Tuesday, January 15, 2013

देश के भीतर युद्ध भूमि का ग्राउंड जीरो


पुलिस के शव में बम रखने की जिस घटना ने पूरे देश को अंदर से हिला दिया,अगर उसी घटना वाले इलाके लातेहार के हर दिन के सच को देश जान जाये तो उसे समझ में आ सकता है देश के भीतर कैसी युद्द भूमि तैयार है। और कैसे युद्द भूमि में हर दिन बारुद के बंकर बनाये जाते हैं। कैसे आईईडी घमाके होते हैं । कैसे डायनामायट से सरकारी इमारतों को नेस्तानाबूद किया जाता है। कैसे हर सरकारी योजना नक्सल लूट में बदल दी जाती है। कैसे खाद्यान्न से लेकर मनरेगा के रोजगार का पैसा विकास के नाम पर खपा भी दिया जाता है और हर हाथ खाली होकर पेट की खातिर बंदूक थामने से कतराता भी नहीं है। कैसे पक्की सड़क पर दौड़ती पुलिसिया जीप ही सरकार के होने का ऐलान करती है और कैसे पक्की सड़क से नीचे उतरती हर कच्ची सडक सरकार के सामानातंर माओवाद की व्यवस्था को चलाती है।

यह ऐसा सच है जो लातेहार के हर गांव में हर बच्चा और बुजुर्ग हर दिन देखता है। जीता है और फिर कभी इनकाउंटर में मारे जाने के बाद पक्की सड़क पर माओवादी और कच्ची सड़क पर मारे गये ग्रामीण आदिवासी
के तौर पर अपनी पहचान पाता है। दिन के उजाले में पक्की सड़क पर सुरक्षाकर्मियों के लिये हर इनकाउंटर तमगे का काम करता है और कच्ची पगडंडियो पर इनकाउंटर में मारे गये ग्रामीण का परिवार आक्रोश की आग में खुद को झोकने के लिये तैयार हो जाता है। यानी वर्तमान का सच भविष्य के लिये ना रुकने वाली ऐसी उर्वर युद्द भूमि तैयार  करता जा रहा है, जहां सभ्य देश के लिये आने वाले वक्त में कौन कौन सी त्रासदी किस किस रुप में देश का सिर शर्म से झुकायेगी, इसका सिर्फ इंतजार किया जा सकता है। क्योंकि वहां युद्द ही जीने का आक्सीजन है। जरा सिलसिलेवार तरीके से पुलिस शवों में लगाये गये बम के इलाकों को परखें। 6-7 जनवरी को माओवादियों का हमला लातेहार के कोमांडी, हेहेगढा और अमवाटीकर गांव के इलाके में हुआ। 10 सुरक्षाकर्मी मारे गये। तीन गांववाले तब मारे गये, जब पुलिस के शव में रखा बम फटा। जाहिर है शव के भीतर बम रखने की यह अपने तरह की पहली घटना थी जो इतनी वीभत्स है कि देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे तक परेशान हो गये।

सवाल उठ सकता है कि अब माओवाद वैचारिक संघर्ष को छोड़कर और खौफ पैदा कर अपने होने का अहसास करा रहा है। इसे अमानवीयता का आखिरी रुप भी माना जा सकता है। इसे मानसिक दिवालियापन से भी जोड़ा जा सकता है। लेकिन जिस लातेहार को युद्द भूमि मान कर पुलिस-सरकार काम कर रही हो। जहां रहने वाले लोगो की पहचान दुश्मन और दोस्त के तौर पर कच्ची और पक्की सड़क के साथ बदल जाती हो। वहां कौन सी व्यवस्था मानवीयता को जिन्दा रखे हुये है, यह समझना भी जरुरी है। युद्द भूमि कैसे और किसके बीच बनी हुई है, यह एनकाउंटर वाले तीन गांव ही नहीं बल्कि लातेहार के बनवीरुआ, डीहीमारी, टुबेड, नेबारी, मानगरा, लूटी, अमेझाहारण समेत दो दर्जन से ज्यादा गांव के हर दिन के हालात को देखकर समझा जा सकता है। लातेहार में सरकार का मतलब चतरा से डालटेनगंज जाने वाली सडक पर पुलिस पेट्रोलिंग है। जिसके बीच में लातेहार आता है। यह पेट्रोलिंग भी जब तक सूरज की रोशनी पक्की सड़कों पर रहती है तभी तक होती है। गांवों के बीच में पुलिस कैंप नहीं सीआरपीएफ कैंप और झारखंड जगुआर सेना के कैंप हैं, जो सरकार की इमारतों में कैद रहते हैं। किसी पुरानी सभ्यता की तरह सुरक्षाकर्मियों के कैंप नदी या पानी के सोते के किनारे ही हैं। जिससे पीने के पानी की कोई दिक्कत ना हो। हर सुबह सूरज निकलने के बाद ग्रामीण इलाकों में सेना की हलचल पानी इकठ्टा करने और नित कार्य करने को लेकर ही होती है। पक्की सड़क से होते हुये जब सीआरपीएफ या जगुआर फोर्स के जवान गांव में घुसते हैं तो ही कैंपो से सुरक्षाकर्मी सड़क के लिये निकलते हैं। सीधे कहे तो पक्की सड़क से गांव तक कोई लैंड माइन नहीं है, इसकी जांच करते हुये जब सुरक्षाकर्मियो का दस्ता गांव के सुरक्षा दस्ते के पास पहुंचता है तो ही गांव के कैंप में तैनात सुरक्षा दस्ता बाहर निकलता है। लेकिन इस पक्की और कच्ची सड़क के बीच हर सुबह आईईडी ब्लास्ट की ट्रेनिग गांव वालो को मिलती है। बंकर ब्लास्ट की जानकारी गांव वाले अपने स्तर पर पाते हैं।

डायनामाइट कैसे लगाया जाये, जिससे किसी सरकारी इमारत को एक ही धमाके में उड़ा दिया जाये। यह जानकारी होना हर गांव वाले की जरुरत है। और जिस कैंप के सुरक्षाकर्मियो के शिकार जो गांववाले उससे पहले हुये होते हैं, उस गांव की ही यह जिम्मदारी होती है कि कैंप से बाहर निकले सुरक्षाकर्मी वापस कैंप में लौट ना सके। इस युद्द के बीच खेती, मजदूरी, विकास परियोजना या औघोगिक विकास का कोई मतलब नहीं होता । क्योंकि युद्ध के नियम या जीत हार जान लेने की तादाद पर ही निर्भर करते हैं। जिसका खौफ ज्यादा होता है, उसके लिये इलाका सुरक्षित होता है। और खौफ पैदा करने के लिये हर रणनीति अपनायी जाती है। इस युद्द भूमि में सरकार की कोई भूमिका क्यों नहीं होती, इसे मौजूदा मुंडा सरकार के बनने और वर्तमान के राजनीतिक संकट से भी जोडकर समझ जा सकता है। तीन बरस पहले अक्टूबर 2009 में जब झारखंड विधानसभा के चुनाव हो रहे थे, तब लातेहार के 22 गांवों ने चुनाव का बहिष्कार किया था। उस वक्त बहिष्कार के तीन आधार थे । पहला मनरेगा की बात कहने वाली कांग्रेस के ही लोगों ने मनरेगा का पैसा खा लिया गांव के गांव में रोजगार दे दिया का दस्तावेजी पुलिंदा तैयार कर लिया। दूसरा, जो खाद्दान्न गांव में सरकार ने बांटने भेजा उसकी काला बाजारी अधिकारियो ने कर दी और दस्तावेज में बताया कि अन्न बांट दिया है। और तीसरा ट्यूब नदी पर बांध बनने का वादा कर तीन साल सरकार ने गुजार दिये । लेकिन गांव वालों को मिला कुछ नहीं। तो यहां सिर्फ चुनाव बहिष्कार ही  नहीं हुआ बल्कि रांची में सरकार बनी तो लातेहार में सिलसिलेवार तरीके से न्याय शुरु हुआ। युद्द भूमि है तो न्याय भी यूद्द के तौर पर ही शुरु हुआ । बीते तीन बरस में सोलह पंचायत भवन डायनामाइट से उड़ा दिये गये। पोचरा पंचायत की इमारत की छत को उड़ाकर गांववालों के लिये न्याय घर बनाया गया। जहां नौ गांव में किसी भी मुद्दे के उलझने पर सुलझाया जाता। जिन छह माध्यामिक स्कूलों की इमारतों की स्कूलों में सीआरपीएफ जवान ने कैंप लगाये उन्हे विस्फोट से ध्वस्त कर दिया गया। नेवारी गांव के मिडिल स्कूल की इमारत को गिराकर गांववालों ने अपने युद्द का ट्रेनिंग सेंटर बनाया। फुड
एंड सप्लायी विभाग के एमओ केसर मर्मू का अपहरण कर सबक सिखाया गया। जेरुआ गांव के मनरेगा एक्टीविस्ट नियामत अंसारी की हत्या की गई। इसी तर्ज पर हर गांव वाले ने औतसन तीन बरस में छह से नौ पुलिस या सुरक्षाकर्मियों के वाहनो को नष्ट किया। सीधे समझे तो माइन ब्लास्ट से उड़ाया। इसमें पुलिस मोटरसाइकिल भी है। इस युद्दभूमि में युद्द करना ही कैसे जीने का तरीका बन चुका है, यह सुरक्षाकर्मियों की रणनीति से लेकर माओवाद के नाम पर संघर्ष करते नक्सलियों से लेकर गाम्रीण आदिवासियों के तौर तरीकों से समझा जा सकता है। राज्य पुलिस और सीआरपीएफ के अलावे जगुआर पुलिस से लेकर आधे दर्जन नाम से हंटिंग सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी इस युद्द भूमि में है। वहीं दूसरी तरफ सीपीआई माओवादी-पीपुल्सवार से लेकर झारखंड प्रस्तुति कमेटी और तृतिया प्रसूती कमेटी से लेकर स्वतंत्र इंडियन पीपुल्स कमेटी सरीखे दर्जन भर संगठन अपनी अपनी युद्दभूमि बनाकर अपने जीने के लिये संघर्ष कर रहे है। यानी कोई भी बिना सेना के नहीं है। हर सेना का एक नाम है, जो गांव और पुलिस कैप के साथ बदल जाता है। इस युद्दभूमि में यह सवाल बहुत छोटा है कि कौन सही है या कौन गलत। क्योंकि तीन बरस में मारे गये सात सौ से ज्यादा ग्रामिणों के परिजनो का जो हाल है, उससे बुरा हाल मारे गये सुरक्षाकर्मियो के परिजनो का है । इस युद्द में मारे गये सुरक्षाकर्मी दुधवा मुंडा हो या गोपाल लकडा । या मारे गये ग्रामीण अशोक टोपो हो या प्रकाश घान। इनके परिजन युद्द भूमि में ना सरकार की रियायत पा सकते हैं या युद्द से मुंह मोड़ सकते हैं। और युद्द करते रहना ही क्यों जरुरी है, इसे बताने के लिये घायलों को टटोला जा सकता है। 16 जुलाई 2010 को चाहे वह घायल सुरक्षाकर्मी सुलेमान धान हो या सुरेश टोपो या फिर चन्द्रमोहन जो माओवादियों के एनकाउंटर में घायल हो गये। या फिर इसी इनकाउंटर में घायल कुदमु गांव के मोहन माझी या नायकी। सरकार से मदद किसी को नहीं मिली। अस्पताल का इलाज किसी के पास नहीं पहुंचा। कोई राहत किसी को नहीं मिली । यानी देश की मुख्यधारा से जोड़ने की जो पहल दस्तावेजो में दिल्ली के नार्थ ब्लाक से लेकर रांची में सीएम दफ्तर तक हर दिन हो रही है, वह लातेहार के प्वाइंट जीरो पर कैसे गायब है और कैसे प्वाइंट जीरो पर युद्द ही जीने का एकमात्र रास्ता है। यह ना तो दिल्ली समझ पा रही है और ना ही इसे समझने की जरुरत सत्ता बनाने में भिडे झारखंड की सियासत को है ।

Saturday, January 12, 2013

मेंढर के ताबूत से भारी है वाघा बॉर्डर की हर शाम


जिस वक्त पाकिस्तान की हरकतों को लेकर समूचा देश गुस्से में है, उस वक्त भी सरहद पर पाकिस्तान के जवानों से हाथ मिलाना पड़े। जिस वक्त जवानों को पता चला कि सीमा पर तैनात लांसनायक के सिर को पाकिस्तानी सेना ने काट दिया और देश के जवानों को उस वक्त भी अपने गुस्से,आक्रोश को दबाकर पाकिस्तान के जवान से हाथ मिलाकर पड़ोसी और दोस्त का धर्म निभाना पड़े। जिस वक्त दिल्ली में नार्थ-साउथ ब्लाक में पाकिस्तान को खुले तौर पर कठघरे में खड़ा किया जा रहा हो उस वक्त सरहद पर जवानों को यही निर्देश हो कि हर बसंती शाम की तरह ही उन्हें सिर्फ पांव पटक कर गुस्से का इजहार करना है और महज नारों से देश की जय जयकार करनी है तो उस शाम को सरहद पर खड़े होकर डूबते देख किसी भी भारतीय का दिल कैसे डूबेगा। अगर इसे देखना है तो वाघा बॉर्डर पर कोई भी शाम गुजार कर महसूस कर लें। क्योंकि  9 जनवरी की शाम जब जम्मू से लेकर दिल्ली तक और मथुरा से लेकर सीधी [म.प्र.] तक सिर्फ और सिर्फ मातम पसरा था और न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर दिल्ली से लेकर इस्लामाबाद तक जेनवा क्नवेंशन से लेकर संयुक्त राष्ट्र की जांच को लेकर सवाल जवाब हो रहे थे, उस शाम भी वाघा बार्डर पर तैनात जवान अपने संबंधों की परंपराओं को ही ढो रहे थे। और वहां मौजूद हजारों हजार लोगों की तादाद को सीमा पर मारे गये दो जवानों के ताबूत से भारी वह पूरी पंरपरा लग रही थी जिसे निभाना भी हर शाम जवानो को ही होता है और उन्हें देखने पहुंचने वालों में राष्ट्रप्रेम जागे यह हुनर भी पैदा करना होता है।

शाम चार बजते बजते वाघा पर नारे गूंजने लगे, हिन्दुस्तान जिन्दाबाद, पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत माता की जय, वंदे मातरम, जियो जियो... पाकिस्तान, जियो जियो...पाकिस्तान। यह वे नारे हैं, जो सरहद की लकीर खींचते भी है और सरहद पिघलाते भी हैं। गुस्से और जोश को हर मौजूद शख्स में भरते भी है और हर गुस्से और आक्रोश में वाघा बॉर्डर पहुंचे हर शख्स को ठंडा करते भी हैं। कमाल का हुनर या पाकिस्तान के साथ रिश्तो का अभूतपूर्व एहसास है वाधा बार्डर पर सात सात फुट के लंबे-तगडे जवानो का नाल लगे जूतों को जमीन पर पटकने से लेकर लोहे के दरवाजे को लहराते हुये हाथ के साथ खोलना। हाथ तान कर संभालना और माथे पर बंधे साफे को संभालने के अंदाज में छू कर अपनी हनक का एहसास कराना। फिर कदमताल करते हुये सरहद की लकीर को पार कर चार गज की जमीन पर खड़े होकर दोस्त ना होने के अंदाज में हाथ मिलाना। और इस माहौल को हवा में नहीं बल्कि वहां मौजूद हजारों हजार लोगों की शिराओ में घोल देना । यह तो हर सामान्य या बसंती शाम का किस्सा है। जब तीन से चार हजार लोग जमा होते हैं। लेकिन जैसे ही जम्मू के करीब मेंढर सीमा पर तैनात लांसनायक के सर कलम किये जाने की खबर ने देश में गुस्सा पैदा किया वैसे ही गुस्से का इजहार करने या अंदर के उबाल को एक एहसास देने वाघा बार्डर पहुंचने वाले लोगों की तादाद में बढोतरी हो गई। जो टैपों 100 रुपये प्रति व्यक्ति लेकर अमृतसर से वाघा बार्डर तक पहुंचा देता है, उसका किराया 125 रुपये हो गया। हजार रुपये वाली टैक्सी का किराया ढाई हजार हो गया। 20 सीटो वाली जो बस साढे तीन हजार रुपये लेती है, उसका किराया पांच हजार रुपये हो गया। देश के अलग अलग हिस्सो से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पहुंचने वाले लोग दोपहर में बाहर निकलते तो वाघा बार्डर का ही सीधा रास्ता पकड़ते। 32 किलोमीटर के रास्ते पर टोल चुकाने के बाद आखिरी पांच किलोमीटर के रास्ते पर कतारों में खड़े सैकड़ों ट्रक को देखकर ही वाघा बार्डर जाने वाली हर भीड़ हिन्दुस्तान जिन्दाबाद और पाकिस्तान के विरोध के नारो से माहौल को और गरमा देती ।

ट्रकों में लदा माल पाकिस्तान जाता है और हर दिन एक हजार से ज्यादा ही ट्रक पर लदा माल अटारी स्टेशन पर मालगाडी में लादा जाता है। इन ट्रको में है क्या। चावल, गेंहू से लेकर खाने पीने की ही हर चीज होती
है। आलू प्याज भी। जी वह भी और चीनी, गुड भी। इसे तो रोक देना चाहिये । लड़ाई और खानपान साथ चल नहीं सकता। महाराष्ट्र से आये शिवकुमार ने जैसे ही ड्राइवर की जानकारी पर पाकिस्तान को लेकर अपने गुस्से का जैसे ही इजहार किया वैसे ही ड्राइवर बोल पड़ा, तुसी चाहे गुस्सा करो, लेकिन यही जोश तो साडा बिजनेस हैगा। क्या मतलब । वाउजी तुसी वाघा बार्डर पहुंचो त्वाउनू खुद समझ विच आ जावेगा। इधर,जैसे जैसे वाघा बॉर्डर नजदीक आ रहा था, वैसे वैसे ट्रकों की सिंगल लेन डबल में बदल गई और चौड़ी सड़क सिमटी सी दिखायी देने लगी। बस, टैपों, टैक्सी, कार, मोटरसाइकिल बड़ी तादाद में गाड़ियों पर नारे लगाते, जोश पैदा करता गाड़ियों का काफिला जब धीरे धीरे एक दूसरे के करीब हो कर चलने लगा तो नारे और तेज हो गये। माहौल ऐसा कि जैसे वाघा वार्डर पर ही आज दो दो हाथ हो जायेंगे। लेकिन ड्राइवर अपने धंधे में मस्त था। हर किसी को वाघा बॉर्डर पहुंचने की जल्दी थी। लेकिन ड्राइवर बायीं तरफ हाथ से दिखा कर बोला यह अटारी स्टेशन है। आखिरी स्टेशन । फिल्म वीरजारा की कुछ शूटिंग भी यहां हुई थी। आप चाहो तो यहां खड़े होकर तस्वीर निकाल लो। वैसे भी बस आगे जायेगी नहीं। बॉर्डर का तमाशा देख कर लौटोगे तो अंधेरा हो जायेगा। कोहरा हो जायेगा। फोटो ले नहीं पाओगे। कुछ जोड़े बस से उतरे अटारी के बोर्ड के आगे खडे होकर तस्वीर खींचने लगे । हर हाथ में मोबाइल कैमरा था तो हर कोई वाघा बॉर्डर को अपने कैमरे में कैद करने लगा। पंजाब पुलिस और बीएसएफ वालो के आपसी झगड़ों की वजह से आज स्थानीय गाड़ियां भी आगे नहीं जा सकती। तो कमोवेश हर कोई पैदल ही वाघा बार्डर चल पड़ा। एक किलोमीटर का रास्ता पैदल नापने में भी वीआईपी लोगों को मुश्किल पैदा हो रही थी। किसी को लंबी हिल परेशान कर रही थी तो किसी को गोद में बच्चा उठाना। कोई आम लोगों की भीड़ में साथ चलने से बचना चाहता था तो कोई अपनी देसी लाल बत्ती की गाडी को वाधा बार्डर तक कुछ भी करके लेना चाहता था। लेकिन आज किसी की नहीं चली तो आम जनता खुश भी थी। सभी पैदल तले तो रास्ते में सेना और जवानों की जो भी महक दिखायी देती उसे हर कोई कैमरे में बंद कर रहा था। लंबे-चौड़े जवानों के बीच खडे होकर गदगद महसूस करने वालों अलग अलग प्रांतों के लोग वाघा बॉर्डर से पाकिस्तान की तस्वीर लेकर ही खुद के भारतीय होने का धर्म निभा रहे थे। बच्चे नारे लगा रहे थे। बड़ों को यह अच्छा लग रहा था और साढे चार बजे जैसे ही नारे और कदमताल के बीच वाघा बॉर्डर अपनी परंपराओं को जीने लगा। एक साथ,एक जैसे होकर इस और उस पार सरहद के जोश को एक-दूसरे के खिलाफ बनाये रखने के आधे घंटे की कवायद के बाद जब दोनो देश के राष्ट्रीय ध्वज एक साथ उतारे गये और आज की कवायद खत्म किये जाने के ऐलान के साथ ही देश के जीरो माइल तक जाने की इजाजत मिली। तो फिर हर कोई जीरो माइल पत्थर के आगे-पीछे, दांये बायें खड़े होकर तस्वीर ही खींचाने लगा। और इसी एहसास में डूबा रहा कि वह पाकिस्तान और भारत की सीमा पर खड़ा है। हर किसी के लिये यह ताजी हवा के झोंके की तरह था कि वह पाकिस्तान के खेतों को अपनी नंगी आंखों से देख रहा था , कैमरे में कैद कर रहा था। गुस्सा,आक्रोश और नारों की गूंज यहां काफूर थी। खुशी थी। सरहद पर खड़े होकर खुद को कैमरे में कैद करने की कवायद ही नया जोश थी। बीस बीस रुपये में वाघा बार्डर पर होने वाली पूरी कवायद की सीडी हर कोई खरीद रहा था। पक्के अमरुद, गरम मूंगफली और छोले हर कोई खरीद रहा था। बेचने वाला यह कहने से नहीं चूक रहा था कि अमरुद लाहौर के हैं। और खाने वाला कह रहा था कैसे पता चलेगा। अपने जैसा ही तो है। और इसी उत्साह को लिये जब हर कोई वापस लौटने लगे तो रिक्शे वाले, ठेले वाले भी लौटने लगे। दुकाने बंद होने लगी। टैक्सी स्टैंड वाले को भी घर लौटने की जल्दबाजी थी। अटारी स्टेशन भी कोहरे में डूब चुका था। और बस का ड्राइवर भी गाडी स्टार्ट करते ही बोल पड़ा, बाउजी ठंड बढ़ गई है खिडकी बंद कर लो। लेकिन जोश बना रहे यह मनाओ क्योंकि जोश बना रहे तो अपना धंधा मंदा नहीं पड़ता। साड्डे नाल वाधा बार्डर द रिश्ता तो पेट द है। पाकिस्तान के साथ रिश्तों की सारा सच ड्राइवर कह चुका था।

Monday, January 7, 2013

न्यूज चैनलों की पत्रकारिता पर क्यों भारी पड़ा लड़के का इंटरव्यू

अगर ब्राडकास्ट एडिटर एसोशियसेशन [बीईए] की चलती तो बलात्कार की त्रासदी का वह सच सामने आ ही नहीं पाता जो लडकी के दोस्त ने अपने इंटरव्यू में बता दिया। दिल्ली की लडकी के बलात्कार के बाद जिस तरह का आक्रोष दिल्ली ही नहीं समूचे देश की सडको पर दिखायी दिया उसे दिखाने वाले राष्ट्रीय न्यूज चैनलो ने ही स्वयं नियमन की ऐसी लक्ष्मण रेखा अपने टीवी स्क्रिन से लेकर पत्रकारिता को लेकर खिंची कि झटके में पत्रकारिता हाशिये पर चली गई और चैनलो के कैमरे ही संपादक की भूमिका में आ गये। यानी कैमरा जो देखे वही पत्रकारिता और कैमरे की तस्वीरो को बडा बताना या कुछ छुपाना ही बीईए की पत्रकारिता। जरा सिलसिलेवार तरीके से न्यूज चैनलो की पत्रकारिता के सच को बलात्कार के बाद देश में उपजे आक्रोष तले स्वय नियमन को परखे। लडकी का वह दोस्त जो एक न्यूज चैनल के इंटरव्यू में प्रगट हुआ और पुलिस से लेकर दिल्ली की सडको पर संवेदनहीन भागते दौडते लोगो के सच को बताकर आक्रोष के तौर तरीको को ही कटघरे में खडा कर गया। वह पहले भी सामने आ सकता था।

पुलिस जब राजपथ से लेकर जनपथ और इंडियागेट से लेकर जंतर-मंतर पर आक्रोष में नारे लगाते युवाओ पर पानी की बौछार और आंसू गैस से लेकर डंडे बरसा रही थी अगर उस वक्त यह सच सामने आ चुका होता कि दिल्ली पुलिस तो बलात्कार की भुक्तभोगी को किस थाने और किस अस्पताल में ले जाये इसे लेकर आधे घंटे तक भिडी रही तो क्या राजपथ से लेकर जंतर मंतर पर सरकार में यह नैतिक साहस रहता कि उसी पुलिस के आसरे युवाओ के आक्रोष को थामने के लिये डंडा,आंसूगैस या पानी की बौछार चलवा पाती। या फिर जलती हुई मोमबत्तियो के आसरे अपने दुख और लंपट चकाचौंध में खोती व्यवस्था पर अंगुली उठाने वाले लोगो का यह सच पहले सामने आ जाता कि सडक पर लडकी और लडका अद्दनग्न अवस्था में पडे रहे और कोई रुका नहीं। जो रुका वह खुद को असहाय समझ कर बस खडा ही रहा। अगर यह इंटरव्यू पहले आ गया होता तो न्यूज चैनलो पर दस दिनो तक लगातार चलती बहस में हर आम आदमी को यह शर्म तो महसूस होती ही कि वह भी कहीं ना कही इस व्यवस्था में गुनहगार हो गया है या बना दिया गया है। लेकिन इंटरव्यू पुलिस की चार्जशीट दाखिल होने के बाद आया। यानी जो पुलिस डर और खौफ का पर्याय अपने आप में समाज के भीतर बन चुकी है उसे ही जांच कार्रवाई करनी है। सवाल यही से खडा होता है कि आखिर जो संविधान हमारी संसदीय व्यवस्था या सत्ता को लेकर चैक एंड बैलेस की परिस्थिया पैदा करना चाहता है , उसके ठीक उलट सत्ता और व्यवस्था ही सहमति का राग लोकतंत्र के आधार पर बनाने में क्यो लग चुकी है और मीडिया इसमें अहम भूमिका निभाने लगा है।

यह सवाल इसलिये क्योकि मीडिया की भूमिका मौजूदा दौर में सबसे व्यापक और किसी भी मुद्दे को विस्तार देने वाली हो चुकी है। इसलिये किसी भी मुद्दे पर विरोध के स्वर हो या जनआंदोलन सरकार सबसे पहले मीडिया की नब्ज को ही दबाती है। मुश्किल सिर्फ सरकार की एडवाइजरी का नहीं है सवाल इस दौर में मीडिया के रुख का भी है जो पत्रकारिता को सत्ता के पिलर पर खडा कर परिभाषित करने लगी है। बलात्कार के खिलाफ जब युवा रायसीना हिल्स के सीने पर चढे तो पत्रकारिता को सरकार की धारा 144 में कानून उल्लघन दिखायी देने लगा। लोगो का आक्रोष जब दिल्ली की हर सडक पर उमडने लगा तो मेट्रो  की आवाजाही रोक दी गई लेकिन पत्रकारिता ने सरकार के रुख पर अंगुली नहीं उठायी बल्कि मेट्रो के दर्जनो स्टेशनो के बंद को सुरक्षा से जोड दिया। जब इंडिया-गेट की तरफ जाने वाली हर सडक को बैरिकेट से खाकी वर्दी ने कस दिया तो न्यूज चैनलो की पत्रकारिता ने सरकार की चाक-चौबंद व्यवस्था के कसीदे ही गढे।

न्यूज चैनलो की स्वयं नियमन की पत्रकारिय समझ ने न्यूज चैनलो में काम करने वाले हर रिपोर्टर को यह सीख दे दी की सत्ता बरकार रहे। सरकार पर आंच ना आये। और सडक का विरोध प्रदर्शन हदो में चलता रहे यही दिखाना बतानी है और लोकतंत्र यही कहता है। इसलिये सरकार की एडवाइजरी से एक कदम आगे बीईए की गाईंडलाइन्स आ गई। सिंगापुर से ताबूत में बंद लडकी दिल्ली कैसे रात में पहुंची और सुबह सवेरे कैसे लडकी का अंतिम सस्कार कर दिया गया। यह सब न्यूज चैनलो से गायब हो गया क्योकि बीईए की स्वयंनियमन पत्रकारिता को लगा कि इससे देश की भावनाओ में उबाल आ सकता है या फिर बलात्कार की त्रासदी के साथ भावनात्मक खेल हो सकता है। किसी न्यूज चैनल की ओबी वैन और कैमरे की भीड ने उस रात दिल्ली के घुप्प अंधेरे को चीरने की कोशिश नहीं की जिस घुप्प अंघेरे में राजनीतिक उजियारा लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी और दिल्ली की सीएम से लेकर विपक्ष के दमदार नेता एकजूट होकर आंसू बहाकर ताबूत में बंद लडकी की आखरी विदाई में शरीक हुये।

अगर न्यूज चैनल पत्रकारिता कर रहे होते तो 28 दिसबंर की रात जब लडकी को इलाज के लिये सिंगापुर ले जाया जा रहा था उससे पहले सफदरजंग अस्पताल में लडकी के परिवार वाले और लडकी का साथी किस अवस्था में में रो रो कर लडकी का मातम मना रहे थे यह सब तब सामने ना आ जाता जो सिंगापुर में 48 घंटे के भीतर लडकी की मौत को लेकर दिल्ली में 31 दिसबंर को सवाल उठने लगे। आखिर क्यो कोई न्यूज चैनल उस दौर में लडकी के परिवार के किसी सदस्य या उसके साथी लडके की बात को नहीं दिखा रहा था। जबकि लडका और उसका मामा तो हर वक्त मीडिया के लिये उपलब्ध था। परिवार के सदस्य हो या लडकी का साथी। आखिर सभी को अस्पताल में दिल्ली पुलिस ने ही कह रखा था कि मीडिया के सामने ना जाये। मीडिया से बातचीत ना करें। केस बिगड सकता है।

वहीं जिस तरह बलात्कार को लेकर सडक पर सरकार-पुलिस और व्यवस्था को लेकर आक्रोष उमडा उसने ना सिर्फ न्यूज चैनलो के संपादको को बल्कि संपादको ने अपने स्ंवय नियमन के लिये मिलकर बनायी ब्राडकास्ट एडिटर एसोसियशन यानी बीईए के जरीये पत्राकरिता को ताक पर रख सरकारनुकुल नियमावली बनाकर काम करना शुरु कर दिया। मसलन नंबर वन चैनल पर लडके के मामा का इंटरव्यू चला तो उसका चेहरा भी ब्लर कर दिया गया। एक चैनल पर लडकी के पिता का इंटरव्यू चला तो चैनल का एंकर पांच मिनट तक यही बताता रहा कि उसने क्यो लडकी के पिता का नाम , चेहरे , जगह यानी सबकुछ गुप्त रखा है। जबकि इन दोनो के इंटरव्यू लडकी की मौत के बाद लिये गये थे। यानी हर स्तर पर न्यूज चैनल की पत्रकारिता सत्तानुकुल एक ऐसी लकीर खिंचती रही या सत्तानुकुल होकर ही पत्रकारिता करनी चाहिये यह बताती रही। यानी ध्यान दें तो बीईए बना इसलिये था कि सरकार चैनलो पर नकेल ना कस लें। और जिस वक्त सरकार न्यूज चैनलो पर नकेल कसने की बात कर रही थी तब न्यूज चैनलो का ध्यान खबरो पर नहीं बल्कि तमाशे पर ज्यादा था।

इसिलिये स्वयं नियमन का सवाल उठाकर न्यूज चैनलो के खुद को एकजूट किया और बीईए बनाया। लेकिन धीरे धीरे यही बीईए कैसे जडवत होता गया संयोग से  बलात्कार की कवरेज के दौरान लडकी के दोस्त के उस इंटरव्यू ने बता दिया जो ले कोई भी सकता था लेकिन दिखाने और लेने की हिम्मत उसी संपादक ने दिखायी जो खुद कटघरे में है और बीईए ने उसे खुद से बेदखल कर दिया है। इसलिये अब सवाल कही बडा है कि न्यूज चैनलो को स्वयं नियमन का ऐलान बीईए के जरीये करना है या फिर पत्रकारिता का मतलब ही स्वयं नियमन होता है जो सत्ता और सरकार से डर कर संपादको का कोई संगठन बना कर पत्रकारिता नहीं करते। बल्कि किसी रिपोर्टर की रिपोर्ट भी कभी कभी संपादक में पैनापन ला देती है। संयोग से न्यूजचैनलो की पत्रकारिता संपादको के स्वंय नियमन पर टिक गयी है इसलिये किसी चैनल का कोई रिपोर्टर यह खडा होकर भी नहीं कह पाया कि जब लडकी को इलाज के लिये सिंगापुर ले जाया जा रहा था उसी वक्त उसके परिजनो और इंटरव्यू देने वाले साथी लडके ने मौत के गम को जी लिया था।

Saturday, January 5, 2013

किसकी मुट्ठी में देश की तकदीर?


चालीस बच्चों के मां-बाप अपने बच्चो के साथ आगरा में पांच दिनों तक अपने खर्चे पर इसलिये रुके रहे कि साबुन बनाने वाली कंपनी के विज्ञापन में उनके बच्चे नजर आ जाये। सभी बच्चे चौथी-पांचवी के छात्र थे। और ऐसा भी नहीं इन चार पांच दिनों के दौरान बच्चो के स्कूल बंद थे। या फिर बच्चों को मोटा मेहताना मिलना था। महज दो से चार हजार रुपये की कमाई होनी थी। और विज्ञापन में बच्चे का चेहरा नजर आ जाये इसके लिये मां-बाप ही इतने व्याकुल थे कि वह ठीक उसी तरह काफी कुछ लुटाने को तैयार थे जैसे एक वक्त किसी स्कूल में दाखिला कराने के लिये मां-बाप हर डोनेशन देने को तैयार रहते हैं। तो क्या बच्चों का भविष्य अब काम पाने और पहचान बना कर नौकरी करने में ही जा सिमटा है। या फिर शिक्षा हासिल करना इस दौर में बेमानी हो चुका है। या शिक्षा के तौर तरीके मौजूदा दौर के लिये फिट ही नहीं है । तो मां बाप हर उस रास्ते पर बच्चों को ले जाने के लिये तैयार है, जिस रास्ते पढ़ाई-लिखाई मायने नहीं रखती है। असल में यह सवाल इसलिये कहीं ज्यादा बड़ा है क्योंकि सिर्फ आगरा ही नहीं बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों में करीब 40 लाख से ज्यादा बच्चे टेलीविजन विज्ञापन से लेकर मनोरंजन की दुनिया में सीधी भागेदारी के लिये पढ़ाई-लिखाई छोडकर भिड़े हुये हैं। और इनके अपने वातावरण में टीवी विज्ञापन में काम करने वाले हर उस बच्चे की मान्यता उन दूसरे बच्चो से ज्यादा है, जो सिर्फ स्कूल जाते हैं। सिर्फ छोटे-छोटे बच्चे ही नहीं बल्कि दसवी और बारहवी के बच्चे जिनके लिये शिक्षा के मद्देनजर कैरियर का सबसे अहम पढ़ाव परीक्षा में अच्छे नंबर लाना होता है, वह भी विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में कदम रखने का कोई मौका छोड़ने को तैयार नहीं होते।

आलम तो यह है कि परीक्षा छोड़ी जा सकती है लेकिन मॉडलिंग नहीं। मेरठ में ही 12 वी के छह छात्र परीक्षा छोड़ कम्प्यूटर साइंस और बिजनेस मैनेजमेंट इस्ट्टयूट के विज्ञापन फिल्म में तीन हप्ते तक लगे रहे। यानी पढ़ाई के बदले पढाई के संस्थान की गुणवत्ता बताने वाली फिल्म के लिये परीक्षा छोड़ कर काम करने की ललक। जाहिर है यहां भी सवाल सिर्फ पढाई के बदले मॉडलिंग करने की ललक का नहीं है बल्कि जिस तरह
शिक्षा को बाजार में बदला गया है और निजी कॉलेजो से लेकर नये नये कोर्स की पढाई हो रही है, उसमें छात्र को ना तो कोई भविष्य नजर आ रहा है और ना ही शिक्षण संस्थान भी शिक्षा की गुणवत्ता को बढाने के लिये कोई मशक्कत कर रहे है। सिवाय अपने अपने संस्थानो को खूबसूरत तस्वीर और विज्ञापनों के जरिये उन्हीं छात्रों के विज्ञापन के जरीये चमका रहे हैं जो पढाई-परीक्षा छोड़ कर माडलिंग कर रहे है। स्कूली बच्चों के सपने ही नहीं बल्कि जीने के तरीके भी कैसे बदल रहे है इसकी झलक इससे भी मिल सकती है कि एक तरफ सीबीएसई 10वीं और 12वीं की परीक्षा के लिये छात्रों को परिक्षित करने के लिये मानव संसाधन मंत्रालय से तीन करोड़ का बजट पास कराने के लिये जद्दोजहद कर रहा है। तो दूसरी तरफ स्कूली बच्चों के विज्ञापन फिल्म का हर बरस का बजट दो सौ करोड रुपये से ज्यादा का हो चला है। एक तरफ 14 बरस के बच्चो को मुफ्त शिक्षा देने का मिशन सरकार मौलिक अधिकार क जरिये लागू कराने में लगी है।

तो दूसरी तरफ 14 बरस के बच्चो के जरिये टीवी मनोरंजन और सिल्वर स्क्रीन की दुनिया हर बरस एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का मुनाफा बना रही है। जबकि मुफ्त शिक्षा देने का सरकारी बजट इस मुनाफे का
दस फीसदी भी नहीं है। यहां सवाल सिर्फ प्राथमिकताएं बदलने का नहीं है। सवाल है कि देश के सामने देश के भविष्य के लिये कोई मिशन,कोई एजेंडा नहीं है। इसलिये जिन्दगी जीने की जरुरतें, समाज में मान्यता पाने का जुनून और आगे बढ़ने की सोच उस बाजार पर आ टिका है, जहां मुनाफा और घाटे का मतलब सिर्फ भविष्य की कमाई है। और कमाई के तरीके भी सूचना तकनीक के गुलाम हो चुके हैं। यानी वैसी पढ़ाई का मतलब वैसे भी बेमतलब सा है, जो इंटरनेट या गूगल से मिलने वाली जानकारी से आगे जा नहीं पा रही है। और जब गूगल हर सूचना को देने का सबसे बेहतरीन मॉडल बन चुका है और शिक्षा का मतलब भी सिर्फ सूचना के तौर पर जानकारी हासिल करना भर ही बच रहा है तो फिर देश में पढाई का मतलब अक्षर ज्ञान से आगे जाता कहा है। इसका असर सिर्फ मॉडलिंग या बच्चों के विज्ञापन तक का नहीं है।

समझना यह भी होगा कि यह रास्ता कैसे धीरे धीरे देश को खोखला भी बना रहा है। क्योंकि मौजूदा वक्त में ना सिर्फ उच्च शिक्षा बल्कि शोध करने वाले छात्रों में भी कमी आई है, और जिन विषयों पर शोध हो रहा है, वह विषय भी संयोग से उसी सूचना तकनीक से आगे बढ़ नहीं पा रहे हैं, जिससे आगे शिक्षा व्यवस्था नहीं बढ पा रही है। यह सोच समूचे देश पर कैसे असर डाल सकती है यानी ज्यादा कमाई,ज्यादा मान्यता, ज्यादा चकाचौंध और कोई भी वस्तु जो ज्यादा से जुड़ रही है, जब उसमें शिक्षा कहीं फिट बैठ नहीं रही। ज्यादा कमाई और ज्यादा मान्यता की इस सोच के असर की व्यापकता देश की सेना के मौजूदा हालात से भी समझी जा सकती है। सिर्फ 2012 में दस हजार से ज्यादा सेना के अधिकारियों ने रिटायरमेंट लेकर निजी क्षेत्रो में काम शुरु कर दिया। क्योंकि वहां ज्यादा कमाई। ज्यादा मान्यता थी। मसलन बीते पांच बरस में वायुसेना के जहाज उड़ाने वाले 571 पायलेट नौकरी छोड निजी विमानों को उड़ाने लगे, क्योंकि वहां ज्यादा कमाई थी और अपने वातावरण में ज्यादा मान्यता थी। किसी भी निजी हवाई जहाज को उडाने के जरिये जो मान्यता समाज में मिलती उतनी पूछ वायु सेना से जुड़ कर नही रहती। चाहे सेना का फाइटर विमान ही क्यों ना उड़ाने का मौका मिल रहा हो। सोच कैसे क्यों बदली है। इसकी नींव को जानने से पहले इसकी पूंछ को सेना के जरिये ही पकड लें। क्योंकि भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां देश की सेना में 65 हजार से ज्यादा पद खाली हैं। और सेना में नौकरी ही सही उसके लिये भी कोई शामिल होने की जद्दोजहद नहीं कर रहा है। करीब 13 हजार ऑफिसर रैंक के अधिकारियो के पद खाली है। लेकिन जिस दौर में यह पद खाली हो रहे थे, उसी दौर में सेना छोड़ कर अधिकारी देश की निजी कंपनियों के साथ जुड़ रहे थे। कहीं डायरेक्टर का पद तो कही चैयरमैन का पद।
कहीं बोर्ड मेबर तो कही सुरक्षा सर्विस खोलकर नया बिजनेस शुर करने की कवायद। यह सब उसी दौर में हुआ, जिस दौर में सेना को सेना के अधिकारी ही टाटा-बाय बाय बोल रहे थे। देश के लिये यह सवाल कितना आसान और हल्का बना दिया गया है,यह इससे भी समझा जा सकता है कि संसद में सेना के खाली पदों की जानकारी देते हुये रक्षा मंत्री साफ कहते हैं कि थल सेना में 42 हजार से ज्यादा, नौ सेना में 16 हजार से ज्यादा और वायुसेना में करीब 8 हजार पद खाली है। और देश भर में जितनी भी एकडमी है जो सेना के लिये युवाओं को तैयार करती है अगर सभी को मिला भी दिया जाये तो भी हर बरस दस बजार कैडेट भी नहीं निकल पाते। जबकि इसी दौर में हर बरस औसतन बीस हजार से ज्यादा युवाओं को मनोरंजन उद्योग अपने में खपा लेता है। उन्हें काम मिल जाता है। और जिन स्कूलों की शिक्षा दीक्षा पर सरकार नाज करती है और प्राइमरी के एडमिशन से लेकर उच्च शिक्षा देने वाले संस्थानों में डोनेशन के जरिये एडमिशन की मारामारी में युवा फंसा रहता, अब वही बच्चे बड़े होने के साथ ही तेजी से उसी शिक्षा व्यवस्था को ठेंगा दिखाकर चकाचौंध की दुनिया में कूद रहे है। महानगर और छोटे शहरों के उन बच्चो के मां-बाप जो कल तक अत्याधुनिक स्कूलों में एडमिशन के लिये हाय-तौबा करते हुये कुछ भी डोनेशन देने को तैयार है, अब वही मां-बाप अपने बच्चे का भविष्य स्कूलों की जगह विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में सिल्वर स्क्रीन पर चमक दिखाने से लेकर
सड़क किनारे लगने वाले विज्ञापन बोर्ड पर अपने बच्चों को टांगने के लिये तैयार है। आंकडे बताते हैं कि हर नये उत्पाद के साथ औसतन देश भर में 100 बच्चे उसके विज्ञापन में लगते है। इस वक्त करीब दो सौ ज्यादा कंपनियां विज्ञापनों के लिये देश भर में बच्चों को छांटने का काम इंटरनेट पर अपनी अलग अलग साइट के जरिये कर रही है। इन दो सौ कंपनियों ने तीस लाख बच्चों का रजिस्ट्रेशन कर रखा है। और इनका बजट ढाई हजार करोड़ से ज्यादा का है। जबकि देश की सेना में देश का नागरिक शामिल हो, इस जज्बे को जगाने के लिये सरकार 10 करोड़ का विज्ञापन करने की सोच रही है। यानी सेना में शामिल हो , यह बात भी पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर मॉडलिंग करने वाले युवा ही देश को बतायेंगे। तो देश का रास्ता जा किधर रहा है यह सोचने के लिये इंटरनेट , गूगल या विज्ञापन की जरुरत नहीं है। बस बच्चों के दिमाग को पढ लीजिये या मां-बाप के नजरिये को समझ लीजिये जान जाइयेगा।