अगर संजय दत्त को राज्यपाल माफी दे सकते है और संजय दत्त इसके हकदार है तो प्रिया दत्त तो इसे खुलकर कह सकती है। लेकिन जिस देश में हजारो हजार कैदी हक़दार हैं तो प्रिया दत्त तो खुलकर कह सकती हैं। लेकिन जिस देश में हजारों हजार कैदी संजय दत्त से कहीं ज्यादा त्रासदी भोग रहे हों और माफी तो दूर उनकी जमानत तक देने वाला कोई ना हो तो संजय दत्त के लिये माफी का सवाल एक शर्म तो हो ही जाती है। और शायद प्रिया दत्त में यह शर्म होगी। यह सवाल इसलिये क्योंकि 25 मार्च को शाम 4 बजे जस्टिस काटजू से मुलाकात के लिये प्रिया दत्त को आना था। लेकिन वह नहीं आयीं। क्योंकि वहां मीडिया था। जस्टिस काटजू को लगता रहा कि जब वह खुले तौर पर संजय दत्त को माफी दिये जाने की पैरवी कर रहे हैं तो संजय दत्त की बहन प्रिया दत्त का तो यह हक है कि वह माफी की खुली वकालत करें। लेकिन प्रिया शायद इस सच को समझ गई कि उनकी अपनी राजनीतिक जमीन जिस वोट बैंक पर टिकी है वहां फिर उनकी नहीं चलेगी। क्योंकि संजय दत्त अगर माफी के हकदार होते हैं तो 93 ब्लास्ट में सहआरोपियों की एक लंबी लिस्ट है, जिन्हें संजय दत्त से पहले माफी मिलनी चाहिये। क्योंकि संजय दत्त के घर जिन हथियारो को रखा गया वहीं हथियार जाने-अनजाने ऐसे लोगों के हाथों भी गुजरा जिनका ब्लास्ट से कोई लेना देना नहीं था और वह सभी कभी दाऊद से मिले भी नहीं थे।
मसलन, जैबुशा कादरी, मंजूर अहमद, इब्राहिम मूसा, युसुफ नलवाला, करसी अदजनिया और ऐसे ही दर्जन भर दोषी हैं, जिनका केस संजय दत्त पर भारी है। या कहे राज्यपाल को अगर नैतिक तौर पर यह कहा जाये कि वह किसी एक को माफी दे दें तो संजय दत्त का नंबर दस के बाद ही आयेगा। जाहिर है प्रिया दत्त को चुनाव बी लड़ना है तो वह जस्टिस काटजू से शाम 4 बजे का वक्त लेकर नहीं पहुंची। क्योंकि मीडिया वहां पहुंच चुका था। और कानून के दायरे में फंसे सजाय़ाफ्ता लोगो के बारे में सवाल होते। उनके अपने लोकसभा क्षेत्र के लोगों को लेकर सवाल होते। असल में जस्टिस काटजू जिस दलील को दे रहे हैं और 20 बरस तक की त्रासदी भोगने के दर्द को संजय दत्त के साथ जोड़कर देख रहे है, अगर इस 20 बरस की त्रासदी को ही राज्यपाल से माफी की लकीर मान लें तो मौजूदा वक्त में उत्तर प्रदेश की जेल में 673 कैदी और बिहार में 467 कैदी ऐसे हैं, जो 20 बरस से ज्यादा वक्त से जेल में इसलिये है क्योंकि किसी की जमानत देने वाला कोई नही है तो किसी की सुनवाई हुई ही नहीं। और जेल ही घर बन चुकी है। दिल्ली के तिहाड जेल में सात कैदी बीते 38 बरस से जेल में हैं। और इन्हें सजा तीन से सात बरस की हुई थी। लेकिन इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। मुश्किल यह है कि कांग्रेस के महासचिव को संजय दत्त 33 बरस में भी नादान ही दिखायी देते है। एनसीपी और शिवसेना भी मानते हैं कि संजय दत्त को बहुत दर्द मिल चुका है। जबकि देश में कुल सवा तीन लाख सजायाफ्ता कैदियो में से 75 हजार कैदी ऐसे हैं जो आर्मस् एक्ट के तहत संजय दत्त से ज्यादा सजा भोग चुके हैं।
असल में संजय दत्त संभवत: देश के पहले ऐसे सजायाफ्ता अपराधी हैं, जिन्हें जमानत मिली। और जमानत के दौर में ही फिल्मो में काम करके दौ सौ करोड़ से ज्यादा बनाये। दर्जनों बार विदेश चले गये। शादी भी इसी दौर में कर ली। 2007-08 में तो एक न्यूज चैनल ने संजय दत्त को इयर अवार्ड से नवाजा। और संजय दत्त को सम्मानित करने और कोई नहीं देश के प्रधानमंत्री पहुंचे। यानी सबकुछ जमानत के दौरान। और अब जब देश की सबसे बडी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने सजा सुना दी तो संजय दत्त को माफी मिल जानी चाहिये। और यह बात भी और कोई नहीं प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के चेयरमैन और देश के जस्टिस रह चुके मार्कन्डेय काटजू कर रहे हैं। यानी दिल देश के लिये नहीं संजय दत्त के लिये धड़क रहा है। तो किन्हें नाज है इस हिन्द पर जहां सिस्टम फेल है। और सिस्टम ठीक करने की जगह सिस्टम में ही लाभ मिलने की कवायद वही कर रहे है जो खुद को हिन्द का नाज मानते हैं।
Monday, March 25, 2013
Friday, March 22, 2013
..तो संजय दत्त को माफी दे देनी चाहिये !
तो संजय दत्त को माफी दे देनी चाहिये। वाकई संविधान अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल को अधिकार देता है कि वह किसी भी सजायाफ्ता को माफी दे सकता है। तो माफी की फेरहिस्त खासी लंबी है । 1993 ब्लास्ट में दोषी पाये गये संजय दत्त को माफी देने की गुहार जिस तरह देश का विशेषाधिकार प्राप्त तबका लगा रहा है, उसने कई सवाल एक साथ खड़े कर दिये हैं। अगर संजय दत्त माफी के हकदार हैं तो संजय दत्त के घर से राइफल लेजाकर नष्ट करने वाला युसुफ नुलवाला क्यों नहीं। करसी अदेजानिया क्यों नहीं, रुसी मुल्ला क्यों नहीं। इसी फेहरिस्त को आगे बढ़ाये तो जैबुनिशा कादरी,मंसूर अहमद, समीर हिंगोरा, इब्राहिम मुसा चौहान सरीखे दर्जनों नाम 93 ब्लास्ट के दोषियों में से ही निकल कर आयेंगे, जिन्हें राज्यपाल चाहें तो माफी दे सकते हैं। सवाल सिर्फ 93 ब्लास्ट का नहीं है। अवैध या बिना लाइसेंसी हथियारों को रखने का खेल देश में कितना व्यापक है यह समझने से पहले जरा संजय दत्त को लेकर उठते माफीनामे की आवाज के पीछे के दर्द को देखिये।
सांसदों से लेकर बॉलीवुड के कई सितारे हैं, जिन्हें लगता है कि संजय दत्त की गलती लड़कपन वाली थी। कुछ को लगता है कि संजय दत्त की गलती नहीं थी बल्कि बुरी संगत का असर ज्यादा था। कुछ तो 92-93 के दौरान मुबंई के हालात को लेकर संजय के तर्क को सही मानते हैं। सिर्फ इन्हीं आधारों को माने तो 93 ब्लास्ट में 16 ऐसे दोषी हैं, जिनके साथ भी ऐसा ही कुछ है। तो क्या उन्हें माफी नहीं मिलनी चाहिये। हां, जो यह कहते हैं कि संजय दत्त के छोटे छोटे बेटे हैं और परिवार की त्रासदी या फिर सुनील दत्त या नरगिस के काम को याद करना चाहिये तो 93 ब्लास्ट के दोषियो की फेहरिस्त में कस्टम अधिकारियो से लेकर हथियारो को इधर उधर ले जाने वाले 9 दोषी ऐसे हैं, जो संजय दत्त के सामानांतर माफी के हकदार हैं। और जैसा जस्टिस काटजू की राय है कि बीते 20 बरस बहुत होते हैं, जिस दौरान संजय दत्त ने हर तरह की त्रासदी भोगी है तो देश के सच से जस्टिस काटजू इत्तेफाक नहीं रखते कि अलग अलग जेल में मौजूदा वक्त में तीन हजार से ज्यादा ऐसे कैदी हैं जो बीस बरस से ज्यादा वक्त से जेल में बंद इसलिये हैं क्योंकि उनकी जमानत देने वाला कोई नहीं है। उनके पास जमानत की रकम देने लायक कुछ भी नहीं है। वैसे भारत का सच अपराध को लेकर कितना भयावह है और कितनी बडी तादाद में मौजूदा वक्त में जंल में वैसे कैदी सड़ रहे है जिन्हें गैरकानूनी हथियारों को रखने भर से सालो साल से जेल में रहना पड़ रहा है उनकी तादाद 20 हजार से ज्यादा है। एक तरफ जमानत के पैसे नहीं है या फिर कोई जमानत लेने वाला नहीं है तो जेल में हैं तो दूसरी तरफ अवैध हथियारों को रखने के जुर्म में तयशुदा कैद से ज्यादा वक्त जेल में गुजारने के बाद भी कोई सुनने वाला नहीं है। जनवरी 2013 तक देश में 313635 कैदी अलग अलग जेलो में कैद हैं। इनमें से करीब 75 हजार कैदी अवैध हथियारों के खेल में ही फंसे हैं।
तिहाड़ जैसे जेल इस समय दो सौ से ज्यादा कैदी हथियारों की आवाजाही में ही फंसे हैं। किसी के तार खूंखार अपराधियों से जुंड़े हैं तो कोई देशद्रोहियों के साथ मिला हुआ पाया गया। यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, आर्म्स एक्ट और एक्सप्लोसिव सब्सटांस एक्ट के दायरे में आये कैदियों की सबसे लंबी फेहरिस्त पूरे देश की जेलों में है। लेकिन इनके लिये किसी विशेषाधिकार संपन्न सांसद या बालीवुड सरीके चमकदार तबके में से आजतक कोई आवाज नहीं उठी। वैसे हथियारों के मामले में हालात देश में कितने घातक हो चुके हैं, इसका अंदाज इसी से मिल जाना चाहिये कि मौजूदा वक्त में देश के भीतर 4 करोड़ राइफल या बंदूक हैं। जिनमें से सिर्फ 63 लाख राइफल रजिस्टर्ड हैं। यानी 3 करोड 37 लाख राइफल, बंदूक या पिस्टल गैर कानूनी हैं। और संयोग से 1993 के बाद के उन्हीं बीस बरस में जिस दौरान संजय दत्त त्रासदी भोगते रहे, देश में कुल 85 आतंकवादी धमाके हुये। जिसमें गैर कानूनी हथियारो का इस्तेमाल हुआ। और हथियारों की आवाजाही करने या हथियारो को रखने के आरोप में 1200 से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी देशभर में हुई। इन 1200 आरोपियों में से तक सिर्फ 27 को ही दोषी माना गया है लेकिन पुलिस ने किसी को मुक्त नहीं किया है। क्या किसी सांसद या बालीवुड के किसी सितारे ने कभी अपने विशेषाधिकार के तहत यह सवाल उठाया कि इन्हें जेल में क्यों रखा गया है। यानी सिर्फ इस सोच के आधार पर आतंक की घटना से जुडे आरोपियों को कैद रखा गया है कि इनके तार कहीं ना कहीं जुड़े हो सकते हैं। या छूटने के बाद यह कैदी किसी विस्फोट को अंजाम ना दे दे। मुश्किल यह भी है कि जस्टिस काटजू सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी को भी भूल गये, जहां 93 के ब्लास्ट पर फैसला सुनाते हुए कस्टम अधिकारियो को सजा सुनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट सिस्टम फेल होने की बात कहती है।
तो सिस्टम काम नहीं कर रहा है और देश के हजारों हजार कैदी इसके भुक्तभोगी हैं लेकिन जस्टिस काटजू ही नहीं बल्कि कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी और एनसीपी से लेकर शिवसेना तक को लगता है कि संजय दत्त को माफी मिल जानी चाहिये। जबकि 93 के बाद से देश में हुये 85 धमाकों के अंतर्गत गिरप्तार हुये सैकड़ों आरोपियों में से कोई ऐसा नहीं है, जिसके पास वह हथियार जब्त किये गये हो जो आतंकवादी कार्रवाई का हिस्सा रहे हो। 1993 में संजय दत्त को मुंबई की कानून व्यवस्था या पुलिस प्रशासन पर भरोसा नहीं था जो उन्हे एके-47 चाहिये थी। तो बीस बरस बाद देश के विशेषाधिकार तबके को अपने देश के कानून पर भरोसा नहीं है जो संजय दत्त को आर्म्स एक्ट के तहत पांच साल की सजा दे रहा है। सभी को राहत चाहिये. क्योंकि फिल्में पूरी हो सकें। बच्चो को पिता का प्यार मिलता रहे। और सुनील दत्त - नरगित दत्त का परिवार अकेले ना दिखायी दे। जस्टिस काटजू में यह परिवर्तन या प्यार संजू बाबा के लिये क्यों छलका है, यह बड़ा सवाल इसलिये है क्योंकि पिछले दिनो निर्भया के बलात्कार पर दिल्ली में मचे हंगामे पर जस्टिस काटजू ने लिखकर टिप्पणी की थी कि जब देश में 90 फीसदी महिलायें हाशिये पर हैं....और भूखे पेट सोती है तो अच्छा लगा था।
Tuesday, March 19, 2013
सिर्फ अपने में सिमट गया है आरएसएस
संघ अछूत हो या ना हो लेकिन संघ सर्वमान्य नहीं है, इस सच को तो संघ भी नकार नहीं सकता है। असल में संघ के भीतर यह सवाल हेडगेवार से शुरु हुआ और गोलवरकर के जाते जाते चला भी गया कि संघ को सर्वमान्य कैसे बनाया जाये। क्योंकि गोलवरकर के बाद देवरस से लेकर मोहन भागवत तक के पास इसका जवाब नहीं है कि जब संघ समाज के शुद्दिकरण पर भरोसा भी करता है और स्वयंसेवकों का शुद्दीकरण भी करता है तो राजनीतिक क्षेत्र में आये स्वयंसेवक कैसे दागदार हो गये। ऐसा भी नहीं है दागदार स्वयंसवकों को लेकर संघ परिवार के बाहर सवाल उठे। मुशकिल यह है कि हाल के दिनो में लालकृष्ण आडवाणी से लेकर नरेन्द्र मोदी और नीतिन गडकरी से लेकर प्रवीण तोगडिया तक पर संघ के भीतर ही सवाल उठे। कोई भी स्वंयसेवक यह कह सकता है कि समाज में आदर्श स्थिति तो कोई होती नहीं है, इसलिये स्वयंसेवकों के काम के तरीके पर जिन्ना के सवाल से लेकर गुजरात में मंदिरों को तोड़ने तक पर अगर सवाल उठे तो वह तातकालिक थे। तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि जिस हिन्दु संस्कृति का अलख संघ जलना चाहता है, वह क्या वाकई हिन्दुओं की संस्कृति से निकली हुई है। या फिर संघ ने अपने कामकाज के तरीको को ही संस्कृति मान लिया है। संघ की इन परिस्थितियों को टटोलने के लिये संघ के जन्म को ही राष्ट्र से जोड़ना भी जरुरी है। क्योंकि हेडगेवार कांग्रेस सदस्य के तौर पर समाजिक कार्य करते हुये राष्ट्रवाद की उस अलख को जगा नहीं पा रहे थे, जिस सपने को जगाने का सपना उन्होने आरएसएस के जरीये 1925 में पाला। लेकिन ऐसे क्या कारण रहे कि 1947 के बाद संघ की राष्ट्रवाद की सोच हिन्दुत्व के आवरण में समाने लगी और 21 वी सदी में कदम रखने से पहले ही हिन्दुत्व का आवरण भी भगवा रंग में समाने लगा।
असल में मु्श्किल यह नहीं है कि संघ सर्वमान्य नहीं है। मुश्किल यह है कि संघ के सरोकार समाज के हर हिस्से को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। फिर भी संघ को लगता है कि वह समाज के बहुसंख्य तबके को ना सिर्फ प्रभावित कर रहा है बल्कि समाज को उसी के रुप में ढल जाना चाहिये। लेकिन संघ के अपने अंतर्विरोध है क्या यह इस दौर में कही तेजी से उभरते हैं। मसलन अटल बिहारी वाजपेयी संघ के स्वयंसेवक तौर पर राजनीतिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा सफल हुये हैं। और उस कतार में अब नरेन्द्र मोदी भी चल निकले हैं। लेकिन क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतर यह बहस संभव है कि कि एक वक्त संघ के स्वयंसेवक प्रधानमंत्री वाजपेयी ने संघ के प्रचारक रहे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ाया था। और राजधर्म के पाठ को और किसी ने नहीं संघ परिवार ने ही खुले तौर पर खारिज किया था। लेकिन यह लकीर वक्त के साथ संघ के लिये कितनी छोटी हो गई और देश के लिये कितनी बड़ी हो गई यह दोनो सच मोदी के बढते कद से समझे जा सकते है। परेशानी यह है कि संघ को लेकर आदर्श स्थिति से दूर साफगोई और ईमानदार पहल भी बार बार कठघरे में खड़ी हो जाती है। और हर बार किसी अबूझ पहेली की तरह संघ अपने साफ कुर्ते पर लगते दाग को साफ करता हुआ नजर आता है। यहां यह सवाल बेमानी है कि संघ बाकियों से तो साफ है। संघ बाकियो की तुलना में तो ईमानदार है। यह सवाल संघ को लेकर इसलिये मायने नहीं रखते क्योंकि संघ बाकियो को ध्यान
में रखकर नहीं बना बल्कि बाकियों के विकल्प के तौर पर बना। और पहले सरसंघचालक हेडगेवार ने माना कि संघ की दृष्ठि भारतीय समाज को राष्ट्रवाद का नया पाठ पढायेगी। संघर्ष की नयी रोशनी देगी। शायद इसीलिये महात्मा गांधी हो या बाबा साहेब आंबेडकर दोनों ही संघ के समागम में पहुंचकर संघ की पीठ थपथापते हुये ही नजर आये। लेकिन यह मान्यता मौजूदा दौर में असम्भव है। और जब यह मान्यता नहीं मिलती तो संघ की तरफ अछूत कहलाने वाले सवाल उछाले जाते है तो संघ अपनी मान्यता पाने के लिये गेडगेवार और गोलवरकर के दौर की अपनी गरिमा को याद कर खुश हो लेता है। अतीत के आसरे भविष्य को तो मथा नहीं जा सकता और वर्तमान के लिये जिस संघर्ष, सादगी और शक्ति की जरुरत है अगर वह गायब है तो आरएसएस के हाथ क्या आयेगा।
इस मुश्किल सवाल का जवाब संघ अछूत है क्या ? के लेखक राजीव गुप्ता दे नहीं पाते हैं। और बहस सतही बन जाती है। जबकि संघ को लेकर समाज में पारंपरिक धरणा यही रही है कि राष्ट्रवाद की थ्योरी तले संघ को अपने कैनवास को भी इतना विस्तृत करना चाहिये जहां उसके पास स्वदेशी मंत्र हर क्षेत्र को लेकर हो। किसान से लेकर पिछड़े और जातियों में उलझे वोट बैंक की सियासत से लेकर साप्रदायिकता की लकीर को मिटाने वाली समझ पैदी करने की ताकत होगी। आदिवासी से लेकर महिलाओं के लिये स्वावलंबन की जमीन होगी। ध्यान दें तो संघ परिवार को वाकई मौजूदा दौर में देश के सामने वैकल्पिक व्यवस्था की सोच रखनी चाहिये थी। वह सक्षम हो या ना हो लेकिन इस दिशा में संघ के कदम बढ सकते थे। क्योंकि संघ की मान्यता सबसे बड़े परिवार के तौर पर देश में जरुर रही। लेकिन आरएसएस अगर संघ संस्कृति को ही हिन्दु संस्कृति मानने और मनवाने की सोच के साथ चल निकला तो उसका विजन या कहें दृष्टी संकीर्ण भी होती चली गई। इसलिये भारत को लेकर उसकी समझ हमेशा इंडिया से टकरायी। यानी सामाजिक संघर्ष का समूचा ताना बाना सत्ता के इर्द-गिर्द ही सिमटता चला गया। और सत्ता ने भी संघ पर उसी तर्ज में वार किया, जहां संघ अछूत लगे
या अछूत हो जाये। यह सत्ता की सफलता से ज्यादा बड़ी संघ की असफलता रही कि वह भी उसी कठघरे में संघर्ष करने लगा, जिस कठघरे को मिटाना संघ का काम था । ऐसे में विकल्प या सामानांतर नयी सोच को लेकर सामाजिक कार्य तो हुये नहीं सिर्फ भारत और इंडिया के बीच की दूरी पाटने के लिये भारत के भीतर संघ संस्कृति का आक्रोश समाता गया। जबकि राष्ट्रीय स्वयं संघ ना तो इतने छोटे कार्य के लिये बना था और ना ही मौजूदा वक्त में उसके संगठन का विस्तार इतनी छोटी समझ रखकर लंबे वक्त तक टिक सकता है। जाहिर है संघ मौजूदा वक्त में एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां स्वयंसेवकों के सामने ठीक वैसे ही सवाल है जैसे आजादी के बाद सत्ताधारियो को लेकर आम लोगो में थे। चूंकि सत्ता पर स्वयंसेवक के काबिज होने और काबिज कराने में ही संघ का समूचा चिंतन और उर्जा खप रहा है तो राजनीतिक स्वयंसेवक का महत्व संघ के भीतर भी सबसे ज्यादा हो चुका है। एक वक्त दत्तोपंत ठेगडी सरीखे वरिष्ठ स्वयंसेवक को भी स्वदेशी जागरण मंच के बैनर तले तात्कालिन वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा के बाजारवादी अर्थव्यवस्था से संघर्ष करना पड़ता है। जबकि सरकार स्वयंसेवक वाजपेयी की थी। और बीतते वक्त के साथ सरसंघ चालक मोहन भागवत के दौर में उन्हीं मुरलीधर राव को बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल होना पड़ता है जो ठेंगडी के प्रिय भी थे और स्वदेशी अर्थव्यवस्था को लगता भी था कि बीजेपी जब जब आर्थिक सुधार के नम पर फिसलेगी तब तब मुरलीधर
सरीखे युवा स्वदेशी जागरण मंच के स्वयसेवक विकल्प का रास्ता सुझायेंगे। यानी संघ की विकल्प की धारा ही लुप्त हो गई और वह उसी सियासत में समाने के लिये बेचैन है। सौ बरस से कम के संघ परिवार की सोच इस तरह भौथरी होगी यह तो होहगेवार ने भी नहीं सोचा होगा। और संगठन को विस्तृत करते गुरु गोलवरकर ने भी कभी महसूस नहीं किया होगा।
याद किजिये तो महात्मा गांधी की हत्या के बाद नेहरु की सत्ता ने संघ को खारिज इसलिये किया था क्योंकि संघ को लेकर उस दौर में यह माना गया कि उसका विश्वास भारत के संविधान पर नहीं है। और खुद संघ का भी अपना कोई संविधान नहीं है। तब गुरु गोलवरकर ने आरएसएस का संविधान बनाकर तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल को सौंपा। लेकिन मौजूदा हालात में क्या संविधान के जरीये देश के कल्याण की बात कही जा सकती है। संविधान जो अधिकार आम आदमी को देता है वह अधिकार आज की तारिख में सत्ता के लिये लड़ते राजनीतिक दलों के चुनावी मैनिफेस्टो का हिस्सा बन चुके हैं। राजनीतिक दल संविधान से ही छल कर रहे हैं। सत्ताधारी संविधान को ढाल बनाकर अपने अपराध को विशेष अधिकार में तब्दील किये हुये हैं। कानून भी पैसे वालों की रखैल बन चुका है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक इस देश के सौ करोड़ चाहकर भी पहुंच नहीं सकते। जो पहुंचता है वह खुद को बेच चुका होता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने के पानी जैसी न्यूनतम जरुरतों को भी धंधे से उसी आर्थिक व्यवस्था ने जोड़ा है जो विकास दर के आईने में देश की खुशहाली देखती है लेकिन संविधान के उस सच को खारिज करती है जो देश के नागरिकों के लिये लिखा गया। नरेगा, खाद्सुरक्षा विधेयक, बेटी बचाओ अभियान, पीडीएस सिस्टम , एक बल्ब योजना, पहले घर के लिये बिना इंटरेस्ट लोन और ना जाने क्या क्या योजनाये देश में उसी दौर में आयी हैं, जब संघ परिवार इन सारे क्षेत्रों में बकायदा अलग अलग संगठन के जरीये ना सिर्फ अलख जगाने का दावा कर रहा है बल्कि उसे लगने लगा है कि देश उसके भरोसे जाग जायेगा। लेकिन जरा सोचिये जिस देश की व्यवस्था जिन्दगी चुनावी सत्ता के नाम गिरवी रखवाकर जीने का हक दे उस देश में संविधान और आजादी के मतलब क्या है। संघ की सोच इस दायरे में कहां टिकती है। असल में संघ अछूत है या नहीं, यह सवाल भी वर्तमान हालात में बेमानी हो चले हैं क्योकि संघ को लेकर भरोसा उसी समाज का टूटा है, जिसका भरोसा सियासत और चुनावी सत्ता को काफी पहले ही टूट चुका था। और चूकि संघ के कामकाज आजादी के बाद चीन से युद्द का वक्त हो या इमरजेन्सी का दौर भरोसा आम लोगो में था। इसलिये संघ से भरोसा टूटने का मतलब है कहीं ज्यादा सामाजिक अवसाद लोगो के जहन में उतरना। और उसी का नतीजा है कि संघ को लेकर बहस समझौते ब्लास्ट या मालेगांव घमाके के बीच भी
होती है। और डांग के आदिवासियो से लेकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढहाने पर भी सिमटती है। मोदी के 2002 के आचरण में भी संघ का हिन्दुत्व ही नजर आता है और विकास की अंधी दौड में बीजेपी का शरीक होना भी संघ के भीतर के परिवर्तन को ही दिखलाता है। यानी जो संघ साफगोई के साथ देश को एक दिशा देने में आगे बढ़ सकता है, वह संघ आज अपने आस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुये दिखायी देता है। क्योंकि संघ के पास युवा पीढी के लिये कोई सरोकारी-सांस्कृतिक समझ नहीं है। किसान मजदूर को लेकर कोई पेट भरने का विजन नहीं है। आदिवासियो को मुख्यधारा से जोड़कर उनकी अपनी जमीन पर उन्हें खड़ा करने का माद्दा नहीं है। महिलाओ के जरीये समाज को आगे बढ़ाने की हिम्मत वाली समझ नहीं है। सत्ताधारियो को सिर्फ चुनावी तंत्र का हिस्सा बतलाने की हिम्मत नहीं है। अपने राजनीतिक स्वयसेवकों को राजनीति की वैकल्पिक धारा खिंचने देने का ज्ञान नहीं है। तो फिर संघ का मतलब क्या उसके अपने घेरे में संघ संस्कृति को जिन्दा रखना भर है। शायद आरएसएस मौजूदा वक्त में इसी मोड़ पर आ खड़ा हुआ है, जहां उसकी अपनी एक संस्कृति है जिसका सम्यता के विकास से कोई लेना देना नहीं है। और यह स्थिति अछूत कहलाने से ज्यादा बुरी है।
Friday, March 15, 2013
डेथ ड्रिल' को मात देकर इंदिरा को मात दी थी जेपी ने
'देवसहायम, मैं एक बार फिर असफल हो गया ।' जनता सरकार के पतन के बाद 1979 के मध्य में जब पटना के कदम कुआं में देवसहायम जेपी से मिले तो यही एक लाइन जेपी के मुंह से निकली और आँखों से आँसू टपक पड़े। इन आँसुओं के चंद महीनों बाद ही अक्तूबर में यह धुंरधर क्रांतिकारी, जो आजादी की लडाई में महात्मा गांधी की सेना का पैदल सिपाही रह चुका था और जिसने भारत को दूसरी आजादी दिलाने के लिये अकेले ही लोहा लिया था, उसने दुखी मन से दुनिया छोड़ दी। लेकिन जेपी के आँसुओं के पीछे सिर्फ दुख नहीं बल्कि हर क्षण संघर्ष करने का वह माद्दा था, जिसे इमरजेन्सी के दौर में जेपी ने जीया भी और खुद को मरने से बचाये भी रखा। क्योंकि उन्हें भरोसा था कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब वह अस्पताल बने जेल से बाहर निकल कर इंदिरा की सत्ता को पराजित करेगें और लोकतंत्र का नया राग देश को देंगे।
इमरजेन्सी के दौर में जेपी को पल पल मारने की इंदिरा की साजिश और पल पल जीने की जेपी की चाहत को सबसे नजदीक से और किसी ने नहीं उन्हीं देवसहायम ने देखा और भोगा, जिनके सामने जनता सरकार के पतन के बाद जेपी टूटे और बोले -"देवसहायम , मै एक बार फिर असफल हो गया।"
देवसहायम का पूरा नाम एमजी देवसहायम है और यह कोई दूसरे नहीं बल्कि इमरजेन्सी के दौरान चंडीगढ़ के जिला मजिस्ट्रेट थे। और इमरजेन्सी के एलान के साथ ही जेपी को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान से उठाकर पुलिस और कहीं नहीं चंडीगढ़ ही ले गई थी। जहां जेपी को लाया तो सिर्फ 15 दिनो के लिये गया था लेकिन उन्हें वहां 140 दिन रखा गया। चंडीगढ़ के पीजीआई के भूतल में जेपी के लिये बनाये गये वार्ड को ही जेल में तब्दील कर जिन परिस्थितियों में हर दिन जेपी को रहना पड़ा, उसके सबसे करीबी राजदार और कोई नहीं चंडीगढ के जिला मजिस्ट्रेट देवसहायम ही रहे। क्योंकि देवसहायम जिला मजिस्ट्रेट होने के नाते ''जेल में जेपी के संरक्षक थे।" और बतौर संरक्षक देवसहायम ने 26 जून 1975 से 15 नवंबर 1975 तक के दौरान जेपी के संघर्ष को भी देखा और इमरजेन्सी के कुचक्र को भी समझा और उसी दौर को दस्तावेज के तौर कागज में उकेर कर अद्भुत किताब "जयप्रकाश की आखिरी जेल " लिखी है। "जयप्रकाश की आखिरी जेल " कई मायनो में जेपी पर लिखी अनेक किताबो से ना सिर्फ अलग है बल्कि जेपी के जहन में इमरजेन्सी के दौर में क्या चल रहा था और इंदिरा गांधी की सत्ता जेपी को खत्म करने के कौन कौन से हथकंडे अपना रही थी, उसका पूरा ताना-बाना किताब में मौजूद है। और चूंकि बतौर जिला मजिस्ट्रेट देवसहायम इमरजेन्सी के कुचक्र को रचने में लगे नौकरशाहो की टीम का हिस्सा भी थे तो 38 बरस बाद जिस ईमानदारी से वह तब के हालात को बयां करते हैं, उसे पढकर किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं कि सत्ता जब मदहोश होती है तो कैसे संविधान को ताक पर रख कर सत्ताधारी खुद को सही ठहराने के लिये किसी भी हद तक चला जाता है। देश में कितनो को पता है कि जेपी को चंडीगढ़ पीजीआई में लाये जाने के चंद दिनों बाद ही जेपी के लिये डेथ ड्रिल की गई। इसे ऑपरेशन मेडिसीन नाम दिया गया। और इस डेथ ड्रिल की जानकारी देवसहायम के अलावा सिर्फ आठ लोगों को थी। जिसमें इंदिरा गांधी, गृह मंत्री,गृह राज्य मंत्री, गृह सचिव,कैबिनेट सचिव,विशेष सचिव शामिल थे। और डेथ ड्रील का मतलब था कैसे जेपी की मौत के बाद देश में खड़े होने वाले आंदोलन या बवाल को थामा जा सके। कैसे सेना को इससे दूर रखा जा सके। कैसे चंडीगढ़ में मौजूद आईटीबीपी और सीआरपीएफ की मदद आंतरिक सुरक्षा
के खतरे के नाम पर ली जाये। कैसे जेपी के अंतिम संस्कार को अंजाम दिया जाये। और इसके लिये कैसे दिल्ली से निर्देश दिया गया कि अंतिम संस्कार सरकारी सम्मान के साथ नहीं सिर्फ सम्मान के साथ सपन्न होगा। किताब सिर्फ इंदिरा गांधी के जेपी के इर्द-गिर्द कसते शिकंजे ही नहीं बताती बल्कि शिकंजे के दौरान जेपी को लेकर आम आदमी के मानस पटल पर पड़ रहे प्रभाव को भी उकेरती है।
मसलन 7 जुलाई से कॉलेजो के खुलने के बाद अगर छात्रों को पता चल जाये कि जेपी पीजीआई में कैद है तो चंडीगढ़ में क्या कुछ हो सकता है और इसके लिये जेपी को क्या जेल में शिफ्ट कर दिया जाये। हर तरह की व्यूह रचना के सामानातंर उस वक्त जेपी के अंदर जो गहन संघर्ष चल रहा था, उस धड़कन को पकड़ने का प्रयास "जयप्रकाश की आखिरी जेल" में किया गया है। क्योंकि लेखक ही प्रतयक्षदर्शी थे। तो वह किताब लिखते वक्त यह कहने से नहीं चूकते कि मै एक आईएस अधिकारी तो जरुर था लेकिन मै इस देश का नागरिक पहले था। जिसके लिये आजादी सबसे ज्यादा महत्व रखती थी और शायद इसीलिये जेपी के हर पत्र जो जेल में रहने के दौरान लिखे गये और जो मौखिक जवाब सरकार की तरफ से निर्देश के तौर पर चंडीगढ़ आये उसके बीच में लेखक ही थे तो किताब "जयप्रकाश की आखिरी जेल " दस्तावेज की तरह है। मसलन 21 जुलाई को जेपी का इंदिरा को लिखा गया पत्र। जिसमें जेपी ने प्रभा की गोदी में खेल कर बड़ी हुई इन्दु यानी इंदिरा को पत्र लिखकर लोकतंत्र की हत्या की त्रासदी बयान की है। यह पत्र क्यों आवाम के सामने नहीं आया। और अगर आता तो क्या आशंकाए थीं। और पत्र के वह शब्द जिसमें जेपी लिखते है...मेरे चारों तरफ बूचडखाने हैं। मुझे डर है कि जीवन में मुझे ये दोबारा न देखने पड़े। हो सकता है मेरे भतीजे-भतीजियों को देखना पड़े। हो सकता है...लंबे पत्र के सार की यही दो बूंदे थी, जो मैं बिहार आंदोलन के अर्क के रुप में निकालना चाहता था। लेकिन आज में यहा उसी लोकतंत्र की मौत होते देख रहा हूं ।"
असल में किताब "जयप्रकाश की आखिरी जेल " इमरजेंसी के दौर की तमाम चिट्ठी पत्री इस किताब में दस्तावेज के रुप में मौजूद है। आलम यह है कि इंदिरा गांधी ने जो चिट्ठी राष्ट्रपति को लिखी वो चिट्ठी भी आज सरकार के पास नहीं है, जिस पर इंदिरा के हस्ताक्षर हैं। और लेखक ने बाकायद आरटीआई के जरिए सरकार से इन दस्तावेजों को समेटा है। इससे पता चलता है कि इमरजेंसी किस तरह से इंदिरा गांधी ने देश पर थोपी। जेपी को समझने जानने के इच्छुक लोगों के साथ इतिहास में रुचि रखने वालों को इस किताब को जरुर पढ़ना चाहिए।
नाम -----जयप्रकाश की आखिरी जेल
लेखक----एम जी देवसहायम
प्रकाशक---वितस्ता [टाइम्स ग्रुप बुक्स]
कीमत- 295 रुपए
Friday, March 8, 2013
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का खोखलापन
राहुल से लेकर मोदी तक से सपने बुनने का मतलब
राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी अलग दिखायी दे सकते हैं। मनमोहन सिंह और राजनाथ अलग हो सकते हैं। लेकिन देश के मौजूदा हालात में कोई यह कहे कि राजनीतिक प्यादों को छांट छाट कर अलग कर दीजिये, जिससे उनके कामकाज से पता चल जाये कि राजनीतिक तौर पर रास्ता हर किसी का अलग है तो क्या यह संभव है। यह सवाल इसलिये क्योंकि हरीश चौधरी, राजीव साटव, मुरलीधर राव, अमीत शाह, ज्योति मिर्धा, उमा भारती, कृष्णा वेरेगौडा, वरुण गांधी, अशोक तंवर, शनीमोल उस्मान या मीनाक्षी नटराजन किसी भी राजनीतिक दल के साथ काम करें, इससे देश की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ेगा। जाहिर है आप और हम मौजूदा वक्त में हिन्दुत्व का घोल, सांप्रदायिकता का चेहरा और विकास की राह के साथ साथ सेक्यूलर होने का रास्ता इन चेहरो से कैसे पकड़ सकते हैं। यह सवाल इसलिये क्योंकि जो सवाल आने वाले वक्त में कांग्रेस में राहुल गांधी की नयी टीम को लेकर खड़े हो रहे हैं और जो सवाल राजनाथ या मोदी की टीम को लेकर खड़े होंगे, उसमें टीम के चेहरों को लेकर कई सवाल इसलिये उभरेंगे क्योंकि राहुल हो या मोदी या फिर राजनाथ सिह ही क्यों नहीं, अगर यह सत्ता के प्रतीक बन चुके हैं तो इनकी टीम के हर चेहरे के जरीये मोदी या राहुल की राजनीतिक भंगिमा को तलाशने का काम शुरु होगा ही। जो शुरु हो चुका है।
तो राजनाथ की नयी टीम में मुरलीधर राव का मतलब स्वदेशी जागरण मंच यानी देसी आर्थिक नीतियों का लब्बोलुआब देखा जा सकता है। बहस तो होगी। लेकिन मुरलीधर राव का मतलब है क्या, जब दत्तोपंच ठेंगडी के साथ रहते हुये वह वाजपेयी सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध करते थे या फिर नीतिन गडकरी के दौर में उन्हें दिल्ली के अशोक रोड स्थित बीजेपी हेडक्वार्टर में बतौर महासचिव जगह मिल गई। वहीं गडकरी जो स्वदेशी के रास्ते कभी चले नहीं और मानते भी नहीं है। पूर्ति का बाजारवाद सबके सामने है। इसी तरह मीनाक्षी नटराजन का नाम लिय़ा जा सकता है। क्या यह माना जाये कि राहुल गांधी कांग्रेसियों की राजनीति को जिस तर्ज पर मंडी में बदल कर नया आयाम देना चाहते हैं, उसमें मीनाक्षी नटराजन फिट बैठती हैं या फिर एनजीओ की तर्ज पर काम करने के तौर तरीके राहुल को भा रहे हैं। और देश का राजनीतिक मिजाज मीनाक्षी नटराजन सरीखे राहुल के करीबियो से कांग्रेस की बदलती राजनीति को देखने के लिये बेताब है। असल में यह किसी भी नाम को कहा जा सकता है कि उसका रास्ता जिस पार्टी या नेता के साथ बन रहा है उससे हटकर अगर कोई दूसरा रास्ता वह बना लेता है तो फिर उस नये रास्ते का विशलेषण भी नये तरीके से होगा। यह विश्लेषण अतीत में संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम के जरीये भी समझा जा सकता है और मौजूदा दौर में वरुण गांधी के जरीये भी परखा जा सकता है। संजय गांधी ने पुरानी दिल्ली के जिस मुस्लिम बहुल इलाके में सत्तर के दशक में हंगामा मचाया, उसे अब के दौर में बीजेपी की सियासत के सबसे अनुकूल माना जा सकता है। और वरुण गांधी अपने भाषण से जो उन्माद पैदा करते हैं, उसके चंद शब्दो को अलग भगवा से तिरंगे या कहे धर्म के बदले राष्ट्रवाद में बदल दें तो वह काग्रेस के लिये सबसे फिट भाषण हो सकता है। तो पहली नजर में यह तो तय है कि मौजूदा वक्त राजनीति को साधने के लिये राजनीतिक धारणा बनाता है और उसी आसरे देश में सत्ता का बदलना और लोकतंत्र का राग गाया जाता है।
लेकिन प्यादो से इतर राजनीतिक दल या नेतृत्व वाली शख्सियतों को भी मौजूदा दौर में टटोले तो कई सवाल मोदी पर जा कर ठहरते हैं। मसलन देश जब बीते दो दशको से गठबंधन की सियासत को ही देख रहा है और राष्ट्रीय राजनीतिक दल यह मान चुके हैं कि वह खुद के बूते सत्ता में आ नहीं सकते तो फिर क्या छोटा और क्या बड़ा दल। हर की अपनी भूमिका अपने घेरे में किसी दूसरे से अलग होगी नहीं। इसलिये वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम पहली बार राजनीतिक शून्यता को आईना दिखा रहे हैं। मोदी के पीछे अगर समूचा संघ परिवार एकजूट हो जाये और भाजपा के भीतर भी सहमति बन जाये की मोदी की अगुवाई ही होगी तो चुनावी समीकरण बताते हैं कि देश में मतदाताओ के बीच एक लकीर खिचेगी। जो किसी दूसरे नेता को लेकर नहीं खींची जा सकती। यानी भाजपा अगर नरेन्द्र मोदी के बगैर चुनाव मैदान में है तो भाजपा और कांग्रेस के बीच कुछ ज्यादा फर्क दिखायी नहीं देता। वहीं आर्थिक नीतियां। वही बाजारवाद। वही नौकरशाही। वहीं सियासत। वही विदेश नीति। और देश के भीतर भी हर मुद्दे को लेकर वही समझ जो कांग्रेस की है। कमोवेश तीसरे मोर्चे की समझ भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के कार्बन कापी से आगे निकलती दिखायी नहीं पड़ती। हां, तीसरे मोर्चे का मतलब बहुत सारे राज्यों की नुमाइन्दगी के साथ सत्ता का बनना होगा तो हर राज्य की राजनीति सत्ताधारी राजनीतिक दल की भूमिका में कहीं बड़ी होगी। तो दिल्ली की नीतियां हर राज्य को प्रभावित करेगी। यानी तीसरे मोर्चे का नजरिया सत्ता को बनाये रखने के लिये ही सही आम वोटरों से जुड़ा हुआ दिखायी जरुर देगा। लेकिन यह स्थिति अराजक भी हो सकती है क्योंकि राज्यों का टकराव राष्ट्रीय नीति तय कर नहीं पायेंगे। यानी घरेलू मोर्चे पर मोदी को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच जो लकीर मुसलमान और हिन्दुओं को लेकर अभी तक खींची जाती रही है, वह भी इस दौर में मिट चुकी है। क्योंकि वोट बैंक बनाने या वोट को बैंक के रुप में खड़ा करने के लिये विकास की जो नयी थ्योरी राजनीतिक तौर पर देश में परोसी गई है, उसके पीछे कॉरपोरेट लाभ और मुनाफा बनाने के थ्योरी के अलावा और कुछ है नहीं। और कॉरपोरेट पूंजी भी अब इस सच को समझ चुकी है कि राजनीतिक दल के तौर पर सरोकार की राजनीति मौजूदा दौर में ना कोई कर रहा है और ना ही करते हुये सफल हो सकता है यानी सत्ता में आ सकता है। तो कॉरपोरेट ने भी अपने प्रिय नेताओं को ही अगुवा करने का खेल शुरु किया है यानी सीट दर सीट लोकसभा उम्मीदवारों को ताड़ने में कॉरपोरेट लगातार लगा है और हर सांसद के पीछे लगने वाली पूंजी भी जब उघोगपतियों की अंटी से निकल रही है तो सत्ता समीकरण का मतलब भी सत्ता में आने के बाद उसी विकास की थ्योरी को देश की नीति में परिवर्तित करना है, जिससे लाभ चुनाव में पूंजी लगाने वालो को हो ।
असर इसी का है कि राजनीतिक दलो के पीछे खडा होने की जगह सत्ता सियासत में अगुवाई करने वाले नेता को ही सबसे श्रेष्ट बनाने और करार देने को ही सबसे महत्वपूर्ण बनाया जा रहा है । जिससे हर नीति पार्टी लाइन से आगे निकल कर पार्टियो की सहमती की दिशा पकड लें । और उसी सोच के अनुसार ही समूची सियासत को चलना होगा और राजनीतिक मुद्दे भी उसी घेरे में घुमेगें । याद किजिये तो पी चिंदबरम को लेकर बीते दिनो अमेरिका की नामी पत्रिका द इक्नामिस्ट ने एक रिपोर्ट फाइ की। जिसमें चिदबरंम को आने वाले वक्त का प्रधानमंत्री बताया गया। यानी एक ऐसे शख्स को राजनीतिक तौर पर सबसे श्रेष्ठ माना गया, जिसकी अपनी राजनीति उसके अपने लोकसभा क्षेत्र से बाहर किसी को प्रभावित करती नहीं है। यानी जिस चिदबंरम को बतौर मनमोहन सिंह के आर्थिक नीतियों के सिपाही के तौर पर ही राजनीतिक पहचान मिली, उसे इक्नामिस्ट मनमोहन सिंह के रिटायरमेंट के बाद देश में सबसे उम्दा प्रधानमंत्री मानने से नहीं हिचकती। इसी के सामानांतर नरेन्द्र मोदी के पीछे खड़े कॉरपोरेट खिलाड़ियों के राजनीतिक वक्तव्यों को भी देखना जरुरी है। नरेन्द्र मोदी के हर बरस गुजरात वाइब्रेंट के दौरान देश के टॉपमोस्ट कारपोरेट घराने खुल कर मोदी को प्रधानममंत्री के लिये सबसे उम्दा नेता करार देते रहे हैं। और यह सिलसिला 2007 से शुरु हुआ जो 2012 में मोदी की जीत की तिकड़ी के बाद कहीं ज्यादा तेज हुआ है। यानी वह मोदी जो पांच करोड़ गुजरातियों की सियासत को हिन्दुत्व और विकास की चकाचौंध से जोड़कर राजनीति का सबसे बेहतरीन कॉकटेल बनाते है, उसे सवा सौ करोड भारतीयों के लिये सबसे श्रेष्ठ नेता मान लिया जाता है। जबकि मोदी के सियासी काकटेल में ना तो 25 करोड़ मुसलमानो की जगह है और ना ही बीस रुपये प्रतिदिन पर जीनेवाले 70 करोड़ भारतीयो की। हां, मोदी का काकटेल 20 से 25 करोड़ मध्यम वर्ग की भावनाओ को जरुर प्रभावित करता है। लेकिन देश की त्रासदी देखिये कि संयोग से इतना भी प्रभाव किसी दूसरे नेता का देश में नहीं है। और भाजपा ही नहीं समूचे संघ परिवार को भी यह लगने लगा है कि मोदी की अगुवाई का संसदीय राजनीति के समीकरण में पहली बार संघ के किसी प्रचारक की लोकप्रियता का चरम है। यानी जिस कांग्रेस ने हमेशा संघ परिवार पर निशाना साध कर भाजपा को सांप्रदायिकता के कटघरे में खड़ा किया और भाजपा कभी उससे निकल नहीं पायी। ऐसे मोड़ पर पहली बार नरेन्द्र मोदी के जरीये कांग्रेस भी चाह रही है कि मोदी अगुवाई करने गुजरात से दिल्ली ये जिससे विकास के रास्ते एक लगते कांग्रेस और भाजपा के बीच कोई लकीर तो खींची जाये और संघ परिवार को भी लग रहा है कि चाहे मोदी को आगे करने के उनके फैसले से कांग्रेस को राजनीतिक जीवनदान ही क्यों ना मिले लेकिन मौका यही है कि हिन्दुत्व की घुट्टी पिलाते हुये मोदी के विकास के जरीये ही सही देश के मुसलमानो के सामने भी चित-पट खा खेल खेलना होगा जिससे आरएसएस के लिये भविष्य का रास्ता तो बने चाहे कांग्रेस मोदी का विरोध कर साप्रदांयिक तौर पर देश में लकीर खींचे। यानी जिस नरेन्द्र मोदी की पहचान गुजरात को हिन्दुत्व की सावरकर स्टाइल वाली प्रयोगशाला के जरीये पहचान मिली। वहीं नरेन्द्र मोदी विकास और बाजार की थ्योरी तले काग्रेस के अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र को चुनौती देते हये काग्रेस से एक कदम ना सिर्फ आगे दिखायी देने लगे है बल्कि कारपोरेट और बाजार की आवारा पूंजी के भी नायक लगने लगे है। यानी जिस मनमोहन सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ऐसे मोड़ पर आ खडी हुई, जहां देश के भीतर राजनीतिक बदलाव की बयार बहने लगी और कांग्रेस की नीतियां ही मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र से बार बार हार गई। वहां पहली बार नरेन्द्र मोदी के विकास की थ्योरी को विकल्प मानने और बनाने की तैयारी में वहीं कॉरपोरेट और खुला बाजार है, जिसके भरोसे मनमोहन सिंह ने यूपीए-1 का बेड़ा पार किया और यूपीए-2 के दौर में उसी कारपोरेट और खुले बाजार की चलनी बंद हो गई। तो क्या राजनीतिक विकल्प में मोदी कारपोरेट और खुले बाजार के नायक हो चुके हैं। या फिर संघ परिवार को लगने लगा है कि जिस स्वदेशी जागरण मंच के आसरे उसने अयोध्या आंदोलन के दौर में आर्थिक विकल्प की बात की । लेकिन सत्ता में आने के बाद जब उसके अपने स्वयंसेवक ही पलट गये। स्वदेशी की सोच आर्थिक सुधार नीति के ट्रैक -2 के तहत और किसी ने नहीं वाजपेयी सरकार के दौर में वित्त मंत्री यशंवत सिंन्हा और जसंवत सिंह ने ही पलटा। क्योंकि उन्हें भी सत्ता में बने रहने के लिये उसी पूंजी की जरुरत थी जो पूंजी मौजूदा वक्त में मोदी के पीछे खड़ी है। इसलिये आरएसएस इस हकीकत को जानता - समझता है कि मोदी विकास की कितनी भी बात कर लें आखिर में उन्हे संघ के प्रचारक वाली भूमिका में आना ही होगा जैसे गुजरात मे नजर आये। और वाजपेयी के राजघर्म की परिभाषा को भी संघ ने सदा वतस्ले के तहत खारिज कर मोदी की सत्ता बरकरार रखी।
अब सवाल है कि क्या देश की राजनीति वाकई ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां काग्रेस की सत्ता के विकल्प के तौर पर गुजरात के मोदी को देखा जा रहा है । ध्यान दें तो मोदी का कद भाजपा से बड़ा हो चुका है और संघ परिवार मोदी में स्वयंसेवक को नायक बनता हुआ देख रहा है। यानी भाजपा विकल्प नहीं है विकल्प मोदी हैं। इसलिये चुनावी गुणा-भाग भी मोदी के हक में जा रहा है। क्योंकि पहली बार कांग्रेस को और कोई राहुल गांधी मथना चाह रहे हैं। यानी जो गांधी परिवार हमेशा खुद को कांग्रेस से बड़ा मानता रहा, उस गांधी परिवार के नये नायक काग्रेस के जरीये अपनी सत्ता बनाने की राह पकडने की जद्दोजहद में लगे हैं। दूसरी तरफ गांधी परिवार की तर्ज पर नरेन्द्र मोदी खुद में भाजपा को देखना चाह रहे हैं। और यह समीकरण कांग्रेस के लिये भी फिट है और संघ परिवार के लिये भी। कांग्रेस के लिये मोदी का नायक बनना उसके अपने पारंपरिक वोट बैंक का जुड़ना है। कांग्रेस इस हकीकत को समझ रही है कि देश की सियासी रीजनीति में पहली बार क्षत्रपों की भूमिका ना सिर्फ गठबंधन की जरुरत है बल्कि जितने मुद्दे मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था ने खड़े कर दिये हैं, उसमें उसकी राष्ट्रीय छवि अब फिट बैठती नहीं है क्योंकि भूमि के सवाल पर किसान उसके खिलाफ हैं। जंगल कटने के नाम पर आदिवासी उसके खिलाफ हैं। खनन से लेकर पावर इंडस्ट्री तक के दायरे में किसान, मजबूर, आदिवासी और ग्रामीण सरकारी मुआवजे पर आ टिके हैं। और यह सारी आर्थिक नीतियां जो 2004 में शुरु हुई वह गुब्बारे की तरह 2009 तक तो फुलती रही लेकिन उसके बाद भ्रष्टाचार और महंगाई ने इस गुब्बारे की हवा निकाल दी है। और जो काम या कहे जो फाइलें यूपीए -1 के दौरान मनमोहनइक्नामिक्स पर सवार होकर रफ्तार पकड़े हुये थी, वह यूपीए-2 में हर नौकरशाह की टेबल पर रुकी पड़ी है। कोई बाबू किसी फाइल पर चिडिया बैठाने से इसलिये कतराने लगा है क्योंकि जिस अर्थनीति को पहले राजनीति का आसरा था अब वही अर्थनीति राजनीतिक कठघरे में खड़ी है। आईपीएल से लेकर कोयला घोटाला। गेहूं की खरीद या बासमती चावल के निर्यात का घोटाला। यूरिया से लेकर एस बैंड तक का मामला और 2 जी से लेकर हेलीकाप्टर का घोटाला। हर दायरे में राजनेता, नौकरशाह और कारपोरेट का काकटेल ही सामने आया। और इसी दौर में जांच एंजेंसियों की जांच तक पर और किसी ने नहीं सुप्रीम कोर्ट तक ने अंगुली उठायी। यानी 21 सदी में जो भारतीय बाजार मनमोहन सिंह की इक्नॉमिक्स के जरीये दुनिया के लिये दरवजे खोल रहा है और देसी करपोरेट इसी दौर में मुनाफा बना कर बहुराष्ट्रीय बन गया , उसमें मौजूदा दौर में ब्रेक लगी है। क्योंकि चुनावी राजनीति के दायरे हर राजनीतिक दल को यह एहसास हो चला है कि यह वक्त चंद हथेलियों में तो सिक्के भर रहा है लेकिन बहुंसंख्यक तबके के हाथ खाली हैं। और जिन हथेलियों पर सिक्के भर चुके हैं, अब उसे इसी देश में जीने के दौरान तंगी महसूस होने लगी है क्योकि आधारभूत इन्फ्रस्ट्क्चर ही गायब है। पढे-लिखे युवा बेरोजगार तबके का आंकडा बढ़ रहा है और उसमें आक्रोश पनप रहा है। लेकिन इससे ज्यादा आक्रोश उस युवा में है जो रोजगार पाये हुये है। बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहा है लेकिन देश बिना भ्रष्टाचार कोई काम ना होते हुये देख देख कर परेशान है। बढ़ते बाजार में खुद को बीपीओ से लेकर किसी कॉफी शाप तक में खपाने वाले युवा तबका संसद के भीतर की सतही बहस से लेकर नीतियों के अमलीकरण के दौरान होती सियसत से गुस्से में है। मुश्किल यह है कि पहली बार राजनीति के प्रति घृणा और राजनेताओं को लेकर आक्रोश है लेकिन राजनीतिक विकल्प ने के तौर तरीके भी वहीं हैं, जिसकी वजह से गुस्सा है।
अन्ना हजारे से लेकर अरविन्द केजरीवाल यानी सामाजिक आंदोलन से लेकर राजनीतिक दल को लेकर विकल्प बनाने से लेकर विकल्प बनने को लेकर बहस ने बार बार मौजूदा व्यवस्था में उन्हीं नेताओं के लिये जमीन बना दी जो आंदोलन के दौर में जमीन खोते नजर आ रहे थे। मसलन नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मुलायम सिंह यादव, जयललिता , मायावती से लेकर भाजपा के क्षत्रप [शिवराज चौहान, रमन सिंह, मोदी ] राष्ट्रीय राजनीति के नायको से अच्छे लगने लगे। जबकि सभी क्षत्रपों की सफलता की कुंजी कांग्रेस की जोड़ तोड वाली राजनीति और मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स के ही दायरे में सिमट कर अपने अपने अनुकूल राजनीतिक जमीन बनाने में जुटी रही। विकास दर के आईने में राज्य की अर्थव्यवस्था को परखना और जातीय समीकरण के दायरे में राजनीतिक सफलता पाना मौजूदा राजनीति की जरुरत बनी है। और सफलता दर सफलता का मतलब सिवाय चुनाव जितने के रास्ते को बनाने के अलावा और कुछ है नहीं । तो विपक्ष की भूमिका भी चुनाव जीतने के हथकंडों के जुगाड़ में ही खोयी है।
इसीलिये यह मुदद्दा देश की बहस से गायब है कि दुनिया के सबसे बड़े बाजार में बदलते भारत में बीपीएल परिवारों को अन्न मुफ्त में देना या दो रुपये किलों के हिसाब से बांटना जरुरी क्यों है। क्यों विकसित होते भारत में बिना विजन के साढे चार हजार करोड़ के मनरेगा के जरीये जमीन पर मिट्टी खोदना और दस्तावेजो में कालम भरना भर ही विकास का रोजगार हो चला है। और उसमें भी भ्रष्टाचार होने पर सीधे बैंकों के जरीये नकद की व्यवस्था हर गरीब के हाथ करा देना आखरी तरकश क्यों है। और इसी के सामानातर क्षत्रपो की राजनीति भी देश के संविधान का माखौल उड़ा कर संविधान से मिलने वाले हर अधिकार को अपने चुनावी घोषणापत्र में डालकर ठहाका लगा कर यह ऐलान करने से नहीं से नहीं चूक रही है कि वह सबसे ज्यादा जनहित के बारे में सोचती हैं। तो क्या मौजूदा वक्त में देश का मतलब ही सत्ता चुनाव हो चुका है। संसद से सड़क तक जो भी नीतियां बनें या जो भी जन-आंदोलन खड़े हों उसका मकसद सिर्फ और सिर्फ सत्ता पाना ही हो चला है। और चूकि सत्ताधारियों ने ही देश को पटरी से उतारा है और सबकुछ सत्ता में समेट दिया है तो सत्ता पाने के बाद ही देश को पटरी पर लाया जा सकता है। बिना उसके संघर्ष का मतलब है सत्ता के निशाने पर रहना और सीबीआई से लेकर थाने के पुलिस वालो के सामने घुटने टेकते रहना। ध्यान दें तो मौजूदा वक्त इसका गवाह है कि देश राजनेताओं, नौकरशाहो और कारपोरेट घरानों में सिमटा हुआ है। यह तीनो स्तंभ सत्ताधारी हैं। यानी जो सवाल आजादी के बाद संसदीय राजनीति के जरीये जोड़े गये और लोकतंत्र का गान किया गया वही सवाल साठ बरस बाद राजनेताओं और राजनीतिक दलों से जोड़ दिया गया है। और चुने गये नेता को ही लोकतंत्र का सबसे सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ मान कर देश की पहली और आखिरी जरुरत मान लिया गया है। संयोग से मौजूदा दौर में आक्रोश लोकतंत्र के इसी नेता गान को लेकर है।
Tuesday, March 5, 2013
इस देश में कौन सुरक्षित है.....अपना नाम बताये
सत्ता की चौखट से निकलते सालाना पांच लाख अपराध
पंजाब के तरनतारन में सड़क पर सरेआम पुलिस जसलीन कौर को डंडे से मारती है। थप्पड़ बरसाती है। जसलीन कौर को जमकर मारने से पहले जसलीन के पिता को मार कर अधमरा करती है। यूपी के कुंडा में डिप्टी एसपी को चंद नेता टाइप गुंडे सरेआम सरिया, डंडे से पीटते हैं। अपने ही बॉस को पिटता देखकर तमाम वर्दीधारी वहां से खिसक जाते हैं और उसके बाद सरेआम डिप्टी एसपी को गोली मार दी जाती है। महाराष्ट्र के सतारा में मेडिकल में प्रवेश के लिये उत्तर भारत से पहुंचे छात्रों को राजठाकरे के गुर्गे कुछ इस तरह मारते-पिटते हुये पूछताछ करते हैं, जैसे छात्र किसी दूसरे देश में बिना वीजा पहुंच गये हों। शिवपुरी में एक बच्चे के गायब होने पर मां-बाप को पुलिस हर दिलासा देती है कि सिंधिया खानदान के प्रभाव वाले इलाके में बच्चे का अपहरण हो नहीं सकता। तो एफआईआर भी दर्ज नहीं होती है। लेकिन 24 घंटे बाद ही बच्चे का शव शहर में मिलता है तो लोगो के आक्रोश को थामने वाला कोई नहीं होता। ना नेता ना पुलिसकर्मी।
सवाल है भरोसा हो किस पर। या फिर किसी भी आम आदमी को यह कैसे महसूस हो कि देश में कानून का राज है। या फिर जिन नेताओं को उसने चुना है और जो सरकार बनाकर सत्ता चला रहे हैं, उनकी फिक्र भी कोई करता है। सत्ता को फिक्र जब सत्ता की ही रहेगी तो सत्ता तक पहुंचने वाले हथकंडे ही लोकतंत्र के स्तम्भ हो जायेंगे । और बाकी सब बकवास होगा। सच की यह त्रासदी कितनी क्रूर है, जरा इन्हीं घटनाओं के जरीये परख लें। कुंडा में यादव और पाल आपस में हमेशा आमने सामने खड़े रहे हैं। सरकार मुलायम सिंह यादव की है तो यादवो की सत्ता में पाल कैसे सेंध लगा सकता है। इन दोनो के बीच खड़े हैं राजा भैया। और राजा भैया निर्दलीय विधायक होकर भी मुलायम के कितने खास हैं, यह बहुमत पाने वाली समाजवादी सरकार में मंत्री बने राजा भैया से समझा जा सकता है। तो जमीन के झगडे में जब एक यादव की जान गई तो पाल इलाके के घरों को फूंकना भी यादवों ने शुरु किया। डिप्टी एसपी जियाउल हक सत्ता के इस जातीय खेल को ही नहीं समझ सके। इसलिये वह यादवों के निशाने पर आये। पाल इलाके में शांति बनाने पहले पहुंचे और फिर जब यादव के घर पहुंचे तो वहां वह यादवों के ही निशाने पर आ गये। और डिप्टी एसपी पर भीड़ ने आरोप लगाया कि वह पाल समुदाय के जलते घरों की आग बुझाकर यादवो के घाव पर मरहम लगाने पहुंचे हैं। उसके बाद सत्ता के स्तम्भ कैसे बेखौफ होकर कानून की धज्जियां उड़ाते हैं,यह सच और किसी ने नहीं बल्कि डिप्टी एसपी की पत्नी परवीन आजम ने अपनी शिकायत में लिखकर दी।
वहीं दूसरी तरफ पंजाब के तरनतारन का सच तो और खौफनाक है। तरनतारन के नेशनल हाइवे पर ट्रक डाइवरों की ही चलती है। और ट्रक ड्राइवरों की सुरक्षा में और कोई नहीं बल्कि खाकी वर्दी ही तैनात रहती है। क्योंकि हाइवे पर तैनात पुलिसकर्मियों को जितना सरकार वेतन के तौर पर देती है, उससे कई गुना ज्यादा ट्रक ड्राइवरो से मिलता है। तो 4 मार्च को भी वही हुआ। पिता के साथ शादी में जा रही जसलीन को हाइवे पर तैनात पुलिसकर्मियों के सामने ट्रक ड्राइवरो ने छेड़ा। जसलीन ने पुलिस वालों से इसकी शिकायत की। पुलिस वालों ने ट्रक ड्राइवरों से पूछा। ट्रक ड्राइवरों ने पुलिस वालो के हाथ गरम किये और उसक बाद तो झटके में जसलीन और उसके पिता पुलिस के निशाने पर आ गये। पुलिस ने जी भर कर पिता को मारा। जसलीन की पिटाई की। गाली-गलौच करते हुये जसलीन के साथ बलात्कार करने तक की धमकी और किसी ने नहीं पुलिस ने दे दी। जसलीन को समझ नहीं आया वह क्या करे। शिकायत किससे करें। पुलिस ने जसलीन पर ही आरोप जड़े तो उसे कौन नहीं मानेगा। लेकिन इस घटना को कैमरे ने कैद किया तो वहशी पुलिस का खेल सभी को समझ में आया।
वहीं महाराष्ट्र के सतारा में सत्ता का खेल तो और ज्यादा खतरनाक है। मेडिकल में प्रवेश के लिये बिहार यूपी से गये छात्रों को राज ठाकरे की पार्टी एमएनएस के कार्यकर्ताओ ने कुछ इस तरह पूछताछ शुरु की जैसे उत्तर भारत के छात्र बिना विजा की दूसरे देश में पहुंच गये हैं। किसी को थप्पड, किसी को लप्पड । किसी के बाल पकड़े। किसी के पीठ पर घूंसा धर दिया। उसके बाद घर का पता पूछा। पढाई-लिखाई के सारे कागजात देखे। अव्वल नंबर देख कर गालियां दीं। फर्जी तरीके से नंबर पाने और सर्टिफिकेट बनाने का आरोप जड़ दिया। छात्रों ने जब शिकायत कॉलेज प्रबंधन से की तो उसने हाथ खड़े कर दिये। जब पुलिस से शिकायत की तो पुलिस बोली आप अपने राज्य में क्यों नहीं रहते। यहां तो राज-ठाकरे की दादागिरी चलती है। क्या आप जानते नहीं हैं। पुलिस ने कोई एफआईआर दर्ज करने से भी हाथ खड़े कर दिये। छात्रों के सामने सवाल उठा कि देश में कानून का राज है कि नहीं। संविधान तक की महत्ता बची है कि नहीं । यह सवाल उन्हीं छात्रों ने सतारा पुलिस के सामने उठाये। लेकिन कोई एफआईआर किसी के खिलाफ दर्ज नहीं हुई।
और देश के राष्ट्रीय प्रतीक चार मुंह वाले शेर की तरह चौथा सच मध्यप्रदेश के शिवपुरी से निकला। जहां बच्चे का अपहरण होता है। हत्या होती है। लेकिन पुलिस सिंधिया खानदान के इलाके में सुरक्षित आम आदमी को सुरक्षित बताने के लिये एफआईआर दर्ज नहीं करती। और राज्य की सियासत में संकेत यही दिया जाता है कि सिंधिया घराने के प्रभावित इलाके में रामराज्य है जबकि राज्य में दूसरी जगहों पर कानून व्यवस्था के ऊपर अपराधी हावी हैं। फिर ग्वालियर और शिवपुरी के इलाके में तैनात खाकी वर्दी राज्य में सत्ता किसी की रहे खुद को सिंधिया खानदान से ही जुड़ा मानती है।
तो शनिवार से सोमवार यानी 2 से 4 मार्च के बीच 48 घंटों के यह चार सच ऐसे चार राज्यों की कहानी कहते हैं, जहां राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी की भी सरकार है और क्षत्रपों के तौर पर राष्ट्रीय दलों को चेताते समाजवादी पार्टी से लेकर अकाली और एनसीपी की भी सरकारे हैं। यानी दोष अकेले किसी सरकार के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता है। यहां सवाल सिस्टम है, उस व्यवस्था का है, जिसके आसरे हर राजनीतिक दल को यह लगने लगा है कि उसकी मौजूदगी तभी होगी जब वह सत्ता में होगी और सत्ता में तभी होगी जब हर घेरे के सत्ताधारियों के सामने कानून बिलबिलाता हुआ सा नजर आये। अपने घेरे में पुलिस भी सत्ताधारी है। और राजनेता से टकराने पर पुलिस भी प्यादा है। राजनेता की दादागीरी ही सत्ता भी है और कानून को दरकिनार कर राजनेताओं के लिये व्यवस्था बनना भी सत्ता की नयी व्यवस्था है। जाहिर है मौजूदा वक्त में पहली बार देश के सामने यह संकट कि उसकी जरुरतों के साथ सत्ता के कोई सरोकार नहीं है और सत्ता के सरोकार जिन स्तितियो से हैं, उसमें सबसे पहले कमजोर तबका ही कुचला जाता है। यानी जिस मौके पर जो सबसे ताकतवर है कानून उसी की परिभाषा में गुम हो जाता है। तो क्या मौजूदा वक्त में सिस्टम ही जंगल राज के दौर में खड़ा हुआ है। अगर बारीकी से व्यवस्था के खाके को परखे तो कई सवाल एक साथ खड़े हो सकते हैं। मसलन जिसके साथ पुलिस है उसी की चलेगी। जिसके पास पैसा है उसी की चलती है। जो सरकार में है आखिर में चलती उसी की है। जो नेता है उसकी सफलता ही ऐसे अपराध को मान्यता देने से जा जुड़ी है, जहां छोटे अपराधियों को यह भरोसा हो जाये कि नेता उनसे बड़ा अपराधी है या फिर आम आदमी यह मान ले अपराधियो से निपटने के लिये पाक साफ सत्ता नहीं दागदार सत्ताधारी ही असल समाधान कर सकता है। जाहिर है इन परिस्थितियों में कोई भी मुद्दा किसी सत्ता से सरोकार की भाषा की उम्मीद कैसे कर सकता है। ध्यान दें तो अपराध हो या भ्रष्टाचार या कालाधन हो या महंगाई सत्ता का रुख कभी सीधे इन पर निशाना नहीं साधता। जो विरोध में होते हैं। जो विपक्षी राजनीतिक दल की भूमिका में होते हैं, वह अपने सियासी सरोकार को जरुर जोड़ते हैं। लेकिन बीते 48 घंटे की चार घटनायें बताती है कि सत्ता की परिभाषा जब हर जगह एक है तो फिर सवाल सत्ता के सिस्टम का हो चुका है। जिसे बनाये रखने पर या सत्ता में आने की सहमति सभी बनाकर ही देश को भारत नाम दिये हुये हैं। क्योंकि बीते एक बरस के दौरान देश के सरकारी आंकडे बताते हैं कि भारत में जनवरी 2012 से जनवरी 2013 तक साठ हजार हत्या के मामले थानो में दर्ज हुये। 36 हजार 984 मामले बलात्कार के दर्ज हुये। दो लाख 35 हजार लूट और डकैती के मामले थानो में दर्ज हुये। और कुल 5 लाख से ज्यादा आपराधिक मामले थानो में दर्ज हुये। हालांकि सरकार ने यह सच छुपा कर रखा है कि इन पांच लाख आपराधिक मामलों में कितने मामले हैं, जो सत्ताधारियों के चौखट से निकले।