Saturday, September 28, 2013

राहुल गांधी ने पीएम की टोपी क्यों उछाली?

सोनिया गांधी ने सत्ता टिकाये रखने की राह पकड़ी और राहुल गांधी ने टिकी सत्ता डिगे नहीं, इस राह को पकड़ा। दागियों के जीतने की संभावना मौजूदा चुनावी सिस्टम में सबसे ज्यादा है, इसे सोनिया गांधी समझती है और इस सिस्टम से आम वोटर परेशान और दुखी है इसलिये वोटरो की भावना के साथ खड़े होना जरुरी है इसे राहुल गांधी ने समझा। और देश के प्रधानमंत्री की टोपी सरेआम उछाल कर गांधी परिवार ने कांग्रेस को बचा लिया क्या इतिहास में यही दर्ज होगा। ध्यान दें तो गांधी परिवार पहली बार सरकार और पार्टी के बीच कुछ इस तरह खडा है, जहां सरकार भी उसके इशारो पर है और पार्टी संगठन भी उसे ही मथना है। यानी पीएम हो या संगठन दोनों जगहों का मतलब गांधी परिवार है। लेकिन पहली बार सत्ता की जिम्मेदारी से गांधी परिवार मुक्त है और रास्ता टकराने के बाद ही निकल रहा है। तो क्या सरकार के निर्णय को बेहुदा करार देना और कैबिनेट के अध्यादेश को फाड देना राहुल गांधी के निजी गुस्से का प्रतीक है या फिर चित भी मेरी और पट भी मेरी के खेल की बिसात गांधी परिवार खुद ही बिछा रहा है और अजय माकन से लेकर मनमोहन सिंह महज प्यादे बन सिर्फ एक एक चाल रहे हैं।

अगर 27 सितंबर को दिल्ली के प्रेस क्लब में अचानक अवतरित हुये राहुल गांधी के दागियों को बचाने के सरकारी अध्यादेश के धज्जियां उड़ाने से पहले और बाद के हालात को देखे तो तीन सवाल सीधे किसी के
भी जहन में आ सकते हैं। पहला , मनमोहन सिंह के पीएम होने की उम्र पूरी हो चुकी है। दूसरा, राहुल गांधी कमान संभालने की तैयारी कर रहे हैं। और तीसरा हर गलत निर्णय का ठीकरा मनमोहन सिंह के मत्थे मढकर खुद को पाक साफ बताने में गांधी परिवार हुनरमंद हो चला है। हकीकत जो भी हो लेकिन राहुल गांधी ने जैसे ही दागियों के अध्यादेश को बेहुदा करार दिया वैसे ही उन्हीं कैबिनेट मंत्रियों को सांप सूंघ गया, जो 48 घंटे पहले तक मनमोहन सिंह के साथ खड़े थे। और सभी एक एक कर मनमोहन का साथ छोड़ राहुल गांधी के पक्ष में आ गये। मनीष तिवारी, राजीव शुक्ला, ऑस्कर फर्नाडिस, शशि थरुर ने बयान बदलने में देर नहीं की और 24 घंटे पहले जो तीन कैबिनेट मंत्री राष्ट्रपति को समझा कर आये थे कि अध्यादेश क्यों जरुरी है,वे वह तो मीडिया से लुका-छिपी का खेल खेलने लगे। गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे, कानून मंत्री कपिल सिब्बल और संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ तो 27 सिंतबर को छुपते और भागते ही दिखायी दिये। जबकि इन्हीं तीनों मंत्रियों से जब 26 की रात राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पूछा कि अध्यादेश की इतनी जल्दबाजी क्यों है तो तीनों ने ही मौजूदा राजनीतिक समीकरण और संसद की सर्वोच्चता पर बड़े बड़े तर्क गढ़े। तो पहला जवाब है कि राहुल गांधी मौजूदा वक्त में नंबर एक हैं। चाहे वह कांग्रेस संगठन को ही मथने में लगे हो लेकिन मनमोहन सिंह के सभी मंत्री भी जानते-समझते हैं कि बिना गांधी परिवार ना तो कांग्रेस का कोई मतलब है न ही सरकार का। दूसरा जवाब है कि जिस रास्ते मनमोहन सरकार चल निकली है, उसमें कांग्रेस से ज्यादा फजीहत सरकार की हो रही है और सरकार से बाहर कांग्रेसी मान रहे हैं कि गलती मनमोहन सिंह को बनाये रखने में है इसलिये पीएम पद की अगर टोपी उछाली भी जाये तो वह कांग्रेस के ही पक्ष ही जायेगा। क्योंकि कांग्रेस की विचारधारा से इतर मनमोहन सिंह की नीतियां चल निकली हैं। और कांग्रेस के पारंपरिक वोट का बंटाधार किये हुये है। और
तीसरा जवाब है राहुल गांधी के अलावे कांग्रेस के पास ऐसा कोई हथियार नहीं है, जिससे वह 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर हवा में भांजे और वह जमीन पर कुछ करता दिखे।

लेकिन बड़ा सवाल है कि आखिर वह कौन सी स्थितियां रही हैं, जिसने गांधी परिवार के सामने ऐसी परिस्थितियां ला खड़ी की हैं कि वह पीएम पद की टोपी को हवा में उछाल कर राजनीतिक सुकुन पा रहा है। तो इसकी जड़ में उसी आम जनता का गुस्सा है जो अपराध और भ्रष्टचार में गोते लगाती राजनीतिक व्यवस्था को बर्दाश्त करना भी नहीं चाहता है लेकिन उसके सामने इससे निकलने का कोई विकल्प भी नहीं है। और अन्ना के आंदोलन ने बाद कोई राजनीतिक दल मौजूदा राजनीति का विरोध करते हुये नजर भी नहीं आया। ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी इसी गुस्से को राजनीतिक तौर पर भुनाने के लिये लगातार मनमोहन सरकार के कामकाज के तौर तरीको पर सीधे कटाक्ष कर रहे हैं और जब जब वह मनमोहन सिह के तौर तरीके की खिल्ली उडाते हैं तो तालियां बजती हैं। और राहुल गांधी भी जिस गुस्से में 27 सितंबर की सुबह प्रेस क्लब में पहुंचे और उसी गुस्से को शब्दों में उतार 10 मिनट के भीतर अपनी बात कह निकल गये, उसने भी उसी जनता को तालियां बजाने का मौका दिया जो गुस्से में है। अब तालियां बजी या नहीं या फिर जनता के गुस्से से कोई सरोकार अपने ही पीएम की टोपी उछाल कर राहुल बना पाये या नहीं यह तो कांग्रेस का अपना आंकलन होगा लेकिन रांहुल ने सच कहा, इससे किसे इत्तफाक ना होगा। लोकसभा में 162 दागी हैं। राज्यसभा में 44 दागी हैं। देश भर की विधानसभा में 1258 दागी हैं। और 2009 के चुनाव में तमाम राजनीतिक दल या निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जो भी नेता उतरे उनकी तादाद सात हजार पार थी। और उसमें से 2986 उम्मीदवार ऐसे थे, जिनपर कोई ना कोई केस चल रहा था। 1490 उम्मीदवारो पर तो हत्या, लूट, बलात्कार, अपहरण सरीखे आरोप थे। तो जनभावना दागी अध्यादेश के पक्ष में थी नहीं और जमीन पर इसका उबाल पैदा होना शुरु हो गया था इसे कांग्रेस बाखूबी समझ रही थी। और राहुल गांधी ने इन्हीं परिस्थितियों को देखकर चाल चली। लेकिन यहीं से दूसरा सवाल निकलता है कि अध्यादेश के खिलाफ राहुल गांधी के तीखे तेवर के बावजूद वाशिंगटन में बैठे पीएम मनमोहन सिंह ने 27 सिंतबर को ही जब यह कहा  कि वह लौट कर कैबिनेट में चर्चा करेंगे और सोनिया गांधी ने भी उनसे फोन पर बात की तो खुले तौर पर फिर वही सवाल सामने आया कि जो दागी हैं, उनके पक्ष में सरकार है या दागी अपनी नाजायज ताकत से चुनाव जीतने का दम-खम रखते हैं तो इससे सत्ता समीकऱण बनाये रखने के लिये सरकार दागियो के आगे नतमस्तक है।

सवाल है कि अब आगे क्या होगा। क्योंकि बीजेपी भी दागियो को बचाने के पक्ष में रही है। राज्यसभा में इसीलिये यह पास हो गया। लेकिन अध्यादेश लाने का विरोध करते हुये राहुल की तल्खी ने बीजेपी को ऑक्सीजन दे दिया। यानी राहुल गांधी अभी खामोश नहीं होंगे और जिस अध्यादेश के लेकर उन्होंने बेहुदा शब्द का इस्तेमाल किया है उसका सरलीकरण वह पीएम की टोपी को उछालनेवाला बताने से बचने के लिये फिर सामने आयेंगे। और पीएम एक बार फिर काजल की कोठरी में बैठ कर निर्णय लेते हुये भी कही ज्यादा झक सफेद हो कर निकाले जायेंगे। जो पीएम की बेबसी भी दिखायेगी और संसदीय मर्यादा का पालन करने वाले नेता के तौर पर मान्यता भी दिलायेगी। इसलिये सवाल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री अपनी टोपी के उछाले जाने से रोष में आयेंगे या कोई खटास पैदा कर देंगे। कांग्रेस और सरकार के लिये सवाल सिर्फ इतना है कि राहुल गांधी इस विवाद में कौन सा आखिरी शब्द बोलेंगे, जिसके बाद आम जनता में यह भाव जगे कि राहुल गांधी पप्पू नहीं हैं। यह अलग बात है कि इतिहास के पन्नों में अपनी ही सरकार और अपने ही बनाये पीएम के कैबिनेट से निकले अध्यादेश को बेहुदा और फाड़ देने वाला राहुल गांधी का बयान इंदिरा से इंडिया की तर्ज पर दर्ज हो गया।

Wednesday, September 18, 2013

दंगों की छांव में सियासी जश्न

आजादी के बाद यह पहला मौका है जब केन्द्र सरकार ने दंगों की आशंका जताते हुये 12 राज्यों को पहले से ही अलर्ट कर दिया कि आपके यहां दंगे हो सकते हैं। बीते नौ बरस में केन्द्र सरकार में यह पहला मौका आया जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों किसी घटना को देखने समझने पहुंचे हों। और यह भी अपनी तरह का पहला मौका है जब यूपी के सीएम अखिलेश यादव मुज्जफरनगर के दंगा पीड़ितों के घाव पर मरहम लगाने से पहले अपनी पार्टी के कद्दावर अल्पसंख्यक नेता आजमखान के सियासी घाव पर मरहम लगाने घर पहुंचे। उसके बाद आजम खान से दिशा निर्देश पाकर ही सीएम मुजफ्फरनगर गये। तो रुठे आजम खान को 14 सितंबर को उनके सरकारी आवास पर जाकर मनाया फिर 15 सितंबर को मुजफ्फरनगर गये। और एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन ने दंगे के सच के पीछे सरकार के ही खड़े होने के सच को उस वक्त दिका दिया जब इस पर सियासत तेज होनी थी उसमें तल्खी आनी थी। लेकिन दंगों को लेकर देश में आजादी के बाद से होती सियासत को पहली बार एक ऐसा सिरा मिला है, जहां राजनीतिक सत्ता लोकतंत्र को ताक पर रख संविधानिक संस्थाओं को भी कैसे अपनी सत्ता के अनुकूल करती है।

तो क्या यह मुजफ्फरनगर दंगों के बाद की राजनीतिक तस्वीर से अब मुसलमान डर सकता है। क्योंकि एक बार फिर यूपी का मुसलमान राजनीतिक बिसात पर सबसे महत्वपूर्ण होकर भी प्यादे से ज्यादा हैसियत नहीं रख रहा है। यानी मुस्लिम वोट बैंक चुनावी असर तो डाल सकता है लेकिन दंगों के साये में अगर चुनाव हुये तो उन्माद के आसरे एक ऐसी लकीर यूपी में खिंच सकती है जो क्षेत्रीय दलों को हाशिये पर ढकेल सकती है और 70 के दौर से लेकर मेरठ-मलियाना और अयोध्याकांड के वक्त के बीच जिस तरह वोट का ध्रुव्रीकरण हुआ, उसी रास्ते 2014 की बिसात भी बिछ सकती है। यानी यूपी में लोकसभा की 80 सीट में से 55 सीट सीधे सीधे हिन्दुत्व की प्रयोगशाला और 25 सीटे मुसलिम बहुल वोटबैंक के साथ यादव या दलित वोट बैंक के गठजोड़ की प्रयोगशाला बन जायेगी।

ध्यान दें तो इमरजेन्सी और बोफोर्स के मुद्दे यानी 1977 और1989 के वक्त के अलावे यूपी में हमेशा से वोटों का ध्रुवीकरण सीधे कांग्रेस के पक्ष में रहा है, इसीलिये दिल्ली का रास्ता भी लखनऊ होकर आता रहा है। लेकिन मंडल के बाद से क्षत्रपों ने कांग्रेस और बीजेपी को जिस तरह हाशिए पर ला पटका है उसमें मुज्जफरनगर के दंगों के बाद पहली बार चुनावी संकट के बादल मुलायम-मायावती दोनों पर गहराने लगे हैं। क्योंकि बीते दो दशक में मुस्लिम वोट बैंक चुनावी गठजोड़ के आसरे सत्ता की मलाई खाने में जुटता। और यह मान कर चलता की सरकार चाहे दिल्ली में कांग्रेस की हो या फिर यूपी में माया या मुलायम की। सत्ताधारी कहलायेगा वही।

लेकिन अर्से बाद मुलायम की सत्ता तले जिस तरह मुजफ्फररनगर दंगो के बाद उसके घाव पर मलहम लगाने की होड़ मची है, उसने मुस्लिमों के सामने भी सियासी संकट पैदा किया है और जाट बहुल क्षेत्र में भी यह संदेश दिया है कि अब रास्ता तो दिल्ली में सत्ताधारी के साथ खड़े होने का है। लेकिन 2014 को लेकर मची होड़ में सत्ताधारी होगा कौन। क्योंकि मार्च के महीने में जब यूपी के सीएम से पूछा गया कि उत्तरप्रदेश में कितनी सांप्रदायिक हिंसा हुई तो बकायदा सीएम अखिलेश यादव ने लिखित जवाब दिया कि 15 मार्च से 31 दिसबंर 2012 यानी 9 महीने में 27 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुई। और राजनीतिक तोर इस हिंसा को समझे तो कुल 18 जिलों की 25 लोकसभा सीट प्रभावित हुईं। प्रभावित जिलो में औसतन 27 से 42 फीसदी मुस्लिम हैं। यहां मुस्लिम वोट जिसके पक्ष में, जीत उसी की मानी जाती रही है और 2009 में इनमें से किसी भी सीट पर बीजेपी का कब्जा नहीं रहा। फिर अगर मुजप्फरनगर को छोड़ दे तो बाकी सोलह जिलों में हुई सांप्रदायिक हिंसा की त्रासदी यूपी में ज्यादातर मुस्लिम और यादव के बीच संघष के तौर पर ही उभरी। और यूपी में मुलायम की सत्ता इन्हीं दोनों के गठजोड़ की सत्ता की कहानी है। तो क्या संघर्ष की बड़ी वजह सत्ताधारी होने के लाभ के टकराने की वजह रही।

अगर ऐसा है तो सत्ता का लाभ ना मिल पाने या सत्ताधारी होकर मनचाही मुराद की कहानी ही यूपी में सांप्रदायिक संघर्ष की कहानी है। असल में मुजफ्फरनगर की हिंसा ने यूपी में पहले हुई सांप्रदायिक हिंसा को एक नयी जुबान दे दी है। और यह जुबान एक ऐसी बिसात बिछा रही है, जहां नरेन्द्र मोदी के नाम पर बीजेपी एक बड़े खिलाडी के तौर पर खुद ब खुद खड़ी हो रही है। और पहली बार इसका बड़ा कारण साप्रायिक संघर्ष की वजह बीजेपी का ना होना है। मु्स्लिम वोट बैंक को लेकर मुलायम और कांग्रेस का सीधा संघर्ष है। यादव, जाट और मुस्लिम वोट बैंक सत्ता की कुंजी बनने को तैयार हैं और  सबसे बड़ी बात की सेक्यूलर लाबादा ओढे राजनीतिक दलों के दामन पर ही दाग लग रहा है। असल में यूपी में पहली बार सांप्रादायिक हिंसा ने उस सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को तोड़ दिया है जो राजनीतिक दलों के आसरे खुद को सुरक्षित मान कर चुनाव को एक बड़ा शस्त्र माने हुये थे। पश्चिमी यूपी की जाट बहुल 12 सीटों का समीकऱण अजित सिंह के लिये डगमगाया है। 25 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम बहुल 32 सीटों का समीकरण सपा के लिये डगमगाया है। 41 सीट जो यादव-मुसलिम गठजोड़ मुलायम की जीत सुनिश्चित करते वह भी डगमगाया है। यानी पहली बार यूपी का राजनीतिक मैदान खुला है। जहां कोई दावा नहीं कर सकता कि भविष्य में उसकी जीत पक्की है। और संयोग से यही हालात कांग्रेस में आस जगाये हुये हैं और मोदी की अगुवाई में बीजेपी में उत्साह भर रहे हैं। इसलिये दंगों के बाद के सियासी माहौल की नब्ज कांग्रेस कितना थामती है और बीजेपी कैसे भुनाती है इंतजार सभी को इसी का है। लेकिन मुजफ्फरनगर ने झटके में दंगों पर सियासत को खुली किताब की तरह रख दिया।
आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को यूपी सरकार ने यह कहकर सस्पेंड कर दिया कि दुर्गा शक्ति ने जो किया उससे दंगा भडक सकता था। लेकिन मुजफ्फरनगर के सोलह थानो में दंगे हो गये और यूपी सरकार ने किसी थानेदार से लेकर किसी अधिकारी तक को सस्पेंड नहीं किया। असल में देश की त्रासदी यही है कि दंगों को लेकर कभी किसी पुलिस अधिकारी या किसी अफसर को सस्पेंड करने की परंपरा नहीं रही। कहें तो सियासत ने हमेशा दंगों को कुछ इस तरह भुनाया है कि दंगा प्रभावित इलाकों के अधिकारी या तो जांच के बाद दोषी पाये गये या फिर सियासी तमगा पाकर और कद्दावर अधिकारी बनते चले गये। आजादी के बाद से देश में 2 हजार से ज्यादा साप्रादायिक हिंसा हुई है।

लेकिन दंगों की वजह से किसी आईएएस को सस्पेंड नहीं किया गया। लेकिन जानकारी के मुताबिक हर दंगो के बाद प्रभावित इलाकों के थाने पर हर जांच के बाद अंगुली उठी और हर दंगे के बाद जांच में दोषी राजनेताओं को ही ठहराया गया। इतना ही नहीं दंगों के बाद का असर सबसे ज्यादा राजनीतिक तौर पर ही पड़ा और यह सच है कि 1969 में गुजरात में मारे गये 660 लोगों के मारे जाने के बाद भी राजनीतिक मिजाज ही सामने आया और 1980 में यूपी के मुरादाबाद में सरकारी आंकड़ों में 440 लेकिन 2500 से ज्यादा के मारे जाने के बाद भी सियासत ही उभरी और 1983 में असम के नीली में दो हजार मुस्लिमों के मारे जाने के बाद भी सियासत ने ही रंग बदला और 1984 के सिख दंगों ने तो समूचे देश को ही यह पाठ पढ़ा दिया कि हिंसा की प्रतिक्रिया में हिंसा कितनी खतरनाक होती है। कुछ यही 2002 में गुजरात में हुआ। संयोग से हर दंगे का पाठ या तो राजनीतिक था या फिर सामाजिक आर्थिक ताने बाने के टूटने की अनकही कहानी। लेकिन देश के मौजूदा हालात को समझे पहली बार केन्द्र सरकार ने 12 राज्यों को पहले से ही चेता दिया कि आपके यहां दंगे हो सकते हैं। यानी दंगे अब आतंक का नया चेहरा ओढ़ रहे हैं। या फिर राजनीति का नया औजार हो चला है दंगा। जहां तंत्र और लोकतंत्र दोनों फेल हैं, वहा दंगे हैं और सियासत का बदलता रंग हैं।

Thursday, September 12, 2013

आडवाणी-भागवत के संघर्ष में मोदी महज प्यादा

लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज को खारिज कर नरेन्द्र मोदी के पक्ष में सरसंघचालक मोहन भागवत यूं ही नहीं खड़े हुये। इसके पीछे अगर पहली बार संघ की सीधे राजनीतिक हस्तक्षेप की सोच है तो दूसरी तरफ उस राजनीतिक परंपरा को भी तो़ड़ना है, जो सिर्फ मनमोहन सरकार के गवर्नेंस या महंगाई या भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है। संघ का मानना है कि दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता चुनाव को सिर्फ सत्ता पाने के गुणा-भाग में ही देख रहे हैं। इसीलिये बीजेपी की राजनीति का भी कांग्रेसीकरण हो गया है। संघ का मानना है कि मौजूदा वक्त में ना सिर्फ पारंपरिक राजनीतिक चुनावी एजेंडा बदला जा सकता है बल्कि चुनावी राजनीति में राष्ट्रवाद का वह घोल भी घोला जा सकता है, जिसे आरएसएस हिन्दुत्व के जरीये देश को लगातार पढ़ाना चाह रहा है।

दरअसल, सरसंघचालक मोहन भागवत पहली बार देवरस की उस राजनीतिक लकीर को खिंचने के लिये तैयार है । जिसके जरीये संघ के स्वयंसेवक सीधे चुनावी राजनीति की बिसात बिछाने में जुटे और राजनीतिक स्वयंसेवक संघ के एजेंडे को लागू कराने की राजनीति को ही अपना चुनावी धर्म माना। और यह तभी संभव है जब दिल्ली की राजनीति को ठेंगा दिखाते हुये कोई स्वयंसेवक बीजेपी को नये सीरे से मथे और देश के सामने बीजेपी की अगुवाई करें। आरएसएस के इतिहास को ही पलटे तो जब बलराज मधोक और अटलबिहारी वाजपेयी टकराये थे तो देवरस ने मधोक को बाहर का रास्ता दिखाया। देवरस ने इसी कड़ी में कांग्रेस से निकले जेपी के साथ संघ के राजनीतिक प्रयोग करने के लिये जेपी के नेतृत्व को ना सिर्फ माना बल्कि उस वक्त संघ के समूचे कैडर को ही झोंक दिया था ।

सवाल है मोहन भागवत भी इसी रास्ते हैं लेकिन मोहन भागवत देवरस की तर्ज पर राजनीतिक लाभ या हानि को अपने माथे तिलक लगाने की हिम्मत नहीं रखते। यानी भागवत बीजेपी में सीधे हस्तक्षेप करते हुये दिखायी तो दे सकते है लेकिन इन्हें हथियार के तौर पर मोदी भी चाहिये और मोदी के नाम पर बीजेपी में सहमति भी चाहिये। असल में देवरस और भागवत के बीच के इस अंतर की सबसे बडी वजह राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद की लकीर है। संघ में हेडगेवार के बाद देवरस और उसके बाद रज्जू भइया ने राजनीति में संघ के हस्तक्षेप में राष्ट्रवाद का लेप लगाया था। जबकि गुरु गोलवरकर जनसंघ को लेकर यही कहते रहे कि जनसंघ गाजर की पूंगी है बजी तो ठीक नहीं तो खा जायेंगे। यानी गोलवरकर ने राजनीति में संघ के हस्तक्षेप में राष्ट्रवाद की जगह हिन्दुत्ववाद को जोड़ा। और आखिर तक मानते यही रहे कि जनसंघ की राजनीति का वह आंकलन करते रहेंगे लेकिन उसमें घुसेंगे नहीं। लेकिन देवरस ने राजनीति को प्रणवायु माना। और एक बार फिर मोहन भागवत राजनीति को प्राणवायु मान कर बीजेपी में सीधी दखल देने को तैयार है। लेकिन सरसंघचालक मोहन भागवत की सबसे बडी मुश्किल यह है कि वह देवरस की तर्ज पर राजनीतिक दखल भी देना चाहते है और गोलवरकर की तर्ज पर  बीजेपी में हिन्दुत्व का घोल घोलना चाहते है। असल में लालकृष्ण आडवाणी यही पर मोहन भागवत पर भारी पड़ रहे हैं। आडवाणी इस हकीकत को बाखूबी समझ रहे है कि वह संघ परिवार के स्वंयंसेवक हैं और वह सरसंघचालक भागवत के निर्णय के खिलाफ नहीं जा सकते। लेकिन हिन्दुत्व की थ्योरी के आसरे बीजेपी आगे बढ नहीं सकती और मौजूदा आरएसएस के भीतर भी ेक बड़ा खेमा है जो सरसंघचालक के राजनीतिकरण को सही नहीं मानता है। तो आडवाणी की अपनी राजनीति भी दो तरफा है।

एक तरफ संघ के निर्णय के खिलाफ खुद को खडा कर उन्होने भविष्य की एनडीए यानी चुनाव बाद जो राजनीतिक दल बीजेपी के साथ आयेगे उन्हे सीधा मैसेज दे दिया कि आडवाणी अब कट्टर संघी नहीं रहे । यानी रामरथ यात्रा के दौर की अपनी उस छवि को तोड़ दिया है, जिसमें वह कट्टर संघी के तौर पर नजर आते रहे । और दूसरा झटके में नरेन्द्र मोदी के विकास या गवर्नेंस के नारे को भी धराशायी कर मोदी को संघ के राजनीतिक प्यादे के तौर पर खड़ा कर दिया। असल में स्वयंसेवको की इस आपसी लड़ाई का सबसे बडा अंतर्विरोध यही है कि जो आडवाणी कहना चाह रहे है और मोहन भागवत जो लागू करवाना चाह रहे है उसके बीचे में नरेन्द्र मोदी खड़े हैं जो खुद बतौर स्वयसंवक कोई पहल नहीं कर रहे और बार बार सिर्फ गुजरात के अजेय योद्दा के तौर पर ही हर जगह खुद को रख रहे है। तो असर इसी का है कि आडवाणी की भी जरुरत मोदी को निशाने पर रखने की है तो सरसंघचालक के लिये मोदी की लोकप्रियता सबसे धारदार हथियार है । इस रास्ते जिन्हे भी जो भी समझाने की जरुरत पड रही है उस दिशा में संघ कई कदम आगे बढकर पहल कर रहा है । इसीलिये दिल्ली की बैठक में मोदी को एक आंख ना सुहाने वाले प्रवीण तोगडिया को भी शामिल किया गया। इसीलिये आडवाणी और सुषमा से मोहन भागवत और भैयाजी जोशी ने अलग से मुलाकात भी की। इसीलिये नीतिन गडकरी के जरीये धारा 370, कामन सिविल कोड और अयोध्या मुद्दे को दोबारा जगाने की कोशिश संघ ने बीजेपी के साथ दिल्ली बैठक में की । यानी बीजेपी जिस रास्ते को छोड कर एनडीए बना पायी उस एनडीए को मोदी की लोकप्रियता तले संघ खारिज करना चाह रहा है और मोदी खामोश है। क्योंकि वह समझ चुके है कि दिल्ली का रास्ता उनके गुजरात गवर्नेंस के भरोसे नापा नहीं जा सकता। तो मोदी की जरुरत संघ परिवार है। वही आडवाणी समझ चुके हैं कि अपनी कट्टर संघी की छवि तोडने का इससे बेहतर मौका उन्हे मिल नहीं सकता तो वह मोदी के खिलाफ है। और सरसंघचालक मोहन भागवत यही समझ रहे है कि काग्रेस के खिलाफ देश में अर्से बाद जिस तरह का माहौल है उसमें संघ के एंजेडे को दुबारा राजनीति के केन्द्र में लाने से बेहतर वक्त और कोई हो नहीं सकता। तो यह संघर्ष शतरंज की शह-मात की जगह चौसर की कौड़ियो की हो चली है। जो अभी ना तो अंत होगा और ना ही कोई नयी शुरुआत।

Monday, September 9, 2013

रामलीला मैदान से मोदी का ऐलान संघ का सपना


पहली बार रामलीला मैदान से एक नये इतिहास को रचने की कवायद चल रही है, जिस पर निर्णय तो बीजेपी को लेना है लेकिन कवायद संघ परिवार कर रहा है। यह कवायद नरेन्द्र मोदी को लेकर है। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर मोदी के नाम का ऐलान अगर बीजेपी की एकजुटता और जनता की शिरकत के साथ रामलीला मैदान में रैली के साथ हो तो फिर चुनाव के मोड में समूचा देश भी आ जायेगा और बीजेपी के साथ साथ संघ परिवार भी चुनावी शिरकत शुरु कर देगा। संघ की मोदी को लेकर जो बिसात है उसके मुताबिक संसदीय बोर्ड में मोदी पर सर्वसम्मती से ठप्पा लगे।

यानी कोई नेता रुठा हुआ ना लगे। खास तौर से आडवाणी, सुषमा, मुरली मनोहर जोशी और अनंत कुमार खुले दिल से मोदी के साथ जुड़ें। और चुंकि इसके तुरंत बाद मोदी पूरी तरह से चुनावी कमान संभालेंगे तो उन्हें देश के लीडर के तौर पर रखने के लिये रामलीला मैदान में सबसे बडी और भव्य रैली हो। जिसमें खुले तौर पर मोदी के नाम का प्रस्ताव लालकृष्ण आडवाणी रखे। और सेकेंड सुषमा स्वराज करें। और फिर वह तमाम नेता मोदी के पक्ष में खुलकर आये जो अभी तक मोदी के नाम पर रुठे हुये नजर आते रहे हैं। आरएसएस रामलीला मैदान की रैली पर इसलिये भी जोर दे रहा है क्योंकि वह मनमोहन सरकार को उसी तर्ज पर चुनौती देना चाहता है जैसी चुनौती जेपी ने 1975 में दी थी।

महत्वपूर्म है कि 1975 में जेपी के संघर्ष के साथ आरएसएस खड़ी थी। और 25 जून 1975 को जेपी ने गिरफ्तारी से पहले रामलीला मैदान में ही ऐतिहासिक रैली की थी। जिसमें लाखों लोग जुटे थे। संघ का मानना है कि बीजेपी को भी मोदी की अगुवाई में उसी तरह के संघर्ष की मुनादी रामलीला मैदान से करनी होगी। तभी देश में बदलाव की बयार तेजी से बहेगी और लोगों का जुड़ाव भी तेजी से शुरु होगा। यानी सरसंघचालक मोहन भागवत अर्से बाद 1975 में सरसंघचालक रहे देवरस की उसी राजनीतिक लकीर पर चलना चाह रहे हैं, जिसपर देवरस ने चलकर पहली बार स्वयंसेवकों को सत्ता तक पहुंचाया था और तब जेपी खुले तौर पर यह कहने से नहीं चुके थे थे कि अगर आरएसएस सांप्रादायिक है तो वह भी सांप्रदायिक हैं। और उसी इतिहास को मोदी के जरीये दोहराने के मूड में संघ है।

सवाल सिर्फ इतना है कि तब जंनसंघ संघ के इशारे पर थी और इस बार संघ को लेकर बीजेपी के भीतर अब भी गहरी खामोशी है। लेकिन जिस तरह बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने संघ के साथ बैठक में चुनावी तैयारी का खाका रखा उसने अगर मोदी के अगुवाई में बीजेपी की तैयारी खुल कर बतायी तो भैयाजी जोशी ने बीजेपी के हर नेता के भाषण के उस अंश को पकड़कर बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो का खांका रखा जो संघ के एजेंडे हैं। और बैठक में अर्से बाद धारा 370 और कामन सिविल कोड़ को लेकर राजनीतिक चर्चा खुले तौर पर हुई। तो बीजेपी एक बार फिर संघ की उस लकीर पर चलने की तैयारी कर रही है जिस लकीर को सत्ता पाने के लिये एनडीए तले उसने छोड़ दिया था। असल में बीजेपी के दिल्ली बैठे नेताओं को आरएसएस हर मुद्दे पर खंगाल रही है और मोदी के जरीये अपने स्वप्न को राजनीतिक साकार देने में लगी है। और इसके लिये बीजेपी से ज्यादा राजनीतिक तैयारी संघ परिवार कर रहा है।

संघ ने तीन स्तर पर काम शुरु किया है। पहला संघ के पुराने लोगो को भी चुनावी मिशन में जोड़ना। दूसरा, बीजेपी की जीत का जमीनी आकलन करना और तीसरा मोदी का नाम खुले तौर पर प्रचारिक करना और इस रणनीति को अमल में लाने के लिये संघ ने बकायदा पूरे देश में हर उस वोटर तक पहुंचने की कवायद शुरु कर दी है जो कभी ना कभी किसी ना किसी रुप संघ से जुड़ा रहा हो। चाहे दानपत्र में दस रुपये दान करने वाला व्यक्ति हो या किसी प्रकार की दीक्षा लेने वाला शख्स। संघ ने यूपी,बिहार , राजस्थान और मध्यप्रदेश में पंचायत स्तर पर तो देश के बाकि राज्यों में जिले स्तर पर संघ से जुडे लोगो की निशानदेही शुरु की है। इतना ही संघ के प्रति साफ्ट रुख रखने वालो को काम का ऑफर भी किया जा रहा है। और इस काम में बूथ संभालने से लेकर अपने क्षेत्र के लोगो को मोदी के हक में वोट डालने के लिये प्रोत्साहित करना तक है। संघ का खास जोर उन 298 सीटों को लेकर है जिसपर बीते 33 बरस में बीजेपी जीती है।

यानी बीजेपी के बनने के बाद वह जिस भी सीट पर जीती वहा दोबारा जीत मिल सकती है इसे संघ मान रहा है। खास बात यह है कि पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर अभी तक चाहे मोदी के नाम का ऐलान नहीं हुआ है लेकिन संघ परिवार ने मोदी का नाम लेकर पुरानी संघियों को समेटना शुरु कर दिया है। और संघ के प्रति साफ्ट रुख रखने वालों को यह साफ कहा जा रहा है कि इस बार मोदी को वोट देना हैं। असल में संघ उन विवादास्पद मुद्दों पर भी इसबार समझौता नहीं करना चाहता है, जो एनडीए की सत्ता बनने के दौरान बीजेपी ने ठंडे बस्ते में डाल दिये थे। इसीलिये बैठक में गडकरी ने अयोध्या से लेकर कामन सिविल कोड और संघ के गउ मुद्दे से लेकर धारा 370 की राजनीतिक जरुरत पर भाषण दिया। और इसे दुबारा बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा कैसे बनाये इसपर भैयाजी जोशी ने अपना मत बताया। यानी संघ को पहली बार लगने लगा है कि अगर बीजेपी समेत संघ परिवार एकजुट हो नरेन्द्र मोदी के पीछे जा खड़ा हो तो 300 सीट पर जीत मिल सकती है। यानी पहली बार स्वयंसेवक को संघ के एजेंडे पर सत्ता मिल सकती है।

Thursday, September 5, 2013

नजर लागी मोदी तुम्हें वंजारा की !

पीएम पद पर नजर टिकाये नरेन्द्र मोदी के लिये वंजारा का 10 पेजी पत्र कहीं स्पीड ब्रेकर तो नहीं बन जायेगा ? और पीएम पद की उम्मीदवारी के एलान से पहले अगर इसी तरह की रुकावट आती रही तो मुश्किल वक्त में मोदी को अपनी लड़ाई अकेले तो नहीं लड़नी पड़ेगी? यह दोनों सवाल गांधीनगर से दिल्ली तक बीजेपी और मोदी को परेशान भी किये हुये हैं और मोदी विरोधियों को राहत भी दिये हुये हैं। वंजारा का पत्र दरअसल मोदी भक्त का लिखा गया ऐसा पत्र है, जिसका भरोसा अपने भगवान से ना सिर्फ उठा है बल्कि भरोसे तले दबे कई राज के खोलने के संकेत भी देता है।

तो मोदी की खामोशी को लेकर सवाल कई हैं। पहला, मोदी डर रहे हैं कि वंजारा ने उनकी सत्ता चलाने के राज खोले तो पीएम की दावेदारी का बंटाधार होगा। दूसरा, मोदी सहमे हुये हैं कि वंजारा का पत्र ही कहीं उनके पीएम उम्मीदवारी का मुद्दा ना बन जाये। और तीसरा, मोदी घबराये हुये हैं कि अगर पीएम उम्मीदवारी टली तो उन्हें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी।

तो क्या मोदी अब तब तक खामोश रहेंगे जब तक मोदी की लड़ाई बीजेपी की लडाई ना बन जाये। या फिर मोदी जबतक पीएम पद के उम्मीदवार घोषित ना हो जायें। क्योंकि पीएम का उम्मीदवार बनते ही मोदी की हर मुश्किल बीजेपी की चुनावी मुश्किल होगी और तब मोदी पर लगने वाले हर आरोप का जवाब बीजेपी और संघ परिवार मिल कर देंगे।

जानकारी के मुताबिक नरेन्द्र मोदी ने अपने उपर आने वाली मुश्किलों का जिक्र पिछले महिने 2 अगस्त को संघ के साथ बीजेपी नेताओं की हुई बैठक के वक्त भी किया था। जानकारी के मुताबिक मोदी ने संघ और बीजेपी संसदीय बोर्ड के सदस्यों के सामने कहा था कि आने वाले वक्त में अगर उनपर कोई आरोप लगे तो संघ परिवार या पार्टी विचलित ना हों। और बैठक में ही यह सवाल भी उठा था कि दो व्यक्तियों के लिये दो नियम कैसे हो सकते हैं। क्योंकि जब गडकरी कठघरे में खड़े हुये थे तो उन्हें अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था। ऐसे में मोदी को लेकर कोई दूसरी राय कैसे हो सकती है।

तो मोदी की खामोशी का सबसे राज यही है कि पहले पीएम पद की उम्मीदवारी का एलान हो और उसके बाद मोदी पर लगे हर दाग को समूची पार्टी मिलकर मिटाये। जाहिर है अब सबकी नजर 9 सितंबर को दिल्ली में संघ परिवार के साथ बीजेपी के आला नेताओ की गुफ्त-गु होनी है और उससे पहले मोदी कुछ भी नहीं बोलेंगे। बैठक में चूंकि दो ही बातों पर खुली चर्चा होनी है और दोनों के केन्द्र में मोदी ही हैं तो मोदी बैठक से पहले कुछ भी बोल कर फंसना नहीं चाहते हैं। असल में संघ के साथ बैठक में मोदी की पीएम पद के उम्मीदवारी के एलान के वक्त का आकलन होगा। यानी मोदी को चार राज्यों के चुनाव से पहले पीएम पद का उम्मीदवार बना दिया जाये या चुनाव बीतने के बाद। साथ ही संघ के मुद्दों को कैसे धार दी जाये। जिससे 2014 के चुनाव के वक्त राजनीतिक एजेंडे के दायरे में संघ परिवार की सामाजिक समझ आदर्श मुद्दा बन जाये।

लेकिन वंजारा ने जिन सवालों को जिस तरह अपने पत्र में उठाया है, उससे पहली बार मोदी की वही यूएसपी कठघरे में है जिसके आसरे मोदी मोदी बने हैं। और ऐसे मोड़ पर वंजारा ने मोदी के गवर्नेस पर तीखा प्रहार किया है। वंजारा ने मोदी के नायक बनने के तौर तरीकों पर सवालिया निशान लगाया है। वंजारा ने मोदी के कद को सिर्फ मोदी बनने के लिये इस्तेमाल करने वाला बताया है। यानी मोदी कैसे खुद के कद को बड़ा बनाने के लिये हर किसी का इस्तेमाल कर छोड़ देते हैं। इस दर्द को वंजारा ने अपने पत्र से सार्वजनिक कर दिया है। और मोदी की मुश्किल यही से शुरु होती है। क्योंकि मोदी कैसे अपने साथियों को भी दरकिनार करते हैं, यह सवाल गुजरात के गृहमंत्री हरेन पांड्या से लेकर केशुभाई पटेल और संघ परिवार के संजय जोशी भी उठा चुके हैं।

लेकिन इन तीनों के आरोपों के वक्त मोदी की सियासत गुजरात में सिमटी थी, जहां के वह बादशाह हैं। लेकिन अब सियासत की लकीर पूरे देश में खींचनी है तो वंजारा के पत्र में मोदी विरोधी दिल्ली में बीजेपी की उस चौकड़ी को ऑक्सीजन दे दिया है जो मोदी की राजनीति तले अपनी राजनीति के खत्म होने का संकट देख रही है।

तो वंजारा के पत्र पर मोदी 9 सितबंर तक तो खामोश रहेंगे, यह भी सच है। 

Sunday, September 1, 2013

अन्ना का सत्याग्रह क्यों भारी है सिल्वर स्क्रीन के ' सत्याग्रह' पर

अगर फिल्म 'सत्याग्रह' का अंतिम डायलॉग, अब बाहर से नहीं अंदर जाकर हम सिस्टम को सुधारेंगे,  ना होता तो यह फिल्म अरविन्द केजरीवाल को अच्छी नहीं लगती और अन्ना हजारे को तो वैसे भी फिल्मी सत्याग्रह ने बेबस और उम्रदराज ठहराकर हिंसक शिकार कर लिया। तो अन्ना फिल्म देखना भी पंसद नहीं करेंगे । लेकिन फिल्म के आखिरी डायलॉग ने अरविन्द केजरीवाल केचुनावी सत्याग्रह की अलख को यह कहकर जलाए रखा है कि युवाओं को अपने भीतर का गुस्सा मरने नहीं देना है। हिंसा के रास्ते निकल कर आक्रोश को बदले की भावना में जाया नहीं करना है बल्कि विधानसभा के भीतर पहुंच कर नया रास्ता बनाना है। चुनावी राजनीति में कूदे केजरीवाल ने भी यह रास्ता यही कहकर पकड़ा है। तो फिल्मी सत्याग्रह का आखिरी संदेश केजरीवाल के लिये ऑक्सीजन बनकर आया है।


क्योकि 2011 के सत्याग्रह के बाद अन्ना हजारे चुनावी राजनीति के रास्ते निकलने से इंकार कर गये तो केजरीवाल ने अलग रास्ता चुना। और आज भी जब जब सत्याग्रह आंदोलन से निकले केजरीवाल के चुनावी रास्ते का सवाल उभरता है तो हर किसी को चाहे अनचाहे अन्ना के आंदोलन का रास्ता भी नजर आता है और ना चाहते हुये भी कठघरे में अरविन्द केजरीवाल खड़े नजर आते ही हैं। क्योंकि 2011 का सत्याग्रह और उस दौर में उपजे जन-आक्रोश का दायरा केजरीवाल के चुनावी रास्ते और अन्ना के अब के आंदोलन करने के तौर तरीको से कहीं बड़ा था। तो क्या जिस रास्ते अन्ना देश-विदेश भ्रमण में निकले हैं, और जिस तरह केजरीवाल दिल्ली की राजनीति में जा सिमटे है वह उस सपने की मौत है जिसे दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर शहर दर शहर बने रामलीला मैदान में दिखायी दिया। या फिर आंदोलन के जरीए परिवर्तन इस देश की रगों में नहीं दौड़ता, यह दिखाने-बताने का एहसास है केजरीवाल की पहल।

फिल्म सत्याग्रह देखते वक्त केजरीवाल का ही एहसास बार बार कुलाचे मारते हुये दिखता है। संघर्षरत किसान-मजदूर पर भारी सोशल मीडिया की भूमिका। शहरी युवाओं के अराजक गुस्से को बदलाव का बयार बताना। पांरपरिक आदर्श के तौर पर स्कूल के प्रधानाचार्य को परिवर्तन का सबसे तेज हथियार बताना। और भ्रष्ट राजनेता को खलनायक करार देना। इसीलिये सत्याग्रह। व्यवस्था को दीमक की तरह चाट गये भ्रष्टाचार और देखते देखते लोकतंत्र की सबसे मजबूत संस्था चुनावी राजनीति की जमीन के ही पोपली होने की वजहों से दूर भागती फिल्म उसी वक्त सबसे कमजोर लगती है जब अन्ना के सत्याग्रह के दौर में सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य को फिल्मी सत्याग्रह में दोहराया जाता है। याद कीजिये जिस भरोसे के साथ अन्ना हजारे ने सत्याग्रह के दौरान चुनी हुई सरकार और संसद को जनता की नौकर कहा था तो हजारों हजार की तादाद में मौजूद ना सिर्फ लोगो की आंखों में भरोसा जागा था बल्कि देश में जहां जहां अन्ना के आंदोलन पर प्रतिक्रिया आई वहां वहां सरकार को देश के नागरिको का नौकर कहने से कोई नहीं कतराया। लेकिन प्रकाश झा के सत्याग्रह में जब अमिताभ बच्चन सरकार को जनता का सेवक बताते है तो डायलॉग बोलते वक्त बच्चन साहब बेहद कमजोर लगते हैं। जबकि सामान्य स्थितियों में देखे तो बॉलीवुड में एक अमिताभ बच्चन और दूसरे नसीरुद्दीन और तीसरे ओमपुरी ही है जो राजनीतिक डायलॉग बोलें तो देखने वाले को भरोसा जागता है। लेकिन फिल्म सत्याग्रह में जब अमिताभ सरकार को जनता का सेवक बनाते हैं तो बोलते वक्त अमिताभ की आंखें और हाव भाव ही यह भरोसा देखने वाले को तो दूर खुद अमिताभ में नहीं जागता कि वह जो कह रहे है उस वक्त उन्हें अपने डायलॉग पर भरोसा है।

कुछ यही परिस्थितियां फिल्म में अजय देवगन के देखते वक्त केजरीवाल को उभारती हैं। लेकिन यहां भी फिल्म के डायलॉग ना सिर्फ कमजोर पड़ते दिखायी देते है बल्कि डायलॉग बोलने का अंदाज शारीरिक श्रम करता सा दिखायी देता है। मसलन फिल्म सत्याग्रह में जब सरकार से बातचीत फेल होती है और अनशन पर बैठे अमिताभ की कोई फिक्र सरकार नहीं दिखाती तो मंच पर आकर अजय देवगन जिस सपाट तरीके से सरकार की बेफ्रिकी की जानकारी देते हैं और जनता खामोश रहती है उसे देखकर अन्ना के सत्याग्रह का वह क्षण याद आ गया। जब प्रणव मुखर्जी से बातचीत फेल होती है और केजरीवाल रामलीला मैदान पहुंचकर जानकारी देते हैं कि कैसे प्रणव मुखर्जी ने कहा कि अन्ना के जान की फिक्र उन्हें नहीं है। और चर्चा करने के बाद मंच पर पहुंचकर जब केजरीवाल इसका एलान करते हैं कि प्रणव मुखर्जी ने कहा कि अन्ना की जान जाती है तो जाये उन्हें कोई फिक्र नहीं तो रामलीला मैदान से लेकर देश भर में एसी तीखी प्रतिक्रिया होती है कि उसी दिन पांच घंटे बाद रात के साढे ग्यारह बजे उसी प्रणव मुखर्जी को मीडिया के सामने आकर सफाई देनी पडती है कि उन्हें अन्ना की जान की फिक्र है ।

दरअसल प्रकाश झा की समझ पहली बार यहीं चूकी कि अन्ना के आंदोलन को वह सिल्वर स्क्रीन के लारजर दैन लाइफ से छोटा मान बैठे। अन्ना के आंदोलन का ना तो कैनवास ही प्रकाश झा समझ पाये और ना ही अन्ना के आंदोलन की तीव्रता। असर इसी का हुआ कि डायलॉग पर मेहनत नहीं हुई। संघर्ष और सपने का कोई ताना बाना नहीं बुना गया। फिल्मी सत्याग्रह एक ईमानदार इंजीनियर की हत्या में ही सिमट गयी और सत्याग्रह की जटिलता से फिल्म पूरी तरह ना सिर्फ अनभिज्ञ रही। बल्कि जिन्होंने अन्ना के आंदोलन में किसी भी तरह की शिरकत की [जो लड़के रामलीला मैदान पहुंचे या जिन युवाओ ने तिरंगा लहराया। या जिन छात्रों ने वंदे मातरम का नारा लगाया। या फिर जो अपने आक्रोश को बताने रामलीला मैदार आ पहुंचे। ]  वह चेहरे तो याद नहीं लेकिन पहले दिन का पहले शो को देखते वक्त जो प्रतिक्रिया सिनेमा के अंधेरे में अलख जगा रही थी वह वही गुस्सा, वही आक्रोश था जो दिल्ली के जंतर मंतर या रामलीला मैदान में नजर आया वह घुप्प अंधेरे में गूंजा। फिल्म के शुरुआत में जैसे ही अमिताभ बच्चन भोजन के टेबल पर आदर्शवाद का पाठ अजय देवगन को पढ़ाते हैं, वैसे ही अंधेरे में आवाज गूजती है....बुढउ और ना पाठ पढ़ाओ....खुद पैसा बनाओ और डायलॉग ईमानदारी के। हो सकता है अमिताभ बच्चन के लिये सत्याग्रह में आदर्श शिक्षक की भूमिका सिर्फ एक चरित्र हो लेकिन अन्ना के आंदोलन ने लोगो के अंदर के सपनों को जिस तरह जगाया और जिस तरह आंदोलन बिखरा और हर सपने की हथेली खाली रही उसका आक्रोश बार बार फिल्म देखने के दौरान स्कूल कॉलेज से भाग कर थियेटर पहुंचे लड़कों की तीखी जुबान से समझ कर आया कि सड़क के सत्याग्रह पर सिल्वर स्क्रीन का सत्याग्रह ना तो भारी पड़ सकता है और ना ही कोई यह मुगालता पाल सकता है कि उसने अपना कर्म पूरा किया। क्योंकि सत्याग्रह अविरल संघर्ष की ऐसी जमीन बनाती है, जिस पर करोड़ों का धंधा कर ना तो प्रकाश झा वाहवाही पा सकते हैं ना ही अमिताभ सरीखा कलाकार सिर्फ भूमिका निभा कर कह सकता है कि उसका काम खत्म और ना ही दर्शक सिनेमा घर से खाली मन घर लौट सकता है कि उसने एक औसत या अच्छी या बुरी फिल्म देखी। लेकिन संयोग देखिये जिस मुनाफा बनाने वाली राजनीतिक सियासत के खिलाफ अन्ना आंदोलन खड़ा हुआ। उसी से मुनाफा बनाने के लिये प्रकाश झा ने सिनेमायी ताना-बाना बुना और उसी ताने बाने को अपने हक में मुनाफे के तौर पर देखने के लिये केजरीवाल भी दिल्ली के सिनेमाघरो के बाहर पर्चे बांटने लगे कि "सत्याग्रह" के बाद सिस्टम में शामिल होकर ही सिस्टम को बदलना है तो आप अपना वोट आम आदमी पार्टी को दें। यानी सिल्वर स्क्रीन के सत्याग्रह के आखिरी डायलॉग से उम्मीद पाते केजरीवाल इस सच को समझ नहीं पाये कि प्रकाश झा दो बार लोकसभा चुनाव [2004 और 2009] लड़कर हार चुके हैं और उसके बाद उन्होंने फिल्म सत्याग्रह बनायी है। और केजरीवाल तो सड़क पर सत्याग्रह करने के बाद राजनीतिक चुनाव लड़ने जा रहे हैं। उन्हें तो फिल्म को रिलीज ही नही होने देना चाहिये था क्योंकि यह आज के उन युवाओ के सपनों के साथ की जा रही मुनाफाखोरी है, जिसके खिलाफ अन्ना आंदोलन शुरु हुआ था।