नेहरु से लेकर मोदी तक शायद ही कोई प्रधानमंत्री ऐसा रहा जिसने अमेरिका,ब्रिटेन ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी देश में जाकर यह जानने की कोशिश की हो खेती पर टिके भारत में कृषि अर्थव्यवस्था को कैसे मजबूतकिया जा सकता है । यह ना तो नेहरु के दौर में हुआ जब जीडीपी में कृषि अर्थवस्था का योगदान साठ फीसदी था और ना ही मौजूदा वक्त में हो रहा है, जब डीडीपी में कृषि अर्थव्यवस्था का योगदान सत्रह फीसदी पर आ चुका है। लेकिन नेहरु के दौर से मोदी के दौर तक में खेती पर निर्भर जनसंख्या की तादाद कम नहीं हुई है, बल्कि बढ़ी है। जबकि खेती की जमीन सिकुड़ी है। खेती उत्पादन दुनिया के हर विकसित देश की तुलना में घटा है । यानी खेती को लेकर और खेती पर टिके किसान-मजदूर को सिवाय भारतीय अर्थवस्था में बोझ मानने के अलावे और कुछ सोचा ही नहीं गया है । यह सवाल अब क्यों उठना चाहिये और देश चलाने वालों को देश की जरुरतों को साथ लेकर दुनिया की सैर क्यों करनी चाहिये यह सवाल अमेरिका के उठाये मुद्दो से भी समझा जा सकता है । क्योंकि भारत के सवाल अमेरिका के लिये मौजूं है नहीं और अमेरिका जिन मुद्दों से जुझ रहा है वह भारत के लिये कोई मायने रखते नहीं हैं। लेकिन इसके बावजूद जब मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा एक साथ बैठते हैं तो दोनों के बीच क्या बात हुई उसका लब्बोलुआब यही निकलता है कि अमेरिका की
चिंता ग्लोबल वार्मिंग को लेकर है। जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर अमेरिका चाहता है कि भारत भी ठोस कदम उठायें। इसीलिये आतंकवाद, पाकिस्तान या निवेश के भारत के सवाल बातचीत में गौण हो जाते हैं। तो फिर अगला सवाल यही उठता है कि प्रधानमंत्री मोदी अमेरिकी यात्रा के दौरान बैट्री से चलने वाली टेसला कार को बनते हुये देखना हो या तमाम बड़ी कंपनियों के सीईओ के साथ मुलाकात या सिलिकोन वैली जाकर सोशल मीडिया में छाने की धुन ।प्रधानमंत्री मोदी हर जगह गये और अमेरिका में अपनी लोकप्रियता के खूब झंडे गाढ़े, इससे इंकार किया नहीं जा सकता । लेकिन यह सच कभी सामने लाने का प्रयास क्यों नहीं हुआ कि बीते पचास बरस में अमेरिका ने कैसे खेती को विकसित किया। और कैसे आज की तरीख में में जीडीपी का सिर्फ 1.4 फिसदी खेती की इकनॉमी होने के बावजूद अमेरिका अपने खेती उत्पाद का निर्यात भी कर लेता है और खेती को उद्योग की तर्ज पर खड़ा भी कर चुका है।
और इन पचास बरस में भारत के किसी पीएम ने आजतक यह कोशिश क्यों नहीं कि खेती उत्पादन कैसे बढ़ाया जाये। क्योंकि अगर अमेरिका और भारत की ही खेती की तुलना कर दी जाये तो यह जाकर हर किसी को हैरत हो सकती है कि अमेरिका में प्रति हेक्टेयर 7340 किलोग्राम अनाज होता है। जबकि भारत में प्रति हैक्टेयर 2962 किलोग्राम अनाज होता है। तो अमेरिका में खेती की कौन सी तकनीक है। कैसे को-ओपरेटिव तरीके से खेती हो सकती है। या कैसे खेती पर टिके किसान-मजदूरों को ज्यादा लाभ मिल सकता है। यह जानने समझने और देश में लागू करने की कोई कोशिश कभी किसी पीएम ने नहीं की। भारत के लिये यह कितना जरुरी है । यह इससे भी समझा जा सकता है कि दुनिया में जब खेती पर निर्भर लोगो की तादाद 1980 से 2011 के बीच 37 फिसदी की कमी आई है । वही इन्हीं तीस बरस में भारत में खेती पर निर्भर लोगो में 50 फिसदी की बढोतरी हुई है। फिर ऐसा कहकर भी भारत नहीं बच सकता कि खेती से अमेरिकी जीडीपी में कोई बडा योगदान नहीं है । दरअसल भारत की जीडीपी के मुकाबले अमेरिकी जीडीपी करीब नौ गुना ज्यादा है। इसलिये खेती से जो लाभ अमेरिका को होता है वह भारत की तुलना में आंकड़ों के लिहाज से भी ज्यादा है। क्योंकि अमेरिका के कुल जीडीपी 17.42 ट्रिलियन डालर है और भारत की कुल जीडीपी 2 ट्रिलियन डालर । इसलिये भारत के जीडीपी में खेती का 17 फिसदी योगदान भी अमेरिका के 1.4 फिसदी योगदान की तुलना में ज्यादा है।
वैसे खेती को लेकर सिर्फ अमेरिका ही नहीं जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, आस्ट्रलिया समेत 20 विकसित देशों में प्रति हेक्टेयर जमीन पर भारत की तुलना में औसतन तीन सौ गुना ज्यादा उत्पादन होता है। इतना ही नहीं खेती को लेकर अमेरिका कितना संवेदनशील है यह इससे भी समझा जा सकता है भारत में सब्सिडी का विरोध सरकार ही कर रही है लेकिन दुनिया भर में खेती में भारत की तुलना में औसतन छह गुना ज्यागा सब्सिडी दी जाती है । अगर अमेरिका से ही तुलना कर लें तो अमेरिका में प्रति हेक्टेयर 84 डालर सब्सिडी दी जाती है । वही भारत में प्रति हेक्टेयर 14 डालर सब्सिडी है। तो सवाल यही है कि जब अमेरिका तक पर्यावरण के अपने सवाल को भारत के साथ उठा सकता है तो भारत खेती के सवाल को दुनिया में देखने समझने की कोशिश क्यों नहीं करता । और अगर नहीं करता है तो इसका असर कैसे किसानों के बीच हो रहा है और क्या मुश्किल सरकार के सामने भी आ सकती है इसका एक नजारा अगर महाराष्ट्र में सूखे से निपटने के लिये पेट्रोल-डीजल की कीमत बढाकर प्रति लीटर दो रुपये बढाकर सूखा टैक्स लगाने का हो रहा है तो दूसरा सच यह भी है कि 1991 के आर्थिक सुधार के बाद देश में खेती की 9 फीसदी उघोग के नाम पर सरकारों ने ही हड़प ली। जबकि इसी दौर में खेती पर टिके पांच करोड़ परिवारों का पलायन गांव से शहरी मजदूर बनने के लिये हो गया।
Wednesday, September 30, 2015
Sunday, September 27, 2015
क्यों पच्चीस बरस बाद भी बिहार चुनाव की धुरी लालू ही हैं !
सीन-एक, लालू जी हम सेल्फी लेना चाहते है । ले...लो । हम मिसयूज नहीं करेंगे । नहीं... तुम मिसयूज कर भी सकती हो । सीन-दो, अरे भाई यह कौन सा जमाना है । मोबाइल की घंटी बजी नहीं कि लडका-लडकी कान में लगाकर एक किनारे चल दिये । क्या बात कर रहे हैं जो सबके बीच बैठकर नहीं हो सकती । और टुकर-टुकर मोबाइल में ही दुनो नजर घुसाकर कुछ देखते रहते हैं।सीन-तीन, लालू जी मजा आ गया । बहुते हंसाये आप । सब बात खरी खरी बोले । तो कुछ बदला है क्या । हम तो मंडल के दौर में बिहार को बदलने ही ना निकले थे । लेकिन सब बोलने लगा जंगल राज । रोटी उलट दिये तो सबको लगने लगा जंगल राज ।यह तीनो सीन पटना के पांच सितारा होटल मोर्या के हैं। पहला सीन होटल मौर्या की सीढियों को चढ़ते हुये लालू यादव का संवाद पटना वूमेन्स कालेज की उन छात्राओं से हैं जो एक न्यूज चैनल के राजनीतिक चर्चा को सुनने के लिये पहुंची थीं। दूसरा सीन राजनीतिक चर्चा में शामिल होकर लालू के जबाब देने का है। और तीसरा सीन चर्चा के बाद बाहर निकलते वक्त सुनने वालो से लालू के संवाद का है । कोई भी कह सकता है कि लालू यादव इस हुनर में माहिर है कि कब कहां किससे कैसा संवाद बनाना है उन्हें पता है । और इस सच को भी लालू बाखूबी समझते है कि मंडल के दायरे से बाहर निकलते ही उनकी महत्ता खत्म हो जायेगी । सीधे कहे तो जिस मंडल दो का रास्ता लालू बिहार चुनाव में बनाने के लिये बैचेन हैं अगर वह दांव नहीं चला तो लालू यादव की राजनीति का पटाक्षेप 2015 में ही हो जायेगा । लेकिन लालू के इसी खांचे में वहीं भाजपा फंसती जा रही है जो खुली जुबान से विकास का तिलक तो नरेन्द्र मोदी के माथे पर लगाकर मंडल को ढाई दशक पहले का सच बताकर पल्ला झाड़ना चाह रही है । लेकिन दबी जुबान में मंडल पार्ट टू के रास्ते अपनी सोशल इंजीनियरिंग का मुल्लमा चढाकर लालू के काट के लिये बिहार को उसी कठघरे में ढकेल रही है जहा सियासी विकल्प नहीं जातीय गणित ही सियासती बिसात का सच हो जाये । असर इसी का है कि बिहार चुनाव के केन्द्र में लालू आ खड़े हुये हैं।
चाहे नीतिश हो या नरेन्द्र मोदी दोनो ही लालू से ही टकराते हुये दिखायी दे रहे हैं। आलम यह हो चला है कि विकास शब्द 2010 के चुनाव से भी छोटा पड़ गया है और नीतिश कुमार जिस विकास का जिक्र बिहार को लेकर 2005 से करते रहे वह विकास अब लालू के मंडल पार्ट टू का हिस्सा बन रहा है और नीतिश चाहे अनचाहे नरेन्द्र मोदी के चकाचौंध वाले विकास से टकरा रहे हैं। इसलिये पहली बार बिहार चुनाव में साइकिल पर सवार लड़कियों के साथ वाई-फाई का जिक्र भी हो रहा है और प्राथमिक स्कूल के साथ आईआईटी का जिक्र भी हो रहा है । और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से लेकर एम्स का जिक्र भी हो रहा है । यानी एक तरफ न्यूनतम के लिये संघर्ष करता बिहार का बहुसंख्यक तबका । तो दूसरी तरफ विकास को सुविधाओं की पोटली में समेटने की चाहत रखता वह युवा तबका जो इस बार चुनावी बिसात पर खड़े वजीर को प्यादा तो प्यादे को वजीर बना सकता है । लेकिन चुनाव की शुरुआत ही जिस विकास के जिस नकारात्मक मूड के साथ हुई है उसमें पहली बार लगने लगा है कि बिहार को बदलने का ख्वाब लिये नरेन्द्र मोदी और अमित शाह भी 8 नवंबर के बाद खुद में बिहारी तत्व जरुर खोजेंगे । क्योंकि जिस राह पर पासवान-मांझी-कुशवाहा की तिकड़ी है । उसी राह पर नीतिश से अलग हुये बीजेपी के अगडी जाति और ओबीसी के नेता हैं । और यह राह लालू यादव ने नीतीश के साथ मिलकर बनायी है। जो कि विकास को सामाजिक न्याय से आगे देखने नहीं देगी। मंडल पार्ट-टू के जरीये कही नीतीश को लालू के कंधे पर टिकायेगी तो कही बीजेपी को पासवान और मांझी के आसरे के बिना जीत मुश्किल लगेगी । यानी जो यह मान कर चल रहे है कि पहली बार छह करोड़ अस्सी लाख वोटरो में से तीन करोड वोटर ऐसे है, जिनका जन्म भी जेपी आंदोलन के बाद हुआ । वह बिहार की तकदीर बदल सकते है या फिर यह मान कर चल रहे है कि इनमे से दो करोड़ वोटर ऐसे है जिनहोने समूचे बिहार के हालात को मंडल की सियासत तले रेंगते भी देखा और सियासत से सटे बगैर घर की रोजी रोटी के लाले पड़ते हुये भी देखा समझा। वह बिहार को बीते ढाई दशको की सियासत से इस चुनाव में निकाल लेंगें तो निरासा ही हाथ लगने वाली है । क्योंकि 1989 के भागलपुर दंगों के बाद सत्ता में आये लालू यादव के दौर में दो दर्जन से ज्यादा खूनी जातीय संघर्ष की यादे एक बार फिर सतह पर आ गयी है । और उम्मीदवार-दर-उम्मीदवार हर विधानसभा क्षैत्र में जातीय आधार पर ही यह आकलन होने लगा है कि जब खूनी संघर्ष हो रहा था तब उम्मीदवार या उसकी जाति किस तरफ खडी थी । दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता यह सोच कर खुश हो सकते है भागलपुर दंगो में तो दोषी यादव ही थे । तो से मोहभंग तय है।या फिर जातियों के संघर्ष में बीजेपी की भूमिका तो रही नहीं तो चुनावी लाभ विक्लप के तौर पर उनके साथ जुड़ सकता है । लेकिन बिहार के सामाजिक-आर्थिक दायरे में अगर भागलपुर दंगो को टेस्ट केस बनाये तो मुसलमान यादव की पीठ पर सवार होकर ही वोट डालता नजर आयेगा । मुसलमान आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर है और यादव सामाजिक-आर्थिक तौर पर अपनी बस्ती में एक ताकत है । बिहार के समूचे दियारा इलाके में यादव-मुसलमानों की बस्तियां कमोवेश सटी हुई ही है । दियारा इलाके में यादव अभी भी घोड़े रखते है । और शहरो में रोजी रोटी के लिये मुसलमान यादवों के घोड़ लेकर निकलते है । इसलिये चुनावी शब्दावली में एमवाय यानी मुसलमान-यादव की जोडी सामाजिक आर्थिक तौर पर टमटम कहलाती है। घोडा यादव का बग्गी या लकडी की गाडी मुसलमान का । और चुनाव में इस टमटम को कौन अलग कर पायेगा या उनके पास जीने का जब कोई विक्लप ही नहीं है तो फिर चुनावी समीकरण अलग कैसे होंगे यह पहला सवाल है । दूसरा सवाल लालू-नीतीश की जोडी को लेकर है । चूंकि नीतिश ने जितने हमले बीते दस बरस में लालू पर किये और लालू ने भी बिहार में अपना आस्तितिव बरकरार रखने के लिये जितने हमले नीतिश पर निजी तौर पर किये वैसे में इस चुनाव में जब दोनो साथ है तो जातीय आधार की कश्मकश गांव-पंचायत स्तर पर कैसे खत्म होगी या फिर बीते दस बरस में जीने का जो अंदाज लालू-नीतीश के जातीय समीकरण की वजह से बना रहा उसमें झटके में बदलाव कैसे आ जायेगा । सवाल यह भी है । बीजेपी के लिये यह हालात लाभदायक हो सकते है क्योंकि नीतिश जिस दौर में लालू के खिलाफ खड़े थे उस दौर में नीतिश के साथ बीजेपी थी । लेकिन बीजेपी की मुश्किल यह है कि जब वह नीतिश के साथ थी तो वह पासवान,मांझी,कुशवाहा सरीखे सोशल इंजीनियरिंग से दूर थी । यानी नीतीश का विरोध इस तिकडी के आसरे बीजेपी कर नही सकती । क्योकि ऐसा करते ही वह लालू के मंडल पार्ट –टू का हिस्सा बन जायेगी । फिर मंडल का सच आरक्षण से ही जुड़ा और बीजेपी के साथ मांझी पासवान या कुशवाहा का सच यही है कि यह तिकडी आरक्षण के हक में रही । तीनों ही कर्पूरी ठाकुर को आदर्श नेता मानते रहे । ऐसे में बीजेपी की तीसरी मुश्किल आरक्षण को लेकर है। क्योंकि कर्पूरी ठाकुर ने जब 26 फिसदी आरक्षण का एलान किया तो उस वक्त जनता पार्टी से जुडे बीजेपी के नेताओं ने विरोध करते हुये नारे भी लगाये, “आरक्षण कहां से आई, कर्पूर् की मां बिहाई “ ।
बिहार का सच भी यही है कि आरक्षण शब्द जिन्दगी से जुड़ा है । यानी मंडल की भूमिका और कमंडल की चुनावी दस्तक के बीच विकास से कही ज्यादा तरजीह उन सवालों को हल करने की देनी होगी जो पारंपरिक तौर पर जातियों की रोजी रोटी से जुड़े रहे । बुनकर खत्म हुये तो वह शहरों में मजदूरी करने से लेकर ईंट भट्टे में मिट्टी निकालते या ईंट ढोते ही नजर आने लगे । खेत मजदूरी कम हुई तो गांव के गांव खाली हुये और पलायन जिला हेडक्वार्टर से होते हुये पटना । और नीतिश के दौर में दिल्ली—मुबई का रास्ता ही हर किसी ने पकड़ा । शिक्षा संस्थानों का स्तर गिरा, अस्पताल बीमार हो गये । रोजगार घूसऔर कालेधन को बढ़ाने-सहेजने के लिये धंधों से ही निकला । तो जातियों के घालमेल ने इस सच से भी वाकिफ युवा पीढ़ी को कराया कि रास्ता दिल्ली होकर जाता है ना कि दिल्ली के पटना पहुंचने से रास्ता निकलेगा। यानी मंडल पार्ट-टू से इतर सोचने वाली राजनीति के सामने सबसे बडी मुश्किल यह है कि बीते 25 बरस में हर बिहारी नेता की भागेदारी कमोवेश मंडल से निकले अराजक सामाजिक न्याय के साथ खडे होने की ही रही । यानी विरोध के स्वर सुशीलमोदी , अश्विनी चौबे और नंदकिशोर यादव के भी नहीं निकले। नीतिश ने लालू का विरोध किया लेकिन महादलित का कार्ड नीतिश ने ही खेला । पसमांदा प्रयोग लालू से होते हुये नीतिश तक ही पहुंचा । और इस दौर नीतिश के साथ बीजेपी बराबर खडी रही । इसलिये बीजेपी बिहार के चुनाव में कही अलग दिखायी देती नहीं है । हां, मोदी और अमित शाह बिहार के नहीं है लेकिन सवाल है कि दोनो ही बिहार चुनाव तो लड़ेगें नहीं । और बिहार के बाहर से पहली इन्ट्री औवैसी की भी हो रही है । तो क्या बीते 25 बरस से कमोवेश हर उम्र के वोटरो ने जब बिहार के नेताओ की कतार में कोई बदलाव देखी ही नहीं । चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल के हो । किसी राजनीतिक विकल्प की कोई धुरी बनी ही नहीं । तो झटके में दिल्ली की सोच के मुताबिक बिहार चुनाव इस बार बदल जायेगा ऐसा हो नहीं सकता । बदलेगा सिर्फ इतना कि पहली बार वोट पाने से ज्यादा वोट काट कर जितने की सोच राजनीतिक दलो में गहरा रही है । नीतिश अपने कार्यकाल का जबाब देने के बदले प्रदानमंत्री मोदी के सोलह महीने की सत्ता का जबाब मांग कर हकीकत से बचना चाहेगें । तो बीजेपी नीतिश को हराने के लिये लालू को घेर रही है जिससे नीतिश पर चोट हो । यानी बीजेपी गठबंधन में हर के निशाने पर लालू यादव ही है । क्योकि बीते दस बरस की नीतिश की सत्ता का सच यह भी है कि नीतिश ने कभी अपनी कमजोरी या अपने काम करने के तरीके में किसी की दखल्दाजी बर्दाश्त नहीं की । और जिसने भी नीतिश का विरोध किया या बिहार की बदहाली का जिक्र किया उसे नीतिश ने लालू यादव के दौर का जिक्र कर डराया । तो सवाल यह भी है कि जब बीते दस बरस की सत्ता ने ही लालू के जंगलराज का जिक्र बार बार किया । इसकी कुछ बानगी देखे, “हमने सबको जोड़ा । स्त्री हो या पुरुष । एक सूत्र में जोड़कर हम हम बिहार विकास करने के लिये काम कर रहे है । ये एक धारा है । दूसरी धारा है जो आराम फरमाने वाली है । कहते है कि हम बिहार को शैम्पू लगाकर चमका देगें । 15 साल सत्ता में थे तो चादर तान कर सोये थे । क्या घौंस पट्टी थी । अब वैसे ही लालटेन वाले लोग छटपट छटपट कर रहे है । अब दिन में ही लालटेन लेकर घूम रहे हैं। “जाहिर है ऐसे बहुततेरे बयान बीते दस बरस का सच है जो दोनो तरफ से दिये गये । लेकिन बिहार की चुनावी राजनीति तीनसौ साठ डिग्री में घूमकर फिर वहीं आ खडी हुई है तो समझना बिहार के उस वोटर को होगा जो बीते ढाई दशक से अपने घर से ही पलायन लगातार देख रहा है और बिहार छोडने के लिये पढाई भी कर रहा है और मजदूरी के रास्ते निकालने के लिये दिल्ली-मुबंई भी देख रहा है । इसलिये बिहार का चुनाव नेताओ के लिये चाहे नया ना हो लेकिन बिहार के वोटरो के लिये कैसे नया है और मिजाज कैसे बदला है । इसके लिये दुबारा लौटिये सीन नंबर एक , दो और तीन पर । सीन एक – हम सेल्फी का मिसयूज नहीं करेगें । कर भी सकती हो । और सेल्फी लेने के बाद वूमेन्स कालेज की लडकी कहती है । मिसयूज तो बिहार का राजनेताओ ने किया है लालूजी । सीन दो, मोबाइल पर पता नहीं क्या देखता रहता है । ...न तभी सामने बैठे बेटे तेजस्वी पर नजर पड़ती है। जो मोबाइल में ही मशगूल था। तो झटके में लालू यादव कहते है , नहीं वाई फाई भी जरुरी है । नीतिश ठीक कहते है । सीन तीन, ...रोटी उलट दिये तो सब बोला जंगल राज । लेकिन लालू जी बिहार तो और बदहाल ही हुआ है । तो सत्ता में हम नहीं न थे । तो क्या इस बार आप सत्ता में होगें । नीतिश सीएम नहीं बनेंगे । अरे बनेंगे वहीं लेकिन हम साथ है ना । तो हमारा भी तो काफी सहयोग होगा । हमारे बेटा प्रमुख भूमिका में रहेगा । समझे ।
दरअसल बिहार चुनाव की खासियत यही हो चली है कि बिहार में जनादेश क्या होने वाला है यह हर बिहारी समझ रहा है । और जो समझ नहीं पा रहे है वह वही नेता है जो कल तक बिहारी होकर सोचते समझते रहे लेकिन आज बाहरी होकर बिहार को देख-समझ रहे हैं। क्योंकि बीते ढाई दशक का सच यही है कि कमोवेश हर नेता को पता था कि उसका होगा क्या । कौन सी जाति उसके साथ खड़ी होगी या कौन सा जातीय समीकरण उसे हरा या जिता सकता है । तो आंख बंद कर बिहार में लालू ने सत्ता चलायी । नीतिश ने आंखें बंद कर समाजिक समीकरणो को बीजेपी के साथ मिलकर दुहा । बीजेपी ने कोई मशक्कत ना तो सत्ता चलाने में ना ही नीतियो को बनाने या लागू करने में भूमिका निभायी । पासवान और कुशवाहा का तो एक विधायक तक नहीं है ।मांझी के साथ जो विधायक है वह नीतीश-बीजेपी गठबंधन की जीत के प्रतीक है । यानी पहली बार नेताओ ने बिहार चुनाव को लेकर अपनी आंखें खोली है तो मंडल के दौर के लालू का जंगल राज कही ज्यादा बड़ा होकर सामने आ खड़े हुआ है ।
Monday, September 21, 2015
मीडिया समझ ले , सत्ता ही है पूर्ण लोकतंत्र और पूर्ण स्वराज
तो मौजूदा दौर में मीडिया हर धंधे का सिरमौर है। चाहे वह धंधा सियासत का की क्यों ना हो। सत्ता जब जनता के भरोसे पर चूकने लगे तो उसे भरोसा प्रचार के भोंपू तंत्र पर ही होता है। और प्रचार का भोंपू तंत्र कभी एक राह नहीं देखता। वह ललचाता भी है । डराता भी है । साथ खड़े होने को कहता भी है। साथ खड़े होकर सहलाता भी है और सिय़ासत की उन तमाम चालों को भी चलता है, जिससे समाज में यह संदेश जाये कि जनता तो हर पांच बरस के बाद सत्ता बदल सकती है। लेकिन मीडिया को कौन बदलेगा। तो अगर मीडिया की इतनी ही साख है तो वह भी चुनाव लड़ ले । राजनीतिक सत्ता से जनता के बीच दो दो हाथ कर ले। जो जीतेगा उसी की जनता मानेगी। इस अंदाज को 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने कहना चाहा। मोदी सरकार ने अपनाना चाहा। इसी राह को केजरीवाल सरकार कहना चाहती है। अपनाना चाहती है । और पन्नों को पलटें तो मनमोहन सरकार में भी आखिरी दिनों यही गुमान आ गया था जब वह खुलै तौर पर अन्ना आंदोलन के वक्त यह कहने से नहीं चूक रही थी कि चुनाव लड़कर देख लीजिये। अभी हम जीते हैं तो जनता ने हमें वोट दिया है, तो हमारी सुनिये । सिर्फ हम ही सही हैं। हम ही सच कह रहे हैं । क्योंकि जनता को लेकर हम ही जमींदार हैं। यही है पूर्ण ताकत का गुमान । यानी लोकतंत्र के पहरुये के तौर पर अगर कोई भी स्तंभ सत्ता के खिलाफ नजर आयेगा तो सत्ता ही कभी न्याय करेगी तो कभी कार्यपालिका, कभी विधायिका तो कभी मीडिया बन कर अपनी पूर्ण ताकत का एहसास कराने से नहीं चूकेगी। ध्यान दें तो बेहद महीन लकीर समाज के बीच हर संस्थान में संस्थानो के ही अंतर्विरोध की खिंच रही है।
दिल्ली सरकार का कहना है, मानना है कि केन्द्र सरकार उसे ढहाने पर लगी है । बिहार में लालू यादव को इस पर खुली आपत्ति है कि ओवैसी बिहार चुनाव लड़ने आ कैसे गये। नौकरशाही सत्ता की पसंद नापसंदी के बीच जा खड़ी हुई है । केन्द्र में तो खुले तौर पर नौकरशाह पसंद किये जाते हैं या ठिकाने लगा दिये जाते हैं लेकिन राज्यो के हालात भी पसंद के नौकरशाहों को साथ रखने और नापसंद के नौकरशाहों को हाशिये पर ढकेल देने का हो चला है। पुलिसिया मिजाज कैसे किसी सत्ता के लिये काम कर सकता है और ना करे तो कैसे उसे बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है, यह मुबंई पुलिस कमिश्नर मारिया के तबादले और तबादले की वजह बताने के बाद उसी वजह को नयी नियुक्ति के साथ खारिज करने के तरीको ने बदला दिया। क्योंकि मारिया जिस पद के लाय़क थे वह कमिश्नर का पद नहीं था और जिस पद से लाकर जिसे कमिश्नर बनाया गया वह कमिश्नर बनते ही उसी पद के हो गये, जिसके लिये मारिया को हटाया गया । यानी संस्थानों की गरिमा चाहे गिरे लेकिन सत्ता गरिमा गिराकर ही अपने अनुकूल कैसे बना लेती है इसका खुला चेहरा पीएमओ और सचिवों को लेकर मोदी मॉडल पर अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक की रिपोर्ट बताती है तो यूपी सरकार के नियुक्ति प्रकरण पर इलाहबाद हाईकोर्ट की रोक भी खुला अंदेशा देती है कि राजनीतिक सत्ता पूर्ण ताकत के लिये कैसे मचल रही है। और इन सभी पर निगरानी अगर स्वच्छंद तौर पत्रकारिता करने लगे तो पहले उसे मीडिया हाउस के अंतर्विरोध तले ध्वस्त किया गया। और फिर मीडिया को मुनाफे के खेल में खड़ा कर बांटने सिलसिला शुरु हुआ । असर इसी का है कि कुछ खास संपादक-रिपोर्टरो के साथ प्रधानमंत्री को डिनर पसंद है और कुछ खास पत्रकारों को दिल्ली सरकार में
कई जगह नियुक्त कर सुविधाओं की पोटली केजरीवाल सरकार को खोलना पसंद है । इसी तर्ज पर क्या यूपी क्या बिहार हर जगह निगाहों में भी मीडिया को और निशाने पर भी मीडिया को लेने का खुला खेल हर जगह चलता रहा है । तो क्या यह मान लिया जाये कि मीडिया समूहो ने अपनी गरिमा खत्म कर ली है या फिर मुनाफे की भागमभाग में सत्ता ही एकमात्र ठौर हर मीडिया संस्थान का हो चला है । इसलिये जो सत्ता कहे उसके अनुकूल या प्रतिकूल जनता के खिलाफ चले जाना है या फिर सत्ता मीडिया के इसी मुनाफे के खेल का लाभ उठाकर सबकुछ अपने अनुकूल चाहती है । और वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाती कि कोई उसपर निगरानी रखे कि सत्ता का रास्ता सही है या नहीं । इतना ही नहीं सत्ता मुद्दों को लेकर जो परिभाषा गढ़ता है उस परिभाषा पर अंगुली उठाना भी सत्ता बर्दाश्त नहीं कर पा रही है । हिन्दू राष्ट्र भारत कैसे हो सकता है , कहा गया तो सत्ता के माध्यमों ने तुरंत आपको राष्ट्रविरोधी करार दे दिया। अब आप वक्त निकालिये और लड़ते रहिये हिन्दू राष्ट्र को परिभाषित करने में । इसी के सामानांतर कोई दूसरा मीडिया समूह बताने आ जायेगा कि हिन्दू राष्ट्र तो भारतीय रगों में दौड़ता है। अब दो तथ्य ही मीडिया ने परिभाषित किये । जो सत्ता के अनुकूल, उसे सत्ता के तमाम प्रचार तंत्र ने पत्रकारिता करार दिया बाकियों को राष्ट्र विरोधी । इसी तर्ज पर किसी ने विकास का जिक्र किया तो किसी ने ईमानदारी का । अब विकास का मतलब दो जून की रोटी के बाद वाई फाई और बुलेट
ट्रेन होगा या बुलेट ट्रेन और डिजिटल इंडिया ही । तो मीडिया इस पर भी बंट गई । जो सत्ता के साथ खड़ा, वह देश-हित में सोचता है । जो दो जून की रोटी का सवाल खड़ा करता है , वह बिका हुआ है । किसी पत्रकार ने सवाल खड़ा कर दिया कि सौ स्मार्ट सिटी तो छोडिये सिर्फ एक स्मार्ट सिटी बनाकर तो बताईये कि कैसी होगी स्मार्ट सिटी । तो झटके में उसे कांग्रेसी करार दिया गया । किसी ने गांव के बदतर होते हालात का जिक्र किया तो सत्ता ने भोंपू तंत्र बजाकर बताया कि कैसे मीडिया आधुनिक विकास को समझ नहीं पाता । और जब संघ परिवार ने गांव की फिक्र की तो झटके में स्मार्ट गांव का भी जिक्र सरकारी तौर पर हो गया ।
इसी लकीर को ईमानदारी के राग के साथ दिल्ली में केजरीवाल सरकार बन गयी तो किसी पत्रकार ने सवाल उठाया कि जनलोकपाल से चले थे लेकिन आपका अपना लोकपाल कहां है तो उस मीडिया समूह को या निरे अकेले पत्रकार को ही अपने विरोधियो से मिला बताकर खारिज कर दिया गया। पांच साल केजरीवाल का नारा लगाने वाली प्रचार कंपनी पायोनियर पब्लिसिटी को ही सत्ता में आने के बाद प्रचार के करोड़ों के ठेके बिना टेंडर निकाले क्यों दे दिये जाते हैं। इसका जिक्र करना भी विरोधियो के हाथों में बिका हुआ करार दिया जाता है । जैन बिल्डिर्स को लेकर जब दिल्ली सरकार से तार जोड़ने का कोई प्रयास करता है तो उसे बीजेपी का प्रवक्ता करार देने में भी देर नहीं लगायी जाती । और इसी दौर में मुनाफे के लिये कोई मीडिया संस्थान सरकार से गलबिहयां करता है या फिर सत्ता के लगता है कि किसी एक मीडिया संस्थान से गलबहियां कर उससे पत्रकारो के बीच अपनी साख बनाये रखी जाती है तो बकायदा मंच पर बैठकर केजरीवाल यह कहने से नहीं हिचकते कि हम तो आपके साझीदार हैं
यानी कैसे मीडिया को खारिज कर और पत्रकारों की साख पर हमला कर उसे सत्ता के आगे नतमस्तक किया जाये, यह खेल सत्ता के लिये ऐसा सुहावना हो गया है जिससे लगने यही लगा है कि सत्ता के लिये मीडिया की कैडर है। मीडिया ही मुद्दा है।मीडिया ही सियासी ताकत है और मीडिया ही दुशमन है । यानी तकनीक के आसरे जन जन तक अगर मीडिया पहुंच सकती है और सत्ता पाने के बाद कोई राजनीतिक पार्टी एयर कंडिशन्ड कमरों से बाहर निकल नहीं सकती तो फिर कार्यकर्ता का काम तो मीडिया बखूबी कर सकती है। और मीडिया का मतलब भी अगर मुनाफा है या कहें कमाई है और सत्ता अलग अलग माध्यमों से यह कमाई कराने में सक्षम है तो फिर दिल्ली में डेंगू हो या प्याज । देश में गांव की बदहाली हो या खाली एकाउंट का झुनझुना लिये 18 करोड़ लोग । या फिर किसी भी प्रदेश में चंद हथेलियों में सिमटता समूचा लाभ हो उसकी रिपोर्ट करने निकलेगा कौन सा पत्रकार या कौन सा मीडिया समूह चाहेगा कि सत्ता की जड़ों को परखा जाये। पत्रकारों को ग्राउंड जीरो पर रिपोर्ट करने भेजा जाये तो क्या मौजूदा वक्त एक ऐसे नैक्सस में बंध गया है, जहां सत्ता में आकर सत्ता
में बने रहने के लिये लोकतंत्र को ही खत्म कर जनता को यह एहसास कराना है कि लोकतंत्र तो राजनीतिक सत्ता में बसता है। क्योंकि हर पांच बरस बाद जनता वोट से चाहे तो सत्ता बदल सकती है। लेकिन वोटिंग ना तो नौकरशाही को लेकर होती है ना ही न्याय पालिका को लेकर ना ही देश के संवैधानिक संस्थानों को लेकर और ना ही मीडिया को लेकर। तो आखिरी लाइन उन पत्रकारों को धमकी देकर हर सत्ताधारी अपने अपने दायरे में यह कहने से नहीं चूकता की हमें तो जनता ने चुना है। आप सही हैं तो चुनाव लड़ लीजिये । और फिर मीडिया से कोई केजरीवाल की तर्ज पर निकले और कहे कि हम तो राजनीति के कीचड़ में कूदेंगे तभी राजनीति साफ होगी। और जनता को लगेगा कि वाकई यही मौजूदा दौर का अमिताभ बच्चन है। बस हवा उस दिशा में बह जायेगी। यानी लोकतंत्र ताक पर और तानाशाही का नायाब लोकतंत्र सतह पर।
दिल्ली सरकार का कहना है, मानना है कि केन्द्र सरकार उसे ढहाने पर लगी है । बिहार में लालू यादव को इस पर खुली आपत्ति है कि ओवैसी बिहार चुनाव लड़ने आ कैसे गये। नौकरशाही सत्ता की पसंद नापसंदी के बीच जा खड़ी हुई है । केन्द्र में तो खुले तौर पर नौकरशाह पसंद किये जाते हैं या ठिकाने लगा दिये जाते हैं लेकिन राज्यो के हालात भी पसंद के नौकरशाहों को साथ रखने और नापसंद के नौकरशाहों को हाशिये पर ढकेल देने का हो चला है। पुलिसिया मिजाज कैसे किसी सत्ता के लिये काम कर सकता है और ना करे तो कैसे उसे बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है, यह मुबंई पुलिस कमिश्नर मारिया के तबादले और तबादले की वजह बताने के बाद उसी वजह को नयी नियुक्ति के साथ खारिज करने के तरीको ने बदला दिया। क्योंकि मारिया जिस पद के लाय़क थे वह कमिश्नर का पद नहीं था और जिस पद से लाकर जिसे कमिश्नर बनाया गया वह कमिश्नर बनते ही उसी पद के हो गये, जिसके लिये मारिया को हटाया गया । यानी संस्थानों की गरिमा चाहे गिरे लेकिन सत्ता गरिमा गिराकर ही अपने अनुकूल कैसे बना लेती है इसका खुला चेहरा पीएमओ और सचिवों को लेकर मोदी मॉडल पर अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक की रिपोर्ट बताती है तो यूपी सरकार के नियुक्ति प्रकरण पर इलाहबाद हाईकोर्ट की रोक भी खुला अंदेशा देती है कि राजनीतिक सत्ता पूर्ण ताकत के लिये कैसे मचल रही है। और इन सभी पर निगरानी अगर स्वच्छंद तौर पत्रकारिता करने लगे तो पहले उसे मीडिया हाउस के अंतर्विरोध तले ध्वस्त किया गया। और फिर मीडिया को मुनाफे के खेल में खड़ा कर बांटने सिलसिला शुरु हुआ । असर इसी का है कि कुछ खास संपादक-रिपोर्टरो के साथ प्रधानमंत्री को डिनर पसंद है और कुछ खास पत्रकारों को दिल्ली सरकार में
कई जगह नियुक्त कर सुविधाओं की पोटली केजरीवाल सरकार को खोलना पसंद है । इसी तर्ज पर क्या यूपी क्या बिहार हर जगह निगाहों में भी मीडिया को और निशाने पर भी मीडिया को लेने का खुला खेल हर जगह चलता रहा है । तो क्या यह मान लिया जाये कि मीडिया समूहो ने अपनी गरिमा खत्म कर ली है या फिर मुनाफे की भागमभाग में सत्ता ही एकमात्र ठौर हर मीडिया संस्थान का हो चला है । इसलिये जो सत्ता कहे उसके अनुकूल या प्रतिकूल जनता के खिलाफ चले जाना है या फिर सत्ता मीडिया के इसी मुनाफे के खेल का लाभ उठाकर सबकुछ अपने अनुकूल चाहती है । और वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाती कि कोई उसपर निगरानी रखे कि सत्ता का रास्ता सही है या नहीं । इतना ही नहीं सत्ता मुद्दों को लेकर जो परिभाषा गढ़ता है उस परिभाषा पर अंगुली उठाना भी सत्ता बर्दाश्त नहीं कर पा रही है । हिन्दू राष्ट्र भारत कैसे हो सकता है , कहा गया तो सत्ता के माध्यमों ने तुरंत आपको राष्ट्रविरोधी करार दे दिया। अब आप वक्त निकालिये और लड़ते रहिये हिन्दू राष्ट्र को परिभाषित करने में । इसी के सामानांतर कोई दूसरा मीडिया समूह बताने आ जायेगा कि हिन्दू राष्ट्र तो भारतीय रगों में दौड़ता है। अब दो तथ्य ही मीडिया ने परिभाषित किये । जो सत्ता के अनुकूल, उसे सत्ता के तमाम प्रचार तंत्र ने पत्रकारिता करार दिया बाकियों को राष्ट्र विरोधी । इसी तर्ज पर किसी ने विकास का जिक्र किया तो किसी ने ईमानदारी का । अब विकास का मतलब दो जून की रोटी के बाद वाई फाई और बुलेट
ट्रेन होगा या बुलेट ट्रेन और डिजिटल इंडिया ही । तो मीडिया इस पर भी बंट गई । जो सत्ता के साथ खड़ा, वह देश-हित में सोचता है । जो दो जून की रोटी का सवाल खड़ा करता है , वह बिका हुआ है । किसी पत्रकार ने सवाल खड़ा कर दिया कि सौ स्मार्ट सिटी तो छोडिये सिर्फ एक स्मार्ट सिटी बनाकर तो बताईये कि कैसी होगी स्मार्ट सिटी । तो झटके में उसे कांग्रेसी करार दिया गया । किसी ने गांव के बदतर होते हालात का जिक्र किया तो सत्ता ने भोंपू तंत्र बजाकर बताया कि कैसे मीडिया आधुनिक विकास को समझ नहीं पाता । और जब संघ परिवार ने गांव की फिक्र की तो झटके में स्मार्ट गांव का भी जिक्र सरकारी तौर पर हो गया ।
इसी लकीर को ईमानदारी के राग के साथ दिल्ली में केजरीवाल सरकार बन गयी तो किसी पत्रकार ने सवाल उठाया कि जनलोकपाल से चले थे लेकिन आपका अपना लोकपाल कहां है तो उस मीडिया समूह को या निरे अकेले पत्रकार को ही अपने विरोधियो से मिला बताकर खारिज कर दिया गया। पांच साल केजरीवाल का नारा लगाने वाली प्रचार कंपनी पायोनियर पब्लिसिटी को ही सत्ता में आने के बाद प्रचार के करोड़ों के ठेके बिना टेंडर निकाले क्यों दे दिये जाते हैं। इसका जिक्र करना भी विरोधियो के हाथों में बिका हुआ करार दिया जाता है । जैन बिल्डिर्स को लेकर जब दिल्ली सरकार से तार जोड़ने का कोई प्रयास करता है तो उसे बीजेपी का प्रवक्ता करार देने में भी देर नहीं लगायी जाती । और इसी दौर में मुनाफे के लिये कोई मीडिया संस्थान सरकार से गलबिहयां करता है या फिर सत्ता के लगता है कि किसी एक मीडिया संस्थान से गलबहियां कर उससे पत्रकारो के बीच अपनी साख बनाये रखी जाती है तो बकायदा मंच पर बैठकर केजरीवाल यह कहने से नहीं हिचकते कि हम तो आपके साझीदार हैं
यानी कैसे मीडिया को खारिज कर और पत्रकारों की साख पर हमला कर उसे सत्ता के आगे नतमस्तक किया जाये, यह खेल सत्ता के लिये ऐसा सुहावना हो गया है जिससे लगने यही लगा है कि सत्ता के लिये मीडिया की कैडर है। मीडिया ही मुद्दा है।मीडिया ही सियासी ताकत है और मीडिया ही दुशमन है । यानी तकनीक के आसरे जन जन तक अगर मीडिया पहुंच सकती है और सत्ता पाने के बाद कोई राजनीतिक पार्टी एयर कंडिशन्ड कमरों से बाहर निकल नहीं सकती तो फिर कार्यकर्ता का काम तो मीडिया बखूबी कर सकती है। और मीडिया का मतलब भी अगर मुनाफा है या कहें कमाई है और सत्ता अलग अलग माध्यमों से यह कमाई कराने में सक्षम है तो फिर दिल्ली में डेंगू हो या प्याज । देश में गांव की बदहाली हो या खाली एकाउंट का झुनझुना लिये 18 करोड़ लोग । या फिर किसी भी प्रदेश में चंद हथेलियों में सिमटता समूचा लाभ हो उसकी रिपोर्ट करने निकलेगा कौन सा पत्रकार या कौन सा मीडिया समूह चाहेगा कि सत्ता की जड़ों को परखा जाये। पत्रकारों को ग्राउंड जीरो पर रिपोर्ट करने भेजा जाये तो क्या मौजूदा वक्त एक ऐसे नैक्सस में बंध गया है, जहां सत्ता में आकर सत्ता
में बने रहने के लिये लोकतंत्र को ही खत्म कर जनता को यह एहसास कराना है कि लोकतंत्र तो राजनीतिक सत्ता में बसता है। क्योंकि हर पांच बरस बाद जनता वोट से चाहे तो सत्ता बदल सकती है। लेकिन वोटिंग ना तो नौकरशाही को लेकर होती है ना ही न्याय पालिका को लेकर ना ही देश के संवैधानिक संस्थानों को लेकर और ना ही मीडिया को लेकर। तो आखिरी लाइन उन पत्रकारों को धमकी देकर हर सत्ताधारी अपने अपने दायरे में यह कहने से नहीं चूकता की हमें तो जनता ने चुना है। आप सही हैं तो चुनाव लड़ लीजिये । और फिर मीडिया से कोई केजरीवाल की तर्ज पर निकले और कहे कि हम तो राजनीति के कीचड़ में कूदेंगे तभी राजनीति साफ होगी। और जनता को लगेगा कि वाकई यही मौजूदा दौर का अमिताभ बच्चन है। बस हवा उस दिशा में बह जायेगी। यानी लोकतंत्र ताक पर और तानाशाही का नायाब लोकतंत्र सतह पर।
Sunday, September 20, 2015
ओवैसी के बिहार में चुनावी दस्तक के मायने
बहुत कम नेता ऐसे होते है जो सार्वजनिक तौर पर नेताओं के दोहरे चरित्र को निशाने पर लेते है । आप कह सकते है इसके लिये या तो गुस्सा होना चाहिये । या फिर ईमानदारी। या सामाजिक टकराव । बिहार चुनाव में कूदने जा रहे असदुद्दीन ओवैसी ने पटना में ही लालू यादव के मोदी विरोधी को लेकर जो सवाल पटना के ही मोर्या होटल में एक न्यूजचैनल के कार्यक्रम में उछाला , उसने पहली बार यह संकेत तो दे दिये कि ओवैसी का राजनीतिक रास्ता जनता के उसी गुस्से-आक्रोश से जुड रहा है जो राजनेताओ को लेकर मौजूदा वक्त में जनता में है । क्योंकि ओवैसी ने बिना लाग लपेट जिस तरह लालू-मुलायम को यह कह कर निशाने पर लिया कि अगर लालू यादव इतने ही सेक्यूलर है या मोदी को साप्रंदायिक मानते है तो फिर शादी समारोह में मोदी को आमंत्रित कर क्या सिखला रहे थे । बीच में नरेन्द्र मोदी और बांये-दाये लालू और मुलायम बैठकर तस्वीर क्यों खिंचवा रहे थे । शादी समारोह में प्रधानमंत्री मोदी के साथ गलबहिया डालना और चुनाव आ गये तो मंच पर खड़े होकर नरेन्द्र मोदी को साप्रंदायिक करार देने का मतलब है क्या । असल में कोई भी इस सवाल को उठा सकता है कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी तो सर्वमान्य तरीके से कहीं भी हो सकती है । क्योंकि एक वक्त प्रधानमंत्री वाजपेयी भी सहारा के कार्यक्रम में शामिल होने लखनऊ पहुंचे थे । उस वक्त भी विवाह समारोह था । तब सहाराश्री सुब्रत राय को जेल भी नहीं हुई थी । लेकिन सच यह भी है कि उस दौर में भी इन्फोर्समेंट डायरेक्टेरेट यानी ईडी की निगाहो में सहारा का चिट फंड का धंधा था। तो क्या यह सामाजिक अंतर्विरोध है या राजनीतिक जरुरत
। क्योंकि पहला सवाल है कि प्रधानमंत्री को कोई नेता या कोई प्रसिद्दी पा चुका शख्स अपने घर के समारोह में बुलाता है तो प्रधानमंत्री को वहा जाना चाहिये या नहीं ।
और दूसरा सवाल क्या राजनेताओं का दायरे में कोई अछूत नहीं होता । यानी कल कौन सी राजनीतिक बिसात सत्ता के लिये किसे कहां खड़ा कर दें , यह कोई नहीं जानता । इसलिये प्रधानमंत्री मोदी को कोई फर्क नहीं पडता कि वह लालू-मुलायम के घर के विवाह समारोह में शामिल हो जाये । असल में जनता के भीतर भी गुस्सा इसी सच को लेकर है कि सत्ता के लिये राजनेताओं की कोई विचारधारा होती नहीं है । यानी भावनाओ के साथ खुला खेल जनता परिवार बना कर तमाम राजनीतिक दल खेल बी सकते है और सत्ता के लिये बीजेपी सरीखी पार्टी भी उन्हीं पासवान और मांझी से गलबहिया डालने से कतराती नहीं है जिन्हे कल तक वह निशाने पर लेने से नहीं चूकती थी । यह है तो बेहद महीन लकीर लेकिन बिहार चुनाव के मद्देनजर ओवैसी का बिहार जाना सिर्फ चंद
सीटो पर प्रभाव डालेगा या कोई सीट जीतेंगे या हारेंगे , उससे आगे निकल रहा है। क्योंकि ओवैसी के कंध पर ना तो किसी गठबंधन का बोझ है ना ही सत्ता के लिये किसी के साथ जाने की मजबूरी । फिर कोई मुस्लिम संगठन राजनीतिक तौर पर देश में पैर पसारे और अपना विस्तार करें यह हालात मुस्लिम लीग के बाद देश में बना भी नहीं । यानी विभाजन के बाद मुस्लिम लीग की पहचान पाकिस्तान से जुडती चली गई और वह भी केरल में सिमट कर ही रह गया । लेकिन ओवैसी ने बिहार चुनाव में कदम रखकर उस सवाल को जन्म दे दिया है कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर अगर राजनीति होगी तो फिर राजनेताओं का कोई मिलन सामाजिक तौर पर होना भी नहीं चाहिये। यानी राजनीतिक संघर्ष करते वक्त और सत्ता संभालने की तिकडम अलग अलग नहीं हो सकती। जाहिर है यह सिर्फ लालू यादव ही नहीं बल्कि समूची हिन्दी पट्टी की उस सियासत को आईना दिखाने जैसा है जो सत्ता की मजबूरियो तले भ्रष्ट भी होती है ।
विचारधारा को भी हाशिये पर ढलेक देती है। और मनमर्जी से कभी जातीय तो कभी धर्मिक आधार पर जनता की भावनाओ से खुला खेल खेलती है । और राजनीति का
एक एसा कटघरा बनाती है जिसमें कोई राजनीतिक खिलाडी जन्म ला ले लें । ओवैसी को पिर भी बिहार के बाहर से आकर मुसलमानो के बीच यह सवाल खडा करेगें कि जितना विकास लालू यादव , रामविलास पासवान , जीतनराम मांझी , कुशवाहा और नीतिश कुमार का हुआ उसके सूई भर भी मुसलमानों का क्यो नहीं हुआ
। या मुसलमानो के जो नुमाइन्दे मुसलमानो के वोट लेकर ही बने चाहे वह मुस्लिम नेता ही क्यो ना हो उनकी समृद्दि के पीछे कौन से हालात रहे । क्योकि बिहार के दो दर्जन मुस्लिम नेताओ की पहचान उन्ही राजनीतिक दलों के साथ जुड़ती रही है जिन्होंने सत्ता संभालने के बाद भी मुस्लिम समाज को न्यूनतम सुविधा दिलाने की मशक्कत नहीं की । स्कूल, हेल्थ सेंटर, पीने का पानी और सडक-बिजली । यह भी बिहार के मुस्लिम बहुल इलाको में अगर नहीं है और दूसरी तरफ मुस्लिम नेताओं की अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से कहीं आगे निकल कर करोड़पति होने के दरवाजे पर ले जाकर खड़ा कर चुकी है । तो अपराधी है कौन । जाहिर है ओवैसी इन सवालो को बेलाग उठा सकते हैं । क्योंकि उनके पास खोने के लिये कुछ भी नहीं है । यानी पहली बार ओवैसी बिहार चुनाव में एक ऐसी धारा के तौर पर मौजूद रहेगें जहां उन्हें सिर्फ सच बोलना है । हकीकत से जनता को रुबरु कराना है । भाषण में कोई बात नहीं बनानी है । सीधे सीधे बताना है कि बागलपुर दंगो के पीछे यादव क्यो थे । 1988-89 में काग्रेसी सीएम जगन्नाथ मिश्रा दंगे नहीं रोक पाये वह ज्यादा दोषी है या फिर वह सामाजिक ढांचा जिसमें दंबग जाति की छांव में मुसलमानों को रहना मजबूरी है। क्योंकि नीतिश कुमार की सत्ता के वक्त ही भागलपुर दंगों के आरोपियो को सजा हुई और तब नीतिश कुमार इस जिक्र को खुले तौर पर कर रहे थे कि दंगो में यादवो की भूमिका क्या थी । लेकिन 2015 के चुनाव
में जब लालू के साथ नीतिश आ खडे हुये है तो फिर ना तो यादव का जिक्र होगा ना ही भागलपुर दंगो का जिक्र । लेकिन ओवैसी खुले तौर पर इन सवालो को भी उठा सकते है कि कैसे बिहार में जातीय खूनी संघर्ष के जरीये वाम आंदोलन की जमीन को लालू यादव ने खत्म किया । और क्यो शंकर-बिगाह हो या अरवल हर
जातीय संघर्ष में उन सिरमौरदारियों पर कोई आंच क्यों नहीं आयी जो खूनी संघर्ष के वक्त सत्ता के निशाने पर थे । शंकर-बिगाह में तो 58 हत्या हुई । लेकिन हाईकोर्ट के फैसले में किसी दोषी का नाम सामने आया ही नहीं । और राज्यसरकार ने भी ऐसी कोई पहल नहीं की जिससे सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को ले जाया जा सके । ध्यान दें तो नब्बे के दशक में लालू की सत्ता के दौर के तमाम अपराधियो को कानूनी तौर पर कही सजा मिली ही नहीं । और जब लालू को ही चारा घोटाले में सजा हुई तो लालू ने नीतिश सरकार पर ही निशाना साधा । लेकिन अब दोनो साथ हैं तो हर सवाल-जबाब मौन है । बिहार की यही मुश्किल सबसे बडी रही कि जितने भी नेता बिहार के है जाहे वह किसी भी राजनीतिक दल में हो अगर इनके बयानों को दोबारा सुना जाये तो जनता के सामने यह सवाल वाकई मुश्किल हो जायेगा कि कौन सा नेता कहां खडा हो और उसका मतलब बदलाव से है कैसा । क्योंकि सिर्फ लालू और नीतिश ही नहीं बल्कि पासवान, सुशील मोदी, कुशवाहा , नंदकिशोर यादव, सीपी ठाकुर, जीतनराम मांझी ने भी बीते तीस बरस में हर किसी के खिलाफ आग उगली है और हर किसी से हाथ मिलाया है ।
पासवान ती छह पीएम के साथ कैबिनेट में रहे और मांझी छह सीएम के साथ केबिनेट में रहे । पप्पू यादव अपनी पहचान के साथ बिहार की राजनीति में घुसने का प्रयास करते है तो उन्हे खारिज करने में या हाशिये पर ढकेलने के प्रयास भी सभी मिल कर करते है । यानी बिहार को कैसे सियासी परंपराओ में फांस कर खुद की महत्ता बनाये रखने का प्रयास मौजूदा राजनीतिक के तमाम वजीर कर रहे है यह भी समझना होगा । जयप्रकाश नारायण , कर्पूरी ठाकुर, बी पी मंडल की तिकडी के आसरे बिहार के सारे राजनेता अपनी राजनीति चमकाने में
लगे है सच यह भी है । और हकीकत यह भी है कि कोई भी नेता इस तिकडी के रास्ते पर चलने को तैयार नहीं है । लालू यादव और रामविलास पासवान हो या जीतनराम मांझी या कोई भी वैसा नेता जिसके लिये कर्पूरी ठाकुर आदर्श हो उनसे अगर यह पूछ लिजिये कि कर्पूरी ठाकुर ने तो कभी परिवार के सदस्यो को
टिकट देने के लिये नहीं कहा । यहा तक की एक बार कर्पूरी के चेलो ने ही प्रेम वश कर्पूरी ठाकुर के साथ उनके बेटे रामनाथ ठाकुर का नाम भी टिकट देने वाली सूची में डाल दिया तो कर्पूरी ठाकुर ने सूची देखते ही अपना नाम यह कहकर काट दिया कि अक परिवार स् एक ही लडना चाहिये । तो रामनाथ ठाकुर का नाम काटा गया । और कर्पूरी ठाकुर की जीते जी कभी रामनाथ ठाकुर चुनाव ना लड सके । फिर बी पी मंडल ने तो मंल कमीशन की पनी रिपोर्ट में इस सवालको बाखूबी उटाया था कि कैसे आरक्षण के जरीये या सत्ता संभालने की प्रक्रिया में दलित-महादलित या ओबीसी मुख्यधारा से सामाजिक आर्थिक तौर पर जोडे जा सकते है । और क्यो सत्ता में रहने वाली उंची जाति पिछडी जातियों के मुश्किलों को समझ नहीं पाती है । लेकिन बीते पच्चीस बरस में
दलित-महादलित या ओबीसी जातियों का ना सिर्फ पलायन बिहार से हुआ बल्कि सामाजिक- आर्थिक तौर पर कही ज्यादा मुश्किलो का सामना उन्हे करना पडा रहा है । तो क्या मंडल की लकीर तो सत्ता में आने भर के लिये ही पकडा गया । यह सवाल बीजेपी बोलेगी तो दिल्ली से आकर प्रदानमंत्री मोदी बोलेगें तो कोई असर नहीं पडेगा । क्योकि मोदी भी बिहार चुनाव की तासिर देखते हुये ओबीसी करार दिये जा चुके है । यानी बीजेपी अध्यक्ष भी बिहार चुनाव में घुसने से पहले बाहरी का तमगा छोड बिहारी हो गये । और उन्होंने मोदी के ओवीसी होने के खुल्ला-खुल्ला एलान कर दिया । लेकिन ओवैसी इस सवाल को उठाकर यह नया सवाल तो खडा कर ही सकते है कि बिहार चुनाव में जातिय समीकरण के दायरे मंडल से निकल कर अगर मंडल-टू की दिशा में जा रहे है तो उन जातियो को उससे लाभ होगा क्या जिनका जिक्र मंडल कमीशन की रिपोर्ट में किया गया । ठीक उसी तरह सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में जो सवाल मुसलमानो को लेकरउठे उनसे रास्ता निकालेगा कौन । दरअसल यह भी पहली बार है कि अभी तक मुसलमान वोट बैक को यादव या अन्य किसी जाति के साथ जोडकर ही जीत के लिये देखा गया । और मुसमान भी धर्म पर बांटीजाने वाली बीजेपी की राजनीति में अपने भीतर यही सवाल खडा करते आये कि जो भी बीजेपी के उम्मीदवार को हरा पायेगा उसके पक्ष
में वह वोट डालेगा । लेकिन मुसलमान अगर मुसलिम संगठन तले खड़ा होता है तो क्या कोई भी हिन्दु जाति उसके साथ खडा होगी यह सवाल ओवैसी की पार्टी को लेकर बिहार चुनाव में खडा हो सकता है । तो क्या ओवैसी का बिहार जाना सवालो को जन्म देना है । यकीनन मुस्लिम बहुल चार जिलों के बाहर करीब 18
सीट और भी है जहा तीस फिसदी से ज्यादा वोटर मुसलमान है । एक सीट तो पटना साहिब की ही है । जहा से बीजेपी के नंदकिसोर यादव चुनाव जीतते आ रहे है । लेकिन ओवैसी उन सीटो पर अपने उम्मीदवार खडा करेगें नहीं । तो सवाल सिर्फ 24 सीटो का नहीं है । सवाल है कि क्या बिहार में इस बार वह विचार चुनावी मंच से बोले जायेंगे । जो अभी तक सियासी गठबंधन या सत्ता के लिये नहीं बोले गये । और चूंकि ओवैसी सत्ता में कुछ निर्धारित नहीं कर पायेगें लेकिन मुसलमानों के भीतर से उन सनवालो को ओवैसी उठा पायेंगे। या कहे बिहार में करीब ढाई करोड वह युवा वोटर जिसका जन्म ही मंडल-कंमडल के संघर्ष के बाद हुआ । उसके जहन में जो सवाल है क्या वह इस चुनाव में सतह पर आ पायेंगे ।
यह सारे सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बिहार चुनाव के केन्द्र में अगर चाहे अनचाहे एक बार फिर लालू यादव आ खडे हुये है तो सच यह भी है कि ओवैसी के बिहार पहुंचने से कोई अगर सबसे ज्यादा डरा हुआ है तो वह लालू यादव ही है । क्योकि वह समझ रहे है कि मंडल का कटघरा टूटा तो वह हाशिये पर चले जायेंगे लेकि मुसलमानो ने अगर ओवैसी के आसरे सवाल उठाने शुरु कर दिये तो उनकी राजनीति का ही त हो जायेगा । और तब हो सकता है लालू नीतिश की तरफ नहीं बल्कि बीजेपी की तरफ देखे । और तभी असल परीक्षा बीजेपी के उस विकास की होगी जिसे मोदी कहते जरुर है लेकिन संघ परिवार के सामने वहीं विकास हिनदु राष्ट्र तले दम तोडती नजर आने लगती है ।
। क्योंकि पहला सवाल है कि प्रधानमंत्री को कोई नेता या कोई प्रसिद्दी पा चुका शख्स अपने घर के समारोह में बुलाता है तो प्रधानमंत्री को वहा जाना चाहिये या नहीं ।
और दूसरा सवाल क्या राजनेताओं का दायरे में कोई अछूत नहीं होता । यानी कल कौन सी राजनीतिक बिसात सत्ता के लिये किसे कहां खड़ा कर दें , यह कोई नहीं जानता । इसलिये प्रधानमंत्री मोदी को कोई फर्क नहीं पडता कि वह लालू-मुलायम के घर के विवाह समारोह में शामिल हो जाये । असल में जनता के भीतर भी गुस्सा इसी सच को लेकर है कि सत्ता के लिये राजनेताओं की कोई विचारधारा होती नहीं है । यानी भावनाओ के साथ खुला खेल जनता परिवार बना कर तमाम राजनीतिक दल खेल बी सकते है और सत्ता के लिये बीजेपी सरीखी पार्टी भी उन्हीं पासवान और मांझी से गलबहिया डालने से कतराती नहीं है जिन्हे कल तक वह निशाने पर लेने से नहीं चूकती थी । यह है तो बेहद महीन लकीर लेकिन बिहार चुनाव के मद्देनजर ओवैसी का बिहार जाना सिर्फ चंद
सीटो पर प्रभाव डालेगा या कोई सीट जीतेंगे या हारेंगे , उससे आगे निकल रहा है। क्योंकि ओवैसी के कंध पर ना तो किसी गठबंधन का बोझ है ना ही सत्ता के लिये किसी के साथ जाने की मजबूरी । फिर कोई मुस्लिम संगठन राजनीतिक तौर पर देश में पैर पसारे और अपना विस्तार करें यह हालात मुस्लिम लीग के बाद देश में बना भी नहीं । यानी विभाजन के बाद मुस्लिम लीग की पहचान पाकिस्तान से जुडती चली गई और वह भी केरल में सिमट कर ही रह गया । लेकिन ओवैसी ने बिहार चुनाव में कदम रखकर उस सवाल को जन्म दे दिया है कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर अगर राजनीति होगी तो फिर राजनेताओं का कोई मिलन सामाजिक तौर पर होना भी नहीं चाहिये। यानी राजनीतिक संघर्ष करते वक्त और सत्ता संभालने की तिकडम अलग अलग नहीं हो सकती। जाहिर है यह सिर्फ लालू यादव ही नहीं बल्कि समूची हिन्दी पट्टी की उस सियासत को आईना दिखाने जैसा है जो सत्ता की मजबूरियो तले भ्रष्ट भी होती है ।
विचारधारा को भी हाशिये पर ढलेक देती है। और मनमर्जी से कभी जातीय तो कभी धर्मिक आधार पर जनता की भावनाओ से खुला खेल खेलती है । और राजनीति का
एक एसा कटघरा बनाती है जिसमें कोई राजनीतिक खिलाडी जन्म ला ले लें । ओवैसी को पिर भी बिहार के बाहर से आकर मुसलमानो के बीच यह सवाल खडा करेगें कि जितना विकास लालू यादव , रामविलास पासवान , जीतनराम मांझी , कुशवाहा और नीतिश कुमार का हुआ उसके सूई भर भी मुसलमानों का क्यो नहीं हुआ
। या मुसलमानो के जो नुमाइन्दे मुसलमानो के वोट लेकर ही बने चाहे वह मुस्लिम नेता ही क्यो ना हो उनकी समृद्दि के पीछे कौन से हालात रहे । क्योकि बिहार के दो दर्जन मुस्लिम नेताओ की पहचान उन्ही राजनीतिक दलों के साथ जुड़ती रही है जिन्होंने सत्ता संभालने के बाद भी मुस्लिम समाज को न्यूनतम सुविधा दिलाने की मशक्कत नहीं की । स्कूल, हेल्थ सेंटर, पीने का पानी और सडक-बिजली । यह भी बिहार के मुस्लिम बहुल इलाको में अगर नहीं है और दूसरी तरफ मुस्लिम नेताओं की अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से कहीं आगे निकल कर करोड़पति होने के दरवाजे पर ले जाकर खड़ा कर चुकी है । तो अपराधी है कौन । जाहिर है ओवैसी इन सवालो को बेलाग उठा सकते हैं । क्योंकि उनके पास खोने के लिये कुछ भी नहीं है । यानी पहली बार ओवैसी बिहार चुनाव में एक ऐसी धारा के तौर पर मौजूद रहेगें जहां उन्हें सिर्फ सच बोलना है । हकीकत से जनता को रुबरु कराना है । भाषण में कोई बात नहीं बनानी है । सीधे सीधे बताना है कि बागलपुर दंगो के पीछे यादव क्यो थे । 1988-89 में काग्रेसी सीएम जगन्नाथ मिश्रा दंगे नहीं रोक पाये वह ज्यादा दोषी है या फिर वह सामाजिक ढांचा जिसमें दंबग जाति की छांव में मुसलमानों को रहना मजबूरी है। क्योंकि नीतिश कुमार की सत्ता के वक्त ही भागलपुर दंगों के आरोपियो को सजा हुई और तब नीतिश कुमार इस जिक्र को खुले तौर पर कर रहे थे कि दंगो में यादवो की भूमिका क्या थी । लेकिन 2015 के चुनाव
में जब लालू के साथ नीतिश आ खडे हुये है तो फिर ना तो यादव का जिक्र होगा ना ही भागलपुर दंगो का जिक्र । लेकिन ओवैसी खुले तौर पर इन सवालो को भी उठा सकते है कि कैसे बिहार में जातीय खूनी संघर्ष के जरीये वाम आंदोलन की जमीन को लालू यादव ने खत्म किया । और क्यो शंकर-बिगाह हो या अरवल हर
जातीय संघर्ष में उन सिरमौरदारियों पर कोई आंच क्यों नहीं आयी जो खूनी संघर्ष के वक्त सत्ता के निशाने पर थे । शंकर-बिगाह में तो 58 हत्या हुई । लेकिन हाईकोर्ट के फैसले में किसी दोषी का नाम सामने आया ही नहीं । और राज्यसरकार ने भी ऐसी कोई पहल नहीं की जिससे सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को ले जाया जा सके । ध्यान दें तो नब्बे के दशक में लालू की सत्ता के दौर के तमाम अपराधियो को कानूनी तौर पर कही सजा मिली ही नहीं । और जब लालू को ही चारा घोटाले में सजा हुई तो लालू ने नीतिश सरकार पर ही निशाना साधा । लेकिन अब दोनो साथ हैं तो हर सवाल-जबाब मौन है । बिहार की यही मुश्किल सबसे बडी रही कि जितने भी नेता बिहार के है जाहे वह किसी भी राजनीतिक दल में हो अगर इनके बयानों को दोबारा सुना जाये तो जनता के सामने यह सवाल वाकई मुश्किल हो जायेगा कि कौन सा नेता कहां खडा हो और उसका मतलब बदलाव से है कैसा । क्योंकि सिर्फ लालू और नीतिश ही नहीं बल्कि पासवान, सुशील मोदी, कुशवाहा , नंदकिशोर यादव, सीपी ठाकुर, जीतनराम मांझी ने भी बीते तीस बरस में हर किसी के खिलाफ आग उगली है और हर किसी से हाथ मिलाया है ।
पासवान ती छह पीएम के साथ कैबिनेट में रहे और मांझी छह सीएम के साथ केबिनेट में रहे । पप्पू यादव अपनी पहचान के साथ बिहार की राजनीति में घुसने का प्रयास करते है तो उन्हे खारिज करने में या हाशिये पर ढकेलने के प्रयास भी सभी मिल कर करते है । यानी बिहार को कैसे सियासी परंपराओ में फांस कर खुद की महत्ता बनाये रखने का प्रयास मौजूदा राजनीतिक के तमाम वजीर कर रहे है यह भी समझना होगा । जयप्रकाश नारायण , कर्पूरी ठाकुर, बी पी मंडल की तिकडी के आसरे बिहार के सारे राजनेता अपनी राजनीति चमकाने में
लगे है सच यह भी है । और हकीकत यह भी है कि कोई भी नेता इस तिकडी के रास्ते पर चलने को तैयार नहीं है । लालू यादव और रामविलास पासवान हो या जीतनराम मांझी या कोई भी वैसा नेता जिसके लिये कर्पूरी ठाकुर आदर्श हो उनसे अगर यह पूछ लिजिये कि कर्पूरी ठाकुर ने तो कभी परिवार के सदस्यो को
टिकट देने के लिये नहीं कहा । यहा तक की एक बार कर्पूरी के चेलो ने ही प्रेम वश कर्पूरी ठाकुर के साथ उनके बेटे रामनाथ ठाकुर का नाम भी टिकट देने वाली सूची में डाल दिया तो कर्पूरी ठाकुर ने सूची देखते ही अपना नाम यह कहकर काट दिया कि अक परिवार स् एक ही लडना चाहिये । तो रामनाथ ठाकुर का नाम काटा गया । और कर्पूरी ठाकुर की जीते जी कभी रामनाथ ठाकुर चुनाव ना लड सके । फिर बी पी मंडल ने तो मंल कमीशन की पनी रिपोर्ट में इस सवालको बाखूबी उटाया था कि कैसे आरक्षण के जरीये या सत्ता संभालने की प्रक्रिया में दलित-महादलित या ओबीसी मुख्यधारा से सामाजिक आर्थिक तौर पर जोडे जा सकते है । और क्यो सत्ता में रहने वाली उंची जाति पिछडी जातियों के मुश्किलों को समझ नहीं पाती है । लेकिन बीते पच्चीस बरस में
दलित-महादलित या ओबीसी जातियों का ना सिर्फ पलायन बिहार से हुआ बल्कि सामाजिक- आर्थिक तौर पर कही ज्यादा मुश्किलो का सामना उन्हे करना पडा रहा है । तो क्या मंडल की लकीर तो सत्ता में आने भर के लिये ही पकडा गया । यह सवाल बीजेपी बोलेगी तो दिल्ली से आकर प्रदानमंत्री मोदी बोलेगें तो कोई असर नहीं पडेगा । क्योकि मोदी भी बिहार चुनाव की तासिर देखते हुये ओबीसी करार दिये जा चुके है । यानी बीजेपी अध्यक्ष भी बिहार चुनाव में घुसने से पहले बाहरी का तमगा छोड बिहारी हो गये । और उन्होंने मोदी के ओवीसी होने के खुल्ला-खुल्ला एलान कर दिया । लेकिन ओवैसी इस सवाल को उठाकर यह नया सवाल तो खडा कर ही सकते है कि बिहार चुनाव में जातिय समीकरण के दायरे मंडल से निकल कर अगर मंडल-टू की दिशा में जा रहे है तो उन जातियो को उससे लाभ होगा क्या जिनका जिक्र मंडल कमीशन की रिपोर्ट में किया गया । ठीक उसी तरह सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में जो सवाल मुसलमानो को लेकरउठे उनसे रास्ता निकालेगा कौन । दरअसल यह भी पहली बार है कि अभी तक मुसलमान वोट बैक को यादव या अन्य किसी जाति के साथ जोडकर ही जीत के लिये देखा गया । और मुसमान भी धर्म पर बांटीजाने वाली बीजेपी की राजनीति में अपने भीतर यही सवाल खडा करते आये कि जो भी बीजेपी के उम्मीदवार को हरा पायेगा उसके पक्ष
में वह वोट डालेगा । लेकिन मुसलमान अगर मुसलिम संगठन तले खड़ा होता है तो क्या कोई भी हिन्दु जाति उसके साथ खडा होगी यह सवाल ओवैसी की पार्टी को लेकर बिहार चुनाव में खडा हो सकता है । तो क्या ओवैसी का बिहार जाना सवालो को जन्म देना है । यकीनन मुस्लिम बहुल चार जिलों के बाहर करीब 18
सीट और भी है जहा तीस फिसदी से ज्यादा वोटर मुसलमान है । एक सीट तो पटना साहिब की ही है । जहा से बीजेपी के नंदकिसोर यादव चुनाव जीतते आ रहे है । लेकिन ओवैसी उन सीटो पर अपने उम्मीदवार खडा करेगें नहीं । तो सवाल सिर्फ 24 सीटो का नहीं है । सवाल है कि क्या बिहार में इस बार वह विचार चुनावी मंच से बोले जायेंगे । जो अभी तक सियासी गठबंधन या सत्ता के लिये नहीं बोले गये । और चूंकि ओवैसी सत्ता में कुछ निर्धारित नहीं कर पायेगें लेकिन मुसलमानों के भीतर से उन सनवालो को ओवैसी उठा पायेंगे। या कहे बिहार में करीब ढाई करोड वह युवा वोटर जिसका जन्म ही मंडल-कंमडल के संघर्ष के बाद हुआ । उसके जहन में जो सवाल है क्या वह इस चुनाव में सतह पर आ पायेंगे ।
यह सारे सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बिहार चुनाव के केन्द्र में अगर चाहे अनचाहे एक बार फिर लालू यादव आ खडे हुये है तो सच यह भी है कि ओवैसी के बिहार पहुंचने से कोई अगर सबसे ज्यादा डरा हुआ है तो वह लालू यादव ही है । क्योकि वह समझ रहे है कि मंडल का कटघरा टूटा तो वह हाशिये पर चले जायेंगे लेकि मुसलमानो ने अगर ओवैसी के आसरे सवाल उठाने शुरु कर दिये तो उनकी राजनीति का ही त हो जायेगा । और तब हो सकता है लालू नीतिश की तरफ नहीं बल्कि बीजेपी की तरफ देखे । और तभी असल परीक्षा बीजेपी के उस विकास की होगी जिसे मोदी कहते जरुर है लेकिन संघ परिवार के सामने वहीं विकास हिनदु राष्ट्र तले दम तोडती नजर आने लगती है ।
Friday, September 18, 2015
किसे फ़िक्र है बीमारी और इलाज की!
दुनिया के सौ से ज्यादा देशों से इलाज की सुविधा ही नहीं, बल्कि डाक्टर और अस्पतालों के बेड भी भारत में सबसे कम है । भारत के ही छात्र सबसे ज्यादा बड़ी तादाद में दुनिया के बारह विकसित देशों में डाक्टर और इंजिनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं। भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में या स्वास्थ्य सेवा सलीके से चले और बीमारी ना फैले इसके लिये औसतन जितना बडा बजट दुनिया के सौ देश बनाते है उसकी तुलना में भारत का नंबर ना सिर्फ 122 वां है बल्कि स्वास्थयसेवा का बजट भी बाकियो की तुलना में सिर्फ 12 फिसदी का है । यानी बिमारी ना हो । बिमारी प्रकोप के रुप में पैले तो फिर ना हो । या फिर बिमारी की वजहो पर रोक लगनी चाहिये इसके लिये भारत का नंबर दुनिया के पहले सौ देसो में आता ही नहीं है इसलिये दिल्ली में फैले डेगू के प्रकोप को लेकर कोई भी आसानी से कह सकता है कि भारत में मौत बेहद सस्ती है। वैसे पन्नो को पलटे तो 19 बरस पहले पहली बार डेगू के कहर को दिल्ली ने बोगा था और 1996 के बाद फिर से दिल्ली डेगू के उसी मुहाने पर आ खडी हुई है जहा से कोई भी सवाल कर सकता है कि आखिर इलाज को लेकर कौन से हालात भारत को आगे बढने से रोकते है । तो दिल्ली की बस्तिया, दिल्ली के अस्पताल, दिल्ली के लेबोरटरी और दिल्ली के आलीशान माहोल में डेगू की परछाई कैसे और क्या 1996 से अलग 2015 में भी नहीं है यह सवाल हर जहन में उठ सकता है। क्योकि 1996 हो या 2015 डेगू के मरीज अस्पतालो में उन्ही हालात में पडे हुये है । बेड की कमी तब भी । बेड की कमी आज भी । ब्लड प्लेटलेट्स की भागमभाग 1996 में भी और प्लेटेटलेट्स को लेकर मुश्किल आज भी । 1996 में भी डेगू जांच को लेकर अस्पताल और लेबोरेटरी कटघरे में और आज भी । अंतर सिर्फ इतना कि 1996 में तब के पीएम देवेगौडा को भी अस्पताल जाकर मरीजो से मिलना पडा था और सीएम साहिब सिंह वर्मा काम ना करने वालो को बर्खास्त करने के लिये कैमरे के सामने आ गये ते । लेकिन आज ना पीएम हाल जानने के लिये अस्पताल तक पहुंच पा रहे है ना ही सीएम जनता में भरोसा जगाने के लिये सामने आ पा रहे है । तो 19 बरस में बदला क्या । और अगर कुछ भी नहीं बदला तो फिर दिल्ली की छाती पर तमगा देश की राजधानी का लगाया जाये या फिर फेल होते सिस्टम की बदहाली का । क्योकि दिल्ली में डेगू पर रोक के लिये जो उपाय बीते 19 बरस में होने चाहिये थे ठीक उसके उलट दिल्ली के हालात है 19 बरस पहले दिल्ली में 1700 जगहो को संवेदनशील माना गया ।2015 में 2600 जगहो को संवेदनशील माना जा रहा है । यानी डेगू मच्छरो के लिये आधुनिक होती दिल्ली के लिये ज्यादा बेहतर जगह बन गई । जबकि इस दौर में एमसीडी और एनडीएमसी का बजट बढकर छह गुना से ज्यादा हो गया । इन्ही 19 बरस में दिल्ली की अवैध कालोनियो में रहने वालो की तादाद 7 लाख से बढकर 22 लाख तक जा पहुंची । सडे हुये बैटरी के खोल , सडे हुये टायर और डिजल के खाली ड्रम जिसमें सबसे ज्यादा डेगूं मच्छर पनपते है । उनकी संख्या 19 बरस में छह गुना से ज्यादा बढ गई । क्योकि इसी 19 बरस में गाडी से लेकर बिजली तक के लिये बैटरी और डिजल ड्रम की जरुरत बढी ।
यानी वक्त के साथ दिल्ली कैसे और क्यो कब्रगाह में तब्दिल हो रही है इसका अंदेशा सिर्फ दिल्ली की तरफ रोजगार और शिक्षा के लिये हर बरस बढते पांच लाख से ज्यादा कदमो से ही नहीं सोमझा जा सकता । बल्कि समझना यह भी होगा कि 1981 में क्यूबा ने तय किया कि डेगू के कहर से बचा जाये तो उसने 61 करोड 80 लाख रुपये 34 बरस पहले खर्च किये । और दिल्ली का आलम यह है कि 2015 में दिल्ली सरकार ने डेगू से निपटने के लिये साढे चार करोड मांगे और केन्द्र ने भी एक करोड 71 लाख रुपये देकर अपना काम पूरा मान लिया । यानी 1996 से 2015 के बीच डेगू से निपटने के लिये कुल 30 करोड रुपये खर्च किये गये । जबकि डेगू सरीकी किसी भी बिमारी से निपटने के लिये यह रकम दुनिया में सबसे न्यूनतम है य़ तो भारत में बिमारियो से निपटने का नजरिया होता क्या है इसकी एक बानगी है डेगू । क्योकि इन्ही हालातो ने दिल्ली में हालात ऐसे बिगाडे है कि 1996 की तुलना में दिल्ली में ही नौ सौ नई जगहे डेगू मच्छरो के लिये बन गयी । हर दिन पांच से ज्यादा मामले अब अस्पतालो में पहुंच रहे है । और देश का हाल अस्पतालो को लेकर है क्या यह इससे भी समझा जा सकता है कि जहा चीन और रुस में हर दस हजार लोगो पर 42 और 97 बेड होते है वही भारत में प्रति दस हजार जनसंख्या पर महज 9 बेड है । फिर दिल्ली जैसी जगहो पर सरकार का ही नजरिया बिमारी से निपटने का क्या हो सकता है यह भी किसी बिगडे हालात से कम नहीं है । मसलन राष्ट्रपति भवन, सफदरजंग एयरपोरेट, देश का नामी असपताल एम्स और गृह मंत्रालय और इस कतार में दिल्ली के 50 से ज्यादा अहम स्थान और भी है । जिसमें वित्त मंत्रालय भी है और दिल्ली का राममनोहर लोहिया अस्पताल भी । दिल्ली के तीन सिनेमाधर भी है । यह सभी नाम इसलिये क्योकि इन सभी को दिल्ली म्यूनिसिपल कारपोरेशन ने नोटिस दिया है । नोटिस इसलिये क्योकि यह जगहे साफ नहीं है और इन जगहो पर डेगू मच्चऱ पनप सकते है । या कहे पनप रहे है । मुश्किल तो यह है कि नोटिस एक-दो नहीं नहीं बल्कि दर्जनो नोटिस हर संसथान को दिये गये। राष्ट्रपति भवन का परिसर इतना बडा है कि नोटिस की संख्या 90 तक पहुंच चुकी है । तो पहला सवाल है कि जब हाईकोर्ट ने केन्द्र सरकार से लेकर दिल्ली सरकार और एनडीएमसी से लेकर एमसीडी को नोटिस जारी कर जबाब मांगा है तो दो हफ्ते बाद यह सभी क्या जबाब देगें ।
क्योकि एमसीडी ने केन्द्र सरकार के सोलह संस्तानो को डेगू की वजह से नोटिस दिया हुआ है । दिल्ली सरकार के मातहत आने वाले 9 संस्थानो को भी नोटिस दिया हुआ है । यानी एमसीडी को नोटिस का जबाब हाईकोर्ट को देना है और एमसीडी के नोटिस का जबाब आजतक किसी ने नहीं दिया । इस फेरहिस्त में पुरानी दिल्ली के 1200 दुकानो भी है और 21 अवैध कालोनियो भी । दिल्ली के नौ बडे गाडी बाजार को भी नोटिस दिया क्योकि वहा सडा हुआ पानी टायर से लेकर बेटरी और ड्रम तक में जमा है । और बीते बीस बरस में दिल्ली की जनसंख्या भी दुगुनी हो गई है । यानी 1996 में जिन जगहो पर डेगू फैला अगर वहा पांच हजार लोग रह रहे थे तो आज वहा दस हजार लोग रहते है । सुविधाये उतनी ही कम हुई है । यानी डेगू से मौत किसी के लिये कोई मायने क्यो नहीं रखती है या फिर दिल्ली में डेगू का इलाज भी कैसे घंघे में बदल चुका है यह भी डेगू को लेकर सरकारी रुख से ही समझा जा सकता है । डेगू फैलते ही पहले 15 दिन जांच और इलाज ज्यादा पैसे देने पर हो रहा था । फिर दिल्ली सरकार कडक हुई । नियम-कायदे बनाये गये । तो धंधा और गहरा गया । क्योकि बिमारी फैल रही थी । ह7र दिन दो सौ से बढकर पांच सौ तक केस बढ गये । और दिल्ली सरकार के इलाज कराने की अपनी सीमा और सीमा के बाहर नकेल कसने की भी सीमा। फिर इन्फ्रस्ट्कर्चर ऐसा कि हर असप्ताल के सामने मरीज और उसके परिजन हाथ जोडकर ही खडे हो सकते है । क्योकि दिल्ली में जब डेगू नहीं था तब भी अस्पतालो के बेड खाली नहीं थे । और जब डेगू फैला हो तो सिर्फ बेड पर ही > नहीं बल्कि अस्पताल के गलियारे तक में जमीन पर लेटाकर इलाज चल रहा है। यानी दुनिया के तमाम देशो की राजधानियो को परखे तो सिर्फ दिल्ली में कम से कम चार हजार बेड अस्पतालो में और होने चाहिये । डेगू से निपटने के लिये सालाना बजट नब्बे करोड का अलग से होना चाहिये । लेकिन कैसे और किस रुप में डेगू से निपटने की तैयरी हमेसा से रही है यह अस्पतालो में मौजूद तीन हजार बेड से समझा जा सकता है । जहा हर दिन छह हजार मरीज दिल्ली में इलाज के लिये बेड की मांग सामान्य दिनो में करते है । और नायाब मुस्किल तो यह है कि डेगू से निपटने के लिये सिर्फ मौजूदा वक्त में ही नहीं बल्कि काग्रेस के दौर में किसी सरकार का नजरिया डेगू को थामने वाला रहा नहीं। जितना मांगा गया उतना दिया नहीं गया । जितना दिया गया उतना भी खर्च हो नहीं पाया । मसलन 2013-14 में मांगा 11.41 करोड़ गया लेकिन मिला 3.56 करोड़ । पिछले बरस यानी 2014-15 में मांगा गया 4.54 करोड और मिले 70 लाख। वही अब यानी 2015-16 में मांगे गये 4.23 करोड़ और मिले 1.71 करोड़ । और देश का सच यह भी है कि सिर्फ मेडिकल की पढाई के लिये देश के तीन से चार हजार छात्र हर बरस पढाई के लिये बाहर चले जाते है और हर बरस उनकी पढाई का खर्चा सिर्फ नब्बे लाख से तीन करोड तक का होता है । इतना ही नहीं देश के सरकारी अस्पतालो की कतार में सिर्फ सौ निजी अपांच सितारा अस्पतालो का सालाना मुनाफा तीन हजार करोड का है । और समूचे देश में केन्द्र सरकार से लेकर तमाम राज्य सरकारो के स्वास्थय सेवा के बजट से करीब दुगुना खर्च देश के ही लोग इलाज के लिये देश के बाहर कर देते है और इनसब आंकडो के बीच या कहे डेगू के कहर के बीच दिल्ली में दिल्ली में पीएम का स्वच्छता अभियान हो या केजरीवाल का वाय-फाय का सपना ।दोनो ही कटघरे में खडे नजर आते है। फिर दोनो ही अभी तक एकसाथ बैठकर दिल्ली में कैसे उन्फ्रस्ट्रक्चर हो इसपर चर्चा तक नहीं कर पाये है ।
यानी वक्त के साथ दिल्ली कैसे और क्यो कब्रगाह में तब्दिल हो रही है इसका अंदेशा सिर्फ दिल्ली की तरफ रोजगार और शिक्षा के लिये हर बरस बढते पांच लाख से ज्यादा कदमो से ही नहीं सोमझा जा सकता । बल्कि समझना यह भी होगा कि 1981 में क्यूबा ने तय किया कि डेगू के कहर से बचा जाये तो उसने 61 करोड 80 लाख रुपये 34 बरस पहले खर्च किये । और दिल्ली का आलम यह है कि 2015 में दिल्ली सरकार ने डेगू से निपटने के लिये साढे चार करोड मांगे और केन्द्र ने भी एक करोड 71 लाख रुपये देकर अपना काम पूरा मान लिया । यानी 1996 से 2015 के बीच डेगू से निपटने के लिये कुल 30 करोड रुपये खर्च किये गये । जबकि डेगू सरीकी किसी भी बिमारी से निपटने के लिये यह रकम दुनिया में सबसे न्यूनतम है य़ तो भारत में बिमारियो से निपटने का नजरिया होता क्या है इसकी एक बानगी है डेगू । क्योकि इन्ही हालातो ने दिल्ली में हालात ऐसे बिगाडे है कि 1996 की तुलना में दिल्ली में ही नौ सौ नई जगहे डेगू मच्छरो के लिये बन गयी । हर दिन पांच से ज्यादा मामले अब अस्पतालो में पहुंच रहे है । और देश का हाल अस्पतालो को लेकर है क्या यह इससे भी समझा जा सकता है कि जहा चीन और रुस में हर दस हजार लोगो पर 42 और 97 बेड होते है वही भारत में प्रति दस हजार जनसंख्या पर महज 9 बेड है । फिर दिल्ली जैसी जगहो पर सरकार का ही नजरिया बिमारी से निपटने का क्या हो सकता है यह भी किसी बिगडे हालात से कम नहीं है । मसलन राष्ट्रपति भवन, सफदरजंग एयरपोरेट, देश का नामी असपताल एम्स और गृह मंत्रालय और इस कतार में दिल्ली के 50 से ज्यादा अहम स्थान और भी है । जिसमें वित्त मंत्रालय भी है और दिल्ली का राममनोहर लोहिया अस्पताल भी । दिल्ली के तीन सिनेमाधर भी है । यह सभी नाम इसलिये क्योकि इन सभी को दिल्ली म्यूनिसिपल कारपोरेशन ने नोटिस दिया है । नोटिस इसलिये क्योकि यह जगहे साफ नहीं है और इन जगहो पर डेगू मच्चऱ पनप सकते है । या कहे पनप रहे है । मुश्किल तो यह है कि नोटिस एक-दो नहीं नहीं बल्कि दर्जनो नोटिस हर संसथान को दिये गये। राष्ट्रपति भवन का परिसर इतना बडा है कि नोटिस की संख्या 90 तक पहुंच चुकी है । तो पहला सवाल है कि जब हाईकोर्ट ने केन्द्र सरकार से लेकर दिल्ली सरकार और एनडीएमसी से लेकर एमसीडी को नोटिस जारी कर जबाब मांगा है तो दो हफ्ते बाद यह सभी क्या जबाब देगें ।
क्योकि एमसीडी ने केन्द्र सरकार के सोलह संस्तानो को डेगू की वजह से नोटिस दिया हुआ है । दिल्ली सरकार के मातहत आने वाले 9 संस्थानो को भी नोटिस दिया हुआ है । यानी एमसीडी को नोटिस का जबाब हाईकोर्ट को देना है और एमसीडी के नोटिस का जबाब आजतक किसी ने नहीं दिया । इस फेरहिस्त में पुरानी दिल्ली के 1200 दुकानो भी है और 21 अवैध कालोनियो भी । दिल्ली के नौ बडे गाडी बाजार को भी नोटिस दिया क्योकि वहा सडा हुआ पानी टायर से लेकर बेटरी और ड्रम तक में जमा है । और बीते बीस बरस में दिल्ली की जनसंख्या भी दुगुनी हो गई है । यानी 1996 में जिन जगहो पर डेगू फैला अगर वहा पांच हजार लोग रह रहे थे तो आज वहा दस हजार लोग रहते है । सुविधाये उतनी ही कम हुई है । यानी डेगू से मौत किसी के लिये कोई मायने क्यो नहीं रखती है या फिर दिल्ली में डेगू का इलाज भी कैसे घंघे में बदल चुका है यह भी डेगू को लेकर सरकारी रुख से ही समझा जा सकता है । डेगू फैलते ही पहले 15 दिन जांच और इलाज ज्यादा पैसे देने पर हो रहा था । फिर दिल्ली सरकार कडक हुई । नियम-कायदे बनाये गये । तो धंधा और गहरा गया । क्योकि बिमारी फैल रही थी । ह7र दिन दो सौ से बढकर पांच सौ तक केस बढ गये । और दिल्ली सरकार के इलाज कराने की अपनी सीमा और सीमा के बाहर नकेल कसने की भी सीमा। फिर इन्फ्रस्ट्कर्चर ऐसा कि हर असप्ताल के सामने मरीज और उसके परिजन हाथ जोडकर ही खडे हो सकते है । क्योकि दिल्ली में जब डेगू नहीं था तब भी अस्पतालो के बेड खाली नहीं थे । और जब डेगू फैला हो तो सिर्फ बेड पर ही > नहीं बल्कि अस्पताल के गलियारे तक में जमीन पर लेटाकर इलाज चल रहा है। यानी दुनिया के तमाम देशो की राजधानियो को परखे तो सिर्फ दिल्ली में कम से कम चार हजार बेड अस्पतालो में और होने चाहिये । डेगू से निपटने के लिये सालाना बजट नब्बे करोड का अलग से होना चाहिये । लेकिन कैसे और किस रुप में डेगू से निपटने की तैयरी हमेसा से रही है यह अस्पतालो में मौजूद तीन हजार बेड से समझा जा सकता है । जहा हर दिन छह हजार मरीज दिल्ली में इलाज के लिये बेड की मांग सामान्य दिनो में करते है । और नायाब मुस्किल तो यह है कि डेगू से निपटने के लिये सिर्फ मौजूदा वक्त में ही नहीं बल्कि काग्रेस के दौर में किसी सरकार का नजरिया डेगू को थामने वाला रहा नहीं। जितना मांगा गया उतना दिया नहीं गया । जितना दिया गया उतना भी खर्च हो नहीं पाया । मसलन 2013-14 में मांगा 11.41 करोड़ गया लेकिन मिला 3.56 करोड़ । पिछले बरस यानी 2014-15 में मांगा गया 4.54 करोड और मिले 70 लाख। वही अब यानी 2015-16 में मांगे गये 4.23 करोड़ और मिले 1.71 करोड़ । और देश का सच यह भी है कि सिर्फ मेडिकल की पढाई के लिये देश के तीन से चार हजार छात्र हर बरस पढाई के लिये बाहर चले जाते है और हर बरस उनकी पढाई का खर्चा सिर्फ नब्बे लाख से तीन करोड तक का होता है । इतना ही नहीं देश के सरकारी अस्पतालो की कतार में सिर्फ सौ निजी अपांच सितारा अस्पतालो का सालाना मुनाफा तीन हजार करोड का है । और समूचे देश में केन्द्र सरकार से लेकर तमाम राज्य सरकारो के स्वास्थय सेवा के बजट से करीब दुगुना खर्च देश के ही लोग इलाज के लिये देश के बाहर कर देते है और इनसब आंकडो के बीच या कहे डेगू के कहर के बीच दिल्ली में दिल्ली में पीएम का स्वच्छता अभियान हो या केजरीवाल का वाय-फाय का सपना ।दोनो ही कटघरे में खडे नजर आते है। फिर दोनो ही अभी तक एकसाथ बैठकर दिल्ली में कैसे उन्फ्रस्ट्रक्चर हो इसपर चर्चा तक नहीं कर पाये है ।
Thursday, September 10, 2015
भाषा के लिये बेचैनी होनी चाहिये
साहित्य और पत्रकारिता का तारतम्य कब कैसे टूटा और कैसे संवाद की भाषा शहरी मिजाज के साथ पत्रकारिता ने अपना ली इसके लिये कोई एक वक्त की लकीर तो खिंची नहीं जा सकती । लेकिन यह कहा जा सकता है कि 1991 के बाद जब सत्ता ने ही कल्याणकारी राज्य की जगह उपभोक्ता वादी राज्य की सोच अपना ली वैसे ही सत्ता की नीतियां उन नागरिकों से भी हट गयी जो उपभोक्ता नहीं थे । और शायद इसी दौर में पहले अंग्रेजी अखबारों से हिन्दी अखबारो में अनुवाद का चलन और उसके बाद निजी समाचार चैनलो के जरीये हिंग्लिश को अपनाना । तो सोच उपभोक्ताओं को लेकर ही जागी । पत्रकारिता को भी लगा कि उसके उपभोक्ता जिस भाषा को सरलता से बोलते है तो उसी भाषा को पत्रकारिता भी अपना ले तो ज्यादा जल्दी पाठको से जुड़ा जा सकता है । फिर खुली अर्थव्यवस्था ने जब सबकुछ बाजार के हवाले करते हुये बाजार को ही मानक मान लिया तो बाजार की भाषा ठीक वैसी ही चल पड़ी, जिसमें पत्रकारिता को भी उत्पाद के तौर पर ले लिया गया। ध्यान दें तो यह बहुत बारीक रेखा है कि कैसे राज्य सत्ता की सोच बदलने के साथ हर वह धंधा बदल जाता है जो पूंजी पर टिका हो और जिसका पहला और आखिरी मंत्र मुनाफा बनाना ही हो । मीडिया या पत्रकारिता दोनों ही इससे हटकर नहीं है। तो कह यह भी सकते हैं कि अब वह दौर नहीं कि साहित्यकार संपादक हो जाये या संपादक किसी साहित्यकार की तर्ज पर रचता बसता दिखे। लेकिन सत्ता के नजरिये से अगर भाषा की सत्ता को समझे तो
मनमोहन सिंह/सोनिया गांधी से नरेन्द्र मोदी के हाथों में सत्ता जाने के पीछे भाषा की ताकत को समझना होगा। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दस बरस की सत्ता के दौर में बेहद कम हिन्दी में बोल पाये । कहें तो जब भी बोले वह हिन्दी को मजाक में लेने से कही ज्यादा रहा।
वहीं 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह हिन्दी भाषा का प्रयोग लच्छेदार तरीके से किया और आम जनता से वह संवाद बनाते चले गये उसमें पहली बार राजनीतिक भाषा की ताकत भी कांग्रेस को भी समझ में आ गई और सोनिया गांधी/राहुल गांधी को भी । पिछले दिनो दो वाकये ऐसे हुये जिसने सत्ता और विपक्ष को लेकर बहुसंख्यक जनता की भाषा हिन्दी की ताकत का एहसास सियासी राजनीतिक दलों को
करा दिया । पहला तो कांग्रेसी नेता गुलाम नबीं आजाद ने बात बात में जानकारी दी कि हिन्दी का प्रभाव जिस तेजी से जनता के बीच जाता है क्योंकि न्यूज चैनलों के दौर में हिन्दी में अपनी बात कहकर कहीं ज्यादा बड़े तबके को प्रभावित किया जा सकता है। तो अब राहुल गांधी और सोनिया गांधी भी हिन्दी बोलते नजर आयेगें । वहीं भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर जब सियासी हंगामा संसद से सड़क तक बढ़ा तो संसद में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अंग्रेजी में जबाब दिया । लेकिन उसका प्रभाव कुछ ज्यादा पड़ा नहीं तो प्रधानमंत्री मोदी तक को लगा कि मामला किसानों का है । और भूमि अधिग्रहण को लेकर समझाना देश की उस बहुसंख्य जनता को है जो वोटर है तो जवाब हिन्दी में ही देना होगा । उसके तुरंत बाद लच्छेदार हिन्दी को मराठी शैली में बोलते हुये केन्द्रीय मंत्री नीतिन गडकरी सामने आ गये । और झटके में नीतिन गडकरी ने जिन मुहावरों के आसरे सोनिया गांधी और राहुल पर निशाना साधा उसने खबरों में नीतिन गडकरी को लाकर खड़ा कर दिया ।
और हिन्दी में बोले जा रहे राजनीतिक वक्तव्य अंग्रेजी न्यूज चैनलों में भी सुर्खियां पाने लगे। दरअसल भाषा की ताकत होती क्या है और राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक तौर पर भी सरोकार और संवाद बनाने वाले माध्यमों के लिये अब यह क्यों जरुरी होता चला जा रहा है कि वह जन भाषा का प्रयोग करें, इसके लिये बाजार अर्थव्यवस्था के साथ साथ देश के सामाजिक आर्थिक हालातों को भी परखना होगा जो 1991 के बाद से लगातार हाशिये पर ढकेल दिये गये। और उस सवाल को भी नये सिरे से मथना होगा कि पत्रकारिता की भाषा सत्ता की भाषा होनी चाहिये या आम जन की भाषा । यह दोनो सवाल पत्रकारिता या मीडिया को लेकर
इसलिये मौजूं है क्योंकि दो दशक का वक्त हो चुका है जब देश में सरकारी खबरों से इतर दूरदर्शन पर ही निजी खबरो को जगह मिली। और बीते डेढ़ दशक से निजी न्यूज चैनल उसी तर्ज पर पनपे जैसे नवरत्न को बेचकर डिसन्वेस्टमेंट की थ्योरी देश में शुरु हुई । लेकिन पूंजी पर टिका बाजार भारतीय जनमानस के अनुकूल रहा नहीं। क्योंकि सामाजिक तौर पर महज बीस से पच्चीस करोड उपभोक्ताओ के लिये तो जेब और बाजार दोनो खुला लेकिन बाकियों के लिये हालात और दुविधापूर्ण होते चले गये। समाज में आर्थिक दूरियां बढ़ती चली गई । ध्यान दे तो देश में सत्ता परिवर्तन के लिये नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की उन्ही आर्थिक नीतियों पर वार किये जो सिर्फ उपभोक्ताओं को रिझा रहे थे । कमोवेश यही से पत्रकारिता और भाषा का सवाल भी खड़ा होता है । हिंग्लिश गायब होने लगी लेकिन पटरी पर लौटते हिन्दी पत्रकारों के सामने संकट भाषा को लेकर उभरा । हिन्दी का प्रयोग कैसे किस रुप में करना है और न्यूज चैनल के स्क्री पर अपनी महत्ता बरकरार रखनी है इसके लिये दो ही तरीके हो सकते थे । पहला कंटेंट और दूसरा भाषा को लेकर सामाजिक आर्थिक समझ। राजनेताओं की बहस में उलझते चैनलो का चेहरा हो या राजनेताओं के चेहरों के जरीये पत्रकारिता का मिजाज दोनो हालातों में पत्रकार या न्यूज एंकर के पास कोई धारदार शैली होनी चाहिये। यह तभी संभव है जब पत्रकार के सरोकार समाज के विभिन्न तबको से हो। क्योंकि दिल्ली और पटना का एक मिज़ाज हो नहीं सकता है
। ठीक उसी तरह जैसी कश्मीर के आतंक को छत्तीसगढ के माओवादियो के साथ जोड़ कर देखा नहीं जा सकता। इसकी और बारीकी को समझे तो पत्रकार अगर भाषा के पैनापन को नही समझेगी तो खबरों में राजनेता उसपर भारी दिखेगा। मसलन प्रधानमंत्री मोदी बिहार के “डीएनए” को लेकर नीतिश कुमार पर हमला करते है और नीतिश कुमार “जुमला बाबू” कहकर प्रधानमंत्री मोदी पर हमला करने से नहीं कतराते। अब सवाल है कि पत्रकारिता अगर डीएनए को खांटी बिहार की राजनीति के परिपेक्ष्य में ना समझ पाये और विज्ञान के नजरिये से टेलीविजन सेकिन पर व्याख्या करने लगे तो किसकी रुची जागेगी। और सियासत तेज होगी तो कई नये मुहावरे गढ़े जायेंगे क्योंकि राजनीति सत्त संघर्ष में भी अब हर राजनेता समझ रहा है कि उसे जन भाषा में ही संवाद बनाना होगा। नहीं तो उसका कहा ना मीडिया में चलेगा ना अखबारों तक पहुंच पायेगा। लंबे वक्त तक लालू प्रसाद यादव इसीलिये न्यूज चैनलों के डार्लिग ब्याय बने रहें, क्योंकि गांव-देहात के लोगों से अपने बोल या कहे भाषा के जरीये वह सीदा संवाद बनाते। जिसे सुनना एक नयापन भी था और शहरी अंग्रेजी मिजाज के उस आवरण को तोड़ना भी जो धीरे धीरे एकरसता ला रहा था । यहां समझना यह भी होगा कि न्यूज चैनलों के 85 फिसदी दर्शकों के लिये यह मायने नहीं रखता कि वह हिन्दी का चैनल देख रहे है या अंग्रेजी का । यानी एक ही खबर अगर ज्यादा रोचक तरीके से या फिर ज्यादा बेहतर तस्वीरो के साथ अंग्रेजी में भी चल रही है तो उसे
भी देखने में हर भाषा के दर्शको को परहेज नहीं होती ।
हालांकि इसके सामांनातर अखबार या हिन्दी पत्रिकाओं के सामने यह ,सवाल है कि न्यूज चैनल को किस्सागोई से चल सकते है । लच्छेदार भाषा से चल सकते है लेकिन अखबारों का क्या करें । जाहिर इस दायरे में फणीश्वरनाथ रेणु की पटना में आई बाढ़ पर छपी दिनमान की रिपोर्टिग को पढना चाहिये । इस लेखन को लेकर राजकमल प्रकाशन ने ऋणजल-धनजल नामक किताब भी छापी है । वैसे साहित्यकारों की पत्रकारिता का मिजाज धर्मयुग, दिनमान, रविवार , साप्ताहिक हिन्दुस्तान सरीखी पत्रिकाओ में 70-80 के दशक में देखी जा सकती है । जहां यह साफ लगता है कि साहित्य पत्रकारिता से कई कदम आगे चलती है । लेकिन उपभोक्ता
संस्कृति को दौर साहित्य की धार में भोथरापन आया और पत्रकारिता राजनीतिक सत्ता के मोहजाल में फंसी तो उसकी भाषा भी कही उपभोक्ता तो कहीं मुनाफा तो कही सत्ता की मलाई खाने वाली हो गई । और चापलूसी या पेट भरी भाषा के जरीये उस समाज में संवाद बनाना बेहद मुश्किल है जो बहुसंख्यक समाज लगातार विकल्प की तालाश में भटक रहा है । और संसदीय राजनीति तले हर बार लोकतंत्र के नाम पर छला भी जा रहा है ।
मनमोहन सिंह/सोनिया गांधी से नरेन्द्र मोदी के हाथों में सत्ता जाने के पीछे भाषा की ताकत को समझना होगा। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दस बरस की सत्ता के दौर में बेहद कम हिन्दी में बोल पाये । कहें तो जब भी बोले वह हिन्दी को मजाक में लेने से कही ज्यादा रहा।
वहीं 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह हिन्दी भाषा का प्रयोग लच्छेदार तरीके से किया और आम जनता से वह संवाद बनाते चले गये उसमें पहली बार राजनीतिक भाषा की ताकत भी कांग्रेस को भी समझ में आ गई और सोनिया गांधी/राहुल गांधी को भी । पिछले दिनो दो वाकये ऐसे हुये जिसने सत्ता और विपक्ष को लेकर बहुसंख्यक जनता की भाषा हिन्दी की ताकत का एहसास सियासी राजनीतिक दलों को
करा दिया । पहला तो कांग्रेसी नेता गुलाम नबीं आजाद ने बात बात में जानकारी दी कि हिन्दी का प्रभाव जिस तेजी से जनता के बीच जाता है क्योंकि न्यूज चैनलों के दौर में हिन्दी में अपनी बात कहकर कहीं ज्यादा बड़े तबके को प्रभावित किया जा सकता है। तो अब राहुल गांधी और सोनिया गांधी भी हिन्दी बोलते नजर आयेगें । वहीं भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर जब सियासी हंगामा संसद से सड़क तक बढ़ा तो संसद में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अंग्रेजी में जबाब दिया । लेकिन उसका प्रभाव कुछ ज्यादा पड़ा नहीं तो प्रधानमंत्री मोदी तक को लगा कि मामला किसानों का है । और भूमि अधिग्रहण को लेकर समझाना देश की उस बहुसंख्य जनता को है जो वोटर है तो जवाब हिन्दी में ही देना होगा । उसके तुरंत बाद लच्छेदार हिन्दी को मराठी शैली में बोलते हुये केन्द्रीय मंत्री नीतिन गडकरी सामने आ गये । और झटके में नीतिन गडकरी ने जिन मुहावरों के आसरे सोनिया गांधी और राहुल पर निशाना साधा उसने खबरों में नीतिन गडकरी को लाकर खड़ा कर दिया ।
और हिन्दी में बोले जा रहे राजनीतिक वक्तव्य अंग्रेजी न्यूज चैनलों में भी सुर्खियां पाने लगे। दरअसल भाषा की ताकत होती क्या है और राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक तौर पर भी सरोकार और संवाद बनाने वाले माध्यमों के लिये अब यह क्यों जरुरी होता चला जा रहा है कि वह जन भाषा का प्रयोग करें, इसके लिये बाजार अर्थव्यवस्था के साथ साथ देश के सामाजिक आर्थिक हालातों को भी परखना होगा जो 1991 के बाद से लगातार हाशिये पर ढकेल दिये गये। और उस सवाल को भी नये सिरे से मथना होगा कि पत्रकारिता की भाषा सत्ता की भाषा होनी चाहिये या आम जन की भाषा । यह दोनो सवाल पत्रकारिता या मीडिया को लेकर
इसलिये मौजूं है क्योंकि दो दशक का वक्त हो चुका है जब देश में सरकारी खबरों से इतर दूरदर्शन पर ही निजी खबरो को जगह मिली। और बीते डेढ़ दशक से निजी न्यूज चैनल उसी तर्ज पर पनपे जैसे नवरत्न को बेचकर डिसन्वेस्टमेंट की थ्योरी देश में शुरु हुई । लेकिन पूंजी पर टिका बाजार भारतीय जनमानस के अनुकूल रहा नहीं। क्योंकि सामाजिक तौर पर महज बीस से पच्चीस करोड उपभोक्ताओ के लिये तो जेब और बाजार दोनो खुला लेकिन बाकियों के लिये हालात और दुविधापूर्ण होते चले गये। समाज में आर्थिक दूरियां बढ़ती चली गई । ध्यान दे तो देश में सत्ता परिवर्तन के लिये नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की उन्ही आर्थिक नीतियों पर वार किये जो सिर्फ उपभोक्ताओं को रिझा रहे थे । कमोवेश यही से पत्रकारिता और भाषा का सवाल भी खड़ा होता है । हिंग्लिश गायब होने लगी लेकिन पटरी पर लौटते हिन्दी पत्रकारों के सामने संकट भाषा को लेकर उभरा । हिन्दी का प्रयोग कैसे किस रुप में करना है और न्यूज चैनल के स्क्री पर अपनी महत्ता बरकरार रखनी है इसके लिये दो ही तरीके हो सकते थे । पहला कंटेंट और दूसरा भाषा को लेकर सामाजिक आर्थिक समझ। राजनेताओं की बहस में उलझते चैनलो का चेहरा हो या राजनेताओं के चेहरों के जरीये पत्रकारिता का मिजाज दोनो हालातों में पत्रकार या न्यूज एंकर के पास कोई धारदार शैली होनी चाहिये। यह तभी संभव है जब पत्रकार के सरोकार समाज के विभिन्न तबको से हो। क्योंकि दिल्ली और पटना का एक मिज़ाज हो नहीं सकता है
। ठीक उसी तरह जैसी कश्मीर के आतंक को छत्तीसगढ के माओवादियो के साथ जोड़ कर देखा नहीं जा सकता। इसकी और बारीकी को समझे तो पत्रकार अगर भाषा के पैनापन को नही समझेगी तो खबरों में राजनेता उसपर भारी दिखेगा। मसलन प्रधानमंत्री मोदी बिहार के “डीएनए” को लेकर नीतिश कुमार पर हमला करते है और नीतिश कुमार “जुमला बाबू” कहकर प्रधानमंत्री मोदी पर हमला करने से नहीं कतराते। अब सवाल है कि पत्रकारिता अगर डीएनए को खांटी बिहार की राजनीति के परिपेक्ष्य में ना समझ पाये और विज्ञान के नजरिये से टेलीविजन सेकिन पर व्याख्या करने लगे तो किसकी रुची जागेगी। और सियासत तेज होगी तो कई नये मुहावरे गढ़े जायेंगे क्योंकि राजनीति सत्त संघर्ष में भी अब हर राजनेता समझ रहा है कि उसे जन भाषा में ही संवाद बनाना होगा। नहीं तो उसका कहा ना मीडिया में चलेगा ना अखबारों तक पहुंच पायेगा। लंबे वक्त तक लालू प्रसाद यादव इसीलिये न्यूज चैनलों के डार्लिग ब्याय बने रहें, क्योंकि गांव-देहात के लोगों से अपने बोल या कहे भाषा के जरीये वह सीदा संवाद बनाते। जिसे सुनना एक नयापन भी था और शहरी अंग्रेजी मिजाज के उस आवरण को तोड़ना भी जो धीरे धीरे एकरसता ला रहा था । यहां समझना यह भी होगा कि न्यूज चैनलों के 85 फिसदी दर्शकों के लिये यह मायने नहीं रखता कि वह हिन्दी का चैनल देख रहे है या अंग्रेजी का । यानी एक ही खबर अगर ज्यादा रोचक तरीके से या फिर ज्यादा बेहतर तस्वीरो के साथ अंग्रेजी में भी चल रही है तो उसे
भी देखने में हर भाषा के दर्शको को परहेज नहीं होती ।
हालांकि इसके सामांनातर अखबार या हिन्दी पत्रिकाओं के सामने यह ,सवाल है कि न्यूज चैनल को किस्सागोई से चल सकते है । लच्छेदार भाषा से चल सकते है लेकिन अखबारों का क्या करें । जाहिर इस दायरे में फणीश्वरनाथ रेणु की पटना में आई बाढ़ पर छपी दिनमान की रिपोर्टिग को पढना चाहिये । इस लेखन को लेकर राजकमल प्रकाशन ने ऋणजल-धनजल नामक किताब भी छापी है । वैसे साहित्यकारों की पत्रकारिता का मिजाज धर्मयुग, दिनमान, रविवार , साप्ताहिक हिन्दुस्तान सरीखी पत्रिकाओ में 70-80 के दशक में देखी जा सकती है । जहां यह साफ लगता है कि साहित्य पत्रकारिता से कई कदम आगे चलती है । लेकिन उपभोक्ता
संस्कृति को दौर साहित्य की धार में भोथरापन आया और पत्रकारिता राजनीतिक सत्ता के मोहजाल में फंसी तो उसकी भाषा भी कही उपभोक्ता तो कहीं मुनाफा तो कही सत्ता की मलाई खाने वाली हो गई । और चापलूसी या पेट भरी भाषा के जरीये उस समाज में संवाद बनाना बेहद मुश्किल है जो बहुसंख्यक समाज लगातार विकल्प की तालाश में भटक रहा है । और संसदीय राजनीति तले हर बार लोकतंत्र के नाम पर छला भी जा रहा है ।
Friday, September 4, 2015
फेल होते राज्य में रास्ता शिक्षक ही दिखायेगा
पिछले दिनो छत्तीसगढ सरकार के आर्थिक और सांख्यिकी विभाग ने चपरासी की करी के लिये आवेदन निकला है। कुल पद थे 34 । न्यूनतम शिक्षा मांगी गई मैट्रिक पास । राज्य सरकार ने माना कि चपरासी के 34 पद है तो ज्यादा से ज्यादा दो से ढाई हजार आवेदन आयेंगे। क्योंकि छत्तीसगढ सरकार का दावा है
कि दूसरे राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ में बेहद कम बेरोजगारी है। दो बरस पहले जो आंकडे जारी किये गये उसके मुताबिक एक हजार में सिर्फ 14 लोग ही बेरोजगार हैं। खैर मामला चपरासी पद की नौकरी का था तो कोई शुल्क भी आवेदन के साथ मांगा नहीं गया। और लिखित परीक्षा की तारीख भी पहले से ही जारी कर दी गई। लेकिन जब आवेदनों की बाढ़ आ गई तो आर्थिक व सांख्यिकी विभाग के होश फाख्ता हो गये क्योंकि चपरासी के 34 पद के लिये आवेदन पहुंचे 75 हजार से ज्यादा। विभाग ने बताया कि कुल आवेदन 75786 हैं। जिसमें सिविल और मैकेनिकल इंजिनयर से लेकर स्नाकोत्तर और पीएचडी कर रहे छात्र भी शामिल हैं। तो आनन फानन में ना सिर्फ लिखित परीक्षा रदद् कर दी गई बल्कि राज्य के सीएम रमन सिंह को पत्र लिखकर अधिकारियो ने पूछा कि परीक्षा करवाने का बजट कहां से लाये और जब पीएचडी से लेकर इंजीनियरिंग की डिग्री ले चुके छात्र चपरासी की परीक्षा देंगे तो उसके पेपर को तैयार कौन करेगा और जांचेगा कौन। सीएम रमन सिंह का कोई जबाव तो अभी तक आर्थिक व सांख्यिकी विभाग के पास नहीं पहुंचा है लेकिन शिक्षा और रोजगार को लेकर की सवाल जरुर खड़े हो गये। किसी ने सवाल किये कि जब देश में कोई भी डिग्री चंद रुपयों में मिल जाती है तो इंजीनियर हो या पीएचडी छात्र उसके लिये शिक्षा का महत्व तो नौकरी के लिये ही है। किसी ने सवाल किया मौजूदा दौर में रोजगार को लेकर हर सरकार फेल है। क्योंकि देश में बेरोजगारों की तादाद लगातार बढ़ रही है।
सिर्फ रोजगार दफ्तर में दर्ज बेरोजगारों के आंकड़े एक करोड पच्चीस लाख से ज्यादा हो चुके है। और जो छात्र रोजगार दफ्तर तक नहीं पहुंचे उनकी तादाद तो तीन करोड़ से ज्यादा है। यानी देश सवा चार करोड से ज्यादा बोरजगार युवाओं के कंघे पर सवार है। और करीब इतनी ही तादाद में देश भर में छात्र पढाई भी कर रहे हैं, जो अगले पाँच बरस में मैट्रिक से लेकर डाक्टर इंजीनियर बनकर निकलेंगे। कोई पीएचडी करेगा तो
कोई बीएड। बीस लाख से ज्यादा छात्र उच्च शिक्षा हासिल करे चुके होंगे। 80 हजार से ज्यादा इंजीनियर भी बन चुके होंगे। यानी बेरोजगारी का दबाब कहीं ज्यादा देश पर होगा और खानापूर्ति की तर्ज पर दी जारही शिक्षा व्यवस्था कटघरे में कही ज्यादा व्यापक तरीके से उभरेगी। तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि राज्य व्यवस्था फेल हो चुकी है । जिस संसदीय चुनावी राजनीतिक सत्ता के आसरे देश चल रहा है वह न्यूनतम जरुरतों को भी पूरा कर पाने में सक्षम नही है तो फिर नया नजरिया होना क्या चाहिये। क्या राजनीतिक इच्छा शक्ति सत्ता के लिये बची है। यानी शिक्षा, स्वास्थय,पीने का पानी से लेकर दो जून की रोटी के लिये कोई रोजगार जो शिक्षा पर आधारित सरीखे सवाल देश में गौण हो चुके है या फिर इन सवालों को भी वही सत्ता हडप रही है जो राज्य व्यवस्था के तहत कमान अपने हाथ में लिये हुये है। सबके लिये शिक्षा का सवाल कोई आज का नहीं है । संविधान बनने से पहले पहली राष्ट्रीय सरकार के शपथ लेते वक्त नेहरु ने भी सबके लिये शिक्षा को लक्ष्य बनाया था। जाहिर है यह सवाल और लक्ष्य कमोवेश हर न्यूनतम जरुरत के साथ बीते हर लोकसभा में हर सरकार के वक्त गूंजे। लेकिन शिक्षा कब कैसे सर्टिफिकेट और डिग्री में बदल गई। कैसे सर्टिफिकेट और डिग्री लेना
और देना अपने आप में एक ऐसा धंधा बन गया जहा हर बरस इनकी खरीद-फरोख्त से करीब तीन लाख छात्र घर बैठे उच्च शिक्षा पाने लगे। डिग्री मिलने लगी। और इसी आधार पर राज्य नौकरी भी देने लगे । यानी रोजगार भत्ता रोजगार देकर शिक्षा को भ्र,ट्र बनाकर नयी व्यवस्था खुद राज्य ने ही खड़ी कर दी। चूंकि
शिक्षक बनने के लिये बीएड की पढ़ाई जरुरी है तो यह जरुरत डिग्री के कागज में सिमट गई। साठ हजार में बीएड की डिग्री अगर मिल जाये और उस डिग्री के आसरे अगर कोई राज्य शिक्षक की नौकरी देकर छह हजार के वेतन देने लगे। तो
पढाने-पढाने की जरुरत है कहा। लेकिन सवाल सिस्टम के फेल होते अंधेरे का नहीं बल्कि सवाल तो अंधेरे को दूर करने का होना चाहिये। तो रास्ता है क्या। क्योंकि मौजूदा वक्त में यह तो साफ हो चला है कि राज्य किसी भी क्षेत्र में अपनी पहल अडंगा डालने की ही ज्यादा करता है। यानी एक सिस्टम
ऐसा बना हुआ है जिसमें जिसके पास राजनीतिक सत्ता होगी उसकी सत्ता में बने रहने की जरुरत के हिसाब से ही समूचा तंत्र चलेगा। यानी संविधान का हर पाया सत्ताधारी के लिये अनुकूल रास्ता बनाने की दिशा में ही काम करते हैं । और असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि जो पारंपरिक समझ राज्य व्यवस्था को
लेकर रही है क्या उसे बदलने का वक्त गया है। क्यकि सिर्फ शिक्षा का ही सवाल लें तो शिक्षा माफिया के दौर में रास्ता बनायेगा कौन। नौकशाह या राजनेता या कारपोरेट से तो आस जग नहीं सकती है। जाहिर है कोई भी शिक्षक की तरफ ही इस आस से देखेगा कि रास्ता वहीं दिखायेगा। लेकिन शिक्षक की
भूमिका अब होनी क्या चाहिये। क्लासरुम में छात्रो को ज्ञान देना या ज्ञान देने के तरीके को समाज के सरोकार के साथ कुछ इस तरह जोड़ना जिससे समाज की जरुरत खुद ब खुद रास्ता बनाते चले जाये। हो सकता है देश में अपने अपने स्तर पर की लोग इस काम में लगे हो। लेकिन सवाल छत्तीसगढ़ से
शुरु हआ जो आदिवासी बहुल इलाका है। तो छत्तीसगढ से सटे आदिवासी बहुल ओडिसा की राजधानी भुवनेशवर में चल रहे “ किस “ यानी कलिंगा इस्टीट्यूट आफ सोशल सांइस के ढांचे को दिखना समझना चाहिये । जहां विदेशी छात्रों के लिये एक अंतरराष्ट्रीय स्कूल भी है और आदिवासी छात्रो के लिये मुफ्त
शिक्षा भी। और यहा छत्तीसगढ ही नहीं बल्कि झारखंड,बिहार,मध्यप्रदेश और बंगाल के करीब छह से सात हजार आदिवासी छात्र पढ़ाई कर रहे है। साथ ही तकरीबन 15 से 18 हजार आदिवासी बच्चे ओडिसा के है। तो कल्पना कीजिये एक साथ एक ही कैपस में पच्चीस हजार आदिवासी बच्चे ना सिर्फ मुफ्त शिक्षा पा
रहे है बल्कि कैपस में मुफ्त रहने की व्यवस्था है और खाने की भी मुफ्त ही व्यवस्था है। अब जरा सोचिये कि क्या कोई राज्य सरकार ऐसा ब्लू प्रिट बना पायेगी जहा जीरो लाभ के बजट से एक तरफ “ किट“ यानी कलिंगा इस्टीट्यूट आफ इंडस्ट्रीयल टेक्नालाजी चले वही दूसरी तरफ किट से जो लाभ हो उससे मुफ्त
शिक्षा,रहना,खाने के लिये “किस” चले । यानी राज्य सरकार जब पूरी तरफ मुनाफे की इस थ्योरी पर टिकी है कि किसी भी संस्थान को चलाने के लिये पूंजी चाहिये। और पूंजी बिना कारपोरेट के दखल के मिल नहीं सकती वैसे हालात में भुवनेशवर में शिक्षा का एक ऐसा मॉडल अच्चयूत सामंता नामक शख्स
ने खड़ा कर दिया जिसकी इच्छा सिर्फ इतनी ही है कि हर बच्चे को शिक्षा मिले और उच्च शिक्षा का स्तर ऐसा हो जिसे अर्जित करने के बाद छात्र अपने आप में एक ताकत बन उभरे। दरअसल फेल होते राज्य के बीच अच्चयूत सामंता का शिक्षा का माडल सफल कैसे हो जाता है और राज्य इसके बावजूद भी क्यों जाग
नहीं पाते है। और जब चपरासी के 34 पद के लिये इंजिनयर और पीएचडी छात्रों की फौज आवेदन करती है जिनकी तादाद 75 हजार से ज्यादा होती है तो समझना होगा कि जो ढांचा शिक्षा के नाम पर राज्य ने अपनाया है, वह शिक्षा है या
शिक्षा के नाम पर एक ऐसा नैक्सेस है जिसके दायरे में हर कोई तबतक फंसेगा जबतक राज्य की निर्भरता को तोड़ेगा नहीं। यह सवाल इसलिये क्य़ोकि अच्चयूत सामंता को स्कूल कालेज के लिये जमीन राज्य सरकार ने नहीं दी। 1991-93 में सिर्फ पांच छात्रो से 125 छात्रों तक को दो कमरों के घर में
पढाते हुये ही इस शख्स ने महसूस कियाकि कोई तबका शिक्षा पाने के लिये कोई भी किमत दे सकता है और एक तबका शिक्षा पाने के लिये हर श्रम को करने के लिये तैयार है सिवाय कुछ भी पैसे देने पाने के। तो नायाब प्रयोग का असल चेहरा यह भी है कि आईआईटी की रेंकिंग के बाद भुवनेशवर के “ किट “ की
पहचान तमाम उत्तर-पूर्व राज्यो के छात्रो के बीच है और “ किस “ की पहचान उन तमाम आदिवासी इलाको में है जहा नक्सलवाद का शिंकजा है लेकिन आलम यह है कि आदिवासी अगर नक्सली है तो वह भी किसी तरह अपने बच्चे को पढने के लिये “ किस “ भेंजना चाहता है । जिससे उसका बच्चा शिक्षा पाने के बाद
अपनी समझ से नक्सल प्रभावित हालात को भी समझ सके और हक के लडाई के लिये मुख्यधारा में शामिल होकर नये नजरिये से आदिवासियों को भी राह दिखा सके । यानी जिस दिशा में छत्तीसगढ के सीएम ना सोच सके वह अपने शिक्षक होने के सरोकार से अच्चयूत सामंता कर रहे है । और शिक्षा का कौन सा माडल किस रुप में अपनाया जाना
चाहिये इसे लेकर जब दिल्ली में बैठी सरकारे फेल साबित हो रही है तब कोई शिक्षक ही कैसे रास्ता दिखा सकता है इसका जीता जागता प्रमाण है भुवनेशवर का “ किस “ मॉडल । जिसे महीने भर पहले संयुक्त राष्ट्र ने भी मान्यता दी है । लेकिन दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में इसे कोई जानता नहीं सच यह भी
है ।
कि दूसरे राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ में बेहद कम बेरोजगारी है। दो बरस पहले जो आंकडे जारी किये गये उसके मुताबिक एक हजार में सिर्फ 14 लोग ही बेरोजगार हैं। खैर मामला चपरासी पद की नौकरी का था तो कोई शुल्क भी आवेदन के साथ मांगा नहीं गया। और लिखित परीक्षा की तारीख भी पहले से ही जारी कर दी गई। लेकिन जब आवेदनों की बाढ़ आ गई तो आर्थिक व सांख्यिकी विभाग के होश फाख्ता हो गये क्योंकि चपरासी के 34 पद के लिये आवेदन पहुंचे 75 हजार से ज्यादा। विभाग ने बताया कि कुल आवेदन 75786 हैं। जिसमें सिविल और मैकेनिकल इंजिनयर से लेकर स्नाकोत्तर और पीएचडी कर रहे छात्र भी शामिल हैं। तो आनन फानन में ना सिर्फ लिखित परीक्षा रदद् कर दी गई बल्कि राज्य के सीएम रमन सिंह को पत्र लिखकर अधिकारियो ने पूछा कि परीक्षा करवाने का बजट कहां से लाये और जब पीएचडी से लेकर इंजीनियरिंग की डिग्री ले चुके छात्र चपरासी की परीक्षा देंगे तो उसके पेपर को तैयार कौन करेगा और जांचेगा कौन। सीएम रमन सिंह का कोई जबाव तो अभी तक आर्थिक व सांख्यिकी विभाग के पास नहीं पहुंचा है लेकिन शिक्षा और रोजगार को लेकर की सवाल जरुर खड़े हो गये। किसी ने सवाल किये कि जब देश में कोई भी डिग्री चंद रुपयों में मिल जाती है तो इंजीनियर हो या पीएचडी छात्र उसके लिये शिक्षा का महत्व तो नौकरी के लिये ही है। किसी ने सवाल किया मौजूदा दौर में रोजगार को लेकर हर सरकार फेल है। क्योंकि देश में बेरोजगारों की तादाद लगातार बढ़ रही है।
सिर्फ रोजगार दफ्तर में दर्ज बेरोजगारों के आंकड़े एक करोड पच्चीस लाख से ज्यादा हो चुके है। और जो छात्र रोजगार दफ्तर तक नहीं पहुंचे उनकी तादाद तो तीन करोड़ से ज्यादा है। यानी देश सवा चार करोड से ज्यादा बोरजगार युवाओं के कंघे पर सवार है। और करीब इतनी ही तादाद में देश भर में छात्र पढाई भी कर रहे हैं, जो अगले पाँच बरस में मैट्रिक से लेकर डाक्टर इंजीनियर बनकर निकलेंगे। कोई पीएचडी करेगा तो
कोई बीएड। बीस लाख से ज्यादा छात्र उच्च शिक्षा हासिल करे चुके होंगे। 80 हजार से ज्यादा इंजीनियर भी बन चुके होंगे। यानी बेरोजगारी का दबाब कहीं ज्यादा देश पर होगा और खानापूर्ति की तर्ज पर दी जारही शिक्षा व्यवस्था कटघरे में कही ज्यादा व्यापक तरीके से उभरेगी। तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि राज्य व्यवस्था फेल हो चुकी है । जिस संसदीय चुनावी राजनीतिक सत्ता के आसरे देश चल रहा है वह न्यूनतम जरुरतों को भी पूरा कर पाने में सक्षम नही है तो फिर नया नजरिया होना क्या चाहिये। क्या राजनीतिक इच्छा शक्ति सत्ता के लिये बची है। यानी शिक्षा, स्वास्थय,पीने का पानी से लेकर दो जून की रोटी के लिये कोई रोजगार जो शिक्षा पर आधारित सरीखे सवाल देश में गौण हो चुके है या फिर इन सवालों को भी वही सत्ता हडप रही है जो राज्य व्यवस्था के तहत कमान अपने हाथ में लिये हुये है। सबके लिये शिक्षा का सवाल कोई आज का नहीं है । संविधान बनने से पहले पहली राष्ट्रीय सरकार के शपथ लेते वक्त नेहरु ने भी सबके लिये शिक्षा को लक्ष्य बनाया था। जाहिर है यह सवाल और लक्ष्य कमोवेश हर न्यूनतम जरुरत के साथ बीते हर लोकसभा में हर सरकार के वक्त गूंजे। लेकिन शिक्षा कब कैसे सर्टिफिकेट और डिग्री में बदल गई। कैसे सर्टिफिकेट और डिग्री लेना
और देना अपने आप में एक ऐसा धंधा बन गया जहा हर बरस इनकी खरीद-फरोख्त से करीब तीन लाख छात्र घर बैठे उच्च शिक्षा पाने लगे। डिग्री मिलने लगी। और इसी आधार पर राज्य नौकरी भी देने लगे । यानी रोजगार भत्ता रोजगार देकर शिक्षा को भ्र,ट्र बनाकर नयी व्यवस्था खुद राज्य ने ही खड़ी कर दी। चूंकि
शिक्षक बनने के लिये बीएड की पढ़ाई जरुरी है तो यह जरुरत डिग्री के कागज में सिमट गई। साठ हजार में बीएड की डिग्री अगर मिल जाये और उस डिग्री के आसरे अगर कोई राज्य शिक्षक की नौकरी देकर छह हजार के वेतन देने लगे। तो
पढाने-पढाने की जरुरत है कहा। लेकिन सवाल सिस्टम के फेल होते अंधेरे का नहीं बल्कि सवाल तो अंधेरे को दूर करने का होना चाहिये। तो रास्ता है क्या। क्योंकि मौजूदा वक्त में यह तो साफ हो चला है कि राज्य किसी भी क्षेत्र में अपनी पहल अडंगा डालने की ही ज्यादा करता है। यानी एक सिस्टम
ऐसा बना हुआ है जिसमें जिसके पास राजनीतिक सत्ता होगी उसकी सत्ता में बने रहने की जरुरत के हिसाब से ही समूचा तंत्र चलेगा। यानी संविधान का हर पाया सत्ताधारी के लिये अनुकूल रास्ता बनाने की दिशा में ही काम करते हैं । और असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि जो पारंपरिक समझ राज्य व्यवस्था को
लेकर रही है क्या उसे बदलने का वक्त गया है। क्यकि सिर्फ शिक्षा का ही सवाल लें तो शिक्षा माफिया के दौर में रास्ता बनायेगा कौन। नौकशाह या राजनेता या कारपोरेट से तो आस जग नहीं सकती है। जाहिर है कोई भी शिक्षक की तरफ ही इस आस से देखेगा कि रास्ता वहीं दिखायेगा। लेकिन शिक्षक की
भूमिका अब होनी क्या चाहिये। क्लासरुम में छात्रो को ज्ञान देना या ज्ञान देने के तरीके को समाज के सरोकार के साथ कुछ इस तरह जोड़ना जिससे समाज की जरुरत खुद ब खुद रास्ता बनाते चले जाये। हो सकता है देश में अपने अपने स्तर पर की लोग इस काम में लगे हो। लेकिन सवाल छत्तीसगढ़ से
शुरु हआ जो आदिवासी बहुल इलाका है। तो छत्तीसगढ से सटे आदिवासी बहुल ओडिसा की राजधानी भुवनेशवर में चल रहे “ किस “ यानी कलिंगा इस्टीट्यूट आफ सोशल सांइस के ढांचे को दिखना समझना चाहिये । जहां विदेशी छात्रों के लिये एक अंतरराष्ट्रीय स्कूल भी है और आदिवासी छात्रो के लिये मुफ्त
शिक्षा भी। और यहा छत्तीसगढ ही नहीं बल्कि झारखंड,बिहार,मध्यप्रदेश और बंगाल के करीब छह से सात हजार आदिवासी छात्र पढ़ाई कर रहे है। साथ ही तकरीबन 15 से 18 हजार आदिवासी बच्चे ओडिसा के है। तो कल्पना कीजिये एक साथ एक ही कैपस में पच्चीस हजार आदिवासी बच्चे ना सिर्फ मुफ्त शिक्षा पा
रहे है बल्कि कैपस में मुफ्त रहने की व्यवस्था है और खाने की भी मुफ्त ही व्यवस्था है। अब जरा सोचिये कि क्या कोई राज्य सरकार ऐसा ब्लू प्रिट बना पायेगी जहा जीरो लाभ के बजट से एक तरफ “ किट“ यानी कलिंगा इस्टीट्यूट आफ इंडस्ट्रीयल टेक्नालाजी चले वही दूसरी तरफ किट से जो लाभ हो उससे मुफ्त
शिक्षा,रहना,खाने के लिये “किस” चले । यानी राज्य सरकार जब पूरी तरफ मुनाफे की इस थ्योरी पर टिकी है कि किसी भी संस्थान को चलाने के लिये पूंजी चाहिये। और पूंजी बिना कारपोरेट के दखल के मिल नहीं सकती वैसे हालात में भुवनेशवर में शिक्षा का एक ऐसा मॉडल अच्चयूत सामंता नामक शख्स
ने खड़ा कर दिया जिसकी इच्छा सिर्फ इतनी ही है कि हर बच्चे को शिक्षा मिले और उच्च शिक्षा का स्तर ऐसा हो जिसे अर्जित करने के बाद छात्र अपने आप में एक ताकत बन उभरे। दरअसल फेल होते राज्य के बीच अच्चयूत सामंता का शिक्षा का माडल सफल कैसे हो जाता है और राज्य इसके बावजूद भी क्यों जाग
नहीं पाते है। और जब चपरासी के 34 पद के लिये इंजिनयर और पीएचडी छात्रों की फौज आवेदन करती है जिनकी तादाद 75 हजार से ज्यादा होती है तो समझना होगा कि जो ढांचा शिक्षा के नाम पर राज्य ने अपनाया है, वह शिक्षा है या
शिक्षा के नाम पर एक ऐसा नैक्सेस है जिसके दायरे में हर कोई तबतक फंसेगा जबतक राज्य की निर्भरता को तोड़ेगा नहीं। यह सवाल इसलिये क्य़ोकि अच्चयूत सामंता को स्कूल कालेज के लिये जमीन राज्य सरकार ने नहीं दी। 1991-93 में सिर्फ पांच छात्रो से 125 छात्रों तक को दो कमरों के घर में
पढाते हुये ही इस शख्स ने महसूस कियाकि कोई तबका शिक्षा पाने के लिये कोई भी किमत दे सकता है और एक तबका शिक्षा पाने के लिये हर श्रम को करने के लिये तैयार है सिवाय कुछ भी पैसे देने पाने के। तो नायाब प्रयोग का असल चेहरा यह भी है कि आईआईटी की रेंकिंग के बाद भुवनेशवर के “ किट “ की
पहचान तमाम उत्तर-पूर्व राज्यो के छात्रो के बीच है और “ किस “ की पहचान उन तमाम आदिवासी इलाको में है जहा नक्सलवाद का शिंकजा है लेकिन आलम यह है कि आदिवासी अगर नक्सली है तो वह भी किसी तरह अपने बच्चे को पढने के लिये “ किस “ भेंजना चाहता है । जिससे उसका बच्चा शिक्षा पाने के बाद
अपनी समझ से नक्सल प्रभावित हालात को भी समझ सके और हक के लडाई के लिये मुख्यधारा में शामिल होकर नये नजरिये से आदिवासियों को भी राह दिखा सके । यानी जिस दिशा में छत्तीसगढ के सीएम ना सोच सके वह अपने शिक्षक होने के सरोकार से अच्चयूत सामंता कर रहे है । और शिक्षा का कौन सा माडल किस रुप में अपनाया जाना
चाहिये इसे लेकर जब दिल्ली में बैठी सरकारे फेल साबित हो रही है तब कोई शिक्षक ही कैसे रास्ता दिखा सकता है इसका जीता जागता प्रमाण है भुवनेशवर का “ किस “ मॉडल । जिसे महीने भर पहले संयुक्त राष्ट्र ने भी मान्यता दी है । लेकिन दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में इसे कोई जानता नहीं सच यह भी
है ।
क्या आपने ई-बुक "एक साल कई सवाल" पढ़ी?
यह किताब आपके हाथ में नहीं आपकी आंखों के सामने है। इस किताब को ना तो
खरीदने की जरुरत है ना ही कही ऑर्डर देकर मंगाने की। आपके मोबाइल, आपके
कम्यूटर पर मौजूद यह किताब आपके घर के भीतर की कोई जगह भी नहीं भरेगी।
यह सिर्फ आपके दिमाग को मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक माहौल से रुबरु कराते
हुये यह सोचने को मजबूर करेगी कि आपकी भागेदारी समाज में है कहां और
राजनीतिक सत्ता का मिजाज देश में हो क्या चला है। खासकर जब 2014 के
लोकसभा चुनाव में देश ने ऐसी अंगडाई ली, जिससे लगा पारंपरिक सियासत के तौर
तरीके अब बदल जायेंगे क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने मुद्दों को विचारों में
पिरोकर चुनावी प्रचार में एक अलख जगायी। तो बरस भर में बदला क्या गया? क्या
सत्ता ने फिर साबित किया कि बदलाव की बयार सत्ता पाने के लिये होती है।
Tuesday, September 1, 2015
संघ-सरकार की बैठक में कौन मोदी को सच बतायेगा?
सवा बरस में पहला मौका होगा जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संघ परिवार को सरकार की नीतियों के बारे में समझायेंगे, जिसे लेकर स्वयं सेवकों की एक जमात रुठी हुई है। और रुठी हुई यह जमात सिर्फ सरकार के कामकाज से ही नहीं बल्कि अपने उन वरिष्ठ स्वसंयेवकों से भी गुस्से में है जो मोदी सरकार की नीतियों पर खामोशी बरतकर संघ परिवार के भीतर यह संदेश दे रही है कि उनके सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं है। तो 2 सितबंर की बैठक का मतलब होगा क्या । क्या पहली बार प्रधानमंत्री मोदी संघ परिवार को यह समझायेंगे कि सरकार की नीतियों के प्रचार प्रसार के लिये स्वयंसेवकों को भी जुटना होगा या फिर संघ के चालीस से ज्यादा संगठनो के प्रतिनिधि पहली बार सरकार को बतायेंगे कि सरकारी नीतियों उस जनमानस के खिलाफ जा रही है जिसके बीच वह काम करते हैं । ऐसे में रास्ता बीच का निकालना होगा। और मोदी कहेंगे कि बीच का रास्ता तो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौर में निकालने की कोशिश हुई थी लेकिन उसके बाद ना तो बीजेपी के हाथ में कुछ बचा औरल संघ की हथेली भी ली ही रही । यूं सामान्य तौर पर स्वयंसेवकों में तल्खी होती नहीं है और नीतियों को लेकर कोई निर्णय इसलिये भी नहीं जाते जिससे लगे कि सरकार या संघ परिवार के सामने कोई अल्टीमेटम है। लेकिन सच यह भी है कि पहली बार प्रधानमंत्री मोदी भी इस सच को समझ रहे है कि विकास का जो खाका उन्होंने भूमि अधिग्रहण के जरिये खींचना चाहा उसपर संघ परिवार ने भी कभी कोई सहमति जतायी नहीं। यानी चाहे अनचाहे लगातार विकासपुरुष की जो छवि मोदी अपने लिये गढकर हिन्दुत्व के एजेंडे को हाशिये पर ले जाना चाहते रहे उसमें वह सफल हो नहीं पाये।
क्योंकि विकास की थ्योरी दुबारा 2013 के भूमि अधिग्रहण की उस फिलासफी तले आकर खडी हो गयी जहा दुनिया भर के निवेशक यह सवाल उठाये कि भारत में निवेश के रास्ते अभी भी किसानमजदूर के पेट की जरुरतो पर आ टिके है। जाहिर है भारत में आर्थिक सुधार का जो चेहरा मोदी लगातार दुनिया के सामने परोस रहे है वह विपक्ष की राजनीति तो दूर स्वयंसेवकों के सरोकार से ही टकरा कर टूटने लगता है। फिर भी मोदी का कोई विकल्प संघ परिवार के सामने नहीं है तो रास्ता होगा क्या और बनेगा क्या। यह सवाल अगले तीन दिनों की बैठक में कैसे उभरेगा इसी पर हर किसी की नजर है क्योंकि जिस तर्ज पर मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक हालात बन रहे है उसमें एक बड़ा सवाल यह भी हो चला है कि संघ परिवार की भूमिका किसी भी राजनीतिक सत्ता को लेकर होनी क्या चाहिये । संघ को सामाजिक शुद्दिकरण की तरफ बढ़ना चाहिये या फिर सत्ता
की मदद से अपने सतही विस्तार को देखना चाहिये। मसलन दिल्ली में हिन्दुत्व के प्रचार प्रसार के लिये सरकार कोई इमारत बनवा दें। पैसा मुहैया करा दे। देश भर में शिशु भारती सेलेकर संघ के तमाम संगठनों के लिये ,सरकारी मदद का रास्ता खुलने लगे । सरकार के भीतर स्वयंसेवकों के पर राम राम कहने वालो की भर्ती होने लगे। हिन्दू राष्ट्र को लेकर साध्वी से साधु तक के बयान समाजिक तानेबाने में थिरकन पैदा करने और भगवाधारी यह महसूस करने लगे कि उसका कहा किसी तर्क का मोहताज नहीं क्योंकि दिल्ली में तो उसकी अपनी सरकार है। इन हालातों में संघ के सतही विस्तार को कौन रोक सकता है। क्योंकि स्वयंसेवक क तमगा अगर हर रोजगार पर भारी पड़े। दो जून की रोटी मुहैया कराने से लेकर वैचारिकी महत्वकांक्षा पूरी करता हो। और संघ परिवार इसी से खुश हो जाये तो पिर मोदी की सत्ता को कॉरपोरेट नीतियों को लेकर विरोध करने वाले भारतीय मजदूर संघ हो या किसान संघ या फिर स्वदेशी जागरण मंच के स्वयंसेवक हो तो उनका कुछ भी
बोलना क्या मायने रखता है।
इसी प्रक्रिया को राजनीतिक तौर पर समझे तो विरोध के बावजूद संतुष्ठी का भाव अगर बुजुर्ग राजनीतिक स्वयंसेवक लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को हाशिये पर ढकेल ठहका लगाने वाला माहौलबनाता हो तो आने वाले वक्त की आहट क्या कोई संघ-सरकार की बैठक में सुन पायेगा कि विचार खत्म होते ही, विरोध के स्वर थमते ही, थोथे विस्तार को ही सच मानने पर तब क्या होगा जब सत्ता नहीं रहेगी। यह वाकई मुश्किल है कि संघ सरकार की बैठक में कोई हेडगेवार की तर्ज पर खड़ा होकर कह दे कि राजनीतिक सत्ता से सामाजिक जीवन में बदलाव नहीं आ सकता है इसके लिये सत्ता के सामानांतर सामाजिक सरोकार की सत्ता आरएसएस बनायेगी। तो क्या संघ के मुखिया मोहन भागवत उस अंतर्द्न्द में फंसे हुये है जहां उन्हें मोदी की सत्ता के बगैर संघ का विस्तार नजर रहा है या पिर सत्ता अगर स्वयंसेवक की ना रहे तो हिन्दु आतंक के नाम पर क दूसरी सत्ता कटघरे में खड़ा ना कर दें। और इसी का लाभ प्रधानमंत्री मोदी को भी मिल रहा है जो वह बेखौफ आर्थिक सुधार की एक ऐसी लकीर देश खिंचना चाह रहे हैं, जहां पूंजी विदेशी हो। तकनीक विदेशी हो। उत्पादन के पीछे स्किल इंडिया खड़ा हो। यानी देश की पूंजी श्रम और देसी तकनीक-शिक्षा कोई मायने न रखे । देसी आधरभूत ढांचे को मजबूती देने के बदले दुनिया के बाजार के अनुकूल खुद को बनाने की होड में उपभोक्ता समाज के लिये देश को ही बदल देने की ठान ली जाये। और संघ परिवार सुविधाओ की पोटली उठाये हर चुनाव में सक्रिय हो जाये। जाहिर है यह विचार भी संघ परिवार के भीतर पहली बार यह सवाल खड़ा
कर रहे है कि आने वाले वक्त में आरएसएस की भूमिका सिमट जायेगी। और क्या पहली बार सरकार को भी लग रहा है कि सामाजिक तौर पर अगर संघ के सरोकार सरकार की नीतियों के साथ खडे नहीं होते है तो उसकी सोच भी ढहढहा जायेगी। यानी पहली बार मोदी सरकार की जरुरत और संघ परिवार के रास्ते को एक साथ लेकर चला कैसे जाये यही सवाल बड़ा हो चला है। असर इसी का है दोनो ही अपने कहे बोल को चबाने से नहीं चूक रहे । विकास का अनूठा पाठ मोदी सरकार के जरीये भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर जो पढाया गया उसे संघ के भीतर के सवालो तले वापस ले लिया गया । और संघ के विस्तार की जरुरत तले मोदी सरकार की कारपोरेट नीतियो पर सहमति के साथ दत्तोपंत ठेंगडी के कामो का गुणगान भी किया गया तो संघ की ही संगठनों ने यह आवाज उठा दी कि दो अलग रास्ते कैसे एक सकते हैं । और शायद पहली बार संघ के मुखिया को भी समझ में आया कि मोदी की नीतियों के साथ खड़ा होते हुये अगर दत्तोपंत ठेंगडी के विचारों से स्वयंसेवकों को उत्साहित किया जाये तो सवाल स्वयंसेवक ही उठायेंगे। फिर मोदी भी इस सच को समझ रहे है कि अगर संघ उन्हीं के भरोसे रह गया या सत्ता पर ही आश्रित रह गया तो अभी तो गुजरात में पाटीदार समाज ने उन्हें चुनौती दी है आने वाले में कई समाज खड़े हो सकते है क्योंकि भारतीय समाज में राजनीतिक सत्ता के
सामानांतर सामाजिक सत्ता भी चाहिये जो शाक अब्जार्वर का काम करती है । और बीजेपी हार कर बार बार सत्ता में इसीलिये आती है क्योंकि उसके पास संघ परिवार है।
क्योंकि विकास की थ्योरी दुबारा 2013 के भूमि अधिग्रहण की उस फिलासफी तले आकर खडी हो गयी जहा दुनिया भर के निवेशक यह सवाल उठाये कि भारत में निवेश के रास्ते अभी भी किसानमजदूर के पेट की जरुरतो पर आ टिके है। जाहिर है भारत में आर्थिक सुधार का जो चेहरा मोदी लगातार दुनिया के सामने परोस रहे है वह विपक्ष की राजनीति तो दूर स्वयंसेवकों के सरोकार से ही टकरा कर टूटने लगता है। फिर भी मोदी का कोई विकल्प संघ परिवार के सामने नहीं है तो रास्ता होगा क्या और बनेगा क्या। यह सवाल अगले तीन दिनों की बैठक में कैसे उभरेगा इसी पर हर किसी की नजर है क्योंकि जिस तर्ज पर मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक हालात बन रहे है उसमें एक बड़ा सवाल यह भी हो चला है कि संघ परिवार की भूमिका किसी भी राजनीतिक सत्ता को लेकर होनी क्या चाहिये । संघ को सामाजिक शुद्दिकरण की तरफ बढ़ना चाहिये या फिर सत्ता
की मदद से अपने सतही विस्तार को देखना चाहिये। मसलन दिल्ली में हिन्दुत्व के प्रचार प्रसार के लिये सरकार कोई इमारत बनवा दें। पैसा मुहैया करा दे। देश भर में शिशु भारती सेलेकर संघ के तमाम संगठनों के लिये ,सरकारी मदद का रास्ता खुलने लगे । सरकार के भीतर स्वयंसेवकों के पर राम राम कहने वालो की भर्ती होने लगे। हिन्दू राष्ट्र को लेकर साध्वी से साधु तक के बयान समाजिक तानेबाने में थिरकन पैदा करने और भगवाधारी यह महसूस करने लगे कि उसका कहा किसी तर्क का मोहताज नहीं क्योंकि दिल्ली में तो उसकी अपनी सरकार है। इन हालातों में संघ के सतही विस्तार को कौन रोक सकता है। क्योंकि स्वयंसेवक क तमगा अगर हर रोजगार पर भारी पड़े। दो जून की रोटी मुहैया कराने से लेकर वैचारिकी महत्वकांक्षा पूरी करता हो। और संघ परिवार इसी से खुश हो जाये तो पिर मोदी की सत्ता को कॉरपोरेट नीतियों को लेकर विरोध करने वाले भारतीय मजदूर संघ हो या किसान संघ या फिर स्वदेशी जागरण मंच के स्वयंसेवक हो तो उनका कुछ भी
बोलना क्या मायने रखता है।
इसी प्रक्रिया को राजनीतिक तौर पर समझे तो विरोध के बावजूद संतुष्ठी का भाव अगर बुजुर्ग राजनीतिक स्वयंसेवक लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को हाशिये पर ढकेल ठहका लगाने वाला माहौलबनाता हो तो आने वाले वक्त की आहट क्या कोई संघ-सरकार की बैठक में सुन पायेगा कि विचार खत्म होते ही, विरोध के स्वर थमते ही, थोथे विस्तार को ही सच मानने पर तब क्या होगा जब सत्ता नहीं रहेगी। यह वाकई मुश्किल है कि संघ सरकार की बैठक में कोई हेडगेवार की तर्ज पर खड़ा होकर कह दे कि राजनीतिक सत्ता से सामाजिक जीवन में बदलाव नहीं आ सकता है इसके लिये सत्ता के सामानांतर सामाजिक सरोकार की सत्ता आरएसएस बनायेगी। तो क्या संघ के मुखिया मोहन भागवत उस अंतर्द्न्द में फंसे हुये है जहां उन्हें मोदी की सत्ता के बगैर संघ का विस्तार नजर रहा है या पिर सत्ता अगर स्वयंसेवक की ना रहे तो हिन्दु आतंक के नाम पर क दूसरी सत्ता कटघरे में खड़ा ना कर दें। और इसी का लाभ प्रधानमंत्री मोदी को भी मिल रहा है जो वह बेखौफ आर्थिक सुधार की एक ऐसी लकीर देश खिंचना चाह रहे हैं, जहां पूंजी विदेशी हो। तकनीक विदेशी हो। उत्पादन के पीछे स्किल इंडिया खड़ा हो। यानी देश की पूंजी श्रम और देसी तकनीक-शिक्षा कोई मायने न रखे । देसी आधरभूत ढांचे को मजबूती देने के बदले दुनिया के बाजार के अनुकूल खुद को बनाने की होड में उपभोक्ता समाज के लिये देश को ही बदल देने की ठान ली जाये। और संघ परिवार सुविधाओ की पोटली उठाये हर चुनाव में सक्रिय हो जाये। जाहिर है यह विचार भी संघ परिवार के भीतर पहली बार यह सवाल खड़ा
कर रहे है कि आने वाले वक्त में आरएसएस की भूमिका सिमट जायेगी। और क्या पहली बार सरकार को भी लग रहा है कि सामाजिक तौर पर अगर संघ के सरोकार सरकार की नीतियों के साथ खडे नहीं होते है तो उसकी सोच भी ढहढहा जायेगी। यानी पहली बार मोदी सरकार की जरुरत और संघ परिवार के रास्ते को एक साथ लेकर चला कैसे जाये यही सवाल बड़ा हो चला है। असर इसी का है दोनो ही अपने कहे बोल को चबाने से नहीं चूक रहे । विकास का अनूठा पाठ मोदी सरकार के जरीये भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर जो पढाया गया उसे संघ के भीतर के सवालो तले वापस ले लिया गया । और संघ के विस्तार की जरुरत तले मोदी सरकार की कारपोरेट नीतियो पर सहमति के साथ दत्तोपंत ठेंगडी के कामो का गुणगान भी किया गया तो संघ की ही संगठनों ने यह आवाज उठा दी कि दो अलग रास्ते कैसे एक सकते हैं । और शायद पहली बार संघ के मुखिया को भी समझ में आया कि मोदी की नीतियों के साथ खड़ा होते हुये अगर दत्तोपंत ठेंगडी के विचारों से स्वयंसेवकों को उत्साहित किया जाये तो सवाल स्वयंसेवक ही उठायेंगे। फिर मोदी भी इस सच को समझ रहे है कि अगर संघ उन्हीं के भरोसे रह गया या सत्ता पर ही आश्रित रह गया तो अभी तो गुजरात में पाटीदार समाज ने उन्हें चुनौती दी है आने वाले में कई समाज खड़े हो सकते है क्योंकि भारतीय समाज में राजनीतिक सत्ता के
सामानांतर सामाजिक सत्ता भी चाहिये जो शाक अब्जार्वर का काम करती है । और बीजेपी हार कर बार बार सत्ता में इसीलिये आती है क्योंकि उसके पास संघ परिवार है।