Wednesday, August 28, 2013

कॉरपोरेट के 'डार्लिंग वेटिंग प्राइम मिनिस्टर' हैं मोदी !

जवाहर लाल नेहरु प्रधानमंत्री बने तो पहली बार देश को लगा कि महात्मा गांधी जिस गरीबी को चंपारण से मन में सहेजे निकले, उसमें सेंध लग गयी। और देश किसी रईस को ही प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहता है। लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो पहली बार एहसास जागा कि कोई गरीब भी देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। इंदिरा गांधी ने बताया कोई महिला भी प्रधानमंत्री बन सकती है। मोरारजी देसाई ने बताया सरफिरा बुजुर्ग भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ सकता है। राजीव गांधी को एक असफल पायलट के तौर पर प्रधानमंत्री माना गया। वीपी सिंह के एहसास कराया कि राजसी परिवार का व्यक्ति भी प्रधानमंत्री बन सकता है। देवगौडा ने बताया कोई भी इस देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। और अटलबिहारी वाजपेयी ने दिखाया अविवाहित कवि भी प्रधानमंत्री बन सकता है। लेकिन मनमोहन सिंह ने बताया कि इस देश को प्रधानमंत्री की जरुरत ही नहीं है।

यह सोशल मीडिया की किस्सागोई है लेकिन इस किस्से में आजादी के बाद से इस देश को संभालने वाले चेहरों में 2014 को लेकर एक जबरदस्त उम्मीद और भरोसे का अक्स भी छुपा है। क्योंकि याद कीजिये तो कभी इससे पहले देश के किसी आम चुनाव को लेकर ऐसे हालात नहीं बने जिसमें लगे कि देश में वाकई कोई प्रधानमंत्री नहीं है। और जितनी जल्दी आमचुनाव हो जाये उतनी जल्दी देश का भाग्य बदलने वाला कोई चेहरा आ जाये। तो क्या महज 66 बरस की आजादी के बाद ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र के एसिड टेस्ट का स्थिति आ गई है। क्योंकि वाकई 2014 सत्ता परिवर्तन का बरस साबित होगा। तो फिर मौजूदा वक्त में जो सवाल मनमोहन सरकार को लेकर उठ रहे हैं, क्या उसका समाधान सत्ता परिवर्तन से निकल जायेगा। और 2014 में देश की तस्वीर बदल जायेगी। तस्वीर बदलने का मतलब है कांग्रेस के बदले भाजपा और मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी की जगह नरेन्द्र मोदी। लेकिन समाधान के रास्ते का मतलब क्या होगा । गुजरात मॉडल का पूरे देश में लागू हो जाना। अंबानी, अडानी या टाटा के जरीये गवर्नेस की साफ-सुधरी छवि बनाना। अल्पसंख्यकों को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाना। दलित और पिछड़े समुदाय से लेकर गरीबी की रेखा से नीचे के करीब 70 करोड़ नागरिकों को उत्पादन प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास करना। सेवा क्षेत्र के सामानांतर औघोगिक उत्पादन और कृषि उत्पादन पर ज्यादा ध्यान देना। पाकिस्तान और चीन के साथ सेना का मनोबल बढाने वाले रिश्ते बनाने और सीमा सुरक्षा को लेकर देश में भरोसा पैदा करना। संभव है। मुश्किल है। अंतर्विरोध है। कुछ ऐसे ही सवाल हर मन में उठेंगे। तो क्या सत्ता परिवर्तन के बाद देश को लेकर कोई सवाल नहीं है। और परिवर्तन के बाद सत्ता संभालने को बेताब भाजपा या नरेन्द्र मोदी के पास भी कोई दूरदृष्टि नहीं है। या फिर पहली बार देश को लगने लगा है कि मनमोहन सिंह से निजात तो ले बाकि तो परिवर्तन के बाद देख लेंगे। अगर यह मिजाज है तो फिर सवाल मुद्दों का नहीं सिर्फ सरकार संभालने का है। क्योंकि सोशल मीडिया में अगर मनमोहन सिंह को लेकर किस्सागोई चल निकली है कि देश बगैर प्रधानमंत्री के भी चल सकता है तो उसकी वजह मनमोहन सिंह हैं, उनकी कैबिनेट ही है। लेकिन संसदीय लोकतंत्र का मतलब हमेशा राजनीतिक दलों की सरकार रही है। यानी राजनीतिक दल की विचारधारा। राजनीतिक दल का मैनिफेस्टो। लेकिन पहली बार मनमोहन सिंह के जरीये देश को एतिहासिक कांग्रेस कहीं दिखायी नहीं दी जो पिछड़े-गरीबों से लेकर हर समुदाय हर तबके के साथ सरोकार का सवाल उठाती रही । मनमोहन सिंह का कद तो नहीं लेकिन उनकी इक्नामिस्ट वाली छवि कांग्रेस से बड़ी हो गई। ठीक इसी तरह विकल्प की बिसात भी भाजपा से नहीं निकल रही बल्कि नरेन्द्र मोदी को ही मनमोहन सिंह का विकल्प मान लिया गया है और भाजपा इसी लीक पर जुट चुकी है। तो यहां भी राजनीतिक दल की विचारधारा, उसका मैनिफेस्टो गायब है। मोदी का कद पार्टी से बड़ा हो चला है। तो पहला सवाल लोकतंत्र के चुनावी संसदीय व्यवस्था पर है। क्या 2014 की परिस्थितियां राष्ट्रपति की व्यवस्था वाले चुनाव में ढल जायेंगी। और एक तरफ मोदी और दूसरी तरफ गांधी परिवार का कोई नुमाइन्दा आपस में टकरायेंगे। अगर संसदीय राजनीतिक लोकतंत्र का पहला एसिड टेस्ट यह होने जा रहा है तो दूसरी तरफ कैबिनेट के तौर तरीके भी बदल रहे हैं। ना तो अब सरदार पटेल और नेहरु के टकराव का दौर है और ना ही कामराज के काग्रेसी ढांचे की जरुरत बची है। इंदिरा इज इंडिया में तो फिर भी बात इंडिया की हो रही थी।
लेकिन मौजूदा वक्त में जो कैबिनेट काम कर रही है, अगर उसके कामकाज के तरीके देखे तो दो ही सवाल हो सकते हैं। पहला, कैबनेट का मतलब मनमोहन सिंह की इकनॉमी के अनुसार काम करना है और दूसरा देश को पूरी तरह विश्व अर्थव्यवस्था पर निर्भर बनाकर बहुराष्ट्रीय कारपोरेट के घाटे -मुनाफे के अनुसार नीतियों को बनाना है। और ये नीतियां बजट से लेकर पंचवर्षीय योजना में दिखायी दें। कैबिनेट मंत्रियों के कामकाज को ही इससे परखा जा सकता है ।

खेती या किसान से कोई वास्ता कृषि मंत्री शरद पवार का नहीं है। प्याज की कीमत आसमान छुती है तो वाणिज्य मंत्री कहते है प्याज के निर्यात पर रोक लगनी चाहिये। लेकिन कृषि मंत्री कहते है निर्यात रोकेंगे तो किसानों को घाटा होगा। सरकार तय करती है कि ज्यादा कीमत में डॉलर से भुगतान कर पाकिस्तान और चीन से प्याज मंगायेंगे। लेकिन देश के किसानों को प्याज की ज्यादा कीमत नही देंगे। पाकिस्तान और चीन की घुसपैठ से लेकर सीमा पर समझौतो को खुल्लमखुल्ला तोड़ा जाता है लेकिन विदेश मंत्री अंतराष्ट्रीय मंच पर भारत की महानता बरकरार रखने के लिये शांति और बातचीत पर अडिग रहते हैं। रक्षा मंत्री तो ना सिर्फ बयानों को बदलते हैं बल्कि देश में सबमैरिन विस्फोट से उड़ा दी जाती है और रक्षा मंत्री के लिये ही यह सस्पेंस रहता है। बोधगया और हैदराबाद में धमाके होते है और गृह मंत्री को कुछ पता ही नहीं चलता। रुपया एतिहासिक गिरावट पर पहुंचता है और वित्त मंत्री को कुछ भी समझ में नहीं आता। कोयला मंत्रालय से कोल ब्लाक्स की घपले वाली फाइले गायब हो जाती है और कोयला मंत्री से लेकर पीएमओ अलग अलग बयानबाजी में वक्त निकालते है। खनन के जरीये कारपोरेट लूट का नजार खुले तौर पर सामने भी आता है और खनन के जरीये खनिज संपदा को अंतराष्ट्रीय बाजार में बेचने वाली बहुराष्टरीय कंपनियों के साथ सरकार का रवैया भी सबसे प्यारा रहता है। यही हाल पेट्रोलियम मंत्री का है। सिर्फ पेट्रोल-डीजल की कीमतें ही नहीं बल्कि देश के भीतर जहां जहां से गैस और तेल निकाला जा सकता है वह भी औने पौने दाम में कारपोरेट दोस्तों में बांट दी जाती है। यानी सिर्फ देश के प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि बल्कि कैबिनेट के आधे दर्जन मंत्रियों के फेल होने की दास्तान भी 2014 के परिवर्तन से जुड़ चुके है। यानी 2014 का मतलब सिर्फ मनमोहन कैबिनेट की जगह मोदी कैबिनेट का सत्ता में आना होगा और यह कैबिनेट देश को नये रास्ते पर ले चलेगी। तो नया रास्ता होगा क्या। यह अभी तक ना भाजपा ने बताया ना ही नरेन्द्र मोदी ने कहीं किसी भाषण में जिक्र किया। तो क्या समाधान का रास्ता देश में अंधेरे की तरह है। शायद हां । हां इसलिये क्योंकि मनमोहन सरकार की नाकामियों की फेहरिस्त को भी नरेन्द्र हों या भाजपा दोनो ने पूंछ से पकड़ा है, सूंड को पकड़ने की हिम्मत किसी में नहीं है। सरलता से समझे तो संसदीय राजनीति चलाने वाली सूंड मनमोहन का साथ छोड़ अब नरेन्द्र मोदी के साथ जा चिपकी है । और यही वह व्यवस्था है जहा चेहरे बदलते हुये दिखायी देगें लेकिन व्यवस्था की आंच के बदलने का भरोसा किसी को दिखायी नहीं देगा। ऐसा क्यो लगता है तो इस सिलसिले को पकड़ने के लिये शुरुआत कहीं से कर सकते हैं। मसलन अभी फुड सिक्योरटी बिल। खाघान्न सुरक्षा सीधे सीधे देश में गरीबो की तादाद और तादाद बताने वाले मीटर से जुड़ी है। योजना आयोग ने जुलाई में देश के गरीबो की तादाद भी रखी और गरीबो के माप-दंड भी बताये। इसके लिये सरकार ने जो मापदंड अपनाये उसी मापदंड को साल भर पहले सरकार ने ही खारिज कर दिया था। बकायदा प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाकार काउंसिल के चेयरमैन डा सी रंगरजन की अगुवाई में पांच सदस्यी टीम बनाकर यह एलान किया गया कि गरीब कहा किसे जाये और गरीब होने के लिये क्या क्या होना चाहिये। इसे सी रंगराजन की टीम पता लगायेगी और उसी अनुसार आने वाले वक्त में सरकार गरीबों के आंकड़े का एलान करेगी। महत्वपूर्ण यह भी है कि मनमोहन सरकार के सत्ता में आने वाले बरस 2004-05 में गरीबों की तादाद 37.2 फीसदी से 2009-10 में घटकर 29.8 फिसदी के हो जाने पर ही यह
कहकर अंगुली उठायी गयी कि तेदूलकर कमेटी की जिस रिपोर्ट को देश में गरीबो के लिये आधार बनाटा गया वही मौजूदा वक्त में सही नहीं है। और इसे मनमोहन सिंह ने माना भी और 24 मई 2012 को बकायदा भारत सरकार की तरफ से प्रेस विज्ञप्ति जारी कर यह कहा गया कि गरीबों के बारे में जानकारी के लिये एक नया एक्सपर्ट पैनल बनाया जायेगा। जिसकी अगुवाई डा सी रंगराजन करेंगे और साथ में देश के जाने माने पांच अर्थसास्त्री डा महेन्द्र देव, डां के सुन्दरम, डा के महेश व्यास और डा के एल दत्ता रिपोर्ट तैयार करेंगे । और यह रिपोर्ट 2014 में आनी है । [देखे सरकारी विज्ञपती] । तो सरकार ने अपनी ही बात के उलट 2013 में गरीबो को लेकर नया आंकडा उसी तेदुलकर कमेटी के आधार पर जारी कर दिया जिसे साल भर पहले वह खुद ही खारिज कर चुकी थी। लेकिन यहा सवाल मनमोहन सरकार का नहीं है। सवाल विकल्प के लिये खड़े हो रहे नरेन्द्र मोदी का है। मोदी ने भी मनमोहन सरकार को फुड सिक्यरटी बिल का विरोध करते हुये पत्र लिखा। 7 अगस्त 2013 को लिखे पत्र में मोदी ने खाघान्न सुरक्षा को लेकर माइक्रो स्तर पर जो सवाल उठाये वह खाघान्न को बांटने और गरीबो की तादाद को लेकर है । साथ ही राज्य सरकार अपनी व्यवस्था के तहत जो अनाज बांट रही है उसपर कैसे असर पडेगा और कैसे खादान्न सुरक्षा लागू करने पर गरीबो को कम अनाज मिलेगा इसपर पांच सूत्र में बात समझायी [देखे पत्र] । लेकिन सी रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट आने से पहले सरकार कैसे फुड सिक्योरटी बिल के तहत गरीबो को अनाज बांटने पर संसद में सहमति बना लेती है . इतना ही नहीं एक तरफ नरेन्द्र मोदी जिन सवालो को उठाकर फुड सिक्योरटी बिल को रोकने की बात कहते है उनकी पार्टी तमाम विरोधाभास के बावजूद लोकसभा सरकार के साथ फुड सिक्योरटी पर खडी नजर आती है ।

एक तरफ पार्टी का रुख दूसरी तरफ मोदी का रुख क्या देश को ठोस विकल्प देने की स्थिति में मोदी को लेकर आता है यह एक सवाल है । यानी गरीबो को लेकर जो सवाल सरकार खुद ही उठा रही है उसपर मोदी का ध्यान नहीं गया या फिर उसे अनदेखा करना मोदी की सियासी जरुरत है यह तो दूर की गोटी है लेकिन जो बुनियादी सवाल है उस पर कैसे विकल्प देने निकले नरेन्द्र मोदी की भी आंखें बंद रहती है यह आने वाले वक्त का संकेत भी है । क्योकि मनमोहन सिंह जो छोड कर जायेंगे, उसमें बात खनन और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर भारत निर्माण तक की आयेगी। 2007 में मनमोहन सिंह ने बारत निर्माण शुरु किया और इसी वक्त गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने वाइब्रेंट गुजरात। भारत निर्माण से देश में क्या हुआ या वाइब्रेंट गुजरात से गुजरात में कैसी चकाचौंध आयी यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। लेकिन 2007 से 2013 तक सिर्फ बारत निर्माण के प्रचार में 35123 करोड़ फूंक जरुर डाले गये। और वाइब्रेंट गुजरात के प्रचार में खर्च 18 हजार करोड़ से ज्यादा का हुआ। सवाल यह नहीं है कि इतना खर्च किस कीमत पर हुआ सवाल देश को चलाने का मॉडल का है। एक तरफ देश का पेट भरने के लिये अनाज बांटने को लेकर हंगामा मचा है क्योंकि इसका सालाना बजट एक लाख करोड़ तक जा रहा है। तो दूसरी तरफ जो काम केन्द्र सरकार करती है उसके तमाम मंत्रालय करते है उसके प्रचार का सालाना बजट दो लाख करोड से ज्यादा का हो चला है और गुजरात का प्रचार बजट 80 हजार करोड तक जा पहुंचा है। तो देश के सामने सवाल यह है कि एक तरफ अगर गुजरात में आपके पास खूब पैसा है तो आपके लिये हर सुविधा उपलब्ध है। और दूसरी तरफ पिछडे राज्य होने का तमगा पाने को बेताब बिहार जैसे राज्य में अगर आपके पास खूब पैसा है तो भी आपको सुविधा नहीं मिल सकती। तो देश में कौन सा मॉडल चल सकता है यहा तो यह बहस ही बेमानी है । मुश्किल यह भी है कि देश में कैसे माडल की जरुरत है या पिर देश किन परिस्तितियों की दिशा में जा रहा है यह मनरेगा पर 30 हजार करोड बांटने के बाद 90 हजार करोड़ के फूड सिक्यूरटी बिल और इसके सामानांतर 3 लाख 20 हजार करोड रुपया आपका पैसा आपके हाथ के नारे के तहत डायरेक्ट टू कैश के लाने से भी समझा जा सकता है। इसका विकल्प मोदी मॉडल में कहां है और भाजपा के विरोध के स्वर के बावजूद सिवाय कारपोरेट के साथ के अलावा विकल्प की कौन सी धारा मोदी के आने से बहेगी, यह फिलहाल तो सवाल है । बावजूद इसके नरेन्द्र मोदी का कद लगातार सियासी तौर पर बढ़ रहा है इससे इंकार भी नही किया जा सकता लेकिन सवाल है नयी परिस्थितियो के बावजूद रास्ता जाता किधर है ।

राजनीतिक तौर पर अगर 2014 का लोकसभा चुनाव ही समाधान है तो पहले चुनाव के अक्स में ही देश के हालात को समझ लें । यहा भी सवाल यह है हीं होगा कि 2009 में देश के कुल 70 करोड वोटरो में से महज साढे ग्यारह करोड़ वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिये और कांग्रेस बहुमत में गयी। और बीजेपी के पक्ष में सिर्फ साढे आठ करोड़ वोट पड़े तो विपक्षी पार्टी हो गयी। अब यह मान लें कि 2014 में मोदी की अगुवाई में भाजपा को दो सौ सीटों पर जीत मिल जायेगी तो मान कर चलिये की बीजेपी के पक्ष में 12 से 13 करोड से ज्यादा वोट नहीं पडेगें और कांग्रेस घटकर दस करोड़ पर आ सकती है। लेकिन जरा सोचिये देश के 74 करोड वोटरों में से 12 करोड़ वोट बहुमत। अद्भुत है यह नजरिया। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर से मोदी के दौर में जाते भारतीय लोकतंत्र का सच सिर्फ वोटिंग के आंकड़े में नहीं समाता बल्कि जनता के नुमाइन्दे होकर संसद पहुंचने के पीछे कारपोरेट के नुमान्दे बनने की होड़ और बनाने की होड़ कैसे संसद को चला रही है यह नया सच है । मौजूदा वक्त में अगर संसद में उठने वाले सवालों पर गौर करें तो बीते पांच बरस के दौरान [न्यूक्लियर डील पर वोटिंग के बाद यानी 2008 के बाद से ] 65 फिसदी सवाल सिर्फ और सिर्फ कारपोरेट हित के नजरिये से पूछे गये। पावर सेक्टर के सामने आने वाली मुश्किल, खनिज संसाधनों की लूट के मद्देनजर कॉरपोरेट के सामने आने वाली मुश्किल , निर्माण कार्य में आने वाली रुकावट, इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुडे कॉरपोरेट के सामने आने वाली मुश्किल, भूमि अधिग्रहण को लेकर होने वाली मुश्किल, खेती की जमीन पर क्रंकीट खड़ा करने से लेकर हर कारपोरेट की परियोजनाओं को एननोसी ना मिलने की मुश्किल से लेकर न्यूनतम जरुरतो को कॉरपोरेट के हाथो बेचे जाने के खेल से जुडे सवाल ही संसद के पटल पर उठे । कल्पना करना मुश्किल है कि पीने के पानी से लेकर प्रथमिक स्वास्थय सेवा और प्रथमिक शिक्षा के ना मिलने से ज्यादा सवाल संसद में इस बात को लेकर उठे जिन कंपनियों ने पीने के पानी के प्लांट लगाये हैं, उनके सामने कितनी मुश्किल आ रही है या फिर पानी की कीमत होनी क्या चाहिये। राज्यसत्ता को कैसे पानी का प्लांट लगाने में सब्सिडी सुविधा की व्यवस्था करनी चाहिये। इसी तर्ज पर स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा के निजीकरण के बाद कंपनियों और मुनाफा कमाने वाले संस्थानों के सामने आने वाली मुश्किलो का पुलिंदा ही संसद में उठता रहा। इस दौर में हालत यह रही कि कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को टैक्स में कितनी छूट दी गयी या कैसे-क्यों छूट दी जानी चाहिये उसपर भी संसद के भीतर ही सवाल उठे। तो मनमोहन सिंह के दौर से इतर क्या नरेन्द्र मोदी के दौर में यह संभव है कि संसद से यह ना लगे की कॉरपोरेट ही देश चला रहा है और संसद को कॉरपोरेट या बहुरा,ट्रीय कंपनियो के मुनाफे की ही चिंता है । यह इसलिये संभव नहीं है क्योकि मौजूदा वक्त में संसद के भीतर 162 दागी सासंद है यह तो सभी जानते हैं लेकिन कितने सांसद कॉरपोरेट या बडे औद्योगिक घरानों के पेरोल पर संसद में काम करते है यह कोई नहीं जानता। क्योंकि खुले तौर पर कोई यह कह नहीं सकता कि रिलायंस या टाटा या मित्तल या अडानी के लिये फलां सांसद काम कर रहे हैं और जिस कारपोरेट के पेरोल पर है उसी से जुडे सवाल वह सांसद उठाता है । तो इसका नायाब तरीका यही है बीते पांच बरस में लोकसभा और राज्यसभा के सासंदो के उठाये सवालो को परख लें। आंकड़ा कमोवेश सौ सांसदो को लेकर साफ उभरेगा कि इन 100 सांसदो ने जो भी सवाल उठाये वह किसी ना किसी कारपोरेट या घरानो से जुडे थे । उनका हित साधने वाले थे । तो क्या विकल्प के तौर पर बनने वाली मोदी सरकार  के दौर में यह सब बंद हो जायेगा । यह सवाल अबूझ नहीं है क्योकि चुनाव जीतने के लिये जो खर्च होता है अगर वह सारे संसाधन कोई कॉरपोरेट लगाये तो नेता सांसद बनने के बाद संसद में किसके लिये काम करेगा । इस लिहाज से समझे तो मौजूदा वक्त में झारखंड, उडीसा, छत्तिसगढ,राजस्थान,यूपी और आध्र प्रदेश के 85 सासंद ऐसे है जो संसद में 80 फिसदी से ज्यादा सवाल कारपोरेट से जुडे हुये ही उठाते रहे हैं। तो देश का संकट समझें। जिस संसद के उपरी सदन में आने के लिये एक वक्त देश की राजनीति ने हाथ खड़े कर दिये थे और बिरला तक राज्यसभा में नहीं पहुंच पाये, उसी राज्यसबा में आज की तारिख में 65 सासंद कॉरपोरेट और औघोगिक घरानो के सीदे सीधे नुमाइन्दे हैं। लोकसभा के सौ सांसदों को लेकर कॉरोपरेट टारगेट किये हुये हैं और इससे ना तो कांग्रेस को इंकार है ना ही बीजेपी को।

असल में मौजूदा दौर को लेकर 1991 की याद हर किसी को आ सकती है क्योंकि तभी आर्थिक सुधार की हवा बही। तभी खुली अर्थव्यवस्था चल निकली। और आज के कॉरपोरेट के मद्देनजर 1991 के दौर को परखे तो बहुत सी स्थितियां साफ हो जायेंगी। 1991 में कॉरपोरेट और औघोगिक घरानों के लिये मनमोहन सिंह डार्लिग इकनॉमिस्ट थे । 2013 में उसी कॉरपोरेट और औघोगिक घरानों के लिये नरेन्द्र मोदी डार्लिग वेटिंग प्राइम मिनिस्टर हैं। यह सब कैसे 360 डिग्री में घुम रहा है। इसे समझने के लिये 1991 में लौटना होगा। प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर बलिया में थे। और तब सोना गिरवी रखने की फाइल पर हस्ताक्षर कराने प्रिसिपल सेक्रेटरी एस के मिश्रा बलिया पहुंचे थे। चन्द्रशेखर चौके थे कि इतनी इमरजेन्सी क्यों आ गयी। चन्द्रशेखर ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष और अपने मित्र मोहन धारिया से फोन पर पूछा कि सोना गिरवी रखने की स्थिति कैसे आ गयी। इस पर मोहन धारिया ने कहा कि यह तो आपको अपने आर्थिक सलाहकार से पूछना चाहिये और प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के आर्थिक सलाहकार और कोई नहीं मनमोहन सिंह थे। जिन्होंने जोर देकर चन्द्रशेखर को समझाया कि सोना गिरवी रखना जरुरी है। और एक बार प्रिंसिपल सेकेट्री बलिया से लौट चुके थे लेकिन वह दोबारा बलिया गये और फिर चन्द्रशेखर ने फाइल पर साइन किये।

इस पूरे वाकये का जिक्र चन्द्रशेखर की जीवनी में भी है और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय, जो उस वक्त बतौर जनसत्ता के रिपोर्टर के तौर पर बलिया में थे, उन्होने भी लिखा है। लेकिन यह वाकया इतना भर नहीं है। असल में चन्द्रशेखर की सरकार गिरने के बाद मोहन धारिया ने ही चन्द्रशेखर को बताया कि कैसे भारत के आर्थिक दिवालियेपन को लेकर विश्व बैंक ने रिपोर्ट तैयार की है और उसकी 14 कॉपी भेजी है। लेकिन यह सभी 14 कॉपी मनमोहन सिंह ने तब तक अपने पास रखी जब तक चन्द्रशेखर ने सोना गिरवी रखने वाली फाइल पर हस्ताक्षर नहीं कर दिये। विश्व बैंक की यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोहन धारिया के अलावे वित्त मंत्रालय के नौकरशाहो के लिये आयी थी। जिसमें भारत की अर्थव्यवस्था को किस पटरी पर ले जाना है इसका जिक्र किया गया था। और सोना गिरवी रखे जाने के बाद इसे राजीव गांधी के काग्रेस का मुद्दा भी बनाया और पीवी नरसिंह राव ने कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री बनकर विश्व बैंक की रिपोर्ट को देश में लागू भी किया। लेकिन उस दौर को याद कीजियेगा तो तब विकल्प का सवाल स्वदेशी जागरण मंच ने तैयार किया था । और तब पहली बार खुली अर्थव्यवस्था के विकल्प के तौर पर स्वदेशी जागरण मंच के आंदोलन ने एक जमीन बनानी शुर की थी। जिस आसरे भाजपा को भी राजनीतिक लाभ मिल रहा था । और उस वक्त भाजपा के जरीये देश में संवाद यही बन रहा था कि काग्रेस के राजनीतिक विकल्प के तौर पर भाजपा है । क्योकि तब किसान, मजदूर, उत्पादन बढाने से लेकर डालर के मुकाबले रुपये को मजबूत करने के पीछे राष्ट्रीय भावना को जगाने का प्रयास आंदोलनो के जरीये शुरु हुआ था । डंकल, गैट से लेकर स्वदेशी उत्पाद तक को लेकर संघर्ष ट्रेड यूनियन और राजनीतिक दल करने को तैयार थे । लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद जब यशंवत सिन्हा ने बतौर वित्तमंत्री मनमोह सिंह के आर्थिक सुधार पर ट्रैक-2 की लकीर खिंची तभी यह बात खुल गई । कि आर्थिक सुधार और खुली अर्थव्यवस्था को वर्लड बैक और आईएमएफ की तर्ज पर भारत के सत्ताधारियो को लागू करना है । चाहे सत्ता में कांग्रेस रहे या भाजपा । उसके बाद से ही स्वदेशी जागरण मंच भी हाशिये पर गया । संघ परिवार का भी वैचारिक बंटाधार हुआ ।

भाजपा का भी काग्रेसीकरण हुआ । और सारा संघर्ष सिर्फ सत्ता पाने की होड में सिमटा । और अब एक बार फिर जब यह देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है । मनमोहन सिंह की गवर्नेस फेल हो रही है ।विदेशी निवेश तो भारत में नहीं ही हो रहा है उल्टे पहली बार भारत के कारपोरेट और औघोगिक घराने भी भारत में निवेश करने की जगह विश्व बाजार को देख रहे है और ऐसे मोड़ पर नरेन्द्र मोदी उनके लिये डार्लिग वेटिंग प्राइम मिनिस्टर बन चुके है। तो 2014 में सत्ता परिवर्तन को लेकर कोई सपना ना पालें। यह कॉरपोरेट युग है और उसकी जरुरत है कि सत्ता उसके लिये काम करे।

Wednesday, August 14, 2013

15 अगस्त : वक्त मिले तो सोचिएगा

क्या 1947 एक धोखा है और 1950 एक फरेब?

मुड़कर 66 बरस पहले के वक्त को देखना और यह सोचना कि तब आजादी का मतलब यह तो नहीं था जो आज हो चला है। कुछ कम वक्त तय करें तो 63 बरस पहले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा पाने का हक छाती से लटकाए अब यह सोचें कि लोकतंत्र के जिस राग को 63 बरस पहले सुना वह अब का लोकतंत्र तो नहीं। कैसे महज साठ बरस में अपने ही देश में नागरिक होना, कहलाना और बतौर नागरिक मौलिक अधिकार की मांग करना सबसे बड़ा गुनाह हो गया, यह किसने सोचा होगा। हालात तो यह है कि आज बात कहीं से भी शुरु करें और अंत कहीं भी करें 15 अगस्त 1947 धोखा लगता है और 26 जनवरी 1950 फरेब। चलिये इतिहास के नहीं भारतीय होने के पन्नों को पलटें। जो मां-बाप और दादा-नाना या परदादा के रास्ते हम तक पहुंचे है और हम हैं कि कहे जा रहे है, हम उस देश के वासी है जिस देश में गंगा बहती है। यह देश है वीर जवानो का। मेरे देस की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती..।

तो सच क्या है आजादी या संप्रभुता। अगर कहें दोनों ही सच नहीं हैं और लालकिले के प्राचीर से लहराता तिरंगा तक गुलामी और मुनाफे का ऐसा प्रतीक है, जहां नागरिकों की भागेदारी और देश के नागरिको से सरोकार खत्म हो चले हैं । संविधान में दर्ज नागरिकों के अधिकारों को चुनी हुई सरकारों ने ही बेच दिया है। और राजनीतिक दलों ने खुद को चुनी हुई सरकार का दर्जा देने के लिये संविधान में दर्ज नगरिक होने के पहले मौलिक अधिकार तक में सेंध लगा ली है। तो आप हमें राष्ट्रद्रोही तो नहीं मान लेंगे। वोट डालने का अधिकार। यही तो नागरिक होने की सबसे बड़ी पहचान है। देश का सबसे रईस शख्स हो या सबसे पावरफुल शख्स उसके वोट और सबसे गरीब के वोट की कीमत एक है। यही तो है लोकतंत्र का मजा। लेकिन क्या किसी ने सोचा आजादी के महज 62 बरस बाद ही वोट डालने के अधिकार की भी कीमत लगेगी। और संविधान की घज्जियां एक अदद वोटर कार्ड बनवाने में ही उडन-छु हो जायेगी। अगर घर नहीं है। रोजगार नहीं है। दो जून की रोटी की व्यवस्था का कोई स्थायी जुगाड़ नहीं है। यानी जीने की खातिर अपना गांव छोड़ शहर-दर-शहर भटकते देश के सात करोड़ लोगों के पास आज की तारीख में वोटर आई डी कार्ड नहीं है। यानी नागरिक हैं लेकिन वोट डालने का अधिकार नहीं है। देश के 28 राज्यों की राजधानियो में करीब तीन करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास छत तो है लेकिन छत का पता बताने के लिये कोई सबूत नहीं है। यानी दस्तावेज नहीं है तो वह भी नागरिक होते हुये भी उस पहले मौलिक अधिकार से वंचित हैं, जिसके खम्भे पर लोकतंत्र खड़ा है। और इसका दूसरा सच कहीं ज्यादा निराला है। लोकतंत्र के राग में मशगूल करीब चार दर्जन राजनीतिक दलों के नेता कमोवेश देश के हर राज्य में सक्रिय हैं, जो साठगांठ से बिना किसी सबूत के वोटर आई-कार्ड बेचते हैं। यहां बेचने का मतलब रुपया भी है और वोट की खरीद भी। बंगाल समेत सभी उत्तर पूर्वी राज्य और इनसे सटे  रखंड,उडीसा,छत्तीसगढ में तो वोट डालने के राष्ट्रीय अधिकार को जहा धंधे में बदला जा चुका है। वहीं यूपी एक ऐसी जगह है, जहां राजनीतिक दल अपने अनुकुल वोट बैंक का दायरा बढ़ाने के लिये अपनी जातीय राजनीति के अनुकुल वोट का अधिकार कई गुना ज्यादा दिला देते हैं। यानी एक व्यक्ति के पास कई नाम से वोटर कार्ड हो जाता है और लोकतंत्र ठहाके लगाता है। वहीं लोकतंत्र के इस पहले आधार की धज्जियां घुसपैठ करने वाले सवा करोड़ बांगलादेशियों में से 65 लाख से ज्यादा के बने वोटर आई कार्ड से समझा जा सकता है, जो आपको बंगाल से दिल्ली तक कई खेप में छितराये हुये मिल जायेंगे। तो लोकतंत्र के तमगे में अगर यह सबसे बड़ा सूराख है तो इसके बाद शुरु होता है संविधान में दर्ज मौलिक अधिकारों का राजनीतिक चीरहरण। और यह चीरहरण कितना खतरनाक है इसका एहसास संविधान को के किसी भी पन्ने में अंगुली रख किसी भी विश्लेषण को पढ़ने के साथ ही शुरु हो सकता है। चूंकि मौजूदा वक्त में संविधान सिर्फ पदो को संभालते वक्त शपथ के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाता है तो लोकतंत्र को खारिज कर सत्ता की पहली हनक भी वहीं सुनायी देती है और संविधान झटके में राजनीतिक सत्ता का गुलाम लगने लगता है।

मुश्किल यह है कि संविधान को गुलाम बनाने और आजादी को अपनी परिभाषा में ढालने की कवायद उन्ही संस्थानों ने शुरु किया जिसे संविाधन ने सबसे ज्यादा अधिकार दिये और यह माना कि देश के उलझे हुये रास्तों को यही संस्थान रास्ता दिखायेंगे। लोकतंत्र के तीनो पाये। नौकरशाही, न्यायपालिका और संसद। लेकिन इस प्रक्रिया में संसद इतनी ताकतवर बन गयी की नेता-मंत्री खुद को मसीहा मन बैठे। यह संसदीय राजनीति की कवायद थी। सत्ता पाने की होड़ में ऐसी कवायद शुरु हुई कि जिस सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देश को देश से अवगत कराया गया वही बीते साठ बरस में बदल गया। राष्ट्रीय भाषा को लेकर आजादी के पहले 15 बरस में जो अध्ययन होना था, वह सरकते सरकते चार गुना वक्त भी गुजार गया और अपनी राष्ट्रीय भाषा को कमजोर दर कमजोर भी करता गया। आजादी के वक्त जो काम विदेशी या गुलाम भाषा के प्रतीक बने अंग्रेजी में 37 फीसदी होता था वह साठ बरस के सफर में 73 फीसदी जा पहुंचा । लेकिन बात यही नहीं रुकी बल्कि उत्तर में समाजवादी पार्टी तो दक्षिण में द्रमुक ने भाषा को राजनीतिक हथियार बना लिया। अब तो भाजपा को भी लगने लगा है कि भाषा पर सियासत हो सकती है तो वह भी संविधान का बात को अपने चुनावी मिशन से जोडकर देश को इसका एहसास कराने लगा है कि जो काम संविधान में दर्ज होने पर नहीं हुआ उसे वह सत्ता में आने के बाद कर देगा । संविधान का अगला माखौल पिछड़ी जातियों को लेकर हुआ। हाशिये पर पड़े जिस समाज की जिन पिछडी जातियों को मुख्यधारा में लाने के लिये 15 और 10 यानी कुल 25 बरस के सफर को तय यह कहते हुये किया गया कि तबतक आरक्षण सरीखे सुविधा का लाभ इन्हें देना जरुरी है । जब तक यह मुख्यधारा से जुड़ नही जाती । और इसके लिये ही सत्ताधारियों को कानून बनाने और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को एक घरातल पर लाने का अधिकार दिया गया। और इस आधार की जमीन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अध्ययन को बताया गया। लेकिन साठ बरस के सफर में आरक्षण का वही लाभ सबसे धारदार राजनीतिक हथियार बन गया। आजादी के वक्त जिस हाशिये पर पडे समाज को सामाजिक-आर्थिक तौर पर उसकी जनसंख्या के लिहाज से 80 फिसदी हिस्से को कमजोर माना गया, साठ बरस बाद उसका साठ फीसदी मुख्यधारा की जातियों की तुलना में सामाजिक-आर्थिक तौर पर मजबूत हो गया। लेकिन तादाद चूंकि 1950 की लक्षमण रेखा के तहत बनी तो राजनीतिक जूतम-पैजार आज भी उस कठघरे से बाहर झांकने को तैयार नहीं है। और क्षत्रपों की सियासत की जमीन ही संविधान बनाते वक्त उलझे कदमों को पटरी पर लाने की जगह पटरी से उतरी रहे यही मान ली गई। कुछ यही तासिर अल्पसंख्यकों को लेकर रही। खासतौर से जो रेखा आजादी के वक्त मुस्लिम समाज को लेकर दर्द और त्रासदी के साये में खिंची गई। वही दर्द और त्रासदी साठ बरस के सफर में वोट बैंक का सबसे सशक्त माध्यम बन गया। जाहिर है यह किसी ने आजादी के वक्त सोचा ना होगा, लेकिन साठ बरस बाद कई एलओसी समाज के भीतर खिंची और राज्यो में वोट बैंक की सियासत ने इस लकीर को और मजबूत ही किया। और संसदीय राजनीति का यही वोट बैंक सत्ता में आने या बाहर करने की लकीर तले देश को सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढायेगी यह भी किसी ने सोचा न होगा।

लेकिन आजाद भारत के नागरिकों को गुलाम बनाकर छलने का असल खेल तो राजनीतिक दलो के संविधान के अपहरण के साथ शुरु हुआ। संविधान को बनाते वक्त देश के हालात का अध्ययन कर जिस नतीजे पर देश को देखा-परखा गया और वोट डालने के समाजवादी चिंतन को अधिकारों की फेहरिस्त में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण जब करार दिया गया तो उसके अपहरण के बाद शुरु हुआ नागरिकों को संविधान से मिले अधिकारों के रास्ते में खड़े होकर राजनीतिक सत्ता का खुद को संविधान से बड़ा बताने और अधिकारो को पूरा करने का खेल। संविधान बनाते वक्त जीने की न्यूनतम जरुरत को मौलिक अधिकारों से जोड़ना तक जरुरी नहीं समझा गया। साठ बरस पहले यह माना गया कि संसद पीने का पानी, इलाज की जरुरत, दो जून की रोटी का जुगाड, पढ़ाई और छत तो हर नागरिकों को दिलवा ही देगी । उस वक्त बाबा साहेब अंबेडकर ने भी नहीं सोचा होगा कि पीने का पानी संसद नहीं कॉरपोरेट कंपनियां तय करेंगी। स्वास्थ्य सेवा संसद के हाथ से निकल कर कमाई के सबसे बड़े मुनाफे वाले घंघे में तब्दील हो जायेंगी। दो जून की रोटी का जुगाड़ संसद में पहुंचने वाले राजनीतिक दलों के चुनावी मैनिफेस्टो से लेकर राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बन जायेगा। और सत्ताधारी खुद का गुणगाण करेंगे कि वह हर पेट के लिये अनाज और हर हाथ के लिये काम ले कर आ गये। और तो और कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी संविधान द्वारा मिले राइट टू शेल्टर यानी छत के अधिकार को अपने राजनीतिक प्रोपोगेंडा से जोड कर कही इंदिरा आवास योजना तो कही वाजपेयी आवाज योजना चलेगी और हर मुख्यमंत्री के 10 से साठ सूत्री कार्यक्रमों में नागरिकों को उन्हीं सुविधाओं को देने का जिक्र होगा जिसे दस्तावेज की शक्ल में संविधान में साठ पहले ही लिख दिया जा चुका है।

संविधान को खारिज कर राजनीतिक दलो ने कैसे अपनी चुनावी बिसात चुनावी घोषणापत्र के जरीये बनायी और साठ बरस की यात्रा में कैसे हर नागरिक के लिये संविधान में दर्ज शब्द बेमतलब करार देते हुये राजनीतक दलों के चुनावी घोषणापत्र से लेकर सत्ताधारी की नीतियां ही राष्ट्रवाद भी हो गयी और लोकतंत्र का पैमाना भी यह सुप्रीम कोर्ट के सामने आये दो सौ से ज्यादा मामलो में से सिर्फ आधे दर्जन मामलों को देख-पढकर ही समझा जा सकता है ।

गोलकनाथ बनाम पंजाब 1967, केशवानंद भारती बनाम केरल 1973, मिनरवा मिल्स बनाम भारत सरकार 1980, वामनराव बनाम भारत सरकार 1981, भीम सिंह बनाम भारत सरकार 1981, सम्पत कुमार बनाम भारत सरकार 1987 । यह ऐसे मुकदमे हैं, जिनके जरीये नागरिक समझ सकते हैं कि कैसे संसद, सत्ताधारी और राजनीतिक दल के साये में नागरिकों को मौलिक अधिकारो की लूट शुरु हुई। और कैसे कारपोरेशन से लेकर कारपोरेट युग तक के दौर में राज्यसत्ता ने ही नागरिकों को पंगु बनाकर कभी कारपरेशन तो अब कारपोरेट को राज्यसत्ता के बराबर खड़ा कर दिया। और नागरिक यह सोचने लगा कि जिसे उसने चुना नहीं वही उसके जीवन से जुड़े हर तत्व का मालिक कैसे बन गया। इन नजरियों को साफ करने के लिये सुप्रीम कोर्ट की दो व्याख्या अपने आप में काफी हैं। पहली शिक्षा को लेकर है तो दूसरी कानून के समक्ष हर किसी के बराबरी का सवाल। 1981 में अजय हसिया बनाम खालिद मुजिब पर फैसला जस्टिस पी एन भगवती ने दिया था। और उसी वक्त उन्होंने इस सच की पूरी व्यख्या की थी कि कैसे नागरिकों के जीवन से किसी भी आर्थिक आधार के जुड़ने से, चाहे वह मौलिक अधिकार का हिस्सा ही क्यों ना हो नागरिकों को और कोई नहीं राज्यसत्ता ही ठगती है। और जब सवाल समानता के अधिकार से जुडते हुये कानून की बराबर मदद को लेकर आया तो सुप्रीम कोर्ट में ही नागरिकों को मिलने वाले हक को लेकर यह सवाल भी उठा कि कैसे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने की स्थिति इस देश में सिर्फ एक फीसदी लोगों से भी कम की है। क्योंकि वकीलों की रोजमर्रा की पेशी की जो औसत रकम है वह इस देश में 80 फीसदी नागरिकों के सालाना खर्च के बराबर है। तो ऊपरी अदलते सिर्फ उन्हीं की पैरोकारी और फैसलों के इर्द गर्द घुमती है, जिन्होंने राज्यसत्ता को संविधान से आम नागरिकों के अधिकारों को छिनने पर चुप्पी साध रखी है । या फिर संविधान द्वरा प्रदत्त नागरिको के हक को राजनीतिक सौदेबाजी का हिस्सा बना चुके हैं। और नागरिक अपने ही हक को लेकर अदालत तक पहुंच नही पाता। 1987 में प्रभाकरण नायर बनाम तमिलनाडु के मामले ने तो छत के अधिकार को ही ले उडी राज्य सरकार पर सीधी अंगुली उठायी दी । लेकिन सवाल सिर्फ अदालत की व्याख्या या संविधान को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जरीये सत्ताधारी राजनीतिक दलो को चेताने भर का नहीं है। अगर 2009 के लोकसभा चुनाव में घोषित राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को ही देख लें या फिर 2014 के लिये बिछती सियासी बिसात में उठाये जा रहे मुद्दों को परखें तो बीस किलो चावल से लेकर मुफ्त छत की व्यवस्था कराने और शिक्षा को अधिकार बनाते हुये सड़क, पानी बिजली पूरी करने की बात करने वाले राजनीतिक दलों से लेकर सरकार के नरेगा और फूड सिक्योरटी विधेयक के आइने में संविधान को कभी पढ़कर देखे तो समझ जायेंगे कि कैसे साठ बरस में राजनीतिक दलों की गुलामी और सत्ताधारियों के राष्ट्र में रहकर ही कोई नागरिक होने का हक पा सकता है । संविधान ने देश के नागरिकों को सबसे बड़ा माना। लेकिन संसदीय सत्ताधारियों ने झटके में नागरिको से सारे अधिकार छिन कर उपभोक्ताओं की ऐसी फौज खडी कर दी कि नागरिको को मिलने वाले सारे हक कारपोरेट और पैसो वालों के हाथ में आ गये। और नागरिकों के नाम पर जो बचा उसे कल्याण योजना का नाम दिया गया। संयोग से कल्याण योजनाओ को लेकर भी सत्ताधारियों ने ही माना कि सबसे बडी राजनीतिक और लोकतांत्रिक लूट तो वही होती है। कांग्रेस और भाजपा दोनों के 2009 के चुनावी मैनिफेस्टो में 40 फीसदी लोकप्रिय नारे संविधान से ही चुराये हुये थे। 2004 से 2012 तक सभी 28 राज्यों और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में कमोवेश हर राजनीतिक दल ने आम आदमी के हक या उसे जिन सुविधाओ को देने की बात अपने चुनावी घोषणापत्र में कही उसका 80 फिसदी हिस्सा किसी ना किसी रुप में संविधान के तहत नागरिकों के अधिकार क्षेत्र में आता है या फिर राज्यसत्ता का काम है कि वह उसे पूरा करें। लेकिन अपनी राजनीति सौदेबाजी के दायरे आमआदमी और देश के नागरिकों के साथ जो छल-कपट इस दौर में संसदीय राजनीति की जरुरत बन चुकी है परिणाम उसी का है कि संविधान की शपथ लेने के बाद भी संविधान को ही खारिज करने की सोच हर सत्ताधारी के भीतर तक समा चुकी है। और सत्ताधारियों ने मान लिया है कि चुन कर सत्ता में पहुंचने का मतलब है पार्टी का संविधान देश के संविधान से बड़ा हो जाना। यह सवाल इसलिये क्योंकि कोई भी नेता चुने जाने के बाद और कोई भी मंत्री बनते वक्त संविधान के अंतर्गत काम करने की कसम खाता है। और लोकतंत्र के दूसरे पाये के तौर पर नौकरशाही संविधान के तहत सीआरपीसी और आईपीसी की घाराओ को लागू करने का काम करती है। लेकिन औसतन हर बरस सवा सौ से ज्यादा आईएएस और आईपीएस के वैसे अधिकारी जो संविधान के मातहत काम करते है और ईमानदारी का पाठ सत्ताधारियों को भी पढ़ाने की हिम्मत रखते हैं उन्हे वही सत्ता संसपेंड कर देती है जो संविधान की कसम लेकर सत्ता चलाते हैं। किसी देश के ऐसे चीरहरण को अगर आजाद देश कहा जाये तो इसमें से कौन अपना नाम कटाना चाहेगा और कौन इसे बदलने के लिये संघर्ष का रास्ता अपनायेगा। इंतजार करना होगा या पहल करनी चाहिये। वक्त मिले तो सोचियेगा।

Monday, August 5, 2013

राहुल गांधी ! राजनीतिक मंत्र क्या है पार्टनर?

देखने में खूबसूरत है। अंग्रेजी भी अच्छी बोल लेते हैं। हर जिम्मेदारी से भागते भी हैं। देश को सुधारने की बात भी लगातार करते हैं। और नारा पार्टी, पार्टी पार्टी का लगाते रहते हैं। जी , यह राहुल गांधी हैं। नेहरु-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी। जिसकी राजनीति कांग्रेस में सुधार चाहती है। यानी तीन पीढ़ियों से इतर जो देश चलाने में सुधार की बात करती रही लेकिन राहुल तक आते आते बात कांग्रेस में सुधार की हो रही है। तो क्या यह मान लिया जाये कि राहुल गांधी 2014 की दौड़ में है ही नहीं। या फिर यह माना जाये कि अगर कांग्रेस राहुल की सोच के मुताबिक सुधर जाये तो कांग्रेस ही इंडिया हो जायेगी जैसे एक वक्त दिया इंदिरा इज इंडिया था। इसका जवाब हां भी है और नहीं भी। हां इसलिये क्योंकि बिना जिम्मेदारी राहुल गांधी मान चुके हैं कि कांग्रेस का मतलब ही इंडिया है और कांग्रेस में गांधी परिवार हमेशा से सत्ताधारी रहा है। और नहीं इसलिये क्योंकि राहुल कोई जिम्मेदारी लेने के लिये आगे आते नहीं है। ध्यान दें तो मौजूदा परिस्थितियां इन्हीं हालातों के बीच एक ऐसी लकीर खींच रही है, जहां राहुल को सत्ता में लाने के लिये कांग्रेस को पूर्ण बहुमत चाहिये। और पूर्म बहुमत मिल नहीं सकता है तो संघर्ष करते हुये 2014 में पिछड़ती कांग्रेस में लगातार सुधार की आवाज राहुल उठाते रहेंगे। चौथी पीढ़ी के राहुल गांधी में यह सोच क्यों आयी है या कहे बिना जिम्मेदारी की राजनीति की समझ को ही श्रेष्ठ गांधी परिवार ने क्यों माना। इसके लिये मौजूदा दौर की संसदीय राजनीतिक व्यवस्था को भी ठोक-बजा कर देखने की जरुरत है। राजीव गांधी की हत्या और सोनिया गांधी के कांग्रेस के मुखिया के तौर पर संभालने के बीच सात बरस तक गांधी परिवार कांग्रेस से दूर भी थी और सात में से पांच बरस काग्रेस सत्ता में भी थी। अप्रैल 1998 में सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस को संभाला उस वक्त तक कांग्रेस ही नहीं देश भी मान चुका था अब किसी राजनीतिक पार्टी के लिये "एकला चलो" की सोच दूर की गोटी हो चली है। ध्यान दें तो इसी सोच को मनमोहन सिंह ने बीते 9 बरस में और पुख्ता ही किया है। और इसी नौ बरस में राहुल गांधी अमेठी से बतौर सांसद मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े भी । राहुल गांधी की राजनीति और मनमोहन सिंह सरकार के कामकाज ने कई बार दिखायी बताया कि दोनों के रास्ते बिलकुल जुदा हैं। लेकिन हर बार राहुल की तुलना में मनमोहन सरकार सोनिया गांधी की ज्यादा जरुरत बने क्योंकि राहुल बिना जिम्मेदारी के खुद के लिये वैसे ही संघर्ष करते नजर आये जैसे वर्तमान में कोई कांग्रेसी सिर्फ और सिर्फ खुद की जीत के लिये संघर्ष करते हुये नजर आ रहा है। यानी कांग्रेसी सांसद को कांग्रेस के चुनाव चिन्ह से ज्यादा सरोकार नहीं है और गांधी परिवार की राजनीति भी किसी कांग्रेसी को चुनाव चिन्ह से ज्यादा देने की स्थिति में है भी नहीं। तो हर कांग्रेसी का महत्व यही है कि वह अपने क्षेत्र में चुनाव जीत जाये तो हर कांग्रेसी के लिये खुद की जीत को पुख्ता बनाने के लिये हर तरह की जोड़-तोड़ को अंजाम देना ही महत्वपूर्ण हो चला है। यहां ना तो राहुल गांधी के इमानदारी भरे भाषण मायने रखते हैं और ना ही कांग्रेस की परंपरा। हर कांग्रेसी सांसद के पास आज की तारीख में इतनी पूंजी है कि वह कई पुश्तो की सियासत कर सकता है। तो ऐसे में कांग्रेसी समझ से ज्यादा खुद को बनाये रखने की सियासत कांग्रेसियो की ज्यादा है। यह समझ गांधी परिवार के जादू खत्म होने का भी संकेत है और मौजूदा चुनावी राजनीति में जमी काई के पत्थर हो जाने का भी संकेत है।

तो क्या राहुल गांधी का भविष्य वर्तमान संसदीय राजनीति पर उठते सवालो से कटघरे में खड़ा है या फिर राहुल गांधी खुद को गांधी परिवार की उस राजनीति में ढाल नहीं पाये जिसकी लीक मोतीलाल नेहरु ने खींची और जवाहर लाल से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक उसपर चले। 1991 से 1998 तक सोनिया गांधी ने इस लीक को नहीं समझा तो 2004 से 2013 तक राहुल गांधी भी इस लीक को समझ नहीं पा रहे है कि आखिर क्यों। यह सवाल राहुल गांधी के लिये इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि बीते 22 बरस से गांधी परिवार ने देश में कोई सीधी जिम्मेदारी ली नहीं है और जिन्होने काग्रेस हो कर जिम्मेदारी संभाली उन्होंने गांधी परिवार के सत्ता संभालने के तौर तरीको को ही मटियामेट कर दिया। उसमें खासतौर से मनमोहन सिंह- चिदबरंम की जोड़ी। आर्थिक सुधार की जो लकीर मनमोहन सिंह ने 1991 में बतौर वित्त मंत्री बनकर शुरु की, अगर अब के दौर में उसे बारिकी से देखें तो 2004 में चिदंबरम ने उन्हीं नीतियों के कैनवास को मनमोहन सिंह की अगुवाई में और व्यापक किया। देश में खनन और टेलीकॉम को निजी कंपनियों के जरीये खुले बाजार में ले जाने का पहला खेल बीस बरस पहले नरसिंह राव की सरकार के दौर में ही शुरु हुआ। उस वक्त मनमोहन सिंह अगर वित्त मंत्री थे तो चिदंबरम वाणिज्य राज्य मंत्री के तौर पर स्वतंत्र प्रभार देख रहे थे। उस दौर में आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों तले भारतीय आर्थिक नीतियां जिस तेजी से करवट ले रही थीं और सबकुछ खुले बाजार के हवाले प्रतिस्पर्धा के नाम पर किया जा रहा था, उसमें पहली बार सवाल सिक्यूरटी स्कैम के दौरान खड़ा हुआ और पहली कुर्सी चिदंबरम की ही गई थी। उन पर फेयरग्रोथ कंपनी के पीछे खड़े होकर शेयर बाजार को प्रभावित करने का आरोप लगा था। लेकिन खास बात यह भी है कि उस वक्त मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री चिदंबरम की वकालत की थी। और जुलाई 1992 में गई कुर्सी पर दोबारा फरवरी 1993 में चिदंबरम को बैठा भी दिया था। अगर अब के दौर में चिदंबरम पर लगते आरोपों तले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल देखें तो अठारह बरस पुराने दौर की झलक दिखायी दे सकती है। क्योंकि वित्त मंत्री रहते हुये चिदंबरम ने जिन जिन क्षेत्रों को निजी कंपनियों के लिये और मनमोहन सिंह ने खुली वकालत की, उसकी झलक शेयर बाजार से लेकर खनन के क्षेत्र में निजी कंपनियों की आई बाढ़ समेत टेलिकॉम और बैकिंग प्रणाली को कारपोरेट घरानों के अनुकूल करने की परिस्थितियों से भी समझा जा सकता है। चिदबरंम ने आर्थिक विकास की लकीर खिंचते वक्त हमेशा सरकार को बिचौलिये की भूमिका में रखा। मुनाफे का मंत्र विकसित अर्थव्यवस्था का पैमाना माना। कॉरपोरेट और निजी कंपनियो के हाथों में देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर तक को बंधक बनवाया। यानी नब्बे के दशक तक जो सोच राष्ट्रीय हित तले कल्याणकारी राज्य की बात कहती थी, उसे बीते बीस बरस में मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी ने निजी कंपनियो के मुनाफे तले राष्ट्रीय हित का सवाल जोड़ दिया। और इसी सोच के उलट राहुल गांधी पहल करते हुये दिखना चाहते हैं।

असल में कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियों के आसरे आर्थिक विकास का जो खेल इन बीस बरस में लगातार चला अगर उसकी नींव को देखे तो सबसे बड़ा सवाल उस पूंजी की आवाजाही का है, जो बेरोक-टोक हवाला और मनी-लैडरिंग के जरीये देश में आती रही। और इसने चुनावी तंत्र को ही सीधे प्रभावित कर दिया है। और संसदीय राजनीति ही इस कारपोरेट पूंजी के आगे नतमस्तक हो चुकी है। असर इसी का है कि राज्यसभा ही नहीं लोकसभा में जनता के वोट से चुनाव जीतने का तंत्र भी कारपोरेट पूंजी पर जा टिका है। और कांग्रेस के तमाम महारथी इसी कारपोरेट पूंजी को आधार बनाये हुये हैं। जबकि दूसरी तरफ कारपोरेट के साथ राजनेताओ के सरोकार ने आम लोगो के बीच संसदीय राजनीति से ही मोह भंग की स्थिति पैदा कर दी है। और गांधी परिवार की चौथी पीढी पर सवालिया निशान इसलिये ज्यादा गहरा है क्योकि संसदीय राजनीति से इतर देश पहली बार स्टेटसमैन की खोज में राष्ट्रीय नेता देखना चाहता है और राहुल गांधी संसदीय राजनीति के तंत्र में खुद को कांग्रेस का नेता बनाये रखना चाहते हैं।

तो राहुल गांधी या काग्रेस का राजनीतिक सच दो स्तर पर है। पहला राहुल गांधी की राजनीतिक चालें और उन्हे घेरे नेताओ की जरुरतें। दूसरा, गैर कांग्रेसी राज्यों में काग्रेस का घटता कद। राहुल की राजनीति चाल काग्रेस के दाग को उभारती है। राहुल को घेरे नेता तिकड़मी और दागदार छवि वाले ज्यादा है। फिर कांग्रेस अभी भी किसी कांग्रेसी को कांग्रेस का चेहरा बनने नहीं देती। जबकि इसी दौर में चुनावी राजनीति, राजनीतिक दलो की साख से खिसक कर नेताओं की साख पर जा टिकी है। और कांग्रेस में सत्ता से लेकर सड़क की राजनीति करने में किसी की साख है तो गांधी परिवार की ही है, जो जिम्मेदारी से मुक्त है तो फिर राहुल के राजनीतिक उवाच का मतलब क्या है। राहुल की मौजूदा परिस्थिति को देखते ही हर किसी के जहन में तुरंत सवाल उभरता है कि क्या कांग्रेस में सत्ता भी गांधी परिवार को संभालनी है और सड़क पर संघर्ष भी गांधी परिवार को करना है। क्योंकि कांग्रेस के लिये संघर्ष करने वाले नेता है कहां। और क्या 1989 में राजीव गांधी के सत्ता गंवाने के बाद गांधी परिवार का भविष्य यही है कि वह कांग्रेस के लिये संघर्ष करें और सत्ता बिना आधार वाले नेता संभाले। दरअसल जो सवाल कांग्रेस के सामने है या कहें मनमोहन सरकार के सामने है अगर दोनो में तारतम्य देखा जाये तो मनमोहन सिंह हो या काग्रेस संगठन दोनों इस दौर में मुश्किल में हैं और दोनों का संभालने की जिम्मेदारी गांधी परिवार की है। लेकिन सरकार गांधी परिवार के हाथ में सीधे नहीं है और संगठन बनाने में राहुल गांधी के युवा भत्ती अभियान छोड दें तो संगठन को व्यापक बनाने के लिये कुछ हो भी नहीं रहा है।

यहीं से अब के दौर की वह राजनीतिक परिस्थितियां खड़ी होती है जो किसी भी कांग्रेसी को परेशान करेंगी कि आने वाले दौर में कांग्रेस का हाथ कितना खाली हो जायेगा। उत्तर प्रदेश से लेकर आध्र प्रदेश और बंगाल ,बिहार से लेकर तमिलनाडु तक की गद्दी संभालने वाला कोई कांग्रेसी निकलेगा नहीं , जिसकी कनेक्टिविटी आम वोटर से कांग्रेस के नाम पर हो। यानी वोटरों से जुड़ाव के लिये जाति, धर्म , जरुरत या मजबूरी , जो भी होनी चाहिये वह कांग्रेस के पास नहीं है। और कांग्रेस गांधी परिवार के जरीये इन मुद्दों से इतर जो लोभ इन पांच राज्यो में दूसरे दल जनता को देती है वह केन्द्र की सत्ता से मिलने वाली सुविधा की पोटली या पैकेज है। यानी सौदेबाजी का लोभ भी कांग्रेस का हथियार बन जायेगा और इसे लागू कराने में गांधी परिवार से लेकर सरकार तक भिड़ जायेगी, यह किसने सोचा होगा।

इसलिये राहुल के सामने दोहरी चुनौती है । एक तरफ यूपी, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु की दौ सौ लोकसभा सीट पर कांग्रेस है कहां, यह राहुल गांधी तक को नहीं पता और इसी दौर में किसानों को केन्द्र का मुआवजा देने या बुदेलखंड या पूर्वोत्तर के लिय पैकेज के एलान से लेकर कैश ट्रांसभर या फूड सिक्यूरटी के ऐलान से ग्रामीण क्षेत्र की 196 सीटों पर काग्रेस को क्या लाभ होने वाला है, इसकी भी कोई राजनीतिक कवायद राहुल गांधी ने की नहीं है। तो फिर कांग्रेस किस भरोसे 2014 में जा रही है। भरोसा ठीक वैसा ही है जैसे गांधी परिवार की महत्ता को बता कर मनमोहन सिंह खुद को टिकाये रहे है। लेकिन राहुल गांधी यह कभी समझ नहीं पाये कि सरकार उनकी। सरकार का रिमोट उनके हाथ में। बावजूद इसके कांग्रेसियों को ही गांधी परिवार पर भरोसा नहीं कि उनकी चुनावी जीत में कोई भूमिका राहुल गांधी की हो सकती है। और राहुल गांधी में वह औरा नहीं बच रहा जहां कांग्रेस तो दूर कोई कांग्रेसी नेता भी इस दौर में खडा हो सके और बिहार, यूपी, छत्तिसगढ, मध्य प्रदेश,उडिसा , गुजरात,तमिलनाडु, आध्र प्रदेश में अपने बूते कांग्रेस का कद बढाने की हैसियत रखता हो।

तो क्या राहुल गांधी के अलावे कांग्रेस का ना कोई चेहरा है ना ही संगठन। यह सच इसलिये क्योकि काग्रेस शासित राज्यो में कौन सा मुख्यमंत्री अपना चेहरा लिये यह यकीन से कह सकता है कि उसके भरोसे कांग्रेस अगली बार भी जीत सकती है। या संगठन इतना मजबूत है कि गांधी परिवार फ्रक्र करें कि सोनिया-राहुल की सभाओं भर से सत्ता काग्रेस के हाथ में आ सकती है। सिर्फ असम में तरुण गगोई ही ऐसे हैं, जो अपने काम के भरोसे अपना अलग चेहरा बना पाये हैं। और उनकी कोई पूछ नहीं है । असल में काग्रेस के भीतर की इस कश्मकश को भी समझना जरुरी है कि गांधी परिवार को कांग्रेस का सर्वेसर्वा मान कर केन्द्र में रखने के बदले अब जिले से लेकर दिल्ली तक और भ्र्रष्टाचार के मुद्दे से लेकर भूख मिटाने की जरुरत के लिये लाने वाले खादान्न बिल के अक्स में भी गांधी परिवार को ही क्यों जोड़ा जा रहा है। लोकपाल विधेयक हो या भूमि अधिग्रहण या फिर खाधान्न विधेयक को लेकर राहुल गांधी इतने उत्साहित क्यो हो जाते है । जबकि यह हर कोई जानता है कि सत्ता में बने रहने के लिये लायी जाने वाली नीतिया हमेशा राजनीतिक लूट में तब्दिल होती है और कार्यकर्त्ता यह मानकर चलता है कि उसे लूट का लांसेंस मिलेगा । दरअसल जन-नीतियों को लेकर बाजार अर्थवयवस्था का यह टकराव ऐसे दौर में खुल कर नजर आ रहा है, जब जनता के मुद्दों को राहुल गांधी संभाले हुये हैं और बाजार अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह। और दोनों ही कांग्रेसी हैं। फिर राहुल गांधी के मिशन 2014 की टीम में मनमोहन सिंह कही नहीं है और मई 2014 तक सत्ता संभाले मनमोहन सिंह की राजनीतिक थ्योरी में राहुल गांधी कहीं नहीं है । तो अब सोचिये संसदीय चुनावी राजनीति के मिशन 2014 के लिये राहुल गांधी गुड लुकिंग है । राहुल गांधी अग्रेजी दा है । राहुल गांधी पार्टी पार्टी पार्टी करने वाले नेता है। तो राहुल गांधी का भविष्य पढ़ने वाले तय करें । क्योंकि 2014 के लिये राहुल गांधी के सामने नरेन्द्र मोदी खड़े हैं। और राहुल के लिये यही राजनीतिक ऑक्सीजन है ।

Saturday, August 3, 2013

मोदी के सपनों को उड़ान देती किताब

जिस राजनेता को निशाने पर लेना एक वक्त बौद्दिक तौर पर देशहित माना जाता हो और कुछ अर्से के बाद उसी राजनेता की तारीफ करना राष्ट्रहित माना जाने लगे, ऐसे कितने राजनेता होंगे। नरेन्द्र मोदी की छवि कुछ इसी तरह से दशक भर में बदली है और उस छवि को टटोलने का प्रयास करती किताबों की फेरहिस्त लगातार बढ़ती जा रही है। इस कतार में तेजपाल सिंह धामा की किताब "नरेन्द्र मोदी का राजनीतिक सफर" मौजूदा दौर में सियासी तौर कई परतों को एक साथ उठाता भी है और ढकता भी है। ढकता इसलिये है क्योंकि राजधर्म का पाठ मोदी 2002 में ना समझ पाये और मौजूदा वक्त में राजधर्म की परिभाषा मोदी से ही संघ गढ़वाना चाहता है। और इसी दौर में मोदी का कद कैसे बीजेपी से बड़ा बना दिया गया और सामानांतर में संघ ने निशाने पर दिल्ली में बैठे बीजेपी की उस चौकड़ी को लिया जो धीरे धीरे बीजेपी का कांग्रेसीकरण कर रही थी। ध्यान दें तो मोदी पर लिखी जाने वाली किताबों की फेहरिस्त में धामा की किताब मोदी के राजनीतिक सफर को उस सड़क पर सरपट दौड़ाती है, जो मोदी ने ही बनायी।

इसलिये मोदी के राजनीतिक तौर तरीकों पर बहस की गुंजाइश खत्म करती यह किताब मोदी को शून्य से शिखर की यात्रा का तमगा देते हुये स्वर्णिम गुजरात की रेखा खींचती है। चूंकि लेखक पत्रकार रह चुके हैं और पत्रकारिता गुजरात में ही की है तो मोदी की सफल यात्रा को बताने के लिये मोदी की उसी महीन राजनीति को भी इस किताब ने पकड़ा है जो मोदी को जानने समझने में मददगार है। राजनीति में रुचि रखने वाले कितने लोग जानते होंगे कि लगातार मोदी की दिल्ली दस्तक के दौरान होने वाली हर बैठक के बाद अनंत कुमार ही प्रेस कांन्फ्रेस क्यों करते है। इस सवाल का जवाब दिल्ली के किसी राजनीतिक रिपोर्टर से पूछें तो कहेगा कि अनंत कुमार संसदीय बोर्ड के सचिव हैं इसलिये करते हैं। लेकिन धामा की यह किताब बताती है कि नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक सफर में अनंत कुमार बेहद अहम कड़ी हैं। क्योंकि विहिप के प्रवीण तोगडिया को खामोश रखने के लिये मोदी ने अंनत कुमार का ही इस्तेमाल किया। ठीक इसी तरह वह कौन सी परिस्थितियां हैं, जिसमें वही आरएसएस मोदी के पीछे खड़ा हो गया जो संघ एक वक्त मोदी के "एरोगेन्स" को लेकर दुखी रहता था।

फिर जिस मौलाना ताहिर उल कादरी ने अपने आंदोलन से पाकिस्तानी हुक्मरानों की नींद उड़ा दी उसके ताल्लुक मोदी से कैसे हो सकते हैं और गुजरात यात्रा के वक्त मोदी ने मौलाना को स्टेट गेस्ट कैसे बना दिया। जाहिर है यह ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब सामान्य तौर पर मोदी पर लिखी गई कोई किताब इसलिये नहीं देगी क्योंकि मौजूदा वक्त में नरेन्द्र मोदी का मतलब देश की सत्ता संभालने के लिये उड़ान भरता राजनेता है। जिसके नाखून में खून भी है और पंखों में उजास सी चमक भी है। और किताब चमक देखने दिखाने में ऐसी खोयी है कि गुजरात जमीन पर स्वर्ण दिखने लगे और आने वाले वक्त में इस स्वर्ण को बनाने वाले महात्मा गांधी और सरदार पटेल ही नही कृष्ण से भी आगे नजर आये। शायद हिन्द पाकेट बुक्स की यह खासियत है कि वह जिस शख्सियत पर कलम चलवाती है उसे सबसे उर्जावान , सबसे भरोसे वाला और इतिहास के पन्नों में दर्ज स्वर्णिम पन्ना करार देती है।