नरेन्द्र मोदी यूं ही क्योटो के प्रसिद्द तोजी बौद्ध मंदिर में नहीं गये । और उसके बाद किंकाकुजी बौद्दध मंदिर यूं ही नहीं पहुंचे। और इसी बरस नवबंर में होने वाले सार्क सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी नेपाल जायेंगे
तो यूं ही काठमांडू के बौद्धनाथ या स्वंयम्भूनाथ स्तूप के दर्शन करने नहीं जायेंगे या फिर अमिताभा मोनेस्ट्री के दर्शन करने की इत्छा यूं ही नहीं जतायेंगे। यानी नवंबर में सार्क सम्मेलन के दौराम प्रधानमंत्री मोदी
पशुपति नाथ मंदिर नहीं बल्कि बौद्ध मंदिर जायेंग। और सबसे पहले भूटान यात्रा करने भी प्रधानमंत्री मोदी यूं ही नहीं गये। ध्यान दें तो बौद्ध घर्म का जहां जहां प्रचार प्रसार हुआ और जहां जहां की सरकार बौद्ध धर्म से
प्रभावित रही हैं, प्रधानमंत्री मोदी सभी के साथ एक नया रिश्ता बना रहे है और सेतू का काम बौद्ध धर्म कर रहे हैं। तो यह सवाल नागपुर में आंबेडकरवादियो से लेकर यूपी के मायावती के दलित वोट में भी उठने लगा है
कि प्रधानमंत्री मोदी के बौद्ध प्रेम के पीछे की कहानी बौद्ध धर्म प्रभावित देशों के साथ भारत के रिश्तो को नया आयाम देना है या फिर संघ परिवार के विस्तार के लिये गुरु गोलवरकर के दौर की वह सीख है। जिसे
राजनीति के आइने में प्रधानमंत्री मोदी उतारना चाह रहे हैं। संघ के पन्नों को पलटे तो १९७२ में सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने ठाणे में पांडुरंग शास्त्री आठवले के निवास पर हुये दस दिन के हुये चिंतन बैठक में इस बात
पर जोर दिया था कि जात-पात, संप्रदाय, भाषा सेउपर उठकर संघ परिवार के विस्तार के लिये सभी को साथ लेना जरुरी है। असर इसी का हुआ कि केरल के दलित चिंतक श्री रंगाहरि आरएसेस के बौद्दिक प्रमुख के पद पर हाल के दिनों तक रहे। और इसी कड़ी में विश्व हिन्दुपरिषद के बालकृष्ण नाईक लंबे समय से दुनियाभर के बौद्ध धर्म को मानने वाले देशो के साथ संपर्क बनाये हुये हैं । और संघ परिवार का भूटान, नेपाल, श्रीलंका ,जापान समेत दर्जनभर देशों के बौद्ध धर्मावलंबी के साथ संबंध बना हुआ है।
लेकिन आजादी के बाद पहली बार संघ परिवार यह महसूस कर रहा है अपने बूते उसकी सरकार बनी है तो संघ की हर उस पहचान को राष्ट्रीयता के साथ जोड़ने का खुला प्रयास भी हो रहा है जिसकी कल्पना इससे पहले की जरुर गयी लेकिन उसे लागू कैसे किया जाये यह सवाल अनसुलझा ही रहा। और चूंकि आरएसएस का प्रचारक रहते हुये नरेन्द्र मोदी ने भी गोलवरकर का पाठ हर प्रचारक की तर्ज पर पढ़ा ही होगा कि विस्तार के लिये जात-पात, वर्ण भाषा संप्रदाय को आडे नहीं आने देना चाहिये। और अब जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री तो सियासत साधने के लिये भी गोलवरकर के मंत्र को राजनीतिक जमीन पर उतारने से चूकेंगे नहीं। यानी महाराष्ट्र में रिपब्लिक पार्टी के नाम पर सियासत करने वाले अंबेडकरवादी हो या अंबेडकर का नाम लेकर दलित राजनीति करने वाली मायवती। खतरे की घंटी दोनों के लिये है। पहली नजर में लग सकता है कि मायावती की समूची सियासत ही आज शून्य पर आ खडी हुई है तो वह प्रधानमंत्री मोदी को निशाने पर लेने के लिये जन-धन योजना पर वार करने से चूक नहीं रही है। लेकिन नरेन्द्र मोदी जिस सियासत को साधने के लिये कई कदम आगे बढ़ चुके है, उसके सामने अब मायावती या मुलायम के वार कोई मायने रखेंगे नहीं। क्योंकि राष्ट्रीयता की बिसात पर संघ की उसी सोच को व्यवस्था बनाया जा रहा है जिस दिशा में किसी दूसरे राजनीतिक दल ने काम किया नहीं और आरएसएस अपने जन्म के साथ ही इस काम में लग गया।
वनवासी कल्याण आश्रम जिन क्षेत्रों में सक्रिय है और उस समाज के पिछडी जातियों के जितना करीब होकर काम कर रहा है क्या किसी राजनीतिक दल ने कभी उस समाज में काम किया है। पुराने स्वयंसेवकों से
मिलिये तो वह आज भी कहते मिलेगें कि जेपी के कंघे से राजनीतिक प्रयोग करने वाले बालासाहेब देवरस इंदिरा गांधी के बाद मोरारजी देसाई को नहीं जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनवाना चाहते थे । सिर्फ दलित ही नहीं बल्कि जिस हिन्दु शब्द को लेकर सियासी बवाल देश में लगातार बढ़ रहा है उसकी नींव भी कोई आज की नहीं है। जिस नरेन्द्र मोदी को हिन्दूत्व शब्द के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है और अटल बिहारी वाजपेयी का हवाला देकर संघ के प्रचारक का माडरेट चेहरे का जिक्र किया जा रही है क्या १९७४ में लोकसभा में वाजपेयी की दिया भाषण, 'अब हिन्दू मार नहीं खायेगा ' किसी को याद नहीं है। संघ परिवार ने तो वाजपेयी के इस भाषण की करोड़ों कॉपियां छपवाकर देश भर में बंटवायी थीं। यह अलग सवाल है कि १९७७ में विदेश मंत्री बनने के बाद वाजपेयी ने कभी हिन्दु शब्द का जिक्र सियासी तौर पर नहीं किया। लेकिन संघ के भीतकर का सच यह भी है कि देवरस हो या उससे पहले गोलवरकर या फिर देवरस के बाद में रज्जू भैया। सभी ने वाजपेयी को नेहरु की तर्ज पर देश में सर्वसम्मति वाले भाव को पैदा करने को कहा भी और रास्ता भी बताया। क्योंकि हिन्दु शब्द तो संघ के जन्म के साथ ही जुड़ा। हेडगेवार ने खुले तौर पर हिन्दू होने की वकालत की। तो गोलवरकर ने तो हेडगेवार के दौर से संघ के प्रतिष्ठित स्वयसेवक एकनाथ रानाडे को १९७१-७२ में तब प्रतिनिधि सभा से अलग कर दिया जब उन्होने विवेकानंद शिला स्मारक पर काम करते वक्त विवेकानंद को इंदिरा गांधी के कहने पर हिन्दू संस्कृति की जगह भारतीय संस्कृति का प्रतीक बताया।
उस वक्त गोलवरकर यह कहने से नहीं चूके कि राजनीतिक वजहों से अगर हिन्दू शब्द को दरकिनार करना पड़े तो फिर संघ का आस्तित्व ही संकट में है। और इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता । और गुरु गोलवरकर के जीवित रहते हुये कभी रानाडे प्रतिनिधी सभा का हिस्सा ना बन पाये। लेकिन देवरस ने अपने दौर में राजनीतिक वजहों से ही हिन्दू शब्द पर समझौता किया। जनता पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर जब चन्द्रशेखर और मधुलिमये ने देवरस को समझाया कि हिन्दू शब्द पर खामोशी बरतनी चाहिये क्योंकि यह राजनीति जरुरत है तो उस वक्त आरएसएस में बकायदा निर्देश जारी हुआ कि कौई हिन्दू शब्द ना बोलें। दरअसल मौजूदा वक्त में दलित सियासत के उफान पर आने के संकेत हो या हिन्दू शब्द के राजनीतिकरण के तो समझना यह होगा कि मौजूदा सरसंघचालक भी देवरस की ही लकीर के है जो खुद हेडगेवार की लकीर पर चले। और तीनों के दौर में ही राजनीतिक प्रयोग हुये और खुले संकेत उभरे कि राजनीतिक प्रयोग आरएसएस कर सकता है और आरएसएस की राजनीतिक सक्रियता उस अंडर-करेंट को उभार सकती है जो राजनीतिक दलों की
सक्रियता से सतह पर नहीं आ पाती। इसलिये तमाम राजनीति दल जो भी सोचे संघ परिवार के भीतर केन्द्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्ला और गोवा के डिप्टी सीएम फ्रांसिस डिसूजा के बयान को अंडर करेंट के सतह पर आने के नजरिये से ही देखा जा रहा है। संघ परिवार के भीतर हर तबके को साथ जोड़ने की कुलबुलाहट कैसे तेज हुई और कैसे समझौते भी किये गये यह बुद्ध को लेकर संघ की अपनी समझ के बदलने से भी समझा जा सकता है। एक वक्त आरएसएस ने बुद्ध को विष्णु का अवतार कहा। लेकिन आपत्ति होने पर बुद्ध घर्म को अलग से मान्यता भी दी । लेकिन जैसे ही हिन्दू शब्द पर सियासत के लिये मुश्किल हुआ वैसे ही राष्ट्रीयत्व की लकीर आरएसएस ने खींचनी शुरु की। असर इसी का है कि संघ के हर संघठन के साथ राष्ट्रीय शब्द जुड़ा। खुद हेडगेवार ने भी हिन्दु स्वयंसेवक संघ नहीं बनाया बल्कि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ नाम दिया। और हिन्दु शब्द को सावरकर के हिन्दु महासभा से जोडकर यह बहस करायी कि सावरकर के हिन्दु शब्द में मुस्लिम या ईसाई के लिये जगह नहीं है। लेकिन आरएसएस के हिन्दु शब्द में राष्ट्रीयता का भाव है और इसमें हर घर्म-संप्रदाय के लिये जगह है। लेकिन पहली बार गुरु गोलवरकर १९६३ में जब नेपाल गये और लौटकर उन्होंने चीन का नेपाल में बढते प्रभाव पर नेहरु और लालबहादुर शास्त्री को यह कहकर रिपोर्ट भेजी भारत को अपना अंतराष्ट्रीय प्रभाव विकसित करना चाहिये । नेहरु ने कुछ किया या नहीं लेकिन उसके बाद पहली बार गुरु गोलवरकर ने ही हिन्दू शब्द को खुले तौर पर आत्मसात करते हुये विश्व हिन्दू परिषद का निर्माण किया। और मौजूदा वक्त में इसी विहिप से जुडे प्रचारक बालकृष्ण नाईक अमेरिका छोडकर दिल्ली-नागपुर की गलियां नापने लगे और बौद्ध धर्म को सेतू बनाकर संघ के साथ वास्ता बनाने में जुटे हैं। और मोदी ने क्वेटो के जरीये इस रास्ते को फिलहाल बनारस के नाम पर पकड़ा है लेकिन यह रास्ता सियासी तौर पर कैसे दलित राजनीति करने वालो का डिब्बा
गोल करेगा और बीजेपी को कितना विस्तार देगा इसका इंतजार करना होगा।
Sunday, August 31, 2014
Tuesday, August 26, 2014
नेहरु मॉडल से आगे मोदी मॉडल
5 लाख 21 हजार करोड़ के बजट वाले योजना आयोग ने 2013-14 में किया क्या यह अपने आप में सबसे बड़ा सवाल है। जबकि योजना आयोग की ताकत इससे भी समझी जा सकती है कि इस दफ्तर में योजना सचिव के अलावा 45 एडिशनल सचिव, 29 डायरेक्टर, 23 वरिष्ट सलाहकार, 18 डिप्टी सचिव और डेढ़ हजार कर्मचारी काम करते हैं। बावजूद इसके बीते दस बरस में कोई उपलब्धि भरा काम योजना आयोग के दफ्तर से नहीं निकला। और ध्यान दें तो सालाना 5 लाख करोड़ के बजट पर बैठे प्लानिग कमीशन को लेकर जनता के बीच अर्से बाद गुस्सा तब फूटा जब पता चला की योजना आयोग ने एक टॉयलेट पर 35 लाख रुपये खर्च कर दिये। और महज 35 रुपये की कमाई वाले लोगो को भी गरीब नहीं माना । असल में योजना आयोग की दुर्गती मनमोहन सिंह के दौर में बद से बदतर हुई । पीडीएस से लेकर मनरेगा और इन्फ्रास्ट्रकचर को टालने से लेकर राज्यों के मांग पर खुली मनमानी बीते दस बरस में देखी गयी। कही कोई सुधार हुआ नहीं और योजना आयोग की मनमानी का आलम यह रहा कि मोंटेक सिंह ने अपने सलाहकारों को ही खुला खेल करने की आजादी दे दी। मसलन इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में मोटेंक सिंह के सलाहकार गजेन्द्र हल्दिया ने इन्फ्रास्ट्रक्चर की कोई भी योजना पास होने ही नहीं थी। खुद गजेन्द्र हल्दिया योजना आयोग में अधिकारी रहे फिर मोटेंक के सलाहकार हो गये । लेकिन किसी भी काम को कभी अंजाम नहीं दिया जा सका।
हालांकि मनमोहन सिंह के दौर में भी कई कैबिनेट मंत्रियों ने प्लानिंग कमीशन में बदलाव करने की आवाज उठायी लेकिन चिदंबरम, मोटेंक और मनमोहन की तिकडी ने अर्थव्स्था का ऐसा खाका देश के लिये बवनवाया कि आर्थिक तौर पर देश का बंटाधार ही हुआ। शायद इसीलिये यह सवाल खड़ा हो गया है कि 1950 में प्लानिंग कमीशन को लेकर जो नेहरु ने सोचा 2014 में उसे पलटने का फैसला नरेन्द्र मोदी ले रहे है या फिर प्लानिंग कमीशन के जरिये नये सिरे से देश की आंतरिक व्यवस्था को मथने की तैयारी मोदी कर रहे हैं। होगा क्या और आने वाले वक्त में योजना आयोग किस नाम से क्या काम करेगा इसका इंतजार तो करना ही होगा। लेकिन जो सवाल प्रधनमंत्री के जहन में है और आज जिस तरह यशवन्त सिन्हा की अगुवाई में 18 विशेषज्ञ बैठे उसने इसके संकेत तो दे ही दिये कि मौजूदा सरकार को नेहरु मॉडल मंजूर नहीं है।
क्योंकि इतिहास के पन्नों को पलटे को योजना आयोग को लेकर नेहरु की यह सोच सामने आती ही है कि प्रधानमंत्री नेहरु कई बार वित्त मंत्रालय से कई मुद्दों पर टकराये । और जब जब इनके सामने मुश्किल आयी तब तब योजना आयोग के जरिये नेहरु ने काम किया। नेहरु के दौर में चार वित्त मंत्री नेहरु से टकराये और उन्होने इस्तीफा भी दिया। वित्त मंत्री षणमुगम शेट्टी ने 15 अगस्त 1948 को पद छोड़ा। तो वित्त मंत्री जान मथई ने नियोजन मंडल के अधिकार और कार्यप्रणाली के सवाल पर 1950 में पद छोड़ा। वहीं वित्त मंत्री सीडी देशमुख ने 1956 में इस्तीफा दिया। हालांकि तब सवाल महाराष्ट्र राज्य के गठन और आंदोलन बड़ी वजह थी। वहीं वित्त मंत्री वीटी कृष्मामाचारी ने 1958 में इस्तीपा दिया। वैसे वित्त मंत्रियों का प्रधानमंत्री से टकराने का सिलसिला इंदिरा और राजीव गांधी के दौर में भी रहा। याद कीजिये तो मोरारजी देसाई ने 1969 में इंदिरा की आर्थिक नीतियों को लेकर विरोध किया और फिर इस्तीफा दे दिया । वही राजीव गांधी के दौर में वीपी सिंह प्रधनामंत्री से टकराये। और एक सच यह भी है कि मुशकिल दौर में नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुये वित्त मंत्रालय संभाला। और ध्यान दें तो प्लानिंग कमीशन के जरीये हर प्रधानमंत्री ने नेहरु के इस मॉडल को ही अपनाया जहां वित्त मंत्रालय से इतर देश में नयी योजना लागू की जा सके। 1951 को लेकर पहली योजना कृषि को विकसित करने पर टिकी थी। और 12 वीं योजना राज्यों को राजनीतिक बजट मुहैया कराने पर ही टिकी रही। लेकिन मोदी मॉडल योजना आयोग के उस नये चेहरे को विकसित करना चाहता है, जहां भविष्य की योजना बने । यानी 2020 का भारत कैसा हो या फिर आरएसएस के सौ बरस पुरे होने पर 2025 का माडल हो क्या इसकी कल्पना के साथ उसे जमीन पर उतारने की दिशा में आयोग काम शुरु कर दें । शाय़द इसीलिये योजना आयोग के नये नामो में भारत भविष्य वेद से लेकर इंडिया फ्यूचररामा तक का नाम लिया जा रहा है।
हालांकि मनमोहन सिंह के दौर में भी कई कैबिनेट मंत्रियों ने प्लानिंग कमीशन में बदलाव करने की आवाज उठायी लेकिन चिदंबरम, मोटेंक और मनमोहन की तिकडी ने अर्थव्स्था का ऐसा खाका देश के लिये बवनवाया कि आर्थिक तौर पर देश का बंटाधार ही हुआ। शायद इसीलिये यह सवाल खड़ा हो गया है कि 1950 में प्लानिंग कमीशन को लेकर जो नेहरु ने सोचा 2014 में उसे पलटने का फैसला नरेन्द्र मोदी ले रहे है या फिर प्लानिंग कमीशन के जरिये नये सिरे से देश की आंतरिक व्यवस्था को मथने की तैयारी मोदी कर रहे हैं। होगा क्या और आने वाले वक्त में योजना आयोग किस नाम से क्या काम करेगा इसका इंतजार तो करना ही होगा। लेकिन जो सवाल प्रधनमंत्री के जहन में है और आज जिस तरह यशवन्त सिन्हा की अगुवाई में 18 विशेषज्ञ बैठे उसने इसके संकेत तो दे ही दिये कि मौजूदा सरकार को नेहरु मॉडल मंजूर नहीं है।
क्योंकि इतिहास के पन्नों को पलटे को योजना आयोग को लेकर नेहरु की यह सोच सामने आती ही है कि प्रधानमंत्री नेहरु कई बार वित्त मंत्रालय से कई मुद्दों पर टकराये । और जब जब इनके सामने मुश्किल आयी तब तब योजना आयोग के जरिये नेहरु ने काम किया। नेहरु के दौर में चार वित्त मंत्री नेहरु से टकराये और उन्होने इस्तीफा भी दिया। वित्त मंत्री षणमुगम शेट्टी ने 15 अगस्त 1948 को पद छोड़ा। तो वित्त मंत्री जान मथई ने नियोजन मंडल के अधिकार और कार्यप्रणाली के सवाल पर 1950 में पद छोड़ा। वहीं वित्त मंत्री सीडी देशमुख ने 1956 में इस्तीफा दिया। हालांकि तब सवाल महाराष्ट्र राज्य के गठन और आंदोलन बड़ी वजह थी। वहीं वित्त मंत्री वीटी कृष्मामाचारी ने 1958 में इस्तीपा दिया। वैसे वित्त मंत्रियों का प्रधानमंत्री से टकराने का सिलसिला इंदिरा और राजीव गांधी के दौर में भी रहा। याद कीजिये तो मोरारजी देसाई ने 1969 में इंदिरा की आर्थिक नीतियों को लेकर विरोध किया और फिर इस्तीफा दे दिया । वही राजीव गांधी के दौर में वीपी सिंह प्रधनामंत्री से टकराये। और एक सच यह भी है कि मुशकिल दौर में नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुये वित्त मंत्रालय संभाला। और ध्यान दें तो प्लानिंग कमीशन के जरीये हर प्रधानमंत्री ने नेहरु के इस मॉडल को ही अपनाया जहां वित्त मंत्रालय से इतर देश में नयी योजना लागू की जा सके। 1951 को लेकर पहली योजना कृषि को विकसित करने पर टिकी थी। और 12 वीं योजना राज्यों को राजनीतिक बजट मुहैया कराने पर ही टिकी रही। लेकिन मोदी मॉडल योजना आयोग के उस नये चेहरे को विकसित करना चाहता है, जहां भविष्य की योजना बने । यानी 2020 का भारत कैसा हो या फिर आरएसएस के सौ बरस पुरे होने पर 2025 का माडल हो क्या इसकी कल्पना के साथ उसे जमीन पर उतारने की दिशा में आयोग काम शुरु कर दें । शाय़द इसीलिये योजना आयोग के नये नामो में भारत भविष्य वेद से लेकर इंडिया फ्यूचररामा तक का नाम लिया जा रहा है।
Monday, August 25, 2014
मोदी राज में 25 बरस पीछे लौट गयी बिहार की सियासी बिसात
1989 के भागलपुर दंगों की हर तस्वीरे बीते 25 बरस में कांग्रेस के दौर में दंगों की पहचान भी रही है और बिहार में क्षत्रपों के सियासी सफर की बिसात भी रही है। क्योंकि कांग्रेस के दौर में हुये भागलपुर दंगों के बाद
से कांग्रेस कभी भागलपुर सीट जीत तो नहीं ही पायी। बल्कि भागलपुर दंगों ने कांग्रेस के लिये हालात तो इतने बूरे किये कि आजादी के बाद से जिस बिहार की सत्ता पर कांग्रेस हमेशा काबिज रही वहीं कांग्रेस 1989 के बाद से बिहार में चौथे नंबर की पार्टी बन गयी। लेकिन 25 बरस बाद भागलपुर की विधानसभा सीट पर कांग्रेस की जीत ने बिहार में एक ऐसी राजनीतिक बिसात के संकेत दे दिये है जहां दिल्ली की सत्ता पाने के बावजूद नरेन्द्र मोदी बिहार के सियासी कटघरे में आ खड़े हुये हैं। यह कटघरा मुस्लिम एकजूटता का भी है औरमंडल से निकली जातीय राजनीति के ध्रुवीकरण का भी है। मुस्लिमों में गरीबऔर पिछड़ी जातियां पसमांदा के नाम पर नीतीश-लालू खेमे के नाम पर बंटी।
यादव की दबंगई को टक्कर देने के लिये कुर्मी-कोयरी सियासी मलाई खाने के लिये एक हुये। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम ने सत्ता के लिये सियासी धाराओं में बंटे क्षत्रप नीतीश-लालू को जैसे ही एक साथ किया वैसे ही तीन खेमो में बंटे हुये वोटर भी दो खेमों में ही उभरे। और पहली बार मोदी की राजनीतिक जीत के संकेत ने बिहार में दोबारा उस समाजवादी धारा कोबहाने की जरुरत जता दी जिसका बंटाधार समाजवादी-जेपी आंदोलन से निकले राजनेताओ ने सत्ता की ही खातिर की थी। तो पहला सवाल है कि लालू-नीतीश गठबंधन महज जीत का गणित है या फिर सांप्रदायिक उभार के खौफ का ध्रुवीकरण और दूसरा सवाल है बीजेपी का पिछड़ना सामाजिक धारा को खारिज करना है या फिर मोदी मॉडल सरीखा कोई सपना ना जगा पाना। ध्यान दें तो दोनों हालात बिहार के लिये घातक ही हैं। क्योंकि चुनावी जीत हार के दायरे में बिहार काभविष्य सत्ता अपने अनुकुल देख रही है जबकि मौजूदा बिहार के पिछडने को उबारने के लिये किसी राजनीतिक दल के पास कोई सपना नहीं है। सिर्फ लालूनीतीश ही नहीं बल्कि बिहार में बीजेपी की अगुवाई करने वाले सुशील मोदी और नंदकिशोर यादव भी जेपी आंदोलन की ही उपज रहे हैं। यानी जिस बिहार में आज
की तारीख में साठ फीसदी वोटर जेपी आंदोलन के बाद जन्म लिया है वहां की राजनीतिक डोर आज भी चार दशक पहले की राजनीति थामे हुये हैं। जबकि इस दौर में बिहार का गिरमिटिया मजदूर हो या पढा-लिखा तबका, दोनों का पलायन बिहार से हुआ है। कारपोरेट से लेकर सरकारी संस्थानो और शहर दर शहर निर्माण मजदूर से लेकर रोजगार के लिये घक्के खाते तबके में हर पांच में से एक बिहार का ही कर्नाटक से कश्मीर तक में मिल जायेगा। दिल्ली और मुंबई में तो रोजगार के रेले में हर तीन बेरोजगार में से एक बिहारी मिल जायेगा। तो फिर क्या यह माना जाये कि बिहार में राजनीति करने का जो लाट बचा हुआ है वह भी सियासी तौर पर चूका हुआ है। इसलिये फेल सिस्टम ही फेल राजनेताओं के लिये चुनावी सत्ता का मुद्दा बन चुका है। जहां पहली बार कारपोरेट की पूंजी और चकाचौंध चुनावी प्रचार के जरीये नरेन्द्र मोदी ने समूची हिन्दी पट्टी में सेंध लगायी और चाहे-अनचाहे बिहार के वोटरों में वह सपने जागे जो मंडल-कमंडल की राजनीति से आगे दिखायी देने लगा। इसलिये बिहार के उपचुनाव में मोदी की चकाचौंध के सपने और लालू-नीतीश की पारंपरिक राजनीति में बंटे वोटरों का गणित ही आमने सामने नजर आया।
पहली नजर में गणितीय गठबंधन जीता इससे इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन वैकल्पिक राजनीति की तलाश बंजर होती राजनीति के सामने एक बाऱ फिर शून्य राजनीतिक माहौल ही आपस में टकरा रहा है। ऐसे में सवाल सिर्फ इतना है कि जिस लोकसभा चुनाव में महंगाई, रोजगार से लेकर न्यूनतम की जरुरतों का संघर्ष करने का सपना नरेन्द्र मोदी ने दिखाया और मोदी को सांप्रदायिकता के कठघरे में खडा कर जो खौफ लालू-नीतिश-कांग्रेस गठजोड ने दिखाया उसमें चार [ बीजेपी], छह [ गठजोड] का आंकडा एक बार फिर राजनीतिक बिसात पर वोटरों को प्यादा बनाकर सियासत साधने का चुनावी परिणाम है।
Saturday, August 23, 2014
एयर इंडिया के सपनों की उड़ान के पीछे का अनाम अंधेरा
यही वह जहाज है जो पिछले दिनों यूक्रेन विद्रोहियो के मिसाइल अटैक से बच गया था। यही जहाज मतलब। जी जिस बोइंग में अभी आप अमृतसर जा रहे हैं दरअसल दिल्ली बरमिंघम रुट का ही यह बोइंग है। और पिछले महीने मलेशियाई विमान से यह सिर्फ २४ किलोमीटर पीछे था। सिर्फ २४ किलोमीटर। हां आप यह भी कह सकते है सिर्फ २१० सेकेंड पीछे। ओह, चार मिनट से भी कम। जी। तो आप लोगों को जब यह पता चला होगा तब तो जान मुंह को आ गया होगा। आप कुछ भी सोच सकते हैं। उसके बाद से क्रू मेबर को तो लगता होगा कि जिन्दगी की हर उड़ान कहीं आखरी उड़ान ना हो। आप सही कह रहे हैं। लेकिन एयर इंडिया की नौकरी तो यूं भी हर क्षण जान पर भारी पड़ती है। क्यों। कुछ नहीं बस ऐसे ही। आप सफर का मजा लीजिये। कभी बरमिंघम से दिल्ली इस विमान से लौटे हैं । जी, मै कभी गया नहीं हूं। नहीं कभी मौका लगे तो इस बोइंग से जरुर लौटियेगा। क्यों। क्योंकि जब यह बोइंग ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान होते भारत की सीमा में घुसने को आता है तो रात का आखिरी पहर होता है। और लगातार अंधेरे में सफर करते वक्त झटके में जैसे ही रोशनी की कतार नजर आती है वैसे ही हर कोई समझ जाता है कि इंडिया आ गया। इतनी रोशनी दिखायी देती
है। आप सोच नहीं सकते। एक क्षण तो आपको लगेगा कि जमीन पर दीपावली है । और किसी ने कतार में दीये जला दिये हैं। मुबई के नरीमन पाइंट के गोल्डन नेक्लेस से भी खूबसूरत। तब तो आप भी हर सफर के दौरान इंतजार करते होंगे । हां देखते भी है और जो यात्री सो रहे होते हैं, उन्हें पायलट इंडिया की इस खूबसूरती को आसमान से दिखाकर अपने देश पर इठलाते भी हैं। क्योंकि भारत से पहले किसी देश की सीमा पर इतनी रोशनी नहीं चमकती। दिल्ली से अमृतसर के लिये उड़ान भरने के साथ यह दिलचस्प बात एयर होस्टेस ने बतायी। जो ठीक मेरे सामने बैठी हुई थी।
चूंकि बोइंग ७८७ की सीट नं ११ ए इक्नामी क्लास की पहली कतार की पहली सीट थी। और सामने सीनियर एयर होस्टेस की सीट थी। तो झटके में यह बातचीत शुरु हुई। लेकिन जैसे ही मैने यह कहा कि अब देश में सरकार बदली है। कुछ अच्छा और होगा। इंडिया की चमक दुनिया में औरबढ़ेगी। वैसे ही एयर होस्टेस बोल पडी एयर इंडिया को भी चमका दें। तब बात होगी। क्यों सरकार तो एयर इंडिया को अब सुधारने जा रही है। आपके नये मंत्री ने एयर इंडिया के इन्फ्रास्ट्रक्चर की तरफ ध्यान देने की बात कही भी है। जी सुना तो हमने भी है। लेकिन जिस एयर इंडिया के विमान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सफर करते है, उस एयर इंडिया को चलाने वालों का हाल किसे पता है। खासतौर से वैसे कर्मचारी जो पे-रोल पर हैं। दशकों से एयर इंडिया में काम कर रहे हैं। उसमें हर कोई है। पायलट भी। एयर होस्टेस भी। और ग्राउंड स्टाफ भी। अभी अगस्त का महीना चल रहा है और हमे मई का वेतन अगस्त में मिला है। वह भी पैंतीस फीसदी कम। क्यों। अब मुश्किल यही है कि जो कर्मचारी पे-रोल पर है उनके लिये ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि वह नौकरी ही छोड़ दें। अब आप कल्पना कीजिये २००३ में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी । उस वक्त शहनवाज हुसैन नागरिक उड्डयन मंत्री थे । तब एयर इंडिया में करीब डेढ़ हजार भर्त्तिया हुईं। और उसके बाद ग्यारह साल हो चुके है लेकिन किसी को कोई प्रमोशन तो दूर की बात है जो वेतन २००३ में मुझे मिलता था आज यानी अगस्त २०१४ में उससे तीस फिसदी कम वेतन मिलता है। उस वक्त तो पे-स्लीप मिल जाती थी। अब तो पे-स्लिप भी नहीं मिलती। चेक या सीधे बैंक अकाउंट में पैसा डाला दिया जाता है। कोई यह पूछ नहीं सकता कि कम वेतन क्यों है। सीनियर से पूछे तो जबाब मिलता है , एयर इंडिया छोड़ क्यों नहीं देते। क्यों कोई महंगाई भत्ता या वेतन में किसी प्रकार की कोई बढोत्तरी हुई ही नहीं। कुछ भी नहीं। लेकिन सरकार तो कह रही है कि निजी एयरलाइंस से ज्यादा सुविधा एयर इंडिया के कर्मचारियों को दिया जा रहा है। हां, जो कान्ट्रैक्ट पर हैं, उन्हें जरुर अच्छा वेतन मिल
रहा है।
लेकिन कल्पना किजिये मनमोहन सिंह के दौर में प्रफुल्ल पटेल ही हमारे मंत्री थे। लेकिन २००७ के बाद से उन्होंने कभी एयर इंडिया पर सफर नहीं किया। निजी एयलाइन्स के ही वह मंत्री बन गये। खुद सफर भी निजी
विमान में करते और निजी विमानो के लिये हवाई अड्डों से लेकर उडानों में सारी सुविधा देते। असर इसी का है कि आज की तारिख में हर सौ यात्रियों में से सिर्फ पन्द्रह यानी ही एयर इंडिया में सफर करते हैं। प्रफुल्ल पटेल ने हमारी यूनियन खत्म की । छह-छह महींने हमारी सैलरी बंद हुई। मेरे तो पति भी एयर इंडिया में ही है। आप कल्पना किजिये जब एयर इंडिया के पायलटों ने हड़ताल की उस वक्त मेरा बेटा पांच बरस का था । हडताल के वक्त सरकार ने हमारा वेतन देना बंद कर दिया । बेटे के लिये पढाई तो दूर दूध और दवाई की जरुरत पडने पर खरीदने के लाले पड़ गये। हमने तब प्रबंधन से कहा भी कि हमें इस वक्त कही और काम करने की इजाजत दे दें। लेकिन प्रबंधन ने कहा इस्तीफा दे कर जाइये । तो आप ही सोचिये काम कही कर नहीं सकते और जहां काम कर रहे हैं, वह वेतन नहीं दे रहा है। तो घर कैसे चलेगा। सवाल सिर्फ मेरा नहीं करीब छह हजार स्टाफ का है जो पे-रोल पर है । उनके परिवार के भीतर कभी किसी सरकार किसी मंत्री ने झांक कर देखने की कोशिश की । लेकिन एयर इंडिया तो कंगाल भी नहीं है। बकायदा हर दिन १८ हजार से ज्यादा उड़ान एयर इंडिया भर रहा है। दुनिया के १९२ देशों में पहुंच चुका है। तो भी वेतन क्यों नहीं मिल रहा और अब भी ३५ फीसदी कम वेतन क्यों । ना , ना पैसे की कमी नहीं है एयर इंडिया के पास । आप कह सकते है लुटने वाले बढ़ गये हैं । क्यों, आपको ऐसा क्यों लगता है। बहुत ही शालिनता से एयर होस्टेस ने एयर इंडिया की तरफ से दिये जाने वाले एयर होस्टेस बैग को कपाट खोल कर निकाला और मुझे देते हुये बोली आप बताइये इसकी क्या कीमत होगी । कोई पांच या छह सौ रुपये । ठीक कह रहे है आप । लेकिन इसकी कीमत एयर इंडिया ने अपने बजट
में लगायी है साढे चार हजार रुपये। और अब हमारी यूनीफार्म फिर बदली जा रही है। पहले साड़ी थी। उसके बाद चटक रंग आया । और अब जो पहने हुये हैं इसे फिर बदला जा रहा है । यूनिफार्म एक बार बदलने का न्यूनतम बजट सिर्फ २० करोड़ का होता है । इसी तरह यात्रियो को पानी पिलाने के लिये एक बड़ा ग्लास लाया गया । करीब बीस लाख का बजट पास हुआ और बाद में पता चला वह ग्लास हवाई जहाज में रखने के लिये तो हवाई जहाज का डाइनिंग कपाट ही बदलना पड़ता । तो ग्लास गोदाम में चले गये ।हो सकता है ऐसे बहुतेरे निर्णय हम लोगों तक नहीं पहुंच पाते हो । क्योंकि हमें तो एयर इंडिया के ड्रीम लाइनर की तरह यात्रियो के सामने सपने सरीखी यात्रा ही करानी है । तभी पायलट की आवाज गूंज पडी । जहाज के दायीं तरफ स्वर्ण मंदिर के दर्शन आप कर सकते है । ओह सारी, बातचीत में अमृतसर आ गया । मै अपनी ही बात कहती रही । फिर रुआसे शब्दो में कहा, हम किसी से कह भी तो नहीं सकते । मै खुद ही सोचने लगा लगा कि जिस ड्रीम एयरलाइनर की उडान से इंडिया की चमक दमक हर उडान के वक्त क्रू हर नये विदेशी यात्री दिखाता होगा उसकी अपनी जिन्दगी में इतना अंधेरा । इतना दर्द । क्या मैं इस मुद्दे को उठाऊं। जहाज से उतरते वक्त
नमस्ते की मुद्दा में खडी एयर होस्टेस से मैंने पूछ ही लिया। कुछ हो जाये तो अच्छा ही है। लेकिन इशारो में कहा कि मेरा नाम कहीं ना आये। यानी जो नाम छाती पर किसी तमगे की तरह एयर इंडिया के बैच के साथ हर किसी यात्री के लिये लगा है वह नाम अपने ही दर्द अपनी ही त्रासदी को कहने से बचना भी चाहता है। इंडिया की रोशनी दिखाने वाले बरमिंघम के इस ड्रीमलाइनर से निकलते वक्त हबीब जालिब याद आ गये जो जियाउल हक के दौर में पाकिस्तान में ही यह कहने से नहीं चूके कि , अंधेरे को यारों जीया कैसे करें…।
है। आप सोच नहीं सकते। एक क्षण तो आपको लगेगा कि जमीन पर दीपावली है । और किसी ने कतार में दीये जला दिये हैं। मुबई के नरीमन पाइंट के गोल्डन नेक्लेस से भी खूबसूरत। तब तो आप भी हर सफर के दौरान इंतजार करते होंगे । हां देखते भी है और जो यात्री सो रहे होते हैं, उन्हें पायलट इंडिया की इस खूबसूरती को आसमान से दिखाकर अपने देश पर इठलाते भी हैं। क्योंकि भारत से पहले किसी देश की सीमा पर इतनी रोशनी नहीं चमकती। दिल्ली से अमृतसर के लिये उड़ान भरने के साथ यह दिलचस्प बात एयर होस्टेस ने बतायी। जो ठीक मेरे सामने बैठी हुई थी।
चूंकि बोइंग ७८७ की सीट नं ११ ए इक्नामी क्लास की पहली कतार की पहली सीट थी। और सामने सीनियर एयर होस्टेस की सीट थी। तो झटके में यह बातचीत शुरु हुई। लेकिन जैसे ही मैने यह कहा कि अब देश में सरकार बदली है। कुछ अच्छा और होगा। इंडिया की चमक दुनिया में औरबढ़ेगी। वैसे ही एयर होस्टेस बोल पडी एयर इंडिया को भी चमका दें। तब बात होगी। क्यों सरकार तो एयर इंडिया को अब सुधारने जा रही है। आपके नये मंत्री ने एयर इंडिया के इन्फ्रास्ट्रक्चर की तरफ ध्यान देने की बात कही भी है। जी सुना तो हमने भी है। लेकिन जिस एयर इंडिया के विमान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सफर करते है, उस एयर इंडिया को चलाने वालों का हाल किसे पता है। खासतौर से वैसे कर्मचारी जो पे-रोल पर हैं। दशकों से एयर इंडिया में काम कर रहे हैं। उसमें हर कोई है। पायलट भी। एयर होस्टेस भी। और ग्राउंड स्टाफ भी। अभी अगस्त का महीना चल रहा है और हमे मई का वेतन अगस्त में मिला है। वह भी पैंतीस फीसदी कम। क्यों। अब मुश्किल यही है कि जो कर्मचारी पे-रोल पर है उनके लिये ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि वह नौकरी ही छोड़ दें। अब आप कल्पना कीजिये २००३ में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी । उस वक्त शहनवाज हुसैन नागरिक उड्डयन मंत्री थे । तब एयर इंडिया में करीब डेढ़ हजार भर्त्तिया हुईं। और उसके बाद ग्यारह साल हो चुके है लेकिन किसी को कोई प्रमोशन तो दूर की बात है जो वेतन २००३ में मुझे मिलता था आज यानी अगस्त २०१४ में उससे तीस फिसदी कम वेतन मिलता है। उस वक्त तो पे-स्लीप मिल जाती थी। अब तो पे-स्लिप भी नहीं मिलती। चेक या सीधे बैंक अकाउंट में पैसा डाला दिया जाता है। कोई यह पूछ नहीं सकता कि कम वेतन क्यों है। सीनियर से पूछे तो जबाब मिलता है , एयर इंडिया छोड़ क्यों नहीं देते। क्यों कोई महंगाई भत्ता या वेतन में किसी प्रकार की कोई बढोत्तरी हुई ही नहीं। कुछ भी नहीं। लेकिन सरकार तो कह रही है कि निजी एयरलाइंस से ज्यादा सुविधा एयर इंडिया के कर्मचारियों को दिया जा रहा है। हां, जो कान्ट्रैक्ट पर हैं, उन्हें जरुर अच्छा वेतन मिल
रहा है।
लेकिन कल्पना किजिये मनमोहन सिंह के दौर में प्रफुल्ल पटेल ही हमारे मंत्री थे। लेकिन २००७ के बाद से उन्होंने कभी एयर इंडिया पर सफर नहीं किया। निजी एयलाइन्स के ही वह मंत्री बन गये। खुद सफर भी निजी
विमान में करते और निजी विमानो के लिये हवाई अड्डों से लेकर उडानों में सारी सुविधा देते। असर इसी का है कि आज की तारिख में हर सौ यात्रियों में से सिर्फ पन्द्रह यानी ही एयर इंडिया में सफर करते हैं। प्रफुल्ल पटेल ने हमारी यूनियन खत्म की । छह-छह महींने हमारी सैलरी बंद हुई। मेरे तो पति भी एयर इंडिया में ही है। आप कल्पना किजिये जब एयर इंडिया के पायलटों ने हड़ताल की उस वक्त मेरा बेटा पांच बरस का था । हडताल के वक्त सरकार ने हमारा वेतन देना बंद कर दिया । बेटे के लिये पढाई तो दूर दूध और दवाई की जरुरत पडने पर खरीदने के लाले पड़ गये। हमने तब प्रबंधन से कहा भी कि हमें इस वक्त कही और काम करने की इजाजत दे दें। लेकिन प्रबंधन ने कहा इस्तीफा दे कर जाइये । तो आप ही सोचिये काम कही कर नहीं सकते और जहां काम कर रहे हैं, वह वेतन नहीं दे रहा है। तो घर कैसे चलेगा। सवाल सिर्फ मेरा नहीं करीब छह हजार स्टाफ का है जो पे-रोल पर है । उनके परिवार के भीतर कभी किसी सरकार किसी मंत्री ने झांक कर देखने की कोशिश की । लेकिन एयर इंडिया तो कंगाल भी नहीं है। बकायदा हर दिन १८ हजार से ज्यादा उड़ान एयर इंडिया भर रहा है। दुनिया के १९२ देशों में पहुंच चुका है। तो भी वेतन क्यों नहीं मिल रहा और अब भी ३५ फीसदी कम वेतन क्यों । ना , ना पैसे की कमी नहीं है एयर इंडिया के पास । आप कह सकते है लुटने वाले बढ़ गये हैं । क्यों, आपको ऐसा क्यों लगता है। बहुत ही शालिनता से एयर होस्टेस ने एयर इंडिया की तरफ से दिये जाने वाले एयर होस्टेस बैग को कपाट खोल कर निकाला और मुझे देते हुये बोली आप बताइये इसकी क्या कीमत होगी । कोई पांच या छह सौ रुपये । ठीक कह रहे है आप । लेकिन इसकी कीमत एयर इंडिया ने अपने बजट
में लगायी है साढे चार हजार रुपये। और अब हमारी यूनीफार्म फिर बदली जा रही है। पहले साड़ी थी। उसके बाद चटक रंग आया । और अब जो पहने हुये हैं इसे फिर बदला जा रहा है । यूनिफार्म एक बार बदलने का न्यूनतम बजट सिर्फ २० करोड़ का होता है । इसी तरह यात्रियो को पानी पिलाने के लिये एक बड़ा ग्लास लाया गया । करीब बीस लाख का बजट पास हुआ और बाद में पता चला वह ग्लास हवाई जहाज में रखने के लिये तो हवाई जहाज का डाइनिंग कपाट ही बदलना पड़ता । तो ग्लास गोदाम में चले गये ।हो सकता है ऐसे बहुतेरे निर्णय हम लोगों तक नहीं पहुंच पाते हो । क्योंकि हमें तो एयर इंडिया के ड्रीम लाइनर की तरह यात्रियो के सामने सपने सरीखी यात्रा ही करानी है । तभी पायलट की आवाज गूंज पडी । जहाज के दायीं तरफ स्वर्ण मंदिर के दर्शन आप कर सकते है । ओह सारी, बातचीत में अमृतसर आ गया । मै अपनी ही बात कहती रही । फिर रुआसे शब्दो में कहा, हम किसी से कह भी तो नहीं सकते । मै खुद ही सोचने लगा लगा कि जिस ड्रीम एयरलाइनर की उडान से इंडिया की चमक दमक हर उडान के वक्त क्रू हर नये विदेशी यात्री दिखाता होगा उसकी अपनी जिन्दगी में इतना अंधेरा । इतना दर्द । क्या मैं इस मुद्दे को उठाऊं। जहाज से उतरते वक्त
नमस्ते की मुद्दा में खडी एयर होस्टेस से मैंने पूछ ही लिया। कुछ हो जाये तो अच्छा ही है। लेकिन इशारो में कहा कि मेरा नाम कहीं ना आये। यानी जो नाम छाती पर किसी तमगे की तरह एयर इंडिया के बैच के साथ हर किसी यात्री के लिये लगा है वह नाम अपने ही दर्द अपनी ही त्रासदी को कहने से बचना भी चाहता है। इंडिया की रोशनी दिखाने वाले बरमिंघम के इस ड्रीमलाइनर से निकलते वक्त हबीब जालिब याद आ गये जो जियाउल हक के दौर में पाकिस्तान में ही यह कहने से नहीं चूके कि , अंधेरे को यारों जीया कैसे करें…।
Thursday, August 21, 2014
कश्मीर पर प्रचारक का हठ या नेहरु से आगे मोदी की नीति ?
वक्त बदल चुका है। वाजपेयी के दौर में 22 जनवरी 2004 को दिल्ली के नॉर्थब्लाक तक हुर्रियत नेता पहुंचे थे । और डिप्टी पीएम लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात की थी । मनमोहन सिंह के दौर में हुर्रियत नेताओ को पाकिस्तान जाने का वीजा दिया गया और अमन सेतू से उरी के रास्ते मुज्जफराबाद के लिये अलगाववादी निकल पड़े थे। लेकिन 2014 में मोदी सरकार को किसी भी हालत में हुर्रियत कान्फ्रेंस बर्दाश्त नहीं है। और खासकर पाकिस्तान से किसी भी बातचीत के बीच कश्मीर के अलगाववादियों को बर्दाश्त करने की स्थिति में मोदी सरकार नहीं है। तो क्या पहली बार भारत ने कश्मीर को लेकर हुर्रियत का दरवाजा हमेशा हमेशा के लिये बंद करने का फैसला लिया है। और आने वाले वक्त में पाकिस्तान ने कभी कश्मीर राग अलग से छडा भी तो क्या मोदी सरकार हर बातचीत से पल्ला झाड़ लेगी।
असल में यही से अब साप तौर पर पाकिस्तान से बातचीत को लेकर इस नये हालात ने पहली बार दो सवाल खड़े किये हैं। पहला पाकिस्तान से बातचीत के केन्द्र में कश्मीर नहीं रहेगा। और दूसरा भारत की प्राथमिकता पाकिस्तान से ज्यादा कश्मीर को लेकर दिल्ली की समझ साफ करना है। यानी अभी तक कश्मीर घाटी से दिल्ली को लेकर जो भी कसीदे गढे जाते रहे अब दिल्ली से मोदी सरकार घाटी को लेकर नयी परिभाषा गढने के लिये तैयार है। यहा कश्मीर को लेकर एतिहासिक और पारंपरिक सवालो को खड़ा किया जा सकता है। क्योंकि शिमला समझौता हो या नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह के दौर में पाकिस्तान से की गई हर बातचीत के बीच में कश्मीर किसी उलझे मुद्दे की तरह दिल्ली और इस्लामाबाद को उस दिशा में ढकेलता ही रहा, जहां कश्मीरी नेता या तो दिल्ली का गुणगाण करें या पाकिस्तान के रवैये को सही बताये। यानी कश्मीरियो के सौदेबाजी के दायरे में दिल्ली-इस्लामाबाद दोनों बार बार आये। तो नया सवाल यही है कि क्या नेहरु के दौर में जो सवाल श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर पर नेहरु नीति के विरोध के जरीये जताए थे, उसी रास्ते पर मोदी सरकार चल पड़ी है। और 1989 में जब कश्मीर में सीमापार से आंतक की नयी परिभाषा लिखी जा रही थी और तबके गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी के अपहरण के सामने दिल्ली को झुकना पड़ा था। और उसी वक्त चुनाव में हिजबुल चीफ सलाउद्दीन की हार के बाद जो हालात बिगड़े और संसदीय चुनाव से दूर रहकर सियासत की नयी परिभाषा में गढ़ने की नींव हुर्रियत कान्फ्रेन्स ने डाली और उसी दौर में कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी। तब दिल्ली सरकार खामोशी से तमाशा देख रही थी लेकिन बीजेपी ने तब कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के जरीये धारा 370 को उठाया। लेकिन 1989 से लेकर 2004 तक बीजेपी धारा 370 और कश्मीरी पंडितों को लेकर खामोशी रही क्योंकि सत्ता उसके अनुकूल कभी बनी नहीं। कभी वीपी सिंह के पीछे बीजेपी खड़ी थी। तो कभी बीजेपी के पीछे चौबिस राजनीतिक दल थे। लेकिन पहली बार बीजेपी अपने बूते दिल्ली की सत्ता पर काबिज है फिर कश्मीर का मुद्दा उसके लिये पाकिस्तान से बातचीत में उठाने से कही ज्यादा धारा 370 और कश्मीरी पंडितों से जुड़ा है। तो बड़ा सवाल है कि ऐसे में अब दिल्ली कश्मीर के अलगाववादियों को कैसे मान्यता दे सकता है। जो उनकी सोच के ही उलट है। क्योंकि इसी दौर में आरएसएस के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार बकायदा धारा 370 को लेकर इस मुहिम पर निकले हुये हैं कि जब मौलिक अधिकारों को ही धारा 370 से खत्म किया जा रहा है और भारत से इतर कश्मीर को देखने का नेहरु नजरीया ही बीते 67 बरस से पाकिस्तान को बातचीत में स्पेस देता रहा है तो फिर इस नजरिये को मानने वालो को भारत छोड़ देना चाहिये। यानी संघ परिवार जो अभी तक सिर्फ सामाजिक -सांस्कृतिक तौर पर ही सक्रिय रहता आया था जब वही मोदी के चुनाव को लेकर राजनीतिक तौर पर सक्रिय हुआ है तो फिर मोदी के राजनीतिक निर्णय संघ की मुहिम से अलग कैसे हो सकते है ।
यानी हुर्रियत के बनने के दो दशक के बाद पहली बार दिल्ली कश्मीर को लेकर बदलने के खुले संकेत दे रही है कि कश्मीर भी आरत के बाकि प्रांतों की तरह है। अब सवाल पाकिस्तान का है। कि क्या उसने जानते समझते हुये दिल्ली में कश्मीरी अलगाववादियों को बातचीत का न्यौता दिया। चाहे इसके परिणाम 25 अगस्त को होने वाली विदेश सचिवो की बैठक के रद्द होने को हो। वैसे यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण के दौरान नवाज शरीफ से मिलाये गये हाथ के वक्त ही कश्मीरियों को बातचीत में शामिल ना करने का जिक्र विदेश मंत्रालय के अधिकारियो ने पाकिस्तान के अधिकारियों को दे दी थी। तो फिर इसके बाद भी विदेश सचिवो की मुलाकात से हफ्ते भर पहले दिल्ली में पाक उच्चायुक्त सक्रिय क्यों हुआ। पाकिस्तान के हालात बताते हैं कि नवाज शरीफ ने सोच समझकर यह दांव खेला। क्योंकि नवाज शरीफ की सत्ता के खिलाफ सड़क पर उतरे हजारों हजार लोगो से ध्यान बंटाने के लिये ही नवाज शरीफ कश्मीर मुद्दे को तुरुप का पत्ता मान बैठे। इससे पहले मुशर्रफ यह दाव खेल चुके हैं। और उन्हें पाकिस्तान में इससे मान्यता भी मिली है। याद किजिये तो आगरा सम्मिट में आडवाणी को टारगेट कर के मुशर्रफ रात के अंघेरे इस्लामाबाद निकल पड़े थे। और बर्बाद हुये आगरा सम्मिट से कश्मीर को लेकर जाबांज मुशर्ऱफ निकला था। जिसने खुले तौर पर कश्मीरियो के संघर्ष को आजादी से जोड़ा था। तो क्या इमरान खान और कादरी के लांग मार्च से फंसे नवाज शरीफ ने भी कश्मीरी मुद्दा जानबूझकर उठाया। हो जो भी , असल मुश्किल तो यह है कि मौजूदा बारत सरकार जिस रास्ते निकल पड़ी है क्या उसमें अब पाकिस्तान से कोई बातचीत होगी ही नहीं क्योंकि कश्मीर को भावनात्मक तौर पर उठाकर ही पाकिस्तान की सियासत आगे बढ़ती रही है। यानी कश्मीरियों की गैर मौजूदगी में पाकिस्तान भारत से क्या बात करेगा।
यह इसलिये महत्वपूर्ण हो चला है क्योकि जो बात पाकिस्तान कह रहा है वह भारत के ठीक उलट है। पाकिस्तान कश्मीर को विवादास्पद मानता है । भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भी अपना मानता है। पाकिस्तान हुर्रियत से मुलाकात को सही ठहराता है। भारत कश्मीरी अलगाववादियों को कोई जगह देना नहीं चाहता। पाकिस्तान सीजफायर तोडने का आरोप भारत पर लगा रहा है जबकि भारत की सीमा पर लगातार पाकिस्तान की सीमा से गोलीबारी जारी है। तो सवाल सही गलत का नहीं सवाल है कि अब मोदी सरकार क्या करेगी। क्योंकि दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर पाकिस्तान के उच्चयुक्त अब्दुल बासित ने प्रेस कान्फ्रेंस कर के भारत सरकार के हर दावे को गलत करार दिया है। यहा तक की सीजफायर उल्लघन को लेकर भी पाकिस्तान ने भारत को ही कटघरे में ख़ड़ा किया। तो अब मोदी सरकार क्या करेगी। क्योंकि जिन आरोपों के कटघरे में पाकिस्तान को मोदी सरकार खड़ा करती आयी है उसी कटघरे में पाकिस्तान ने भारत को खड़ा करने की कोशिश की है। लेकिन दिल्ली में तो पहली बार सवाल मोदी सरकार की उस सोच का है जो कश्मीर में धारा 370 को खत्म कर भारत के दूसरे प्रांत की तरह ही कश्मीर को देखना चाहता है। यानी मोदी सरकार कश्मीर को लेकर हर परंपरा तोड़ना चाहती है और पाकिस्तान पंरपरा के तहत ही मोदी सरकार को चलने की बात कह रहा है। तो पिर यही सवाल है कि मोदी सरकार अब क्या करेगी । यह सवाल इसलिये भी बड़ा है क्योकि कश्मीर मसले को लेकर भारत पाकिस्तान की हर बातचीत पर अमेरिका की दिलचस्पी बराबर की रही है और अगर सितंबर में अमेरिका भारत पर पाकिस्तान से बातचीत करने को कहता है और मामला संयुक्त राष्ट्र को लेकर उठाता है तो भारत सरकार क्या करेगी। क्योंकि कश्मीर को लेकर जिस रास्ते पर मोदी सरकार है उससे देश में एक भरोसा जागा है कि कश्मीर को लेकर नेहरु नीति पहली बार मोदी उलटने को तैयार है । यानी संघ के एक प्रचारक [ अटल बिहारी वाजपेयी ] ने पीएम बनने के बाद जिस हुर्रियत के लिये संविधान के दायरे को तोडकर इन्सानियत के दायरे में बातचीत करना कबूला वहीं एक दूसरे प्रचारक [ नरेन्द्र मोदी ] ने पीएम बनने के बाद कश्मीर को हिन्दु राष्ट्रवाद के तहत लाने का बीड़ा उठाया है। सही कौन है यह तो इतिहास तय करेगा। लेकिन यह तय है कि आजादी के बाद पहली बार कश्मीर को लेकर दिल्ली एक ऐतिहासिक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है। जहां से आगे का रास्ता अभी धुंधला है।
असल में यही से अब साप तौर पर पाकिस्तान से बातचीत को लेकर इस नये हालात ने पहली बार दो सवाल खड़े किये हैं। पहला पाकिस्तान से बातचीत के केन्द्र में कश्मीर नहीं रहेगा। और दूसरा भारत की प्राथमिकता पाकिस्तान से ज्यादा कश्मीर को लेकर दिल्ली की समझ साफ करना है। यानी अभी तक कश्मीर घाटी से दिल्ली को लेकर जो भी कसीदे गढे जाते रहे अब दिल्ली से मोदी सरकार घाटी को लेकर नयी परिभाषा गढने के लिये तैयार है। यहा कश्मीर को लेकर एतिहासिक और पारंपरिक सवालो को खड़ा किया जा सकता है। क्योंकि शिमला समझौता हो या नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह के दौर में पाकिस्तान से की गई हर बातचीत के बीच में कश्मीर किसी उलझे मुद्दे की तरह दिल्ली और इस्लामाबाद को उस दिशा में ढकेलता ही रहा, जहां कश्मीरी नेता या तो दिल्ली का गुणगाण करें या पाकिस्तान के रवैये को सही बताये। यानी कश्मीरियो के सौदेबाजी के दायरे में दिल्ली-इस्लामाबाद दोनों बार बार आये। तो नया सवाल यही है कि क्या नेहरु के दौर में जो सवाल श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर पर नेहरु नीति के विरोध के जरीये जताए थे, उसी रास्ते पर मोदी सरकार चल पड़ी है। और 1989 में जब कश्मीर में सीमापार से आंतक की नयी परिभाषा लिखी जा रही थी और तबके गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी के अपहरण के सामने दिल्ली को झुकना पड़ा था। और उसी वक्त चुनाव में हिजबुल चीफ सलाउद्दीन की हार के बाद जो हालात बिगड़े और संसदीय चुनाव से दूर रहकर सियासत की नयी परिभाषा में गढ़ने की नींव हुर्रियत कान्फ्रेन्स ने डाली और उसी दौर में कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी। तब दिल्ली सरकार खामोशी से तमाशा देख रही थी लेकिन बीजेपी ने तब कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के जरीये धारा 370 को उठाया। लेकिन 1989 से लेकर 2004 तक बीजेपी धारा 370 और कश्मीरी पंडितों को लेकर खामोशी रही क्योंकि सत्ता उसके अनुकूल कभी बनी नहीं। कभी वीपी सिंह के पीछे बीजेपी खड़ी थी। तो कभी बीजेपी के पीछे चौबिस राजनीतिक दल थे। लेकिन पहली बार बीजेपी अपने बूते दिल्ली की सत्ता पर काबिज है फिर कश्मीर का मुद्दा उसके लिये पाकिस्तान से बातचीत में उठाने से कही ज्यादा धारा 370 और कश्मीरी पंडितों से जुड़ा है। तो बड़ा सवाल है कि ऐसे में अब दिल्ली कश्मीर के अलगाववादियों को कैसे मान्यता दे सकता है। जो उनकी सोच के ही उलट है। क्योंकि इसी दौर में आरएसएस के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार बकायदा धारा 370 को लेकर इस मुहिम पर निकले हुये हैं कि जब मौलिक अधिकारों को ही धारा 370 से खत्म किया जा रहा है और भारत से इतर कश्मीर को देखने का नेहरु नजरीया ही बीते 67 बरस से पाकिस्तान को बातचीत में स्पेस देता रहा है तो फिर इस नजरिये को मानने वालो को भारत छोड़ देना चाहिये। यानी संघ परिवार जो अभी तक सिर्फ सामाजिक -सांस्कृतिक तौर पर ही सक्रिय रहता आया था जब वही मोदी के चुनाव को लेकर राजनीतिक तौर पर सक्रिय हुआ है तो फिर मोदी के राजनीतिक निर्णय संघ की मुहिम से अलग कैसे हो सकते है ।
यानी हुर्रियत के बनने के दो दशक के बाद पहली बार दिल्ली कश्मीर को लेकर बदलने के खुले संकेत दे रही है कि कश्मीर भी आरत के बाकि प्रांतों की तरह है। अब सवाल पाकिस्तान का है। कि क्या उसने जानते समझते हुये दिल्ली में कश्मीरी अलगाववादियों को बातचीत का न्यौता दिया। चाहे इसके परिणाम 25 अगस्त को होने वाली विदेश सचिवो की बैठक के रद्द होने को हो। वैसे यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण के दौरान नवाज शरीफ से मिलाये गये हाथ के वक्त ही कश्मीरियों को बातचीत में शामिल ना करने का जिक्र विदेश मंत्रालय के अधिकारियो ने पाकिस्तान के अधिकारियों को दे दी थी। तो फिर इसके बाद भी विदेश सचिवो की मुलाकात से हफ्ते भर पहले दिल्ली में पाक उच्चायुक्त सक्रिय क्यों हुआ। पाकिस्तान के हालात बताते हैं कि नवाज शरीफ ने सोच समझकर यह दांव खेला। क्योंकि नवाज शरीफ की सत्ता के खिलाफ सड़क पर उतरे हजारों हजार लोगो से ध्यान बंटाने के लिये ही नवाज शरीफ कश्मीर मुद्दे को तुरुप का पत्ता मान बैठे। इससे पहले मुशर्रफ यह दाव खेल चुके हैं। और उन्हें पाकिस्तान में इससे मान्यता भी मिली है। याद किजिये तो आगरा सम्मिट में आडवाणी को टारगेट कर के मुशर्रफ रात के अंघेरे इस्लामाबाद निकल पड़े थे। और बर्बाद हुये आगरा सम्मिट से कश्मीर को लेकर जाबांज मुशर्ऱफ निकला था। जिसने खुले तौर पर कश्मीरियो के संघर्ष को आजादी से जोड़ा था। तो क्या इमरान खान और कादरी के लांग मार्च से फंसे नवाज शरीफ ने भी कश्मीरी मुद्दा जानबूझकर उठाया। हो जो भी , असल मुश्किल तो यह है कि मौजूदा बारत सरकार जिस रास्ते निकल पड़ी है क्या उसमें अब पाकिस्तान से कोई बातचीत होगी ही नहीं क्योंकि कश्मीर को भावनात्मक तौर पर उठाकर ही पाकिस्तान की सियासत आगे बढ़ती रही है। यानी कश्मीरियों की गैर मौजूदगी में पाकिस्तान भारत से क्या बात करेगा।
यह इसलिये महत्वपूर्ण हो चला है क्योकि जो बात पाकिस्तान कह रहा है वह भारत के ठीक उलट है। पाकिस्तान कश्मीर को विवादास्पद मानता है । भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भी अपना मानता है। पाकिस्तान हुर्रियत से मुलाकात को सही ठहराता है। भारत कश्मीरी अलगाववादियों को कोई जगह देना नहीं चाहता। पाकिस्तान सीजफायर तोडने का आरोप भारत पर लगा रहा है जबकि भारत की सीमा पर लगातार पाकिस्तान की सीमा से गोलीबारी जारी है। तो सवाल सही गलत का नहीं सवाल है कि अब मोदी सरकार क्या करेगी। क्योंकि दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर पाकिस्तान के उच्चयुक्त अब्दुल बासित ने प्रेस कान्फ्रेंस कर के भारत सरकार के हर दावे को गलत करार दिया है। यहा तक की सीजफायर उल्लघन को लेकर भी पाकिस्तान ने भारत को ही कटघरे में ख़ड़ा किया। तो अब मोदी सरकार क्या करेगी। क्योंकि जिन आरोपों के कटघरे में पाकिस्तान को मोदी सरकार खड़ा करती आयी है उसी कटघरे में पाकिस्तान ने भारत को खड़ा करने की कोशिश की है। लेकिन दिल्ली में तो पहली बार सवाल मोदी सरकार की उस सोच का है जो कश्मीर में धारा 370 को खत्म कर भारत के दूसरे प्रांत की तरह ही कश्मीर को देखना चाहता है। यानी मोदी सरकार कश्मीर को लेकर हर परंपरा तोड़ना चाहती है और पाकिस्तान पंरपरा के तहत ही मोदी सरकार को चलने की बात कह रहा है। तो पिर यही सवाल है कि मोदी सरकार अब क्या करेगी । यह सवाल इसलिये भी बड़ा है क्योकि कश्मीर मसले को लेकर भारत पाकिस्तान की हर बातचीत पर अमेरिका की दिलचस्पी बराबर की रही है और अगर सितंबर में अमेरिका भारत पर पाकिस्तान से बातचीत करने को कहता है और मामला संयुक्त राष्ट्र को लेकर उठाता है तो भारत सरकार क्या करेगी। क्योंकि कश्मीर को लेकर जिस रास्ते पर मोदी सरकार है उससे देश में एक भरोसा जागा है कि कश्मीर को लेकर नेहरु नीति पहली बार मोदी उलटने को तैयार है । यानी संघ के एक प्रचारक [ अटल बिहारी वाजपेयी ] ने पीएम बनने के बाद जिस हुर्रियत के लिये संविधान के दायरे को तोडकर इन्सानियत के दायरे में बातचीत करना कबूला वहीं एक दूसरे प्रचारक [ नरेन्द्र मोदी ] ने पीएम बनने के बाद कश्मीर को हिन्दु राष्ट्रवाद के तहत लाने का बीड़ा उठाया है। सही कौन है यह तो इतिहास तय करेगा। लेकिन यह तय है कि आजादी के बाद पहली बार कश्मीर को लेकर दिल्ली एक ऐतिहासिक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है। जहां से आगे का रास्ता अभी धुंधला है।
Saturday, August 16, 2014
आजादी के जश्न तले बीजेपी-संघ का सच
दृश्य - एक , ११ अशोक रोड , बीजेपी हेडक्वार्टर, तिंरगा फहराते बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह । मौजूद बीजेपी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को संबोधित करते हुये । पहली बार बीजेपी के किसी के किसी कार्यकर्ता ने
लालकिले के प्राचीर पर तिंरगा फहराया है। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जरुर थी । लेकिन वाजपेयी जी और मोदी सरकार में बहुत अंतर है। उस वक्त सरकार गठबंधन पर टिकी थी । इसबार अपने दम पर है । इस बार सही मायने में एक कार्यकर्ता लालकिले तक पहुंचा है । हमें गर्व होना चाहिये।
दृश्य -दो , बीजेपी हेडक्वार्टर में अध्यक्ष का कमरा । कमरे में गद्दी वाली कुर्सी पर बैठ कर झुलते हुये चाय की चुस्किया लेते बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह। अगल बगल बडे कद्दावर नेताओं की मौजूदगी। रामलाल, जेपी नड्डा,जितेन्द्र सिंह, गोयल समेत दर्जनो पदाधिकारियो की मौजूदगी । अमित शाह चालीसा का पाठ। लेकिन बीजेपी अध्यक्ष खामोशी से चाय की चुस्कियों में ही तल्लीन। ना किसी से चाय का आग्रह । ना किसी से कोई संवाद । बस बीच बीच में किसी को देख कर मुस्कुरा देना।
दृश्य- तीन, हेडक्वार्टर के परिसर में घुमते-टहलते कार्यकर्ता । झक सफेद कमीज या फिर सफेद कुर्ते पजामें में तनावग्रस्त हंसते मुस्कुराते चेहरे। हर की बात में मुहावरे की तरह मोदी । नेता का अंदाज हो या सफल बीजेपी का मंत्र। हर जुंबा पर प्रधानमंत्री मोदी। लालकिले से दिये भाषण में समूची दुनिया को जितने की चाहत बटोरे कार्यकर्ताओं का जमावड़ा। बीच बीच में अध्यक्ष अमित शाह के कमरे की तरफ टेड़ी निगाह। कौन निकल रहा है । कौन जा रहा है। बिना ओर-छोर की बातचीत में इस बात का भी एहसास की कि सांस की आवाज भी कोई सुन ला ले। खासकर जिस सांस से वाजपेयी के दौर का जिक्र हो । तो आने वाले वक्त में कही ज्यादा मेहनत से काम करने की अजब-गजब सोच…कि इसे तो कोई सुन ले।
दृश्य-चार, झंडेवालान, संघ हेडक्वार्टर । छिट पुट स्वयंसेवकों की मौजूदगी । अपने काम में व्यवस्त स्वयसेवकों में पीएम मोदी के लालकिले से तिरंगा फहराने के बाद प्रचारक मोदी की याद। गर्व से चौड़ा होता सीना। शाम चार बजे की चाय को गर्मजोशी से बांटते स्वयंसेवकों में उत्साह। बीच बीच में स्वयंसेवक प्रचारक की सियासी समझ के सामने नतमस्तक संसदीय राजनीति पर बहस से भी गुरेज नहीं।
दृश्य पांच, संघ के सबसे बुजुर्ग स्वयंसेवकों में से एक के साथ बातचीत । तिरंगा तो प्रचारक रहे वाजपेयी ने भी फहराया था तो इस बार प्रचारक से पीएम बने मोदी को लेकर इतना जोश क्यों। वाजपेयी की सरकार अपने ढंग की सरकार थी। वाजपेयी के दौर में ऱाष्ट्रवादी मानस की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकी। प्रधानमंत्री बने रहे और गठबंधन बरकार रहे…सारा ध्यान इसी पर रहा। भाग्य के धनी थे वाजपेयी। उन्हे पीएम बनना ही था। तो बन गये । इसलिये लालकिले पर तिरंगा फहराना सिर्फ तिरंगा फहराना भर नहीं होता है।
दृश्य - छह, संघ के युवा स्वयंसेवक से बातचीत। तो इस बार प्रधानमंत्री ने नहीं प्रधान सेवक ने लालकिले से तिरंगा फहराया। नहीं उन्हें यह नहीं कहना चाहिये। क्यों। प्रधानमंत्री संवैधानिक पद है। तो क्या यह पीएम का
नहीं प्रचारक का प्रवचन था। आप कह सकते हैं। प्रचारक की पूरी ट्रेनिंग ही तो चार 'पी' पर टिकी होती है। पीक अप । पीन अप । पुश अप । पुल अप । मैं समझा नहीं। देखिये प्रचारक अपने अनुभव और ज्ञान से सबसे पहले दिलों को अपने संवाद से चुनता है। जिसे पिक-अप कह सकते है। उसके बाद चुने गये व्यक्ति को संघ से जोड़ता है। यह जोड़ना शाखा भी हो सकता है और संगठन भी ।मसलन किसान संघ या मजदूर संघ या बनवासी कल्याण संघ या फिर किसी भी संगठन से। इसे पीन-अप कहते है। इसके बाद प्रचारक संघ से जोड़े गये शख्स को प्रेरित करते है। आगे बढ़ाते है। धकियाते है । आप कह सकते है कि कुम्हार की तरह मिट्टी को थाप देते है जिससे उसका साफ चेहरा उभर सके। इसे पुश-अप कहते है। और आखिर में इस शक्श को समाज-व्यवस्था में ऊपर उठाते है । आप कह सकते है कि कोई बड़ी जिम्मेदारी के लिये तैयार मान लेते है। इसे पुल-अप कहते हैं। तो स्वयंसेवक से प्रचारक और प्रचारक से पीएम बने मोदी भी तो इसी प्रक्रिया से निकले होंगे। बिलकुल । तो फिर लालकिले से प्रधानमंत्री की जगह प्रचारक वाला हिस्सा ही क्यो बलवती रहा । आपका सवाल ठीक है। क्योकि संघ के जहन में तो सामाजिक शुद्दीकरण होता है। लेकिन पद संभालने के बाद नीति लागू कराने में संघ का चरित्र काम करता है ना कि संघ के शुद्दीकरण के प्रचार प्रसार को ही कहना।
१५ और १६ अगस्त के इन छह दृश्यो ने मोदी सरकार और बीजेपी को लेकर तीन अनसुलझे सच को सुलझा दिया । पहला सच , संघ के भीतर पुरानी पीढी और नयी पीढी की सोच में खासा अंतर है । पुरानी पीढी अटल बिहारी वाजपेयी के दौर से अब भी खार खाए हुये है और वाजपेयी-आडवाणी को खारिज करना उसकी जरुरत है क्योंकि अपने दौर का स्वर्ण संघर्ष संघ के स्वयसेवको ने वाजपेयी-आडवाणी के सत्ता प्रेम में गंवा दिया। जिसका हर तरह का लाभ मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मिल रहा है। और नरेन्द्र मोदी को किसी भी हालत में संघ खारिज करना नहीं चाहता। दूसरा सच, संघ के भीतर नयी पीढी में इसबात को लेकर कश्मकश है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो बडे निर्णय लेकर देश के हालात जमीनी तौर पर बदल सकते है वह भी प्रचारक की तरह भावुकता पूर्ण बात क्यों कर रहे है। समूचे देश को डिजिटल बनाना। उसका माध्यम गूगल ही होगा। और गूगल के जरीये जो पोर्नोग्राफी। जो नग्नता खुले तौर पर परोसी जा रही है उसपर कैसे रोक लगायी जाये इसपर कदम उठाने के बदले मां-बाप को अगर प्रचारक की तरह सीख दी जा रही है कि बेटियों से पूछते हैं तो बेटों से भी पूछें। इससे रास्ता कैसे निकलेगा। क्योंकि मोदी की विकास राह तो गांव को भी शहरी चकाचौंध में बदलने को तैयार है। और तीसरा सच, जनादेश का नशा बीजेपी और सरकार के भीतर खुशी या उल्लास की जगह खौफ पैदा कर रहा है। क्योंकि पहली बार खाओ और सबको खाने दो की जगह ना खाउगा और ना ही खाने दूंगा की आवाज कही ज्यादा गहरी हो चली है। और साउथ-नार्थ ब्लाक से लेकर ११ अशोक रोड तक में कोई कद्दावर ऐसा है नहीं जिसका अपना दामन इतना साफ हो कि वह खौफ को खुशी में बदलने की आवाज उठा सके । क्योंकि इसके लिये जो नैतिक बल चाहिये वह बीते २० बरस में किसी के पास बचा नहीं तो हेडक्वार्टर में बीजेपी अध्यक्ष की चाय की चुस्की और लालकिले से प्रचारक का प्रवचन भी इतिहास रचने वाला ही दिखायी-सुनायी दे रहा है ।
लालकिले के प्राचीर पर तिंरगा फहराया है। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जरुर थी । लेकिन वाजपेयी जी और मोदी सरकार में बहुत अंतर है। उस वक्त सरकार गठबंधन पर टिकी थी । इसबार अपने दम पर है । इस बार सही मायने में एक कार्यकर्ता लालकिले तक पहुंचा है । हमें गर्व होना चाहिये।
दृश्य -दो , बीजेपी हेडक्वार्टर में अध्यक्ष का कमरा । कमरे में गद्दी वाली कुर्सी पर बैठ कर झुलते हुये चाय की चुस्किया लेते बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह। अगल बगल बडे कद्दावर नेताओं की मौजूदगी। रामलाल, जेपी नड्डा,जितेन्द्र सिंह, गोयल समेत दर्जनो पदाधिकारियो की मौजूदगी । अमित शाह चालीसा का पाठ। लेकिन बीजेपी अध्यक्ष खामोशी से चाय की चुस्कियों में ही तल्लीन। ना किसी से चाय का आग्रह । ना किसी से कोई संवाद । बस बीच बीच में किसी को देख कर मुस्कुरा देना।
दृश्य- तीन, हेडक्वार्टर के परिसर में घुमते-टहलते कार्यकर्ता । झक सफेद कमीज या फिर सफेद कुर्ते पजामें में तनावग्रस्त हंसते मुस्कुराते चेहरे। हर की बात में मुहावरे की तरह मोदी । नेता का अंदाज हो या सफल बीजेपी का मंत्र। हर जुंबा पर प्रधानमंत्री मोदी। लालकिले से दिये भाषण में समूची दुनिया को जितने की चाहत बटोरे कार्यकर्ताओं का जमावड़ा। बीच बीच में अध्यक्ष अमित शाह के कमरे की तरफ टेड़ी निगाह। कौन निकल रहा है । कौन जा रहा है। बिना ओर-छोर की बातचीत में इस बात का भी एहसास की कि सांस की आवाज भी कोई सुन ला ले। खासकर जिस सांस से वाजपेयी के दौर का जिक्र हो । तो आने वाले वक्त में कही ज्यादा मेहनत से काम करने की अजब-गजब सोच…कि इसे तो कोई सुन ले।
दृश्य-चार, झंडेवालान, संघ हेडक्वार्टर । छिट पुट स्वयंसेवकों की मौजूदगी । अपने काम में व्यवस्त स्वयसेवकों में पीएम मोदी के लालकिले से तिरंगा फहराने के बाद प्रचारक मोदी की याद। गर्व से चौड़ा होता सीना। शाम चार बजे की चाय को गर्मजोशी से बांटते स्वयंसेवकों में उत्साह। बीच बीच में स्वयंसेवक प्रचारक की सियासी समझ के सामने नतमस्तक संसदीय राजनीति पर बहस से भी गुरेज नहीं।
दृश्य पांच, संघ के सबसे बुजुर्ग स्वयंसेवकों में से एक के साथ बातचीत । तिरंगा तो प्रचारक रहे वाजपेयी ने भी फहराया था तो इस बार प्रचारक से पीएम बने मोदी को लेकर इतना जोश क्यों। वाजपेयी की सरकार अपने ढंग की सरकार थी। वाजपेयी के दौर में ऱाष्ट्रवादी मानस की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकी। प्रधानमंत्री बने रहे और गठबंधन बरकार रहे…सारा ध्यान इसी पर रहा। भाग्य के धनी थे वाजपेयी। उन्हे पीएम बनना ही था। तो बन गये । इसलिये लालकिले पर तिरंगा फहराना सिर्फ तिरंगा फहराना भर नहीं होता है।
दृश्य - छह, संघ के युवा स्वयंसेवक से बातचीत। तो इस बार प्रधानमंत्री ने नहीं प्रधान सेवक ने लालकिले से तिरंगा फहराया। नहीं उन्हें यह नहीं कहना चाहिये। क्यों। प्रधानमंत्री संवैधानिक पद है। तो क्या यह पीएम का
नहीं प्रचारक का प्रवचन था। आप कह सकते हैं। प्रचारक की पूरी ट्रेनिंग ही तो चार 'पी' पर टिकी होती है। पीक अप । पीन अप । पुश अप । पुल अप । मैं समझा नहीं। देखिये प्रचारक अपने अनुभव और ज्ञान से सबसे पहले दिलों को अपने संवाद से चुनता है। जिसे पिक-अप कह सकते है। उसके बाद चुने गये व्यक्ति को संघ से जोड़ता है। यह जोड़ना शाखा भी हो सकता है और संगठन भी ।मसलन किसान संघ या मजदूर संघ या बनवासी कल्याण संघ या फिर किसी भी संगठन से। इसे पीन-अप कहते है। इसके बाद प्रचारक संघ से जोड़े गये शख्स को प्रेरित करते है। आगे बढ़ाते है। धकियाते है । आप कह सकते है कि कुम्हार की तरह मिट्टी को थाप देते है जिससे उसका साफ चेहरा उभर सके। इसे पुश-अप कहते है। और आखिर में इस शक्श को समाज-व्यवस्था में ऊपर उठाते है । आप कह सकते है कि कोई बड़ी जिम्मेदारी के लिये तैयार मान लेते है। इसे पुल-अप कहते हैं। तो स्वयंसेवक से प्रचारक और प्रचारक से पीएम बने मोदी भी तो इसी प्रक्रिया से निकले होंगे। बिलकुल । तो फिर लालकिले से प्रधानमंत्री की जगह प्रचारक वाला हिस्सा ही क्यो बलवती रहा । आपका सवाल ठीक है। क्योकि संघ के जहन में तो सामाजिक शुद्दीकरण होता है। लेकिन पद संभालने के बाद नीति लागू कराने में संघ का चरित्र काम करता है ना कि संघ के शुद्दीकरण के प्रचार प्रसार को ही कहना।
१५ और १६ अगस्त के इन छह दृश्यो ने मोदी सरकार और बीजेपी को लेकर तीन अनसुलझे सच को सुलझा दिया । पहला सच , संघ के भीतर पुरानी पीढी और नयी पीढी की सोच में खासा अंतर है । पुरानी पीढी अटल बिहारी वाजपेयी के दौर से अब भी खार खाए हुये है और वाजपेयी-आडवाणी को खारिज करना उसकी जरुरत है क्योंकि अपने दौर का स्वर्ण संघर्ष संघ के स्वयसेवको ने वाजपेयी-आडवाणी के सत्ता प्रेम में गंवा दिया। जिसका हर तरह का लाभ मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मिल रहा है। और नरेन्द्र मोदी को किसी भी हालत में संघ खारिज करना नहीं चाहता। दूसरा सच, संघ के भीतर नयी पीढी में इसबात को लेकर कश्मकश है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो बडे निर्णय लेकर देश के हालात जमीनी तौर पर बदल सकते है वह भी प्रचारक की तरह भावुकता पूर्ण बात क्यों कर रहे है। समूचे देश को डिजिटल बनाना। उसका माध्यम गूगल ही होगा। और गूगल के जरीये जो पोर्नोग्राफी। जो नग्नता खुले तौर पर परोसी जा रही है उसपर कैसे रोक लगायी जाये इसपर कदम उठाने के बदले मां-बाप को अगर प्रचारक की तरह सीख दी जा रही है कि बेटियों से पूछते हैं तो बेटों से भी पूछें। इससे रास्ता कैसे निकलेगा। क्योंकि मोदी की विकास राह तो गांव को भी शहरी चकाचौंध में बदलने को तैयार है। और तीसरा सच, जनादेश का नशा बीजेपी और सरकार के भीतर खुशी या उल्लास की जगह खौफ पैदा कर रहा है। क्योंकि पहली बार खाओ और सबको खाने दो की जगह ना खाउगा और ना ही खाने दूंगा की आवाज कही ज्यादा गहरी हो चली है। और साउथ-नार्थ ब्लाक से लेकर ११ अशोक रोड तक में कोई कद्दावर ऐसा है नहीं जिसका अपना दामन इतना साफ हो कि वह खौफ को खुशी में बदलने की आवाज उठा सके । क्योंकि इसके लिये जो नैतिक बल चाहिये वह बीते २० बरस में किसी के पास बचा नहीं तो हेडक्वार्टर में बीजेपी अध्यक्ष की चाय की चुस्की और लालकिले से प्रचारक का प्रवचन भी इतिहास रचने वाला ही दिखायी-सुनायी दे रहा है ।
Tuesday, August 12, 2014
तो इस 15 अगस्त लालकिले से क्या सुनना चाहेंगे आप ?
आजादी के मायने बदलने लगे हैं। या फिर आजादी के बाद सत्ताधारियों ने जिस तरीके से देश चलाया अब आवाम उसमें बदलाव चाहती है। नहीं, यह आवाज सिर्फ राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन या जनादेश के दायरे में सुनी कही नहीं जा रही है बल्कि राजनेताओ से घृणा। संसद पर सवालिया निशान। न्यायपालिका पर उठती अंगुली। नौकरशाहों का भ्रष्ट होना। और कहीं ना कही भारत की आत्मा जो गांव में बसती है उसे खत्म करने की बाजार व्यवस्था की साजिश। तो फिर इसमें भागीदार कौन है और परिभाषा बदल रहा है। दरअसल आजादी के महज 67 बरस बाद ही सूबों की सियासत से लेकर प्रांत और संप्रदाय की समझ से लेकर भाषा और जाति-धर्म के आस्त्तिव के सवाल जिस तरह राजनीतिक दायरे में उठने लगे है और राजनीति को ही सम्यता और संस्कृति की ताकत भी दे दी गयी है उसमें पहली बार आजादी के वह सवाल गौण हो चले है जो बरसो बरस किसी देश को जिन्दा रखने के लिये काम करते हैं। 15 अगस्त 1947 । नेहरु ने लालकिले से पहले भाषण में नागरिक का फर्ज सूबा, प्रांत, प्रदेश, भाषा, संप्रदाय, जाति से ऊपर मुल्क रखने की सलाह दी। और जनता को चेताया कि डर से बडा ऐब/ गुनाह कुछ भी नहीं है। वहीं 15 अगस्त 1947 को कोलकत्ता के बेलीघाट में अंधेरे घर में बैठे महात्मा गांधी ने गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को यह कहकर लौटा दिया कि अंधेरे को रोशनी की
जगमग से दूर कर आजादी के जश्न का वक्त अभी नहीं आया है।
तो पहला सवाल क्या आजादी के संघर्ष के बाद जिस आजादी की कल्पना बारत ने की थी वह अधूरी थी या फिर वह आजादी नहीं सिर्फ सत्ता भोगने की चाहत का अंजाम था। और सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर देश को संवारा ना जा सका, आर्थिक तौर पर स्वावंबन ना लाया जा सका या कहे राजनीतिक तौर पर कोई दृष्टि १९४७ में कांग्रेस के पास थी ही नहीं इसलिये देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने पहली कैबिनेट हर तबके, हर संप्रदाय हर जाति और कमोवेश हर राजनीतिक धारा के नुमाइंदों को लेकर बना दी जिससे इतिहास उन्हे दोषी ना माने। दलितों के सवाल पर महात्मा गांधी से दो दो हाथ करने वाले बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर पाकिस्तान को आर्थिक मदद देने के खिलाफ हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक नेहरु की पहली कैबिनेट में थे। वैसे माना यही जाता है कि आजादी को अधूरा मानने वाले महात्मा गांधी ने ही नेहरु को सुझाव दिया था कि पहली सरकार राष्ट्रीय सरकार लगनी चाहिये । लेकिन इस राष्ट्रीय सरकार के मर्म में नेहरु या कहे कांग्रेस की सियासत ने सामाजिक सरोकार को ही राजनीतिक चुनाव के कंधे पर लाद दिया और वक्त के साथ
हर राजनीतिक विचारधारा भी राजनीतिक सत्ता के लिये संघर्ष करती दिखायी देने लगी। ध्यान दें बीते ६७ बरस की सबसे बडी उपलब्धि देश में राजनीतिक ताकत का ना सिर्फ बढ़ाना है बल्कि राजनीतिक सत्ता को ही हर क्षेत्र का पर्याय मान लिया गया। यानी वैज्ञानिक हो या खिलाड़ी। सिने कलाकार हो या संस्कृतकर्मी। या कहें देश के किसी भी क्षेत्र का कोई श्रेष्ट है और वह सत्ता के साथ नहीं खड़ा है सत्तादारी राजनीति दल के लिये शिरकत करता हुआ दिखायी नहीं दे रहा है तो फिर उसका समूचा ज्ञान बेमानी है। तो पहला संकट तो वहीं गहराया जब राजनीतिक सत्ता से अवाम का भरोसा दूटना शुरु हुआ। भरोसे टूटने को लेकर भी सियासी साजिश ने उसी संसदीय राजनीति को महत्ता दी जिसके आसरे कभी देश चला ही नहीं। यानी आजादी के बाद चुनाव में ७० फिसदी वोटिंग घटकर ४२ फिसदी तक पहुंची तो उसे ही राजनीतिक मोहभंग का आधार बनाया गया । और
जैसे ही २०१४ में वोटिंग दुबारा ६५ फिसदी तक पहुंची वैसे ही संसदीय राजनीतिक सत्ता के गुणगाण होने लगे। यानी हर पांच बरस में एक दिन की शिरकत को पीढ़ियों से नजर्ंदाज करती राजनीति पर बारी बनाने की कोशिश इस सियासत ने हर वक्त की। जबकि सच कुछ और रहा । नेहरु ने बेहद शालीनता से राजनीतिक विचारधारा को सत्ता की जीत से जोड़ा। इंदिरा गांधी ने अंध राष्ट्रवाद को सियासी ताकत से जोड़ा। आपातकाल के खिलाफ जनसंघर्ष को भी सत्ता पलटने और सत्ता पाने से जोडने के आगे देखा नहीं जा सका। और उसके
बाद कमजोर होती राजनीतिक सत्ता को भी जोडतोड के आसरे मजबूत दिखाने से कोई नहीं चूका। चाहे वह कांग्रेसी मिजाज के वीपी सिंह और चन्द्रशेखर हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच लिये अटलबिहारी वाजपेयी। देश की जरुरतें हाशिये पर रही क्योंकि राजनीतिक जरुरतें सर्वोपरि थी। और राजनीतिक जरुरतें
ही जब देश की जरुरत बना दी गयी या कहें देश में एक तरह की राजनीतिक शून्यता को मान्यता मिल गयी तो फिर सोनिया गांधी ने बेहिचक गद्दी पर गांधी परिवार की खडाउ रखकर मनमोहन सिंह को ही देश का प्रधा नमंत्री बना दिया। यानी आजादी के बाद सामाजिक-आर्थिक असमानता की जिस लकीर को राजनीतिक कटघरे में फकीर बना दिया उसे दुनिया का बाजर में बेचने का सिलसिला बीते दस बरस में खुल कर राष्ट्रीय नीतियों के तहत हुआ।
जिन खनिज संसाधनों को इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय संपत्ति माना उसे सोनिया गांधी के दौर में मनमोहन सिंह ने मुनाफे के धंधे के लिये सबसे उपयोगी माना। बाजार सिर्फ जमीन के नीचे ही नहीं बना बल्कि उपर रहने वाले ग्रामीण आदिवासियों, खेतिहर किसानो और मजदूरों को भी लील गया। लेकिन ताकतवर राजनीतिक सत्ता ने
इसे दुनिया के बाजार के सामने भारत को मजबूत और विकसित करने का ऐसा राग छेड़ा कि देश के तीस फिसद उपभोक्ताओं को खुले तौर पर लगने लगा कि बाकि ७० फिसदी आबादी के जिन्दा रहने का मतलब क्या है। सरोकार तो दूर, संवाद तक खत्म हुआ । भाषा की दूरिया बढ़ीं। सत्ता की भाषा और सत्ता की कल्याण
योजनाओ के टुकड़ों पर पलने वाले ७० फीसद की भाषा भी अलग हो गयी और जीने के तौर तरीके भी। इसलिये विकास की जो लकीर देश के तीस करोड़ उपभोक्ताओं के लिये खिंची जा रही है उसका कोई लाभ बाकि ८० करोड़ नागरिकों के लिये है भी नहीं। वहीं दूसरा संकट यह है कि जिस ६ करोड लोगों के लिये विकास की लकीर पचास के दशक में नेहरु खिंचना चाह रहे थे वही लकीर नयी परिभाषा के साथ मनमोहन सिंह २१ वी सदी में तीस करोड़ लोगों के लिये खिंचने में लग गये। असल यही हुआ कि १९४७ में बारत की जितनी जनसंख्या थी उसका तीन गुना हिन्दुस्तान २०१४ में दो जून की रोटी के लिये राजनीतिक सत्ता की तरफ
टकटकी लगाकर देखता है। और टकटकी बरकरार रहे इसके लिये राजनीतिक सत्ता पाने के संघर्ष में हर पांच बरस बाद सिर्फ चुनावी संघर्ष में इतना रुपया फूंक दिया जाता है जितने में हर दस बरस का भरपेट भोजन और शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का साफ पानी इस बहुसंख्यक तबके के लिये उपलब्ध हो जाये । फिर इसे ही लोकतंत्र का नारा दे कर दुनिया भर में एलान किया जाता है कि दुनिया का सबेस बडा लोकतांत्रिक देश आजाद है। असर इसी का है कि आजादी के बाद से तमाम प्रधानमंत्री हर बरस लालकिले से उन्हीं ७० फिसदी आबादी की बात करने से नहीं चूकते, जिनकी मुश्किले हर सरकार के साथ लगातार बढती चली जा रही है। यानी विकास की नयी आर्थिक लकीर धीरे धीरे लोकतंत्र का भी पलायन करवाने से नहीं चुक रही है। लोकतंत्र के पलायन का मतलब है , सिर्फ प्रभु वर्ग की तानाशाही, या कहें तंत्र के आगे लोकतंत्र का घुटना टेकना भर नहीं है। यह ऐसा वातावरण बनाती है जहां भूखे को साबित करना पडाता है कि वह भूखा नहीं है। किसान को साबित करना पड़ता है कि उसे किसानी में मुश्किल हो रही है । शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने का पानी जो
न्यूनतम जरुरत है उसे पाने के लिये जितनी भी जद्दोजहद करनी पड़ी लेकिन ना उपलब्ध होने पर यह साबित करना पडता है कि यह सब नहीं मिल पा रहा है तो ही सरकारी पैकेज या योजनाओं का लाभ मिल सकता है। यानी लालकिले पर लहराते तिरंगे के नीचे खडेहोकर कोई प्रधानमंत्री इस शपथ को नहीं ले सका कि जिन्दगी की न्यनतम जरुरतों को दिलाने के लिये वह सत्ता में आया है और उसे पूरा करने के बाद ही वह लालकिले पर तिरंगा फहरायेगा या पांच बरस बाद चुनाव लड़ेगा। मनमोहन सिंह ने इस सवाल को और ज्यादा बडा इसलिये बना दिया क्योंकि लोकतंत्र की नयी परिभाषा में संसद और संविधान के साथ बाजार और मुनाफा भी जुड़ गया है। इसलिये लोकतंत्र के पलायन के बाद नेता के साथ साथ बाजार चलाने वाले व्यापारी भी सत्ता का प्रतीक बन रहा है। और उसके आगे मानवाधिकार कोई मायने नहीं रखता। उन आंकड़ों को बताना अभी सही नहीं होगा
कि कैसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ही बताती है कि कैसे सरकारे और सरकार की नीतिया मानवाधिकार हनन में जुटी है । उससे पहले उस लकीर को समझ ले कि कैसे देश के भीतर सियासी लकीर खिंची और जीने की सारी परिभाषा बदलने लगी।
१९९० में देश की ७६ फिसदी आबादी करीब साढे छह लाख गांव में रहती थी और बाकी २४ फीसदी आबादी करीब पचास हजार शहरो में। और पिछले दो दशक के दौरान ६३८००० गांव में देश की ६७ फिसदी आबादी है जबकि
५१०० शहरो में ३३ फिसदी आबादी। इस दौर में सरकार की सारी नीतियां या बजट का औसत ७२ फिसदी हिस्सा उन शहरों के नाम पर एलान किया गया जहां सड़क, पानी ,बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा तक हर नागरिक को उपलब्ध नहीं है। जबकि कमोवेश शहरों में रहने वाले ७२ फिसदी लोगों के पास छोटा बड़ा काम है । यानी शहरो के लिये भी कोई इन्फ्रस्टरक्चर जीने की न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने तक का सरकार उपलब्ध नहीं करा पायी। जबकि काम करने वाले ७२ फिसदी लोगों में से ५५ फिसदी लोग तो जिन्दगी जीने की न्यूनतम जरुरत पाने के एवज में सरकार को रुपये देने को तैयार है। यानी गांव और गांव में रहने वाले ६५
फिसदी आबादी के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर हो या ना हो इसकी दुहाई देने वाले महात्मा गांधी के बाद तो कोई बचा नहीं। इसके उलट जिन शहरों को लेकर सरकारे भागती-दौड़ती नजर आयी वहां भी कोई काम हुआ नहीं। इसका एक अर्थ तो साफ है कि सरकार की नीतिया बनी भी लागू भी हुई लेकिन वह नीतियां देश के हालात के अनुकुल नहीं थी। यानी भारत है क्या चीज इसे वही राजनीतिक सत्ता या तो समझ नहीं पायी जो बीते ६७ बरस में सबसे ताकतवर हुई या फिर राजनीतिक सत्ता पाने या बरकरार रखने के तौर तरीको ने ही भारत को जीते जीते रेंगना सिखा दिया। असर इसी का है कि दिल्ली में जो भी सरकार बने या जिस भी रकार को जनता वोट से पलट दें उसी की तरह वह खुद की जीत हार भी मान लेती है और यह सवाल किसी के जहन में नहीं रेघता कि राजनीतिक सत्ता की धारा जब मैली हो चुकी है तो पिर उससे निकलने वाली विकास की धारा हो या भ्रष्ट
धारा जनता को चाहते ना चाहते हुये आखिर में पांच या दस बरस का इंतजार करना ही पडेगा और यह इंतजार भी जिस परिणाम को लेकर आयेगा वह सियासी बिसात पर जनता को प्यादा ही साबित करेगा। जाहिर है ऐसे में यह हर जहन में सवाल उठ सकता है कि फिर होना क्या चाहिये या २०१४ के चुनाव में जिस जनादेश का
गुणगान दुनिया भर में हो रहा है उसे बडबोले तरीके से बताया दिखाया क्यों जा रहा है जबकि चुनाव के न्यूनतम नारों को पूरा करने में ही सरकार की सांस फूल रही है। महंगाई, भ्रष्टाचार और कालाधन । कमोवेश यही तीन बातें तो चुनाव के वक्त गूंज रही थी और हर कोई मान कर चल रहा है कि इन तीनों के आसरे अच्छे दिन आ जायेंगे। लेकिन बीते ६७ बरस में जो तंत्र सरकार की नीतियों को जरीये बना या कहे राजनीतिक मजबूरियों ने जिस तंत्र के खम्भों पर सत्ता को खडा किया उसमें मंहगाई, भ्रष्टाचार और कालाधन राजनीतिक कैडर को पालने-पोसने का ही यंत्र है इसे छुपाया भी गया। वहीं जनादेश की आंधी को हमेशा से दुनिया के बाजार ने अपने अनुकुल माना है क्योंकि सत्ता या सरकारे निर्णय तभी ले सकती है जब वह स्वतंत्र हो। और संयोग ऐसा है कि स्वतंत्रता सरकारों के काम करने के लिये मिलने वाले जनादेश पर आ टिकी है । राजीव गांधी को १९८४ में दो तिहाई बहुमत मिला तो अमेरिका ने राजीव गांधी को सिर पर बैठाया। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री मिले तो अमेरिका ने तरजीह दी क्योंकि दुनिया के बाजार में मनमोहन सिंह नुमाइन्दगी भारत की नहीं बल्कि विश्व बैंक की कर रहे थे। लेकिन अब सवाल आगे का होना चाहिये। परिवर्तन का माद्दा सरकार के भीतर होना चाहिये। बुनियादी भारत को देख-समझ कर नीतियां बननी चाहिये। क्योंकि पहली बार परीक्षा कांग्रेस छोड़ संघ का निर्माण करने वाले हेडगेवार की राष्ट्रीयता वाली सोच की भी है। सामाजिक शुद्दिकरण का नारा लगाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी है । आर्थिक स्वावलंबन की खोज करते भारत का भी है। और तीस बरस देश की गलियों में बतौर संघ के प्रचारक के तौर पर खाक छानने वाले नरेन्द्र मोदी का भी जो अखंड भारत का नारा लगाते हुये भारत की परंपरा को आधुनिक दुनिया से कही आगे मानने की सोच पाले रहे हैं। तो सवाल तीन है। पहला, क्या भारत की आत्मा जिन गांव में बसती है उसे पुनर्जीवित किया जायेगा या शहरीकरण तले गांव को ही खत्म किया जायेगा। दूसरा, रोजगार को भारत के स्वावंलबन से जोड़ा जायेगा या भारत निर्माण की सोच से। जो विदेशी निवेश पर आश्रित होगा । और तीसरा भारत को दुनिया का सबसे बडा बाजार बनाया जायेगा या फिर ज्ञान और सरोकार की भूमि।
ध्यान दें तो तीनों परिस्थितियां एक दूसरे से जुड़ी है और मौजूदा वक्त मोदी सरकार का पहला कदम नेहरु मॉडल से लेकर राजीव गांधी के सपनों और मनमोहन सिंह के मुनाफा बनाने की सोच के ही इर्द गिर्द घूम रहा है । यानी मोदी सरकार के पहले कदम या तो संघ के आचरण के उलट, भारत की समझ से दूर कदम उठाया है य़ा फिर भारत को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन संघ हर सुबह गली-मोहल्लों में जो पाठ पढ़ाता है और अपने २३ संगठनों के जरीये जिस हिन्दु पद्दति की बात करता भी है तो सिर्फ बताने के लिये है। क्योंकि
विकास का मतलब हथेली और जेब में रुपया या डालर रखने वालो को सुविधा देना नहीं हो सकता। वह भी तब जब भारत के हालात भारत को ही दरिद्र बनाते जारहे हो। यानी जिस देश में सिर्फ १३ फीसदी लोग देश का ६७ फिसदी संसधान अपने उपभोग के लिये इस्तेमाल करते हों। वहां इन १३ फिसदी लोगों की हैसियत इस्ट इंडिया कंपनी से तो कहीं ज्यादा होगी। और सरकार की नीतियां ही जब दुनिया के नौ ताकतवर देशों की ३७ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिये यह सोच कर दरवाजा खोल रही हो कि देश में डॉलर वही लेकर आये। इन्फ्रास्ट्रक्चर वही बनाये। खनिज संसधानों को कौडियो के मोल चाहे ले जाये। लेकिन भारत को स्वर्णिम विकास के दायरे में कुछ इस तरह खडा कर दें जिससे बेरोजगारी खत्म हो। हर हाथ को काम मिलने लगे । और हर हथेली पर इतना रुपया हो कि वह अपनी जरुरत का सामान खरीद सके । यहा तर्क किया नहीं जा सकता क्योकि तीन सौ बरस की गुलामी का पाठ मोदी सरकार ही नहीं देश ने भी पढ़ा होगा। और मौजूदा
वक्त में इस सच से समूचा देश वाकिफ है कि पीने के पानी से लेकर खनिज संपदा और भूमि तक बढ़ नहीं सकती है। यानी भारत के सामाजिक-आर्थिक परिस्तियो के अनुरुप अगर विकास की नीतिया नहीं बनायी गयी तो हालात और बिगडेंगे। क्योंकि जो तंत्र विकसित किया जा रहा है उसकी विसंगतियों पर काबू पाना ही सबसे मुश्किल होता जा रहा है। मसलन बिहार, उत्तरारखंड, छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश समेत सोलह राज्यों में साठ लाख से ज्यादा लोग मानवाधिकार हनन की चपेट में राजनीतिक प्रभाव की
वजह से आये। यानी राजनीति ने अपना निशाना साधा और आम आदमी की पुलिस-प्रशासन ने सुनी नहीं। अदालत में मामला पहुचने पर आम नागरिक के खिलाफ हर तथ्य उसी पुलिस प्रशासन ने रखे जो सिर्फ नेताओ की बोली समझ पाते है। इन राज्यों में करीब दो लाख मामले एसे है, जिनमें जेल में बंद कैदियो को पता ही नहीं है कि उन्हें किस आरोप में पकड़ा गया। ज्यादातर मामलो में कोई एफआईआर तक नहीं है। या एफआईआर की कापी कभी आरोपी को नहीं सौंपी गयी। यह मामला चाहे आपको गंभीर लगे लेकिन जिन राज्यों से लोकतंत्र का पलायन हो रहा है वहां यह सब सामान्य तरीके से होता है। सवाल यही है कि देश में जीने के हक को कोई नहीं छीनेगा। इसकी गांरटी देने वाला भी कोई नहीं है। और लोकतंत्र के पलायन के बाद अब आरोपी को साबित करना है कि वह दोषी नहीं है। राज्य की कोई जिम्मेदारी नागरिकों को लेकर नहीं है ।
असल में संकट विचारधारा की शून्यता का पैदा होना है । समाजवादी थ्योरी चल नहीं सकती, सर्वहारा की तानाशाही का रुसी अंदाज बाजार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुका है और अब बाजार व्यवस्था की थ्योरी फेल हो रही है । इसलिये संकट आर्थिक विकास से कहीं आगे का है, जिसका रास्ता ना तो ब्रिक्स में मिलेगा ना ही अमेरिका या जापान में। नया सवाल उस राजनीतिक व्यवस्था का है जिसमें विचारधारा को परोस कर लोकतंत्र की दुहायी दी जायेगी । यह विचारधारा कौन सी होगी । अगर भारतीय राजनीति को इस बात पर
गर्व है कि अमेरिकी व्यवस्था से हटकर भारतीय व्यवस्था है , तो फिर भारतीय व्यवस्था के आधारों को भी समझना होगा जो अमेरिकी परिपेक्ष्य में फिट नहीं बैठती है। लेकिन अपने अपने घेरे में दोनो का संकट एक सा है। मंदी का असर अमेरिकी समाज पर आत्महत्या को लेकर सामने आया है और भारत में कृषि
अर्थव्यवस्था को बाजार के अनुकुल पटरी पर लाने के दौर में आत्महत्या का सिलसिला सालो साल से जारी है । दरअसल जो बैकिंग प्रणाली ब्रिटेन और अमेरिका में फेल हुई है या खराब कर्जदारों के जरीये फेल नजर आ रही है, कमोवेश खेती से लेकर इंडस्ट्री विकास के नाम पर भारत में यह खेल 1991 के बाद से शुरु हो चुका है। देश के सबसे विकसित राज्यों में महाराष्ट्र आता है , जहां उद्योगों को आगे बढाने के लिये अस्सी के दशक से जिले दर जिले एमआईडीसी के नाम पर नये प्रयोग किये गये। और इसी दौर में किसान के लिये बैकिग का इन्फ्रास्ट्रक्चर आत्महत्या की दिशा में ले जाने वाला साबित हुआ । अमेरिका की बिगड़ी अर्थव्यवस्था से वहा के समाज के भीतर का संकट जिस तरह अमेरिकियों को डरा रहा है , कमोवेश यही डर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के किसानों में उसी दौर में बढा है जिस दौर में भारत और अमेरिकी व्यवस्था एकदूसरे के करीब आयें। दोनों देशों का आर्थिक घेरा अलग अलग है, समझ एक जैसी ही रही। मोदी सरकार जिस रास्ते पर निकलना चाह रही है वह क्यों खतरनाक है इसे खेती और उघोग के आसरे भी समझा जा सकता है । जिसका जीडीपी में सहयोग घटते घटते तीस फीसदी से भी कम हो चला है। इसके लिये आर्थिक सुधार की हवा देश में बहने के साथ जरा महाऱाष्ट्र के प्रयोग को समझ लें। बीते दस साल में विदर्भ के बाइस हजार से ज्यादा किसानो ने आत्महत्या की है । लेकिन इसी दौर में विदर्भ में उघोगपतियो की फेरहिस्त में सौ गुना की बढोतरी हुई
है । इसकी सबसे बडी वजह उघोगो का दिवालिया होना रहा है । लेकिन फेल या दिवालिया होना उघोगपतियो के लिये मुनाफे का सौदा है। नब्बे फिसदी उधोगों ने खुद को फेल करार दिया । उघोगो के बीमार होने पर कर्ज देने वाले बैंकों ने मुहर लगा दी। बैंक अधिकारियों के साथ साठ-गांठ ने करोडों के वारे न्यारे झटके में कर दिये। दिवालिया होने का ऐलान करने वाले किसी भी उघोगपति ने आत्महत्या नहीं की । उल्टे सभी की चमक में तेजी आयी और सरकार भी नही रुकी । फेल उघोगों की जमीन उद्योगपतियों को ही मिल गयी। वह रीयल स्टेट में तब्दील हो गये। फिर औघोगिक विकास के नाम पर किसानो से जमीन ली गयी। अगर विदर्भ के उघोगपतियों की फेरहिस्त देखे तो 75 उघोगों पर बैंकों का करीब तीन सौ करोड का कर्ज है। यह कर्ज 31 मार्च 2001 तक का है । बीते दस साल में इसमे दो सौ गुना की बढोतरी हुई है। उद्योगों के लिये कर्ज लेने वाले
कर्जदारों को लेकर रिजर्व बैक की सूची ही कयामत ढाने वाली है जिसके मुताबिक सिर्फ राष्ट्रीयकृत बैंकों दस लाख करोड़ से ज्यादा का चूना देश के उघोगपति लगा चुके हैं। जिसमे महाराष्ट्र का सबसे ज्यादा एक लाख 90 हजार करोड रुपये का कर्ज उघोगपतियो पर हैं। लेकिन किसी भी उघोगपति ने उस एक दशक में आत्महत्या नही की जिस दौर में महाराष्ट्र के 42 हजार किसानों ने आत्महत्या की। इसी दौर में नागपुर को ही अंतरर्राष्ट्रीय कारगो के लिये चुना गया। पांच देशो की सोलह कंपनियां यहा मुनाफा बना रही हैं। इसके लिये भी जो जमीन विकास के नाम पर ली गयी वह भी खेतीयोग्य जमीन ही है। करीब पांच सौ एकड खेती वाली जमीन कारगो हब के लिये घेरी जा चुकी है। कुल दो हजार परिवार झटके में खेत मजदूर से अकुशल मजदूर में तब्दील हो चुके है । शहर से 15 किलोमीटर बाहर इस पूरे इलाके की जमीन की कीमत दिन-दुगुनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। नागपुर शहर देश के पहले पांच सबसे तेजी से विकसित होते शहरो में से है। अब जरा कल्पना कीजिये देश में इसी तर्ज पर सौ नये शहर विकसित करने का फैसला लिया जा चुका है। इसी तर्ज पर खेती
की जमीन हडपने का खाका भूमि सुधार के नाम पर पीपीपी मॉडल के तहत तैयार है । इसी तर्ज पर रोजगार देने और विकसित कहलाने को देश तैयार हो रहा है । और इसी तर्ज पर दुनिया की ३७ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि भारत के उस जनादेश वाली सरकार के फैसलों पर लगी हुई है जो स्वतंत्र है कोई भी फैसला लेने के लिये। यानी गठबंधन की कोई बाधा नहीं। तो फिर इस स्वतंत्रता दिवस यानी १५ अगस्त को लालकिले से क्या सुनना चाहेंगे आप।
जगमग से दूर कर आजादी के जश्न का वक्त अभी नहीं आया है।
तो पहला सवाल क्या आजादी के संघर्ष के बाद जिस आजादी की कल्पना बारत ने की थी वह अधूरी थी या फिर वह आजादी नहीं सिर्फ सत्ता भोगने की चाहत का अंजाम था। और सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर देश को संवारा ना जा सका, आर्थिक तौर पर स्वावंबन ना लाया जा सका या कहे राजनीतिक तौर पर कोई दृष्टि १९४७ में कांग्रेस के पास थी ही नहीं इसलिये देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने पहली कैबिनेट हर तबके, हर संप्रदाय हर जाति और कमोवेश हर राजनीतिक धारा के नुमाइंदों को लेकर बना दी जिससे इतिहास उन्हे दोषी ना माने। दलितों के सवाल पर महात्मा गांधी से दो दो हाथ करने वाले बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर पाकिस्तान को आर्थिक मदद देने के खिलाफ हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक नेहरु की पहली कैबिनेट में थे। वैसे माना यही जाता है कि आजादी को अधूरा मानने वाले महात्मा गांधी ने ही नेहरु को सुझाव दिया था कि पहली सरकार राष्ट्रीय सरकार लगनी चाहिये । लेकिन इस राष्ट्रीय सरकार के मर्म में नेहरु या कहे कांग्रेस की सियासत ने सामाजिक सरोकार को ही राजनीतिक चुनाव के कंधे पर लाद दिया और वक्त के साथ
हर राजनीतिक विचारधारा भी राजनीतिक सत्ता के लिये संघर्ष करती दिखायी देने लगी। ध्यान दें बीते ६७ बरस की सबसे बडी उपलब्धि देश में राजनीतिक ताकत का ना सिर्फ बढ़ाना है बल्कि राजनीतिक सत्ता को ही हर क्षेत्र का पर्याय मान लिया गया। यानी वैज्ञानिक हो या खिलाड़ी। सिने कलाकार हो या संस्कृतकर्मी। या कहें देश के किसी भी क्षेत्र का कोई श्रेष्ट है और वह सत्ता के साथ नहीं खड़ा है सत्तादारी राजनीति दल के लिये शिरकत करता हुआ दिखायी नहीं दे रहा है तो फिर उसका समूचा ज्ञान बेमानी है। तो पहला संकट तो वहीं गहराया जब राजनीतिक सत्ता से अवाम का भरोसा दूटना शुरु हुआ। भरोसे टूटने को लेकर भी सियासी साजिश ने उसी संसदीय राजनीति को महत्ता दी जिसके आसरे कभी देश चला ही नहीं। यानी आजादी के बाद चुनाव में ७० फिसदी वोटिंग घटकर ४२ फिसदी तक पहुंची तो उसे ही राजनीतिक मोहभंग का आधार बनाया गया । और
जैसे ही २०१४ में वोटिंग दुबारा ६५ फिसदी तक पहुंची वैसे ही संसदीय राजनीतिक सत्ता के गुणगाण होने लगे। यानी हर पांच बरस में एक दिन की शिरकत को पीढ़ियों से नजर्ंदाज करती राजनीति पर बारी बनाने की कोशिश इस सियासत ने हर वक्त की। जबकि सच कुछ और रहा । नेहरु ने बेहद शालीनता से राजनीतिक विचारधारा को सत्ता की जीत से जोड़ा। इंदिरा गांधी ने अंध राष्ट्रवाद को सियासी ताकत से जोड़ा। आपातकाल के खिलाफ जनसंघर्ष को भी सत्ता पलटने और सत्ता पाने से जोडने के आगे देखा नहीं जा सका। और उसके
बाद कमजोर होती राजनीतिक सत्ता को भी जोडतोड के आसरे मजबूत दिखाने से कोई नहीं चूका। चाहे वह कांग्रेसी मिजाज के वीपी सिंह और चन्द्रशेखर हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच लिये अटलबिहारी वाजपेयी। देश की जरुरतें हाशिये पर रही क्योंकि राजनीतिक जरुरतें सर्वोपरि थी। और राजनीतिक जरुरतें
ही जब देश की जरुरत बना दी गयी या कहें देश में एक तरह की राजनीतिक शून्यता को मान्यता मिल गयी तो फिर सोनिया गांधी ने बेहिचक गद्दी पर गांधी परिवार की खडाउ रखकर मनमोहन सिंह को ही देश का प्रधा नमंत्री बना दिया। यानी आजादी के बाद सामाजिक-आर्थिक असमानता की जिस लकीर को राजनीतिक कटघरे में फकीर बना दिया उसे दुनिया का बाजर में बेचने का सिलसिला बीते दस बरस में खुल कर राष्ट्रीय नीतियों के तहत हुआ।
जिन खनिज संसाधनों को इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय संपत्ति माना उसे सोनिया गांधी के दौर में मनमोहन सिंह ने मुनाफे के धंधे के लिये सबसे उपयोगी माना। बाजार सिर्फ जमीन के नीचे ही नहीं बना बल्कि उपर रहने वाले ग्रामीण आदिवासियों, खेतिहर किसानो और मजदूरों को भी लील गया। लेकिन ताकतवर राजनीतिक सत्ता ने
इसे दुनिया के बाजार के सामने भारत को मजबूत और विकसित करने का ऐसा राग छेड़ा कि देश के तीस फिसद उपभोक्ताओं को खुले तौर पर लगने लगा कि बाकि ७० फिसदी आबादी के जिन्दा रहने का मतलब क्या है। सरोकार तो दूर, संवाद तक खत्म हुआ । भाषा की दूरिया बढ़ीं। सत्ता की भाषा और सत्ता की कल्याण
योजनाओ के टुकड़ों पर पलने वाले ७० फीसद की भाषा भी अलग हो गयी और जीने के तौर तरीके भी। इसलिये विकास की जो लकीर देश के तीस करोड़ उपभोक्ताओं के लिये खिंची जा रही है उसका कोई लाभ बाकि ८० करोड़ नागरिकों के लिये है भी नहीं। वहीं दूसरा संकट यह है कि जिस ६ करोड लोगों के लिये विकास की लकीर पचास के दशक में नेहरु खिंचना चाह रहे थे वही लकीर नयी परिभाषा के साथ मनमोहन सिंह २१ वी सदी में तीस करोड़ लोगों के लिये खिंचने में लग गये। असल यही हुआ कि १९४७ में बारत की जितनी जनसंख्या थी उसका तीन गुना हिन्दुस्तान २०१४ में दो जून की रोटी के लिये राजनीतिक सत्ता की तरफ
टकटकी लगाकर देखता है। और टकटकी बरकरार रहे इसके लिये राजनीतिक सत्ता पाने के संघर्ष में हर पांच बरस बाद सिर्फ चुनावी संघर्ष में इतना रुपया फूंक दिया जाता है जितने में हर दस बरस का भरपेट भोजन और शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का साफ पानी इस बहुसंख्यक तबके के लिये उपलब्ध हो जाये । फिर इसे ही लोकतंत्र का नारा दे कर दुनिया भर में एलान किया जाता है कि दुनिया का सबेस बडा लोकतांत्रिक देश आजाद है। असर इसी का है कि आजादी के बाद से तमाम प्रधानमंत्री हर बरस लालकिले से उन्हीं ७० फिसदी आबादी की बात करने से नहीं चूकते, जिनकी मुश्किले हर सरकार के साथ लगातार बढती चली जा रही है। यानी विकास की नयी आर्थिक लकीर धीरे धीरे लोकतंत्र का भी पलायन करवाने से नहीं चुक रही है। लोकतंत्र के पलायन का मतलब है , सिर्फ प्रभु वर्ग की तानाशाही, या कहें तंत्र के आगे लोकतंत्र का घुटना टेकना भर नहीं है। यह ऐसा वातावरण बनाती है जहां भूखे को साबित करना पडाता है कि वह भूखा नहीं है। किसान को साबित करना पड़ता है कि उसे किसानी में मुश्किल हो रही है । शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने का पानी जो
न्यूनतम जरुरत है उसे पाने के लिये जितनी भी जद्दोजहद करनी पड़ी लेकिन ना उपलब्ध होने पर यह साबित करना पडता है कि यह सब नहीं मिल पा रहा है तो ही सरकारी पैकेज या योजनाओं का लाभ मिल सकता है। यानी लालकिले पर लहराते तिरंगे के नीचे खडेहोकर कोई प्रधानमंत्री इस शपथ को नहीं ले सका कि जिन्दगी की न्यनतम जरुरतों को दिलाने के लिये वह सत्ता में आया है और उसे पूरा करने के बाद ही वह लालकिले पर तिरंगा फहरायेगा या पांच बरस बाद चुनाव लड़ेगा। मनमोहन सिंह ने इस सवाल को और ज्यादा बडा इसलिये बना दिया क्योंकि लोकतंत्र की नयी परिभाषा में संसद और संविधान के साथ बाजार और मुनाफा भी जुड़ गया है। इसलिये लोकतंत्र के पलायन के बाद नेता के साथ साथ बाजार चलाने वाले व्यापारी भी सत्ता का प्रतीक बन रहा है। और उसके आगे मानवाधिकार कोई मायने नहीं रखता। उन आंकड़ों को बताना अभी सही नहीं होगा
कि कैसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ही बताती है कि कैसे सरकारे और सरकार की नीतिया मानवाधिकार हनन में जुटी है । उससे पहले उस लकीर को समझ ले कि कैसे देश के भीतर सियासी लकीर खिंची और जीने की सारी परिभाषा बदलने लगी।
१९९० में देश की ७६ फिसदी आबादी करीब साढे छह लाख गांव में रहती थी और बाकी २४ फीसदी आबादी करीब पचास हजार शहरो में। और पिछले दो दशक के दौरान ६३८००० गांव में देश की ६७ फिसदी आबादी है जबकि
५१०० शहरो में ३३ फिसदी आबादी। इस दौर में सरकार की सारी नीतियां या बजट का औसत ७२ फिसदी हिस्सा उन शहरों के नाम पर एलान किया गया जहां सड़क, पानी ,बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा तक हर नागरिक को उपलब्ध नहीं है। जबकि कमोवेश शहरों में रहने वाले ७२ फिसदी लोगों के पास छोटा बड़ा काम है । यानी शहरो के लिये भी कोई इन्फ्रस्टरक्चर जीने की न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने तक का सरकार उपलब्ध नहीं करा पायी। जबकि काम करने वाले ७२ फिसदी लोगों में से ५५ फिसदी लोग तो जिन्दगी जीने की न्यूनतम जरुरत पाने के एवज में सरकार को रुपये देने को तैयार है। यानी गांव और गांव में रहने वाले ६५
फिसदी आबादी के लिये कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर हो या ना हो इसकी दुहाई देने वाले महात्मा गांधी के बाद तो कोई बचा नहीं। इसके उलट जिन शहरों को लेकर सरकारे भागती-दौड़ती नजर आयी वहां भी कोई काम हुआ नहीं। इसका एक अर्थ तो साफ है कि सरकार की नीतिया बनी भी लागू भी हुई लेकिन वह नीतियां देश के हालात के अनुकुल नहीं थी। यानी भारत है क्या चीज इसे वही राजनीतिक सत्ता या तो समझ नहीं पायी जो बीते ६७ बरस में सबसे ताकतवर हुई या फिर राजनीतिक सत्ता पाने या बरकरार रखने के तौर तरीको ने ही भारत को जीते जीते रेंगना सिखा दिया। असर इसी का है कि दिल्ली में जो भी सरकार बने या जिस भी रकार को जनता वोट से पलट दें उसी की तरह वह खुद की जीत हार भी मान लेती है और यह सवाल किसी के जहन में नहीं रेघता कि राजनीतिक सत्ता की धारा जब मैली हो चुकी है तो पिर उससे निकलने वाली विकास की धारा हो या भ्रष्ट
धारा जनता को चाहते ना चाहते हुये आखिर में पांच या दस बरस का इंतजार करना ही पडेगा और यह इंतजार भी जिस परिणाम को लेकर आयेगा वह सियासी बिसात पर जनता को प्यादा ही साबित करेगा। जाहिर है ऐसे में यह हर जहन में सवाल उठ सकता है कि फिर होना क्या चाहिये या २०१४ के चुनाव में जिस जनादेश का
गुणगान दुनिया भर में हो रहा है उसे बडबोले तरीके से बताया दिखाया क्यों जा रहा है जबकि चुनाव के न्यूनतम नारों को पूरा करने में ही सरकार की सांस फूल रही है। महंगाई, भ्रष्टाचार और कालाधन । कमोवेश यही तीन बातें तो चुनाव के वक्त गूंज रही थी और हर कोई मान कर चल रहा है कि इन तीनों के आसरे अच्छे दिन आ जायेंगे। लेकिन बीते ६७ बरस में जो तंत्र सरकार की नीतियों को जरीये बना या कहे राजनीतिक मजबूरियों ने जिस तंत्र के खम्भों पर सत्ता को खडा किया उसमें मंहगाई, भ्रष्टाचार और कालाधन राजनीतिक कैडर को पालने-पोसने का ही यंत्र है इसे छुपाया भी गया। वहीं जनादेश की आंधी को हमेशा से दुनिया के बाजार ने अपने अनुकुल माना है क्योंकि सत्ता या सरकारे निर्णय तभी ले सकती है जब वह स्वतंत्र हो। और संयोग ऐसा है कि स्वतंत्रता सरकारों के काम करने के लिये मिलने वाले जनादेश पर आ टिकी है । राजीव गांधी को १९८४ में दो तिहाई बहुमत मिला तो अमेरिका ने राजीव गांधी को सिर पर बैठाया। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री मिले तो अमेरिका ने तरजीह दी क्योंकि दुनिया के बाजार में मनमोहन सिंह नुमाइन्दगी भारत की नहीं बल्कि विश्व बैंक की कर रहे थे। लेकिन अब सवाल आगे का होना चाहिये। परिवर्तन का माद्दा सरकार के भीतर होना चाहिये। बुनियादी भारत को देख-समझ कर नीतियां बननी चाहिये। क्योंकि पहली बार परीक्षा कांग्रेस छोड़ संघ का निर्माण करने वाले हेडगेवार की राष्ट्रीयता वाली सोच की भी है। सामाजिक शुद्दिकरण का नारा लगाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी है । आर्थिक स्वावलंबन की खोज करते भारत का भी है। और तीस बरस देश की गलियों में बतौर संघ के प्रचारक के तौर पर खाक छानने वाले नरेन्द्र मोदी का भी जो अखंड भारत का नारा लगाते हुये भारत की परंपरा को आधुनिक दुनिया से कही आगे मानने की सोच पाले रहे हैं। तो सवाल तीन है। पहला, क्या भारत की आत्मा जिन गांव में बसती है उसे पुनर्जीवित किया जायेगा या शहरीकरण तले गांव को ही खत्म किया जायेगा। दूसरा, रोजगार को भारत के स्वावंलबन से जोड़ा जायेगा या भारत निर्माण की सोच से। जो विदेशी निवेश पर आश्रित होगा । और तीसरा भारत को दुनिया का सबसे बडा बाजार बनाया जायेगा या फिर ज्ञान और सरोकार की भूमि।
ध्यान दें तो तीनों परिस्थितियां एक दूसरे से जुड़ी है और मौजूदा वक्त मोदी सरकार का पहला कदम नेहरु मॉडल से लेकर राजीव गांधी के सपनों और मनमोहन सिंह के मुनाफा बनाने की सोच के ही इर्द गिर्द घूम रहा है । यानी मोदी सरकार के पहले कदम या तो संघ के आचरण के उलट, भारत की समझ से दूर कदम उठाया है य़ा फिर भारत को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन संघ हर सुबह गली-मोहल्लों में जो पाठ पढ़ाता है और अपने २३ संगठनों के जरीये जिस हिन्दु पद्दति की बात करता भी है तो सिर्फ बताने के लिये है। क्योंकि
विकास का मतलब हथेली और जेब में रुपया या डालर रखने वालो को सुविधा देना नहीं हो सकता। वह भी तब जब भारत के हालात भारत को ही दरिद्र बनाते जारहे हो। यानी जिस देश में सिर्फ १३ फीसदी लोग देश का ६७ फिसदी संसधान अपने उपभोग के लिये इस्तेमाल करते हों। वहां इन १३ फिसदी लोगों की हैसियत इस्ट इंडिया कंपनी से तो कहीं ज्यादा होगी। और सरकार की नीतियां ही जब दुनिया के नौ ताकतवर देशों की ३७ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिये यह सोच कर दरवाजा खोल रही हो कि देश में डॉलर वही लेकर आये। इन्फ्रास्ट्रक्चर वही बनाये। खनिज संसधानों को कौडियो के मोल चाहे ले जाये। लेकिन भारत को स्वर्णिम विकास के दायरे में कुछ इस तरह खडा कर दें जिससे बेरोजगारी खत्म हो। हर हाथ को काम मिलने लगे । और हर हथेली पर इतना रुपया हो कि वह अपनी जरुरत का सामान खरीद सके । यहा तर्क किया नहीं जा सकता क्योकि तीन सौ बरस की गुलामी का पाठ मोदी सरकार ही नहीं देश ने भी पढ़ा होगा। और मौजूदा
वक्त में इस सच से समूचा देश वाकिफ है कि पीने के पानी से लेकर खनिज संपदा और भूमि तक बढ़ नहीं सकती है। यानी भारत के सामाजिक-आर्थिक परिस्तियो के अनुरुप अगर विकास की नीतिया नहीं बनायी गयी तो हालात और बिगडेंगे। क्योंकि जो तंत्र विकसित किया जा रहा है उसकी विसंगतियों पर काबू पाना ही सबसे मुश्किल होता जा रहा है। मसलन बिहार, उत्तरारखंड, छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश समेत सोलह राज्यों में साठ लाख से ज्यादा लोग मानवाधिकार हनन की चपेट में राजनीतिक प्रभाव की
वजह से आये। यानी राजनीति ने अपना निशाना साधा और आम आदमी की पुलिस-प्रशासन ने सुनी नहीं। अदालत में मामला पहुचने पर आम नागरिक के खिलाफ हर तथ्य उसी पुलिस प्रशासन ने रखे जो सिर्फ नेताओ की बोली समझ पाते है। इन राज्यों में करीब दो लाख मामले एसे है, जिनमें जेल में बंद कैदियो को पता ही नहीं है कि उन्हें किस आरोप में पकड़ा गया। ज्यादातर मामलो में कोई एफआईआर तक नहीं है। या एफआईआर की कापी कभी आरोपी को नहीं सौंपी गयी। यह मामला चाहे आपको गंभीर लगे लेकिन जिन राज्यों से लोकतंत्र का पलायन हो रहा है वहां यह सब सामान्य तरीके से होता है। सवाल यही है कि देश में जीने के हक को कोई नहीं छीनेगा। इसकी गांरटी देने वाला भी कोई नहीं है। और लोकतंत्र के पलायन के बाद अब आरोपी को साबित करना है कि वह दोषी नहीं है। राज्य की कोई जिम्मेदारी नागरिकों को लेकर नहीं है ।
असल में संकट विचारधारा की शून्यता का पैदा होना है । समाजवादी थ्योरी चल नहीं सकती, सर्वहारा की तानाशाही का रुसी अंदाज बाजार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुका है और अब बाजार व्यवस्था की थ्योरी फेल हो रही है । इसलिये संकट आर्थिक विकास से कहीं आगे का है, जिसका रास्ता ना तो ब्रिक्स में मिलेगा ना ही अमेरिका या जापान में। नया सवाल उस राजनीतिक व्यवस्था का है जिसमें विचारधारा को परोस कर लोकतंत्र की दुहायी दी जायेगी । यह विचारधारा कौन सी होगी । अगर भारतीय राजनीति को इस बात पर
गर्व है कि अमेरिकी व्यवस्था से हटकर भारतीय व्यवस्था है , तो फिर भारतीय व्यवस्था के आधारों को भी समझना होगा जो अमेरिकी परिपेक्ष्य में फिट नहीं बैठती है। लेकिन अपने अपने घेरे में दोनो का संकट एक सा है। मंदी का असर अमेरिकी समाज पर आत्महत्या को लेकर सामने आया है और भारत में कृषि
अर्थव्यवस्था को बाजार के अनुकुल पटरी पर लाने के दौर में आत्महत्या का सिलसिला सालो साल से जारी है । दरअसल जो बैकिंग प्रणाली ब्रिटेन और अमेरिका में फेल हुई है या खराब कर्जदारों के जरीये फेल नजर आ रही है, कमोवेश खेती से लेकर इंडस्ट्री विकास के नाम पर भारत में यह खेल 1991 के बाद से शुरु हो चुका है। देश के सबसे विकसित राज्यों में महाराष्ट्र आता है , जहां उद्योगों को आगे बढाने के लिये अस्सी के दशक से जिले दर जिले एमआईडीसी के नाम पर नये प्रयोग किये गये। और इसी दौर में किसान के लिये बैकिग का इन्फ्रास्ट्रक्चर आत्महत्या की दिशा में ले जाने वाला साबित हुआ । अमेरिका की बिगड़ी अर्थव्यवस्था से वहा के समाज के भीतर का संकट जिस तरह अमेरिकियों को डरा रहा है , कमोवेश यही डर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के किसानों में उसी दौर में बढा है जिस दौर में भारत और अमेरिकी व्यवस्था एकदूसरे के करीब आयें। दोनों देशों का आर्थिक घेरा अलग अलग है, समझ एक जैसी ही रही। मोदी सरकार जिस रास्ते पर निकलना चाह रही है वह क्यों खतरनाक है इसे खेती और उघोग के आसरे भी समझा जा सकता है । जिसका जीडीपी में सहयोग घटते घटते तीस फीसदी से भी कम हो चला है। इसके लिये आर्थिक सुधार की हवा देश में बहने के साथ जरा महाऱाष्ट्र के प्रयोग को समझ लें। बीते दस साल में विदर्भ के बाइस हजार से ज्यादा किसानो ने आत्महत्या की है । लेकिन इसी दौर में विदर्भ में उघोगपतियो की फेरहिस्त में सौ गुना की बढोतरी हुई
है । इसकी सबसे बडी वजह उघोगो का दिवालिया होना रहा है । लेकिन फेल या दिवालिया होना उघोगपतियो के लिये मुनाफे का सौदा है। नब्बे फिसदी उधोगों ने खुद को फेल करार दिया । उघोगो के बीमार होने पर कर्ज देने वाले बैंकों ने मुहर लगा दी। बैंक अधिकारियों के साथ साठ-गांठ ने करोडों के वारे न्यारे झटके में कर दिये। दिवालिया होने का ऐलान करने वाले किसी भी उघोगपति ने आत्महत्या नहीं की । उल्टे सभी की चमक में तेजी आयी और सरकार भी नही रुकी । फेल उघोगों की जमीन उद्योगपतियों को ही मिल गयी। वह रीयल स्टेट में तब्दील हो गये। फिर औघोगिक विकास के नाम पर किसानो से जमीन ली गयी। अगर विदर्भ के उघोगपतियों की फेरहिस्त देखे तो 75 उघोगों पर बैंकों का करीब तीन सौ करोड का कर्ज है। यह कर्ज 31 मार्च 2001 तक का है । बीते दस साल में इसमे दो सौ गुना की बढोतरी हुई है। उद्योगों के लिये कर्ज लेने वाले
कर्जदारों को लेकर रिजर्व बैक की सूची ही कयामत ढाने वाली है जिसके मुताबिक सिर्फ राष्ट्रीयकृत बैंकों दस लाख करोड़ से ज्यादा का चूना देश के उघोगपति लगा चुके हैं। जिसमे महाराष्ट्र का सबसे ज्यादा एक लाख 90 हजार करोड रुपये का कर्ज उघोगपतियो पर हैं। लेकिन किसी भी उघोगपति ने उस एक दशक में आत्महत्या नही की जिस दौर में महाराष्ट्र के 42 हजार किसानों ने आत्महत्या की। इसी दौर में नागपुर को ही अंतरर्राष्ट्रीय कारगो के लिये चुना गया। पांच देशो की सोलह कंपनियां यहा मुनाफा बना रही हैं। इसके लिये भी जो जमीन विकास के नाम पर ली गयी वह भी खेतीयोग्य जमीन ही है। करीब पांच सौ एकड खेती वाली जमीन कारगो हब के लिये घेरी जा चुकी है। कुल दो हजार परिवार झटके में खेत मजदूर से अकुशल मजदूर में तब्दील हो चुके है । शहर से 15 किलोमीटर बाहर इस पूरे इलाके की जमीन की कीमत दिन-दुगुनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। नागपुर शहर देश के पहले पांच सबसे तेजी से विकसित होते शहरो में से है। अब जरा कल्पना कीजिये देश में इसी तर्ज पर सौ नये शहर विकसित करने का फैसला लिया जा चुका है। इसी तर्ज पर खेती
की जमीन हडपने का खाका भूमि सुधार के नाम पर पीपीपी मॉडल के तहत तैयार है । इसी तर्ज पर रोजगार देने और विकसित कहलाने को देश तैयार हो रहा है । और इसी तर्ज पर दुनिया की ३७ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि भारत के उस जनादेश वाली सरकार के फैसलों पर लगी हुई है जो स्वतंत्र है कोई भी फैसला लेने के लिये। यानी गठबंधन की कोई बाधा नहीं। तो फिर इस स्वतंत्रता दिवस यानी १५ अगस्त को लालकिले से क्या सुनना चाहेंगे आप।
Saturday, August 9, 2014
संसद में सैकड़ों सचिन और रेखा हैं !
कैमरे की चमक। सितारों की चकाचौंध। हर नजर रेखा और सचिन की तरफ। याद कीजिये तो 2012 में संसद के भीतर रेखा और सचिन तेदूलकर को लेकर संसद का कुछ ऐसा ही हाल था। तो क्या संसद की चमक भी इनके सामने घूमिल है। जी बिलकुल। आवाज कोई भी उठाये। कहे कोई भी कि संसद में ना तो सचिन तेदुलकर दिखते हैं और ना ही रेखा। लेकिन संसद के हालात बताते है कि यहां हर दिन पहुंच कर भी कोई काम नहीं हो पाता है और सैकड़ों सांसद ऐसे हैं, जिन्हें जनता ने चुना है लेकिन वह ना तो कोई सवाल पूछते हैं। ना चर्चा में शामिल होते है। खासकर मोदी सरकार बनने के बाद तो लोकसभा में जो सांसद हमेशा हर मुद्दे पर अपनी राय रखने में सबसे आगे रहते थे वह सांसद भी खामोश है। आलम यह है कि लालकृषण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी तक सोलहवीं लोकसभा में
कभी बोलते देखे ही नहीं गये। आडवाणी और करिया मुंडा समेत समेत बीजेपी के दर्जनभर से ज्यादा सांसद ऐसे हैं, जिनकी हाजिरी सौ फीसदी रही लेकिन ना तो चर्चा में हिस्सा लिया ना ही कोई सवाल खड़ा किया। मसलन, बीजेपी के लीलाधाराबाई खोडजी ,नीलम सोनकर, प्रभात सिंह,रमेश बैस,रमेश चन्द, रमेश चंदप्पा, राजकुमार सिंह, अशोक कुमार दोहारे, जनक राम आदि ।
आप कह सकते है कि अभी तो 16वी लोकसभा को सौ दिन भी नहीं हुये हैं तो अभी से यह कैसे कह दिया जाये कि लोकसभा में सांसद खामोश रहते है तो फिर 15वी लोकसभा का हाल देख लीजिये। कांग्रेस के चीर परिचित चेहरे अजय माकन ने पांच बरस के दौरान ना कोई सवाल पूछा ना ही किसी चर्चा में शामिल हुये। और ना ही कोई प्राइवेट बिल रखा। और कांग्रेस के सबसे कद्दावर चेहरे राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने भी सिर्फ दो बार बोलने की जहमत उठायी वह भी चर्चा में शरीक होकर। इसके अलावा कभी कोई सवाल नहीं उठाया और ना ही कोई प्राइवेट बिल के बारे में सोचा। और संसद में बोले भी तो तब जब लोकपाल को लेकर अन्ना आंदोलन से दिल्ली थर्रा रही थी। 26 अगस्त को पहलीबार राहुल गांधी गुस्से में लगातार 5 मिनट तक बोले। और इसके बाद मनमोहन सरकार जब लोकपाल बिल लेकर आये तो राहुल गांधी 13 दिसबंर 2013 को बोले। बाकि वक्त हमेशा खामोश रहे। इसी तर्ज पर सोनिया गांधी 15 लोकसभा में पहली बार 13 मई 2012 को तब बोली जब संसद के साठ बरस पूरे हुये।
और उसके बाद 26 अगस्त 2013 को सोनिया गांधी तब बोली जब खाद्द सुरक्षा बिल पेश किया गया। अब आप कल्पना कीजिये यूपी की कानून व्यवस्था को लेकर यूपी के सीएम की सांसद पत्नी डिंपल यादव कल ही संसद में बोल रही थी। लेकिन 2009 से 2014 के दौरान यानी 15 लोकसभा में डिंपल यादव ने कुछ कहा ही नहीं। ना कोई सवाल । ना किसी चर्चा में शरीक । यही हाल काग्रेस के सीपीजोशी और वीरभ्रद्र सिंह का भी रहा । दोनों की हाजिरी 95 फीसदी रही लेकिन कभी संसद में यह नहीं बोले । वैसे औसत निकालेंगे तो हर सत्र में सौ से ज्यादा सांसद ऐसे निकलेंगे जो आते हैं। फिर चले जाते हैं। लेकिन कुछ नहीं बोलते । आंकडों के लिहाज से समझे तो 16 वी लोकसभा यानी मौजूदा लोकसभा में अभीतक 72 सांसदों की कोई भागेदारी की ही नहीं है। 101 सांसदों ने किसी चर्चा में हिस्सा ही नहीं लिया है। 198 सांसदों ने कोई सवाल नहीं उठाया है। वहीं 15 वी लोकसभा के दौर में 40 सांसदो ने कोई चर्चा नहीं। 63 सांसदों ने कोई सवाल नहीं उठाया और हर शुक्रवार को ढाई घंटे का जो वक्त प्राइवेट बिल के लिये होता है उससे 450 सांसद दूर रहे। जबकि 14 लोकसभा यानी 2004 से 2009 के दौरान 42 सांसदों ने कोई चर्चा नहीं की। 53 सांसदों ने कोई सवाल ही नहीं उठाया। अब इस अक्स में अगर याद करें तो जून 2012 में जब सचिन तेंदुलकर ने सांसद की शपथ ली थी तो उन्होंने कहा था, मैं संसद में खेल से जुड़े मुद्दे उठाना चाहता हूं। जाहिर है ऐसा आजतक तो हुआ नहीं कि सचिन तेंदुललर कोई मुद्दा उठाये या रेखा ने कभी कुछ कहा भी हो। लेकिन नामुमकिन सांसद ऐसा ही करते रहे हो ऐसा भी नहीं है। पहली संसद यानी 1952 से अब तक क़रीब 200 लोग नामांकित किए जा चुके हैं. इनमें नामी डॉक्टर, लेखक, पत्रकार, कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। वैसे रेखा कुछ बोले या ना बोले लेकिन पहली संसद में मनोनित थ्वीराजकपूर ने 1952 में अपने भाषण में ‘राष्ट्रीय थियेटर’ शुरू करने की बात कही थी.। और उन्होंने तब की बंबई में थियेटर बनाया भी। वहीं 1953 में नर्तक रुक्मिणी देवी अरुंदाले की मदद से जानवरों के विरुद्ध क्रूरता रोकने के लिए एक विधेयक पेश किया गया।
कार्टूनिस्ट अबू को राज्यसभा में इंदिरा गांधी ले कर आयी थीं और 1973 में कार्टूनिस्ट अबू अब्राहम ने सूखापीड़ित इलाक़ों की अपनी यात्रा के बारे में बेहद खूबसूरती से वर्णन किया था। जिसके बाद सूखा प्रभावित इलाको के लिये सरकार ने पैकेज जारी किया। और तो और 1975 में जब इमरजेन्सी लागू हुई तो अबू इब्राहिम ने अपने कार्टून के जरीये राष्ट्रपति पर चोट की। उन्होंने तबके राष्ट्रपति को बाथ टब में आपातकाल लागू करने वाले दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हुये दिखाया था। भारत के जाने माने लेखकों में एक आरके नारायण ने संसद में अपने पहले भाषण में भारी-भरकम स्कूल बैग को हटाने की मांग की थी। आरके नारायणन ने कहा था, भारी भरकम बैग लटकाकर बच्चे झुक जाते हैं। चलते वक्त चिंपाज़ी की तरह उनके हाथ आगे की ओर लटके रहते हैं। मुझे ऐसे कुछ केस पता हैं, जिससे बच्चों को इससे रीढ़ की गंभीर बीमारी से जुझना पड़ रहा है। उसके बाद सरकार ने स्कूलो को निर्देश दिया था कि बच्चों के बैग हल्के होने चाहिये। तो आखिरी सवाल यही है अब किसी सांसद या क्या उम्मीद की जाये या सचिन या रेखा से कोई उम्मीद क्यों की जाये। जब उनकी अदा ही हर दिन चलने वाले संसद के खर्च से ज्यादा कमाई हर दिन कर लेती हो। तो फिर संसद की साख पर सचिन की अदा तो भारी होगी ही। दरअसल, रेखा और सचिन तो फिर भी नामांकित हुये हैं। लेकिन सिनेमायी पर्दे से जनता के बीच जाकर वोट मांगकर जीतने वाली आध्रप्रदेश की विजया शांति और बालीवुड के सिने कलाकार धर्मेन्द्र तो बकायदा जनता की आवाज लोकसभा में देने के लिये चुने गये। लेकिन विजया शांति 2009 से 2014 तक कुछ नहीं बोली और धर्मेन्द्र 2004 से 2009 तक कुछ नहीं बोले। तो इसका मतलब क्या निकाला जाये जिन्होने राजनीति का ककहरा नहीं पढा होता वह संसद में खामोश हो जाते है । असल में मुश्किल यह नहीं है कि सांसद संसद के भीतर कितना बोलते है मुश्किल यह है कि कुल सौ सांसदो से ही समूची संसद चलती है । जो हर विषय पर खूब बोलते है । खूब सवाल उठाते है ।और इनके खूब बोलने या खूब सवाल उठाने से आम जनता को कोई लाभ नहीं होता बल्कि औगोगिक घरानो से लेकर कारपोरेट की मुस्किलो या पैसो वालो के उलझे रास्ते ठीक करने के लिये ही चर्चा होती है और सवाल उठाये जाते है । इसलिये मंहगाई पर चर्चा होती है तो सदन से 73 पिसदी सांसद गायब होते है । भ्रष्ट्राचार पर चर्चा होती है तो 55 फिसदी सासंद सदन से बाहर होते है। कालेधन पर चर्चा होती है तो 80 पिसदी सत्ताधारी सांसद गायब होते है। वैसे बीते दस बरस का सच यही है कि 200 सांसदो ने कभी कोई सवाल उठाया ही नहीं और ना ही चर्चा में हिस्सा लिया लेकिन वह रेखा या सचिन की तरह नहीं निकले की संसद आये भी नहीं । लेकिन संसद से निकलता क्या है यह तय जरुर कर लिजिये क्योकि बीते 10 बरस में लोकसभा या राज्यसभा का औसतन पचास फिसदी से ज्यादा वक्त हंगामें में हवा हवाई हो गया । और जो हर दिन लोकसभा या राज्यसभा में पहुंच कर हंगामा कर निकल गये उन्हे भी दो हजार रुपये प्रतिदिन की मेहनत के मिल गये । यानी देश में औसतन शारीरिक श्रमकर जितनी कमाई महीने भर में होती है उतनी कमाई सांसद को संसद ना चलने देने के बाद एक दिन में ही मिल जाती है ।
Thursday, August 7, 2014
सांप्रदायिकता पर सियासी संवेदनशीलता के क्या कहने
लोकसभा चुनाव से पहले और लोकसभा चुनाव के बाद के हालात बताते है कि साप्रदायिक हिंसा चुनावी राजनीति के लिये सबसे बेहतरीन हथियार हो गया है । सिर्फ मई जून में समूचे देश में 113 जगहो पर सांप्रदायिक झडपें हुईं। जिसमें 15 लोगों की मौत हुई और 318 लोग घायल हुये। वहीं महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जहां ढाई महीने बाद चुनाव होने है वहां कुल 33 मामले सांप्रदायिक हिंसा के दर्ज किये गये। जबकि इसके सामांनातर यूपी को सांप्रदायिकता का नया सियासी प्रयोगशाला बनाया जा रहा है क्योंकि यूपी के जरीये समूचे देश में राजनीतिक संकेत कही तेजी से दिये जा सकते हैं और चुनावी जीत पर असर भी डाला जा सकता है। तो मई 2012 से मार्च 2014 के बीच जहा यूपी में सवा सौ सांप्रदायिक दंगे हुये वहीं बीते तीन महीनो में यानी मई से जुलाई के बीच चार सौ के करीब सांप्रदायिक हिंसा यूपी के 18 जिलो में हुई। तो सवाल अब सीधा है कि क्या लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ही नहीं मौलाना मुलायम से लेकर लालू या किसी भी क्षत्रप का मिथ दंगों के दौरान मुस्लिमो में ही अपनी सुरक्षा को लेकर टूट गया है। और इसी दौर में जातियों में बंटे बहुसंख्यक तबके के भीतर यह एहसास जागा कि अल्पसंख्यक राजनीति को साधने वालो को भेदा जा सकता है। अगर ऐसा हो रहा है तो पहला सवाल दोहरा है कि राजनीतिक सत्ता को बनाने के लिये या फिर सत्ता पाने के लिये कानून व्यवस्था को सियासी तौर पर संभालना मुश्किल है या राजनीतिक तौर पर सांप्रदायिकता को साधना आसान काम हो चला है। ध्यान दें तो सांप्रदायिकता को लेकर संसद के भीतर बाहर के राजनीतिक बयान या कहें प्रधानमंत्री मोदी को लेकर संसद के भीतर बाहर के बयान भी चुनावी राजनीति को ध्यान में रखकर ही दिये जा रहे हैं। और सांप्रदायिकता को कटघरे में खड़ा करने की जगह सियासत भी दो धूरी पर चल पड़ी है। कांग्रेस का मानना है कि मुद्दा देश में बढती सांप्रदायिक हिंसा का है, जिसपर मोदी सरकार बोलने नहीं देती। लेकिन बीजेपी का कमानना है कि मुद्दा राहुल गांधी के नेतृत्व की खत्म होती साख का है तो खुद को सक्रिय दिखाने बताने के लिये राहुल गांधी सांप्रदायिकता के सवाल को सनसनीखेज बनाकर उठाना चाहते हैं। दोनों
राजनीतिक परिभाषा है। लेकिन इन्हीं दोनों परिभाषा के साये में देश का सच है क्या।
लोकसभा चुनाव परिणाम से एन पहले और चुनाव परिमाम आने के 40 दिन बाद तक के हालात बताते है कि यूपी, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, बिहार, झारखंड और हरियाणा में कुल सौ मामले दर्ज किये गये। जिसमें झारखंड और हरियाणा में तो सिर्फ दो-दो मामले ही सांप्रदायिक हि्ंसा के दर्ज हुये लेकिन बाकी राज्यों में दस से तीस तक मामले दर्ज हुये है। यानी कांग्रेस जो आरोप लगा रही है अगर उसे चुनावी राजनीति के दायरे में समझे तो बीजेपी ने जिस तरह लोकसभा चुनाव परिमाम में बहुमत पाकर यह संदेश दिया कि मुस्लिम वोट बैंक उनकी जीत को प्रभावित नहीं कर सकता। तो यह कांग्रेस के लिये संकट का सबब बन गया क्योकि सांप्रदायिकता के आईने में हर राजनीतिक समीकरण अगर बीजेपी को लाभ पहुंचा रहा है तो फिर कांग्रेस क्या करें। क्योंकि यह हालात देश भर में बने तो फिर कांग्रेस की सियासत पर खतरा मंडराने लगेगा। लेकिन जनता के लिये यह अपने आप में मुद्दा है कि क्या राजनीतिक लाभ-हानी के दायरे में ही अब सांप्रदायिक हिंसा या सांप्रदायिक सौहार्द मायने रखता है। क्योंकि मनमोहन सरकार के दौर में बीजेपी कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही। और अब मोदी सरकार के दौर में सांप्रदायिक हिंसा को बढावा देने का आरोप बीजेपी पर कांग्रेस लगा रही है । और सांप्रदायिक हिंसा का मुद्दा भी नेताओ की राजनीतिक पहल से जुड गया है।
बीजेपी की माने तो कांग्रेस के राजनीतिक संकट के मद्देनजर राहुल गांधी सांप्रदायिकता के मुद्दे को हवा देते हुये खुद के नेतृत्व की साख बनाने में लगे है। यानी कांग्रेस के भीतर जिस तरह राहुल गांधी के कामकाज के तौर तरीको पर अंगुली उठ रही है और प्रियंका गांधी को लाने की मांग उठने लगी है उसने राहुल गांधी के सामन राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है। वही काग्रेस अब संसद के भीतर और बाहर प्रधानमंत्री मोदी के इफ्तार पार्टी और ईद मिलन से दूर रहने से लेकर मंदिर मंदिर घूमने को ही सांप्रदायिकता को बढाने वाले हालात के कटघरे में खडा करने से नहीं कतरा रही है। इस हालात को समझने से पहले सांप्रदायिकता के दायरे में यूपी के उस राजनीतिक समीकरण को समझ लें जिसने मुलायम-मायावती की राजनीतिक बिसात ही उलट दी है। ध्यान दे तो बीते बीस बरस का सच यही है कि यूपी में सत्ता कभी भी किसी की रही हो लेकिन उसमें मुस्लिम वोटर सबसे अहम रहे है। मुलायम के लिये एमवाय यानी मुस्लिम यादव समीरकण और मायावती के लिये डीएम यानी दलित मुस्लिम समीकरण ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों को राजनीतिक तौर पर हाशिये पर ढकेल दिया। लेकिन लोकसभा चुनाव में जिस तरह बीजेपी को बंपर जीत मिली और मुलायम-मायवती तक के वोट बैंक में सेंध लग गयी उसने पहली बार यूपी के मुस्लिमों के सामने भी यह सवाल खडा कर दिया कि कभी यादव तो कभी दलित वोट के साथ खडे होकर मुस्लिम हमेशा सत्ता की मलाई नहीं खा सकता है । यानी मुसलिमों की नुमाइंदगी करने वाले सियासतदानों के सामने यह संकट पहली बार मंडराया कि अगर सांप्रदायिकता के आधार पर यूपी का वोटर बंट गया तो लोकसभा की किसी भी सीट पर मुसलिम वोट
मायने नहीं रखेंगे। जो लोकसभा चुनाव के परिमामो में नजर भी आया। लेकिन अब सवाल है कि क्या विधानसभा चुनाव में भी कुछ ऐसा हो सकता है।
अगर ध्यान दें तो यूपी की कुल 403 सीटो में से सिर्फ 54 सीट ऐसी है जहां मुस्लिम वोटर जिसे चाहे उसे जीता सकती। और 125 सीट ऐसी है जहां मुस्लिम वोट बैंक किसी भी 10 फिसदी वाले वोट बैंक से साथ जुड़ जाये तो जीत उसकी पक्की है। यानी बीते 20 बरस से मुलायम या मायावती के पास ही सत्ता इसीलिये रही क्योकि मुस्लिम वोट बैंक ने यूपी की सत्ता कांग्रेस को देनी नहीं चाही और बीजेपी की राजनीति जातीय राजनीति में अपनी सोशल इंजीनियरिंग से सेंघ लगाने में कभी सफल हो नहीं पायी। कल्याण सिंह के दौर में हिन्दुत्व और सोशल इंजीनियरिंग का काकटेल था इसलिये बीजेपी को सत्ता मिली । लेकिन अब जिस तरह लगातार यूपी में सांप्रदायिक झड़पों में तेजी आयी है उसने 12 सीटो पर होने वाले उपचुनाव से आगे देश भर में यूपी के जरीये राजनीतिक संकेत देने शुरु कर दिये है कि अब ना तो मंडल से निकले जातीय राजनीति मायने रखेगी ना ही सोशल इंजीनियरिंग। और इस सियासी मोड़ पर अगर गले में रुद्राक्ष की माला और भगवा वस्त्र में लिपटे नेपाल की सड़क पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नजर आये तो कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को यह उकसायेगा भी और डरायेगा भी। हो जो भी लेकिन पहली बार देश की समूची सिय़ासत ही कैसे साप्रदायिक हो चली है और शांति कायम करने का समूचा नजरिया ही कैसे चुनावी जनादेश को सांप्रदायिकता के कटघरे में खड़ा कर राजनीति लाभ हानि देख रहे हैं, यह संसद में राजनीतिक दलो की सियासी मशकक्त से समझा जा सकता है। क्योंकि कांग्रेस के सांसद अब लोकसभा में इस मुद्दे पर बहस चाहते है कि प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ मंदिर मंदिर दर्शन क्यों कर रहे हैं। मोदी सरकार बनने के बाद देश में सांप्रदायिक झडपों की तादाद में क्यों तेजी आ रही है। और बीजेपी को भी इससे कोई गिला शिकवा नहीं है कि संसद में साप्रदायिकता की मानसिकता पर बहस हो ही जाये। क्योंकि संघ परिवार के सामाजिक शुद्दिकरण का एक रास्ता हिन्दु -मुस्लिम सियासत पर सीधे संवाद से भी पूरा होता है। जिसके दायरे में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट या फिर दलित-आदिवासियों से लेकर ग्रामीण भारत का न्यूनतम को लेकर संघर्ष का मुद्दा भी बेमानी हो जायेगा और खनिज संसाधनो की लूट के जरीये विकास की कारपोरेट नीति भी छुप जायेगी। और समूचे देश को यही लगेगा कि देश की माइन्दगी करने वाली संसद वाकई देश को लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील है।
राजनीतिक परिभाषा है। लेकिन इन्हीं दोनों परिभाषा के साये में देश का सच है क्या।
लोकसभा चुनाव परिणाम से एन पहले और चुनाव परिमाम आने के 40 दिन बाद तक के हालात बताते है कि यूपी, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, बिहार, झारखंड और हरियाणा में कुल सौ मामले दर्ज किये गये। जिसमें झारखंड और हरियाणा में तो सिर्फ दो-दो मामले ही सांप्रदायिक हि्ंसा के दर्ज हुये लेकिन बाकी राज्यों में दस से तीस तक मामले दर्ज हुये है। यानी कांग्रेस जो आरोप लगा रही है अगर उसे चुनावी राजनीति के दायरे में समझे तो बीजेपी ने जिस तरह लोकसभा चुनाव परिमाम में बहुमत पाकर यह संदेश दिया कि मुस्लिम वोट बैंक उनकी जीत को प्रभावित नहीं कर सकता। तो यह कांग्रेस के लिये संकट का सबब बन गया क्योकि सांप्रदायिकता के आईने में हर राजनीतिक समीकरण अगर बीजेपी को लाभ पहुंचा रहा है तो फिर कांग्रेस क्या करें। क्योंकि यह हालात देश भर में बने तो फिर कांग्रेस की सियासत पर खतरा मंडराने लगेगा। लेकिन जनता के लिये यह अपने आप में मुद्दा है कि क्या राजनीतिक लाभ-हानी के दायरे में ही अब सांप्रदायिक हिंसा या सांप्रदायिक सौहार्द मायने रखता है। क्योंकि मनमोहन सरकार के दौर में बीजेपी कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही। और अब मोदी सरकार के दौर में सांप्रदायिक हिंसा को बढावा देने का आरोप बीजेपी पर कांग्रेस लगा रही है । और सांप्रदायिक हिंसा का मुद्दा भी नेताओ की राजनीतिक पहल से जुड गया है।
बीजेपी की माने तो कांग्रेस के राजनीतिक संकट के मद्देनजर राहुल गांधी सांप्रदायिकता के मुद्दे को हवा देते हुये खुद के नेतृत्व की साख बनाने में लगे है। यानी कांग्रेस के भीतर जिस तरह राहुल गांधी के कामकाज के तौर तरीको पर अंगुली उठ रही है और प्रियंका गांधी को लाने की मांग उठने लगी है उसने राहुल गांधी के सामन राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है। वही काग्रेस अब संसद के भीतर और बाहर प्रधानमंत्री मोदी के इफ्तार पार्टी और ईद मिलन से दूर रहने से लेकर मंदिर मंदिर घूमने को ही सांप्रदायिकता को बढाने वाले हालात के कटघरे में खडा करने से नहीं कतरा रही है। इस हालात को समझने से पहले सांप्रदायिकता के दायरे में यूपी के उस राजनीतिक समीकरण को समझ लें जिसने मुलायम-मायावती की राजनीतिक बिसात ही उलट दी है। ध्यान दे तो बीते बीस बरस का सच यही है कि यूपी में सत्ता कभी भी किसी की रही हो लेकिन उसमें मुस्लिम वोटर सबसे अहम रहे है। मुलायम के लिये एमवाय यानी मुस्लिम यादव समीरकण और मायावती के लिये डीएम यानी दलित मुस्लिम समीकरण ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों को राजनीतिक तौर पर हाशिये पर ढकेल दिया। लेकिन लोकसभा चुनाव में जिस तरह बीजेपी को बंपर जीत मिली और मुलायम-मायवती तक के वोट बैंक में सेंध लग गयी उसने पहली बार यूपी के मुस्लिमों के सामने भी यह सवाल खडा कर दिया कि कभी यादव तो कभी दलित वोट के साथ खडे होकर मुस्लिम हमेशा सत्ता की मलाई नहीं खा सकता है । यानी मुसलिमों की नुमाइंदगी करने वाले सियासतदानों के सामने यह संकट पहली बार मंडराया कि अगर सांप्रदायिकता के आधार पर यूपी का वोटर बंट गया तो लोकसभा की किसी भी सीट पर मुसलिम वोट
मायने नहीं रखेंगे। जो लोकसभा चुनाव के परिमामो में नजर भी आया। लेकिन अब सवाल है कि क्या विधानसभा चुनाव में भी कुछ ऐसा हो सकता है।
अगर ध्यान दें तो यूपी की कुल 403 सीटो में से सिर्फ 54 सीट ऐसी है जहां मुस्लिम वोटर जिसे चाहे उसे जीता सकती। और 125 सीट ऐसी है जहां मुस्लिम वोट बैंक किसी भी 10 फिसदी वाले वोट बैंक से साथ जुड़ जाये तो जीत उसकी पक्की है। यानी बीते 20 बरस से मुलायम या मायावती के पास ही सत्ता इसीलिये रही क्योकि मुस्लिम वोट बैंक ने यूपी की सत्ता कांग्रेस को देनी नहीं चाही और बीजेपी की राजनीति जातीय राजनीति में अपनी सोशल इंजीनियरिंग से सेंघ लगाने में कभी सफल हो नहीं पायी। कल्याण सिंह के दौर में हिन्दुत्व और सोशल इंजीनियरिंग का काकटेल था इसलिये बीजेपी को सत्ता मिली । लेकिन अब जिस तरह लगातार यूपी में सांप्रदायिक झड़पों में तेजी आयी है उसने 12 सीटो पर होने वाले उपचुनाव से आगे देश भर में यूपी के जरीये राजनीतिक संकेत देने शुरु कर दिये है कि अब ना तो मंडल से निकले जातीय राजनीति मायने रखेगी ना ही सोशल इंजीनियरिंग। और इस सियासी मोड़ पर अगर गले में रुद्राक्ष की माला और भगवा वस्त्र में लिपटे नेपाल की सड़क पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नजर आये तो कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को यह उकसायेगा भी और डरायेगा भी। हो जो भी लेकिन पहली बार देश की समूची सिय़ासत ही कैसे साप्रदायिक हो चली है और शांति कायम करने का समूचा नजरिया ही कैसे चुनावी जनादेश को सांप्रदायिकता के कटघरे में खड़ा कर राजनीति लाभ हानि देख रहे हैं, यह संसद में राजनीतिक दलो की सियासी मशकक्त से समझा जा सकता है। क्योंकि कांग्रेस के सांसद अब लोकसभा में इस मुद्दे पर बहस चाहते है कि प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ मंदिर मंदिर दर्शन क्यों कर रहे हैं। मोदी सरकार बनने के बाद देश में सांप्रदायिक झडपों की तादाद में क्यों तेजी आ रही है। और बीजेपी को भी इससे कोई गिला शिकवा नहीं है कि संसद में साप्रदायिकता की मानसिकता पर बहस हो ही जाये। क्योंकि संघ परिवार के सामाजिक शुद्दिकरण का एक रास्ता हिन्दु -मुस्लिम सियासत पर सीधे संवाद से भी पूरा होता है। जिसके दायरे में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट या फिर दलित-आदिवासियों से लेकर ग्रामीण भारत का न्यूनतम को लेकर संघर्ष का मुद्दा भी बेमानी हो जायेगा और खनिज संसाधनो की लूट के जरीये विकास की कारपोरेट नीति भी छुप जायेगी। और समूचे देश को यही लगेगा कि देश की माइन्दगी करने वाली संसद वाकई देश को लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील है।