कौन नहीं चाहता था गठबंधन । महाराष्ट्र की सियासत में लाख टके का सवाल अब यही हो गया है । शिवसेना कयास लगा रही है कि बीजेपी की राज्य इकाई को यह संकेत दिल्ली से आया। बीजेपी कयास लगा रही है उट्टव ठाकरे की कोटरी जिसमें सबसे शक्तिसाली रश्मी ठाकरे हैं, उनका संकेत था । आरएसएस के भीतर कयास लग रहे हैं कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को उपर का संकेत था यानी प्रधानमंत्री मोदी से। अगर कयास सही है तो संकेत साफ है कि शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन हर हाल में टूटना था और दोनो तरफ से सबसे प्रभावी या कहे ताकतवर लोग ही नहीं चाहते थे कि गठबंधन रहे। क्योंकि शिवसेना प्रमुख की पत्नी रश्मी ठाकरे मौजूदा वक्त में सबसे ताकतवर है और गठबंधन टूटने के बाद बीजेपी के भीतर से लगातार यही आवाज आ रही है कि उद्दव ठाकरे की राजनीतिक महत्वकांक्षा को उड़ान देने के लिये परिवार की ही वह कोटरी है जो शिवसेना के हर निर्णय को लेने में सक्षम है। इस कोटरी में कोई बाहरी शिवसैनिक नहीं है बल्कि ठाकरे परिवार के ही सदस्य है। और उद्दव ठाकरे का हर निर्णय इससे प्रभावित होता है।
इसीलिये जो ठाकरे परिवार हमेशा किंगमेकर की भूमिका में रहा वह पहली बार किंग बनने का खुला ऐलान करने से नहीं कतरा रहा है। कमोवेश बीजेपी के गठबंधन टूटने के बाद ठाकरे परिवार की इसी महत्वकांक्षा का जिक्र संघ परिवार से किया। चूंकि संघ परिवार नहीं चाहता था कि महाराष्ट्र में गठबंधन टूटे तो बीजेपी की तरफ से आरएसएस को जानकारी भी यही दी गयी ही मौजूदा वक्त में ठाकरे परिवार की बडी हुई महत्वाकांक्षा का चेहरा बालासाहेब ठाकरे से अलग है। बालासाहेब ठाकरे दूर की सोच कर निर्णय लेते थे। लेकिन मौजूदा ठाकरे परिवार सिर्फ तत्काल को देख रहा है और बीजेपी की ताकत जब शिवसेना से ना सिर्फ ज्यादा है बल्कि साथ लड़ने पर बीजेपी के वोट का लाभ ही शिवसेना को मिलेगा तो फिर बीजेपी अपनी ताकत का लाभ शिवसेना को क्यों पहुंचाये । वहीं ठाकरे परिवार के भीतर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को लेकर कहीं ज्यादा रार है। हालांकि चुनाव ऐलान से एन पहले अमित शाह मुबंई यात्रा के वक्त उद्दव ठाकरे से मिलने घर पर भी गये थे और बालासाहेब की समाधि पर पर भी गये थे।
लेकिन शिवसेना के साथ कितनी सीदो पर चुनाव लड़ना है, इस पर खुलकर कोई बातचीत करने की जगह तब भी सिर्फ इतना ही कहा था कि बीजेपी की राज्य इकाई से बातचीत के बात ही फैसला होगा। यानी दिल्ली के हर फैसले का आधार राज्य ईकाई की रिपोर्ट होगी इसका जिक्र तभी कर दिया गया था । लेकिन शिवसेना की मुश्किल दिल्ली में मोदी सरकार के आने के बाद कही ज्यादा तेजी से मुंबई में बढ़ी इसके संकेत शिवसेना के दादर दफ्तर के भीतर पार्टी के लिये मिलने वाले दान में आयी कमी या कहे वसूली से भी देखा गया। और इसकी वजह गुजरातियों का शिवसेना की जगह सीधे दिल्ली में मोदी सरकार से संपर्क साधना माना गया । ध्यान दें तो मुबंई में गुजरातियो के धंधे कहीं ज्यादा है। सूरत के हीरो के कारोबार का तो सबसे बडा बाजार ही मुबंई है, जहां हर डायमंड मर्चेट का दफ्तर है। और मुबंई से ही दुनिया भर में हीरों का व्यापार होता है। शिवसेना के साथ गुजराती व्यापारियों का लेन-देन बालासाहेब ठाकरे के दौर का है। लेकिन दिल्ली में मोदी सरकार के आने के बाद अमित साह के बीजेपी अध्यक्ष बनते ही मुंबई के गुजरातियों का रास्ता भी बदला और गुजरात से मुबंई की दूरी झटके में दिल्ली की तुलना में ज्यादा हो गयी। शिवसेना के लिये यह सबसे बड़ा झटका माना गया। इसीलिये चुनाव से पहले ही सीएम पद पर दावेदारी टोकं कर उद्दव ने बीजेपी से दो दो हाथ करने का मन भी बनाया और पार्टी के भीतर इसके संकेत भी दिये कि महाराष्ट्र में सत्ता की लगाम तो ठाकरे परिवार के पास ही रहेगी।
तो फिर चुनाव के बाद सारे संकट निपट जायेंगे। वैसे भी उद्दव यह दांव ना खेलते तो शिवसेना की ताकत कम ही होती क्योकि पहली बार बालासाहेब ठाकरे की 50 बरस की सियासत पर मोदी मंत्र भारी है यह बीजेपी मान कर चल भी रही है और उसे भरोसा भी है कि महाराष्ट्र की राजनीति में उसके बिना शिवसेना हाशिये पर जा चुकी है। हालांकि एक सच यह भी है कि बालासाहेब ठाकरे ने कभी नरेन्द्र मोदी की तारीफ इस रुप में नहीं कि की वह पीएम बन सकते हैं। और जब बीजेपी के भीतर पीएम पद को लेकर संघर्ष चल भी रहा था तब बालासाहेब ने मोदी का नहीं सुषमा स्वराज का नाम लिया था। वैसे शिवसेना ही नहीं बल्कि बीजेपी के भीतर का एक बड़ा तबका मानता है कि प्रधानमंत्री मोदी कभी चाहते ही नहीं थे कि शिवसेना से गठबंधन रहे। क्योंकि लोकसभा जीत के बाद अपने बूते महाराष्ट्र जीता जा सकता है यह पाठ बीजेपी के भीतर दिल्ली से मुबंई तक बार बार पढ़ा गया। सवाल सिर्फ इस पाठ को परीक्षा में उतारने का था। और इसके लिये दिन वही चुना गया जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका रवाना हो जाये । इसलिये 25 सिंतबर की शाम 4 बजे प्रदानमंत्री मोदी के दिल्ली से न्यूयार्क रवाना होने से ठीक दस मिनट पहले मुबंई में बीजेपी नेता खुलकर सामने आ गये और शिवसेना से गठबंधन टूटने के खुले संकेत दे दिये । हिन्दुत्व का राग अलापते अलापते महाराष्ट्र में बने इस गठबंधन के टूटने का खुला संकेत संघ परिवार के भीतर यही गया कि दिल्ली नहीं चाहता ता कि शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लडे तो गठबंधन टूट गया। हालांकि दिल्ली की थ्योरी में शिवसेना से मोदी या अमित शाह के ना पटने से कहीं ज्यादा जीत का पक्का भरोसा जताना रहा। राज्य ईकाई के आंकड़ों का जिक्र कर बीजेपी ने अपने बूते सवा सौ सौट जीतने का जिक्र किया। जिसमें विदर्भ की 62 में 45 सीटों, मराठवाडा की 47 में से 17 , उत्तर महाराषट्र की 47 सीटे में से 30 सीट, पश्चिम महाराष्ट्र की 58 में 17 और मुबंई की 36 में से 15 सीटें पर पक्की जीत का दावा किया गया। यानी आधार कही ना कही लोकसभा चुनाव की सफलता को ही रखा गया। खास बात यह भी है कि बीजेपी के इन आंकडों पर संघ के भीतर अब यह कसमसाहट है कि लोकसभा चुनाव के वक्त तो संघ का हर स्वयंसेवक वोट मांगने निकला था। राजनीतिक सक्रियता पैदा करने निकला था ।
लेकिन महाराष्ट्र चुनाव के वक्त तो संघ का कोई स्वयंसेवक नहीं निकलेगा तो खुद ही तय हो जायेगा कि बीजेपी का आधार है कितना मजबूत। वहीं गठबंधन टूटने के पीछे की वजहों की कयास में महाराष्ट्र की उस तिकड़ी का नाम भी है जो आधार वाले नेता हैं। पैसे वालों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। और अपनी अपनी सियासत के घेरे में सबसे ताकतवर भी हैं। इनमें पहला नाम शरद पवार का है । जो कांग्रेस के किसी हालत में पनपने देना नहीं चाहते हैं। दूसरे राजठाकरे हैं । जो गठबंधन के दौर में हर सौदेबाजी के दायरे से बाहर हो जाते । और तीसरे नीतिन गडकरी है । जो महाराष्ट्र में बीजेपी के सबसे ताकतवर चेहरे हैं। लेकिन गठबंधन बरकरार रहता तो इनकी जरुरत किसी को ना होती । और संयोग ऐसा है कि यह तीनों के आपसी संबंध भी है । और तीनो चुनाव के बाद किसी भी सरकार को बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। यह किसी से छुपा भी नहीं है। तो गठबंधन का टूटना अपनी अपनी बिसात पर खुद को प्यादे से वजीर बनाने या मानने की खूबसूरत कवायद से इतर कुछ भी नहीं। असल वजीर तो चुनावी के बाद की बिसात पर सरकार बनाने वाले की चाल से तय होगा। फिलहाल तो हर नजर में दूसरे को लेकर शक-शुबहा है।
Saturday, September 27, 2014
Wednesday, September 24, 2014
जो आज सही है वह 2035 में गलत हो सकता है !
21 बरस गुजर गये। देश ने पांच प्रधानमंत्रियों को देख लिया। और इस दौर में कमोवेश देश के हर राजनीतिक दल ने सत्ता का स्वाद चखा। लेकिन कभी किसी ने राष्ट्रीय संपदा कोयला की लूट पर कोई सवाल नहीं उठाया। जिन 214 खादानों के आंवटन को रद्द किया गया है, उनमें से पीवी नरसिंह राव के दौर में 5 खादान का आबंटन हुआ। 4 खादानों का आबंटन देवेगौडा के दौर में हुआ । आईके गुजराल पीएम बने तो उस दौर में कोई खादान आबंटन नहीं हुआ । लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में 30 खादानो का आबंटन हुआ । और जिस दौर को सीएजी ने एक लाख 86 हजार करोड़ के राजस्व के चूना लगने की बात अपनी रिपोर्ट में कही वह मनमोहन सिंह का दौर था। उस दौर में 1759 खादान आंवटित किये गये । जिनमें से 175 खादानों के आंवटन को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया है। यानी सरकारें आती रही जाती रही और जैसे ही देश में पावर प्रोजेक्ट सबसे बडे मुनाफे के धंधे में बदला वैसे ही कोयला खादानों की लूट का सिलसिला भी इस तरीके से चल पड़ा कि सरकार के हर करीबी रईस ने अपने नाम कोयला खादान करवाना चाहा। असर इसी का हुआ कि जिन कंपनियो को ना तो
कोयला खदानो का कोई अनुभव था या फिर जिनके पास ना पावर प्लांट था उन्होंने कोयले की भारी मांग को देखते हुये कोयला खादान मुनाफा बनाने- कमाने के लिये अपने नाम करवा लिया। ऐसी 24 कंपनियां हैं, जिनके पास कोई पावर प्रोजेक्ट का नहीं है । लेकिन उन्हे खादान मिल गयी । 42 कंपनिया एसी है जिन्होंने खादानो की तरफ कभी झांका भी नहीं। लेकिन खादान अपने नाम कर खादान बेचने में लग गयी। यानी लूट हुई है इसपर पहली अंगुली सीएजी ने उठायी तो अब फैसला सुप्रीम कोर्ट ने दे दिया। लेकिन असल सवाल यही है कि सरकार की अगर कोई नीति बीस बरस बाद आदालत के निर्देश पर खारिज होती है । या फिर सरकार को बीते 20 बरस के फैसले रद्द करने पड़ते हैं तो फिर जिन निवेशकों ने सरकारी नीति के तहत पूंजी लगायी वह अब क्या करेंगे। जिन बैकों ने पावर प्लांट के लिये कंपनियो को उधारी दी अब उन्हें वापस पैसा कैसे मिलेगा। और जिन्होने कोयला खादान मिलने पर पावर प्लांट लगा लिया उनकी पूंजी का क्या होगा।
यानी मुसीबत दोहरी है। एक तरफ सरकारों की लूट है तो दूसरी तरफ विकास की नीति फेल है । और यह हालात बताते है कि सरकारें यह मान कर चलती है कि कारपोरेट या उङोगपति सरकारी लूट का हिस्सा बनते है तभी उन्हे मुनाफा मिलता है और कौडियों के मोल राष्ट्रीय संपदा की लूट होती है। यानी बनाना रिपब्लिक की तर्ज पर कोयला खादान नीति बीते 21 बरस से देश में चलती रही और हर किसी ने आंखें मूंदी रखी। पूंजीपति उगोगपतियों को सरकार की नीति से लाभ होता है तो ही वह पैसा लगाते हैं और जब नीतियां ही फ्रॉड साबित हो जाये तो फिर विकास की नयी नीति के तहत खड़े होने से नहीं कतराते। इसलिये यह कोई समझ नहीं पा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पावर प्रोजेक्ट के लिये दिये गये 3 लाख करोड़ का बैक को चूना लगेगा। पावर कंपनियो को करीब 2.86 लाख करोड़ का नुकसान होगा। तो फिर यह हालात आये कैसे और कैसे विकास की लहर में भारत खुला बाजार बन गया। तो याद कीजिये 1979 में बनी फिल्म कालापत्थर को। जिसमें कोयला खदानो से मुनाफा बनाने के लिये निजी मालिक मजदूरो की जिन्दगी दांव पर लगाता है। असल में यह फिल्म भी झारखंड की उस चासनाला कोयला खादान के हादसे पर बनी थी, जिसमें कोयला निकालते सैकड़ों मजदूरों की मौत खादान में पानी भरने से हुई थी। और जांच रिपोर्ट में यह पाया गया था कि कोयला निकालने का काम खादान में जारी रखने पर पानी भर सकता है, इसकी जानकारी भी पहले से खादान मालिक
को थी। असल में निजी कोयला खादानो में मजदूरों के शोषण को देखकर ही 1972 में इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया। और 1973 से लेकर 1993 तक कोई खानाद निजी हाथों में सौपी नहीं गयी । और 1993 तक कोयला निकालने का अधिकार सिर्फ कोल इंडिया को ही था।
लेकिन 1993 में बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कोल इंडिया के सामने यह लकीर खींच दी कि सरकार कोल इंडिया को अब मदद नहीं देगी बल्कि वह अपनी कमाई से ही कोल इंडिया चलाये तो 1993 से कोल इंडिया भी ठेकेदारी पर कोयला खादान में काम कराने लगा और मजदूरों के शोषण या ठेकेदारी के मातहत काम करने वाले मजदूरों के हालात कितने बदतर है, यह आज भी झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश में देखा जा सकता है। यानी आर्थिक सुधार की बयार में यह मान लिया गया कि कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण से सरकार को कोई लाभ मनमोहन की इक्नामिक थ्योरी तले देश को हो नहीं सकता। यानी देश के खदान मजदूरों को लेकर जो भी खाका सरकार ने खींचा, वह खुली अर्थव्यवस्था में फेल मान लिया गया। क्योंकि ठेकेदारी प्रथा ज्यादा मुनाफा देने की स्थिति में है। और यही से शुरु हुआ निजी हाथो में कोयला खादान की बंदरबाट । 10 अगस्त 1993 में बंगाल के सरीसाटोली की खादान आरपीजी इंडस्ट्री और सीईएससी लिमिटेड को साझा तोर पर दी गयी। उसके बाद दूसरी खादान 24 फरवरी 94 को उडीसा के तालाबिरा में हिडाल्को को दी गयी। और उसके बाद सरकारें बदलती रही लेकिन कोयला खादान आवंटन में कोई रोक नहीं लगी। मनमोहन सिंह के पीएम बनने के बाद तो खादान बांटने में गजब की रफ्तार आयी। 342 खदानों के लाइसेंस बांटे गये, जिसमें 101 लाइसेंसधारको ने कोयला का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिये लिया। लेकिन इन दौर में इन्हीं कोयला खादानो के जरीये कोई पावर प्लांट नया नही आ पाया। और इन खदानो से जितना कोयला निकाला जाना था, अगर उसे जोड़ दिया जाये तो देश में कही भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिये। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
देश का हाल समझे तो खादान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर अंडरवियर-जांघिया बेचने वाली कंपनियां भी हैं और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी। इतना ही
नहीं दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें न तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और न ही कभी खादान से कोयला निकालवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाईसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरैनी के करीब एस्सार ग्रुप तीन पावर प्लांट को खरीदने के लिये सौदेबाजी कर रही है, जिनके पास खादान और पावरप्लाट का लाइसेंस है, लेकिन वह पावर सेक्टर को व्यापार के जरीये मुनाफा बनाने का खेल समझती है। वहीं बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर उड़ीसा तक कुल 9 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कामर्शियल यूज के लिये कोयला खदानों का लाइसेंस लिया है। और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कारपोरेट घरानों को बेच रहा है, जिन्हें कोयले की जरुरत है। इस पूरी फेहरिस्त में श्री बैघनाथ आयुर्वेद भवन लिं, जय बालाजी इडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लिं, महावीर फेरो, प्रकाश इडस्ट्री समेत 42 कंपनियां ऐसी हैं, जिन्होंने कोयला खादान का लाइसेंस लिया है लेकिन उन्होंने कभी खदानों की तरफ झांका भी नहीं। और इनके पास कोई अनुभव न तो खादानों को चलाने का है और न ही खदानों के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाईसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियों के समूह के जरीये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यों दिखायी । और अब जब सुप्रीम कोर्ट ने खादान आवंटन को गलत मान कर हर आवटंन रद्द कर दिया है तो फिर इसके दोषियों को क्या सजा होगी । क्या कोई जेल जायेगा । क्योकि हर निर्णय ग्रूप आफ मिनिस्टर ने लिये । यानी सरकारें की अपराध कर रही थी तो फिर आने वाले वक्त में कौन यह मान कर चले कि अभी जो विकास की चकाचौंध विदेशी-देशी निवेश से दिखायी जा रही है कल वह भी गलत साबित नहीं होगी। यानी मोदी सरकार की नीतिया भी 20135 में गलत साबित हो सकती है ।
तो फिर इस देश में कौन पैसा लगायेगा या फिर हर कोई पैसा इसीलिये लगायेगा क्योंकि नीतियां चाहे गलत हो। राजस्व की लूट चाहे हुई हो । दोषी कोई होता नहीं। सजा किसी को होती नहीं।
कोयला खदानो का कोई अनुभव था या फिर जिनके पास ना पावर प्लांट था उन्होंने कोयले की भारी मांग को देखते हुये कोयला खादान मुनाफा बनाने- कमाने के लिये अपने नाम करवा लिया। ऐसी 24 कंपनियां हैं, जिनके पास कोई पावर प्रोजेक्ट का नहीं है । लेकिन उन्हे खादान मिल गयी । 42 कंपनिया एसी है जिन्होंने खादानो की तरफ कभी झांका भी नहीं। लेकिन खादान अपने नाम कर खादान बेचने में लग गयी। यानी लूट हुई है इसपर पहली अंगुली सीएजी ने उठायी तो अब फैसला सुप्रीम कोर्ट ने दे दिया। लेकिन असल सवाल यही है कि सरकार की अगर कोई नीति बीस बरस बाद आदालत के निर्देश पर खारिज होती है । या फिर सरकार को बीते 20 बरस के फैसले रद्द करने पड़ते हैं तो फिर जिन निवेशकों ने सरकारी नीति के तहत पूंजी लगायी वह अब क्या करेंगे। जिन बैकों ने पावर प्लांट के लिये कंपनियो को उधारी दी अब उन्हें वापस पैसा कैसे मिलेगा। और जिन्होने कोयला खादान मिलने पर पावर प्लांट लगा लिया उनकी पूंजी का क्या होगा।
यानी मुसीबत दोहरी है। एक तरफ सरकारों की लूट है तो दूसरी तरफ विकास की नीति फेल है । और यह हालात बताते है कि सरकारें यह मान कर चलती है कि कारपोरेट या उङोगपति सरकारी लूट का हिस्सा बनते है तभी उन्हे मुनाफा मिलता है और कौडियों के मोल राष्ट्रीय संपदा की लूट होती है। यानी बनाना रिपब्लिक की तर्ज पर कोयला खादान नीति बीते 21 बरस से देश में चलती रही और हर किसी ने आंखें मूंदी रखी। पूंजीपति उगोगपतियों को सरकार की नीति से लाभ होता है तो ही वह पैसा लगाते हैं और जब नीतियां ही फ्रॉड साबित हो जाये तो फिर विकास की नयी नीति के तहत खड़े होने से नहीं कतराते। इसलिये यह कोई समझ नहीं पा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पावर प्रोजेक्ट के लिये दिये गये 3 लाख करोड़ का बैक को चूना लगेगा। पावर कंपनियो को करीब 2.86 लाख करोड़ का नुकसान होगा। तो फिर यह हालात आये कैसे और कैसे विकास की लहर में भारत खुला बाजार बन गया। तो याद कीजिये 1979 में बनी फिल्म कालापत्थर को। जिसमें कोयला खदानो से मुनाफा बनाने के लिये निजी मालिक मजदूरो की जिन्दगी दांव पर लगाता है। असल में यह फिल्म भी झारखंड की उस चासनाला कोयला खादान के हादसे पर बनी थी, जिसमें कोयला निकालते सैकड़ों मजदूरों की मौत खादान में पानी भरने से हुई थी। और जांच रिपोर्ट में यह पाया गया था कि कोयला निकालने का काम खादान में जारी रखने पर पानी भर सकता है, इसकी जानकारी भी पहले से खादान मालिक
को थी। असल में निजी कोयला खादानो में मजदूरों के शोषण को देखकर ही 1972 में इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया। और 1973 से लेकर 1993 तक कोई खानाद निजी हाथों में सौपी नहीं गयी । और 1993 तक कोयला निकालने का अधिकार सिर्फ कोल इंडिया को ही था।
लेकिन 1993 में बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कोल इंडिया के सामने यह लकीर खींच दी कि सरकार कोल इंडिया को अब मदद नहीं देगी बल्कि वह अपनी कमाई से ही कोल इंडिया चलाये तो 1993 से कोल इंडिया भी ठेकेदारी पर कोयला खादान में काम कराने लगा और मजदूरों के शोषण या ठेकेदारी के मातहत काम करने वाले मजदूरों के हालात कितने बदतर है, यह आज भी झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश में देखा जा सकता है। यानी आर्थिक सुधार की बयार में यह मान लिया गया कि कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण से सरकार को कोई लाभ मनमोहन की इक्नामिक थ्योरी तले देश को हो नहीं सकता। यानी देश के खदान मजदूरों को लेकर जो भी खाका सरकार ने खींचा, वह खुली अर्थव्यवस्था में फेल मान लिया गया। क्योंकि ठेकेदारी प्रथा ज्यादा मुनाफा देने की स्थिति में है। और यही से शुरु हुआ निजी हाथो में कोयला खादान की बंदरबाट । 10 अगस्त 1993 में बंगाल के सरीसाटोली की खादान आरपीजी इंडस्ट्री और सीईएससी लिमिटेड को साझा तोर पर दी गयी। उसके बाद दूसरी खादान 24 फरवरी 94 को उडीसा के तालाबिरा में हिडाल्को को दी गयी। और उसके बाद सरकारें बदलती रही लेकिन कोयला खादान आवंटन में कोई रोक नहीं लगी। मनमोहन सिंह के पीएम बनने के बाद तो खादान बांटने में गजब की रफ्तार आयी। 342 खदानों के लाइसेंस बांटे गये, जिसमें 101 लाइसेंसधारको ने कोयला का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिये लिया। लेकिन इन दौर में इन्हीं कोयला खादानो के जरीये कोई पावर प्लांट नया नही आ पाया। और इन खदानो से जितना कोयला निकाला जाना था, अगर उसे जोड़ दिया जाये तो देश में कही भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिये। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
देश का हाल समझे तो खादान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर अंडरवियर-जांघिया बेचने वाली कंपनियां भी हैं और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी। इतना ही
नहीं दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें न तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और न ही कभी खादान से कोयला निकालवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाईसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरैनी के करीब एस्सार ग्रुप तीन पावर प्लांट को खरीदने के लिये सौदेबाजी कर रही है, जिनके पास खादान और पावरप्लाट का लाइसेंस है, लेकिन वह पावर सेक्टर को व्यापार के जरीये मुनाफा बनाने का खेल समझती है। वहीं बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर उड़ीसा तक कुल 9 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कामर्शियल यूज के लिये कोयला खदानों का लाइसेंस लिया है। और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कारपोरेट घरानों को बेच रहा है, जिन्हें कोयले की जरुरत है। इस पूरी फेहरिस्त में श्री बैघनाथ आयुर्वेद भवन लिं, जय बालाजी इडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लिं, महावीर फेरो, प्रकाश इडस्ट्री समेत 42 कंपनियां ऐसी हैं, जिन्होंने कोयला खादान का लाइसेंस लिया है लेकिन उन्होंने कभी खदानों की तरफ झांका भी नहीं। और इनके पास कोई अनुभव न तो खादानों को चलाने का है और न ही खदानों के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाईसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियों के समूह के जरीये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यों दिखायी । और अब जब सुप्रीम कोर्ट ने खादान आवंटन को गलत मान कर हर आवटंन रद्द कर दिया है तो फिर इसके दोषियों को क्या सजा होगी । क्या कोई जेल जायेगा । क्योकि हर निर्णय ग्रूप आफ मिनिस्टर ने लिये । यानी सरकारें की अपराध कर रही थी तो फिर आने वाले वक्त में कौन यह मान कर चले कि अभी जो विकास की चकाचौंध विदेशी-देशी निवेश से दिखायी जा रही है कल वह भी गलत साबित नहीं होगी। यानी मोदी सरकार की नीतिया भी 20135 में गलत साबित हो सकती है ।
तो फिर इस देश में कौन पैसा लगायेगा या फिर हर कोई पैसा इसीलिये लगायेगा क्योंकि नीतियां चाहे गलत हो। राजस्व की लूट चाहे हुई हो । दोषी कोई होता नहीं। सजा किसी को होती नहीं।
Monday, September 22, 2014
राजधर्म की राह से शिवसेना भटक रही है या बीजेपी ?
शह-मात के खेल में संघ की साख भी दांव पर
शिवसेना-बीजेपी के शह मात के खेल में पहली बार राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की साख भी दांव पर लग गयी है। जिस राजधर्म के आसरे आरएसएस ने बालासाहेब ठाकरे को ना सिर्फ मान्यता दी बल्कि बाबरी मस्जिद विध्वस के स्वयभू नायक बने बालासाहेब ठाकरे को अयोध्या रामरथयात्रा के राम लालकृष्ण आडवाणी से ज्यादा सराहा। उसी राजधर्म को सत्ताधर्म के सामने टूटने की आहट ने संघ को बैचेन कर दिया है । लेकिन संघ की मुश्किल दोहरी है एक तरफ सवाल राजधर्म का है तो दूसरी तरफ चुनाव को जीत में बदलने का हुनरमंद मान चुके अमित शाह को बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाने के बाद लगातार तीन उपचुनाव में हार के बाद पहले हरियाणा तो अब महाराष्ट्र में गठबंधन तोड़ कर जीतने के हुनर पर संघ का ही भरोसा डगमगा रहा है। इसीलिये संकेत की भाषा में संघ राजधर्म बचाकर सत्ता का स्वाद लेने का मंत्र लगातार दे रहा है। लेकिन रास्ता जिसतरह जुदा हो रहा है उसमें हर सवाल वहीं जाकर रुक रहा है कि राजधर्म ताक पर रख चुनावी जीत हासिल करनी चाहिये या फिर राजधर्म के आसरे शिवसेना को साथ लेकर चलना चाहिये। यह सवाल संघ परिवार के भीतर इसलिये बड़ा है क्योकि चाहे अय़ोध्या आंदोलन का दौर हो चाहे 1993 में मुंबई सीरियल ब्लास्ट के बाद के हालात या फिर हिन्दुत्व के रास्ते मुस्लिमों को निशाने पर लेने वाले हालात। हर वक्त हर दौर में शिवसेना और बीजेपी एक साथ ही रही। और हर मुद्दे को राजधर्म से जोडकर दोनो ने सियासी चालों को एकसाथ चलना सीखा। और इसके लिये मराठी मानुष के आंदोलन को छोड़ शिवसेना पहली बार 1990 के मैदान में अयोध्या आंदोलन का नाम जपते हुये लड़ी। उस वक्त आरएसएस के लिये यह बडी बात थी कि शिवसेना उसके साथ खड़ी है। इसलिये 1990 में शिवसेना 183 सीट पर लडी और बीजेपी 104 सीट पर। फिर बाबरी मस्जिद विध्वस के बाद आडवाणी शोक मनाने लगे बालासाहेब ठाकरे ताल ठोंक कर कहने से नहीं चुके कि उन्होने विध्वंस किया। संघ परिवार ने भी कभी शोक या माफी के शब्दों का प्रयोग बाबरी मस्जिद को लेकर नहीं किया य़ानी सियासत के लिहाज से संघ की सोच से कही ज्यादा नजदीक शिवसेना ही रही। ठाकरे तो आडवाणी ही नहीं शंग से निकले राजनीतिक स्वयंसेवकों से कई कदम आगे बढ़कर खुद को हिन्दू ह्रदय सम्राट कहने से नहीं कतराये और दूसरी तरफ वीएचपी के नारे , 'गर्व से कहो हम हिन्दु है', को शिवसेना का नारा बना दिया। इसलिये दिल्ली में तब चाहे वाजपेयी-आडवाणी की हवा हो लेकर महाराष्ट्र में तब भी शिवसेना ने अपना कद बड़ा रखा और 1995 में बीजेपी को सिर्फ 116 सीट दी और शिवसेना 169 सीट पर लडी ।
और चूंकि 1995 में शिवसेना बीजेपी गठबंधन को सत्ता मिली और उसके बाद 1999,2004,2009 में लगातार हार ही मिली तो सीट समीकरण का फार्मूला भी 1995 से आगे ना निकला ना बदला। और ना ही हिन्दुत्व के मुद्दे पर शिवसेना कभी बीजेपी के पीछे खड़ी नजर आयी और ना ही बीजेपी ने कभी किसी मुद्दे पर शिवसेना को पीछे छोड़ा। लेकिन पहली बार हिन्दुत्व राष्ट्रवाद और हिन्दु धर्म के बीच सियासत का ऐसा राजधर्म शिवसेना और बीजेपी के बीच आ खडा हुआ है, जहां बीजेपी मान कर चल रही है कि महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन का मंत्र उसके पास है। और शिवसेना मान कर चल रही है कि सत्ता बदलने की ताकत शिवसैनिकों के पास है । यानी राजधर्म का गठबंधन पहली बार सत्ताधर्म में ऐसा उलझा है कि दोनों को आपसी सहयोग से ज्यादा अपनी सियासी चालो पर ही भरोसा हो रहा है। ध्यान दें तो पहली बार राजधर्म वाले प्रिय शब्द का जिक्र ना तो शिवसेना कर रही है ना ही बीजेपी। दोनों सत्ताधर्म की दुहाई दे रहे है। और सत्ता का मतलब है क्या यह किसी से छुपा नहीं है। क्योंकि मुंबई की चकाचौध हो या फिर मुफलिसी। रफ्तार से दौडती जिन्दगी हो या चीटी की तरह रेंग कर चलता ट्रैफिक। बरसात में डूबने वाली मुंबई हो या घर की छत पर हेलीकाप्टर उतरने वाली आलीशान बिल्डिंग। मुंबई को संवारने का जिम्मा पाले बीएमसी पर कब्जा शिवसेना का है । जिसका सालाना बजट 31175 करोड़ का है। वही समूचे महाराष्ट् की सत्ता का मतलब है 175325 करोड़ का बजट। और याद किजिये तो काग्रेस एनसीपी सरकार के दौर में भूमि घोटाला हो या सिंचाई घोटाला। खेल लाखों करोड़ का हुआ। बीते पांच बरस में ही दो लाख करोड़ के कई घोटालो के दायरे में सत्ता आयी। और बीते 15 बरस से सत्ता संभाले काग्रेस एनसीपी के बीच हमेशा झगडा उन नीतियों को लेकर हुआ जिसका बजट ज्यादा था और उनके नेताओं के पसंदीदा कार्यकर्ता या नेता को लाभ ना मिल रहा हो। यह कितना मायने रखता है यह चुनाव के नोटिफिकेशन से महीने भर पहले काग्रेसी सीएम की निपटायी फाइलों से समझा जा सकता है जो उन योजनाओं से ही ज्यादा जुड़ी थी, जहां सबसे ज्यादा पैसा था। असल सवाल यही से शुरु होता कि आखिर शिवसेना को महाराष्ट्र की सत्ता क्यों चाहिये। वह भी ठाकरे परिवार ने चुनाव से पहले ही सीधे क्यों कह दिया कि इस बार वह सीएम बनना चाहते है। और बीजेपी यह क्यों नहीं पचा पा रही है कि ठाकरे परिवार की रुचि अगर सत्ता संभालने में है तो फिर वह विरोध क्यों कर रही है। तो सत्ता का मतलब है महाराष्ट्र के समूचे खर्च पर कब्जा। और शिवसेना हो या बीजेपी दोनो ही महाराष्ट्र की सत्ता से बीते 15 बरस से बाहर ही है।
बीजेपी तो फिर भी राष्ट्रीय पार्टी है और उसके नेता या कार्यकर्तओ को पार्टी फंड से पैसा मिल जाता है जिससे पार्टी कैडर बरकरार रहे और काम करता रहे। लेकिन शिवसेना की उलझन यह है कि उसकी पहुंच पकड़
सिर्फ महाराष्ट्र में है। और महाराष्ट्र में ही जब सत्ता परिवर्तन की हवा चल रही है तो फिर सीएम पद अगर शिवसेना को नहीं मिलेगा तो शिवसैनिकों का हुजुम कितने दिन शिवसेना के साथ रहेगा। यानी महाराष्ट्र की सत्ता शिवसेना के लिये जीवन-मरण के सामान है । लेकिन बीजेपी का लोभ दिल्ली की सत्ता की हवा में हर राज्य को समेटने की चाहत है । इसीलिये हरियाणा में सहयोगी विश्नोई को बीजेपी ने ठेंगा दिखाने में देरी नहीं की । और -महाराष्ट्र में उद्दव ठाकरे की जिद भी बीजेपी को खारिज करने में देरी नहीं लगी। असर इसी का है कि शिवसेना गठबंधन में रहते हुये मिशन 150 पर निकल पड़ी है। और बीजेपी एक बूथ 10 यूथ का नारा लगाने लगी है । और अगर शिवसेना को यह लगने लगा है कि बालासाहेब ठाकरे की विरासत को मोदी मंत्र हडप लेगा तो फिर महाराष्ट्र की सियासत में खामोश राज ठाकरे का उदय एक तरीके से हो सकता है और यह सक्रियता कही ना कही बीजेपी के सियासी पाठ से टकराने के लिये दिल्ली से लेकर मुबंई तक नये तरीके से मथेगी। क्योंकि जो राज ठाकरे हजार दुश्मनी के बाद भी उद्दव ठाकरे के दिल के आपरेशन के वक्त अस्पताल चले गये वह ठाकरे की विरासत को जीवित रखने के लिये कब कैसे किसके साथ चले जायेंगे इसके लिये 24 सितंबर के सबह 11 बजे तक का इंतजार करना ही होगा । जब पित्तृ पक्ष खत्म होगा और शुभ मुहर्त शुरु होगा।
शिवसेना-बीजेपी के शह मात के खेल में पहली बार राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की साख भी दांव पर लग गयी है। जिस राजधर्म के आसरे आरएसएस ने बालासाहेब ठाकरे को ना सिर्फ मान्यता दी बल्कि बाबरी मस्जिद विध्वस के स्वयभू नायक बने बालासाहेब ठाकरे को अयोध्या रामरथयात्रा के राम लालकृष्ण आडवाणी से ज्यादा सराहा। उसी राजधर्म को सत्ताधर्म के सामने टूटने की आहट ने संघ को बैचेन कर दिया है । लेकिन संघ की मुश्किल दोहरी है एक तरफ सवाल राजधर्म का है तो दूसरी तरफ चुनाव को जीत में बदलने का हुनरमंद मान चुके अमित शाह को बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाने के बाद लगातार तीन उपचुनाव में हार के बाद पहले हरियाणा तो अब महाराष्ट्र में गठबंधन तोड़ कर जीतने के हुनर पर संघ का ही भरोसा डगमगा रहा है। इसीलिये संकेत की भाषा में संघ राजधर्म बचाकर सत्ता का स्वाद लेने का मंत्र लगातार दे रहा है। लेकिन रास्ता जिसतरह जुदा हो रहा है उसमें हर सवाल वहीं जाकर रुक रहा है कि राजधर्म ताक पर रख चुनावी जीत हासिल करनी चाहिये या फिर राजधर्म के आसरे शिवसेना को साथ लेकर चलना चाहिये। यह सवाल संघ परिवार के भीतर इसलिये बड़ा है क्योकि चाहे अय़ोध्या आंदोलन का दौर हो चाहे 1993 में मुंबई सीरियल ब्लास्ट के बाद के हालात या फिर हिन्दुत्व के रास्ते मुस्लिमों को निशाने पर लेने वाले हालात। हर वक्त हर दौर में शिवसेना और बीजेपी एक साथ ही रही। और हर मुद्दे को राजधर्म से जोडकर दोनो ने सियासी चालों को एकसाथ चलना सीखा। और इसके लिये मराठी मानुष के आंदोलन को छोड़ शिवसेना पहली बार 1990 के मैदान में अयोध्या आंदोलन का नाम जपते हुये लड़ी। उस वक्त आरएसएस के लिये यह बडी बात थी कि शिवसेना उसके साथ खड़ी है। इसलिये 1990 में शिवसेना 183 सीट पर लडी और बीजेपी 104 सीट पर। फिर बाबरी मस्जिद विध्वस के बाद आडवाणी शोक मनाने लगे बालासाहेब ठाकरे ताल ठोंक कर कहने से नहीं चुके कि उन्होने विध्वंस किया। संघ परिवार ने भी कभी शोक या माफी के शब्दों का प्रयोग बाबरी मस्जिद को लेकर नहीं किया य़ानी सियासत के लिहाज से संघ की सोच से कही ज्यादा नजदीक शिवसेना ही रही। ठाकरे तो आडवाणी ही नहीं शंग से निकले राजनीतिक स्वयंसेवकों से कई कदम आगे बढ़कर खुद को हिन्दू ह्रदय सम्राट कहने से नहीं कतराये और दूसरी तरफ वीएचपी के नारे , 'गर्व से कहो हम हिन्दु है', को शिवसेना का नारा बना दिया। इसलिये दिल्ली में तब चाहे वाजपेयी-आडवाणी की हवा हो लेकर महाराष्ट्र में तब भी शिवसेना ने अपना कद बड़ा रखा और 1995 में बीजेपी को सिर्फ 116 सीट दी और शिवसेना 169 सीट पर लडी ।
और चूंकि 1995 में शिवसेना बीजेपी गठबंधन को सत्ता मिली और उसके बाद 1999,2004,2009 में लगातार हार ही मिली तो सीट समीकरण का फार्मूला भी 1995 से आगे ना निकला ना बदला। और ना ही हिन्दुत्व के मुद्दे पर शिवसेना कभी बीजेपी के पीछे खड़ी नजर आयी और ना ही बीजेपी ने कभी किसी मुद्दे पर शिवसेना को पीछे छोड़ा। लेकिन पहली बार हिन्दुत्व राष्ट्रवाद और हिन्दु धर्म के बीच सियासत का ऐसा राजधर्म शिवसेना और बीजेपी के बीच आ खडा हुआ है, जहां बीजेपी मान कर चल रही है कि महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन का मंत्र उसके पास है। और शिवसेना मान कर चल रही है कि सत्ता बदलने की ताकत शिवसैनिकों के पास है । यानी राजधर्म का गठबंधन पहली बार सत्ताधर्म में ऐसा उलझा है कि दोनों को आपसी सहयोग से ज्यादा अपनी सियासी चालो पर ही भरोसा हो रहा है। ध्यान दें तो पहली बार राजधर्म वाले प्रिय शब्द का जिक्र ना तो शिवसेना कर रही है ना ही बीजेपी। दोनों सत्ताधर्म की दुहाई दे रहे है। और सत्ता का मतलब है क्या यह किसी से छुपा नहीं है। क्योंकि मुंबई की चकाचौध हो या फिर मुफलिसी। रफ्तार से दौडती जिन्दगी हो या चीटी की तरह रेंग कर चलता ट्रैफिक। बरसात में डूबने वाली मुंबई हो या घर की छत पर हेलीकाप्टर उतरने वाली आलीशान बिल्डिंग। मुंबई को संवारने का जिम्मा पाले बीएमसी पर कब्जा शिवसेना का है । जिसका सालाना बजट 31175 करोड़ का है। वही समूचे महाराष्ट् की सत्ता का मतलब है 175325 करोड़ का बजट। और याद किजिये तो काग्रेस एनसीपी सरकार के दौर में भूमि घोटाला हो या सिंचाई घोटाला। खेल लाखों करोड़ का हुआ। बीते पांच बरस में ही दो लाख करोड़ के कई घोटालो के दायरे में सत्ता आयी। और बीते 15 बरस से सत्ता संभाले काग्रेस एनसीपी के बीच हमेशा झगडा उन नीतियों को लेकर हुआ जिसका बजट ज्यादा था और उनके नेताओं के पसंदीदा कार्यकर्ता या नेता को लाभ ना मिल रहा हो। यह कितना मायने रखता है यह चुनाव के नोटिफिकेशन से महीने भर पहले काग्रेसी सीएम की निपटायी फाइलों से समझा जा सकता है जो उन योजनाओं से ही ज्यादा जुड़ी थी, जहां सबसे ज्यादा पैसा था। असल सवाल यही से शुरु होता कि आखिर शिवसेना को महाराष्ट्र की सत्ता क्यों चाहिये। वह भी ठाकरे परिवार ने चुनाव से पहले ही सीधे क्यों कह दिया कि इस बार वह सीएम बनना चाहते है। और बीजेपी यह क्यों नहीं पचा पा रही है कि ठाकरे परिवार की रुचि अगर सत्ता संभालने में है तो फिर वह विरोध क्यों कर रही है। तो सत्ता का मतलब है महाराष्ट्र के समूचे खर्च पर कब्जा। और शिवसेना हो या बीजेपी दोनो ही महाराष्ट्र की सत्ता से बीते 15 बरस से बाहर ही है।
बीजेपी तो फिर भी राष्ट्रीय पार्टी है और उसके नेता या कार्यकर्तओ को पार्टी फंड से पैसा मिल जाता है जिससे पार्टी कैडर बरकरार रहे और काम करता रहे। लेकिन शिवसेना की उलझन यह है कि उसकी पहुंच पकड़
सिर्फ महाराष्ट्र में है। और महाराष्ट्र में ही जब सत्ता परिवर्तन की हवा चल रही है तो फिर सीएम पद अगर शिवसेना को नहीं मिलेगा तो शिवसैनिकों का हुजुम कितने दिन शिवसेना के साथ रहेगा। यानी महाराष्ट्र की सत्ता शिवसेना के लिये जीवन-मरण के सामान है । लेकिन बीजेपी का लोभ दिल्ली की सत्ता की हवा में हर राज्य को समेटने की चाहत है । इसीलिये हरियाणा में सहयोगी विश्नोई को बीजेपी ने ठेंगा दिखाने में देरी नहीं की । और -महाराष्ट्र में उद्दव ठाकरे की जिद भी बीजेपी को खारिज करने में देरी नहीं लगी। असर इसी का है कि शिवसेना गठबंधन में रहते हुये मिशन 150 पर निकल पड़ी है। और बीजेपी एक बूथ 10 यूथ का नारा लगाने लगी है । और अगर शिवसेना को यह लगने लगा है कि बालासाहेब ठाकरे की विरासत को मोदी मंत्र हडप लेगा तो फिर महाराष्ट्र की सियासत में खामोश राज ठाकरे का उदय एक तरीके से हो सकता है और यह सक्रियता कही ना कही बीजेपी के सियासी पाठ से टकराने के लिये दिल्ली से लेकर मुबंई तक नये तरीके से मथेगी। क्योंकि जो राज ठाकरे हजार दुश्मनी के बाद भी उद्दव ठाकरे के दिल के आपरेशन के वक्त अस्पताल चले गये वह ठाकरे की विरासत को जीवित रखने के लिये कब कैसे किसके साथ चले जायेंगे इसके लिये 24 सितंबर के सबह 11 बजे तक का इंतजार करना ही होगा । जब पित्तृ पक्ष खत्म होगा और शुभ मुहर्त शुरु होगा।
Friday, September 19, 2014
मोदी का मेड इन इंडिया समझौता
दिल्ली के जिस हैदराबाद हाउस में प्रधानमंत्री मोदी के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिगपिंग ने सीमा पर शांति और स्थिरता बहाली का जिक्र किया संयोग से उसी हैदराबाद हाउस में 56 बरस पहले दलाईलामा को चीन के विरोध के बावजूद नेहरु ने रुकवाया था। और तब चीन ने नेहरु को आधा इंसान और आधा शौतान करार दिया था। यानी चीन चाहता था कि भारत दलाई लामा को वापस लौटाकर अपना आधा शौतान वाला चेहरा साफ कर ले। और संयोग देखिये बुधवार को जब एलएसी को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने आंखे तरेरी जब मुबई में दलाईलामा ने सीमा पर चीन की बढती दखलआंदाजी की वजह तिबब्त पर चीन का कब्जा करार दिया । यानी तिब्बत पर कब्जा करने के बाद चीन ने भारत की सीमा को छुआ और तभी से सिक्कम-अरुणाचल में एलएसी पर चीन की दादगिरी का खुला नजारा शुरु हुआ। लेकिन अब सवाल है कि क्या भारत चीन के बीच लाइन आफ एक्चुअल कन्ट्रोल वाकई नये सीरे से खिंची जा सकेगी। क्या वाकई सीमा की जिस लकीर को लेकर बीते साठ बरस से चीन लगातार खिलवाड़ करता रहा है उसपर चीन सहमति बना लेगा। क्या वाकई मोदी सरकार लाइन आफ एक्चुअल कन्ट्रोल के विवाद को सुलझाने की दिशा में सफल हो रही है। यह ऐसे सवाल है जिसका जबाब भारत में सरकारी तौर पर यह कहकर तो दिया जा सकता है कि पहली बार एलएसी पर खुलकर बात हुई है। लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटें तो 1951 से तिब्बत पर कब्जा करने के बाद से लेकर आज की तारीख तक चीन ने सीमा को कभी माना ही नहीं। या कहे भारत की जमीन पर लगातार घुसपैठ कर बार बार 1962 वाले हालात का डरावना सपना दिखाया या दिल्ली ने हर बार घुसपैठ पर खामोशी बरत 62 के डरावने सपने में ही खुद को ढाल लिया।
1951 में तिब्बत पर कब्जे के वक्त नेहरु चीन के साथ प्राचीन सासंकृतिक संबंधो की दुहाई ही देते रहे। 1954 में पंचशील सिंद्धांत तले भारत चीन से कूटनीति में हारा। 1956 में चीन ने आक्साई चीन पर कब्जा किया तो भी भारत का रुख नरम रहा। 1960 में चीन ने खुले तौर पर नियंत्रण रेखा की परिभाषा नियंत्रित क्षेत्र से की तो भी भारत खामोश रहा। 1962 में चीन ने हमला किया तो भी नेहरु सामना करने के बदले सदमे में रहे । और ध्यान दें तो 62 के युद्द ने भारत को ऐसे तोडा कि लाइन आफ एक्चुअल कन्ट्रोल को लेकर उसके बाद 50 बरस में सैकड़ों मुलाकात और बातचीत का दौर चीन के साथ हुई लेकिन रास्ता कभी निकला नहीं और बीते 10 बरस में बार बार राजनीतिक तौर पर रास्ता निकालने की कोशिश में 17 बैठकें हुई । लेकिन लाइन आफ एक्चुअल कन्ट्रोल पर उस दिन भी वही पुराने घुसपैठ वाले हालात सामने आये जिस दिन चीन के राष्ट्रपति ने भारत में कदम रखा । तो क्या चीन पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता है । या फिर प्रधानमंत्री मोदी के साथ जो बातचीत आज हुई उसका मतलब यही है कि एक बार फिर LAC को लेकर हालात सीमा पर ही टिक गये । यानी दिल्ली या बीजिंग से इतर रास्ता सीमा पर सेना के जरीये ही निकलेगा। यानी नक्शों के आदान प्रदान से लेकर हिमालय और काकोरम में रहने वाले लोगों की भावनाओ समेत नदी, पर्वत, वाटरशेड के मद्देनजर नियंत्रण रेखा तय होनी चाहिय और यह बात बीते 50 बरस से अलग अलग तरीके से कही जा रही है उसमें पीएम मोदी से बातचीत का एक पन्ना और जुड़ गया। या फिर वाकई अगले पांच बरस में जिस तरह चीन भारत में 20 अरब डालर निवेश करेगा उसी तरह अगले पांच बरस में रास्ता निकल जायेगा यह आज तो कम से कम मान लिया जाये।
असल में सबकुछ इतना आसान है नहीं । याद कीजिये तो 1960 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ इन लाई जब दिल्ली पहुंचे तो तत्कालीन उपराष्ट्रपति राधाकृष्णन ने दोस्ती का हाथ बढाते हुये कहा था कि, 40 करोड़ भारतीयों की दोस्ती से आगे 400 वर्ग मील के क्षेत्र क्या मायने रखता है। लेकिन उस वक्त भी चाउ इन लाई का जबाब था कि, 60 करोड़ चीनियों की मित्रता के आगे कुछ हजार एकड़ भूमि का क्या मोल है। यानी जिस एलएसी को लेकर मोदी सरकार खुश है कि मुद्दा सार्वजनिक तौर पर उठा और चीन ने माना तो फिर 25 अप्रैल 1960 को आधी रात में चाउ इन लाई की उस प्रेस कान्फ्रेंस को याद करना चाहिये जो रात एक बजे तक चली थी और उस वक्त चीन के पीएम ने खुलकर सीमा विवाद को माना था और नियंत्रण रेखा को नियत्रित क्षेत्र के जरीये परिभाषित किया था। यानी अपनी विस्तारवादी नीति को भी सीमा विवाद में चीन ने खुले तौर पर जगह दी थी । अब ऐसे में सवाल है कि क्या इन हालात में भारत के पास चीन को कटघरे में खड़ा करने के लिये तिब्बती मुद्दा ही बचा है । क्योकि जिस वक्त चीन के राष्ट्रपति दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से बात कर रहे थे उस वक्त अगर सीमा पर चीनी सैनिको की घुसपैठ हो रही थी तो पहली बार तिब्बती प्रदर्शनकारी भी हैदराबाद हाउस
तक आ पहुंचे । यानी भारत ने भी संकेत दिये अगर एक तरफ सीमा पर चीनी घुसपैठ उसी वक्त जानबूझकर किया जाता है जब चीनी राष्ट्रपति भारत पहुंचे तो फिर तिब्बतियो के जरीये चीन को कटघरे में खड़ा करने का एक पत्ता उसके पास भी है। अगर ऐसा है तो फिर पहला संकेत तो यही है कि भारत की चीन के साथ दोस्ती का नहीं प्रतिस्पर्धा का है। और दूसरा संकेत यही है कि मौजूदा वक्त में जितनी जरुरत भारत को निवेश के लिये चीन की है उतनी ही जरुरत चीन को अपने उत्पाद को खपाने के लिये भारतीय बाजार की है। यानी संबंधो की जो डोर चीन के साथ पंतग में बांध कर उडायी जा रही है उसके पीछे का सच यह भी है कि चीन हर हाल में जापान को दायरे में बांधना चाहता है और अमेरिका को एशियाई घुरी बनने से रोकना चाहता है। वहीं मोदी सरकार कूटनीतिक तौर पर मौजूदा हालात का लाभ निवेश के जरीये उठाना चाहती है । जिससे भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित भी हो और रोजगार भी पैदा हो।
लेकिन समझना यह भी होगा कि इस बरस सितंबर तक चीन करीब साढे तीन बार एलएसी के दायरे को तोड़ भारत में घुसा है और हर बार तनाव का हालात सीमा पर होने है। इनसबके बीच कश्मीर और अरुणाचल के लोगो को स्टेपल वीजा देकर भी विवाद खड़ा किया है। ऐसे में चीन के साथ जो बारह समझौते हुये है उसमे ठोस पांच समझौतो को देखे तो चीन का रास्ता बिना किसी मुश्किल के भारत के भीतर के लिये भी खुल रहा है। मसलन कैलाश मानसरोवर यात्रा का नया मार्ग दोनो देशों की सीमा को खोलता है। जो सिक्किम के नाथू-ला से होकर खुलेगा। मैसूर-चेन्नई के बीच रेल रफ्तार, रेलवे विश्वविद्यालय की स्थापना की भागेदारी सीधे चीन को भारतीय रेल से जोडेगी । 5 बरस में 20 अरब डालर इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश से भारत में रोजगार पैदा जरुर होगा लेकिन भारतीय खनिज संपदा तक सीधी पहुंच भी चीन की होगी। और जो रुकावट अभी तक चीन को लेकर भारत में होती रही है वह चीन के शंघाई और भारत के मुंबई शहरों के बीच ‘सिस्टर सिटी’समझौते और पुणे में औद्योगिक पार्क की स्थापना के साथ कही ज्यादा आसान हो जायेगा। यानी भारत के बाजार में चीनी उत्पाद का लाइसेंस चीन के राष्ट्रपति को मिल चुका है और सीमा पर सेना की घुसपैठ को रोकने का कोई निर्धारित वक्त बी मुहैया नही किया गया है। यानी बाजार में चीनी माल और सीमा पर चीनी सैनिक।
1951 में तिब्बत पर कब्जे के वक्त नेहरु चीन के साथ प्राचीन सासंकृतिक संबंधो की दुहाई ही देते रहे। 1954 में पंचशील सिंद्धांत तले भारत चीन से कूटनीति में हारा। 1956 में चीन ने आक्साई चीन पर कब्जा किया तो भी भारत का रुख नरम रहा। 1960 में चीन ने खुले तौर पर नियंत्रण रेखा की परिभाषा नियंत्रित क्षेत्र से की तो भी भारत खामोश रहा। 1962 में चीन ने हमला किया तो भी नेहरु सामना करने के बदले सदमे में रहे । और ध्यान दें तो 62 के युद्द ने भारत को ऐसे तोडा कि लाइन आफ एक्चुअल कन्ट्रोल को लेकर उसके बाद 50 बरस में सैकड़ों मुलाकात और बातचीत का दौर चीन के साथ हुई लेकिन रास्ता कभी निकला नहीं और बीते 10 बरस में बार बार राजनीतिक तौर पर रास्ता निकालने की कोशिश में 17 बैठकें हुई । लेकिन लाइन आफ एक्चुअल कन्ट्रोल पर उस दिन भी वही पुराने घुसपैठ वाले हालात सामने आये जिस दिन चीन के राष्ट्रपति ने भारत में कदम रखा । तो क्या चीन पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता है । या फिर प्रधानमंत्री मोदी के साथ जो बातचीत आज हुई उसका मतलब यही है कि एक बार फिर LAC को लेकर हालात सीमा पर ही टिक गये । यानी दिल्ली या बीजिंग से इतर रास्ता सीमा पर सेना के जरीये ही निकलेगा। यानी नक्शों के आदान प्रदान से लेकर हिमालय और काकोरम में रहने वाले लोगों की भावनाओ समेत नदी, पर्वत, वाटरशेड के मद्देनजर नियंत्रण रेखा तय होनी चाहिय और यह बात बीते 50 बरस से अलग अलग तरीके से कही जा रही है उसमें पीएम मोदी से बातचीत का एक पन्ना और जुड़ गया। या फिर वाकई अगले पांच बरस में जिस तरह चीन भारत में 20 अरब डालर निवेश करेगा उसी तरह अगले पांच बरस में रास्ता निकल जायेगा यह आज तो कम से कम मान लिया जाये।
असल में सबकुछ इतना आसान है नहीं । याद कीजिये तो 1960 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ इन लाई जब दिल्ली पहुंचे तो तत्कालीन उपराष्ट्रपति राधाकृष्णन ने दोस्ती का हाथ बढाते हुये कहा था कि, 40 करोड़ भारतीयों की दोस्ती से आगे 400 वर्ग मील के क्षेत्र क्या मायने रखता है। लेकिन उस वक्त भी चाउ इन लाई का जबाब था कि, 60 करोड़ चीनियों की मित्रता के आगे कुछ हजार एकड़ भूमि का क्या मोल है। यानी जिस एलएसी को लेकर मोदी सरकार खुश है कि मुद्दा सार्वजनिक तौर पर उठा और चीन ने माना तो फिर 25 अप्रैल 1960 को आधी रात में चाउ इन लाई की उस प्रेस कान्फ्रेंस को याद करना चाहिये जो रात एक बजे तक चली थी और उस वक्त चीन के पीएम ने खुलकर सीमा विवाद को माना था और नियंत्रण रेखा को नियत्रित क्षेत्र के जरीये परिभाषित किया था। यानी अपनी विस्तारवादी नीति को भी सीमा विवाद में चीन ने खुले तौर पर जगह दी थी । अब ऐसे में सवाल है कि क्या इन हालात में भारत के पास चीन को कटघरे में खड़ा करने के लिये तिब्बती मुद्दा ही बचा है । क्योकि जिस वक्त चीन के राष्ट्रपति दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से बात कर रहे थे उस वक्त अगर सीमा पर चीनी सैनिको की घुसपैठ हो रही थी तो पहली बार तिब्बती प्रदर्शनकारी भी हैदराबाद हाउस
तक आ पहुंचे । यानी भारत ने भी संकेत दिये अगर एक तरफ सीमा पर चीनी घुसपैठ उसी वक्त जानबूझकर किया जाता है जब चीनी राष्ट्रपति भारत पहुंचे तो फिर तिब्बतियो के जरीये चीन को कटघरे में खड़ा करने का एक पत्ता उसके पास भी है। अगर ऐसा है तो फिर पहला संकेत तो यही है कि भारत की चीन के साथ दोस्ती का नहीं प्रतिस्पर्धा का है। और दूसरा संकेत यही है कि मौजूदा वक्त में जितनी जरुरत भारत को निवेश के लिये चीन की है उतनी ही जरुरत चीन को अपने उत्पाद को खपाने के लिये भारतीय बाजार की है। यानी संबंधो की जो डोर चीन के साथ पंतग में बांध कर उडायी जा रही है उसके पीछे का सच यह भी है कि चीन हर हाल में जापान को दायरे में बांधना चाहता है और अमेरिका को एशियाई घुरी बनने से रोकना चाहता है। वहीं मोदी सरकार कूटनीतिक तौर पर मौजूदा हालात का लाभ निवेश के जरीये उठाना चाहती है । जिससे भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित भी हो और रोजगार भी पैदा हो।
लेकिन समझना यह भी होगा कि इस बरस सितंबर तक चीन करीब साढे तीन बार एलएसी के दायरे को तोड़ भारत में घुसा है और हर बार तनाव का हालात सीमा पर होने है। इनसबके बीच कश्मीर और अरुणाचल के लोगो को स्टेपल वीजा देकर भी विवाद खड़ा किया है। ऐसे में चीन के साथ जो बारह समझौते हुये है उसमे ठोस पांच समझौतो को देखे तो चीन का रास्ता बिना किसी मुश्किल के भारत के भीतर के लिये भी खुल रहा है। मसलन कैलाश मानसरोवर यात्रा का नया मार्ग दोनो देशों की सीमा को खोलता है। जो सिक्किम के नाथू-ला से होकर खुलेगा। मैसूर-चेन्नई के बीच रेल रफ्तार, रेलवे विश्वविद्यालय की स्थापना की भागेदारी सीधे चीन को भारतीय रेल से जोडेगी । 5 बरस में 20 अरब डालर इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश से भारत में रोजगार पैदा जरुर होगा लेकिन भारतीय खनिज संपदा तक सीधी पहुंच भी चीन की होगी। और जो रुकावट अभी तक चीन को लेकर भारत में होती रही है वह चीन के शंघाई और भारत के मुंबई शहरों के बीच ‘सिस्टर सिटी’समझौते और पुणे में औद्योगिक पार्क की स्थापना के साथ कही ज्यादा आसान हो जायेगा। यानी भारत के बाजार में चीनी उत्पाद का लाइसेंस चीन के राष्ट्रपति को मिल चुका है और सीमा पर सेना की घुसपैठ को रोकने का कोई निर्धारित वक्त बी मुहैया नही किया गया है। यानी बाजार में चीनी माल और सीमा पर चीनी सैनिक।
Tuesday, September 16, 2014
सपने का टूटना या लोकतंत्र की जीत की उम्मीद
प्रधानमंत्री मोदी का जादू चल जायेगा। लेकिन नहीं चला। संघ परिवार की सक्रियता के बगैर जीत जायेंगे। लेकिन नहीं जीते। लव जेहाद और सांप्रदायिक बोल हिन्दु वोट को एकजुट रखेंगे। लेकिन नहीं रख पाये।
अल्पसंख्यक असुरक्षित होकर बीजेपी की छांव में ही आयेगा या फिर उसकी एकजुटता हिन्दुओं में जातीय समीकरण को भुला देगी। लेकिन यह भी नहीं हुआ। मायावती की गैरहाजरी में दलित वोट विकास की चकाचौंध में खोयेगा। लेकिन वह भी नहीं खोया। वसुंधरा की बिसात और मोदी की चमक राजस्थान में बीजेपी से इतर किसी को कुछ सोचने नहीं देगी। लेकिन यह भी नहीं हुआ। छह करोड़ गुजराती मोदी के पीएम बनने की खुमारी में डूबा रहेगा और आनंदीबेन मोदी को जीत का बर्थ-डे गिफ्ट दे देगी। लेकिन बर्थ-डे गिफ्ट भी धरा का धरा रह गया। तो फिर उपचुनाव के परिणाम के संकेत ने क्या लोकसभा चुनाव के फैसले को ही पलटने की तैयारी कर ली है। या फिर राजनीतिक शून्यता के ऐसे पायदान पर देश की संसदीय राजनीति जा खड़ी हुई है जहां बार बार आगे बढ़कर पीछे लौटने के अलावे कोई विकल्प देश की जनता के सामने है नहीं। मंडल की धार से 25 बरस पहले कमंडल टकरायी।
लेकिन 25 बरस बाद मोदी के विकास मंत्र ने मंडल की धार को भोथरा बना दिया और कमंडल को हिन्दु राष्ट्रवाद के आइने में उतार कर एक नयी लकीर खिंचने की नायाब पहल की। लगा यही कि मंडल के दौर में क्षत्रपों की सियासत ने देश का बंटाधार ही किया तो फिर मोदी के विकास के घोड़े की सवारी कुछ सकून तो देगी। लेकिन हकीकत से कहां कैसे वोटर भागे। उसे तो हर दिन रसोई में आंसू बहाने है। विकास का ताना बाना चाहे विदेशी पूंजी की आस जगाता हो। चाहे इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर क्रक्रीट का जंगल खडा करने की बैचैनी दिखाता हो। चाहे डिजिटल इंडिया के सपने तले हर हाथ में तकनालाजी की उम्मीद जागती हो। चाहे कॉरपोरेट के धुरंधरों और औघोगिक घरानो के एफडीआई के समझौते के नये रास्ते खुलते नजर आते हो। चाहे मोदी सरकार की इस चकाचौंध को बेहद बारिकी से मीडिया लगातार परोसता हो। और इस भागमभाग में चाहे हर कोई हर उस मुद्दे से ही दूर होता चला गया हो जो लोकसभा चुनाव के वक्त देश के आम जन की आंखों में जगाये गये हों। चाहे वह रोजगार पा जाने का सपना हो। चाहे वह पाकिस्तान और चीन से दो दो हाथ करने का सुकुन हो। चाहे बिचौलियों और कालाबाजारियों पर नकेल कसने की उम्मीद हो। चाहे कांग्रेस के गैर सरोकार वाले रईस कांग्रेसियों या कहें लूटने वालो को कटघरे में खड़ा करने की हनक हो। सबकुछ नरेन्द्र मोदी ने जगाया। और इन्हीं सबकुछ पर कुंडली मार कर देश को भुलाने और सुलाने का तरीका भी मोदी सरकार ने ही निकाला। तो क्या विकल्प की बात ख्वाब थी या विकल्प या विकास का ताना बाना सत्ता पाने का सियासी स्वाद बन चुका है । इसलिये सौ दिन की सरकार की हार ने मंडल प्रयोग से आगे मंडल का ट्रैक टू शुरु करने का संकेत दे दिये। जहां मायावती की खामोशी मुलायम को जीता कर आने वाले वक्त में गेस्टहाउस कांड को भुलाने की दिशा में जाना चाहती हैं। ठीक उसी तरह जैसे सुशासन बाबू जंगल राज के नायक के साथ खड़े हो गये। पहले तमगा दिया फिर दिल दे दिया ।
गजब की सियासत का दौर है यह । क्योंकि इस बिसात पर संभल कर चलने के लिये चुनावी जीत की तिकडमें ही हर दल के लिये महत्वपूर्ण हो चली हैं। और तिकडमों से निकलने वाली चुनावी जीत संविधान से बड़ी लगने लगी है। यूपी के सांप्रदायिक दंगे। मुजफ्फरनगर की त्रासदी के बीच सैफई का नाचगान। अब कोई मायने नहीं रखता। गहलोत के दौर के घोटाले सचिन पायलट की अगुवाई में काग्रेस की जीत तले छुप जाते हैं। मोदी के दरबार में वसुंधरा राजे के प्यादा से भी कम हैसियत पाना। यूपी की बिसात पर राजनाथ को प्यादा और योगी आदित्यनाथ का वजीर बनाने की चाहत वाले अमित शाह की चाल भी जीत के दायरे में मापी जाती है। और अमित शाह को हर राज्य में जीत का सेहरा पहनाने की हैसियत वाला मान कर आरएसएस झटके में प्यादे से वजीर बनाकर सुकुन पाती है। तो फिर चुनावी दौड़ का यह रास्ता थमता किधर है। शायद कहीं नहीं। क्योंकि यह दौड़ ही सत्ता की मलाई खाने के लिये जातीय और धर्म के आधार पर उचकाती है। या फिर विकास का अनूठा मंत्र देकर ऐसे भ्रष्टाचार की ऐसी लकीर खिंचती है,जिसके तले मजदूर के हक के कानून बदल जाये। पर्यावरण से खुला खिलवाड विकास के नाम पर दौड़ने लगे। जन-धन योजना तले देश की लाइफ इंशोरेंस कंपनी एलआईसी का नहीं बल्कि विदेशी बैंक एचडीएफसी के लाइफ इंशोरेंस का कल्याण हो। विदेशी पूंजी की आहट राष्ट्रीयता को इतना मजबूर कर दें कि जुंबा पर हिन्दु राष्ट्रवाद गूंजे जरुर लेकिन देश बाजार और व्यापार में बदलता दिखे। जिसमें चुनी हुई सरकार ही बिचौलिये या कमीशनखोर हो जाये। ध्यान दीजिये तो मनमोहन का दौर हो या मोदी का दौर पटरी वही है इसलिये बार बार देश उन्हीं क्षत्रपों की गोद में लौटता है, जहां मलाई खाने के लिये सत्ता के दरवाजे तो खुले मिलते है चाहें लूट खुली क्यों ना हो। इसलिये उपचुनाव के परिणाम निराशा और सपनों की टूटने के अनकही कहानी भी है और लोकतंत्र की जीत की उम्मीद भी।
अल्पसंख्यक असुरक्षित होकर बीजेपी की छांव में ही आयेगा या फिर उसकी एकजुटता हिन्दुओं में जातीय समीकरण को भुला देगी। लेकिन यह भी नहीं हुआ। मायावती की गैरहाजरी में दलित वोट विकास की चकाचौंध में खोयेगा। लेकिन वह भी नहीं खोया। वसुंधरा की बिसात और मोदी की चमक राजस्थान में बीजेपी से इतर किसी को कुछ सोचने नहीं देगी। लेकिन यह भी नहीं हुआ। छह करोड़ गुजराती मोदी के पीएम बनने की खुमारी में डूबा रहेगा और आनंदीबेन मोदी को जीत का बर्थ-डे गिफ्ट दे देगी। लेकिन बर्थ-डे गिफ्ट भी धरा का धरा रह गया। तो फिर उपचुनाव के परिणाम के संकेत ने क्या लोकसभा चुनाव के फैसले को ही पलटने की तैयारी कर ली है। या फिर राजनीतिक शून्यता के ऐसे पायदान पर देश की संसदीय राजनीति जा खड़ी हुई है जहां बार बार आगे बढ़कर पीछे लौटने के अलावे कोई विकल्प देश की जनता के सामने है नहीं। मंडल की धार से 25 बरस पहले कमंडल टकरायी।
लेकिन 25 बरस बाद मोदी के विकास मंत्र ने मंडल की धार को भोथरा बना दिया और कमंडल को हिन्दु राष्ट्रवाद के आइने में उतार कर एक नयी लकीर खिंचने की नायाब पहल की। लगा यही कि मंडल के दौर में क्षत्रपों की सियासत ने देश का बंटाधार ही किया तो फिर मोदी के विकास के घोड़े की सवारी कुछ सकून तो देगी। लेकिन हकीकत से कहां कैसे वोटर भागे। उसे तो हर दिन रसोई में आंसू बहाने है। विकास का ताना बाना चाहे विदेशी पूंजी की आस जगाता हो। चाहे इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर क्रक्रीट का जंगल खडा करने की बैचैनी दिखाता हो। चाहे डिजिटल इंडिया के सपने तले हर हाथ में तकनालाजी की उम्मीद जागती हो। चाहे कॉरपोरेट के धुरंधरों और औघोगिक घरानो के एफडीआई के समझौते के नये रास्ते खुलते नजर आते हो। चाहे मोदी सरकार की इस चकाचौंध को बेहद बारिकी से मीडिया लगातार परोसता हो। और इस भागमभाग में चाहे हर कोई हर उस मुद्दे से ही दूर होता चला गया हो जो लोकसभा चुनाव के वक्त देश के आम जन की आंखों में जगाये गये हों। चाहे वह रोजगार पा जाने का सपना हो। चाहे वह पाकिस्तान और चीन से दो दो हाथ करने का सुकुन हो। चाहे बिचौलियों और कालाबाजारियों पर नकेल कसने की उम्मीद हो। चाहे कांग्रेस के गैर सरोकार वाले रईस कांग्रेसियों या कहें लूटने वालो को कटघरे में खड़ा करने की हनक हो। सबकुछ नरेन्द्र मोदी ने जगाया। और इन्हीं सबकुछ पर कुंडली मार कर देश को भुलाने और सुलाने का तरीका भी मोदी सरकार ने ही निकाला। तो क्या विकल्प की बात ख्वाब थी या विकल्प या विकास का ताना बाना सत्ता पाने का सियासी स्वाद बन चुका है । इसलिये सौ दिन की सरकार की हार ने मंडल प्रयोग से आगे मंडल का ट्रैक टू शुरु करने का संकेत दे दिये। जहां मायावती की खामोशी मुलायम को जीता कर आने वाले वक्त में गेस्टहाउस कांड को भुलाने की दिशा में जाना चाहती हैं। ठीक उसी तरह जैसे सुशासन बाबू जंगल राज के नायक के साथ खड़े हो गये। पहले तमगा दिया फिर दिल दे दिया ।
गजब की सियासत का दौर है यह । क्योंकि इस बिसात पर संभल कर चलने के लिये चुनावी जीत की तिकडमें ही हर दल के लिये महत्वपूर्ण हो चली हैं। और तिकडमों से निकलने वाली चुनावी जीत संविधान से बड़ी लगने लगी है। यूपी के सांप्रदायिक दंगे। मुजफ्फरनगर की त्रासदी के बीच सैफई का नाचगान। अब कोई मायने नहीं रखता। गहलोत के दौर के घोटाले सचिन पायलट की अगुवाई में काग्रेस की जीत तले छुप जाते हैं। मोदी के दरबार में वसुंधरा राजे के प्यादा से भी कम हैसियत पाना। यूपी की बिसात पर राजनाथ को प्यादा और योगी आदित्यनाथ का वजीर बनाने की चाहत वाले अमित शाह की चाल भी जीत के दायरे में मापी जाती है। और अमित शाह को हर राज्य में जीत का सेहरा पहनाने की हैसियत वाला मान कर आरएसएस झटके में प्यादे से वजीर बनाकर सुकुन पाती है। तो फिर चुनावी दौड़ का यह रास्ता थमता किधर है। शायद कहीं नहीं। क्योंकि यह दौड़ ही सत्ता की मलाई खाने के लिये जातीय और धर्म के आधार पर उचकाती है। या फिर विकास का अनूठा मंत्र देकर ऐसे भ्रष्टाचार की ऐसी लकीर खिंचती है,जिसके तले मजदूर के हक के कानून बदल जाये। पर्यावरण से खुला खिलवाड विकास के नाम पर दौड़ने लगे। जन-धन योजना तले देश की लाइफ इंशोरेंस कंपनी एलआईसी का नहीं बल्कि विदेशी बैंक एचडीएफसी के लाइफ इंशोरेंस का कल्याण हो। विदेशी पूंजी की आहट राष्ट्रीयता को इतना मजबूर कर दें कि जुंबा पर हिन्दु राष्ट्रवाद गूंजे जरुर लेकिन देश बाजार और व्यापार में बदलता दिखे। जिसमें चुनी हुई सरकार ही बिचौलिये या कमीशनखोर हो जाये। ध्यान दीजिये तो मनमोहन का दौर हो या मोदी का दौर पटरी वही है इसलिये बार बार देश उन्हीं क्षत्रपों की गोद में लौटता है, जहां मलाई खाने के लिये सत्ता के दरवाजे तो खुले मिलते है चाहें लूट खुली क्यों ना हो। इसलिये उपचुनाव के परिणाम निराशा और सपनों की टूटने के अनकही कहानी भी है और लोकतंत्र की जीत की उम्मीद भी।
Thursday, September 11, 2014
कश्मीर में अधिकारी, पुलिस या डॉक्टर नहीं बेटा, बाप या पति ही बचे हैं !!
पहली बार बच्चे ने "क" से लिखा कश्मीर
पानी में डूबे कश्मीर को संभाले कौन। श्रीनगर के बीचो बीच पीरबाग में पुलिस हेडक्वार्टर में अब भी पानी है। और श्रीनगर के करीब सभी 25 पुलिस थाने। वाटामालू, हरवन,कारानगर, खानयार कोठीबाग, करालखुर्द,लालबाजार,मैसूमा, निशात,पंथा चौक, नौहट्टा, राजबाग, सदर, सफाकदल, नौकाम पुलिस थाने तक। सभी 7 सितंबर की सुबह ही पानी में डूब चुके थे। और सिर्फ श्रीगर के पुलिस थाने ही नहीं बल्कि अनंतनाग के अचावल, अशमुगम बिजबेहरा, डुरु, करनाक और सदर अनंतनाग पुलिस थाने भी पानी में डूबे है। वडगाम का बीरवा, चादोरा, चरार-ए-शरीफ,खाकमाकम, नोबरा और न्योमा पुलिस थाने भी पानी में डूब चुके हैं। इतना ही नहीं बल्कि झेलम के किनारे कुलगाम, शोपिंया, पुलवामा, गांधारबल, बांदीपुर की हर गली मोहल्ले में 7 सितंबर की सुबह तक 5 से 7 फीट पानी आ चुका था। और धीरे धीरे यह पानी 12 फीट तक चढ़ा। यानी सचिवालय हो या पुलिस स्टेशन बीते रविवार को जब सभी पानी में समाया तो ब्लैक संडे का मतलब कश्मीर को अब अपने भरोसे हर मुसीबत से सामना करना था। पुलिस-प्रशासन का कोई अधिकारी इस स्थिति में था ही नहीं कि वह हालात से खुद को बचाये या बची हुई हालात में किसे संभाले या संभालने के लिये कौन सी व्यवस्था करें। सबकुछ चरमरा चुका था। चरमराया हुआ है।
इतना ही नहीं सबसे सक्रिय लाल चौक पर भी पानी चढ़ना शुरु हुआ तो वहा मौजूद सेना के ट्रक सबसे पहले पोस्ट छोड़ ट्रक पर ही चढ़े। लेकिन धीरे धीरे पानी सात से आठ फीट पहुंच गया तो उसके बाद सिर्फ लाल चौक ही नहीं बल्कि समूचे कश्मीर में मौजूद सेना के सामने यह संकट आया कि सुबह जब ड्यूटी बदलती है तब जिन जवानों को ड्यूटी संभालने पहुंचना था, वह पहुंच ना पाये क्योंकि सेना के कैंप को भी पानी अपनी आगोश में ले चुका था। कैंप से बाहर निकलने के लिये सेना का ट्रक नहीं बोट चाहिये थी। हालात बद से बदतर होते चले जा रहे थे और किसे क्या करना है या हालात कौन कैसे संभालेगा इसकी कोई जानकारी किसी के पास नहीं थी। यानी राज्य की सीएम उमर अब्दुल्ला का संकट यह था कि वह किसे निर्देश दें। और निर्देश देने के बाद घाटी में राहत के लिये कौन सी व्यवस्था करें। सीएम हाउस से बाहर निकलने के लिये किस्ती या बोट चाहिये था। क्योंकि श्रीनगर के हैदरपुरा में पानी पांच फीट पार कर चुका था, जहां सीएम हाउस है। डाउन टाउन की संकरी गलियों के किनारे पुराने मकान की उम्र तो पानी की तेज धार के सामने 50 घंटे के भीतर ही दम तोड़ने लगी। एक मंजिला छोड, दो मंजिला और दो मंजिला छोड छत के अलावे कहां जाये यह डाउन-टाउन ही नहीं समूचे कश्मीर की त्रासदी बन गयी। चौबिस घंटे पहले तक जिस अधिकारी, जिस पुलिस वाले या जिस जवान
के इशारे पर सबकुछ हो सकता था। सात सितंबर की सुबह से हर कोई सिर्फ बेटा, बाप, या पति ही था । जिसे अपने परिवार को बचाना था।
लेकिन बचाने के लिये खुद कैसे बचे यह बेबसी भी छुपानी थी। यह बेबसी कितनी खतरनाक रही इसका अंदाजा इसी से लग सकता है कि अपनी आंखों के सामने अपनो की मौत देखने के बदले राहत के लिये इंतजाम के लिये कई बेटे बाप कई पति घर से निकले। और जो लौटे उन्हें अपना नहीं मिला। जो नहीं लौटे है उन्हें उनके अपने अब भी खोज रहे हैं। हालात संभाले कौन और कैसे यह सवाल इसलिये बीते पांच दिनों से सामने नहीं आया क्योकि बिगडे हालात में संभालने वाला तो कोई होना चाहिये। त्रासदी ने तो डाक्टर और मरीज दोनों को एक ही हालत में ला खड़ा किया। शेर-ए-कश्मीर इंस्ट्टीयूट आफ मेडिकल साइसं का गर्ल्स हॉस्टल डूब गया। यह रह रही दो सौ छात्रायें कैसे निकली और कहां गयीं, यह हर कोई खोज रहा है । 7 सितंबर को ही हॉस्पीटल की पहली मंजिल पानी में डूब चुकी थी और उस वक्त सोशल मीडिया पर एक ट्वीट आया, -लोकल्स, प्लीज हैल्प , 200 फीमेल रेसिडेन्ट डाक्टर्स आर इन गवर्नमेंट मेडिकल कालेज। लेकिन लोकल्स क्या करते या क्या किया होगा उन्होंने क्योंकि हर कोई तो खुद को बचाने में ही लगा रहा। और इस दौर में कैसे समूचे कश्मीर के किसी डाक्टर के पास कुछ भी नहीं बचा। और अब जब हॉस्पीटल में इलाज शुरु हुआ तो कैसे दवाई से लेकर इलाज के लिये हर छोटी से छोटी चीज भी डाक्टरों के पास नहीं है। और अफरातफरी के इस दौर में सेना के डाक्टर और उनके डाक्टरी सामान ही कश्मीर के हर घाव पर मलहम है। क्योंकि मौजूदा वक्त में कश्मीर का हर अस्पताल पानी में डूबा हुआ है।
बेमीना में डिग्री कालेज के सामने केयर हास्पीटल न्यूरोलाजी सेंटर। अमीनाबाग का अलशीफा अस्पताल। नौगांव बायपास के करीब गुलशननगर का अहमद अस्पताल। राजबाग का मॉडन हास्पीटल। किडनी हास्पीटल । यहां तक की सीएम हाउस के ठीक सामने हैदरपुरा बायपास पर मुबारक हास्पीटल भी पानी में इस तरह समाया हुआ है कि वहां इलाज तो दूर अस्पताल के भीतर जाना भी मुश्किल है। यानी जिन हालातों में कश्मीर के दर्जन भर अस्पतालों में पहले से मरीज थे। सात सितंबर की सुबह के बाद कौन कहां गया। यह किसी को नहीं मालूम क्योकि हर किसी खुद ही खुद को बचाना था और अस्पताल में भर्ती मरीजो को सिर्फ इतना ही कहा गया कि इलाज तो अब मुश्किल है और पहले हर कोई सुरक्षित जगह चला जाये। सुरक्षित का मलतब इलाज छोड जान बचाने का है। और कश्मीर में छोटे बडे 28 अस्पताल पानी में डूबे हुये है। जिनमें तीन हजार बेड हैं। यानी तीन हजार मरीज कहा गये किसी को नहीं पता। यानी कश्मीर के इस मंजर को कौन कैसे संभाले यह अपने आप में ही सबसे बड़ा सवाल 7 सितंबर के बाद से जो शुरु हुआ वह आज भी जारी है क्योंकि जिसे भी हालात संभालने के लिये निकलना था वह 7 सितंबर के बाद से अपने अपने दायरे में बेटा, बाप या पति हो कर ही रह गया क्योंकि आपदा से निपटने का कोई सिस्टम है नहीं। यहा तक की जिस मौसम विभाग को यह नापना है कि कश्मीर में कितनी बरसात हुई या बाढ का कितना पानी घुसा हुआ है, वह दफ्तर भी पानी में डूब गया। इन हालातों में सेना हेलीकाप्टर और बोट से जहां पहुंच सकती थी वहां पहुंचने की जद्दोजहद में लगी हुई है। राहत का सामान श्रीनगर और जम्मू हवाई अड्डे पर आ रहा है और हेलीकाप्टर उसे ले उड़ रहा है। लेकिन घाटी से पानी निकले कैसे। पंप आयेंगे कहां से। और पुलिस प्रशासन नाम की चीज जो पूरी राज्य की व्यवस्था को चलाती, वह जब कश्मीर के हर मोहल्ले में बाप बेटे या पति-पत्नी बनकर अपनो की जान बचाने में लगी हुई है तो कल्पना कीजिये कश्मीर के मंजर का मतलब है क्या। इन हालातों में अब गृह सचिव को ही कश्मीर के हालात संभालने हैं। सीएम हाउस, सेना , पुलिस, राहत सामग्री, राज्यों से आने वाली मदद, डाक्टर। तमाम राज्यों के अधिकारी। यानी तमाम परिस्थितियों के बीच तालमेल कैसे बैठे और जिस हालात में समूचे कश्मीर के अधिकारी या कहे कश्मीर का पुलिस प्रशासन भी कही ना कही अपने अपने घर में एक आम नागरिक होकर बाढ़ की त्रासदी से खुद को बचाने में ही लगा हुआ है उसमें राहत कब कैसे किसे मिलेगी यह सवाल अब भी उलझा हुआ है। सीधे कहें तो कश्मीर का मंजर जितना डराने वाला है, उसमें राहत व्यवस्था लगातार पहुंच तो रही है लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल सिलसिलेवार तरीके से हर क्षेत्र में राहत उन लोगो तक पहुंचाने की है जहां अब भी पानी है और उन जगहों पर पीने का पानी तक नहीं पहुंचा है। असल में हालात को समझने और राहत व्यवस्था करने में सबसे बडी भूल यह हो रही है कि कश्मीर में कोई व्यवस्था बची नहीं है, इसे केन्द्र अभी तक समझा नहीं है और राज्य सरकार यह मान नहीं रही है कि उसके हाथ में सिवाय कश्मीर के नाम के अलावे कुछ नहीं है। लेकिन इस मंजर में पहली बार हर बच्चा "क" से कश्मीर लिखना जरुर सिख चुका है।
पानी में डूबे कश्मीर को संभाले कौन। श्रीनगर के बीचो बीच पीरबाग में पुलिस हेडक्वार्टर में अब भी पानी है। और श्रीनगर के करीब सभी 25 पुलिस थाने। वाटामालू, हरवन,कारानगर, खानयार कोठीबाग, करालखुर्द,लालबाजार,मैसूमा, निशात,पंथा चौक, नौहट्टा, राजबाग, सदर, सफाकदल, नौकाम पुलिस थाने तक। सभी 7 सितंबर की सुबह ही पानी में डूब चुके थे। और सिर्फ श्रीगर के पुलिस थाने ही नहीं बल्कि अनंतनाग के अचावल, अशमुगम बिजबेहरा, डुरु, करनाक और सदर अनंतनाग पुलिस थाने भी पानी में डूबे है। वडगाम का बीरवा, चादोरा, चरार-ए-शरीफ,खाकमाकम, नोबरा और न्योमा पुलिस थाने भी पानी में डूब चुके हैं। इतना ही नहीं बल्कि झेलम के किनारे कुलगाम, शोपिंया, पुलवामा, गांधारबल, बांदीपुर की हर गली मोहल्ले में 7 सितंबर की सुबह तक 5 से 7 फीट पानी आ चुका था। और धीरे धीरे यह पानी 12 फीट तक चढ़ा। यानी सचिवालय हो या पुलिस स्टेशन बीते रविवार को जब सभी पानी में समाया तो ब्लैक संडे का मतलब कश्मीर को अब अपने भरोसे हर मुसीबत से सामना करना था। पुलिस-प्रशासन का कोई अधिकारी इस स्थिति में था ही नहीं कि वह हालात से खुद को बचाये या बची हुई हालात में किसे संभाले या संभालने के लिये कौन सी व्यवस्था करें। सबकुछ चरमरा चुका था। चरमराया हुआ है।
इतना ही नहीं सबसे सक्रिय लाल चौक पर भी पानी चढ़ना शुरु हुआ तो वहा मौजूद सेना के ट्रक सबसे पहले पोस्ट छोड़ ट्रक पर ही चढ़े। लेकिन धीरे धीरे पानी सात से आठ फीट पहुंच गया तो उसके बाद सिर्फ लाल चौक ही नहीं बल्कि समूचे कश्मीर में मौजूद सेना के सामने यह संकट आया कि सुबह जब ड्यूटी बदलती है तब जिन जवानों को ड्यूटी संभालने पहुंचना था, वह पहुंच ना पाये क्योंकि सेना के कैंप को भी पानी अपनी आगोश में ले चुका था। कैंप से बाहर निकलने के लिये सेना का ट्रक नहीं बोट चाहिये थी। हालात बद से बदतर होते चले जा रहे थे और किसे क्या करना है या हालात कौन कैसे संभालेगा इसकी कोई जानकारी किसी के पास नहीं थी। यानी राज्य की सीएम उमर अब्दुल्ला का संकट यह था कि वह किसे निर्देश दें। और निर्देश देने के बाद घाटी में राहत के लिये कौन सी व्यवस्था करें। सीएम हाउस से बाहर निकलने के लिये किस्ती या बोट चाहिये था। क्योंकि श्रीनगर के हैदरपुरा में पानी पांच फीट पार कर चुका था, जहां सीएम हाउस है। डाउन टाउन की संकरी गलियों के किनारे पुराने मकान की उम्र तो पानी की तेज धार के सामने 50 घंटे के भीतर ही दम तोड़ने लगी। एक मंजिला छोड, दो मंजिला और दो मंजिला छोड छत के अलावे कहां जाये यह डाउन-टाउन ही नहीं समूचे कश्मीर की त्रासदी बन गयी। चौबिस घंटे पहले तक जिस अधिकारी, जिस पुलिस वाले या जिस जवान
के इशारे पर सबकुछ हो सकता था। सात सितंबर की सुबह से हर कोई सिर्फ बेटा, बाप, या पति ही था । जिसे अपने परिवार को बचाना था।
लेकिन बचाने के लिये खुद कैसे बचे यह बेबसी भी छुपानी थी। यह बेबसी कितनी खतरनाक रही इसका अंदाजा इसी से लग सकता है कि अपनी आंखों के सामने अपनो की मौत देखने के बदले राहत के लिये इंतजाम के लिये कई बेटे बाप कई पति घर से निकले। और जो लौटे उन्हें अपना नहीं मिला। जो नहीं लौटे है उन्हें उनके अपने अब भी खोज रहे हैं। हालात संभाले कौन और कैसे यह सवाल इसलिये बीते पांच दिनों से सामने नहीं आया क्योकि बिगडे हालात में संभालने वाला तो कोई होना चाहिये। त्रासदी ने तो डाक्टर और मरीज दोनों को एक ही हालत में ला खड़ा किया। शेर-ए-कश्मीर इंस्ट्टीयूट आफ मेडिकल साइसं का गर्ल्स हॉस्टल डूब गया। यह रह रही दो सौ छात्रायें कैसे निकली और कहां गयीं, यह हर कोई खोज रहा है । 7 सितंबर को ही हॉस्पीटल की पहली मंजिल पानी में डूब चुकी थी और उस वक्त सोशल मीडिया पर एक ट्वीट आया, -लोकल्स, प्लीज हैल्प , 200 फीमेल रेसिडेन्ट डाक्टर्स आर इन गवर्नमेंट मेडिकल कालेज। लेकिन लोकल्स क्या करते या क्या किया होगा उन्होंने क्योंकि हर कोई तो खुद को बचाने में ही लगा रहा। और इस दौर में कैसे समूचे कश्मीर के किसी डाक्टर के पास कुछ भी नहीं बचा। और अब जब हॉस्पीटल में इलाज शुरु हुआ तो कैसे दवाई से लेकर इलाज के लिये हर छोटी से छोटी चीज भी डाक्टरों के पास नहीं है। और अफरातफरी के इस दौर में सेना के डाक्टर और उनके डाक्टरी सामान ही कश्मीर के हर घाव पर मलहम है। क्योंकि मौजूदा वक्त में कश्मीर का हर अस्पताल पानी में डूबा हुआ है।
बेमीना में डिग्री कालेज के सामने केयर हास्पीटल न्यूरोलाजी सेंटर। अमीनाबाग का अलशीफा अस्पताल। नौगांव बायपास के करीब गुलशननगर का अहमद अस्पताल। राजबाग का मॉडन हास्पीटल। किडनी हास्पीटल । यहां तक की सीएम हाउस के ठीक सामने हैदरपुरा बायपास पर मुबारक हास्पीटल भी पानी में इस तरह समाया हुआ है कि वहां इलाज तो दूर अस्पताल के भीतर जाना भी मुश्किल है। यानी जिन हालातों में कश्मीर के दर्जन भर अस्पतालों में पहले से मरीज थे। सात सितंबर की सुबह के बाद कौन कहां गया। यह किसी को नहीं मालूम क्योकि हर किसी खुद ही खुद को बचाना था और अस्पताल में भर्ती मरीजो को सिर्फ इतना ही कहा गया कि इलाज तो अब मुश्किल है और पहले हर कोई सुरक्षित जगह चला जाये। सुरक्षित का मलतब इलाज छोड जान बचाने का है। और कश्मीर में छोटे बडे 28 अस्पताल पानी में डूबे हुये है। जिनमें तीन हजार बेड हैं। यानी तीन हजार मरीज कहा गये किसी को नहीं पता। यानी कश्मीर के इस मंजर को कौन कैसे संभाले यह अपने आप में ही सबसे बड़ा सवाल 7 सितंबर के बाद से जो शुरु हुआ वह आज भी जारी है क्योंकि जिसे भी हालात संभालने के लिये निकलना था वह 7 सितंबर के बाद से अपने अपने दायरे में बेटा, बाप या पति हो कर ही रह गया क्योंकि आपदा से निपटने का कोई सिस्टम है नहीं। यहा तक की जिस मौसम विभाग को यह नापना है कि कश्मीर में कितनी बरसात हुई या बाढ का कितना पानी घुसा हुआ है, वह दफ्तर भी पानी में डूब गया। इन हालातों में सेना हेलीकाप्टर और बोट से जहां पहुंच सकती थी वहां पहुंचने की जद्दोजहद में लगी हुई है। राहत का सामान श्रीनगर और जम्मू हवाई अड्डे पर आ रहा है और हेलीकाप्टर उसे ले उड़ रहा है। लेकिन घाटी से पानी निकले कैसे। पंप आयेंगे कहां से। और पुलिस प्रशासन नाम की चीज जो पूरी राज्य की व्यवस्था को चलाती, वह जब कश्मीर के हर मोहल्ले में बाप बेटे या पति-पत्नी बनकर अपनो की जान बचाने में लगी हुई है तो कल्पना कीजिये कश्मीर के मंजर का मतलब है क्या। इन हालातों में अब गृह सचिव को ही कश्मीर के हालात संभालने हैं। सीएम हाउस, सेना , पुलिस, राहत सामग्री, राज्यों से आने वाली मदद, डाक्टर। तमाम राज्यों के अधिकारी। यानी तमाम परिस्थितियों के बीच तालमेल कैसे बैठे और जिस हालात में समूचे कश्मीर के अधिकारी या कहे कश्मीर का पुलिस प्रशासन भी कही ना कही अपने अपने घर में एक आम नागरिक होकर बाढ़ की त्रासदी से खुद को बचाने में ही लगा हुआ है उसमें राहत कब कैसे किसे मिलेगी यह सवाल अब भी उलझा हुआ है। सीधे कहें तो कश्मीर का मंजर जितना डराने वाला है, उसमें राहत व्यवस्था लगातार पहुंच तो रही है लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल सिलसिलेवार तरीके से हर क्षेत्र में राहत उन लोगो तक पहुंचाने की है जहां अब भी पानी है और उन जगहों पर पीने का पानी तक नहीं पहुंचा है। असल में हालात को समझने और राहत व्यवस्था करने में सबसे बडी भूल यह हो रही है कि कश्मीर में कोई व्यवस्था बची नहीं है, इसे केन्द्र अभी तक समझा नहीं है और राज्य सरकार यह मान नहीं रही है कि उसके हाथ में सिवाय कश्मीर के नाम के अलावे कुछ नहीं है। लेकिन इस मंजर में पहली बार हर बच्चा "क" से कश्मीर लिखना जरुर सिख चुका है।
Tuesday, September 9, 2014
कौन है गुनहगार कश्मीर के ?
कश्मीर को इस हालात में आने देने से रोका जा सकता था। झेलम का पानी जिस खामोशी से समूचे कश्मीर को ही डूबो गया उसे रोका जा सकता था। घाटी के हजारों गांव पानी में जिस तरह डूब गये उन्हें बचाया जा सकता था। यह ऐसे सवाल हैं जो आज किसी को भी परेशान कर सकते है कि अगर ऐसा था तो फिर ऐसा हुआ क्यों नहीं। असल में सबसे बड़ा सवाल यही है कि चार बरस पहले ही जम्मू कश्मीर की फ्लड कन्ट्रोल मिनिस्ट्री ने इसके संकेत दे दिये थे कि आने वाले पांच बरस में कश्मीर को डूबोने वाली बाढ की तबाही आ सकती है । फरवरी में बाढ़ नियतंत्र मंत्रालय की तरफ से ने बकायदा एक रिपोर्ट तैयार की गई थी। जिसे घाटी से निकलने वाले ग्रेटर कश्मीर ने 11 फरवरी 2010 में छापी भी थी । और उस वक्त कश्मीर में तबाही के संकेत की बात सुनकर कश्मीर से लेकर दिल्ली तक सरकारे हरकत में आयी जरुर लेकिन जल्द ही सियासी चालों में सुस्त पड़ गयी। उस वक्त बाढ़ नियंत्रण विभाग के अधिकारियों ने माना था कि बाढ़ की स्थिति इतनी भयावह हो सकती है कि समूचा कश्मीर डूब जाये। बकायदा डेढ़ लाख क्यूसेक पानी नदी से निकलने का जिक्र किया गया था। और संयोग देखिये फिलहाल करीब पौने दो लाख क्यूसेक पानी कश्मीर को डुबोये हुये है। रिपोर्ट के मुताबिक इसकी आशंका चार बरस पहले ही जता दी गयी थी कि कश्मीर पूरी तरह कट जायेगा। जम्मू-श्रीनगर रास्ता बह जायेगा। हवाई अड्डे तक जाने वाली सड़क भी डूब जायेगी। और कमोवेश हालात वहीं है जिसका जिक्र चार बरस पहले की रिपोर्ट में किया गया था। सवाल सिर्फ वैसे ही हालात के होने भर का नहीं है बल्कि ऐसे हालात ना हो इसके लिये बाढ़ नियंत्रण विभाग ने बकायदा दस्तावेजों का बंडल ट्रक में भरकर दिल्ली भेजा।
सारी रिपोर्ट जल संसाधन मंत्रालय पहुंची भी। लेकिन सारी रिपोर्ट बीते चार बरस में सड़ती रही। क्योंकि उस वक्त जम्मू कश्मीर के बाढ़ नियंत्रण मंत्रालय ने केन्द्र से 2200 करोड रुपये के बजट की मांग की थी। जिसे 500
करोड़ रुपये की किस्ता के हिसाब से देने को कहा गया। जिससे बाढ़ नियंत्रण के बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर को खड़ा करने के लिये काम शुरु हो सके। लेकिन तब की केन्द्र मे मनमोहन सरकार ने मार्च के महीने में 109 करोड़ रुपये देने का भरोसा भी दिया। लेकिन ना दिल्ली से कोई बजट श्रीनगर पहुंचा। ना जम्मू-श्रीनगर सरकार इस दौर में कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर बना पायी जिससे बाढ़ को रोका जा सके। हुआ इसका उलट । बीते दस बरस में कश्मीर में कोई ऐसी जगह बची ही नहीं जहां से बाढ़ का पानी बाहर निकल सके। बेमिना जैसी जगह तो बाढ़ के लिये स्वर्ग बन गयी क्योंकि यहा रिहायशी और व्यवसायिक इमारतों ने समूची जमीन ही घेर ली । यानी बाढ़ की जिस त्रासदी का अंदेशा चार बरस पहले किया गया। उस पर आंख मूंदकर कश्मीर को जन्नत का नूर बनाने का सपना देखने वालों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि अगर ऐसा होगा तो फिर ऐसा नजारा भी सामने होगा जब कश्मीर के आस्त्तिव पर ही सवालिया निशान लग जायेगा। जमीन पानी पानी और आसमान ताकती कातर निगाहें पीने के पानी के लिये तरसेंगी। लेकिन पहली बार यह सवाल भी खड़ा हुआ है कि क्या वाकई वक्त के साथ इस तरह की आपदा से निपटने की क्षमता खत्म होती जा रही है क्योंकि 1902 में पहली बार कश्मीर बाढ़ की गिरफ्त में फंसा। उसके 57 बरस बाद 1959 में घाटी इस बुरी तरह बाढ़ से घिरी की तब कश्मीर के लिये अग्रेंजों से मदद मांगी गई। और अब यानी 2014 के हालात तो सबके सामने हैं। तो पहला सवाल कमोवेश हर 55 बरस के बाद कश्मीर बाढ की त्रासदी से घिरा है। दूसरा सवाल बाढ़ से निपटने के लिये पहली बार 2014 में ही सरकार बेबस नजर आ रही है। या फिर कोई तकनीक है ही नहीं कि कश्मीर के लोगो की जान कैसे बचायी जाये।
तो क्या कश्मीर के बचाव को लेकर सरकार के हालात बीसवी सदी से भी बुरे हो चले हैं। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि इससे पहले 1959 में जब कश्मीर में बाढ़ आयी थी तब समूची घाटी पानी में डूब गयी थी। उस वक्त कश्मीर सरकार के पास बाढ़ से बचने के कोई उपाय नही थे तो तत्कालिक सीएम गुलाम मोहम्मद बख्शी ने अग्रेजो से मदद मांगी थी। और तब इग्लैंड के इंजीनियरों ने झेलम का पानी शहर से दूसरी दिशा में मोड़ने के लिये वुल्लहर तक जमीन और पहाड़ को भेद डाला। इसके लिये बकायदा भाप के इंजन का इस्तेमाल किया गया। असल में 1948 में आयी बाढ ने ही कश्मीर को आजादी के बाद पहली चेतावनी दी थी । और तब प्रधानमंत्री नेहरु ने कश्मीर सरकार को ही बाढ़ से निपटने के उपाय निकालने की दिसा में कदम बढ़ाने को कहा था। और उसी के बाद शेख अब्दुल्ला की पहल पर ब्रिटिश इंजीनियरों ने श्रीनगर के पदशाही बाग से वुल्लहर तक करीब 42 किलोमिटर लंबा फ्लड चैनल बनाया गया। जिससे बाढ़ का पानी शहर से बाहर किया जा सके। असर इसी का हुआ कि राजबाग का जो इलाका आज पानी में पूरी तरह डूबा हुआ है और हेलीकाप्टर से राहत देने के अलावे सरकार के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है वहीं 55 बरस पहले अंग्रेंजों की तकनीक से राजबाग में बाढ़ का पानी आने के बावजूद जान-माल की कोई हानि नहीं हुई। लेकिन बीते पचास बरस में बाढ की त्रासदी से निपटने की दिशा में कोई काम तो हुआ नहीं उल्टे पेड़ों की कटाई और पहाड़ों को गिराकर जिसतरह
रिहाइश शुरु हुई और इसी आड में व्यवसायिक धंधे ने निर्माण कार्य शुरु किया असर उसी का है कि मौजूदा बाढ के वक्त समूचे कश्मीर की जमीन ही बाढ़ के लिये बेहतरीन जमीन में बदल चुकी है। घाटी के सारे फ्लड चैनल बंद हो चुके हैं।
झेलम की जमीन नादरु नंबल, नरकारा नंबल और होकारसर पर रिहायशी कालोनिया बन गयी हैं। यहां तक की श्रीनगर विकास अथराटी ने भी फ्लड चैनल पर शापिंग काम्पलेक्स खोल दिया है। यानी कश्मीर जो आज बाढ की बासदी से कराह रहा है उसके पीछे वहीं अंधी दौड़ है जो जमीनों पर कब्जा कर मकान या दुकान बनाने को ही सबसे बडा सुकुन माने हुये है। और हर कोई इसे आपदा मान कर खामोश है और गुनहगारो की तरफ कोई देखने को तैयार नहीं है।
सारी रिपोर्ट जल संसाधन मंत्रालय पहुंची भी। लेकिन सारी रिपोर्ट बीते चार बरस में सड़ती रही। क्योंकि उस वक्त जम्मू कश्मीर के बाढ़ नियंत्रण मंत्रालय ने केन्द्र से 2200 करोड रुपये के बजट की मांग की थी। जिसे 500
करोड़ रुपये की किस्ता के हिसाब से देने को कहा गया। जिससे बाढ़ नियंत्रण के बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर को खड़ा करने के लिये काम शुरु हो सके। लेकिन तब की केन्द्र मे मनमोहन सरकार ने मार्च के महीने में 109 करोड़ रुपये देने का भरोसा भी दिया। लेकिन ना दिल्ली से कोई बजट श्रीनगर पहुंचा। ना जम्मू-श्रीनगर सरकार इस दौर में कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर बना पायी जिससे बाढ़ को रोका जा सके। हुआ इसका उलट । बीते दस बरस में कश्मीर में कोई ऐसी जगह बची ही नहीं जहां से बाढ़ का पानी बाहर निकल सके। बेमिना जैसी जगह तो बाढ़ के लिये स्वर्ग बन गयी क्योंकि यहा रिहायशी और व्यवसायिक इमारतों ने समूची जमीन ही घेर ली । यानी बाढ़ की जिस त्रासदी का अंदेशा चार बरस पहले किया गया। उस पर आंख मूंदकर कश्मीर को जन्नत का नूर बनाने का सपना देखने वालों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि अगर ऐसा होगा तो फिर ऐसा नजारा भी सामने होगा जब कश्मीर के आस्त्तिव पर ही सवालिया निशान लग जायेगा। जमीन पानी पानी और आसमान ताकती कातर निगाहें पीने के पानी के लिये तरसेंगी। लेकिन पहली बार यह सवाल भी खड़ा हुआ है कि क्या वाकई वक्त के साथ इस तरह की आपदा से निपटने की क्षमता खत्म होती जा रही है क्योंकि 1902 में पहली बार कश्मीर बाढ़ की गिरफ्त में फंसा। उसके 57 बरस बाद 1959 में घाटी इस बुरी तरह बाढ़ से घिरी की तब कश्मीर के लिये अग्रेंजों से मदद मांगी गई। और अब यानी 2014 के हालात तो सबके सामने हैं। तो पहला सवाल कमोवेश हर 55 बरस के बाद कश्मीर बाढ की त्रासदी से घिरा है। दूसरा सवाल बाढ़ से निपटने के लिये पहली बार 2014 में ही सरकार बेबस नजर आ रही है। या फिर कोई तकनीक है ही नहीं कि कश्मीर के लोगो की जान कैसे बचायी जाये।
तो क्या कश्मीर के बचाव को लेकर सरकार के हालात बीसवी सदी से भी बुरे हो चले हैं। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि इससे पहले 1959 में जब कश्मीर में बाढ़ आयी थी तब समूची घाटी पानी में डूब गयी थी। उस वक्त कश्मीर सरकार के पास बाढ़ से बचने के कोई उपाय नही थे तो तत्कालिक सीएम गुलाम मोहम्मद बख्शी ने अग्रेजो से मदद मांगी थी। और तब इग्लैंड के इंजीनियरों ने झेलम का पानी शहर से दूसरी दिशा में मोड़ने के लिये वुल्लहर तक जमीन और पहाड़ को भेद डाला। इसके लिये बकायदा भाप के इंजन का इस्तेमाल किया गया। असल में 1948 में आयी बाढ ने ही कश्मीर को आजादी के बाद पहली चेतावनी दी थी । और तब प्रधानमंत्री नेहरु ने कश्मीर सरकार को ही बाढ़ से निपटने के उपाय निकालने की दिसा में कदम बढ़ाने को कहा था। और उसी के बाद शेख अब्दुल्ला की पहल पर ब्रिटिश इंजीनियरों ने श्रीनगर के पदशाही बाग से वुल्लहर तक करीब 42 किलोमिटर लंबा फ्लड चैनल बनाया गया। जिससे बाढ़ का पानी शहर से बाहर किया जा सके। असर इसी का हुआ कि राजबाग का जो इलाका आज पानी में पूरी तरह डूबा हुआ है और हेलीकाप्टर से राहत देने के अलावे सरकार के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है वहीं 55 बरस पहले अंग्रेंजों की तकनीक से राजबाग में बाढ़ का पानी आने के बावजूद जान-माल की कोई हानि नहीं हुई। लेकिन बीते पचास बरस में बाढ की त्रासदी से निपटने की दिशा में कोई काम तो हुआ नहीं उल्टे पेड़ों की कटाई और पहाड़ों को गिराकर जिसतरह
रिहाइश शुरु हुई और इसी आड में व्यवसायिक धंधे ने निर्माण कार्य शुरु किया असर उसी का है कि मौजूदा बाढ के वक्त समूचे कश्मीर की जमीन ही बाढ़ के लिये बेहतरीन जमीन में बदल चुकी है। घाटी के सारे फ्लड चैनल बंद हो चुके हैं।
झेलम की जमीन नादरु नंबल, नरकारा नंबल और होकारसर पर रिहायशी कालोनिया बन गयी हैं। यहां तक की श्रीनगर विकास अथराटी ने भी फ्लड चैनल पर शापिंग काम्पलेक्स खोल दिया है। यानी कश्मीर जो आज बाढ की बासदी से कराह रहा है उसके पीछे वहीं अंधी दौड़ है जो जमीनों पर कब्जा कर मकान या दुकान बनाने को ही सबसे बडा सुकुन माने हुये है। और हर कोई इसे आपदा मान कर खामोश है और गुनहगारो की तरफ कोई देखने को तैयार नहीं है।
Monday, September 8, 2014
कश्मीर में पानी उतरने के बाद के खौफनाक मंजर देखने के लिए कौन तैयार है?
आंतक ने कश्मीर को छलनी जरुर किया लेकिन बाढ़ की त्रासदी ने तो कश्मीर के आस्त्तिव पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। वैली और लेक की खूबसूरती ने ही कश्मीर को जन्नत बनाया लेकिन अब वैली और लेक ही जिन्दगी पर भारी पड़ रही है। झेलम का पानी दर्जन भर लेक में और लेक का पानी वैली को तहस-नहस कर अब तक डेढ़ हजार गांवों को अपनी हदों में ले चुका है जहां लाखों लोगों के सामने पहला और आखिरी सवाल किसी तरह जिन्दगी बचाने का है। खासकर दर्जन भर लेक से घिरी कश्मीर वैली। आधुनिकता की चादर ओढे घाटी बाढ़ की त्रासदी में एक झटके में सातवी सदी में पहुंच गयी जब आवाजाही के लिये सिर्फ लकड़ी की कश्ती होती थी। लेकिन उस दौर में भी संपर्क साधे जा सकते थे । लेकिन 21 वीं सदी में कश्मीर ने पहली बार उस सच को करीब से देखा है, जब हाथ में मोबाइल है लेकिन बात हो नहीं सकती क्योंकि साढ़े तीन सौ टावर गिर चुके हैं। बारह सौ ने काम करना बंद कर दिया है।
शाम ढलते ही अंधेरा जिन्दगी का हिस्सा बन गया है। क्योंकि डेढ़ हजार ट्रांसफारमर पानी में हैं। पावर सप्लाई बंद है। बच्चो के लिये दूध, पावरोटी तक के लाले पड़ चुके हैं। सतह पर बने घरों में पानी है और घाटी में सिर्फ बीस फिसदी घर ही ऐसे हैं जो दो मंजिला हैं यानी मौजूदा त्रासदी में पानी के उपर आसरा लेने के लिये घाटी के 12 लाख लोगों के लिये जगह भी नहीं है। ज्यादातर खुले आसमान तले मदद की आस में हर पल मौत को देख रहे हैं या फिर कश्मीर की उन लेक से दूर होना चाह रहे है जो कश्मीर की खूबसूरती की पहचान रही। मुश्किल यह है कि डल लेक, गंगाबल लेक, शेषनाग लेक , सतसार लेक , मानसबल लेक, नुंदकोल लेक से लेकर सरीखे दर्जन भर लेक बाढ़ की इस त्रासदी में गडसर लेक में बदल चुके हैं, जिसका मतलब ही होता है डेथ आफ लेक यानी मौत। यानी वैली और लेक की जिस खूबसूरती ने कश्मीर को जन्नत बनाया और हर कश्मीरी हसीन वादियों पर रश्क करता रहा आज उन्हीं वादियों से जिन्दगी बचाने के लिये हर आंख पानी में कश्ती तो आसमान में वायुसेना के विमान को ही देख रही है। क्योंकि कश्मीर की जिस जमीन को लेकर 1947 से ही संघर्ष होता रहा और 1989 के बाद से तो जिस जमीन को सांप्रदायिकता के झरोखे में रखकर दिल्ली से श्रीनगर सुकुन की सिय़ासत करते रहे उस जमीन पर आयी बाढ की त्रासदी ने उन्हें बेबस बना दिया है।
ध्यान दें तो एक हजार करोड की मदद के एलान के साथ प्रधानमंत्री मोदी 36 घंटे पहले कश्मीर दौरा कर लौटे। और उसके बाद से पानी में फंसे करीब पचास लाख लोगो के लिये बीते 36 घंटे से वायु सेना के 23 विमान, 26 हेलीकाप्टर राहत के लिये लगे हुये हैं। दस हजार कंबल , तीस हजार टेंट । सौ से ज्यादा नाव। बोरियो में भरकर खाने की व्यवस्था। लेकिन यह सब कुछ शहरी श्रीनगर में ही खप रहा है या कहे राहत घाटी के उन क्षेत्रों से आगे बढ़ा ही नहीं है, जो कश्मीर देश से कटा हुआ है। आलम यह है कि बाढ़ की वजह से रेडियो कश्मीर, श्रीनगर की सेवाएं भी बंद हो गई हैं। लोगों को बचाने पहुंची राहत टीमें ख़ुद बाढ़ में कई जगह फंस फंस कर आगे बढ पा रही हैं। सारे संपर्क सूत्र कट चुके हैं। यानी एक तरफ कश्मीर की वादियों को पहचान देने वाले हजरत बल, शालीमार निशात बाग, चश्मेशाही सबकुछ पानी पानी है। और त्रासदी का यह नजारा दिखायी भी दे रहा है लेकिन यह कल्पना के परे है कि उन इलाकों में क्या होगा जहा सबकुछ खत्म हो चला है लेकिन वहां ना राहत पहुंच पायी है ना ही कोई कैमरा। अनंतनाग, कुलगाम पुलवामा,बडगाम, शोपिया, बारामूला , कूपवाडा यानी करीब 25 से तीस लाख की आबादी। यह पूरा इलाका पानी में है और अभीतक यहा पानी में रेंगती कश्ती भी नहीं पहुंची है और आसमान में मंडराते 26 हेलीकाप्टर भी नहीं। अनंतनाग की वानपोह, डायलगाम, नौगाम, शीर, सरीखे टाउन में तो हालात कही ज्यादा बदतर होने की खबर है। यह सभी बहुल बस्तियां है और यह इलाके हस्तकरधा की पहचान वाले क्षेत्र हैं। लेकिन बाढ की त्रासदी में सबकुछ बर्बाद हो चुका है। कूपवाडा की लोलाब वैली। पुलवामा का पंपोर, तराल,काकापोरा । शोपिया का तो जिला अस्पताल ही पानी में है। इन इलाको के करीब साढे तीन लाख आबादी तक राहत की कोई लकीर नहीं पहुंची है। वहीं नया खतरा दक्षिण कश्मीर से पानी बहकर मध्य कश्मीर के तरफ आने का हो चला है। श्रीनगर तो पानी से घिरा हुआ है, वहा हालत बहुत ख़राब है। लेकिन अब पानी सोपोर में पहुंचने के आसार है जिससे झेलम का स्तर और बढ़ जाएगा और पूरे शहर के डूबने का ख़तरा भी मंडराने लगा है।लेकिन कश्मीर की त्रासदी तो उस लाइन आफ कन्ट्रोल पर है जिसे लेकर भारत पाकिस्तान के बीच चार बार युद्द हो चुके हैं। और हर बार सारा विवाद लाइन आफ कन्ट्रोल पर ही आ टिका है। गोलियों और घमाके ने लाइन आफ कन्ट्रोल के आर पार खडी सेना को कई मौकों पर आमने सामने ला खड़ा किया।
लेकिन पहली बार बाढ़ के जरीये प्रकृतिक आपदा की ऐसी तस्वीर लाइन ऑफ कन्ट्रोल पर ही उभरी कि सबकुछ पानी पानी हो गया। क्या इस पार क्या उस पार। दोनों तरफ त्रासदी का ऐसा मंजर है कि पहली बार दोनों ही देशों के प्रधानमंत्रियो ने एक दूसरे को मदद देने की गुहार लगा दी। हालात दोनों तरफ के हैं कैसे यह इससे भी समझा जा सकता है कि बारी बारिश, नदियो में उफान, बाढ और भूस्खलन से मौतों की तादाद हो या बेघर लोगों की त्रासदी। लाइन ऑफ कन्ट्रोल के इसपार का पानी हो या उसपार का पानी सभी उन्हीं नदियों की तबाही से निकला मंजर है जो कश्मीर की जननी है। झेलम हो या नीलम। रावी हो या चेनाब। हर नदी के उफान ने दोनो तरफ तबाही फैलायी है। यहां 200 से ज्यादा मौतें हुई है तो पीओके में 183 । इस पार तीन लाख लोग प्रभावित हुये है तो उसपार 28 हजार प्रभावित हुये है। इस पार तीन हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है तो उसपार 600 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है। बेघरों की तादाद की जानकारी दोनो तरफ नहीं है लेकिन सेना का जरिये इस पार बीस हजार बेघर है तो उसपार 16 हजार बेघर । पुनर्वास कैसे हो इसका इंतजाम अभी तक किया नहीं जा सका है। बावजूद इसके छिटपुट व्यवस्ता तले इसपार पुनर्वास शिविर में तीन हजार पहुंचे है तो उसपार पुनर्वास शिविर में 700 लोग हैं। पीओके में सैकड़ों मकान ध्वस्त हो चुके हैं। हजारों लोगों के सामने पीओके में सवाल खड़ा हो गया है कि उनके लिये टेंट तक नहीं पहुंचे। कंबल, दरिया कुछ भी नहीं है। लेकिन त्रासदी ने एलओसी को भी अपनी गिरप्त में ले लिया है । सुरक्षा के कई पोस्ट बह गये हैं। खतरा यह भी मंडरा रहा है कि उस पार से कहीं आतंकवादी इस त्रासदी का लाभ उठाकर कश्मीर में घुस ना आयें। लेकिन पहली बार जमी के जन्नत के आस्त्तितव पर खतरा मंडरा रहा है और दिल्ली हो या इस्लामाबाद श्रीनगर हो या मुज्जफराबाद सोचा कभी किसी ने नहीं कि ऐसी प्रकृतिक विपदा आयेगी तो निपटेंगे कैसे और कोई तंत्र क्यों नहीं है इसपर हर कोई खामोश है। लेकिन जिस हालात में कशमीर अभी खड़ा है कल्पना कीजिये जब पानी उतरेगा उसके बाद के मंजर को देखने के लिये कौन तैयार है!
शाम ढलते ही अंधेरा जिन्दगी का हिस्सा बन गया है। क्योंकि डेढ़ हजार ट्रांसफारमर पानी में हैं। पावर सप्लाई बंद है। बच्चो के लिये दूध, पावरोटी तक के लाले पड़ चुके हैं। सतह पर बने घरों में पानी है और घाटी में सिर्फ बीस फिसदी घर ही ऐसे हैं जो दो मंजिला हैं यानी मौजूदा त्रासदी में पानी के उपर आसरा लेने के लिये घाटी के 12 लाख लोगों के लिये जगह भी नहीं है। ज्यादातर खुले आसमान तले मदद की आस में हर पल मौत को देख रहे हैं या फिर कश्मीर की उन लेक से दूर होना चाह रहे है जो कश्मीर की खूबसूरती की पहचान रही। मुश्किल यह है कि डल लेक, गंगाबल लेक, शेषनाग लेक , सतसार लेक , मानसबल लेक, नुंदकोल लेक से लेकर सरीखे दर्जन भर लेक बाढ़ की इस त्रासदी में गडसर लेक में बदल चुके हैं, जिसका मतलब ही होता है डेथ आफ लेक यानी मौत। यानी वैली और लेक की जिस खूबसूरती ने कश्मीर को जन्नत बनाया और हर कश्मीरी हसीन वादियों पर रश्क करता रहा आज उन्हीं वादियों से जिन्दगी बचाने के लिये हर आंख पानी में कश्ती तो आसमान में वायुसेना के विमान को ही देख रही है। क्योंकि कश्मीर की जिस जमीन को लेकर 1947 से ही संघर्ष होता रहा और 1989 के बाद से तो जिस जमीन को सांप्रदायिकता के झरोखे में रखकर दिल्ली से श्रीनगर सुकुन की सिय़ासत करते रहे उस जमीन पर आयी बाढ की त्रासदी ने उन्हें बेबस बना दिया है।
ध्यान दें तो एक हजार करोड की मदद के एलान के साथ प्रधानमंत्री मोदी 36 घंटे पहले कश्मीर दौरा कर लौटे। और उसके बाद से पानी में फंसे करीब पचास लाख लोगो के लिये बीते 36 घंटे से वायु सेना के 23 विमान, 26 हेलीकाप्टर राहत के लिये लगे हुये हैं। दस हजार कंबल , तीस हजार टेंट । सौ से ज्यादा नाव। बोरियो में भरकर खाने की व्यवस्था। लेकिन यह सब कुछ शहरी श्रीनगर में ही खप रहा है या कहे राहत घाटी के उन क्षेत्रों से आगे बढ़ा ही नहीं है, जो कश्मीर देश से कटा हुआ है। आलम यह है कि बाढ़ की वजह से रेडियो कश्मीर, श्रीनगर की सेवाएं भी बंद हो गई हैं। लोगों को बचाने पहुंची राहत टीमें ख़ुद बाढ़ में कई जगह फंस फंस कर आगे बढ पा रही हैं। सारे संपर्क सूत्र कट चुके हैं। यानी एक तरफ कश्मीर की वादियों को पहचान देने वाले हजरत बल, शालीमार निशात बाग, चश्मेशाही सबकुछ पानी पानी है। और त्रासदी का यह नजारा दिखायी भी दे रहा है लेकिन यह कल्पना के परे है कि उन इलाकों में क्या होगा जहा सबकुछ खत्म हो चला है लेकिन वहां ना राहत पहुंच पायी है ना ही कोई कैमरा। अनंतनाग, कुलगाम पुलवामा,बडगाम, शोपिया, बारामूला , कूपवाडा यानी करीब 25 से तीस लाख की आबादी। यह पूरा इलाका पानी में है और अभीतक यहा पानी में रेंगती कश्ती भी नहीं पहुंची है और आसमान में मंडराते 26 हेलीकाप्टर भी नहीं। अनंतनाग की वानपोह, डायलगाम, नौगाम, शीर, सरीखे टाउन में तो हालात कही ज्यादा बदतर होने की खबर है। यह सभी बहुल बस्तियां है और यह इलाके हस्तकरधा की पहचान वाले क्षेत्र हैं। लेकिन बाढ की त्रासदी में सबकुछ बर्बाद हो चुका है। कूपवाडा की लोलाब वैली। पुलवामा का पंपोर, तराल,काकापोरा । शोपिया का तो जिला अस्पताल ही पानी में है। इन इलाको के करीब साढे तीन लाख आबादी तक राहत की कोई लकीर नहीं पहुंची है। वहीं नया खतरा दक्षिण कश्मीर से पानी बहकर मध्य कश्मीर के तरफ आने का हो चला है। श्रीनगर तो पानी से घिरा हुआ है, वहा हालत बहुत ख़राब है। लेकिन अब पानी सोपोर में पहुंचने के आसार है जिससे झेलम का स्तर और बढ़ जाएगा और पूरे शहर के डूबने का ख़तरा भी मंडराने लगा है।लेकिन कश्मीर की त्रासदी तो उस लाइन आफ कन्ट्रोल पर है जिसे लेकर भारत पाकिस्तान के बीच चार बार युद्द हो चुके हैं। और हर बार सारा विवाद लाइन आफ कन्ट्रोल पर ही आ टिका है। गोलियों और घमाके ने लाइन आफ कन्ट्रोल के आर पार खडी सेना को कई मौकों पर आमने सामने ला खड़ा किया।
लेकिन पहली बार बाढ़ के जरीये प्रकृतिक आपदा की ऐसी तस्वीर लाइन ऑफ कन्ट्रोल पर ही उभरी कि सबकुछ पानी पानी हो गया। क्या इस पार क्या उस पार। दोनों तरफ त्रासदी का ऐसा मंजर है कि पहली बार दोनों ही देशों के प्रधानमंत्रियो ने एक दूसरे को मदद देने की गुहार लगा दी। हालात दोनों तरफ के हैं कैसे यह इससे भी समझा जा सकता है कि बारी बारिश, नदियो में उफान, बाढ और भूस्खलन से मौतों की तादाद हो या बेघर लोगों की त्रासदी। लाइन ऑफ कन्ट्रोल के इसपार का पानी हो या उसपार का पानी सभी उन्हीं नदियों की तबाही से निकला मंजर है जो कश्मीर की जननी है। झेलम हो या नीलम। रावी हो या चेनाब। हर नदी के उफान ने दोनो तरफ तबाही फैलायी है। यहां 200 से ज्यादा मौतें हुई है तो पीओके में 183 । इस पार तीन लाख लोग प्रभावित हुये है तो उसपार 28 हजार प्रभावित हुये है। इस पार तीन हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है तो उसपार 600 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है। बेघरों की तादाद की जानकारी दोनो तरफ नहीं है लेकिन सेना का जरिये इस पार बीस हजार बेघर है तो उसपार 16 हजार बेघर । पुनर्वास कैसे हो इसका इंतजाम अभी तक किया नहीं जा सका है। बावजूद इसके छिटपुट व्यवस्ता तले इसपार पुनर्वास शिविर में तीन हजार पहुंचे है तो उसपार पुनर्वास शिविर में 700 लोग हैं। पीओके में सैकड़ों मकान ध्वस्त हो चुके हैं। हजारों लोगों के सामने पीओके में सवाल खड़ा हो गया है कि उनके लिये टेंट तक नहीं पहुंचे। कंबल, दरिया कुछ भी नहीं है। लेकिन त्रासदी ने एलओसी को भी अपनी गिरप्त में ले लिया है । सुरक्षा के कई पोस्ट बह गये हैं। खतरा यह भी मंडरा रहा है कि उस पार से कहीं आतंकवादी इस त्रासदी का लाभ उठाकर कश्मीर में घुस ना आयें। लेकिन पहली बार जमी के जन्नत के आस्त्तितव पर खतरा मंडरा रहा है और दिल्ली हो या इस्लामाबाद श्रीनगर हो या मुज्जफराबाद सोचा कभी किसी ने नहीं कि ऐसी प्रकृतिक विपदा आयेगी तो निपटेंगे कैसे और कोई तंत्र क्यों नहीं है इसपर हर कोई खामोश है। लेकिन जिस हालात में कशमीर अभी खड़ा है कल्पना कीजिये जब पानी उतरेगा उसके बाद के मंजर को देखने के लिये कौन तैयार है!
Friday, September 5, 2014
भ्रष्टाचार के सत्ताधारी नैक्सेस को कौन तोड़ेगा
एक लाख 70 हजार करोड़ का 2 जी घोटाला और 1लाख 86 हजार करोड़ के कोयला घोटाले ने मनमोहन सरकार की सियासी नाव में ऐसा छेद किया की सरकार का सूपड़ा ही साफ हो गया और कांग्रेस इतिहास के सबसे बुरे दौर में जा पहुंची। और इसी दौर में इन घोटालों की जांच कर रही सीबीआई के कामकाज को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सरकारी तोता कहने में कोताही नहीं बरती। इसलिये 2 जी सपेक्ट्रम और कोयलागेट की जांच को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में ले लिया। लेकिन दिल्ली के 2 जनपथ यानी सीबीआई डायरेक्टर के सरकारी घर पर मिलने वालो की सूची ने देश के प्रीमियर जांच एजेंसी सीबीआई के डायरेक्टर को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। और अब यह सवाल देश के सामने सबसे बड़ा हो चला है कि क्या कोई पद अगर संवैधानिक हो उसे कटघरे में खड़ा करना प्रधानमंत्री के लिये भी मुश्किल है। हालात परखे तो पहली बार भ्रष्टाचार को लेकर जांच कर रही सीबीआई के डायरेक्टर के घर के मेहमानों ने यह तो सवाल खड़ा कर ही दिया है कि देश में सबसे ताकतवर वहीं है जिसके पास न्याय करने के सबसे ज्यादा अधिकार है। कांग्रेस के दौर में चीफ जस्टिस रहे रंगनाथ मिश्र को सियासी लाभ और बीजेपी के दौर में चीफ जस्टिस
रहे सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाने को भी इस हालात से जोड़ा जा सकता है। पूर्व सीएजी विनोद राय की बीजेपी से निकटता भी इस दायरे में आ सकता है। लेकिन बड़ा सवाल तो सीबीआई डायरेक्टर का है, जिन्हें लोकपाल में लाने के खिलाफ वही सियासत थी जो दागियो की फेरहिस्त से इतर मुलाकातियों की सूची में दर्ज है।
मुलाकातियों के डायरी के इन पन्नो में जिन नामों को जिक्र बार बार है। उनमें 2 जी स्पेक्ट्रम, कोयला खादानों के अवैध आंवटन, हवाला घपले, सरघाना चीटफंड का घपला यानी किसी आरोपी ने सीबीआई दफ्तर जाकर अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं दिखायी बल्कि सभी ने दसियों बार सीबीआई डायरेक्टर के घर का दरवाजा खटखटाने में कोई हिचक नहीं दिखायी। फेहरिस्त खुद ही कई सवालो को जन्म देती है। मसलन, कोयला घोटाले में फंसे महाराष्ट्र के दर्डा परिवार के देवेन्द्र दर्डा एक दो बार नहीं बल्कि 30 बार सीबीआई डायरेक्टर से मिलने पहुंचे। तीन कोयला खादान पाने वाले एमपी रुगटा तो 40 बार सीबीआई डायरेक्टर के घर पहुंचे। रिलायंस यानी अनिल अंबानी का नाम भी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में आया है तो उसके दिल्ली के एक अधिकारी टोनी पचास बार मिलने पहुंचे। इस फेहरिस्त में हवाला घोटाले में फंसे पूर्व सीबीआई डायरेक्टर एपी सिंह और विवादास्पद मोईन अख्तर कुरैशी भी कई बार सीबीआई डायरेक्टर के घर पहुंचे। खास बात यह भी है कि
चुनाव प्रचार के दौरान तो प्रधानमंत्री मोदी भी मीट एक्सपोर्टर मोईन अख्तर कुरैशी को आरोपो के कटघरे में खडा कर चुके थे और उन्होंने कुरैशी के संबंध 10 जनपथ से भी जोड़े थे। मुश्किल सिर्फ यह नहीं है कि सीबीआई डायरेक्टर के घर कोयलाघोटाले के आरोपियों के अलावा 2 जी स्पेक्ट्रम के खेल में फंसे कई कारपोरेट्स के अधिकारी भी पहुंचे। परेशानी का सबब यह है कि 2013-2014 के दौरान आधे दर्जन से ज्यादा अधिकारियों के नाम सीबीआई डायरेक्टर के साथ मुलाकातियों की फेरहिस्त में जिक्र है जिनके खिलाफ सीबीआई जांच चल रही है। और नामों की फेरहिस्त में देश के वीवीआईपी भी है । यानी देश की जिस जांच एंजेसी को लेकर लोगो में भरोसा जागना चाहिये उस जांच एजेंसी का खौफ ही इस तरह हो चुका है कि हर कोई सीबीआई डायरेक्टर की मेहमाननवाजी चाहती है क्योंकि सीबीआई डायरेक्टर के घर पहुंचे मेहमानों की डायरी के इन पन्नो में सिर्फ दागी नहीं है बल्कि राजनीतिक गलियारे के दलाल भी है राजनेता भी और वीवीआईपी कतार में खड़े खास भी।
तो क्या सीबीआई डायरेक्टर इस देश का सबसे ताकतवर शख्स है जिसके सामने हर किसी को नतमस्तक होना पड़ता है या फिर सीबीआई डायरेक्टर से हर खास की मुलाकात एक आम बात है। क्योंकि नामों की फेरहिस्त में हिन्दुस्तान जिंक के विनिवेश मामले में फंसे वेदांता के अनिल अग्रवाल का नाम भी है। एस्सार कंपनी के प्रतिनिधि सुनील बजाज का भी नाम है जो कंपनी 2 जी मामले में फंसी है। दीपक तलवार का नाम भी है जो राजनीति गलियारे में लॉबिइस्ट माना जाता है। इतना ही नहीं देश के पूर् विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद हो या सेबी के पूर्व अध्यक्ष यू के सिन्हा, पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के दामाद रंजन भट्टाचार्य हो या दिल्ली के पूर्व पुलिस कमीशनर नीरज कुमार या फिर ओसवाल ग्रूप के अनिल भल्ला या बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता शहनवाज हुसैन। हर ताकतवर शख्स सीबीआई डायरेक्टर के घर सिर्फ चाय पीने जाता है या सीबीआई डायरेक्टर के घर मेहमान बनना दिल्ली की रवायत है। यह सारे सवाल इसलिये बेमानी है क्योंकि खुद सीबीआई डायरेक्टर को इससे ताकत मिलती है। और ताकतवर लोग अपनी ताकत, ताकतवाले ओहदे के नजदीकी से पाते है। क्योंकि सीबीआई डायरेक्टर ही लगातार बदलते रहे और आखिर में यह कहने से नहीं चुके कि अगर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि जांच पर असर पड़ेगा तो वह खुद को अलग कर सकते है। लेकिन यह हालात क्यों कैसे आ गये। यह भी दिलचस्प है। मीडिया में डायरी की बात आई तो सबसे पहले कहा ऐसी कोई डायरी नहीं है। जब पन्ने छपने लगे तो फिर कहा , मैंने किसी को लाभ नहीं पहुंचाया। अब कहा सुप्रीम कोर्ट चाहे तो वह खुद को जांच से अलग कर लेंगे। मुश्किल सिर्फ इतनी नहीं है बल्कि ताकतवर नैक्सेस कैसे मीडिया को भी दबाना चाहता है यह भी इसी दौर में नजर आया क्योंकि मीडिया डायरी के पन्नों को ना छापे, ना दिखाये या सीबीआई
डायरेक्टर एक प्रीमियर पद है इसलिये इसपर रोक लगनी चाहिये। यह सवाल भी सीबीआई डायरेक्टर ने ही सुप्रीम कोर्ट के सामने उठाया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब इससे इंकार कर दिया तो फिर सबसे दिलचस्प सच सामने यह आ गया कि जबसे सीबीआई के मेहमानों के नाम सार्वजनिक होने लगे उन 72 घंटों में सीबीआई डायरेक्टर के घर देश का कोई वीवीआईपी चाय पीने नहीं पहुंचा। यानी 2013-14 के दौरान दिल्ली में 2 जनपथ यानी सीबीआई डायरेक्टर का सरकारी निवास जो हर दागी और खास का सबसे चुनिंदा घर था उस घर में जाने वालों ने झटके में ब्रेक लगा दी।
देश में भ्रष्टाचार की असल मुश्किल यही है कि ताकतवर को हर रास्ता कानून की ताकत तबतक देता है जब तक वह कानून की पकड़ में ना आये और इस दौर में जबतक वह चाहे कानून की घज्जिया उड़ा सकता है। क्योंकि ताकतवर लोगों के सरोकार आम से नहीं खास से होते है। और यही नैक्सस इस दौर में सत्ता का प्रतीक बन चुका है। और संसद कुछ कर नहीं पाती क्योंकि वहा भी दागियों की फेरहिस्त सांसदों से नैतिक बल छिन लेती है। और चुनाव के दौर में चुनावी पूंजी को परखे तो ज्यादातर पूंजी उन्हीं कारपोरेट और उघोगपतियों की लगी होती है जो एक वक्त दागी होते है और संसद के जरिये दाग घुलवाने के लिये चुनाव से लेकर सत्ता बनने तक के दौर में राजनेताओं के सबसे करीब हो जाते है!
रहे सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाने को भी इस हालात से जोड़ा जा सकता है। पूर्व सीएजी विनोद राय की बीजेपी से निकटता भी इस दायरे में आ सकता है। लेकिन बड़ा सवाल तो सीबीआई डायरेक्टर का है, जिन्हें लोकपाल में लाने के खिलाफ वही सियासत थी जो दागियो की फेरहिस्त से इतर मुलाकातियों की सूची में दर्ज है।
मुलाकातियों के डायरी के इन पन्नो में जिन नामों को जिक्र बार बार है। उनमें 2 जी स्पेक्ट्रम, कोयला खादानों के अवैध आंवटन, हवाला घपले, सरघाना चीटफंड का घपला यानी किसी आरोपी ने सीबीआई दफ्तर जाकर अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं दिखायी बल्कि सभी ने दसियों बार सीबीआई डायरेक्टर के घर का दरवाजा खटखटाने में कोई हिचक नहीं दिखायी। फेहरिस्त खुद ही कई सवालो को जन्म देती है। मसलन, कोयला घोटाले में फंसे महाराष्ट्र के दर्डा परिवार के देवेन्द्र दर्डा एक दो बार नहीं बल्कि 30 बार सीबीआई डायरेक्टर से मिलने पहुंचे। तीन कोयला खादान पाने वाले एमपी रुगटा तो 40 बार सीबीआई डायरेक्टर के घर पहुंचे। रिलायंस यानी अनिल अंबानी का नाम भी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में आया है तो उसके दिल्ली के एक अधिकारी टोनी पचास बार मिलने पहुंचे। इस फेहरिस्त में हवाला घोटाले में फंसे पूर्व सीबीआई डायरेक्टर एपी सिंह और विवादास्पद मोईन अख्तर कुरैशी भी कई बार सीबीआई डायरेक्टर के घर पहुंचे। खास बात यह भी है कि
चुनाव प्रचार के दौरान तो प्रधानमंत्री मोदी भी मीट एक्सपोर्टर मोईन अख्तर कुरैशी को आरोपो के कटघरे में खडा कर चुके थे और उन्होंने कुरैशी के संबंध 10 जनपथ से भी जोड़े थे। मुश्किल सिर्फ यह नहीं है कि सीबीआई डायरेक्टर के घर कोयलाघोटाले के आरोपियों के अलावा 2 जी स्पेक्ट्रम के खेल में फंसे कई कारपोरेट्स के अधिकारी भी पहुंचे। परेशानी का सबब यह है कि 2013-2014 के दौरान आधे दर्जन से ज्यादा अधिकारियों के नाम सीबीआई डायरेक्टर के साथ मुलाकातियों की फेरहिस्त में जिक्र है जिनके खिलाफ सीबीआई जांच चल रही है। और नामों की फेरहिस्त में देश के वीवीआईपी भी है । यानी देश की जिस जांच एंजेसी को लेकर लोगो में भरोसा जागना चाहिये उस जांच एजेंसी का खौफ ही इस तरह हो चुका है कि हर कोई सीबीआई डायरेक्टर की मेहमाननवाजी चाहती है क्योंकि सीबीआई डायरेक्टर के घर पहुंचे मेहमानों की डायरी के इन पन्नो में सिर्फ दागी नहीं है बल्कि राजनीतिक गलियारे के दलाल भी है राजनेता भी और वीवीआईपी कतार में खड़े खास भी।
तो क्या सीबीआई डायरेक्टर इस देश का सबसे ताकतवर शख्स है जिसके सामने हर किसी को नतमस्तक होना पड़ता है या फिर सीबीआई डायरेक्टर से हर खास की मुलाकात एक आम बात है। क्योंकि नामों की फेरहिस्त में हिन्दुस्तान जिंक के विनिवेश मामले में फंसे वेदांता के अनिल अग्रवाल का नाम भी है। एस्सार कंपनी के प्रतिनिधि सुनील बजाज का भी नाम है जो कंपनी 2 जी मामले में फंसी है। दीपक तलवार का नाम भी है जो राजनीति गलियारे में लॉबिइस्ट माना जाता है। इतना ही नहीं देश के पूर् विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद हो या सेबी के पूर्व अध्यक्ष यू के सिन्हा, पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के दामाद रंजन भट्टाचार्य हो या दिल्ली के पूर्व पुलिस कमीशनर नीरज कुमार या फिर ओसवाल ग्रूप के अनिल भल्ला या बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता शहनवाज हुसैन। हर ताकतवर शख्स सीबीआई डायरेक्टर के घर सिर्फ चाय पीने जाता है या सीबीआई डायरेक्टर के घर मेहमान बनना दिल्ली की रवायत है। यह सारे सवाल इसलिये बेमानी है क्योंकि खुद सीबीआई डायरेक्टर को इससे ताकत मिलती है। और ताकतवर लोग अपनी ताकत, ताकतवाले ओहदे के नजदीकी से पाते है। क्योंकि सीबीआई डायरेक्टर ही लगातार बदलते रहे और आखिर में यह कहने से नहीं चुके कि अगर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि जांच पर असर पड़ेगा तो वह खुद को अलग कर सकते है। लेकिन यह हालात क्यों कैसे आ गये। यह भी दिलचस्प है। मीडिया में डायरी की बात आई तो सबसे पहले कहा ऐसी कोई डायरी नहीं है। जब पन्ने छपने लगे तो फिर कहा , मैंने किसी को लाभ नहीं पहुंचाया। अब कहा सुप्रीम कोर्ट चाहे तो वह खुद को जांच से अलग कर लेंगे। मुश्किल सिर्फ इतनी नहीं है बल्कि ताकतवर नैक्सेस कैसे मीडिया को भी दबाना चाहता है यह भी इसी दौर में नजर आया क्योंकि मीडिया डायरी के पन्नों को ना छापे, ना दिखाये या सीबीआई
डायरेक्टर एक प्रीमियर पद है इसलिये इसपर रोक लगनी चाहिये। यह सवाल भी सीबीआई डायरेक्टर ने ही सुप्रीम कोर्ट के सामने उठाया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब इससे इंकार कर दिया तो फिर सबसे दिलचस्प सच सामने यह आ गया कि जबसे सीबीआई के मेहमानों के नाम सार्वजनिक होने लगे उन 72 घंटों में सीबीआई डायरेक्टर के घर देश का कोई वीवीआईपी चाय पीने नहीं पहुंचा। यानी 2013-14 के दौरान दिल्ली में 2 जनपथ यानी सीबीआई डायरेक्टर का सरकारी निवास जो हर दागी और खास का सबसे चुनिंदा घर था उस घर में जाने वालों ने झटके में ब्रेक लगा दी।
देश में भ्रष्टाचार की असल मुश्किल यही है कि ताकतवर को हर रास्ता कानून की ताकत तबतक देता है जब तक वह कानून की पकड़ में ना आये और इस दौर में जबतक वह चाहे कानून की घज्जिया उड़ा सकता है। क्योंकि ताकतवर लोगों के सरोकार आम से नहीं खास से होते है। और यही नैक्सस इस दौर में सत्ता का प्रतीक बन चुका है। और संसद कुछ कर नहीं पाती क्योंकि वहा भी दागियों की फेरहिस्त सांसदों से नैतिक बल छिन लेती है। और चुनाव के दौर में चुनावी पूंजी को परखे तो ज्यादातर पूंजी उन्हीं कारपोरेट और उघोगपतियों की लगी होती है जो एक वक्त दागी होते है और संसद के जरिये दाग घुलवाने के लिये चुनाव से लेकर सत्ता बनने तक के दौर में राजनेताओं के सबसे करीब हो जाते है!