स्वाधीनता के 62 बरस बाद लोकतंत्र का सच
क्या गणतंत्र दिवस के मौके पर कोई यह कहने की हिम्मत कर सकता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बनना भारत के लिये सबसे महंगा सौदा हो गया। यकीनन किसी भी देश के लिये अपना संविधान होना और संविधान की लीक पर जनता को अपने नुमाइन्दों को चुनने का अधिकार मिलने से बड़ा लोकतंत्र कुछ होता नहीं । लेकिन देश चलाने के लिये देश बनाना भी पड़ता है और जब देश बनाने का रास्ता भ्रष्टाचार और कालेधन की जमीन पर संसदीय चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा गढ़ने लगे तो क्या हो सकता है। यकीनन जो संविधान में दर्ज होगा सिर्फ उनके शब्दों को महत्व दिया जायेगा, उसके अर्थ देश बनाने के रास्ते पर ले जाने कतई नहीं होंगे।
संयोग से देश जब 63 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है तो पहली बार राजपथ पर चुनाव आयोग की झांकी भी निकली। जिसने इस बात का एहसास कराना चाहा कि लोकतंत्र का तमगा भारत ने अपनी छाती में यूं ही नहीं टांगा है बल्कि उसके पीछे देश के बहुसंख्य तबके की भागेदारी है। लेकिन क्या यह कल्पना भी की जा सकती है कि संविधान लागू होने का बाद जितना पैसा 1951-52 में पहला चुनाव कराने में लगा उससे कही ज्यादा पैसा आज यूपी चुनाव की एक विधानसभा सीट पर लग रहा है। और 13 मई 1952 को जब पहली बार संसद बैठी तो उसके सामने देश को मुश्किलों से निकालने का जो बजट था, वह साठ बरस बाद एक विधानसभा की योजनाओं से होने वाली कमाई से भी कम है। देश में पहला चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक चला। जिस पर कुल खर्च 10 करोड 45 लाख रुपये आया। और साठ बरस बाद यूपी चुनाव के आंकडे बताते हैं कि हर सीट पर औसतन पांच सौ करोड़ रुपये न्यूतम जरुर लग रहे हैं। यानी यूपी विधानसभा चुनाव में करीब दो लाख करोड़ रुपये स्वाहा होंगे।
ऐसा भी नहीं है कि संविधान के तहत बने चुनाव आयोग ने कोई तय राशि चुनाव को लेकर तय नहीं की है। बकायदा चुनाव आयोग के नियम 1961 की धारा 77 के तहत हर विधानसभा सीट पर 10 लाख रुपये तक कोई भी उम्मीदवार खर्च कर सकता है। और लोकसभा सीट पर 25 लाख रुपये। लेकिन सवाल है जब भ्रष्टाचार की गाढ़ी काली कमाई और मुनाफा बनाने की नीतियो के तहत कमाई में इतना धन हर किसी के पास हो, जिससे वह सत्ता में आने के बाद बकायदा सरकारी नीतियों के तहत लगाये गई पूंजी से कई गुना ज्यादा पूंजी बना ले तो फिर चुनाव आयोग क्या कर सकता है। क्योंकि दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के तमगे की कीमत कितनी ज्यादा है, इसका एहसास 1952 के बाद के 15 आम चुनाव से भी समझा जा सकता है। मसलन आर्थिक सुधार का रास्ता पकड़कर जैसे ही भारत के बाजार खुले वैसे ही लोकतंत्र की परिभाषा भी बाजार के हिसाब से रफ्तार पकड़ने लगी। और 1991 के आम चुनाव में 3 अरब 59 करोड 10 लाख 24 हजार 679 रुपये खर्च हुये। जबकि सत्ता में आने के बाद पीवी नरसिंह राव ने देश को घाटे का बजट देते हुये बिगड़े आर्थिक हालात पर अंगुली उठायी थी। संयोग देखिये 1991 में देश का बजट रखने वाले और कोई नहीं अभी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही थे जो उस वक्त वित्त मंत्री थे। और बजटीय भाषण में मनमोहन सिंह ने तब खुली बाजार अर्थनीति की खुली वकालत की थी।
देश का खजाना किताना खाली है इसका अहसास भी 1992-93 के बजट में कराया गया। आर्थिक सुधार की जिस रफ्तार को मनमोहन सिंह ने 1996 तक देश को पकवाया उसका असर देश के विकास में कितना हुआ यह तो आज भी हर कोई उस दौर को महसूस कर टिप्पणी कर सकता है। लेकिन 1998 के आम चुनाव में सत्ता के लिये लगी राजनीतिक दलों की पूंजी 1991 की तुलना में दिगुनी हो गयी। 1998 में छह अरब 66 करोड 22 लाख 16 हजार रुपये खर्च हुये। और 2004 के जिस चुनाव में भाजपा का चमकता हुआ भारत का नारा हारा और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने उस चुनाव मे खर्चा 13 अरब रुपये पार कर गया। जाहिर है यह वैसे आंकड़े है जो चुनाव आयोग देता रहा है। ऐसे में चुनाव आयोग ने इस वक्त भी पांच राज्यों के चुनाव के मद्देनजर जो आंकडे दिये हैं, वह एक अरब से नीचे का है। लेकिन चुनाव आयोग ने ही इसके संकेत भी दिये हैं कि चुनाव में करीब एक अरब कालेधन के तौर पर चुनाव में लगेगा भी। यानी स्वाधीनता के गीत साठ बरस की यात्रा के बाद ही चुनावी लोकतंत्र तले यह मानने लगे कि जितना पैसा चुनाव आयोग चुनाव कराने में खर्च करता है उससे ज्यादा कालाधन तो नेताओ के जरीये चुनाव मैदान में लग जाता है। लेकिन संयोग से इस बार तो सिर्फ यूपी में ही चुनावी लोकतंत्र पर चुनावी धनतंत्र इतनी हावी है कि हर विधानसभा सीट पर पांच सौ करोड़ कोई मायने नहीं रख रहा है। क्योंकि उत्तर प्रदेश में सत्ता का मतलब विकास की सैकड़ों योजनाओं के बंदर बांट की वह कीमत है जिसकी वसूली उस राजनीतिक दल को करनी है जो सत्ता में आ जाये । इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर खनन परियोजना और पावर प्लाट से लेकर चकाचौंध शहरी करण के नये नये तरीकों के लिये जमीनों पर कब्जा करने के लिये सत्ता में होना जरुरी है। और जिन निजी कंपनियों से लेकर कारपोरेट सेक्टर या रियल इस्टेट की लाबी से लेकर शूगर मिल की वह लॉबी जिसकी नजर राज्य की योजनाओं पर है, उसने करीब सत्तर हजार करोड़ से ज्यादा पूंजी चुनाव में उम्मीदवारों के पीछे लगायी है।
दरअसल, लोकतंत्र के इस महापर्व से मुनाफा कमाने का रास्ता बेहद सीधा है। सत्ता में मायावती आये या मुलायम या फिर गठबंधन की सरकार बने। छह महीने के भीतर करीब नब्बे लाख करोड की योजनाओं को निजी हथेलियों पर रखना है। और यह सौदेबाजी सत्ता को भी तीस से चालीस फीसदी रकम दिलाती है तो इतनी ही रकम या इससे कहीं ज्यादा निजी हाथ कमा लेते है। खासकर रियल इस्टेट और पावर प्लांट को लेकर जितनी जमीन मायावती के दौर में बंटी उस पर खड़ी इमारत-माल-एसआईजेड का मोल ही लगाया जाये तो करीब पचास लाख करोड़ पार कर जाते हैं। जाहिर है ऐसे में वह धंधेबाज, जिनके हाथ मायावती के दैर में कुछ नहीं आया वह सत्ता परिवर्तन के लिये चुनाव में पैसा लगा रहे हैं तो जिनके वारे-न्यारे मायावती ने किये वह तबका इस डर से चुनाव में मायावती को जिताने के लिये पैसा लगा रहा है कि कही सत्ता बदली तो उसके मुनाफे पर सत्ता की नजर ना पड़ जाये ऐसे में यूपी के चुनाव मैदान में तीन सौ से ज्यादा वैसे उम्मीदवारों के पीछे भी 10 हजार करोड़ से ज्यादा लगा हुआ है, जो जीतेगें नहीं लेकिन जिनके खड़े होने से समीकरण पैसा लगाने वालो के हक में जा सकते हैं। यानी चुनाव मैदान में भाजपा और कांग्रेस के अलावा उन निर्दलीय बागियों के पीछे भी इस बार पैसा लगा है जो सीधी टक्कर में फच्चर फंसा सकते हैं।
जाहिर है इन हालातों के बीच स्वाधीनता दिवस का सवाल कोई कैसे उठाकर कह सकता है कि वोटर अपने नुमाइन्दों को चुनेगा। या फिर वोटर मुद्दों के आसरे नुमाइन्दों को वोट देगा। क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राज्य उत्तरप्रदेश की माली हालत इतनी बदतर है कि चुनाव के वक्त या चुनाव के बाद की सियासी सौदेबाजी में खोने के अलावा कोई विकल्प किसा के पास है नहीं। रोजगार दफ्तर में एक करोड़ युवा वोटरो के नाम दर्ज हैं। करीब डेढ़ करोड किसान गरीबी की रेखा से नीचे हैं। राज्य के बीस फीसदी वोटर मजदूर हैं, जिनकी रोजी रोटी चले कैसे इसके लिये कोई नीति कोई बजट सरकार के पास नहीं है। और सोढे बारह करोड वोटरो में से बीस लाख सरकारी कर्मचारी को निकाल दें तो महज पचास लाख मजबूत रोजगार ही पूरे उत्तर प्रदेश में है। इसलिये स्वाधीनता दिवस के मौके पर अगर लोकतंत्र के गीत गाने तो पहले सह समझ लेना होगा कि 2009 के आम चुनाव में भी 70 करोड के वोटर वाले देश में मजह 29 करोड़ लोगों ने ही वोट डाला। लेकिन चुनाव में सफेद काला मिलाकर 100 अरब रुपये से ज्यादा खर्च हो गये। यानी 62 बरस बाद सबसे ज्यादा पैसा कही आया है तो वह देश को दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र बनाये रखने वाले उस संसदीय चुनाव में जिसमे वोट डालने वाला अस्सी फीसद के दो जून की रोटी कोई मुद्दा नहीं है।
Monday, January 30, 2012
Thursday, January 26, 2012
रायबरेली को गांधी परिवार छोड़ना नहीं चाहता और लखनऊ थामना नहीं चाहता
लखनऊ के मुगलिया स्थापत्य कला को मायावती ने लाल पत्थरों और नीली रोशनी से चाहे बदल दिया। लेकिन रायबरेली को जो पहचान पचास के दशक में फिरोज गांधी के जरीये गांधी परिवार से मिली, उसे बदलने के लिये ना तो कभी मुलायम ने कोशिश की और ना ही मायावती ने। उल्टे सियासी बिसात पर गांधी परिवार की विरासत रायबरेली के लिये कितनी त्रासदीदायक हो सकती है, यह रायबरेली के वोटरो के दर्द से समझा जा सकता है। 1981 में इंदिरा गांधी ने रायबरेली को चौबीस घंटे रोशनी देने के लिये रायबरेली के ऊंचाहार में फिरोज गांधी विघुत ताप्ती परियोजना स्थापित की। घाटे के बाद भी बिजली उत्पादन बंद ना हो इसके लिये 1992 में एनटीपीसी ने इस विघुत परियोजना को अपने हाथ में ले लिया । और रायबरेली की जगह एनटीपीसी की प्राथमिकता लखनऊ हो गयी।
इंदिरा गांधी के बाद रायबरेली का भाग्य सोनिया गांधी के राजनीति में आने के बाद जागा। और 2008 में ऊंचाहार से दो किलोमीटर दूर अमावा में रायबरेली के लिये 220 मेगावाट की विधुत परियोजना लगीं। लेकिन मायावती ने झटके में अमावा से निकलने वाली बिजली को लखनऊ पहुंचाने का निर्देश दे दिया जिससे नीली रोशनी के साये में लखनऊ नहलाता हुआ दिखे। और एक बार फिर रायबरेली अंधेरे में समा गया। दरअसल रायबरेली के लिये गांधी परिवार की विरासत कितनी सुविधापूर्ण है या कितनी महंगी यह लखनऊ से रायबरेली जाने के रास्ते में सबसे पहले इंदिरा गांधी द्वार के भीतर घुसते ही समझ में आ सकता है। इंदिरा गांधी द्वार यानी रायबरेली शुरु हो गया। चंद फर्लांग के बाद ही बछरांवा में दाहिने तरफ महात्मा गांधी की मूर्ति के ठीक पीछे श्री गांधी स्कूल और उससे महज एक किलोमीटर के बाद ही कस्तूरबा गांधी प्राथमिक स्कूल। शहर में कदम रखते ही फिरोज गांधी द्वार और शहर के सबसे व्यस्त चौक को पार करते ही सोनिया गांधी के नाम का टेक्निकल स्कूल। यानी शहर में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां से आंखों के सामने कही किसी दीवार पर गांधी परिवार का नाम ना लिखा हो। फिरोज गांधी से सोनिया गांधी तक के दौर को महसूस करते रायबरेली की त्रासदी यही है कि बीते 22 बरस में जो भी लखनऊ की सत्ता पर काबिज हुआ उसके संबंध कांग्रेस से छत्तीस के रहे और रायबरेली को जुबान लखनऊ से ना मिल कर दिल्ली से मिलती रही। आलम यह भी हुआ कि जिस विद्युत परियोजना से रायबरेली के अंधियारे को दूर करने का प्रयास गांधी परिवार ने किया उस परियोजना से महज ढाई किलोमीटर की दूरी पर मौजूद गांव मजहरगंज में आजादी के 64 बरस बाद महज दो महिने पहले बिजली के खम्बे पहुंचे हैं। मजहरगंज में लगे बिजली के खम्बो का खर्चा भी लखनऊ ने नहीं उठाया बल्कि राजीव गांधी ग्रामीण बिजली योजना के तहत ऊंचाहार से सटे मजहरगंज के लोगों ने गांव में जलते हुये बल्ब को देखा। और अब घर में रोशनी के लिये 700 से डेढ हजर की घूस देनी पड़ रही है। जिसके बाद ही बिजली के तार और मीटर घर तक पहुंचेंगे। लेकिन तब तक चुनाव निपट जायेगा तो फिर घूस की रकम भी बढ़ सकती है। जबकि इस गांव के लोगों ने पचास के दशक में ही नेहरु से लेकर फिरोज गांधी और इंदिरा गांधी को देखा था। वह यादे आज भी गांव के सबसे बुजुर्ग मकसूद अंसारी आंखों में समेटे हैं। और आंखों में गांधी परिवार को लेकर इतनी चमक है कि इतने बरस गांव अंधेरे में रहा लेकिन अफसोस किसी पर नहीं है। सिवाय यह कहने के कि सियासी चालों से तो गांधी परिवार के रायबरेली को खत्म नहीं किया जा सकता । लेकिन रायबरेली के रास्ते इलाहबाद जाने वाली सड़क के आखिर में रायबरेली का ही एक गांव कटरा भी है। जहां आज तक गांधी परिवार के किसी सदस्य ने कदम नहीं रखा। अब गांधी परिवार की पहुंच से कटरा दूर रहा तो कोई नेता भी इस गांव में नहीं पहुचता। इसका असर कटरा बहादुर तहसील पर सीधा पडा। कभी घाघरा नदी के पानी से कटरा में नहर बनी जो अब सूख चुकी है। लेकिन इस नहर पर राजनीतिक पैसा आज भी खर्च होता है। सात महिने पहले ही कागज पर आठ लाख रुपये खर्च हुये जिससे नहर में पानी आ जाये लेकिन नहर का आलम यह है कि अब नहर शौचालय में तब्दील हो चुकी है।
जाहिर है ऐसे में जमीन के नीचे से पानी निकाल कर सिचाई होती है। गांव में बिजली रात में तीन से चार घंटे रहती है तो पानी के लिये लगी मोटर डीजल पर टिकी है। जिससे गांव के लोग डीजल खरीदने के लिये शहर जाकर मजदूरी करते है। इस तहसील में आने वाले छह गांव में कोई ऐसा गांव नहीं जहां पक्की सड़क हो। लेकिन इस बेबसी में भी गांधी परिवार के साथ खड़े होने का रुतबा कोई खोना नहीं चाहता है। इसलिये जब सवाल यह पूछा जाता है कि रायबरेली आकर भी प्रियंका गांधी गांव में क्यों नहीं आयी तो गांव वाले ठहाका लगाकर कहते है कि प्रियंका बिटिया की गाडी गांव की सड़क पर कैसे चलती। इसलिये वह शहर में ही मुंह दिखाकर लौट जाती है। लेकिन बिना मुंह देखे ही हम कांग्रेस को जीता कर मुंह दिखायी हर बार दे देते है। गांधी परिवार से यह प्रेम रायबरेली के बुनकरो में भी खूब है। केन्द्र में देश के लिये बनायी गयी काग्रेस की कपडा नीति ने बुनकरों के हुनर को खत्म कर उन्हें मजदूर बना दिया लेकिन कोई गिला -शिकवा गांधी परिवार से यह के बुनकरों का भी नहीं है। राहुल गांधी के पैकेज का पैसा तो किसी बुनकर के पास अब तक नहीं पहुंचा है लेकिन बुनकरों की हालत यह है कि कमोवेश हर घर में महिलाएं धागे को कात कर जोड़कर उसे रस्सी की तरह मोटा बनाती है। फिर रंगती है। और बुनकर उसे घागे से चारपाई बुनता है। एक किलो रस्सी बनाने की एवज में महज 40 रुपये मिलते हैं और महिने भर में कमाई हर दिन दस घंटे काम करने के बाद भी डेढ़ हजार रुपये पार नहीं कर पाती। मनरेगा यहा कागज पर भी नहीं पहुंचा है। तो हर दिन सौ रुपये कैसे कमाये जाते हैं, यह भी रायबरेली के गांववालों को नहीं पता। लेकिन शहरी रायबरेली का मिजाज थोड़ा अलग है। शहर में सीमेंट फैक्टरी से लेकर पेपर मिल और टैक्सटाइल मिल से लेकर कारपेट फैकटरी तक है। करीब 23 इंडस्ट्री पहले से है और लालगंज में बन रही रेलवे कोच फैक्ट्री पूरी होने को है। लेकिन रायबरेली का मिजाज इतना शहरी भी नहीं कि उघोग चलते रहे और गांव प्रभावित ना हो। पावर प्लाट से निकलती राख अगर छह गांव की खेती चौपट करती है तो पेपर मिल और सीमेंट कारखाने से निकलते कचरे से दर्जनो गांव के सैकड़ों लोग सासं की बीमारी को गले की खराश मान कर जी रहे है। और सफेद घूल से नहाये गांव के घरों को देखकर अगर सवाल प्रदूषण का करें तो उलट में गांधी परिवार के रुतबे तले हर कोई यह कहने से नहीं चुकता कि उनकी बदौलत उघोग तो रायबरेली में आये। लेकिन लखनऊ की सरकार को भी तो कुछ करना चाहिये। और अब लालगंज की कोच फैक्ट्री भी जब रोजगार देने को तैयार है तो फिर उससे प्रभवित किसानी की फिक्र क्या मायने रखती है। शायद इसलिये गांधी परिवार रायबरेली छोड़ना नहीं चाहता और लखनऊ की सियासत रायबरेली को थामना नहीं चाहती। क्योंकि चुनाव के वक्त भी रायबरेली का आम वोटर तो प्रियका गांधी को बिना देखे ही मुंह दिखायी देने को तैयार है।
इंदिरा गांधी के बाद रायबरेली का भाग्य सोनिया गांधी के राजनीति में आने के बाद जागा। और 2008 में ऊंचाहार से दो किलोमीटर दूर अमावा में रायबरेली के लिये 220 मेगावाट की विधुत परियोजना लगीं। लेकिन मायावती ने झटके में अमावा से निकलने वाली बिजली को लखनऊ पहुंचाने का निर्देश दे दिया जिससे नीली रोशनी के साये में लखनऊ नहलाता हुआ दिखे। और एक बार फिर रायबरेली अंधेरे में समा गया। दरअसल रायबरेली के लिये गांधी परिवार की विरासत कितनी सुविधापूर्ण है या कितनी महंगी यह लखनऊ से रायबरेली जाने के रास्ते में सबसे पहले इंदिरा गांधी द्वार के भीतर घुसते ही समझ में आ सकता है। इंदिरा गांधी द्वार यानी रायबरेली शुरु हो गया। चंद फर्लांग के बाद ही बछरांवा में दाहिने तरफ महात्मा गांधी की मूर्ति के ठीक पीछे श्री गांधी स्कूल और उससे महज एक किलोमीटर के बाद ही कस्तूरबा गांधी प्राथमिक स्कूल। शहर में कदम रखते ही फिरोज गांधी द्वार और शहर के सबसे व्यस्त चौक को पार करते ही सोनिया गांधी के नाम का टेक्निकल स्कूल। यानी शहर में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां से आंखों के सामने कही किसी दीवार पर गांधी परिवार का नाम ना लिखा हो। फिरोज गांधी से सोनिया गांधी तक के दौर को महसूस करते रायबरेली की त्रासदी यही है कि बीते 22 बरस में जो भी लखनऊ की सत्ता पर काबिज हुआ उसके संबंध कांग्रेस से छत्तीस के रहे और रायबरेली को जुबान लखनऊ से ना मिल कर दिल्ली से मिलती रही। आलम यह भी हुआ कि जिस विद्युत परियोजना से रायबरेली के अंधियारे को दूर करने का प्रयास गांधी परिवार ने किया उस परियोजना से महज ढाई किलोमीटर की दूरी पर मौजूद गांव मजहरगंज में आजादी के 64 बरस बाद महज दो महिने पहले बिजली के खम्बे पहुंचे हैं। मजहरगंज में लगे बिजली के खम्बो का खर्चा भी लखनऊ ने नहीं उठाया बल्कि राजीव गांधी ग्रामीण बिजली योजना के तहत ऊंचाहार से सटे मजहरगंज के लोगों ने गांव में जलते हुये बल्ब को देखा। और अब घर में रोशनी के लिये 700 से डेढ हजर की घूस देनी पड़ रही है। जिसके बाद ही बिजली के तार और मीटर घर तक पहुंचेंगे। लेकिन तब तक चुनाव निपट जायेगा तो फिर घूस की रकम भी बढ़ सकती है। जबकि इस गांव के लोगों ने पचास के दशक में ही नेहरु से लेकर फिरोज गांधी और इंदिरा गांधी को देखा था। वह यादे आज भी गांव के सबसे बुजुर्ग मकसूद अंसारी आंखों में समेटे हैं। और आंखों में गांधी परिवार को लेकर इतनी चमक है कि इतने बरस गांव अंधेरे में रहा लेकिन अफसोस किसी पर नहीं है। सिवाय यह कहने के कि सियासी चालों से तो गांधी परिवार के रायबरेली को खत्म नहीं किया जा सकता । लेकिन रायबरेली के रास्ते इलाहबाद जाने वाली सड़क के आखिर में रायबरेली का ही एक गांव कटरा भी है। जहां आज तक गांधी परिवार के किसी सदस्य ने कदम नहीं रखा। अब गांधी परिवार की पहुंच से कटरा दूर रहा तो कोई नेता भी इस गांव में नहीं पहुचता। इसका असर कटरा बहादुर तहसील पर सीधा पडा। कभी घाघरा नदी के पानी से कटरा में नहर बनी जो अब सूख चुकी है। लेकिन इस नहर पर राजनीतिक पैसा आज भी खर्च होता है। सात महिने पहले ही कागज पर आठ लाख रुपये खर्च हुये जिससे नहर में पानी आ जाये लेकिन नहर का आलम यह है कि अब नहर शौचालय में तब्दील हो चुकी है।
जाहिर है ऐसे में जमीन के नीचे से पानी निकाल कर सिचाई होती है। गांव में बिजली रात में तीन से चार घंटे रहती है तो पानी के लिये लगी मोटर डीजल पर टिकी है। जिससे गांव के लोग डीजल खरीदने के लिये शहर जाकर मजदूरी करते है। इस तहसील में आने वाले छह गांव में कोई ऐसा गांव नहीं जहां पक्की सड़क हो। लेकिन इस बेबसी में भी गांधी परिवार के साथ खड़े होने का रुतबा कोई खोना नहीं चाहता है। इसलिये जब सवाल यह पूछा जाता है कि रायबरेली आकर भी प्रियंका गांधी गांव में क्यों नहीं आयी तो गांव वाले ठहाका लगाकर कहते है कि प्रियंका बिटिया की गाडी गांव की सड़क पर कैसे चलती। इसलिये वह शहर में ही मुंह दिखाकर लौट जाती है। लेकिन बिना मुंह देखे ही हम कांग्रेस को जीता कर मुंह दिखायी हर बार दे देते है। गांधी परिवार से यह प्रेम रायबरेली के बुनकरो में भी खूब है। केन्द्र में देश के लिये बनायी गयी काग्रेस की कपडा नीति ने बुनकरों के हुनर को खत्म कर उन्हें मजदूर बना दिया लेकिन कोई गिला -शिकवा गांधी परिवार से यह के बुनकरों का भी नहीं है। राहुल गांधी के पैकेज का पैसा तो किसी बुनकर के पास अब तक नहीं पहुंचा है लेकिन बुनकरों की हालत यह है कि कमोवेश हर घर में महिलाएं धागे को कात कर जोड़कर उसे रस्सी की तरह मोटा बनाती है। फिर रंगती है। और बुनकर उसे घागे से चारपाई बुनता है। एक किलो रस्सी बनाने की एवज में महज 40 रुपये मिलते हैं और महिने भर में कमाई हर दिन दस घंटे काम करने के बाद भी डेढ़ हजार रुपये पार नहीं कर पाती। मनरेगा यहा कागज पर भी नहीं पहुंचा है। तो हर दिन सौ रुपये कैसे कमाये जाते हैं, यह भी रायबरेली के गांववालों को नहीं पता। लेकिन शहरी रायबरेली का मिजाज थोड़ा अलग है। शहर में सीमेंट फैक्टरी से लेकर पेपर मिल और टैक्सटाइल मिल से लेकर कारपेट फैकटरी तक है। करीब 23 इंडस्ट्री पहले से है और लालगंज में बन रही रेलवे कोच फैक्ट्री पूरी होने को है। लेकिन रायबरेली का मिजाज इतना शहरी भी नहीं कि उघोग चलते रहे और गांव प्रभावित ना हो। पावर प्लाट से निकलती राख अगर छह गांव की खेती चौपट करती है तो पेपर मिल और सीमेंट कारखाने से निकलते कचरे से दर्जनो गांव के सैकड़ों लोग सासं की बीमारी को गले की खराश मान कर जी रहे है। और सफेद घूल से नहाये गांव के घरों को देखकर अगर सवाल प्रदूषण का करें तो उलट में गांधी परिवार के रुतबे तले हर कोई यह कहने से नहीं चुकता कि उनकी बदौलत उघोग तो रायबरेली में आये। लेकिन लखनऊ की सरकार को भी तो कुछ करना चाहिये। और अब लालगंज की कोच फैक्ट्री भी जब रोजगार देने को तैयार है तो फिर उससे प्रभवित किसानी की फिक्र क्या मायने रखती है। शायद इसलिये गांधी परिवार रायबरेली छोड़ना नहीं चाहता और लखनऊ की सियासत रायबरेली को थामना नहीं चाहती। क्योंकि चुनाव के वक्त भी रायबरेली का आम वोटर तो प्रियका गांधी को बिना देखे ही मुंह दिखायी देने को तैयार है।
Monday, January 23, 2012
नवाब की टोपी और गरीब की झोपड़ी से दूर है चुनावी लोकतंत्र
वोट डालने की खुशी से ज्यादा आक्रोश समाया है वोटरों में
इस चुनाव ने नेताओं को साख दे दी और वोटरों को बेबसी में ढकेल दिया। याद कीजिए चुनाव से ऐन पहले राजनेताओं की साख थी ही कहां और वोटर विकल्प का सपना संजोये राजनीतिक दलों को डरा रहा था। लखनउ के शीश महल में रहने वाले
नवाब जफर मीर अब्दुल्ला का यह जवाब चुनाव को लोकतंत्र से जोड़ने के मेरे सवाल पर था। मेरी नवाबी टोपी को चाहे लोकतंत्र ना मानिये लेकिन लोकतंत्र का अर्थ नेताओं के चुनाव से भी ना जोड़िये। क्योंकि इस लोकतंत्र में हम वोटर बेबस हैं। नवाब जफर मीर की चुभती हुई इस टिप्पणी के आसरे समूचे चुनाव को तो टटोलना मुश्किल है लेकिन बनारस से लखनउ तक की चुनावी पट्टी में जो देखा समझा परखा, उसने पहली बार यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि इस बार चुनाव मुद्दो पर नहीं,जीतने के धन-बल और वोट-बैंक के आसरे लड़ा जा रहा है। पारदर्शिता इतनी ज्यादा है कि राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस और भाजपा दोनों के मंच पर दागी-बागी सबसे मजबूत मोहरे मान लिये गये हैं और मुलायम-मायावती की तकरार में अतीत के सियासी मोहरों को दोबारा जगह मिल रही है। इस चुनावी बिसात पर आम लोगों से सरोकार तो दूर पहली बार चुनावी
रोजगार भी नहीं है। झंडे-बैनर-बिल्ला कुछ भी खरीदने बेचने के लिये नहीं है। बंबू-तिरपाल और प्लस्टिक की कुर्सियां भी भाड़े पर उठाने के लिये कोई राजनेता भी तैयार नहीं है। क्योंकि चुनाव जीत के तरीके इस बार भाषण या लहराते झंडे पर नहीं टिके हैं। बल्कि जातीय समीकरण, सत्ता पाने के बाद सत्ता की मलाई चखाने के वादे और महंगे हो चुके यूपी में कौडियों के मोल लाइसेंस दिलाने के दावे हैं। जो संयोग से मायावती बनाम ऑल पार्टी तले आ टिका है। सत्ता पाने के लिये लड़े जा रहे यूपी का सच मायावती के दौर में यूपी में जमीन से लेकर आने वाली परियोजनाओं के उस खेल पर टिकी मुनाफा
कमाने वाली आंखों का है, जिसकी किमत नब्बे लाख करोड़ से ज्यादा की है। यूपी में चीनी मिलो से लेकर पावर प्रोजेक्ट, रियल इस्टेट से लेकर चकाचौंध माल योजनायें और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर न्यूनतम जरुरत शिक्षा-स्वास्थ्य-पानी के स्ट्रक्चर को खड़ा करने के लिये जो तबका अपनी झोली फैलाये खड़ा है, असल में चुनाव के पीछे वही अपनी ताकत से आ खड़ा हुआ है। जो सत्ता में आयेगा वह छह महिनो में 50 लाख करोड़ का खेल खेलेगा। हर योजना को हरी झंडी वहीं देगा। कीमत तय वही करेगा। इसका पहला असर तो यही पड़ा है कि मायावती के उम्मीदवारों को छोड दें तो कमोवेश हर राजनीतिक दल के जीतने वाले उम्मीदवारों के पीछ सौ अरब से ज्यादा लगाया जा चुका है।
समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा में जिसके भी जितने की जरा भी उम्मीद है उसके पीछे रियल-इस्टेट और कॉरपोरेट का इतना घन लग रहा है कि पहली बार छोटे स्तर पर चुनाव में पूंजी लगाकर जिले या ब्लाक स्तर पर सत्ता से कमाई का लाइसेंस बनाने वालों को कोई पूछ नहीं रहा । पहली बार मायावती के दौर में जिस तरह जिले स्तर पर विकास योजनाओं से सीधी राजनीतिक कमाई को जोड़ा गया उसने हर उस उम्मीदवार की आंखे खोल दी है, जिन्हें अभी तक समझ नहीं आता था कि चुनाव में किसी का पैसा लगवाकर उसे वापस कैसे लौटाया जाता है। इस बार हर विधानसभा सीट की कीमत दो सौ करोड से ज्यादा की है। यानी जो विधयक बनेगा उसे दो सौ करोड का खेल करने का मौका अपने विधानसभा क्षेत्र में मिलेगा, बशर्ते वह सत्ताधारी दल का हो। दरअसल सत्ता के जरिये कमाई के अरबों के खेल के लब्बोलुआब ने चुनावी समीकरण भी बदलने शुरु किये हैं या कहें बनाने शुरु किये हैं। जो सत्ता के गठन के बाद सत्ता से पैसा बनाने के लिये अभी अरबो-खरबो लगा रहे हैं, उनके समीकरण में मायावती के लिये मुलायम की हवा का बहना सही खेल है। क्योंकि मायावती तब पैसे से ज्यादा वोटबैंक देखेगी। और हो भी यही रहा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश से इलाहबाद तक मायावती को पैसा नहीं अपने वोट बैंक को सहेजना पड़ रहा है। जो मायावती के पीछे खड़े धंधेवालों के लिये सटीक है। क्योंकि मायावती अब अपने बीस फीसदी वोटबेंक को छितराने नहीं देना चाहती। इसी का परिणाम है कि चाहे चुनाव में जीत सकने वाले अवधपाल हो या नरेश अग्रवाल सरीखे उम्मीदवार, इन जैसे दो दर्जन उम्मीदवारो का टिकट इसलिये काटा क्योंकि दलित वोटबैंक में इन्हे
लेकर आक्रोश है। असल में मायावती के पीछे खड़े धंधेबाज इस हकीकत को भी समझते है कि मायवती का मतलब सिर्फ लखनउ का 5, कालिदास मार्ग ही भ्रष्ट होना है। लेकिन मुलायम का मतलब हर जिले और विधानसभा सीट पर 5, कालीदास मार्ग का बन जाना है।
दरअसल पहली बार समाजवादी पार्टी के जरीये अगर सत्ता में आने के बाद के करोडो के खेल के वारे न्यारे की तस्वीर धंधेबाजों के सामने रखी जा रही है तो पहली बार मायावती का कैडर बेहद महीन तरीके से गांव से लकर लखनउ तक मुलायम के दौर में वसूली के उन तरीकों को बता रहा है जिसके घेरे में सत्ताधारी जाति को छोड हर कोई फंसा। यानी 2007 के चुनाव में जिन वजहो से मुलायम को हार मिली उसे ही अब मायावती दोबारा हथियार बना रही है । और यह धार इसलिये पैनी है क्योकि मायावती ने हर जाति को लेकर जिस तरह भाई-चारा समिति गांव, कस्बा, ब्लाक,जिला, मंडल और राज्य स्तर पर बनाया है उसमें अध्यक्ष को यही काम सौपा गया है कि वह वोटरों को मुलायम के दौर की याद दिलाये। और धंधेवालों को निर्देश दिया गया है कि पैसे बंटने है तो ब्लाक से मंडल स्तर के संगठन को पैसा दें। इसका असर यह हुआ है कि ब्राह्मणों को अपनी जमीन छिनने का दौर याद आ रह हैं। बनिये पैसा वसूली को याद कर रहे हैं। मल्लाहों को अपनी भैंस छुड़ाने के एवज में पैसा देने का दौर याद आ रहा है। गांवों में चारदीवारी पर बैठ कर खुले आसमान का मजा लेते शहरी ग्रामीणों को थाने और मवालियों के डर का एहसास होने लगा है। लेकिन दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी का संगठन तीन स्तर पर सक्रिय है। पहले स्तर पर बाप के खडाउ को पहनते दिखते अखिलेश यादव के साथ खड़ा युवको का जोश। जिनके पीछे सुविधाओ की पोटली हर उस धंधेबाज ने खोली है जिन्हें मायावती ने जगह नहीं दी। दूसरे स्तर पर मुलायम के साथ उन्हीं यादवो का जोश जिसने 2007 तक सत्ता को अपनी अंगुलियो को नचाया। और तीसरे स्तर पर मोहन सिंह सरीके पुराने समाजवादी, जो जगह-जगह खड़े होकर पुरानी गलतियों के लिये माफी मांगते फिर रहे है और उनके साथ नेताजी और अखिलेश के बीच बनी नयी कड़ी से उलझे समाजवादी या फिर सत्ता में समाजवादी पार्टी को लाने का सपना संजोये समाजवादी। तीसरे स्तर पर धंधेबाजो की निगाहे नहीं है। इसलिये पुराने समाजवादियों के सामने मायावती को शह देने के हथियार तो है लेकिन उन हथियारों को समाजवादी पार्टी में कोई उठाने को तैयार नहीं है क्योकि धंधेबाजों ने अभी से यह एहसास करवाना शुरु कर दिया है नेताजी का दौर लौट रहा है।
लेकिन इस रोचक संघर्ष से इतर सचमुच की लोकतांत्रिक पहल में आम वोटर कैसे किस रुप में बेबस है, यह जिले दर जिले और विधानसभा सीट दर सीट उभर रहा है। गांवों में बड़े-बुजुर्ग को लगने लगा है कि मुस्लिमों की तर्ज पर ब्लाक या एकमुश्त वोटिंग के जरीये ही अब कोई सौदेबाजी नेताओं या पार्टियों से हो सकती है। युवाओं में टीस है कि जिला मुख्यलयो में दो महीने पहले तक वह जिस सियासत को अन्ना हजारे के आंदोलन के मंच से चिढा रहे थे । झटके में उन्हें उसी सियासी बिसात पर लोकतंत्र को जीना है। महिलाओं के सामने नेताओ की भ्रष्टाचार और महंगाई के सवाल का उठ पाने का दर्द है। लेकिन इस बेबसी के बीच भी पहली बार वोटरों का आक्रोश कई सवाल खडा कर रह है, जो आम लोगों के सवाल से जा जुड़ा है। हाथियों को चादर पहनाने के निर्देश ने पहली बार चुनाव आयोग को भी वोटरों की जुबान पर एक पार्टी बना दिया है।
लखनउ के युवाओ में आक्रोश है कि जब नेता या राजनीतिक दल कोई चुनावी लाभ देने की घोषणा करता है और अगर वह चुनाव जीतने के बाद पूरा नहीं करते तो उस पार्टी या उम्मीदवार के खिलाफ चारसौबीसी के तहत कार्रवाई क्यों नहीं की जाती। बुजुर्गो में आक्रोश है कि चुनाव आयोग ने जब समूची चुनाव प्रक्रिया को ही पैसे और तकनीक टिका दिया तो फिर वोटिंग भी सौ फीसदी कराने के लिये घऱ घर जाकर पोलिंग अधिकारी वोटिंग क्यो नहीं कराते। इसमें चाहे एक बरस लग जाये लेकिन तब पता तो चलेगा कि फेयर-एंड फ्री इलेक्शन हुआ है। तीसरे-चौथे वर्ग की नौकरीपेशी महिलाओं में आक्रोश है कि जिस चुनाव में बाहुबलियों और भ्रष्ट नेताओं का बोल बाला है वहां चुनाव आयोग के लिये सफल चुनाव का मतलब सिर्फ चुनाव कराना भर ही क्यों है। फिर ऐसे नुमाइन्दों के चुनाव के लिये अगर उन्हें पोलिंग अधिकारी नहीं बनना है तो उसके एवज में भी भ्रष्टाचार के साथ खड़ा होना पड़ रहा है। लखनउ और इलाहबाद में तो एक हजार रुपये तय तक दिया गया है कि जो पोलिंग अधिकारी नहीं बनना चाहती है वह एक हजार रुपये दे दें। क्योंकि इसके एवज में घूस लेने वाले अधिकारी कागज पर दिखा देंगे कि इन महिलाओं का तीन साल से छोटा बच्चा है, इसलिये उन्हें पोलिंग अधिकारी ना बनाया जाये। यानी चुनाव में भ्रष्टाचार दूर करने के मुद्दे पर चुनाव कराने पर भी जब भ्रष्टाचार पूरे उफान पर है तो फिर लखनऊ के नवाब तो क्या समूचे यूपी में कौन यह कहकर मुस्कुराये कि चुनाव का मतलब लोकतंत्र है।
इस चुनाव ने नेताओं को साख दे दी और वोटरों को बेबसी में ढकेल दिया। याद कीजिए चुनाव से ऐन पहले राजनेताओं की साख थी ही कहां और वोटर विकल्प का सपना संजोये राजनीतिक दलों को डरा रहा था। लखनउ के शीश महल में रहने वाले
नवाब जफर मीर अब्दुल्ला का यह जवाब चुनाव को लोकतंत्र से जोड़ने के मेरे सवाल पर था। मेरी नवाबी टोपी को चाहे लोकतंत्र ना मानिये लेकिन लोकतंत्र का अर्थ नेताओं के चुनाव से भी ना जोड़िये। क्योंकि इस लोकतंत्र में हम वोटर बेबस हैं। नवाब जफर मीर की चुभती हुई इस टिप्पणी के आसरे समूचे चुनाव को तो टटोलना मुश्किल है लेकिन बनारस से लखनउ तक की चुनावी पट्टी में जो देखा समझा परखा, उसने पहली बार यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि इस बार चुनाव मुद्दो पर नहीं,जीतने के धन-बल और वोट-बैंक के आसरे लड़ा जा रहा है। पारदर्शिता इतनी ज्यादा है कि राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस और भाजपा दोनों के मंच पर दागी-बागी सबसे मजबूत मोहरे मान लिये गये हैं और मुलायम-मायावती की तकरार में अतीत के सियासी मोहरों को दोबारा जगह मिल रही है। इस चुनावी बिसात पर आम लोगों से सरोकार तो दूर पहली बार चुनावी
रोजगार भी नहीं है। झंडे-बैनर-बिल्ला कुछ भी खरीदने बेचने के लिये नहीं है। बंबू-तिरपाल और प्लस्टिक की कुर्सियां भी भाड़े पर उठाने के लिये कोई राजनेता भी तैयार नहीं है। क्योंकि चुनाव जीत के तरीके इस बार भाषण या लहराते झंडे पर नहीं टिके हैं। बल्कि जातीय समीकरण, सत्ता पाने के बाद सत्ता की मलाई चखाने के वादे और महंगे हो चुके यूपी में कौडियों के मोल लाइसेंस दिलाने के दावे हैं। जो संयोग से मायावती बनाम ऑल पार्टी तले आ टिका है। सत्ता पाने के लिये लड़े जा रहे यूपी का सच मायावती के दौर में यूपी में जमीन से लेकर आने वाली परियोजनाओं के उस खेल पर टिकी मुनाफा
कमाने वाली आंखों का है, जिसकी किमत नब्बे लाख करोड़ से ज्यादा की है। यूपी में चीनी मिलो से लेकर पावर प्रोजेक्ट, रियल इस्टेट से लेकर चकाचौंध माल योजनायें और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर न्यूनतम जरुरत शिक्षा-स्वास्थ्य-पानी के स्ट्रक्चर को खड़ा करने के लिये जो तबका अपनी झोली फैलाये खड़ा है, असल में चुनाव के पीछे वही अपनी ताकत से आ खड़ा हुआ है। जो सत्ता में आयेगा वह छह महिनो में 50 लाख करोड़ का खेल खेलेगा। हर योजना को हरी झंडी वहीं देगा। कीमत तय वही करेगा। इसका पहला असर तो यही पड़ा है कि मायावती के उम्मीदवारों को छोड दें तो कमोवेश हर राजनीतिक दल के जीतने वाले उम्मीदवारों के पीछ सौ अरब से ज्यादा लगाया जा चुका है।
समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा में जिसके भी जितने की जरा भी उम्मीद है उसके पीछे रियल-इस्टेट और कॉरपोरेट का इतना घन लग रहा है कि पहली बार छोटे स्तर पर चुनाव में पूंजी लगाकर जिले या ब्लाक स्तर पर सत्ता से कमाई का लाइसेंस बनाने वालों को कोई पूछ नहीं रहा । पहली बार मायावती के दौर में जिस तरह जिले स्तर पर विकास योजनाओं से सीधी राजनीतिक कमाई को जोड़ा गया उसने हर उस उम्मीदवार की आंखे खोल दी है, जिन्हें अभी तक समझ नहीं आता था कि चुनाव में किसी का पैसा लगवाकर उसे वापस कैसे लौटाया जाता है। इस बार हर विधानसभा सीट की कीमत दो सौ करोड से ज्यादा की है। यानी जो विधयक बनेगा उसे दो सौ करोड का खेल करने का मौका अपने विधानसभा क्षेत्र में मिलेगा, बशर्ते वह सत्ताधारी दल का हो। दरअसल सत्ता के जरिये कमाई के अरबों के खेल के लब्बोलुआब ने चुनावी समीकरण भी बदलने शुरु किये हैं या कहें बनाने शुरु किये हैं। जो सत्ता के गठन के बाद सत्ता से पैसा बनाने के लिये अभी अरबो-खरबो लगा रहे हैं, उनके समीकरण में मायावती के लिये मुलायम की हवा का बहना सही खेल है। क्योंकि मायावती तब पैसे से ज्यादा वोटबैंक देखेगी। और हो भी यही रहा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश से इलाहबाद तक मायावती को पैसा नहीं अपने वोट बैंक को सहेजना पड़ रहा है। जो मायावती के पीछे खड़े धंधेवालों के लिये सटीक है। क्योंकि मायावती अब अपने बीस फीसदी वोटबेंक को छितराने नहीं देना चाहती। इसी का परिणाम है कि चाहे चुनाव में जीत सकने वाले अवधपाल हो या नरेश अग्रवाल सरीखे उम्मीदवार, इन जैसे दो दर्जन उम्मीदवारो का टिकट इसलिये काटा क्योंकि दलित वोटबैंक में इन्हे
लेकर आक्रोश है। असल में मायावती के पीछे खड़े धंधेबाज इस हकीकत को भी समझते है कि मायवती का मतलब सिर्फ लखनउ का 5, कालिदास मार्ग ही भ्रष्ट होना है। लेकिन मुलायम का मतलब हर जिले और विधानसभा सीट पर 5, कालीदास मार्ग का बन जाना है।
दरअसल पहली बार समाजवादी पार्टी के जरीये अगर सत्ता में आने के बाद के करोडो के खेल के वारे न्यारे की तस्वीर धंधेबाजों के सामने रखी जा रही है तो पहली बार मायावती का कैडर बेहद महीन तरीके से गांव से लकर लखनउ तक मुलायम के दौर में वसूली के उन तरीकों को बता रहा है जिसके घेरे में सत्ताधारी जाति को छोड हर कोई फंसा। यानी 2007 के चुनाव में जिन वजहो से मुलायम को हार मिली उसे ही अब मायावती दोबारा हथियार बना रही है । और यह धार इसलिये पैनी है क्योकि मायावती ने हर जाति को लेकर जिस तरह भाई-चारा समिति गांव, कस्बा, ब्लाक,जिला, मंडल और राज्य स्तर पर बनाया है उसमें अध्यक्ष को यही काम सौपा गया है कि वह वोटरों को मुलायम के दौर की याद दिलाये। और धंधेवालों को निर्देश दिया गया है कि पैसे बंटने है तो ब्लाक से मंडल स्तर के संगठन को पैसा दें। इसका असर यह हुआ है कि ब्राह्मणों को अपनी जमीन छिनने का दौर याद आ रह हैं। बनिये पैसा वसूली को याद कर रहे हैं। मल्लाहों को अपनी भैंस छुड़ाने के एवज में पैसा देने का दौर याद आ रहा है। गांवों में चारदीवारी पर बैठ कर खुले आसमान का मजा लेते शहरी ग्रामीणों को थाने और मवालियों के डर का एहसास होने लगा है। लेकिन दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी का संगठन तीन स्तर पर सक्रिय है। पहले स्तर पर बाप के खडाउ को पहनते दिखते अखिलेश यादव के साथ खड़ा युवको का जोश। जिनके पीछे सुविधाओ की पोटली हर उस धंधेबाज ने खोली है जिन्हें मायावती ने जगह नहीं दी। दूसरे स्तर पर मुलायम के साथ उन्हीं यादवो का जोश जिसने 2007 तक सत्ता को अपनी अंगुलियो को नचाया। और तीसरे स्तर पर मोहन सिंह सरीके पुराने समाजवादी, जो जगह-जगह खड़े होकर पुरानी गलतियों के लिये माफी मांगते फिर रहे है और उनके साथ नेताजी और अखिलेश के बीच बनी नयी कड़ी से उलझे समाजवादी या फिर सत्ता में समाजवादी पार्टी को लाने का सपना संजोये समाजवादी। तीसरे स्तर पर धंधेबाजो की निगाहे नहीं है। इसलिये पुराने समाजवादियों के सामने मायावती को शह देने के हथियार तो है लेकिन उन हथियारों को समाजवादी पार्टी में कोई उठाने को तैयार नहीं है क्योकि धंधेबाजों ने अभी से यह एहसास करवाना शुरु कर दिया है नेताजी का दौर लौट रहा है।
लेकिन इस रोचक संघर्ष से इतर सचमुच की लोकतांत्रिक पहल में आम वोटर कैसे किस रुप में बेबस है, यह जिले दर जिले और विधानसभा सीट दर सीट उभर रहा है। गांवों में बड़े-बुजुर्ग को लगने लगा है कि मुस्लिमों की तर्ज पर ब्लाक या एकमुश्त वोटिंग के जरीये ही अब कोई सौदेबाजी नेताओं या पार्टियों से हो सकती है। युवाओं में टीस है कि जिला मुख्यलयो में दो महीने पहले तक वह जिस सियासत को अन्ना हजारे के आंदोलन के मंच से चिढा रहे थे । झटके में उन्हें उसी सियासी बिसात पर लोकतंत्र को जीना है। महिलाओं के सामने नेताओ की भ्रष्टाचार और महंगाई के सवाल का उठ पाने का दर्द है। लेकिन इस बेबसी के बीच भी पहली बार वोटरों का आक्रोश कई सवाल खडा कर रह है, जो आम लोगों के सवाल से जा जुड़ा है। हाथियों को चादर पहनाने के निर्देश ने पहली बार चुनाव आयोग को भी वोटरों की जुबान पर एक पार्टी बना दिया है।
लखनउ के युवाओ में आक्रोश है कि जब नेता या राजनीतिक दल कोई चुनावी लाभ देने की घोषणा करता है और अगर वह चुनाव जीतने के बाद पूरा नहीं करते तो उस पार्टी या उम्मीदवार के खिलाफ चारसौबीसी के तहत कार्रवाई क्यों नहीं की जाती। बुजुर्गो में आक्रोश है कि चुनाव आयोग ने जब समूची चुनाव प्रक्रिया को ही पैसे और तकनीक टिका दिया तो फिर वोटिंग भी सौ फीसदी कराने के लिये घऱ घर जाकर पोलिंग अधिकारी वोटिंग क्यो नहीं कराते। इसमें चाहे एक बरस लग जाये लेकिन तब पता तो चलेगा कि फेयर-एंड फ्री इलेक्शन हुआ है। तीसरे-चौथे वर्ग की नौकरीपेशी महिलाओं में आक्रोश है कि जिस चुनाव में बाहुबलियों और भ्रष्ट नेताओं का बोल बाला है वहां चुनाव आयोग के लिये सफल चुनाव का मतलब सिर्फ चुनाव कराना भर ही क्यों है। फिर ऐसे नुमाइन्दों के चुनाव के लिये अगर उन्हें पोलिंग अधिकारी नहीं बनना है तो उसके एवज में भी भ्रष्टाचार के साथ खड़ा होना पड़ रहा है। लखनउ और इलाहबाद में तो एक हजार रुपये तय तक दिया गया है कि जो पोलिंग अधिकारी नहीं बनना चाहती है वह एक हजार रुपये दे दें। क्योंकि इसके एवज में घूस लेने वाले अधिकारी कागज पर दिखा देंगे कि इन महिलाओं का तीन साल से छोटा बच्चा है, इसलिये उन्हें पोलिंग अधिकारी ना बनाया जाये। यानी चुनाव में भ्रष्टाचार दूर करने के मुद्दे पर चुनाव कराने पर भी जब भ्रष्टाचार पूरे उफान पर है तो फिर लखनऊ के नवाब तो क्या समूचे यूपी में कौन यह कहकर मुस्कुराये कि चुनाव का मतलब लोकतंत्र है।
Friday, January 13, 2012
मुस्लिमों की धड़कन तय करने वाले देवबंद का दर्द
जिस मुस्लिम आरक्षण को लेकर लखनऊ से लेकर दिल्ली तक में सियासत गर्म है। और आरक्षण पर मुस्लिम समुदाय से तमगा लगवाने की जिस होड़ में मायावती, मुलायम सिंह यादव और सलमान खुर्शीद सियासी तर्क गढ़ रहे हैं। साथ ही तर्कों के आसरे जिस तरह मुस्लिम वोट बैंक को को अपने साथ करने की जद्दोजेहद में हर राजनीतिक दल देवबंद में दस्तक दे रहा है। संयोग से वही देवबंद महज एक मुस्लिम उम्मीदवार का रोना रो रहा है। मायावती से लेकर राहुल गांधी और मुलायम से लेकर अजीत सिंह की सियासत की बिसात पर चाहे मुस्लिम समाज प्यादे से वजीर बन गया, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल को यह मंजूर नहीं कि देवबंद में कोई मुस्लिम उनकी उम्मीदवारी करे। उलेमा भी अपनी परपंरा और इतिहास तले यह कहना नहीं चाहते कि देवबंद में तो कोई किसी मुसलमान को 'टिकट दे दे। क्योंकि दारुल उलूम की पहचान ही यह रही है जब देश विभाजन को लेकर जिन्ना अड़े थे तब भी दारुल-उलूम ने विरोध किया।
और कांग्रेस की मांग से से तीन बरस पहले 1926 में कोलकत्ता में जमायत उलेमा हिंद के अधिवेशन समूचे भारत की आजादी की मांग ब्रिटिश सत्ता से मांगी। धर्म के आधार पर विभाजन का विरोध कर जम्हुरियत की खुली वकालत की। इस आईने में अब जब देवबंद में यह सवाल खड़ा हो रहा है कि कोई राजनीतिक दल किसी मुस्लिम को अपना उम्मीदवार क्यों नहीं बना रहा तो दारुल उलुम के प्रोफेसर मौलाना सैयद्हमद खिजर शाह बडे बेबाकी से कहते है, अब राजनीतिक दलो के हर दाने को को चुगने में ही मुस्लिम की जब उम्र बीत रही हो तो फिर दाना ही सियासत है और दाना ही जम्हुरियत है। प्रो खिजर शाह के मुताबिक देवबंद का मुसलमान उलेमाओ को ना देखे बल्कि खुद तय करें कि उनका रास्ता जाता किधर है। क्योंकि सियासतदान तो राजनीति करेंगे और उसमें मुस्लिम वजीर नहीं प्यादा ही रहेगा।
हालांकि मुस्लिमों के बीच मुस्लिमों को लेकर एक अदद मुस्लिम उम्मीदवार का दर्द पहली बार देवबंद में इसलिये उभर रहा है क्योंकि राशिद कुरैशी ने अपने उम्मीदवारो को टिकट ना दिये जाने पर मायावती का साथ छोड़ जिस तरह कांग्रेस का दामन थामा और कांग्रेस ने भी उन्हें झटके में सीडब्ल्युसी का सदस्य बना दिया उससे भी देवबंद में आस जगी कि शायद राशिद कुरैशी ही किसी मुस्लिम की वकालत देवबंद के लिए करें। लेकिन टिकट के खेल की सौदेबाजी में कांग्रेस का दामन थामने वाले कुरैशी ने मुस्लिम उम्मीदवारों से ऐसा पल्ला झाड़ा कि सहारनपुर की रैली में राहुल गांधी के साथ मंच पर से यह कह दिया कि मुस्लिमों का नाम लेकर जो मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में खड़ा हो, उसे ना जिताया जाये। यूं पिछले चुनाव में भी कुरैशी किसी मुस्लिम उम्मीदवार के पक्ष में नहीं थे। लेकिन तब मायावती के साथ थे तो मुस्लिम-दलित गठजोड में सहारनपुर की सात सीटों में से पांच सीट बीएसपी ने जीतीं। लेकिन कोई मुस्लिम इसमें नहीं था। देवबंद में भी नही था। मनोज चौधरी 2007 में भी बीएसपी टिकट पर जीते और 2012 में भी मायावती ने देवबंद से मनोज चौधरी को ही टिकट दिया है। मुलायम सिंह यादव ने भी देवबंद से किसी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाया है। और कांग्रेस अभी कुरैशी के पत्तों में उलझी हुई है। इसलिये उम्मीदवारों के नाम का ऐलान नहीं हुआ है।
लेकिन देवबंद में पहली बार एक अदद मुस्लिम उम्मीदवार का सवाल इसलिये भी गहरा रहा है क्योंकि परिसीमन के बाद देवबंद में कुल दो लाख 94 हजार वोटरों में से एक लाख दस हजार मुस्लिम वोटर हो गया है। यानी चालीस फीसदी से ज्यादा। जबकि दलित की तादाद करीब साठ हजार और राजपूतों की तादाद 65 हजार से घटकर 40 हजार पर आ गयी है। परिसीमन से पहले देवबंद में साठ हजार मुस्लिम थे। ऐसे में उलेमाओं के बीच भी अब यह सवाल चल पडा है कि जिस प्रदेश ही नहीं देश की सियासत में अल्पसंख्यकों की धड़कन महसूस करने के लिये हर राजनीतिक दल देवबंद की तरफ देखता है तो फिर देवबंद खुद की धड़कन में मुस्लिमों को कहां पाता है। इसलिये देवबंद में सवाल यह भी है कि क्या दवबंद का मुस्लिम किसी एक मुस्लिम उम्मीदवार के पीछे एकजुट होकर चल नहीं सकता। क्या अपनी अल्पसंख्यक पहचान बनाये रखने में ही मुस्लिमों का भला है। या फिर चुनावी बिसात पर एकमुश्त वोटों के जरिये अपनी धाक को महसूस कराकर खुद को सौदेबाजी के दायरे में खड़ा करना ही मुस्लिमों की ताकत है।
और उसी का परिणाम है कि हर कोई आरक्षण को मुस्लिम समाज से जोड़कर मुख्यधारा में लाने की बात कह रहा है। और मुख्यधारा से इतर अल्पसंख्यक बने रहने के लिये मुस्लिम समाज भी आरक्षण के सौदे को हाथों-हाथ ले रहा है। यह सारे सवाल कहीं-ना-कहीं किसी-ना-किसी रूप में देवबंद के उन सोलह गांव में उठ रहे हैं जहां मुस्लिम आबादी पचास फीसदी से ज्यादा है। और मुस्लिम वोटरों के इन सवालों के बीच दारुल-उलूम का अपना सवाल यही है कि जिस देवबंद को पहचान इस्लाम की शिक्षा के जरिये मिली। और आजादी की लड़ाई को शिक्षित होकर कैसे लड़ा जाये जब देवबंद आजादी से पहले इसी दिशा में लगा रहा तो फिर अब उससे इतर सियासी बिसात पर खुद को देवबंद क्यों खड़ा करें। यह अलग सवाल है आजादी के बाद से अबतक सिर्फ 1977 में पहली और आखिरी बार कोई मुसलमान देवबंद से जीता। तब जनता पार्टी के मौलाना उस्मान इमरजेन्सी के विरोध की हवा में जीते थे। और संयोग से इस बार कांग्रेस से ही देवबंद आस लगाये बैठा है कि कोई मुस्लिम मैदान में जरुर उतारा जायेगा।
और कांग्रेस की मांग से से तीन बरस पहले 1926 में कोलकत्ता में जमायत उलेमा हिंद के अधिवेशन समूचे भारत की आजादी की मांग ब्रिटिश सत्ता से मांगी। धर्म के आधार पर विभाजन का विरोध कर जम्हुरियत की खुली वकालत की। इस आईने में अब जब देवबंद में यह सवाल खड़ा हो रहा है कि कोई राजनीतिक दल किसी मुस्लिम को अपना उम्मीदवार क्यों नहीं बना रहा तो दारुल उलुम के प्रोफेसर मौलाना सैयद्हमद खिजर शाह बडे बेबाकी से कहते है, अब राजनीतिक दलो के हर दाने को को चुगने में ही मुस्लिम की जब उम्र बीत रही हो तो फिर दाना ही सियासत है और दाना ही जम्हुरियत है। प्रो खिजर शाह के मुताबिक देवबंद का मुसलमान उलेमाओ को ना देखे बल्कि खुद तय करें कि उनका रास्ता जाता किधर है। क्योंकि सियासतदान तो राजनीति करेंगे और उसमें मुस्लिम वजीर नहीं प्यादा ही रहेगा।
हालांकि मुस्लिमों के बीच मुस्लिमों को लेकर एक अदद मुस्लिम उम्मीदवार का दर्द पहली बार देवबंद में इसलिये उभर रहा है क्योंकि राशिद कुरैशी ने अपने उम्मीदवारो को टिकट ना दिये जाने पर मायावती का साथ छोड़ जिस तरह कांग्रेस का दामन थामा और कांग्रेस ने भी उन्हें झटके में सीडब्ल्युसी का सदस्य बना दिया उससे भी देवबंद में आस जगी कि शायद राशिद कुरैशी ही किसी मुस्लिम की वकालत देवबंद के लिए करें। लेकिन टिकट के खेल की सौदेबाजी में कांग्रेस का दामन थामने वाले कुरैशी ने मुस्लिम उम्मीदवारों से ऐसा पल्ला झाड़ा कि सहारनपुर की रैली में राहुल गांधी के साथ मंच पर से यह कह दिया कि मुस्लिमों का नाम लेकर जो मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में खड़ा हो, उसे ना जिताया जाये। यूं पिछले चुनाव में भी कुरैशी किसी मुस्लिम उम्मीदवार के पक्ष में नहीं थे। लेकिन तब मायावती के साथ थे तो मुस्लिम-दलित गठजोड में सहारनपुर की सात सीटों में से पांच सीट बीएसपी ने जीतीं। लेकिन कोई मुस्लिम इसमें नहीं था। देवबंद में भी नही था। मनोज चौधरी 2007 में भी बीएसपी टिकट पर जीते और 2012 में भी मायावती ने देवबंद से मनोज चौधरी को ही टिकट दिया है। मुलायम सिंह यादव ने भी देवबंद से किसी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाया है। और कांग्रेस अभी कुरैशी के पत्तों में उलझी हुई है। इसलिये उम्मीदवारों के नाम का ऐलान नहीं हुआ है।
लेकिन देवबंद में पहली बार एक अदद मुस्लिम उम्मीदवार का सवाल इसलिये भी गहरा रहा है क्योंकि परिसीमन के बाद देवबंद में कुल दो लाख 94 हजार वोटरों में से एक लाख दस हजार मुस्लिम वोटर हो गया है। यानी चालीस फीसदी से ज्यादा। जबकि दलित की तादाद करीब साठ हजार और राजपूतों की तादाद 65 हजार से घटकर 40 हजार पर आ गयी है। परिसीमन से पहले देवबंद में साठ हजार मुस्लिम थे। ऐसे में उलेमाओं के बीच भी अब यह सवाल चल पडा है कि जिस प्रदेश ही नहीं देश की सियासत में अल्पसंख्यकों की धड़कन महसूस करने के लिये हर राजनीतिक दल देवबंद की तरफ देखता है तो फिर देवबंद खुद की धड़कन में मुस्लिमों को कहां पाता है। इसलिये देवबंद में सवाल यह भी है कि क्या दवबंद का मुस्लिम किसी एक मुस्लिम उम्मीदवार के पीछे एकजुट होकर चल नहीं सकता। क्या अपनी अल्पसंख्यक पहचान बनाये रखने में ही मुस्लिमों का भला है। या फिर चुनावी बिसात पर एकमुश्त वोटों के जरिये अपनी धाक को महसूस कराकर खुद को सौदेबाजी के दायरे में खड़ा करना ही मुस्लिमों की ताकत है।
और उसी का परिणाम है कि हर कोई आरक्षण को मुस्लिम समाज से जोड़कर मुख्यधारा में लाने की बात कह रहा है। और मुख्यधारा से इतर अल्पसंख्यक बने रहने के लिये मुस्लिम समाज भी आरक्षण के सौदे को हाथों-हाथ ले रहा है। यह सारे सवाल कहीं-ना-कहीं किसी-ना-किसी रूप में देवबंद के उन सोलह गांव में उठ रहे हैं जहां मुस्लिम आबादी पचास फीसदी से ज्यादा है। और मुस्लिम वोटरों के इन सवालों के बीच दारुल-उलूम का अपना सवाल यही है कि जिस देवबंद को पहचान इस्लाम की शिक्षा के जरिये मिली। और आजादी की लड़ाई को शिक्षित होकर कैसे लड़ा जाये जब देवबंद आजादी से पहले इसी दिशा में लगा रहा तो फिर अब उससे इतर सियासी बिसात पर खुद को देवबंद क्यों खड़ा करें। यह अलग सवाल है आजादी के बाद से अबतक सिर्फ 1977 में पहली और आखिरी बार कोई मुसलमान देवबंद से जीता। तब जनता पार्टी के मौलाना उस्मान इमरजेन्सी के विरोध की हवा में जीते थे। और संयोग से इस बार कांग्रेस से ही देवबंद आस लगाये बैठा है कि कोई मुस्लिम मैदान में जरुर उतारा जायेगा।
Thursday, January 5, 2012
साड्डा हक कित्थे रख?
"जन्नत" से संसद का नजारा
जब देश सड़क पर आंदोलन और संसद के भीतर बहस से गर्म था तब बर्फ से पटे पड़े कश्मीर में आग भीतर ही भीतर कहीं ज्यादा सुलग रही थी। क्रिसमस से लेकर नये वर्ष यानी साल के आखिरी हफ्ते में इस बार कश्मीर की वादियां पहली बार खुले आसमान तले खुल कर सांस ले रही थी। आसमान इतना खुला था कि दिन में सुर्ख धूप और रात में बर्फ की तरह जमा देने वाली ठंड ने 2011 में पहली बार 21-22 दिसंबर को हुई बर्फबारी की बर्फ को गलने नहीं दिया और सोनमर्ग से लेकर गुलमर्ग तक वादियों में रंगीन मिजाज का सुर पर्यटको के जरिए लगातार परवान चढता गया। लेकिन जमीन की बर्फ को किसी पाउडर की तरह उछालने के लिये मचलते पर्यटकों के दिलों को अपने पेट से जोड़ने में लगे सोनमर्ग में स्लेज खींचने वाले मजदूर हों या घोड़े की सवारी कराने वाले घुड़साल या फिर गुलमर्ग ले जाने के लिये तंगमार्ग में टैक्सी वालों का रेला। हर दिल के भीतर पेट की आग के साथ दिल्ली से लेकर मुंबई तक यानी संसद से सड़क तक की बहस और आंदोलन लगातार चीर रही थी। उनके भीतर के सवाल लगातार हर उस पर्यटक को मौका मिलते ही कुरेदने से नहीं चूकते कि आखिर अन्ना के आंदोलन और संसद की बहस में कश्मीर क्यों नहीं है। इस बार सवाल आजादी का था। सवाल घाटी में फैलते भ्रष्टाचार का था। सत्ताधारियों के भ्रष्ट फैसले से कटते देवदार और चिनार के पेड़ों का था। सूनी घाटियों तक की जमीन तक की कीमतों को कंस्ट्रक्शन के जरिए आसमान तक पहुंचाकर धंधा करते राजनेताओं के जरिए भ्रष्टाचार में गोते लगाते हर संस्थान के उसमें डूबकी लगाने का था। बर्फ से घिरे गुलमर्ग में अगर सड़क पर खड़े पुलिस की भारी होती जेब पर गुस्सा था तो श्रीनगर में डल झील की सफाई के लिये दिल्ली से पहुंचे सात सौ करोड़ के डकारने का गुस्सा शिकारा चलाते उन मजदूरो में था, जिनकी फिरन से निकलते हाथ से पानी को काटती चप्पी के आसरे डल लेक में तैरते शिकारे में बैठ कर जन्नत का एहसास हर उस को करा रहे थे जो क्रिसमस से लेकर नये वर्ष में ही खुद को खोने के लिये वादियों में पहुंचे थे। फूलों को बटोर कर केसर बनाने वाले नन्हे हाथ हों या माथे पर टोकरी को बांध कर अखरोट जमा करने वाली कश्मीरी महिलाएं, सर्द मौसम में सबकुछ ठहरा जाता है तो इनके भीतर के सवाल इसी दौर में जाग जाते हैं। खास कर श्रीनगर का डाउनटाउन इलाका। जहांगीर होटल से जैसे ही कदम ईदगाह की तरफ मुड़ते हैं, सड़क के दोनों तरफ के घरों की खिड़कियो के टूटे शीशे कुछ सवाल किसी भी उस पर्यटक के जेहन में खड़ा करते हैं, जो ईदगाह, जामा मस्जिद या हजरतबल देखने निकलता है। और टूटे हुए शीशों के अक्स में कोई सवाल अगर किसी भी दुकान या मस्जिद के साये में बैठी महिलाओं या सड़क पर खेलते बच्चों से कोई पूछे तो हर जवाब की नजर दिल्ली पर उठती है और सवाल के जवाब सवाल के रुप में आते हैं। जिसमें हर जानकारी किसी की मौत से जुड जाती है। और फिरन में कांगडी की गर्मी आधी रात में हारते लोकतंत्र पर डल झील में बोट हाउस की रखवाली करता एहसान डार 29 को आधी रात में यह कहने से नहीं चुकता, "जैसे कश्मीर की फिजा और सियासत पर मेरा हक नहीं वैसे ही भारत पर संसद का हक नहीं"। डल झील में कतारो में खड़े हर बोट हाउस में चाहे देशी-विदेशी पर्यटक 29 की रात सो गये। लेकिन पहली बार हर बोट हाउस में किसी ना किसी बुजुर्ग की आंखें संसद में होती बहस के साये में कश्मीर को खोजती दिखीं। आधी रात तक बहस के बाद भी सुबह शिकारे में घुमाने ले जाते पर्यटकों के बीच डल लेक में ही कश्मीरी सामानों को बेचने वाले यह सवाल जरुर करते कि क्या वाकई संसद के हाथ में देश की डोर है। कही भ्रष्टाचार की डोर ने तो संसद को नहीं बांध रखा है। और तमाम सवालों के बीच आखिरी सवाल हर चेहरे पर यही उभरता कि कश्मीरी सियसतदानों ने भी कही सत्ता की खातिर कश्मीर को भी संसद के हवाले कर चैन से कश्मीर में भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस तो नहीं ले लिया। तो क्या कश्मीरियों के बस में जन्नत को ढोना है और क्रिसमस से लेकर नये वर्ष के लुत्फ को अपने पेट से जोड़कर पर्यटन रोजगार को जिन्दा रखना है। इसका जवाब आजादी का सवाल खड़ा करते चेहरों के पास भी नहीं है।
लेकिन जो सवाल संसद में उठे और जो जवाब अन्ना हजारे को चाहिए उनका वास्ता किसी आम हिंन्दुस्तानी से कितना है, यह पहली बार कश्मीरियों ने देखा और यह भी समझा कि कश्मीर में भी सियासतदान की तकरीर इससे अलग नही। श्रीनगर के लाल चौक इलाके में अपने छोटे से कमरे में फिरन और कागंडी में सिमटे जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक हों या राजबाग इलाके के अपने घर में कलम थामे कश्मीर के सच को पन्नों पर उकेरते अब्दुल गनी बट। हर किसी ने संसद की बहस और अन्ना के आंदोलन को घाटी की उस हकीकत को पिरोने की कोशिश की, जिसमें सड़क पर तिरंगे की जगह पत्थर उठाने का मतलब मौत होता है और संविधान की दुहाई देती सत्ता के लिये संसद का मतलब अपनी जरुरतों का ढाल बनाना और उससे इतर सवाल पर राष्ट्रभावना को उभारना। 29 की रात संसद की बहस देखने के बाद 30 दिसंबर की सुबह गुस्से भरे सवाल अगर यासिन मलिक के थे तो हुर्रियत कान्फ्रेन्स के अब्दुल गनी बट को अपनी किताब के लिये संसद की बहस ने ऊर्जा दे दी थी। बीते एक महीने से "बियांड मी " यानी जो मेरे बस में नही नाम से किताब लिखने में मशगूल अब्दुल गनी बट को भरोसा है कि इस ठंड में वह अपनी किताब पन्नों पर उकेर लेंगे। उनके किताबी सफर की शुरुआत 1963 से है। जब उन्हें प्रोफेसर की नौकरी मिली। लेकिन 1988-89 में जब पहली बार चुनाव में चोरी खुले तौर पर कश्मीरियों ने देखी और सैयद सलाउद्दीन {अब हिजबुल मुजाहिद्दीन के चीफ } को पाकिस्तान का रास्ता पकड़ना पडा और कश्मीर की सत्ता की डोर नेशनल
कॉन्फ्रेंस ने दिल्ली के जरीये पकड़ी। तब जो सवाल कश्मीर में उठे वही सवाल आने वाले दौर में अन्ना हजारे के जरिए हिन्दुस्तान की जनता के सामने भी उठेंगे। क्योंकि चार दशक पहले शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को लेकर सही सवाल गलत वक्त में उठाया था और उसका हश्र शेख अब्दुल्ला ने ही भोगा। चाहे उसका लाभ आज उनकी पीढ़ियां उठा रही हैं। कमोवेश अन्ना ने भी सही सवाल गलत वक्तं में उठाया है क्योंकि अभी सत्ता की रप्तार जनता के हक के लिये नहीं बाज़ार और पैसा बनाने की है। और कश्मीर के सवालों को समाधन के रास्ते लाते वक्त मैंने { अब्दुल्ल गनी बट } भी यह महसूस किया कि जो मेरे बस में नहीं था, वह जिसके बस में था उसकी प्रथमिकतायएं कश्मीर को कश्मीर बनाये रखने की थी। बियांड मी कुछ वैसा ही दस्तावेज होगा और शायद आने वाले वक्त में सियासत को भी लगे और हिन्दुस्तानियों को भी क्या संसद के बस में वह सब है जो अन्ना मांग रहे हैं।
इसीलिये हक का सवाल भी कहीं कानून तो कही लोकतंत्र और कहीं संविधान की दुहाई में गुम हो रहा है। ब़ट ने कश्मीर के आइने में संसद की बहस को अक्स दिखाया और यह सवाल जब उस हाशिम कुरैशी के सामने रखा, जिन्होंने 1971 में जहाज का अपहरण कर लाहौर में उतारा था तो शालीमार-निशात बाग की छांव तले बने अपने आलीशान घर में चिनार से लेकर अंगूर और अखरोट से लेकर लहसन तक के पौधों को दिखाते हुये कहा कि कश्मीर में सिसमेटे किसी भी कश्मीरी के लिये मौत का सवाल अब सवाल क्यों नहीं है, यह समूचे डाउन-टाउन के इलाके में घरों और दुकानों के बीच कब्रिस्तान को देखकर होता है। दर्जनों नहीं सैकड़ों की तादाद में कब्रिस्तान। और हर मोहल्ले में कब्रिस्तान। लेकिन पर्यटको की आंखें सवाल कब्रिस्तान को लेकर नहीं बल्कि कब्रिस्तान में भी निकले चिनार को देखकर करती हैं। चिनार की इसी छांव में कश्मीर वादी की दिली आग भी हर किसी पर्यटक को लूभाने लगती है। लेकिन पहली बार संसद में आधी रात तक की बहस कश्मीरियों में बहस जगाती है कि उनके सवाल क्यों मायने नहीं रखते। जिस तरह सर्दी के मौसम में बर्फ से पटे पड़े पहाड़ों पर चिनार अपनी सूखी टहनियों के जरिए किसी विद्रोही सा खड़ा नज़र आता है, कमोवेश इसी तरह ठंड के तीन महीनो में हर कश्मीरी चाय-रोटी, कहवा-सिगरेट या फेरन-कागंडी में सिमट कर रहते हुये उन नौ महीनों के दर्द को बेहद महिन तरीके से प्रसव की तरह सहता है। शायद इसीलिये मुंबई में खाली पड़े मैदान में अन्ना के आंदोलन को लेकर बेकरी की दुकान चलाने वाला इम्तियाज यह कहने से नहीं चुकता कि जो अन्ना कश्मीर पर दिये अपने टीम के एक सदस्य के साथ खड़े नहीं होते तो वह आंदोलन को कैसे आगे ले जाएंगे।और संसद के भीतर नेमा हाल नहीं है। लेकिन फिल्म राक स्टार बनाने वाले इम्तियाज अली को सड्डा हक के बोल कश्मीर से ही मिले। मौका मिले तो उनसे पूछ लीजिएगा "साड्डा हक कित्थे रख", क्योंकि उन्होंने कश्मीर में भी खासा वक्त गुजारा है।
जब देश सड़क पर आंदोलन और संसद के भीतर बहस से गर्म था तब बर्फ से पटे पड़े कश्मीर में आग भीतर ही भीतर कहीं ज्यादा सुलग रही थी। क्रिसमस से लेकर नये वर्ष यानी साल के आखिरी हफ्ते में इस बार कश्मीर की वादियां पहली बार खुले आसमान तले खुल कर सांस ले रही थी। आसमान इतना खुला था कि दिन में सुर्ख धूप और रात में बर्फ की तरह जमा देने वाली ठंड ने 2011 में पहली बार 21-22 दिसंबर को हुई बर्फबारी की बर्फ को गलने नहीं दिया और सोनमर्ग से लेकर गुलमर्ग तक वादियों में रंगीन मिजाज का सुर पर्यटको के जरिए लगातार परवान चढता गया। लेकिन जमीन की बर्फ को किसी पाउडर की तरह उछालने के लिये मचलते पर्यटकों के दिलों को अपने पेट से जोड़ने में लगे सोनमर्ग में स्लेज खींचने वाले मजदूर हों या घोड़े की सवारी कराने वाले घुड़साल या फिर गुलमर्ग ले जाने के लिये तंगमार्ग में टैक्सी वालों का रेला। हर दिल के भीतर पेट की आग के साथ दिल्ली से लेकर मुंबई तक यानी संसद से सड़क तक की बहस और आंदोलन लगातार चीर रही थी। उनके भीतर के सवाल लगातार हर उस पर्यटक को मौका मिलते ही कुरेदने से नहीं चूकते कि आखिर अन्ना के आंदोलन और संसद की बहस में कश्मीर क्यों नहीं है। इस बार सवाल आजादी का था। सवाल घाटी में फैलते भ्रष्टाचार का था। सत्ताधारियों के भ्रष्ट फैसले से कटते देवदार और चिनार के पेड़ों का था। सूनी घाटियों तक की जमीन तक की कीमतों को कंस्ट्रक्शन के जरिए आसमान तक पहुंचाकर धंधा करते राजनेताओं के जरिए भ्रष्टाचार में गोते लगाते हर संस्थान के उसमें डूबकी लगाने का था। बर्फ से घिरे गुलमर्ग में अगर सड़क पर खड़े पुलिस की भारी होती जेब पर गुस्सा था तो श्रीनगर में डल झील की सफाई के लिये दिल्ली से पहुंचे सात सौ करोड़ के डकारने का गुस्सा शिकारा चलाते उन मजदूरो में था, जिनकी फिरन से निकलते हाथ से पानी को काटती चप्पी के आसरे डल लेक में तैरते शिकारे में बैठ कर जन्नत का एहसास हर उस को करा रहे थे जो क्रिसमस से लेकर नये वर्ष में ही खुद को खोने के लिये वादियों में पहुंचे थे। फूलों को बटोर कर केसर बनाने वाले नन्हे हाथ हों या माथे पर टोकरी को बांध कर अखरोट जमा करने वाली कश्मीरी महिलाएं, सर्द मौसम में सबकुछ ठहरा जाता है तो इनके भीतर के सवाल इसी दौर में जाग जाते हैं। खास कर श्रीनगर का डाउनटाउन इलाका। जहांगीर होटल से जैसे ही कदम ईदगाह की तरफ मुड़ते हैं, सड़क के दोनों तरफ के घरों की खिड़कियो के टूटे शीशे कुछ सवाल किसी भी उस पर्यटक के जेहन में खड़ा करते हैं, जो ईदगाह, जामा मस्जिद या हजरतबल देखने निकलता है। और टूटे हुए शीशों के अक्स में कोई सवाल अगर किसी भी दुकान या मस्जिद के साये में बैठी महिलाओं या सड़क पर खेलते बच्चों से कोई पूछे तो हर जवाब की नजर दिल्ली पर उठती है और सवाल के जवाब सवाल के रुप में आते हैं। जिसमें हर जानकारी किसी की मौत से जुड जाती है। और फिरन में कांगडी की गर्मी आधी रात में हारते लोकतंत्र पर डल झील में बोट हाउस की रखवाली करता एहसान डार 29 को आधी रात में यह कहने से नहीं चुकता, "जैसे कश्मीर की फिजा और सियासत पर मेरा हक नहीं वैसे ही भारत पर संसद का हक नहीं"। डल झील में कतारो में खड़े हर बोट हाउस में चाहे देशी-विदेशी पर्यटक 29 की रात सो गये। लेकिन पहली बार हर बोट हाउस में किसी ना किसी बुजुर्ग की आंखें संसद में होती बहस के साये में कश्मीर को खोजती दिखीं। आधी रात तक बहस के बाद भी सुबह शिकारे में घुमाने ले जाते पर्यटकों के बीच डल लेक में ही कश्मीरी सामानों को बेचने वाले यह सवाल जरुर करते कि क्या वाकई संसद के हाथ में देश की डोर है। कही भ्रष्टाचार की डोर ने तो संसद को नहीं बांध रखा है। और तमाम सवालों के बीच आखिरी सवाल हर चेहरे पर यही उभरता कि कश्मीरी सियसतदानों ने भी कही सत्ता की खातिर कश्मीर को भी संसद के हवाले कर चैन से कश्मीर में भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस तो नहीं ले लिया। तो क्या कश्मीरियों के बस में जन्नत को ढोना है और क्रिसमस से लेकर नये वर्ष के लुत्फ को अपने पेट से जोड़कर पर्यटन रोजगार को जिन्दा रखना है। इसका जवाब आजादी का सवाल खड़ा करते चेहरों के पास भी नहीं है।
लेकिन जो सवाल संसद में उठे और जो जवाब अन्ना हजारे को चाहिए उनका वास्ता किसी आम हिंन्दुस्तानी से कितना है, यह पहली बार कश्मीरियों ने देखा और यह भी समझा कि कश्मीर में भी सियासतदान की तकरीर इससे अलग नही। श्रीनगर के लाल चौक इलाके में अपने छोटे से कमरे में फिरन और कागंडी में सिमटे जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक हों या राजबाग इलाके के अपने घर में कलम थामे कश्मीर के सच को पन्नों पर उकेरते अब्दुल गनी बट। हर किसी ने संसद की बहस और अन्ना के आंदोलन को घाटी की उस हकीकत को पिरोने की कोशिश की, जिसमें सड़क पर तिरंगे की जगह पत्थर उठाने का मतलब मौत होता है और संविधान की दुहाई देती सत्ता के लिये संसद का मतलब अपनी जरुरतों का ढाल बनाना और उससे इतर सवाल पर राष्ट्रभावना को उभारना। 29 की रात संसद की बहस देखने के बाद 30 दिसंबर की सुबह गुस्से भरे सवाल अगर यासिन मलिक के थे तो हुर्रियत कान्फ्रेन्स के अब्दुल गनी बट को अपनी किताब के लिये संसद की बहस ने ऊर्जा दे दी थी। बीते एक महीने से "बियांड मी " यानी जो मेरे बस में नही नाम से किताब लिखने में मशगूल अब्दुल गनी बट को भरोसा है कि इस ठंड में वह अपनी किताब पन्नों पर उकेर लेंगे। उनके किताबी सफर की शुरुआत 1963 से है। जब उन्हें प्रोफेसर की नौकरी मिली। लेकिन 1988-89 में जब पहली बार चुनाव में चोरी खुले तौर पर कश्मीरियों ने देखी और सैयद सलाउद्दीन {अब हिजबुल मुजाहिद्दीन के चीफ } को पाकिस्तान का रास्ता पकड़ना पडा और कश्मीर की सत्ता की डोर नेशनल
कॉन्फ्रेंस ने दिल्ली के जरीये पकड़ी। तब जो सवाल कश्मीर में उठे वही सवाल आने वाले दौर में अन्ना हजारे के जरिए हिन्दुस्तान की जनता के सामने भी उठेंगे। क्योंकि चार दशक पहले शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को लेकर सही सवाल गलत वक्त में उठाया था और उसका हश्र शेख अब्दुल्ला ने ही भोगा। चाहे उसका लाभ आज उनकी पीढ़ियां उठा रही हैं। कमोवेश अन्ना ने भी सही सवाल गलत वक्तं में उठाया है क्योंकि अभी सत्ता की रप्तार जनता के हक के लिये नहीं बाज़ार और पैसा बनाने की है। और कश्मीर के सवालों को समाधन के रास्ते लाते वक्त मैंने { अब्दुल्ल गनी बट } भी यह महसूस किया कि जो मेरे बस में नहीं था, वह जिसके बस में था उसकी प्रथमिकतायएं कश्मीर को कश्मीर बनाये रखने की थी। बियांड मी कुछ वैसा ही दस्तावेज होगा और शायद आने वाले वक्त में सियासत को भी लगे और हिन्दुस्तानियों को भी क्या संसद के बस में वह सब है जो अन्ना मांग रहे हैं।
इसीलिये हक का सवाल भी कहीं कानून तो कही लोकतंत्र और कहीं संविधान की दुहाई में गुम हो रहा है। ब़ट ने कश्मीर के आइने में संसद की बहस को अक्स दिखाया और यह सवाल जब उस हाशिम कुरैशी के सामने रखा, जिन्होंने 1971 में जहाज का अपहरण कर लाहौर में उतारा था तो शालीमार-निशात बाग की छांव तले बने अपने आलीशान घर में चिनार से लेकर अंगूर और अखरोट से लेकर लहसन तक के पौधों को दिखाते हुये कहा कि कश्मीर में सिसमेटे किसी भी कश्मीरी के लिये मौत का सवाल अब सवाल क्यों नहीं है, यह समूचे डाउन-टाउन के इलाके में घरों और दुकानों के बीच कब्रिस्तान को देखकर होता है। दर्जनों नहीं सैकड़ों की तादाद में कब्रिस्तान। और हर मोहल्ले में कब्रिस्तान। लेकिन पर्यटको की आंखें सवाल कब्रिस्तान को लेकर नहीं बल्कि कब्रिस्तान में भी निकले चिनार को देखकर करती हैं। चिनार की इसी छांव में कश्मीर वादी की दिली आग भी हर किसी पर्यटक को लूभाने लगती है। लेकिन पहली बार संसद में आधी रात तक की बहस कश्मीरियों में बहस जगाती है कि उनके सवाल क्यों मायने नहीं रखते। जिस तरह सर्दी के मौसम में बर्फ से पटे पड़े पहाड़ों पर चिनार अपनी सूखी टहनियों के जरिए किसी विद्रोही सा खड़ा नज़र आता है, कमोवेश इसी तरह ठंड के तीन महीनो में हर कश्मीरी चाय-रोटी, कहवा-सिगरेट या फेरन-कागंडी में सिमट कर रहते हुये उन नौ महीनों के दर्द को बेहद महिन तरीके से प्रसव की तरह सहता है। शायद इसीलिये मुंबई में खाली पड़े मैदान में अन्ना के आंदोलन को लेकर बेकरी की दुकान चलाने वाला इम्तियाज यह कहने से नहीं चुकता कि जो अन्ना कश्मीर पर दिये अपने टीम के एक सदस्य के साथ खड़े नहीं होते तो वह आंदोलन को कैसे आगे ले जाएंगे।और संसद के भीतर नेमा हाल नहीं है। लेकिन फिल्म राक स्टार बनाने वाले इम्तियाज अली को सड्डा हक के बोल कश्मीर से ही मिले। मौका मिले तो उनसे पूछ लीजिएगा "साड्डा हक कित्थे रख", क्योंकि उन्होंने कश्मीर में भी खासा वक्त गुजारा है।