Tuesday, July 31, 2012

सत्ता के विरोध से आगे


क्या वाकई देश एक ऐसे मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जहां से आगे का रास्ता संविधान को तार तार करेगा। क्योंकि संविधान में दर्ज जनता के मैनिफेस्टो को खारिज कर ही राजनीतिक दल लोकतंत्र का राग अलाप सत्ता तक पहुंच सकते हैं । और राजनीतिक दलो का अपना मैनिफेस्टो संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ जाता हुआ ऐसा कदम है जो धीरे धीरे राजनीतिक दलो के सत्ता तक पहुंचने के प्रयास को ही लोकतंत्र बना दे रहे हैं। जनता चाहे तो सरकार बदल दें। जनता को अगर किसी राजनीतिक दल में खोट दिखायी दें तो उसे सत्ता में ना आने दें। किसी सरकार या राजनीतिक दल के कामकाज अगर जनता के अनुकुल नहीं होते तो फिर उस सरकार की उम्र पांच बरस से ज्यादा हो ही नहीं सकते। यानी संविधान का मतलब अगर लोकतंत्र है और लोकतंत्र का मतलब अगर हर नागरिक के वोट का अधिकार है और वोट का मतलब अगर संसदीय राजनीति है। और संसदीय राजनीति का मतलब अगर संसद के जरीये बनाई जाने वाली नीतिया हैं। और नीतियों का मतलब अगर तत्काल में देश के पेट को भरना है। और पेट के भरने का मतलब पैसो वालो के जरीये विकास का ढांचा बनवाना है। और विकास के ढांचे का मतलब अगर मुनाफा बनाना है। और मुनाफे का मतलब अगर बहुराष्ट्रीय कारपोरेट को कमाने का लालच देकर निवेश कराना है। और विदेशी निवेश का मतलब अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपना कद बरकरार रखते हुये विकास दर और सेंसक्स से लेकर जीडीपी और उपभोक्ताओ के माल से भारत को लबालब भर देना है। तो फिर संविधान का मतलब क्या है।

मौजूदा परिस्थितियो में संविधान का मतलब शायद ऐसा लोकतंत्र है जो राजनीतिक सत्ताधारियो के सत्ता में बने रहने या सत्ता से उखडने में लगे विपक्षी राजनीतिक दलो के सत्ताधारी होने का खेल है । यह खेल संविधान का नाम लेकर संविधान की मूल भावना के खिलाफ खेले जाने वाला खेल है। संविधान चाहता है हिन्दी राष्ट्रीय और देश की भाषा बने । लेकिन संसद के भीतर ही अंग्रेजी की महत्ता ठसक के साथ स्थापित की जाती है। संविधान के मूल में है कि जाति बंधन खत्म हो। लेकिन सियासत की समूची राजनीति ही जाति को एतिहासिक महत्व देते हुये बरकरार रखने पर आमादा है। संविधान धर्म से इतर राष्ट्रीय भावना को जागृत करने की दिशा में महत्वकांक्षा पाले हुये है। लेकिन धर्म को राजनीति का आधार बनाकर उसके अनुकुल राष्ट्र बनाने की सियासत होती है। संविधान हाशिये पर पड़े तबको को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये कदम उठाने को कहता है। लेकिन उठाये जाने वाले कदम ही सियासी तौर पर ऐसे बना दिये गये हैं कि हाशिये पर पड़ा तबका सत्ता की सुविधा में ही खुद को मुख्यधारा से जुड़ा मानने लगे। यानी संविधान के जरीये देश को बांधने के बजाये अगर सत्ता के अनुरुप संविधान को बांधने का प्रयास होने लगे तो क्या हो सकता है यह मौजूदा परिस्थितियों को देखकर समझा जा सकता है। यानी लोकतंत्र या संविधान की दुहाई देकर अगर राजनीतिक दलों की सत्ता को चुनौती देने के लिये अब कोई राजनीति करे तो एक साथ तीन सवाल खड़े हो सकते हैं। पहला , राजनीतिक दल कहेंगे संविधान के लिहाज से आप भी राजनीतिक दल बनाइये और चुनाव लडकर सत्ता में आ कर दिखाइये । दूसरा, राजनीतिक दल सारा दोष जनता की भूमिका पर डाल देंगे। तीसरा,लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ आपको मान लिया जायेगा और लोकतंत्र को साधने के लिये संसदीय राजनीति को ही सबसे बेहतर करार दिया जायेगा । अगर बारिकी से समझे तो इन तीनो परिस्थितियों से कहीं ना कहीं अन्ना आंदोलन गुजरा । संसद के भीतर से अन्ना आंदोलन को संविधान विरोधी माना गया। सड़क से अन्ना आंदोलन को चुनाव लड़ कर अपनी बात साबित करने की चुनौती दी गई । और राजनीतिक तौर पर सारे संसदीय दल इस बात को लेकर एकमत हो गये कि अन्ना आंदोलन के सवालों का जवाब आखिरकार उसी संसदीय राजनीतिक व्यवस्था से निकलेगा जिसका विरोध अन्ना आंदोलन कर रहा है।

यानी जनता के वह प्रयोग गौण हो गये जिसे पहली बार बहुसंख्यक आम जनता अमल में लाने की दिशा में कदम बढा रही थी। तो क्या यह माना जाये कि अब सवाल सत्ता, सरकार या संसदीय राजनीति को लेकर करना बेवकूफी होगी। क्योंकि मुद्दों को लकर इस रास्ते का मतलब उसी चुनावी चक्रव्यूह में जाना है जहां पहले से मौजूद राजनीतिक खिलाड़ी कहीं ज्यादा सक्षम और हुनरमंद है। और यह रास्ता लोकतंत्र या संविधान परस्त नहीं है, क्योंकि इसके तौर तरीके एक खास खांचे में सत्ता बना देते है या बिगाड़ देते हैं। और इसे प्रभावित बनाने वाली ताकतें बिना वोट दिये ही बहुंस्खयक वोटरो को प्रभावित कर देती हैं। यह सवाल कोई अबुझ पहेली नहीं है। क्योंकि आजादी के बाद से लेकर 2009 तक लोकतंत्र का सबसे मजबूत पाया वोटिंग के तौर तरीके बताते है कि राष्ट्रीय तौर पर जिसकी पहचान भी नहीं है वह मजबूत होता गया और जो राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लिये घुम रहे है वह कमजोर होते चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं लोकतंत्र जीने के तौर तरीके ऐसे है कि पचास फिसदी वोटरो की तो भागेदारी ही नहीं होती। और जिसकी सत्ता बनती है उसका अपना चुनावी मैनिफेस्टो इस हद कर संविधान विरोधी होता है कि वह हर उस मुद्दे पर देश को बंट चुका होता है जिसे संविधान जोड़ने की मशक्कत करने के लिये बार बार दोहराता है। जातिगत सत्ता की मलाई, आरक्षण की सुविधा, सरकारो के विकास ना करने की एवज में पैकेज और देश में किसान-मजदूरों, आदिवासियों को दो जून की रोटी ना दे पाने की स्थिति बरकरार रखने के लिये कल्याणकारी योजनाओ की फेरहिस्त। असर इसी का है कि 2009 में 70 करोड के वोटरो के देश में सिर्फ 29 करोड़ वोट ही पड़ते है। और एक करोड़ से भी कम वोट पाने वाले देश चलाने में लग जाते हैं। कांग्रेस को ही सिर्फ साढे ग्यारह करोड वोट मिलते हैं। तो ममता, करुणानिधि और शरद पवार या मुलायम, मायावती को कितने वोट मिले होंगे यह आप खुद ही सोच सकते हैं। मुश्किल यह नहीं है सत्ता की कुंजी उनके पास है। मुश्किल यह है कि देश की कुंजी इन्होने लोकतंत्र को बचाने के नाम पर या संविधान की रक्षा के नाम पर हथियाई हुई है।

नया सवाल यही से शुरु होता है । क्या यह वक्त आ गया है कि अब लोकतंत्र और संविधान विरोधी आंदोलन की शुरुआत इस देश में हो जाये। कोई भी कहेगा कि लोकतंत्र या संविधान में कहां खराबी है। खराबी तो राजनीतिक सत्ता में है। सरकारों में है। व्यवस्था में है। बदलना है तो उन्हें बदलें । आंदोलन उन्हीं के खिलाफ हो । संविधान तो देश की मूल भावना और उस दौर के मुश्किलात से कैसे जुझा जा सकता है इसको लेकर ही संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाया है। लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में क्या वाकई कोई दिल पर हाथ रखकर कह सकता है कि संविधान पढ़ते वक्त उसके जहन में देश की जो परिकल्पाना उटती है देश वैसा ही है। उसी रास्ते पर है । यकीनन संविधान बनाते वक्त बाबा साहेब आंबेडकर हो या राजेन्द्र प्रासद या जवाहरलाल नेहरु या फिर सरदार पटेल अगर इनके जहन में संविधान के मद्देनजर देश को एक धागे में पिरोने का सपना था तो उसवक्त देश की कुल आबादी 36 करोड़ थी। आज उस वक्त के दौ भारत यानी 72 करोड से ज्यादा लोगो के लिये तो सरकार के पास कोई योजाना, कोई नीति है ही नहीं । अगर कुछ है तो राजनीतिक पैकेज या कल्याणकारी ऐसी योजनाये जिससे इनकी आर्थिक परिस्थितियां जस की तस रहें। 1895 के जेल मैनुअल के मुताबिक हर कैदी को जितनी कैलोरी हर दिन भोजन में मिलनी चाहिये । यकीन जानिये अगर सिर्फ इस कैलोरी वाले भोजन को ही लागू कर दिया जाये तो सरकार को जेल बोजन के लिये खाद्द सुरक्षा विधेयक से बड़ा कानून बनाना होगा। हर बरस कम से कम साठ लाख करोड का बोझ सरकार पर पड़ेगा। क्या यह लोकतंत्र की परिभाषा में फिट बैठती है। क्या संविधान बनाने वालों ने कभी ऐसा सोचा भी होगा। जाहिर है नहीं। तो फिर अब की सत्ता और सरकार उसी लोकतंत्र या संविधान की दुहाई क्यों देती है। जाहिर है संविधान के खिलाफ आंदोलन का मतलब यहा तानाशाही या लोकतंत्र विरोधी धुरी बनाना नहीं है। बल्कि संविधान को विस्तार देने के लिये उसमें राजनीतिक सत्ता के लोकतांत्रिक चोंचले और संविधान की आड में संस्थानों की वह व्याख्या भी है, जो यह मानने को तैयार नहीं है देश को इस वक्त भी अंग्रेजी हुकुमत की तर्ज पर हांका जा रहा है। फर्क सिर्फ इतना ही चंद हथेलियों में सब कुछ है और यह हथेलियां संविधान का घेरा बनाकर बार बार डराती हैं कि अगर आपने विरोध किया तो आपको गैर कानूनी से लेकर देश द्रोही तक ठहराया जा सकता है क्योंकि देश में कानून का राज है और कानून की व्याख्या न्यायपालिका करती है। और उसे लागू राजनीतिक सत्ता करवाती है। जिसे सरकार कहते हैं। और यह सरकार जनता की नुमाइंदा है। जिसे बकायदा लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया है। और इस चुनी हुई सरकार को संविधान से ही मान्यता मिली है तो आप उसे चुनौती कैसे दे सकते है ।


Saturday, July 28, 2012

भीड़ नहीं ,पलते हुये सपनों से तौलें जंतर-मंतर को


वही जंतर-मंतर। वहीं अन्ना टीम। वहीं मांग। रास्ता कैसे निकलेगा। सुबह से आधी रात तक हरी दरी पर बैठे बदलते चेहरों के बीच यह एक सामान्य सा सवाल है। लेकिन वह सरकार। वही नेता। वही ताने। यह अनशन के दो दिन बाद उसी हरी दरी पर बैठे लोगों के नये सवाल है। तो रास्ता कैसे निकलेगा। अब तो सरकार के चेहरे खुलकर कहने लगे है कि दम है तो चुनाव लड़ लो। और मंच पर अनशन किये टीम अन्ना के सदस्यों के बीच भी यह सुगबुगाहट चल निकली है कि अब तो राजनीतिक विकल्प की बात सोचनी होगी। तो क्या अनशन से आगे का रास्ता पहली बार अनशन करते हुये दिखायी देने लगा है। शायद हां। शायद नहीं। क्योंकि रास्ता राजनीतिक चुनौती की दिशा में जाता जरुर है लेकिन चुनाव का आधार सिर्फ अनशन से या जनलोकपाल की मांग के आसरे खोजना नामुमकिन है। बाहरी दिल्ली से पहुंचे रामनारायण हाथ में राशन दुकान से कैरोसिन तेल पाने की अर्जी है। राजस्थान से आये अशोक के हाथ में कागजों का पुलिन्दा, जिसमें उनकी जमीन पर सरकार ने ही बिना मुआवजे और सूचना दिये कब्जा कर लिया। बुदेलखंड से आई लक्ष्मी अपंग है लेकिन उसे दस्तावेजों में अपंग नहीं माना गया तो उसे नौकरी भी नहीं मिल रही। जाहिर है हरी दरी पर थके हारे जो चेहरे लगातार अपनी अपनी गठरी संभाले बैठे हैं, उनके भीतर अन्ना टीम को लेकर कोई उलझन नहीं है। वह माने बैठे हैं कि सरकार को अन्ना के संघर्ष के सामने झुकना होगा और सरकार झुकेगी या समझौता करेगी तो उनके लिये भी रास्ता निकलेगा। तो क्या राजनीतिक विक्लप की तैयारी के लिये अन्ना टीम को भी अब देश के असल हालात को अपने संघर्ष का हिस्सा बनाना होगा। शायद यह गुफ्तगु शुरु हो चुकी है।

मंच के बगल में टेंट से घेरकर दो बिस्तर बिछाये गये हैं। जहां हर आधे घंटे के अंतराल के बाद केजरीवाल, सिसोदिया और गोपाल राय बारी बारी से आकर लेटते हैं। क्योंकि प्राकृतिक इलाज करने वाले डाक्टरों ने इन्हे सुझाव दिया है कि अगर आप मंच से बोले कम और काफी देर लेट कर आराम करे तो अनशन दस दिन तो आराम से चल सकता है। और आराम के इस कमरे में ही बीच बीच में अन्ना हजारे भी अनशन कर रहे अपनी टीम के सदस्यों की पीठ ठोंक कर हौसला भी लगातार दे रहे हैं। लेकिन महत्वपूर्ण अब आराम के कमरे में बनते भविष्य के सपने हैं। जो खुद धीरे धीरे बुने जाने लगे हैं। सरकार चार दिन भी अनशन को लेकर नहीं देना चाहती है। जनता ने तो 60 बरस सत्ताधारी नेताओ को दे दिये। यह मंच के नीचे बैठे भोला साहू का सवाल है। बीते तीन दिनो में हर सुबह हरी दरी पर आकर बैठना। घर से ही खाने की पोटली ले कर आना। नारे लगाना। झूमना । और आधी रात को करोलबाग के अपने घर लौट जाना। 82 बरस की उम्र में जंतर मंतर पर आकर बैठने के पीछे कोई बड़ी वजह। इस सवाल पर भोला साहू की आंखों में आजादी का दिन ही आ जाता है। जो सपने पाले गये वह टूटे या बिखरे इससे इतर सपने अब भी बरकरार है और भारत को सपने की जरुरत है। जो जंतर मंतर पर उन्हें बार बार दिखायी देती है। लेकिन इस बार भीड़ नहीं है। लोग कम हैं। क्यों भीड को खोज रहे हैं आप। क्या घरों में अपने काम में उलझे लोगो के भीतर सपने नहीं पल रहे हैं। और अगर भीड ही सबकुछ है तो फिर दिल्ली की सड़कों पर 84 में क्या हुआ था। तब तो भीड़ ही भीड़ थी। लेकिन उस भीड़ की हरकतों पर कांग्रेस ने माफी क्यों मांगी। अयोध्या की भीड़ पर वाजपेयी ने माफी क्यों मांगी। यह सब कहते हुये भोलाराम के चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं बल्कि सुकून ही रहा। पीठ पर हाथ रखकर बोले, सपने जब पलते हैं तो वह भीड़ की शक्ल में सामने नहीं आते। तो क्या भीड को लेकर जो आवाज मीडिया लगा रहा है वह बेमानी है। जो सवाल सरकार के मंत्री उठा रहे है और कम भीड़ देखकर नेताओ ने कसीदे गढने शुरु कर दिये हैं। क्यों इससे अन्ना हजारे बेखबर है। मंच के नीचे आराम के कमरे में इस सवाल का जवाब केजरीवाल के पास अगर रणनीति को लेकर है तो अन्ना हजारे भोलाराम की तरह इसे अपने सपनो में ही तौलते हैं।

अन्ना का साफ कहना है कि अब देश जाग चुका है और जागा हुआ देश बार बार भीड़ नहीं बनता। वहीं केजरीवाल यह मान रहे है कि भीड़ से आंदोलन को तौलना मीडिया और सरकार के लिये सबसे बडी भूल और आंदोलन के लिये सबसे लाभ वाला है। क्योंकि वक्त बीतना तो अभी शुरु भी नहीं हुआ। अब लोग आयेंगे तो वही इन्हें समझायेंगे कि शुरु में ही हमले के हथियार बेकार कर देने का मतलब क्या होता है। लेकिन अब राजनीतिक लडाई की बिसात बिछनी शुरु होगी। मंत्रियों और नेताओ के वही वक्तव्य सरकार को भारी पड़ेंगे जो हमें वह चुनाव लडने के लिये उकसाने वाले दे रहे हैं। केजरीवाल को भरोसा है कि चुनाव की बिसात सरकार ही बिछा रही है और पहली बार अब आम लोग भी सोचेंगे कि क्या वाकई चुनाव में जीत-हार ही देश का भविष्य है। ऐसे में अन्ना तो अनशन पर बैठ जायेंगे और उसके बाद निर्णय तो लोगो को लेना होगा कि अब वह सरकार से जनलोकपाल मांगे या सरकार को बदलने के लिये राजनीतिक तौर पर सोचना शुरु कर दें।

जंतर मंतर पर राजनीतिक तौर पर सोचने का यह ककहरा कैसे हवा में धुल गया है इसका अंदाज हाथ में हाथ डाल कर मंच पर जाने से रोकने वाले युवा वालेटिंयरो के इन सवालो से भी समझा जा सकता है जो समूह में आते लोगो के धक्के खाते हुये यह कहने से नहीं चूक रहे कि अब धक्का तो शहर शहर, गांव गांव खाना है। मगर संसद नहीं देखना है। वहीं मंच के पीछे जिस घर में नहाने और शौचालय की व्यवस्था है, वहां अन्ना को आते जाते देखकर करीब 70 बरस की रमादेवी भी कहने लगी हैं, अन्ना ने अनशन शुरु किया तो हम भी एक वक्त का खाना छोड देंगे। जैसे शास्त्री जी के कहने पर 1965 में छोडा था। तब तो युद्द था। तो यह भी युद्द से कम नहीं है ।

Monday, July 23, 2012

छोटे पर्दे पर बड़े पर्दे के सुपरस्टार की मौत का जश्न


छोटे पर्दे पर बड़ा पर्दा छा जाये ऐसा होता नहीं है। लेकिन 70 के दशक के सुपरस्टार की मौत ने छोटे पर्दे का चरित्र 48 घंटे के लिये बदल दिया। सिर्फ पर्दे का चरित्र नहीं बल्कि उस पीढ़ी के उन सपनों को भी जगा दिया जो उसने न तो अपने दौर में सिल्वर स्क्रीन पर देखे और ना शायद उसके सपनों में कभी आये। क्योंकि मौजूदा न्यूज चैनलों को संभाले पीढ़ी अमिताभ बच्चन से लेकर खान बंधुओ को देखकर बड़ी हुई और अब उसे ही राजेश खन्ना के स्टारडम को छोटे पर्दे पर जिन्दा करना था। और राजेश खन्ना का मतलब ना तो एंग्री यंग मैन था और ना ही आधुनिकता या विलासिता में खोया चरित्र, जो पैसों के बल पर सबकुछ पा सकता है। जो तकनीक के आसरे कुछ भी कर सकता है। सीधे कहें तो जिस समाज, परिवार या परिवेश को जिस पीढ़ी ने देखा ही नहीं और अब जिन्दगी जीने की जद्दोजहद में वह उसे समझ भी नहीं पायेगा, उस दौर के सपनों को जीने का स्वाद राजेश खन्ना ने एक ताजा हवा के झोंके की तरह दिया । कैसे तस्वीर से ही इश्क हो जाता था। कैसे सिल्वर स्क्रीन पर राजेश खन्ना की अदा सिनेमा हाल के अंधेरे में बैठी देखती कमसिन लडकियों के भीतर प्यार का उजियारा भर जाता और वह खून से प्रेम पत्र लिखने से लेकर शरीर गुदवाकर अपने स्टार को अपनी शिराओ में बसा लेती। कैसे राजेश खन्ना की सफेद अंपाला लिपस्टिक से गुलाबी हो जाती और लिपस्टिक लगे होठों में और चमक आ जाती। अद्भभुत है यह सोचना और सोचते हुये इसे छोटे पर्दे पर जीने की कोशिश करना। 

दिल तो आपका भी धड़का होगा...यह सवाल चाहते ना चाहते हुये आशा पारेख से मैंने फोन-इन के वक्त फिल्म कटी-पंतग का जिक्र कर पूछ ही लिया। और जो सोचा उससे उलट बिलकुल सादगी भरा जवाब आया। हाहा..हा कह नहीं सकती लेकिन मैंने देखा है सैट पर कैसे राजेश खन्ना प्रशसंकों से घिरे रहते । हेमा जी, आपने राजेश खन्ना के जादू को महसूस किया। और जवाब फिर सादगी भरा-कई फिल्मों में साथ काम किया..प्रेम नगर, महबूबा और भी कई ...अब याद आ रही है उस दौर की कई फिल्मों की। तो दिल आपका भी धडका ? हाहा...हा वे तो फिल्में थीं।

नंदा जी आपने तो अपने सामने राजेश खन्ना के ग्लैमर को देखा? ठीक कहा आपने मैंने देखा कैसे मेरे साथ पहली फिल्म की शूटिंग के दौरान शूटिंग देखने वाले राजेश खन्ना को देखकर पूछते थे...यह नया हीरो कौन है। और छह महिने बाद ही कैसे राजेश खन्ना हर जुबान और दिल में था। मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि वह हीरो कौन है। वजह। वह हर दिल की धड़कन बन चुका था। शायद सादगी के साथ हर घर-परिवार के भीतर का हिस्सा बनकर अपनी अदाओं का जादू बिखेरना ही राजेश शन्ना की फितरत रही। तो क्या घर-परिवार के ही एक सदस्य के तौर पर सीधे सपाट अपनी अदायगी से पूरे माहौल को जीने वाला कलाकार था राजेश खन्ना। तमाम कलाकारो को टटोलते हुये भी अगर ध्यान दें तो हर छोटे पर्दे पर एक कुबुलाहट लगातार रेंगती रही कि आखिर वह रोमांस..वह स्टारडम...वह प्यार उभर क्यों नहीं रहा है जिसे जीने का जुनुन हर कोई राजेश खन्ना के मरने के बाद उसके अतीत के किस्सों को पढ़कर पाल चुका है। और अब उसे उस दौर में गोता लगाना है जहा कोई दूसरा ना पहुंचा हो। यह कुबुलाहट कहीं निजी है तो कहीं सार्वजनिक होने का बड़ा औजार है। यह दोनों सच लगातार न्यूज एंकरों के सवालों और उनकी अपनी कमेन्ट्री के साथ छोटे पर्दे पर उभर रहे थे। और लगातार सवाल और कार्यक्रम के भीतर से यह गूंज भी सुनाई दे रही थी, कि वह कितना शानदार दौर था। राजकपूर ने हिन्दुस्तान को प्यार दिखाया लेकिन राजेश खन्ना ने तो आजाद भारत को प्यार करना सिखाया। और वह प्यार शर्मा जी की बेटी से लेकर त्रिपाठी जी के बेटे के बीच कैसे पनपा और पहली बार कैसे मोहल्लों से दूर पार्क और कॉलेज ग्राउड के अनछुये हिस्से में सांसे गर्म होने लगी यह पता ही नहीं चला। लेकिन यह सब छोटे पर्दे पर बताया जा सकता है, उसे उभारा कैसे जाये। 

जाहिर है पहली बार सुपरस्टार की मौत ने देश को संगीत और गीत के मायने बता दिये। यह तो कोई भी समझ लें कि राजेश खन्ना, किशोर कुमार और पंचम की तिकड़ी गीतों को जिन्दगी के तार के साथ बुन रही थी। इसीलिये जो लफ्ज निकलते वह दिल को भी भेदते और होठों को गुनगुनाने के लिये भी मजबूर करते । तुम बिन जीवन कैसा जीवन, फूल खिले तो दिल मुरझाये, आग लगी जब बरसे सावन। या फिर, कुछ रीत जगत की ऐसी है, हर एक सुबह की शाम हुई, तुम कौन हो क्या नाम है तेरा, सीता भी यहां बदनाम हुई। यह हुनर और मेहनत क्या अब संभव है। लिखने वाले ने समाज को समझा। संगीतकार ने दिलो की आवाज समझी। और राजेश खन्ना ने उसे अपनी अदायगी में ढाल कर हर दिल की धड़कन बना दिया। याद कीजिये फिल्म दो रास्ते के एक गीत से पहले की दो लाइने जिसे सिल्वर स्क्रीन पर जब राजेश खन्ना गुनगुनाते हैं-फलक से सितारे तोड़ कर लोग लाये हैं, मगर मै वह नहीं लाया जो सारे लोग लाये हैं। क्या हारे हुये दिल को यह लाइन सुकुन नहीं पहुंचाती। शायद वह दौर किसी को हराने या नीचा दिखाने का नहीं था। अब की तरह मुठ्ठी बंद कर खुशबु कैद करने का नहीं था। खालिस बेलौसपन था और राजेश खन्ना बेहिचक इसे हर दिल में उतार रहे थे। और ऐसे में जैसे ही राजेश खन्ना की मौत की खबर आती है तो हर न्यूज चैनल में हर किसी की दिल मचलता तो है लेकिन उसे रचा कैसे जाये यह किसी को पता नहीं चलता। क्योंकि राजेश खन्ना की कोई बायोग्राफी भी नहीं है। और किसी ने राजेश खन्ना को पन्नो पर उकेरा भी नहीं।

ऐसे में न्यूज चैनलो के संपादक कोई चित्रकार तो है नहीं और छोटा पर्दा कोई कैनवास तो है नहीं जो दिमाग में चलते भाव उभर जाये। और देखने वाले उस मदहोशी में खो जाये। बस यहीं से छोटा पर्दा वाकई छोटा हो गया। उसका दिल। उसकी समझ का दायरा और उसे परोसने का तरीका। मौत तू एक कविता है, तुझसे मिलने का वादा है.......आंनद के बाबू मोशाय से आगे मौत तू एक जीता जागता सामान है। जिसे बेचा जा सकता है। बस इस थ्योरी को ज्यादातर अब के समझदार ले उड़े। मौत के महज 10 घंटे भी नहीं हुये कि राजेश खन्ना की मौत बिकने के अंदाज में छोटे पर्दे पर अब के हालात में राजेश खन्ना के दौर को परोसने का सिलसिला शुरु हुआ। किसी को राजेश खन्ना के प्यार में उसकी मदहोशी दिखायी दी। किसी को राजेश खन्ना के प्याले में जिन्दगी तबाह करने का समान दिखा। किसी को राजेश खन्ना से 16 बरस छोटी उम्र की डिंपल में राजेश खन्ना का दिलफरेब होना दिखा। तो किसी को राजेश खन्ना की आवारगी में जिन्दगी का सच दिखायी दिया। जिसने जैसा चाहा वैसी परिभाषा गढ़ी। और हर परिभाषा में राजेश खन्ना का मतलब चित्रहार हो गया। हर कोई गीतों का हार बनाकर राजेश खन्ना के सपनो में खो गया। वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वो कल भी आसपास थी, वो आज भी करीब है। या फिर ....जिन्दगी को बहुत प्यार हमने दिया, मौत से भी मोहब्बत निभायेगे हम, रोते रोते जमाने में आये मगर, हंसते हंसते जमाने से जायेंगे मगर। कुछ नहीं है फिर भी हर दिल के करीब है। तो क्या यह सादगी भरे बोल ही अब गायब हो चुके है। सच्ची और साफगोई भरे लफ्ज अब कहे या लिखे नहीं जाते। हो सकता है।

लेकिन जिस तरह 70 के दशक के गीतों को छोटे पर्दे पर पिरोकर राजेश खन्ना के श्रदांजलि दी गई, उसने यह एहसास तो दिला ही दिया कि आज भी दिल मचलते है और हर कोई प्यार का भूखा है। एक आवारगी की चाहत और जिन्दगी को मौत में लपेट कर पीने की इच्छा है। शायद इसलिये राजेश खन्ना की मौत के बाद के 48 घंटे में हर वह गीत इतनी बार सुनायी दिया जो प्यार की आस जगाकर जिन्दगी को प्यासा छोड़ने से नहीं कतराता। जीवन से भरी तेरी आंखे, मजबूर किये जीने के लिये, सागर भी तरसते रहते है, तेरे रुप का रस पीने के लिये। और ऐसे गीतो पर जब राजेश खन्ना अपनी अदा से बिना किसी मुकाम को पाये मुकाम को भी नामुमकिन बना दें तो राजेश खन्ना के दौर से अब के दौर की तुलना नहीं बल्कि जिन्दगी की फिलासफी निकलती है और हर कोई बिना कुछ पाये भटकने को ही तृप्त होना समझता है। चिंगारी कोई भडके तो सावन उसे बुझाये , सावन जो अगन लगाये तो उसे कौन बुझाये। शायद इसीलिये धीरे धीरे राजेश खन्ना एक मिथ भी बना और छोटे पर्दे पर राजेश का बाद का दौर छाने लगा। क्या वाकई राजेश खन्ना के बाद अमिताभ बच्चन का आना दोनो की फिल्मों का पोयटिक जस्टिस था। आंनद और नमकहराम। दो ही फिल्में थीं, जिसमें राजेश खन्ना और अमिताभ साथ थे। और दोनों ही फिल्मों में अमिताभ के सामने राजेश खन्ना की मौत होती है। अमिताभ जिन्दा रहता है। और अमिताभ का जिन्दा रहना चाहे फिल्म की कहानी का हिस्सा हो लेकिन राजेश खन्ना की मौत के बाद अमिताभ बच्चन का आशीर्वाद बंगले जा कर राजेश खन्ना के मृत-देह के सामने रोना अब के कैनवास पर एक नयी लकीर खिंचता है। और यहा से राजेश खन्ना पीछे छूटते है और न्यूज चैनलों की होड़ राजेश खन्ना की चाशनी में अमिताभ बच्चन को बिकने वाला माल बना कर राजेश को ही इस हुनर के साथ बेचते हैं, जिससे यह ना लगे कि राजेश खन्ना का साथ छोड़ हर कोई अमिताभ के पीछे चल पड़ा है। बहुत ही महीन तरीके से अमिताभ के उस चरित्र को छोटे पर्दे पर राजेश खन्ना की आखरी यात्रा के वक्त तक उभार दिया जाता है, जहां अमिताभ बाबू मोशाय होकर भी जीते है और एंग्री यंग मैन के दौर को भी। अमिताभ के हर शब्द..हर चाल को बारीकी से छोटा पर्दा पकड़ता है और पंचतत्व में विलीन होते राजेश खन्ना के सामने बिलख बिलख कर रोते अमिताभ में राजेश खन्ना के सामने अपने छाने के युग का समर्पण दिखायी देता है। 

अमिताभ ने जिन हाथों से आगे की डोर पकड़ी और सफलता के साथ आज भी गाहे बगाहे उस डोर को खींच ही लेते हैं, उसे और कोई नहीं राजेश खन्ना का आखिरी डायलॉग ही मान्यता देता है। संयोग से यह फिल्म का होकर भी फिल्म का नहीं है। लेकिन विज्ञापन के जरीये ही सही जब राजेश खन्ना यह कहते हैं, बाबू मोशाय मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता। तो यह खुद से ज्यादा अमिताभ या अपने बाबू मोशाय के मान्यता देने का राजेश खन्ना का अंदाज भी है। और अमिताभ बच्चन राजेश खन्ना के जीते जी यह मानते भी रहे कि बंबई की सड़कों पर अगर उन्हे किसी ने पहली पहचान दिलायी तो वह आंनद के मुंह से निकला बाबू मोशाय शब्द ही था। क्योंकि आंनद फिल्म रिलीज होते ही राजेश खन्ना के फैन्स अमिताभ को देखकर आंनद के अंदाज में अमिताभ को देखकर बाबू मोशाय कहते। शायद इसीलिये पहली बार अमिताभ बच्चन भी अपने सुपरस्टार का चोगा उतार कर अपने आंनद की मौत पर रोये। शायद इसीलिये स्टारडम या सुपर स्टार को याद करते वक्त खान बंधु या अब के नफासत वाले हीरो किसी को याद नहीं आये। अगर ध्यान दें तो जिस आवारापन में शाहरुख, सलमान या आमिर खान खोये हुये हैं, उससे बहुत आगे राजेश खन्ना की आवारगी रही। अभी पैसों की खनक है और उसी भरोसे फैन्स का कोलाहाल है।लेकिन राजेश खन्ना के दौर में सिर्फ फैन्स का मिजाज था। जो हर परिवार में एक राजेश खन्ना को देखता था। अब वह दौर नहीं है तो वह बातें भी 48 घंटे से ज्यादा कैसे जी जा सकती है। और महसूस किजिये तो राजेश खन्ना की तस्वीर अब चाहे धडकन पैदा ना बनती हो लेकिन हर आंख में तो जरुर बसी है। तो सूनी आंखों से ही सही राजेश खन्ना को श्रद्धांजलि देते वक्त एक बार जरा अपने जहन में झांक कर देखे कि दिल के किसी कोने में आपके अंदर का राजेश खन्ना तो नहीं झांक रहा। हां..तो उसे मचलने दें। इस न्यूज चैनल के भागमभाग में उसे यह सोच कर ना दबाये कि एक और राजेश खन्ना मरेगा तो छोटे पर्दे पर हम भी जी लेंगे। अभी जी लीजिये..क्योंकि आनंद फिल्म में चाहे कभी मरा नहीं करता। लेकिन जिन्दगी में यह एक बार ही मरता है। और फिर जिन्दा नहीं होता।

Thursday, July 19, 2012

"आज हिन्दुस्तान के सामने कोई एजेंडा नहीं है"


वर्तमान समय की पत्रकारिता के एतिहासिक परिपेक्ष्य में पुण्य प्रसून वाजपेयी की प्रो.इम्तियाज अहमद से बातचीत-


पुण्य प्रसून- प्रो.साहब क्या यह माना जाए कि वर्तमान समय में जो पत्रकारिता चल रही है, वह एक शून्य अवस्था में आ गई है या फिर इस दौर की जरूरत ही कुछ ऐसी है। ऐसे में अगर हम तीन दशक पीछे जाएं यानी 70-80 के दशक की बात करें, जब प्रभाष जोशी पत्रकारिता कर रहे थे और उस समय की जो पत्रकारिता थी, उस संदर्भ में आज को कैसे देखा जाए?

प्रो.इम्तियाज अहमद- मेरा ख्याल है कि जो शून्यता आज आप देख रहे हैं, उसके कई कारण हैं। उसमें पहला कारण तो यही है कि एक पीढ़ी के पत्रकार सरकार से भयभीत नहीं होते थे। उसकी आलोचना करने से भी नहीं डरते थे। और इसलिए वे मुद्दे उठाते थे। देश की जो समस्याएं रही हैं और जो मुद्दे थे, वही उनकी लेखनी के मूल में होता था। वह पीढ़ी धीरे-धीरे कम होती गई। उसमें चाहे गिरीलाल जैन हों या फिर श्यामलाल। पत्रकारिता की वो जो परंपरा थी धीरे-धीरे कम हुई है। पर इसके मायने यह नहीं लगाए जाने चाहिए कि आज के दौर में उस प्रकार का कोई पत्रकार है ही नहीं। आज भी महत्वपूर्ण मुद्दे उठ रहे हैं। पत्रकार खड़े हुए हैं और उन्होंने स्टैंड भी लिया है।

पुण्य प्रसून- आपने कहा उस समय जो पत्रकार काम कर रहे थे, उनमें डर नहीं था। डर किस बात को लेकर नहीं था। और आज किस बात को लेकर है ?

प्रो.इम्तियाज अहमद- उस समय इस बात को लेकर डर बिल्कुल नहीं था कि राज्य क्या सोच रहा है और सरकार क्या सोच रही है, हम उसको सामने रखते समय उस सीमा तक लिखेंगे, जहां हमें अपनी स्वतंत्रता व निजी विचार को अभिव्यक्ति करने का अधिकार छोड़ना नहीं पड़ेगा। मेरे कहने का मतलब यह है कि आलोचना तीखी करें या फिर हल्की-फुल्की, वह इसपर निर्भर करता है कि हम क्या सोच रहे हैं और कैसी प्रतिक्रिया देना चाहते हैं। अपनी राय जाहिर करने या फिर आलोचना करने में पत्रकार डरते नहीं थे। एक समय था जब पत्रकारों ने नेहरू की भी आलोचना की। इंदिरा गांधी भी आलोचना से बची नहीं। उन्होंने जो कदम  उठाए उसपर भी लोगों ने आपत्ति जाहिर की। उनकी आलोचना की। उनसे साफ-साफ कहा कि आप गलत कर रही हैं। आप देखिए, आज भी देश में आपातकाल के नाम पर जो मोबलाइजेशन है, उसमें बहुत बड़ा योगदान पत्रकारिता का ही रहा है। मैं समझता हूं कि वह परिस्थिति दूसरी थी।

पुण्य प्रसून- इसका एक मतलब यह माना जाए कि उस दौर की जो राजनीतिक अवस्था थी और जो पत्रकारिता थी इन दोनों ही क्षेत्रों से जो लोग निकलकर आ रहे थे वे देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थिति के बीच से निकल रहे थे।

प्रो.इम्तियाज अहमद- हां, मैं तो यह कहूंगा कि किसी भी देश की राजनीति और उसकी पत्रकारिता समाज के घटनाक्रम से प्रभावित होती है। इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि मीडिया और राजनीति समाज का दर्पण हैं, लेकिन अब मुझे ऐसा लग रहा है स्पष्ट और निडर लेखन की परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो रही है।

पुण्य प्रसून- आपने कहा कि मीडिया दर्पण है या फिर उसका एक अक्स नजर आता है। पर क्या आपको नहीं लगता कि आज के दौर में पहली बार राज्य अपने स्तर पर इतना हावी है या उसने अपनी जमीन पर ही सारे संस्थाएं खड़ी कर लीं हैं।

प्रो.इम्तियाज अहमद- यहां मैं दो बात कहूंगा। पहली बात तो यह कि आज से बीसेक साल पहले इस पर राष्ट्रीय सहमति थी कि हमें विकास करना है और आगे बढ़ना है। इसलिए किसी भी आलोचना का स्वागत होता था। यदि आप सरकार को बताएं और दिखाएं कि हमें इस रास्ते से नहीं, बल्कि उस रास्ते से चलना चाहिए तो सरकार उसका स्वागत करती थी और जनता भी बात ध्यान से सुनती थी। आज वह परिस्थिति नहीं है। और वह परिस्थिति इसलिए नहीं है, क्योंकि समाज में विकास हीनता या विकास शून्य की वर्तमान परिस्थिति में राजनीति करने वाले अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। वे इसके लिए तैयार नहीं है, क्योंकि इससे उन्हें अपनी पोल खुलने का डर रहता है। दूसरी बात जो मैंने अब से पहले नहीं कही है, वह यह कि कार्पोरेट जगत की भी महत्वपूर्ण भूमिका है जो यह चाहता है कि आलोचना न की जाए और सरकार
उनके दिखाए रास्ते पर चले।

पुण्य प्रसून- कार्पोरेट के सवाल पर मैं अभी लौटता हूं। पर इससे पहले, आपने जो कहा उसी आधार पर मैं जानना चाहता हूं कि राज्य अगर विकास की धारा से जुड़ना चाहता है तो अखबार यानी मीडिया उसे समझाने या फिर दिशा देने का काम करता है। पर आपातकाल के दौरान तो ऐसा नहीं था। सरकार बिलकुल नहीं चाहती थी कि उसकी आलोचना हो। हंटर की नोक पर सभी को रखा गया था।

प्रो.इम्तियाज अहमद- आपातकाल की स्थिति थोड़ी भिन्न थी। जब देश में आपातकाल को लागू किया गया तो सेंसरशिप आई। पर उस दौरान भी पत्रकारों ने एक भूमिका निभाई। वह भूमिका यह थी कि कई अखबारों के संपादकीय पेज तक खाली गए, क्योंकि जिस माध्यम से आप अपना आक्रोश और सरकार की आलोचना कर सकते थे, वहां खामोशी थी। उसकी गुंजाइस नहीं थी। मैं यह कहूंगा कि बेशक थोड़े समय ही, उस दौरान जो कुछ हो रहा था उसमें मीडिया ने अपनी भूमिका निभाई। वह तुर्कमान गेट वाली घटना हो या परिवार नियोजन को लेकर चल रही ज्यादतियां। इन सब पर मीडिया ने अपना काम किया। पर क्योंकि वातावरण काफी दबावपूर्ण था, इसलिए वे उन मसलों को जोर-शोर से उठा नहीं सके। यदि वे ऐसा करते तो उनके खिलाफ कार्रवाई होती। अत: उससे लोग डरे। वहीं से सरकार से डरने की परंपरा चली, जिसे हम आज साफ-साफ देख रहे हैं। हां, कुछ दिग्गज पत्रकार हुए हैं, प्रभाष जोशी को मैं उनमें एक महत्वपूर्ण स्थान दूंगा, जिन्होंने अपने फायदे और नुकसान को बगल कर
निर्भीक लेखन की परंपरा शुरू की और उसे चलाई। अब मैं समझता हूं कि उनकेचले जाने के बाद हमारी पत्रकारिता जगत में एक रिक्तता पैदा हुई है, क्योंकि उस किस्म का पत्रकार आज कम है।


पुण्य प्रसून- आपने अभी कारपोरेट पर अपनी राय जाहिर की है। दूसरी बात प्रभाषजी के लेखन का भी जिक्र किया। उसी समय राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स में थे। एस.पी.सिंह उनके अंदर काम कर रहे थे। जनोन्मुखी पत्रकारिता एक लिहाज से वे भी कर रहे थे। दूसरी तरफ प्रभाषजी भी कर रहे थे। प्रभाषजी के साथ रामनाथ गोयनका थे जो सीधे लड़ाई लड़ रहे थे। अब हम यह क्यों न मानें कि अखबार का मालिक ही यदि राजनीति को चुनौती देने निकल पड़ा है तो उसके अंदर काम करने वाला पत्रकार किसी भी हालत में आक्रामक होगा। वह ‘प्रभाषजी ए’ हों या फिर ‘प्रभाषजी बी’।

प्रो.इम्तियाज अहमद- देखिए मैं आपको बताउं, जो अखबार या मीडिया को नियंत्रित करता है यानी जिसके पास उसे संचालित करने का अधिकार होता है वह अपने दृष्टिकोण और परिकल्पना के हिसाब से चाहता है कि कार्यक्रम चले और उसमें फलां की तारीफ की जाए। लेकिन इस परिस्थिति के बावजूद अच्छा पत्रकार वही होता है जो इस दबाव के बीच भी रास्ता ढूंढ़ लेता है यानी वह सूई में से हाथी निकाल देता है। कोई जरूरी नहीं है कि आलोचना सीधी और प्रत्यक्ष हो। अपनी बात कहने के दूसरे रास्ते निकाले जा सकते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि वैसे कम लोग रहे, जिनमें ऐसी महारथ थी कि अगर सीधी आलोचना नहीं कर पा रहे हों तो अप्रत्यक्ष रूप से आलोचना करते थे। आप देखिए आपातकाल के दौरान कइयों ने ऐसे उदाहण रखे। अखबार का पूरा का पूरा पेज खाली छोड़ दिया।

पुण्य प्रसून- जनता प्रयोग असफल हो गया था। उसके बाद जनसत्ता निकलता है। गोयनका को महसूस होता है कि इसे शुरू किया जाए। यानी एक राजनीतिक रिक्तता महसूस की जा रही थी। मुझे जहां तक याद आ रहा है कि तभी चंद्रशेखर भी यात्रा पर निकलने की तैयारी कर रहे थे। लोगों को तब यह समझ में नहीं आ रहा था कि राजनीतिक तौर पर उनकी क्या भूमिका होगी। इंदिरा गांधी सत्ता में थी। भिंडरावाला को लेकर पंजाब का संकट जटिल हो गया था। वहां बड़ी घटनाएं घटीं। क्या आप यह महसूस करते हैं कि उस दौर में राजनीतिक जरूरत थी किसी ऐसे अखबार के आगे बढ़ने की या फिर ऐसे पत्रकारों को आगे बढ़ाने की? जिसका लाभ कहीं न कहीं रामनाथ गोयनका भी उठा रहे थे और प्रभाषजी की पत्रकारिता भी पैनी हो रही थी। हम बहस को थोड़ा और आगे बढ़ा दें, क्योंकि उस समय पहली बार ऐसा मौका आया, जब वीपी.सिंह जनता के सामने आए तो उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के पीछे मीडिया का हाथ माना जाए तो वह क्षेत्रीय मीडिया था यानी हिन्दी मीडिया था। जनसत्ता और नवभारत टाइम्स के युवा पत्रकार रिपोर्टिंग कर रहे थे। तब क्षेत्रीय पत्रकारिता में जो पैनापन आया वह एक राजनीतिक जरूरत थी जो जनता दौर में फेल हो चुकी थी। क्या ऐसा न
माना जाए। और आज के संदर्भ में देखें तो ऐसी कोई जरूरत ही नहीं है।

प्रो. इम्तियाज अहमद- असल में यह एक व्यापक मुद्दा है। पहली बात तो यह कि क्षेत्रीय पत्रकारिता के महत्वपूर्ण विकास के पीछे कई प्रवृत्तियां हैं। एक तो सोशल मोबेलिटी। दूसरा यह कि विकास के जो वर्ष थे उसका नतीजा यह था कि छोटे-छोटे गांव में एक वर्ग पैदा हो गया था, जिनका राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति उतना रूझान नहीं था, जितना की क्षेत्रीय मुद्दों के प्रति था। राजनीति को लेकर भी उनकी रुचि क्षेत्रीय स्तर तक ही थी। और फिर क्षेत्रीयकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई उस दौरान एक तरफ तो राष्ट्रीय मीडिया चल रहा था, लेकिन दूसरी तरफ क्षेत्रीय अखबारों की बिक्री बढ़ी। इतना ही नहीं, एक वह व्यक्ति जिसे कल तक राष्ट्रीय मीडिया जगह नहीं देता था, नई परिस्थिति में उसकी तस्वीर व खबर हर अखबार में छपने लगी। वह दैनिक जागरण हो, दैनिक भास्कर हो या फिर राष्ट्रीय सहारा अब सभी में उसकी खबरें छप रही हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि मीडिया में उसकी उपस्थिति जो नहीं थी, वह हो गई। यह प्रभाव पड़ा। दूसरी बात यह थी कि इंदिरा गांधी के बाद देश में क्षेत्रीयकरण की राजनीति प्रक्रिया शुरू हुई। जिसके तहत मुलायम सिंह यादव, पटनायक आदि खड़े हुए।  क्षेत्रीय राजनीति का दौर चल पड़ा। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि केंद्र नेतृत्व अधिक शक्तिशाली हो चला था। इंदिरा गांधी के आखिरी वर्षों में सत्ता का केंद्रीयकरण हुआ, उसके खिलाफ ही ये क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियां पैदा हुईं। आप जो क्षेत्रीय मीडिया और क्षेत्रीय राजनीति के बीच लिंक की बात कह रहे हैं वह यहीं से पैदा हुआ है, क्योंकि क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों को एक माध्यम चाहिए कि कोई मीडिया में उनकी आवाज उठाए। क्षेत्रीय मीडिया के आने से उन्हें यह सुविधा प्राप्त हो गई।

पुण्य प्रसून- इसका दूसरा हिस्सा अगर यह माना जाए कि राजनीति इस दौर में बढ़ते हुए इतनी आगे निकल गई कि उसकी कमजोरियों को कार्पोरेट ने पकड़ लिया। मीडिया को भी कार्पोरेट ने पकड़ा। क्या यह माना जाए कि कार्पोरेट इस दौर में केंद्र में आकर खड़ा हो गया है।

प्रो.इम्तियाज अहमद- दरअसल, मुश्किल यह है कि इस मुल्क में पिछले आठ सालों से राजनीति और राजनेताओं को डीलेटिजमाइट करने की एक बहुत ही मजबूत कोशिश हुई है। कहा जाने लगा कि सारे राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं, लेकिन जो कार्पोरेट राजनीति है वह यह है कि अगर हम अच्छे मैनेजर हैं तो फिर एक राजनीति विहीन ढांचा खड़ा क्यों न करें! राजनीतिज्ञों की क्या जरूरत है।

पुण्य प्रसून- यह स्थिति इसलिए आ गई, क्योंकि उनपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। प्रो.इम्तियाज अहमद- नहीं, बल्कि वह इसलिए, क्योंकि हम अच्छे मैनेजर हैं। देश को चला सकते हैं। और ये जो राजनीतिज्ञ हैं, वे काम में एक बड़े बाधक हैं उन्हें डी-लेजिटिमाइट करिए। पर इस डी-लेजिटिमाइजेशन के बावजूद इसे आप दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य मुझे लगता है कि इस देश में राजनीतिज्ञों की एक लेजिटिमेसी है। और वह इसलिए है कि संविधान के ढांचे में संसद का जो महत्व है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आप उसे बदलना चाहेंगे तो संविधान नए सिरे से लिखना पड़ेगा जो संभव नहीं है। इसलिए इस संवैधानिक संरचना में राजनीतिज्ञ से बचाव मुश्किल है, वह रहेगा। हां, महत्वपूर्ण बात यह है कि वे कैसे इस परिस्थिति में अपनी रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं। हालांकि वह नहीं हुआ। पर जब-जब जरूरत पड़ी और कोई संकट का दौर आया तो राजनीतिज्ञों ने अपनी परिपक्वता का परिचय दिया। जिस समय अन्ना हजारे का आंदोलन अपने चरम पर था और वे चुनौती दे रहे थे कि जनलोकपाल बिल को पास किया जाए, उस समय संसद में जो बहस हुई वह उच्च स्तर की थी। उस समय सबस्टैनशिएल इसु उठाए गए और कहा गया कि संसद को आप डिक्टेट नहीं कर सकते। खैर, मेरा ऐसा अनुमान है कि न तो इसमें कार्पोरेट सक्सिड करेगा और न ही इसमें सिविल सोसाइटी के मुवमेंट एक हद के बाद सक्सिड करेंगे, क्योंकि मैं यह महसूस कर पा रहा हूं कि सिविल सोसाइटी मुवमेंट और कार्पोरेट में काफी ताल-मेल है। और इसकी वजह सिविल सोसाइटी को कार्पोरेट द्वारा मिल रही वित्तीय सहायता है। मेरा मानना है कि वह शोर जरूर मचाएगा,पर इस देश की राजनीति को पूरी तरह प्रभावित नहीं कर पाएगा। हां, जिससे प्रभाव पैदा होगा वह एक राजनीतिक प्रक्रिया होगी। यह अलग बात है कि आज हमारे देश में एक वैचारिक शून्यता है, जिसे आप राजनीति शून्यता कह रहे हैं। ऐसी स्थिति इसलिए है, क्योंकि राजनीतिज्ञों को मालूम नहीं है कि आज उन्हें किस दिशा में जाना है। जिस दिन दिशा को लेकर राजनीतिज्ञों में आम सहमति बन जाएगी, विकास की प्रक्रिया बढ़ेगी।

पुण्य प्रसून- आपने डी-लेजिटिमेसी की बात की। संविधान में यह लेजिटिमेसी चूंकि संसद को है इसलिए आप उसके खिलाफ खड़े नहीं हो सकते। हमारा कहना है कि फोर्थ स्टेटे को लेकर संविधान संकेत तो देता ही है कि उसकी अपनी लेजिटिमेसी है, जिससे चेक एंड बैलेंस की स्थिति रहती है। तो क्या मीडिया की वैचारिक शून्यता के इस दौर में भी वह अपनी महत्ता बरकरार रखे हुए है?

प्रो.इम्तियाज अहमद- देखिए, मैं हमेशा एक बात कहता हूं कि जब हम मीडिया शब्द इस्तेमाल करते हैं तो हमारी दृष्टी एकांगी हो जाती है, जैसे सारा मीडिया एक ही हो। इस देश की सबसे बड़ी खूबी यह है कि हमारे यहां मीडिया में सबसे ज्याद विविधता है। ठीक उतनी ही विविधता है जितनी की समाज में है। इसलिए कोई एक मत मीडिया के केंद्र में नहीं है। न कोई एक स्टैंड वह ले रहा है। उसके ऊपर दबाव काफी है। आप देखेंगे कि पूरी तरह कार्पोरेट के सहयोग से जो अन्ना आंदोलन चल रहा था तो ऐसा नहीं था कि हिंदुस्तान का पूरा मीडिया उसकी वाह-वाही में लगा था। वहां उसकी आलोचना भी हो रही थी। हमारे यहां मीडिया की जो विविधताएं हैं, वही उसकी सबसे बड़ी धरोहर है। वह इसलिए, क्योंकि इसके माध्यम से आप कोई यूनिफाइड पॉलिटिक्स नहीं कर सकते हैं।

पुण्य प्रसून-अन्ना आंदोलन के वक्त प्रभाषजी और रामनाथ गोयनका होते तो क्या वाकई कोई नई चीजें निकल कर आती? हालांकि, आंदोलन के बाबत आप जिस आलोचनात्मक रिपोर्ट की चर्चा कर रहे थे वैसी खबरें इंडियन एक्सप्रेस में छप रही थीं। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों पर जो आरोप लग रहे थे वो खबरें भी अखबार में छप रही थीं। पर क्या उन दोनों के होने से कुछ अलग स्थिति होती?

प्रो.इम्तियाज अहमद- देखिए मैं जिस पीढ़ी का प्रभाष जोशी को प्रतिनिधि मानता हूं उस दौर में महत्वपूर्ण बात यह नहीं थी कि केवल आलोचना की जाए। महत्व की बात यह भी थी कि विकल्प भी सुझाए जाएं। कोई दूसरा रास्ता भी दिखाया जाए। अगर अन्ना हजारे पर प्रभाष जोशी को लिखना होता तो केवल वे अन्ना की आलोचना न करते, बल्कि एक विकल्प दिखाते। यह बताते कि आप फलां रास्ते से जाएंगे तो शून्य पर पहुंचेंगे जो परिस्थितियां आज पैदा हुई हैं। अन्ना हजारे ने आज खुद अपने को डीलेजिटिमाइज कर दिया। प्रभाष जोशी होते तो यह न होता। वह इसलिए न होता, क्योंकि एक वैकल्पिक रणनीति उनके दिमाग में होती जो वे लिख रहे होते।


पुण्य प्रसून- इसका मतलब यह है कि कभी मौजूदा परिस्थिति से आगे देखने की दृष्टि पत्रकारिता में रही है।

प्रो.इम्तियाज अहमद- मैं यह कहूंगा कि जरूर रहा है। दूरदर्शिता और रास्ता दिखाने की क्षमता भी पहले ज्यादा थी। आज के दौर में यह कम हुई है। हालांकि, कुछेक लोग अब भी हैं। हिंदुस्तान के दो-तीन अखबार अब भी ऐसे हैं जिनमें पुरानी परंपरा अब भी बची हुई है। अन्यथा वह कमजोर ही हुई है। हम अपनी राय लोगों के रुख को देखकर तय करते हैं। अब लोगों को रुख देने की कोशिश नहीं करते।


पुण्य प्रसून- आपने एक बात और कही कि कार्पोरेट का पैसा सिविल सोसाइटी में लगा हुआ है, लेकिन ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं जहां राजनीति में चुनाव लड़े जाते हैं तो कार्पोरेट का पैसा लगता है। इतना ही नहीं, अब हर सांसद के पीछे भी कार्पोरेट आकर खड़ा हो गया है। इनके माध्यम से ही वह संसद के भीतर नीतियों को भी प्रभावित कर रहा है। राज्यसभा में ऐसे तकरीबन 125 सदस्य हैं जो खुद अपनी कंपनी चलाते हैं या फिर कंपनियों से जुड़े हैं। वे लगातार कार्पोरेट के हक की बात करते हैं। तो क्या अब कार्पोरेट सिविल सोसाइटी को वित्तिय सहायता देकर एक संतुलन की स्थिति बनाए रखना चाहता है? वह यह सोच रहा है कि केवल राजनीतिज्ञों को पैसा दिया गया तो वह उन्हें बर्बाद कर सकता है, इसलिए सिविल सोसाइटी को एक माध्यम के रूप में चुना है ताकि उसे वित्तिय सहायता देकर एक संतुलन की स्थिति रखी जा सके। यानी
दोनों तरफ से वही खेल रहा है।

प्रो.इम्तियाज अहमद- आपकी बात सही है। मैं यह समझता हूं कि कार्पोरेट सेक्टर और प्रतिक्रियावादी फंडामेंटलिस्ट में एक समानता है। वह समानता यह है कि दोनों एक कॉन्ससनेस पैदा करना चाहते हैं। इसके पैदा होने के बाद वे सिविल सोसाइटी को नियंत्रित करना चाहते हैं। जब इसपर नियंत्रण हो गया तो फिर सत्ता पर नियंत्रण करना चाहते हैं। आप देख लें चाहे वह तालिबान हो, आरएसएस हो या फिर कार्पोरेट सेक्टर, इनकी नीति वही एक है। आप देखिए कार्पोरेट ने भूमंडलीकरण को लेकर तमाम सपने दिखाए। बताया कि बस अब कामयाबी के रास्ते खुले हुए हैं। यह नहीं बताया कि अगर असफल हो गए तो क्या होगा। आज देखिए असफल होने के कितने परिणाम लोगों को भुगतने पड़ रहे हैं। कार्पोरेट सेक्टर ने एक तरह की कॉन्ससनेस पैदा कि जिसे मैं लिब्रल मटेरियलिस्ट कॉन्ससनेस कहता हूं। मतलब यह कि साहब आपकी सफलता का मापदंड इसमें नहीं है कि आप कितने अच्छे आदमी हैं। कितने इमानदार हैं, बल्कि इसमें है कि आप कितने कामयाब हैं।


पुण्य प्रसून- कामयाबी किस प्रकार की?

प्रो.इम्तियाज अहमद- आर्थिक रूप से आप कितने कामयाब हैं। बड़ी कंपनियों में आप किस पायदान पर हैं। यानी कामयाबी का यही मापदंड मध्यवर्ग ने इस देश में पूरी तरह अपना रखा है। खैर, अब सिविल सोसायटी के संदर्भ में देखते हैं। सिविल सोसायटी को नियंत्रित करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि इससे आप दोनों तरफ कॉन्ससनेस पैदा कर सकते हैं। यह एक यंत्र है जिससे आप उस जंग को छेड़ सकते हैं, जिसे प्रत्यक्ष रूप से आप नहीं लड़ सकते हैं। और जब ये दोनों प्रवृतियां पूरी तरह विकसित हो जाएंगी तब हिंदुस्तान एक कॉरपोरेट एडमिनिस्ट्रेशन के हाथों में चला जाएगा। वह राजनीतिज्ञों के हाथ में नहीं रहेगा। लेकिन यह वह परिस्थिति इसलिए खड़ी नहीं हो रही है या फिर मेटर-लाइज्ड नहीं हो रही है, क्योंकि आपका जो पूरा संवैधानिक ढांचा है, उसमें इसके लिए अभी कोई जगह नहीं है। आगे चलकर क्या परिस्थितियां पैदा
होंगी, उस संबंध में फिलहाल कुछ नहीं कह सकता।


पुण्य प्रसून- क्या वैचारिक शून्यता की यही बड़ी वजह है?

प्रो.इम्तियाज अहमद- हां है। वैचारिक शून्यता इसलिए भी है, क्योंकि विकास की दिशा पर कोई सहमति नहीं है। इस देश में विकास किस रूप में और किस दिशा में जाना चाहिए। विकास के क्या मायने हैं। विकास किसका होना चाहिए। यह तय नहीं हो पाया है। आप गरीबों को समुद्र में फेंक दें, आजकल एक यह विचार भी है। तो मैं कहता हूं कि जब तक समाज में कॉन्ससनेस पैदा नहीं होगा, वह अस्त-व्यस्त ही रहेगा। आज मैं यह कहूंगा कि चूंकि वह पुराना कॉन्ससनेस टूट गया और उसकी जगह हम
नया कॉन्ससनेस पैदा नहीं कर सके, इसलिए आज हिंदुस्तान के सामने कोई एजेंडा नहीं है। मुझे याद है 1962 में रमेश थापर के साथ मिलकर मैंने एजेंडा फॉर इंडिया नाम से 70-72 पेजों का दस्तावेज तैयार किया था। आप मुझे ऐसा एक बुद्धिजीवी बताएं जो इस दिशा में काम कर रहा हो कि ‘हिन्दुस्तान का फ्यूचर एजेंडा क्या हो’। हम पाते हैं कि ऐसा कोई नहीं है। और जब नहीं है तो आप जिस राजनीतिक शून्यता की बात कर रहे हैं, वह इसकी स्वाभाविक देन है। अब इस शून्यता से निकलने के लिए चिंतन के दौर से गुजरना होगा। जब तक हम इस प्रक्रिया से नहीं गुजरेंगे और आम सहमति नहीं बनेगी, तबतक विकास की प्रक्रिया मद्धिम रहेगी। हम रेंगते रहेंगे।


पुण्य प्रसून- क्या मैनेजेरियल कार्य पद्धति हमें रेंगने को मजबूर कर रही है ।

प्रो.इम्तियाज अहमद- नेहरू के जमाने में वे आए दिन नीति परक वक्तव्य देते थे। फिर मीडिया से लेकर हर तरफ उसपर बहस शुरू हो जाती थी। मुझे आप बताएं कि पिछले 15-20 सालों में इस राजनीतिक वर्ग ने कोई ऐसा नीति परक बयान दिया, जिससे लंबी बहस चली हो। ऐसा नहीं किया है। और वह इसलिए नहीं किया कि उसने स्वयं को इस रूप में परिभाषित कर रखा है कि उसका काम तो मैनेजेरियल है। जिस दिन वह इस रोग से मुक्त होगा, उसी दिन शेर जागेगा। और राजनेता परिवर्तनशील राजनीति करेंगे।

पुण्य प्रसून- इस दौर में मीडिया की क्या भूमिका रहेगी?

प्रो. इम्तियाज अहमद- मीडिया इसमें रचनात्मक भूमिका निभा सकता है, यदि वह दिशा निर्धारण में अपना योगदान दे। पर आज वह परिस्थिति नहीं है। आप यदि
सुबह-सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ेंगे तो लगेगा कि देश में बड़ी खुशहाली है। वहीं आप द हिंदू पढ़ेंगे तो लगेगा कि देश रो रहा है। यह भेद काफी महत्वपूर्ण है। अब रोने वाली पत्र-पत्रिकाएं खत्म हो गई हैं। हालांकि, हिन्दू स्वयं को बनाए हुए है, लेकिन पूरा मीडिया विलासिता संबंधी खबरों से भरा पड़ा है। वास्तविकता यह है कि रचनात्मक पत्रकारिता और रचनात्मक राजनीतिक भूमिका इस देश में क्षीण हो गई है। उसे मजबूत करने की जरूरत है।

पुण्य प्रसून-क्या उम्मीद की किरणें हैं?

प्रो.इम्तियाज अहमद- देखिए, मैं समझता हूं कि देश खत्म नहीं होगा। हां जब लोग इससे तंग आ जाएंगे तो इसकी प्रतिक्रिया में एक आंदोलन शुरू हो जाएगा। उसकी संभावना है। आज जो हमारा राजनीतिक वर्ग है, वह दूसरे कामों में व्यस्त है। अपने मूल कामों को नहीं कर रहा है।

Sunday, July 15, 2012

प्रभाष जोशी की जयंती के अवसर पर पत्रकारिता के संदर्भ में के.एन.गोविंदाचार्य से बातचीत


15 जुलाई : प्रभाष जोशी की जयंती

बाबरी मस्जिद गिरी तो संघ से प्रभाष जोशी का भरोसा टूटा 


पुण्य प्रसून- प्रभाषजी जिस दौर में पत्रकारिता कर रहे थे, क्या उस वक्त की सक्रिय राजनीति में भी वे रहे? उनकी पत्रकारिता जब शुरू होती है तो वे सीधे सत्ता से टकराते दिखते हैं। तब इंदिरा गांधी सत्ता में थी और वह आपातकाल का दौर था। और फिर जहां वे पत्रकारिता छोड़ते हैं, यानी सक्रिय पत्रकारिता से सलाहकार की भूमिका में आते हैं, तबतक देश में अयोध्या आंदोलन शुरू हो चुका था। बाबरी मस्जिद की घटना घटी तो उनके जेहन में संघ के प्रति काफी गुस्सा भर गया, जो उनकी लेखनी में लगातार दिख रहा था। इस पूरे घटनाक्रम को आप किस तरह देखते हैं?
गोविंदाचार्य- मैं तो यह मानता हूं कि एक संवेदनशील पत्रकार मन स्थितियों का वस्तुपरक विश्लेषण कर रहा होता है। वह लोभ, मोह और क्रोध से बचता हुआ अपना आकलन प्रस्तुत करता रहता है। मैंने प्रभाषजी को हमेशा यही करते पाया। कभी अंतर्विरोध नहीं पाया। वे जब इंदिरा गांधी की तानाशाही से लड़ रहे थे, तब इंदिरा गांधी के प्रति उनके मन में कोई रोष नहीं था। वह एक लड़ाई थी, जिसे वे मुल्यों और मुद्दों के साथ लड़ रहे थे। इसमें व्यक्तिगत कुछ नहीं था। वही बात रामनाथ गोयनका में भी थी। गोयनकाजी ने हमेशा इंदिरा गांधी को अपनी बिटिया समान ही माना। मुझे ऐसा लगता है कि प्रभाषजी में जो गुण थे वह गोयनकाजी के करीब आने के कारण और भी पुष्ट हुए। मैं उनमें वही प्रवृत्ति रामजन्म भूमि आंदोलन के दौरान भी देखता हूं। विचारों के विरोध में खड़े होने के बावजूद व्यवहार में तलखी नहीं दिखती थी। उनमें सहज आत्मीयता दिखती थी। किसी से गहरे मतभेद होने के बावजूद, यहां तक कि उक्त व्यक्ति को दोषी समझने पर भी वे एक धरातल से ऊपर उठकर मानवीय संवेदना से रहित नहीं थे।

उदाहरण के रूप में देखें तो बाबरी मस्जिद की बात अभी आप कह रहे थे, तो मेरे मन में हमेशा यह उलझन रही कि प्रभाषजी इतने कटु कैसे हुए। तभी मेरी समझ में आया कि प्रभाष जोशी जी ने नरसिंह राव जी से वादा किया था कि संघ के रज्जु भैया कह रहे हैं, इसलिए ढांचे की सुरक्षा होगी। लेकिन इस घटना से संघ के प्रति उनकी आस्था टूट गई, क्योंकि संघ के बारे में कल्पना थी कि वह जो तय करेगा, वही होगा। इसके बावजूद वैसा क्यों नहीं हुआ। प्रभाषजी इस बात को मानने के लिए कतई तैयार नहीं थे कि वह घटना अनपेक्षित थी और उसको लेकर कोई योजना नहीं थी, क्योंकि उनकी यह आस्था थी कि संघ बगैर योजना के कोई कदम नहीं उठाएगा। उनके लिए यह मानना संभव ही नहीं था कि वहां सबकुछ हाथ से बाहर चला गया। ऐसी बात जो उनसे कहता था तो सदाचार के नाम पर सुन जरूर लेते थे, पर वे कहने वालों के प्रति संदेह रखने लगे। या फिर उक्त व्यक्ति को पर्दे के पीछे की घटना की जानकारी का न होने को और भी बुरा मानने लगे।

मेरी उनसे जुलाई, 1993 में इस संबंध में बात हुई तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैंने तो नरसिंह रावजी से कहा था कि रज्जू भैया ने कहा है। अत: वहां कुछ नहीं होगा। रज्जू भैया ने कहा है कि छह हजार स्वयंसेवकों को उस ढांचे की सुरक्षा के लिए लगाया गया है। वहां कोई दुर्घटना नहीं होगी। दरअसल, प्रभाषजी की साख पर ही नरसिंह राव ने यह मान लिया था कि वहां कोई दुर्घटना नहीं होगी। लेकिन जब ढांचा टूटने लगा तब नरसिंह राव ने करीब सात बजे प्रभाषजी को फोन मिलाया। फिर कहा कि “आपने भी धोखा दे दिया। आपकी बात मानकर ही हमने तो कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की थी। आखिर आपने ऐसा बदला क्यों लिया?” यह सुनकर प्रभाषजी भौंचक्के रह गए थे कि प्रधानमंत्री ने मेरे ऊपर इतना भरोसा किया था और मैं उस भरोसे को निभा नहीं सका, क्योंकि जिस संघ पर मैं भरोसा करता था, वही गलत निकला। तो फिर आगे क्या होगा, क्योंकि यह कोई उपकरण हो ही नहीं सकता है। न ही दोबारा इसपर यकीन नहीं किया जा सकता है। मोहभंग होने की यह जो दास्तान है इसमें उनके संवेदनशील और आस्थावान मन की स्थिति हार की जीत कहानी के प्रमुख पात्र बाबा भारती की तरह थी। जुलाई, 1993 की मुलाकात के समय मैं यही महसूस कर रहा था।


पुण्य प्रसून-क्या नरसिंह राव ने प्रभाषजी पर उस वक्त इतना विश्वास किया था कि कोई वैकल्पिक व्यवस्था तक नहीं की थी?
गोविंदाचार्य- जी हां। और उन्होंने किसी दूसरे पर इतना विश्वास नहीं किया था। तब सिर्फ ढांचा ही नहीं ढहा था, बल्कि विश्वास की डोर भी टूटी थी।

पुण्य प्रसून- तो क्या नरसिंह राव उस समय प्रभाषजी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नुमाइंदा मान रहे थे?
गोविंदाचार्य- वे प्रभाषजी को मध्यथ के रूप में देख रहे थे।

पुण्य प्रसून- पर ऐसा लगता है कि उन्हें संघ के काफी करीब मान रहे थे?
गोविंदाचार्य- हां, भरोसे के साथ इतना करीबी मान रहे थे कि उनके जेहन में यह बात थी कि अकेले प्रभाषजी हैं जो देशहित को समझ रहे हैं। संप्रदायों के बीच के तनाव को भी अच्छी तरह महसूस करते हैं। दूसरी तरफ संघ को भी व्यक्तिगत रूप से जानते-पहचानते हैं। नरसिंह राव के मन में भी संघ के प्रति आत्मीयता थी। वे संघ को बचपने से जानते थे। अब इस जन अभियान पर संघ का नियंत्रण नहीं है, वे भी यह मानने की स्थिति में नहीं थे। छह दिसंबर को अचानक सबकुछ इतना उलट-पुलट हो गया कि वहां मंच पर बैठे लोग भी भौंचक्के रह गए थे।हां, मैं यह जरूर मानता हूं कि यदि उस समय महात्मा गांधी होते तो वे घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते। मुझे इस बात का दुख हुआ कि किसी ने घटना की नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली।

पुण्य प्रसून- यह माना जाना चाहिए कि तब प्रभाषजी पत्रकार की भूमिका में नहीं थे।
गोविंदाचार्य- मैं ऐसा मानता हूं कि तब वे केवल पत्रकार नहीं थे। जॉनसन्स आर रेयर्स बट बोस्टन्स आर रेयरर्स। कई बार बहुआयामी व्यक्तित्व का आंकलन सही तरीके से नहीं हो पाता है। इसके कई उदाहरण हैं। प्रभाषजी के साथ भी यही हुआ है। उनके व्यक्तित्व पर जो चीजें हमेशा हावी रहीं वह थी सदासई, संवेदनशील और मित्र भाव। इस मित्र भाव में उम्र आड़े नहीं आई। यह स्वयं मैंने यह महसूस किया है। मुझे याद है 19 अप्रैल, 1992 को जब मैं तमिलनाडु एक्सप्रेस पकड़ने नई दिल्ली जा रहा था तब वे अचानक ही वहां पहुंच गए थे। हमें विदा करने स्टेशन आए। हालांकि, इसकी कोई वजह नहीं थी। वे पूरी गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे और उन्हें ऐसा लगा भी होगा कि मेरे साथ कुछ अन्याय हुआ है। ऐसे में वे दुखी भाव से भरे थे, पर मेरा हौसला बुलंद करने स्टेशन आए थे। दरअसल, सदासई, संवेदनशील और मित्र भाव में ही वे जीते थे। उनके स्वभाव का मूल पिंड मैंने यही पाया।

पुण्य प्रसून- अयोध्या की घटना के बाद प्रभाषजी दोनों समुदायों को मिलाने की कोशिश में जुटे थे। क्या यह माना जाए कि धोखा खाने के बाद एक प्रतिक्रिया थी कि वे मानने लगे थे कि आगे की जिम्मेदारी उनकी ही है?
गोविंदाचार्य- नहीं, इससे उलट था। यह कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। छह दिसंबर की घटना के बाद उन्हें लगा कि सिर्फ कोई ढाचा ही नहीं गिरा है, बल्कि काफी चीजें टूट और गिर चुकी हैं। इसके पहले की प्रक्रिया से वे जुड़े थे। अत: उन्होंने इसे जवाबदेही के रूप में लिया और माना कि इसकी भरपाई होनी चाहिए। उन्हें लगा कि वे गलती कैसे कर गए। उस गलती के परिमार्जन का दायित्वबोध उनमें आया। वह प्रतिक्रिया नहीं थी। यह भी साफ कर दूं कि वहां कटुता प्रतिक्रिया के कारण नहीं थी, बल्कि वह दायित्वबोध की वजह से आई। यह मैंने हमेशा निजी तौर पर महसूस किया है। मैं संघ परिवार से था। वे मुझे संघ परिवार का नुमाइंदा समझते थे, पर उससे क्या। इसके बावजूद निजी तौर पर मैंने उनमें कोई कटुता नई पाई। तब वे अपनी समझ व दृष्टि से एक दायित्ववान और संवेदनशील नागरिक के नाते चल रहे थे। उनको चोट पहुंची और इसी प्रतिक्रिया में वे थे, ऐसा बिल्कुल नहीं था।

पुण्य प्रसून- प्रभाषजी से कई राजनीतिक दल अक्सर सलाह-मशविरा लेते थे। यह कैसे होता था?
गोविंदाचार्य- वही मैं कह रहा हूं कि उनके सदासई, संवेदनशील और मित्र भाव के कारण ही ऐसा होता था। उन्होंने किसी के भी संकुचित हितों को न तो दबाया, न ही आगे बढ़ाया। वे सर्वग्राही व सर्व स्वीकार्य थे, क्योंकि मन के बड़े थे। तभी गांधीवादी हों, सर्वोदयी हों या कोई और सभी उनके पास आते थे।

पुण्य प्रसून- मन का बढ़ा होने का क्या अर्थ लगाय जाए? एक तरफ वे सरकार की नई अर्थनीति का विरोध कर रहे थे। दूसरी तरफ उन्होंने मृत्यु से कुछ समय पहले ही मुझसे एक निजी बातचीत में कहा कि कांग्रेस के कुछ लोग आए थे जो यह पूछ रहे थे कि भाजपा जिस तरीके से समाज क भीतर हिन्दुत्व की बात कर रही है, उसका प्रति उत्तर कैसे दिया जाए। यही नहीं एक बार मैंने उनसे आपके बारे में मुखौटा प्रकरण पर पूछा था कि क्या बात इतनी भर ही है तो उन्होंने कहा कि नहीं। उन्होंने एक संदर्भ दिया कहा कि जब सरकार बनाने की बात आई तो वाजपेयी और आडवाणी ने स्वयं ही निर्णय ले लिया था। पार्टी के अंदर उसपर कोई विचार नहीं किया गया था। यहां हमारा सवाल है कि वह कांग्रेस हो या भाजपा वे हर तरफ विचरण कर रहे थे। तो ऐसे व्यक्ति को केवल मन का बढ़ा मानेंगे। सादासई मानेंगे। मित्र भर मानेंगे या फिर एक राजनीतिक कार्यकर्ता मानेंगे?
गोविंदाचार्य- गांधीजी के साथ प्रभाषजी का मन का जो सानिध्य था वह मूल पिंड सरीखा था। गाधी जी मूल रूप से राष्ट्र निर्माता थे और दुर्धटनावश राजनेता। मतलब यह कि राजनीति से परहेज नहीं, जरूरत आई तो राष्ट्र निर्माण के लिए उसका इस्तेमाल। यही प्रभाषजी का भी कलेवर था। अच्छे सदासई, संवेदनशील इंसान उनका पिंड था और राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य कलेवर था। इसलिए इसी अधिष्ठान पर खड़े होकर वे चलते थे। जिसे विनोबाजी ने बाद में निष्पक्ष-निर्भय कहा। वही बातें प्रभाषजी के जीवन में दिखलाई देती हैं। बिंदास भी थे, फक्कड़ थे। न उधो का देना, न माधो का लेना। यह सब करते हुए लोक-जीवन का जो व्यवहार था, उस व्यवहार में वे गांधी आदर्श अधिष्ठान पर खड़े थे। दोहरा इंसान तो गांधी के चरित्र को जीना नहीं चाहेगा। आप देखेंगे कि कई लोग दूर से काफी बड़े दिखते हैं, जबकि नजदीक आने पर छोटे दिखाई देते हैं। वहीं कई लोग दूर से छोटे जरूर दिखते हैं लेकिन धीरे-धीरे नजदीक आने पर बड़े दिखाई देते हैं। प्रभाष जोशी जी और विद्यार्थी परिषद के यशवंतराव केलकर को मैंने अपने जीवन में ऐसा ही पाया। ज्यों-ज्यों वे करीब पहुंचे, व्यक्तित्व उतना ही बड़ा होता नजर आया। आप रामबहादुर जी से बात करेंगे तो उनके विचार भी यही पाएंगे। ये दोनों गृहस्त थे। अच्छे पति, अच्छे पिता, अच्छे पत्रकार, अच्छे सामाजिक कार्यकर्ता और सबसे बढ़कर अच्छे आदमी थे।


पुण्य प्रसून- जिस राजनीतिक परिस्थितियों को प्रभाषजी ने अपने पत्रकारीय दौर में देखा और फिर नई आर्थिक नीतियों का दौर आया तो परिस्थितियां तेजी से बदलीं। क्या इस दौर में पत्रकारिता कमजोर हुई और राजनीतिक हालात भी बदल गए? या फिर वैचारिक शून्यता का दौर आ गया। आखिर वह कौन सी वजह थी कि प्रभाषजी अपने अंतिम दिनों राजनीति से ज्यादा पत्रकारिता के अंदर ही पेड-न्यूज की लड़ाई लड़ने को मजबूर हुए थे?
गोविंदाचार्य-हां, यह उन्होंने किया है। क्योंकि, मुश्किलें इतनी बढ़ गईं कि अपने-अपने मोर्चे को संभालने की बात हुई। अब जो लड़ाई शुरू हुई है, दरअसल वह नए किस्म की लड़ाई है। अंग्रेज तो दिखते थे। आज हम जिनसे लड़ रहे हैं, वे दिखलाई नहीं दे रहे हैं। वे छुपे हुए हैं और अपने ही लोग उसकी तरफदारी करते दिखते हैं। राजनीतिक पार्टियां इसमें अपवाद नहीं हैं। उनका हर जगह दोहरा चरित्र उजागर हो रहा है। आप भाजपा का ही उदाहण ले लीजिए। नागपुर में पानी का निजीकरण कर दिया गया। भाजपा वहां विरोध नहीं कर रही है, दिल्ली में विरोध करने की बात कह रही है। सेज का गुजरात में विरोध नहीं कर रही है। ऐसे कई उदाहरण हैं। वह सभी पार्टियों के साथ है।

मैं समझता हूं कि आज विकेंद्रीकृत लड़ाई का समय आ गया है, जिस नाजुक दौर से लोकतंत्र गुजर रहा है, उसे प्रभाषजी समझ रहे थे। अत:  प्रभाषजी भी मानते थे कि इन मुश्किलों से निपटने के लिए नया ढांचा, नया तरीका, नए औजार व नए लड़ाके चाहिए। अब कन्वेंसनल टूल्स से काम नहीं चलने वाला है। ऐसी परिस्थिति में ही उन्होंने पेड-न्यूज के खिलाफ मोर्चा संभाला था। जो जिस क्षेत्र से जुड़े हैं, वे वहां लड़ाई लड़ रहे हैं।

पुण्य प्रसून-आज मुश्किलें जो सामने हैं, उसमें गड़बड़ी कहां है? लोकतंत्र का कौन सा स्तंभ खत्म होने की कगार पर है?
गोविंदाचार्य- अब कुएं में ही भांग पड़ा हो तो वह बाल्टी में भी मिलेगा और लोटे में भी। प्रश्न यह है कि उससे निपटा कैसे जाए। ऐसे में जो समझ यह बन पाई है उसके अनुसार सत्ता शीर्ष को ठीक करने के लिए कुछ कोशिशें अंदर से यानी सत्ता और दल के भीतर करनी होंगे। और कुछ बाहर से, ताकि राजनीति को नियंत्रित किया जा सके। जनसंगठनों के माध्यम से विषयों को उठाया जाए और ऐसी स्थिति पैदा की जाए कि राजनीति पर उसका प्रभाव पड़े। इसमें दोनों पक्ष को मजबूत होना होगा, क्योंकि दोनों को बराबर की महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। यह लड़ाई कई मोर्चों पर लड़नी होगी। रणनीतिक तौर पर मैं इसे आवश्यक मानता हूं। प्रभाषजी एक मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहे थे। पर आज स्थिति यह है कि मैदान पर उतरे सभी 22 फुटबॉल खिलाड़ी एक ही गोल पोस्ट में गोल दागने में लगे हैं तो अब दर्शक दीर्घा से ही खिलाड़ियों को चुनना होगा। यही वक्त का तकाजा है। आज देश को अराजकता के खतरे से बचाने के लिए सही, मजबूत और संवेदनशील विपक्ष की जरूरत है। इस लड़ाई के लिए नए लड़ाके और औजार की जरूरत पड़ेगी, उसे भी मांजना होगा।

पुण्य प्रसून- यह पूरी प्रक्रिया बताती है कि सामने एक दृष्टि होनी चाहिए कि देश को किस तरफ ले जाना है। फिलहाल यह कहीं दिख ही नहीं रहा है।
गोविंदाचार्य- बाहर से होगा। मैं देखता हूं कि भाजपा सहित किसी भी पार्टी में नीचे के लोग देश के लिए एक सपना पाले हुए हैं, पर ऊपर के लोग खुद के बारे में नक्शा बनाते दिखते हैं। मेरा कहना है कि नीचे के लोगों की अपील भी काम आ जाए और बाहर से जो विषय उठाए जा रहे हैं उस पर भी विचार हो। जैसे गंगा का विषय है। आप यदि इस मसले को उठाएंगे तो कृषि नीति, सिंचाई नीति, पर्यावरण और स्वास्थ्य नीति सब की बात उठानी होगी। इन सभी मसलों पर विचार करने होंगे।

पुण्य प्रसून- यह तो ठीक है, लेकिन देश को जाना कहां है?
गोविंदाचार्य- भारत को भारत बनाने की जरूरत है। अमेरिका, रूस, चीन या अब ब्राजील नहीं। भारत, भारत के नाते से अभी भी बचा हुआ है। इसकी जो अपनी शक्ति है वहीं इसे बचाए हुए है। इसलिए मैं मानता हूं धर्म सत्ता समाज सत्ता है, वह संस्कृति का ध्यान रखे। जीवन शक्ति, जीवन मूल्य व आदर्श का ध्यान रखे। राजसत्ता और अर्थ सत्ता यह अर्थ नीति और राजनीति का ध्यान रखे। इससे एक संतुलन बना रहेगा और समृद्धि भी होगी। यह भारतीय समाज की अपनी महत्ता है जिसने संबंधों पर आधारित समाज की रचना की है। इसने कॉन्ट्रक्ट पर आधारित समाज की रचना नहीं की है। भविष्य के लिए यह जरूरी है। मानव केंद्रित विकास की जगह प्रकृति केंद्रित विकास की तरफ दुनिया को लौटना होगा। भारत का यही मूल स्वभाव है तो हमें अपने मूल को संभाले रखना होगा ताकि भविष्य में हम दुनिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।
ऐसे में हम पाते हैं कि एक लाइट हाउस की तरह महात्मा गांधी हमारे सामने हैं। उनसे पूर्ण हमें कोई दूसरा नजर नहीं आता है। गांधीजी की तरह रचनात्मक और आंदोलनात्म कामों का समन्वय रखने वाला कहीं और दिखाई नहीं देता है। जीवन और व्यवस्था का जो समन्वय हम गांधीजी में देखते हैं वह कहीं और नहीं है।

पुण्य प्रसून- आप भी गांधी का नाम लेते हैं। कांग्रेस भी लेती है। इसमें फर्क क्या है?
गोविंदाचार्य-वहां निर्णय प्रक्रिया की स्थिति में गांधीजी कहीं नहीं दिखते हैं। हां कांग्रेस में ऐसे लोग होंगे जिन्हें गांधीजी की विरासत में अच्छा स्वाद आता होगा। यह मैं मानता हूं। लेकिन कांग्रेस या फिर भाजपा की निर्णय प्रक्रिया में ऐसी स्थिति नहीं है। दोनों ही बाजारवाद के साथ हैं।

पुण्य प्रसून- भाजपा यदि कल को नारा लगा दे कि गांधीजी का रास्ता ही देश का और हमारा रास्ता है तो क्या कोई संयोग बन सकता है?
गोविंदाचार्य- नारों से कैसे होगा। बात तो नीतियों पर होगी। अगर वे इसपर राजी हो जाते हैं तो देश का भला होगा। लेकिन मैं समझता हूं कि आज उनके लिए गांधीजी को नीतियों में उतारने के लिए शायद काफी कुछ चुकान और छोड़ना पड़ेगा। इस स्थिति में दोनों पार्टियां नहीं हैं।

पुण्य प्रसून- हम प्रभाषजी के घर जाते थे तो वहां गांधी की एक बड़ी तस्वीर लगी थी। आप भी गांधी का सवाल खड़ा करते हैं। कांग्रेस भी गांधी का नाम लेती है। तो हमें यह बताएं कि अगर गांधी की इतनी मान्यता है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इन चीजों को आत्मसात करे। पर उसने ऐसा नहीं किया है।
गोविंदाचार्य- ऐसा नहीं है। मुझे याद है कि 1964 में संघ के प्रात: काल के स्मरण में गांधीजी का नाम आया था। इस नाम को जोड़ा गया था। गुरुजी ने जोर देर गांधीजी के नाम को इसमें जुड़वाया था। तब से प्रात: स्मरण में गांधीजी का नाम अन्य दूसरे महापुरुषों से साथ लिया जाता है। लेकिन हां, इसे और गहरे तरीके से आत्मसात करने की जरूरत है। केवल नाम से तो बात नहीं बनेगी। जैसे- राम से बड़ा, राम का नाम। फिर राम के नाम से बड़ा राम का काम। यहां राम का काम भी करना होगा, तभी राम के दर्शन होंगे।

पुण्य प्रसून-आप इस दौर में ऐसा पत्रकार देखते हैं, जिसे राज्य का प्रमुख किसी आंदोलन की स्थिति में मध्यस्थता के लिए उसकी तरफ देख सकता है, जैसा कि अयोध्या आंदोलन के दौरान नरसिंह राव ने प्रभाषजी को चुना था। आज की स्थिति है कि राज्य पत्रकारों पर यकीन करेगा? या फिर क्या कोई आंदोलन की स्थित देश में है?
गोविंदाचार्य-मुझे लगता है कि आंदोलन तो जरूर होगा। हां, आंदोलन के जन्म लेने और उसकी विश्वसनीयता के पुख्ता होने के बाद राज्य को होश आएगा। फिर उन्हें इन सब की उपयोगिता महसूस होगी। आज ऐसे बहुत से लोग हैं जैसे अनुपम मिश्र हो, बनवारी जी हो, रामबहादुर हो ऐसे और भी लोग हैं। दक्षिण भारत में भी लोग हैं। उस समय इन सब की उपयोगिता राज्य महसूस करेगा।

आज आप कोई भी मुद्दा उठाएं, उसकी मार दूर तक जाएगी। पेड-न्यूज का मसला उठा तो बात दूर तक गई। गंगा का मुद्दा उठा तो उसका गहरा असर हुआ। आप कहीं से भी मुद्दे को उठाएंगे तो वह व्यवस्था परिवर्तन पर जाकर ही टिकेगी। पत्रकार बंधु यदि पेड-न्यूज की बात को आगे बढ़ाएंगे तो उससे भी आंदोलन के खड़े होने की पूरी संभावना है। प्रॉन्जय ठाकुरता सरीखे लोग इसमें जुटे हैं। मैंने पंचायतों को बजट का सात प्रतिशत हिस्सा देने की बात उठाई है। उसके पीछे उस इकाई को मजबूत करना है, जिससे गांव मजबूत हो सके।

पुण्य प्रसून- नई अर्थ व्यवस्था ने जिस संस्था को लेजिटिमेसी दे दी है उसके खिलाफ आप आंदोलन की बात कह रहे हैं। राज्य कहां से आपको अनुमति दे सकता है।
गोविंदाचार्य- इसलिए तो जन दबाव और जन संघर्ष की जरूरत पड़ेगी। दरअसल, राज्य की रचना ही इसलिए हुई थी कि वह उनका बचाव कर सके जो खुद का बचाव नहीं कर सकते। आज इससे उलट स्थिति है। हैसियत मंदों का बचाव किया जा रहा है। ऐसे में लड़ाई तो होगी और इसमें जो भी गांधीजी के सिद्धांत के आधार पर चलेंगे वे सही होंगे। यहां सही होना ज्यादा महत्वपूर्ण है, विजयी होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है।

पुण्य प्रसून- आप किस रास्ते हैं। संघ के रास्ते या गांधीजी के रास्ते?
गोविंदाचार्य- मैं दोनों रास्ते को एक मानता हूं। मेरा मानना है कि संघ के स्वयंसेवक होने के कारण जो मुझमें निस्वार्थता, देशभक्ति का संस्कार मिला और वही बात 1974 के आंदोलन में पहले सर्वोदय का विचार, बाद में समाजवाद से सर्वोदय की ओर जेपी की पुस्तक, फिर धीरेंद्र मजुमदार और तब महात्मा गांधी। यही मेरी वैचारिक यात्रा रही है। यहां अंतर केवल दो विषयों को लेकर था। एक हिंसा और अहिंसा के विषय को लेकर। दूसरा अल्पसंख्यों में मुसलमान समुदाय के प्रति समझ को लेकर। इन दो बातों को छोड़ दें तो राष्ट्रीय पुनर्निर्माण लेकर जो धारा गांधीजी की रही, वही देश की धारा है। इसलिए वही संघ की भी धारा है। इन दोनों बातों के बारे में संवाद बहुत जरूरी था। वह नहीं हुआ।

Wednesday, July 11, 2012

"टाइम" ने किसको आईना दिखाया


टाइम पत्रिका ने मनमोहन सिंह को फेल कर दिया और नरेन्द्र मोदी को पास। बतौर इक्नामिस्ट मनमोहन सिंह को फेल उस वक्त किया, जब प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्रालय छोड़ रायसिना हिल्स की दौड़ में जाड़े हुए और मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री अपना हुनर दिखाना शुरु किया। जबकि महज सोलह हफ्ते पहले ही नरेन्द्र मोदी को टाइम पत्रिका ने यह संकेत देते हुये पास किया कि जिस इक्नामी की जरुरत भारत को इस वक्त है, वह गुजरात के जरिये मोदी लगातार दे रहे है। तो क्या यह माना जा सकता है कि अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह पर हिन्दुत्व के सामाजिक प्रयोगशास्त्री नरेन्द्र मोदी भारी पर गये? अगर मोदी और मनमोहन को लेकर अर्थशास्त्र की कोई सामानांतर रेखा खिंचे तो दोनो में एक ही समानता खुले तौर पर सामने आती है। और वह है क्रोनी कैपटिलिज्म या कारपोरेट। मनमोहन सिंह ने चाहे क्रोनी कैपटिलिज्म का विरोध अपने भाषणो में किया और नरेन्द्र मोदी ने चाहे खुले तौर पर कारपोरेट की सत्ता से खुद की सत्ता को जोड़ा, लेकिन विकास के नाम पर जिन आर्थिक नीतियों को दोनों ने लागू किया वह पूरी तरह कारपोरेट के आसरे गवर्नेंस को खड़ा करना ही रहा।

मोदी हर बरस वाइब्रेंट गुजरात के जरिये कारपोरेट घरानों को जोड़ने का दायरा बढ़ाते चले गये और मनमोहन सिंह आर्थिक सुधार को अमल में लाने और पूंजी निवेश के लिये कारपोरेट के सामने नतमस्तक होते चले गये। क्योंकि 2004 ही वह साल जब केन्द्र में आरएसएस की वाजपेयी सरकार हारती है और नरेन्द्र मोदी को समझ में आता है कि अब उन्हे हिन्दुत्व की नहीं गवर्नेन्स की जरुरत है। क्योंकि दिल्ली में अब स्वयंसेवक वाजपेयी-आडवाणी नहीं, बल्कि विश्व बैंक और अमेरिकी हितों के आधार पर चलने वाले मनमोहन सिंह हैं। मनमोहन सिंह भी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली विदेश यात्रा अमेरिका की ही करते हैं और पहले पांच बरस में पुराने सारे रिकार्ड तोड़ते हुए 12 बार अमेरिका की यात्रा करते हैं।

संयोग से इसी पांच बरस में आधे दर्जन बार मोदी को अमेरिका जाने का वीजा दिये जाने से इंकार होता है और 2004 से पहले के गुजरात के दाग को ही मोदी की पहचान से उसी तरह जोड़ा जाता है, जैसे प्रधानमंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह को विश्व बैंक के अधिकारी के तौर पर देखा जाता था। और प्रधानमंत्री बनने के बाद यही पहचान दाग के साथ राजनीतिक बहस का हिस्सा बन जाती है। नरेन्द्र मोदी लगातार अमेरिकी नीति में खारिज होते है और मनमोहन सिंह लगातार राजनीतिक तौर पर अमेरिकी पिठ्ठू बनकर उभरते हैं। लेकिन 2009 के बाद जैसे ही राडिया टेप सामने आते हैं, मनमोहन सिंह के चकाचौंध का आर्थिक ढांचा भरभरा कर इसलिये गिरता है क्योंकि निशाने पर वही क्रोनी कैपटिलिज्म आता है जो एक वक्त मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल की रिपोर्ट कार्ड को ‘ए प्लस दिलाता’ रहा। और तमाम मंत्री पीएमओ को यह बताने में अपनी सफलता मानते रहे कि फंला कारपोरेट के जरिये फंला परियोजना का अमलीकरण शुरु हो गया है या फिर फंला कारपोरेट फंला परियोजना में निवेश करेग। यानी मंत्रियो के ताल्लुक कारपोरेट से और कारपोरेट की नजर भारत की उस जमीनी योजनाओं पर जहाँ से ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा बटोरा जा सके।

कारपोरेट की यह पहल किसी प्रतिक्रियावादी फंडामेंटलिस्ट की तरह रही, जहाँ विकास को लेकर पूर्ण सहमति पूंजी निवेश और मुनाफे पर चले। यह असफल होगा तो इसके असर क्या हो सकते हैं इसपर कभी कारपोरेट ने सरकार को सोचने नहीं दिया और सरकार ने सोचा नहीं। असल में मनमोहन सरकार के गवर्नेंस का मतलब ही मैनेजेरियल तौर तरीके रह गये। चूंकि मंत्रियो के समूह से लेकर नौकरशाही तक में कारपोरेट के लिये मैनेजेरियल हुनर को दिखना ही महत्वपूर्ण माना जाने लगा तो मनमोहन सफल कैसे और किस फ्रंट पर होते। वहीं नरेन्द्र मोदी इसलिये सफल माने जाने लगे क्योकि सिंगल विंडो निर्णय लिये जा रहे थे। मोदी ने कारपोरेट को आसरा दिया। कारपोरेट के कंधे पर सवार हुये। कारपोरेट के जरिये गुजरात को वाइब्रेंट बनाया। तो ताल्लुक, हुनर और निर्णय सीधे अपने पास रखे । यानी मोदी ने खुद को क्रोनी कैपटिलिज्म में बदल दिया । वहा मंत्रियो का समूह या नौकरशाही का काम सिर्फ मोदी के निर्देश को लागू कराना है । मंत्री या बाबू अपने हुनर से कारपोरेट के जरीये मोदी के सामने वैसे कद बढाने की सोच भी नहीं सकता जैसा मनमोहन सरकार के भीतर मंत्री और नौकरशाह करते रहे । मोदी को इसका लाभ मिला और मनमोहन सिंह के लिये यह घाटे का सौदा बनता चला गया । कारपोरेट के लिये मोदी ब्ल्यू आईड ब्याय हो गये तो मनमोहन फेल गवर्नेन्स के प्रतिक बन गये । चूकि गुजरात में नरेन्द्र मोदी ही हर संस्थान बने हुये है तो वहा संस्थानो की भूमिका भी मोदी की कारपोरेट वाहवाही में ढक गयी । लेकिन मनमोहन सिंह की मुश्किल यह रही कि गवर्नेस का मतलब उनके लिये लोकतंत्र के दूसरे स्तम्भो की भूमिका को भी जगह देना था । इसलिये सीएजी से लेकर सीएसी और सुप्रिम कोर्ट से लेकर गठबंधन के सहयोगियो ने ही उन्हे घेरा । अगर 2009 के बाद की परिस्थियो को याद करें तो आईपीएल से लेकर कामनवेल्थ और 2 जी स्पेक्ट्रम से लेकर कोयलागेट ।

कटघरे में मनमोहन सरकार ही खडी हुई । और उसके छिंटे कही ना कही उन संस्थानो पर भी पडे जिनकी भूमिका लोकतंत्र के लिहाज से चैक एंड बैलेस बनाने वाली होनी चाहिये थी । पूर्व चीफ जस्टिस बालाकृष्णन से लेकर सेना के पूर्व चीफ तक के नाम घोटालो से जुडे । राडिया टेप ने तो दिग्गज मिडिया घरानो के दिग्गज पत्रकारो को कटघरे में खडा कर दिया । संसद के भीतर हवा में लहराये नोटो के पीछे का खेल जो स्टिग आपरेशन के जरीये कैमरे में कैद हुआ उसे भी उसी सार्वजनिक नहीं किया गया । जबकि इस दौर में लगातार विपक्ष सरकार पर हमले भी करते रहा और सौदेबाजी से मुंह भी नहीं मोडा । सीपीएम ने मनमोहन सरकार को गिराना चाहा तो मुलायम-अमर की जोडी ने बचा लिया । भाजपा ने नोट के बदले वोट का खेल बताना चाहा तो संसदीय व्यवस्था ने सत्ता की व्यवस्था का खेल दिखलाकर व्हीसिल ब्लोअर को ही कटघरे में खडा कर दिया । इस पूरी प्रक्रिया में ऐसा क्या है जिसे टाईम पत्रिका ने समझा लेकिन भारत की मिडिया ने नहीं समझा । अगर बारिकी से हर परिस्थिति को देखे तो सत्ता के साथ मिडिया की जुगलबंदी का खेल पहली बार टाईम पत्रिका ही सामने लाती है । क्योकि मनमोहन सिंह को लेकर लगातार मिडिया की भूमिका एक ईमानदार प्रधानमंत्री वाली ही रखी गई ।

आर्थिक सुधार के जरीये दुनिया की बिगडी अर्थव्यवस्था के बीच भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर ही मनमोहन सिंह की छवि रखी गई । सवाल मंहगाई से लेकर भ्रष्ट्रचार और कालेधन को लेकर संसद से सडक तक कोई भी सवाल कही से भी उठे लेकिन इस दौर में पहली बार प्रभावी मिडिया घरानो ने संकेत यही दिये की चुनी हुई सरकार की लिजेटमसी पर अंगुली उठाना सही नहीं है । आलम यहा तक रहा है कालेधन पर नकेल कसने के लिये सुप्रिम कोर्ट ने सरकार की टास्कफोर्स के उपर अपने दो जजो को बैठाने की बात कही और दुनिया की रेटिंग कंपनियो ने भारत को नेगेटिव दिया लेकिन सरकार के नजरिये को ही प्रथमिकता मिली । और पूरे दौर में अक्सर यह सवाल उछलता रहा कि सरकार अगर पटरी से उतरी हुई है तो विपक्ष है ही नहीं । यानी शून्य विपक्ष के होने से मनमोहन सरकार कैसे भी काम करती रहे वह इसलिये मंजूर है क्योकि राजनीतिक तौर पर वह सत्ता में तो है । जाहिर है बडा सवाल यही उठता है कि क्या टाईम पत्रिका ने भारतीय मिडिया को आईना दिखाया है ।

क्या मनमोहन इक्नामिक्स ने मिडिया को भी उसी जमीन पर ला खडा किया है जहा सरकार की तर्ज पर सत्ता होने का सुकुन ही सबकुछ हो चला है । या फिर विपक्षहीन राजनीति की बात कहते कहते अंग्रेजी मिडिया इस भ्रम में गोते लगाने लगा है कि उसके मिडिया के भीतर भी विक्लप या विरोध की क्षमता खत्म हो चली है । और इसीलिये इस दौर में कारपोरेट ने मिडिया में भी अपनी साझीदारी शुरु कर दी है । यानी जिस कारपोरेट ने मोदी से लेकर मनमोहन को घेरा अब वह सहमति बनाने के लिये मिडिया को भी घेर रहा है । यह सवाल टाईम पत्रिका के कवर पेज पर अवसर खोने वाले मनमोहन सिंह या अवसर पाने वाले मोदी से कही ज्यादा बडा इसलिये है क्योकि मिडिया की धार अगर कारपोरेट के आसरे सत्ता के लिये म्यान बनने पर उतारु है तो फिर संकट मनमोहन सिंह के ननएचीवर होने का नहीं बल्कि भारतीय मिडिया के ननएचीवर होने का है । यानी मनमोहन सरकार को सफल होने के लिये विदेशी पूंजी निवेश चाहिये तो सरकार की इस गुलामी को समझने के लिये आम पाठक को टाईम सरीखी पत्रकारिता चाहिये । है ना कमाल । 

Friday, July 6, 2012

प्रणव में ऐसा क्या है ?

हालांकि यह तय है कि देश के अगले राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी होगें । लेकिन प्रणव मुखर्जी में ऐसा क्या है जिसने राष्ट्रपति पद के लिये प्रणव मुखर्जी का नाम पर यूपीए में दरार डाल दी । वामपंथियो के बीच लकीर खिंच दी । एनडीए में घमासान मचा दिया । राजनीति में छत्तिस का आंकडा रखने वाले बाला साहेब ठाकरे- नीतिश कुमार और मायावती-मुलायम प्रणव मुखर्जी के पीछे एकसाथ खडे हो गये  । फिर इससे पहले देश के किसी वित्त मंत्री ने कभी राषट्पति बनने की नहीं सोची ।  लेकिन प्रणव ने राष्ट्रपति बनने को लेकर हर बार खुशी जाहिर की । वित्त मंत्री का पद राजनीति के लिहाज से प्रधानमंत्री के बाद का सियासी पद हमेशा माना गया । इसलिये जवाहरलाल नेहरु, मोरारजी देसाई, इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह , राजीव गांधी और मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री है जो वित्त मंत्री भी रहे । लेकिन कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि राष्ट्रपति बनकर कद्दावर नेता की पहचान बनायी जाये ।

यहा तक की मनमोहन सिंह का नाम राष्टपति के पद के लिये जैसे ही ममता बनर्जी ने लिया काग्रेस हत्थे से उखड गई । और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो कुछ बोल भी नहीं पाये । क्योकि अब के दौर में किसी इक्नामिस्ट प्रधानमंत्री को रायसीना हिल्स भेजने की बात कहने का मतलब है कि वह शख्स वित्त मंत्री, प्रधानमंत्री या राजनीति के लायक भी नहीं है । तो फिर प्रणव मुखर्जी ही क्यो और उनके पीछे खडी नेताओ की फौज क्यो । जाहिर है इस सवाल क जबाव सीधा हो नहीं सकता है जहा यह कह दिया जाये कि प्रणव मुखर्जी ने 42 बरस की सियासत में जो कमाया उसी का पुण्य है कि हर कोई उन्हे समर्थन दे रहा है । असल में प्रणव मुखर्जी बनने और होने का सच इतना सरल नहीं है । इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और खुद को काग्रेस के भीतर सबसे उम्दा मानते थे यह किसी से छुपा नहीं है । और इसी का खामियाजा उन्हे राजीव गांधी दौर में भुगतना पडा । जब राजीव गांधी की कैबिनेट में भी उन्हे जगह नहीं मिली । लेकिन प्रणव मुखर्जी को समझने के लिये और पहले की परिस्थितियो को देखना होगा । 1980 में जब जनता प्रयोग पूरी तरह फेल मान लिया गया और इंदिरा गांधी चुनाव जीती तो जीत की रैली में इंदिरा गांधी के साथ धीरुभाई अंबानी भी थे । और अंबानी को वहा तक और किसी ने नहीं इंदिरा गांधी के करीबी आर के धवन और प्रणव मुखर्जी ने ही पहुंचया था । दोनो नेताओ के साथ धीरुभाई अंबानी के संबंध अच्छे थे और धंधा बढाते धीरुभाई ने उसी वक्त राजनीति को लेकर मुहावरा गढा कि राजनीतिक सत्ता समुद्र की तरह है जिसपर जितना चढावा चढाओगे उससे दुगुना वह वापस कर देगी । वजह भी यही है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अलग थलग पडे धीरुभाई अलग-थलग पडे । और इसी दौर में प्रणव मुखर्जी ने ही धीरुभाई अंबानी की बैठक राजीव गांधी के साथ दो मिनट का वक्त लेकर की । अब के संदर्भ में इस अतीत को टटोलने का मतलब क्या है , यह सवाल उठ सकता है । लेकिन मौका चूकि प्रणव मुखर्जी के ही इर्द-गिर्द है । तो समझना होगा कि इस दौर में प्रणव मुखर्जी का अंबानी के साथ निकट संबंधो का असर किस हद तक सरकार पर है । और वह दल जो राजनीतिक लाइन छोडकर आज प्रणव के पीछे आ खडे हुये है उनपर भी है ।

1991 में आर्थिक सुधार का रास्ता अपनाने के बाद सही मायने में मनमोहन सिंह ही वह शख्स है जिन्होने भारतीय अर्थव्यवस्था की उदारवादी लीक  खिंची । अगर वाजपेयी सरकार के दौर में वित्त मंत्री रहे यशंवत सिन्हा और जसंवत सिंह के कार्यकाल को भी परखे तो भाजपा के संघी तेवर यानी स्वदेशी के राग से अलग मनमोहन की थ्योरी को ही ट्रैक - 2 कहकर अपनाया गया । इसके अलावा 1991 से 2009 तक मनमोहन सिंह और चिदबरंम की जोडी ही वित्त मंत्रालय को संबालती रही । लेकिन 2009 से 2012 यानी 26 जून तक प्रणव मुखर्जी के हाथ में वित्त मंत्रालय रहा । संयोग से इसी दौर में सरकार की किरकिरी अर्थव्यवस्थ को ना संबाल पाने को लेकर हुई । मंहगाई, भ्रष्ट्रचार, कालाधन, नेगेटिव रेटिंग, रुपये का अवनूल्यन, विकास दर में कमी, मुद्रास्फिति में तेजी सबकुछ उसी दौर में हुआ । सीधे कहे तो सरकार की साख दांव पर पहली बार यूपीए-2 के दौर में उसी वक्त लगी जब प्रणव मुखर्जी वित्त रहे । तो क्या यह कहा जा सकता है कि जिस रास्ते मनमोहन सिंह चलना चाहते थे प्रणव मुखर्जी के राजनीतिक अर्थशास्त्र ने उसमें मुशकिले पैदा की । चाहे चिदबरंम से प्रणव का खुला झगडा हो । या फिर ममता को साधने का प्रणव का बंगाली तरीका । या आर्थिक सुधार के रास्ते संसद के भीतर ही सहमति-असहमति के बीच प्रणव मुखर्जी का ही लगातार खडे रहना । हो सकता है इन परिस्तितियो में  मनमोहन सिंह किसी भी तरह प्रणव मुखर्जी से निजात चाहते होगें ।

लेकिन इसी दौर में मुकेश और अनिल अंबानी के झगडे और सुलह । गैस को लेकर रिलांयस [मुकेश अंबानी] को कठघरे में खडे किये जाने के बावजूद प्रणव मुखर्जी का अंबानी बंधुओ पर पितातुल्य माव उडेलना । और खुले तौर पर बतौर वित्त मंत्री यह कहना कि वह मुकेश-अनिल को बच्चे से जानते है । यह संकेत सियासत के लिये क्या मायने रखते है यह प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने की दिशा में बढेते कदम से अब समझा जा सकता है । बालासाहेब ठाकरे ने एनडीए की लाइन छोड प्रणव मुखर्जी के पक्ष फैसला देने में देर नहीं लगायी । यह जल्दबाजी प्रणव मुखर्जी के राजनीतिक कद की नहीं बल्कि बालासाहेब ठाकरे के नरीमन प्वांइट में धीरुभाई अंबानी के साथ गुजारे दिनो की यारी का नतीजा था । अस्सी के शुरुआती दशक में धीरुभाई अंबानी बालासाहेब के दरवाजे पर तब गये जब शिवसेना राजनीतिक वसूली के जरीये गुजराती उघोगपतियो को डराती थी । जब अंबानी ने ठाकरे के साथ बैठना शुरु किया तो कई मौके ऐसे आये जब प्रणव मुखर्जी , धीरुभाई और ठाकरे एक साथ बैठे । असल में राजीव गांधी की कैबिनेट में जगह ना मिलने के बाद प्रणव मुखर्जी ने शरद पवार की तर्ज पर राष्ट्रीय समाजवादी काग्रेस भी बनायी । शरद पवार उस वक्त महाराष्ट्र में सोशलिस्ट काग्रेस [इंडियन काग्रेस सोशलिस्ट ] बनाकर विपक्ष में बैठे हुये थे । पवार राजनीतिक तिकडम जानते थे तो मगाराष्ट्र में उनकी पैठ के आगे 1989 में राजीव गांधी को झुकना पडा । और पवार की काग्रेस में वापसी पवार की शर्तो पर हुई । लेकिन प्रणव मुखर्जी राजनीतिक तिकडम से वाकिफ नहीं थे तो उनकी पार्टी का विलय काग्रेस में 1989 में हुआ । और राजीव गांधी ने अपनी शर्तो पर प्रणव मुखर्जी की वापसी काग्रेस में  करायी ।

लेकिन महत्वपूर्ण है कि इस दौर में धीरुभाई अंबानी ही शरद पवार के पीछे खडे थे और प्रणव मुखर्जी को भी खुला सहयोग दे रहे थे । उसी दौर में यह जुमला भी चल पडा था कि देश में सबसे लोकप्रिय पार्टी रिलांयस पार्टी आफ इंडिया है । जिसके साथ खडे राजनीतिक दलो को आर-पोजेटिव ग्रूप माना गाया । तो विरोध करने वाले गुट को आर-नेगेटिव सेक्शन कहा गया । राजनीति की इस धारा को धीरुभाई के बाद मुकेश अंबानी ने ना सिर्फ जिलाये रखा बल्कि उसका विस्तार भी किया । जेडीयू के रास्यसभा सदस्य एन के सिंह नय दौर में राजनीतिक रुप से रिलांयस के करीब हुये । इससे पहले वित्त मंत्रालय में बतौर नौकरशाह वह अंबानी के राजनीतिक विस्तार से फैलते धंधो को देख ही रहे थे . लेकिन रिटायमेंट के बाद नीतिश कुमार के लिये प्वाइंट पर्सन के तौर पर एन के सिंह दिल्ली की राजनीति में मौजूद है ।

संयोग से बिहार में नीतिश की लोकप्रियता और एनडीए के भीतर नेता की शून्यता ने नीतिश का कद राष्ट्रिय तौर पर स्थापित किया है । खासकर नरेन्द्र मोदी की राजनीति को साधने के लिये नीतिश जिस तेजी से निकले है और काग्रेस के भीतर से भी नीतिश की बढाई खुले तौर पर होने लगी है इससे नीतिश में अब पीएम मेटल भी देखा जाने लगा है । और  एन के सिंह दिल्ली में असल में  नीतिश कुमार के लिये वही बिसात बिछा रहे है जहा जरुरत पडने पर रिलायंस पार्टी आफ इंडिया साथ खडे हो जाये ।मुश्किल यह है कि राजनीतिक घमासान के इस दौर में मुलायम सिंह यादव की रीजनीतिक बिसात भी यही मान रही है कि अगर 2014 में यूपी में 50 से ज्यादा लोकसभा की सीट समाजवादी पार्टी जीत लेती है तो फिर सरकार उनके बिना बन ही नहीं सकती । और तब उनका नाम भी प्रधानमंत्री के तौर पर बढ सकता है । ऐसे में अनिल अंबानी से करीबी होने के बावजूद मुकेश अंबानी गुट में किसी का विरोध मुलायम के लिये राजनीतिक तौर पर फिट बैठता नहीं है । तो प्रणव का साथ देना मुलायम का यारी निभाना भी है और राजनीतिक जरुरत को पूरा करना भी । लेकिन राजनीतिक तौर पर सीपीएम की स्थिति यहा अलग है ।

जिस तरह न्यूक्लियर डील के विरोध के बाद अमेरिकन लाबी ने सीपीएम को राजनीति तौर पर अलग थलग किया और बंगाल की राजनीति में ममता के अलट्रा लेफ्ट तेवर ने सीपीएम की वाम हवा निकाल दी उसमें राजनीतिक तौर पर खुद को बनाये रखने के लिये सीपीएम का राजनीतिक काग्रेसीकरण भी शुरु हुआ । जाहिर है आखिर में यह सवाल खडा हो सकता है कि अब जब प्रणव मुखर्जी सरकार से बाहर है तो मनमोहन सिंह राजनीतक तौर पर आर्थिक सुधार को हवा देगें या राजनीति-कारपोरेट गठबंधन यानी क्रोनी कैप्टलिज्म का नया चेहरा देखने को मिलेगा । क्योकि परिस्थितिया यही रही तो राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का राजनीतिक अनुभव 2014 का इंतजार नहीं करेंगा । और रायसिना हिल्स पहली बार पूर्व वित्त मंत्री के जरीय एक नयी पहचान भी पायेगा । तो इंतजार किजिये ।

Tuesday, July 3, 2012

"कृपया अपने साथ भेंटवस्तु या गुलदस्ते न लायें"


"कृपया अपने साथ भेंटवस्तु या गुलदस्ते न लायें" निमंत्रण पत्र के आखिर में इस एक लाइन को लिखने की परंपरा आरएसएस में गुरु गोलवरकर के दौर में ही शुरु हुई। समानता के भाव के साथ किसी भी उत्सव को मनाने और हर आमंत्रित व्यक्ति को एक ही खाके में रखने की संघ की सोच अब कितनी बची है, यह तो दूर की गोटी है लेकिन बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने सोमवार यानी 2 जुलाई की रात दिल्ली के अशोका होटल में अपने बेटे सारंग की शादी की खुशी में जो भोज दिया, उसके निमंत्रण पत्र के आखिर में गोलवरकर की इसी परंपरा को निर्वाह किया गया। 

परंपरा का बोझ कुछ ऐसा रहा कि राजनीतिक लकीर भी मिटी और उत्सव के लिये बांटे गये निमंत्रण पत्र की संख्या ने उत्सव को महाउत्सव में तब्दील करने की मंशा भी जतायी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी और संजय जोशी से लेकर नरेन्द्र मोदी। नीतीश कुमार से लेकर येदुरप्पा और सदानंद गौडा से लेकर केशुभाई। और दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी से लेकर बीजेपी हेडक्वार्टर के दरबान तक को निमंत्रण भेजा गया। भोज में शामिल होने के लिये कर्नाटक का सदानंद गौडा धड़ा भी दिल्ली पहुंचा और गुजरात में मोदी से रुठा केशुभाई धड़ा भी। तो क्या नीतिन गडकरी संघ के उस रास्ते पर चल पडे है, जहां निमंत्रण सभी को दो लेकिन रास्ता अपना ही रखो। हो सकता है गोलवरकर इस परंपरा के ना हो लेकिन मोहन भागवत के दौर में बीजेपी को मथने के लिये संघ का निमंत्रण गडकरी के कार्ड सरीखा ही है। संजय जोशी को संरकार्यवाहक भैयाजी जोशी ने साफ कह दिया अभी राजनीति ना करें। भविष्य में सोचेंगे। केशुभाई को संकेत दिये पटेल तबका नरेन्द्र मोदी को क्षति पहुंचा सकता है लेकिन हरा नहीं सकता।

येदुरप्पा को सीधे कहा राजनीतिक संकट का रास्ता बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी सुलझायेंगे, आरएसएस बीच में नहीं पड़ेगा। और नीतिन गडकरी को नरेन्द्र मोदी को भरोसा दिया कि गडकरी संघ के नुमाइन्दे नहीं है, वह आडवाणी द्वारा सुझाये गये तीन नामो में से एक हैं, जिस पर संघ ने मुहर लगायी। यानी संघ का निमंत्रण पा कर कोई यह ना सोचे कि संघ उसके पीछे आ खड़ा हुआ है । फिर हर निमंत्रण देकर बुलाने वाले को जब पहले ही कहा जा चुका है कि कोई भेंट बस्तु ना लाये तो इसका मतलब साफ है कि बीजेपी के भीतर मचे घमासान में कोई अपना राजनीतिक कद दिखाकर आरएसएस को मोहने की कला ना पाले। यानी संकेत बीजेपी अध्यक्ष को लेकर अगर दिल्ली के कद्दावर बीजेपी नेताओ तक है तो प्रधानमंत्री के लिये मोदी की दावेदारी के जरिये एनडीए गठबंधन तक को संकेत है। यानी राजनीति से तौबा करने की संघ की फितरत में पहली बार सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि एनडीए को भी मथने की तैयारी निमंत्रण के साथ हो रही है। नीतीश मजबूत गठबंधन है यह बात गडकरी कहें। और मोदी मौजूदा वक्त में बीजेपी के सबसे मजबूत नेता है यह बात आरएसएस कहे तो नरेन्द्र मोदी अगर बिना बोले ही मजबूत हो रहे हैं तो मोदी को बोलने की जरुरत क्यों है ।

असल में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर सामने लाने का जो निमंत्रण सरसघचालक मोहन भागवत और सरकार्यवाहक भैयाजी जोशी ने अपने तरीके से दिया उसने बेहद बारीकी से संघ की धारा के भीतर भी संघ के साथ खड़े तबकों को सीधा संकेत दे दिया कि अब वह किसी और नाम ना चलाये। यानी कोई भेंट वस्तु या कोई गुलदस्ता लेकर ना आये। असर इसका यह हुआ कि संघ के भीतर का सावरकर गुट [एम जी वैघ और प्रविण तोगडिया सरीखे], बीजेपी के भीतर का दिल्ली पंसद गुट[आडवाणी के पसंदीदा] और एनडीए के सहयोगी [नीतिश और ठाकरे सरीखे] सभी के सामने सवाल सीधा खड़ा हुआ कि उनकी राजनीति ताकत या उनका अपना औरा टिकता कहा है। इसलिये जैसे ही संक्यूलर प्रधानमंत्री की बात नीतीश ने उछाली वैसे ही बिना देर किये आरएसएस ने हिन्दुत्व की हेडगेवार परिभाषा सामने रख दी। जिसमें हिन्दुत्व में मुस्लिम और ईसाई को भी समाहित किया गया। इससे संघ के भीतर का सावरकर गुट खामोश हो गया जो मोदी को सावरकर के हिन्दुत्व की परिभाषा में समाहित करने की जल्दबाजी में था। यह मुश्किल बाला साहेब ठाकरे के सामने भी आयी क्योकि उनके हिन्दुत्व की उनकी सियासत में नागपुर [ हेडगेवार ] के मुकाबले पुणे [ सावरकर ]  मुंबई से ही नहीं बल्कि उनके राजनीतिक मिजाज और जरुरत में भी ज्यादा नजदीक है। आरएसएस पहली बार गठबंधन की राजनीति की उस जरुरत को भी अपना निमंत्रण पत्र भेजना चाहता है, जहां 2014 की बिसात की धुरी अगर नरेन्द्र मोदी बन जाते है तो केन्द्र में खुद ब खुद आरएसएस होगा। क्योंकि नरेन्द्र मोदी के लिये जो रास्ता संघ चाहता है और खुद मोदी भी अपने आप को उसी रास्ते पर चलाने को तैयार है वह विकास के सवाल खड़ाकर राष्ट्वाद को मुद्दा बनाने का रास्ता है। यानी गुजरात के जरीये हिन्दुत्व की जिस प्रयोगशाला का सवाल अभी तक उठता रहा उसपर खामोशी बरत नये जवाब मनमोहन सिंह के दौर में मुश्किल से जुझते आमलोगों के सवालों को उठाकर दिया जायेगा। जिसके दायरे में नीतीश हो बाल ठाकरे उन्हे अपना राजनीतिक रास्ता या तो नया बनाना होगा या फिर बीजेपी से मोदी उवाच जारी रखना होगा। यानी हर परिस्थिति में आरएसएस का मानना है कि 2014 के मद्देनजर अगर मोदी केन्द्र में रहेंगे तो उसकी जमीन संघ की राष्ट्रवाद की थ्योरी पर ही खड़ी होगी। और बीजेपी की हर मशक्तत भी अब हिन्दुत्व के आसरे नहीं बल्कि राष्ट्रवाद के आसरे दौड़ेगी। चाहे नीतिन गहकरी का निमंत्रण पत्र ही क्यों ना हो क्योंकि उस पर तो साफ लिखा है, "कृपया अपने साथ भेंटवस्तु या गुलदस्ते न लायें"

Sunday, July 1, 2012

एसपी की पत्रकारिता क्यों पीछे छूट गई एसपी को याद करते हुये


27 जून को को एसपी सिंह को याद किया गया। एसपी की मृत्यु 15 बरस पहले हुई। लेकिन एसपी को टेलीविजन के खाके में रखकर आज भी बेचा जा सकता है, यह अहसास पहली बार एसपी सिंह को याद किये गये कार्यक्रम को देखकर लगा। नोएडा के फिल्म सिटी के मारवाह स्टूडियो में हुये इस कार्यक्रम के निमंत्रण कार्ड ने प्रायोजक और पत्रकारो की लकीर को मिटाया। वरिष्ठ पत्रकारों की लाइन में ही बिल्डरों का नाम छपा देखकर लगा हर वह शख्स मुख्य अतिथि बनने की काबिलियत रखता है, जो बाजार के नाम पर कुछ आयोजकों को दे सकता है। एक जाने माने पत्रकार की याद में अब के नायक बने पत्रकारों के जरिये मीडिया के मौजूदा रुप को देखने के लिये एक मीडिया वेबसाइट की पहल वाकई अच्छी होगी। लेकिन बाजार के ओहदेदार लंपट लोगो की कतार मुख्य अतिथि बन जाये। पैसा देकर कार्ड में अपना नाम छपा ले। और बाजार-बाजार का ढिढोरा पीटते पत्रकारों को भी यह लगे कि यह तो आधुनिक चलन है, तो क्या कहेंगे? 

दरअसल, बाजार शब्द की परिभाषा पत्रकारिता करते हुये हो क्या यह तमीज चेहरे के ऊपर जा नहीं पा रही है। चेहरा लिये घूमते पत्रकारों को सिल्वर स्क्रीन के कलाकारों से लेकर मॉडलिग करने वालों की कतार में रखने का नया नजरिया ही खबर है। अब के नायक पत्रकारों को देखकर भविष्य में न्यूज चैनलों से जुड़ने वाले साथ में खड़े होकर तस्वीर खींचने या ऑटोग्राफ लेकर एक-दूसरे को ग्लैमर की जमीन पर खड़ा करने से नहीं हिचकते और खबरों को पेश करने के पीछे बाजार में बिकने की परिभाषा में खुद को ढालने से नहीं हिचकते। लेकिन एसपी सिंह ने तो कभी अपने 20 मिनय के बुलेटिन में विज्ञापनों की बाढ़ के बावजूद साढे चार मिनट से ज्यादा जगह नहीं दी। दस सेकेंड के विज्ञापन की दर को बढ़ाते बढ़ाते नब्बे हजार तक जरुर कर दिया। लेकिन अब तो उल्टा चलन है। विज्ञापन बटोरने की होड़ में 10 सेकेंड का विज्ञापन घटते घटते 10 हजार या उससे कम तक आ चुका है। 

यह राष्ट्रीय हिन्दी न्यूज चैनलो का ही सच है। और अगर अब के नायक चेहरे एसपी सिंह को याद करते करते बाजार का रोना या हंसना ही देख कर खबरों की बात करने लगे तो सुनने वालो के जेहन में जायेगा क्या। और ऐसी बहसो को सुन-देख कर जो ब्लॉग-फेसबुक या कहें सोशल मीडिया में लिखा जायेगा, वह भी इसी तरह सतही होगा। इसलिये जरा पलट कर सोचें 27 जून के कार्यक्रम के बारे में सोशल मीडिया में जो लिखा गया, उससे पढ़ने वालो को क्या लगा। एक कार्यक्रम और हो गया। अब के दौर के नायक चेहरों का ग्लैमर आसमान छू रहा है। पहली बार कई चेहरे एक साथ एक मंच पर जमा हुये तो आयोजन सफल हो गया। हो सकता है। लेकिन पत्रकारिता की साख कभी भी लोकप्रिय अंदाज,बाजार के ग्लैमर, बिकने-दिखने या फिर एसपी सरीखे पत्रकारिता के गुणगान से नहीं बढ़ सकती। मौजूदा दौर की पत्रकारिता को कठघरे में खड़ाकर जायज सवालो को उठाकर उसपर बहस कराने से कुछ आग जरुर फैल सकती है। असल में मैं सोचता रहा कि एसपी सिंह को याद करने वाले कार्यक्रम के बार में रिपोर्टिंग करते सोशल मीडिया में कहीं भी वह सवाल क्यों नहीं उठे, जिसे पहली बार मैंने उठते हुये देखा। सवाल चेहरों के भाषण का नहीं है। सवाल सुनने वालों के जेहन में उठते सवालों का है। मैंने तो पहली बार नायक चेहरों को धारदार सवालों के सामने पस्त होते देखा। क्या यह सच नहीं है कि अगर वाकई हर मीडिया संस्थान में भर्ती को लेकर कोई मापदंड बन जाये तो लायक छात्र पत्रकारिता करने की दिशा में सफल होंगे। क्या यह सच नहीं है कि इंटर्नशिप को लेकर हर संस्थान अगर गंभीर हो जाये तो इंटर्न छात्र-छात्रा अपनी उपयोगिता को साबित भी करेगा और जो बैक-डोर एन्ट्री किये हुये संस्थान के भीतर पत्रकार बने बैठे हैं,उन्हें भी अहसास होगा कि काम तो करना होगा। न्यूज चैनलो में जा कर पत्रकारिता करने का माद्दा रखने वालों को क्या बाजार के ग्लैमर में खुद को बेवकूफ बनाकर पेश होने की मजबूरी आ गई है। क्योंकि पत्रकारिता बिकती नहीं । या फिर जो बिके वही पत्रकारिता है। है ना कमाल। एसपी सिंह को याद करते हुये सुनने वाले छात्रों के सवाल ही अगर एसपी सिंह की याद दिला दें
तो सच की जमीन भी नायक चेहरों के जरीये नहीं बल्कि अपने आसरे बनाने होगी। किसी भी पत्रकार के साथ तस्वीर या ऑटोग्राफ का ग्लैमर खत्म करना होगा। खबरों की फेहरिस्त हमेशा नायक चेहरों को थमानी होगी, जिसे कवर करने का दवाब ऐसे ही कार्यक्रम में सार्वजनिक तौर पर बनाना होगा। सवाल-जवाब के लिये हर नायक चेहरे से वक्त तय कर ठोस मुद्दों का जवाब मांगना चाहिये। जिससे मौजूदा पत्रकारिता का विश्लेषण हो सके। और तस्वीर और चेहरों की रिपोर्टिंग से बचते हुये जो मुश्किल मौजूदा पत्राकरिता को लेकर उभरे,
उसके लिये रास्ता निकालने की दिशा में सोशल मीडिया से जुडे लेखकों को बहस चलानी चाहिये। और कार्यक्रम कमाई का जरीया हो तो बॉयकॉट करने की तमीज भी आनी चाहिये।