हुगली नदी किनारे तीस मील की लंबाई में बसा हुआ महानगर कोलकत्ता। खौफ, दशहत अंधेरे और उत्तेजना का शहर । यह शहर द्वंद का है और अनोखे टकराव भरे तर्जुबे का है । यहा रोशन रोशन सड़के और अंधी गलियां है । कहीं दौलत की रेलपेल और एश का नंगापन , तो कही गरीबी बदहाली, बीमारी और भूख है । श्रद्दा और अंधविश्वासों के तिलिस्मी महल भी है और भाले की नोंक की तरह सीने में उतरती हुई झुग्गियां भी है । एक तरफ दूर तक फैला हुआ लंबा-चौडा मैदान जो तकरीर और तफरीह के शौकिन चेहरो की छलकती हुई भीड के भर जाने से और भी फैला नजर आता है , तो दूसरी तरफ दरबो जैसी खोलियों में सूखे ईधन जैसे बेरौनक जिस्मो के अंबार । जहा ना उजाला है ना हवा । और ख्वाइशों ने किसी के लिये गुंजाईश नहीं छोड़ी । और इस शहर में अगर कोई पुल ढह जाये । ऐसा पुल जिसपर गाडियां नहीं रेंगती बल्कि पुलों के नीचे जिन्दगी आबाद रहती है । तो असे महज हादसा या दुर्घटना नहीं कहा जा सकता । बल्कि खुले आसमान तले रहने वालो के सिर पर ही आसमान के गिर जाने सरीखा है । फिर कोलकत्ता ऐसा शहर है जिसे देखकर किसी को टोक्यो तो किसी को लंदन और किसी को न्यूयार्क याद आ ही जाता है। लेकिन सच यही है कि हर नजर ने कोलकत्ता को अपने नजरीये से ना सिर्फ देखा बल्कि उसे एक नाम भी दे दिया । किसी ने सीटी आफ जाय कहा । तो राजीव गांधी ने कोलकत्ता को डाईंग सिटी कहा था । लेकिन चर्चिल ने कोलकत्ता को देखर अपनी मां से कहा था , " ये एक अजीम शहर है । और रात की ठन्डी हवा और सुरमई धन्ध में यह लंदन जैसा दिखाई देता है । " तो 1863 में ब्रिटिश संवाददाता सार जार्ज ट्रेविलियन ने लिखा, "कलकत्ते से ज्यादा उदासिन बस्ती दुनिया की चारो दिशाओ में और कोई नहीं । " किपलिंग ने कलकत्ते को , "खौफनाक और डरावनी रातो का शहर कहा था । " वायसराय राबर्ट क्लाइव ने कलकत्ते को , "कायनात की सबसे बुरी बस्ती करार दिया । " तो विलियम हंटर ने एक रात अपनी मंगेतर को जो मुहब्बतनामा भेजा उसके लफ्जे में कलकत्ते का जिक्र कुछ यू था । " तसव्वुर करो उन तमाम चीजों का , जो फितरत में सबसे शानदार है । और उसके साथ साथ उन समाम अनासिर का जो तामीर के फन में सबसे ज्यादा हसीन होते है । फिर तुम अपने आप कलकत्ता की एक धुंधली सी तस्वीर देख लोगी । और 1827 में गवर्नर जनरल के सामने अपने पेंशन का मुद्दमा लेकर गालिब भी कलकत्ता पहुंचे थे और गालिब कलकत्ते पर आशिक हो गये थे । गालिब ने लिखा भी , "कलकत्ता का जो जिक्र किया तूने हमनशीं / इन तीर मेरे सीने में मारा कि हाय हाय / वह सब्जाजार हाए मुतर्रा कि है गजब / वह नाजनी बुताने-खुद आरा कि हाय हाय "
कुछ मायनो में कलकत्ता की कहानी हिन्दुस्तान की कहानी है , बल्कि तीसरी दुनिया की एक मुख्तसर तस्वीर । ये तस्वीर बताती है कि साम्राज्य क्यो और कैसे वजूद में आये । कलकत्ता की कहानी औघोगिक क्रांति की कहानी है । कलकत्ता की कहानी दुनिया के मजदूरो को एक करन सत्ता बदलने की कहानी है । कलकत्ता की कहानी राजनीतिक शून्यता को संघर्ष के आसरे भरने की कहानी है । इसीलिये कलकत्ते में पुल ढहा तो राजनीति कही तेजी से ढहती और खडी होती दिखी । यानी कैलकटा...कलकत्ता....कोलकाता... । तो इस दौर में नाम बदला लेकिन मिज़ाज नहीं...। यही है कोलकाता की ख़ूबी...। कहा जाता है कि शहर में चमक और सफ़ाई देखनी है तो दिल्ली जाएं....। मशहूर और रईस देखने हैं तो मुंबई का रुख़ करें। लेकिन शहर में रूह महसूस करनी है तो कोलकाता आएं....। माना ये भी जाता है कि कोलकाता की रूह बसती है...वहां की भीड़ में। और इसी भीड़ भरे कोलकाता की हलचल तबदील हो गई एक कोहराम में जब शहर की जान माने जाने वाले बड़ा बाज़ार में एक फ्लाई ओवर निर्माण के दौरान ही ढह गया। कोलकाता में कोहराम....की वजह यक़ीनन फ़िलहाल गिरा हुआ फ़्लाई ओवर है...तकलीफ़देह और दिल को दहलाने वाला हादसा। लेकिन इस हादसे की वजहों पर नज़र डालें तो अंदाज़ा मिलेगा कि ये शहर का मिज़ाज ही है जो फ़्लाई ओवर के बनाए जाने की रफ़्तार पर हावी हो गया था। इत्मीनान के साथ आहिस्ता आहिस्ता शहर की भीड़ भरी रफ़्तार के साथ इसका काम भी पूरा किया जा रहा था। 2009 से बनना शुरू हुए इस फ़्लाई ओवर को यूं तो बन जाना चाहिये था साल 2012 में। लेकिन इस बीच सरकार बदल गई लेकिन बदल ना पाई तो इस फ़्लाई ओवर की सूरत। साल 2016 तक फ़्लाई ओवर 65 से 75 फ़ीसदी ही बन पाया। मानो कुछ यूं कि इस फ़्लाई ओवर के बनने या ना बनने से शहर के सुकून भरे भीड़ भाड़ वाले माहौल पर कोई असर ना हो रहा हो।भला कोई असर होता भी तो कैसे क्योंकि कोलकाता राजधानी है उस पश्चिम बंगाल राज्य की....। जहां सियासत भी करवट लेती है बेहद आहिस्ता आहिस्ता। आज़ादी के बाद 10 या 15 नहीं बल्कि लगभग 25 साल तक इस शहर ने कांग्रेस की हुकूमत देखी तो उसके बाद 34 साल लगातार वामपंथी सत्ता के नीचे ये शहर अपने मिज़ाज के साथ इत्मीनान से सांस लेता रहा। कोलकाता में क्यों है भीड़ के बावजूद भी एक इत्मीनान....क्यों है यहां की हलचल में भी एक सुकून। वजह शायद ये है कि इस भीड़ की ज़ुबान यूनिसेफ़ की माने तो दुनिया की सबसे मीठी ज़ुबान बांग्ला है। ऐसी जुबान....जिसने आज़ादी से पहले ढाका से लेकर कोलकाता को एक धागे में पिरोया। वो मीठी बांग्ला जिसने रबीन्द्र नाथ टैगोर के रबीन्द्र संगीत को बांग्लादेश के राष्ट्र कवि नज़रुल इस्लाम के गीतों से जोड़ा। सियासत की जगह बांग्ला जज़्बे को अगर मौक़ा दिया जाता तो कभी सरहदें ना बनती। क्योंकि भद्र बांग्ला ने हमेशा पिरोया चीज़ों को पिरोया है बिखेरा नहीं। लोगों से लेकर इमारत तक। कोलकाता शहर की ख़ूबसूरती में शामिल है....कोलोनियल आर्किटेक्चर से लेकर...नवाबों की हवेलियां....और मॉडर्न अट्टालिकाएं.....। यहा वजह है कि कोलकाता का इत्मीनान हादसों के बीच भी कभी गुम नहीं होगा। क्योंकि मौजूदा दौर के टूटते पुल के सामने आज भी ख़ामोश ख़ड़ा है कोलकाता की संस्कृति को समेटे हावड़ा ब्रिज।
और संकरे शहर की सबसे संकरी गली के बीच में बीते नौ बरस से जिस पुल को बनाने का जद्दोजहद इन हालातो को लेकर चलती रही कि एक खंबा लगे तो 100 परिवारो की नींद में खलल आ जाये । चार पिलर खडे करने हो तो सौकडो मजदूर और बेबस पड़े लोगो की जिन्दगी हराम हो जाये । ऐसे में उस पुल के गिरने का
मतलब होता क्या है । यह सारा नजारा आज खुल कर हर आंखो के सामने आ गया । चलती बस और किनारे खडे ट्रक टैक्सी अगर इसकी चपेट में आये तो पुल की छांव में बैठे रिक्शा और गाथ गाडी खिंचने वाले भी दब गये । लेकिन कल्पना किजिये बडी तादा में पुल के नीचे ही जिन्दगी बसर करने वाले परिवारो का
क्या हुआ होगा । पुल के नीचे परिवार छोड काम पर निकला मजदूर हुगली नदीं किनारे भी मजदूरी कर रहा था और कई मजदूर तो पुल के उपर ही काम कर रहे थे । कितने दबे , कितने मरे । सियासत इसकी गिनती बतायेगा और बता रहा है । लेकिन जो शहर बिना गिनती के जीता हो वहा कितनो की मौत तो किसी कागज पर भी दर्ज नहीं होगी । क्योकि कोलकत्ता का सच यही है कि यहा लाखो लोग खुले आसमान तले पूरी उम्र गुजार देते है । फुटपाथ पर पैदा होते है । जवान होते होते है । बच्चे पैदा करते हैं और मर जाते हैं। यहां गरीबी ऐसे रंग-रुप लेकर साथ लेकर आती है कि बहुतेरे इस नजारे की ताब नही ला सकते । यहां हिंसा है । वहशत है । और टकराव है । दूसरी तरफ तन्जीम है । धीमापन है और घर की चौखट पर उस पुरानी मिट्टी की महक है जो हर शहर से गायब हो चली है । अन हालातो के बीच जिस उलाके में पुल ढहा वह इलाका तो व्यापार और उघोग के एतबार से कोलकत्ता का सबसे बडा इलाका है । कह सकते है चेतना का सबसे बडा केन्द्र बडा बाजार का इलाका । जहा के घरो में आज भी धन्ना सेठ रहते हैं । न्हे फक्र है खुद के भ्दर मानुष होने का । इसीलिये जैसे ही पुल के
गिरने की आवाज आई हर किसी ने पहले अपने घर को टटोला । कोई बाहर तो नहीं । कही कोई पुल की तरफ तो नहीं गया । क्योकि पुल के नीचे मजदूर-साहूकार ही नहीं बसते बल्कि इस पूरे इलाका का शहर यही जीवंत होता है । इसीलिये पुल ढहा तो कोलकत्ता ठहर गया । क्योकि पुल ढहा और सत्ता का भ्रष्टाचार एक ऐसा राज्य में गूजने लगा जो हिन्दुस्तान की पहली रियासती राजधानी थी । और जहा 1967 के चुनाव के बाद 14 सियासी पार्टियों की मिली जुली हुकूमत ने यह एलान किया था कि पश्चम बंगाल के मंत्रियों की हिफाजत के लिये अब पुलिस की दरकार न होगी । सीएम की तनख्वाह 1150 रुपये से घटाकर सात कर दी गई थी । और मंत्रियो का वेतन नौ सो घटाकर 500 रुपये । और तो और जिस कोलकत्ता में लू से सैकडो मौते होती थी वहा सरकारी दफ्तरो से एयरकंडीशन हटाने का फैसला ले लिया गया था । और कलकत्ता के मैदान में जब पहली सभा हुई तो जिक्र किसानो की बदहाली का हुआ था । मजदूरो के हक के सवाल थे । तालिम में सुधार की बात ती । बेजमीन मजदूरो की रोटी के सवाल थे । शहर की दीवारो पर इन्कलाब के नारे थे, " बंगाल के बेटो ! नींद से जागो और दहाडो शेर की तरह । " दुनिया के सबसे ज्यादा बागी छात्र भी यही थे ।और आजादी के बाद दंगे भी बंगाल में ही भडके । और उस वक्त महात्मा गांधी ना होते तो दंगे पूरे देश को अपनी हद में लेलेते । तो मनाईये जब सियासत मैली हो रही है । भ्रष्टाचार राजनीति के दामन से बंध चुका है ऐसे में कोई रोशनी कोलकत्ता
से निकले तो ठीक नहीं तो हर जिस्म पर ऐसे दाग बढते चले जायेगें । और सियासी आरोप प्रत्यारोप में मौत खो जायेगी ।
Thursday, March 31, 2016
Tuesday, March 22, 2016
आजादी के संघर्ष के प्रतीकों की परीक्षा
क्या मौजूदा राजनीतिक बिसात पर पहली बार आजादी के संघर्ष के प्रतीक ही दांव पर हैं। क्योंकि एक तरफ भारत माता की जय तो दूसरी तरफ भगत सिंह। एक तरफ बीजेपी का राष्ट्रवाद तो दूसरी तरफ वाम आजादी का नारा । एक तरफ तिरंगे में लिपटा राष्ट्रवाद तो दूसरी तरफ लाल सलाम तले मौजूदा सामाजिक विसगंतियों पर सीधी चोट। तो क्या गुलाम भारत के संघर्ष के प्रतीकों की आजाद भारत में नये तरीके से परीक्षा ली जा रही है। क्योंकि भारत माता कोई आज का शब्द तो है नहीं। याद कीजिये 1882 में बंकिमचन्द्र चटर्जी ने आजादी के संघर्ष को लेकर आनंदमठ लिखी तो आजादी के बाद 1952 में हेमन गुप्ता ने आनंदमठ पर फिल्म बनायी तो उनके जहन में भारत माता की वही तस्वीर उभरी जो रविन्द्रनाथ टैगौर के भतीजे अवनिन्द्रनाथ टैगोर ने बंगाल के पुनर्जागरण के दौर में भारत माता पहली तस्वीर बनायी थी। भारत माता के चार हाथ दिखाये गये थे। जो भारत की समूची सांस्कृतिक विरासत को सामने रख देता। क्योंकि उन चार हाथो में शिक्षा -दीक्षा, अन्न-वस्त्र दिखाये गये। और आनंदमठ भी इन्ही चारो परिस्थितियों को उभारती है। इतना ही नहीं देश में पहली बार किरण चन्द्र चौधरी ने 1873 भारत माता नाम से नाटक किया तो उसमें भी भारत की आजादी के संघर्ष को इस रुप में दिखाया जहा धर्म और संस्कृतियों का मेल हो। गुलामी से मुक्ती और अंखड भारत की पहचान एकजुटता के साथ बने।
इसके सामानांतर आजादी के संघर्ष में भगत सिंह को याद कीजिये तो इन्कलाब के नारे के साथ भगत सिंह ने आजादी के आंदोलन को एक नयी धार दी। कच्ची उम्र में ही भगत सिंह ने अंग्रेजी सत्ता को बंदूक से लेकर विचार और आर्थिक मुद्दों से लेकर साप्रदायिकता तक पर ना सिर्फ राजनीतिक चुनौती दी। बल्कि मार्क्सवादी विचारधारा के तहत विकल्प की सोच भी पैदा की। सिनेमायी पर्दे पर आजादी के तुरंत बाद 1948 में दिलीप कुमार ने तो 1965 में मनोज कुमार ने भगत सिंह की भूमिका को फिल्म शहीद में बाखूबी जीया। यानी भारत माता की तस्वीर हो या इन्कलाब के जरीये भगत सिंह का संघर्ष दोनों ही जिस भी माध्यम के जरीये आजादी के बाद उभरे उसने देश के भीतर लकीर नहीं खिंची बल्कि खिंचती लकीरों को मिटाने की ही कोशिश की। क्योंकि दोनों तस्वीर गुलाम भारत के दौर में आजादी के संघर्ष का सच रही। लेकिन यह दोनों तस्वीरे कैसे आजाद भारत में सत्ता के राष्ट्रवाद और सत्ता से आजादी के नारे तले आकर खडी हो जायेगी यह किसने सोचा होगा। क्योंकि राष्ट्रवाद का प्रतीक भारत माता की जय तो संघर्ष का प्रतीक भगत सिंह। तो क्या आजादी के संघर्ष के प्रतीकों के आसरे मौजूदा राजनीति देश के भीतर आजादी से पहले के भारत के हालात देख रही है। या फिर मौजूदा वक्त में भारत माता और भगत सिंह को दो राजनीतिक विचारधाराओं में बांट कर राजनीति का नया ककहरा गढ़ा जा रहा है। जिससे एक तरफ भारत माता की जय, राष्ट्रवाद के अलघ को जगाये और मौजूदा राजनीति की धारा बने। तो दूसरी तरफ भगत सिंह का इन्कलाब आजादी के संघर्ष की तर्ज पर मौजदा राजनीतिक सत्ता को आजादी के नारे से ही चुनौती देता नजर आये। जाहिर है यह दोनों हालात देश के मौजूदा हालात में कहा और कैसे फिट बैठेगें यह कोई नहीं जानता। ठीक उसी तरह जिस तरह 1967 में नक्सलबाडी से जो लाल सलाम का नारा निकला उसे 2011 में पश्चिम बंगाल की जनता ने ही खारिज कर दिया। और 1990 में अयोध्या आंदोलन के वक्त जय श्रीराम के नारे ही जिस तरह हिन्दुत्व का प्रतीक बन गया । लेकिन आजतक ना अयोध्या में राम मंदिर बना और ना ही जय श्रीराम का नारा बचा। तो फिर भारत माता के आसरे जिस राजनीतिक राष्ट्रवाद को मौजूदा वक्त में खोजा या नकारा जा रहा है, उसका सियासी हश्र होगा क्या यह कोई नहीं जानता। लेकिन भारत में भारत माता के नाम पर दो मंदिर ऐसे जरुर है जो बताते है कि आजादी से पहले और आजादी के बाद भी भारत माता को जिस रुप में देखा-माना गया उस रुप में मौजूदा राजनीति भारत माता को मान्यता नहीं दे रही है। क्योंकि वाराणसी और ॠषिकेश में मौजूद भारत माता के मंदिर के आसरे राष्ट्रवाद के उस सच को भी
जाना समझा जा सकता है जब आजादी को लेकर संघर्ष भी था और भारत माता के लिये जान न्यौछवर करने का जुनून भी था। और दोनों ही मंदिरों की पहचान उस भारत से जुड़ी है संयोग से जिसे मौजूदा सियासी राजनीति ने हाशिये पर ठकेल दिया है।
वाराणसी में भारत माता का मंदिर बनाने की जरुरत तब पडी जब असहयोग आंदोलन की हिंसा ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक को हिलाकर रख दिया। उस वक्त देश की एकता और अखण्डता को बनाये रखने के लिए स्वतंत्रता सेनानी शिव प्रसाद गुप्त और आर्किटेक्ट दुर्गाप्रसाद खत्री ने गांधी जी से बात की कि एक ऐसा मंदिर बने जिसमें सभी धर्म और जाति के लोगों की आस्था हो। और 1936 में यह मंदिर बना। जिसमे किसी देवी देवता की नहीं बल्कि अखंड भारत का नक्शा ही भारत माता की पहचान बना। जिसका उद्घाटन 1936 में महात्मा गांधी ने किया । तो ॠषिकेश में भारत माता का मंदिर स्वामी विवेकानंद की भारत के बारे में सोच को लेकर बनाया गया । इसलिये ॠषिकेश के आठ मंजिला मंदिर भारत माता के उन प्रतिको को जीवंत कर देता है । जिसपर आज कोई बहस नहीं होती । पहली मंजिल पर भारत के मानचित्र के साथ दूध और फसल को हाथ में लिये भारत माता की तस्वीर है। तो दूसरी मंजिल से आठवी मंजिल तक भारत की आजादी के संघर्ष। भारत की सांस्कृतिक पहचान । भारत की सभ्यता और हर धर्म के समावेश के साथ प्रकृति को समेटे हिन्दुस्तान की वह तस्वीर है, जो राष्ट्रवाद के मौजूदा पारिभाषा से गायब हो चुकी है। ॠषिकेश के भारत माता मंदिर का उद्घाटन 15 मई 1983 को इंदिरा गांधी ने किया और संयोग देखिये वाराणसी हो या ॠषिकेश दोनों ही जगहों की पहचान मंदिरों के आसरे जुड़ी लेकिन भारत माता मंदिर को बेहद कम लोग जानते हैं। जो जानते भी होंगे वह उस मंदिर तक पहुंच नहीं पाते। लेकिन अब जब देश में भारत माता और भगत सिंह की पहचान किसके साथ किसरुप में जुड़े इसको लेकर ही जब सियासी संघर्ष हो रहा है तो धीरे धीरे यह सवाल देश में ही बड़ा होते जा रहा है कि क्या वाकई राष्ट्र की सीमाओं को अब बांधने का वक्त आ गया है। या फिर राषट्रवाद के नारे तले सारी कश्मकश राष्ट्र के भीतर नागरिकों में ही मची है। क्योंकि मौजूदा राष्ट्रवाद किसी दूसरे देश के खिलाफ नहीं है। बल्कि एक भारतीय का दूसरे भारतीय के खिलाफ का राष्ट्रवाद है । यानी नफरत और कडवाहट है , जो राजनीति से निकली है । इसीलिये इसके दायरे में मुसलमान भी हैं और दलित भी । और कौमों से लेकर जातीय आधार पर राजनीति, सत्ता के लिये खुद में सभी को समेट लेने पर आमादा हैं। और इससे टकराने के लिये जेएनयू में ही पहले राष्ट्रवाद पर शिक्षकों ने खुले आसमान तले छात्रों को पढ़ाना शुरु किया तो अब आजादी को लेकर शिक्षको ने विचारों की नयी सीरिज शुरु की है। और इससे टकराने के लिये सत्ताधारी बीजेपी ने राष्ट्रवाद को ही अपना राजनीति मंत्र बना लिया है। तो फिर इसका अंत होगा कहां ? क्योंकि यह ना तो सम्यताओं के संघर्ष का मामला है । ना ही धर्मो के टकराव का मसला है। और ना ही उस नफरत का जिसकी छांव में पहला विश्वयुद्द हो गया क्योंकि तब सर्बिया के लोगों से ऑस्ट्रियाई मूल के हंगरीवासी नफ़रत करते थे। हंगरीवासियों से रूसी, रूसियों से जर्मन और जर्मनों से फ्रांसीसी नफ़रत करते थे। अंग्रेज़ हर किसी से नफ़रत करते थे। और युद्द की आग भडकी तो हर कोई एक दूसरे पर टूटपड़ा। तुर्क भी और अरब भी । गुलाम भारत और अमरीका भी । लेकिन मौजूदा वक्त में अमेरिका हो या यूरोपिय यूनियन , सभी अपनी सीमाएं और बाज़ार एक-दूसरे के लिए खोल रहे हैं। और भारत का राष्ट्रवाद खुद के ही खिलाफ आ खड़ा हुआ है । क्योंकि राजनीतिक सत्ता सिर्फ संस्धानों से ही नहीं बल्कि संविधान से भी बड़ी होती जा रही है। और समूचा संघर्ष राजनीतिक सत्ता पाने या बचाने का है।
इसके सामानांतर आजादी के संघर्ष में भगत सिंह को याद कीजिये तो इन्कलाब के नारे के साथ भगत सिंह ने आजादी के आंदोलन को एक नयी धार दी। कच्ची उम्र में ही भगत सिंह ने अंग्रेजी सत्ता को बंदूक से लेकर विचार और आर्थिक मुद्दों से लेकर साप्रदायिकता तक पर ना सिर्फ राजनीतिक चुनौती दी। बल्कि मार्क्सवादी विचारधारा के तहत विकल्प की सोच भी पैदा की। सिनेमायी पर्दे पर आजादी के तुरंत बाद 1948 में दिलीप कुमार ने तो 1965 में मनोज कुमार ने भगत सिंह की भूमिका को फिल्म शहीद में बाखूबी जीया। यानी भारत माता की तस्वीर हो या इन्कलाब के जरीये भगत सिंह का संघर्ष दोनों ही जिस भी माध्यम के जरीये आजादी के बाद उभरे उसने देश के भीतर लकीर नहीं खिंची बल्कि खिंचती लकीरों को मिटाने की ही कोशिश की। क्योंकि दोनों तस्वीर गुलाम भारत के दौर में आजादी के संघर्ष का सच रही। लेकिन यह दोनों तस्वीरे कैसे आजाद भारत में सत्ता के राष्ट्रवाद और सत्ता से आजादी के नारे तले आकर खडी हो जायेगी यह किसने सोचा होगा। क्योंकि राष्ट्रवाद का प्रतीक भारत माता की जय तो संघर्ष का प्रतीक भगत सिंह। तो क्या आजादी के संघर्ष के प्रतीकों के आसरे मौजूदा राजनीति देश के भीतर आजादी से पहले के भारत के हालात देख रही है। या फिर मौजूदा वक्त में भारत माता और भगत सिंह को दो राजनीतिक विचारधाराओं में बांट कर राजनीति का नया ककहरा गढ़ा जा रहा है। जिससे एक तरफ भारत माता की जय, राष्ट्रवाद के अलघ को जगाये और मौजूदा राजनीति की धारा बने। तो दूसरी तरफ भगत सिंह का इन्कलाब आजादी के संघर्ष की तर्ज पर मौजदा राजनीतिक सत्ता को आजादी के नारे से ही चुनौती देता नजर आये। जाहिर है यह दोनों हालात देश के मौजूदा हालात में कहा और कैसे फिट बैठेगें यह कोई नहीं जानता। ठीक उसी तरह जिस तरह 1967 में नक्सलबाडी से जो लाल सलाम का नारा निकला उसे 2011 में पश्चिम बंगाल की जनता ने ही खारिज कर दिया। और 1990 में अयोध्या आंदोलन के वक्त जय श्रीराम के नारे ही जिस तरह हिन्दुत्व का प्रतीक बन गया । लेकिन आजतक ना अयोध्या में राम मंदिर बना और ना ही जय श्रीराम का नारा बचा। तो फिर भारत माता के आसरे जिस राजनीतिक राष्ट्रवाद को मौजूदा वक्त में खोजा या नकारा जा रहा है, उसका सियासी हश्र होगा क्या यह कोई नहीं जानता। लेकिन भारत में भारत माता के नाम पर दो मंदिर ऐसे जरुर है जो बताते है कि आजादी से पहले और आजादी के बाद भी भारत माता को जिस रुप में देखा-माना गया उस रुप में मौजूदा राजनीति भारत माता को मान्यता नहीं दे रही है। क्योंकि वाराणसी और ॠषिकेश में मौजूद भारत माता के मंदिर के आसरे राष्ट्रवाद के उस सच को भी
जाना समझा जा सकता है जब आजादी को लेकर संघर्ष भी था और भारत माता के लिये जान न्यौछवर करने का जुनून भी था। और दोनों ही मंदिरों की पहचान उस भारत से जुड़ी है संयोग से जिसे मौजूदा सियासी राजनीति ने हाशिये पर ठकेल दिया है।
वाराणसी में भारत माता का मंदिर बनाने की जरुरत तब पडी जब असहयोग आंदोलन की हिंसा ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक को हिलाकर रख दिया। उस वक्त देश की एकता और अखण्डता को बनाये रखने के लिए स्वतंत्रता सेनानी शिव प्रसाद गुप्त और आर्किटेक्ट दुर्गाप्रसाद खत्री ने गांधी जी से बात की कि एक ऐसा मंदिर बने जिसमें सभी धर्म और जाति के लोगों की आस्था हो। और 1936 में यह मंदिर बना। जिसमे किसी देवी देवता की नहीं बल्कि अखंड भारत का नक्शा ही भारत माता की पहचान बना। जिसका उद्घाटन 1936 में महात्मा गांधी ने किया । तो ॠषिकेश में भारत माता का मंदिर स्वामी विवेकानंद की भारत के बारे में सोच को लेकर बनाया गया । इसलिये ॠषिकेश के आठ मंजिला मंदिर भारत माता के उन प्रतिको को जीवंत कर देता है । जिसपर आज कोई बहस नहीं होती । पहली मंजिल पर भारत के मानचित्र के साथ दूध और फसल को हाथ में लिये भारत माता की तस्वीर है। तो दूसरी मंजिल से आठवी मंजिल तक भारत की आजादी के संघर्ष। भारत की सांस्कृतिक पहचान । भारत की सभ्यता और हर धर्म के समावेश के साथ प्रकृति को समेटे हिन्दुस्तान की वह तस्वीर है, जो राष्ट्रवाद के मौजूदा पारिभाषा से गायब हो चुकी है। ॠषिकेश के भारत माता मंदिर का उद्घाटन 15 मई 1983 को इंदिरा गांधी ने किया और संयोग देखिये वाराणसी हो या ॠषिकेश दोनों ही जगहों की पहचान मंदिरों के आसरे जुड़ी लेकिन भारत माता मंदिर को बेहद कम लोग जानते हैं। जो जानते भी होंगे वह उस मंदिर तक पहुंच नहीं पाते। लेकिन अब जब देश में भारत माता और भगत सिंह की पहचान किसके साथ किसरुप में जुड़े इसको लेकर ही जब सियासी संघर्ष हो रहा है तो धीरे धीरे यह सवाल देश में ही बड़ा होते जा रहा है कि क्या वाकई राष्ट्र की सीमाओं को अब बांधने का वक्त आ गया है। या फिर राषट्रवाद के नारे तले सारी कश्मकश राष्ट्र के भीतर नागरिकों में ही मची है। क्योंकि मौजूदा राष्ट्रवाद किसी दूसरे देश के खिलाफ नहीं है। बल्कि एक भारतीय का दूसरे भारतीय के खिलाफ का राष्ट्रवाद है । यानी नफरत और कडवाहट है , जो राजनीति से निकली है । इसीलिये इसके दायरे में मुसलमान भी हैं और दलित भी । और कौमों से लेकर जातीय आधार पर राजनीति, सत्ता के लिये खुद में सभी को समेट लेने पर आमादा हैं। और इससे टकराने के लिये जेएनयू में ही पहले राष्ट्रवाद पर शिक्षकों ने खुले आसमान तले छात्रों को पढ़ाना शुरु किया तो अब आजादी को लेकर शिक्षको ने विचारों की नयी सीरिज शुरु की है। और इससे टकराने के लिये सत्ताधारी बीजेपी ने राष्ट्रवाद को ही अपना राजनीति मंत्र बना लिया है। तो फिर इसका अंत होगा कहां ? क्योंकि यह ना तो सम्यताओं के संघर्ष का मामला है । ना ही धर्मो के टकराव का मसला है। और ना ही उस नफरत का जिसकी छांव में पहला विश्वयुद्द हो गया क्योंकि तब सर्बिया के लोगों से ऑस्ट्रियाई मूल के हंगरीवासी नफ़रत करते थे। हंगरीवासियों से रूसी, रूसियों से जर्मन और जर्मनों से फ्रांसीसी नफ़रत करते थे। अंग्रेज़ हर किसी से नफ़रत करते थे। और युद्द की आग भडकी तो हर कोई एक दूसरे पर टूटपड़ा। तुर्क भी और अरब भी । गुलाम भारत और अमरीका भी । लेकिन मौजूदा वक्त में अमेरिका हो या यूरोपिय यूनियन , सभी अपनी सीमाएं और बाज़ार एक-दूसरे के लिए खोल रहे हैं। और भारत का राष्ट्रवाद खुद के ही खिलाफ आ खड़ा हुआ है । क्योंकि राजनीतिक सत्ता सिर्फ संस्धानों से ही नहीं बल्कि संविधान से भी बड़ी होती जा रही है। और समूचा संघर्ष राजनीतिक सत्ता पाने या बचाने का है।
Monday, March 14, 2016
जेएनयू, पीएमओ,मीडिया और विपक्ष नहीं चाहता भ्रष्टाचार देश में मुद्दा बने
आज जब सत्ता का राष्ट्रवाद, जेएनयू के राष्ट्रविरोधी नारे और मीडिया की सही भूमिका के बीच यह सवाल बड़ा होते चला जा रहा है कि सही कौन और गलत कौन । तब जहन में पांच-साढे पांच बरस पहली तीन घटनायें याद आती हैं। पहली बार 18 सितंबर 2010 को तब के पीएम मनमोहन सिंह के प्रिंसिपल सेकेट्री टीके नायर ने हैबिटेट सेंटर के सिल्वर ओक में वरिष्ठ पत्रकारों-संपादकों को कॉकटेल पार्टी दी थी। नवंबर 2010 में राडिया टेप के जरीये पत्रकार दलालों के नाम सामने आये थे। और उसी दौर में जेएनयू के गोदावरी हॉस्टल में शुक्रवार की देर रात पत्रकार प्रांजयगुहा ठाकुरत, साहित्यकार नीलाभ और पुण्य प्रसून वाजपेयी [ लेखक ] को 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से लेकर राडिया टेप पर चर्चा के लिये निमंत्रण दिया गया था। उस वक्त जेएनयू स्टाइल के सेमिनार[ हास्टल में खाना खत्म होने के बाद खाने वाली जगह पर ही टेबल कुर्सी जोडकर चर्चा ] से पहले गोदावरी और पेरियार हॉस्टल के बाहर ढाबे में हमारे पहुंचते ही हर मुद्दे से जुड़ा सवाल उठा और हर सवाल यहीं आकर रुकता कि संसदीय चुनावी राजनीति और माओवाद की सोच से इतर दूसरी कोई व्यवस्था हो सकती है या नहीं। और हर सवाल का जबाब यहीं आकर ठहरता कि राजनीतिक व्यवस्था ही जब भ्रष्टाचार को आश्रय दे रही है और जबतक देश में विचारधाराओं के राजनीतिक टकराव से इतर क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ संघर्ष शुरु नहीं होगा तब तक रास्ता निकलेगा नहीं। और रास्ता जो भी या जब भी निकलेगा उसमें छात्रों की भूमिका अहम होगी । खैर, पीएमओ की तरफ से कॉकटेल पार्टी में मुझे भी बुलाया गया था। और हेबिटेट सेंटर में घुसते ही दायीं तरफ सिल्वर ओक में पीएमओ के तमाम डायरेकटरो के साथ पीएम के सलाहकारों की टीम जिस तरह शराब परोस [आफर] रही थी । उस माहौल में किसान-मजदूर से लेकर विकास के मनमोहन मॉडल पर चर्चा भी हो रही थी । और उस वक्त मनमोहन सिंह के डायरेक्टरों की टीम में सबसे युवा डायरेक्टर जो एक वक्त एनडीटीवी में काम कर चुके थे, उनसे हर बातचीत के आखिर में जब वह यह कहते कि, यार अरुंधति स्टाइल मत अपनाओ...पहले तो मुझे खीझ हुई लेकिन बाद में चर्चा के दौर में मुझे यह कहना पड़ा कि शायद मनमोहन सरकार को विचारधारा की राजनीतिक जुगाली पसंद है।
इसीलिये देश के बेसिक सवाल जो इकनॉमी से जुड़े हैं, उसका एक चेहरा वामपंथी सोच तो दूसरा पश्चिमी विकास मॉडल से आगे जाता नहीं है। तो पश्चिमी मॉडल की ही देन है कि सार्वजनिक स्थल पर भी पीएमओ को कॉकटेल पार्टी करने में कोई शर्म नहीं आती। क्योंकि मैंने तब सवाल उठाया कि क्या वाकई भारत जैसे देश में प्रधानमंत्री कार्यालय के जरिए इस तरह सार्वजनिक तौर कॉकटेल पार्टी करने की बात सोची भी जा सकती है । और उस वक्त जेएनयू के अनुभव में यह साफ दिखा कि मनमोहन सिंह की इकनॉमी जेएनयू में एक ऐसा प्रतीक थी, जो चाय की कीमत तले प्लास्टिक के कप और कुल्हड के दौर को खत्म करते हुये भी निशाने पर रहती और घोटालो तले देश को बेचे जाने के सवाल को भी खूब उठाती। और सारे सवाल जेएनयू के भीतर हर ढाबे हर नुक्कड पर होते। जिसमें ढाबेवाला भी शामिल होता । खैर आज जेएनयू में माहौल बहुत बदल गया है ऐसा भी नहीं है। हां, बोलने से पहले एक संशय और हर निगाह में एक शक जरुर दिखायी देने लगा है। लेकिन जेएनयू के भीतर जो सवाल बदल गये हैं, वह भ्रष्टाचार को लेकर गुस्से और राजनीतिक व्यवस्था को ही बदलने की कुलबुलाहट का है। वजह भी यही रही कि उस दौर में राडिया टेप में आये पत्रकारों के लेकर खासा गुस्सा भी जेएनयू में छात्रों नजर भी आता था। लेकिन तब भी जेएनयू बहस की गुंजाइश रखता रहा। और बहस के लिये निमंत्रण भी देता रहा। यह अलग सवाल है कि तब राडिया टेप में नाम आये पत्रकार जेएनयू में जाने से कतराते क्यों रहे। और राडिया टेप को लेकर एक तरह की खामोशी यूपीए सरकार के भीतर नजर आती रही। लेकिन तब के हालात को अब यानी साढे पांच बरस बाद परखने की कोशिश करें तो कई सवाल उलझेंगे। मसलन जेएनयू के भीतर राडिया टेप का सवाल नहीं बीजेपी और संघ पररिवार के जरीये समाज को बांटने या हिन्दुत्व का राग अलापने को लेकर जोर पकड़ चुका है। जमीनी मुद्दे गायब है तो छात्र राजनीतिक संगठनो के प्यादे के तौर पर ही अपनी पहल दिखा रहे है या कुछ भी कहते हैं तो वह राजनीतिक दलों की विचारधारा से जुडता नजर आता है। इसी आधार पर मीडिया के बंटने और बांटने के सवाल हैं। यानी राजनीतिक सत्ता का दायरा हो या सत्ता के विरोध की राजनीति के सवाल इससे इतर कोई भूमिका समाज की हो सकती है यह नजर नहीं आता। यानी समाज में जिन मुद्दों पर एका हो सकती है . दलित-मुस्लिम से लेकर किसान-मजदूर और उंची जाती से जुडे नब्बे फीसद देश के जिन सवालों पर एक खड़े हो सकते हैं, उन सवालों को बेहद महीन सियासत से दरकिनार कर दिया गया है। इसलिये सत्ता के सामने इकनॉमी का सवाल नहीं राष्ट्रवाद का सवाल है। मीडिया के सामने
राष्ट्रवाद या राष्ट्रद्रोह का सवाल है। छात्रों के सामने जेएनयू या रोहित वेमूला तले वैचारिक मतभेद ही संघर्ष का मुद्दा है। तो क्या सारे हालात जानबूझ कर बनाये जा रहे हैं। या फिर देश के भूलभूत मुद्दे संघर्ष खडा ना कर दें, और जनता एकजुट ना हो जाये इसीलिये असल मुद्दों की जड़ पर ना जाकर वैचारिक तौर पर राजनीतिक दल सतही मुद्दों को विचारधारा से जोड़कर देश में राजनीतिक संघर्ष का क अखाड़ा बना रहे हैं। जहां एक तरफ हिन्दुत्व यानी राइट-सेन्ट्रल नजर आये तो दूसरी तरफ वाम सेन्ट्रल हो। और देश के नागरिक भी राजनीतिक दलों की भूमिका तले खुद को बांट लें। तो क्या इसकी सबसे बड़ी वजह वही चुनावी राजनीति है जो भ्रष्टाचार और आर्थिक कारोबार को साथ लेकर चलती है।
ध्यान दें तो देश में विचारधारा के टकराव पर कभी सत्ता बदली नहीं। 1975 में गुजरात में चिमनभाई की कुर्सी के जाने की वजह भी भ्रष्टाचार का मुद्दा बनना था। और जेपी जिस जमीन पर खड़े होकर देश को बांध रहे थे वह इंदिरा गांधी के दौर का भ्रष्टाचार ही था । और आपातकाल एक हद तक भ्रष्टाचार के खिलाफ जनसंघर्ष को दबाने की ही चाल थी। यह समझना होगा कि दिल्ली की सत्ता अयोध्या में राम मंदिर की वजह से सभी नहीं बदली । लेकिन बोफोर्स घोटाले यानी भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर वीपी सिंह को जनता ने हाथों हाथ लेकर दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की सरकार को भी सत्ता से बेदखल कर दिया। बिहार में लालू यादव को भी भ्रष्टाचार की वजह से जनता ने हराया और नीतीश कुमार सत्ता में आये । यूपी में मायावती भी पिछली बार भ्रष्टाचार की वजह से ही चुनाव हारीं। और केजरीवाल ने भी सियासत पाने के लिये भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाया । अन्ना का आंदोलन भी जनलोकपाल को लेकर खड़ा हुआ। जिससे संसद तक थर्राई। क्योंकि जनलोकपाल के मुद्दे पर जाति-धर्म या वैचारिक आधार पर जनता को बांटा नहीं जा सकता था । लेकिन ध्यान देने वाला सच यह भी है कि सत्ता कभी भ्रष्टाचार से नहीं लडती और ना ही भ्रष्टाचार मुद्दा बने यह चाहती है। मसलन दिल्ली में ही
श्री श्री रविशंकर के साथ अगर प्रधानमंत्री मोदी खड़े हुये तो दिल्ली के सीएम केजरीवाल भी खड़े हुये। मोदी ने श्री श्री के जरीये हिन्दुत्व को अपने साथ जोड़ा। तो केजरीवाल को भी लगा कि श्री श्री के साथ होकर वह भी
सॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर पर चल सकते हैं। यानी सत्ता में आने के बाद केजरीवाल के लिये भी यह सवाल गौण हो गया कि आखिर देश में किसान मरे या जवान मरे वजह भ्रष्टाचार ही है। और भ्रष्टाचार का सवाल सत्ता से जुड़ा है। तो अब केजरीवाल भी भ्रष्टाचार के मुद्दे से बचना चाहेंगे, क्योंकि चुनावी राजनीति का भ्रष्टाचार हो या चुनावी संसदीय राजनीति का आधार क्रोनी कैपिटलिज्म। भ्रष्टाचार के दायरे को कोई सत्ता राजनीतिक मुद्दा बनने से घबराती है। यानी जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सवार होकर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचते है, वह सत्ता केजरीवाल को उसी सिस्टम का हिस्सा बनाने से नहीं चूकती जहां भ्रष्ट संस्थानों के आसरे प्रचार प्रसार।
यह मीडिया को बांट कर अपने मुनाफे में भागेदारी भी हो सकती है और किसी के किसी मीडिया समूह या किस, कारपोरेट को निशाने पर लेकर सत्ता चलाने की सुविधा भी हो सकती है । सत्ता की यह सुविधा समाज को बांटती ही नहीं बल्कि कैसे मुश्किल हालात खड़ा करती है यह यूपी के सत्ताधारी नेता आजम खान के मुस्लिम परस्त बयान के बाद समाज के भीतर मुसलमानों की मुश्किलात से भी समझा जा सकता है। और रोहित वेमुला के जरीये दलित के सवाल उठाने के बाद किसी सामान्य दलित नागरिक के सामने पैदा होने वाली मुश्किल से भी समझा जा सकता है। लेकिन राजनीतिक मशक्कत पहले राजनीतिक जमीन बनाने की है जिससे देश पारंपरिक राजनीति में ही उलझा रहे तो छात्र राजनीति को वैचारिक संघर्ष से जोडने की तैयारी में वामपंथी है और साथ में कांग्रेस भी है। मसलन 16 मार्च को इलाहबाद यूनिवर्सिटी तो 21 को दिल्ली में छात्र संघर्ष को राजनीतिक जमीन पर उतारने की तैयारी हो रही है। और यह मोदी सरकार के लिये फिट मामला है। क्योंकि भ्रष्टाचार का मामला उभारने का मतलब है हर तबके के भीतर की बैचेनी को उभार देना। जो राजनीतिक दलों को मजबूत नहीं करती बल्कि जनता के बीच से विकल्प की राजनीति को पैदा कर देती है। और मौजूदा वक्त में कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं चाहता क्योंकि भ्रष्टाचार की फेरहिस्त में क्रोनी कैपटिलिज्म के दायरे में हर राजनीतिक दल हैं। सवाल सिर्फ ललित मोदी या माल्या भर का नहीं है। सवाल तो कालेधन का भी है। और एनपीए का भी । और 7 हजार से ज्यादा कारोबारियों का भी है। और हर क्षेत्र की रकम और वक्त को को मिला दे तो 2008 से 2015 तक का सच उभरेगा और आंकड़ा 90 लाख करोड़ को पार कर जायेगा । तब सवाल जनता की सहभागिता से पैदा होने वाले विकल्प का होगा और इसे फिलहाल जेएनयू या हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र संघर्ष के दायरे में देखना भूल होगी।
इसीलिये देश के बेसिक सवाल जो इकनॉमी से जुड़े हैं, उसका एक चेहरा वामपंथी सोच तो दूसरा पश्चिमी विकास मॉडल से आगे जाता नहीं है। तो पश्चिमी मॉडल की ही देन है कि सार्वजनिक स्थल पर भी पीएमओ को कॉकटेल पार्टी करने में कोई शर्म नहीं आती। क्योंकि मैंने तब सवाल उठाया कि क्या वाकई भारत जैसे देश में प्रधानमंत्री कार्यालय के जरिए इस तरह सार्वजनिक तौर कॉकटेल पार्टी करने की बात सोची भी जा सकती है । और उस वक्त जेएनयू के अनुभव में यह साफ दिखा कि मनमोहन सिंह की इकनॉमी जेएनयू में एक ऐसा प्रतीक थी, जो चाय की कीमत तले प्लास्टिक के कप और कुल्हड के दौर को खत्म करते हुये भी निशाने पर रहती और घोटालो तले देश को बेचे जाने के सवाल को भी खूब उठाती। और सारे सवाल जेएनयू के भीतर हर ढाबे हर नुक्कड पर होते। जिसमें ढाबेवाला भी शामिल होता । खैर आज जेएनयू में माहौल बहुत बदल गया है ऐसा भी नहीं है। हां, बोलने से पहले एक संशय और हर निगाह में एक शक जरुर दिखायी देने लगा है। लेकिन जेएनयू के भीतर जो सवाल बदल गये हैं, वह भ्रष्टाचार को लेकर गुस्से और राजनीतिक व्यवस्था को ही बदलने की कुलबुलाहट का है। वजह भी यही रही कि उस दौर में राडिया टेप में आये पत्रकारों के लेकर खासा गुस्सा भी जेएनयू में छात्रों नजर भी आता था। लेकिन तब भी जेएनयू बहस की गुंजाइश रखता रहा। और बहस के लिये निमंत्रण भी देता रहा। यह अलग सवाल है कि तब राडिया टेप में नाम आये पत्रकार जेएनयू में जाने से कतराते क्यों रहे। और राडिया टेप को लेकर एक तरह की खामोशी यूपीए सरकार के भीतर नजर आती रही। लेकिन तब के हालात को अब यानी साढे पांच बरस बाद परखने की कोशिश करें तो कई सवाल उलझेंगे। मसलन जेएनयू के भीतर राडिया टेप का सवाल नहीं बीजेपी और संघ पररिवार के जरीये समाज को बांटने या हिन्दुत्व का राग अलापने को लेकर जोर पकड़ चुका है। जमीनी मुद्दे गायब है तो छात्र राजनीतिक संगठनो के प्यादे के तौर पर ही अपनी पहल दिखा रहे है या कुछ भी कहते हैं तो वह राजनीतिक दलों की विचारधारा से जुडता नजर आता है। इसी आधार पर मीडिया के बंटने और बांटने के सवाल हैं। यानी राजनीतिक सत्ता का दायरा हो या सत्ता के विरोध की राजनीति के सवाल इससे इतर कोई भूमिका समाज की हो सकती है यह नजर नहीं आता। यानी समाज में जिन मुद्दों पर एका हो सकती है . दलित-मुस्लिम से लेकर किसान-मजदूर और उंची जाती से जुडे नब्बे फीसद देश के जिन सवालों पर एक खड़े हो सकते हैं, उन सवालों को बेहद महीन सियासत से दरकिनार कर दिया गया है। इसलिये सत्ता के सामने इकनॉमी का सवाल नहीं राष्ट्रवाद का सवाल है। मीडिया के सामने
राष्ट्रवाद या राष्ट्रद्रोह का सवाल है। छात्रों के सामने जेएनयू या रोहित वेमूला तले वैचारिक मतभेद ही संघर्ष का मुद्दा है। तो क्या सारे हालात जानबूझ कर बनाये जा रहे हैं। या फिर देश के भूलभूत मुद्दे संघर्ष खडा ना कर दें, और जनता एकजुट ना हो जाये इसीलिये असल मुद्दों की जड़ पर ना जाकर वैचारिक तौर पर राजनीतिक दल सतही मुद्दों को विचारधारा से जोड़कर देश में राजनीतिक संघर्ष का क अखाड़ा बना रहे हैं। जहां एक तरफ हिन्दुत्व यानी राइट-सेन्ट्रल नजर आये तो दूसरी तरफ वाम सेन्ट्रल हो। और देश के नागरिक भी राजनीतिक दलों की भूमिका तले खुद को बांट लें। तो क्या इसकी सबसे बड़ी वजह वही चुनावी राजनीति है जो भ्रष्टाचार और आर्थिक कारोबार को साथ लेकर चलती है।
ध्यान दें तो देश में विचारधारा के टकराव पर कभी सत्ता बदली नहीं। 1975 में गुजरात में चिमनभाई की कुर्सी के जाने की वजह भी भ्रष्टाचार का मुद्दा बनना था। और जेपी जिस जमीन पर खड़े होकर देश को बांध रहे थे वह इंदिरा गांधी के दौर का भ्रष्टाचार ही था । और आपातकाल एक हद तक भ्रष्टाचार के खिलाफ जनसंघर्ष को दबाने की ही चाल थी। यह समझना होगा कि दिल्ली की सत्ता अयोध्या में राम मंदिर की वजह से सभी नहीं बदली । लेकिन बोफोर्स घोटाले यानी भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर वीपी सिंह को जनता ने हाथों हाथ लेकर दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की सरकार को भी सत्ता से बेदखल कर दिया। बिहार में लालू यादव को भी भ्रष्टाचार की वजह से जनता ने हराया और नीतीश कुमार सत्ता में आये । यूपी में मायावती भी पिछली बार भ्रष्टाचार की वजह से ही चुनाव हारीं। और केजरीवाल ने भी सियासत पाने के लिये भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाया । अन्ना का आंदोलन भी जनलोकपाल को लेकर खड़ा हुआ। जिससे संसद तक थर्राई। क्योंकि जनलोकपाल के मुद्दे पर जाति-धर्म या वैचारिक आधार पर जनता को बांटा नहीं जा सकता था । लेकिन ध्यान देने वाला सच यह भी है कि सत्ता कभी भ्रष्टाचार से नहीं लडती और ना ही भ्रष्टाचार मुद्दा बने यह चाहती है। मसलन दिल्ली में ही
श्री श्री रविशंकर के साथ अगर प्रधानमंत्री मोदी खड़े हुये तो दिल्ली के सीएम केजरीवाल भी खड़े हुये। मोदी ने श्री श्री के जरीये हिन्दुत्व को अपने साथ जोड़ा। तो केजरीवाल को भी लगा कि श्री श्री के साथ होकर वह भी
सॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर पर चल सकते हैं। यानी सत्ता में आने के बाद केजरीवाल के लिये भी यह सवाल गौण हो गया कि आखिर देश में किसान मरे या जवान मरे वजह भ्रष्टाचार ही है। और भ्रष्टाचार का सवाल सत्ता से जुड़ा है। तो अब केजरीवाल भी भ्रष्टाचार के मुद्दे से बचना चाहेंगे, क्योंकि चुनावी राजनीति का भ्रष्टाचार हो या चुनावी संसदीय राजनीति का आधार क्रोनी कैपिटलिज्म। भ्रष्टाचार के दायरे को कोई सत्ता राजनीतिक मुद्दा बनने से घबराती है। यानी जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सवार होकर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचते है, वह सत्ता केजरीवाल को उसी सिस्टम का हिस्सा बनाने से नहीं चूकती जहां भ्रष्ट संस्थानों के आसरे प्रचार प्रसार।
यह मीडिया को बांट कर अपने मुनाफे में भागेदारी भी हो सकती है और किसी के किसी मीडिया समूह या किस, कारपोरेट को निशाने पर लेकर सत्ता चलाने की सुविधा भी हो सकती है । सत्ता की यह सुविधा समाज को बांटती ही नहीं बल्कि कैसे मुश्किल हालात खड़ा करती है यह यूपी के सत्ताधारी नेता आजम खान के मुस्लिम परस्त बयान के बाद समाज के भीतर मुसलमानों की मुश्किलात से भी समझा जा सकता है। और रोहित वेमुला के जरीये दलित के सवाल उठाने के बाद किसी सामान्य दलित नागरिक के सामने पैदा होने वाली मुश्किल से भी समझा जा सकता है। लेकिन राजनीतिक मशक्कत पहले राजनीतिक जमीन बनाने की है जिससे देश पारंपरिक राजनीति में ही उलझा रहे तो छात्र राजनीति को वैचारिक संघर्ष से जोडने की तैयारी में वामपंथी है और साथ में कांग्रेस भी है। मसलन 16 मार्च को इलाहबाद यूनिवर्सिटी तो 21 को दिल्ली में छात्र संघर्ष को राजनीतिक जमीन पर उतारने की तैयारी हो रही है। और यह मोदी सरकार के लिये फिट मामला है। क्योंकि भ्रष्टाचार का मामला उभारने का मतलब है हर तबके के भीतर की बैचेनी को उभार देना। जो राजनीतिक दलों को मजबूत नहीं करती बल्कि जनता के बीच से विकल्प की राजनीति को पैदा कर देती है। और मौजूदा वक्त में कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं चाहता क्योंकि भ्रष्टाचार की फेरहिस्त में क्रोनी कैपटिलिज्म के दायरे में हर राजनीतिक दल हैं। सवाल सिर्फ ललित मोदी या माल्या भर का नहीं है। सवाल तो कालेधन का भी है। और एनपीए का भी । और 7 हजार से ज्यादा कारोबारियों का भी है। और हर क्षेत्र की रकम और वक्त को को मिला दे तो 2008 से 2015 तक का सच उभरेगा और आंकड़ा 90 लाख करोड़ को पार कर जायेगा । तब सवाल जनता की सहभागिता से पैदा होने वाले विकल्प का होगा और इसे फिलहाल जेएनयू या हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र संघर्ष के दायरे में देखना भूल होगी।
Saturday, March 5, 2016
पारंपरिक राजनीति को कन्हैया की चुनौती
जो नारे कभी नक्सलबाडी में लगे वह नारे अब दिल्ली तो पहुंच गये । लेकिन दिल्ली से लगते नारे क्या बंगाल और केरल में वामपंथी राजनीति को हवा दे पायेंगे । लाल सलाम के साथ आजादी के नारो के मिश्रण ने पहली बार नक्सलबाडी से इतर भारतीय वाम राजनीति में जो लकीर खींची उसने चुनाव की तारीखों के एलान के साथ यह सवाल भी बड़ा कर दिया है कि क्या एक वक्त कांग्रेस के खिलाफ खड़ा लाल सलाम अब बीजेपी के विरोध में खड़ा होते हुये कांग्रेस के साथ जा खड़ा हुआ है । क्योंकि जेएनयू में राहुल गांधी और सीताराम येचुरी की एक साथ मौजूदगी ने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि मौजूदा वक्त में बीजेपी के खिलाफ वामपंथी सोच के साथ कांग्रेस भी आ खड़ी हुई है । हालांकि कन्हैया ने काग्रेस और वामपंथियों के साथ खड़े होने की तस्वीर को सच के साथ खड़ा कर विचारधारा को दरकिनार किया । लेकिन अब चुनाव असम , बंगाल और केरल में है जहा वामपंथी राजनीति की मौजूदगी है । तो क्या बीजेपी के खिलाफ तीनो जगहो पर वामपंथी और काग्रेस साथ खडे होंगे । खासकर बंगाल को लेकर यह सवाल बड़ा है कि अतिवाम धारा ने काग्रेस की सत्ता 1967 में बंगाल में डिगाई। वामपंथी सिंगूर से नंदीग्राम तक काग्रेसी धारा में बहे तो ममता ने वाम सोच को लालगढ में पकड़ा और बंगाल की सत्ता बदल गई । उसके बाद से वाम राजनीति बंगाल में हाशिये पर चली गई । लेकिन अब मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिये कांग्रेस भी उसी वाम सोच को अगर पकड़ रही है जो लाल सलाम का नारा लगाती है तो फिर पहली बार बीजेपी भी चाहे अनचाहे वाम राजनीति की चुनावी जमीन के केन्द्र में खड़ी होगी । क्योंकि राइट और लेफ्ट की लकीर के एक तरफ बीजेपी है तो दूसरी तरफ ममता, राहुल और येचुरी तीनो है । और इस खेल के बीच तीन बड़े सवाल हर जेहन में हैं।पहला क्या यह चुनाव ऱाष्ट्रवाद और देशद्रोह का एसिड टेस्ट होगा । दूसरा क्या यह मोदी सरकार के लिये एसिड टेस्ट होगा और तीसरा क्या छात्र राजनीति पारंपरिक राजनीति की बिसात को बदल देगी । ध्यान दे तो तीनों सवालों के केन्द्र में मोदी सरकार है । क्योंकि जो सवाल जेएनयू में नारों के शक्ल में कन्हैया ने उठाये । उन सवालो को राहुल गांधी संसद में उठाने से नहीं चूके
। लेकिन असर कन्हैया का ज्यादा हुआ । तो क्या कन्हैया परसेप्शन के तौर पर राहुल गांधी के लिये भी चुनौती है । और चाहे अनचाहे बीजेपी को वह चुनावी स्पेस मिल गया जिसमें कल तक कांग्रेस की भी भागेदारी थी । या फिर मोदी सरकार ने अपनी सियासत से ऐसा माहौल बना दिया जिसमें तमाम राजनीतिक दल इसके खिलाफ दिखायी दे । और खिलाफ खडे राजनीतिक दलों के सामने यह संकट हो कि वह अपनी राजनीति मोदी सरकार का विरोध कर ही दिखा पाये ।
दरअसल बीजेपी भी इस सच को समझ रही है और कांग्रेस भी । इसीलिये असम में असमगण परिषद के साथ गठबंधन को लेकर बीजेपी में ही सवाल उठने लगे है । बंगाल में कांग्रेस वाम और ममता के बीच दोराहे पर खड़ी है । केरल में एलडीएफ और यूडीएफ के पारंपरिक संघर्ष के बीच संघ की दस्तक कुछ नये गुल खिलाने को तैयार हैं ।तमिलनाडु में जयललिता का साथ बीजेपी को कांग्रेस के ऊपर ला खड़ा कर सकता है । यानी जो सवाल संसद से लेकर दिल्ली की सड़कों पर उछाले जा रहे है उन सवालो को ही बीजेपी अपनी ताकत बना रही है ।
ध्यान दें तो जेएनयू में कन्हैया की पहली विवादास्पद नारेबाजी से जेएनयू कैंपस में वापस लौटने तक देश ने जो देखा-सुना और समझा, उसमें एक बात साफ दिखी कि या तो आप राष्ट्रवादी हैं या राष्ट्रविरोधी। और इसे ही बीजेपी अपनी ताकत बना रही है । और बीजेपी का यही रुख कन्हैया के जरीये राजनीति विरोध को तो स्पेस दे रहा है लेकिन राजनीतिक विकल्प उभर नहीं पा रहा है । यानी पांच राज्यों के चुनाव की मुनादी ऐसे वक्त हुई है जहां देश में राजनीतिक माहौल सबसे गर्म है । सत्ता और विपक्ष के बीच टकराव चरम पर है । राष्ट्रवाद और देशद्रोह के बीच की लकीर सियासी तौर पर मोटी हो रही है । और जीत के लिये छात्र संघर्ष को ही हथियार बनाया जा रहा है । और कन्हैया के नारे राजनीतिक शून्यता का सवाल तो उठा रहे हैं लेकिन इसे भरेगा कौन इसका जबाब अभी भी गायब है । तो क्या छात्र राजनीति मौजूदा वक्त की जरुरत है । क्योंकि विपक्ष के पास तेवर नहीं बचे और सत्ता के लिये इससे सुनहरा वक्त नहीं होता कि छात्र राजनीति का विरोध राजनीतिक विकल्प को पनपने नहीं देता । यानी विरोध के स्वर छात्रों के बीच से निकले और छात्र ही अगुवाई करते नजर आये तो पारपरिक राजनीतिक दलों का आस्तित्व खुद ब खुद संकट में नजर आने लगेगा । ध्यान दें तो मौजूदा वक्त में छात्र संघर्ष की गूंज का कोई राजनीतिक सिरा आपके पकड़ में नहीं आयेगा । जबकि इससे पहले छात्रों को
राजनीति ने अपना टूल बनाया । मसलन 1960 के दशक के आखिर में परवान चढ़े नक्सल आंदोलन से लेकर चार साल पहले के अन्ना आंदोलन तक जब भी देश में बड़े राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन हुए छात्रों का बड़ा तबका उसे सफल बनाने में जुटा। यानी छात्रों ने राजनीतिक सत्ता को बदलने में अपने संघर्ष को झोका । लेकिन पहली बार राजनीतिक नेतृत्व गायब है और छात्र ही राजनीतिक दलों की तुलना में कही ज्यादा तीखे तरीके से मुद्दो को उठा रहा है । यानी जेपी से लेकर वीपी तक । और आडवाणी से लेकर आन्ना तक के संघर्ष को छात्रों की मदद मिली । लेकिन नये हालात में सवाल रोहित वेमुला के जरीये दलित उत्पीडन का हो । या जेएनयू के जरीये राजद्रोह का हो । या फिर -हिन्दुत्व तले साप्रादियक लकीर खिंचे जाने का हो । तमाम राजनीतिक पार्टियो के सरोकार जनता से जुडते नजर नहीं आये लेकिन छात्र संघर्ष की कडिया हैदराबाद से निकलकर जेएनयू होते हुये कमोवेश देश के हर छात्रो को सडक पर लाकर संघर्ष करते हुये देश को दिखा जरुर गई । तो क्या छात्र संघर्ष का नया नजारा सिर्फ बुलबुला भर नहीं है या अतीत के आंदोलनो से अलग कही ज्यादा तीव्र है । क्योकि याद कीजिए गरीब-मजदूर-दलित और किसान के शोषण के खिलाफ नक्सलबाडी से नक्सल आंदोलन ने जोर पकड़ा तो उसमें शामिल होने आईआईटी के छात्र भी पहुंचे और मुंबई के अलफिस्टन कालेज के छात्र भी पहुंचे । नतीजा कांग्रेसी सिद्दाऱ्त शंकर रे की कुर्सी गई । सीपीएम सत्ता में आई । गुजरात में महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन शुरु हुआ तो छात्रों ने देश की राजनीति को सही दिशा में लाने के लिए जोर लगा दिया। नतीजा कांग्रेसी सीएम चिम्मनभाई को इस्तीफा देना पड़ा। इसी दौर में बिहार में जेपी आंदोलन परवान चढ़ा तो उसे मजबूत बनाने का जिम्मा में छात्र राजनीति में राजनीति का ककहरा सीख रहे छात्रों पर ही था। जिन्होने इंदिरा की गद्दी डिगा दी । वीपी ने बोफोर्स छेडा तो भ्र,्ट्रचार के खिलाफ छात्र नारे लगते हुये निकले । आरक्षण के विरोध में छात्र 90 के दशक में सड़क पर उतरे तो राम जन्मभूमि आंदोलन में भी छात्रों का बड़ा तबका कारसेवा के लिए अयोध्या पहुंचा। यानी हर दौर में राजनीतिक लीडरशीप छात्रों का इस्तेमाल कर रही थी । और सही मायने में थात्र राजनीति का सियासी अंदाज अगर तीन दशक पहले प्रभुल्ल मंहत के जरीये असम में नजर आया तो दो बरस पहले केजरीवाल के जरीये दिल्ली में भी नजर आया ।
लेकिन कन्हैया ने आंदोलन के ही नहीं बल्कि वैचारिक राजनीति की जमीन को भी पहली बार जिस तरह जेएनयू कैपस से ही हिलाया । उसने यह सवाल तो खडा कर दिया कि क्या वाकई छात्र संघर्ष मौजूदा राजनीति को बदल सकता है या फिर मौजूदा वक्त में राजनीतिक वकल्प को भरने की छटपटाहट भर है रोहित वेमुला के सवाल और कन्हैया के नारे ।
। लेकिन असर कन्हैया का ज्यादा हुआ । तो क्या कन्हैया परसेप्शन के तौर पर राहुल गांधी के लिये भी चुनौती है । और चाहे अनचाहे बीजेपी को वह चुनावी स्पेस मिल गया जिसमें कल तक कांग्रेस की भी भागेदारी थी । या फिर मोदी सरकार ने अपनी सियासत से ऐसा माहौल बना दिया जिसमें तमाम राजनीतिक दल इसके खिलाफ दिखायी दे । और खिलाफ खडे राजनीतिक दलों के सामने यह संकट हो कि वह अपनी राजनीति मोदी सरकार का विरोध कर ही दिखा पाये ।
दरअसल बीजेपी भी इस सच को समझ रही है और कांग्रेस भी । इसीलिये असम में असमगण परिषद के साथ गठबंधन को लेकर बीजेपी में ही सवाल उठने लगे है । बंगाल में कांग्रेस वाम और ममता के बीच दोराहे पर खड़ी है । केरल में एलडीएफ और यूडीएफ के पारंपरिक संघर्ष के बीच संघ की दस्तक कुछ नये गुल खिलाने को तैयार हैं ।तमिलनाडु में जयललिता का साथ बीजेपी को कांग्रेस के ऊपर ला खड़ा कर सकता है । यानी जो सवाल संसद से लेकर दिल्ली की सड़कों पर उछाले जा रहे है उन सवालो को ही बीजेपी अपनी ताकत बना रही है ।
ध्यान दें तो जेएनयू में कन्हैया की पहली विवादास्पद नारेबाजी से जेएनयू कैंपस में वापस लौटने तक देश ने जो देखा-सुना और समझा, उसमें एक बात साफ दिखी कि या तो आप राष्ट्रवादी हैं या राष्ट्रविरोधी। और इसे ही बीजेपी अपनी ताकत बना रही है । और बीजेपी का यही रुख कन्हैया के जरीये राजनीति विरोध को तो स्पेस दे रहा है लेकिन राजनीतिक विकल्प उभर नहीं पा रहा है । यानी पांच राज्यों के चुनाव की मुनादी ऐसे वक्त हुई है जहां देश में राजनीतिक माहौल सबसे गर्म है । सत्ता और विपक्ष के बीच टकराव चरम पर है । राष्ट्रवाद और देशद्रोह के बीच की लकीर सियासी तौर पर मोटी हो रही है । और जीत के लिये छात्र संघर्ष को ही हथियार बनाया जा रहा है । और कन्हैया के नारे राजनीतिक शून्यता का सवाल तो उठा रहे हैं लेकिन इसे भरेगा कौन इसका जबाब अभी भी गायब है । तो क्या छात्र राजनीति मौजूदा वक्त की जरुरत है । क्योंकि विपक्ष के पास तेवर नहीं बचे और सत्ता के लिये इससे सुनहरा वक्त नहीं होता कि छात्र राजनीति का विरोध राजनीतिक विकल्प को पनपने नहीं देता । यानी विरोध के स्वर छात्रों के बीच से निकले और छात्र ही अगुवाई करते नजर आये तो पारपरिक राजनीतिक दलों का आस्तित्व खुद ब खुद संकट में नजर आने लगेगा । ध्यान दें तो मौजूदा वक्त में छात्र संघर्ष की गूंज का कोई राजनीतिक सिरा आपके पकड़ में नहीं आयेगा । जबकि इससे पहले छात्रों को
राजनीति ने अपना टूल बनाया । मसलन 1960 के दशक के आखिर में परवान चढ़े नक्सल आंदोलन से लेकर चार साल पहले के अन्ना आंदोलन तक जब भी देश में बड़े राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन हुए छात्रों का बड़ा तबका उसे सफल बनाने में जुटा। यानी छात्रों ने राजनीतिक सत्ता को बदलने में अपने संघर्ष को झोका । लेकिन पहली बार राजनीतिक नेतृत्व गायब है और छात्र ही राजनीतिक दलों की तुलना में कही ज्यादा तीखे तरीके से मुद्दो को उठा रहा है । यानी जेपी से लेकर वीपी तक । और आडवाणी से लेकर आन्ना तक के संघर्ष को छात्रों की मदद मिली । लेकिन नये हालात में सवाल रोहित वेमुला के जरीये दलित उत्पीडन का हो । या जेएनयू के जरीये राजद्रोह का हो । या फिर -हिन्दुत्व तले साप्रादियक लकीर खिंचे जाने का हो । तमाम राजनीतिक पार्टियो के सरोकार जनता से जुडते नजर नहीं आये लेकिन छात्र संघर्ष की कडिया हैदराबाद से निकलकर जेएनयू होते हुये कमोवेश देश के हर छात्रो को सडक पर लाकर संघर्ष करते हुये देश को दिखा जरुर गई । तो क्या छात्र संघर्ष का नया नजारा सिर्फ बुलबुला भर नहीं है या अतीत के आंदोलनो से अलग कही ज्यादा तीव्र है । क्योकि याद कीजिए गरीब-मजदूर-दलित और किसान के शोषण के खिलाफ नक्सलबाडी से नक्सल आंदोलन ने जोर पकड़ा तो उसमें शामिल होने आईआईटी के छात्र भी पहुंचे और मुंबई के अलफिस्टन कालेज के छात्र भी पहुंचे । नतीजा कांग्रेसी सिद्दाऱ्त शंकर रे की कुर्सी गई । सीपीएम सत्ता में आई । गुजरात में महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन शुरु हुआ तो छात्रों ने देश की राजनीति को सही दिशा में लाने के लिए जोर लगा दिया। नतीजा कांग्रेसी सीएम चिम्मनभाई को इस्तीफा देना पड़ा। इसी दौर में बिहार में जेपी आंदोलन परवान चढ़ा तो उसे मजबूत बनाने का जिम्मा में छात्र राजनीति में राजनीति का ककहरा सीख रहे छात्रों पर ही था। जिन्होने इंदिरा की गद्दी डिगा दी । वीपी ने बोफोर्स छेडा तो भ्र,्ट्रचार के खिलाफ छात्र नारे लगते हुये निकले । आरक्षण के विरोध में छात्र 90 के दशक में सड़क पर उतरे तो राम जन्मभूमि आंदोलन में भी छात्रों का बड़ा तबका कारसेवा के लिए अयोध्या पहुंचा। यानी हर दौर में राजनीतिक लीडरशीप छात्रों का इस्तेमाल कर रही थी । और सही मायने में थात्र राजनीति का सियासी अंदाज अगर तीन दशक पहले प्रभुल्ल मंहत के जरीये असम में नजर आया तो दो बरस पहले केजरीवाल के जरीये दिल्ली में भी नजर आया ।
लेकिन कन्हैया ने आंदोलन के ही नहीं बल्कि वैचारिक राजनीति की जमीन को भी पहली बार जिस तरह जेएनयू कैपस से ही हिलाया । उसने यह सवाल तो खडा कर दिया कि क्या वाकई छात्र संघर्ष मौजूदा राजनीति को बदल सकता है या फिर मौजूदा वक्त में राजनीतिक वकल्प को भरने की छटपटाहट भर है रोहित वेमुला के सवाल और कन्हैया के नारे ।
Friday, March 4, 2016
बीमार राजनेताओं से देश का इलाज
अगर एनकाउंटर और आतंकवाद के सवाल पर सत्ता बदलते ही भारत सरकार के दो रुख सामने आने लगे तो क्या देश को देखने का नजरिया सत्ता बदलने के साथ बदलना होगा। या फिर सत्ता अपनी राजनीतिक सुविधा से एनकाउंटर और आतंकवाद के मामले पर रुख बदल रही थी। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी से पहले देश के
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। उस वक्त गृहमंत्री चिदंबरम थे । गृह सचिव जी के पिल्लई थे। अंडरसेक्रेटी आरवीएसमणि थे । और उसी दौर में गुजरात में इशरत का इनकाउंटर हुआ था । और उसी दौर में इशरत आतंकवादी से मासूम लडकी करार दे दी गई। और उस दौर में ना तो गृहसचिव पिल्लई और ना ही अंडरसेक्रेट्री आरवीएसमणी ने चूं तक की। तो क्या सत्ता नौकरशाहों को दबाकर अपने लिये काम करवाती है । या फिर राजनीतिक सत्ता के आगे समूचा सिस्टम या तो खत्म हो जाता है या फिर राजनीतिक सत्ता ही सिस्टम हो जाती है क्योंकि इशरत को लेकर मनमोहन सिंह के दौर के गृह सचिव और अंडर सेक्रेट्री अब बोले जब सत्ता बदल गई । और संयोग से इशरत के इनकाउंटर का सवाल प्रधानमंत्री मोदी के उसी दौर से टकरा रहा है जब वह पीएम बने नहीं थे और गुजरात के सीएम थे। तो क्या आतंकवाद का सवाल चाहे अनचाहे देश के साथ गद्दारी या देशभक्ति के साथ इस तरह जोडकर परोसा जाता है जिससे राजनीतिक सत्ता की आतंकवाद पर व्याख्या हर दौर में सही लगे । तो मुश्किल यह नहीं कि इशरत को लेकर मनमोहन के दौर के नौकरशाह अब सामने क्यों आये।
सवाल यह है कि क्या वाकई देश के गृहमंत्री के दबाब में ना सिर्फ इशरत को आतंकी से मासूम करार दिया गया बल्कि एसआईटी से लेकर सीबीआई भी राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करती रही। तो फिर इसकी क्या गारंटी है कि कल जब देश में सत्ता बदल जायेगी तो राजनीतिक हालात ऐसे ना बने कि मौजूदा वक्त के गृह सचिव राजीव महर्षि हो या ज्वाइंट सेकेर्ट्री या वीआरएस मणी की तर्ज पर कोई अंडर सेक्रेटी आने वाले दौर में मौजूदा राजनीतिक सत्ता को नकारते हुये तब की सत्त के साथ खडे होकर अब के दौर को ही कटङरे में खडा ना कर दें । क्योकि सवाल सिर्फ राजनीतिक सत्ता के बदलने भर का नहीं है बल्कि सवाल संस्थानो के खत्म होने का है । या कहे सस्थानो के भी राजनीतिक सत्ता में समाने का है । क्योंकि चिदंबरम के गृह मंत्री रहते हुये जो पहला हलफनामा 6 सितंबर 2009 को हाईकोर्ट को सौपा गया उसमें इशरत के तार आतंकवादियों से जुड़ रहे थे । और 24 दिन बाद 30 सितंबर 2009 को जो दूसरा हलफनामा दायर हुआ उसमें इशरत मासूम बताई गई और एनकाउंटर फर्जी करार दिया गया। जाहिर है 24 दिनो के बीच क्या कैसे बदला इसी का जिक्र उस वक्त के अंडर
सेक्रेटी या गृह सचिव अब कर रहे है । कि कैसे मानसिक दबाब से लेकर शारिरिक प्रताडना की गई । तो क्या सत्ता का वाकई ऐसा खौफ होता है । लेकिन कुछ सवाल तबके जो अब भी अनसुलझे हैं। मसलन चिदंबरम के बदले रुख [दो हलफनामे ] के बीच में 7 सितंबर 2009 को मेट्रोपोलेटेन मजिस्ट्रेट तमांग एनकाउंटर को फर्जी करार देते है । तो क्या केन्द्र सरकार की लंबी जांच के बावजूद चिदंबरम को उस वक्त तमांग का तर्क ठीक लगा । और जब देश की सत्ता ने ही एनकाउंटर को फर्जी करार देकर इशरत को मासूम करार दे दिया तो
उसके बाद एसआईटी और सीबीआई की क्या बिसात । इसीलिये एसआईटी ने 2010-11 के बीच तीन बार तो सीबीआई ने 2013-14 के बीच दो बार एनकाउंटर को फर्जी करार दिया। लेकिन अब जब केन्द्र में सत्ता बदल चुकी है और पुराने नौकरशाह निकल कर आतंक का कच्चा-चिट्टा खोल रहे है तो यह सवाल मौजूं हैं कि क्या देश में राजनीतिक सत्ता बदलते ही सच को झूठ या झूठ को सच बनाने का खेल सामने आता है । या फिर सत्ता ही देश के साथ देशभक्ति या देशद्रोह का खेल खेलना शुरु कर रही है । क्योंकि यह सिर्फ राजनीतिक टकराव है तो भी देश के लिये घातक है और अगर राजनीतिक टकराव से आगे के हालात है तो फिर कानून अपना काम क्यों नहीं करता। सिर्फ सत्ता ही काम करती हुई नजर क्यों आती है।
क्योंकि उसी दौर में गुजरात की सीएम आनंदीबेन की बेटी अनार को नरेन्द्र मोदी के सीएम रहते हुये कौडियों के मोल जमीन का मामला भी सामने आता है। और चिदंबरम के बेटे कार्ति के 2 जी स्कैम में घोटाले के तार मनमोहन सिंह के दौर में कैसे दबाये गये यह भी सामने आते है। फिर दोनों मामलों में कानून काम करता हुआ नजर नहीं आता । और सत्ता इतनी उग्र हो जाती है कि सत्ताधरियों की देश में लूटपाट एक ही हमाम में हर किसी को खडा कर अपने दौर को निकालने की दिशा में बढती नजर आती है । यानी देश के साथ गद्दारी । देश की संपत्ति की लूटपाट । विदेशी तार से जुडे होकर कहीं संपत्ति तो कभी तक को परिभाषित करने वाले हालात अगर जनता के सामने आते है और राजनेता ही कटघरे में खड़ा नजर आते है तो फिर जनता क्या लोकतंत्र का राग हर पांच बरस बाद के चुनाव तले ही बैठ कर गाये। क्योंकि लग तो यही रहा है कि टकराव के इस दौर में देश की सुरक्षा से लेकर देश के सिस्टम तक राजनीतिक सत्ता अपनी सुविधा से कुचल देती है और देश के गृहमंत्री रहते हुये चिंदबरम ने इशरत के टैरर को रेड कारपेट तले दबा देते है और मोदी सरकार आरोप लगाकर खामोश हो जाती है। क्योंकि लोकतंत्र तो चैक-एंड-बैलेंस पर टिका है। अगर ऐसा हुआ है तो फिर देशद्रोह का इससे ज्यादा बडा मामला और क्या हो सकता है । यानी सरकार को कहने की जगह तो तुरंत जांच कराकर आरोप साबित करते हुये कार्रवाई करनी चाहिये । औरअगर देश के सत्ताधारी सिर्फ सियासत कर रहे है तो देशद्रोह के आरोप में कन्हैया को जमानत देते वक्त जज जिस तरह के सवाल कन्हैया को लेकर उठाते है अगर उन सवालो को देश के राजनेताओ की तरफ मोड दिया जाये तो हालात क्या बनेगें जरा यह भी समझ लें । क्योकि जज ने फ़ैसले में कहा है कि छात्र संघ अध्यक्ष होने के नाते कैंपस में होने वाले किसी भी राष्ट्रविरोधी कार्यक्रम की ज़िम्मेदारी कन्हैया की समझी जाती है। वह जिस अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात कर रहे हैं, वह भारत की सीमा की रक्षा करने वाले सैनिकों की वजह से है। तो देश के हालात के लिये लोकतंत्र का राग गाया जाये या फिर सत्ताधारियो की भी कोई जिम्मेदारी है। जज ने कहा है कि कुछ छात्रों ने जैसे नारे लगाए, वो अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार के तहत नहीं आते। ''मुझे यह एक तरह का संक्रमण लगता है, जिससे ऐसे छात्र पीड़ित हैं और महामारी बनने से पहले इसके नियंत्रण और उपचार की ज़रूरत है। जब भी किसी अंग में इन्फ़ेक्शन होता है तो पहले एंटीबायोटिक दवा दी जाती है और अगर इससे काम नहीं चलता तो फिर दूसरा उपचार होता है. कभी-कभी इसके लिए सर्जरीकी जाती है. अगर इन्फ़ेक्शन की वजह से अंग इस हद तक संक्रमित हो कि गैंग्रीन हो जाए तो अंग को काटना ही अकेला उपाय बचता है.'' तो फिर इशरत को लेकर चिंदबरम सही है या मोदी । सही गलत कोई भी हो ।
समझना तो यही होगा कि हम बिमार से हर पांच बरस बाद इलाज पूछ इलाज पूछते है या इलाज की दवाई मानते है । जबकि इलाज उसी जनता को करना है जो जाति की बीमारी से लेकर धर्म में खोयी है । और वोट बैंक की दवाई में बीमार राजनेताओं के इलाज तले अ ले पांच बरस के लिये देश को कहीं ज्यादा बीमार कर देती है ।