जनपथ है, तो क्या यह सोनिया गांधी की हार है। चूंकि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री होने और अभी तक बने रहने के पीछे सोनिया गांधी है और 4 अगस्त से 8 सितंबर तक सोनिया की गैर मौजूदगी में सोनिया का नाम लेकर कांग्रेस को संभालने वाले ए के एंटोनी,जनार्दन द्विवेदी और अहमद पटेल की तिकड़ी फेल रही तो फेल तो सोनिया गांधी ही मानी जायेगी।
लेकिन कांग्रेस का मतलब ही जब गांधी परिवार है तो सोनिया गांधी कैसे हार सकती है। संयोग से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मतलब भी सोनिया गांधी है। तो कौन किसे फेल कहेगा। यानी सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी का मतलब अगर सरकार और कांग्रेस की असफलता है, तो यह 10 जनपथ की सबसे बड़ी जीत हैं। तो क्या असफलता का सेहरा जीत में बदल सकता है। खासकर तब जब देश पटरी पर दौड़ नहीं रहा। सार्वजनिक संस्थान कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियो के आगे नतमस्तक है । अन्ना हजारे की दुबारा वापसी का खौफ सरकार के भीतर है और कांग्रेस भी सियासी जमीन खिसकती देख रही है तो सोनिया गांधी इस दौर में कर क्या रही है,यह उन्हीं के हारे प्यादों के खेल समझना होगा। सरकार बीजेपी की पहचान को कटघरे में खड़ा करना चाहते है। तो 10 जनपथ अन्ना हजारे की सफलता को तिलक के तौर पर अपने माथे पर लगाना चाहता है। सांप्रदायिक विधेयक के आसरे हिन्दुत्व की पहचान समेटे बीजेपी पर अब मनमोहन सिंह सीधी चोट करने को तैयार हैं, जिससे मुद्दों में उलझी सरकार को सियासी जगह मिल सके। वही दूसरी तरफ 10 जनपथ के पटेल अब जनलोकपाल पर सहमति बनाने के उपर सोनिया गांधी का ही सिक्का चलाने का खेल खेलना चाहते हैं। यानी सोनिया की गैरमौजूदगी में सोनिया के हारे प्यादो को अब लगने लगा है कि जिस दौर में वह कमजोर या असफल साबित हुये, उसकी वजह अगर सोनिया के निर्देशों को नजरअंदाज करने पर टिका दिया जाये तो उनका खेल आगे बढ़ सकता है।
तीन स्तर पर इस खेल को अंजाम देने में लगे मनमोहन सिंह एक बार फिर 'क्रोनी कैपटलिज्म' का सवाल उठा कर अपने मंत्रिमंडल को संवारना चाहते हैं। खासकर पेट्रोलियम मंत्री रहते हुये मुरली देवडा के रिलायंस को लाभ पहुंचाने और उड्डयन मंत्री रहते हुये प्रफुल्ल पटेल का इंडियन एयरलाईन्स को चूना लगाकर निजी एयरलाइन्सों को लाभ पहुंचाने का खेल जिस तरह सीएजी रिपोर्ट में आमने आया उसमें अब मनमोहन सिंह यह सवाल खड़ा कर रहे हैं कि उन नेताओ को पार्टी मंत्री बनाने का दवाब ना बनायें, जिससे क्रोनी कैपटलिज्म को बढ़ावा मिले। और आम लोग खुले तौर पर सरकार की ईमानदारी पर सवालिया निशान लगायें। यानी कांग्रेस के भीतर जो खांटी कांग्रेसी मनमोहन सिंह पर आरोप लगाते हैं कि राजनीतिक सरोकार ना होने की वजह से सरकार बार बार हर मुद्दे पर फेल नजर आती है तो उसकी काट मनमोहन सिंह फिर ईमानदारी और कॉरपोरेट से मंत्रियो की दूरी तय कर अपनी ठसक बरकरार रखना चहते हैं। वहीं दूसरे स्तर पर सरकार के भीतर के सत्ता संघर्ष को लगाम लगाने के लिये मनमोहन सिंह अब चिदबरंम और प्रणव मुखर्जी को भी उनके दायरे में बांधना चाहते हैं। आंतरिक सुरक्षा के दायरे में दिल्ली घमाके से पहले जिस तरह हवाला और मनीलॉडरिंग का सवाल खडा कर गृह-मंत्रालय ने ईडी और सीबीडीटी में ताक-झांक शुरु की उससे परेशान प्रणव मुखर्जी और एके एंटोनी के सवालो से ही चिदंबरम को अब सोनिया के माध्यम से शांत किया जा रहा है। वहीं वित्त मंत्रालय ने जिस तरह सीबीडीटी के जरीये दागी निजी कंपनियों की निशानदेही तो की है लेकिन शिकंजे में कसना शुरु नही किया है और कालेधन को लेकर कोई ठोस पहल अबतक नहीं की है, उस पर भी मनमोहन सिंह अपने हाथ खड़े कर खुद को पाक साफ दिखलाने की कोशिश ही कर रहे है।
वहीं दूसरी तरफ 10 जनपथ का खेल निराला है। एक वक्त सोनिया गांधी के सलाहकार के तौर पर गुलाम नहीं आजाद, अंबिका सोनी और अहमद पटेल की तिकड़ी काम करती थी। और यह तिकड़ी समूची पार्टी और सरकार को अपनी अंगुली पर रखती रही, इसे भी हर कांग्रेसी जानता है। लेकिन जिस तरह गुलाम नबी आजाद को कश्मीर भेजा गया और फिर अंबिका सोनी को कैबिनेट मंत्री बनवाकर 10 जनपथ पर अकेला राज अहमद पटेल का हुआ, उसका नया संकट सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी में तब उभरा जब किसी भी मुश्किल वक्त में अहमद पटेल ने ना तो पहल की और ना ही सरकार या पार्टी की तरफ से किसी ने 10 जनपथ के दरवाजे पर दस्तक दी। लेकिन सोनिया लौटी तो अहमद पटेल ने भी अपने सफल को कद बरकरार रखने के लिये अन्ना हजारे के जरीये लाभ उठाती बीजेपी की राजनीतिक जमीन में सेंध लगाने की व्यूह रचना भी शुरु की। विलासराव देशमुख सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि रालेगण सिद्दी में भी अपने प्यादो के जरीये अन्ना हजारे को सोनिया गांधी के दरवाजे पर लाने के लिये बिसात बिछा रहे हैं तो दिल्ली में अहमद पटेल सरकार के भीतर इसके संकेत दे रहे हैं कि जनलोकपाल को लेकर ऐसा रास्ता बनाया जाये जिससे स्टैडिंग कमेटी से लेकर संसद के भीतर वोटिंग तक की स्थिति में सिर्फ सोनिया की चलती दिखे। यानी जिस रास्ते आरटीआई कानून बना और वाहवाही सोनिया गांधी की हुई, वैसा ही रास्ता जनलोकपाल को लेकर भी बनना चाहिये। हालांकि हारे हुये प्यादो की यह सारी मशक्कत अपने कद को बरकरार रखने की भी है और सोनिया गांधी के सामने यह संकेत देना भी है कि उनसे बेहतर प्यादे कोई दूसरे हो नहीं सकते। लेकिन कांग्रेस का खेल अब सरकार से ज्यादा उस राजनीति पर जा टिका है, जिसकी बिसात पर मनमोहन सिंह हारे सिपाही लग रहे हैं, इसे सोनिया गांधी बखूबी समझ रही हैं। इसलिये कांग्रेस को यूपी से लेकर पंजाब तक के विधानसभा चुनाव में कैसे खड़ा किया जाये यह सवाल कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। यूपी में मुलायम सिंह के साथ खड़े होने का मतलब है मायावती की जीत और अकेले खडे होने का मतलब है तीसरे या चौथे नंबर की पार्टी बन त्रिंशकु विधानमभा के जोड़ तोड़ को देखना। कांग्रेस की इस हकीकत की काट सोनिया गांधी, राहुल गांधी में दिखलाना चाहती है। सोनिया इस हकीकत को समझ रही हैं कि राहुल गांधी की चमक अगर फीकी पड़ी है तो उसकी वजह बीजेपी या कोई राजनीतिक दल नहीं बल्कि अन्ना हजारे की वह गैर राजनीतिक सियासत है, जिसने राहुल की जमीनी चमक पर देश के सच की घूल डाल दी और मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि को भी लपेटे में ले लिया। ऐसे में तैयारी इसकी भी है कि संसद के विंटर सेशन में जनलोकपाल पर सोनिया का ठप्पा लगकर पहुंचे तो राहुल के जनलोकपाल पर उठाये सवाल की लोकपाल को संवैधानिक बॉडी के तौर पर होना चाहिये, को भी बिल के तौर पर संसद में लाया जाये और उसे सरकार व्हीप जारी करके पास करा दे। इसके सामांनातर किसानों के सवालो को नये भूमि अधिग्रहण बिल के जरीये भी विंटर सेशन में भी निपटा दिया जाये। और तीसरे स्तर पर यूपी की यूनिवर्सिटी में रुके चुनावो को आंदोलन के तौर पर कांग्रेसी पहल हो जिससे युवा ताकत राहुल के पीछे जुड़े।
जाहिर है 10 जनपथ की कवायद हर मुद्दे पर सरकर को साथ लेकर चल रही है। लेकिन सोनिया गांधी के सामने सबसे बडा संकट मनमोहन सिंड्रोम का है। खांटी कांग्रेसियों का मानना है कि बीजेपी जिस तरह अपने सत्ता संघर्ष में फंसी है, ऐसे में उसे ताड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है। क्योंकि नरेन्द्र मोदी के उपवास मिशन ने ही बता दिया विपक्ष का रास्ता कांग्रेसीकरण के जरीये ही सत्ता तक पहुंच सकता है। तो फिर कांग्रेस को अपनी राजनीतिक बिसात बिछाने में कोई परेशानी है नहीं। लेकिन जिस देश का अर्थशास्त्र ईमानदार नागरिक को भी यह बता दे कि उसकी गाढी कमाई महंगाई दर तले लगातार कम होती जायेगी चाहे वह बैंक में जमा कराये या कही भी निवेश करें। और जो दिहाडी या महीनेवारी पर टिके हैं, अगर उन्हें दो जून की रोटी जुगाडने का संकट पैदा हो चुका है तो फिर सारा दोष तो अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के मथ्थे ही आयेगा, जिसकी काट किसी खांटी कांग्रेसी के पास भी नहीं है।
लेकिन कांग्रेस का मतलब ही जब गांधी परिवार है तो सोनिया गांधी कैसे हार सकती है। संयोग से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मतलब भी सोनिया गांधी है। तो कौन किसे फेल कहेगा। यानी सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी का मतलब अगर सरकार और कांग्रेस की असफलता है, तो यह 10 जनपथ की सबसे बड़ी जीत हैं। तो क्या असफलता का सेहरा जीत में बदल सकता है। खासकर तब जब देश पटरी पर दौड़ नहीं रहा। सार्वजनिक संस्थान कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियो के आगे नतमस्तक है । अन्ना हजारे की दुबारा वापसी का खौफ सरकार के भीतर है और कांग्रेस भी सियासी जमीन खिसकती देख रही है तो सोनिया गांधी इस दौर में कर क्या रही है,यह उन्हीं के हारे प्यादों के खेल समझना होगा। सरकार बीजेपी की पहचान को कटघरे में खड़ा करना चाहते है। तो 10 जनपथ अन्ना हजारे की सफलता को तिलक के तौर पर अपने माथे पर लगाना चाहता है। सांप्रदायिक विधेयक के आसरे हिन्दुत्व की पहचान समेटे बीजेपी पर अब मनमोहन सिंह सीधी चोट करने को तैयार हैं, जिससे मुद्दों में उलझी सरकार को सियासी जगह मिल सके। वही दूसरी तरफ 10 जनपथ के पटेल अब जनलोकपाल पर सहमति बनाने के उपर सोनिया गांधी का ही सिक्का चलाने का खेल खेलना चाहते हैं। यानी सोनिया की गैरमौजूदगी में सोनिया के हारे प्यादो को अब लगने लगा है कि जिस दौर में वह कमजोर या असफल साबित हुये, उसकी वजह अगर सोनिया के निर्देशों को नजरअंदाज करने पर टिका दिया जाये तो उनका खेल आगे बढ़ सकता है।
तीन स्तर पर इस खेल को अंजाम देने में लगे मनमोहन सिंह एक बार फिर 'क्रोनी कैपटलिज्म' का सवाल उठा कर अपने मंत्रिमंडल को संवारना चाहते हैं। खासकर पेट्रोलियम मंत्री रहते हुये मुरली देवडा के रिलायंस को लाभ पहुंचाने और उड्डयन मंत्री रहते हुये प्रफुल्ल पटेल का इंडियन एयरलाईन्स को चूना लगाकर निजी एयरलाइन्सों को लाभ पहुंचाने का खेल जिस तरह सीएजी रिपोर्ट में आमने आया उसमें अब मनमोहन सिंह यह सवाल खड़ा कर रहे हैं कि उन नेताओ को पार्टी मंत्री बनाने का दवाब ना बनायें, जिससे क्रोनी कैपटलिज्म को बढ़ावा मिले। और आम लोग खुले तौर पर सरकार की ईमानदारी पर सवालिया निशान लगायें। यानी कांग्रेस के भीतर जो खांटी कांग्रेसी मनमोहन सिंह पर आरोप लगाते हैं कि राजनीतिक सरोकार ना होने की वजह से सरकार बार बार हर मुद्दे पर फेल नजर आती है तो उसकी काट मनमोहन सिंह फिर ईमानदारी और कॉरपोरेट से मंत्रियो की दूरी तय कर अपनी ठसक बरकरार रखना चहते हैं। वहीं दूसरे स्तर पर सरकार के भीतर के सत्ता संघर्ष को लगाम लगाने के लिये मनमोहन सिंह अब चिदबरंम और प्रणव मुखर्जी को भी उनके दायरे में बांधना चाहते हैं। आंतरिक सुरक्षा के दायरे में दिल्ली घमाके से पहले जिस तरह हवाला और मनीलॉडरिंग का सवाल खडा कर गृह-मंत्रालय ने ईडी और सीबीडीटी में ताक-झांक शुरु की उससे परेशान प्रणव मुखर्जी और एके एंटोनी के सवालो से ही चिदंबरम को अब सोनिया के माध्यम से शांत किया जा रहा है। वहीं वित्त मंत्रालय ने जिस तरह सीबीडीटी के जरीये दागी निजी कंपनियों की निशानदेही तो की है लेकिन शिकंजे में कसना शुरु नही किया है और कालेधन को लेकर कोई ठोस पहल अबतक नहीं की है, उस पर भी मनमोहन सिंह अपने हाथ खड़े कर खुद को पाक साफ दिखलाने की कोशिश ही कर रहे है।
वहीं दूसरी तरफ 10 जनपथ का खेल निराला है। एक वक्त सोनिया गांधी के सलाहकार के तौर पर गुलाम नहीं आजाद, अंबिका सोनी और अहमद पटेल की तिकड़ी काम करती थी। और यह तिकड़ी समूची पार्टी और सरकार को अपनी अंगुली पर रखती रही, इसे भी हर कांग्रेसी जानता है। लेकिन जिस तरह गुलाम नबी आजाद को कश्मीर भेजा गया और फिर अंबिका सोनी को कैबिनेट मंत्री बनवाकर 10 जनपथ पर अकेला राज अहमद पटेल का हुआ, उसका नया संकट सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी में तब उभरा जब किसी भी मुश्किल वक्त में अहमद पटेल ने ना तो पहल की और ना ही सरकार या पार्टी की तरफ से किसी ने 10 जनपथ के दरवाजे पर दस्तक दी। लेकिन सोनिया लौटी तो अहमद पटेल ने भी अपने सफल को कद बरकरार रखने के लिये अन्ना हजारे के जरीये लाभ उठाती बीजेपी की राजनीतिक जमीन में सेंध लगाने की व्यूह रचना भी शुरु की। विलासराव देशमुख सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि रालेगण सिद्दी में भी अपने प्यादो के जरीये अन्ना हजारे को सोनिया गांधी के दरवाजे पर लाने के लिये बिसात बिछा रहे हैं तो दिल्ली में अहमद पटेल सरकार के भीतर इसके संकेत दे रहे हैं कि जनलोकपाल को लेकर ऐसा रास्ता बनाया जाये जिससे स्टैडिंग कमेटी से लेकर संसद के भीतर वोटिंग तक की स्थिति में सिर्फ सोनिया की चलती दिखे। यानी जिस रास्ते आरटीआई कानून बना और वाहवाही सोनिया गांधी की हुई, वैसा ही रास्ता जनलोकपाल को लेकर भी बनना चाहिये। हालांकि हारे हुये प्यादो की यह सारी मशक्कत अपने कद को बरकरार रखने की भी है और सोनिया गांधी के सामने यह संकेत देना भी है कि उनसे बेहतर प्यादे कोई दूसरे हो नहीं सकते। लेकिन कांग्रेस का खेल अब सरकार से ज्यादा उस राजनीति पर जा टिका है, जिसकी बिसात पर मनमोहन सिंह हारे सिपाही लग रहे हैं, इसे सोनिया गांधी बखूबी समझ रही हैं। इसलिये कांग्रेस को यूपी से लेकर पंजाब तक के विधानसभा चुनाव में कैसे खड़ा किया जाये यह सवाल कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। यूपी में मुलायम सिंह के साथ खड़े होने का मतलब है मायावती की जीत और अकेले खडे होने का मतलब है तीसरे या चौथे नंबर की पार्टी बन त्रिंशकु विधानमभा के जोड़ तोड़ को देखना। कांग्रेस की इस हकीकत की काट सोनिया गांधी, राहुल गांधी में दिखलाना चाहती है। सोनिया इस हकीकत को समझ रही हैं कि राहुल गांधी की चमक अगर फीकी पड़ी है तो उसकी वजह बीजेपी या कोई राजनीतिक दल नहीं बल्कि अन्ना हजारे की वह गैर राजनीतिक सियासत है, जिसने राहुल की जमीनी चमक पर देश के सच की घूल डाल दी और मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि को भी लपेटे में ले लिया। ऐसे में तैयारी इसकी भी है कि संसद के विंटर सेशन में जनलोकपाल पर सोनिया का ठप्पा लगकर पहुंचे तो राहुल के जनलोकपाल पर उठाये सवाल की लोकपाल को संवैधानिक बॉडी के तौर पर होना चाहिये, को भी बिल के तौर पर संसद में लाया जाये और उसे सरकार व्हीप जारी करके पास करा दे। इसके सामांनातर किसानों के सवालो को नये भूमि अधिग्रहण बिल के जरीये भी विंटर सेशन में भी निपटा दिया जाये। और तीसरे स्तर पर यूपी की यूनिवर्सिटी में रुके चुनावो को आंदोलन के तौर पर कांग्रेसी पहल हो जिससे युवा ताकत राहुल के पीछे जुड़े।
जाहिर है 10 जनपथ की कवायद हर मुद्दे पर सरकर को साथ लेकर चल रही है। लेकिन सोनिया गांधी के सामने सबसे बडा संकट मनमोहन सिंड्रोम का है। खांटी कांग्रेसियों का मानना है कि बीजेपी जिस तरह अपने सत्ता संघर्ष में फंसी है, ऐसे में उसे ताड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है। क्योंकि नरेन्द्र मोदी के उपवास मिशन ने ही बता दिया विपक्ष का रास्ता कांग्रेसीकरण के जरीये ही सत्ता तक पहुंच सकता है। तो फिर कांग्रेस को अपनी राजनीतिक बिसात बिछाने में कोई परेशानी है नहीं। लेकिन जिस देश का अर्थशास्त्र ईमानदार नागरिक को भी यह बता दे कि उसकी गाढी कमाई महंगाई दर तले लगातार कम होती जायेगी चाहे वह बैंक में जमा कराये या कही भी निवेश करें। और जो दिहाडी या महीनेवारी पर टिके हैं, अगर उन्हें दो जून की रोटी जुगाडने का संकट पैदा हो चुका है तो फिर सारा दोष तो अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के मथ्थे ही आयेगा, जिसकी काट किसी खांटी कांग्रेसी के पास भी नहीं है।
Friday, September 16, 2011
अन्ना की पाठशाला में न मनमोहन फिट है न आडवाणी
पुणे से अहमदनगर की फर्राट दौड़ती करीब 147 किलोमीटर सड़क पर आधे किलोमीटर की भी जगह खाली नहीं जो यह एहसास कराये कि गांव भी बीच में पड़ते हैं। लेकिन इसी सड़क पर 87 किलोमीटर के बाद सड़क छोड़ बायीं तरफ का सिर्फ तीन किलोमीटर का रास्ता है। और इसे तय करते वक्त ही एहसास हो जाता है कि आखिर अन्ना हजारे में वह कौन सा जादू है, जिसने हावर्ड में पढ़े-लिखे नेताओ तक को राजनीति का ककहरा दोबारा पढ़ने को मजबूर कर दिया है। मुख्य सड़क से महज तीन किलोमीटर के बाद रालेगण सिद्दी गांव है। ऐसा गांव जो सड़क पर ही मौजूद है। ऐसा गांव जो सुबह से रात तक विकास का रास्ता पकड़े जिले के एमआईडीसी में भरे हुये भारी ट्रको की आवाजाही हर दिन देखता है। जिसे गांव को चीरती हुई सकड पर मर्सिडिज से लेकर टोयटा कार की रफ्तार की घूल तले बच्चे पढ़ते हैं। लेकिन गांव के चौराहे पर मासी की चाय दुकान श्री गणेश से लेकर गांव के बीच में काका के भैरवनाथ होटल की बैंच पर कहीं भी कभी भी बैठने पर इच्छा होती नहीं कि उठा जाये। बिना किसी जल्दबाजी या हड़बडाहट के जिस संयम और शांती से सोयाबिन की फसल से लेकर अन्ना के आंदोलन की महक को हर कोई बिखेरता है, उसमें समाने पर पहला सवाल हर नये व्यक्ति में यही घुमड़ता है कि कैसे यह गांव अपने आप को जीता है।
असल में अन्ना की ताकत यही गांव है और गांव में अपनी मेहनत से जिस वातावरण को अन्ना के पैदा किया है अब वह इतना मजबूत हो चुका है कि 1975 के बाद की तीसरी पीढ़ी भी विकास के सड़क फार्मूले को अपने भीतर समाने नहीं देती। दरअसल, दिल्ली में जिन्दगी की जद्दोजहद से लेकर सियासत की बिसात पर शह और मात का खेल जिस तरह मुनाफे के बाजार मंत्र को समेटे हुये भागते दौड़ते नजर आता है, उसमें अन्ना हजारे की दूसरी आजादी का बिगुल क्यों मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था को खारिज कर किसान से लेकर युवा तक को अपने साथ समेट लेता है, यह भी गांव के भीतर ही छुपा ही सच है। रालेगण सिद्दी में स्कूल की ड्योढी में बच्चे पास या फेल होने का पाठ नहीं पढ़ते बल्कि सरकारी मिजाज में फेल होकर अन्ना के स्कूल में अव्वल हो जाते हैं। यह कमाल लग सकता है कि गांव के इर्द गिर्द तीन स्कूलों में जो बच्चो फेल हो जाते हैं, उनके लिये अन्ना के यादवबाबा के मंदिर के पीछे गांव के बीचो बीचे फेल बच्चों के लिये पास बच्चो से ज्यादा उम्दा शिक्षा देने की ऐसा अद्भूत व्यवस्था कर रखी है, जहां पढ़ाई नंबर पाने के लिये नहीं होती है बल्कि उम्र के लिहाज से हर जानकारी हासिल करते हुये किताबी शिक्षा को समझने भर की। और स्कूल की नींव से लेकर खडी इमारत में एक ईंट से लेकर खेल मैदान बनाने तक में सरकारी अर्थव्यवस्था के सामानांतर पढने वाले बच्चो के माता-पिता के आर्थिक मदद से सबकुछ जोड़ा-बनाया गया। और हर मदद स्कूल की दीवार पर अंकित है। यानी अन्ना हजारे के जो सवाल संसदीय चुनाव के लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगाते है और दिल्ली में सांसदो को यह एहसास होता है कि संसद की सुपरमेसी को ही अन्ना चुनौती दे रहे हैं।
असल में उसके पीछे का सच यही है कि अन्ना हजारे ने वैकल्पिक व्यवस्था का जो खाका जीने के लिये तैयार किया है उसमे सुपरमेसी पंचायत की हो सकती है। आम गांववालों की ही हो सकती है। सामूहिकता का बोध लिये गांव के निर्णय की हो सकती है। लेकिन रालेगण सिद्दी में यह एहसास है ही नही कि जिसे पंचायत चुनाव में चुन लिया वही सबकुछ हो गया। इसका दूसरा चेहरा भैरवनाथ होटल चलाने वाले भाउसाहेब गजरे का है। जिन्हें सब काका के नाम से ही जानते हैं। जो हर किसी को उसकी इच्छानुसार तुरंत अंगुली चाटने वाले जायके के साथ सबकुछ बनाकर परोसता है। लेकिन खाने के बाद रसीदबुक और कलम देकर कहता है कि जो खाया है आप ही लिख दो। यानी बिल भी आप बना दो। अन्ना हजारे इससे पहले भी कई बार अनशन कर महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्ट नेता से लेकर बाबूओं तक को बर्खास्त करवा चुके हैं। पहली बार अन्ना के अनशन ने दिल्ली में किसी को बर्खास्त नहीं करवाया लेकिन बिना पढे-लिखे इमानदारी को घोंट पीये होटल के काका को भी इसका एहसास है कि इस बार अन्ना ने रास्ता व्यवस्था परिवर्तन का पकड़ा है, जिसमें भ्रष्ट चेहरे दिखायी नहीं देंगे बल्कि जीवन जीने के तरीके ही बदलने होंगे।
यह एहसास रालेगण सिद्दी में कितना गहरा है, यह उन युवाओं की टोली से भी समझा जा सकता है और उन बुजुर्गो से भी जो युवा अन्ना के आंदोलन के वालेन्टिर होकर अब देश नापने को तैयार हो रहे हैं या फिर जिन्होने 70-80 के दशक में अन्ना को घर की रोटिया ला लाकर मंदिर में खिलायी और आज वही पीढी यह देख रही कि अन्ना से मिलना भी उनके लिये मुश्किल हो चला है। लेकिन दोनों परिस्थितयों में युवा हो या बुजुर्ग एक पसीना बहा रहा है तो दूसरा आंखों में आंसू लिये अपने अन्ना के बढते कदमों के संघर्ष को और आगे बढने देने के लिये गेट के बाहर खड़ा रहकर भी संतुष्ट है। असल में अन्ना हजारे की ताकत वही है, जिन्हें अपने प्रयोग से उन्होंने कभी ताकत दी। इसलिये अन्ना के जेहन में अब सवाल संसदीय व्यवसस्था को पाक-साफ बनाने का ज्यादा हो चला है। क्योंकि अन्ना इस मर्म को समझ रहे है कि जनलोकपाल का रास्ता भी उन्हीं सांसदों और स्टेडिंग कमेटी के सदस्यों की चौखट पर जा रहा है, जिनके भ्रष्टाचार को लेकर वह राईट टू रिजेक्ट और राईट टू रिकाल का सवाल खड़ा कर रहे हैं।
अन्ना इस हकीकत को भी समझ रहे है कि अगर गांव में फेल बच्चों को जिन्दगी में पास कराने के उनके पाठ का लाभ उठाने के लिये कई राजनेताओ ने मदद की गुहार लगायी तो उसी तर्ज पर भ्रष्टाचार की मुहिम का राजनीतिक लाभ उठाने के लिये लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा निकालते है तो उन्हें ठीक वैसा ही पाठ अब आडवाणी को भी पढ़ाना होगा जैसे गांव में स्कूल को आर्थिक मदद देने के लिये नेताओ ने बढ़ाये। गांव में कांग्रेस,एनसीपी से लेकर शिवसेना और बीजेपी के पंचायत स्तर से लेकर संसद का रास्ता पकड़ने वाले नेताओं को अन्ना की हर मुहिम में जब जब लाभ उठाने की चुनावी चाल चली तब तब अन्ना ने हर किसी को पुणे से लेकर अहमदनगर तक की उसी सड़क को दिखाया जिसपर विकास के नाम पर खेती खत्म दी गयी। को-ओपरेटिव के नाम पर किसान से लेकर आम लोगो का पैसा लूटा गया। चीनी मिलों के जरीये गन्ना किसान को फकीर बनाया गया। सोयाबिन से लेकर कपास उपजाने के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार नहीं किया गया। और महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम के नाम पर पुणे के चिंचवाड से लेकर अहमदनगर तक की जमीन रियल इस्टेट के कब्जे में भेजी जाती रही। इसलिये अन्ना हजारे का रास्ता अब मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी को भी आइने दिखाने से नहीं चुक रहा और बीजेपी को भी जमीन पर खड़े होकर देश के सच को समझने की नसीहत दे रहा है और इसके लिये एक ऐसे फ्रंट की दिशा के संकेत देने से भी नहीं चुक रहा जो चुनाव में जीत के लिये अन्ना की मुहिम को अभी भी अपनी सियासत की बिसात पर प्यादा माने हुये है। जबकि रालेगण सिद्दी में अन्ना के संघर्ष को देखती अब चौथी पीढी भी मां के गोदी से यही पाठ देख-समझ रही है कि देश और गांव का मतलब ठहर कर सबको साथ लेकर चलना होता है ना कि सत्ता की खातिर किसी को हराना। विकास के लिये किसी दूसरे से ज्यादा मुनाफा बनाना। और जिन्दगी की पाठशाला में किसी का फेल ना होना। इसलिये अब सवाल यही है कि अन्ना हजारे इस बार जब रालेगण सिद्दी से निकलेंगे तो वह रास्ता जंतर-मंतर या रामलीला मैदान नहीं जायेगा बल्कि जनता के बीच उस मर्म को पकड़ेगा जिसे संसदीय सत्ता तले खारिज किया जा चुका है।
असल में अन्ना की ताकत यही गांव है और गांव में अपनी मेहनत से जिस वातावरण को अन्ना के पैदा किया है अब वह इतना मजबूत हो चुका है कि 1975 के बाद की तीसरी पीढ़ी भी विकास के सड़क फार्मूले को अपने भीतर समाने नहीं देती। दरअसल, दिल्ली में जिन्दगी की जद्दोजहद से लेकर सियासत की बिसात पर शह और मात का खेल जिस तरह मुनाफे के बाजार मंत्र को समेटे हुये भागते दौड़ते नजर आता है, उसमें अन्ना हजारे की दूसरी आजादी का बिगुल क्यों मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था को खारिज कर किसान से लेकर युवा तक को अपने साथ समेट लेता है, यह भी गांव के भीतर ही छुपा ही सच है। रालेगण सिद्दी में स्कूल की ड्योढी में बच्चे पास या फेल होने का पाठ नहीं पढ़ते बल्कि सरकारी मिजाज में फेल होकर अन्ना के स्कूल में अव्वल हो जाते हैं। यह कमाल लग सकता है कि गांव के इर्द गिर्द तीन स्कूलों में जो बच्चो फेल हो जाते हैं, उनके लिये अन्ना के यादवबाबा के मंदिर के पीछे गांव के बीचो बीचे फेल बच्चों के लिये पास बच्चो से ज्यादा उम्दा शिक्षा देने की ऐसा अद्भूत व्यवस्था कर रखी है, जहां पढ़ाई नंबर पाने के लिये नहीं होती है बल्कि उम्र के लिहाज से हर जानकारी हासिल करते हुये किताबी शिक्षा को समझने भर की। और स्कूल की नींव से लेकर खडी इमारत में एक ईंट से लेकर खेल मैदान बनाने तक में सरकारी अर्थव्यवस्था के सामानांतर पढने वाले बच्चो के माता-पिता के आर्थिक मदद से सबकुछ जोड़ा-बनाया गया। और हर मदद स्कूल की दीवार पर अंकित है। यानी अन्ना हजारे के जो सवाल संसदीय चुनाव के लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगाते है और दिल्ली में सांसदो को यह एहसास होता है कि संसद की सुपरमेसी को ही अन्ना चुनौती दे रहे हैं।
असल में उसके पीछे का सच यही है कि अन्ना हजारे ने वैकल्पिक व्यवस्था का जो खाका जीने के लिये तैयार किया है उसमे सुपरमेसी पंचायत की हो सकती है। आम गांववालों की ही हो सकती है। सामूहिकता का बोध लिये गांव के निर्णय की हो सकती है। लेकिन रालेगण सिद्दी में यह एहसास है ही नही कि जिसे पंचायत चुनाव में चुन लिया वही सबकुछ हो गया। इसका दूसरा चेहरा भैरवनाथ होटल चलाने वाले भाउसाहेब गजरे का है। जिन्हें सब काका के नाम से ही जानते हैं। जो हर किसी को उसकी इच्छानुसार तुरंत अंगुली चाटने वाले जायके के साथ सबकुछ बनाकर परोसता है। लेकिन खाने के बाद रसीदबुक और कलम देकर कहता है कि जो खाया है आप ही लिख दो। यानी बिल भी आप बना दो। अन्ना हजारे इससे पहले भी कई बार अनशन कर महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्ट नेता से लेकर बाबूओं तक को बर्खास्त करवा चुके हैं। पहली बार अन्ना के अनशन ने दिल्ली में किसी को बर्खास्त नहीं करवाया लेकिन बिना पढे-लिखे इमानदारी को घोंट पीये होटल के काका को भी इसका एहसास है कि इस बार अन्ना ने रास्ता व्यवस्था परिवर्तन का पकड़ा है, जिसमें भ्रष्ट चेहरे दिखायी नहीं देंगे बल्कि जीवन जीने के तरीके ही बदलने होंगे।
यह एहसास रालेगण सिद्दी में कितना गहरा है, यह उन युवाओं की टोली से भी समझा जा सकता है और उन बुजुर्गो से भी जो युवा अन्ना के आंदोलन के वालेन्टिर होकर अब देश नापने को तैयार हो रहे हैं या फिर जिन्होने 70-80 के दशक में अन्ना को घर की रोटिया ला लाकर मंदिर में खिलायी और आज वही पीढी यह देख रही कि अन्ना से मिलना भी उनके लिये मुश्किल हो चला है। लेकिन दोनों परिस्थितयों में युवा हो या बुजुर्ग एक पसीना बहा रहा है तो दूसरा आंखों में आंसू लिये अपने अन्ना के बढते कदमों के संघर्ष को और आगे बढने देने के लिये गेट के बाहर खड़ा रहकर भी संतुष्ट है। असल में अन्ना हजारे की ताकत वही है, जिन्हें अपने प्रयोग से उन्होंने कभी ताकत दी। इसलिये अन्ना के जेहन में अब सवाल संसदीय व्यवसस्था को पाक-साफ बनाने का ज्यादा हो चला है। क्योंकि अन्ना इस मर्म को समझ रहे है कि जनलोकपाल का रास्ता भी उन्हीं सांसदों और स्टेडिंग कमेटी के सदस्यों की चौखट पर जा रहा है, जिनके भ्रष्टाचार को लेकर वह राईट टू रिजेक्ट और राईट टू रिकाल का सवाल खड़ा कर रहे हैं।
अन्ना इस हकीकत को भी समझ रहे है कि अगर गांव में फेल बच्चों को जिन्दगी में पास कराने के उनके पाठ का लाभ उठाने के लिये कई राजनेताओ ने मदद की गुहार लगायी तो उसी तर्ज पर भ्रष्टाचार की मुहिम का राजनीतिक लाभ उठाने के लिये लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा निकालते है तो उन्हें ठीक वैसा ही पाठ अब आडवाणी को भी पढ़ाना होगा जैसे गांव में स्कूल को आर्थिक मदद देने के लिये नेताओ ने बढ़ाये। गांव में कांग्रेस,एनसीपी से लेकर शिवसेना और बीजेपी के पंचायत स्तर से लेकर संसद का रास्ता पकड़ने वाले नेताओं को अन्ना की हर मुहिम में जब जब लाभ उठाने की चुनावी चाल चली तब तब अन्ना ने हर किसी को पुणे से लेकर अहमदनगर तक की उसी सड़क को दिखाया जिसपर विकास के नाम पर खेती खत्म दी गयी। को-ओपरेटिव के नाम पर किसान से लेकर आम लोगो का पैसा लूटा गया। चीनी मिलों के जरीये गन्ना किसान को फकीर बनाया गया। सोयाबिन से लेकर कपास उपजाने के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार नहीं किया गया। और महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम के नाम पर पुणे के चिंचवाड से लेकर अहमदनगर तक की जमीन रियल इस्टेट के कब्जे में भेजी जाती रही। इसलिये अन्ना हजारे का रास्ता अब मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी को भी आइने दिखाने से नहीं चुक रहा और बीजेपी को भी जमीन पर खड़े होकर देश के सच को समझने की नसीहत दे रहा है और इसके लिये एक ऐसे फ्रंट की दिशा के संकेत देने से भी नहीं चुक रहा जो चुनाव में जीत के लिये अन्ना की मुहिम को अभी भी अपनी सियासत की बिसात पर प्यादा माने हुये है। जबकि रालेगण सिद्दी में अन्ना के संघर्ष को देखती अब चौथी पीढी भी मां के गोदी से यही पाठ देख-समझ रही है कि देश और गांव का मतलब ठहर कर सबको साथ लेकर चलना होता है ना कि सत्ता की खातिर किसी को हराना। विकास के लिये किसी दूसरे से ज्यादा मुनाफा बनाना। और जिन्दगी की पाठशाला में किसी का फेल ना होना। इसलिये अब सवाल यही है कि अन्ना हजारे इस बार जब रालेगण सिद्दी से निकलेंगे तो वह रास्ता जंतर-मंतर या रामलीला मैदान नहीं जायेगा बल्कि जनता के बीच उस मर्म को पकड़ेगा जिसे संसदीय सत्ता तले खारिज किया जा चुका है।
Wednesday, September 14, 2011
तकनीकी विस्तार ने हिन्दी की सीमा तोड़ी
न्यूज चैनलों का भाषा प्रयोग
पत्रकारिता में जिस तरह कन्टेंट को ही किंग माना जाता है। ठीक उसी तरह टीवी में विजुअल को कभी भाषा की दरकार होती नहीं है। लेकिन जब दौर चौबीस घंटे और सातों दिन न्यूज चैनल चलने का हो तो सबसे बड़ा सवाल यही होता है कि आखिर भाषा हो कैसी? क्योंकि भाषा अगर तकनीक के पीछे चली तो फिर सरोकार खत्म होता दिखेगा और अगर भाषा तकनीक से इतनी आगे निकल गयी कि उसके सरोकार तकनीक को ही खारिज करते दिखे तो फिर खबरें किसी अखबार या साहित्य के लपेटे में आते दिखेंगे। असल में टीवी एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो हर आम-ओ-खास से उसकी जरुरत के मुताबिक ना सिर्फ सरोकार बनाता है बल्कि हर वर्ग और हर उम्र के लोगों को एक साथ जोड़ता भी है। यानी किसी भी एक महत्वपूर्ण मुद्दे से लेकर हर खबरों को बताते वक्त सबसे महत्वपूर्ण एंकर-रिपोर्टर की भाषा भी हो जाती है और दिखाये जा रहे विजुअल को बोल देते शब्दों का चयन भी हो जाता है। इसलिये पहला सवाल तो संवाद के लिये यही खड़ा होता है कि अगर आत्मीय तरीके से लोगो के जहन को छूते शब्दो का प्रयोग न हुआ तो फिर टीवी देखने वालो में उब तुरंत हो सकती है। इसलिये मुद्दो पर सरोकार के शब्द का मतलब सरलता से मुद्दे को भी आसानी से देखने वालों के जेहन में उतारना भी हो सकता है और कठिन से कठिन मुद्दे को सरल भाषा में समझाने का हुनर भी हो सकता है।
खबरों के लिहाज से न्यूज चैनल अगर सशक्त माध्यम है तो खबरों को बताना लोकप्रिय होने का सबसे सशक्त तरीका भी है। इसलिये न्यूज चैनलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती भाषा को लेकर ही है जो फिट ना हुई तो फिर अलोकप्रिय होना भी तुरंत चैनल से लेकर एंकर-रिपोर्टर तक के साथ जुड़ सकता है। और यही से भाषा की वह मशक्कत शुर होती है जो किसी भी विषय पर सबकुछ जानने के बाद उसे देखने वालों के अनुकुल परोसने की क्षमता बताती है। मसलन यह कहना कि साहित्यिक भाषा बेहद कठिन होती है या फिर अखबारी भाषा न्यूज चैनल में फिट बैठ नहीं सकती, इससे इतर न्यूज चैनलों में भाषा को लेकर यह समझना ज्यादा जरुरी है कि शब्दों के साथ स्क्रीन पर जब तस्वीरें भी चल रही है तो फिर भाषा का मतलब तस्वीरो की कहानी कहना भर नहीं है। बल्कि तस्वीरों के पीछे की कहानी या कहानी कहती तस्वीरों के आगे की कहानी कहने वाली भाषा कैसी भी हो अगर वह खबर है तो खुद-ब-खुद उसे बताने के तरीके सरल होंगे।
हो सकता है यह चलताऊ भाषा हो। हो सकता है यह हिंग्लिश हो। हो सकता है आज की पीढ़ी की व्याकरण का मर्सिया गाने वाली भाषा हो। लेकिन यह सभी मान्य तभी होगी जब वह खबर हो और उसके आगे-पीछे खबर की समूची कहानी कहने वाली मीठी सरल हिन्दी हो। इस मीठेपन में न्यूक्लियर समझौते पर अमेरिकी धंधे से लेकर राहुल की कलावती के संवेदनशील सियासत की समझ भी होनी चाहिये और अन्ना हजारे के आंदोलन पर संसदीय सियासत के भ्रष्ट्राचार से लेकर अन्नागीरि का तत्व भी समझ में आना चाहिये। इस कैनवास का मतलब ही है कि हिन्दी जो साहित्य के पन्नों में लिपटकर कर पत्रकारीय समझ को चिढ़ाती रही या फिर अंग्रेजी का वह तबका जो हिन्दी को अपने चकाचौंघ में काले घब्बे की तरह देखता रहा, उसे भी हिन्दी न्यूज चैनलो ने अपने माध्यम से पहले जोड़ा फिर भाषा को स्वीकार्य बनाया और धीरे धीरे वह बाजार में बिकने भी लगी। इसका एक मतलब यह भी है कि हिन्दी चैनलो ने उस मर्म को पकडा जिसमें गांव के जुडाव को छोड़ने का दर्द हर शहरी पाले हुये है। तो क्या इससे हिन्दी बढ़ने लगी। फैलने लगी। उसे मान्यता मिलने लगी। लेकिन यह समझ पूरी तरह तकनीक के विकास पर टिकी है क्योंकि तकनीक का विस्तार ना तो पत्रकारिता का विस्तार है ना ही भाषा का। असल में भाषा का मतलब जीवन से है सरोकार से है। इसका बाजारीकरण इसके जरीये विज्ञापन कर कोई भी उत्पाद बेच सकता है लेकिन इसका पत्रकारीकऱण संस्कृति और सरोकार का परिचायक है। लेकिन इस दौर का संकट बाजार और पत्रकारिकता के बीच मोटी लकीर खिंच मुनाफा बनाने-कमाने का खेल कहीं ज्यादा है। इसलिये भाषा भी बंट सी गई है। हर चैनल की बाजार को लेकर अपनी समझ है और भाषा उसी बाजारुनुरुप विस्तार पर ही जा टिकी है। जो सीधे दिमाग पर उन्ही शब्दों के जरीये संवाद बनाना चाहती है जो चलताउ है। संसद नहीं पार्लियामेंट। मंत्री नहीं मिनिस्टर। प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं पीएमओ। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद नहीं एनएसी। भाजपा नहीं बीजेपी। परिवार नहीं फैमिली। बलात्कार नहीं रेप। हमला नहीं एटैक। फेरहिस्त कितनी भी लंबी हो सकती है लेकिन समझना यह भी होगा न्यूज चैनलो की प्राथमिकता खबर है। और खबर किसी भी भाषा में आये अगर वह कंटेंट के लिहाज से मजबूत है या फिर कम शब्दों में बडे कैनवास की क्षमता को घेरने का माद्दा रखती है तो फिर न्यूज चैनल के लिये सबसे उपयोगी है। क्योंकि टीवी स्क्रीन पर शब्दो का उभरना शब्द की ताकत का भी परिचायक होता है। और किसी खबर को बताते शब्दों के प्रयोग किस्सागोई का हिस्सा भी हो सकते है। और यह सब एकरसता ना आने के लिये तो होते ही है साथ ही न्यूज चैनल में भाषा की अंदरुनी लड़ाई विजुअल को लेकर भी लगातार चल रही होती है। खास कर तस्वीरें जब खुद बोल रही हो तो फिर भाषा कौन सी मायने रखेगी। इसलिये न्यूज चैनलों की होड़ का सच यह भी है कि जब ब्रेकिंग न्यूज होती है तो जो पहले तस्वीर दिखाता है दर्शक उसी के साथ जुड़ जाता है। अंग्रेजी ना जानने वाला दर्शक भी अंग्रेजी चैनल पर ब्रेकिंग तस्वीरों को देखकर सनसनी महसूस करता है और हिन्दी ना समझ पाने वाला दर्शक भी हिन्दी चैनलो में पहली तस्वीर देखने के लिये रोमांचित होता है। असल में हिन्दी के विस्तार का यह अनूठा माध्यम है और सर्वे रिपोर्ट बताती है कि देश में 80 फिसदी से ज्यादा दर्शको के लिये ब्रेकिंग खबर के वक्त यह मायने नहीं रखता कि चैनल हिन्दी है या अंग्रेजी।
लेकिन भाषा को लेकर जो रिपोर्टिंग उस वक्त मौके से रिपोर्टर करता है या एंकर स्टूडियो से कहानी बताता है और स्क्रीन पर उस वक्त ग्राफिक्स के तौर पर जो शब्द स्क्रीन पर उभरते हैं उस भाषा के सरोकार हर तबके के साथ कैसे संबंध बनाते है यह जरुर मायने रखता है। शायद इसीलिये न्यूज चैनलों के इस दौर में हिन्दी समेत देश की हर क्षेत्रीय भाषा को पहचान मिली है। और इसकी बडी वजह हिन्दी पट्टी के राजनीतिक-आर्थिक सरोकार का अलग अलग भाषा वाले क्षेत्रो से जुड़ना भी है। बेल्लारी का खेल तमिल चैनलों के जरीये देखने में कोई दर्ज नहीं। जगन रेड्डी की सियासत को तेलगु चैनल के जरीये समझने में कोई हर्ज नहीं । राज ठाकरे का मराठी मानुष मराठी चैनलों से समझा जा सकता है और मोदी का करंट गुजराती चैनलों से। यानी विजुअल अगर भाषा की सीमा को तोड़ रहे है तो समझना यह भी चाहिये कि न्यूज चैनल का विस्तार भाषा में भी विस्तार ला रहा है और शायद इसीलिये हिन्दी सिर्फ हिन्दी पट्टी की पहचान भर नहीं है बल्कि यह राष्ट्रीय न्यूज चैनल की तरह राष्ट्रीय पहचान की है । चाहे उसका आधार तकनीकी विस्तार है।
पत्रकारिता में जिस तरह कन्टेंट को ही किंग माना जाता है। ठीक उसी तरह टीवी में विजुअल को कभी भाषा की दरकार होती नहीं है। लेकिन जब दौर चौबीस घंटे और सातों दिन न्यूज चैनल चलने का हो तो सबसे बड़ा सवाल यही होता है कि आखिर भाषा हो कैसी? क्योंकि भाषा अगर तकनीक के पीछे चली तो फिर सरोकार खत्म होता दिखेगा और अगर भाषा तकनीक से इतनी आगे निकल गयी कि उसके सरोकार तकनीक को ही खारिज करते दिखे तो फिर खबरें किसी अखबार या साहित्य के लपेटे में आते दिखेंगे। असल में टीवी एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो हर आम-ओ-खास से उसकी जरुरत के मुताबिक ना सिर्फ सरोकार बनाता है बल्कि हर वर्ग और हर उम्र के लोगों को एक साथ जोड़ता भी है। यानी किसी भी एक महत्वपूर्ण मुद्दे से लेकर हर खबरों को बताते वक्त सबसे महत्वपूर्ण एंकर-रिपोर्टर की भाषा भी हो जाती है और दिखाये जा रहे विजुअल को बोल देते शब्दों का चयन भी हो जाता है। इसलिये पहला सवाल तो संवाद के लिये यही खड़ा होता है कि अगर आत्मीय तरीके से लोगो के जहन को छूते शब्दो का प्रयोग न हुआ तो फिर टीवी देखने वालो में उब तुरंत हो सकती है। इसलिये मुद्दो पर सरोकार के शब्द का मतलब सरलता से मुद्दे को भी आसानी से देखने वालों के जेहन में उतारना भी हो सकता है और कठिन से कठिन मुद्दे को सरल भाषा में समझाने का हुनर भी हो सकता है।
खबरों के लिहाज से न्यूज चैनल अगर सशक्त माध्यम है तो खबरों को बताना लोकप्रिय होने का सबसे सशक्त तरीका भी है। इसलिये न्यूज चैनलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती भाषा को लेकर ही है जो फिट ना हुई तो फिर अलोकप्रिय होना भी तुरंत चैनल से लेकर एंकर-रिपोर्टर तक के साथ जुड़ सकता है। और यही से भाषा की वह मशक्कत शुर होती है जो किसी भी विषय पर सबकुछ जानने के बाद उसे देखने वालों के अनुकुल परोसने की क्षमता बताती है। मसलन यह कहना कि साहित्यिक भाषा बेहद कठिन होती है या फिर अखबारी भाषा न्यूज चैनल में फिट बैठ नहीं सकती, इससे इतर न्यूज चैनलों में भाषा को लेकर यह समझना ज्यादा जरुरी है कि शब्दों के साथ स्क्रीन पर जब तस्वीरें भी चल रही है तो फिर भाषा का मतलब तस्वीरो की कहानी कहना भर नहीं है। बल्कि तस्वीरों के पीछे की कहानी या कहानी कहती तस्वीरों के आगे की कहानी कहने वाली भाषा कैसी भी हो अगर वह खबर है तो खुद-ब-खुद उसे बताने के तरीके सरल होंगे।
हो सकता है यह चलताऊ भाषा हो। हो सकता है यह हिंग्लिश हो। हो सकता है आज की पीढ़ी की व्याकरण का मर्सिया गाने वाली भाषा हो। लेकिन यह सभी मान्य तभी होगी जब वह खबर हो और उसके आगे-पीछे खबर की समूची कहानी कहने वाली मीठी सरल हिन्दी हो। इस मीठेपन में न्यूक्लियर समझौते पर अमेरिकी धंधे से लेकर राहुल की कलावती के संवेदनशील सियासत की समझ भी होनी चाहिये और अन्ना हजारे के आंदोलन पर संसदीय सियासत के भ्रष्ट्राचार से लेकर अन्नागीरि का तत्व भी समझ में आना चाहिये। इस कैनवास का मतलब ही है कि हिन्दी जो साहित्य के पन्नों में लिपटकर कर पत्रकारीय समझ को चिढ़ाती रही या फिर अंग्रेजी का वह तबका जो हिन्दी को अपने चकाचौंघ में काले घब्बे की तरह देखता रहा, उसे भी हिन्दी न्यूज चैनलो ने अपने माध्यम से पहले जोड़ा फिर भाषा को स्वीकार्य बनाया और धीरे धीरे वह बाजार में बिकने भी लगी। इसका एक मतलब यह भी है कि हिन्दी चैनलो ने उस मर्म को पकडा जिसमें गांव के जुडाव को छोड़ने का दर्द हर शहरी पाले हुये है। तो क्या इससे हिन्दी बढ़ने लगी। फैलने लगी। उसे मान्यता मिलने लगी। लेकिन यह समझ पूरी तरह तकनीक के विकास पर टिकी है क्योंकि तकनीक का विस्तार ना तो पत्रकारिता का विस्तार है ना ही भाषा का। असल में भाषा का मतलब जीवन से है सरोकार से है। इसका बाजारीकरण इसके जरीये विज्ञापन कर कोई भी उत्पाद बेच सकता है लेकिन इसका पत्रकारीकऱण संस्कृति और सरोकार का परिचायक है। लेकिन इस दौर का संकट बाजार और पत्रकारिकता के बीच मोटी लकीर खिंच मुनाफा बनाने-कमाने का खेल कहीं ज्यादा है। इसलिये भाषा भी बंट सी गई है। हर चैनल की बाजार को लेकर अपनी समझ है और भाषा उसी बाजारुनुरुप विस्तार पर ही जा टिकी है। जो सीधे दिमाग पर उन्ही शब्दों के जरीये संवाद बनाना चाहती है जो चलताउ है। संसद नहीं पार्लियामेंट। मंत्री नहीं मिनिस्टर। प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं पीएमओ। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद नहीं एनएसी। भाजपा नहीं बीजेपी। परिवार नहीं फैमिली। बलात्कार नहीं रेप। हमला नहीं एटैक। फेरहिस्त कितनी भी लंबी हो सकती है लेकिन समझना यह भी होगा न्यूज चैनलो की प्राथमिकता खबर है। और खबर किसी भी भाषा में आये अगर वह कंटेंट के लिहाज से मजबूत है या फिर कम शब्दों में बडे कैनवास की क्षमता को घेरने का माद्दा रखती है तो फिर न्यूज चैनल के लिये सबसे उपयोगी है। क्योंकि टीवी स्क्रीन पर शब्दो का उभरना शब्द की ताकत का भी परिचायक होता है। और किसी खबर को बताते शब्दों के प्रयोग किस्सागोई का हिस्सा भी हो सकते है। और यह सब एकरसता ना आने के लिये तो होते ही है साथ ही न्यूज चैनल में भाषा की अंदरुनी लड़ाई विजुअल को लेकर भी लगातार चल रही होती है। खास कर तस्वीरें जब खुद बोल रही हो तो फिर भाषा कौन सी मायने रखेगी। इसलिये न्यूज चैनलों की होड़ का सच यह भी है कि जब ब्रेकिंग न्यूज होती है तो जो पहले तस्वीर दिखाता है दर्शक उसी के साथ जुड़ जाता है। अंग्रेजी ना जानने वाला दर्शक भी अंग्रेजी चैनल पर ब्रेकिंग तस्वीरों को देखकर सनसनी महसूस करता है और हिन्दी ना समझ पाने वाला दर्शक भी हिन्दी चैनलो में पहली तस्वीर देखने के लिये रोमांचित होता है। असल में हिन्दी के विस्तार का यह अनूठा माध्यम है और सर्वे रिपोर्ट बताती है कि देश में 80 फिसदी से ज्यादा दर्शको के लिये ब्रेकिंग खबर के वक्त यह मायने नहीं रखता कि चैनल हिन्दी है या अंग्रेजी।
लेकिन भाषा को लेकर जो रिपोर्टिंग उस वक्त मौके से रिपोर्टर करता है या एंकर स्टूडियो से कहानी बताता है और स्क्रीन पर उस वक्त ग्राफिक्स के तौर पर जो शब्द स्क्रीन पर उभरते हैं उस भाषा के सरोकार हर तबके के साथ कैसे संबंध बनाते है यह जरुर मायने रखता है। शायद इसीलिये न्यूज चैनलों के इस दौर में हिन्दी समेत देश की हर क्षेत्रीय भाषा को पहचान मिली है। और इसकी बडी वजह हिन्दी पट्टी के राजनीतिक-आर्थिक सरोकार का अलग अलग भाषा वाले क्षेत्रो से जुड़ना भी है। बेल्लारी का खेल तमिल चैनलों के जरीये देखने में कोई दर्ज नहीं। जगन रेड्डी की सियासत को तेलगु चैनल के जरीये समझने में कोई हर्ज नहीं । राज ठाकरे का मराठी मानुष मराठी चैनलों से समझा जा सकता है और मोदी का करंट गुजराती चैनलों से। यानी विजुअल अगर भाषा की सीमा को तोड़ रहे है तो समझना यह भी चाहिये कि न्यूज चैनल का विस्तार भाषा में भी विस्तार ला रहा है और शायद इसीलिये हिन्दी सिर्फ हिन्दी पट्टी की पहचान भर नहीं है बल्कि यह राष्ट्रीय न्यूज चैनल की तरह राष्ट्रीय पहचान की है । चाहे उसका आधार तकनीकी विस्तार है।
Sunday, September 11, 2011
किधर जायेगा अन्ना आंदोलन से आगे का रास्ता
अनशन तोड़ने के 48 घंटे बाद ही प्रधानमंत्री ने अन्ना हजारे को फूलों के गुलदस्ते के साथ 'गेट वैल सून' का कार्ड भेजा। संकेत यही निकला अन्ना बीमार है और मनमोहन सिंह अन्ना की तबियत को लेकर चिंतित हैं। लेकिन तेरह दिनों के अन्ना के आंदोलन के दौर में जो सवाल रामलीला मैदान से खड़े हुये उसने देश के भीतर सीधे संकेत यही दिये कि कहीं ना कहीं बीते बीस बरस में सरकार बीमार रही और समूची व्यवस्था की तबियत ही इसने बिगाड़ कर रख छोड़ी है। और अब जब जनलोकपाल संसद के भीतर दस्तक दे रहा है तो फिर संसद में दस्तक देते कई सवाल दोबारा खड़े हो रहे हैं, जिसे बीते बीस बरस में हाशिये पर ढकेल दिया गया। तीन मुद्दो पर संसद का ठप्पा लगाने के बाद जो सवाल अन्ना हजारे ने अनशन तोड़ने से पहले खड़े किये वह नये नहीं हैं। राईट टू रिकाल और राईट टू रिजक्ट का सवाल पहले भी चुनाव सुधार के दायरे उठे हैं । चुनाव आयोग ने ही दागी उम्मीदवारो की बढ़ती तादाद के मद्देनजर राईट टू रिजेक्ट का सवाल सीधे यह कहकर उठाया था कि कोई उम्मीदवार पसंद नहीं तो ठप्पा लगाने वाली सूची में एक खाली कॉलम भी होना चाहिये। लेकिन संसद ने यह कहकर उसे ठुकरा दिया कि यह नकारात्मक वोटिंग को बढावा देगा।
अन्ना के किसान प्रेम के भीतर खेती की जमीन हड़पने के बाजारी खेल का सवाल भी बीते बीस बरस में संसद के भीतर बीस बार से ज्यादा बार उठ चुका है। भूमि- सुधार का सवाल बीस बरस पहले पीवी नरसिंह राव के दौर में उसी वक्त उठा था जब आर्थिक सुधार की लकीर खींची जा रही थी। लेकिन इन बीस बरस में फर्क यही आया 1991 में खेती की जमीन को न को बचाते हुये व्यवसायिक तौर पर जमीन के उपयोग की लकीर खींचने की बात थी। मगर 2011 में खेती की जमीन को हथियाते हुये रियल-इस्टेट के धंधे को चमकाने और माल से लेकर स्पेशल इक्नामी जोन बनाने के लिये समूचा इन्फ्रास्ट्रचर खड़ा करने पर जोर है। जिसमें किसान की हैसियत कम या ज्यादा मुआवजा देकर पल्ला झाड़ने वाला है। अन्ना हजारे अदालतों के खौफ को न्यायपालिका में सुधार के साथ बदलना चाहते हैं। लेकिन यह सवाल भी बीते बीस बरस में दर्जनो बार संसद में दस्तक दे चुका है। लेकिन हर बार यह न्याय मिलने में देरी या जजो की कमी के आसरे ही टिका रहा।
यह सवाल पहले कभी खड़ा नहीं हुआ कि न्यायपालिका के दामन पर भी दाग लग रहे है और उसमें सुधार की कहीं ज्यादा जरुरत है। इस बार भी संसद इससे सीधे दो दो हाथ करने से बचना चाहती है। वहीं गांव स्तर पर खाकी का डर किसी भी ग्रामीण में कितना समाया होता है, उसका जिक्र अगर अन्ना हजारे कर रहे हैं और उसमें सुधार चाहते हैं तो संसद के भीतर खाकी का सवाल भी कोई आज का किस्सा का नहीं है। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने तो खाकी के समूचे खेल को ही आइना दिखाते हुये पुलिस सुधार की मोटी लकीर खींची। यानी अन्ना हजारे के सवालों से संसद रुबरु नहीं है, यह सोचना बचकानापन ही होगा। और देश के आम आदमी इसे नहीं जानते समझते होगें यह समझना भी बचकानापन ही होगा।
असल सवाल यही से खड़ा होता है कि अन्ना एक तरफ बीमार व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये संसद को आंदोलन का आइना दिखाते हैं तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री फूलों का गुलदस्ता भेज कर अन्ना को बीमारी से जल्दी उबरने का कामना करते हुये भी नजर आते हैं। तो देश चल कैसे रहा है। अगर इसकी नब्ज सियासत तले सामाजिक परिस्थितियों में पकड़ें तो देश के कमोवेश सभी कामधेनू पद आज भी बिकते हैं। चाहे वह पुलिस की पोस्टिंग हो। कोई खास थाना या फिर कोई खास जिला। इंजीनियर किसी भी स्तर का हो कुछ खास क्षेत्रो से लेकर कुछ पदो की बोली हर महीने कमाई या फिर सरकारी बजट को लेकर बिकती है। समूची हिन्दी पट्टी में संयोग से सबसे बुरी गत सिंचाई विभाग की है। यही आलम स्वास्थ्य अधिकारी का है जो सरकारी बजट की रकम को किस मासूमियत से हडप सकता है और कैसे राजनेताओ की भागेदारी कर सकता है, यह हुनर ही रकम डकारते हुये भ्रष्ट्राचार की नयी परिभाषा गढ़ने में काम आती है। सरलता से समझे तो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में मोतियाबिंद आपरेशन के नाम पर हडपे गये 3200 करोड रुपये से समझा जा सकता है जिसमें ऑपरेशन किसी का नहीं हुआ लेकिन एनजीओ के जरीये वोटरो की सूची जोड़ कर सबकुछ सफल बना दिय गया।
इसी तरह पद क्षेत्रीय ट्रासपोर्ट अफसर का भी बिकता है। सबसे मंहगा पद तो सबसे न्यूनतम जरुरत की लूट के हुनर के साथ जुड़ा का है। और वह है जिले का फूड सप्लाई ऑफीसर। यानी जिन हाथो से देश की न्यूनतम जरुरत को पूरा करने के लिये संसद में हर दिन पहला घंटा सवाल जवाब में जाता है कैबिनेट से लेकर संसद में बिल पास कराने की जद्दोजहद से लेकर बजट देने में ही सरकार लगी होती है, जब संसद के बाहर सारा खेल ही उसे लूटने के लिये रचा जाता है तो फिर रास्ता जाता किधर है। अगर सरकार के आंकड़ों को ही देखें तो देश के 70 करोड से ज्यादा लोगों में अनाज बांटने के लिये बनाये पीडीएस सिस्टम की कहानी चंद शब्दो में यही है कि सिर्फ दस फिसदी जरुरतमंदों तक ही अनाज पहुंच पाता है। बाकि 43 फिसदी सरकारी व्यवस्था के छेद से निकलकर कहीं और पहुंच जाता है। 47 फिसदी राजनेताओ का ताकत तले बांटने की व्यवस्था को ही चंद हथेलियो में डालकर मुनाफा बनाने के खेल में खेला जाता है। अगर इसी खाके में सरकार के खाद्द सुरक्षा बिल को डाल दिया जाये तो क्या होगा। इसे समझने से पहले जरा दिल्ली और देश में भ्रष्टाचार की लूट को सामांनातर देखने का हुनर आना चाहिये। नेशनल फूड सिक्योरिटी बिल की उपज सोनिया गांधी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की है। जो चाहती रही है देश का एपीएल तबके की भी इसमें शुमार हो। लेकिन मनमोहन सरकार की अगुवाई वाले योजना आयोग ने पहली लड़ाई इसी बात को लेकर शुरु की कि इससे सरकारी खजाने पर जहरदस्त बोझ पड़ेगा। और संसद में इस बिल के दस्तक देने से पहले अभी भी लगता यही है कि बीपीएल और एपीएल की लडाई में ही यह विधेयक अटका रहा। सवाल है कि किसी भी हालत में जैसे ही यह बिल लागू होगा, देश में सबसे ज्यादा लाभ उसी व्यवस्था को होना है जो राजनेताओ की वर्दहस्त में समूची लूट प्रणाली से खाद्य आपूर्ति प्रणाली को हडपे हुये है। क्योंकि देश में सबसे ज्यादा लूट अगर बीते बीस बरस में किसी वस्तु की हुई है तो वह अनाज की लूट है। और इसी दौर में जो वस्तु राजनीतिक चुनाव में सबसे ज्यादा मुप्त या कौड़ियों के मोल लुटाई गई वह भी अनाज ही है।
तो नेशनल फूड सिक्यूरटी बिल का इंतजार इस वक्त कौन कर रहा है। राजनेता, नौकरशाह, ट्रासपोर्टर और फूड सप्लाई विभाग के साथ साथ फूड सप्लाई कारपोरेशन के अधिकारी। यानी जिन अस्सी करोड़ लोगों के लिये विकास का कोई मंत्र सरकार के पास नहीं है, पहली बार उसी बहुसंख्यक तबके की न्यूनतम जरुरत से लेकर उसके जीवन जीने का माध्यम भी अंतराष्ट्रीय बाजार में बोली लगवाकर बेचे जा रही है। इसलिये सवाल यह नहीं है कि गांव का जो पटवारी बीस बरस पहले खेती की जमीन को व्यवसायिक जमीन में बदलने की एवज में सौ रुपये लेता था अब वह बढ़कर औसतन पचास हजार पहुंच चुका है। और अन्ना हजारे इसी निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये संसद से सिद्धांत: सहमति लेकर अनशन तोड़ने पर राजी हो गये। बल्कि संकट यह है कि सरकार की नीतियों तले बीते दस बरस 175 लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज संपदा से लेकर खेती की जमीन को कौडियों के मोल चंद हाथो में सौप दिया गया। और इस लूट प्रणाली को रोकने के लिये कोई सरकार अपने कदम बढ़ा नही सकती क्योंकि सरकार चुनने और बनने की दिशा भी इस दौर में उन्ही आधारो पर जा टिकी है जो लूट प्रणाली चलाते हैं। ऐसे में सवाल सिर्फ अन्ना के आंदोलन से संसद को हड़काने का नहीं है। सवाल उस नयी धारा को बनाने का भी है जिसमें प्रधानमंत्री के गेट वैल सून का जवाब राजनीतिक तौर पर अन्ना हजारे भी गेट वैल सून का कार्ड भेज कर प्रधानमंत्री को इसका एहसास कराये कि बीमार वह नहीं बीमार व्यवस्था है जो ठीक नहीं हुई तो आने वाले दौर में आंदोलन सिर्फ संसद को हड़कायेंगे नहीं बल्कि डिगा भी सकते हैं। लेकिन सवाल है यह राजनीतिक पहल होगी और क्या सिविल सोसायटी इसके लिये तैयार है।
अन्ना के किसान प्रेम के भीतर खेती की जमीन हड़पने के बाजारी खेल का सवाल भी बीते बीस बरस में संसद के भीतर बीस बार से ज्यादा बार उठ चुका है। भूमि- सुधार का सवाल बीस बरस पहले पीवी नरसिंह राव के दौर में उसी वक्त उठा था जब आर्थिक सुधार की लकीर खींची जा रही थी। लेकिन इन बीस बरस में फर्क यही आया 1991 में खेती की जमीन को न को बचाते हुये व्यवसायिक तौर पर जमीन के उपयोग की लकीर खींचने की बात थी। मगर 2011 में खेती की जमीन को हथियाते हुये रियल-इस्टेट के धंधे को चमकाने और माल से लेकर स्पेशल इक्नामी जोन बनाने के लिये समूचा इन्फ्रास्ट्रचर खड़ा करने पर जोर है। जिसमें किसान की हैसियत कम या ज्यादा मुआवजा देकर पल्ला झाड़ने वाला है। अन्ना हजारे अदालतों के खौफ को न्यायपालिका में सुधार के साथ बदलना चाहते हैं। लेकिन यह सवाल भी बीते बीस बरस में दर्जनो बार संसद में दस्तक दे चुका है। लेकिन हर बार यह न्याय मिलने में देरी या जजो की कमी के आसरे ही टिका रहा।
यह सवाल पहले कभी खड़ा नहीं हुआ कि न्यायपालिका के दामन पर भी दाग लग रहे है और उसमें सुधार की कहीं ज्यादा जरुरत है। इस बार भी संसद इससे सीधे दो दो हाथ करने से बचना चाहती है। वहीं गांव स्तर पर खाकी का डर किसी भी ग्रामीण में कितना समाया होता है, उसका जिक्र अगर अन्ना हजारे कर रहे हैं और उसमें सुधार चाहते हैं तो संसद के भीतर खाकी का सवाल भी कोई आज का किस्सा का नहीं है। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने तो खाकी के समूचे खेल को ही आइना दिखाते हुये पुलिस सुधार की मोटी लकीर खींची। यानी अन्ना हजारे के सवालों से संसद रुबरु नहीं है, यह सोचना बचकानापन ही होगा। और देश के आम आदमी इसे नहीं जानते समझते होगें यह समझना भी बचकानापन ही होगा।
असल सवाल यही से खड़ा होता है कि अन्ना एक तरफ बीमार व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये संसद को आंदोलन का आइना दिखाते हैं तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री फूलों का गुलदस्ता भेज कर अन्ना को बीमारी से जल्दी उबरने का कामना करते हुये भी नजर आते हैं। तो देश चल कैसे रहा है। अगर इसकी नब्ज सियासत तले सामाजिक परिस्थितियों में पकड़ें तो देश के कमोवेश सभी कामधेनू पद आज भी बिकते हैं। चाहे वह पुलिस की पोस्टिंग हो। कोई खास थाना या फिर कोई खास जिला। इंजीनियर किसी भी स्तर का हो कुछ खास क्षेत्रो से लेकर कुछ पदो की बोली हर महीने कमाई या फिर सरकारी बजट को लेकर बिकती है। समूची हिन्दी पट्टी में संयोग से सबसे बुरी गत सिंचाई विभाग की है। यही आलम स्वास्थ्य अधिकारी का है जो सरकारी बजट की रकम को किस मासूमियत से हडप सकता है और कैसे राजनेताओ की भागेदारी कर सकता है, यह हुनर ही रकम डकारते हुये भ्रष्ट्राचार की नयी परिभाषा गढ़ने में काम आती है। सरलता से समझे तो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में मोतियाबिंद आपरेशन के नाम पर हडपे गये 3200 करोड रुपये से समझा जा सकता है जिसमें ऑपरेशन किसी का नहीं हुआ लेकिन एनजीओ के जरीये वोटरो की सूची जोड़ कर सबकुछ सफल बना दिय गया।
इसी तरह पद क्षेत्रीय ट्रासपोर्ट अफसर का भी बिकता है। सबसे मंहगा पद तो सबसे न्यूनतम जरुरत की लूट के हुनर के साथ जुड़ा का है। और वह है जिले का फूड सप्लाई ऑफीसर। यानी जिन हाथो से देश की न्यूनतम जरुरत को पूरा करने के लिये संसद में हर दिन पहला घंटा सवाल जवाब में जाता है कैबिनेट से लेकर संसद में बिल पास कराने की जद्दोजहद से लेकर बजट देने में ही सरकार लगी होती है, जब संसद के बाहर सारा खेल ही उसे लूटने के लिये रचा जाता है तो फिर रास्ता जाता किधर है। अगर सरकार के आंकड़ों को ही देखें तो देश के 70 करोड से ज्यादा लोगों में अनाज बांटने के लिये बनाये पीडीएस सिस्टम की कहानी चंद शब्दो में यही है कि सिर्फ दस फिसदी जरुरतमंदों तक ही अनाज पहुंच पाता है। बाकि 43 फिसदी सरकारी व्यवस्था के छेद से निकलकर कहीं और पहुंच जाता है। 47 फिसदी राजनेताओ का ताकत तले बांटने की व्यवस्था को ही चंद हथेलियो में डालकर मुनाफा बनाने के खेल में खेला जाता है। अगर इसी खाके में सरकार के खाद्द सुरक्षा बिल को डाल दिया जाये तो क्या होगा। इसे समझने से पहले जरा दिल्ली और देश में भ्रष्टाचार की लूट को सामांनातर देखने का हुनर आना चाहिये। नेशनल फूड सिक्योरिटी बिल की उपज सोनिया गांधी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की है। जो चाहती रही है देश का एपीएल तबके की भी इसमें शुमार हो। लेकिन मनमोहन सरकार की अगुवाई वाले योजना आयोग ने पहली लड़ाई इसी बात को लेकर शुरु की कि इससे सरकारी खजाने पर जहरदस्त बोझ पड़ेगा। और संसद में इस बिल के दस्तक देने से पहले अभी भी लगता यही है कि बीपीएल और एपीएल की लडाई में ही यह विधेयक अटका रहा। सवाल है कि किसी भी हालत में जैसे ही यह बिल लागू होगा, देश में सबसे ज्यादा लाभ उसी व्यवस्था को होना है जो राजनेताओ की वर्दहस्त में समूची लूट प्रणाली से खाद्य आपूर्ति प्रणाली को हडपे हुये है। क्योंकि देश में सबसे ज्यादा लूट अगर बीते बीस बरस में किसी वस्तु की हुई है तो वह अनाज की लूट है। और इसी दौर में जो वस्तु राजनीतिक चुनाव में सबसे ज्यादा मुप्त या कौड़ियों के मोल लुटाई गई वह भी अनाज ही है।
तो नेशनल फूड सिक्यूरटी बिल का इंतजार इस वक्त कौन कर रहा है। राजनेता, नौकरशाह, ट्रासपोर्टर और फूड सप्लाई विभाग के साथ साथ फूड सप्लाई कारपोरेशन के अधिकारी। यानी जिन अस्सी करोड़ लोगों के लिये विकास का कोई मंत्र सरकार के पास नहीं है, पहली बार उसी बहुसंख्यक तबके की न्यूनतम जरुरत से लेकर उसके जीवन जीने का माध्यम भी अंतराष्ट्रीय बाजार में बोली लगवाकर बेचे जा रही है। इसलिये सवाल यह नहीं है कि गांव का जो पटवारी बीस बरस पहले खेती की जमीन को व्यवसायिक जमीन में बदलने की एवज में सौ रुपये लेता था अब वह बढ़कर औसतन पचास हजार पहुंच चुका है। और अन्ना हजारे इसी निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये संसद से सिद्धांत: सहमति लेकर अनशन तोड़ने पर राजी हो गये। बल्कि संकट यह है कि सरकार की नीतियों तले बीते दस बरस 175 लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज संपदा से लेकर खेती की जमीन को कौडियों के मोल चंद हाथो में सौप दिया गया। और इस लूट प्रणाली को रोकने के लिये कोई सरकार अपने कदम बढ़ा नही सकती क्योंकि सरकार चुनने और बनने की दिशा भी इस दौर में उन्ही आधारो पर जा टिकी है जो लूट प्रणाली चलाते हैं। ऐसे में सवाल सिर्फ अन्ना के आंदोलन से संसद को हड़काने का नहीं है। सवाल उस नयी धारा को बनाने का भी है जिसमें प्रधानमंत्री के गेट वैल सून का जवाब राजनीतिक तौर पर अन्ना हजारे भी गेट वैल सून का कार्ड भेज कर प्रधानमंत्री को इसका एहसास कराये कि बीमार वह नहीं बीमार व्यवस्था है जो ठीक नहीं हुई तो आने वाले दौर में आंदोलन सिर्फ संसद को हड़कायेंगे नहीं बल्कि डिगा भी सकते हैं। लेकिन सवाल है यह राजनीतिक पहल होगी और क्या सिविल सोसायटी इसके लिये तैयार है।
Thursday, September 8, 2011
यह चूक नहीं सियासत के खेल में ठप होती व्यवस्था है
दिल्ली ब्लास्ट से पहले खुफिया जानकारी गृह मंत्रालय के पास थी। वहीं तीन महीने पहले मुंबई सीरियल ब्लास्ट के बारे में कोई खुफिया जानकारी गृह मंत्रालय के पास नहीं थी। दिल्ली में पहले से अलर्ट था जबकि मुबंई में अलर्ट नहीं था। लेकिन दोनों परिस्थितियो में ब्लास्ट हुआ। तो क्या आंतक के तरीके इतने पुख्ता हो चुके है जिसमें पुलिस या खुफिया एजेंसी सेंध नहीं लगा सकती। या फिर खुफिया तंत्र का कामकाज और पुलिस की पहल महज खानापूर्ति के लिये हो चुकी है। दरअसल, आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार की कौन सी नीति किस तरह काम करती है अगर इसे नौकरशाही के जरीये बीते तीन बरस के अक्स में ही टटोले तो व्यवस्था का खाका साफ होता है। तीन बरस का मतलब है 26/11 के बाद की पहल। मुंबई हमले के बाद गृह मंत्रालय में ही छह बार यह सवाल उठा कि आंतरिक सुरक्षा के लिये एक ऐसी विशेष टीम होनी चाहिये जिसमें किसी की ट्रांसफर-पोस्टिंग न हो। यानी जो नौकरशाह आंतरिक सुरक्षा से जुड़े, उनके सामने कामकाज की लकीर बेहद सीधी हो।
लेकिन बीते तीन बरस में आंतरिक सुरक्षा को लेकर विशेष टीम तो दूर आईएएस और आईपीएस स्तर के बीस से ज्यादा अधिकारियों के विभाग बदले गये। आंतरिक सुरक्षा को देख रहे आईएएस यू के बंसल के पास कोई स्थायी टीम नहीं है। और मंत्रालय के भीतर प्राथमिकता भी आंतरिक सुरक्षा नहीं है। क्योंकि इसी दौर में आंतरिक सुरक्षा की परिभाषा आर्थिक मुद्दो के इर्द-गिर्द गढ़ी गई। आतंकवादी संगठनों को लेकर यह तर्क ज्यादा मजबूत हुये कि हवाला और मनीलॉडरिंग के जरीये आंतकवादी संगठनों का पैसा भी भारत के बाजार में सेंध लगा रहा है और कारपोरेट जगत भी आतंक करने वाले संगठनो के अंतर्राष्ट्रीय धंधों के तार की अनदेखी कर रहा है। इसका असर यह भी हुआ कि आईबी, रॉ या एनआईए के अधिकारियो के आंतरिक सुरक्षा से जुडे सवाल पर गृह मंत्रालय के आईएएस यह कहकर कही ज्यादा हावी होते चले गये कि अगर आतंकवाद को खत्म करना है तो इनके आर्थिक तार की कमर तोड़नी होगी। यानी सीधे तौर पर जो भी खुफिया इनपुट गृह मंत्रालय के अधिकारियो के पास जिस स्तर पर भी पहुंचे उस पर पारंपरिक तौर पर अलर्ट की सूचना जारी करने के अलावे कोई पहल ना तो 26/11 के वक्त हुई और ना ही दिल्ली हाईकोर्ट के 7 सितबंर को ब्लास्ट से पहले।
लेकिन गृहमंत्रालय की बाबूगीरी का असर कैसे हर स्तर पर पड़ा, यह देखना भी कम त्रासदीदायक नहीं है। एनआईए की टीम भी डायरेक्टर एससी सिन्हा की अगुवाई में दिल्ली हाईकोर्ट पहुंची तो काम का जिम्मा संभालते ही अपने अधिकारियो की काबिलियत के गुण गाने लगे। लेकिन इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया कि जांच जब सामूहिक है तो एनआईए की भूमिका क्या होगी। क्यो जांच का कोई वक्त निर्धारित नहीं किया जा रहा है। वहीं उनके साथ खड़े दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच ने भी माना कि जांच सामूहिक तौर पर हो रही है। और सामूहिकता का मतलब है सीएफएसएल टीम से लेकर एनआईए, एनएसजी , दिल्ली पुलिस क्राईंमब्रांच और गृह मंत्रालय हैं। लेकिन जब से पी चिदबरंम गृहमंत्री बने हैं, तब से इन पांचों विभाग के अधिकारियो की बैठक आजतक नहीं हुई है। यानी जो रिपोर्ट जिस विभाग के जरीये बनेगी, वह आखिर में किसके पास जायेगी और सभी एक साथ अगर नहीं बैठेगे तो हर विभाग का इनपुट देखने का आखरी नजरिया किसका होगा। यह सवाल इसलिये भी उभरा है क्योंकि एनआईए की अगुवाई में मालेगांव और समझौता ब्लास्ट के सवाल आज भी अनसुलझे हैं। दिल्ली पुलिस के पास 13 सिंतबर 2008 के तीन दिल्ली ब्लास्ट की जांच का जो जिम्मा है, वहां भी सभी के हाथ खाली हैं। इसी तरह सीएफएसएल ने तीन महीने पहले मुबंई सीरियल ब्लास्ट को लेकर जो सवाल खड़े किये थे, उसमें उसने ब्लास्ट के तुरंत बाद बारिश से सबूत के घुलने पर अपनी एक रिपोर्ट यह भी बनाकर दी थी कि घटनास्थल पर मौजूद पुलिस को तत्काल ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये जिससे सबूत नष्ट ना हों। लेकिन दिल्ली में हाईकोर्ट के सामने ब्लास्ट के बाद बारिश हुई तो फिर यही सवाल सीएफएसएल टीम के सामने आया।
दरअसल, हर खुफिया जांच एजेंसी या दिल्ली पुलिस कमिश्नर पर भी गृहमंत्रालय का एक बाबू तक इतना हावी होता है कि नार्थ ब्लाक के भीतर की गृहमंत्री सी सियासी समझ के मुताबिक ही हर कोई काम करने लगता है। और बीते तीन बरस का किस्सा गृह मंत्रालय के बाबुओं के सामने वित्तमंत्रालय से टक्कर लेने में ही कैसे खपना शुरु हुआ जो बढते बझते रामदेव और अन्ना हजारे को ठिकाने लगाने की सियासी समझ पर आ टिका यह कहीं ज्यादा त्रासदीदायक है। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को सीधी टक्कर देने के खेल में चिदबरंम के बाबुओं ने सीबीडीटी से लेकर कंपनी अफेयर की जांच प्रक्रिया में भी अपने पांव फंसाये और ज्यादा रुचि आर्थिक अपराध पकड़ने में लगा दी। यह खेल देश के लिये कितना घातक रहा, यह गृहमंत्रालय के अधिकारी रविंदर सिंह की गिरफ्तारी के वक्त समझ में आया। जब पता यह चला कि गृहमंत्रालय ही नहीं वित्तमंत्रालय की भी जो सूचनाएं लीक की जा रही थी, वह उसी मनीलॉंडरिंग और हवाला रुट को मदद कर रही थी, जो कारपोरेट को आतंकी संगठनों के रुट से मदद पहुंचाती हैं। और इसका दूसरा चेहरा प्रधानमंत्री की कोठरी में कद बढाने बढ़ाने के लिये बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे को ठिकाने लगाने में गृह मंत्रालय के बाबुओं की अच्छी खासी फौज लगी रही। जो दिल्ली पुलिस को मिनट दर मिनट ऐसे ऐसे निर्देश देने के लिये मिलती-बुलाती रही जिसे कभी आंतरिक सुरक्षा के मसले पर अंजाम दिया गया होगा तो दिल्ली में कम से कम ब्लास्ट कभी नहीं होता।
लेकिन बीते तीन बरस में आंतरिक सुरक्षा को लेकर विशेष टीम तो दूर आईएएस और आईपीएस स्तर के बीस से ज्यादा अधिकारियों के विभाग बदले गये। आंतरिक सुरक्षा को देख रहे आईएएस यू के बंसल के पास कोई स्थायी टीम नहीं है। और मंत्रालय के भीतर प्राथमिकता भी आंतरिक सुरक्षा नहीं है। क्योंकि इसी दौर में आंतरिक सुरक्षा की परिभाषा आर्थिक मुद्दो के इर्द-गिर्द गढ़ी गई। आतंकवादी संगठनों को लेकर यह तर्क ज्यादा मजबूत हुये कि हवाला और मनीलॉडरिंग के जरीये आंतकवादी संगठनों का पैसा भी भारत के बाजार में सेंध लगा रहा है और कारपोरेट जगत भी आतंक करने वाले संगठनो के अंतर्राष्ट्रीय धंधों के तार की अनदेखी कर रहा है। इसका असर यह भी हुआ कि आईबी, रॉ या एनआईए के अधिकारियो के आंतरिक सुरक्षा से जुडे सवाल पर गृह मंत्रालय के आईएएस यह कहकर कही ज्यादा हावी होते चले गये कि अगर आतंकवाद को खत्म करना है तो इनके आर्थिक तार की कमर तोड़नी होगी। यानी सीधे तौर पर जो भी खुफिया इनपुट गृह मंत्रालय के अधिकारियो के पास जिस स्तर पर भी पहुंचे उस पर पारंपरिक तौर पर अलर्ट की सूचना जारी करने के अलावे कोई पहल ना तो 26/11 के वक्त हुई और ना ही दिल्ली हाईकोर्ट के 7 सितबंर को ब्लास्ट से पहले।
लेकिन गृहमंत्रालय की बाबूगीरी का असर कैसे हर स्तर पर पड़ा, यह देखना भी कम त्रासदीदायक नहीं है। एनआईए की टीम भी डायरेक्टर एससी सिन्हा की अगुवाई में दिल्ली हाईकोर्ट पहुंची तो काम का जिम्मा संभालते ही अपने अधिकारियो की काबिलियत के गुण गाने लगे। लेकिन इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया कि जांच जब सामूहिक है तो एनआईए की भूमिका क्या होगी। क्यो जांच का कोई वक्त निर्धारित नहीं किया जा रहा है। वहीं उनके साथ खड़े दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच ने भी माना कि जांच सामूहिक तौर पर हो रही है। और सामूहिकता का मतलब है सीएफएसएल टीम से लेकर एनआईए, एनएसजी , दिल्ली पुलिस क्राईंमब्रांच और गृह मंत्रालय हैं। लेकिन जब से पी चिदबरंम गृहमंत्री बने हैं, तब से इन पांचों विभाग के अधिकारियो की बैठक आजतक नहीं हुई है। यानी जो रिपोर्ट जिस विभाग के जरीये बनेगी, वह आखिर में किसके पास जायेगी और सभी एक साथ अगर नहीं बैठेगे तो हर विभाग का इनपुट देखने का आखरी नजरिया किसका होगा। यह सवाल इसलिये भी उभरा है क्योंकि एनआईए की अगुवाई में मालेगांव और समझौता ब्लास्ट के सवाल आज भी अनसुलझे हैं। दिल्ली पुलिस के पास 13 सिंतबर 2008 के तीन दिल्ली ब्लास्ट की जांच का जो जिम्मा है, वहां भी सभी के हाथ खाली हैं। इसी तरह सीएफएसएल ने तीन महीने पहले मुबंई सीरियल ब्लास्ट को लेकर जो सवाल खड़े किये थे, उसमें उसने ब्लास्ट के तुरंत बाद बारिश से सबूत के घुलने पर अपनी एक रिपोर्ट यह भी बनाकर दी थी कि घटनास्थल पर मौजूद पुलिस को तत्काल ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये जिससे सबूत नष्ट ना हों। लेकिन दिल्ली में हाईकोर्ट के सामने ब्लास्ट के बाद बारिश हुई तो फिर यही सवाल सीएफएसएल टीम के सामने आया।
दरअसल, हर खुफिया जांच एजेंसी या दिल्ली पुलिस कमिश्नर पर भी गृहमंत्रालय का एक बाबू तक इतना हावी होता है कि नार्थ ब्लाक के भीतर की गृहमंत्री सी सियासी समझ के मुताबिक ही हर कोई काम करने लगता है। और बीते तीन बरस का किस्सा गृह मंत्रालय के बाबुओं के सामने वित्तमंत्रालय से टक्कर लेने में ही कैसे खपना शुरु हुआ जो बढते बझते रामदेव और अन्ना हजारे को ठिकाने लगाने की सियासी समझ पर आ टिका यह कहीं ज्यादा त्रासदीदायक है। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को सीधी टक्कर देने के खेल में चिदबरंम के बाबुओं ने सीबीडीटी से लेकर कंपनी अफेयर की जांच प्रक्रिया में भी अपने पांव फंसाये और ज्यादा रुचि आर्थिक अपराध पकड़ने में लगा दी। यह खेल देश के लिये कितना घातक रहा, यह गृहमंत्रालय के अधिकारी रविंदर सिंह की गिरफ्तारी के वक्त समझ में आया। जब पता यह चला कि गृहमंत्रालय ही नहीं वित्तमंत्रालय की भी जो सूचनाएं लीक की जा रही थी, वह उसी मनीलॉंडरिंग और हवाला रुट को मदद कर रही थी, जो कारपोरेट को आतंकी संगठनों के रुट से मदद पहुंचाती हैं। और इसका दूसरा चेहरा प्रधानमंत्री की कोठरी में कद बढाने बढ़ाने के लिये बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे को ठिकाने लगाने में गृह मंत्रालय के बाबुओं की अच्छी खासी फौज लगी रही। जो दिल्ली पुलिस को मिनट दर मिनट ऐसे ऐसे निर्देश देने के लिये मिलती-बुलाती रही जिसे कभी आंतरिक सुरक्षा के मसले पर अंजाम दिया गया होगा तो दिल्ली में कम से कम ब्लास्ट कभी नहीं होता।
Wednesday, September 7, 2011
तिहाड का 'अमर' रास्ता
सरकार मनमोहन सिंह की बची। सरकार बचाने का इशारा मुलायम सिंह ने किया। लेकिन आज न तो कांग्रेस का हाथ है और न ही मुलायम सिंह का साथ। फिर भी अमर सिंह खामोश रहे और खामोशी से तिहाड़ जेल पहुंच गये। यह फितरत अमर सिंह की कभी रही नहीं। तो फिर वह कौन सी मजबूरी है जिसे अमर सिंह ओढ़े हुये हैं। क्योंकि वामपंथियों के समर्थन वापस लेने के बाद संकट में आयी सरकार को बचाने की पहल अगर 10 जनपथ से शुरु हुई थी तो सीधी शिरकत मनमोहन सिंह ने खुद की थी। और तभी मनमोहन सिंह का अमर प्रेम खुलकर दिखा था। याद कीजिये 2008 में जुलाई के पहले हफ्ते में मनमोहन सिंह के घर 7 रेसकोर्स का दरवाजा पहली बार मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के लिये खुला था। तब प्रधानमंत्री ने सभी सहयोगियो को भोजन पर बुलाया था। और जिस टेबल पर अमर सिंह और मुलायम सिंह बैठे थे उसी टेबल तक चलकर खुद मनमोहन सिंह गये और साथ बैठकर गुफ्तगु के बीच जायके का मजा भी लिया था। उस वक्त यह सवाल सबसे बड़ा था कि सोनिया गांधी ने एक वक्त जब मुलायम-अमर सिह के लिये अपने दरवाजे बंद कर दिये तो फिर कांग्रेस में क्या किसी की हिम्मत होगी जो अमर सिंह के लिये दरवाजे खोले। लेकिन संकट सरकार पर था और लोकसभा में बहुमत का खेल मनमोहन सिंह सरकार को बचाने के लिये ही खेला जाना था तो फिर अमर सिंह के लिये दरवाजा भी 7 रेसकोर्स का ही खुला।
बडा सवाल यहीं से शुरु होता है कि आखिर अदालत की फटकार के बाद सीबीआई ने जब तेजी दिखायी तो सरकार बचाने वाले किरदार तो जेल चले गये। जिन्होंने सरकार बचाने के लिये खरीद-फरोख्त के इस खेल को पकड़ा वह भी जेल चले गये। लेकिन सरकार का कोई खिलाड़ी जेल क्यों नहीं गया और सीबीआई ने सत्ता के दायरे में हाथ क्यों नहीं डाला। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि अमर सिंह के आगे का रास्ता उस दौर में लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक सचिव रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी तक भी जाता है और अमर सिंह कुछ बोले तो कटघरे में सरकार और कांग्रेस के वैसे चेहरे भी खड़े होते दिखते हैं, जि पर सोनिया गांधी को नाज है।
तो क्या अमर सिंह की खामोशी आने वाले वक्त में अपनी सियासी जमीन बनाने के लिये राजनीतिक सौदेबाजी का दायरा बड़ा कर रही है। या फिर अमर सिंह जेल से किसी राजनीतिक तूफान के संकेत देकर अपना खेल सत्ता -विपक्ष दोनो तरफ खेलने की तैयारी में हैं। चूंकि अमर सिंह की सियासी बिसात उत्तर प्रदेश के चुनाव से भी जुड़ी है और साथ ही इस दौर में सीबीडीटी और प्रवर्तन निदेशालय की जांच के घेरे में आयी उनकी फर्जी कंपनियो के फर्जी कमाई से भी जुड़ी है। कैश फार वोट की जांच करते करते सीबीआई ने अमर सिंह के उस मर्म को ही पकड़ा, जहां सियासी ताकत के जरीये अपने परिवार और दोस्तो की कमाई के लिये फर्जी कंपनी बनायी तो कमाई से सियासत में अपनी ताकत का अहसास कराते रहे। जिस पंकजा आर्टस नाम की कंपनी की सफेद जिप्सी में ही तीन करोड़ रुपया ले जाया गया, वह पंकजा आर्टस कंपनी में अमर सिंह और उनकी पत्नी की हिस्सदारी है। सीबीडीटी की रिपोर्ट बताती है कि अमर सिंह करीब 45 कंपनियो से किसी ना किसी रुप में जुड़े हैं, जिनके खिलाफ जांच चल रही है।
इन सभी कंपनियों पर सत्ता की प्यार भरी निगाहें तभी रही जब जब अमर सिंह सत्ता में रहे या फिर सत्ता से सौदेबाजी करने की हैसियत में रहे। और सौदेबाजी के इसी दायरे ने उन्हे पावर सर्किट के तौर पर स्थापित भी किया और संकट के दौर में हर किसी के लिये संकट मोचक भी बने। इसलिये जब जब अमर सिंह जांच के दायरे में इससे पहले आये उन्होने सत्ता को भी लपेटा और विपक्ष को भी। बीमारी में मित्र अरुण जेटली के देखने आने को भी इस तरह याद किया जैसे बीजेपी से उनका करीबी नाता है और सरकार बचाने के दौर में काग्रेस के सबसे ताकतवर अहमद पटेल को भी मित्र कहकर यह संकेत देने से नहीं चूके कि उनकी सियासी बिसात पर राजनीतिक सौदेबाजी ही प्यादा भी है और राजा भी। क्योंकि अमर सिंह की शह देने में ही सामने वाले की मात होती और वही से अमर सिंह का आगे का रास्ता खुलता। और यही बिसात हमेशा अमर सिंह को भी बचाती रही। लेकिन पहली बार सौदेबाजी का दायरा बडा होने के बावजूद अमर सिंह का अपना संकट दोहरा है क्योंकि सरकार के सामने भ्रष्ट्राचार पर नकेल कसने की चुनौती है। और देश ने अन्ना आंदोलन के जरीये सत्ता को अपनी ताकत का एहसास करा भी दिया है। इसलिेए अब सवाल यह है कि अमर सिंह के तिहाड जेल जाने के बाद सरकार कितने दिन तक खामोशी ओढे रह सकती है । बीजेपी सिर्फ सरकार पर वार कर अपने सांसदो को व्हीसल ब्लोअर का तमगा देते हुये गिरफ्तारी के तार सुधीन्द्र तक पहुंचने से रोक पाती है। समाजवादी पार्टी अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिये सौदेबाजी का दोष काग्रेस या सरकार पर मढ़ कर अमर प्रेम जताती रहती है जिससे यूपी चुनाव में भ्रष्ट होने के दाग उस पर न लगे। या फिर सभी एक साथ खड़े होकर अमरसिंह की बिसात पर प्यादा बनकर सियासी सौदेबाजी में सबकुछ छुपाने में भिड़ते हैं। और संसदीय लोकतंत्र यह सोच कर ठहाके लगाने को तैयार है कि जिस स्टैडिंग कमेटी के पास भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाला जनलोकपाल बिल पडा है छह दिन पहले तक उसी स्टैडिंग कमेटी के सदस्य के तौर पर अमर सिंह भी थे।
यह अलग बात है कि संसद के भीतर अपराध करने के आरोप में फिलहाल अमर सिंह तिहाड जेल में हैं।
बडा सवाल यहीं से शुरु होता है कि आखिर अदालत की फटकार के बाद सीबीआई ने जब तेजी दिखायी तो सरकार बचाने वाले किरदार तो जेल चले गये। जिन्होंने सरकार बचाने के लिये खरीद-फरोख्त के इस खेल को पकड़ा वह भी जेल चले गये। लेकिन सरकार का कोई खिलाड़ी जेल क्यों नहीं गया और सीबीआई ने सत्ता के दायरे में हाथ क्यों नहीं डाला। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि अमर सिंह के आगे का रास्ता उस दौर में लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक सचिव रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी तक भी जाता है और अमर सिंह कुछ बोले तो कटघरे में सरकार और कांग्रेस के वैसे चेहरे भी खड़े होते दिखते हैं, जि पर सोनिया गांधी को नाज है।
तो क्या अमर सिंह की खामोशी आने वाले वक्त में अपनी सियासी जमीन बनाने के लिये राजनीतिक सौदेबाजी का दायरा बड़ा कर रही है। या फिर अमर सिंह जेल से किसी राजनीतिक तूफान के संकेत देकर अपना खेल सत्ता -विपक्ष दोनो तरफ खेलने की तैयारी में हैं। चूंकि अमर सिंह की सियासी बिसात उत्तर प्रदेश के चुनाव से भी जुड़ी है और साथ ही इस दौर में सीबीडीटी और प्रवर्तन निदेशालय की जांच के घेरे में आयी उनकी फर्जी कंपनियो के फर्जी कमाई से भी जुड़ी है। कैश फार वोट की जांच करते करते सीबीआई ने अमर सिंह के उस मर्म को ही पकड़ा, जहां सियासी ताकत के जरीये अपने परिवार और दोस्तो की कमाई के लिये फर्जी कंपनी बनायी तो कमाई से सियासत में अपनी ताकत का अहसास कराते रहे। जिस पंकजा आर्टस नाम की कंपनी की सफेद जिप्सी में ही तीन करोड़ रुपया ले जाया गया, वह पंकजा आर्टस कंपनी में अमर सिंह और उनकी पत्नी की हिस्सदारी है। सीबीडीटी की रिपोर्ट बताती है कि अमर सिंह करीब 45 कंपनियो से किसी ना किसी रुप में जुड़े हैं, जिनके खिलाफ जांच चल रही है।
इन सभी कंपनियों पर सत्ता की प्यार भरी निगाहें तभी रही जब जब अमर सिंह सत्ता में रहे या फिर सत्ता से सौदेबाजी करने की हैसियत में रहे। और सौदेबाजी के इसी दायरे ने उन्हे पावर सर्किट के तौर पर स्थापित भी किया और संकट के दौर में हर किसी के लिये संकट मोचक भी बने। इसलिये जब जब अमर सिंह जांच के दायरे में इससे पहले आये उन्होने सत्ता को भी लपेटा और विपक्ष को भी। बीमारी में मित्र अरुण जेटली के देखने आने को भी इस तरह याद किया जैसे बीजेपी से उनका करीबी नाता है और सरकार बचाने के दौर में काग्रेस के सबसे ताकतवर अहमद पटेल को भी मित्र कहकर यह संकेत देने से नहीं चूके कि उनकी सियासी बिसात पर राजनीतिक सौदेबाजी ही प्यादा भी है और राजा भी। क्योंकि अमर सिंह की शह देने में ही सामने वाले की मात होती और वही से अमर सिंह का आगे का रास्ता खुलता। और यही बिसात हमेशा अमर सिंह को भी बचाती रही। लेकिन पहली बार सौदेबाजी का दायरा बडा होने के बावजूद अमर सिंह का अपना संकट दोहरा है क्योंकि सरकार के सामने भ्रष्ट्राचार पर नकेल कसने की चुनौती है। और देश ने अन्ना आंदोलन के जरीये सत्ता को अपनी ताकत का एहसास करा भी दिया है। इसलिेए अब सवाल यह है कि अमर सिंह के तिहाड जेल जाने के बाद सरकार कितने दिन तक खामोशी ओढे रह सकती है । बीजेपी सिर्फ सरकार पर वार कर अपने सांसदो को व्हीसल ब्लोअर का तमगा देते हुये गिरफ्तारी के तार सुधीन्द्र तक पहुंचने से रोक पाती है। समाजवादी पार्टी अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिये सौदेबाजी का दोष काग्रेस या सरकार पर मढ़ कर अमर प्रेम जताती रहती है जिससे यूपी चुनाव में भ्रष्ट होने के दाग उस पर न लगे। या फिर सभी एक साथ खड़े होकर अमरसिंह की बिसात पर प्यादा बनकर सियासी सौदेबाजी में सबकुछ छुपाने में भिड़ते हैं। और संसदीय लोकतंत्र यह सोच कर ठहाके लगाने को तैयार है कि जिस स्टैडिंग कमेटी के पास भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाला जनलोकपाल बिल पडा है छह दिन पहले तक उसी स्टैडिंग कमेटी के सदस्य के तौर पर अमर सिंह भी थे।
यह अलग बात है कि संसद के भीतर अपराध करने के आरोप में फिलहाल अमर सिंह तिहाड जेल में हैं।
Friday, September 2, 2011
बाबूओं के रास्ते अन्ना आंदोलन को तोड़ने की सरकारी पहल
अन्ना हजारे के आंदोलन से डरी सरकार सरकार अब बाबूगीरी के जरीये अन्ना की टीम की कमर तोड़ने की तैयारी में जुट गयी है। सरकार को यह डर है कि एक वक्त के बाद अन्ना हजारे ने अगर दुबारा दिल्ली का रास्ता पकड़ा तो इस बार सरकार को कोई बचा नहीं पायेगा क्योंकि विपक्ष जनता के मूड के साथ खड़ा होगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। असल में अन्ना टीम को तीन रास्तों से घेरने की तैयारी हो रही है। पहला रास्ता अन्ना के रालेगनसिद्दी पहुंचने के बाद उन्हें वहां भावनात्मक तौर पर घेरने का है। इसके लिये अनशन तुड़वाने वाले मनमोहन सिंह के दूत विलासराव देशमुख और लंबे वक्त तक मनमोहन सिंह के साथ पीएमओ में कामकर चुके पृथ्वीराज चौहाण सक्रिय हैं। चौहण बतौर महाराष्ट्र के सीएम के तौर पर तो विलासराव दूत के भूमिका को जगाते हुये अन्ना हजारे के करीबियों को अब यह पाठ पढ़ा रहे हैं कि अन्ना की टीम दरअसल अन्ना का उपयोग अपने लिये कर रही है। जो रास्ता बीजेपी और आरएसएस की तरफ जाता है। इसके लिये तरीका बेहद प्यार भरा अपनाया गया है। नेताओं या नौकरशाहों से इतर कराड और लातुर से लेकर हर उस क्षेत्र के किसान-मजदूरों को इन दो नेताओं के जरीये भेज कर यह बताया जा रहा है कि अन्ना हजारे का आंदोलन तो शुद्द है लेकिन उनकी दिल्ली की टीम के रास्ते सियासत और संघ वाले हैं।
सरकार ने दूसरे रास्ते के जरीये अन्ना की टीम को सीधे घेरने की तैयारी की है। इस रास्ते सबसे पहले अरविन्द केजरीवाल को अब बाबूओं के जरीये उनकी पुरानी फाइलों को निकाला गया है। जिसमें नौकरी करते वक्त उनकी दो बरस की स्टडी लीव के बाद नौकरी ज्वाइन न करने पर अंगुली उठाई गई है। और इसके लिये बकायदा उन्हें सरकारी नोटिस यह कहकर थमाया गया है कि जब पढ़ाई के लिये उन्होने छुट्टी ली और उस दौर में उन्हे सरकार की तरफ से वेतन मिलता रहा तो फिर छुट्टी खत्म होने के बाद उन्होने नौकरी ज्वाइन क्यों नहीं किया। इतना ही नहीं सरकारी पत्र के जरीये के अरविन्द केजरीवाल से दो साल का वेतव ब्याज समेत लौटाने को कहा गया है। मजा यह है कि बाबुओं ने जो जांच अपने स्तर पर की, उसमें नौकरी करते वक्त अरविंद केजरीवाल का कम्प्यूटर के लिये पचास हजार के सरकारी लोन का भी जिक्र यह कहकर किया गया है कि केजरीवाल ने कंम्प्यूटर के लोन का पूरा पैसा भी नहीं लौटाया। और इस लोन में भी ब्याज की रकम जोड़ दी गयी है। यानी स्टडी लीव के दौरान के सात-आठ लाख और कम्यूटर लोन का करीब सवा-डेढ़ लाख रुपया।
खास बात यह है कि रेवेन्यू सर्विस में रहते हुये अरविन्द केजरीवाल के उन तथ्यों का सरकारी पत्र में कोई जिक्र नहीं है, जिसमें केजरीवाल ने नौकरी छोड़ने की दरख्वास्त की। कम्प्यूटर लोन का पैसा हर महीने पांच हजार लौटाने की रकम बांधी और जो लोन बचा उसे आखिरी हिसाब में काट लेने की दरख्वास्त की। वहीं सरकार ने तीसरे रास्ते के जरीये अन्ना टीम के चुनिन्दा चेहरों के आगे-पीछे की जांच के नाम पर परिवार ही नहीं बल्कि समूचे कुनबे को घेर कर इस हद तक पूछताछ शुरु की है, जिससे हर कोई अन्ना टीम में अपने पारिवारिक सदस्य को कहे कि सरकार के खिलाफ आंदोलन का रास्ता उसने चुना ही क्यों। और इस जांच के दायरे में अन्ना की कोर टीम ही नहीं बल्कि लगातार "करप्शन अगेस्ट इंडिया" तले काम करने वाले युवा लड़के-लड़कियो को भी घेरा जा रहा है।
असल में आंदोलन से ठीक पहले इसी तरह अन्ना हजारे की फाइल भी सरकार ने इसी तरह निकाली थी, जिसमें सेना में रहते हुये अन्ना के उपर कोई दाग लगाया जा सके । लेकिन उस वक्त अन्ना को लेकर सिर्फ इतना ही मामला मिला कि 1965 युद्द के बाद जीप में रखा जैक गायब हो गया था। जिससे अन्ना पर 50 रुपये का फाइन किया गया था। इसे अन्ना ने 5 रुपये महिना देकर चुकता भी कर दिया था। इसलिये अन्ना पर हर वार बेकार जाने के बाद अब सरकार अन्ना हजारे को टीम से अलग करने के लिये मराठी कार्ड भी खेल रही है और भावनात्मक तौर पर अन्ना को सहला-फुसला भी रही है। इस बिसात का असर यह है कि पहले दिन ही अन्ना के अच्छे स्वास्थ्य की कामना करने वाले सरकारी फूलो की संख्या दर्जन भर से ज्यादा रालेगणसिद्दी के यादव मंदिर में जा पहुंची। जाहिर है ऐसे में अब सरकार अन्ना हजारे और अनकी टीम की आगे की कार्रवाई को लेकर परेशान हैं। क्योंकि अन्ना के अनशन तोड़ने के बाद बीते चार दिनों से समूची अन्ना टीम खामोश है और उसकी अगली पहल का रास्ता कहीं राजनीतिक दिशा में ना मुड़ जायेगा, जिसके संकेत अन्ना ने अनशन तोडते वक्त यहकहकर दिये थे कि आगे चुनाव सुधार ही टारगेट होगा। तो फिर बाबूओं के जरीये सरकार की पहल भी निशाने पर होगी इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता।
सरकार ने दूसरे रास्ते के जरीये अन्ना की टीम को सीधे घेरने की तैयारी की है। इस रास्ते सबसे पहले अरविन्द केजरीवाल को अब बाबूओं के जरीये उनकी पुरानी फाइलों को निकाला गया है। जिसमें नौकरी करते वक्त उनकी दो बरस की स्टडी लीव के बाद नौकरी ज्वाइन न करने पर अंगुली उठाई गई है। और इसके लिये बकायदा उन्हें सरकारी नोटिस यह कहकर थमाया गया है कि जब पढ़ाई के लिये उन्होने छुट्टी ली और उस दौर में उन्हे सरकार की तरफ से वेतन मिलता रहा तो फिर छुट्टी खत्म होने के बाद उन्होने नौकरी ज्वाइन क्यों नहीं किया। इतना ही नहीं सरकारी पत्र के जरीये के अरविन्द केजरीवाल से दो साल का वेतव ब्याज समेत लौटाने को कहा गया है। मजा यह है कि बाबुओं ने जो जांच अपने स्तर पर की, उसमें नौकरी करते वक्त अरविंद केजरीवाल का कम्प्यूटर के लिये पचास हजार के सरकारी लोन का भी जिक्र यह कहकर किया गया है कि केजरीवाल ने कंम्प्यूटर के लोन का पूरा पैसा भी नहीं लौटाया। और इस लोन में भी ब्याज की रकम जोड़ दी गयी है। यानी स्टडी लीव के दौरान के सात-आठ लाख और कम्यूटर लोन का करीब सवा-डेढ़ लाख रुपया।
खास बात यह है कि रेवेन्यू सर्विस में रहते हुये अरविन्द केजरीवाल के उन तथ्यों का सरकारी पत्र में कोई जिक्र नहीं है, जिसमें केजरीवाल ने नौकरी छोड़ने की दरख्वास्त की। कम्प्यूटर लोन का पैसा हर महीने पांच हजार लौटाने की रकम बांधी और जो लोन बचा उसे आखिरी हिसाब में काट लेने की दरख्वास्त की। वहीं सरकार ने तीसरे रास्ते के जरीये अन्ना टीम के चुनिन्दा चेहरों के आगे-पीछे की जांच के नाम पर परिवार ही नहीं बल्कि समूचे कुनबे को घेर कर इस हद तक पूछताछ शुरु की है, जिससे हर कोई अन्ना टीम में अपने पारिवारिक सदस्य को कहे कि सरकार के खिलाफ आंदोलन का रास्ता उसने चुना ही क्यों। और इस जांच के दायरे में अन्ना की कोर टीम ही नहीं बल्कि लगातार "करप्शन अगेस्ट इंडिया" तले काम करने वाले युवा लड़के-लड़कियो को भी घेरा जा रहा है।
असल में आंदोलन से ठीक पहले इसी तरह अन्ना हजारे की फाइल भी सरकार ने इसी तरह निकाली थी, जिसमें सेना में रहते हुये अन्ना के उपर कोई दाग लगाया जा सके । लेकिन उस वक्त अन्ना को लेकर सिर्फ इतना ही मामला मिला कि 1965 युद्द के बाद जीप में रखा जैक गायब हो गया था। जिससे अन्ना पर 50 रुपये का फाइन किया गया था। इसे अन्ना ने 5 रुपये महिना देकर चुकता भी कर दिया था। इसलिये अन्ना पर हर वार बेकार जाने के बाद अब सरकार अन्ना हजारे को टीम से अलग करने के लिये मराठी कार्ड भी खेल रही है और भावनात्मक तौर पर अन्ना को सहला-फुसला भी रही है। इस बिसात का असर यह है कि पहले दिन ही अन्ना के अच्छे स्वास्थ्य की कामना करने वाले सरकारी फूलो की संख्या दर्जन भर से ज्यादा रालेगणसिद्दी के यादव मंदिर में जा पहुंची। जाहिर है ऐसे में अब सरकार अन्ना हजारे और अनकी टीम की आगे की कार्रवाई को लेकर परेशान हैं। क्योंकि अन्ना के अनशन तोड़ने के बाद बीते चार दिनों से समूची अन्ना टीम खामोश है और उसकी अगली पहल का रास्ता कहीं राजनीतिक दिशा में ना मुड़ जायेगा, जिसके संकेत अन्ना ने अनशन तोडते वक्त यहकहकर दिये थे कि आगे चुनाव सुधार ही टारगेट होगा। तो फिर बाबूओं के जरीये सरकार की पहल भी निशाने पर होगी इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता।