Sunday, November 27, 2011

संडे स्पेशल : कुछ और आपके लिए

पाकिस्तान के महान् कॉमेडियन उमर शरीफ़ द्वारा एक पत्रकार का लिया गया इंटरव्यू

उमर- आप जो कहेंगे सच कहेंगे सच के सिवा कुछ नहीं कहेंगे।
पत्रकार- माफ़ कीजिए हमें ख़बरें बनानी होती है।
उमर- क्या क़बरें बनानी होती हैं?
पत्रकार- नहीं-नहीं ख़बरें।
उमर- ओके ओके। सहाफ़त (पत्रकारिता) और सच्चाई का गहरा बड़ा ताल्लुक़ है, क्या आप ये जानते हैं?
पत्रकार- बिल्कुल, जिस तरह सब्ज़ी का रोटी से गहरा ताल्लुक़ है, जिस तरह दिन के साथ रात बड़ा गहरा ताल्लुक़ है, सुबह का शाम के साथ बड़ा गहरा ताल्लुक़ है, चटपटी ख़बरों का अवाम के साथ बड़ा गहरा ताल्लुक़ है, इसी तरह अख़बार के साथ हमारा भी बड़ा गहरा ताल्लुक़ है।
उमर- क्या आपको मालूम है मआशरे (समाज) की आप पर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है?
पत्रकार- देखिए आप मेरी उतार रहे हैं।
उमर- ये आपकी ख़्वाहिश है, मेरा इरादा नहीं है, जी बताइए।
पत्रकार- हां, हमें मालूम है हम पर मां-बाप की ज़िम्मेदारी है, हम पर भाई-बहन की ज़िम्मेदारी है, बीवी-बच्चों की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है, रसोई गैस, पानी और बिजली के बिल की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है, कोई समाज की एक मामूली ज़िम्मेदारी ही नहीं है।
उमर- पत्रकारों पर एक और इल्ज़ाम है कि आप लोग फ़िल्मों को बड़ी कवरेज देते हैं, क्या ये हीरो लोग आपको महीने का ख़र्चा देते हैं?
पत्रकार- देखिए आप मेरी उतार रहे हैं।
उमर- कुछ पहन के आए हैं तो डर क्यों रहे हैं, बताइए फ़िल्म वाले आपको महीने का ख़र्चा देते हैं क्या?
पत्रकार- आप नहीं समझेंगे।
उमर- क्यूं, मैं छिछोरा नहीं हूं क्या, आप रिपोर्टरों ने पाकिस्तान के लिए 50 साल में क्या किया?
पत्रकार- देखिए आप मेरी उतार रहे हैं।
उमर- आप मुझे मजबूर कर रहे हैं, चलिए बताइए।
पत्रकार- जो देखा वो लिखा, जो नहीं देखा वो बावसूल ज़राय (सूत्रों से प्राप्त जानकारी के आधार पर) से लिखा, करप्शन को हालात लिखा, रिश्वत को रिश्वत लिखा, रेशम नहीं लिखा, सादिर (नेतृत्व करने वाले) को नादिर (नादिर शाह तानाशाह का संदर्भ) लिखा।
उमर- ये आपको ख़ुफ़िया बातों का पता कहां से चलता है?
पत्रकार- अजी छोड़िए साहब, हमें तो ये भी मालूम है कि रात को आपकी गाड़ी कहां खड़ी होती है? लंदन में होटल के रूम नम्बर 505 में आप क्या कह रहे थे? सिंगापुर में आप....।
उमर (रिश्वत देते हुए)- चलिए ख़ुदा हाफ़िज़।
पत्रकार- शुक्रिया, शुक्रिया फिर मिलेंगे, ख़ुदा हाफ़िज़।



(ड्रामा ‘उमर शरीफ़ हाज़िर हो’ के दृष्टांत से लिखा गया)

Saturday, November 26, 2011

क्यों नहीं चल रही है संसद

अगर आप याद कीजिये कि संसद इस बरस कब एकजुट हुई। कब सामुहिकता का बोध लेकर चली। कब समूचा सदन किसी मुद्दे पर चर्चा कर समाधान के रास्ते निकला। तो यकीनन आम जनता से जुड़े किसी मुद्दे को लेकर ऐसी कोई याद आपकी आंखों के सामने नहीं रेंगेगी। यहां तक कि जिस महंगाई का रोना आज सभी रो रहे हैं, उस महंगाई पर भी पिछले सदन में चर्चा हुई लेकिन अधिकतर सांसद नदारद ही रहे। और खानापूर्ति के लिये चर्चा हुई। लेकिन याद कीजिये अगस्त के महीने में रामदेव की रामलीला को पुलिस ने जब जून में तहस-नहस किया और यह मामला संसद में उठा तो हर सांसद मौजूद था। अन्ना हजारे के अनशन को तुड़वाने के लिये तो समूची संसद ही एकजुट हो गई और लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार से लेकर प्रधानंमत्री तक की अगुवाई में सभी एकजुट दिखे।

राज्यसभा में जस्टिस सेन के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई को याद कीजिये। अगस्त की ही घटना है। हर कोई सदन में बैठा नजर आया। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जा सकता है जब जब संसद की साख पर सवाल उठे और जब जब सासंदों व राजनेताओं की साख सड़क पर डगमगायी और जब न्यायपालिका को पाठ पढ़ाने का मौका आया तो संसद ने अपना काम किया। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि पहली बार 22 दिनों के संसद के शीतकालीन सत्र को लेकर सरकार की जेब में 31 पेंडिंग बिल हैं। नये 19 बिल हैं। और इस फेरहिस्त में हर वह बिल है जो आम जनता से लेकर कारपोरेट तक को सुविधा देगा। फुड सेक्युरिटी बिल आ गया तो सस्ते अनाज को बांटने का व्यापक रास्ता भी खुलेगा। और सस्ते अनाज के जरीये जिले और गांव स्तर पर घोटालो का रास्ता भी खुलेगा। खनन और खनिज संपदा को लेकर माइन्स एंड मिनरल डेवलपमेंट और रेगुलेशन बिल 2011 पास हुआ तो सरकार के हाथ में जमीन हथियाने के रास्ते भी खुलेंगे। और निजी कंपनियो को लाभ पहुंचाकर अपने तरीके से योजनाओ को लाने का रास्ता भी खुलेगा। सीड्स बिल 2004 पास हुआ तो बाजार किसानों को अपनी बीन पर नचायेगा और बाजार के जरीये किसान की फसल तय होगी। यानी छोटे किसानों की मुश्किल बढ़ेगी।

इसी फेरहिस्त में कंपनी बिल से लेकर मनी लैंडरिंग बिल तक है। जीएसटी को लेकर सरकार कुछ पैसा चाहती है तो हवाला और मनीलैंडरिंग को रोकने के लिये संसद का मंच चाहती है। जाहिर यह सब किसी भी सरकार के लिये जरुरी है। खासकर तब जब सरकार के पास नीतियों के नाम पर विकास का ऐसा आर्थिक मॉडल हो जिसमें निजी हथेलियो को लाभ देते हुये आम जनता की बात की जाये। पहली मुश्किल यही है कि सरकार जो तमगा संसद के चलने से चाहती है वह ना भी मिले तो भी साउथ-नार्थ ब्लॉक से सरकार मजे में चल सकती है। फिर संसद की जरुरत है क्यों और हंगामा मचा हुआ क्यों है। तो हंगामे का पहला मतलब तो यह है कि सरकार चलाना और राजनीति साधना दोनों एक साथ नहीं चल सकते यह पहली बार सरकार भी समझ रही है और विपक्ष भी। लेकिन विपक्ष के हाथ में डोर इसलिये है क्योंकि मनमोहन सिंह के सबसे मजबूत सिपहसलार चिदंबरम फंसे हैं। जो उड़ान चिदंबरम ने यूपीए-1 के दौर में बतौर वित्त मंत्री रहते हुये भरी उसपर इतनी जल्दी ब्रेक लगाना पड़ेगा, यह ना तो प्रधानमंत्री ने सोचा और ना ही सरकार की नीतियों से आसमान में कुलांचे मारते कारपोरेट ने। चिदंबरम के आसरे मनमोहन सरकार की जो नीतियों 2004 से 2008 तक चली, चाहे वह पावर सेक्टर हो या खनन या फिर इन्फ्रस्ट्रचर, बंदरगाह या एसईजेड।

अगर ध्यान दिजिये तो सरकार के साथ उस दौर में जो निजी कंपनिया सरकारी लाइसेंस का लाभ उठा रही थीं, संयोग से वही सब यूपीए-2 के दौर में घेरे में है। और बीजेपी का खेल अब यही से शुरु हो रहा। बीजेपी के लिये चिदंबरम का मतलब सिर्फ संघ परिवार को भगवा आतंकवाद के नाम पर घेरना भर नहीं है। उसके लिये चिदंबरम का मतलब 2 जी घोटाले में सरकार से बाहर कर उन कारपोरेट घरानो को डरा कर अपने साथ खड़ा भी करना है जिनके आसरे मनमोहन इक्नामिक्स अभी तक चलती रही । इसीलिये अनिल अंबानी के रिलायंस के तीन अधिकारी हो या यूनिटेक के संजय चन्द्र या पिर स्वान के डायरेक्टर जो तिहाड से जमानत पर छह महीने बाद निकले। उन सभी के हालात के पीछे चिदबरंम की खुली बाजार में खुली राजनीति रही और अब सरकार के साथ सटने से लाभ कम घाटा ज्यादा होगा, यही पाठ बीजेपी निजी सेक्टर को पढ़ाना चाहती है। और चूंकि शेयर बाजार से लेकर निवेश का रास्ते इस दौर में उलझे हैं। साथ ही आम आदमी की न्यूनतम जरुरतों से लेकर कारपोरेट का मुनाफा तंत्र भी डगमगाया है तो संसद ना चलने देने के सामानांतर बड़ी सियासत इस बात को लेकर भी चल रही है कि आने वाले वक्त में निजी कंपनियां या कारपोरेट घराने कांग्रेस का साथ छोड बीजेपी के साथ आते है या नहीं।

दरअसल बीजेपी के इस सियासी समझ के पीछे सरकार के भीतर के टकराव भी है। जहां पहली बार आरएसएस को खारिज करने वाली मनमोहन सरकार के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी तमाम नेताओं से मिलते हुये संघ के लाडले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी का भी दरवाजा खटखटाते हैं। यानी एक तरफ चिदंबरम की संघ को घेरने की मशक्कत और दूसरी तरफ प्रणव मुखर्जी की संघ के दरवाजे पर दस्तक। और इस खेल में बीजेपी चिदंबरम की मात चाहती है। जाहिर है इसी मात के दस्तावेजों को सुब्रमण्यम स्वामी समेटे हुये हैं। लेकिन सरकार के भीतर का सच यह है कि चिदंबरम की मात का मतलब मनमोहन सिंह को प्रणव मुखर्जी की शह मिलना भी होगा, जो मनमोहन बिलकुल नहीं चाहेंगे। और इस सियासी गणित में दिग्विजय सिंह सरीखे नेता आरएसएस की ताकत उभारकर काग्रेस के वैचारिक बिसात को बिछाना चाहेंगे। यानी इस पूरे चकव्यूह को तोड़ेगा कौन और कैसे संसद शुरु होगी यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। लेकिन संसद की जरुरत इस दौर में है किसे और संसद सजेगी किस दिन संयोग से यह सवाल भी संसद को चुनौती देने वाले उसी जनलोकपाल आंदोलन से जुडी है जिसे संसद के पटल पर भी इसी सत्र में रखा जाना है। तो य़कीन जानिये दिसबंर के पहले हफ्ते में जिस दिन सरकार ऐलान करेगी कि आज लोकपाल बिल रखेंगे। उस दिन सभी पार्टिया सदन में जरुर नजर आयेंगी। क्योंकि वहां सवाल संसद के जरीये राजनीति का नहीं बल्कि सड़क के आंदोलन से डर का होगा।

Friday, November 25, 2011

कभी ममता के संघर्ष के साथ खड़े थे किशनजी

क्या नक्सलवादियो को लेकर ममता बनर्जी भी सीपीएम की राह पर चल निकली हैं। चार दशक पहले नक्सलवाद की पीठ पर सवार होकर सीपीएम ने सत्ता से कांग्रेस को बेदखल किया और चार दशक बाद माओवादियों की पीठ पर सवार होकर ममता बनर्जी ने सीपीएम को सत्ता से बेदखल किया। लेकिन माओवादी कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी के मारे जाने के बाद एक बार नया सवाल यही उभरा है कि आने वाले वक्त में क्या माओवादियों के निशाने पर ममता की सत्ता होगी। यह सारे सवाल कितने मौजू हैं, दरअसल जंगलमहल के जिस इलाके में किशनजी मारा गया उसी जंगल में दो बरस पहले किशनजी ने इन सारे सवालों को खंगाला था। वह इंटरव्यू आज कहीं ज्यादा मौजूं इसलिये है क्योंकि तब बंगाल में वामपंथियों की सत्ता थी और ममता संघर्ष कर रही थीं। आज ममता सत्ता में है और वामपंथी संघर्ष कर रहे हैं। यानी सत्ता तो 180 डिग्री में खड़ी है लेकिन नक्सलवाद का सवाल सत्ता के लिये 360 डिग्री में घूमकर वही पहुंच गया,जहा से शुरु हुआ....

सवाल-कभी नक्सलबाड़ी में किसानों ने जमींदारों को लेकर हथियार उठाये। क्या लालगढ़ में भी किसान-आदिवासियों ने हथियार उठाये या फिर आंध्रप्रदेश से आये माओवादियो की लड़ाई लालगढ़ में लड़ी जा रही है।
जबाव-लालगढ़ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है और इस वक्त मिदनापुर के करीब साढ़े सोलह हजार गांवों में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार हैं। इन ग्रामीणो की हालत ऐसी है जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है। इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है। सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी। इसके लिये इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार है। जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी,हथियार,धन-धान्य सबकुछ । लालगढ के कुछ सीपीएम काडर के घरो में तो एयरकंडीशर भी मिला। पानी के बड़े बड़े 20-20 लीटर वाले प्लास्टिक के टैंक मिले। जबकि गांव के कुओं में इन्होंने केरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके। और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है। सालो-साल से यह चला आ रहा है। किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। जंगल गांव की तरह यहां के आदिवासी रहते है। यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानों की अदला-बदली से काम चलाया जाता है। इसलिये सवाल माओवादियो का नहीं है। हमने तो इन्हें सिर्फ गोलबंद किया है। इनके भीतर इतना आक्रोश भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार हैं। और गांव वालों का यह आक्रोश सिर्फ लालगढ तक सीमित नही है।

सवाल-तो माओवादियो ने गांववालों की यह गोलबंदी लालगढ से बाहर भी की है।
जबाब-हम लगातार प्रयास जरुर कर रहे है कि गांववाले एकजुट हों। वह राजनीतिक दलों के काडर के बहकावे में अब ना आयें। क्योंकि उनकी एकजुटता ही इस पूरे इलाके में कोई राजनीतिक विकल्प दे सकती है। हमारी तरफ से गोलबंदी का मतलब ग्रामीण आदिवासियों में हिम्मत पैदा करना है, जिन्हें लगातार राजनीतिक लाभ के लिये तोड़ा जा रहा था। सीपीएम के काडर का काम इस इलाके में सिर्फ चुनाव में जीत हासिल करना ही होता है। पंचायत स्तर से लेकर लोकसभा चुनाव तक में सिर्फ चुनाव के वक्त गांववालों को थोडी राहत वोट डालने को लेकर मिलती क्योकि इलाके में कब्जा दिखाकर काडर को भी उपर से लाभ मिलता। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में हमनें चुनाव का बायकाट कराकर गांववालों को जोड़ा और सीपीएम काडर पर निशाना साधा। उससे सीपीएम उम्मीदवार जीता जरुर लेकिन उनकी पार्टी में साफ मैसेज गया कि मिदनापुर में सीपीएम की पकड़ खत्म हो चुकी है। जिसका केन्द्र लालगढ है।

सवाल-तो क्या ममता बनर्जी अब अपना कब्जा इस इलाके में देख रही है। इसीलिये वह आप लोगों को मदद कर रही हैं।
जबाब-ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है,यह तो हम नहीं कह सकते। लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उस पर हमारी सहमति जरुर है। लेकिन लालगढ में आंदोलन ममता को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिये हो रहा है, ऐसा सोचना सही नहीं होगा। ममता को लेकर हमें यह आशा जरुर है कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलों को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेगी। लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियों ने पकड़ा है उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि बंगाल की स्थितियां इतनी विकट हो चली हैं कि लालगढ आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है। वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख रहा है।

सवाल-नक्सलबाडी से लालगढ को जोड़ना जल्दबाजी नहीं है।
जबाब-जोडने का मतलब हुबहु स्थिति का होना नहीं है। जिन हालातो में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी। चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे हैं बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है। क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहुलूहान हो रहा है तो उसका आक्रेश कहां निकलेगा। क्योंकि इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी। लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फीसदी कौन डकार गया इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा। छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहों पर जाने के लिये मजबूर हुये। इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारों की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालो से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है क्योंकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती । और कंगाल होकर बंद हो चुके उगोगो की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है। वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाल छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है। यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में थे।

सवाल-लेकिन बुद्ददेव सरकार अब माओवादियो पर प्रतिबंध लगाकर कुचलने के मूड में है।
जबाव-आपको यह समझना होगा कि सीपीएम का यह दोहरा खेल है। बंगाल में माओवादियो के खिलाफ सीपीएम सरकार का रुख दुसरे राज्यों से भी कड़ा है। हमारे काडर को चुन चुन कर मारा गया है। तीस से ज्याद माओवादी बंगाल के जेलो में बंद हैं। अदालत ले जाते वक्त इनका चेहरा काले कपडे से ढक कर लाया-ले जाया जाता है ...जैसा किसी खूंखार अपराधी के साथ होता है। दमदम जेल में बंद माओवादी हिमाद्री सेन राय उर्फ शोमेन इसका एक उदाहरण हैं। प्रतिबंध लगाना राजनीतिक तौर पर सीपीएम के लिये घाटे का सौदा है क्योंकि लालगढ सरीखी जगहों पर गांव के गांव माओवादी हैं। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालों को जेल में बंद किया जा सकता है। लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सीपीएम को भी वोट दे देते है क्योकि हम चुनाव लड़ते नहीं हैं। अगर प्रतिबंध लगता है तो गांव के गांव जेल में बंद तो कर नहीं सकते लेकिन पुलिस को अत्याचार करने का एक हथियार जरुर दे सकते हैं। जिससे सीपीएम के प्रति राजनीतिक तौर पर गांववालो में और ज्यादा विरोध होगा ही। अभी तो आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है। नंदीग्राम में भी हुआ और लालगढ में भी हो रहा है। महिलाओ के साथ बलात्कार की कई घटनाये सामने आयी हैं। लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद पुलिस की तानाशाही हो जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

सवाल- लेकिन काफी गांववाले माओवादियो से भी परेशान है, वह पलायन कर रहे हैं।
जबाब- हो सकता है...क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है। लालगढ में जिस तरह सीपीएम और माओवादियो के बीच गांववाले बंटे है उसमें पुलिस आपरेशन शुरु होने के बाद सीपीएम समर्थक गांववालों का पलायन हो रहा है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसकी वजह हमारा दबाब नही है बल्कि पुलिस कार्रवायी सीपीएम कैडर की तर्ज पर हो रही है। जिसमें गांव के सीपीएम समर्थको के इशारे पर माओवादी समर्थको पर पुलिस अत्याचार हो रहा है। इसलिये अब गांव के भीतर ही सीपीएम समर्थक ग्रमीणो का विरोध हो रहा है। उन्हें गांव छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है । जो गांव छोड रहे हैं उनसे दस रुपये और एक किलोग्राम चावल भी गांव में बचे लोग ले रहे है । जिससे संधर्ष लंबे वक्त तक चल सके । अब यह

सवाल-आप ग्राउंड जीरो पर है। हालात क्या हैं लालगढ के।
जबाब-लालगढ टाउन पर पुलिस सीआरपीएफ ने कैंप जरुर लगा लिये हैं लेकिन गांवों में किसी के आने की हिमम्त नहीं है। आदिवासी महिलाएं-पुरुष बच्चे सभी तो लड़ने मरने के लिये तैयार हैं। लेकिन हम खुद नही चाहते कोई आदिवासी -ग्रामीण मारा जाये। इसलिये यह सरकारी प्रचार है कि हमनें गांववालों को मानव ढाल बना रखा है। पहली बात तो यह कि गांववाले और माओवादी कोई अलग नही है । माओवादी बाहर से आकर यहा नही लड़ रहे। बल्कि पिछले पांच साल में लालगढ में गांववाले सरकार की नीतियो के खिलाफ आवाज उढा रहे हैं। फिर हमारी तैयारी ऐसी है कि पुलिस चाह कर भी गांव तक पहुंच नहीं सकती है । जंगल में गुरिल्ला युद्द की समझ हमें पुलिस से ज्यादा है। इसलिये पुलिस वहीं तक पहुच सकी है जहां तक बख्तरबंद गाडियां जा सकती हैं। उसके आगे पुलिस को अपने पैरो पर चल कर आना होगा ।

आखिरी सवाल-कभी सीपीएम के साथ खड़े होने के बाद आमने सामने आ जाने की वजह।
जबाव-अछ्छा किया जो यह सवाल आपने आज पूछ लिया। क्योकि आज 21 जून को ही बत्तीस साल पहले 1977 में ज्योति बाबू मुख्यमंत्री बने थे। उस वक्त जमीन के मुद्दे पर ज्योति बसु सरकार ने सीपीआई एमएल पर यह आरोप लगाया था कि उन्हें अतिवाम धारा ने नीतियों को लागू कराने का वक्त नहीं दिया। अब हमारा सवाल यही है कि जिन बातो को ज्योति बसु ने 32 साल पहले कहा था जब आजतक वही पूरे नहीं हो पाये तो अब और कितना वक्त दिया जाना चाहिये।

Wednesday, November 16, 2011

अन्ना आंदोलन की मुश्किल

अपनी ही बिसात पर क्या बदल गया अन्ना आंदोलन

नागपुर के वसंतराव देशपांडे हॉल में जैसे ही अरविंद केजरीवाल भाषण खत्म हुआ वैसे ही बाहर खड़े दस-पन्द्रह लोगों ने काले झंडे लहराने शुरु कर दिये। जो बाहर खड़े होकर भाषण सुन रहे थे उन्होंने काले झंडे दिखाने वालो को मारना-पीटना शुरु कर दिया। कुछ देर अफरा-तफरी मची। राष्ट्रीय मीडिया में खबर यही बनी कि केजरीवाल को काले-झंडे दिखाये गये। काले झंडे दिखाने वालो की भीड़ ने ही पिटाई कर दी। हाल के अंदर जो बात केजरीवल ने कही, उसका जिक्र कहीं खबर में नहीं था। अब जरा इस पूरे प्रकरण के भीतर झांक कर देखें। जिन्होंने काला झंडा दिखाया,वे नागपुर के घंटानाद के कांग्रेसी कार्यकर्त्ता थे। जिन्होंने पिटाई की उनमें सरकार को लेकर आक्रोश था। तो इस गुस्से को बीजेपी ने हड़पना भी चाहा। बताया गया घंटानाद के कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओ की पिटाई में बीजेपी कार्यकर्त्ता ज्यादा थे। केजरीवाल के भाषण की मेजबानी इंडिया अगेस्ट करप्शन के नागपुर चैप्टर ने की। लेकिन उसकी अगुवाई नागपुर के बिजनेसमैन अजय सांघी कर रहे थे। जिनका कोई ताल्लकुत राजनीति से नहीं के बराबर है।

लेकिन इस बिसात के दो सच है । पहला, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना टीम का संघर्ष इतना लोकप्रिय है कि जिस नागपुर में किसी राजनेता के भाषण में वसंतराव देशपांडे हाल आम आदमी से भरता नहीं है, वहीं अन्ना टीम को सुनने इतनी बडी तादाद में लोग पहुंचे की डेढ़ हजार का हाल छोटा पड़ गया। हाल के बाहर स्क्रीन लगानी पड़ी। करीब तीन हजार लोग बाहर बैठे और जो बात केजरीवाल ने 25 मिनट के भाषण में कही उसमें कोई खबर नहीं थी। क्योंकि जनलोकपाल को लेकर सरकार के रवैये को ही केजरीवाल ने रखा। यह परिस्थितियां देश के सामने कुछ नये सवाल खड़ा करती हैं। क्या जनलोकपाल को लेकर संघर्ष करती अन्ना की टीम में आम आदमी अपना अक्स देख रहा है। क्या अन्ना टीम को लेकर सत्ता और विपक्ष अपनी अपनी चाल ही चल रहा है। क्या चुनावी तरीका ही एकमात्र राजनीतिक हथियार है। क्या अन्ना टीम का रास्ता सिर्फ जनलोकपाल के सवाल पर लोगों को जगरुक बनाने भर का है। क्या जनलोकपाल का सवाल ही व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में देश को ले जायेगा इसलिये अन्ना हजारे ने देश के तमाम आंदोलनो को हाशिये पर ला खड़ा किया है। या फिर इन सारे सवालो ने पहली बार उस संसदीय राजनीति को ही महत्वपूर्ण बना दिया है जो राजनीति रामलीला मैदान में खारिज की गई।

याद कीजिये तो रामलीला मैदान में संसद को लेकर जन-संसद तक के सवाल अन्ना हजारे ने ही खड़े किये। सिर्फ सत्ताधारियो को ही नहीं घेरा बल्कि समूची संसदीय राजनीति की उपयोगिता पर सवाल उठाये। देश भर ने अन्ना की गैर राजनीतिक पहल से राजनीतिक व्यवस्था को चाबुक मारने को हाथों हाथ लिया। और आलम यहां तक आया कि जो प्रधानमंत्री 18 अगस्त को संसद में अन्ना हजारे के आंदोलन को देश के लिये खतरनाक बता रहे थे, वही प्रधानमंत्री 28 अगस्त को पलट गये और समूची संसद ने अन्ना से अनशन तोड़ने की प्रार्थना की। तो क्या जनलोकपाल के सवाल ने पहली बार संसदीय व्यवस्था को चुनौती दी। और भ्रष्टाचार के जो सवाल जनलोकपाल के दायरे में है, क्या वे सारे सवाल ही संसदीय चुनावी व्यवस्था की राजनीतिक जमीन है। अगर यह सारे सवाल जायज है तो फिर कही अन्ना हजारे का आंदोलन उन्हीं राजनीतिक दलों, उसी संसदीय राजनीतिक चुनावी व्यवस्था के लिये ऑक्सीजन का काम तो नहीं कर रहा, जिसे जनलोकपाल के आंदोलन ने एक वक्त खारिज किया। क्योंकि इस दौर में सरकार से लेकर काग्रेस के सवालिया निशान के बीच बीजेपी का लगातार मुस्कुराना और अन्ना टीम की पहल से देश में असर क्या हो रहा है, यह भी देखना होगा। चुनावी राजनीति की धुरी जनलोकपाल के सवाल पर अन्ना टीम है। कांग्रेस को इसमें राजनीतिक घाटा तो बीजेपी को राजनीतिक लाभ नजर आ रहा है। अन्ना आंदोलन से पहले सरकार इतनी दागदार नहीं लग रही थी। और बीजेपी की सड़क पर हर राजनीतिक पहल बे-फालतू नजर आती थी। आम लोगों में कांग्रेस को लेकर यह मत था कि यह भ्रष्ट है लेकिन बीजेपी के जरिये रास्त्ता निकलेगा ऐसा भी किसी ने सोचा नही था। लेकिन अन्ना आंदोलन ने झटके में एक नयी बिसात बिछा दी। लेकिन संयोग से देश में कभी व्यवस्था परिवर्तन की बिसात बिछी नहीं है तो चुनावी राजनीति से दूर अन्ना की बिसात पर कांग्रेस और बीजेपी ने अपने अपने मंत्रियों को रखकर अन्ना टीम को ही बिसात पर प्यादा बना दिया। जिसका असर यह हुआ कि एक तरफ कांग्रेस की झपटमार दिग्विजयी राजनीति ने बीजेपी और आरएसएस में जान ला दी तो दूसरी तरफ बीजेपी की चुनावी राजनीति ने सरकार की जनवरोधी नीतियों से इतर कांग्रेस की सियासी राजनीति को केन्द्र में ला दिया, वही इस भागमभाग में अन्ना टीम अपने दामन को साफ बताने से लेकर अपनी कोर-कमेटी और संसद की स्टेंडिंग कमेटी के सामने अपनी बात रखने में ही अपनी उर्जा खपाने लगी। और झटके में रामलीला मैदान के बाद देश के मुद्दों को लेकर किसी बड़े संघर्ष की तरफ बढने के बजाये अन्ना टीम का संघर्ष उस नौकरशाही के दायरे में उलझ गया जो सिर्फ थकाती है।

लेकिन बात देश की है और धुरी अन्ना का आंदोलन हो गया तो यह समझने की कोशिश खत्म हो गयी कि अन्ना का यह ऐलान सियासी राजनीति को क्यों गुदगुदाता है कि युवा शक्ति अन्ना के साथ है। जबकि देश में जो युवा शक्ति कॉलेज और विश्वविद्यालय से यूनियन के चुनाव के जरीये राजनीति का पाठ पढ़ती थी, उस पर भी तमाम राजनीतिक सत्ताधारियो ने मठ्ठा डाल दिया है। और यूपी के विश्वविद्यालय घुमती अन्ना टीम भी युवाओ को जनलोकपाल और सरकार के नजरिये में ही सबकुछ गुम कर दे रही है। यानी जो युवा कॉलेज के रास्ते राजनीति करते हुये संसद या विधानसभा के गलियारे में नजर आता था, उसे राजनीतिक दलो के बुजुर्ग आकाओं के परिवार की चाकरी कर राजनीति का पाठ पढ़ने की नयी सोच तमाम राजनीतिक दलों ने पैदा की। क्योंकि बंगाल में ममता हो या उससे पहले वामपंथी या फिर यूपी में मायावती हो या बीजेपी या काग्रेस शासित राज्य हर जगह यूनियन के चुनाव ठप हुये। ऐसे में देश की युवा शक्ति के सामने रास्ता अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक मंच से राजनीति साधने का सही है या फिर सीधे राजनीति साधते हुये अन्ना सरीखे आंदोलन की हवा में खुद को मिलाकर चुनावी राजनीति की बिसात बदलने की सोच। अगर इस दायरे में युवाओं की राजनीतिक समझ को परखे तो अन्ना आंदोलन ने सत्ता को आक्सीजन ही दी है। दिल्ली के जेएनयू से लेकर बंगाल के खडकपुर में आईआईटी के परिसर में इससे पहले माओवाद को लेकर सत्ता पर लगातार सवाल दागने का सीधा सिलसिला था।

अन्ना आंदोलन से पहले आलम यह भी था कि गृहमंत्री पी चिदबरंम के जेएनयू जाने पर विकास के सरकारी नजरीये को लेकर बड़ी-बड़ी बहसे जेएनयू में होती रहीं। यानी विश्वविद्यालय यूनियन के चुनाव ना होने के बावजूद एक राजनीतिक पहल लगतार थी जो वर्तमान सत्ताधारियो को लेकर यह सवाल जरुर खड़ा करती कि मुनाफे की आड़ में कैसे देश के खनिज-संपदा से लेकर बिजली-पानी-स्वास्थ्य-शिक्षा तक को कॉरपोरेट और निजी हाथो में बेच रही है। वहीं आईआईटी खडकपुर में छात्र इस सवाल से लगातर जुझते कि वामपंथी हो या दक्षिणपंथी सभी ने देश के उत्पादन क्षेत्र को हाशिये पर ढकेल कर सर्विस सेक्टर को बढ़ावा देना क्यों शुरु कर दिया है। यहां तक की बंगाल में आने वाले आईटी सेक्टर के जरीये सरकारी विकास के नारे को यह कहकर खारिज किया कि जो किसान अन्न उपजाता है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण विप्रो, टीसीएस या इन्फोसिस कैसे हो सकते हैं। युवाओं के बीच इन्ही सवालो को राजनीतिक तौर पर माओवादियो ने अपने तरीके से रखा। चूंकि इन सारे तर्को को सत्ता कानूनी घेरे में लेकर आयी और जेएनयू से लेकर खडकपुर तक में नक्सली हिंसा से ही इन विचारो को जोड़ा गया और चूंकि नक्सली धारा संसदीय राजनीति का विकल्प खोजने की दिशा में चाहे ना लगी हो लेकिन उसने चुनावी राजनीति को हमेशा अपने तरीके से खारिज किया। ऐसे में सत्ताधारियो के सामने जब अन्ना का आंदोलन आया तो उन्हें यह अनुकूल भी लगा क्योंकि झटके में राजनीतिक सत्ता को लेकर बढ़ते आक्रोश की अन्ना दिशा आखिर में सत्ता से ही गुहार लगा रही है कि वह सुधर जाये। पटरी पर लौट आये। संविधान के तहत पहले जनता को स्वीकारे। ग्राम पंचायत को संसदीय राजनीति के विकेन्द्रीकरण के तहत मान्यता दे। नीतियों को इस रुप में सामने रखे, जिससे राज्य की भूमिका कल्याणकारी लगे। यानी वह मुद्दे जो कही ना कही देश को स्वावलंबी बनाते। वह मुद्दे जो उत्पादन को सर्विस सेक्टर से ज्यादा मान्यता देते। वह मुद्दे जो ग्रामीण भारत में न्यूनतम के लिये संघर्ष करने वालो की जरुरत को पूरा करते। और यह सब आर्थिक सुधार की हवा में जिस तरह गुम किया गया और लोगों में सियासत करने वालो को लेकर आक्रोश उभरा धीरे धीरे बीतते वक्त के साथ सभी अन्ना हजारे के आंदोलन में गुम होने लगा। क्योंकि आंदोलन वे देश को लेकर कोई बड़ी भूमिका निभाने और संघर्ष शुरु करने से पहले ही अपने चेहरे को साफ दिखाने की जरुरत महसूस की। अन्ना टीम इस सच से फिसल गयी कि देश की रुचि अकेले खड़े किसी भी सदस्य को लेकर नहीं है। जरुरत और रुचि दोनो संघर्ष को लेकर है। इसलिये भावुक फैसले ही अन्ना टीम को प्रबावित करने लगे। खडकपुर में प्रधानमंत्री के हाथों एक छात्र का डिग्री ना लेना अन्ना आंदोलन की सफलता की चेहरा बना। जेएनयू में शनिवार की रात में होने वाली बहसो में अन्ना और सरकार की कश्मकश में भ्रष्टाचार और आंदोलन अन्ना के लिये सफलता का सबब बना। लेकिन अन्ना आंदोलन की इस पूरी प्रक्रिया को वही राजनीति अपने तरीके से हांकने लगी जिसे एक दौर में अन्ना आंदोलन हांक रहा था। और वही मीडिया अन्ना टीम की बखिया उघेड़ने लगा जो संघर्ष के दौर में साथ खड़ा था। स्थितियां यहा तक बदली कि अन्ना के संघर्ष को आंदोलन की शक्ल जिस मीडिया ने दी, और जिसे बांधने के लिये अब सत्ता बेताब है। जबकि मीडिया का अन्ना आंदोलन से पहले का सच यह भी है कि वह मनोरंजन और तमाशे को दिखाकर पैसा कमाती रही। और सरकार मस्ती में रही। लेकिन अन्ना आंदोलन के बाद सरकार ने उसी मीडिया पर नियंत्रण करने की बात कहकर मीडिया को विश्वसनीय भी बना दिया। यानी अन्ना की बिसात की रामलीला ने झटके में उसी संसदीय राजनीति को राम और रावण बना दिया जिसे खारिज कर वह खुद महाभारत के मूड में कृष्ण बनकर रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे।

Tuesday, November 15, 2011

एक अरबपति को सरकारी बेल-आउट

सरकार ने ऐसे वक्त किंगफिशर एयरलाइन्स को बेल-आउट देने के संकेत दिये हैं, जब दुनियाभर में कॉरपोरेट और निजी कंपनियों को बेल आउट देने के सरकारों के रवैये पर ‘वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो’ एक आंदोलन के तौर पर उभरा है। पहली दुनिया के देशों में यह सवाल इसलिये आंदोलन की शक्ल ले चुका है क्योंकि जिन पूंजीवादी नीतियों के आसरे सरकारी वित्तीय संस्थानों को निजी हाथों में मुनाफा पहुंचाने का काम सौंपा गया, अब वही तमाम संस्थान फेल हो चुके हैं। जबकि भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देशो में यह सवाल दोहरा वार कर रहा है। एक तरफ सरकारें पूंजीवादी नीतियों को अपनाकर खुद को बाजार में बदलने को लालायित हैं, जिसका असर मुनाफा तंत्र ही सरकारी नीति बनना भी है और कॉरपोरेट या निजी कंपनियो के अनुसार सरकार का चलना भी है। और दूसरी तरफ बहुसंख्यक तबका जीने की न्यूनतम जरुरतों को भी नहीं जुगाड़ पा रहा है। और आम आदमी की जरुरत को पूरा करने के लिये राजनीतिक पैकेज में ही नीतियों को तब्दील कर दिया जा रहा है। इसीलिये देश की बहुसंख्य जनता के पास खाने को नहीं है तो खेती या मजदूरी दूरस्त करने की जगह फूड सिक्यूरटी बिल लाया जा रहा है। उत्पादन ठप है। हुनरमंद के पास काम नहीं है। कुटीर और मझोले उद्योग के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नही बचा और रोजगार की कोई व्यवस्था देश में नहीं है तो मनरेगा सरीखी योजना के जरीये रोजगार का एहसास कराकर राजनीतिक लोकप्रियता के लिये सरकारी खजाने को बिना किसी दृष्टि के लुटाने के खेल भी नीति बन चुकी है।

जाहिर है इन परिस्थियो के बीच अगर मनमोहन सिंह इसके संकेत दें कि किगंफिशर एयरलाइन्स को सरकारी मदद से दोबारा मुनाफा बनाने के खेल में शामिल किया जा सकता है, तो देश का रास्ता किस अर्थशास्त्र पर चल रहा है। यह समझना जरुरी है। बीते साढे सात बरस में जब से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब से देश में जितने किसानो ने खुदकुशी की, उसके सिर्फ एक फीसदी के बराबर लोगो को किंगफिशर रोजगार दिये हुये हैं। जबकि किंगफिशर में जितनी पूंजी लगी हुई है और अब सरकार जो उसे मदद देने की बात कर रही है, अगर उसका आधा ही महाराष्ट्र के विदर्भ के किसानों में बराबर बराबर बांट दिया जाये तो अगले पांच बरस तक तो किसानो की खुदकुशी पर ब्रेक लग जायेगा, जो अभी हर आठ घंटे में हो रही है। लेकिन देश चलाने के लिये जरुरी नहीं कि रइसो के चोंचले बंद कर गरीबो पर उनकी रइसी की पूंजी कुर्बान की जाये । मगर कोई भी लोकतंत्र इस तरह जी ही नहीं सकता, जहां आम आदमी के पैसे को रइसो में बांट कर देश चलाने को धंधे में बदल दिया जाये । यानी देश कहलाने या होने की न्यूनतम जरुरतें चुनी हुई सरकार के हाथ में ना हो या सरकार हाथ खड़ा कर दें। मसलन शिक्षा महंगी हो जाये तो सरकार का कुछ लेना-देना नहीं। स्वास्थ्य सेवा महंगी हो जाये तो सरकार कुछ नहीं कर सकती। घर खरीदना। घर बनाने के लिये जमीन खरीदना आम आदमी के बस में ना रहे और सरकार आंखे मूंदी रहे। पेट्रोल-डीजल की कीमत भी निजी कंपनियो के हाथो में सौप दी जाये और वह मनमाफिक मुनाफा बनाने में लग जाये। तो आम आदमी सरकार से क्या कहे। और सरकार चुनने के वक्त जब वही चार यार आपसी दो-चार कर संसदीय लोकतंत्र का नाम लेकर आम आदमी के वोट को लोकतंत्र का तमगा देने लगे, तो रास्ता जायेगा किधर।

दरअसल, लोकतंत्र का बाजारु चेहरा कितना भयानक हो सकता है यह सरकार के क्रोनी कैपटलिज्म से समझा जा सकता है, जहां आम आदमी कॉरपोरेट की हथेलियों पर सांस लेने वाले उपभोक्ता से ज्यादा कुछ नहीं होता। और आम आदमी के नागरिक अधिकार सरकार ही निजी कंपनियों को बेचकर हर नागरिक को उपभोक्ता बना चुकी है। इसलिये किंगफिशर के हालात से देश का नागरिक परेशान या उपभोक्ता। और सरकार जनता के पैसे से किंगफिशर को बेल आउट देने के लिये नागरिको की मुश्किल आसन करना चाहती है या उपभोक्ताओ की। या फिर किंगफिशर के मुनाफा तंत्र में सरकार के लिये किंगफिशर के सर्वेसर्वा विजय माल्या मायने रखते हैं और अब के दौर में सरकार का मतलब भी कही शरद पवार तो कही प्रफुल्ल पटेल, कही मुरली देवड़ा तो कही मनमोहन सिंह तो महत्वपूर्ण नहीं हो गये है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योकि किंगफिशर 2003 में आयी। 2006 में यह लिस्टेड हुई। 2008 में पहली बार तेल कंपनियो ने पैसा ना चुकाने का सवाल उठाया। सरकारी वित्तीय संस्थानों ने किंगफिशर पर बकाये की बीत कही। लेकिन इसी दौर में किंगफिशर एयरलाइन्स के मालिक विजय मालया नागरिक उ्डडयन मंत्रालय की स्थायी समिति के सदस्य बने। यानी एयरलाइन्स के धंधो पर नजर रखने वाली स्थायी समिति में वही सदस्य हो गये जिनकी निजी एयरलाइन्स थी। वहीं तत्कालीन हवाई मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने ना सिर्फ विजय माल्या को नागरिक उड्डयन मंत्रालय से बतौर सदस्य के रुप में जोड़ दिया बल्कि सरकारी इंडियन एयरलाईन्स का बंटाधार भी इसी दौर में निजी एयरलाइन्सो को लाभ दौर पहुंचाते हुये बाखूबी किया। इसमें अव्वल किंगफिशर रही क्योंकि तेल कंपनियो ने ना तो बकाया मांगा और न ही एयरपोर्ट अथॉरिटी ने फीस वसूलने की हिम्मत दिखायी। ना सरकारी बैकों ने लोन देने में कोई हिचक दिखायी। वह तो भला हो मंत्रिमंडल विस्तार के दौर का, जब प्रफुल्ल पटेल और मुरली देवडा का मंत्रालय बदला गया।

लेकिन सवाल अब आगे का है। किंगफिशर एयरलाइन्स के बेल आउट का मतलब जनता के पैसे को किसे देना होगा, जरा यह भी जान लें। विजय माल्या सरकार से मदद चाहते हैं और सरकार के चेहरे न कहने में क्यो हिचक रहे हैं, यह विजय माल्या के कद से समझा जा सकता है । आज की तारीख में देश के बाजार में बिकने वाली बीयर का 50 फीसदी हिस्सा विजय मालया की कंपनी यूबी ग्रूप का है। बेगलूर के बीचो-बीच 2 हजार करोड़ की यूबी सिटी विजय माल्या की है। तीन सौ करोड की किंगफिशर टॉवर बन रही है। कर्नाटक में यूबी माल, माल्या हास्पीटल, माल्या का ही अदिति इंटरनेशनल स्कूल, कर्नाटक ब्रीवरीज एंड डिस्ट्रेलिरि और मंगलौर कैमिकल फर्टीलाइजर से लेकर घोड़ों के रेसगाह हैं, जिनकी कुल कीमत एक लाख करोड से ज्यादा की है। इसके अलावा विजय माल्या ही देश के अकेले शख्स हैं, जिनके पैसे दुनिया की फुटबॉल टीम से लेकर फार्मूला-वन रेस,आईपीएल में क्रिकेट टीम में लगे हैं। साथ ही अंतराष्ट्रीय समाचार पत्र एशियन ऐज से लेकर फिल्म और फैशन की पत्रिका का मालिकाना हक भी है और हर बरस गोवा में अपने घर में नये बरस के आगमन के लिये करोड़ों रुपये उड़ाने का जुनून भी है। यानी जमीन से लेकर आसमान तक सपने बेचने और खरीदने का जज़्बा समेटे विजय माल्या ने 2002 में अपने पैसो की ताकत का एहसास राज्यसभा चुनाव में भी कराया था। इससे पहले राजनेताओ को संसद पहुंचाने के लिये खर्च करने वाले विजय मालया ने खुद की बोली राज्यसभा का सांसद बनने के लिये लगायी और जब रिजल्ट आया तो पता चला की हर पार्टी के सांसदो ने विजय माल्या को वोट दिया।

यही वह संकेत हैं, जिसमें विजय मालया को सरकार से यह कहने में कोई परहेज नही होता कि किंगफिशर को डूबने से बचाने की जरुरत तो सरकार की है। और सरकार भी इसके संकेत देने से नहीं चुकती की अरबपति विजय मालया के किंगफिशर को डूबने नहीं दिया जायेगा। यानी एक तरफ देश को भी लगने लगता है कि किंगफिशर का 1134 करोड़ का घाटा तो सरकार पूरा कर ही देगी। तेल कंपनियो का करीब नौ सौ करोड का कर्जा भी आज नहीं तो कल चुकता हो ही जायेगा। एयरपोर्ट की करोड़ों रुपये की फीस भी मिल ही जायेगी। जबकि इसके उलट देश अभी भी मानने को तैयार नहीं है कि पचास रुपये ना चुका पाने के डर से विदर्भ का किसान खुदकुशी करना बंद कर देगा ।

Tuesday, November 8, 2011

अपनी बनाई अर्थव्यस्था के चक्रव्यूह में सरकार

यह पहला मौका है जब सरकार भ्रष्टाचार की सफाई में जुटी है तो उसके सामने अपनी ही बनायी व्यवस्था के भ्रष्टाचार उभर रहे हैं। आर्थिक सुधार की जिस बिसात को कॉरपोरेट के आसरे मनमोहन सिंह ने बिछाया, अब वही कॉरपोरेट मनमोहन सिंह को यह कहने से नही कतरा रहा है कि विकास के किसी मुद्दे पर वह निर्णय नहीं ले पा रहे हैं। इतना ही नहीं भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना हजारे, रामदेव, श्री श्री रविशंकर से लेकर आडवाणी की मुहिम ने सरकार को गवर्नेस से लेकर राजनीतिक तौर पर जिस तरह घेरा है, उससे बचने के लिये सरकार यह समझ नहीं पा रही है कि गवर्नेंस का रस्ता अगर उसकी अपनी बनायी अर्थव्यवस्था पर सवाल उठता है तो राजनीतिक रास्ता गवर्नेंस पर सवाल उठाता है। दरअसल महंगाई,घोटालागिरी और आंदोलन से दिखते जनाक्रोश ने सरकार के भीतर भी कई दरारे डाल दी हैं। इन परिस्थितियो को समझने के लिये जरा भ्रष्टाचार पर नकेल कसती सरकार की मुश्किलों को समझना जरुरी है। कालेधन को लेकर जैसे ही जांच के अधिकार डायरेक्टर आफ क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन यानी डीसीआई को दिये गये वैसे ही विदेशो के बैंक में जमा यूपी, हरिय़ाणा और केरल के सांसद का नाम सामने आया। मुंबई के उन उघोगपतियो का नाम सामने आया, जिनकी पहचान रियल इस्टेट से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर है। और जिनके साथ सरकार ने इन्फ्रास्ट्रचर,बंदरगाह, खनन और पावर सेक्टर में मिलकर काम किया है। यानी यूपीए-1 के दौर में जो कंपनिया मनमोहन सिंह की चकाचौंध अर्थव्यवस्था को हवा दे रही थी वह यूपीए-2 में कालेधन के चक्कर में फंसती दिख रही है।

लेकिन जांच के दौरान की दौरान की फेहरिस्त चौकाने वाली इसलिये है क्योंकि जेनेवा के एचएसबीसी बैंक में जमा 800 करोड से ज्यादा की रकम हो या फ्रांस सरकार के सौंपे गये 700 बैंक अकाउंट, संयोग से फंस वही निजी कंपनियां रही हैं, जो यूपीए-1 के दौर में मनमोहन सरकार के अलग अलग मंत्रालयो की मोसट-फेवरेट रहे। और वित्त मंत्रालय में उस वक्त बैठे पी चिंदबरंम ने अभी के फंसने वाली सभी कंपनियो को क्लीन चीट दी हुई थी। सरकार की मुश्किल यह भी है कि जर्मन के अधिकारियो ने जिन 18 व्यक्तियों की सूची थमायी है और डायरेक्ट्रेट आप इंटरनेशनल टैक्ससेसन ने बीते दो बरस में जो 33784 करोड़ रुपया बटोरा है। साथ ही करीब 35 हजार करोड़ के कालेधन की आवाजाही का पता विदेशी बैको के जरीये लगाया है उनके तार कही ना कहीं देश के भीतर उन योजनाओं से जुड़े हैं, जिनके आसरे सरकार को इससे पहले लगता रहा कि उनकी नीतियों को अमल में लाने वाली कंपनियां मुनाफा जरुर बनाती है लेकिन इससे देश के भीतर विकास योजनाओ में तेजी भी आ रही है। लेकिन पिछले पांच महीने के दौरान जब से वित्त मंत्रालय के तहत जांच एंजेसियों ने विदेशी बैंको के खाते और ट्रांजेक्शन टटोलने शुरु किये तो संदिग्ध 9900 ट्राजेक्शन में से 7000 से ज्यादा ट्रांजेक्शन सरकार के आधा दर्जन मंत्रलयों की नीतियो को अमल में लाने से लेकर सरकार के साथ मिलकर काम करने वाली कंपनियो के है। यानी विकास का जो खांचा सरकार कारपोरेट और निजी सेक्टर के आसरे लगातार खींचती रही उससे इतनी ज्यादा कमाई निजी कंपनियो ने की कि उस पूंजी को छुपाने की जरुरत तक आ गई। सरकार के साथ मिलकर योजनाओ को अमली जामा पहनाते कॉरपोरेट-निजी कंपनियो की फेरहिस्त में एक दर्जन कंपनियो ने खुद को इसी दौर में बहुराष्ट्रीय भी बनाया और बहुराष्ट्रीय कंपनी होकर सरकारी योजनाओं को हड़पा भी। खास कर खनन, लोहा-स्टील,इन्फ्रस्ट्रचर, बंदरगाह और पावर सेक्टर में देश के भीतर काम हथियाने के लिये जो पैसा दिखाया गया वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नाम पर हुआ। और जो काम अंजाम देने में लगे उसमें वही बहुरष्ट्रीय कंपनी देसी कंपनी के तौर पर काम करते हुये बैको से पैसा उठाने लगी। इसका असर यह हुआ कि कंपनियो ने कमोवेश हर क्षेत्र में सरकारी लाईसेंस लेकर अपनी ही बहुराष्ट्रीय कंपनी से अपनी ही देसी कंपनियों को बेचा। जिससे कालाधन सफेद भी हुआ और कालाधन नये रुप में बन भी गया। हवाला और मनी-लैंडरिंग मॉरीशस के रास्ते इतना ज्यादा आया कि अगर आज की तारीख में इस रास्ते को बंद कर दिया जाये तो शेयर बाजार का सेंसेक्स एक हजार से नीचे आ सकता है। करीब दो सौ बड़ी कंपनियों के शेयर मूल्य में 60 से 75 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। यानी अर्थव्यवस्ता की जो चकाचौंध मनमोहनइक्नामिक्स तले यूपीए-1 के दौर में देश के मध्यम तबके पर छायी रही और कांग्रेस उसी शहरी मिजाज में आम आदमी के साथ खड़े होने की बात कहती रही, वह यूपीए-2 में कैसे डगमगा रही है यह भी सरकार की अपनी जांच से ही सामने आ रहा है।

लेकिन मुश्किल सिर्फ इतनी भर नहीं है असल में सरकार अब चौकन्नी हुई है तो देश के भीतर के उन सारी योजनाओं का काम रुक गया है, जिन्हे हवाला और मनी-लैंडरिग के जरीये पूरा होना था। और अभी तक सरकार की प्रथमिकता भी योजनाओं को लेकर थी ना कि उसे पूरा करने वाली पूंजी को लेकर। लेकिन कालेधन और भ्रष्टाचार के सवाल ने सरकार को डिगाया तो अब पुराने सारे प्रोजेकट इस दौर में रुक गये। खासकर पावर सेक्टर और इन्फ्रास्ट्रक्चर। साठ से ज्यादा पावर प्लांट अधर में लटके है। पावर प्लांट के लिये कोयला चाहिये। कोयले पर सरकार का कब्जा है। और बिना पूंजी लिये सरकार कोयला बेचने को तैयार नहीं है। क्योंकि मुफ्त में कोयला देने का मतलब है, आने वाले दौर में एक और घोटाले की लकीर खींचना। पावर प्रोजेक्ट का लाइसेंस लेकर बैंठे निजी कंपनियों का संकट है कि वह किस ट्राजेक्शन के जरीये सरकार को पैसा अदा करें। इससे पहले बैक या मनी ट्राजेंक्शन पर सरकार की नदर नहीं थी तो कालाधन इसी रास्ते सफेद होता रहा। लेकिन अब वित्त मंत्रालय की एजेंसियो की पैनी नजर है तो इन्फ्रास्ट्रचर को लेकर भी देशभर में 162 प्रोजेक्ट के काम रुके हुये हैं। बंदरगाहों के आधुनिकीकरण से लेकर मालवाहक जहाजो की आवाजाही के मद्देजनर निजी कंपनियो को सारी योजनाये देने पर यूपीए-1 के दौर में सहमति भी बन चुकी थी। लेकिन अब इस दिशा में भी कोई हाथ डालना नहीं चाहता है क्योंकि निजी कंपनियो के ट्रांजेक्शन मंत्री-नौकरशाह होते हुये ही किसी प्रोजेक्ट तक पहुंचते रहे हैं। लेकिन घोटालो ने जब मंत्री से लेकर नौकरशहो और कारपोरेट के धुरंधरों तक को तिहाड़ पहुंचा दिया है तो सरकार के भीतर सारे काम रुक गये है। जिससे कारोपरेट घरानो के टर्न-ओवर पर भी असर दिखयी देने लग है। सरकार को गवर्नेंस का पाठ पढाने वाले विप्रो के अजीम प्रेमजी हो या गोदरेज के जमशायद गोदरेज, एक सच यह भी है कि अब के दौर में नौकरशाही और मंत्रियों ने कोई फाइल आगे बढाने से हाथ पीछे खींचे हैं तो विप्रो का टर्न ओवर 17.6 बिलियन डॉलर से घटकर 13 बिलियन डालर पर आया है और गोदरेज का 7.9 बिलियन डालर से कम होकर 6.8 बिलियन डॉलर पर। लेकिन इस पेरहिस्त में अंबानी भाइयों से लेकर रुइया और लक्ष्मी मित्तल से लेकर कुमार बिरला तक शामिल है।

लेकिन सरकार की मुशिकल यही नहीं थमती कि उसके सामने अब बडी चुनौती सबकुछ निजी हाथो में सौपनें के बाद निजी हाथों की कमाई को रोकने की है। सवाल है महंगाई के सवाल में आम आदमी को सरकार समझाये कैसे। बिजली, पानी, घर से लेकर सडक, शिक्षा, स्वास्थय तक को निजी सेक्टर के हवाले कर दिया गया है। जमीन की किमत से लेकर महंगे होते इलाज और शिक्षा तक पर उसकी चल नहीं रही। और तमाम क्षेत्रो में जब ईमानदारी की बात सरकार कर रही है निजी सेक्टर सफेद मुनाफे के लिये कीमते बढ़ाने का खेल अपने मुताबिक खेलना चाह रहे हैं। पेट्रोल डीजल, रसोई गैस इसके सबसे खतरनाक उदाहरण हैं। जहां निजी कंपनियां अपने मुनाफे के मुताबिक कीमत तय करने पर आमादा है और सरकार कुछ कर नहीं सकती क्योंकि उसने कानूनी रुप से पेट्रोल-डीजल और गैस को यह सोच कर निजी हाथों में बेच दिया कि कीमतो पर लगने वाला टैक्स तो उसी के खजाने में आयेगा। लेकिन सरकार कभी यह नहीं सोच पायी कि निजी कंपनियां मुनाफे के लिये कीमतें इतनी भी बढ़ा सकती है कि आम आदमी में सत्ता को लेकर आक्रोष बढता जाये और यह राजनीतिक आंदोलन की शक्ल लें लें। असल में यही पर सरकार की चल नहीं रही। क्योंकि अभी तक का रास्ता कॉरपोरेट,राजनेता,नौकरशाह और पावर ब्रोकर के नैक्सस का रहा है। लेकिन नया रास्ता भूमि,न्यापालिका,चुनाव और पुलिस सुधार की मांग करता है। जिसके लिये सत्ता में अर्थशस्त्री नहीं स्टेट्समैन चाहिये, जो कहीं नजर आता नहीं। इसीलिये यह परिस्थितियां सत्ता को चेता भी रही और विकल्प का सवाल भी खड़ा कर रही है।