Saturday, January 31, 2015

या तो राजनीति सुधर जाये या दिल्ली बदल जाये !

लोकसभा चुनाव ने सत्ताधारियों को चेताया कि वह सत्ता पाने के बाद सत्ता की मद में खो ना जाये। दिल्ली चुनाव सत्ताधारियों को चेता रही है कि ईमानदारी जरुरी है। चाहे वह वादों को लेकर हो या फिर आरोप मढ़ने के आसरे
नारों की गूंज की हो। लोकसभा और दिल्ली चुनाव के बीच का वक्त साल भर का भी नहीं है। इसलिये दिल्ली चुनाव झटके में इतना महत्वपूर्ण हो चला है कि जीत-हार के आसरे राजनीतिक सुधार देश में होगा या नहीं बहस इस पर भी चल पड़ी है। और संयोग से ज्यादा बहस उस सोशल मीडिया में है, जिसके जिन्न को लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी दल के हथियार बनाया और अब वह उसे ढाल बनाना चाहता है। यह संभव है नहीं क्योंकि दिल्ली चुनाव के तौर तरीके या कहें आरोप प्रत्यारोप ने झटके में पहली बार तीन सवालो को जन्म दे दिया है। और संकेत भी दे दिये हैं कि गठबंधन से आगे सत्ता की चकाचौंध पर ईमानदारी भारी पड़ सकती है। यह तीन सवाल राजनीतिक सुधार के भी है और तीन सवाल गैर बराबरी को खत्म करने वाले भी हैं। पहले बात राजनीतिक सुधार की। राजनीतिक घोषणापत्र सिर्फ बोलने और बताने के लिये नहीं होता। अब जरुरत आ गयी है कि पार्टियों के घोषणापत्र को कानूनी तौर पर मान्य माना जाये। दूसरी बात देश के बजट सरीखे पार्टियो का भी बजट पेश होना चाहिये। यानी जिस तरह सरकार हर बरस देश का बजट पेश कर बताती है कि उसकी योजना कहां से पैसा लाने की है और कहा खर्च करने की है तो फिर राजनीतिक दलों को भी इसी तरह हर बरस
पना बजट पेश करना चाहिये। जिससे पार्टियों में कालाधन ना जमा हो। क्रोनी कैपिटलिज्म का खेल सत्ता के पर्दे पीछे पार्टी फंड के नाम पर ना हो। और हार के बाद या जीतने वाले हालात में पहुंचने वाली पार्टियों का बजट भी पारदर्शी रहे। जिससे सत्ता पाने के बाद नीतियो का खेल सिर्फ फंड देने वालों के लिये ना हो। तीसरी बात कानून की सत्ता के आगे सत्ताधारी और राजनीतिक दल भी समान रुप से देश के बाकि संस्थानों या कारपोरेट तरीके ही आये। यानी सत्ता को लेकर कानून का नजरिया इसलिये लग नहीं होना चाहिये कि वह जनता की नूमाइन्दगी कर रही है। यानी इमानदारी का यह चेहरा नहीं चलेगाकि मंत्री के बेटे ने बाप के हदे के नाम पर कमाई कर ली और फंड में आने पर सारी रकम पार्टी फंड में जमा करा दी। यानी मौजूदा वक्त में पार्टी फंड को ईमानदार करार देकर जिस तरह सत्ता काम करती है और चुनाव के वक्त पार्टी फंड ही सबसे ताकतवर हो जाता है उसमें जनता की भागेदारी किसी भी चुनाव में सिर्फ इतनी रहती है कि जो सत्ता में आयेगा उससे मिलेगा क्या। या फिर सत्ता में आने क लिये चुनाव कौन कितना महंगा लड़ सकता है।

इसकी बारीकी को समझे तो सत्ताधारी पार्टी का कार्यकर्ता दूसरी पार्टी के कार्यकर्ता से इसलिये ताकतवर दिखायी देता है क्योंकि पार्टी फंड में जमा कराने वाले के काम उसके जरीये हो सकते है। और देश में पार्टी कार्यकर्ताओं के लिये यही रोजगार होता है कि दस लाख पार्टी फंड में तो एक लाख अपनी जेब में। यह रकम करोड़ों में भी हो सकती है। यानी जो सक्षम है उसके काम पार्टी के जरीये सरकार करती है और चुनाव के वक्त पार्टी ही सरकार हो जाती है क्योंकि संगठन का चेहरा ही चुनाव लड़कर जीतने के आस में बनाया जाता है। जाहिर है राजनीतिक सुधार पर अभी तक देश में बहस हुई नहीं है क्योंकि राजनीतिक सत्ता पने पैरो पर इमानदारी का पत्थर क्यों मारेगी। लेकिन इसी ने देश के नागरिकों के लेकर भी सवाल निकलते है और दिल्ली चुनाव के संकेत पहली बार उसी दिशा में राजनीति को लेजाने का प्रयास भी है। क्योंकि जीतने के बाद जिम्मेदारी से मुक्ति तो तभी हो जाती है जब राजनीतिक दलों के पास विकास का मॉडल या कहे जनहित का मॉडल कारपोरेट या उद्योगपतियो की पूंजी पर टिका हो। यानी राज्य की भी कोई जिम्मेदारी होनी और राजनीतिक दल जब सत्ता में आ जाये तो जिस तर्ज पर सत्ता में ने से पहले वह सड़क पर हक के लिये नारेलगाता था सत्ता में आने के बाद उसे पूरा करने की जिम्मेदारी ले। कह सकते हैं बच्चे उच्च शिक्षा पाये यह हर सत्ता चाहती है। पानी हर किसी को मिले, यह नेहरु के दौर से नरेन्द्र मोदी तक कहते हैं। बिजली चौबिसों घंटे मिलेगी। स्वास्थ्य सेवा हर किसी को मिलनी चाहिये । खुले आसमान तले कोई नहीं सोना चाहिये। रोजगार की व्यलस्था हर किसी के पास होनी चाहिये। यह कौन नहीं चाहती है। लेकिन इस पर राजनीतिक पार्टियां सत्ता पाते ही खामोश क्यों हो जाती है। इच्छा है दिल्ली चुनाव के वक्त शिक्षा, पानी, बिजली, स्वास्थ्य को लेकर सवाल उठे है और एक दो राजनीतिक दल इसे राज्य की जिम्मेदारी मानने को भी तैयार दिखायी दे रहा है।

लेकिन देश के कठघरे में गर राज्य सत्ता को खड़ा कर दे तो हालात त्रासदी से भी बदतर नजर आयेंगे। जरा कल्पना कीजिये दिल्ली जैसी जगह में अगर कोई छात्र बारहवी क्लास में नब्बे फीसदी कम अंक लाता है तो उसका एडमिशन किसी यूनिवर्सिटी के किसी कालेज में हो ही नहीं सकता। तो क्या नब्बे फीसदी से कम अंक लाने वाला छात्र नालायक है। या फिर सत्ताधारियों ने देश में शिक्षा के नाम पर एक ऐसी व्यवस्था बना ली है जो शिक्षा के निजीकरण को मान्यता देती है। महंगी शिक्षा को मान्यता देती है। सबकुछ गिरवी रखकर बैक से लोन लेकर या किसी साहूकर से लोन लेकर ही बच्चे को पढ़ाना मजबूरी बना दिया गया है। और इन्हीं निजी शिक्षा संस्थानों का सबसे ज्यादा डोनेशन पार्टियों के फंड में पहुंचता है। दूसरा सवाल देश में जितने भी स्वास्थ्य सेवा केन्द्र है, अगर उस लिहाज से देश की जनसंख्या देखें तो राज्य की जिम्मेदारी देश के सिर्फ 12 फिसदी तक के पहुंच की है। 45 फिसदी नागरिकों का इलाज खुले आसमान तले ही होता है । जबकि देश के 20 फिसदी लोगो के लिये निजी हेल्थ स्वास्थ्य सेवा। और नौकरी पेशा लोगो के लिये हेल्थ इंश्योरेंस के जरीये ही होता है। लेकिन कल्पना कीजिये की देश में आजादी के बाद से स्वास्थ्य सेवा के लिये जो बजट रहा अगर से जोड़ भी दिया जाये तो बीते दस बरस के निजी हेल्थ इंश्योरेंस की रकम भारी पड़ेगी। मौजूदा वक्त में हर बरस हेल्थ इंश्योरेंस से जुड़े देश के 21 फिसदी लोग बाकी 79 फिसदी लोगों से तीन गुना हेल्थ सर्विस पर खर्च करते है। इतना ही नहीं स्वास्थ्य मंत्रालय के बजट से सिर्फ तीन गुना ज्यादा कमाई मौजूदा वक्त में स्वास्थय सेवा को धंधा बनाये लोगों को होता है। दिल्ली में स्वास्थ्य सेवा का भी सवाल उठा है जो पूरी तरह राज्य की निगरानी में ही नहीं बल्कि राज्य की जिम्मेदारी होनी चाहिये। तो मनाइये कि दिल्ली के आगे बी यह सवाल बढ़ जाये। वहीं सबसे बड़ा सवाल देश में न्याय व्यवस्था का भी है। निचली अदालत के आगे हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक
न्याय की गुहार के लिये देश के सिर्फ 10 फिसदी लोग ही पहुंच पाते है। क्योंकि औसतन हाईकोर्ट में आपराधिक मामले केस को निपटाने में न्यूनतम 10 लाख रुपये लगते ही है। वकील की औसतन सबसे कम फिस हर पेशी के वक्त सिर्फ मौजूद रहने की देश में 10 हजार है। कोई भी केस 15 पेशी से कम पर खत्म होता नहीं। वहीं सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंच गया तो न्याय के लिये संघर्ष की रकम बढकर न्यूनतम अस्सी लाख रुपये पा कर जाती है। ऐसे में बड़ा सवाल यह भी है कि न्याय सेवा और अंतिम न्याय भारत में बहुसंख्य तबके के लिये निचली अदालत से आगे बढ़ नहीं पाता है। तो फिर अदालतों में तीन लाख से ज्यादा मामले लंबित हो या तीन करोड रुपये फर्क पड़ता क्या है जब दिल्ली के तिहाड में ही ढाई सौ से ज्यादा आरोपी अपराधी इसलिये बंद है क्योंकि उनके पास जमानत की रकम तक देने के लिये नहीं है । देश भर की जेलों में बंद तीस हजार से ज्यादा आरोपी अपराधियों की हालत ऐसी है कि उनकी सुनवाई हो कैसे। वकील के लिये रकम इनके पास है नहीं और सरकारी वकीलो की तादाद भी कम है और जजों के पास आने वाले मामले भी अत्य़ाधिक है। चूंकि राज्य जिम्मेदारी से मुक्त है। उसके पास जनता के जीवन को बेहतर बनाने का ब्लूप्रिट कारपोरेट.
उघोगपतियो या मुनाफा बनाकर जनसेवा करने वाला है तो हर रास्ता पूंजी पर जा टिका है। राजनेता अपनी सत्ता को लेकर जिस तरह स्वार्थी है या कहे सत्ता का मतलब ही जब जन-लूट से हो चुका है तो दिल्ली चुनाव का यह मैसेज कि सत्ता सेवा के लिये होनी चाहिये तो क्या यह संदेश मौजूदा राजनीति को बदल सकता है। या वाकई देश में राजनीतिक ताकत या राजसत्ता जनता के साथ खड़े होकर सडक,बिजली पानी, शिक्षा स्वास्थ्य को पूरा करने में लग सकती है। यह असंभव से हालात को थामने के लिये दिल्ली या तो एक प्रयोगशाला बन सकती है या फिर संसदीय राजनीति पंरपरिक लीक पर ही चले। जहां सत्ता पाने का मतलब हर सुविधा की लूट है। सामाजिक विषमता को बरकरार रखने की ताकत है। तो इंतजार किजिये दिल्ली चुनाव से संकेत निकले है तो रास्ता भी निकलेगा।

Wednesday, January 28, 2015

दिल्ली फतह की इतनी बेताबी क्यों है?

बजट के महीने में देश के वित्त मंत्री को अगर दिल्ली चुनाव के लिये दिल्ली बीजेपी हेडक्वार्टर में बैठना पड़े। केन्द्र के दर्जन भर कैबिनेट मंत्रियों को दिल्ली की सड़कों पर चुनावी प्रचार की खाक छाननी पड़े। सरकार की नीतियां चकाचौंध भारत के सपनों को उड़ान देने लगे। और चुनावी प्रचार की जमीन, पानी सड़क बिजली से आगे बढ़ नहीं पा रही हो तो संकेत साफ हैं, उपभोक्ताओं का भारत दुनिया को ललचा रहा है और न्यूनतम की जरुरत का संघर्ष सत्ता को चुनाव में बहका रहा है। दोनों खेल एक साथ कैसे चल सकते हैं या दो भारत को एक साथ जीने की कला जिस महारथी में होगी, वही मौजूदा वक्त में सबसे ताकतवर राजनेता होगा। सरकार उसी की होगी। क्योंकि यह वाकई कल्पना से परे है कि दिल्ली चुनाव के हर मुद्दे बिजली, पानी, सड़क, घर, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर कैबिनेट मंत्री हर प्रेस कान्फ्रेंस करने के लिये उपलब्ध है और महीने भर बाद जिस बजट का इंतजार देश कर रहा है, उस बजट से उस भारत को कुछ भी लेना देना नहीं होता है जो चुनाव में जीत हार तय करता है। और जो मंत्री दिल्ली के रायसीना हिल्स पर नार्थ या साउथ ब्लाक में बैठकर दुनिया को जिस भारत से रुबरु कराता है वही मंत्री जब चुनाव के लिये सड़क पर प्रचार के लिये उतरता है तो उसकी भाषा उस दुनिया से बिलकुल अलग होती है, जिस दुनिया के बीच भारत चहक रहा है। तो संकेत साफ है कि चुनावी जीत सरकार का पहला धर्म है . चुनाव की जीत हार देश के लिये मर मिटने की सियासत है। यानी सत्ता की ताकत सत्ता में बने रहने के उपाय खोजने से आगे जायेगी नहीं। यानी भारत में राजनीतिक सत्ता के आगे सारा ज्ञान बेमानी है
और चुनाव जीतना ही ज्ञान के सागर में डुबकी लगाना है। इस हाल दुनिया भारत की मुरीद हो और सत्ता हर जगह चुनावी जीत हासिल कर रही हो तो फिर एक भी हार कितनी खतरनाक साबित हो सकती है, यह डेढ़ बरस पहले दिल्ली में शीला दीक्षित सरीखे सीएम की हार के बाद काग्रेस का समूचे देश में लड़खड़ाने से भी समझा जा सकता है और मौजूदा वक्त में दिल्ली जीतने के लिये सरकार ही सड़क पर है इससे भी जाना जा सकता है। इन सारे अंतर्विरोध के बावजूद अगर दुनिया भारत की सत्ता पर लट्टू है तो दो संकेत साफ हैं। पहला, भारत की
मौजूदा सत्ता जनादेश के आसरे कोई भी निर्णय लेकर उसे लागू कराने में सक्षम है जो 1991 के बाद से कभी संभव नहीं हुआ था। और दूसरा भारत का बाजार अमेरिका सरीखे देश की आर्थिक मुश्किलों को भी दूर कर सकता है।

भारत के भीतर बसने वाले इस दो भारत का ही कमाल है कि भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहां आने वाले वक्त में रेलवे में 5 से 10 लाख करोड़ का निवेश होना है। सड़क निर्माण में 2 लाख करोड़ से ज्यादा का निवेश होना है। बंदरगाहों को विकसित करने में भी 3-4 लाख करोड़ लगेंगे। इसी तरह सैकडों एयरपोर्ट बनाने में भी 3 से 4 लाख करोड़ का निवेश किया जाना है। वहीं भारतीय सेना की जरुरत जो अगले दस बरस की है, वह भी करीब 130 बिलियन डॉलर की है। यानी पहली बार भारत सरकार की आस विदेशी निवेश को लेकर लगी है तो
दुनिया की आस भारत में पैसा लगाने को लेकर जगी है। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने खुले संकेत दिये है कि भारत विकास के रास्ते को पकड़ने के लिये आर्थिक सीमायें तोड़ने को तैयार है और दुनिया भर के देश चाहे तो भारत में पूंजी लगा सकते हैं। असल में यह रास्ता मोदी सरकार की जरुरत है और यह जरुरत विकसित देशो को भारत में लाने को मजबूर करेगा। क्योंकि विकसित देशों की मजबूरी है कि वह अपने देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर का काम पूरा कर चुके हैं और तमाम विदेशी कंपनियों के सामने मंदी का संकट बरकरार है। यहा तक की चीन के सामने भी संकट है कि अगर अमेरिका की आर्थिक हालात नहीं सुधरे तो फिर उसके यहा उत्पादित माल का होगा क्या। ऐसे में "मेक इन इंडिया " का रास्ता विदेशी निवेश के लिये खुलता है तो अमेरिका, जापान, फ्रांस या चीन सरीखे देश कमाई भी कर सकते है। अब जरा कल्पना कीजिये दुनिया के तमाम ताकतवर या कहें जो विकसित देश भारत में निवेश करना चाहते हैं, उनके आसरे दिल्ली की झुग्गी बस्तियों का कोई रास्ता निकलेगा नहीं। बिजली, पानी, सडक की लड़ाई थमेगी नहीं। बल्कि इसके बाद देश में खेती और ग्रामीण भारत के सामने अस्तित्व का संकट जरुर मंडराने लगेगा। क्योंकि मौजूदा सरकार जिस रास्ते पर निकल रही है उसमें वह गरीब भारत या फिर किसान, मजदूर या ग्रामीण भारत की जरुरतों को पूरा करने की दिशा में कैसे काम करेगी यह किसी बालीवुड की फिल्म की तरह लगता है। क्योंकि फिल्मों में ही नायक तीन घंटे में पोयटिक जस्टिस कर देता है। वैसे यह तर्क दिया जा सकता है कि दुनिया की पूंजी जब भारत में आयेगी तो उसके मुनाफे से ग्रामीण भारत का जीवन भी सुधारा जा सकता है। यानी मोदी सरकार का अगला कदम गरीब भारत को मुख्यधारा से जोड़ने का होगा। और असल परीक्षा तभी होगी । लेकिन यह परीक्षा तो हर प्रधानमंत्री ने अपनी सत्ता के लिये दी ही है। और उसे कटघरे में खड़ा भी किया गया है।

नेहरु ने लालकिले से पहले भाषण में नागरिक का फर्ज सूबा, प्रांत, प्रदेश, भाषा, संप्रदाय, जाति से ऊपर मुल्क रखने की सलाह दी। और जनता को चेताया कि डर से बडा ऐब/ गुनाह कुछ भी नहीं है। वहीं 15 अगस्त 1947 को कोलकाता के बेलीघाट में अंधेरे घर में बैठे महात्मा गांधी ने गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को यह कहकर लौटा दिया कि अंधेरे को रोशनी की जगमग से दूर कर आजादी के जश्न का वक्त अभी नहीं आया है। सत्तर के दशक में जिन खनिज संसाधनों को इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय संपत्ति माना उसे सोनिया गांधी के दौर में मनमोहन सिंह ने मुनाफे के धंधे के लिये सबसे उपयोगी माना। बाजार सिर्फ जमीन के नीचे ही नहीं बना बल्कि उपर रहने वाले ग्रामीण आदिवासियों, खेतिहर किसानों और मजदूरों को भी लील गया। लेकिन ताकतवर राजनीतिक सत्ता ने इसे दुनिया के बाजार के सामने भारत को मजबूत और विकसित करने का ऐसा राग छेड़ा कि देश के तीस फीसद उपभोक्ताओं को खुले तौर पर लगने लगा कि बाकि ७० फिसदी आबादी के जिन्दा रहने का मतलब क्या है। सरोकार तो दूर, संवाद तक खत्म हुआ। मोदी सरकार कुछ कदम और आगे बढी । लेकिन पहली बार उसने इस हकीकत को समझा कि चुनावी जीत से बड़ा कोई आक्सीजन होता नहीं है और चुनावी जीत ही हर कमजोरी को छुपाते हुये सत्ता का विकल्प कभी खड़ा होने नहीं देती है। यानी बीते ६७ बरस की सबसे बड़ी उपलब्धि देश में राजनीतिक ताकत का ना सिर्फ बढ़ाना है बल्कि राजनीतिक सत्ता को ही हर क्षेत्र का पर्याय मानना भी है। असर यही है कि 1947 में भारत की जितनी जनसंख्या थी उसका तीन गुना हिन्दुस्तान 2015 में दो जून की रोटी के लिये राजनीतिक सत्ता की तरफ टकटकी लगाकर देखता है। असर इसी का है कि दिल्ली में जो भी सरकार बने या जिस भी राजनीतिक दल को जनता वोट दे । हर किसी को केन्द्र की सत्ता के पलटने के हर अंदाज तो याद है। फिर २०१४ के चुनाव में जिस जनादेश का गुणगान दुनिया भर में हो रहा है उसी जनादेश से बनी सरकार की सांस चुनाव के न्यूनतम नारों को पूरा करने में क्यों फूल रही है। और दिल्ली में न्यूनतम जरुरते पूरी हो जायेगी यह कहने के लिये और कोई नहीं उसी मोदी के कैबिनेट मंत्री और खुद प्रधानमंत्री मोदी चुनावी मैदान में क्यों उतर रहे हैं। जिन्हें सत्ता सौपी ही इसलिये गई कि वह विकास की नयी धारा देश में बहा कर अच्छे दिन ला दें।

Friday, January 23, 2015

एक दूसरे के लिए "सरकार" हैं मोदी और भागवत !


संघ परिवार से जो गलती वाजपेयी सरकार के दौर में हुई, वह गलती मोदी सरकार के दौर में नहीं होगी। जिन आर्थिक नीतियो को लेकर वाजपेयी सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया, उनसे कई कदम आगे मोदी सरकार बढ़ रही है लेकिन उसे कठघरे में खड़ा नहीं किया जायेगा। लेकिन मोदी सरकार का विरोध होगा। नीतियां राष्ट्रीय स्तर पर नहीं राज्य दर राज्य के तौर पर लागू होंगी। यानी सरकार और संघ परिवार के विरोधाभास को नियंत्रण करना ही आरएसएस का काम होगा। तो क्या मोदी सरकार के लिये संघ परिवार खुद को बदल रहा है। यह सवाल संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के भीतर के उन कार्यकर्ताओ का भी है, जिन्हें अभी तक लगता रहा कि आगे बढने का नियम सभी के लिये एक सरीखा होता है। एक तरफ संघ की विचारधारा दूसरी तरफ बीजेपी की राजनीतिक जीत और दोनों के बीच खड़े प्रधानमंत्री मोदी। और सवाल सिर्फ इतना कि राजनीतिक जीत जहां थमी वहां बीजेपी के भीतर के उबाल को थामेगा कौन। और जहां आर्थिक नीतियों ने संघ के संगठनों का जनाधार खत्म करना शुरु किया, वहां संघ की फिलासफी यानी "रबर को इतना मत खींचो की वह टूट जाये", यह समझेगा कौन। मोदी सरकार को लेकर यह हालात कैसे चैक एंड बैंलेंस कर रहे हैं, इसके लिये दिल्ली चुनाव के फैसले का इंतजार कर रहे बीजेपी के ही कद्दावर और धुरंधर नेताओं को टटोल कर भी समझा जा सकता है और भारतीय मजदूर संघ से लेकर किसान संघ और बीजेपी को सांगठनिक तौर पर संभालने वाले खांटी स्वयंसेवकों से बातचीत कर भी समझा जा सकता है, जिनकी एक सांस में संघ तो दूसरी सांस में बीजेपी समायी हुई है। असल में हर किसी का अंतर्विरोध ही हालात संभाले हुये है या कहें मोदी सरकार के लिये तुरुप का पत्ता बना हुआ है। लेकिन जादुई छड़ी प्रधानमंत्री मोदी के पास रहेगी या सरसंघचालक मोहन भागवत के पास यह समझना कम दिलचस्प नहीं। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी को भागवत भी चाहिये और भगवती भी। दिल्ली के लिये संघ परिवार भी चाहिये और संघ परिवार पर निशाना साधने वाले शांति भूषण भी चाहिये। वहीं भागवत को संघ की विचारधारा पर चलते हुये सत्ता के लिये मोदी भी चाहिये और विरोध करने वाले संगठनों का साथ भी। जिसमें संघ की विचारधारा के अनुसार ही भारत हिन्दू राष्ट्र की तरफ कदम बढाये उसके बाद चाहे सत्ता संघर्ष के लिये संघ को राजनीतिक तौर पर सक्रिय होने की जरुरत नहीं पड़ेगी। ध्यान दें तो मौजूदा वक्त में मोदी सरकार के किसी भी मंत्री से ज्यादा तवोज्जो उसी के मंत्रालय पर पीएम मोदी के बोलने को दिया जाता है। जिसका असर यह भी हो चला है कि पीएम कुछ भी कही भी बोले उसका एक महत्व माना जाता है और मंत्री अपने ही मंत्रालय के बारे में कितने बड़े फैसले ही क्यों ना ले ले वह पीएम के एक बयान के सामने महत्वहीन हो जाता है। गुरु गोलवरकर के बाद कुछ यही परिस्थितियां संघ परिवार के भीतर भी बन चुकी हैं। संघ के मुखिया ही हर दिन देश के किसी ना किसी हिस्से में कुछ कहते है, जिन पर सभी की नजर होती है । लेकिन संघ के संगठनों के मुखिया कही भी कुछ कहते है तो उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।

असर इसी का है कि जगदीश भगवती मोदी की पीठ ठोंकते है और भागवत से डराते हैं। शांति भूषण किरण बेदी के जरीये मोदी के मास्टरस्ट्रोक की पीठ ठोंकते है लेकिन मुस्लिम मुद्दे पर संघ से मोदी को डराते हैं। ऐसे में तलवार की धार पर सरकार चल रही है या संघ परिवार यह सत्ता के खेल में वाकई दिलचस्प है। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों को लागू कराने के तरीके संघ के स्वयंसेवकों की तर्ज पर है और सरसंघचालक की टिप्पणियां नीतिगत फैसले के तर्ज पर हैं। इसीलिये बीते आठ महिनों को लेकर जो भी बहस सरकार के मद्देनजर हो रही है, उसमें प्रधानमंत्री का हर एलान तो शानदार है लेकिन उसे लागू नौकरशाही को करना है और नौकरशाही स्वयंसेवकों की टीम नहीं होती इसे कोई समझ नहीं पा रहा है। नौकरशाही में सुधार सिर्फ वक्त पर आने और जाने से हो जायेगा यह भी संभव नहीं है। सिर्फ बैंक के हालात को ही परख लें तो तो मौजूदा वक्त में औसतन हर बैंक कर्मचारी को हर दिन दो सौ ग्राहक का सामना करना पड़ता है। हर ग्राहक को तीन मिनट देने का मतलब है दस घंटे । वहीं स्वयंसेवक की तादाद सामूहिक तौर पर काम करती है। यानी जिनके बीच स्वयंसेवक काम करने जाता है उन्हें ही, स्वयंसेवक बना लेता है। ऐसे में जनधन योजना हो या फिर सरकार की कोई भी योजना जो समूचे देश के लिये हो उसे परखे तो समझ में येगा कि नौकरशाही के जरीये सरकार काम कराना चाहती है या नौकरशाही स्वयंसेवक होकर काम करने लगे। जनधन योजना से बैंकिंग कर्मचारी
परेशान है कि बैंक संभाले या खाते खोलें। यह हालात आने वाले वक्त में सरकार के लिये घातक साबित हो सकते है। वहीं दूसरी तरफ संघ के मुखिया सरकार की तर्ज पर चल पड़े हैं। मसलन भारतीय मजदूर संघ को इजाजत है कि वह मोदी सरकार की मजदूर विरोधी नीतियो का विरोध करे। क्योंकि सरसंघचालक इस सच को समझते हैं कि देश भर में अगर 60 हजार शाखायें लगती हैं तो उनकी सफलता की बड़ी वजह भारतीय मजदूर संघ से जुड़े एक करोड़ कामगार भी हैं। जो ना सिर्फ शाखाओं में शरीक होते है बल्कि बरसात में संघ की शाखा के आयोजन से लेकर संघ के किसी भी कार्यक्रम के लिये में बिना पैसा लिये बीएमएस का दफ्तर या हाल उपलब्ध करा देते हैं। जो बीएमएस कॉपरेटिव से जुडा होता है। वही किसान संघ हो या आदिवासी कल्याण संघ, दोनों की मौजूदगी ग्रामीण भारत में संग परिवार को विस्तार देती है। और इस तरह चालीस से ज्यादा संगठनों का रास्ता केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों पर कई गुना ज्यादा भारी है। लेकिन मुश्किल यह है कि स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को विस्तार देने में लगे हैं। और मोदी सरकार की नीतियों का ऐलान संघ के सपनों के भारत की तर्ज पर हो रहा है जिसमें नौकरशाही फिट बैठती ही नहीं है। गंगा सफाई के लिये टेक्नालाजी और इंजीनियरिंग की टीम चाहिये या श्रद्दा के फूल। जो गंगा माता कहकर गांगा को गंदा ना कहने पर जोर दें। बिजली खपत कम करने के लिये एलईडी बल्ब सस्ते में उपलब्ध कराने से काम होगा या सोशल इंडेक्स लागू करने से। दुनिया के किसी भी देश में एलईडी बल्ब के जरीये बिजली खपत कम ना हुई है और ना ही एलईडी बल्ब का फार्मूला किसी भी विकसित देश तक के रिहाइशी इलाकों में सफल है।

भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देश में तो असंभव है मुश्किल यह है कि प्रधानमंत्री की नीयत खराब नहीं है बल्कि नरेन्द्र मोदी देश को स्वयंसेवकों की टोली के जरीये ही देश के बिगड़े हालात पर नियंत्रण करना चाह रहे हैं। और स्वयंसेवकों को पीएम का फार्मूला इसलिये रास नहीं आ सकता क्योंकि समूचा विकास ही उस पूंजी पर टिकाया जा रहा है जिस पूंजी के आसरे विकास हो भी सकता है इसकी कोई ट्रेनिंग किसी स्वयंसेवक को नहीं है। ट्रेनिंग ही नहीं बल्कि जिस वातावरण में संघ परिवार की मौजूदगी है या संघ परिवार जिन क्षेत्रो में काम कर रहा है, वहां विकास का सवाल तो अब भी सपने की तरह है। वहां तो न्यूनतम की लड़ाई है। पीने का साफ पानी तो दूर दो जून की रोटी का जुगाड़ तक मुशिकल है। स्कूल, स्वास्थ्य सेवा या पक्का मकान का तो सपना भी नहीं देका जा सकता। वैसे भी लुटियन्स की दिल्ली छोड़ दीजिये या फिर देश के उन सौ शहरों को जिन्हे स्मार्ट शहर बनाने का सपना प्रधानमंत्री ने पाला है। इसके इतर देश में हर तीसरा व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे है। सिर्फ पांच फिसदी लोगों के पास 78 फिसदी संसाधन है। बाकी 95 फिसदी 22 फिसदी संसाधन पर जी रहा है। उसमें भी 80 फीसदी के पास देश का महज 5 फिसदी संसाधन है। यानी संघ परिवार जिन हालातों में काम कर रहा है और मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां जिस तबके के लिये एलान की जा रही है, वह ना सिर्फ संघ की विचारधारा से दूर है बल्कि देश के हालातो से भी दूर है। यहां मुश्किल राजनीति शून्यता की भी है और संघ के
राजनीतिक सक्रियता के बावजूद देश में सामाजिक असमानता बढाने वाली नीतियों पर खामोश रहने की भी है। तो फिर रास्ता अंधेरी गली तरफ जा रहा है या फिर देश को एक खतरनाक हालात की तरफ ले जाया जा रहा है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण हो चला है संघ अब वाजपेयी सरकार की तर्ज पर मोदी सरकार को परख नहीं रहा और वाजपेयी सरकार के बाद भी कोई राजनीतिक पार्टी या नेता देश में है इसे मोदी सरकार के वक्त देश में
दिखायी भी दे नहीं रहा है। याद कीजिये वाजपेयी सरकार के दौर में रज्जू भैया ने संघ के तमाम संगठनों पर नकेल कसी थी। लेकिन जब आर्थिक नीतियों को लेकर विरोध शुरु हुआ तो 2004 के चुनाव में संघ परिवार राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय हो गया। अरबों खर्च करने के बाद भी शाइनिंग इंडिया अंधेरे में समा गया क्योंकि देश अंधेरे में था। लेकिन 2015 में अगर हालात को परखें तो मोहन भागवत ने संघ के तमाम संगठनों को छूट दे रखी है कि वह अपनी बात कहते रहे।

मोदी सरकार की नीतियों पर विरोध जताते रहे। क्योंकि संघ को राजनीतिक तौर सक्रिय रखना दिल्ली की जरुरत है और दिल्ली के जरीये संघ को विस्तार मिले यह संघ की रणनीतिक जरुरत है। मोदी आस बनकर चमक रहे है क्योंकि कारपोरेट की पूंजी पर संघ की विचारधारा का लेप था। और राजनीतिक अंधेरगर्दी के खिलाफ देश में अनुगूंज है। नया संकट यह भी है कि 2004 में जिन राजनीतिक दलों या नेताओं को लेकर आस थी 2015 में उसी आस की कोई साख बच नहीं रही। कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर क्षत्रप नये युवा भारत से इनका कोई सरोकार है नहीं और पुराने भारत से संपर्क कट चुका है। शायद इसीलिये मौजूदा वक्त में सबसे बडा सवाल यही है कि अगर बीजेपी के चुनावी जीत का सिलसिला थमता है या फिर मोदी सरकार के आईने में संघ परिवार की विचारधारा कुंद पडती है तो मोदी सरकार और संघ परिवार के बीच सेफ पैसेज देने का सिलसिला क्या गुल खिलायेगा। क्योंकि अंदरुनी सच यही है कि सेफ पैसेज की बिसात पर प्यादे बने नेता हों या स्वयंसेवक वक्त का इंतजार वह भी कर रहे हैं और अंधेरे से उजाले में आने का इंतजार देश का बहुसंख्यक तबका भी कर रहा है।

Sunday, January 18, 2015

दिल्ली चुनाव राजनीतिक प्रयोगशाला है या मुखौटे का खेल


देश की सियासी राजनीति की प्रयोगशाला दिल्ली बन चुकी है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जनता परिवार की सियासी एकजुटता को भी दिल्ली के राजनीतिक प्रयोग में अपनी जीत-हार दिखायी दे रही है। और मोदी के नाम पर हिन्दु राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता की राजनीति के उभार के भविष्य का फैसला भी दिल्ली चुनाव को माना जा रहा है। वामपंथी-समाजवादी आर्थिक चिंतन से लेकर राजनीतिक तौर पर करोड़ों मुसलमानों को वोट बैंक के दायरे के भविष्य की दशा-दिशा भी दिल्ली चुनाव को महत्वपूर्ण मान रही है और मोदी की अगुवाई में बदलते बीजेपी और संघ परिवार के विस्तार के भविष्य को भी दिल्ली चुनाव तले देखा जा रहा है। चूंकि मोदी का उभार पारंपरिक चुनावी राजनीति के टकराव से इतर नया है। संघ की राजनीतिक सक्रियता और बीजेपी के हर हाल में चुनावी जीत के सामने नतमस्तक होने की सोच नयी है। तो पहली बार दिल्ली एक
ऐसी चुनावी मंथन के दौर में पहुंचा है जहा से आगे की राजनीति 2014 के लोकसभा चुनाव में रचे गये इतिहास को विस्तार देगी या फिर रचे गये इतिहास को बदल देगी। राजनीति के इमानदार नियम कायदे बनाये अन्ना आंदोलन ने।

केजरीवाल ने राजनीतिक जमीन आंदोलन की इमानदारी को बनाया और उसी में सेंघ लगाकर बीजेपी ने अपनी की राजनीति को हाशिये पर ढकेल कर संकेत दे दिये की नये नियम चुनाव जीतने के है। चाहे संघ की पाठशाला से निकले नेताओं को किनारे किया जाये चाहे बीजेपी की धारा को मोड़ना पड़े। क्योंकि नयी सोच चुनाव जीतने के है, जिसके बाद हर परिभाषा खुद ब खुद सही हो जाती है। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि दिल्ली के चुनाव कांग्रेस की पारंपरिक राजनीति से दूर है और जिस काग्रेस पर निशाना साधना 2014 में सबसे आसान रहा वह हालात 2015 के नहीं होंगे। सवाल यह है कि दिल्ली का चुनावी फैसला उन्हीं क्षत्रपो के सामने एसिड टेस्ट की तरह हो चला है जिन क्षत्रपों ने सत्ता का ताज कांग्रेस की सत्ता को उखाड़ कर पहना। नीतिश-लालू का सामना बिहार में बीजेपी से होना है। मुलायम को यूपी में मोदी ही चुनौती देंगे। नवीन पटनायक के सामने भी उडीसा में बीजेपी ही खड़ी हो रही है और बंगाल में ममता के सामने अब वामपंथियों की नहीं मोदी की सोच की चुनौती है। और दिल्ली का फैसला हर जगह मोदी के लिये लकीर खिंच सकता है या फिर केन्द्र में ही मोदी सरकार को समेटे रख सकता है। वजह भी यही है कि मोदी के खिलाफ एकजुट हुये जनता परिवार को समझ नहीं आ रहा है कि दिल्ली चुनाव में वह कैसे घुसपैठ करें। ममता को समझ नहीं रहा है कि वह दिल्ली में कैसे सफल रैली करें। नीतिश कुमार और ममता दोनो दिल्ली के मंच पर दस्तक देना चाहते है। अपने
बूते संभव नहीं है तो केजरीवाल के मंच पर साथ खड़ा होना चाहते हैं। लेकिन केजरीवाल इसके लिये तैयार नहीं है।

केजरीवाल को लगता है कि नरेन्द्र मोदी जिन्हें पराजित कर रहे है या जो मोदी से पराजित हो रहे हैं, उनके साथ खड़े होने का मतलब उस समूची राजनीति का घराशायी होना होगा जो भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। जो ईमानदारी को महत्व देती है, जो नैतिक बल पर खड़ी है। संयोग एसा बना है कि दिल्ली चुनाव विरासत ढोते राजनीतिक दलों से मुक्त है । अनुभवी और कद्दावर राजनेताओं से मुक्त है। आजादी के बाद जिस संसदीय राजनीति को लेकर लोगो में गुस्सा जागा और अन्ना आंदोलन के दौर में नेताओं को सेवक कहकर खुले तौर पर पुकारा गया। संसद में राजा बने राजनेताओं की टोपियां सड़क पर उछाली गयी। उसी धारा की राजनीति दिल्ली चुनाव में आमने सामने आ खड़ी हुई है। ना किरण बेदी के लिये राजनीति कैरियर है ना केजरीवाल के लिये। दोनों अपने अपने दायरे में अडियल हैं, अख्खड है। दोनों में ही राजनीतिक लूट को लेकर हमेशा गुस्सा रहा है। दोनो ही एनजीओ के जरीये समाज को समझते हुये आंदोलन में कूदे और उसके बाद अपने अपने हालात की बंद गली को खोलने के लिये राजनीति के मैदान में चुनाव जीतने के लिये उतरे है। और सीएम के पद के दावेदार होकर सामाजिक हालातों को बदलने का सपना पाले है। दिल्ली चुनाव इसीलिये तमाम राजनीतिक दलों की राजनीति पर भारी है, क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल की उम्र उसके नेता या उसकी सत्ता के दौरान किये गये कार्य दिल्ली चुनाव में मायने नहीं रख रहे है। लोकसभा चुनाव ही नहीं बल्कि बीते छह महीनों में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान जो धुरंधर सक्रिय थे वह सभी दिल्ली चुनाव के वक्त खोल ओढे हुये है।

इस कतार में सानिया गांधी भी है और रामलीला मैदान की रैली के बाद प्रधानमंत्री मोदी भी हो चले हैं। लेकिन नया सवाल यही है कि केजरीवाल हो या किरण बेदी क्या दोनो क्रोनी कैपटिलिज्म से टकरायेंगे। किरण बेदी सीएम बनी तो मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां क्या उन्हें भी भायेगी। या फिर सत्ता पाने के बाद किरण बेदी बदल जायेगी या बीजेपी को बदल देगी। वहीं केजरीवाल जिस अंबानी-अडानी का नाम लेकर मोदी को घेरने से नहीं कतराते हैं, वह सत्ता में आये तो दिल्ली और केन्द्र के टकराव में जीत ताकत की होगी या नीतियों को जन से जोड़ने की नयी शुरुआत होगी। कारपोरेट के आसरे विकास के ढांचे के तो किरण बेदी भी खिलाफ रही है तो क्या दिल्ली का सीएम बन कर वह मोदी की नीतियों पर नकेल कस पायेगी जो संघ परिवार नहीं कर पा रहा है। और दबी जुबां में कभी स्वदेशी जागरण मंच को कभी भारतीय मजदूर संघ की आवाज सुनायी देती है। उसकी आवाज आने वाले वक्त तेज हो सकती है अगर चुनाव जीतने के पीछे ईमानदार विचारधारा साबित हो जाये। यानी सिर्फ चेहरा नहीं बल्कि नीतियो के आसरे भी मौजूदा राजनीति में चुनावी छौक लगाकर हालात बदले जा सकते है। यह लगता तो सपना ही है क्योंकि किरण बेदी चेहरा हो सकती है, चुनावी रणनीति का मजबूत खंभा हो सकती है। जीत के लिये ईमानदार मंत्र हो सकती है। लेकिन किरण बेदी बीजेपी की विचारधारा नहीं हो सकती। किरण बेदी सदा वतस्ले कहकर संघ की साखा में खड़ी दिखायी नही दे सकती। यानी चुनावी ज्ञान की चादर में केजरीवाल और किरण दोनों अभी भी अनाड़ी हैं। चाहे वह दिल्ली के खिलाड़ी हों। शायद इसलिये मीडिया, सोशल मीडिया,सड़क, सांसद,पूंजी, कारपोरेट, नुक्कड सभा, आंदोलन और सियासी तिकडम क्या कुछ नहीं है दिल्ली चुनाव में। रायसीना हिल्स की घड़कनें भी बढ़ी हुई हैं और संघ परिवार की सक्रियता तेज हो चली है तो 10 जनपथ के माथे पर भी शिकन है। नारे बदल रहे हैं। गठबंधन के तौर तरीके बदल रहे हैं। हर घेरे के सत्ताधारियों के संबंधों का खुला नजारा भी है और चुनावी राजनीति की जीत हार को ही विचारधारा की जीत हार बताने की कोशिश भी है। जाति, संप्रदाय और प्रांत पर टिकी राजनीति को खारिज कर पूंजी के आसरे विकास की अनूठी लकीर खिंचने की कोशिश भी है और स्वराज शब्द को सड़क, पानी , बिजली सरीखे न्यूनतम इन्फ्रास्ट्रक्चर तले परिभाषित करने की कोशिश भी है। प्रधानमंत्री का दिल्ली का सपना झुग्गियों को पक्के मकान में बदलना है और विधायक के संघर्ष का नारा भ्रष्ट नीतियों से मुश्किल होती गरीबों की जिन्दगी में रोजगार, स्कूल, अस्पताल लाना है। किसी के लिये सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा महिलाओं की सुरक्षा है तो कोई पीने के पानी और चौबीस घंटे बिजली देने में ही अटका है। यानी जिस दिल्ली को विकास की चकाचौंध में समेटने की कोशिश दुनिया के सबसे बडे दुकानदार और खरीदारों के सामने विदेशी पूंजी लाने के लिये की जा रही है उसी दिल्ली में सरकार उसी की बनेगी जो न्यूतम का जुगाड़ करा दें। यानी जिस दिल्ली के चुनावी फैसले को देश की राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर देखा जा है उसी दिल्ली के चुनावी मुद्दे बताते हैं कि सियासत गुमराह करने के हथियार से इतर कुछ भी नहीं। लेकिन पहली बार
गुमराह करने वाले अगर पीछे की कतार में है और आगे चेहरा भरोसे का लगाया गया है तो इंतजार कीजिये भरोसा जनसंघर्ष का है या सियासी गुमराह का नया हथियार भरोसे का मुखौटा है।

Thursday, January 15, 2015

आंदोलन क्यों हारा सियासत क्यों जीती ?

जेपी के बाद अन्ना आंदोलन ने ही सत्ता की धड़कनें बढ़ायी। और दो बरस में ही सत्ता के दरवाजे पर जेपी के आंदोलनकारी रेंगते और आपस में झगड़ते दिखायी दिये थे। वहीं दो बरस के भीतर ही अन्ना के सिपहसलार राजनीतिक सत्ता की दो धाराओं में बंट भी गये। तो क्या देश में वैकल्पिक राजनीति की सोच अब भी एक सपना है और सियासत की बिसात पर आंदोलन को आज नहीं तो कल प्यादा होना ही है। तो रास्ता है क्या। यह सवाल इसलिये अब जरुरी है और दिल्ली चुनाव तले आंदोलन को याद करना भी इसलिये जरुरी है क्योंकि भविष्य के रास्ते की मौत ना हो सके। याद कीजिये जनलोकपाल। भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आवाज में इतना दम तो था ही कि तिरंगे के आसरे देश में यह एहसास जागे कि भ्रष्ट होती व्यवस्था को बदलना जरुरी है। तभी तो जंतर मंतर से लेकर रामलीला मैदान में जहा आम लोगो का रेला तिरंगे की घुन पर नाचता धिरकता तो सांसदों की धड़कनें बढ़ जाती। सड़क पर भारत माता की जय र वंदे मातरम के नारे लगते तो संसद के भीतर अन्ना हजारे के अनशन को खत्म कराने के लिये सरकार समेत हर राजनीतिक नतमस्तक दिखायी देते। लेकिन जिस जनलोकपाल के नारे तले समूचा देश एकजूट हुआ उसी जनलोकपाल का नारा लगाने वाले ही कैसे अलग हो गये यह पहली बार अगर केजरीवाल के राजनीति में कूदने और अन्ना हजारे का वापस रालेगन सिद्दी लौटने से पहली बार उभरा। तो कभी साथ साथ तिरंगा लहराते हुये भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सूर में आवाज लगाने वाले केजरीवाल के खिलाफ सियासी मैदान में किरण बेदी के कूदने से दूसरी बार उभरा है। दोनों दौर ने उसी राजनीतिक सत्ता को महत्ता दे दी जिस सत्ता को आंदोलन के दौर में नकारा जा रहा था। तो पहला सवाल यही है कि क्या साख खोती राजनीति के खिलाफ आंदोलन करने वालो की साख राजनीतिक मैदान में ही साबित होती है। या फिर दूसरा सवाल कि क्या राजनीतिक सत्ता के आगे आंदोलन कोई वैकल्पिक राजनीति खड़ा कर नहीं सकती। और आखिर में आंदोलन को उसी राजनीति की चौखट पर दस्तक देनी ही पड़ती है जिसके खिलाफ वह खड़ी होती है या फिर जिस राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ वह हुंकार भरती है। क्योंकि केजरीवाल राजनीति में कूदे तब का सवाल और आज किरण बेदी राजनीति के मैदान में कूदी तब के सवाल में इतना ही फर्क आया है कि जनलोकपाल का सवाल हाशिये पर है और जनलोकपाल का सवाल उठाने वाले चेहरे आमने-सामने आ खड़े हुये है। और अब दोनो ही लुटियन्स की दिल्ली में रालेगन सिद्दी के सपनों को पूरा करने का
सपना अपने अपने तरीके से जगायेंगे।

यह ऐसे सवाल है जो मौजूदा राजनीति की साख पर सवाल उठाने के बाद घबराने लगते है य़ या फिर साख खो चुकी राजनीतिक सत्ता को ही अपनी साख से कुछ ऑक्सीजन दे देते है और जनता के मुद्दे चुनावी नारों में खत्म हो जाते है। याद किजिये तो 2011 में जनलोकपाल। 2013 में जनलोकपाल से लोकपाल । और 2015 आते आते लोकपाल शब्द भी उसी दिल्ली के उसी सियासी गलियारे से गायब हो चुका है जिस सियासी गलियारे को कभी जनलोकपाल शब्द से डर लगता था। यानी फरवरी 2014 में जिस लोकपाल के लिये सत्ता को भी ताक पर रखने की हिम्मत हुआ करती थी। याद कीजिये तो लोकपाल के लिये सीएम की कुर्सी छोडने की हिम्मत साल भर पहले केजरीवाल में थी। लेकिन साल भर बाद का यानी अभी का सच यह है कि सीएम की कुर्सी के लिये केजरीवाल भी लोकपाल के सवाल से दूर है और आंदोलन के दौर में भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने की सोच से दूर है। मौजूदा दौर में दिल्ली के सीएम की कुर्सी के लिये सारे सवाल बिजली पानी सड़क या कानून व्यवस्था से आगे जा नहीं रहे हैं। इन हालातों ने बीजेपी को भी ताकत दी और किरण बेदी को भी बीजेपी के मंच पर ला खड़ा किया है क्योंकि दिल्ली चुनाव नैतिक बल के आसरे नहीं लड़ा जा रहा है। दिल्ली चुनाव व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर भी नहीं लड़ा जा रहा है। दिल्ली चुनाव भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई नारा भी नहीं दे पा रहा है। कह सकते हैं मौजूदा दिल्ली का चुनाव सिर्फ सीएम की कुर्सी की लड़ाई है। इसलिय किरण बेदी और केजरीवाल के चुनावी संघर्ष का यह मतलब कतई नहीं है आंदोलन के दौर को याद किया जाये। इस चुनावी संघर्ष का सीधा मतलब ईमानदार चेहरों के आसरे चुनाव को अपने हक में करने के आगे बात जाती नहीं है। और यहीं से बड़ा सवाल बीजेपी का निकलता है कि क्या अभी तक दिल्ली चुनाव जहां मोदी बनाम केजरीवाल के तौर पर देखा जा रहा है अब किरण बेदी के बीजेपी में शामिल होने के बाद यही दिल्ली का चुनाव केजरीवाल बनाम किरण बेदी हो जायेगा। यानी मोदी नहीं बेदी के लिये बीजेपी अब नारे लगायेगी और जनलोकपाल के जरीये ईमानदार व्यवस्था की जगह सीएम की कुर्सी की लड़ाई नये रंगत में सामने आयेगी। क्योंकि बीजेपी के जो नेता दिल्ली सीएम बनने की कतार में है उसमें हर्षवर्धन, जगदीश मुखी,सतीश उपाध्याय, विजय गोयल सरीखे दर्जन भर चेहरों पर किरण बेदी सबसे भारी क्यों लग रही है। यानी पहला बड़ा संकेत कि किरण बेदी ने झटके में एहसास करा दिया कि बीजेपी के भीतर दिल्ली के किसी भी प्रोफेशनल राजनेता से उनके प्रोफेशन का कद खासा बड़ा है। या फिर केजरीवाल का जबाब देने के लिये बीजेपी जिन अंधेरी गलियों में घुम रही थी और हर बार उसकी बत्ती गुल हो रही थी उस अंघेरे को अचानक बेदी ने नयी रौशनी दे दी है ।और बीजेपी के लिये किरण बेदी केजरीवाल के खिलाफ रोशनी है तो फिर नयी दिल्ली की सीट पर दोनो का आमना सामना होगा ही। क्योंकि केजरीवाल भी 2013 में दिल्ली के सीएम तब बने जब उन्होंने तब की सीएम शीला दीक्षित को हराया । ऐसे में केजरीवाल के खिलाफ मैदान में उतरने का जुआ तो किरण बेदी को खेलना ही होगा। क्योंकि केजरीवाल को हराते ही किरण बेदी का कद बीजेपी के तमाम कद्दवर नेताओं से बड़ा हो जायेगा। और अगर किरण बेदी केजरीवाल के
खिलाफ चुनाव लड़कर हार जाती है तो फिर बीजेपी अपने एजेंडे पर बरकरार रहेगी और बीजेपी की पार्टी की विचारधारा पर कोई असर भी नहीं पड़ेगा। क्योंकि तब यही कहा जायेगा कि केजरीवाल से किरण बेदी चुनाव हारी ना कि बीजेपी। यानी किरण बेजी को बीजेपी के मंच पर साथ लाना बीजेपी के लिये मास्टरस्ट्रोक इसीलिये है क्योंकि चित पट दोनों हालात में मोदी की छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा। लगातार चुनाव जीतती बीजेपी की छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा। सिर्फ इतना ही कहा जायेगा कि चाल ठीक नही चली। और झटके में मोदी सरकार की वह रफ्तार बरकरार भी रह जायेगी जिसके रुकने का भय तो लगातार बीजेपी को डरा रही है। लेकिन पहली बार किरण बेदी और केजरीवाल के आमने सामने खड़े होने से उस आम आदमी को मुश्किल तो होगी ही जिसने अन्ना के आंदोलन के दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यवस्था परिवार्तन तक के सपने देखे।



Sunday, January 11, 2015

"पंडित जी, बीपीएल या बीएमडब्ल्यू...चुनना तो एक को ही पड़ेगा"

धारदार पत्रकारिता से मात तो मीडिया को ही देनी है दीपक शर्मा !

बीपीएल या बीएमडब्ल्यू। रास्ता तो एक ही है। फिर यह सवाल पहले नहीं था। था लेकिन पहले मीडिया की धार न तो इतनी पैनी थी और न ही इतनी भोथरी। पैनी और भोथरी। दोनों एक साथ कैसे। पहले सोशल मीडिया नहीं था। पहले प्रतिक्रिया का विस्तार इतना नहीं था। पहले बेलगाम विचार नहीं थे। पहले सिर्फ मीडिया था। जो अपने कंचुल में ही खुद को सर्वव्यापी माने बैठा था। वही मुख्यधारा थी और वही नैतिकता के पैमाने तय करने वाला माध्यम। पहले सूचना का माध्यम भी वही था और सूचना से समाज को प्रभावित करने वाला माध्यम भी वही था। तो ईमानदारी के पैमाने में चौथा खम्भा पक़ड़े लोग ही खुद को ईमानदार कह सकते थे और किसी को भी बेईमानी का तमगा देकर खुद को बचाने के लिये अपने माध्यम का उपयोग खुले तौर पर करते ही रहते थे।

बंधु, लेकिन अंतर तो पहले भी नजर आता था। कौन पत्रकार बीपीएल होकर पत्रकारिता करने से नहीं हिचकता और किसकी प्राथमिकता बीमडब्ल्यू है। लेकिन पहले कोई विस्तार वाला सार्वजनिक माध्यम भी नहीं था जिसके आसरे बीएमडब्ल्यू वाली पत्रकारिता का कच्चा चिट्टा सामने लेकर आते।

यह ठीक है लेकिन हमारे समाज का भी तो कोई सोशल इंडेक्स नहीं है। जिसे जितना कमाना है वह कमाये। जिसे जितना बनाना है वह बनाये। कोई रोक-टोक नहीं है। दिल्ली में तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के प्रवक्ता, जो पेशे से वकील हैं या रहे हैं, एक पेशी के 20 से 40 लाख रुपये तक लेते हैं। संपादक की पहुंच पकड़ अगर सत्ताधारियों के बीच है तो उसका पैकेज करोड़ों में होता है। किसी भी धंधे में कोई कमाते-खाते हुये यह कहने से नहीं कतराता है कि अगर उसके पास करोड़ों है तो वह उसकी सफेद कमाई के हैं। अब आप करोगे क्या।

बंधु, एक चैनल पत्रकारों का हो इसके लिये तो आपको करोडपति होना होगा, उसके बाद आप पत्रकार हैं या चिट-फंड वाले या बिल्डर या दलाल। सरकार की नीतियों तक तो इसका असर पड़ता नहीं है। तो फिर इस बीपीएल और बीएमडब्ल्यू के रास्ते की बात करने का मतलब है क्या। हां अब हालात इस मायने में जरुर बदले है कि दलाल पत्रकारों को सत्ता अपने साथ सटने नहीं दे रही है। लेकिन इसका दूसरा सच यह भी है कि दलालों के तरीके और उसकी परिभाषा बदल रही हैं। काबिलियत की पूछ तो अब भी नहीं है। या यह कहें कि देश में सत्ता बदली है तो नये सिरे से नये पत्रकारों को सत्ता अपने कटघरे में ढाल रही है। तब तो यह बीच का दौर है और ऐसे मौके का लाभ पत्रकारिता की धार के साथ उठाना चाहिये। बिलकुल उठाना चाहिये।

लेकिन इसके लिये सिर्फ सोशल मीडिया को तो माध्यम बनाया नहीं जा सकता। सोशल मीडिया एक कपडे उघाडने का मंच है। कपडे पहनकर उसके अंदर बाहर के सच को बताने का माध्यम तो है नहीं। नहीं आप देख लो। मनमोहन सिंह के दौर के तुर्रम संपादक मोदी के आने के बाद सिवाय सोशल मीडिया के अलावा और कहां सक्रिय नजर आ रहे हैं। लेकिन वहां भी तो भक्तों की मंडली पत्रकारो की पेंट उतारने से नहीं चुकती। सही कह रहे हैं, लेकिन इस सच को भी तो समझें कि रईसी में डूबे सत्ता की चाशनी में खुद को सम्मानित किये इन पत्रकारो ने किया ही क्या है। तब तो सवाल सिर्फ मनमोहन सिंह के दौर के पत्रकारो भर का नहीं होना चाहिये। हमने देखा है कैसे वाजपेयी की सरकार के बाद बीजेपी कवर करने वाले पत्रकार ही कद पाने लगे । और लगा कि इनसे बेहतर पत्रकार कोई है ही नहीं। पत्रकारिता खबर ब्रेक करने पर टिकी। सत्ता ने खबर ब्रेक अपने पत्रकारों से करायी। और खबर का मतलब ही धीरे धीरे सत्ता की खबर ब्रेक करने वालों से होने लगी। सोनिया गांधी पीएम बनना नहीं चाहती हैं। या अंबानी बंधुओं में बंटवारा हो रहा है । वाजपेयी मुखौटा है। आडवानी संघ के चहते हैं। इन खबरो को ब्रेक करने वाला ज्यादा बड़ा पत्रकार है या साईंनाथ सरीखा पत्रकार, जो किसानो की बदहाली के बीच सत्ता की देशद्रोही नीतियों को बताना चाहता है। यह सवाल तो अब भी मौजूं है। खाता कोल कर सीधे गरीब के एकाउंट में पैसा पहुंचाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये या यूरिया बाजार में उचित दाम पर मिल जाये । पीएमओ की ताकत के सामने कैबिनेट भी नतमस्तक कैसे हो चली है, यह छुपाया जाये और सत्ता की नीतियों के एलान को ही मीडिया के भोपूं के जरीये दुनिया तो ज्यादा जोर सुनाया जाये। और इसे ही पत्रकारिता मान लिया जाये। यही सवाल तो महत्वपूर्ण है। तो फिर धार का पैमाना हो कैसा।

यार आप बात देश की कर रहे हो और हर दिन जिस वातावरण में नौकरी करनी पड़ती है, उसमे चापलूसी , अपने प्यारे को ही आगे बढ़ाने की सोच, अपनी कुर्सी को ही सबसे विद्दतापूर्ण बताने जताने का खुला खेल। खुद को बचाते हुये हर दिन अपने ही इर्द-दिर्द ऐसी खबरो को तरजीह देना जो आपकी समझ में आती हों। जो आपके अपनों की हो। और स्क्रीन पर वही चेहरा-चेहरे, जिससे आपको प्यार है उस वातावरण में आपका पूरा दिन तो सिवाय जहर का घूंट पीने के अलावे और किसमें गुजरेगा। इतना ही नहीं, आपकी लायी बेहतरीन खबर की भी हत्या करने में कितना वक्त लगेगा। डाक्यूमेंट पूरे नहीं हैं। प्रतिक्रिया हर किसी की चाहिये। फायदा क्या है दिखाने का। कौन देखना चाहता है यह सब। टीआरपी मुश्किल है। हुजुर हजारों हथियार है नाकाबिल एडिटर के पास।

फिर भी यार भीतर रह कर लड़ा जा सकता है। बाहर निकलकर हम आप तो कहीं भी काम कर लेंगे । लेकिन जिन संस्थानों में जो नयी पीढी आ रही है, उनका भी सोचिये। या नाकाबिलों के विरोध करने की हिम्मत कहां बच रही है। नाकाबिल होकर मीडिया में काम आसानी से मिल सकता है। बंधु सवाल सिर्फ मीडिया का नहीं है। सत्तादारी भी तो नहीं चाहते है कि कोई उनसे सवाल करे। तो वह भी भ्रष्ट्र या चार लाइन ना लिख पाने या ना बोल पाने वाले पत्रकारों को ज्यादा तरजीह देते हैं। जिससे उनकी ताकत, उनकी नीतियां या उनकी समझ पर कोई उंगुली उठाता ना दिखे। यह ऐसे सवाल हैं, जिन पर बीते दस बरस से कई कई बार कई तरीको से बात हुई।

जी, यह उस बातचीत का हिस्सा है जो 2004 में पहली बार मुलाकात के वक्त मीडिया को लेकर सवाल हों या पत्रकारिता करने के तरीकों को जिन्दा रखने की कुलबुलाहट होती थी और जब सांप-छछुंदर की खबरों ने
पत्रकारीय पेशे को ही दिन भर चाय की चुस्की या हवाखोरी में तब्दील करते हुए दिल्ली से दूर निकल जाने के लिये खूब वक्त मुहैया कराया था। या फिर जैसे ही देश में मनमोहन सरकार की बत्ती गुल होने की खुशी के वक्त चर्चा में मोदी सरकार को लेकर कुछ आस जगाने की सोच हो। या फिर अंबानी-अडानी की छाया में दिल्ली की सत्ता तले सियासी बहस के दौर में मीडिया की भूमिका को लेकर उठते सवालों के बीच धारदार पत्रकारिता कैसे हो, इसका सवाल हो। आपसी चर्चा तो राडिया टेप पर पत्रकारों की भूमिका को लेकर भी खूब की और पत्रकार से मालिक बनते संपादकों की भी की और मालिको का पत्रकार बनने के तौर तरीको पर खूब की।लेकिन हर चर्चा के मर्म में हमेशा पत्रकारिता और जीने के जज्बे की बात हुई। इसलिये राबर्ट वाड्रा पर पहले कौन राजनेता अंगुली उठायेगा और जब नरेन्द्र मोदी ने पहली बार खुले तौर पर वाड्रा को कठघरे में खड़ा किया तो भी विश्लेषण किया कि कैसे बीजेपी का भी दिल्ली में कांग्रेसीकरण हो गया था और मोदी क्यो अलग है। चर्चा मनमोहन सिंह के दौर के क्रोनी कैपटिलिज्म के दायरे में पत्रकारों के खड़े होने पर भी बात हुई। फिर मुज्जफरनगर दंगों में सैफई के नाच गानों के बीच यूपी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का जज्बा
हो। या मोदी सरकार के महज एलानिया सरकार बनने की दिशा में बढते कदम। हर बार ईमानदार-धारदार पत्रकारिता को ही लेकर बैचेनी दिखायी दी। लेकिन जैसे ही यह जानकारी मिली की बारह बरस बाद दीपक शर्मा आजतक छोड़ रहे हैं और यह कहकर छोड़ रहे हैं कि कुछ नया,कुछ धारदार करने की इच्छा है तो पहली बार लगा कि मीडिया संस्थान हार रहे हैं। जी दीपक शर्मा की अपनी पत्रकारिता है या पत्रकारिता को जीने के हर सपने को बीते बारह बरस में बेहद करीब से या कहें साझीदार होकर जीने के बीच में यह सवाल बार बार परेशान कर रहा है कि जिसके लिये पत्रकारिता जीने का अंदाज है। जिसके लिये ईमानदार पत्रकारिता जीने का नजरिया हो। जिसके लिये तलवार की नोंक पर चलते हुये पत्रकारिता करना जिन्दगी का सुकुन हो, वही ऐसे वक्त पर यह क्यों कह रहा है कि दिल्ली आया था तो अकबर रोड भी नहीं जानता था। आजतक में काम करते हुये आजतक ने अकबर बना दिया। अब दुबारा रोड पर जा रहा हूं। यह बेचैनी दीपक से पत्रकारिता के लिये कोई वैकल्पिक रास्ता निकलवा ले तो ही अच्छा है । क्योंकि दिल्ली में अब सवाल अकबर रोड का नहीं रायसीना हिल्स पर खड़े होकर बहादुरशाह जफर मार्ग को देखने समझने का भी है। और शायद भटकते देश को पटरी पर लाने का जिम्मा उठाने का वक्त भी है। इसलिये दीपक सरीखे पत्रकारों को सोशल मीडिया की गलियों में खोना नहीं है और हारे हुये मीडिया से शह पाकर मात भी उसी मीडिया को देनी है जो धंधे में बदल चुका है।

Tuesday, January 6, 2015

संघ और सरकार का मिलाजुला खेल है आक्रामक धर्म और कड़े आर्थिक सुधार


सुधार की रफ्तार मनमोहन सरकार से कही ज्यादा तेज है। संघ के तेवर वाजपेयी सरकार के दौर से कहीं ज्यादा तीखे है । तो क्या मोदी सरकार के दौर में दोनों रास्ते एक दूसरे को साध रहे हैं या फिर पूर्ण सत्ता का सुख एक दूसरे को इसका एहसास करा रहा है कि पहले उसका विस्तार हो जाये फिर एक दूसरे को देख लेंगे। यानी एक तरफ संघ परिवार ललचा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विस्तार वह मोदी सरकार के दौर में खासी तेजी से कर सकता है तो उसे अभी विकास की जनविरोधी नीतियों की तरफ देखने की जरुरत नहीं है। तो दूसरी तरफ मोदी सरकार को भी इसका एहसास है कि संघ के बगैर मौजूदा वक्त में दूसरीकोई राजनीतिक ताकत नहीं है जो उसे विश्व बैंक और आईएमएफ की सोच को आर्थिक विकास तले लागू करने से रोक सके। तो धुआंधार तरीके सरकार और संघ ने उस रास्ते को पकड़ लिया है जो दोनों को विस्तार दे। और टकराव के हालात आने तक दोनों ही मान कर चले कि सत्ता हाथ में रहेगी तो रोक लेगें या सत्ता की डोर खिच लेंगे। आने वाले वक्त में होगा क्या इसे ताड़ना तो अभी दूर की गोटी ही होगी लेकिन इस दौर के दो संकेत साफ हैं। पहला, आरएसएस धर्म को धारण करने की सोच से कही आगे ले जाना चाहती है और दूसरा सरकार खेती और खनिज संपदा
को राष्ट्रीय धरोहर से आगे बाजार की घरोहर बनाने-मानने को तैयार है। इस रास्ते में धर्म आक्रामक होगा इससे इंकार नही किया जा सकता है। और इस रास्ते जनता संसदीय राजनीति करने वाले राजनेताओं के खिलाफ खड़ी हो सकती है इंकार इससे भी नहीं किया जा सकता।

पहली बार कोयला खादान के मजदूरों ने हड़ताल इसलिये की है क्योकि उन्हे निजी हाथो में बेचा जा रहा है। बैंक के कर्मचारी हडताल इसलिये 
करना चाह रहे हैं क्योंकि वेतन में इजाफा किये बगैर सरकार के सारे घतकर्म को बैंक के जरीये ही पूरा करने की नीति अपनायी जा रही है। बड़े बड़े हाथों से एनपीए की वसूली कैसे हो कोई नहीं जानता। जनधन के हर खाते को कोई बैंक कैसे कोई संभाले इसकी कोई नीति नहीं है। महंगाई को साधने का कोई उपाय सरकार के पास नहीं है। विपन्न तबके की तादाद लगातार बढ़ रही है क्योंकि विकास का मॉडल रोजगार देते हुये चकाचौंध लाने के खिलाफ है। वहीं विपन्न तबके में धर्म और आस्था के जरीये ही अपने होने का एहसास तेजी से जाग रहा है। राजनीतिक तौर पर सत्ता के लिये सियासी ककहरा भी इस दौर में विपन्न तबके की ताकत बनी है। देश में विपन्न तबके की ताकत सत्ता से इसलिये टकराने से कतराती रही है क्योंकि सत्ता की नीतियो से इतर खेती एक सामानांतर अर्थव्यवस्था के तहत पेट भरती रही है और धर्म की आस्था का पाठ संयम से जुडा रहा है। लेकिन यह दोनों हालात सत्ता की निगाहों
में चढ़ जाये या सत्ता ही दोनो को प्रबावित करने लगे तो रास्ता क्या निकलेगा। इसकी संवेदनशीलता कौन कितना समढ रही है यह अपने आप में सवाल है। क्योंकि मौजूदा वक्त में धर्म राष्ट्रवाद से जुड रहा है ।जो आक्रमक हो चला है। दूसरी तरफ विकास की थ्योरी भी आक्रामक है। राष्ट्र विकास की थ्योरी तले पूंजी को ज्यादा महत्व दे रहा है। जिस खेती पर टिका देश का साठ फिसदी दुनिया की मंदी से प्रभावित हुये बगैर भी बाकी चालीस फिसदी को भी संकट से उबार लेता है और मनमोहन सिंह सरीखे सुधारवादी अर्थशास्त्री भी यह कहने से नहीं चुकते कि भारत की इकनॉमी दुनिया की मंदी से प्रभावित नहीं हुई। उसी खेती की जमीन को अगर विकास की चकाचौंध तले मुआवजे के नाम पर हथियारे का जमीन सुधार शुरु होगा तो फिर रास्ता जाता किधर है। ना तो बहुफसली जमीन मायने रखती है और ना ही छत्तीसगढ या बंगाल सरीखे राज्यो की खेती अर्थव्यवस्था। औघोगिक गलियारों के नाम पर रक्षा के लिये हथियारो
के उघोग लगाने के नाम पर या फिर ग्रामिण क्षेत्रो में बिजली पहुंचाने के नाम पर सरकार कोई भी जमीन ले सकती है। सिर्फ मुआवजा पहले की तुलना में ज्यादा मिल जायेगा। लेकिन इसकी एवज में सरकार के पास ऐसी कोई योजना भी नहीं है कि रोजगार बढे या विपन्न लोगों को रोजगार मिले। ध्यान दें तो मनमोहन सिंह के दौर में भी कई तरीकों से उदारीकरण के नाम पर उपजाऊ भूसंपदा कारपोरेट घरानो को सौपी गयी। जो रियल इस्टेट में खपा। अकूत मुनाफाखोरी हुई। आवारा पूंजी का खुला खेल नजर आया। कालाधन की उपज भी तो इसी खुली व्यापार योजना के दायरे में होती रही। तो यह खेल अब अलग कैसे होगा। योजना आयोग की घिसी पिटी लकीरों को मिटाकर नयी लकीर खिंचने के लिये बने नीति आयोग की नयी भर्ती से भी समझा जा सकता है। याद कीजिये तो मनमोहन सिंह के दौर में योजना आयोग के उपाध्यक्ष की कुर्सी पर मोंटेक सिंह अहलूवालिया बैठा करते थे और अब नीति आयोग के उपाध्यक्ष की कुर्सी पर अरविन्द पानागढिया बैठेंगे। दोनों विश्व बैंक की नीतियों तले बने अर्थशास्त्री हैं। दोनो के लिये खुला बाजार खासा मायने रखता है। वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ में काम करते हुये दोनों ने ही आर्थिक सुधार को ना सिर्फ खासा महत्वपूर्ण माना बल्कि भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देशों के लिये दोनो के लिये विकास की रेखा कंजूमर की बढती तादाद से तय होती है। दोनों ही डब्ल्यूटीओ की उन नीतियों का विरोध कभी ना कर सके जो बारत के किसान और मजदूरों के खिलाफ रही। दोनों ही खनिज संपदा को मुक्त बाजार या कहे मुक्त व्यापार से जोड़ने में खासे आगे रहे। फिर योजना आयोग से बदले नीति आयोग में अंतर होगा क्या। महत्वपूर्ण यह भी है कि भारत में जितनी असमानता है और बिहार, यूपी,झारखंड सरीखे बीमारु राज्य की तुलना में महाराष्ट्र ,कर्नाटक जैसे विकसित राज्य के बीच कभी मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भी विकास को हर तबके तक पहुंचाने के लिये रि-डिस्ट्रूबेशन आफ डेवपेलपेंट की थ्योरी रखी । और जिस वक्त नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिये लोकसभा के चुनावी प्रचार में जुटे थे उस वक्त अरविन्द पनगारिया ने भी बकायदा भारत में विकास की असमानता  को लकेर कई लेखों में कई सवाल उठाये।

फिर विश्व 
बैंक और आईएमएफ का नजरिया भारत को लेकर इन दोनो अर्थशास्त्रियों के काम करने के दौरान ही कितना जन विरोधी रहा है, यह मनमोहन सिंह के दौर में बीजेपी ने ही कई मौको पर उठाये। और तो और संघ परिवार का मजदूर संघटन बीएमएस हो या स्वदेशी जागरण मंच दोनो ने ही हमेशा विश्व बैंक और आईएमएफ की नीतियों को लेकर वाजपेयी सरकार से लेकर मनमोहन सरकार तक पर सीधी चोट की है । अब यहा नया सवाल है कि एक तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना और दूसरी तरफ भारत को विकसित देश बनाने के लिये सरकार की नीतियां। एक तरफ संघ के तीन दर्जन संगठन जो आदिवासी से लेकर किसान और मजदूर से लेकर देशी उत्पादन पर टिके स्वावलंबन के लिये बीते चालीस बरस से काम कर रहे हैं और उन्हें बीच से निकले राजनीतिक कार्यकर्ता जो संघ परिवार की राष्ट्रीय सोच को ही धर्म की चादर में ही लपेटा हुआ दिखा रहे है। तो यह आपसी सहमति से है या आपसी अंतर्विरोध । या फिर सहमति और अंतर्विरोध के बीच की लकीर ही मौजूदा दौर में एक हो चली है। क्योंकि कल तक संघ परिवार के बीच काम करने वाले मुरलीधरराव हों या संघ के पांच सौ से ज्यादा प्रचारक। जो वाजपेयी सरकार से लेकर मनमोहन सरकर के दौर में उसी विदेसी निवेश और पूंजी पर टिके उसी विकास के खिलाफ थे जो रोजगार दे नहीं पा रही थी और पूंजीवालों को हर सुविधाओं से लैस कर रही थी। मनमोहन सिंह के दौर में पूंजी पर टिके विकास ने ४० फिसदी मजदूरों के रोजगार छीने और ७० फिसदी स्वरोजगार में सेंध लगायी। २००५-२०१० के दौर में देश में कुल २७० लाख रोजगार हुये । लेकिन इसी दौर में करीब ढाई लाख स्वरोजगार बेरोजगार हो गये। इसी दौर में उघोगों को टैक्स सब्सिडी हर बरस पांच लाख करोड तक दी गयी। और इन सब के हिमायत विश्व बैक और आईएसएफ से लेकर डब्लुटीओ तक ने तो की है, जहां से निकले अर्थशास्त्री एब नीति आयोग को संभाल रहे है बल्कि मनमोहन सरकार के दौर में आर्थिक सलाह देने वाले डा विवेक देवराय भी नीति आयोग के स्थायी सदस्य नियुक्त हो चुके हैं। यानी सिर्फ अरविन्द पानागढ़िया का ही नहीं बल्कि मुक्त व्यापार के समर्थक रहे अर्थशास्त्री डॉक्टर बिबेक देवराय का भी सवाल है जो आर्थिक मुद्दों पर मनमोहन सिंह के दौर में हम सुझाव देते आये है और इन अहम सुझावों को कभी बीजेपी ने सही नहीं माना। या कहें कई मौकों पर खुलआम विरोध किया । और डा देवराय इससे पहले की सरकार में  विदेशी व्यापार, आर्थिक मसले और कानून सुधार के मुद्दों पर सलाहकार रह चुके हैं। यानी मनमोहन सरकार के दौर की नीतियो का चलन यहा भी जारी रहेगा  तो सवाल है बदलेगा क्या । वैसे भी जमीन अधिग्रहण से लेकर मजदूरो के लिये केन्द्र सरकार की नीतियो से संघ परिवार में भी कुलबुलाहट है । जिस तरह मुआवजे के दायरे में जमीन अधिग्रहण को महत्व दिया जा रहा है और मजदूरो को मालिको के हवाले कर हक के सवाल को हाशिये पर ढकेला जा रहा है उससे संघ के ही भारतीय मजदूर संघ सवाल उठा रहा है ।

सवाल 
यह भी है कि खुद नरेन्द्र मोदी ने पीएम बनने के बाद संसद के सेन्जट्रल हाल में अपने पहले भाषण में ही जिन सवालो को उठाया और उसके बाद जिसतरह हाशिये पर पडे तबको का जिक्र बार बार यह कहकर किया कि वह तो छोटे छोटे लोगो के लिये बड़े बड़े काम करेंगे तो क्या नयी आर्थिक नीतियां वाकई बडे बडे काम छोटे छोटे लोगों के लिये कर रही है या फिर बडे बडे लोगों के लिये। क्योंंकि  देश की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जो कम होगी कैसे इसकी कोई योजना नीतिगत तौर पर किसी के पास नहीं है। बड़़े पैमाने पर रोजगार के साधनों को उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी राज्य पर है, लेकिन रोजगार कारपोरेट और कारोबारियों के हाथ में सिमट रहा है और पहले ना मनमोहन सिंह कुछ बोले और ना ही अब कोई बोल रहा है। गरीबों के लिए समाज कल्याण की योजनाएं सरकार को बनानी हैं। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में सारी योजना तो अब सारी नीतिया कल्याणकारी पैकेज में सिमट रही है । ऐसे में नीति आयोग क्या अपने उद्देश्यों पर खरा उतरेगा-ये किसके लिये कितना बड़ा यह तो वक्त बतायेगा लेकिन असल मुश्किल है कि एक तरफ धर्म के नाम पर घर वापसी का सवाल आक्रामक हो चला है और देश को इसमें उलझाया जा रहा है मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में धर्म के नाम पर कही औवेसी तो कही आरएसएस का नाम लेकर राष्ट्रवाद को परिभाषित करने का खुला खेल चल रहा है तो दूसरी तरफ आर्थिक सुधार की नीतियो की रफ्तार मनमोहन सिंह के दौर से कई गुणा तेज है। और यह लगने लगा है कि निजी सेक्टर चुनी हुई सरकार से भी ताकतवर हो चले है । 

वही राग वही रंग फिर कैसे बदलेगा नीति आयोग?

प्रधानमंत्री मोदी का नीति आयोग और पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के योजना आयोग में अंतर क्या है। मोदी के नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पानागढ़िया और मनमोहन के योजना आयोग के मोंटक सिंह अहलूवालिया में अंतर क्या है। दोनों विश्व बैंक की नीतियों तले बने अर्थशास्त्री हैं। दोनो के लिये खुला बाजार खासा मायने रखता है। वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ में काम करते हुये दोनों ने ही आर्थिक सुधार को ना सिर्फ खासा महत्वपूर्ण माना बल्कि भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देशो के लिये दोनों के लिये विकास की रेखा कंज्यूमर की बढ़ती तादाद से तय होती है। दोनों ही डब्ल्यूटीओ की उन नीतियों का विरोध कभी ना कर सके जो बारत के किसान और मजदूरों के खिलाफ रही। दोनों ही खनिज संपदा को मुक्त बाजार या कहे मुक्त व्यापार से जोड़ने में खासे आगे रहे। फिर योजना आयोग से बदले नीति आयोग में अंतर होगा क्या। महत्वपूर्ण यह भी है कि भारत में जितनी असमानता है और बिहार, यूपी, झारखंड सरीखे बीमारु राज्य की तुलना में महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे विकसित राज्य के बीच कभी मोंट सिंह अहलूवालिया ने भी विकास को हर तबके तक पहुंचाने के लिये रि-डिस्ट्रूबेशन आफ डेवपेलपेंट की थ्योरी रखी। और जिस नरेन्द्र मोदी प्रदानमंत्री पद के लिये लोकसभा के चुनावी प्रचार में जुटे थे उस वक्त अरविन्द पनगारिया ने भी बकायदा भारत में विकास की असमानता को लकेर कई लेखो में कई सवाल उठाये। फिर विश्व बैंक और आईएमएफ का नजरिया भारत को लेकर इन दोनो अर्थशास्त्रियों के काम करने के दौरान ही कितना जन विरोधी रहा है, यह मनमोहन सिंह के दौर में बीजेपी ने ही कई मौको पर उठाये। और तो और संघ परिवार का मजदूर संघटन बीएमएस हो या स्वदेशी जागरण मंच दोनो ने ही हमेशा विश्व बैंक और आईएमएफ की नीतियों को लेकर वाजपेयी सरकार से लेकर मनमोहन सरकार तक पर सीधी चोट की है।

लेकिन अब सवाल योजना आयोग से नाम बदलकर नीति आयोग का है तो फिर सिर्फ अरविन्द पानागढ़िया का ही नहीं बल्कि मुक्त व्यापार के समर्थक रहे अर्थशास्त्री डॉक्टर बिबेक देवराय का भी सवाल है जो आर्थिक मुद्दों पर मनमोहन सिंह के दौर में सुझाव देते आये है और इन अहम सुझावों को कभी बीजेपी ने सही नहीं माना। या कहे कई मौको पर खुलआम विरोध किया । दरअसल डा बिबेक देवराय स्थायी समिति के सदस्य चुने गये है। और डा देवराय इससे पहले की सरकार में विदेशी व्यापार, आर्थिक मसले और कानून सुधार के मुद्दों पर सलाहकार रह चुके हैं। यानी मनमोहन सरकार के दौर की नीतियों का चलन यहा भी जारी रहेगा तो सवाल है बदलेगा क्या। वैसे भी जमीन अधिग्रहण से लेकर मजदूरों के लिये केन्द्र सरकार की नीतियों से संघ परिवार में भी कुलबुलाहट है। जिस तरह मुआवजे के दायरे में जमीन अधिग्रहण को महत्व दिया जा रहा है और मजदूरों को मालिकों के हवाले कर हक के सवाल को हाशिये पर ढकेला जा रहा है उससे संघ के ही भारतीय मजदूर संघ सवाल उठा रहा है। सवाल यह भी है कि खुद नरेन्द्र मोदी ने पीएम बनने के बाद संसद के सेन्ट्रल हाल में अपने पहले भाषण में ही जिन सवालों को उठाया और उसके बाद जिसतरह हाशिये पर पड़े तबकों का जिक्र बार बार यह कहकर किया कि वह तो छोटे छोटे लोगों के लिये बडे बडे काम करेगें तो क्या नयी आर्थिक नीतियां वाकई बडे बड़े काम छोटे छोटे लोगों के लिये कर रही है या फिर बड़े बड़े लोगों के लिये।
क्योंकि देश की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जो कम होगी कैसे इसकी कोई योजना नीतिगत तौर पर किसी के पास नहीं है। बड़े पैमाने पर रोजगार के साधनों को उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी राज्य पर है, लेकिन रोजगार कारपोरेट और उङोगपतियो के हाथ में सिमट रहा है और पहले ना मनमोहन सिंह कुछ बोले और ना ही अब कोई बोल रहा है। गरीबों के लिए समाज कल्याण की योजनाएं सरकार को बनानी हैं। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में सारी योजना तो अब सारी नीतिया कल्याणकारी पैकेज में सिमट रही हैं। ऐसे में नीति आयोग क्या अपने उद्देश्यों पर खरा उतरेगा-ये बड़ा सवाल है।और खास कर तब जब देश को एक तरफ घर वापसी में उलझाया गया है और दूसरी तरफ आर्थिक सुधार की नीतियों की रफ्तार मनमोहन सिंह
से भी ज्यादा रफ्तार वाली हो चली है।

Friday, January 2, 2015

संघ की उड़ान को थामना सोनिया-राहुल के बस में नहीं


जिस सियासी राजनीतिक का राग नरेन्द्र मोदी ने छेड़ा है और जिस हिन्दुत्व की ढपली आरएसएस बजा रही है, कांग्रेस ना तो उसे समझ पायेगी और ना ही कांग्रेस के पास मौजूदा वक्त में मोदी के राग और संघ की ढपली का कोई काट  है। दरअसल, पहली बार सोनिया गांधी और राहुल गांधी की राजनीतिक समझ नरेन्द्र मोदी की सियासत के जादू को समझ पाने में नाकाम साबित हो रही है  तो इसकी बडी वजह मोदी नहीं आरएसएस है। और इसे ना तो सोनिया-राहुल समझ पा  रहे है और ना ही कांग्रेस का कोई धुरंधर। अहमद पटेल से लेकर जनार्दन  द्विवेदी और एंटनी से लेकर चिदबरंम तक सत्ता में रहते हुये हिन्दु इथोस  को समझ नहीं पाये। और ना ही संघ की उस ताकत को समझ पाये जिसे इंदिरा  गांधी से लेकर राजीव गांधी ने बाखूबी समझा। इसलिये सोनिया गांधी और  राहुल गांधी की सियासत सिवाय मोदी सरकार के फेल होने के इंतजार से आगे बढ़  भी नहीं पायेगी। इसलिये कांग्रेस ना तो मोदी सरकार के लिये कोई चुनौती है  ना ही संघ परिवार के लिये कोई मुश्किल। और यह चिंतन कांग्रेस में नहीं  बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हो रहा है। संघ के चितंन-मनन का दायरा  कितना बड़ा है या कांग्रेस संघ की उस थाह को क्यों नहीं ले पा रही है, जिसे  इंदिरा ने ७० के दशक में ही समझ लिया और राजीव गांधी ने अयोध्या आंदोलन  के वक्त समझा। असल में संघ परिवार के भीतर भविष्य के भारत के जो सपने पल  रहे है वह पहली बार नेहरु-गांधी परिवार के साथ अतित में रहे संघ परिवार  के संबंधों से आगे देखने वाले हैं। हिन्दु राष्ट्रवाद को अध्यात्मिक तौर  पर आत्मसात कराने वाले हैं।यानी हिन्दु धर्म का नाम लिये बगैर एकनाथ  राणाडे की उस सोच का अमलीकरण कराना हो जो विवेकानंद को लेकर राणाडे ने  १९७० में करा लिया था। लेकिन उस वक्त इंदिरा गांधी ने इस सोच की थाह को  पकड़ लिया था।

असल में एकनाथ राणाडे की सौवी जंयती के मौजूदा बरस में वह  सारे सवाल संघ के भीतर हिलोरे मार रहे है जिनपर अयोध्या आंदोलन के वक्त  से ही चुप्पी मार ली गई और संघ की समूची समझ ही राम मंदिर के दायरे में सिमटा दी गयी। मुश्किल यह है कि काग्रेस की राजनीति बिना इतिहास को समझे भविष्य की लकीर खिंचने वाली है और संघ अपने ही अतित के पन्नो को खंगाल  कर भविष्य का सपना संजो रहा है। जो कांग्रेस और तमाम राजनीतिक दल आज संघ परिवार के हिन्दु शब्द सुनते ही बैचेन हो जाते है उस हिन्दु शब्द का महत्व आरएसएस के लिये क्या है और इंदिरा गांधी ने इस शब्द को कैसे पकड़ा इसके लिये इतिहास के पन्नो को खंगालना जरुरी है। पन्नों को उलटे तो १९७०  में स्वयंसेवक एकनाथ राणाडे ने जब विवेकानंद शिला स्मारक का कार्य पूरा  किया तो इंदिरा गांधी ने राणाडे को समझाया कि स्वामी विवेकानंद के विचार  को दुनियाभर में फैलाने और भारत को दुनिया का केन्द्र बनाने में उनकी  सरकार राणाडे की मदद करने को तैयार है। बशर्ते स्वामी विवेकानंद को  हिन्दू संत की जगह भारतीय संत कहा जाये। राणाडे इसपर सहमत हो गये ।  लेकिन तब के सरसंघचाल गुरुगोलवरकर इसपर सहमत नहीं हुये कि इंदिरा सरकार के साथ मिलकर हिन्दू संत विवेकानेद की जगह भारतीय संत विवेकानंद के लिये  एकनाथ राणाडे काम करें। असर इसी का हुआ कि १९७१ की आरएसएस की प्रतिनिधि  सभा में विवेकानंद शिला स्मारक की रिपोर्ट एकनाथ राणाडे ने नहीं रखी।
 संघ के जानकार दिलिप देवघर के मुताबिक संघ की प्रतिनिधी सभा में विवेकानंद स्मारक शिला पर रिपोर्ट ना रखने पर स्वयसंवकों ने जब वजह जानना चाहा तो गुरु गोलवरकर की टिप्पणी थी, इनका संघ के साथ क्या संबंध।

तो पहली बार इंदिरा गांधी ने संघ की उस ताकत में सेंध लगायी जिसे मौजूदा वक्त में कांग्रेस के धुरंधर समझ पाने में नाकाम हैं। इंदिरा गांधी की सफलता इतनी भर ही नहीं थी बल्कि इसके बाद विवेकानंद केन्द्र को लेकर जो  काम एकनाथ राणाडे ने शुरु किया वह इस मजबूती से उभरा कि रामकृष्ण मिशन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामानांतर एक बडी ताकत का केन्द्र विवेकानंद केन्द्र बनकर उभरा। यानी १९२६ में महज १२ बरस की उम्र में जो एकनाथ  राणाडे आरएसएस के साथ जुड गये और जिन्होंने १९४८ में संघ पर लगे प्रतिबंध के दौर में गुरु गोलवरकर के जेल में रहने पर सरदार पटेल के साथ मिलकर तमाम समझौते किये। बालासाहेब देवरस और पी बी दाणी के साथ मिलकर आरएसएस  का संविधान लिखा। जिसके बाद संघ पर से प्रतिबंध उठा। उस एकनाथ राणाडे को अपनी राजनीति से इंदिरा गांधी ने साधा। हालांकि गुर गोलवरकर की मृत्यु के बाद बालासाहेब देवरस ने बैगलोर में संघ की सभा में एकनाथ राणाडे को हाथ पकड़कर साथ बैठाया और उसके बाद से विवेकानंद केन्द्र पर रिपोर्ट देने का सिलसिला शुरु हुआ। लेकिन यहा समझना यह जरुरी है कि राणाडे के शताब्दी वर्ष में ९ नवंबर २०१४ को अगर प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली के विज्ञान भवन के कार्यक्रम में शिरकत करते है और तीन दिन पहले नागपुर के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में सरसंघचालक मोहन भागवत भी एकनाथ राणाडे को याद कर स्वामी विवेकानंद के विचारों को ही देश में फैलाने के जिक्र कर हिन्दुत्व का सवाल
 उठाते हैं तो फिर इसके दो मतलब साफ है। पहला, संघ परिवार अब हिन्दू इथोस की उस सोच को देश मे पैदा करना चाहता है जिक्र जिक्र विवेकानंद ने किया और जिस सोच को राणाडे विवेकानंद के जरीये देश में फैलाना चाह रहे थे। और  दूसरा कांग्रेस आज इस हिन्दू इथोस को समझ नहीं पा रही है कि आखिर नेहरु गांधी परिवार हमेशा हिन्दुत्व को लेकर नरम रुख क्यों अपनाये रहा।

दरअसल इंदिरा गांधी ने इमरजेन्सी के दौर में जेपी के साथ आरएसएस के जुड़ने को भी खतरे की घंटी माना । यह वजह है कि १९८० में सत्ता वापसी के बाद इंदिरा गांधी ने खुले तौर पर हिन्दुत्व को लेकर साफ्ट रुख अपनाया । सत्ता संबालने के बाद विदर्भ जाकर इंदिरा गांधी ने विनोबा भावे के पांव छुये। उस दौर में उन्होने संघ की ताकत को लेकर विनोभा भावे से जिक्र किया । संघ के सामाजिक संगठनों को ही आरएसएस के भीतर संघर्ष कराने के हालात भी पैदा किये। असल में संघ परिवार के भीतर अब इस सवाल को लेकर मंथन चल रहा है कि विश्व हिन्दु परिषद को तो अध्यात्मिक रुख अदा करना था लेकिन अयोध्या आंदोलन को लेकर विहिप का रुख राजनीतिक कैसे हो गया। सच यह भी है कि विहिप के राजनीतिकरण में भी इंदिरा गांधी की बड़ी भूमिका रही। जिन्होंने धीरे धीरे विहिप के आंदोलन को राजनीति के केन्द्र में ला खड़ा किया। जिसे राजीव गांधी ने अयोध्या आंदोलन के दौर में शिला पूजन पर विहिप के साथ समझौता कर आगे भी बढाया और रज्जू भैया के साथ समझौते की दिशा में कदम भी बढाये। ध्यान दें तो राजीव गांधी ने एक साथ दो-तरफा सियासी बिसात बिछायी । एक तरफ सैम पित्रोदा के जरीये तकनीकी आधुनिकीकरण तो दूसरी तरफ बहुकेन्र्दीय सांप्रदायिकता । शाहबानो मामला, अयोध्या में शिला पूजन और नार्थइस्ट में मिशनरी। ध्यान दें तो मौजूदा कांग्रेस में ना तो सोनिया गांधी हिन्दु इथोस को समझ पायी है और ना ही राहुल गांधी काग्रेस के नरम हिन्दुत्व रुख के कारणो को समझ पाये। इसलिये जिस स्वामी विवेकानंद की धारा को इंदिरा गांधी ने संघ के ही स्वयसेवक एकनाथ राणाडे के जरीये की संघ के हिन्दुत्व पर चोट कर सामानांतर तौर पर खड़ा किया आज वही विवेकानंद केन्द्र मोदी सरकार की थिंक टैक हैं। और कांग्रेस की समझ से यह सियासत कोसो दूर है। असल में कांग्रेस की दूसरी मुश्किल तकनीक के विकास के जरीये विचारधारा और समाज में परिवर्तन की समझ भी है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के संबंध एल्विन टोफलर से भी रहे। दोनों ही भविष्य की राजनीति में तकनीक और टेकनाक्रेट दोनो की जरुरत को समझते थे। और आरएसएस के भीतर भी यह समझ खासी पुरानी रही है। १९९८ में संघ के चिंतन बैठक में बकायदा एचवी शेषार्दी ने बाल आप्टे और केरल के वरिष्ठ स्वयंसेवक परमेशवरन के जरीये एल्विन टॉफलर की किताब वार एंड एंटी वार और हेलिग्टन की क्लैशस आफ सिविललाइजेशन पर एक पूरा सत्र किया। यानी सोलह बरस पहले ही भविष्य के बारत को लेकर जो सपना भी संघ के भीतर चिंतन के तौर पर उपज रहा था वह नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कैसे लागू होगी या कैसे लागू की जा सकती है इस दिशा में काम लगातार चल रहा है। न्यूयार्क, सिडनी के बाद अब लंदन में भी प्रदानमंत्री मोदी की सार्वजनिक सभा के आयोजन में संघ का कोर ग्रूप लगा हुआ है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। आज की तारीख में बकायदा हर एनआरआई स्वयंसेवक की पूरी जानकारी संघ-बीजेपी के कम्प्यूटर में मौजूद है, जिनसे संपर्क कर मोदी सरकार का साथ और संघ के हिन्दू राष्ट्र के सपने को जगाने में एक मेल यानी कंप्यूटर की चिट्टी ही काफी है । जो विदेशी स्वयंसेवकों में राष्ट्रप्रेम जगा देती है। इसी तर्ज पर अब दुनिया के हर हिस्से में में मौजूद भारतीयो की सूची भी अब संघ-बीजेपी तैयार कर रही है।

जाहिर है अगर तकनीक के आसरे संवाद बन सकता है और विदेश में रह रहे भारतीयो पर एक मेल से राष्ट्रप्रेम
जाग सकता है तो संकेत साफ है कि डिजिटल क्रांति,संचार क्रांति और तकनीकी संबंध के आसरे भविष्य के भारत को  बनाने की दिशा में संघ की पहल मोदी सरकार के आसरे जिस रफ्तार पर चल पड़ी है उसमें कांग्रेस कहां टिकेगी और बाकि राजनीतिक दलो की सोच कैसे असर डालेगी। क्योंकि कांग्रेस के भीतर भारतीय संस्कृति के उन सवालो को समझने वाला और सोनिया-राहुल गांधी को समझाने वाले कितने कांग्रेसी हैं, जो बता पाये कि नेहरु ने पारसी दामाद होने के बावजूद इंदिरा को हिन्दु रखकर भारत के सियासत के मर्म को समझा। इंदिरा गांधी ने ईसाई बहू होने के बावजूद राजीव गांधी को हिन्दू रखकर भारत के हिन्दू इथोस को समझा। और  सोनिया-राहुल के दौर में संघ परिवार को आंतक के कटघरे में खडा कर हिन्दू शब्द पर ही सवालिया निशान लगाया गया। तो संकेत साफ है हिन्दू शब्द पर ही राजनीति बंटेगी तो कांग्रेस की हथेली खाली रहेगी।