श्रीनगर से 3 से 6 घंटे की दूरी पर कूपवाडा का केरन, तंगधार,नौ गाम और मच्चछल ऐसे क्षेत्र है जहा से लगातार घुसपैठ होती है । पहली ऐसी घुसपैठ बांदीपुरा के गुरेज सेक्टर से होती थी । लेकिन सेना ने वहा चौकसी बढाई को घुसपैठ बंद हो गई । तो यह सवाल हर जहन में आ सकता है कि सेना चाहे तो ठीक उसी तरह इन इलाको में घुसपैठ रोक सकती है । लेकिन पहली बार वादी में सवाल सीमापार से घुसपैठ से कही आगे देश के भीतर पनपते उस गुस्से का हो चला है जिसकी थाह कोई ले नहीं रहा । और जिसका लाभ आंतकवादी उठाने से नहीं चूक रहे । क्योकि जिस तरह कूपवाडा में मारा गया आतंकवादी समीर अहमद वानी के जनाजे में शामिल होने के लिये ट्रको में सवार होकर युवाओ क् जत्थे दर जत्थे सोपोर जा रहे है । उसने यह नया सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या आंतक की परिभाषा कश्मीर में बदल रही है या फिर आतंक का सामाजिकरण हो गया है । क्योंकि नई पीढी को इस बात का खौफ नहीं कि मारा गया समीर आंतकवादी था और वह उसके जनाजे में शामिल होंगे तो उनपर भी आतंकी होने का ठप्पा लग सकता है । बल्कि ऐसे युवाओं को लगने लगा है कि उनके साथ न्याय नहीं हो रहा है । और हक के लिये हिंसा को आंतक के दायरे में कैसे रखा है।
जाहिर है यह एेसे सवाल है जो 1989 के उस आंतक से बिलकुल अलग जो रुबिया सईद के अपहरण के बाद धाटी में शुरु हुआ । दरअसल 90 के दशक में आंतक से होते हुये आलगाववाद की लकीर कश्मीरी समाज में खौफ पैदा भी कर रही थी । और आंतक का खौफ कश्मीरी समाज को अलग थलग भी कर रही था । लेकिन अब जिस तरह सूचना तकनीक ने संवाद और जानकारी के रास्ते खोले है । दिल्ली और धाटी के बीच सत्ता की दूरी कम की है । राजनीतिक तौर पर सत्ता कश्मीर के लिये शॉ़टकट का रास्ता अपना रही है । उसने धाटी के आम लोगो और सत्ता के बीच भी लकीर किंच दी है । और यह सवाल दिल्ली के उस नजरिये से कही आगे निकल रहा है जहा खुफिया एजेंसी सीमा पार के आंतक का जिक्र तो कर रही है लेकिन घाटी में कैसे आतंक को महज हक के लिये हिसां माना जा रहा है और उसी का लाभ सीमापार के आंतकवादी भी उठा रहे है इसे कहने से राजनीतिक सत्ता और खुफिया एजेंसी भी बच रही है । यानी घाटी गिलानी और यासिन मलिक के आंतक से कही निकल कर युवा कश्मीरियों के जरीये आतंक का सामाजिकरण कर रही है।
लेकिन दिल्ली श्रीनगर का नजरिया अभी भी घाटी में आंतक को थामने के लिये बंधूक की बोली को ही आखिरी रास्ता मान कर काम रहा है । इसीलिये कश्मीर को लेकर हालात कैसे हर दिन हर नयी धटना के साथ सामने आने लगे है यह कभी पंपोर तो कभी कूपवाडा तो कभी सोपोर से लेकर घाटी के सीमावर्ती इलाकों में गोलियों की गूंज से भी समझा जा सकता है और श्रीनगर में विधानसभा के भीतर बीजेपी विधायकों का पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकवादी कैपो पर हवाई हमले करने की तक की मांग से भी जाना जा सकता है । तो दिल्ली में गृहमंत्री राजनाथ सिंह की तमाम खुफिया एजेंसियों के प्रमुखो के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और गृह सचिव के बीच इन हालातों को लेकर मंथन की कैसे आतंकी हमलो से सीआरपीएफ बचे । और उपाय के तौर पर यही निर्णय लेना कि सीआरपीएफ भी बख्तरबंद गाडी में निकले । सेना के साथ घाटी में मूवमेंट करसे आगे बात जा नहीं रही है । तो क्या दिल्ली और श्रीनगर के पास घाटी में खड़ी होती आंतक की नयी पौघ को साधने के कोई उपाय नहीं है ।
या फिर घाटी को देखने समझने का सरकारी नजरिया अब भी 1989 के उसी आतंकी घटनाओं में अटका हुआ है जब अलगाववादी नेताओ की मौजूदा फौज युवा थी । यानी तब हाथों में बंदूक लहराना और आंतक को आजादी के रोमान्टिज्म से जोडकर खुल्ळम खुल्ला कानून व्यवस्था को बंधूक की नोक पर रखना भर था । अगर ऐसा है तो फिर कश्मीर में आतंक के सीरे को नहीं बल्कि आतंक से बचने के उपाय ही खोजे जा रहे है । और आतंक पर नकेल कसने का नजरिया हो क्या इसे लेकर उलझने ही ज्यादा है। क्योंकि विधानसभा में जम्मू कश्मीर की सीएम महबूबा पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करती है । और सत्ता में महबूबा के साथ बीजेपी के विधायक रविन्द्र रैना पीओके के मिलिटेंट कैप पर हवाई हमले की मांग करते है । और दिल्ली में उसी बीजेपी की केन्द्र सरकार सीमा पर सेना को खुली कार्रवाई की इजाजत देने की जिक्र कर खामोश हो जाती है । यानी घाटी में जो पांच बड़े सवाल है उसपर कोई नहीं बोल रहा । क्योकि वह सत्ता के माथे पर शिकन पैदा करते है । पहला सवाल तो बढती बोरजगारी का है । दूसरा सवाल कश्मीर के बाहर कश्मीरियो के लिये बंद होते रास्तों का है । तीसरा सवाल दफ्न कश्मीरियो की पहचान का है। चौथा सवाल किसी भी आतंकी भेड़ के बाद उस इलाके के क्रेकडाउन का है जिसके दायरे में आम कश्मीरी फंसता है । और चौथा सवाल सेना से लेकर अद्दसेनिक बलो में श्रेय लेने की होड है । जिसमें मासूम फंसता है या आपसी होड कश्मीर को बंदूक के साये में ही देखना पसंद करती है । यह ठीक उसी तरह है जैसे कूपवाडा में दो आतंकवादियों को मारा किसने इसकी होड़ सेना और सीआरपीएफ में लग गई । दोनो की तरफ से ट्विट किये गये । लेकिन सीआरपीएफ ने जब विडियो फुटेज दिखायी तो सेना ने माना कि सीआरपीएफ ने ही आतंकवादियों को मारा । और इस बहस में यह सवाल गौण हो गया कि कैसे हमले से पहले आंतकवादी -पंपोर में हमले से पहले आतंकी करीब छह घंटे तक श्रीनगर शहर में घूमते रहे,जबकि पुलिस हाईअलर्ट पर थी । कैसे जिस कार में आतंकवादी सवार थे,उसने कई नाके क्रॉस किए लेकिन हमले के बाद कार मौका-ए-वारदात से फरार होने में कामयाब रही । कैसे सीआरपीएफ की रोड ओपनिंग पार्टी यानी आरओपी हाईवे को सुरक्षित करने में विफल रही और आतंकी हमले का जवाब नहीं दे पाई । कैसे सीआरपीएफ की बस,जिसमें जवान जा रहे थे,वो अलग थलग चल रही थी । कैसे सेना के काफिले में आगे और पीछे की गाड़ी में हथियारबंद जवानों का होना जरुरी है लेकिन ऐसा पर में नहीं हुआ । कैसे ट्रैफिक के दौरान सीआरपीएफ की गाड़ियां आगे-पीछे हो गई,जिसका मतलब है कि उनके बीच सामंजस्य नहीं था । यानी एक तरफ रवैया ढुलमुल तो दूसरी तरफ आधुनिक तकनीक के आसरे दुनिया से जुडता पढा लिखा कश्मीरी । जिसके सामने कश्मीर से बाहर दुनिया को जानने का नजरिया इंटरनेट या सोशल मीडिया ही है । जो भारत को कहीं तेजी से समझता है यानी दिल्ली जबतक कश्मीर को समझ उससे काफी पहले समझ लेता है।
Tuesday, June 28, 2016
Monday, June 27, 2016
क्यों चे-ग्वेरा नहीं है मेसी
जिस मेसी के इलाज के लिये एक वक्त अर्जेन्टीना के पास पैसे नहीं थे। जिस मेसी को अपने इलाज के लिये अर्जेन्टीना छोडना पड़ा। उसी मेसी ने अर्जेन्टीना की हार के बाद अंतरराष्ट्रीय फुटबाल को ही छोड़ दिया। महज 4 बरस की उम्र से फुटबाल को पांवों में घुमाने में माहिर मेसी जब 10 साल के हुये तो ग्रोथ हारमोन डेफिसिन्सी के शिकार हो गये। इलाज के लिये पिता के पास ना पैसे थे ना ही हेल्थ इश्योरेंस । मेसी के कल्ब ने पहले मदद की बात कही फिर मदद नहीं दी । और सन 2000 यानी 13 बरस की उम्र में इलाज के लिये पैसों का जुगाड़ भी हो जाये और मेसी फुटबाल भी खेलते रहे इसके लिये पिता जार्ज ने बार्सिलोना क्लब का दरवाजा खटखटाया। बार्सिलोना क्लब के बोर्ड डायरेक्टरों के विरोध के बावजूद सबसे कम उम्र के विदेशी खिलाडी मेसी को बार्सिलोना के टीम डायरेक्टर कार्लेस रेक्सेक ने साइन किया। और बार्सिलोना क्लब के डायरेक्टर को मेसी को साइन करने की इतनी जल्दबाजी थी कि कॉन्ट्रैक्ट किसी दस्तावेज पर नहीं ब्लिक पेपर नेपकिन पर ही साइन किया गया। और दो बरस बाद यानी 2002 में जब मेसी का इलाज पूरा हुआ तो उसके बाद मेसी रॉयल सेपनिश फुटबाल फेडरेशन का हिस्सा बने। यानी मेसी चाहते तो स्पेन की तरफ से ही खेल सकते थे। लेकिन स्पेन में रहते हुये स्पेन की तरफ से 2004 में खेलने के ऑफर को मेसी ने यह कहकर ठुकरा दिया कि वह अपने जन्मभूमि वाले देश की तरफ से ही खेलेंगे। और अगस्त 2005 में हंगरी के खिलाफ पहला इंटरनेशनल मैच खलते वक्त मेसी को 47 वें सेकेंड में ही रेडकार्ड दिखा दिया गया लेकिन मेसी अर्जेंटीना के सबसे सफल फुटबालर रहे। उन्होंने 55 गोल किये। इतने गोल मैराडोना ने भी नहीं किये। जिनकी अगुवाई में अर्जेंटीना आखिरी बार चैंपियन बना। लेकिन अर्जेंटीना को चैंपियन बनाने के दरवाजे पर मेसी एक बार नहीं तीन बार फाइनल में पहुंचे। 2014 में जर्मनी के एक्स्ट्रा टाइम में गोल कर किताब जीत लिया तो कोपा कप में तो जैसे इतिहास ही मेसी के खिलाफ हो गया। क्योंकि पिछले बरस 5 जुलाई 2015 और 27 जून 2016 में कुछ नहीं बदला। बदला यही कि पिछले बरस कोपा कप के फाइनल में पेनाल्टी शूटआउट में मेसी ने अर्जेंटीना की तरफ से गोल किया। और आज कोपा फाइनल के शूटआउट में अर्जेंटीना की तरफ से मेसी की पहली किक गोल पोस्ट में जाने की जगह हवा में उड़ गई। 2015 में चिली ने 99 बरस के कोपा कप के इतिहास में पहली बार चैंपियन बनी थी । तो सौवी वर्षगांठ मनाते हुये इस बार विशेष कोपा कप का आयोजन हुआ तो मैराडोना ने अर्जेंटीना की फुटबाल टीम से कहा , " जीत कर आना नहीं तो देश ना लौटना"।
और मेसी भी सोच कर निकले इस बार जरुर जीतेंगे। पहली बार कोपा कप के खत्महोने तक शेव ना करने की ठानी। अर्जेंटीना के कई और खिलाड़ियों ने भी शेव तक करना बंद कर दिया। मेसी हर मैच के बाद अर्जेंटीना को निखारते गये । हर किसी को लगा 1994 के बाद मेसी की अगुवाई में अर्जेंटीना जरुर जीतेगी । लेकिन पेनॉल्टी शूटआउट में मेसी ही पहला गोल करने में चूके और टूट गये । और यही पर मैराडोना हर किसी को याद आने लगे । क्योंकि मेसी पलटवार नहीं करते। जबकि मैराडोना चोट खाने के बाद भी लड़-झगड़कर खेलते थे। लेकिन मेसी संतुलन, ड्रिवलिंग स्किल, किसी भी एंगल से गोल करना, फ्री किक और शांत मिजाज़ के पहचान के साथ खेलते। इसी खेल ने मेसी को दुनिया का बेहतरीन खिलाड़ी बनाया है। और इसी खेल के भरोसे मेसी को पांच बार फीफा बैलन डि ओर खिताब मिला। तीन बार यूरोपिय गोल्डन शू का खिताब भी मैसी को मिला। लेकिन सवाल यही है कि मेसी रोजर फेडरर की तरह शांत रह गये।जबकि मेसी अर्जेंटीना के उसी रोसारियो शहर में पैदा हुये जहां चे-ग्वेरा का जन्म हुआ था। लेकिन समझना होगा कि चे ग्वेरा और मेसी में सिर्फ इतनी ही समानता नहीं है कि दोनों का जन्म अर्जेंटीना के रेसारियो शहर में हुआ । दोनों का जन्म जून के महीने में हुआ । दोनो का वास्ता बचपन में गरीबी या आर्थिक मुशकिलात से पड़ा । दोनों की जिन्दगी में स्पेन का खास महत्व रहा। और दोनों ने ही 29 बरस में दुनिया को बता दिया कि उनका रास्ता भावनाओं से बनता नहीं बल्कि भावनाओ तले कमजोरबनाता है। चे-ग्वेरा का घर स्पेन में हुये गृहयुद्द के वक्त रिपब्लिकन्स के समर्थकों का अड्डा था। और स्पेन के बारसिलोना क्लब ने जब मेसी से कांट्रैक्ट किया तो जब जब मेसी के पिता जार्ज अर्जेंटीना लौटते तो उनके साथ कोई स्पेनिश दोस्त जरुर होता।
चे-ग्वेरा को बचपन से रग्बी का शौक था। तो मेसी फुटबाल खेलते । चे ग्वेरा को बचपन में ही अस्थमा हो गया। लेकिन उन्होंने खेलना नहीं छोड़ा । मेसी को बचपन में ही हारमोन्स के ना बढ़ने की बीमारी हो गई। लेकिन मेसी से फुटबाल नहीं छूटा। और संयोग देखिये चे ग्वेरा 20 बरस की उम्र में मेडिकल स्टूडेन्स के तौर पर जब दक्षिणी अमेरिका की यात्रा पर निकले तो वहां की गरीबी और वहा के मुश्किल हालात ने उन्हें कम्युनिस्ट धारा में बहा दिया। मेसी भी 19 बरस की उम्र में जब यूरोपियन क्लब में धूम मचाने की शुरुआत करते है तो फिर दुनिया को ही फुटबाल को नया पाठ पढ़ाते हैं। तो बीस बरस की उम्र में यानी 2007 में लियो मेसी फाउंडेशन का गठन कर अपने शहर में बच्चों का एक अस्पताल बनवाया बनवाते हैं। सीरियाई बच्चों की सहायता के लिए 2013 में अपनी कुल कमाई का एक तिहाई हिस्सा दान दे देते हैं। लेकिन दूसरी तरफ चे ग्वेरा वामपंथी विचारधार को गढ़ते हुये क्रांति के लिये बंदूक उठाने से नहीं कतराते। और महज 39 बरस की उम्र में क्यूबा में क्रांतिकारी बदलाव करते देखते हुये मारे जाते है। और मेसी सिर्फ 29 बरस की उम्र में अर्जेंटीना की हार से इतने व्यथित होते हैं कि अंतरराष्ट्रीय फुटबाल को बॉय बॉय कर देते है । और यही फैसला मेसी को चे-ग्वेरा से अलग करता है । और इसी जगह फुटबाल खेलते हुये मेसी से कही ज्यादा माराडोना चे-ग्वेरा लगते । जो पलटवार करते । त्रासद इसलिये मेसी को याद भी किया जायेगा तो पेले और मैराडोना के बाद। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मुकाब़ले में वह अपने देश को जिता नहीं सके। जिसका मलाल मेसी को जीवन भर रहेगा।
और मेसी भी सोच कर निकले इस बार जरुर जीतेंगे। पहली बार कोपा कप के खत्महोने तक शेव ना करने की ठानी। अर्जेंटीना के कई और खिलाड़ियों ने भी शेव तक करना बंद कर दिया। मेसी हर मैच के बाद अर्जेंटीना को निखारते गये । हर किसी को लगा 1994 के बाद मेसी की अगुवाई में अर्जेंटीना जरुर जीतेगी । लेकिन पेनॉल्टी शूटआउट में मेसी ही पहला गोल करने में चूके और टूट गये । और यही पर मैराडोना हर किसी को याद आने लगे । क्योंकि मेसी पलटवार नहीं करते। जबकि मैराडोना चोट खाने के बाद भी लड़-झगड़कर खेलते थे। लेकिन मेसी संतुलन, ड्रिवलिंग स्किल, किसी भी एंगल से गोल करना, फ्री किक और शांत मिजाज़ के पहचान के साथ खेलते। इसी खेल ने मेसी को दुनिया का बेहतरीन खिलाड़ी बनाया है। और इसी खेल के भरोसे मेसी को पांच बार फीफा बैलन डि ओर खिताब मिला। तीन बार यूरोपिय गोल्डन शू का खिताब भी मैसी को मिला। लेकिन सवाल यही है कि मेसी रोजर फेडरर की तरह शांत रह गये।जबकि मेसी अर्जेंटीना के उसी रोसारियो शहर में पैदा हुये जहां चे-ग्वेरा का जन्म हुआ था। लेकिन समझना होगा कि चे ग्वेरा और मेसी में सिर्फ इतनी ही समानता नहीं है कि दोनों का जन्म अर्जेंटीना के रेसारियो शहर में हुआ । दोनों का जन्म जून के महीने में हुआ । दोनो का वास्ता बचपन में गरीबी या आर्थिक मुशकिलात से पड़ा । दोनों की जिन्दगी में स्पेन का खास महत्व रहा। और दोनों ने ही 29 बरस में दुनिया को बता दिया कि उनका रास्ता भावनाओं से बनता नहीं बल्कि भावनाओ तले कमजोरबनाता है। चे-ग्वेरा का घर स्पेन में हुये गृहयुद्द के वक्त रिपब्लिकन्स के समर्थकों का अड्डा था। और स्पेन के बारसिलोना क्लब ने जब मेसी से कांट्रैक्ट किया तो जब जब मेसी के पिता जार्ज अर्जेंटीना लौटते तो उनके साथ कोई स्पेनिश दोस्त जरुर होता।
चे-ग्वेरा को बचपन से रग्बी का शौक था। तो मेसी फुटबाल खेलते । चे ग्वेरा को बचपन में ही अस्थमा हो गया। लेकिन उन्होंने खेलना नहीं छोड़ा । मेसी को बचपन में ही हारमोन्स के ना बढ़ने की बीमारी हो गई। लेकिन मेसी से फुटबाल नहीं छूटा। और संयोग देखिये चे ग्वेरा 20 बरस की उम्र में मेडिकल स्टूडेन्स के तौर पर जब दक्षिणी अमेरिका की यात्रा पर निकले तो वहां की गरीबी और वहा के मुश्किल हालात ने उन्हें कम्युनिस्ट धारा में बहा दिया। मेसी भी 19 बरस की उम्र में जब यूरोपियन क्लब में धूम मचाने की शुरुआत करते है तो फिर दुनिया को ही फुटबाल को नया पाठ पढ़ाते हैं। तो बीस बरस की उम्र में यानी 2007 में लियो मेसी फाउंडेशन का गठन कर अपने शहर में बच्चों का एक अस्पताल बनवाया बनवाते हैं। सीरियाई बच्चों की सहायता के लिए 2013 में अपनी कुल कमाई का एक तिहाई हिस्सा दान दे देते हैं। लेकिन दूसरी तरफ चे ग्वेरा वामपंथी विचारधार को गढ़ते हुये क्रांति के लिये बंदूक उठाने से नहीं कतराते। और महज 39 बरस की उम्र में क्यूबा में क्रांतिकारी बदलाव करते देखते हुये मारे जाते है। और मेसी सिर्फ 29 बरस की उम्र में अर्जेंटीना की हार से इतने व्यथित होते हैं कि अंतरराष्ट्रीय फुटबाल को बॉय बॉय कर देते है । और यही फैसला मेसी को चे-ग्वेरा से अलग करता है । और इसी जगह फुटबाल खेलते हुये मेसी से कही ज्यादा माराडोना चे-ग्वेरा लगते । जो पलटवार करते । त्रासद इसलिये मेसी को याद भी किया जायेगा तो पेले और मैराडोना के बाद। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मुकाब़ले में वह अपने देश को जिता नहीं सके। जिसका मलाल मेसी को जीवन भर रहेगा।
Wednesday, June 8, 2016
अमेरिकी मित्रदेश बनने की दिशा में भारत
तालियों की गूंज के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने एसे वक्त अमेरिका के चुने हुये प्रतिनिधियों और सिनेटरो को संबोधित किया जब अमेरिका खुद अपने नये राष्ट्रपति की खोज में है । लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में जिस तरह दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के बीच बनते बढते प्रगाड होते संबंधो का जिक्र किया उसने इसके संकेत तो दे दिये कि भारत अमेरिका की दोस्ती एतिहासिक मोड़ पर है । लेकिन समझना यह भी होगा कि अमेरिकी काग्रेस को दर्जनों देशो के 117 प्रमुख संबोधित कर चुके हैं। मोदी 118 वें है । और इस फेहरिस्त में ब्रिटेन से लेकर जर्मनी, जापान से लेकर फ्रांस, और पाकिस्तान से लेकर इजरायल के राष्ट्राध्यक्ष तक शामिल हैं । लेकिन अमेरिकी काग्रेस को कभी चीन के किसी राष्ट्राध्यक्ष ने संबोधित नहीं किया । यानी जिस तरह अमेरिकी काग्रेस के स्पीकर की तरफ से प्रदानमंत्री मोदी को संबोधित करने का निमंत्रण मिला उस तरह बीते 70 बरस में कभी चीन को अमेरिका की तरफ से निमंत्रण नहीं भेजा गया । यानी 1945 में अमेरिकी काग्रेस को संबोधित करने की जो परंपरा चर्चिल के भाषण के साथ शुरु हुई उस कड़ी में कभी चीन के किसी राष्ट्राध्यक्ष को अमेरिका ने नहीं बुलाया। तो अंतराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका और चीन के बीच दूरियां थीं । दोनो के बीच टकराव है।और अमेरिका के लिये भारत से निकटता उसकी जरुरत है । क्योकि एशिया में भारत के जरीये ही अमेरिका चीन के विस्तार को रोक सकता है ।
दूसरी तरफ चीन किसी भी तरह भारत को रोकने के लिये पाकिस्तान को हर मदद देगा । तो यह सवाल हर जहन में उठ सकता है भारत के जरिये अमेरिका और पाकिस्तान के जरीये चीन अपनी कूटनीति बिसात तो नहीं बिछा रहा है। क्योंकि आतंकवाद के मुद्दों पर भारत के लिये पाकिस्तान सबसे बड़ी मुश्किल है । लेकिन एक वक्त अमेरिका के संबंध पाकिस्तान के साथ अच्छे रहे तो नेहरु या इंदिरा गांधी को अमेरिका ने कांग्रेस को संबोधित करने का निमंत्रण नहीं भेजा बल्कि अमेरिकी कांग्रेस में पाकिस्तान के अय्यूब खान 1961 में ही संबोधित कर आये । लेकिन अफगानिस्तान में जब रुसी सैना हारी और 9/11 की घटना हुई तो भारत पाकिस्तान के बीच बैलेंस बनाने में ही अमेरिका लगा रहा । 1985 में पहली बार भारत के पीएम राजीव गांधी को अमेरिकी कांग्रेस में संबोधन के लिये निमंत्रण दिया गया तो 1989 में बेनजीर भुट्टो को अमेरिकी कांग्रेस में संबोधित करने का निमंत्रण मिला। जबकि भारत में आतंक की घुसपैठ बेनजीर के दौर से शुरु हुई । लेकिन मौजूदा वक्त में अमेरिका के लिये रणनीतिक तौर पर भारत सबसे अनुकूल है । और भारत के सामने भी चीन या पाकिस्तान को रोकने के लिये अमेरिका के साथ की जरुरत है तो अमेरिका के साथ सैन्य तंत्र के इस्तेमाल को लेकर लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ़ ऐग्रीमेंट के नाम पर ऐसा समझौता हो रहा है जिसके तहत अमरीकी फ़ौजी विमान भारत और भारत के सैन्य अड्डों पर ईंधन या मरम्मत के लिए उतर सकते हैं । यानी भारत के गुटनिरपेक्ष इतिहास को देखते हुए ये एक बहुत बड़ा क़दम है और भारतीय अधिकारी इस पर बेहद संभलकर बयान दे रहे हैं लेकिन जानकारों के अनुसार दोनों देशों के बीच बढ़ते सैन्य रिश्तों के लिए ये एक ऐतिहासिक समझौता होगा. तो दूसरी तरफ जो सवाल भारत में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता को लेकर उठ रहे है उसका एक सच तो यह भी है कि एनएसजी की सदस्यता से बारत को लाभ यही होगा कि वह अन्य सदस्य देशों के साथ मिलकर परमाणु मसलों पर नियम बना सकेगा ।
तो ये एक स्टेटस और प्रतिष्ठा की बात है ना कि इसकी कोई ज़रूरत है क्योंकि भारत को साल 2008 में ही परमाणु पदार्थों के आयात के लिए सहूलियत मिली हुई है । लेकिन साथ ही अगर भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल जाती है तो सबसे बड़ा फ़ायदा उसे ये होगा कि उसका रूतबा बढ़ जाएगा । क्योकि याद किजिये न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप वर्ष 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण के अगले ही साल 1975 में बना था. यानी जिस क्लब की शुरुआत भारत का विरोध करने के लिए हुई थी, अगर भारत उसका मेंबर बन जाता है तो ये उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी । लेकिन इसके आगे का सवाल बारत के लिये महत्वपूर्ण है कि ओबामा के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति हिलेरी हो या ट्रंप , क्या उनसे भी बारत की निकटकता बरकार रहेगी । क्योकि
ओबामा ने भारत को लेकर डेमोक्रिटेस की छवि भी बदल दी इससे इंकार किया नहीं जा सकता है । क्योकि अभी तक माना तो यही जाकता रहा कि डेमोक्रेट्स के मुकाबले रिपब्लिकन कम एंटी-इंडियन रहे हैं। तो क्या हेलेरी का आना भारत के लिये अच्छा होगा । या फिर ट्रंप । यह सवाल है , क्योकि हेलेरी पारंपरिक तौर पर कश्मीर को लेकर भारत के साथ खडी होगी . तो ट्रंप पाकिस्तानी जेहाद को निशाने पर लेने से नहीं चूकेंगे । यानी मौजूदा वक्त में चीन और पाकिस्तान जिस तरह भारत के रास्ते में खड़े हैं वैसे में पहली नजर में कह सकते है ट्रप का आना भारत के अनुकूल होगा । क्योंकि हिलेरी ट्रंप की तर्ज पर इस्लामिक देशो के खिलाफ हो नहीं सकतीं । क्योंकि क्लिंटन फाउंडेशन को तमाम इस्लामिक देशों से खासा फंड मिलता रहा है । लेकिन उसका अगला सवाल यह भी है कि ट्रंप जिस तरह अमेरिका में नौकरी कर रहे भारतीय नागरिकों के खिलाफ हैं, वह मोदी के लिये मुश्किल खड़ा कर सकता है । लेकिन दूसरी तरफ ट्रप ने जिस तरह भारत में रियल इस्टेट में इनवेंस्ट किया है तो ट्रंप का आना भारत में निवेश करने के अनुकूल माहौल बना सकता है । लेकिन महत्वपूर्ण सवाल तो ट्रंप के एच-1बी वीजा पर अंकुश लगाने की थ्योरी का है । इससे भारतीय आईटी इंडस्ट्री क ही नहीं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी झटका लग सकता है । क्योंकि भारत को इस वक्त विदेशों में काम करने वाले भारतीयों से करीब 71 बिलियन डॉलर हर साल मिलता है-जो देश की जीडीपी का करीब 4 फीसदी है। इनमें बड़ा हिस्सा आईटी इंडस्ट्री में काम करने वाले भारतीय भारत भेजते हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है ओबामा ने भारतीय आईटी सेक्टर को मदद ही की हो। -एच-1बी वीजा फीस को ओबामा के दौर में ही बढ़ायी गई यानी और हिलेरी इसे कम करेंगी-ऐसा नहीं लगता। लेकिन हिलरी क्लिंटन भारतीय अधिकारियों के लिए एक जाना पहचाना चेहरा है। आठ सालों तक वह अमेरिका की फर्स्ट लेडी रही हैं, उसके बाद आठ साल अमेरिकी सेनेटर रही हैं और चार साल से सेक्रटरी ऑफ स्टेट हैं। भारत को लेकर उनके विचार और व्यवहार अब तक दोस्ताना रहे हैं। लेकिन भारत को लेकर अमेरिका की जो एक निर्धारित पॉलिसी है, उसके दायरे में रहकर ही हिलरी काम करेंगी। जबकि ट्रंप की विदेश नीति में भारत के लिए खास जगह हो सकती है लेकिन सवाल यही है कि ट्रंप पर भरोसा कैसे किया जाए। क्योंकि एक तरफ वो मोदी की तारीफ करते नहीं थकते तो भारतीयों का मजाक उड़ाने में भी नहीं हिचकते। यानी ट्रंप या हिलेरी में जो भी राष्ट्रपति बने-भारत के लिए एकदम से हालात अच्छे नहीं होंगे । और ना ही ओबामा की तर्ज पर मोदी का याराना हेलेरी या ट्रंप से हो पायेगा । यानी ओबाना के बाद अंतर्ष्ट्रीय कूटनीति बदलगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता ।
दूसरी तरफ चीन किसी भी तरह भारत को रोकने के लिये पाकिस्तान को हर मदद देगा । तो यह सवाल हर जहन में उठ सकता है भारत के जरिये अमेरिका और पाकिस्तान के जरीये चीन अपनी कूटनीति बिसात तो नहीं बिछा रहा है। क्योंकि आतंकवाद के मुद्दों पर भारत के लिये पाकिस्तान सबसे बड़ी मुश्किल है । लेकिन एक वक्त अमेरिका के संबंध पाकिस्तान के साथ अच्छे रहे तो नेहरु या इंदिरा गांधी को अमेरिका ने कांग्रेस को संबोधित करने का निमंत्रण नहीं भेजा बल्कि अमेरिकी कांग्रेस में पाकिस्तान के अय्यूब खान 1961 में ही संबोधित कर आये । लेकिन अफगानिस्तान में जब रुसी सैना हारी और 9/11 की घटना हुई तो भारत पाकिस्तान के बीच बैलेंस बनाने में ही अमेरिका लगा रहा । 1985 में पहली बार भारत के पीएम राजीव गांधी को अमेरिकी कांग्रेस में संबोधन के लिये निमंत्रण दिया गया तो 1989 में बेनजीर भुट्टो को अमेरिकी कांग्रेस में संबोधित करने का निमंत्रण मिला। जबकि भारत में आतंक की घुसपैठ बेनजीर के दौर से शुरु हुई । लेकिन मौजूदा वक्त में अमेरिका के लिये रणनीतिक तौर पर भारत सबसे अनुकूल है । और भारत के सामने भी चीन या पाकिस्तान को रोकने के लिये अमेरिका के साथ की जरुरत है तो अमेरिका के साथ सैन्य तंत्र के इस्तेमाल को लेकर लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ़ ऐग्रीमेंट के नाम पर ऐसा समझौता हो रहा है जिसके तहत अमरीकी फ़ौजी विमान भारत और भारत के सैन्य अड्डों पर ईंधन या मरम्मत के लिए उतर सकते हैं । यानी भारत के गुटनिरपेक्ष इतिहास को देखते हुए ये एक बहुत बड़ा क़दम है और भारतीय अधिकारी इस पर बेहद संभलकर बयान दे रहे हैं लेकिन जानकारों के अनुसार दोनों देशों के बीच बढ़ते सैन्य रिश्तों के लिए ये एक ऐतिहासिक समझौता होगा. तो दूसरी तरफ जो सवाल भारत में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता को लेकर उठ रहे है उसका एक सच तो यह भी है कि एनएसजी की सदस्यता से बारत को लाभ यही होगा कि वह अन्य सदस्य देशों के साथ मिलकर परमाणु मसलों पर नियम बना सकेगा ।
तो ये एक स्टेटस और प्रतिष्ठा की बात है ना कि इसकी कोई ज़रूरत है क्योंकि भारत को साल 2008 में ही परमाणु पदार्थों के आयात के लिए सहूलियत मिली हुई है । लेकिन साथ ही अगर भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल जाती है तो सबसे बड़ा फ़ायदा उसे ये होगा कि उसका रूतबा बढ़ जाएगा । क्योकि याद किजिये न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप वर्ष 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण के अगले ही साल 1975 में बना था. यानी जिस क्लब की शुरुआत भारत का विरोध करने के लिए हुई थी, अगर भारत उसका मेंबर बन जाता है तो ये उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी । लेकिन इसके आगे का सवाल बारत के लिये महत्वपूर्ण है कि ओबामा के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति हिलेरी हो या ट्रंप , क्या उनसे भी बारत की निकटकता बरकार रहेगी । क्योकि
ओबामा ने भारत को लेकर डेमोक्रिटेस की छवि भी बदल दी इससे इंकार किया नहीं जा सकता है । क्योकि अभी तक माना तो यही जाकता रहा कि डेमोक्रेट्स के मुकाबले रिपब्लिकन कम एंटी-इंडियन रहे हैं। तो क्या हेलेरी का आना भारत के लिये अच्छा होगा । या फिर ट्रंप । यह सवाल है , क्योकि हेलेरी पारंपरिक तौर पर कश्मीर को लेकर भारत के साथ खडी होगी . तो ट्रंप पाकिस्तानी जेहाद को निशाने पर लेने से नहीं चूकेंगे । यानी मौजूदा वक्त में चीन और पाकिस्तान जिस तरह भारत के रास्ते में खड़े हैं वैसे में पहली नजर में कह सकते है ट्रप का आना भारत के अनुकूल होगा । क्योंकि हिलेरी ट्रंप की तर्ज पर इस्लामिक देशो के खिलाफ हो नहीं सकतीं । क्योंकि क्लिंटन फाउंडेशन को तमाम इस्लामिक देशों से खासा फंड मिलता रहा है । लेकिन उसका अगला सवाल यह भी है कि ट्रंप जिस तरह अमेरिका में नौकरी कर रहे भारतीय नागरिकों के खिलाफ हैं, वह मोदी के लिये मुश्किल खड़ा कर सकता है । लेकिन दूसरी तरफ ट्रप ने जिस तरह भारत में रियल इस्टेट में इनवेंस्ट किया है तो ट्रंप का आना भारत में निवेश करने के अनुकूल माहौल बना सकता है । लेकिन महत्वपूर्ण सवाल तो ट्रंप के एच-1बी वीजा पर अंकुश लगाने की थ्योरी का है । इससे भारतीय आईटी इंडस्ट्री क ही नहीं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी झटका लग सकता है । क्योंकि भारत को इस वक्त विदेशों में काम करने वाले भारतीयों से करीब 71 बिलियन डॉलर हर साल मिलता है-जो देश की जीडीपी का करीब 4 फीसदी है। इनमें बड़ा हिस्सा आईटी इंडस्ट्री में काम करने वाले भारतीय भारत भेजते हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है ओबामा ने भारतीय आईटी सेक्टर को मदद ही की हो। -एच-1बी वीजा फीस को ओबामा के दौर में ही बढ़ायी गई यानी और हिलेरी इसे कम करेंगी-ऐसा नहीं लगता। लेकिन हिलरी क्लिंटन भारतीय अधिकारियों के लिए एक जाना पहचाना चेहरा है। आठ सालों तक वह अमेरिका की फर्स्ट लेडी रही हैं, उसके बाद आठ साल अमेरिकी सेनेटर रही हैं और चार साल से सेक्रटरी ऑफ स्टेट हैं। भारत को लेकर उनके विचार और व्यवहार अब तक दोस्ताना रहे हैं। लेकिन भारत को लेकर अमेरिका की जो एक निर्धारित पॉलिसी है, उसके दायरे में रहकर ही हिलरी काम करेंगी। जबकि ट्रंप की विदेश नीति में भारत के लिए खास जगह हो सकती है लेकिन सवाल यही है कि ट्रंप पर भरोसा कैसे किया जाए। क्योंकि एक तरफ वो मोदी की तारीफ करते नहीं थकते तो भारतीयों का मजाक उड़ाने में भी नहीं हिचकते। यानी ट्रंप या हिलेरी में जो भी राष्ट्रपति बने-भारत के लिए एकदम से हालात अच्छे नहीं होंगे । और ना ही ओबामा की तर्ज पर मोदी का याराना हेलेरी या ट्रंप से हो पायेगा । यानी ओबाना के बाद अंतर्ष्ट्रीय कूटनीति बदलगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता ।
Wednesday, June 1, 2016
कैसे बदलेगी राहुल गांधी की कांग्रेस?
नेहरु खानदान की चौथी पीढ़ी अगर यह सोचकर कांग्रेस की कमान संभालने की तैयारी कर रही है कि वह देश की कमान भी संभाल लेगी या जनता राहुल गांधी के हाथ में देश की बागडोर सौप देगी तो इससे ज्यादा बड़ा कोई सपना मौजूदा वक्त में हो नहीं सकता है। क्योंकि कांग्रेसियों को नहीं पता है कि उसे सर्जरी करनी भी है तो कहां करनी है। वोट बैंक तो दूर खुद बिखरे कांग्रेसियों को ही कांग्रेस कैसे जोड़े इस सच से वह दूर है। फिर आजादी के दौर के बोझ को लिये कांग्रेस मौजूदा सबसे युवा देश को कैसे साधे इसके उपाय भी नहीं है । इसीलिये कांग्रेस को लेकर सारी बहस कमान संभालने पर जा ठहर रही है। यानी सोनिया और राहुल के बीच फंसी कांग्रेस। यानी अभी सोनिया गांधी के हाथ में कमान है तो गंठबंधन को लेकर कांग्रेस लचीली है। सहयोगी भी सोनिया को लेकर लचीले हैं। अगर राहुल गांधी के हाथ में कमान होगी तो राहुल का रुख सहयोगियों को लेकर और सहयोगियों का कांग्रेस को लेकर रुख बदल जायेगा। तो क्या कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी से बड़ा कोई सवाल नहीं है। और राहुल गांधी के सामने कांग्रेस के सुनहरे युग को लौटाने के लिये खुद के प्रयोग की खुली छूट पाने के अलावा कोई बड़ा सवाल नहीं है। या फिर पहली बार गांधी परिवार फेल होकर पास होने के उपाय खोज रहा है । यानी गांधी परिवार को लेकर कांग्रेस में इससे पहले कोई सवाल नेहरु इंदिरा या राजीव के दौर में जो नहीं उठा वह सोनिया के दौर में राहुल गांधी को लेकर उठ रहे हैं। तो यह कांग्रेस की नही गांधी परिवार के परीक्षा की घड़ी है । लेकिन सवाल ये है कि क्या वाकई कांग्रेस बदलने को तैयार है। राहुल गांधी भी कांग्रेस के संगठन में ऐसा कोई परिवर्तन करने को तैयार है जिससे में नये चेहरे,नयी सोच, नये विजन का समावेश हो। क्योंकि कांग्रेसी कद्दावर नामों को ही देखिये। चिदंबरम, एके एंटोनी ,कपिल सिब्बल ,जयराम रमेश,आनंद शर्मा, अंबिका सोनी , गुलाम नबीं आजाद , आस्कर फर्नाडिस, चिरंजीवी, रेणुका चौधरी, पीएल पूनिया, व्यालार रवि। यह सभी चेहरे मनमोहन सिंह के दौर में उनके कैबिनेट मंत्री रहे हैं। और सभी मौजूदा वक्त में राज्य सभा में हैं। तो फिर कांग्रेस में बदला क्या है या बदलेगा क्या।
क्योंकि एक तरफ सत्ता में रहते हुये गांधी पारिवार बदलते हिन्दुस्तन की उस नब्ज को पकड़ नहीं पाया जहा जनता की नुमाइन्दगी करते हुये जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी कांग्रेसी नेता-मंत्रियों की होनी चाहिये। तो दूसरी तरफ जनता के बीच गये बगैर गांधी परिवार के घर या किचन के चक्कर लगाकर कैसे मंत्री बनकर कद बढाया जाता है इस सिद्धांत को कांग्रेस ने पाल पोसकर बढा कर दिया । और असर उसी का हुआ कि पसीना बहाकर कांग्रेस के लिये गांव गांव में खडा हुआ वोट क्लेक्टर कांग्रेस से ही निराश हो गया । नेता के पीछे कार्यकर्ता गायब हुआ तो 10 जनपथ की चाकरी से ही नेता को कद मिलने लगा । गांधी परिवार के इर्द-गिर्द का काकस सबसे ताकतवर कांग्रेसी नेता हो गया । यानी जो सवाल बार बार हर कांग्रेसी को परेशान करता है कि आखिर गांधी परिवार का औरा खत्म क्यों हो गया। या देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का सूपड़ा प्रांत दर प्रांत साफ क्यों होते चले जा रहा है। वह उन सवालो के मर्म से दूर है कि आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक या किसानों के भीतर भी बदलाव आया लेकिन कांग्रेस नहीं बदली। कांग्रेस के पांरपरिक वोटर के सरोकार सूचना तकनालाजी से बदल गये। लेकिन कांग्रेस नहीं बदली। यानी नेहरु की चौथी पीढ़ी राहुल गांधी के तौर पर सामाजिक-आर्थिक आधारो पर नहीं बदली लेकिन देश के किसान मजदूर, दलित अल्पसंख्यकों की चौथी पीढी ना सिर्फ बदली बल्कि मुख्यधारा में आने की उसकी छटपटाहट कहीं तेज हो गई। लेकिन कांग्रेस के भीतर विरासत की सत्ता से आगे राजनीति निकल नहीं पायी। इसीलिये यह सवाल बड़ा है कि क्या वाकई कांग्रेस का ट्रांसफारमेशन सोनिया से राहुल के पास सत्ता जाने भर से हो जायेगा । या फिर यब ऐसा दांव है जिसे खेलना मजबूरी है। ना खेलना कमजोरी है। तो इंतजार कीजिये राहुल एरा की शुरुआत का। क्योंकि उसकी पहली परीक्षा तो यूपी में होगी। और माना तो यही जा रहा है कि यूपी चुनाव से पहले राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन जायेंगे और यूपी की बिसात पर मोदी और राहुल के शह-मात का खेल 2019 के चुनाव की लकीर तय कर देगा।
यानी जिस आरक्षण के सवाल ने यूपी की राजनीति में कांग्रेस और बीजेपी को हाशिये पर ढकेल दिया। मुलायम-मायावती के सामाजिक समीकरण को तोड पाने में असफल हो गये । 25 बरस बाद उसी यूपी की राजनीति बिसात पर बीजेपी-कांग्रेस को बताना है कि वह कैसे एक दूसरे से बडे राजनीतिक दल है और मोदी-राहुल को दिकानाहै कि वह कैसे मुलायम-मायावती से बडे क्षत्रप हैं। ध्यान दें तो यूपी में मोदी की बिसात बिछने लगी है। जिसमें पिछडी जाति के मौर्य प्रदेश अध्यक्ष तो ब्रहमण शिवप्रताप शुक्ला राज्यसभा और जाट मेता भूपेन्द्र सिंह को विधान परिषद में भेजा। अगली कड़ी में शिवप्रताप शुक्ला के धुर विरोधी योगी आदित्यनाथ को केन्द्र में मंत्री बनाने की तैयारी हो रही है तो राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह के जरीये यूपी में टिकटो पर आखरी मुहर की कवायद । यानी बीजेपी सोशल इंजीनियरिंग के हर उस माप दंड को परख रही है जिसे एक वक्त गोविन्दाचार्य ने उठाया और जिसे कल्याण सिंह ने आजमाया। तो दूसरी तरफ राहुल गांधी कांग्रेस संगठन को ही मथने के लिये तैयार है। कांग्रेस महासचिव , सचिव , राज्य प्रमुख और विभाग प्रमुख को बदलने के लिये तैयार है । पंचमडी शिविर की तर्ज पर मंथन शिविर की तैयारी यूपी चुनाव से पहले यूपी में ही करने की तैयारी है । लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या वाकई राहुल गांधी अब वोटरो से सीधा सरोकार चाहते है । क्योकि कांग्रेसी कार्यकर्ता तो सडक पर निकलने को तैयार है लेकिन वह बिना आधार वाले या भ्रष्ट कांग्रेसियो के पीछे भीड के रुप में खडे होने को तैयार नहीं है । तो आखरी सवाल यही कि जिस दौर में हिन्दुस्तान सबसे युवा है उस दौर में राहुल ही कांग्रेस में एकमात्र युवा रहेंगे या कांग्रेस भी युवा होगी ।
क्योंकि एक तरफ सत्ता में रहते हुये गांधी पारिवार बदलते हिन्दुस्तन की उस नब्ज को पकड़ नहीं पाया जहा जनता की नुमाइन्दगी करते हुये जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी कांग्रेसी नेता-मंत्रियों की होनी चाहिये। तो दूसरी तरफ जनता के बीच गये बगैर गांधी परिवार के घर या किचन के चक्कर लगाकर कैसे मंत्री बनकर कद बढाया जाता है इस सिद्धांत को कांग्रेस ने पाल पोसकर बढा कर दिया । और असर उसी का हुआ कि पसीना बहाकर कांग्रेस के लिये गांव गांव में खडा हुआ वोट क्लेक्टर कांग्रेस से ही निराश हो गया । नेता के पीछे कार्यकर्ता गायब हुआ तो 10 जनपथ की चाकरी से ही नेता को कद मिलने लगा । गांधी परिवार के इर्द-गिर्द का काकस सबसे ताकतवर कांग्रेसी नेता हो गया । यानी जो सवाल बार बार हर कांग्रेसी को परेशान करता है कि आखिर गांधी परिवार का औरा खत्म क्यों हो गया। या देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का सूपड़ा प्रांत दर प्रांत साफ क्यों होते चले जा रहा है। वह उन सवालो के मर्म से दूर है कि आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक या किसानों के भीतर भी बदलाव आया लेकिन कांग्रेस नहीं बदली। कांग्रेस के पांरपरिक वोटर के सरोकार सूचना तकनालाजी से बदल गये। लेकिन कांग्रेस नहीं बदली। यानी नेहरु की चौथी पीढ़ी राहुल गांधी के तौर पर सामाजिक-आर्थिक आधारो पर नहीं बदली लेकिन देश के किसान मजदूर, दलित अल्पसंख्यकों की चौथी पीढी ना सिर्फ बदली बल्कि मुख्यधारा में आने की उसकी छटपटाहट कहीं तेज हो गई। लेकिन कांग्रेस के भीतर विरासत की सत्ता से आगे राजनीति निकल नहीं पायी। इसीलिये यह सवाल बड़ा है कि क्या वाकई कांग्रेस का ट्रांसफारमेशन सोनिया से राहुल के पास सत्ता जाने भर से हो जायेगा । या फिर यब ऐसा दांव है जिसे खेलना मजबूरी है। ना खेलना कमजोरी है। तो इंतजार कीजिये राहुल एरा की शुरुआत का। क्योंकि उसकी पहली परीक्षा तो यूपी में होगी। और माना तो यही जा रहा है कि यूपी चुनाव से पहले राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन जायेंगे और यूपी की बिसात पर मोदी और राहुल के शह-मात का खेल 2019 के चुनाव की लकीर तय कर देगा।
यानी जिस आरक्षण के सवाल ने यूपी की राजनीति में कांग्रेस और बीजेपी को हाशिये पर ढकेल दिया। मुलायम-मायावती के सामाजिक समीकरण को तोड पाने में असफल हो गये । 25 बरस बाद उसी यूपी की राजनीति बिसात पर बीजेपी-कांग्रेस को बताना है कि वह कैसे एक दूसरे से बडे राजनीतिक दल है और मोदी-राहुल को दिकानाहै कि वह कैसे मुलायम-मायावती से बडे क्षत्रप हैं। ध्यान दें तो यूपी में मोदी की बिसात बिछने लगी है। जिसमें पिछडी जाति के मौर्य प्रदेश अध्यक्ष तो ब्रहमण शिवप्रताप शुक्ला राज्यसभा और जाट मेता भूपेन्द्र सिंह को विधान परिषद में भेजा। अगली कड़ी में शिवप्रताप शुक्ला के धुर विरोधी योगी आदित्यनाथ को केन्द्र में मंत्री बनाने की तैयारी हो रही है तो राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह के जरीये यूपी में टिकटो पर आखरी मुहर की कवायद । यानी बीजेपी सोशल इंजीनियरिंग के हर उस माप दंड को परख रही है जिसे एक वक्त गोविन्दाचार्य ने उठाया और जिसे कल्याण सिंह ने आजमाया। तो दूसरी तरफ राहुल गांधी कांग्रेस संगठन को ही मथने के लिये तैयार है। कांग्रेस महासचिव , सचिव , राज्य प्रमुख और विभाग प्रमुख को बदलने के लिये तैयार है । पंचमडी शिविर की तर्ज पर मंथन शिविर की तैयारी यूपी चुनाव से पहले यूपी में ही करने की तैयारी है । लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या वाकई राहुल गांधी अब वोटरो से सीधा सरोकार चाहते है । क्योकि कांग्रेसी कार्यकर्ता तो सडक पर निकलने को तैयार है लेकिन वह बिना आधार वाले या भ्रष्ट कांग्रेसियो के पीछे भीड के रुप में खडे होने को तैयार नहीं है । तो आखरी सवाल यही कि जिस दौर में हिन्दुस्तान सबसे युवा है उस दौर में राहुल ही कांग्रेस में एकमात्र युवा रहेंगे या कांग्रेस भी युवा होगी ।