Friday, April 29, 2016
तो ये है देश का इकनॉमिक मॉडल
गुजरात में पाटीदारों ने आरक्षण के लिए जो हंगामा मचाया- जो तबाही मचायी । राज्य में सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति स्वाहा कर दी उसका फल उन्हें मिल गया। सरकार ने सामान्य वर्ग में पाटीदारों समेत आर्थिक रुप से पिछड़े लोगों के लिए दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी। तो विकास की मार में जमीन गंवाते पटेल समाज के लिये यह राहत की बात है कि जिनकी कमाई हर दिन पौने दो हजार की है उन्हे भी आरक्षण मिल गया । यानी सरकारी नौकरी का एक ऐसा आसरा जिसमें नौकरी कम सियासत ज्यादा है । यानी आरक्षण देकर जो सियासी राजनीतिक बिसात अब बीजेपी बिछायेगी उसमें उसे लगने लगा है कि अगले बरस गुजरात में अब उसकी हार नहीं होगी । और इससे पहले कुछ ऐसा ही हाल हरियाणा के जाट आंदोलन का है। आरक्षण इन्हें भी चाहिए था । और आरक्षण की मांग करते हुये करीब 33 हजार करोड़ की संपत्ति स्वाहा इस आंदोलन में हो गई ।
धमकी सरकार गिराने की दे दी गई तो आरक्षण भी मिल गया । लेकिन यह सवाल दोनों जगहों पर गायब है कि नौकरी है कितनी। और जिस जमीन और खेती को गंवाकर आरक्षण की राजनीति के रास्ते देश निकल रहा है उसका सच आने वाले वक्त में ले किस दिशा में जायेगा । क्योकि गुजरात में पटेल समाज की 12 फिसदी खेती
की जमीन विकास ने हडप ली । हरियाणा में जाट समाज की 19 फिसदी जमीन विकास ने हडप ली । देश में किसानों की कमाई में 27 फिसदी की गिरावट बीते 3 बरस में आई है । और अगर आरक्षण के जरीये नौकरियों की चाहत है तो हालात हैं कितने बुरे इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि गुजरात में 11,0189
रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं । तो हरियाणा में 30 लाख से ज्यादा रजिस्टर्ड बेरोजगार है । और देश की अर्थव्यवस्था जिस दिशा में जा रही है उसमें रोजगार बिना विकास का नारा ज्यादा बुलंद है कैसे तो आईये इसे भी समझ
लें ।
देश का असल सच यही है । जहा देश भर में रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 2 करोड 71 लाख 90 हजार है । तो वैसे बेरोजगार जो रोजगार दफ्तर तक भी नहीं पहुंच पाये उनकी संख्या 5 करोड 40 लाख है । और पूरे देश में सरकारी नौकरी करने वाले महज 1 करोड 70 लाख है । यानी जिस वक्त बिना रोजगार विकास के रास्ते मोदी सरकार चल पड़ी है और आरक्षण के मांग के लिये पटेल समाज से लेकर जाट समाज आरक्षण पा कर खुश है उस दौर का सच यह भी है कि बीते 9 बरस में देश में सरकारी नौकरी में 25 लाख नौकरियों की कमी आ गई । लेकिन ऐसा भी नहीं है कि विकास की सोच प्राइवेट नौकरिया पैदा कर रही है । मोदी सरकार
खुश है कि जीडीपी से लेकर निवेश में विकास हो रहा है लेकिन सच तो यही है कि भारत रोजगार रहित विकास की राह पर भारत चल पड़ा है। नौकरी का हाल क्य है-ये समझ लीजिए। देश के प्रमुख आठ कोर सेक्टरों में बीते बरस सबसे कम रोजगार पैदा हुआ । 2015 में सिर्फ 1.35 लाख युवाओं को रोजगार मिला । जबकि
2011 में 9 लाख और 2013 में 4.19 लाख युवाओ को नौकरी मिली थी । यानी जिसवक्त जीडीपी को लेकर सरकार अपना डंका दुनिया में यहकहकर बजा रही है कि दुनिया में छाई मंदी के बीच भी भारत की जीडीपी 7.7 फिसदी है । लेकिन इसका दूसरा सच यह हैकि रोजगार दर फकत 1.8 फीसदी है । हर महीने दस लाख युवा जॉब
मार्केट में कूद रहा है,लेकिन उसके लिए नौकरी है नहीं,क्योंकि एक तरफ सरकारी नौकरियां कम तो दूसरी तरफ निजी क्षेत्र में नौकरियों में सौ फिसदी तक की कमी आ चुकी है ।1996 -97 में सरकारी नौकरी जहां 1 करोड़ 95 लाख थी,जो अब एक करोड़ 70 लाख रह गई हैं । तो केयर रेटिंग के सर्वे के मुताबिक मोदी सरकार के दौर के पहले बरस यानी 2014-15 1072 कंपनियों नसिर्फ 12,760 जॉब पैदा किए । जबकि , 2013-14 में 188,371 नौकरियां निकली थी।तो क्या डिजिटल इंडिया से लेकर मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया तक
मोदी सरकार की तमाम योजनाएं आकर्षक भले हों लेकिन रोजगार पैदा हो नहीं रहे। तो बड़ा सवाल यही है कि रोजगार रहित विकास का मतलब है क्या? रोजगार पैदा ही नहीं होंगे तो पढ़ा लिखा युवा जाएगा कहां? क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि अगले 35 साल में भारत उन देशों में होगा-जहां रोजगार का भयंकर संकट होना है। और इससे कौन इंकार करेगा कि पेट भरने के लिए रोजगार तो चाहिए ही। लेकिन रोजगार पैदा करने से क्या देश आगे बढता है । क्योंकि विजय माल्या की कंपनियो की फेरहसित को ही समझे तो यूनाइटेड स्प्रिट्स लिमिटेड , यूनाइटेड ब्रेवरीज लिमिटेड , मंगलोर कैमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स, रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर ,यूबी इंजीनियरिंग लिमिटेड ,यूबीआईसीएस ,बर्जर पेंट , क्रॉम्पटन मालाबार कैमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स ,द एशियन एज, सिने ब्लिट्स सरीखे दर्जनो कंपनियो की ये फेरहिस्त काफी छोटी है । इस फेहरिस्त में देश की छोटी बडी दो हजार से ज्यादा कंपनिया आपको जोडनी होगी जिसमें काम करने वाले लोगो की तादाद 20 लाख पार कर जायेगी । और देश की सत्ता खुश हो जायेगी की भारत विकास की राह पर है । खूब रोजगार पैदा हो रहे है । तो जरा कल्पना किजिये देश के बैको को चूना लगाकर जो विजय माल्या लंदन भाग चुके है और अब वह कह रहे हैं कि भारत नहीं लौटेंगे ।
तो उसी विजय माल्या को बैंकों ने कर्ज दिया . उसी कर्ज से विजय माल्या ने कंपनियां खोली । उन्हीं कंपनियों में करीब एक लाख युवाओं को रोजगार मिले । और उसी रोजगार को देश के विकास से जोड़ा गया । और अब जब माल्या का सबकुछ लूट-लूटा चुका है तो सारी कंपनिया बंद हैं । सारे रोजगार खत्म हो चले हैं । तो मनमोहन सिंह के दौर के किंग ऑफ गुड टाइम्स मोदी सरकार के दौर में भगौडा बन चुके हैं । लेकिन सवाल वही उलझा है कि क्या देश के पास कोई इक्नामिक माडल नहीं है । क्योंकि मनमोहन सिंह के इक्नामिक माडल में विजयमाल्या हर बरस दो-चार कंपनियां.खोल रहे थे । मार्च 2012 में 6185 कर्मचारी काम करते थे । करीब 80 हजार से एक लाख लोगों को माल्या ने रोजगार दिया था । और माल्या के यूबी ग्रुप में कर्मचारी का औसत वेतन 2,28,258 रुपए से 8,85,470 रुपए की रेंज में था ।यानी माल्या ने पैसा बनाया तो पैसा बांटा भी। और सच कहा जाए तो पैसा डुबोकर भी पैसा बांटा। क्योंकि-किंगफिशर एयरलाइंस डुबने की स्थिति में माल्या ने सरकारी
बैंकों से यह कहते हुए ही कर्ज लिया कि कंपनी चलेगी तो रोजगार बढ़ेगा। और बैंक भी कर्ज देते रहे। लेकिन-जब कंपनी डूबी तो कर्मचारी सड़क पर आ गए और माल्या राजनीति के रास्ते पैसा लेकर लंदन भागने में कामयाब रहे। तो सवा बड़ा हैं, फर्जी विकास की राह पर देस चल रहा था । अब फर्जी विकास रोका गया तो फर्जी माडल ढह रहा है । फर्जी माडल के ढहने ने देश में रोजगार खत्म कर दिया है । और सवाल वही कि विजय माल्या देश लौट भी आये तो क्या होगा । क्या वह सहारा के सुब्रत राय की तर्ज पर जेल में रहेंगे । या फिर वसूली के उन रास्तो पर सरकार कोई नीतिगत फैसला लेगी । जिससे विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वाकई देश लाया जा सके । पनामा पेपर के लीक होने के बाद उन चेहरो पर लगाम कसी जा सके । और 6 हजार से ज्यादा कारोबारियो की पेरहिस्त जिन्होने हजारो कंपनियां खोल कर देश को चूना लगाया । खुद रईसी में रहे उनपर कोई लगाम लगायी जा सके । यानी आरक्षण से आगे देश जा नहीं पा रहा है और नौकरी बगैर विकास की राह परह देश है । और हर कोई मान चुका है कि राजनीति में ही सबसे ज्यादा नौकरी भी है और पावर भी ।
Tuesday, April 12, 2016
पानी के संकट को नहीं इसके धंधे को समझे
तो पानी का संकट भारत के लिये खतरे की घंटी है। क्योंकि दुनिया में जिस तेजी से जनसंख्या बढी और जिस तेजी से पानी कमा उसमें दुनिया के उन पहले देशों में भारत शुमार होता है, जहां सबसे ज्यादा तेजी से हर नागरिक के हिस्से में पानी कम होता चला जा रहा है। आलम यह है कि आजादी के वक्त यानी 1947 में 6042 क्यूबिक मीटर पानी हर व्यक्ति के कोटे में आता था। जो कम होते होते 2001 में 1816 क्यूबिक मीटर हो गया। तो 2011 में 1545 क्यूबिक मीटर पानी ही हर हिस्से में बचा । और आज की तारीख में यानी 2016 में 1495 क्यूबिक मीटर पानी हर व्यक्ति के हिस्सा का है। लेकिन विकसित होते देशों के कतार में भारत ही दुनिया का एक ऐसा देश है जहां पानी का कोई मैनेजमेंट है ही नहीं। यानी उपयोग में लाये जा चुके 90 फीसदी पानी को नदियों में पर्यावरण को और ज्यादा नुकसान करते हुये बहाया जाता है। 65 फीसदी बरसात का पानी समुद्र में चला जाता है। और इसके साथ साथ खेती और बिजली पैदा करने के लिये थर्मल पावर पर भारत की 90 फीसदी जनसंख्या टिकी है। यानी बिजली का उत्पादन बढाने के लिये पानी ही चाहिये । और सिंचाई के लिये बिजली से जमीन के नीचे से पानी निकालने की सुविधा चाहिये। और इस पूरी प्रक्रिया में विकसित होने का जो ढांचा भारत में अपनाया जा रहा है वह पानी को कही तेजी से खत्म कर रहा है। क्योंकि जनसंख्या पर रोक नहीं है । सूखे से निपटने के उपाय नहीं हैं। प्रदूषण फैलाते खाद के उपयोग पर रोक नहीं हैं। डैम और जलाशय के नुकसान पर कोई ध्यान नहीं है। उपजाऊ जमीन पर क्रंकीट खड़ा करने में कोई कोताही नहीं है। फसल बर्बादी से आंखें फेर आनाज आयात करने में कोई परेशानी नहीं है। और पानी से होती बिमारी को रोकने के कोई उपाय नहीं है । यानी भारत का रास्ता पानी को लेकर एक ऐसी दिशा में बढ़ रहा है, जहां खेती की अर्थव्यवस्था भी ढह जायेगी और थर्मल पावर सेक्टर भी बिजली देने में सक्षम महीं हो जायेगी ।
यानी जिस इकनॉमी को नेहरु ने हवाई उड़ान दी। वह इकनॉमी ही नहीं बल्कि देश भी 2050 में उसी इकनॉमी तले खत्म होने के कगार पर होगा क्योंकि 2050 में देश में प्रति व्यक्ति पानी का कोटा 1000 क्यूबिक मीटर से नीचे आ जायेगा । यानी चकाचौंध का वह पूरा ढांचा ही डगमगा रहा है। और चकाचौंध भी ऐसी जमीन पर कि एक तरफ पानी का संकट तो दूसरी तरफ संकट को ही धंधे में बदलने के कवायद। क्योंकि डेढ़ बरस बाद बोतलबंद पानी का धंधा 160 अरब रुपये का हो जायेगा। वह भी तब जब आज के हालात में पानी बेचने की दिशा में जो धंधा अपना चुके हैं। यह आंकडा उसका है। यानी अगले डेढ बरस में पानी का संकट और बढेगा तो तो यह 160 अरब के पानी का धंधा 200 अरब भी पार कर सकते हैं। यानी जो संविधान जीने का अकार हर नागरिक को देता है । उस संविधान की शपथ लेने वाली सरकारें हर नागरिक को मुफ्त में पीने का पानी भी दे पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है। और जो पानी दिया भी जा रहा है उसमे भी 60 फीसदी पानी साफ नहीं है । और असर इसी का है कि देश में 72 फीसदी बिमारी साफ पानी ना मिलने की वजह से हो रही है। और इन्हीं बीमारियों के इलाज के लिये देश में स्वास्थ्य सेवा भी मुनाफा वाला धंधा इस तरह बन चुका है कि आज की तारिख में निजी हेल्थ सेक्टर 10 लाख करोड़ रुपये पार कर चुका है। और पानी के इस मुनाफे वाले धंधे से अगला जुड़ाव खेती की जमीन पर कंक्रीट खड़ा करने का है । कोई भी रियल इस्टेट खेती की जमीन इसलिये पंसद करता है क्योंकि वहा जमीन के नीचे पानी ज्यादा सुलभ होता है । और खेती की जमीन को कैसे क्रिकट के जंगल में बदला जाये इसका खेल अगर क्रोनी कैपटलिज्म का एक बडा सच है तो दूसरा सच यह भी है कि कि बीते 10 बरस में 47 फीसदी कंक्रीट के जंगल खेती के जमीन पर खडे हो गये । और कंक्रीट के इस जंगल का मुनाफा बीते दस बरस में 20 लाख करोड से ज्यादा का है । यानी भारत जैसे देश में पानी का संकट कैसे मुनाफे वाले धंधे में बदलता जा रहा है । और इसे ही विकास का अविरल धारा माना जा रहा है । यह वाजपेयी सरकार के दौर में तब कही ज्यादा साफ हो गया जब 2002 में नेशनल वाटर पॉलिसी में सरकार ने पानी को निजी क्षेत्र के लिये खोल दिया । यानी जल संसाधन से जुड़ी परियोजनाओं को बनाने, उसके विकास और प्रबंधन में निजी क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता खुलते ही पानी से बाजार में मुनाफा कमाने की होड़ में कंपनियां टूट पड़ीं। जबकि इसी दौर में सरकार पीने का पानी उपलब्ध कराने के अपने सबसे पहले कर्तव्य से ही पीछे हटती चली गई। नतीजा यह हुआ कि आज भी साढ़े सात करोड़ से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध ही नहीं है । करोडो रुपयो के विज्ञापन इसपर फूके जा रहे है कि बोतलबंद पानी का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन सच यह भी है कुकरमुत्ते की तरह बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनिया उग तो आई लेकिन उसमें भी कीटनाशको की मिलावट है । और यह सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की रिसर्च में सामने आया । यानी मानकों से कोई लेना देना नहीं। बीते साल नवंबर में मुंबई में 19 ऐसी कंपनियों पर रोक लगाई गई थी। और सूखे के बीच ही इस आखरी सच को भी जान लीजिये कि एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने में पांच लीटर पानी खर्च होता है। तो सरकार के पास कोई नीति है नहीं इसलिये कैबिनेट की बैठक हो या आल पार्टी मीटिंग या सूखे पर चर्चा हो या पानी के संकट पर सरकार चर्चा करें । सभी के सामने वही बोलतबंद पानी होता है। जिसका धंधा अरबों-खरबों में पहुंच चुका है।
यानी जिस इकनॉमी को नेहरु ने हवाई उड़ान दी। वह इकनॉमी ही नहीं बल्कि देश भी 2050 में उसी इकनॉमी तले खत्म होने के कगार पर होगा क्योंकि 2050 में देश में प्रति व्यक्ति पानी का कोटा 1000 क्यूबिक मीटर से नीचे आ जायेगा । यानी चकाचौंध का वह पूरा ढांचा ही डगमगा रहा है। और चकाचौंध भी ऐसी जमीन पर कि एक तरफ पानी का संकट तो दूसरी तरफ संकट को ही धंधे में बदलने के कवायद। क्योंकि डेढ़ बरस बाद बोतलबंद पानी का धंधा 160 अरब रुपये का हो जायेगा। वह भी तब जब आज के हालात में पानी बेचने की दिशा में जो धंधा अपना चुके हैं। यह आंकडा उसका है। यानी अगले डेढ बरस में पानी का संकट और बढेगा तो तो यह 160 अरब के पानी का धंधा 200 अरब भी पार कर सकते हैं। यानी जो संविधान जीने का अकार हर नागरिक को देता है । उस संविधान की शपथ लेने वाली सरकारें हर नागरिक को मुफ्त में पीने का पानी भी दे पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है। और जो पानी दिया भी जा रहा है उसमे भी 60 फीसदी पानी साफ नहीं है । और असर इसी का है कि देश में 72 फीसदी बिमारी साफ पानी ना मिलने की वजह से हो रही है। और इन्हीं बीमारियों के इलाज के लिये देश में स्वास्थ्य सेवा भी मुनाफा वाला धंधा इस तरह बन चुका है कि आज की तारिख में निजी हेल्थ सेक्टर 10 लाख करोड़ रुपये पार कर चुका है। और पानी के इस मुनाफे वाले धंधे से अगला जुड़ाव खेती की जमीन पर कंक्रीट खड़ा करने का है । कोई भी रियल इस्टेट खेती की जमीन इसलिये पंसद करता है क्योंकि वहा जमीन के नीचे पानी ज्यादा सुलभ होता है । और खेती की जमीन को कैसे क्रिकट के जंगल में बदला जाये इसका खेल अगर क्रोनी कैपटलिज्म का एक बडा सच है तो दूसरा सच यह भी है कि कि बीते 10 बरस में 47 फीसदी कंक्रीट के जंगल खेती के जमीन पर खडे हो गये । और कंक्रीट के इस जंगल का मुनाफा बीते दस बरस में 20 लाख करोड से ज्यादा का है । यानी भारत जैसे देश में पानी का संकट कैसे मुनाफे वाले धंधे में बदलता जा रहा है । और इसे ही विकास का अविरल धारा माना जा रहा है । यह वाजपेयी सरकार के दौर में तब कही ज्यादा साफ हो गया जब 2002 में नेशनल वाटर पॉलिसी में सरकार ने पानी को निजी क्षेत्र के लिये खोल दिया । यानी जल संसाधन से जुड़ी परियोजनाओं को बनाने, उसके विकास और प्रबंधन में निजी क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता खुलते ही पानी से बाजार में मुनाफा कमाने की होड़ में कंपनियां टूट पड़ीं। जबकि इसी दौर में सरकार पीने का पानी उपलब्ध कराने के अपने सबसे पहले कर्तव्य से ही पीछे हटती चली गई। नतीजा यह हुआ कि आज भी साढ़े सात करोड़ से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध ही नहीं है । करोडो रुपयो के विज्ञापन इसपर फूके जा रहे है कि बोतलबंद पानी का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन सच यह भी है कुकरमुत्ते की तरह बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनिया उग तो आई लेकिन उसमें भी कीटनाशको की मिलावट है । और यह सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की रिसर्च में सामने आया । यानी मानकों से कोई लेना देना नहीं। बीते साल नवंबर में मुंबई में 19 ऐसी कंपनियों पर रोक लगाई गई थी। और सूखे के बीच ही इस आखरी सच को भी जान लीजिये कि एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने में पांच लीटर पानी खर्च होता है। तो सरकार के पास कोई नीति है नहीं इसलिये कैबिनेट की बैठक हो या आल पार्टी मीटिंग या सूखे पर चर्चा हो या पानी के संकट पर सरकार चर्चा करें । सभी के सामने वही बोलतबंद पानी होता है। जिसका धंधा अरबों-खरबों में पहुंच चुका है।
Sunday, April 10, 2016
नक्सलबाड़ी से जंगलमहल
बंगाल में सत्ता परिवर्तन के लिये "युद्ध क्षेत्र" होना चाहिये
साल की पत्तियों को जमा करते हैं । पांच पत्तियों को जोडकर प्लेट थाली जितना बड़ा बनाते हैं । फिर उसे धूप में सुखाते हैं । और सूखने के बाद सौ सौ के बंडल बनाते हैं । फिर सौ सौ के दस बंडल मिलाकर कर बेचते हैं । और इसकी कीमत मिलती है सौ रुपया । इसे करने में तीन दिन लग जाते है । और कोई काम तो जंगल में है नहीं । चिडिया पकड़ने के लिये इस तरह लकड़ी के छिलके को धागे से बाध कर बनाते हैं । रात में पेड़ पर लटकाते हैं तो सुबह दो चिड़िया तो फंस ही जाती है । जंगल में घूम कर सूखी लकड़िया जमा करते हैं । जिससे खाना बनाने के इंतजाम हो जाये । ममता दीदी ने यह राशन कार्ड बनवा दिया है । जो हमारे जिन्दा होने की निशानी भी है और जिन्दा रहने की जरुरत भी । क्योंकि इसी से दो रुपये किलो चावल मिलता है । हर हफ्ते छह किलों चावल और
आधा लीटर घासलेट । जिन्दगी जीने की यह कहानी उसी जंगलमहल के आडवडिया गांव की है । जिस जंगलमहल के सैकड़ों गांव की आग ने ममता बनर्जी को पांच बरस पहले सत्ता दिला दी । जंगलमहल के तीनों जिलों पश्चिमी मिदनापुर, पुरुलिया और बांकुरा के किसी भी गांव में घुसकर , किसी के घर के आंगन में खटिया पर बैठकर कुछ देर सुस्ता लीजिये तो ममता बनर्जी की सत्ता पाने की अनकही कहानी आपके आंखो के सामने रेंगने लगेगी । और वामपंथी सत्ता के खिलाफ हिंसक आंदोलन की शुरुआत कैसे हुई । उन तारीखो को अब भी ममता के साथ जुड चुके माओवादियो को याद है । क्योंकि उस दौर में संघर्ष और मौजूदा वक्त में सत्ता का सुकून कुछ माओवादियो को परेशान करता है । तो कुछ माओवादियो को सुकून देता है । यह हालात ठीक वैसे ही है जैसे कभी नक्सबाडी में कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ माओवादी खडे हुये थे और सत्ता परिवर्तन के बाद सीपीएम ने हर उस माओवादी को निशाने पर लिया जिसने वाम सत्ता से जुडने से इंकार कर दिया । अंतर इतना ही है कि 1970-72 के बीच नक्सबाडी में माओवादियों का खून ज्यादा बहा । और 2011-13 के बीच जंगलमहल में माओवादियों के खिलाफ मामले ज्यादा दर्ज हुये । कानूनी फाइले ज्यादा बनी। और जो ममता के साथ जो आया उसकी फाइले बंद हुई । दर्ज मामले वापस लिये गये ।
जहां ममता पर भरोसा कम है वहां माओवादी ममता बनर्जी के साथ आकर भी हथियार अपने पास छुपाये
हुये है । कि पता नहीं कब इसकी जरुरत पड़ जाये । लेकिन 2016 के विधानसभा चुनाव ने पहली बार उन हालातों को सामने नक्सलबाडी से लेकर जंगलमहल तक के ग्रामीण आदिवासियों के सामने ला खडा किया है जहां वह इस सच को समझने लगे है कि 50 बरस पहले काग्रेस के खिलाफ वामपंथियों ने नही नक्सलियो ने संघर्ष किया था। और उसी संघर्ष को राजनीतिक ढाल बनाकर सीपीएम सत्ता में आई । और 50 बरस बाद सीपीएम के खिलाफ ममता ने भी माओवादियो के संघर्ष को अपना राजनीतिक ढाल बनाया और सत्ता में गई । इसीलिये 2016 के चुनाव प्रचार के बीच 7 अप्रैल को जब सिलिगुडी में प्रधानमंत्री मोदी रैली करने पहुंचते हैं तो भीड़ के बीच में 78 बरस के बेटे प्राण सिंह भी मिल जाते है । जो बात बात में यह बोलने से नहीं चूकते कि नक्सलबाड़ी ही आखिरी रास्ता है । क्योकि तब और अब के हालात में अंतर सिर्फ इतना आया है कि तब सत्ता का चरित्र साफ दिखायी देता था और अब सत्ता ने बहुत सारे तंत्र को अपने अनुकूल बना लिया है । और तंत्र में जुड़े लोग नौकरी करते हुये । सत्ता को ही जनता का नुमाइंदा करने वाला मानते है । प्राण सिंह उसी धनेश्वरी देवी के बेटे है जिन्हे 24 मई 1967 में पुलिस ने मारा था । उस वक्त कुल नौ माओवादी मारे गये थे । और उसके बाद ही नक्लबाडी संघर्ष की शुरुआत हुई थी । खुद प्राण सिंह ने 1967 में बंदूक उठायी थी । लेकिन अब वह साफ कहते है बदलाव बंदूक से नहीं विचारधारा से आयेगा । और नक्सलबाडी विचारधारा थी । लेकिन हालात कैसे बदल गये इसका एहसास चुनावी गहमा गहमी में अगर कांग्रेसी उम्मीदवार के पीछे खडे वामपंथियों को देखकर समझा जा सकता है तो बीजेपी दफ्तरों को सुरक्षा देती तृणमूल कांग्रेस से भी समझा जा सकता है । और इसके सामानांतर नक्सलबाडी के आंदोलन को खड़ा करने वाले जंगल संथाल की पत्नी नीलमणि के तील तील मरने वाले हालात कोई पूछने वाला नहीं से देखकर भी समझा जा सकता है । नीलमणि भूलने वाली बीमारी से ग्रसित है और घर में कोई संभालने वाला नहीं है तो अधनंग-अधमरी हालत में घर की चौखट पर दिनभर पडी रहती है । और जंगलसंथाल के घर से सटे कानू सन्याल के घर को देखती शांति मुंडा है तो अस्सी पार लेकिन उनके भीतर बदलाव की ललक अब भी धधकती है । महिला विंग की कमांडर रह चुकी शांति मुडा का अब भी मानना है कि ‘नक्सलबाडी” कहीं गलत नहीं था । हां उस वक्त चीन के चैयरमैन को हमारे चैयरमैन कहना गलत था । तो गलती तो होती है । लेकिन जब किसान-मजदूर आदिवासी भूखे मरने लगेंगे तो फिर कौन सा रास्ता बचेगा । शांति मुंडा का मानना है कि सत्ता ही नहीं बल्कि मौजूदा वामपंथियों के पास कोई इकनॉमिक माडल नही है । जिससे देश में हर किसी को दो जून की रोटी मिल सके । और राजनीति दे जून की रोटी छीन कर ही रईसी का नाम है । इस लिये वह सत्ता बंदूक की नली से निकलती है के नारे पर चोट करने वालो पर यह कहकर चोट करती है कि नक्सेबाजी में वामपंथियों ने अपना उम्मीदवार क्यों खडा नहीं किया । कांग्रेसी उम्मीदवार को वामपंथी क्यों समर्थन कर रहे है ।
वैसे खास बात यह भी है कि जंगलसंथाल और कानू सन्याल के गांल हंसदिया को बीजेपी सांसद अहलूवालिया ने गोद लिया है। और शांति मुंडा के मुताबिक अहलूवालिया उनसे मिलने भी आये थे । और कह गये थे कि बुलेट से नहीं बेलेट से सत्ता चलती है तो पिर गांव की सड़क पर एक रोड़ा तक क्यों नहीं गिरा । और शांति मुंडा के इसी सवाल पर जब हमने अहलूवालिया से पूछा तो उन्होंने कहा कि ममता बनर्जी किसी योजना को लीक होने नहीं देती । और बीडीओ से लेकर कलेक्टर तक तो ममता से डरता है कही बीजेपी सांसद से बात करने की जानकारी लीक ना हो जाये । तो इस खौफ में कोई काम के होगा । कह सकते हैं हर किसी के सवाल दूसरे के सवालों से टकराते हुये ही दिखते हैं । लेकिन नक्सलबाडी अगर राजनीतिक तौर पर वामपंथियों की प्रयोगशाला के तौर पर रही । तो बंगाल का दूसरा सच जंगलमहल है । जहा सत्ता बदलने के महज पांच बरस बाद ही नक्सलबाडी की तर्ज पर सवाल है । क्योंकि ममता बनर्जी ने उन माओवादियो को बदल दिया जो सत्ता में समा गये । सालबानी के विधायक जो इस बार भी टीएमसी के टिकट पर चुनाव लड रहे हैं उनकी जिन्दगी ममता ने बदल दी । यह अलग बात है कि किशनजी के साथ रहते हुये वह जंगलमहल की जिन्दगी बदलने की बात करते थे । जिस वक्त श्रीकांतो महतो जंगल महल के लिये संघर्ष कर रहे थे । तब उनके जहन में ग्रामीण आदिवासी की जिन्दगी में परिवर्तन लाना था । लेकिन ममता ने उन्हीं 2011 में सालबानी से टिकट दिया और चुनाव जीतने के बाद जो श्रीकांतो महतो साल के पत्तो पर खाना खाते थे । वह विधायक श्रीकांतो महतो करोड़पति बन गया । और जो माओवादी मनोज महतो पांव में गोली लगने से घायल गो गया वह ममता की सत्ता तले जीने को बिना किसी पद भी मजबूर हो गया क्योकि पुलिस जब उसे दौडाती तो वह कहा भाग कर कहा जाता और कैसे संघर्ष करता । ऐसे अनकहे सच जंगलमहल के बेलपहाडी से लेकर कांटा पहाडी और सालबानी से लेकर लालगढ में पटे पडे है । लेकिन चुनाव के वक्त पहली बार सत्ता से सटे माओवादी जब यह सवाल उठाते है कि बंगाल में सत्ता परिवर्तन की नींव सिंगूर या नंदीग्राम से नहीं बल्कि तत्कालीन सीएम बुद्ददेव भट्टचार्य को बारुदी सुरहग से उडाने की घटना से पड़ी । यानी लालगढ से शुरुआत हुआ तो ममता की राजनीति के उलझे तार खुद ब खुद खुलते चले जाते हैं । क्योंकि टीएमसी कैडर बन चुके माओवादी बकायदा तारीख सहित बताते हैं कि 2 नवंबर 2008 को पश्चिमी मिदनापुर में लालगढ की सीमा के करीब से जा रहे बुद्ददेव भट्टचार्य को बारुदी सुरंग से उडाने का प्लान मई-जून से ही बनने गे था । क्योंकि जिंदल की फैक्टरी का उद्घाटन करने बुद्ददेव जायेंगे और किस रास्ते से जायेंगे । इसका जानकारी के बाद जंगल महल से गुजरते रेलवे पटरी से ही तार बिछा कर नेशनल हाइवे तक लायी गई थी । और जब बुद्ददेव बच गये तो उसके बाद से पुलिस और सीपीएम कैडर ने समूचे लालकगढ को खंगालना शुरु किया । और एक माओवादी के घर तक पुलिस पहुंची । जहा चीताभाई मूर्मू को मारा –पीटा गया । और उस घटना ने गांव वालो के भीतर गुस्सा बढाया तो सीपीएम कैडर ने हथियारों के साथ मौर्चा संभाल लिया ।
इस घटना से लेकर 2010 में जब लालगढ के नेताई गांव में जब सीपीएम हथियारबंद कैडर हरमत वाहिनी ने नौ लोगों को मारा तो उस घटना ने बंगाल में सत्ता परिवर्तन की नींव पुखत्क र दी । क्योकि पहली बार बंगाल पुलिस और सीपीएम कैडर के बीच लकीर कैसे मिट चुकी है य.ह साफ साफ दिखायी देने लेगा । और ममता बनर्जी ने राजनीतिक तौर पर माओवादियो के समूचे संघर्ष को ही साधना शुरु कर । वजह भी यही है टीएमसी सांसद शुभेन्दु अधिकारी शुरु से जंगलमहल के हालातो से दो चार हो रहे थे । तो वही आज की तारिख में ममता बनर्जी और टीएमसी में शामिल हुये माओवादियों के बीच कडी है । और सीपीएम की हरमद वाहिनी से दो दो हाथ करने
वाले माओवादियों को साथ खडा कर ममता बनर्जी ने अपना राजनीतिक घेरा ठीक उसी तरह बढाया और मजबूत किया जैसे 1970-72 के दौर में वामपंथियों ने नक्सलबाडी में बनाया था । तो सिर्फ तरीका ही नहीं बल्कि वैचारिक तौर पर भी वामपंथियों से लेकर ममता बनर्जी ने अपने पने राजनीतिक बिसात पर प्यादा वाम
सोच को ही बनाया । इसलिये नक्सलबाडी में घूमते हुये आप आज भी मार्क्स, लेनिन, चिन ली पाओ से लेकर माओ तक की प्रतिमा देख सकते हैं । तो जंगलमहल के पश्चिमी मिदनापुर के शहरी बाजार के सबसे व्यस्तम चौराहे पर कार्ल मार्क्स की प्रतिमा भी आपका स्वागत करेगी । और तस्वीरो की नींव बुलंद दिखायी दे इसके लिये ज्योति बसु ने लाल पत्थर कटवाया । तो ममता ने लाल पत्थर के सफेद-नीले से रंग कर इस एहसास को जंगम महल में जगाया कि तृणमूल कांग्रेस वाम से भी ज्यादा वाम है । लेकिन अतीत के हालातो का ककहरा दोनों भूल गये हैं तो यह भी भूल गये कि बंगाल में सत्ता परिवर्तन के लिये एक “ युद्द-क्षेत्र “हमेशा चाहिये । और 2016 के विधानसभा चुनाव के वक्त ना तो 1967 वाला नक्सलबाडी है, ना ही 2011 का जंगल महल सरीखा कोई “ युद्द-क्षेत्र “ है । सिर्फ ढहते मूल्यों की सियासत को लेकर गुस्सा है । इसलिये सिर्फ पांच बरस में वाम और ममता में कोई अंतर किसी को नजर आ नहीं रहा है ।
साल की पत्तियों को जमा करते हैं । पांच पत्तियों को जोडकर प्लेट थाली जितना बड़ा बनाते हैं । फिर उसे धूप में सुखाते हैं । और सूखने के बाद सौ सौ के बंडल बनाते हैं । फिर सौ सौ के दस बंडल मिलाकर कर बेचते हैं । और इसकी कीमत मिलती है सौ रुपया । इसे करने में तीन दिन लग जाते है । और कोई काम तो जंगल में है नहीं । चिडिया पकड़ने के लिये इस तरह लकड़ी के छिलके को धागे से बाध कर बनाते हैं । रात में पेड़ पर लटकाते हैं तो सुबह दो चिड़िया तो फंस ही जाती है । जंगल में घूम कर सूखी लकड़िया जमा करते हैं । जिससे खाना बनाने के इंतजाम हो जाये । ममता दीदी ने यह राशन कार्ड बनवा दिया है । जो हमारे जिन्दा होने की निशानी भी है और जिन्दा रहने की जरुरत भी । क्योंकि इसी से दो रुपये किलो चावल मिलता है । हर हफ्ते छह किलों चावल और
आधा लीटर घासलेट । जिन्दगी जीने की यह कहानी उसी जंगलमहल के आडवडिया गांव की है । जिस जंगलमहल के सैकड़ों गांव की आग ने ममता बनर्जी को पांच बरस पहले सत्ता दिला दी । जंगलमहल के तीनों जिलों पश्चिमी मिदनापुर, पुरुलिया और बांकुरा के किसी भी गांव में घुसकर , किसी के घर के आंगन में खटिया पर बैठकर कुछ देर सुस्ता लीजिये तो ममता बनर्जी की सत्ता पाने की अनकही कहानी आपके आंखो के सामने रेंगने लगेगी । और वामपंथी सत्ता के खिलाफ हिंसक आंदोलन की शुरुआत कैसे हुई । उन तारीखो को अब भी ममता के साथ जुड चुके माओवादियो को याद है । क्योंकि उस दौर में संघर्ष और मौजूदा वक्त में सत्ता का सुकून कुछ माओवादियो को परेशान करता है । तो कुछ माओवादियो को सुकून देता है । यह हालात ठीक वैसे ही है जैसे कभी नक्सबाडी में कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ माओवादी खडे हुये थे और सत्ता परिवर्तन के बाद सीपीएम ने हर उस माओवादी को निशाने पर लिया जिसने वाम सत्ता से जुडने से इंकार कर दिया । अंतर इतना ही है कि 1970-72 के बीच नक्सबाडी में माओवादियों का खून ज्यादा बहा । और 2011-13 के बीच जंगलमहल में माओवादियों के खिलाफ मामले ज्यादा दर्ज हुये । कानूनी फाइले ज्यादा बनी। और जो ममता के साथ जो आया उसकी फाइले बंद हुई । दर्ज मामले वापस लिये गये ।
जहां ममता पर भरोसा कम है वहां माओवादी ममता बनर्जी के साथ आकर भी हथियार अपने पास छुपाये
हुये है । कि पता नहीं कब इसकी जरुरत पड़ जाये । लेकिन 2016 के विधानसभा चुनाव ने पहली बार उन हालातों को सामने नक्सलबाडी से लेकर जंगलमहल तक के ग्रामीण आदिवासियों के सामने ला खडा किया है जहां वह इस सच को समझने लगे है कि 50 बरस पहले काग्रेस के खिलाफ वामपंथियों ने नही नक्सलियो ने संघर्ष किया था। और उसी संघर्ष को राजनीतिक ढाल बनाकर सीपीएम सत्ता में आई । और 50 बरस बाद सीपीएम के खिलाफ ममता ने भी माओवादियो के संघर्ष को अपना राजनीतिक ढाल बनाया और सत्ता में गई । इसीलिये 2016 के चुनाव प्रचार के बीच 7 अप्रैल को जब सिलिगुडी में प्रधानमंत्री मोदी रैली करने पहुंचते हैं तो भीड़ के बीच में 78 बरस के बेटे प्राण सिंह भी मिल जाते है । जो बात बात में यह बोलने से नहीं चूकते कि नक्सलबाड़ी ही आखिरी रास्ता है । क्योकि तब और अब के हालात में अंतर सिर्फ इतना आया है कि तब सत्ता का चरित्र साफ दिखायी देता था और अब सत्ता ने बहुत सारे तंत्र को अपने अनुकूल बना लिया है । और तंत्र में जुड़े लोग नौकरी करते हुये । सत्ता को ही जनता का नुमाइंदा करने वाला मानते है । प्राण सिंह उसी धनेश्वरी देवी के बेटे है जिन्हे 24 मई 1967 में पुलिस ने मारा था । उस वक्त कुल नौ माओवादी मारे गये थे । और उसके बाद ही नक्लबाडी संघर्ष की शुरुआत हुई थी । खुद प्राण सिंह ने 1967 में बंदूक उठायी थी । लेकिन अब वह साफ कहते है बदलाव बंदूक से नहीं विचारधारा से आयेगा । और नक्सलबाडी विचारधारा थी । लेकिन हालात कैसे बदल गये इसका एहसास चुनावी गहमा गहमी में अगर कांग्रेसी उम्मीदवार के पीछे खडे वामपंथियों को देखकर समझा जा सकता है तो बीजेपी दफ्तरों को सुरक्षा देती तृणमूल कांग्रेस से भी समझा जा सकता है । और इसके सामानांतर नक्सलबाडी के आंदोलन को खड़ा करने वाले जंगल संथाल की पत्नी नीलमणि के तील तील मरने वाले हालात कोई पूछने वाला नहीं से देखकर भी समझा जा सकता है । नीलमणि भूलने वाली बीमारी से ग्रसित है और घर में कोई संभालने वाला नहीं है तो अधनंग-अधमरी हालत में घर की चौखट पर दिनभर पडी रहती है । और जंगलसंथाल के घर से सटे कानू सन्याल के घर को देखती शांति मुंडा है तो अस्सी पार लेकिन उनके भीतर बदलाव की ललक अब भी धधकती है । महिला विंग की कमांडर रह चुकी शांति मुडा का अब भी मानना है कि ‘नक्सलबाडी” कहीं गलत नहीं था । हां उस वक्त चीन के चैयरमैन को हमारे चैयरमैन कहना गलत था । तो गलती तो होती है । लेकिन जब किसान-मजदूर आदिवासी भूखे मरने लगेंगे तो फिर कौन सा रास्ता बचेगा । शांति मुंडा का मानना है कि सत्ता ही नहीं बल्कि मौजूदा वामपंथियों के पास कोई इकनॉमिक माडल नही है । जिससे देश में हर किसी को दो जून की रोटी मिल सके । और राजनीति दे जून की रोटी छीन कर ही रईसी का नाम है । इस लिये वह सत्ता बंदूक की नली से निकलती है के नारे पर चोट करने वालो पर यह कहकर चोट करती है कि नक्सेबाजी में वामपंथियों ने अपना उम्मीदवार क्यों खडा नहीं किया । कांग्रेसी उम्मीदवार को वामपंथी क्यों समर्थन कर रहे है ।
वैसे खास बात यह भी है कि जंगलसंथाल और कानू सन्याल के गांल हंसदिया को बीजेपी सांसद अहलूवालिया ने गोद लिया है। और शांति मुंडा के मुताबिक अहलूवालिया उनसे मिलने भी आये थे । और कह गये थे कि बुलेट से नहीं बेलेट से सत्ता चलती है तो पिर गांव की सड़क पर एक रोड़ा तक क्यों नहीं गिरा । और शांति मुंडा के इसी सवाल पर जब हमने अहलूवालिया से पूछा तो उन्होंने कहा कि ममता बनर्जी किसी योजना को लीक होने नहीं देती । और बीडीओ से लेकर कलेक्टर तक तो ममता से डरता है कही बीजेपी सांसद से बात करने की जानकारी लीक ना हो जाये । तो इस खौफ में कोई काम के होगा । कह सकते हैं हर किसी के सवाल दूसरे के सवालों से टकराते हुये ही दिखते हैं । लेकिन नक्सलबाडी अगर राजनीतिक तौर पर वामपंथियों की प्रयोगशाला के तौर पर रही । तो बंगाल का दूसरा सच जंगलमहल है । जहा सत्ता बदलने के महज पांच बरस बाद ही नक्सलबाडी की तर्ज पर सवाल है । क्योंकि ममता बनर्जी ने उन माओवादियो को बदल दिया जो सत्ता में समा गये । सालबानी के विधायक जो इस बार भी टीएमसी के टिकट पर चुनाव लड रहे हैं उनकी जिन्दगी ममता ने बदल दी । यह अलग बात है कि किशनजी के साथ रहते हुये वह जंगलमहल की जिन्दगी बदलने की बात करते थे । जिस वक्त श्रीकांतो महतो जंगल महल के लिये संघर्ष कर रहे थे । तब उनके जहन में ग्रामीण आदिवासी की जिन्दगी में परिवर्तन लाना था । लेकिन ममता ने उन्हीं 2011 में सालबानी से टिकट दिया और चुनाव जीतने के बाद जो श्रीकांतो महतो साल के पत्तो पर खाना खाते थे । वह विधायक श्रीकांतो महतो करोड़पति बन गया । और जो माओवादी मनोज महतो पांव में गोली लगने से घायल गो गया वह ममता की सत्ता तले जीने को बिना किसी पद भी मजबूर हो गया क्योकि पुलिस जब उसे दौडाती तो वह कहा भाग कर कहा जाता और कैसे संघर्ष करता । ऐसे अनकहे सच जंगलमहल के बेलपहाडी से लेकर कांटा पहाडी और सालबानी से लेकर लालगढ में पटे पडे है । लेकिन चुनाव के वक्त पहली बार सत्ता से सटे माओवादी जब यह सवाल उठाते है कि बंगाल में सत्ता परिवर्तन की नींव सिंगूर या नंदीग्राम से नहीं बल्कि तत्कालीन सीएम बुद्ददेव भट्टचार्य को बारुदी सुरहग से उडाने की घटना से पड़ी । यानी लालगढ से शुरुआत हुआ तो ममता की राजनीति के उलझे तार खुद ब खुद खुलते चले जाते हैं । क्योंकि टीएमसी कैडर बन चुके माओवादी बकायदा तारीख सहित बताते हैं कि 2 नवंबर 2008 को पश्चिमी मिदनापुर में लालगढ की सीमा के करीब से जा रहे बुद्ददेव भट्टचार्य को बारुदी सुरंग से उडाने का प्लान मई-जून से ही बनने गे था । क्योंकि जिंदल की फैक्टरी का उद्घाटन करने बुद्ददेव जायेंगे और किस रास्ते से जायेंगे । इसका जानकारी के बाद जंगल महल से गुजरते रेलवे पटरी से ही तार बिछा कर नेशनल हाइवे तक लायी गई थी । और जब बुद्ददेव बच गये तो उसके बाद से पुलिस और सीपीएम कैडर ने समूचे लालकगढ को खंगालना शुरु किया । और एक माओवादी के घर तक पुलिस पहुंची । जहा चीताभाई मूर्मू को मारा –पीटा गया । और उस घटना ने गांव वालो के भीतर गुस्सा बढाया तो सीपीएम कैडर ने हथियारों के साथ मौर्चा संभाल लिया ।
इस घटना से लेकर 2010 में जब लालगढ के नेताई गांव में जब सीपीएम हथियारबंद कैडर हरमत वाहिनी ने नौ लोगों को मारा तो उस घटना ने बंगाल में सत्ता परिवर्तन की नींव पुखत्क र दी । क्योकि पहली बार बंगाल पुलिस और सीपीएम कैडर के बीच लकीर कैसे मिट चुकी है य.ह साफ साफ दिखायी देने लेगा । और ममता बनर्जी ने राजनीतिक तौर पर माओवादियो के समूचे संघर्ष को ही साधना शुरु कर । वजह भी यही है टीएमसी सांसद शुभेन्दु अधिकारी शुरु से जंगलमहल के हालातो से दो चार हो रहे थे । तो वही आज की तारिख में ममता बनर्जी और टीएमसी में शामिल हुये माओवादियों के बीच कडी है । और सीपीएम की हरमद वाहिनी से दो दो हाथ करने
वाले माओवादियों को साथ खडा कर ममता बनर्जी ने अपना राजनीतिक घेरा ठीक उसी तरह बढाया और मजबूत किया जैसे 1970-72 के दौर में वामपंथियों ने नक्सलबाडी में बनाया था । तो सिर्फ तरीका ही नहीं बल्कि वैचारिक तौर पर भी वामपंथियों से लेकर ममता बनर्जी ने अपने पने राजनीतिक बिसात पर प्यादा वाम
सोच को ही बनाया । इसलिये नक्सलबाडी में घूमते हुये आप आज भी मार्क्स, लेनिन, चिन ली पाओ से लेकर माओ तक की प्रतिमा देख सकते हैं । तो जंगलमहल के पश्चिमी मिदनापुर के शहरी बाजार के सबसे व्यस्तम चौराहे पर कार्ल मार्क्स की प्रतिमा भी आपका स्वागत करेगी । और तस्वीरो की नींव बुलंद दिखायी दे इसके लिये ज्योति बसु ने लाल पत्थर कटवाया । तो ममता ने लाल पत्थर के सफेद-नीले से रंग कर इस एहसास को जंगम महल में जगाया कि तृणमूल कांग्रेस वाम से भी ज्यादा वाम है । लेकिन अतीत के हालातो का ककहरा दोनों भूल गये हैं तो यह भी भूल गये कि बंगाल में सत्ता परिवर्तन के लिये एक “ युद्द-क्षेत्र “हमेशा चाहिये । और 2016 के विधानसभा चुनाव के वक्त ना तो 1967 वाला नक्सलबाडी है, ना ही 2011 का जंगल महल सरीखा कोई “ युद्द-क्षेत्र “ है । सिर्फ ढहते मूल्यों की सियासत को लेकर गुस्सा है । इसलिये सिर्फ पांच बरस में वाम और ममता में कोई अंतर किसी को नजर आ नहीं रहा है ।