Wednesday, February 25, 2015

दिल्ली की नीतियों तले कलम छोड़ फिर बंदूक न उठा लें कश्मीरी ?

दिल्ली-कश्मीर के बीच तालीम की कड़ी टूटने से बचाएं मोदी-मुफ्ती

घाटी संगीनों के साये से मुक्त कैसे हो सकती है। कैसे उन हाथों में दुबारा कलम थमा दी जाये जो बंदूक और पत्थर से अपनी तकदीर बदलने निकले थे। कैसे युवा पीढी रश्क करें कि पहली बार पीडीपी-बीजेपी की सरकार घाटी में विकास की नयी बहार बहा देगी। यह सवाल घाटी में हर सियासी मुलाकात में गूंजे और दिल्ली में भी सत्ता गढने के दौर में शिकन इन्हीं सवालों को लेकर था। क्योंकि कश्मीर की सत्ता में जो रहे लेकिन रास्ता तो उन्ही बच्चों के जरीये निकलेगा जिनके हाथो में बंदूक रहे या कलम। जिनके जहन में हिन्दुस्तान बसे या सिर्फ कश्मीर। यह सारे हालात अब नयी सत्ता को तय करने होंगे। और सबसे बड़ा इम्तिहान तो नयी सरकार का यही होगा कि कश्मीरी बच्चे बेखौफ होकर देश को समझ सके। पढ़ने के लिये कश्मीर से बाहर निकल सके। और वापस कश्मीर लौट कर बताये कि भारत कितना खूबसूरत मुल्क है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि पांच बरस पहले दिल्ली ने तय किया था कि कश्मीरी बच्चों को देश के हर हिस्से में पढने के लिये रास्ता बनाया जाये और पांच बरस के भीतर ही दिल्ली की नीतियों ने कश्मीरी बच्चो के कश्मीर से बाहर पढ़ने पर ब्रेक लगा दी। असल में 2010 में मनमोहन सरकार ने घाटी के आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों के बारहवी पास बच्चो के लिये वजीफा देकर कश्मीर से बाहर पढ़ाने की नीति बनायी। तय हुआ कि हर बरस केन्द्र सरकार से पांच हजार उन कश्मीरी बच्चों को देश के किसी भी संस्थान में पढने के लिये ट्यूशन फीस और हास्टल का किराया देगी जिनके परिवार की आय सालाना छह लाख रुपये से कम होगी। सितंबर 2010 के फैसले का असर हुआ और पहली बार 2011 में पांच हजार तो नहीं लेकिन घाटी के 89 बच्चे सरकारी खर्च पर पढ़ने बाहर भी निकले। ये बच्चे करगिल से लेकर लेह और पुलवामा से लेकर अनंतनाग तक के थे। कश्मीर के 89 बच्चों के भारत के अलग अलग में पढ़ाई शुरु की।

तो छुट्टियों में वापस लौटने पर कश्मीर से बाहर के हिन्दुस्तान को भी बताया। इसका असर भी हुआ। और जिन इलाकों से बच्चे पहली बार घाटी से बाहर निकल कर पढ़ने पहुंचे उनकी खुशी देखकर अगली खेप में जबरदस्त उत्साह घाटी में हुआ। गरीब परिवारों को पहली बार बच्चों को पढाने का रास्ता खुला तो बरस भर के भीतर तादाद 35 से साढे तीन हजार पहुंच गयी। यानी घाटी के साढे तीन हजार बच्चे 2012 में देश के अलग अलग हिस्सो के शिक्षण संस्थानों में पढ़ने निकले। घाटी में बच्चों को बाहर भेज कर पढाने का सुकून और सुरक्षा दोनों ने घाटी के परिवार वालों का दिल जीता तो 2013 कश्मीरी बच्चो की संख्या बढकर चार हजार पहुंच गयी। खास बात यह थी कि घाटी का जो बच्चा कश्मीर से बाहर निकल कर जिस संस्थान में पढ़ने पहुंचा, उसने वहां के वातावरण को जब कश्मीरी के अनुकूल बताया तो अगली जमात के बच्चों ने जब बारहवी पास की तो फिर उसी संस्थान में नाम लिखाया जिसमें पहले उसके स्कूल या गांव का बच्चा पढ रहा था। असर इसका यह हुआ कि सरकार ने जो नियम घाटी के बच्चों को देश के अलग अलग संस्थान में भेजने के लिये बनाये थे वह टूटा। असल में मनमोहन सरकार ने माना था कि देश में हर शिक्षा संस्थान में सिर्फ दो ही कश्मीरी बच्चों को वजीफे के साथ पढ़ाया जाये। यानी कल्पना की गयी कि देश भर में कश्मीरी बच्चे पढ़ने के लिये निकले। लेकिन दो हालात से दिल्ली कभी वाकिफ रही नहीं । पहली की देश में ढाई हजार शिक्षण संस्थान है कहां। और दूसरा कश्मीर घाटी से पढ़ाई करने के लिये निकले बच्चों के परिजन ही अभी कहां इस मानसिकता में आये हैं कि वह अपने बच्चे को बिलकुल नयी जगह पर पढने के लिये भेज दें ।

असर इसका यह हुआ कि उन्ही संस्थानो में बच्चों के जाने की तादाद बढी जहा पहले से कश्मीरी बच्चे पढ रहे थे। मनमोहन सरकार के दौर में इस नियम को लचीला रखा गया। यानी कितने भी बच्चे किसी संस्थान में पढ़ रहे हैं, उन सभी को केन्द्र सरकार द्वारा तय विशेष वजीफा दिया गया। क्योंकि अधिकारियो से लेकर शिक्षण संस्थानों तक ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया कि कश्मीर से निकले बच्चे सामूहिक तौर पर रहना चाहते है । और अभी भी बच्चे दोस्त बनाने के लिये किसी कश्मीरी को ही खोजते हैं। हालांकि कुछ अर्से में सभी बच्चे आपस में खुल जाते है तो दूसरे प्रांत के बच्चों के साथ दोस्ती करते हैं। लेकिन बच्चो के मां-बाप भी यह चाहते है कि जहां पर पहले से कोई कश्मीरी पढ रहा है तो उसी जगह उसके बच्चे का दाखिला हो। खैर , असर यही हुआ कि कश्मीरी बच्चों को विशेष वजीफा मिलता रहा। लेकिन दिल्ली में सरकार बदली तो झटके में उन्हीं अधिकारियों ने उन्हीं नियमों को कड़ा कर दिया, जिन नियमों को कश्मीरी नजरिये से लचीला किया गया था। फिर दिल्ली तो दिल्ली है। उसका नजरिया तो दस्तावेज पर दर्ज नीतियों के आसरे चलता है तो 2014 में झटके में मानवसंसाधन मंत्रालय ने कश्मीरी बच्चों के वजीफे पर रोक यह कहते हुये लगा दी कि हर संस्धान को सिर्फ दो बच्चो के लिये ट्यूशन फीस और हास्टल फीस दी जायेगी। अब सवाल था कि 2013 में जो चार हजार बच्चे
घाटी से निकल कर देश के 25 संस्थानो में पढाई कर रहे थे उनमें से सिर्फ 50 बच्चो को ही विशेष वजीफा मिलता। बाकि बच्चों का क्या होगा । क्योंकि जिन हालातों से निकल कर घाटी के बच्चे शहरो तक पहुंचे थे, उनकेसामने दोहरा संकट हो गया। एक तरफ पढाई शुरु हो चुकी है तो दूसरी तरफ कालेज संस्थानों ने बताय़ा कि सरकार उनकी ट्यूशन फीस और हास्टल फीस नहीं दे रही है। तो बच्चे क्या करें। शिक्षण संस्थानो ने मानव संसाधन मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया लेकिन मंत्री से लेकर बाबू तक ने जबाब यही दिया कि नियम तो नियम है । कालेजों के सामने मुश्किल यह आ गयी कि बच्चो की पढाई सिर्फ स्नातक की थी . सरकार ने ढाई सौ बच्चो को इंजीनियरिंग और ढाई सौ बच्चो को मेडिकल कोर्स करने के भी वजीफा देने की बात कही थी। तो जो बच्चे इजीनियरिंग और मेडिकल कर रहे थे अब वह क्या करें। हालांकि किसी शिक्षण संस्थान से अभी तक कोई बच्चा निकाला तो नहीं गया है लेकिन 15 दिन पहले लग अलग कालेज और विश्वविधालयों के जरीये शिक्षा सचिव मोहन्ती और मानवसंसाधन मंत्री स्मृति इरानी को जो चिट्टी सौपी गयी उसने कालेज प्रबंधन के इस संकट को उभार दिया है कि अगर बच्चों के ट्यूशन फीस और हास्टल फीस का भुगतान नहीं होता है तो कश्मीरी बच्चो की पढाई बीच में ही छूट जायेगी।

खास बात यह है कि न सबके बीच मानव संसाधन मंत्रालय ने तय किया कि वह खुद इसबार श्रीनगर में घाटी के बच्चो के रजिस्ट्रेशन के लिये कैंप लगायेगा। कैंप ठीक झेलम में आई बाढ़ से पहले लगाया गया। कैंप में बच्चो के साथ मां-बाप भी पहुंचे । अधिकतर मां-बाप ने उन्ही कालेजों में बच्चो को भेजना चाहा, जहां पहले से कोई कश्मीरी बच्चा पढ़ रहा था। लेकिन अधिकारियों ने साफ कहा कि हर कालेज में सिर्फ दो ही बच्चों का रजिस्ट्रेशन होगा। यानी एक साथ एक जगह रजिस्ट्रेशन कराने पर वजीफा नहीं मिलेगा। खास बात यह भी है कि दिल्ली से गये अधिकारियों का नजरिया घाटी को लेकर तक में समाये उसी कश्मीर का ही उभरा जिससे निजात पाने के लिये दिल्ली से कश्मीर तक लगातार पहगल हो रही है। अधिकारियों ने तमाम कालेज प्रबंधन को कहा कि नियम कहता है एकमुश्त एक जगह कश्मीरियों को पढाया नही जा सकता। और मौखिक तौर पर यह साफ कहा कि कश्मीरी बच्चे एक जगह पढेगे तो कानून-व्यवस्था का मामला खड़ा हो जाता है। इस समझ का असर यह हुआ कि घाटी से देश के अलग अलग हिस्सो में जाने वाले बच्चों की तादाद पुराने हालातों में लौट आयी। सौ से कम रजिस्ट्रेशन हुये। और 2014 में समूची घाटी से सिर्फ 2300 बच्चे ही पढाई के लिये निकले हैं। लेकिन इनमें पैसे वाले भी हैं। यानी घाटी के गरीब परिवारों के सामने का वह संकट फिर आ खड़ा हुआ कि कि अगर बच्चे तालिम के लिये कश्मीर से बाहर नहीं निकले तो फिर दुबारा उसी आंतक के साये में खुद को ना खो दें, जिसे 1990 के बाद से लगातार कश्मीर ने देखा भोगा है। क्योकि बीते पांच बरस में दिल्ली की पहल पर करीब दस हजार बच्चे पढाई के लिये देश के अलग अलग हिस्सो में पहुंचे । और अब दिल्ली की ही नीतियो की वजह से अगर उनमें साढे चार हजार बच्चो को पढाई बीच में छोडकर घाटी लौटना पड गया तो फिर सवाल प्रधानमंत्री
मोदी के साथ राज्य के सीएम बनने जा रहे मुफ्ती मोहम्मदसईद के हाथ मिलाने भर का नहीं होगा । सवाल हाथ मिलाने के बावजूद दिलो के टूटने का होगा । क्योकि  जो बच्चे मुल्क को अपनी तालिम से समझ रहे है उनमें एलओसी से लेकर अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर बसे गांव के बच्चे भी है और आंतक से प्रभावित परिवारो से लेकर पलायन का दर्द झेल रहे कश्मीरी पंडितो के परिवार के बच्चे भी हैं। और अनंतनाग, पूंछ, बारामूला, कुलगाम, कूपवाडा , करगिल, जम्मू. रामबन,सांबा, पट्टन,शोपिया , घारगुलम, लेह और डोडा तक के साढे आठ हजार बच्चे हर छुट्टियो में जब घर लौटते है तो मुल्क की खुशनुमा यादो को बांटते है। यह कडी टूटे नहीं यह गुहार तो कश्मीर में बनने वाली नयी सरकार से लगायी ही जा सकती है जिसकी डोर भी दिल्ली में बंधी होगी।

जिसे दिल्ली का ठग कहा वह दिल्ली का सुल्तान निकला !

दिल्ली जीत ने राजनीतिक संघर्ष की नयी लकीर खिंची तो दिल्ली हार ने पूंजी और प्रबंधन की बिसात को खोखला साबित कर दिया। तो क्या भारतीय राजनीति का नया मंत्र वोटरों को ही राजनेता बनाकर सत्ता उनके हाथ में थमाना है। या फिर इस एहसास को जगाना है कि चुनाव दो राजनीतिक दलो के बीच कोई ऐसा मुकाबला नहीं है जहा एक खुद को ताकतवर मान लें और दूसरा उसके सामने संगठन और पैसे की ताकत से कमजोर दिखायी दें। यानी वोटर को सिर्फ वोटर रहने दें और पार्टी यह मान कर चल निकले की वह सत्ता की लड़ाई लड़ रही है और उसके वादे उसकी पहुंच पकड़ जब उसे सत्ता दिला देगी तो फिर वह जनता को दिये वादे निभाने लगेगी। वहीं दूसरी तरफ वोटर को लगने लगे की उसकी भागेदारी चुनाव में सिर्फ सत्ता के लिये लडते दो या तीन राजनीतिक दलों में से किसी एक को चुनने भर की है या चुनने के दौर से लेकर सरकार चलाने में भागेदारी की। भारतीय राजनीति में ऐसा बदलाव क्या संभव है। क्या वाकई दिल्ली एक ऐसी राजनीतिक प्रयोगशाला की तौर पर उभरी है जिसने राजनेताओं के कलेवर को बदल दिया है। यह सवाल चाहे बीजेपी की भीतर अभी ना आये लेकिन 18 से 35 बरस तक के वोटर के जहन में यह सवाल जागने लगा है कि राजनेता हाथ हिला कर वादे करते हुये निकल जाये यह अब संभव नहीं है। संवाद और जनता के बीच दो दो हाथ करने की स्थिति में सत्ता संघर्ष करते नेताओं को आना होगा। यानी बीजेपी दिल्ली में क्यों हारी और अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में क्यों जीते।

अगर पारंपरिक राजनीति के नजरिये से समझें तो बीजेपी के विरोध के वोट आम आदमी पार्टी की झोली में गिरते चले गये। यानी नकारात्मक वोट ज्यादा पड़े । और बीजेपी ने गलतियां कितनी कहां कीं। यह तो झोला भरकर बीजेपी के भीतर का भी कोई नेता आज कह सकता है क्योंकि सिर्फ तीन सीट जीतने का मतलब ही है कि बीजेपी का सारे चुनावी हथियार फेल हो गये। लेकिन दिल्ली को लेकर अगर केजरीवाल के कामकाज के तौर तरीके से चुनाव में सत्तर में से 67 सीटों पर जीत का आकलन करें तो बनारस चुनाव में हार के बाद से केजरीवाल का दिल्ली को लेकर कामकाज करने का तरीका और बनारस की जीत के बाद नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनकर उम्मीद और आस को आसमान तक ले जाने वाले हालातों से दो दो हाथ करना ही होगा। जीत नकारात्मक वोट से हुई हो या सकारात्मक वोट से यह समझना जरुरी है कि दिल्ली में 26 मई से पहले और बाद में दिल्ली के वोटर का नजरिया नरेन्द्र मोदी और अरविन्द केजरीवाल को लेकर था क्या। भावनात्मक तौर पर राष्ट्रवाद जगाते मोदी के लोकसभा चुनाव के भाषणों के एक एक शब्द को सुन लीजिये। आपके रोंगटे खड़े होगें । राजनीति को लेकर बदलता नजरिया खुले तौर पर मोदी ने रखा इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । सीधे सत्ता और कारपोरेट के गठजोड़ पर हमला। गांधी परिवार की रईसी पर हमला । साठ बरस तक काग्रेसी सत्ता तले आम आदमी को गुलाम बनाने की मानसिकता पर सीधी चोट। सीमा के प्रहरी से लेकर देश के लिये पीढियों से अन्न उपजाते किसान की गरीबी और बेहाली का रोना। यानी जो आवाज देश के आम जनता के दिल में गूंजती थी उसे चुनावी मंचो से कोई जुंबा दे रहा था तो वह नरेन्द्र मोदी ही थे। गजब का आकर्षण मोदी ने राजनीतिक तौर पर दिल्ली की चकाचौंध के बीच संघर्ष और पसीना बहाने वालों के लिये बनायी। वाकई 26 मई से पहले के नरेन्द्र मोदी हिन्दुस्तान की राजनीति में एक से नेता के तौर पर उभर रहे थे जो लुटियन्स की दिल्ली को तार तार करना चाहता था। जो वीवीआईपी बने ताकतवर लोगों को जन की भाषा में सिखा रहा था कि सत्ता में आते ही सियासत के रंग ढंग बदल जायेंगे।

कारपोरेट पूंजी को राजनीतिक सत्ता के आगे नतमस्तक होना पड़ेगा। जो राजनीति राडिया टेप से निकल कर देश की खनिज संपदा तक को दलालों को हाथ में बेचकर सुकुन से रेशमी नगर दिल्ली में सुकुन की सांस ले रही है, उसकी खैर नहीं। मोदी की साफगोई का असर समूचे देश में हो रहा था इसे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दिल्ली का असर देश के दूसरे राज्यो से अलग इसलिये था क्योंकि दिल्ली वाकई मिनी इंडिया की तर्ज 26 मई के बाद पीएम मोदी को सबसे करीब और पैनी नजर से भी देख रहा था और उसके बाद सरकार का चुनाव जीतने के कारखाने में बदलने की नीयत को भी बारीकी से महसूस कर रहा था। महाराष्ट्र हो या हरियाणा या झारखंड या जम्मू कश्मीर हर जगह पीएम मोदी का जादू चला। या लोकसभा चुनाव की जीत की आगोश में कांग्रेस या उससे सटे दल समाते चले गये। देश में मौजूदा राजनीतिक सत्ता को लेकर गुस्सा नरेन्द्र मोदी ने जगाया। हर राज्य में वोटर का गुस्सा और चुनाव प्रबंधन जीत दिलाता गया। लेकिन दिल्ली इस सवाल से वाकिफ हमेशा रही कि सत्ता में आने से पहले और सत्ता में आने के बाद के बोल एक नहीं हो सकते। अगर सत्ता में रहते हुये गुस्सा है तो फिर सत्ता में आने से पहले का गुस्सा भी कही ढोंग तो नहीं था। यह सवाल दिल्ली ने कब कैसे पकड़ा। केजरीवाल कब इस सवाल के साये में चुनावी प्रचार में उतर गये और नरेन्द्र मोदी ने कैसे 10 जनवरी को रामलीला मैदान में गुस्से की राजनीति में खुद को ही थकते हांफते देखा। यह सारे सवाल दिल्ली चुनाव में एकजूट इसलिये हुये क्योकि दिल्ली हर राजनीतिक परिवर्तन का गवाह हमेशा से रहा है और राजनीति के हर प्रयोग में उसकी भागेदारी रही है। जरा दिल्ली की महीन राजनीतिक समझ को परखें। अन्ना जो सवाल उठा रहे थे। अन्ना के साथ केजरीवाल जिस आंदोलन से राजनीतिक हवा दे रहे थे । उसके मर्म को 2013 के दिल्ली चुनाव में अगर केजरीवाल ने उठाया तो 14 फरवरी 2014 के बाद मोदी की टीम ने बेहद बारिकी से अन्ना केजरीवाल के मुद्दों को सीधे राजनीतिक जुबान दे दी। जो अन्ना कह रहे थे। जो केजरीवाल कह रहे थे वही शब्द मुख्यधारा के राजनेता नरेन्द्र मोदी कह रहे थे । मोदी के लिये लोकसभा चुनाव के वक्त जरुरी था कि केजरीवाल राजनीतिक तौर पर खारिज हों। और आंदोलन की भाषा राजनीति भाषा बन गयी । लेकिन इस राजनीतिक तौर पर नरेन्द्र मोदी भी मौजूदा व्यवस्था के उस मर्म को समझ नहीं पाये कि अन्ना से लेकर लोकसभा चुनाव तक लोगो के जहन में पहली बार यह सवाल सीधे टकरा रहा था कि देश वाकई दो हिस्सो में बंट चुका है। एक तरफ गरीब तो दूसरी तरफ सुविधाओं से लैस समाज खडा है । यानी जो राजनीति अभी तक धर्म – संप्रदाय में उलझा कर सत्ता साधती रही उसी राजनीति ने जाति-धर्म की राजनीतिक थ्योरी को खारिज कर सत्ता के लिये नारा तो विकास का लगाया लेकिन उम्मीद गरीब तबके में जगी ।

और प्रधानमंत्री मोदी इस सच से दूर हो गये कि विकास का नारा अगर चकाचौंध की विरासत को ही मजबूत करेगा तो फिर विकास को लेकर गरीब से लेकर युवा तबके की समझ और मिडिल क्लास से लेकर नौकरी पेशे में उलझा तबके के निशाने पर और कोई नहीं होगा बल्कि वही शख्स होगा जिसने आस जगायी। इसलिये दिल्ली की सडको पर 26 मई के बाद पहली बार केजरीवाल ने चुनाव की तैयारी करते हुये कोई रैली 10 दिसबंर तक की ही नहीं। सिर्फ मोदी के गुस्से को ही हवा देते रहे। यानी जो सवाल दिल्ली के वोटरो के सामने देश को लेकर हो या दिल्ली को लेकर उस तरफ केन्द्र सरकार अगर ध्यान भी देती तो भी नई दिल्ली चुनाव के वक्त नरेन्द्र मोदी दिल्ली में नायक हो गये होते। लेकिन 26 मई को पीएम बनने के बाद या कहे केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद पहले दिन से दिल्ली को उस अंधेरे में गुम किया गया कि दिल्ली चुनाव ही हर मर्ज की दवा है। यानी दिल्ली को लेकर केन्द्र की समूची कवायद चुनाव को ध्यान में रखकर ही की गयी। उप राज्यपाल का कोई भी निर्णय हो। गृहमंत्री का कोई भी निर्देश हो। बीजेपी में नये प्रदेश अध्यक्ष का एलान हो। ई रिक्शा पर फैसला हो । 84 के दंगों पर मुआवजे का मलहम हो। झुग्गी झोपडी को लेकर कोई कानूनी निर्णय हो। बिजली देने का वादा हो । हर पहल दिल्ली के लिये नही बल्कि दिल्ली चुनाव को ध्यान में रखकर की जा रही है यह मैसेज खुले तौर पर मोदी सरकार भी देती रही और जनता भी समझती रही। यानी सत्ता के लिये चुनाव
प्रबंधन की अनकही स्क्रिप्ट लगातार 26 मई के बाद से दिल्ली चुनाव को लेकर केन्द्र सरकार लिखती रही । लिखती रही और उसी स्क्रिप्ट को केजरीवाल दिल्ली के वोटरों से संवाद बनाते हुये पढ़ते पढ़ाते रहे। युवा तबके के भीतर के सवालो का जबाब कोई देने वाला नहीं था। महंगाई, कालाधन और भ्रष्टाचार तो दूर की बात रही युवा के सपनो को सहेजने वाला कोई नहीं था। राजनीतिक व्यवस्था को लेकर मोदी का गुस्सा अंतराष्ट्रीय तौर पर मान्यता पाकर छवि गढ़ने का ऐसा मंत्र था जो देश के दूसरे हिस्सो में तो कुछ दिन सहेजा भी जा सकता था लेकिन दिल्ली जैसे जगह में वहीं युवा केजरीवाल के प्रचार में साथ खड़ा हो गया जो कल तक केजरीवाल को मोदी के रास्ते की रुकावट मान कर तिरस्कार करने से नहीं चूक रहा था। अमेरिका, आस्ट्रलिया , चीन , रुस सरीखे महाशक्तियों के साथ मोदी की गलबहिया देखने में तो अच्छी थी लेकिन पढा लिखा युवा इसके भीतर के खोखलेपन को बाखूबी समझ रहा था । इसलिये जो बीजेपी जिस चकाचौंध को जिस युवा तबके के लिये मोदी मंत्र के नाम पर बना रही थी उसी मंत्र के खोखलेपन को वही युवा सोशल मिडिया से लेकर अपने दायरे में हर किसी को बता रहा था। उस पर अमित शाह का समूचा तंत्र ही सिर्फ प्रबंधन के जरीये चुनाव जीतने की मंशा बनाने में लगा था। टिकट उसे दें जो पैसे वाला हो। प्रचार में उसे उतारे जो सत्ता की मलाई के रुतबे से जुड़ा हो। विज्ञापन आखरी मौके तक इस तरह परोसे जिससे देखने वालो को लगे कि बीजेपी कितनी रईस पार्टी है। जब प्रचार में इतना खर्च कर सकती है तो फिर सत्ता में आने के बाद कितना लुटायेगी। यह ऐसी मानसिकता थी जिसे बीजेपी हेडक्वार्टर में बैठकर समझने वाले और सडक पर चलने वालों के बीच कोई तारतम्य था ही नहीं। इसके लिये केजरीवाल कोई राजनीतिक प्रयास नहीं कर रहे थे बल्कि खुद ब खुद स्थितिया मोदी सरकार के खिलाफ जा रही थी। बीजेपी हेडक्वार्टर से पूंजी लूटाकर चुनाव प्रचार के लिये प्रोफेशनल्स को काम पर लगाया जा रहा था और वही प्रोफेशनल्स तो स्वयंसेवक बनकर केजरीवाल के लिये प्रचार करने उतर आये। यानी संवाद बनाने के माहिर नरेन्द्र मोदी का कोई संवाद दिल्ली से था ही नहीं और केजरीवाल सिर्फ संवाद बना रहे थे । यानी जो राजनीतिक कसमसाहट दिल्ली में पहली बार चुनाव लड़ने के प्रबंधन और पैसा लूटाने वालो पर भारी पडी वह गरीबों को साफ दिखायी देने वाली लकीर थी । जिसने करवट लेनी शुरु की तो बैनर, पोस्टर, मिडिया का शोर, कैबिनेट का प्रचार या तक की संघ परिवार का जुडाव भी सतही हो गया। लेकिन सवाल है कि क्या वाकई जीत के बाद बीजेपी में कोई असर दिखायी देगा । तो कोई राजनीति का ककहरा पढने वाला भी इसका जबाब यही कहकर देगा कि बीजेपी नहीं नरेन्द्र मोदी कहिये। और जो असर मोदी में होगा वहीं बीजेपी में दिखायी देगा । तो मोदी पर पड़े हार के असर को समझे तो लारजर दैन लाईफ बने मोदी अब खुद को जमीन पर ला रहे हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव की स्क्रिप्ट में लारजर दैन लाइफ बने नोदी का संकट बदलने में भी दोहरा है। एक तो उन्हें खुद को सामान्य राजनेता बताना होगा और दूसरा चकाचौंध कारपोरेट की राजनीति को त्याग कर स्वदेशी जमीन पर लौटना होगा। दोनों परिस्थितियां गलती करायेंगी। क्योंकि मोदी का कद इन्हीं हालातों को खारिज कर कुछ नया देने की उम्मीद पर टिका है । शरद पवार और अजित पवार के साथ बारामती जाकर सार्वजनिक समारोह में शामिल होना । जिन्हे लोकसभा चुनाव में कटघरे में खड़ा करते हुये महाराष्ट्र चुनाव तक में चाचा भतीजा कहकर पुकारा। मुलायम-लालू यादव के पारिवारिक विवाह समारोह में शरीक होने के लिये जाना। जिन्हे मोदी ने ही भ्रष्टाचार के कटघरे में खड़ा किया ।

तो क्या नरेन्द्र मोदी को लगने लगा कि उन्हें क्षत्रपों के साथ खड़ा होना होगा । या फिर कांग्रेस के सफाये के लिये मोदी अब किसी भी क्षत्रप के साथ जाने को तैयार है। वैसे यहां यह समझना भी जरुरी है कि अमित शाह का चुनाव प्रबंधन नरेन्द्र मोदी को ही केन्द्र में रखकर हमेशा बनता रहा है। फिर गुजरात की राजनीति की सीधी लकीर और बिहार–यूपी की राजनीतिक परिस्थितियों की जटिलता बिलकुल अलग है। और उसे भेद पाने में चुनावी प्रबंधन से जज्यादा राजनीति समझ होनी चाहिये जो हिन्दी बैल्ट में बच्चा बच्चा समझता है। और इसे संघ परिवार के वह संगठन भी समझ रहे हैं जिन्हे सरसंघचालक के कहने पर चुनाव मैदान में सक्रियता दिखानी पड़ती है। लेकिन किसान, आदिवासियो से लेकर स्वदेशी और मजदूर संघ में काम करने वालों के सामने राजनीतिक रास्ता बचेगा क्या। जब उन्हे अपना काम करते हुये जिन रास्ते पर चलना है और चुनाव में सक्रियता जिस विचार के लिये बढ़ानी है हर वह समाज के दो छोर हो। वैसे प्रधानमंत्री मोदी में दिल्ली हार का असर निजी तौर पर भी है। सांप्रदायिक सद्भाव का जिक्र हो या अमेरिकी राष्ट्रपति को बराक कहकर संबोधन। यानी संघ की देसी जमीन से दूर प्रधानमंत्री मोदी देश को लेकर कौन सा रास्ता बनाना चाहते हैं। यह उलझन वोटरो को ही नहीं संघ परिवार के भीतर भी रही । और संघ ने चुनावी बिसात की सीख देने के लिये जो मंथन किया उस,में खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर ना रखकर राजनीतिक तौर पर रखकर फिर गलती की । संघ के तर्क को समझे दिल्ली में बीजेपी के वोट बैंक में कोई सेंध नहीं लगी। वही कमोवेश 31 से 33 फीसदी का वोट बैंक बीजेपी के साथ इसलिये रहा क्योंकि संघ की चुनावी सक्रियता दिल्ली में थी। यानी जो 28 लाख 90 हजार वोट बीजेपी को मिले वह संघ परिवार की सक्रियता थी। लेकिन इसके उलट केजरीवाल को 53 फिसदी वोट कैसे मिल गये और उसके वोटो में बीस फिसदी से ज्यादा की बढोतरी कैसे हो गयी। सबका जबाब संघ बीजेपी को कटघरे में खडाकर अपनी राजनीतिक उपयोगिता बरकरार रखते हुये देना चाहती है। यानी सच कोई भी कहने को तैयार नहीं है । हर कोई अपने विस्तार और अपनी मान्यता को ही देख रहा है । लेकिन समझना अब यह होगा कि राजनीति की दो धारायें जब आमने सामने दिल्ली में होगी तो होगा क्या। क्योंकि मोदी का कारपोरेट प्रेम और केजरीवाल का कारपोरेट विरोध विकास की नीतियों तले टकरायेगा ही। और केजरीवाल कभी नहीं चाहेंगे की प्रधानमंत्री मोदी से उनकी निकटता दिखायी दे। कारपोरेट को लेकर
टकराव के बीच में वहीं नीतियां खड़ी होंगी, जिन्हें 1991 से भारत ने अपनाया और संघ परिवार बाजार अर्थव्यवस्था का खुला विरोध करता रहा। यानी बीते ढाई दशक के दौर में किसी पीएम या किसी राजनेता ने जब वैकल्पिक अर्थनीति का कोई खाका रखा ही नहीं तो फिर दिल्ली चुनाव परिणाम क्या राजनीतिक तौर पर वैक्लिपक राजनीति के साथ वैक्लिपक अर्थनीति भी देश के सामने ले आयेगा। यह सवाल इसलिये बडा है क्योकि दिल्ली चुनाव न्यूनतम की जरुरत की जमीन पर हुआ। और दिल्ली ही ऐसी जगह है जहा राज्य किसी भी न्यूनतम जरुरत लेने के जिम्मेदारी में नहीं है। यानी पीने का पानी हो या शिक्षा । स्वास्थ्य सर्विस हो या रोजगार के अवसर दिल्ली में सबकुछ निजी हाथों में सिमटा हुआ है। और कारपोरेट की तादाद भी सबसे ज्यादा दिल्ली में ही है । प्रति व्यक्ति आय भी दिल्ली में सबसे ज्यादा है। तो अगला सवाल है कि बिजली पानी, शिक्षा-स्वास्थय को उपलब्ध कराने के लिये जैसे ही केजरीवाल गरीब तबके की दिशा में कदम बढायेंगे वैसे ही पहला टकराव कारपोरेट कंपनियों से होगा। और कारपोरेट के हितो को साधने के लिये केन्द्र सरकार को सक्रिय होना ही पड़ेगा। क्योकि मेक इन इंडिया का नारा हो फिर चकाचौंध विकास के लिये विदेशी पूंजी का इंतजार प्रधानमंत्री मोदी को देसी कारपोरेट तक के लिये सेफ पैसेज तो बनाना ही होगा। और दुनिया भर में यह मैसेज तो देना ही होगा कि उनकी विकास की सोच और केजरीवाल की चुनावी जीत में कोई मेल नहीं
है। वहीं केजरीवाल की जीत मोदी के चकाचौंध भारत की सोच को ही चुनौती दे रही है इससे पहली बार हर कोई महसूस कर रहा है। यानी टकराव अगर राजनीतिक तौर पर दिल्ली में उभरता है तो फिर बीजेपी को रोकने के लिये समूचे विपक्ष की धुरी केजरीवाल बन जायेंगे। और राजनीति करन के लिये जिस पूंजी और जिस धर्म-जाति के आसरे अभी तक क्षत्रप सियासत साधते आये हैं, उसमें चाहे अनचाहे बदलाव होगा ही। ऐसे में सबसे बडा सवाल संघ परिवार के सामने भी उभरेगा क्योंकि केजरीवाल की थ्योरी और मोदी की फिलास्फी में से संघ की सोच केजरीवाल की थ्योरी के ज्यादा निकट की है। यह हालात मोदी के लिये खतरे की घंटी भी हो सकती है और बीजेपी को दुबारा राष्ट्रीय जमीन पर खडा होने का ककहरा भी सिखा सकती है। क्योंकि बीजेपी एक बरस तक जिसे दिल्ली का ठग कहती रही वही दिल्ली जीत कर लारजर दैन लाइफ बने नरेन्द्र मोदी को जमीन सूंघा कर सीएम की कुर्सी पर बैठ चुका है।

Wednesday, February 18, 2015

हिन्दुत्व के नाम झूलते संघ और सरकार

या तो हिन्दुत्व या हिन्दू राष्ट्र को लेकर राषट्रीय स्वयसेवक संघ की जो समझ है वह देश के सामने कभी आयी ही नहीं है। या फिर संघ परिवार के भीतर हिन्दुत्व को लेकर उलझन है कि वह उसे धर्म माने या जीवन जीने का तरीका। या फिर स्वयंसेवकों के हाथ में सत्ता आते ही संविधान और संघ की थ्योरी टकराती है। या फिर सत्ता और सत्ता के बाहर के स्वयंसेवकों के बीच सामजंस्य हो नहीं पाता क्योंकि हिन्दू राष्ट्र का वाकई कोई ब्लू प्रिट तो है नहीं। तो फिर देश में हिन्दू राष्ट्र को लेकर नये सिरे से खौफ क्यों पैदा हो रहा है। सवाल प्रधानमंत्री मोदी या सरसंघचालक मोहन भागवत के अलग अलग वक्तव्य भर का नहीं है, जो टकराते हुये लगते है बल्कि सवाल देश को लेकर अब उस समझ का है जिससे संघ के मुखिया भी बच रहे हैं और प्रधानमंत्री की चिंता भी धर्मिक हिंसा में सिमटी दिखायी देती है और उलेमा भी हिन्दू राष्ट्र को फिलास्फी नहीं थ्योरी के तौर पर देखना समझना चाहते हैं। ध्यान दें तो आरएसएस के बनने से दो बरस पहले ही 1923 में वीर सावरकर ने रत्नागिरी में रहते हुय़े किताब लिखी हिन्दू कौन। जिसका मर्म यही था कि जिसकी धर्म भूमि और पावन भूमि हिन्दुस्तान है वही हिन्दू है। और जो हिन्दू नहीं, वह राष्ट्रीय नहीं। 1925 में आरएसएस बनाते वक्त हेडगेवार ने सावरकर की थ्योरी को खारिज कर दिया। और हिन्दुत्व को सभ्यता से जोड़ दिया। यानी अभी जो स्वयंसेवक हिन्दुत्व को जीवन जीने के तौर तरीको से जोड़ते हैं, उनके जहन में हेडगेवार का ही बीज है। लेकिन इसके बावजूद संघ परिवार कभी इसका जबाब नहीं दे पाया कि हिन्दु राष्ट्र कहने की जरुरत फिर है ही क्यों। याद करें तो बाबा साहेब आंबेडर ने कहा मैं हिन्दू पैदा जरुर हुआ हूं लेकिन हिन्दू रहकर मरुंगा नहीं।  तो सवाल धर्म का भी आया और जीवन पद्दति का भी । लेकिन फिर याद कीजिये 1952 में हिन्दू कोड बिल का समर्थन जवाहर लाल नेहरु ने किया। और चूंकि मुस्लिम और ईसाई ही सिर्फ अपने कानून के दायरे में थे तो बाकि धर्म चाहे वह बौध धर्म हो या जैन धर्म । या फिर सिख, वैश्नव,लिंगायत या शैव। सभी हिन्दू कोड बिल के दायरे में आये। हिन्दुत्व को लेकर मनमोहर जोशी वाले मामले में भी हिन्दुत्व को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दु शब्द को धर्म से इतर वे आफ लाइफ यानी जीवन जीने के तौर तरीको पर ही जोर दिया।

बावजूद इसके यह सवाल हमेशा अनसुलझा रहा कि संघ बार बार भारत को हिन्दू राष्ट्र कहता क्यों है। क्योंकि संविधान के तहत राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय चिन्ह के तौर पर अगर अशोक चक्र को देखें तो अशोक चक्र को धर्म चक्र के तौर कहा जरुर गया लेकिन अशोक चक्र की व्याख्या कभी धर्म के आधार पर नहीं हुई। बल्कि इसे न्याय चक्र माना गया । अब सवाल है कि धर्म अगर न्याय से जुड़ा है तो बीच बीच में संघ परिवार के संगठन विश्व हिन्दू परिषद ही नहीं बल्कि खुद सरसंघचालक मोहन भागवत घर वापसी का जिक्र क्यो कर देते हैं। और हिन्दुत्व अगर वे आफ लाइफ या जीवन जीने के तरीके भर से जुड़ा है तो फिर मुस्लिम या ईसाई अपनाये लोगों का धर्मांतरण कर हिन्दु बनाने का मतलब है क्य़ा। और जिस धर्मांतरण के साथ विपक्ष में रहते हुये बीजेपी संघ की हिमायती नजर आती है वही बीजेपी सत्ता में आते ही संघ के धर्मातरण मिशन से खुद को पीछे क्यों कर लाती है। यानी यह क्यों कहती है कि हमारा इससे कुछ भी लेना देना नहीं है। दरअसल सवाल सिर्फ बीजेपी का नहीं है बल्कि आरएसएस भी हिन्दुत्व शब्द के जरीये समाज के उस हिस्से से खुद को हमेशा जोड़े रखना चाहता है जो हिन्दू तो है लेकिन संघ का स्वयंसेवक नहीं है। यह गजब का अंतर्विरोध आरएसएस की राजनीतिक सक्रियता के वक्त खुलकर उभरा है। याद कीजिये तो 1972 में मृत्यु से कुछ दिन पहले हुरु गोलवरकर ने ठाणे में दस दिन तक चिंतन बैठक की थी। और उसमें हिन्दू शब्द के प्रति आसक्ति इस तौर पर जतायी थी कि गर हिन्दू शब्द नहीं रहेगा तो फिर प्राचीन भारत की सोच ही खत्म हो जायेगी। यानी हिन्दुत्व को हेडगेवार ने सम्यता से जोड़ा तो गोलवरकर ने हिन्दू शब्द के बगैर सम्यता की सोच के भी खत्म होने के अंदेसा जताया। लेकिन वहीं संघ जब आपातकाल के खिलाफ राजनीतिक तौर पर सक्रिय होता है तो हिन्दू शब्द को जमीन में गाढने से नहीं कतराता। मधुलिमये संघ के हिन्दुत्व शब्द के जरीये ड्यूल मेंमरशिप का मसला ना उछालें, इसके लिये चन्द्रशेखर के कहने पर सरसंघचालक देवरस और सह कार्यवाह रज्जू भैया उस वक्त हिन्दू शब्द राजनीति तौर पर छोडते हैं।

इससे पहले एकनाथ राणाडे भी विवेकानंद के प्रचार और विस्तार के लिये इंदिरा गांधी के कहने पर हिन्दु शब्द की जगह भारतीय शब्द अपनाते हैं। फिर संघ के भीतर का सच भी यही है कि हिन्दुत्व शब्द को जीने की पद्दति के तौर पर हर स्वयंसेवक अपनाता हो यह भी देखने को नहीं मिलेगा। लेकिन नागपुर या महाराष्ट्र के किसी भी हिस्से में चले जाईये वहा पूजा पाठ करने वाले किसी भी व्यक्ति को कोई भी संघ विरोधी संधी करार देने में नहीं हिचकेगा और टिप्पणी करेगा , 'क्या बामण की तरह कर रहे हो।' और वहा संघ यह भी नहीं कहेगा कि यह स्वयंसेवक नहीं है । जबकि हिन्दु धर्म की पद्दति से जीने वाला यह जरुर कहेगा कि वह तो हिन्दू है। लेकिन आरएसएस से उसका कोई वास्ता नहीं है। दरअसल संघ परिवार के भीतर हिन्दुत्व को लेकर हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना हेडगेवार के वक्त से ही जुडी हुई जरुर है। लेकिन हिन्दु और भारतीय शब्द को लेकर जो चितंन संघ के भीतर होता आया है वह स्वयंसेवक को सत्ता मिलते ही हमेशा गायब भी इसलिये हो जाता है क्योंकि संघ के सामने खुद के विस्तार का सवाल सबसे बड़ा है। सत्ता स्वयंसेवक के हाथ में रहे तो विस्तार तेजी से होता है और सत्ता कांग्रेस या किसी दूसरे राजनीतिक दल के हाथ में रहे तो संघ सिमटता है। उसे सत्ता के कटघरे से निकलने में ही अनी उर्जा खपानी पडती है। इसे बाखूबी संघ ने मनमोहन सिंह सरकार के दौर में भोगा है । इसलिये घर वापसी या लव जेहाद जैसे शब्द विस्तार के लिये मोहक शब्द भी है और समाज के बेरोजगार या वक्त का उपयोग करें क्या इस सवाल से जुझने वालो को संघ परिवार का मंच खुद ब खुद मिल जाता है। जो उन्हें सत्ता की मलाई दे या न दें लेकिन सत्ता उनके खिलाफ कार्रवाई कर नहीं सकती यह तमगा तो खुद ब खुद मिल जाता है। लेकिन यह विस्तार स्थायी हो नहीं सकता और स्थायी विस्तार के लिये हिन्दुत्व के मायने भी बताने होंगे और उनके एतिहासिक परिपेक्ष्य को भी समझाना होगा। जिससे संघ भी बचता है और सत्ता भी। क्योकि हिन्दुत्व और भारतीय शब्द को लेकर तो गोलवरकर से देवरस तक के दौर में इस पर खूब चिंतन-मंथन हुआ है कि हिन्दु शब्द तो कभी धर्म से निकला ही नहीं है। यह भौगोलिक तौर पर निकला हुआ शब्द है । हिन्दू
शब्द सिन्धु से निकला है। यहा तक की वैदिक साहित्य में भी हिन्दू शब्द का कहीं प्रयोग नहीं किया गया है । जबकि भारतीय शब्द धर्म-संस्कृति से जरुर निकला है। ऋगवेद में भरत यज्ञ का जिक्र है। इन्द्र से भी इंडियन शब्द की कई जगहो पर बाखूबी व्याख्या हुई है। फिर भी उलेमाओं को जय हिन्द से परेशानी नहीं है लेकिन वंदे मातरम को लेकर उन्हें मुश्किल है। बावजूद इन सबके हिन्दु शब्द संघ परिवार के आस्तित्व से क्यों जुडा हुआ है । और हिन्दुत्व के बगैर अगर संघ को अपनी जमीन खोखली क्यों दिखायी देती है तो फिर प्रधानमंत्री के यह कहने का मतलब क्या है कि किसी भी धर्म के अस्तित्व पर कोई हिंसक सवाल ना उठाये । जबकि वह हिन्दू राष्ट्र का जिक्र तो 1925 में संघ के निर्माण से हो गया और संघ से राजनीति में नरेन्द्र मोदी 1980 में आये। यानी हिन्दुत्व और भारतीयता को लेकर जो बहस देश में सरकार और संघ परिवार को लेकर चल रही है उसके मर्म में यही है कि स्वयसेवक सत्ता में आये तो उसे भारतीय शब्द के साथ खड़े होना है। और सत्ता में स्वयंसेवक हो तो सत्ता के बाहर के स्वयंसेवक संघ के विस्तार में हिन्दू शब्द और सत्ता की मुश्किलों के बीच झूलते है। लेकिन यह रास्ता किसे मजबूत करता है और किसे कमजोर इसका जबाब मुस्लिमों के नाम पर उलेमाओं के सवाल और जबाब के लिये सरकार की जगह संघ का दरवाजा खटखटाने वाले हालात से समझा जा सकता है। जो भारतीयता के आसरे हिन्दुत्व को समझने की जगह हिन्दुत्व के आसरे भारतीयता तो टटोल रहे है।

Friday, February 13, 2015

जो एलओसी पर नहीं हारा वह दिल्ली से हार गया...


लाइन आफ कन्ट्रोल पर खड़े होकर दुश्मनों का सामना भी किया। तब भी कोई परेशानी नहीं हुई। क्योंकि खुद तय करना था दुश्मनों से दो-दो हाथ करने कैसे हैं। 26/11 हमले के वक्त बतौर कमांडो मैदान में थे।आतंकियों को ठिकाने लगाने में भी कोई परेशानी नहीं थी  हर वक्त जान हथेली पर रखकर ही जिन्दगी जीने वाले सेना का यह कमांडो कभी थका नहीं। रुका नहीं। लेकिन दो दिन पहले दिल्ली में अस्पतालों के हाल ने इसकी रुह कंपा दी। स्वाइन फ्लू का नाम सुनकर मरीज से पहले अस्पताल में कैसी अफरा थफरी मच जाती है और मरीज के इलाज की जगह मरीज को अस्पताल से निकालने में ही अस्पताल का प्रशासन कैसे लग जाता है। उसके बाद दिल्ली के टॉप मोस्ट अस्पतालों की कतार में चाहे निजी अस्पताल हो या सरकारी। स्वाइन फ्लू के इलाज के लिये किसी के पास आईसीयू का बेड तो दूर सुरक्षा हेतु एन 95 किट तक नहीं हैं। और इन हालातों में सेना की वर्दी पहने कमांडो दिल्ली की सड़कों पर छह घंटे तक सिर्फ इसलिये भटकता है कि कही स्वाइऩ फ्लू से प्रभावित उसकी चाची का इलाज हो। सिर्फ एक बेड का इंतजाम कराने के लिये दिल्ली में किस किस के फोन कराने पड़ते हैं और जब बेड मिल जाता है तो इलाज नहीं मिलता। डाक्टर खुद बीमार है। नर्स भी मरीज है। और स्वाइन फ्लू के मरीज के लिये आईसीयू में वेंटिलेटर तक नहीं है। सबकुछ उसी दिल्ली में जिसे डिजिटल से लेकर स्मार्ट बनाने के सियासी नारे लग चुके हैं। दुनिया के नक्शे पर चमकता हुआ दिखाने का एलान हो चुका है। ऐसे में जो जवान कभी सीमा पर नहीं डिगा वह दिल्ली की बदहाली पर डिग गया।

यह सच दो दिन पहले 11 फरवरी का है। रोहतक में रहने वाली प्रेमा देवी की तबियत बिगड़ी। बेटे ने दिल्ली में अपने चचरे भाई को फोन किया। दिल्ली में तैनात सेना के इस कमांडो ने तुरंत पंजाबी बाद में महाराजा अग्रसेन अस्पताल में भर्ती की व्यवस्था की। प्रेमा देवी को आईसीयू में भर्ती कराया गया। इलाज शुरु हुआ। जांच में जैसे ही एच 1एन1 पाजिटिव पाया गया वैसे ही अस्पताल में अफरा तफरी मच गई। अस्पाताल वालों ने तुरंत प्रेमा देवी को कही और शिफ्ट करने को कहा। दोपहर के दो बजे बकायदा अस्पताल ने अल्टीमेटम दे दिया कि आप मरीज को ले जायें। अन्यथा मुश्किल हो जायेगी । और फिर शुरु हुआ अस्पताल दर असपताल भटकने का सिलसिला। दिल्ली के टॉप मोस्ट निजी अस्पतालों का दरवाजा खटखटाया गया। एक्शन बालाजी। मूलचंद अस्पताल । सेंट स्टीफेन्स अस्पताल। अपोलो और सर गंगाराम अस्पताल। हर जगह से एक ही जबाब मिला कि आईसीयू में बेड खाली नहीं है। हर तरह से कोशिश शुरु हुई। कहीं किसी के कहने से कोई बेड मिल जाये। लेकिन नहीं मिला। फिर सरकारी अस्पतालो के भी चक्कर लगने शुरु हुये। सफदरजंग अस्पताल। सुचेता कृपलानी अस्पताल। एयरपोर्ट अस्पताल। हिन्दुराव अस्पताल। जीटीबी । लोकनायक अस्पताल।

कहीं आईसीयू में बेड नहीं मिला। रात के आठ बजे तो जवान ने राष्ट्रपति भवन में तैनात अपने सहयोगी को सारी जानकारी बतायी। तो किसी तरह व्यवस्था कर कहा गया कि आरएमएल अस्पताल में जानकारी दे दी गई है। वहा बेड मिल जायेगा। बेड कैसे मिलेगा । इसकी जानकारी अस्पताल के भीतर किसी को नहीं थी। बेड का मतलब था खुद ही खाली बेड देख कर मरीज को लेटा दें। वर्दी में जवान को देखकर अस्पताल में एक नर्स ने बताया कि रिसेप्शन पर जाकर कहां पर्ची भरनी है और मरीज को लाकर बेड पर लेटा देना है। स्वाइन फ्लू से तड़पती प्रेमा देवी अस्पताल के पार्किग में खडी एंबुलेन्स में थी । उन्हें खुद ही उठा कर लाया गया। लिटाया गया । लेकिन आईसीयू में बिना एम95 किट के जायें कैसे। तो जबाब मिला । रुमाल बांध कर चले जाईये । अंदर कई बेड खाली थे। लेकिन इलाज नादारद था। स्वाइन फ्लू वार्ड में तैनात एक डॉक्टर और दो नर्स बीमार थीं। तो कोई देखने वाला नहीं था। स्वाइन फ्लू का सीधा असर सांस लेने पर पड़ता है। लेकिन आईसीयू में वेंटिलेटर तक नहीं था। इस बीच तीन मरीज और पहुंचे । लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने कहा बेड खाली नहीं है । चाहिये तो ऊपर से कहला दीजिये। जवान यह सुन अंदर से हिल गया । देश के लिये अपनी जान पर खेलने वाले जवान को समझ नहीं आया कि बेड है लेकिन इलाज नहीं। और बिना इलाज के बेड मिल जाये इसका सुकून भी उपर से कोई फोन कर देगा। उसने सवाल करने शुरु किये । तो वर्दी देखकर जबाब तो किसी ने नहीं दिया लेकिन मरीजों को जगह भी नहीं दी। सिर्फ बेड पर लिटा कर आईसीयू का असर यह हुआ कि दो घंटे बाद करीब साढे दस बजे कार्डिक अरेस्ट हुआ। उसे बाद लंग्स फेल हुये। फिर लीवर फेल हुआ । और इस दौर में जांच के लिये इधर उधर भागते-हाफ्ते में रात के एक बज गये। डेढ़ बजे नर्स ने डाक्टर से जानकारी हासिल कर परिजनों को बताया कि प्रेमा देवी नहीं रहीं। लेकिन उनकी मौत स्वाइन फ्लू से हुई है तो वायरस इनके शरीर में है इसलिये खुली बॉडी ले जाना ठीक नहीं है। और तुरंत अंतिम संस्कार करना ही होगा। नही तो शरीऱ के नजदीक आने वाले किसी के भी शरीर में वायरस जा सकते हैं। रोहतक से चली प्रेमा देवी को जिसने भी 10 फरवरी की रात या कहें 11 फरवरी की सुबह देखा और एंबुलेंस में लेट कर दिल्ली ठीक होने के लिये पहुंची प्रेमा देवी का शरीऱ गठरी की तरह एयर टाइट कर 12 फरवरी की तड़के जब रोहतक पहुंचा तो किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि चौबीस घंटे के भीतर दिल्ली ने इलाज की जगह मौत कैसे दे दी। और तड़के ही अंतिम संस्कार की तैयारी करनी पड़ी। उसी तरह जैसे अस्पताल से बॉडी बांध कर दी गई थी। यानी स्वाइन फ्लू से मरे मरीज को जिसने भी सुना वह स्वाइन फ्लू का नाम सुनकर ही खौफजदा हो गया। दिल्ली में इलाज के नाम पर कैसे क्या हुआ इसे ना बेटे ने ना ही भतीजे ने गांव में किसी को बताया। दिल्ली को लेकर मोह भंग अभी भी किसी का हुआ नहीं है। रोहतक के दो और जिंद के तीन स्वाइन फ्लू के मरीज कल और आज भी दिल्ली पहुंचे। सेना का जवान अब एक ही सवाल कर रहा है कि जब दिल्ली का यह हाल है तो देश का क्या होगा। जहां मरने के लिये वातावरण तैयार किया जा रहा है। इस बीच देश भर में स्वाइन फ्लू से मरने वालों की संख्या चार सौ दस पार कर चुकी है। और प्रधानमंत्री ने विश्व कप क्रिकेट खेलने वाले देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बधाई दी है।

Thursday, February 12, 2015

"सुधर जाओ नहीं तो मुश्किल होगी"


गुजरात के सीएम मोदी बदले तो लोकसभा की जीत ने इतिहास रच दिया और प्रधानमंत्री मोदी बदले तो दिल्ली ने बीजेपी को अर्स से फर्श पर ला दिया । दिल्ली की हार से कही ज्यादा हार की वजहों ने संघ परिवार को अंदर सी हिला दिया है । संघ उग्र हिन्दुत्व पर नकेल ना कस पाने से भी परेशान है और प्रधानमंत्री के दस लाख के कोट के पहनने से भी हैरान है। संघ के भीतर चुनाव के दौर में बीजेपी कार्यकर्ता और कैडर को अनदेखा कर लीडरशीप के अहंकार को भी सवाल उठ रहे हैं और नकारात्मक प्रचार के जरीये केजरीवाल को निशाना बनाने के तौर तरीके भी संघ बीजेपी के अनुकुल नहीं मान रहा है । वैसे असल क्लास तो मार्च में नागपुर में होने वाली संघ की प्रतिनिधिसभा में लगेगी जब डेढ हजार स्वयंसेवक खुले सत्र में बीजेपी को निशाने पर लेंगे । लेकिन उससे पहले ही बीजेपी को पटरी पर लाने की संघ की कवायद का असर यह हो चला है कि पहली बार संघ अपनी राजनीतिक सक्रियता को भी बीजेपी और सरकार के नकारात्मक रवैये से कमजोर मान रहा है। आलम यह हो चला है कि संघ के भीतर गुरुगोलवरकर के दौर का "एकचालक अनुवर्तित्व " को याद किया जा रहा है और मौजूदा बीजेपी लीडरशीप को कटघरे में यह कहकर खड़ा किया जा रहा है कि वह भी 1973 के दौर तक के "एकचालक अनुवर्तित्व " के रास्ते आ खडी हुई । जबकि देवरस के दौर से ही सामूहिक नेतृत्व का रास्ता संघ परिवार ने अपना लिया। यानी एक व्यक्ती ही सबकुछ की धारणा जब संघ ने तोड़ दी तो फिर मौजूदा लीडरशीप को कौन सा गुमान हो चला है कि वह खुद को ही सबकुछ मान कर निर्णय ले लें। संघ के भीतर बीजेपी को लेकर जो सवाल अब तेजी से घुमड रही है उसमें सबसे बड़ा सवाल बीजेपी के उस कैनवास को सिमटते हुये देखना है जो 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त बीजेपी को विस्तार दे रहा था। संघ के भीतर यह सवाल बड़ा हो चुका है कि बीजेपी नेताओं की पहचान सादगी से हटी है। मिस्टर क्लीन के तौर पर अन्ना और केजरीवाल की पहचान अभी भी है तो इनसे दूरी का मतलब इन पर नकारात्मक चोट करने का मतलब क्या है।

संघ का मानना है कि दिल्ली में ही अन्ना और केजरीवाल का आंदोलन और आंदोलन के वक्त संघ के स्वयसेवक भी साथ खडे हुये थे लेकिन आज संघ इनसे दूर है लेकिन मौजूदा राजनीति में किसे किस तरह घेरना है क्या इसे भी बीजेपी समझ नहीं पा रही है । संघ विचारक दिलिप देवधर की मानें तो संघ के भीतर यह सवाल जरुर है कि उग्र हिन्दुत्व के नाम पर जो उंट-पटाग बोला जा रहा है उसपर लगाम कैसे लगे । और कैसे उन्हें बांधा जा सके। प्रधानमंत्री मोदी की मुश्किल यह है कि वह सीधे हिन्दुत्व के उग्र बोल बोलने वालो को खिलाफ सीधे कुछ बोल नहीं सकते क्योंकि संघ की ट्रेनिंग या कहे अनुशासन इसकी इजाजत नहीं देता है। अगर प्रधानमंत्री मोदी कुछ बोलेंगे तो विहिप के तोगडिया भी कल कुछ बोल सकते है । यानी नकेल सरसंघचालक को लगानी है और संघ उनपर नकेल कसने में इस दौर में असफल रहा है इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन दिल्ली को लेकर संघ का यह आंकलन दिल्चस्प है कि दिल्ली चुनाव में संघ की सक्रियता ना होती तो बीजेपी के वोट और कम हो जाते। यानी 2013 के दिल्ली चुनाव हो या 2014 के लोकसबा चुनाव या फिर 2015 के दिल्ली चुनाव। संघ यह मानता है कि तीनो चुनाव के वक्त संघ के स्वयंसेवक राजनीतिक तौर पर सक्रिय थे । और दिल्ली में 32-33 फिसदी वोट जो बीजेपी को मिले है वह स्वयंसेवकों की सक्रियता की वजह से ही मिले हैं। और उसके उलट केजरीवाल के हक में वोट इसलिये ज्यादा पड़ते चले गये क्योकि हिन्दुत्व को लेकर बिखराव नजर आया। साथ ही बीजेपी लीडरशीप हर निर्णय थोपती नजर आयी । यानी सामूहिक निर्णय लेना तो दूर सामूहिकता का अहसास चुनाव प्रचार के वक्त भी नहीं था । जाहिर है संघ की निगाहो में अर्से बाद वाजपेयी, आडवाणी,कुशाभाउ ठाकरे, गोविन्दाचार्य की सामूहिकता का बोध है तो दूसरी तरफ बीजेपी अध्यक्ष की मौजूदा कार्यकर्तातओ पर थोपे जाने वाले निर्णय है। खास बात यह है कि
केजरीवाल की जीत से संघ परिवार दुखी भी नहीं है । उल्टे वह खुश है कि कांग्रेस का सूपडा साफ हो गया और दिल्ली के जनादेश ने मौजूदा राजनीति में ममता,मुलायम , लालू सरीखे नेताओ से आगे की राजनीतिक लकीर खिंच दी ।

और चूंकि नरेन्द्र मोदी भी केजरीवाल की तर्ज पर सूचना क्रांति के युग से राजनीतिक तौर पर जोडे हुये है और केजरीवाल की पहुंच या पकड राष्ट्रीय तौर पर नही है तो बीजेपी के पास मौका है कि वह अपनी गलती सुधार ले । संघ की नजर दिल्ली चुनाव के बाद केजरीवाल को लेकर इतनी पैनी हो चली है कि वह बीजेपी को यह भी सीख देने को तैयार है कि मनीष सिसोदिया को उप-मुख्यमंत्री बनाकर अगर केजरीवाल आम आदमी पार्टी के विस्तार में लगते हो तो फिर दिल्ली को लेकर केजरीवाल को गेरा भी जा सकता है। यानी केजरीवाल को दिल्ली में बांध कर बीजेपी को राष्ट्रीय विस्तार में कैसे आना है और दिल्ली वाली गलती नहीं करनी है यह पाठ भी संघ पढाने को तैयार है । यानी बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढाने का सिलसिला गुरुवार से जो झंडेवालान में शुरु हुआ है वह रविवार और सोमवार को सरसंघचालक मोहन भागवत और दूसरे नंबर के स्वयसेवक भैयाजी जोशी समेत उस पूरी टीम के साथ पढ़ाया जायेगा जो मार्च के बाद कमान हाथ में लेगा। यानी अभी तक यह माना जा रहा था कि मोदी सरकार के बाद संघ हिन्दु राष्ट्र को सामाजिक तौर पर विस्तार देने में लगेगी लेकिन दिल्ली की हार ने बीजेपी और सरकार को संभालने में ही अब संघ को अपनी उर्जा लगाने को मजबूर कर दिया है। और बीजेपी लीडरशीप को साफ बोलने को तैयार है कि सुधर जाओ नहीं तो मुश्किल होगी ।

Tuesday, February 10, 2015

जनादेश ने भरे हर जख्म, उभारे हर जख्म !!

आज मां की आंखों में आंसू हैं। पिता की नजरें उठी हुई हैं। बेटे को गर्व है । बेटी पिता को निहार रही है। पत्नी की आंखें चमक रही हैं। यह केजरीवाल के परिवार का अनकहा सच है। जिसे बीते नौ महीनो के दौर में पूरे परिवार
ने जिस दर्द और त्रासदी के साथ भोगा है उसका अंत जनादेश के इतिहास रचने से होगा यह किसने सोचा होगा। गजब का प्राकृतिक न्याय है। बनारस में केजरीवाल की हार और लोकसभा चुनाव में मोदी की अजेय जीत के बाद जो भक्त कल तक केजरीवाल परिवार को कटघरे में खड़ाकर तिरस्कृत करने से नहीं चूक रहे थे और समूचा परिवार दीवारों के भीतर खामोश होकर सिर्फ वक्त को बीतते हुये देख रहा था उसी परिवार को दिल्ली के जनादेश ने सर उठाकर फिर से सर आंखों पर बैठा लिया। मई 2014 के जनादेश ने मोदी को सर आंखों पर बैठाया और फरवरी 2015 के जनादेश ने केजरीवाल को मोदी के जनादेश पर भारी करार दे दिया। जख्म भरे। ईमानदारी ताकत बनी। रिश्तों की पहचान हो गई। मुश्किल दौर के हर पाठ ने जिन्दगी को जीना सिखा दिया। कुछ इसी सच के आसरे पहली बार 14 फरवरी की तारीख एक तारीख बन गई। क्योंकि इतनी तेजी से लोकसभा चुनाव के जनादेश का सम्मोहन खत्म होगा यह किसने सोचा होगा। और उसी तेजी से जनादेश एक नये इतिहास को रच देगा यह भी किसने सोचा होगा। कांग्रेस शून्य पर रहे फिर भी खुश हो जाये, यह किसने सोचा होगा। लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी के भीतर का बुलबुला उबलता हुआ उभरने लगे यह किसने सोचा होगा। बूथ मैनेजमेंट और संघ की राजनीतिक सक्रियता धरी की धरी रह जाये यह किसने सोचा होगा। और जैसे ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केजरीवाल का फोन घनघनाकर बधाई दी, उसके बाद उसी सरकार के प्यादे से लेकर
वजीर तक बीजेपी की हार मानकर केजरीवाल को बधाई देने पर टूटे बीजेपी के भीतर के इस खौफजदा लोकतंत्र को इससे पहले किसने देखा होगा। और जीत के बाद घमंड ना पालने देने का खुला ऐलान केजरीवाल अगर यह कहकर कहे कि पहले कांग्रेस में घंमड आया तो वह साफ हुई और अब बीजेपी में आया तो जनता ने उसे जमीन सूंघा दी तो यह किसने सोचा होगा।

वाकई जीत का इतिहास रचने के महज नौवे महीने में ही मोदी -शाह की जोडी की इतनी तिरस्कृत हार इससे पहले किसे याद होगी। राजनीति साख पर चलती है। और नेता का साख जनता के परशेप्शन पर बनती है। यह जब टूट जाये तो राजा को रंक बनाने में जनता को वक्त नहीं लगता। कुछ इसी अंदाज में दिल्ली के जनादेश ने मनमोहन से लेकर मोदी के अनकहे किस्सो को ही बेलगाम कर दिया। याद कीजिये मनमोहन सरकार में तेवर दिखाते राहुल गांधी की साख इतनी भी नहीं बची थी कि उनके सियासी फैसलो को भी जनता गंभीरता से लेती। पहली बार गांधी परिवार राजनीतिक बिसात पर एक मजाक बना दिया। और नरेन्द्र मोदी ने गांधी परिवार की साख पर आखरी कील लोकसभा चुनाव प्रचार में राबर्ट बढेरा से लेकर क्रोनी कैपटलिज्म के खुले खेल को उभार कर ठोंकी। वजह भी यही रही कि 2014 के जनादेश ने आजादी के बाद की राजनीति को ही बदल दिया। और जो मुद्दे जिस तेवर के साथ लोकसभा चुनाव में उठे उसने देश की आम जनता के भीतर बदलती राजनीति को लेकर जबरदस्त आस भी जगायी। वाकई किसानों को समर्थन मूल्य ज्यादा मिलेगा। वाकई देश में खेती की जमीन को हडपना अपराध होगा। वाकई देश उत्पादन की राह पकड़ेगा। वाकई रोजगार पैदा होंगे। वाकई वीआईपी राजनेता और कारपोरेट की नहीं देश में हाशिये पर पड़ी जनता की चलेगी। जनता के नाम पर मंत्री-संतरी की लूट बंद होगी। राजनीतिक सत्ता के जरीये विकास और विकसित होने के सपनों को जिस तरह जगाया गया उसने जातिवाद और साप्रदायवाद को हाशिये पर ढकेल कर एक नयी सियासत को जन्म दे दिया है, कुछ ऐसी ही आस तो नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही जागी। लेकिन महज साढे आठ महीनों में अगर दिल्ली चुनाव मोदी सरकार के नाम और काम हुआ और उसे हार मिली तो यह संकेत उम्मीद जगाते है या फिर लोकसभा चुनाव के जनादेश के बाद बदले देश के हालात में पलीता लगाते हैं। उम्मीद इसलिये नहीं कह सकते क्योंकि केजरीवाल बीते चार बरसों से लगातार संघर्ष करते हुये नजर आ रहे हैं। सत्ता के भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल को लेकर आंदोलन। आंदोलन से राजनीति। राजनीति में दिल्ली की सत्ता में 2013 में जीत और तो 2014 में बनारस में हार। फिर 2015 में दिल्ली में जीत । केजरीवाल का रास्ता भटकों को पटरी पर लाने का है या खुद नयी पटरी बनाकर व्यवस्था की गाड़ी के पहियों को बदल कर नये तरीके से दौड़ने का। मनमोहन सिंह आवारा पूंजी में उलझे। सत्ता के दो ध्रुव में उलझे । विकास की ताबड़तोड़ दौड में उलझे। और दुनिया के सामने भारत को बाजार के तौर पर पेश कर कांग्रेस की राजनीतिक धारा में उलझे। वहीं नरेन्द्र मोदी अपनी ही सियासी धारा में उलझे। संघ परिवार के अर्जुन और दुनिया के बाजार के सबसे बड़े व्यापारी बनने में उलझे। चुनाव के वक्त हाशिये पर पडे लोगो का राग और पीएम बनने के बाद सत्ता की हनक की धुन पर हाशिये पर पडे लोगों को रिझाने का हुनर। एक हालात ने सत्ता दिलायी तो दूसरा हालात ने जनता की भावनाओं से दूर कर दिया। वायदों की पोटली कब कैसे हवा हवाई हो गई इसका एहसास हिल्स पर कभी किसी ने करने या पीएम को कराने की जरुरत भी नहीं समझी।

2014 के जनादेश ने बीजेपी से बड़ा समर्थन बीजेपी के बाहर से पीएम को दे दिया। क्योंकि पहली बार कोई पीएम पद का उम्मीदवार जनता की बोली में सत्ता पहर निशाना साध रहा था। "स्विस बैक में जमा पूंजी चोर लुटेरों की है। जनता से लूट कर कालाधन विदेशी बैको में जना किया गया है। सरकार कहते ही कैसे लाये ,
तो क्या मोदी पीएम हो जो वह बताये कि कैसे लाये। हमारी सरकार होगी तो लेकर आयेंगे। तब बतायेंगे कैसे सरकार चलती है" । मां-बेटे और दामाद की सरकार। काले कोयले में काला घोटाला कर डूबी सरकार । लोकसभा चुनाव प्रचार के दौर में कही गई नरेन्द्र मोदी की सारी बाते देश में किसी को भी अंदर राष्ट्रहित का ज्वार पैदा कर ही देती। यानी जिस बीजेपी का कांग्रेसीकरण हो चला था उसी बीजेपी को नरेन्द्र मोदी के भाषण से नयी उर्जा मिल गयी। राष्ट्रवाद हिलारे मारने लगा। संघ परिवार की राजनीतिक सक्रियता भी नरेन्द्र मोदी के आग भरे भाषणो के जरिये सार्थक नजर आयी। सत्ता को चेताने वाले मोदी के तीखे तेवर ने राजनीतिक बदलाव की एक ऐसी हवा देश में बहायी जिसमें आरएसएस के सामाजिक शुद्दिकरण की तर्ज पर मोदी के राजनीतिक शुद्दिकरण को देखा-परखा जाने लगा। लेकिन इन आठ महिनों में किसानों की खुदकुशी बढ़ी । उत्पादन बढ़ा नहीं। रोजगार कम ही हुये । महंगाई और पेट्रोल की कम कीमते नसीब पर जा टिकीं। यूरिया की कमी ने किसानों को परेशान किया। तो सीमेंट-लोहे ने रियल इस्टेट को हैरान किया। इन्फ्रस्ट्क्चर से लेकर स्मार्ट सिटी और गांवो को आधुनिक बनाने की समझ नारों में गुम होती दिखायी दी। लेकिन बीजेपी के बाहर की ताकत ने पीएम को बीजेपी से ताकतवर बना दिया तो विदेशी सत्ताधारियों के साथ भारत को बाजार बनाने की हनक ने पीएम को अंतराष्ट्रीय संबंधो की घुरी बना दिया। ऐसे मोड़ पर दिल्ली चुनाव परिणाम सिर्फ साढे आठ महीनो में सपनो के टूटने की अनकही कहानी है या फिर राजनीति में बदलाव के संकेत। दिल्ली चुनाव का जनादेश पारपरिक राजनीति के लौटने के संकेत है या दिल्ली की सत्ता के जरीये संभलने देने वाले हालात पैदा कराने की चाह। क्योंकि पहली बार सिर्फ मुसलमानो को ही नहीं दिल्ली में आम वोटरों को लगा काग्रेस को वोट देने का मतलब बीजेपी को जीताना होगा। वोटरों की प्रतिक्रिया केजरीवाल को जिताने से ज्यादा मोदी सरकार को हराने की थी । जिससे पांच बरस के लिये केन्द्र की सत्ता में बैठी मोदी सरकार को अभी से याद आ जाये कि आने वाले चार बरसो में उसकी प्राथमिकता होनी क्या चाहिये। क्योंकि संघ के हिन्दु राष्ट्रवाद के सपने में कभी रामजादा के शब्द छुपे तो कभी घर वापसी ने सवाल उठाये। कभी महिलाओं को बच्चा पैदा करने वाली मशीन में बदला गया तो कभी गिरजाघरों पर हमलों के बीच सत्ता की खामोशी पर अंगुली उठी। मजदूरों के हक को खत्म करते सवाल हो या भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की ताकत के आगे पांच सितारा जीवन के लिये खेती की जमीन को हडपने की बिसात। बारतीय मजदूर संघ भी खामोश रहा और किसान संघ भी। किसी को भी चकाचौंध में खोये प्रधानमंत्री से सवाल पूछना भारी पडता तो सवाल किसी ने नहीं किया।

यानी मनमोहन सरकार जो यूपीए-2 में आकर डिरेल हुई। मोदी सरकार महज साढे आढ महिनो में ही क्यों डिरेल हो गई। यह ऐसे सवाल हैं जिससे पहली बार मीडिया भी बचते दिखा। कैबिनेट मंत्री भी संकोची दिखे। वरिष्ठ नेता ने मार्ग दर्शन का पाठ पढ़ना छोड दिया। नौकरशाही भी डरी हुई सी दिखी। संघ परिवार भी अपने विस्तार के लिये पूरी ढील देता हुआ दिखायी दिया। जाहिर है 2014 में जनादेश जनता का था तो 2015 में बेखौफ सत्ता को जनता ही बांध सकती है तो जनता ने ही दिल्ली में मोदी की सियासत को केजरीवाल को जनादेश देकर बांधा। और अर्से बाद केजरीवाल की मां से जब पूछा कैसा लग रहा है तो मां की आंखो में आंसू आ गये। पत्नी अर्से बाद हंसती-मुस्कुराती दिखी। बेटा अर्से बाद खूब बोलता दिखा। बेटी अर्से बाद अपने सहेलियों के साथ घर के एक कोने में चर्चा करती दिखी। जनादेश ने सिर्फ सियासत नहीं पलटी बल्कि सीख भी दी राजनीति में जहर पीना भी आना चाहिये और घमंड से दूर रहना भी आना चाहिये।

Friday, February 6, 2015

किसके लिये 'वाटरलू साबित होगा दिल्ली चुनाव'?

दो दशक तक यूरोप पर राज करने वाले नेपोलियन को ठीक दो सौ बरस पहले वाटरलू के मैदान में ही हार मिली थी। नेपोलियन ने वाटरलू को सबसे छोटी लड़ाई के तौर पर देखा था। लेकिन वाटरलू में नैपोलियन की हार ने दुनिया को हार के नाम पर वाटरलू सरीखा एक ऐसा शब्द दे दिया, जिसके बाद हर शख्स हर लड़ाई में कूदने से पहले इस नाम से घबराने कतराने जरुर लगा। दिल्ली चुनाव कुछ इसी अंदाज में है जहां नरेन्द्र मोदी हो या केजरीवाल दोनों में जिसे भी हारमिली उसके लिये दिल्ली वाटरलू साबित हो सकती है। क्योंकि दिल्ली फतह की पहली कहानी दिल्ली में केजरीवाल की जीत से ही शुरु होती है जब उन्होंने शीला दीक्षित को ना सिर्फ हराया बल्कि कांग्रेस को भी सत्ता से बाहर कर दिल्ली के सीएम बन बैठे। वह 2013 का साल था । लेकिन दूसरी तरफ दिल्ली चुनाव के ऐन बाद 2014 के लोकसभा चुनाव नरेन्द्र मोदी ने जिस जनादेश के साथ भारतीय राजनीति में इतिहास रचा उसने गुजरात के सीएम के तौर पर बारह बरस पुरानी लोकप्रियता को भी पीछे छोड़ दिया। और पीएम बनते ही नरेन्द्र मोदी के नाम भर से एक के बाद एक कर महाराष्ट्र, हरियाणा ,झारखंड और जम्मू कश्मीर तक में बीजेपी को जिस तरह जीत मिली उसने नरेन्द्र मोदी को भारतीय राजनीति में अगर अजेय बनाया तो एशिया में भारत को जिस अंदाज में खड़ा कर रहे है, वह विश्व बाजार में मोदी की छवि ना हारने वाले शख्स की तो बनी है। जबकि दिल्ली में केजरीवाल की जीत के बाद दुनिया भर की नजर केजरीवाल की आंदोलन से निकली आधुनिक राजनीति पर भी टिकी। मगर लोकसभा चुनाव में बुरी गत केजरीवाल को मिली तो दुनिया ही नहीं भारत में भी केजरीवाल को लेकर बने मिथ टूटे। ऐसे में केजरीवाल ने भी दिल्ली के बाहर किसी भी चुनाव से ना सिर्फ तौबा कर ली बल्कि जिस महाराष्ट्र और हरियाणा में दिल्ली के बाद केजरीवाल का सबसे बडा कैडर था, वहां भी अपनी पार्टी के चुनाव लड़ने के सेन्ट्रल कमेटी के निर्णयों को खारिज करते हुये सारा दांव दिल्ली में ही लगाना तय किया। इतिहास के पन्नों को पलटें तो 1815 में नेपोलियन के खिलाफ वाटरलू में इंग्लैड,रुस, आस्ट्रिया पर्शिया की सेना एकजुट हो उससे पहले ही नेपोलियन ने हमला कर दिया था और नेपोलियन को भरोसा था कि उसे जीत मिलेगी। लेकिन हुआ उल्टा ।

कुछ इसी तर्ज पर दिल्ली में केजरीवाल ने अगर सारी ताकत झोकी और दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने समूची पार्टी ही नहीं बल्कि समूची सरकार को ही जिस तरह दिल्ली की सड़क पर उतार दिया उसने इसके संकेत तो चुनाव का बिगुल फूंकते ही दे दिये कि दिल्ली चुनाव दोनों ही नेताओं के लिये जीवन-मरण का सवाल है। क्योंकि केजरीवाल अगर दिल्ली में हारते हैं तो आम आदमी पार्टी बिखर जायेगी। केजरीवाल का नेतृत्व कटघरे में खड़ा कर दिया जायेगा। और राजनीति के जिस नये प्रयोग की आस दिल्ली के आंदोलन से निकली उसकी उम्र भी दिल्ली में ही ठहर जायेगी। इतना ही नहीं जो सेक्यूलर राग ममता-नीतिश-देवेगौडा या वामपंथी अपनी हार
छुपाते हुये केजरीवाल के पीछे आ खड़े हुये हैं, उनके सामने भी विक्लप की सोच खत्म होगी। वही दूसरी तरफ अगर बीजेपी चुनाव हारती है तो यह नरेन्द्र मोदी के चमात्कारिक नेतृत्व के अंत की शुरुआत होगी। बीजेपी के भीतर से भी वह आवाजे सुनायी देने लगेगी जो लोकसभा चुनाव के बाद से जीत दर जीत की रणनीति तले दबती चली गई और माना यही गया कि चुनाव जीतने और जीताने वाला ही सबसे बडा खिलाड़ी होता है। यहा तक की उत्तर भारत के कद्दावर राजनेताओं को भी जिस तरह गुजरात के रणनीतिकार के सामने नतमस्तक होना पड़ा है उन्हें अपना आस्तित्व नजर आने लग सकता है। यानी जातिवाद, संप्रदायवाद की राजनीति दुबारा परवान चढ़ सकती है या फिर विकासवाद का नारा खोखला साबित हो सकता है। या फिर देश के हालात विकास की चकाचौंध को खारिज कर देसी अंदाज में न्यूनतम के संघर्ष से सियासत साधने की दिशा में बढ़ सकते हैं। असल में दिल्ली चुनाव देश के किसी भी राज्य के चुनाव पर भारी पड़ रहा है क्योंकि दिल्ली चुनाव के परिणामों के आसरे देश की राजनीति की दिशा भी तय होनी है। दिल्ली के बाद बिहार और यूपी का रास्ता किस दिशा में जायेगा उसकी पगडंडी तो दिखायी देने लग जायेगी। केजरीवाल की जीत क्षत्रपों को आक्सीजन दे सकती
है।

इसके खुले संकेत इसी से मिलने लगे कि लोकसभा चुनाव में जनता परिवार के हारे क्षत्रपों ने एक तरफ केजरीवाल को समर्थन देने में कोई देरी नहीं की। और दूसरी तरफ दिल्ली प्रचार में ही प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार मुलायम, मायावती,नवीन पटनायक ही नहीं बल्कि ममता बनर्जी और नीतिश कुमार का नाम यह कहकर लिया कि इन क्षत्रपो की अपनी पहचान है और इन्होंने बरसों बरस देश की सेवा की है और जनता इन्हें चुनती रही है। तो सवाल है कि क्या दिल्ली चुनाव ने प्रधानमंत्री मोदी को बदल दिया है या फिर मोदी ने राजनीति साधने के लिये नयी सियासी बिसात बिछायी है। क्योंकि नीतिश का नाम जुबां पर लाने की जगह प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौर में नीतिश कुमार पर खूब तंज कसे थे। ममता बनर्जी को सड़क पर आंदोलनकारी से लेकर सारदा घोटाले की नायिका बताने में देरी नहीं की थी। तो दिल्ली चुनाव परिणाम वाटरलू साबित ना हो इसके लिये बिसात बिछायी जा रही है। और बिसात पर तीन सवाल प्यादे बने हैं। पहला क्या मोदी केजरीवाल को तमाम क्षत्रपों से इतर खडा कर रहे हैं। दूसरा,क्या मोदी भविष्य में जनता परिवार के दायरे को बढने से रोक रहे हैं। तीसरा क्या मोदी दिल्ली चुनाव को देश के बाकी राज्यों से हटकर देखने को कह रहे हैं। जिससे पारंपरिक राजनीति के सामने मोदी के विकासवाद की सियासत ही जादू की तरह कामयाब होती चले। यानी बिहार-यूपी में केजरीवाल की तर्ज पर कोई तीसरी ताकत आने वाले दिनों में खडी ना हो जाये जो विकासवाद से आगे की हो। लोगों के पेट और न्यूनतम जरुरतों से सीधी जुड़ी हो। क्योंकि सियासत की जिस लकीर को केजरीवाल दिल्ली चुनाव में खींच चुके हैं, उसने भी कई सवालों को जन्म दे दिया है। मसलन क्या
विकास की चकाचौंघ सिवाय धोखे के कुछ भी नहीं। न्यूनतम की लडाई लडते देश में सिर्फ उपभोक्ताओ की सुविधा की नीतियां बेमानी हैं। या फिर जाति-धर्म की राजनीति को अपने माफिक परिभाषित कर विकासवाद की जिस सोच को लाया जा रहा है, वह विदेशी पूंजी पर ही टिकी है। मौजूदा राजनीति सत्ता पाने के बाद देश को बाजार के तौर पर ही देखना चाहती है। यानी चुनाव सिर्फ दिल्ली को देखने समझने भर ही नहीं बल्कि सत्ता मिल जाये तो किस दिशा में दिल्ली को ले जाने के सपने कौन किस रुप से देख रहा है और दिल्ली वाले किसे मान्यता देंगे, उसका भी एसिड टेस्ट दिल्ली चुनाव हो चला है। दिल्ली चुनाव इसलिये भी वाटरलू सरीखा है क्योंकि दिल्ली को मोदी के गवर्नेस तले चकाचौंघ दिखायी देती है कि नहीं। या फिर विकास के लिये जो बडे बडे काम विदेशी पूंजी के जरीये आने वाले वक्त में होने है वह समझ में आता है कि नहीं। या फिर केजरीवाल का सिस्टम से ही संघर्ष करते हुये भ्रष्ट्राचार पर नकेल कसने के उपाय या महिला सुरक्षा के लिये सीसीटीवी के जरीये रास्ता निकलना कितना मायने ररखता है एसिड टेस्ट इसका भी है। ध्यान दें तो दिल्ली चुनाव में खुले तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के आठ महीने बारह दिन पुरानी सरकार और केजरीवाल के 49 दिन दिल्ली सरकार में बतौर सीएम को लेकर भी नायाब मुकाबला है। हर कोई जानता है कि मोदी सरकार बहुमत के साथ है और 2019 तक उन्हें कोई चुनावी टेस्ट नहीं देना है। लेकिन केजरीवाल के पास सत्ता के नाम कुल जमा पूंजी वही 49 दिन है जो राजनीति से लेकर सडक तक पर निशाने पर आये । लेकिन बीते आठ महीनो के मोदी सरकार ने 49 दिनो की सरकार को अपने प्रचार के तरीके से आक्सीजन दे डाली । दिल्ली वालो को समझ ही नहीं आया कि 49 दिन रोकने के लिये आठ महीने वाली भारी बहुमत की सरकार सडक पर क्यों तर आयी है । इसीलिये झटके में संकेत यही गया कि दिल्ली में केन्द्र की सरकार पर नकेल कसने के लिये किसी दूसरी पार्टी की सरकार होनी चाहिये । इसीलिये चुनावी प्रचार में यह सवाल भी उछला कि जिस पार्टी की सरकार केन्द्र में हो उसी पार्टी की सरकार राज्य में हो तो काम बेहतर होता है । सही मायने में दिल्ली चुनाव दो अलग अलग समाज और उस दो भारत के बीच का भी चुनाव हो चला है, जहां एक जरुरत दूसरे के लिये सपना है । और दूसरे की जरुरत पहले के लिये भीख देने वाला सच है। यानी दो भारत के बीच की राजनीति को पाटने वाला भी दिल्ली चुनाव साबित होगा। इसिलये यह माना जा रहा है कि दिल्ली चुनाव का फैसला भविष्य की राजनीति को देखने और करने का नजरिया बदल देगा। यानी भारतीय राजनीति दिल्ली के जरीये एक ऐसे राजनीतिक प्रयोग की आस लगाये हुये है, जहां मोदी हो केजरीवाल उनकी हार सिर्फ हार नहीं होगी बल्कि नेपोलियन के वाटरलू की तर्ज पर इतिहास रचेगी। तो इंतजार किये सिर्फ तीन दिन बचे हैं।

Tuesday, February 3, 2015

दिल्ली, जहां इतिहास झांकता है इतिहास रचने के लिये

कहते है दिल्ली में सांप की आंख सा आकर्षण है। जो आता है बस इसी का होकर रह जाता है। लेकिन इस होकर रह जाने में सर्पदंश का भय साये की तरह चलता रहता है। वैसे एक करोड़ तेईस लाख वोटरों वाली दिल्ली का सच उसका अपना रंग है क्योंकि दिल्ली में एक तरफ मेहनतकश की आजीविका का सवाल है तो दूसरी तरफ सार्वजनिक स्वास्थ्य का, एक तरफ इज्जतदार जिन्दगी का सवाल है तो दूसरी तरफ किसी भी तरह अंधेरे से पहले घर सुरक्षित पहुंचे का। एक तरफ गंदगी में समाया शहर तो दूसरी तरफ चकाचौंध में खोया शहर। एक तरफ लूटियन्स की दिल्ली तो दूसरी तरफ झुग्गी को पक्के मकान में बदलने भर का सियासी सपना। यह कल्पना के परे है कि देश की राजधानी दिल्ली में हर दिन एक नयी शुरुआत डर से शुरु होती है। दिल्ली वाला रात में बैठ कर यकीन से नहीं कह सकता कि अगली सुबह उसके दप्तर जाने का रास्ता होगा कौन सा। कहां से सब्जी मिलेगी या कहां से डीटीसी बस मिलेगी। किस रफ्तार से अपने मुकाम पर पहुंचेगा। पानी आयेगा या नही। बिजली मिलेगी या नहीं। उसे कुछ भी पक्का पता नहीं होता। प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक। पटाखों से परहेज। यमुना की सफाई। 15 बरस पुराने वाहनों को टाटा-बाय बाय। रेहडियो पर बिकते सामानों से बचना।
पटरियो पर पैदल वाले ही चले। जैबरा क्रासिग पर रुकें। लाल बत्ती टापे नहीं। गाड़ियों का इस्तेमाल अकले सफर के लिये ना करे। बुजुर्गो का ख्याल रखें। उपदेश और अभियान में खोयी दिल्ली कल भी थी। आज भी है। चावडी बाजार हार्डवेयर के बाजार में बदल गया। चादंनी चौक कपड़े के बाजार में। झल्ली वाले मजदूर कहकर पुकारे जाने लगे। तांगे वाले खत्म हो गये। तैरती आबादी में रात गुजारने के लिये छत गैर जरुरी हो गया। स्टोव पर खाना आज भी बन रहा है। ट्राजिस्टर से गाने आज भी सुने जा रहे हैं। ठेले वाले, सामान उठाने वाले, रिक्शा वाले, पालिश करने वाले दुकानो के आगे बनी सीमेंट की पटरी पर आज भी सोते नजर आते हैं। इस दिल्ली में जो रमा वह वहीं का रहा। बस्तिया बढ़ीं। डीडीए कालोनी की रफ्तार हो या अशोक विहार, लारेंस रोड,वसंत कुंज सरिता विहार। रास्ते यहां बने। लोग बसे । दिल्ली ने अग्रेजों की लुटियन्स को भी सहेजा है और विभाजन के दर्द का भी रहबर रहा।

तंग गलियों में बहते मवाद के इर्द गिर्द डेढ हजार बस्तियों को भी दिल्ली ही संजोये है और साढे चार हजार से ज्यादा आवासीय कॉलोनी को सुविधाओं से लैस करने के सियासी नारो को भी दशकों से फंसाये हुये है। 50 वर्ग फुट में कई परिवारों की रहबरी भी दिल्ली में ही है और 5000 वर्ग फुट का बाथरुम भी दिल्ली की आलीशान गाथा है। इनकी रंगत ने एमसीडी को सियासी काम दिया। लेकिन हर दिन दिल्ली की तरफ बढते कदम कभी थमे नहीं। हर समुदाय ने दिल्ली में डेरा जमाया। रहन-सहन को बिना छोड़े। भाषा को बिना अपनाये अपनो के बीच खोया रहने वाले समुदाय को भी दिल्ली ने ठौर दी। शहर ने उसे जोडे रखा क्योंकि दिल्ली का मतलब खोना कम पाना ज्यादा था। या फिर देश के हर हिस्से में पलायन का दर्द दिल्ली वालो को वापस लौटने ना देता। और संयोग से दिल्ली की ही सियासत ने देशभर में बदहाली का ऐसा माहौल भी बनाया कि हर कोई दिल्ली का रुख कर चलने को मजबूर हुआ। और उसी दिल्ली में चुनाव के वक्त किसे पता था कि संविधान का अनुच्छेद 21 ही राजनीतिक दलों के मैनिफेस्टो और विजन का आईना बन जायेगा। यानी जिस जीवन के साथ कुछ न्यूनतम अधिकार संविधान ने दे दिये उन्हीं अधिकारों को चुनावी राजनीति अपने होने के एहसास के साथ जोड लेगी। बिजली. पानी . सडक , स्वास्थ्य, नौकरी , प्रदूषण मुक्त वातावरण सब कुछ तो संविधान में जीवन के अधिकार के साथ जुडा हुआ है और किसी भी राज्य को अपने नागरिको को यह सुविधा देनी ही है।

तो क्या दिल्ली की सत्ता इसीलिये सबसे महत्वपूर्ण हो चली है क्योंकि दिल्ली की सियासी गाथा देश के सामने दिल्ली से अगर संसद और संविधान का सच बताने लगेगी तो राजनेताओ की पोलपट्टी खुलने में कितना वक्त लगेगा। याद कीजिये ढाई बरस पहले अन्ना आंदोलन से निकली राजनीति ने माना था कि राजनीति कीचड है। लेकिन उस वक्त किसे पता था कि राजनीतिक कीचड में कूदकर दिल्ली के अक्स को बदला जा सकता है। क्योंकि कीचड में केजरीवाल के उतरने ने तमाम राजनीति दलों को उस जमीन पर पहली बार ला खड़ा किया जिस जमीन को राजनीति हाशिये पर ढकेलती रही। आम आदमी पार्टी के 70 सूत्री घोषणापत्र के सामने कांग्रेस का मैनिफेस्टो हो या बीजेपी का विजन। हर किसी ने पहली बार चकाचौंध की राजनीति खारिज की। गरीबों को दिल्ली से बाहर करने वाली सोच को डिब्बे में बंद किया। कंपनियों की लूट के आसरे बिजली पर सवाल उठाया। पीने का पानी देने की खुली वकालत की।

रेहडी-खोमचे वालो की तरफ भी ध्यान देने वाले हालात आ गये। और तो और दिल्ली को गरीबो से मुक्ति का सपना भी दिखा दिया गया। वैसे दिल्ली का सच यह भी है कि यहा एक करोड तेईस लाख वोटरों में सिर्फ 9 लाख लोगो की आय 31 हजार रुपये से उपर है। जबकि 73 लाख वोटरों की आय 15 हजार रुपये महीना है और 22 लाख वोटर की आय महज 7 हजार रुपये महीना । फिर दिल्ली में 2 लाख 66 हजार बेरोजगार है जिसमें 1 लाख 56 हजार बेरोजगार उच्चतर/स्नातक शिक्षा पाये हुये हैं। और जिस युवा को सपने की उढान दी जा रही है उस बेरोजगारों में 94 फीसदी की उम्र 15-29 वर्ष के बीच है। यानी जो राजनीति दो बरस पहले तक सत्ता की मद में सत्ता की हनक दिखाने से नहीं चूकती । यूपी, बिहार , उडिसा , झारखंड , बंगाल से आये मजदूरो की रोजी रोटी के कमाने पर सवाल खडा करती थी इस चुनाव में यह सोच भी बदल गयी। तो दिल्ली की हालत भी देश के दूसरे शहरों से इतर नही है। झुग्गी के बदले मकान दिल्ली में भी चाहिये। बिजली पानी सडक सीवेज सरीखी जरुरते दिल्ली को भी चाहिये। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक की जरुरत दिल्ली को भी है। गरीबों की भरमार दिल्ली में भी है। साढे तीन लाख परिवार दिल्ली में भी गरीबी की रेखा से नीचे है। यही वह सवाल है जिन्हे इससे पहले के चुनाव में अक्सर राजनीतिक दल दिल्ली के चकाचौंध तले भुला देते थे। और अर्से बाद हर राजनीतिक दल मान रहा है दिल्ली को देखने का चश्मा बदलना होगा । यानी राजनीति के कीचड में चाहे कोई बदलाव नहीं आया हो लेकिन नजरिया काफी साफ हुआ है, इससे इंकार नहीं जा सकता । लेकिन समझना होगा दिल्ली शहर की जिन्दगी उसे बसाने वालों की मौत से शुरु होती है। इतिहास में दफ्न है दिल्ली को बसाने वाले। बनाने वालो की फेरहिस्त इतनी लंबी है कि दिल्ली पग पग पर इतिहास को जीती है। शायद इसीलिये दिल्ली की सड़कें भटकाव में कभी अकेलेपन का एहसास नहीं होने देती। इतिहास साथ साथ सफर करता है। दिल्ली काम करने और रहने की चाह के बीच बैचनी से झूलती है दिल्ली। अफरा तफरी जिन्दगी और पैसा कमाने के जद्दजहद में उलझे दिल्ली वालों को मुनाफे घाटे के दुष्चक्र में फंसाती चली जाती है दिल्ली। और शायद इसीलिये पहली बार संसदीय राजनीति का शंहनशाह दिल्ली की गलियो में फंसा है। जहां इतिहास झाकता है इतिहास रचने के लिये।