आतंकवाद और पाकिस्तान को लेकर संयुक्त राष्ट्र में सुषमा स्वराज ने कुछ झूठ नही कहा और इसे दुनिया भी मानती है कि हर आतंक का कोई ना कोई सिरा पाकिस्तान तक पहुंच ही जाता है। लेकिन जो खतरा पाकिस्तान को लेकर है, वह आतंक से कही आगे आंतक के रास्ते एशिया को युद्द में झोंकने वाला भी है। क्योंकि पाकिस्तान के दो सवाल दुनिया को हमेशा डराते हैं। पहला पाकिस्तान के परमाणु हथियार कहीं कट्टरपंथियों-आतंकवादियों के हाथ ना पहुंच जाए। दूसरा पाकिस्तान का पॉवर बैलेंस जरा भी डगमगाया तो दुनिया का कोई दबाब युद्द को रोक नहीं पायेगा। क्योंकि पाकिस्तान के भीतर के हालातो को समझे तो संयुक्त राष्ट्र का डिसआर्मामेंट अफेयर के सामने भी पाकिस्तान का चैक बैलेंस उसके कहे अनुसार नहीं चलता। पाकिस्तान में चुनी हुई सत्ता पर सेना भारी पड़ती है। और आईएसआई का झुकाव जिस दिशा में होता है वह उस दौर में ताकतवर हो जाता है। यानी सत्ता पलट तभी हुआ जब सेना के साथ आईएसआई खडी हो गई ।
और फिलहाल कश्मीर के मुद्दे ने पाकिस्तान की सत्ता के हर ध्रुव को एक साथ ला खड़ा किया है। ऐसे में हर की भूमिका एक सरीखी है । और आईएसआई जिस जेहादी काउंसिल के जरीये कश्मीर मुद्दे पर अपनी ताकत हमेशा बढ़ाकर रखती है । उस जेहाद काउंसिल के 13 आतंकी संगठनों में तीन प्रमुख प्लेयर लश्कर, जैश और हिजबुल का कद भी इस दौर में बढ़ा है क्योंकि एक तरफ तीनों का दखल कश्मीर में बढा है तो दूसरी तरफ लश्कर के संबंध अलकायदा से तो जैश के संबंध तालिबान से और हिजबुल के संबंध आईएस के साथ है। यानी अंतराष्ट्रीय आतंकवाद का जो चेहरा अफगानिस्तान, सीरिया, इराक से होते हुये दुनिया को डरा रहा है, उसका सिरा भी कही ना कही पाकिस्तान की जमीन से जुडा है । और असल सवाल यही हैकि अगर पाकिस्तान की दिखायी देने वाली सत्ता जो फिलहाल राहिल शरीफ और नवाज शरीफ में सिमटी है अगर वह संयम बरत भी लें और हालात सुधारने की दिशा में कदम बढा भी लें तो क्या कश्मीर कौ लेकर मौजूदा वक्त में तमाम आतंकवादी संगठन क्या करेंगे। क्योंकि भारत पाकिस्तान के संबंध जिस उबाल पर है । उसमें पहली बार आंतकवादी संगठन कानूनी सत्ता के विशेषाधिकार को पाकिस्तान में भोग रहे है । क्योकि पाकिस्तान की चुनी हुई सत्ता हो या सेना दोनो के लिये आतंकी संगठन फिलहाल हथियार भी है और ढाल भी । और संयुक्त राष्ट्र में उठे सवालों ने आतंक और पाकिस्तान के बीच की लकीर भी मिटा दी है ।
तो सबसे बड़ा खतरा यही है कि एक वक्त के बाद अगर युद्द आंतकवाद के लिये जरुरी हथियार बन जाये तो पाकिस्तान में परमाणु हथियारो को कौन कैसे संभालेगा । क्योकि पाकिस्तान के परमाणु हथियार कराची के पैराडाइड पाउंट और पंजाब प्रौविंस के चश्मा में है। जहा पाकिस्तान के जेहादी और आंतकी संगठनों के हेडक्वाटर भी है । तो नया सवाल ये भी है कि एशिया में सार्क की भूमिका भी अगर खत्म हो गई तो सबसे ज्यादा लाभ आंतकवाद को ही होगा । क्योकि सार्क देसो की पहली बैठक 1985 में जब ढाका में 7-8 दिसबंर को हुई तो सार्क के एजेंडे में आतंकवाद और ड्रग ट्रैफिकिंग ही थी । और करगिल के वक्त जब सार्क पर पहला बडा ब्रेक लगा था तो यही सवाल उठा था कि पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय क्यों दे रहा है। तो याद कीजिये 1999 में पाकिस्तान में सत्ता पलट और फिर करगिल से डिरेल सार्क सम्मेलन की बैठक जब 2002 में काठमांडू में शुरु हुई तो जनरल मुर्शरफ अपने भाषण के बाद नियम कायदों को छोडकर सीधे वाजपेयी जी के पास पहुंचे और हाथ मिलाकर गिले शिकवे मिटाने का मूक आग्रह कर दिया। और तब वाजपेयी ने भी कहा अब पडोसी तो बदल नहीं सकते। लेकिन इसके बाद की बैठक में वाजपेयी ने मुशर्ऱफ ही नहीं सार्क देशों को भी यही समझाया कि सार्क अगर अपनी उपयोगिता खो देगा या खत्म हो जायेगा तो उसी आंतकवाद को इसका लाभ होगा जिस आंतकवाद को खत्म करने के लिये सार्क देश जुटे है । लेकिन सार्क के 36 बरस के इतिहास में पहली बार सार्क देसो के सामने जब ये सवाल बड़ा हो रहा है कि वह आतंकवाद और पाकिस्तान के बीच लकीर कैसे खींचे। तो नया सवाल ये भी खड़ा होने लगा है कि क्या पाकिस्तान को पटरी पर लाने के सारे रास्ते बंद हो चुके है। य़ा फिर अलग थलग पड़ने के बाद ही पाकिस्तान पटरी पर आयेगा। जाहिर है दोनो हालात में मैसेज यही जाता है कि पाकिस्तान या तो आतंकी राज्य है या फिर आतंकवाद का दायरा पाकिस्तान से बड़ा हो चला है। तो आगे का रास्ता सार्क देशों को पाकिस्तान से अलग थलग कर आंतकवाद के खिलाफ एकजुट करने का है। या फिर आगे का रास्ता आतंकवाद के खिलाफ युद्द की मुनादी होगी। और ये दोनों हालात, क्षेत्रीय संबंधों में सुधार और व्यापार जैसे मुद्दों के लिए बनते माहौल को बिगाड देगा। और सार्क की 150 करोड की आबादी हमेशा आतंक के मुहाने पर बैठी दिखायी देगी।लेकिन सार्क के फेल होने से नया खतरा एशिया में ताकत संघर्ष की शुरुआत और नये गुटो के बनने का भी है। क्योंकि पाकिस्तान काफी पहेल से सार्क में चीन को शामिल करने की बात कहता रहा है। और सार्क के तमाम देश सार्क को भारत पाकिस्तान के बीच झगडे के मंच के तौर पर मानते रहे है। यानी नये हालात आतंक के सवाल पर सार्क की उपयोगिता पर ही सवालिया निशान तो लगा रहे है लेकिन ये हालात आंतक को मान्यता देते हुये एक ऐसे युद्द की मुनादी भी कर रहे है जिसमें विकास और गरीबी से लड़ने के सवाल बारुद की गंध और परमाणु युद्द की आंशाका तले दफ्न हो जायेंगे।
Wednesday, September 28, 2016
Monday, September 26, 2016
पानी को लेकर होगा अगला युद्द ?
सिंधु नदी का इलाका करीब 11 लाख 20 हजार किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसका 86 फिसदी हिस्सा भारत पाकिस्तान में बंटा हुआ है। पाकिस्तान में 47 फिसदी और भारत में 39 फिसदी हिस्से के अलावे सिंधु नदी का 8 फिसदी हिस्सी चीन में 6 फिसदी हिस्सा अफगानिस्तान में भी आता है। और इस क्षेत्र के आसपास के इलाको में करीब 30 करोड़ लोग रहते हैं,लेकिन 1947 में भारत विभाजन पर मुहर लगते ही पंजाब और सिंध प्रात में पानी को लेकर संघर्ष की शुरुआत हो गई । 1947 में भारत और पाकिसातन के इंजीनियरों की मुलाकात ने विभाजन से पहले के हालात 31 मार्च 1948 तक बरकरार रखने पर सहमति बनायी। यानी तय हुआ देश बंटे है लेकिन पानी नहीं बंटेगा। और 31 मार्च 1948 तक पानी की धारा किसी ने रोकी नहीं। लेकिन 1 अप्रैल 1948 को जैसे ही समझौते की तारीख खत्म हुई और पाकिसातन ने कश्मीर में दखल देना शुरु किया तब पहली बार भारत ने पाकिस्तान पर दबाब बनाने के लिये दो प्रमुख नहरों का पानी रोक दिया जिससे पाकिस्तानी पंजाब की 17 लाख एकड़ ज़मीन सूखे की चपेट में आ गया। यानी आज जो सवाल कश्मीर में पाकिस्तानी दखल को लेकर है भारत के सामने है वैसा ही सवाल 1948 में भी सामने आया था। हालांकि 1948 से लेकर 1960 तक सिंधू नदी को लेकर कोई ठोस समझौता तो नहीं हुआ लेकिन उस दौर में पानी रोका भी नहीं गया । लेकिन 1951 में नेहरु के
कहने पर टेनसी वैली अथॉरेटी के पूर्व प्रमुख डेविड लिलियंथल ने इस पूरे इलाके का अध्ययन कर जब रिपोर्ट तैयार की तो वर्लड बैक ने भी इसका अध्ययन किया और 19 सितंबर 1960 को कराची में सिंधु नदी समझौते पर हस्ताक्षर हुए.समझौते हुआ तो सिंधु नदी की सहायक नदियो को पूर्वी और पश्चिमी नदियों में बांटा गया । सतलज, ब्यास और रावी नदियों को पूर्वी नदी मानते हुये भारत को इस्तेमाल का हक मिला ।
तो झेलम, चेनाब और सिंधु को पश्चिमी नदी मानते हुये पाकिसातन को इस्तेमाल का हक मिला ।लेकिन नदियो में एक दूसरे देश के लिये विजली बनाने , खेती के लिय पानी उपयोग के लिये आपसी सहमति के आधार पर पानी देने की भी व्यवस्था हुई । लेकिन कोई उलझन होने पर सिंधु आयोग बना । जिसमे भारत-पाक के कमिश्नर नियुक्त हुये। दोनों देशों की सरकारों को विवाद सुलझाने का हक मिला। कोर्ट आफ आर्ब्रिट्रेशन में जाने का भी रास्ता सुझाया गया । लेकिन पाकिस्तान ने जिस तरह कश्मीर में आतंक को हवा दी और अंतराष्ट्रीय मंच पर जाकर आंतकवाद को स्टेट प़ोलेसी के तहत रखा उसने सिंधू ,समझौते के 56 बरस के इतिहास में पहली बार भारत के लिये ये सवाल तो पैदा कर ही दिया है कि सीमा पर खून बहे और खून बहाने वालो को पानी दें तो क्यों दे । और आज पीएम की बुलाई बैठक में 1948 वाले हालात की तर्ज पर पानी बंद करने की स्थिति पर चर्चा तो हुई । लेकिन ये कैसे और कबतक संभव है नजरे अब इसी पर होंगी। तो सवाल है कि क्या वाकई पानी को लेकर हालात और बिगड सकते है । और अगर ऐसा होता है तो चीन क्या करेगा । जो लगातार पाकिस्तान के पीछे खड़ा है । याद कीजिये तो न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत की सदस्यता पाकिस्तान नहीं चाहता था,तो चीन ने अडंगा लगाकर सदस्यता नहीं मिलने दी। दक्षिण चीन सागर पर भारत के रुख से चीन राज है। बलूचिस्तान का जिक्र मोदी के करने पर चीन खफा है,क्योंकि चीन का आर्थिक कॉरोडोर शिनजियांग प्रांत को रेल,सड़क और पाइपलाइन के जरिए बलूचिस्तान के ग्वादर पोर्ट से जोड़ेगा, जिस पर चीन 46 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च कर रहा है । इसलिये आतंक के सवाल पर भी चीन ने ही पाकिस्तान व के आतंकी संगठन जैश के मुखिया समूद अजहर को यूएन में ही आतंकवादी नहीं माना और वीटो जारी कर दिया ।
और अब जब भारत सिंधू पानी समझौता तोड़़ने का जिक्र कर रहा है तो चीन का मीडिया भारत को चेता रहा है। यानी हालात सिर्फ सिंधु नदी के क्षेत्र तक नहीं सिमटेगे बल्कि तिब्बत और ब्रह्मपुत्र भी इसकी जद में आयेगा । यानी इधर सिधु नदी । उधर बह्मपुत्र नदी । इधर पाकिसातन । उधर चीन । तो सवाल ये भी है कि क्या पानी को लेकर संघर्ष के हालात पैदा हुये तो चीन भी पाकिस्तान के साथ खडा होकर बह्रमपुत्र का पानी रोक सकता है । ये सवाल इसलिये क्योकि चीन अरसे से तिबब्त में बांध बनाकर बह्रमपुत्र के पानी को पीली नदी में डालने की योजना बनाने में लगा है । चीन की बांध बनाने की योजना अरुणाचल और तिबब्त की सीमा पर ग्रेट बैड पर है । जहा ब्रह्मपुत्र यू टर्न लेती है । और ब्रह्मपुत्र कही ना कही बांग्लादेश के लिये भी जीवनदायनी है । यानी भारत पाकिस्तान टकराव की जद में समूचा एशिया आयेगा इससे इंकार किया नहीं जा सकता । तो क्या वाकई पानी को लेकर दुनिया के केन्द्र में भारत पाकिस्तान हो सकता है । क्योंकि ये पहली बार हो रहा है ऐसा भी नहीं है । नील नदी को लेकर मिस्र , इथोपिया , सूडान आपस में भिडे । तो जार्डन नदी को लेकर इजरायल, जार्डन, लेबनान , फिलस्तीन और अराल सी [ नदी ] पर तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान , उजबेकिस्तान , किर्जिकिस्तान के बीच झगडा जग जाहिर है । यानी पानी एक ऐसे हथियार के तौर पर किसी भी देश के लिये सहायक हो सकता है जब उसे अपने दुश्मन देश पर दबाब बनाना हो या फिर दुश्मन देश की सत्ता के खिलाफ उसके अपने देश में राष्ट्रीय भावना को उसी के खिलाफ करना हो । और असर इसी का है कि पानी का संघर्ष चाहे गाजा पट्टी मेंदिखायी दे या फिर मिस्र , सूडान और इथोपिया के बीच । आखिर में दुनिया के दबाब में रास्ता पानी समझौते का ही निकाला गया । और पानी को लेकर बीते 50 बरस में 150 संधिया हुईं । 37 संधियों में हिंसा हुई । तो नया सवाल ये भी है आतंकवाद का नया नजरिया पानी को ही हथियार या ढाल बनाकर भी शुरु हो सकता है । क्योंकि सीरिया और यमन में अगर आईएसआईएस का आतंक आज दस्तक दे चुका है तो उसके अतीत का सच ये भी है कि सीरिया और यमन में गृह युद्द के हालात पानी की वजह से ही बने । जह वहा के गवर्नर ने अपने लिये पानी अलग से जमा कर कब्जा कर लिया । और लोगो ने विरोध किया । असंतोष के हालात में तेल के साथ साथ पानी पर भी आईएस ने कब्जा कर लिया । फिर यूनाइटेड नेशन के जेनरल सेकेट्री रहे कोफी अन्नान से लेकर मौजूदा बान की मून तक ने माना कि 21 वी सदी में तेल को लेकर नहीं पानी को लेकर युद्द होगा । बंदूकें पानी के लिये खरीदी जायेगी ।
कहने पर टेनसी वैली अथॉरेटी के पूर्व प्रमुख डेविड लिलियंथल ने इस पूरे इलाके का अध्ययन कर जब रिपोर्ट तैयार की तो वर्लड बैक ने भी इसका अध्ययन किया और 19 सितंबर 1960 को कराची में सिंधु नदी समझौते पर हस्ताक्षर हुए.समझौते हुआ तो सिंधु नदी की सहायक नदियो को पूर्वी और पश्चिमी नदियों में बांटा गया । सतलज, ब्यास और रावी नदियों को पूर्वी नदी मानते हुये भारत को इस्तेमाल का हक मिला ।
तो झेलम, चेनाब और सिंधु को पश्चिमी नदी मानते हुये पाकिसातन को इस्तेमाल का हक मिला ।लेकिन नदियो में एक दूसरे देश के लिये विजली बनाने , खेती के लिय पानी उपयोग के लिये आपसी सहमति के आधार पर पानी देने की भी व्यवस्था हुई । लेकिन कोई उलझन होने पर सिंधु आयोग बना । जिसमे भारत-पाक के कमिश्नर नियुक्त हुये। दोनों देशों की सरकारों को विवाद सुलझाने का हक मिला। कोर्ट आफ आर्ब्रिट्रेशन में जाने का भी रास्ता सुझाया गया । लेकिन पाकिस्तान ने जिस तरह कश्मीर में आतंक को हवा दी और अंतराष्ट्रीय मंच पर जाकर आंतकवाद को स्टेट प़ोलेसी के तहत रखा उसने सिंधू ,समझौते के 56 बरस के इतिहास में पहली बार भारत के लिये ये सवाल तो पैदा कर ही दिया है कि सीमा पर खून बहे और खून बहाने वालो को पानी दें तो क्यों दे । और आज पीएम की बुलाई बैठक में 1948 वाले हालात की तर्ज पर पानी बंद करने की स्थिति पर चर्चा तो हुई । लेकिन ये कैसे और कबतक संभव है नजरे अब इसी पर होंगी। तो सवाल है कि क्या वाकई पानी को लेकर हालात और बिगड सकते है । और अगर ऐसा होता है तो चीन क्या करेगा । जो लगातार पाकिस्तान के पीछे खड़ा है । याद कीजिये तो न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत की सदस्यता पाकिस्तान नहीं चाहता था,तो चीन ने अडंगा लगाकर सदस्यता नहीं मिलने दी। दक्षिण चीन सागर पर भारत के रुख से चीन राज है। बलूचिस्तान का जिक्र मोदी के करने पर चीन खफा है,क्योंकि चीन का आर्थिक कॉरोडोर शिनजियांग प्रांत को रेल,सड़क और पाइपलाइन के जरिए बलूचिस्तान के ग्वादर पोर्ट से जोड़ेगा, जिस पर चीन 46 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च कर रहा है । इसलिये आतंक के सवाल पर भी चीन ने ही पाकिस्तान व के आतंकी संगठन जैश के मुखिया समूद अजहर को यूएन में ही आतंकवादी नहीं माना और वीटो जारी कर दिया ।
और अब जब भारत सिंधू पानी समझौता तोड़़ने का जिक्र कर रहा है तो चीन का मीडिया भारत को चेता रहा है। यानी हालात सिर्फ सिंधु नदी के क्षेत्र तक नहीं सिमटेगे बल्कि तिब्बत और ब्रह्मपुत्र भी इसकी जद में आयेगा । यानी इधर सिधु नदी । उधर बह्मपुत्र नदी । इधर पाकिसातन । उधर चीन । तो सवाल ये भी है कि क्या पानी को लेकर संघर्ष के हालात पैदा हुये तो चीन भी पाकिस्तान के साथ खडा होकर बह्रमपुत्र का पानी रोक सकता है । ये सवाल इसलिये क्योकि चीन अरसे से तिबब्त में बांध बनाकर बह्रमपुत्र के पानी को पीली नदी में डालने की योजना बनाने में लगा है । चीन की बांध बनाने की योजना अरुणाचल और तिबब्त की सीमा पर ग्रेट बैड पर है । जहा ब्रह्मपुत्र यू टर्न लेती है । और ब्रह्मपुत्र कही ना कही बांग्लादेश के लिये भी जीवनदायनी है । यानी भारत पाकिस्तान टकराव की जद में समूचा एशिया आयेगा इससे इंकार किया नहीं जा सकता । तो क्या वाकई पानी को लेकर दुनिया के केन्द्र में भारत पाकिस्तान हो सकता है । क्योंकि ये पहली बार हो रहा है ऐसा भी नहीं है । नील नदी को लेकर मिस्र , इथोपिया , सूडान आपस में भिडे । तो जार्डन नदी को लेकर इजरायल, जार्डन, लेबनान , फिलस्तीन और अराल सी [ नदी ] पर तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान , उजबेकिस्तान , किर्जिकिस्तान के बीच झगडा जग जाहिर है । यानी पानी एक ऐसे हथियार के तौर पर किसी भी देश के लिये सहायक हो सकता है जब उसे अपने दुश्मन देश पर दबाब बनाना हो या फिर दुश्मन देश की सत्ता के खिलाफ उसके अपने देश में राष्ट्रीय भावना को उसी के खिलाफ करना हो । और असर इसी का है कि पानी का संघर्ष चाहे गाजा पट्टी मेंदिखायी दे या फिर मिस्र , सूडान और इथोपिया के बीच । आखिर में दुनिया के दबाब में रास्ता पानी समझौते का ही निकाला गया । और पानी को लेकर बीते 50 बरस में 150 संधिया हुईं । 37 संधियों में हिंसा हुई । तो नया सवाल ये भी है आतंकवाद का नया नजरिया पानी को ही हथियार या ढाल बनाकर भी शुरु हो सकता है । क्योंकि सीरिया और यमन में अगर आईएसआईएस का आतंक आज दस्तक दे चुका है तो उसके अतीत का सच ये भी है कि सीरिया और यमन में गृह युद्द के हालात पानी की वजह से ही बने । जह वहा के गवर्नर ने अपने लिये पानी अलग से जमा कर कब्जा कर लिया । और लोगो ने विरोध किया । असंतोष के हालात में तेल के साथ साथ पानी पर भी आईएस ने कब्जा कर लिया । फिर यूनाइटेड नेशन के जेनरल सेकेट्री रहे कोफी अन्नान से लेकर मौजूदा बान की मून तक ने माना कि 21 वी सदी में तेल को लेकर नहीं पानी को लेकर युद्द होगा । बंदूकें पानी के लिये खरीदी जायेगी ।
Monday, September 19, 2016
ना युद्द...ना शांति
दुनिया के तमाम अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर से कही ज्यादा रौशनी वाली 2900 किलोमीटर लंबी भारत पाकिसात सीमा पर डेढ़ लाख प्लड लाइट इसलिये चमकते हैं क्योंकि ये सीमा दुनिया की सबसे खतरनाक सीमा में तब्दील हो चुकी है । और दुनिया की नजर भारत पाकिसातन को लेकर इसीलिये कहीं तीखी है कि अगर युद्द छिड़ा तो युद्द परमाणु हथियारो के उपयोग तक ना चला जाये । इसीलिये माना यही जा रही है कि संयुक्त राष्ट्र जनरल एसेंबली की बैठक कल जब शुरु होगी तो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी पाकिसातन की जमीन से हो रहे आतंक के मुद्दे को उठायेंगे । और भारतीय जवानों के मारे जाने पर शोक व्यक्त जरुर करेंगें । और इसी के बाद ये सवाल बडा हो जायेगा कि संयुक्त राष्ट्र में जब भारत पाकिसातन का मुद्दा उठेगा तो क्या सेना पर हुये अबतक के सबसे बड़े हमले के बाद -भारत खामोश रहकर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पाकिसातन को आतंकी देश घोषित करवाने और आर्थिक पाबंदी लगवाने की दिशा में जायेगा । या फिर पाकिस्तान के खिलाफ सैनिक युद्द की दिशा में कदम बढायेगा । अगर भारत अंतराष्ट्रीय मंच का सहारा लेता है तो पाकिसातन के लिये कशमीर पर बहस छेडना आसान हो जायेगा । जिसकी शुरुआत पाकिस्तानी राष्ट् पति नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेबली की बैठक से पहले न्यूयार्क पहुचकर कर शुरु भी कर दी है । और अगर भारत युद्द की दिशा में बढता है तो संयुक्त राष्ट्र ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम मंचों पर इसी बात की ज्यादा सुगबुगाहट शुरु हो जायेगी कि युद्द अगर परमाणु युद्द में तब्दील हो गया तो क्या होगा । यानी भारत के साथ खडा अमेरिका भी युद्द नहीं चाहेगा । तो फिर भारत के सामने अब रास्ता क्या है । क्योकि पहली बार भारत के सामने अपने तीन सवाल है । पहला आंतरिक सुरक्षा डॉवाडोल है । दूसरा, युद्द के लिये 10 दिन से ज्यादा गोला बारुद भारत के पास नहीं है । और तीसरा पाकिसातन के पीछे चीन खडा है । तो क्या भारत के पीछे अमेरिका खडा होगा ।
जाहिर है हर हालातो पर साउथ ब्लाक से लेकर 7 आरसीआर तक बैठकों में जिक्र जरुर हो रहा है । तो क्या वाकई भारत के लिये सबसे मुश्किल इम्तिहान का वक्त है । क्योंकि आतंक की जमीन पाकिसातन की है । हमला आतंकी है । और जो भारत की सीमा के भीतर घुसकर छापामार तरीके से किया गया है । ऐसे में युद्द के तीन तरीके है । गुप्त आपरेशन , पारंपरिक युद्द और परमाणु युद्द । यानी पाकिस्तान करे खिलाफ कारावाई के यही तीन आधार है । जो युद्द की दिशा में भी भारत को ले जाता है । और युद्द पर भारत का रुख डिटरेन्स वाला है । लेकिन हमेशा डिटेरेन्स अपनायेंगे तो फिर सेना की जरुरत ही क्या है इसपर भी सवालिया निशान लग जायेगा । तो डिपलॉमैसी और अंतराष्ट्रीय मंच के सामानांतर पहला विकल्प गुप्त आरपेशन का है । और गुप्त आपरेशन का मतलब है बिना पारंपरिक युद्द के ट्रेड कमाडोज के जरीये पीओके में आंतकी कैप को ध्वास्त करना । फिर पाकिसातन में रह रहे कश्मीरी नुमाइन्दो को निपटाना । और तीसरे स्तर पर जो भारत विरोधी पाकिस्तान में आश्रय लिये हुये है उनके खिलाफ पाकिसातन में ही गुप्त तरीके से आपरेशन को अंजाम देना । यानी ये कारावाई हिजबुल चीफ सैयद सलाउद्दीन से लेकर दाउद तक के खिलाफ हो सकती है । और पीओके से लेकर पेशावर और मुरीदके से लेकर कराची तक आंतकी कैप ध्वस्त किये जा सकते हैं । जबकि पारंपरिक युद्द और परमाणु युद्द का मतलब है समूची दुनिया को इसमें इन्वाल्व करना । क्योकि भारत की हालात अमेरिका या इजरायल
वाली नहीं है जो अपने खिलाफ कारारावई को अंजाम देने के लिये हवाई स्ट्राइक करने से नहीं कतराते । भारत की मुश्किील ये हैा अगर वह सीमा पर ग्रउड सेना को जमा करता है और एयर स्ट्रईल की इजाजत दे देता है तो काउंटर में पाकिसातन के साथ हर तरह के युद्द के लिये समूची रणनीति पहले से तैयार रखनी होगी । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है युद्द के हालात परमाणु युद्द तक कही ना चले जाये । मुश्किल ये है कि पाकिसातन को कश्मीर का सवाल ही एकजूट किये हुये है । और कशमीर के भीतर पाकिस्तानी आंतक को पनाह देने से लेकर हर जरुरत मुहैया कराने में कही ना कही कशमीरी है । फिर सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि बीते तीन महीनो में हिजबुल में शामिल होने वाले नये कश्मीरियों की संख्या तेजी से बढी है । यानी कश्मीर में सेना से इतर राजनीतिक-सामाजिक चेहरो को तलाशना होगा जो दिल्ली के साथ खडा हो ना कि पाकिस्तानी आतंक के साथ । लेकिन इस दौर में कश्मीर में हिंसा को लेकर या पाकिसातन की कश्मीर में दखल के बावजूद दिल्ली की खामोशी में आम लोगो का गुस्सा जायज है कि पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर सकते । क्योंकि पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने कोई पहली बार जवानों पर हमला नहीं किया। देश चाहता यही है कि भारत उठे और पाकिस्तान को सबक सिखा दे। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत पाकिस्तान को युद्ध में फौरन पटखनी दे सकता है?
ये सवाल इसलिए क्योंकि बीते साल सीएजी की रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया कि भारतीय सेना के पास सिर्फ 15-20 दिन तक युद्ध लड़ने का गोला-बारुद है । स्वदेशी लड़ाकू जहाज तेजस भी युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है । कुछ खास गोला-बारुद का रिजर्व तो महज 10 दिन के लिए ही है । तो याद कीजिए तो कारगिल युद्ध 67 दिन तक चला था। लेकिन-उस वक्त दोनों सेनाएं एक खास इलाके में लड़ रही थीं। यानी अगर पूरी तरह से युद्ध हुआ तो भारत के पास पर्याप्त गोला-बारुद नहीं है। जबकि आदर्श हालात में वॉर वेस्टेज रिजर्व्स कम से कम 40 दिन का होना चाहिए । और ऐसा नहीं है कि सरकार इस बात को नहीं जानती। क्योंकि मार्च 2012 में जनरल वीके सिंह ने सरकार को खत लिखकर साफ साफ कहा था कि सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है । और तब बीजेपी ने मनमोहन सरकरा पर सवाल उठाया था कि सेना इनकी प्रथमिकता में है ही नहीं । फिर इसी सत्र में स्टैंडिंग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि एंटी मैटेरियल गन, मल्टीपल ग्रैनेड लॉन्चर और 120 एमएण आर्टिलरी गोले तक की सेना में खासी कमी है । और गोला-बारुद क्यों नहीं है। इसकी कई वजह हैं। इनमें सेना को पर्याप्त फंड न मिलने के राजनीतिक कारण से लेकर आय त की समस्या, आयुध फैक्ट्रियों में पर्याप्त प्रोडक्शन न होना और नौकरशाही की समस्या तक कई वजह हैं। आलम ये कि 2008 से 2013 के लालफीताशाही के वजह से तय ऑर्डर का सिर्फ 20 फीसदी ही गोलाबारुद आयात हुआ। लेकिन मुद्दा सिर्फ इतना नहीं है कि लंबे युद्ध के लिए भारत के पास पर्याप्त गोलाबारुद नहीं है। दरअसल,पाकिस्तान ने आतंक को पोसने की अपनी रणऩीति में भारत को ऐसा उलझाया है कि भारतीय सेना युद्ध पर कम और दूसरे मामलों में ज्यादा उलझ गई। मसलन कारगिल युद्ध के बाद सेना के 12 हजार से ज्यादा जवान कारगिल में अटक गए । 26/11 यानी मुंबई हमले ने भारतीय नौसेना को समुद्री तटों की रखवाली में ज्यादा उलझा दिया। महंगे समुद्री पोत भी इसी काम में लगाए गए । एलओसी पर फैंसिंग ने सेना को डिफेंसिव मोड में रखा यानी भारतीय सेना की हदें तो तय हो गई अलबत्ता आतंकी और उनके हैंडलर्स आसानी से फैंसिंग को धता बताकर घुसपैठ करते रहे । और घुसपैठ विरोधी ऑपरेशन्स को अंजाम देने का जो काम पैरामिलिट्री फोर्स के पास होना चाहिए-भारतीय सेना को वो काम सौंप दिया गया। यानी युद्ध की बात से पहले युद्ध की पूरी तैयारी जरुरी है। क्योंकि एक बड़ा सच ये भी है कि हर आंतकी हमले के द पीएम से लेकर रक्षा मंत्री और गृहमंत्री से लेकर समूची सरकार ही नहीं बल्कि हर राजनीतिक दल ही जिस तरह सियासत शुरु कर देता है उसमें लगता यही है कि देश में सैनिक , अद्सैनिक बल या एनआईए या किसी भी स्तर पर सुरक्षाकर्मी कोई मायने रखता ही नहीं बल्कि सुरक्षा का हर बंदोबस्त राजनेताओ के कंघे पर है ।
और असर इसी का है कि आंतरिक सुरक्षा का मसला गंभीर होते हुए भी इस पर कोई ठोस नीति नहीं है । हालत ये है कि आंतक पर राज्य और केन्द्र के बीच कोई तालमेल नहीं है । तमाम एंजेसियो के बीच खुफिया सूचनाओ के आदान प्रदान की स्थिति अच्छी नहीं है ।साइबर-इंटेलीजेंस का हाल खस्ता है । आधुनिक हथियार और आधुनिक उपकरणो की खासी कमी है । इसीलिये सवाल सिर्फ तीन दिन पहले उडी में हमले का नहीं बल्कि उससे पहले पठानकोट । उससे पहले मणिपुऱ में उससे पहले मुबई में और उससे पहले कालूचक में । और इन सबके बीच करीब दर्जन भर आंतकी हमले ऐसे हुये जिसमें पहले सो कोई अल्रट नहीं था । तो क्या आंतरिक सुऱक्षा पूरी तरह फेल है और अब वक्त आ गया है कि आंतरिक सुरक्षा का काम भी सेना को दे दिया जाये । क्योकि इस बार भी हमले के शोरगुल में एलओसी से लगती उड़ी की सैन्य छावनी पर हमले के दौरान सुरक्षा चूक की बात अनदेखी रह गई, जिसकी वजह से हमला आसान हुआ।
जाहिर है हर हालातो पर साउथ ब्लाक से लेकर 7 आरसीआर तक बैठकों में जिक्र जरुर हो रहा है । तो क्या वाकई भारत के लिये सबसे मुश्किल इम्तिहान का वक्त है । क्योंकि आतंक की जमीन पाकिसातन की है । हमला आतंकी है । और जो भारत की सीमा के भीतर घुसकर छापामार तरीके से किया गया है । ऐसे में युद्द के तीन तरीके है । गुप्त आपरेशन , पारंपरिक युद्द और परमाणु युद्द । यानी पाकिस्तान करे खिलाफ कारावाई के यही तीन आधार है । जो युद्द की दिशा में भी भारत को ले जाता है । और युद्द पर भारत का रुख डिटरेन्स वाला है । लेकिन हमेशा डिटेरेन्स अपनायेंगे तो फिर सेना की जरुरत ही क्या है इसपर भी सवालिया निशान लग जायेगा । तो डिपलॉमैसी और अंतराष्ट्रीय मंच के सामानांतर पहला विकल्प गुप्त आरपेशन का है । और गुप्त आपरेशन का मतलब है बिना पारंपरिक युद्द के ट्रेड कमाडोज के जरीये पीओके में आंतकी कैप को ध्वास्त करना । फिर पाकिसातन में रह रहे कश्मीरी नुमाइन्दो को निपटाना । और तीसरे स्तर पर जो भारत विरोधी पाकिस्तान में आश्रय लिये हुये है उनके खिलाफ पाकिसातन में ही गुप्त तरीके से आपरेशन को अंजाम देना । यानी ये कारावाई हिजबुल चीफ सैयद सलाउद्दीन से लेकर दाउद तक के खिलाफ हो सकती है । और पीओके से लेकर पेशावर और मुरीदके से लेकर कराची तक आंतकी कैप ध्वस्त किये जा सकते हैं । जबकि पारंपरिक युद्द और परमाणु युद्द का मतलब है समूची दुनिया को इसमें इन्वाल्व करना । क्योकि भारत की हालात अमेरिका या इजरायल
वाली नहीं है जो अपने खिलाफ कारारावई को अंजाम देने के लिये हवाई स्ट्राइक करने से नहीं कतराते । भारत की मुश्किील ये हैा अगर वह सीमा पर ग्रउड सेना को जमा करता है और एयर स्ट्रईल की इजाजत दे देता है तो काउंटर में पाकिसातन के साथ हर तरह के युद्द के लिये समूची रणनीति पहले से तैयार रखनी होगी । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है युद्द के हालात परमाणु युद्द तक कही ना चले जाये । मुश्किल ये है कि पाकिसातन को कश्मीर का सवाल ही एकजूट किये हुये है । और कशमीर के भीतर पाकिस्तानी आंतक को पनाह देने से लेकर हर जरुरत मुहैया कराने में कही ना कही कशमीरी है । फिर सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि बीते तीन महीनो में हिजबुल में शामिल होने वाले नये कश्मीरियों की संख्या तेजी से बढी है । यानी कश्मीर में सेना से इतर राजनीतिक-सामाजिक चेहरो को तलाशना होगा जो दिल्ली के साथ खडा हो ना कि पाकिस्तानी आतंक के साथ । लेकिन इस दौर में कश्मीर में हिंसा को लेकर या पाकिसातन की कश्मीर में दखल के बावजूद दिल्ली की खामोशी में आम लोगो का गुस्सा जायज है कि पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर सकते । क्योंकि पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने कोई पहली बार जवानों पर हमला नहीं किया। देश चाहता यही है कि भारत उठे और पाकिस्तान को सबक सिखा दे। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत पाकिस्तान को युद्ध में फौरन पटखनी दे सकता है?
ये सवाल इसलिए क्योंकि बीते साल सीएजी की रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया कि भारतीय सेना के पास सिर्फ 15-20 दिन तक युद्ध लड़ने का गोला-बारुद है । स्वदेशी लड़ाकू जहाज तेजस भी युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है । कुछ खास गोला-बारुद का रिजर्व तो महज 10 दिन के लिए ही है । तो याद कीजिए तो कारगिल युद्ध 67 दिन तक चला था। लेकिन-उस वक्त दोनों सेनाएं एक खास इलाके में लड़ रही थीं। यानी अगर पूरी तरह से युद्ध हुआ तो भारत के पास पर्याप्त गोला-बारुद नहीं है। जबकि आदर्श हालात में वॉर वेस्टेज रिजर्व्स कम से कम 40 दिन का होना चाहिए । और ऐसा नहीं है कि सरकार इस बात को नहीं जानती। क्योंकि मार्च 2012 में जनरल वीके सिंह ने सरकार को खत लिखकर साफ साफ कहा था कि सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है । और तब बीजेपी ने मनमोहन सरकरा पर सवाल उठाया था कि सेना इनकी प्रथमिकता में है ही नहीं । फिर इसी सत्र में स्टैंडिंग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि एंटी मैटेरियल गन, मल्टीपल ग्रैनेड लॉन्चर और 120 एमएण आर्टिलरी गोले तक की सेना में खासी कमी है । और गोला-बारुद क्यों नहीं है। इसकी कई वजह हैं। इनमें सेना को पर्याप्त फंड न मिलने के राजनीतिक कारण से लेकर आय त की समस्या, आयुध फैक्ट्रियों में पर्याप्त प्रोडक्शन न होना और नौकरशाही की समस्या तक कई वजह हैं। आलम ये कि 2008 से 2013 के लालफीताशाही के वजह से तय ऑर्डर का सिर्फ 20 फीसदी ही गोलाबारुद आयात हुआ। लेकिन मुद्दा सिर्फ इतना नहीं है कि लंबे युद्ध के लिए भारत के पास पर्याप्त गोलाबारुद नहीं है। दरअसल,पाकिस्तान ने आतंक को पोसने की अपनी रणऩीति में भारत को ऐसा उलझाया है कि भारतीय सेना युद्ध पर कम और दूसरे मामलों में ज्यादा उलझ गई। मसलन कारगिल युद्ध के बाद सेना के 12 हजार से ज्यादा जवान कारगिल में अटक गए । 26/11 यानी मुंबई हमले ने भारतीय नौसेना को समुद्री तटों की रखवाली में ज्यादा उलझा दिया। महंगे समुद्री पोत भी इसी काम में लगाए गए । एलओसी पर फैंसिंग ने सेना को डिफेंसिव मोड में रखा यानी भारतीय सेना की हदें तो तय हो गई अलबत्ता आतंकी और उनके हैंडलर्स आसानी से फैंसिंग को धता बताकर घुसपैठ करते रहे । और घुसपैठ विरोधी ऑपरेशन्स को अंजाम देने का जो काम पैरामिलिट्री फोर्स के पास होना चाहिए-भारतीय सेना को वो काम सौंप दिया गया। यानी युद्ध की बात से पहले युद्ध की पूरी तैयारी जरुरी है। क्योंकि एक बड़ा सच ये भी है कि हर आंतकी हमले के द पीएम से लेकर रक्षा मंत्री और गृहमंत्री से लेकर समूची सरकार ही नहीं बल्कि हर राजनीतिक दल ही जिस तरह सियासत शुरु कर देता है उसमें लगता यही है कि देश में सैनिक , अद्सैनिक बल या एनआईए या किसी भी स्तर पर सुरक्षाकर्मी कोई मायने रखता ही नहीं बल्कि सुरक्षा का हर बंदोबस्त राजनेताओ के कंघे पर है ।
और असर इसी का है कि आंतरिक सुरक्षा का मसला गंभीर होते हुए भी इस पर कोई ठोस नीति नहीं है । हालत ये है कि आंतक पर राज्य और केन्द्र के बीच कोई तालमेल नहीं है । तमाम एंजेसियो के बीच खुफिया सूचनाओ के आदान प्रदान की स्थिति अच्छी नहीं है ।साइबर-इंटेलीजेंस का हाल खस्ता है । आधुनिक हथियार और आधुनिक उपकरणो की खासी कमी है । इसीलिये सवाल सिर्फ तीन दिन पहले उडी में हमले का नहीं बल्कि उससे पहले पठानकोट । उससे पहले मणिपुऱ में उससे पहले मुबई में और उससे पहले कालूचक में । और इन सबके बीच करीब दर्जन भर आंतकी हमले ऐसे हुये जिसमें पहले सो कोई अल्रट नहीं था । तो क्या आंतरिक सुऱक्षा पूरी तरह फेल है और अब वक्त आ गया है कि आंतरिक सुरक्षा का काम भी सेना को दे दिया जाये । क्योकि इस बार भी हमले के शोरगुल में एलओसी से लगती उड़ी की सैन्य छावनी पर हमले के दौरान सुरक्षा चूक की बात अनदेखी रह गई, जिसकी वजह से हमला आसान हुआ।
Thursday, September 15, 2016
राजनीतिक सत्ता में समाया भारत का लोकतंत्र
15 सितंबर: विश्व लोकतंत्र दिवस
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राजनीतिक सत्ता में देश की जान है तो ये देश के लोकतंत्र का राजनीतिक सच है। जहां संसद में लोकसभा और राज्यसभा के कुल सदस्य 786 हैं। तो देश में विधायकों की तादाद 4120 है। देश में 633 जिला पंचायतों के कुल 15 हजार 581 सदस्य हैं। तो ढाई लाख ग्राम सभा में करीब 26 लाख सदस्य हैं। यानी सवा सौ करोड़ के देश को चलाने वाले यही लोग है, जिनकी तादाद मिला दी जाये ये ये 26,20,487 है। और इससे सौ गुना ज्यादा यानी 36 करोड 22 लाख, 96 हजारलोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। जो उन्हीं गांव, उन्हीं शहरों में रहते हैं जिन गांवों से जिला और शहर दर शहर से लेकर दिल्ली की संसद में बैठने के लिये हर सीट पर औसतन 10 से बारह लोग चुनाव लड़ने के लिये मैदान में उतरते ही हैं। यानी जितने लोग राजनीतिक तौर पर सक्रिय होते है, उनकी तादाद करीब तीन करोड़ 20 लाख तक होती है। और हर चुनाव लड़ने वाले के पीछे अगर दो लोग भी मान लिये जाये तो करीब साढे छह करोड़ लोगों की रुचि राजनीतिक सत्ता पाने की होड़ में जुटने की होती है। यानी देश के लोकतंत्र का दो ही सच है। एक तरफ राजनीतिक सत्ता पाने की होड में सक्रिय छह करोड़ लोगों से चुनाव के वक्त पैदा होने वाला रोजगार। जो गाहे बगा देश के 10 करोड़ लोगों को राजनीतिक कमाई के लिये सक्रिय तो कर ही देता है। और दूसरी तरफ अगर बीपीएल और एपीएल परिवारों के सच को समझें तो 78 करोड़ लोगों की जिन्दगी दो जून की रोटी मिले कैसे, उसी में कटती है। और देश का नायाब सच यह भी है कि मौजूदा वक्त में देश में 80 करोड़ वोटर है । और वोटर सबसे ज्यादा युवा हैं । और उसमें सबसे ज्यादा बेरोजगार युवा वोटरों की तादाद है। जिनके लिये देश 10 से 15 हजार रुपये महीने की नौकरी देने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि देश में चपरासी की नौकरी के लिये ग्रेजुएट और इंजीनियरिंग की डिग्री वाले भी अप्लाई कर रहे है।
यानी देश की राजनीतिक सत्ता में जो शामिल है या फिर राजनीतिक तौर पर जिसने खुद को सक्रिय कर लिया उसे दो जून की रोटी के लिये तरसना नहीं होगा क्योकि राजनीतिक लोकतंत्र देश में सबसे बडा रोजगार है। क्योंकि संसद से लेकर ग्रामसभा में चुनाव लडने के लिये जो पैसा खर्च करने की इजाजत है, वह ना तो समाज से मेल खाता है ना देश की इक्नामी से। लेकिन यही लोकतंत्र है। 30 से 45 दिनो के चुनाव प्रचार के दौर में बकायदा इजाजत है कि कि संसद के चुनाव में 70 लाख रुपये हर उम्मीदवार खर्च कर सकता है । विधानसभा चुनाव में 28 लाख रुपये हर उम्मीदवार खर्च कर सकता है । तो जिला पंचायत चुनाव में 5 लाख रुपये खर्च कर सकता है। और ग्राम सभा में 25 से 40 हजार रुपये तक गर उम्मीदवार खर्च कर सकता है। तो देश में लोकतंत्र का मिजाज ही उस राजनीतिक सत्ता की चौखट पर खड़ा कर दिया गया है जहा पैसा होगा तो राजनीतिक सत्ता का दरवाजा खुलेगा । राजनीतिक सक्रियता होगी तो ही रोजगार की जरुरत नहीं होगी । यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश भारत का सच यही है कि यहा के राजनेता दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिकी सत्ता से भी रईस है। लेकिन जिस लोकतंत्र को लोगों के लिये संवैधानिक तंत्र बनाकर जीने के अधिकार से जोड़ा गया, वह लोकतंत्र है कहां, ये सवाल 15 सितबंर यानी विश्व लोकतांत्रिक दिवस के दिन खोजना बेदह मुश्किल है। क्योंकि भारत में लोकतंत्र अगर चुनावी राजनीतिक सत्ता में बसता है, तो वह है कितना दागी ये सवाल खुद ही प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने उठाया था। जब जून 2014 में उन्होंने में संसद में कहा कि साल भर में हर वह सांसद जिस पर कोई मुकदमा चल रहा है वह अदालत में निपटा कर पहुंचे।
लेकिन ढाई बरस बीत गये और संयोग ऐसा है कि अब उस पर जवाब देने का वक्त आ गया है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र और चुनाव आयोग से पूछा है कि क्या दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए? दरअसल, याचिका में कहा गया है कि दागी नेताओं के मामलों की सुनवाई एक साल के भीतर हो और नेता दोषी पाए जाएं तो उन पर आजीवन पाबंदी लगाई जाए। तो अब जवाब मोदी सरकार को देना है कि वो इस मामले में क्या चाहती है। ये सवाल इसलिए अहम है क्योंकि एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार में ही 78 में से 24 मंत्री दागी हैं। तमाम राज्यों के 609 में से 210 मंत्री दागी हैं। इनमें 113 मंत्रियों पर तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। और देश की विधानसभाओं में 1258 विधायक दागी हैं। यानी यह राजनीतिक लोकतंत्र का ही कमाल है कि अपराध या भ्रष्टाचार राजनेता करें तो कोई फक्र किसी को
नहीं पड़ता। लेकिन लोकतंत्र के पर्व पर यानी राजनीतिक चुनाव के वक्त यही मुद्दा हर जुबा पर होता है । चाहे चुनाव कही हो अपराध , भ्रष्ट्रचार का जिक्र हर कोई करता है । याद किजिये बीजेपी ने यूपीए के दौर में घोटालो की फेरहिस्त बतायी थी । सत्यम घोटाला ,खाद्यान्न घोटाला ,हसन अली टैक्स चोरी,आदर्श सोसाइटी घोटाला,कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टूजी स्पैक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला,सिंचाई घोटाला । और हर घोटाले पर आवाज बुलंद करते हुए दिल्ली ,से लेकर मुबंई तक में दोषियों को जेल में ठूंसने की बात कही गई। लेकिन हुआ क्या। और ये सिर्फ मोदी सरकार या केजरीवाल सरकार भर का नहीं है । महाराष्ट्र में तो सिंचाई घोटाले की आवाज सबसे जोर से मौजूदा सीएम देवेन्द्र फडनवीस ने ही उठाई थी । झारखंड में खनन घोटाले की आवाज
मौजूदा सीएम रधुवर दास ने ही उठायी थी । हरियाणा चुनाव में राबर्ट वाड्रा के खिलाफ बीजेपी ने क्या क्या नहीं कहा। लेकिन हुआ क्या। कोई जेल नहीं गया । आरोप प्रत्यारोप ही राजनीतिक सत्ता पाने के तरीके बना दिये गये । और इसे ही लोकतंत्र का राग मान लिया गया ।
और लोकतंत्र कैसे सियासी परिवारों के ताने बाने में उलझ जाता है यह नजारा खुले तौर पर बिहार यूपी में अब नजर भी आ रहा है । यूपी के सीएम अखिलेश परेशान है चचा शिवपाल से । बिहार के सीअम नीतिश कुमार परेशान है सहयोगी आरजेडी के सर्वौसर्वा लालू के राजनीतिक मिजाज से । शिवपाल खडे है अमर सिंह के साथ जिसे अखिलेश पचा नही पा रहे है । तो लालू खड़े है शहाबुद्दीन के साथ, जिसे नीतिश पचा नही पा रहे हैं। दोनों का दर्द अपने अपने तरीके से छलक रहा है। लेकिन यूपी के 20 करोड़ और बिहार के 10 करोड़ लोगों के सामने कौन सी मुश्किल है, इस पर जद्दोजहद करने की जगह दोनो ही उलझे हैं अपनी अपनी सत्ता को बेदाग बताने में । यानी सत्ता के परिवारों के लिये अपना लोकतंत्र और जनता का लोकतंत्र अलग । क्योकि बिहार यूपी के तीस करोड लोगों के दर्द को समझे तो शिक्षा, स्वास्थ्य , बिजली, पानी, उघोग हर क्षेत्र में दोनों राज्य इतने फिसड्डी
है कि देश के 29 राज्यो की फेहरिस्त में दोनों ही राज्यो की हालत हर क्षेत्र में बीस के उपर ही है । मसलन शिक्षा के क्षेत्र में यूपी का नंबर 23 वां है तो बिहार 29 वे नबंर पर । बिजली में यूपी 24 वें नंबर है तो बिहार 29 वें नंबर पर । पीने के पानी में यूपी का नंबर 28 वा है तो बिहार का नंबर 26 वां । उघोग के क्षेत्र में यूपी 22 वें नंबर है तो बिहार 25 वें नंबर पर । हेल्थ में यूपी 25 वें नंबर पर है तो बिहार 24 वेम नंबर पर । यानी न्यूनत जरुरतों से भी यूपी बिहार के लोग महरुम है । लेकिन लोकतंत्र का जामा पहनकर दोनों राज्यों की राजनीतिक सत्ता इसी में खोयी है कि कैसे सरकार बनी रहे या कैसे चुनाव में जीत मिल जाये क्योंकि लोकतंत्र का मतलब ही देश में राजनीतिक चुनाव को माना गया है। तो दुनिया में अबूझ लोकतंत्र के इस मॉडल को बिना देखे-समझे ही संयुक्त राष्ट्र ने 15 सितंबर को विश्व लोकतांत्रिक दिवस करार दे दिया। तो ठहाके लगाइये !
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राजनीतिक सत्ता में देश की जान है तो ये देश के लोकतंत्र का राजनीतिक सच है। जहां संसद में लोकसभा और राज्यसभा के कुल सदस्य 786 हैं। तो देश में विधायकों की तादाद 4120 है। देश में 633 जिला पंचायतों के कुल 15 हजार 581 सदस्य हैं। तो ढाई लाख ग्राम सभा में करीब 26 लाख सदस्य हैं। यानी सवा सौ करोड़ के देश को चलाने वाले यही लोग है, जिनकी तादाद मिला दी जाये ये ये 26,20,487 है। और इससे सौ गुना ज्यादा यानी 36 करोड 22 लाख, 96 हजारलोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। जो उन्हीं गांव, उन्हीं शहरों में रहते हैं जिन गांवों से जिला और शहर दर शहर से लेकर दिल्ली की संसद में बैठने के लिये हर सीट पर औसतन 10 से बारह लोग चुनाव लड़ने के लिये मैदान में उतरते ही हैं। यानी जितने लोग राजनीतिक तौर पर सक्रिय होते है, उनकी तादाद करीब तीन करोड़ 20 लाख तक होती है। और हर चुनाव लड़ने वाले के पीछे अगर दो लोग भी मान लिये जाये तो करीब साढे छह करोड़ लोगों की रुचि राजनीतिक सत्ता पाने की होड़ में जुटने की होती है। यानी देश के लोकतंत्र का दो ही सच है। एक तरफ राजनीतिक सत्ता पाने की होड में सक्रिय छह करोड़ लोगों से चुनाव के वक्त पैदा होने वाला रोजगार। जो गाहे बगा देश के 10 करोड़ लोगों को राजनीतिक कमाई के लिये सक्रिय तो कर ही देता है। और दूसरी तरफ अगर बीपीएल और एपीएल परिवारों के सच को समझें तो 78 करोड़ लोगों की जिन्दगी दो जून की रोटी मिले कैसे, उसी में कटती है। और देश का नायाब सच यह भी है कि मौजूदा वक्त में देश में 80 करोड़ वोटर है । और वोटर सबसे ज्यादा युवा हैं । और उसमें सबसे ज्यादा बेरोजगार युवा वोटरों की तादाद है। जिनके लिये देश 10 से 15 हजार रुपये महीने की नौकरी देने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि देश में चपरासी की नौकरी के लिये ग्रेजुएट और इंजीनियरिंग की डिग्री वाले भी अप्लाई कर रहे है।
यानी देश की राजनीतिक सत्ता में जो शामिल है या फिर राजनीतिक तौर पर जिसने खुद को सक्रिय कर लिया उसे दो जून की रोटी के लिये तरसना नहीं होगा क्योकि राजनीतिक लोकतंत्र देश में सबसे बडा रोजगार है। क्योंकि संसद से लेकर ग्रामसभा में चुनाव लडने के लिये जो पैसा खर्च करने की इजाजत है, वह ना तो समाज से मेल खाता है ना देश की इक्नामी से। लेकिन यही लोकतंत्र है। 30 से 45 दिनो के चुनाव प्रचार के दौर में बकायदा इजाजत है कि कि संसद के चुनाव में 70 लाख रुपये हर उम्मीदवार खर्च कर सकता है । विधानसभा चुनाव में 28 लाख रुपये हर उम्मीदवार खर्च कर सकता है । तो जिला पंचायत चुनाव में 5 लाख रुपये खर्च कर सकता है। और ग्राम सभा में 25 से 40 हजार रुपये तक गर उम्मीदवार खर्च कर सकता है। तो देश में लोकतंत्र का मिजाज ही उस राजनीतिक सत्ता की चौखट पर खड़ा कर दिया गया है जहा पैसा होगा तो राजनीतिक सत्ता का दरवाजा खुलेगा । राजनीतिक सक्रियता होगी तो ही रोजगार की जरुरत नहीं होगी । यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश भारत का सच यही है कि यहा के राजनेता दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिकी सत्ता से भी रईस है। लेकिन जिस लोकतंत्र को लोगों के लिये संवैधानिक तंत्र बनाकर जीने के अधिकार से जोड़ा गया, वह लोकतंत्र है कहां, ये सवाल 15 सितबंर यानी विश्व लोकतांत्रिक दिवस के दिन खोजना बेदह मुश्किल है। क्योंकि भारत में लोकतंत्र अगर चुनावी राजनीतिक सत्ता में बसता है, तो वह है कितना दागी ये सवाल खुद ही प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने उठाया था। जब जून 2014 में उन्होंने में संसद में कहा कि साल भर में हर वह सांसद जिस पर कोई मुकदमा चल रहा है वह अदालत में निपटा कर पहुंचे।
लेकिन ढाई बरस बीत गये और संयोग ऐसा है कि अब उस पर जवाब देने का वक्त आ गया है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र और चुनाव आयोग से पूछा है कि क्या दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए? दरअसल, याचिका में कहा गया है कि दागी नेताओं के मामलों की सुनवाई एक साल के भीतर हो और नेता दोषी पाए जाएं तो उन पर आजीवन पाबंदी लगाई जाए। तो अब जवाब मोदी सरकार को देना है कि वो इस मामले में क्या चाहती है। ये सवाल इसलिए अहम है क्योंकि एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार में ही 78 में से 24 मंत्री दागी हैं। तमाम राज्यों के 609 में से 210 मंत्री दागी हैं। इनमें 113 मंत्रियों पर तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। और देश की विधानसभाओं में 1258 विधायक दागी हैं। यानी यह राजनीतिक लोकतंत्र का ही कमाल है कि अपराध या भ्रष्टाचार राजनेता करें तो कोई फक्र किसी को
नहीं पड़ता। लेकिन लोकतंत्र के पर्व पर यानी राजनीतिक चुनाव के वक्त यही मुद्दा हर जुबा पर होता है । चाहे चुनाव कही हो अपराध , भ्रष्ट्रचार का जिक्र हर कोई करता है । याद किजिये बीजेपी ने यूपीए के दौर में घोटालो की फेरहिस्त बतायी थी । सत्यम घोटाला ,खाद्यान्न घोटाला ,हसन अली टैक्स चोरी,आदर्श सोसाइटी घोटाला,कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टूजी स्पैक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला,सिंचाई घोटाला । और हर घोटाले पर आवाज बुलंद करते हुए दिल्ली ,से लेकर मुबंई तक में दोषियों को जेल में ठूंसने की बात कही गई। लेकिन हुआ क्या। और ये सिर्फ मोदी सरकार या केजरीवाल सरकार भर का नहीं है । महाराष्ट्र में तो सिंचाई घोटाले की आवाज सबसे जोर से मौजूदा सीएम देवेन्द्र फडनवीस ने ही उठाई थी । झारखंड में खनन घोटाले की आवाज
मौजूदा सीएम रधुवर दास ने ही उठायी थी । हरियाणा चुनाव में राबर्ट वाड्रा के खिलाफ बीजेपी ने क्या क्या नहीं कहा। लेकिन हुआ क्या। कोई जेल नहीं गया । आरोप प्रत्यारोप ही राजनीतिक सत्ता पाने के तरीके बना दिये गये । और इसे ही लोकतंत्र का राग मान लिया गया ।
और लोकतंत्र कैसे सियासी परिवारों के ताने बाने में उलझ जाता है यह नजारा खुले तौर पर बिहार यूपी में अब नजर भी आ रहा है । यूपी के सीएम अखिलेश परेशान है चचा शिवपाल से । बिहार के सीअम नीतिश कुमार परेशान है सहयोगी आरजेडी के सर्वौसर्वा लालू के राजनीतिक मिजाज से । शिवपाल खडे है अमर सिंह के साथ जिसे अखिलेश पचा नही पा रहे है । तो लालू खड़े है शहाबुद्दीन के साथ, जिसे नीतिश पचा नही पा रहे हैं। दोनों का दर्द अपने अपने तरीके से छलक रहा है। लेकिन यूपी के 20 करोड़ और बिहार के 10 करोड़ लोगों के सामने कौन सी मुश्किल है, इस पर जद्दोजहद करने की जगह दोनो ही उलझे हैं अपनी अपनी सत्ता को बेदाग बताने में । यानी सत्ता के परिवारों के लिये अपना लोकतंत्र और जनता का लोकतंत्र अलग । क्योकि बिहार यूपी के तीस करोड लोगों के दर्द को समझे तो शिक्षा, स्वास्थ्य , बिजली, पानी, उघोग हर क्षेत्र में दोनों राज्य इतने फिसड्डी
है कि देश के 29 राज्यो की फेहरिस्त में दोनों ही राज्यो की हालत हर क्षेत्र में बीस के उपर ही है । मसलन शिक्षा के क्षेत्र में यूपी का नंबर 23 वां है तो बिहार 29 वे नबंर पर । बिजली में यूपी 24 वें नंबर है तो बिहार 29 वें नंबर पर । पीने के पानी में यूपी का नंबर 28 वा है तो बिहार का नंबर 26 वां । उघोग के क्षेत्र में यूपी 22 वें नंबर है तो बिहार 25 वें नंबर पर । हेल्थ में यूपी 25 वें नंबर पर है तो बिहार 24 वेम नंबर पर । यानी न्यूनत जरुरतों से भी यूपी बिहार के लोग महरुम है । लेकिन लोकतंत्र का जामा पहनकर दोनों राज्यों की राजनीतिक सत्ता इसी में खोयी है कि कैसे सरकार बनी रहे या कैसे चुनाव में जीत मिल जाये क्योंकि लोकतंत्र का मतलब ही देश में राजनीतिक चुनाव को माना गया है। तो दुनिया में अबूझ लोकतंत्र के इस मॉडल को बिना देखे-समझे ही संयुक्त राष्ट्र ने 15 सितंबर को विश्व लोकतांत्रिक दिवस करार दे दिया। तो ठहाके लगाइये !
Monday, September 12, 2016
रेखा....अनकही कहानी....
इस बहाने मगर देख ली दुनिया हमने....
कितना मुश्किल है। जिसकी जिन्दगी के पन्नों पर आप लिखने जा रहे है, वह आपसे बात ही ना करे। और उसकी जिन्दगी के पन्नों को जिसने संवारा हो, उससे भी आपकी कोई बात ना हो। फिर भी आप लिखे जा रहे हैं। पहले से कहे-लिखे गये पन्नों को अपनी दृश्टि से नये पन्नो पर उकेर रहे हैं और पढ़ने वाले पढ़े जा रहे हैं। तो ये किताब की सफलता है या फिर उस शख्स की जिसने अपनी जिन्दगी की अहमियत को जब समझा, अपने वजूद का एहसास नये रुप में किया तो खुद को कुछ इस तरह ढक लिया कि आजभी उस शख्स को देखते ही बहुतेरी अनकही कहानियां दिलो– दिमाग में ही जाती है । और उसके बारे में और जानने की चाहत चाहे अनचाहे उसके बारे में लिखे कुछ भी शब्दो में मायने खोजने को मजबूर करती है। जी, उस शख्स का नाम है रेखा। किताब का नाम है रेखा। भगवती चरण वर्मा का उपन्यास रेखा नहीं। बल्कि फिल्म अदाकारा रेखा पर
लिखी गई यासिर उस्मान की पुस्तक रेखा। जिसने मना कर दिया कि उसपर लिखी जा रही किताब पर वह कुछ नहीं कहेंगी। जिसकी जिन्दगी में आये तीन शख्स। विनोद मेहरा । किरण कुमार । अमिताभ बच्चन। इनसे भी कोई बात इस किताब को लिखने के दौर में नहीं हुई। और जिस शख्स से विवाह फिर तलाक हुआ, उस शख्स मुकेश अग्रवाल के साथ बिताये बेहद कम दिनो के दौर को लिखते वक्त ही लेखक को हकीकत की जमीन मिली। कयोंकि किताब चाहे रेखा पर हो लेकिन मुकेश अग्रवाल से रेखा ने शादी क्यों कि और फिर शादी क्यों टूटी। उस दौर के किरदार जिन्दा भी हैं और दुनिया के सामने कभी आये भी नहीं ये भी सच हैं। दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रहे नीरज कुमार। बीना रमानी और सुरेन्द्र कौर। तीनों की मौजूदगी । तीनो की रजामंदी । तीनो ने ही उस दौर को देखा ही नहीं बल्कि उन हालातो में बराबर का सहयोग दिया जिसके बाद मुकेश अग्रवाल और रेखा की शादी हुई ।
लेकिन रेखा की जिन्दगी वाकई अनकहे सच को टटोलने की दिसा में बढते कदमो से ज्यादा कुछ नहीं । तो हर शब्द सस्पेंस की घुट्टी में डुबोने का प्रयास होगा। इससे इंकार कौन कर सकता है । मसलन मुकेश अग्रवाल ने खुदकुशी उसी दुप्पटे को गले में बांध कर की जो रेखा का प्रिय दुपट्टा था । तो किताब मुकेश अग्रवाल की जिन्दगी से शुरु होती है । और मुकेश की जिन्दगी पर पडे रेखा के तिलिस्म को धीरे धीरे उठाती है। और रेखा के बारे में एक सोच बनाने को मजबूर करती है । जाहिर है रेखा से कोई बात नहीं तो रेखा को चाहने वाले यासर उस्मान के शब्दो पर भरोसा भी कितना करें । लेकिन स्टारडस्ट से लेकर सिमी ग्रेवाल को दिये इंटरव्यू । 70 के दशक में मीडिया के सामने रेखा के बेलौस बयान । और जया भादुडी से लेकर जया बच्चन बनने के दौर में रेखा की दीदीभाई यानी जया से दोस्ती से लेकर दूरिय़ॉ बनाने-बनने की नकही दास्तन को अपने नजरिये से जिस तरह लेखक ने पन्नों पर उकेरा वह किसी सिनेमायी स्क्रिप्ट से ज्यादा नही तो कम भी नहीं है । क्योंकि जब लेखक से कोई संवाद किसी का नहीं है तो पढने वाले को लेखक की समझ या उसके दिमाग में चल रहे ताने-बाने के भरोसे ही चलना होगा । लेकिन दिलचस्प है रेखा के उन अनझुये पहलुओ को जानना जिसे रेखा खुद कभी जुबां पर ला नहीं पायी ।
कौन जानता है कि जया और रेखा दोनों ही जुहु अपार्टमेंट में रहते थे । कितनों को पता है कि जया को रेखा ने बहन मान कर बेहतीन सुझाव देने वाला माना। लेकिन अमिताभ बच्चन से शादी हुई तो जया ने रेखा को निमंत्रण तक नहीं दिया। कितनों को पता है कि रेखा का अमिताभ बच्चन को लेकर आकर्षण काम के प्रति अमिताभ की प्रतिबद्दता और अनुशासन को लेकर हुआ। फिल्म दो अनजाने की कलकत्ता में शूटिंग के वक्त ही अमिताभ ने अपने पुराने शहर को जीने निकले तो साथ संवाद बनाने के लिये सहयोगी अदाकारा रेखा ही थीं, जो कलकत्ता शहर से अनजान थी। तो संवाद बना । और कितनों को मालूम है कि अमिताभ-रेखा की सिनेमायी पर्दे पर कैमेस्ट्री से गुस्सायी जया ने रेखा के साथ अमिताभ का काम मुकद्दर का सिंदर के बाद बंद तो करवा दिया । लेकिन फिल्म सिलसिला में महज एक डॉयल़ॉग या कहें फिल्म के आखिरी सीन ने जया बच्चन सिलसिला में काम करने पर हामी भरवा दी। वह भी फिल्म की आखिरी सीन/डॉयलॉग, ‘ जया अस्पताल के बेड पर बेहोश लेटी है। डाक्टर-नर्स उसमें जान देने की कोशिश कर रहे है । तभी अमिताभ बच्चन ह़ॉस्पीटल पहुंचे है । कमरे से सभी को बाहर जाने के लिये कहते है और जया का ठंडा पड़ता हाथ अपनी हर्म हथेलियो में लेकर कहते है...शोभा मै वापस आ गया हूं..हमेशा के लिये ...और जया धीरे धीरे आंखे खोल कमजोर जुबां से कहती है ...मैं जानती थी..तुम वापस जरुर आओगे......और यहां प्यार पर विश्वास की जीत होती है । क्योंकि समूची फिल्म में जब रेखा और जया टकराते है तो संवाद रेखा के इसी डॉयलॉग पर आकर ठहरता है कि....आप अपने विश्वास के साथ रहिये, मुझे मेरे प्यार के साथ रहने दीजिये। ‘ कितने धूप-छांव रेखा की जिन्दगी में कब कैसे टकराये इन हालातो को पढने वाला किताब के रेफरेन्स से जोड कर समझ सकता है क्योकि किताब खुद को रेखा होने से बचाती है । लेकिन रेखा को रेखा होने से नहीं बचा पाती। इसलिये जयपुर में महान की शूटिंग के वक्त रेखा को लेकर कमेंट करने पर एक फैन से ही अमिताभ का उलझना या फिर फिल्म कुली में अमिताभ के घायल होने के बाद पुनीत के ये कहने पर, .....जिसकी सजा तुम हो मैंने वह गुनाह किया है । इस पर रेखा का कमेट...और कितने गुनाह करेंगें आप ।
लेकिन रेखा को बचपन से ना किसी ने संवारा । न किसी ने बचपन जीने दिया । तो किसी पहाडी नदी की तरह रेखा जीवनदायनी नदी के तौर पर देखी भी नही गई । इसलिये जब अमिताभ कुली की शूंटिग से गायल अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे थे । तब रेखा ने अमिताभ के अमिताभ की मदद की सोच फिल्म उमराव-जान का प्रिमियर रखा । खुद ही सारे निमंत्रण पर हस्ताक्षर किये । लेकिन फिल्म इंडस्ट्री ही नहीं लोगों ने भी इसे अमिताभ के हक में नहीं माना । और प्रीमियर “ डेड और स्टारलैस “ हो गया । यूं रेखा की
जिन्दगी के पन्नो को सिनेमायी डॉयलॉग में खोजने की कोशिश बेमानी है । लेकिन लेखक ने ये हिम्मत दिखायी है । मसलन....खून-पसीना कै डॉयलॉग...तेरा हुस्न मेरी ताकत,तेरी तेजी मेरी हिम्मत...इस संगम से जो औलाद पैदा होगी, वह औलाद नहीं फौलाद होगी । या फिर गीत....तु मेरा हो गया, मै तेरी हो गई....। विनोद मेहरा के साथ फिल्म घर । उसका गीत...आपकी आंखो में कुछ......या आजतक प़ॉव जमीन पर नहीं पडते मेरे ...। वैसे गुलजार ने रेखा की अदाकारी को देख कर यही कहा.कि....वह उस किरदार को लिबास की तरह पहन लेती है । शायद इसलिये मुज्जफरअली ने उमराव-जान बनने के बाद रेखा की जिन्दगी से गीत जुडा है तो किसी ने ना नहीं कहा....... , जुस्त-जु जिसकी थी उसको ना पाया हमने/इस तरह से मगर देख ली दुनिया हमने.....तो यासर उस्मान की किताब पढते पढ़ते खत्म हो जाये तो भी ये कुलबुलाहट तो बची ही रहती है कि रेखा क्या कभी खुद के बारे में खुलकर कुछ कह पायेगी...या फिर रेखा की नकही कहानी के नाम पर ऐसी किताब ही छपेगी ।
कितना मुश्किल है। जिसकी जिन्दगी के पन्नों पर आप लिखने जा रहे है, वह आपसे बात ही ना करे। और उसकी जिन्दगी के पन्नों को जिसने संवारा हो, उससे भी आपकी कोई बात ना हो। फिर भी आप लिखे जा रहे हैं। पहले से कहे-लिखे गये पन्नों को अपनी दृश्टि से नये पन्नो पर उकेर रहे हैं और पढ़ने वाले पढ़े जा रहे हैं। तो ये किताब की सफलता है या फिर उस शख्स की जिसने अपनी जिन्दगी की अहमियत को जब समझा, अपने वजूद का एहसास नये रुप में किया तो खुद को कुछ इस तरह ढक लिया कि आजभी उस शख्स को देखते ही बहुतेरी अनकही कहानियां दिलो– दिमाग में ही जाती है । और उसके बारे में और जानने की चाहत चाहे अनचाहे उसके बारे में लिखे कुछ भी शब्दो में मायने खोजने को मजबूर करती है। जी, उस शख्स का नाम है रेखा। किताब का नाम है रेखा। भगवती चरण वर्मा का उपन्यास रेखा नहीं। बल्कि फिल्म अदाकारा रेखा पर
लिखी गई यासिर उस्मान की पुस्तक रेखा। जिसने मना कर दिया कि उसपर लिखी जा रही किताब पर वह कुछ नहीं कहेंगी। जिसकी जिन्दगी में आये तीन शख्स। विनोद मेहरा । किरण कुमार । अमिताभ बच्चन। इनसे भी कोई बात इस किताब को लिखने के दौर में नहीं हुई। और जिस शख्स से विवाह फिर तलाक हुआ, उस शख्स मुकेश अग्रवाल के साथ बिताये बेहद कम दिनो के दौर को लिखते वक्त ही लेखक को हकीकत की जमीन मिली। कयोंकि किताब चाहे रेखा पर हो लेकिन मुकेश अग्रवाल से रेखा ने शादी क्यों कि और फिर शादी क्यों टूटी। उस दौर के किरदार जिन्दा भी हैं और दुनिया के सामने कभी आये भी नहीं ये भी सच हैं। दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रहे नीरज कुमार। बीना रमानी और सुरेन्द्र कौर। तीनों की मौजूदगी । तीनो की रजामंदी । तीनो ने ही उस दौर को देखा ही नहीं बल्कि उन हालातो में बराबर का सहयोग दिया जिसके बाद मुकेश अग्रवाल और रेखा की शादी हुई ।
लेकिन रेखा की जिन्दगी वाकई अनकहे सच को टटोलने की दिसा में बढते कदमो से ज्यादा कुछ नहीं । तो हर शब्द सस्पेंस की घुट्टी में डुबोने का प्रयास होगा। इससे इंकार कौन कर सकता है । मसलन मुकेश अग्रवाल ने खुदकुशी उसी दुप्पटे को गले में बांध कर की जो रेखा का प्रिय दुपट्टा था । तो किताब मुकेश अग्रवाल की जिन्दगी से शुरु होती है । और मुकेश की जिन्दगी पर पडे रेखा के तिलिस्म को धीरे धीरे उठाती है। और रेखा के बारे में एक सोच बनाने को मजबूर करती है । जाहिर है रेखा से कोई बात नहीं तो रेखा को चाहने वाले यासर उस्मान के शब्दो पर भरोसा भी कितना करें । लेकिन स्टारडस्ट से लेकर सिमी ग्रेवाल को दिये इंटरव्यू । 70 के दशक में मीडिया के सामने रेखा के बेलौस बयान । और जया भादुडी से लेकर जया बच्चन बनने के दौर में रेखा की दीदीभाई यानी जया से दोस्ती से लेकर दूरिय़ॉ बनाने-बनने की नकही दास्तन को अपने नजरिये से जिस तरह लेखक ने पन्नों पर उकेरा वह किसी सिनेमायी स्क्रिप्ट से ज्यादा नही तो कम भी नहीं है । क्योंकि जब लेखक से कोई संवाद किसी का नहीं है तो पढने वाले को लेखक की समझ या उसके दिमाग में चल रहे ताने-बाने के भरोसे ही चलना होगा । लेकिन दिलचस्प है रेखा के उन अनझुये पहलुओ को जानना जिसे रेखा खुद कभी जुबां पर ला नहीं पायी ।
कौन जानता है कि जया और रेखा दोनों ही जुहु अपार्टमेंट में रहते थे । कितनों को पता है कि जया को रेखा ने बहन मान कर बेहतीन सुझाव देने वाला माना। लेकिन अमिताभ बच्चन से शादी हुई तो जया ने रेखा को निमंत्रण तक नहीं दिया। कितनों को पता है कि रेखा का अमिताभ बच्चन को लेकर आकर्षण काम के प्रति अमिताभ की प्रतिबद्दता और अनुशासन को लेकर हुआ। फिल्म दो अनजाने की कलकत्ता में शूटिंग के वक्त ही अमिताभ ने अपने पुराने शहर को जीने निकले तो साथ संवाद बनाने के लिये सहयोगी अदाकारा रेखा ही थीं, जो कलकत्ता शहर से अनजान थी। तो संवाद बना । और कितनों को मालूम है कि अमिताभ-रेखा की सिनेमायी पर्दे पर कैमेस्ट्री से गुस्सायी जया ने रेखा के साथ अमिताभ का काम मुकद्दर का सिंदर के बाद बंद तो करवा दिया । लेकिन फिल्म सिलसिला में महज एक डॉयल़ॉग या कहें फिल्म के आखिरी सीन ने जया बच्चन सिलसिला में काम करने पर हामी भरवा दी। वह भी फिल्म की आखिरी सीन/डॉयलॉग, ‘ जया अस्पताल के बेड पर बेहोश लेटी है। डाक्टर-नर्स उसमें जान देने की कोशिश कर रहे है । तभी अमिताभ बच्चन ह़ॉस्पीटल पहुंचे है । कमरे से सभी को बाहर जाने के लिये कहते है और जया का ठंडा पड़ता हाथ अपनी हर्म हथेलियो में लेकर कहते है...शोभा मै वापस आ गया हूं..हमेशा के लिये ...और जया धीरे धीरे आंखे खोल कमजोर जुबां से कहती है ...मैं जानती थी..तुम वापस जरुर आओगे......और यहां प्यार पर विश्वास की जीत होती है । क्योंकि समूची फिल्म में जब रेखा और जया टकराते है तो संवाद रेखा के इसी डॉयलॉग पर आकर ठहरता है कि....आप अपने विश्वास के साथ रहिये, मुझे मेरे प्यार के साथ रहने दीजिये। ‘ कितने धूप-छांव रेखा की जिन्दगी में कब कैसे टकराये इन हालातो को पढने वाला किताब के रेफरेन्स से जोड कर समझ सकता है क्योकि किताब खुद को रेखा होने से बचाती है । लेकिन रेखा को रेखा होने से नहीं बचा पाती। इसलिये जयपुर में महान की शूटिंग के वक्त रेखा को लेकर कमेंट करने पर एक फैन से ही अमिताभ का उलझना या फिर फिल्म कुली में अमिताभ के घायल होने के बाद पुनीत के ये कहने पर, .....जिसकी सजा तुम हो मैंने वह गुनाह किया है । इस पर रेखा का कमेट...और कितने गुनाह करेंगें आप ।
लेकिन रेखा को बचपन से ना किसी ने संवारा । न किसी ने बचपन जीने दिया । तो किसी पहाडी नदी की तरह रेखा जीवनदायनी नदी के तौर पर देखी भी नही गई । इसलिये जब अमिताभ कुली की शूंटिग से गायल अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे थे । तब रेखा ने अमिताभ के अमिताभ की मदद की सोच फिल्म उमराव-जान का प्रिमियर रखा । खुद ही सारे निमंत्रण पर हस्ताक्षर किये । लेकिन फिल्म इंडस्ट्री ही नहीं लोगों ने भी इसे अमिताभ के हक में नहीं माना । और प्रीमियर “ डेड और स्टारलैस “ हो गया । यूं रेखा की
जिन्दगी के पन्नो को सिनेमायी डॉयलॉग में खोजने की कोशिश बेमानी है । लेकिन लेखक ने ये हिम्मत दिखायी है । मसलन....खून-पसीना कै डॉयलॉग...तेरा हुस्न मेरी ताकत,तेरी तेजी मेरी हिम्मत...इस संगम से जो औलाद पैदा होगी, वह औलाद नहीं फौलाद होगी । या फिर गीत....तु मेरा हो गया, मै तेरी हो गई....। विनोद मेहरा के साथ फिल्म घर । उसका गीत...आपकी आंखो में कुछ......या आजतक प़ॉव जमीन पर नहीं पडते मेरे ...। वैसे गुलजार ने रेखा की अदाकारी को देख कर यही कहा.कि....वह उस किरदार को लिबास की तरह पहन लेती है । शायद इसलिये मुज्जफरअली ने उमराव-जान बनने के बाद रेखा की जिन्दगी से गीत जुडा है तो किसी ने ना नहीं कहा....... , जुस्त-जु जिसकी थी उसको ना पाया हमने/इस तरह से मगर देख ली दुनिया हमने.....तो यासर उस्मान की किताब पढते पढ़ते खत्म हो जाये तो भी ये कुलबुलाहट तो बची ही रहती है कि रेखा क्या कभी खुद के बारे में खुलकर कुछ कह पायेगी...या फिर रेखा की नकही कहानी के नाम पर ऐसी किताब ही छपेगी ।
Sunday, September 4, 2016
किन्हें नाज है मीडिया पर : पार्ट-2
तो ये सच शरु होता है दिल्ली के एक सितारा होटल में चाय पीते दो पत्रकार और ठीक सामने के टेबल पर बैठे चंद अनजान से चेहरों की नजरों के टकराने से । नजरें टकराती है और अनजान सा शख्स मुस्कुरा कर संकेत देता है कि वह पत्रकारों को पहचान रहा है । पत्रकार कोई रुचि नहीं दिखाते । अपनी अपनी बातो में मशगूल दोनों के ही टेबल पर चाय की चुस्कियो के साथ चर्चा के केन्द्र में राजनीति ही थी । तो किसी एक टेबल पर चर्चा की जरा सी खामोशी दूसरे टेबल के चंद शब्द को एक दूसरे के कानो में घोलती ही होगी । यह एहसास दोनों टेबलों पर बैठे लोगों को हो चुका था। राजनीति से प्रिय विषय इस दौर में कुछ हो नहीं सकता । खास कर राजनीतिक अर्थशास्त्र । और इस पॉलिटिकल इक्नामी को लेकर अगर कही बहस मुहासिब हो रही है तो फिर लंबा वक्त भी नहीं लगता कि संवाद नजरों के टकराने भर का ना रहे। हुआ भी यही। पत्रकारों की टेबल के सामने जो चर्चा कर रहे लोग बैठे थे । उनमे से एक ने चाहे-अनचाहे टेबल छोड़ कर जाते दोनों पत्रकारों में से एक पत्रकार को जानते–पहचानते हुये कहा , हुजूर कभी जरुरत हो तो बताइयेगा । हम भी खबर रखते हैं। ये कहते हुये उसने अपना कार्ड निकाला । और थमा दिया । पत्रकार ने खुद का परिचय देते हुये कहा मैं ........ । एवरीबडी नोज यू सर । और आप.... जी भारत सरकार का कारिन्दा । नाम । जी कार्ड । और पत्रकार महोदय अपने अंदाज में कार्ड अपनी पेंट की जेब में डाल कर होटल से निकल गये । बात आई गई हो गई । पत्रकारिता के लिये नया कुछ भी नहीं था । कमोवेश हर सार्वजनिक जगहो पर अक्सर कुछ लोग उससे टकराते जो अपना कार्ड ये कहकर देते कि उनके पास बड़ी खबर है ।
लेकिन पहली बार भारत सरकार का कोई नौकरशाह अगर कार्ड देकर कहे...खबर हम भी रखते हैं तो मामला गंभीर तो है। और फिर यार उसके बाद मुलाकातों को सिलसिला । जिसके बाद भी नौकरशाह ने जब खबर बतायी तो पहला सवाल मेरे जहन में यही कौंधा ...छापेगा कौन । और उसी के बाद से खबर मेरे पास है लेकिन इस दौर में कोई खबरनवीस या कोई मीडिया संस्थान इतनी हिम्मत दिखा नहीं पाया कि उसमें हिम्मत है ।
अरे याद जल्दबाजी में बता नहीं पाया ये मेरे साथी हैं। हम दोनों साथ ही स्कूल-कालेज में थे । लेकिन बाद में रास्ते जुदा हो गये । लेकिन सोच जुदा हो नहीं पायी । आज ही लंदन से लौटे हैं। मैंने तुमसे मिलने का जिक्र किया तो ये साथ ही आ गये । वैसे मैंने इन्हे पूरी कहानी तुम्हारे पास आते वक्त रास्ते में ही बातो बातो ही बता दी।
तो आज शनिवार का दिन था । और मुझे फुरसत थी । पिछली मुलाकत में बात खबर की निकली थी और मेरी रुचि थी कि आखिर ऐसी कौन सी खबर है जिसे दिल्ली का स्वतंत्र मीडिया छापने से कतरा रहा है या फिर स्वतंत्रता की परिभाषा मौजूदा दौर में बदल गई है । इसलिये आज की मुलाकात हमने दिल्ली के बंगाली मार्केट में तय की थी । लेकिन जब मित्र ने अपने दोस्त के बारे में बताया तो मुझे भी समझ नहीं आया कि कितनी बातचीत खुले तौर पर होने चाहिये । लेकिन खबर जानने की ललक में मैंने मित्र के बचपन के साथी की तरफ कम रुचि दिखाते हुये सवाल किया कि . यार तुम दस्तावेज लाये हो तो दिखाओ । मैं भी तो देखूं-समझूं की क्या वाकई मीडिया की उड़ान परकटे राजनेताओं को साधने की ही हो चली है या जो उड़ान भर रहे हैं, उनके पर भी कतरे जा सकते है । देखो यार किसी के पर कतरने की सवाल नहीं है । और मैं तुम्हें इसीलिये दस्तावेज देने से कतराता हूं कि तुम समूचे वातावरण का आकलन किये बगैर ही ब्लैक एंड वाइट में ही सबकुछ देखना दिखाना चाहते हो । तो क्या करें । पत्रकारिता छोड दें । छोड़ने की जरुरत नहीं है । समझने की जरुरत है । और यही बात मैं भी रास्ते में कर रहा था। क्यों तुम बताओ तुम्हारा क्या मानना है । अच्छा तुम्हारे दोस्त कुछ बोले उससे पहले मैं ही जरा एक सवाल कर लेता हूं । ...यार ये बताओ कि तुम्हारा ठिकाना लंदन में है । लेकिन मिजाज तुम्हारे भी राजनीति और पत्रकारिता में रुचि रखने वाले हैं । तो अगर ये स्टोरी बीबीसी को मिल जाये तो वह क्या करता । कुछ क्षणों के लिये सन्नाटा हो गया फिर अचानक मेरा दोस्त ही बोल पडा । यार ये आईडिया तो मेरे दिमाग में तो या ही नहीं । जब दिल्ली में कोई अखबार छापने को तैयार नहीं है । तो किसी विदेशी मीडिया से संपर्क तो साधा ही जा सकता है । मुझे झटका लगा । मैं गुस्से में बोल पड़ा । यार मै सोच रहा हूं कि तुम मुझे खबर बताओगे । दस्तावेज दोगे । तो मैं न्यूज चैनल में खबर दिखाने का प्रयास करुंगा। और तुम अब विदेशी मीडिया का जिक्र करने लगे । देखो यार न्यूज चैनलों की क्या हैसियत है, ये हम इससे पहले भी बात कर चुके हैं। और मैं इन बातों को दोहराना नहीं चाहता लेकिन दो सच बार बार कहता हूं । देश की सुबह अखबारों से ही होती है। और न्यूज चैनलों का खबरो को दिखा कर रायता फैलाना किसी इंटरटेन्मेंट से कम नहीं होता । जिसपर कितना भरोसा कौन करे ये भी सवाल है । तो मैं स्टोरी किल तो नहीं करना चाहता। और तुम जो लगातार न्यूज चैनलों को जिक्र कर रहे हो तो तुम ही बताओ कौन सी स्टोरी उसने ब्रेक की है। और अखबारों की हर खबर के ब्रेक होने के बाद कौन सी स्टोरी न्यूज चैनल वालों ने नहीं दिखायी।
यार सवाल ये नहीं है कि मौजूदा दौर में वही मीडिया खुद में कैसे सिमट गया ।या फिर सत्ता से दो दो हाथ करने से कतराने लगा है । जो मीडिया खबरों को लेकर अपनी बैचेनी छुपा नहीं पाता था । खबर मिलते ही दो लकीर पत्रकारों में दिखायी देती थी । एक जो खबर दिखाने पर आमादा तो दूसरी खबर के जरिये सौदेबाजी पर आमादा । लेकिन मौजूदा दौर में ना खबर दिखाने कि कुलबुलाहट है और ना ही सौदेबाजी पर अंगुली उठाने की हिम्मत । और इसकी वजह । वजह तो कई हो सकती हैं , लेकिन समझना ये भी होगा कि मौजूदा वक्त में सारी समझ आर्थिक मुनाफे पर जा टिकी है । ये तो पहले भी था । न । पहले मुनाफे का मतलब खबरों के जरीये सत्ता बदलना भी होता था । और मुनाफा देश के लिये होता था। गोयनका ने यूं ही एक्सप्रेस को इंदिरा की सत्ता से टकराने के लिये नहीं झोंक दिया । तो तुम्हारा मानना है कि अब राजनीतिक सत्ता के बदलने से मोहभंग हो गया है या फिर मुनाफे का मतलब खबरो को बेच कर सत्ता के अनुकूल हो जाना है । नहीं यार सरलता से समझो तो अब खबरों से सरकार नहीं गिरती । ये इसलिये सच है क्योंकि सरकारों को गिरा कर जो दूसरा सत्ता में आयेगा वह कहीं ज्यादा लूट मचायेगा। तो खबरो की साख की हथेली तो हमेशा खाली ही रहेगी। इस हकीकत को इस रुप में भी देख सकते हो कि मौजूदा वक्त में ज्यादातर पत्रकार राजनीति से नहीं कारपोरेट से जुडते है । कारपोरेट के इशारो पर राजनेता होते है । संसद कुछ इस तरह से चलती है जैसे कोई टीवी कार्यक्रम। अंतर सिर्फ इतना है कि टीवी पर खबरों के प्रयोजकों के बारे में बताया जाता है । लेकिन संसद के स्पोंर्सस सामने आ नहीं पाते। याद करो सवाल दलित उत्पीडन का हो या किसानो का । संसद के किस सदन में कोरम पूरा हुआ। 10 फीसदी से ज्यादा सांसद सदन में बैठे नजर नहीं आये । लेकिन जीएसटी हो या आर्थिक मुद्दे से जुडा कोई विधेयक । समूचे सांसद मौजूद रहते है । व्हिप जारी किया जाता है । यानी देश के घाव जब सत्ताधारियो ही नहीं बल्कि हर राजनेता को सियासी गुदगुदी देने लगे तो फिर अगला सवाल ये भी होगा कि राजनेताओ के तौर तरीको में कोई अंतर नहीं है । और तुम जिस खबर को जानने के लिये बेताब हो तो ये भी समझ लो उसके कटघरे में ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं जिसका नेता कटघरे में ना खडा हो । तो फिर तो खबर छापने में कोई परेशानी तो किसी को होनी नहीं चाहिये । और इससे बेहतर क्या हो सकता है कि हर राजनीतिक दल के नेताओ का नाम है । तो किसी को कोई परेशानी नहीं होगी । अरे यार ये तो हम कहते है कि राजनीतिक सत्ता एक हमाम है । लेकिन सत्ता में रहने वाला हमेशा खुद को विपक्ष से अलग और बेहतर दिखाता है । मानता है । बताता है । और चुनावी जीत यानी जनादेश का हवाला देकर ये कहने से नहीं चूकता कि सत्ता चलाने का पांच बरस का लाइसेंस तो जनता ने दिया है । फिर पांच साल के बीच में आपने हिम्मत कैसे हुई । और हो सकता है कटघरे में खडा कोई सत्ताधरी आपको चेता सकता है कि, पत्रकारिता छोड आप चुनाव लडकर देख लों । ये क्या बात हुई । यार जब जिक्र हो चला है तो समझो इसे देश में राजनीतिक सत्ता की दिशा – दशा है क्या । और क्यो मौजूदा वक्त में खबरे नहीं तारिफे रेगती है । और तारिफो को पॉजेटिव खबर माना जाता है । क्रिटिकल को देशद्रोही .। यानी खबरो को देशप्रेमी बनाया जा रहा है । क्यों मीडिया प्रचार के भोंपू में तब्दील हो रहा है । क्योंकि प्रचार ही देश का सबसे मजबूत स्तम्भ हो चला है । और अखबार/पत्रकार भी प्रचारक की भूमिका में खुद को खड़ा करने की बेचैनी पाले हुये हैं।
जारी...............
लेकिन पहली बार भारत सरकार का कोई नौकरशाह अगर कार्ड देकर कहे...खबर हम भी रखते हैं तो मामला गंभीर तो है। और फिर यार उसके बाद मुलाकातों को सिलसिला । जिसके बाद भी नौकरशाह ने जब खबर बतायी तो पहला सवाल मेरे जहन में यही कौंधा ...छापेगा कौन । और उसी के बाद से खबर मेरे पास है लेकिन इस दौर में कोई खबरनवीस या कोई मीडिया संस्थान इतनी हिम्मत दिखा नहीं पाया कि उसमें हिम्मत है ।
अरे याद जल्दबाजी में बता नहीं पाया ये मेरे साथी हैं। हम दोनों साथ ही स्कूल-कालेज में थे । लेकिन बाद में रास्ते जुदा हो गये । लेकिन सोच जुदा हो नहीं पायी । आज ही लंदन से लौटे हैं। मैंने तुमसे मिलने का जिक्र किया तो ये साथ ही आ गये । वैसे मैंने इन्हे पूरी कहानी तुम्हारे पास आते वक्त रास्ते में ही बातो बातो ही बता दी।
तो आज शनिवार का दिन था । और मुझे फुरसत थी । पिछली मुलाकत में बात खबर की निकली थी और मेरी रुचि थी कि आखिर ऐसी कौन सी खबर है जिसे दिल्ली का स्वतंत्र मीडिया छापने से कतरा रहा है या फिर स्वतंत्रता की परिभाषा मौजूदा दौर में बदल गई है । इसलिये आज की मुलाकात हमने दिल्ली के बंगाली मार्केट में तय की थी । लेकिन जब मित्र ने अपने दोस्त के बारे में बताया तो मुझे भी समझ नहीं आया कि कितनी बातचीत खुले तौर पर होने चाहिये । लेकिन खबर जानने की ललक में मैंने मित्र के बचपन के साथी की तरफ कम रुचि दिखाते हुये सवाल किया कि . यार तुम दस्तावेज लाये हो तो दिखाओ । मैं भी तो देखूं-समझूं की क्या वाकई मीडिया की उड़ान परकटे राजनेताओं को साधने की ही हो चली है या जो उड़ान भर रहे हैं, उनके पर भी कतरे जा सकते है । देखो यार किसी के पर कतरने की सवाल नहीं है । और मैं तुम्हें इसीलिये दस्तावेज देने से कतराता हूं कि तुम समूचे वातावरण का आकलन किये बगैर ही ब्लैक एंड वाइट में ही सबकुछ देखना दिखाना चाहते हो । तो क्या करें । पत्रकारिता छोड दें । छोड़ने की जरुरत नहीं है । समझने की जरुरत है । और यही बात मैं भी रास्ते में कर रहा था। क्यों तुम बताओ तुम्हारा क्या मानना है । अच्छा तुम्हारे दोस्त कुछ बोले उससे पहले मैं ही जरा एक सवाल कर लेता हूं । ...यार ये बताओ कि तुम्हारा ठिकाना लंदन में है । लेकिन मिजाज तुम्हारे भी राजनीति और पत्रकारिता में रुचि रखने वाले हैं । तो अगर ये स्टोरी बीबीसी को मिल जाये तो वह क्या करता । कुछ क्षणों के लिये सन्नाटा हो गया फिर अचानक मेरा दोस्त ही बोल पडा । यार ये आईडिया तो मेरे दिमाग में तो या ही नहीं । जब दिल्ली में कोई अखबार छापने को तैयार नहीं है । तो किसी विदेशी मीडिया से संपर्क तो साधा ही जा सकता है । मुझे झटका लगा । मैं गुस्से में बोल पड़ा । यार मै सोच रहा हूं कि तुम मुझे खबर बताओगे । दस्तावेज दोगे । तो मैं न्यूज चैनल में खबर दिखाने का प्रयास करुंगा। और तुम अब विदेशी मीडिया का जिक्र करने लगे । देखो यार न्यूज चैनलों की क्या हैसियत है, ये हम इससे पहले भी बात कर चुके हैं। और मैं इन बातों को दोहराना नहीं चाहता लेकिन दो सच बार बार कहता हूं । देश की सुबह अखबारों से ही होती है। और न्यूज चैनलों का खबरो को दिखा कर रायता फैलाना किसी इंटरटेन्मेंट से कम नहीं होता । जिसपर कितना भरोसा कौन करे ये भी सवाल है । तो मैं स्टोरी किल तो नहीं करना चाहता। और तुम जो लगातार न्यूज चैनलों को जिक्र कर रहे हो तो तुम ही बताओ कौन सी स्टोरी उसने ब्रेक की है। और अखबारों की हर खबर के ब्रेक होने के बाद कौन सी स्टोरी न्यूज चैनल वालों ने नहीं दिखायी।
यार सवाल ये नहीं है कि मौजूदा दौर में वही मीडिया खुद में कैसे सिमट गया ।या फिर सत्ता से दो दो हाथ करने से कतराने लगा है । जो मीडिया खबरों को लेकर अपनी बैचेनी छुपा नहीं पाता था । खबर मिलते ही दो लकीर पत्रकारों में दिखायी देती थी । एक जो खबर दिखाने पर आमादा तो दूसरी खबर के जरिये सौदेबाजी पर आमादा । लेकिन मौजूदा दौर में ना खबर दिखाने कि कुलबुलाहट है और ना ही सौदेबाजी पर अंगुली उठाने की हिम्मत । और इसकी वजह । वजह तो कई हो सकती हैं , लेकिन समझना ये भी होगा कि मौजूदा वक्त में सारी समझ आर्थिक मुनाफे पर जा टिकी है । ये तो पहले भी था । न । पहले मुनाफे का मतलब खबरों के जरीये सत्ता बदलना भी होता था । और मुनाफा देश के लिये होता था। गोयनका ने यूं ही एक्सप्रेस को इंदिरा की सत्ता से टकराने के लिये नहीं झोंक दिया । तो तुम्हारा मानना है कि अब राजनीतिक सत्ता के बदलने से मोहभंग हो गया है या फिर मुनाफे का मतलब खबरो को बेच कर सत्ता के अनुकूल हो जाना है । नहीं यार सरलता से समझो तो अब खबरों से सरकार नहीं गिरती । ये इसलिये सच है क्योंकि सरकारों को गिरा कर जो दूसरा सत्ता में आयेगा वह कहीं ज्यादा लूट मचायेगा। तो खबरो की साख की हथेली तो हमेशा खाली ही रहेगी। इस हकीकत को इस रुप में भी देख सकते हो कि मौजूदा वक्त में ज्यादातर पत्रकार राजनीति से नहीं कारपोरेट से जुडते है । कारपोरेट के इशारो पर राजनेता होते है । संसद कुछ इस तरह से चलती है जैसे कोई टीवी कार्यक्रम। अंतर सिर्फ इतना है कि टीवी पर खबरों के प्रयोजकों के बारे में बताया जाता है । लेकिन संसद के स्पोंर्सस सामने आ नहीं पाते। याद करो सवाल दलित उत्पीडन का हो या किसानो का । संसद के किस सदन में कोरम पूरा हुआ। 10 फीसदी से ज्यादा सांसद सदन में बैठे नजर नहीं आये । लेकिन जीएसटी हो या आर्थिक मुद्दे से जुडा कोई विधेयक । समूचे सांसद मौजूद रहते है । व्हिप जारी किया जाता है । यानी देश के घाव जब सत्ताधारियो ही नहीं बल्कि हर राजनेता को सियासी गुदगुदी देने लगे तो फिर अगला सवाल ये भी होगा कि राजनेताओ के तौर तरीको में कोई अंतर नहीं है । और तुम जिस खबर को जानने के लिये बेताब हो तो ये भी समझ लो उसके कटघरे में ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं जिसका नेता कटघरे में ना खडा हो । तो फिर तो खबर छापने में कोई परेशानी तो किसी को होनी नहीं चाहिये । और इससे बेहतर क्या हो सकता है कि हर राजनीतिक दल के नेताओ का नाम है । तो किसी को कोई परेशानी नहीं होगी । अरे यार ये तो हम कहते है कि राजनीतिक सत्ता एक हमाम है । लेकिन सत्ता में रहने वाला हमेशा खुद को विपक्ष से अलग और बेहतर दिखाता है । मानता है । बताता है । और चुनावी जीत यानी जनादेश का हवाला देकर ये कहने से नहीं चूकता कि सत्ता चलाने का पांच बरस का लाइसेंस तो जनता ने दिया है । फिर पांच साल के बीच में आपने हिम्मत कैसे हुई । और हो सकता है कटघरे में खडा कोई सत्ताधरी आपको चेता सकता है कि, पत्रकारिता छोड आप चुनाव लडकर देख लों । ये क्या बात हुई । यार जब जिक्र हो चला है तो समझो इसे देश में राजनीतिक सत्ता की दिशा – दशा है क्या । और क्यो मौजूदा वक्त में खबरे नहीं तारिफे रेगती है । और तारिफो को पॉजेटिव खबर माना जाता है । क्रिटिकल को देशद्रोही .। यानी खबरो को देशप्रेमी बनाया जा रहा है । क्यों मीडिया प्रचार के भोंपू में तब्दील हो रहा है । क्योंकि प्रचार ही देश का सबसे मजबूत स्तम्भ हो चला है । और अखबार/पत्रकार भी प्रचारक की भूमिका में खुद को खड़ा करने की बेचैनी पाले हुये हैं।
जारी...............
Thursday, September 1, 2016
कठघरे में केजरीवाल ?
राजनीति को कीचड़ मान कर उसमें कूदकर सिस्टम बदलने का ख्वाब केजरीवाल ने अगर 2012 में देखा तो उसके पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन का दबाव था । रामलीला मैदान में लहराता तिरंगा और जनलोकपाल के दायरे में पीएम सीएम सभी को लाने की सोच। यानी भ्रष्टाचार से घायल देश के सामने यही सवाल सबसे बड़ा है कि अगर सत्ता में बैठे राजा जो खुद को सेवक कहकर देश में लूट मचाते है, उन पर रोक कैसे लगे तो आंदोलन से निकली पार्टी को सत्ता सौपकर जनता ने भी माना कि उसने न्याय किया । लेकिन वोट डालने वालों को कहां पता था कि जिन्हे वह अपना नुमाइन्दा बना रहा है । उम्र के लिहाज से ना उनके पास अनुभव है। शिक्षा के लिहाज से ना डिग्री वाले है । जनता से सीधे सरोकार भी नहीं है । जो इन्हें जिम्मेदार बनाये। सपने जागे और हवा चली तो हर कोई जीतता चला गया।
इसीलिये सवाल सिर्फ इतना नहीं कि केजरीवाल के तीन मंत्री तीन ऐसे मामलो में फंसे जो आंदोलन में शामिल किसी के लिये भी शर्मनाक हों । सवाल तो ये भी है कि तोमर हो या असीम अहमद खान या फिर संदीप कुमार इन्होंने अन्ना आंदोलन में ना तो कोई भूमिका निभायी, ना ही केजरीवाल के राजनीति में कूदने से पहले कोई राजनीतिक संघर्ष किया। और दिल्ली जहां सबसे ज्यादा शिक्षित युवा है, वहां कैसे युवा विधायक बने। जो ग्रेजुएट भी नहीं थे । पांच विधायक नौंवी पास । तो 5 विधायक दसवीं पास । दर्जन भर विधायक ग्यारहवी और बारहवीं पास । और शुरु में ही कानून मंत्री बने जितेन्द्र तोमर तो कानून की फर्जी डिग्री के मामले में ही फंस गये। तो क्या आम आदमी पार्टी ने ठीक उसी तर्ज पर राजनीति में जीत के लिये बीज बो दिये जैसा देश की तमाम पार्टियां करती है । क्योंकि जिस जनलोकपाल का सवाल भ्रष्ट राजनीति पर नकेल कसने निकला। और दिल्ली में सत्ता पलट गई । उसी दौर में देश में जनता के मुमाइन्दे ही सबसे दागदार दिखे । मसलन लोकसभा में 182 सांसद दागदार है । देश भर की विधानसभाओं में 1258 विधायक दागदार हैं । तमाम राज्यो में 33 फीसदी मंत्री दागदार है । ऐसे में केजरीवाल के 11 दागदार विधायक भी चल गये । तो क्या राजनीति करते हुये सत्ता पाने का रास्ता ही दागदार है । तो फिर जनता से जुडे मुद्दे कहा टिकेंगे । या कितने मायने रखेंगे । और जब सत्ता ही जनता से घोखा देने वाली व्यवस्था बना रही हो तब दिल्ली के सीएम केजरीवाल का ये दर्द कितना मायने रखेगा कि सैक्स स्कैंडल में फंसे संदीप कुमार ने आंदोलन को धोखा दे दिया । क्योंकि सवाल ये नहीं है कि जो भ्रष्ट फर्जी या स्कैंडल में लिप्त पाया गया केजरीवाल ने उसे मंत्रीपद से हटा दिया । सवाल तो ये है कि जिन आदर्शो के साथ आम आदमी पार्टी बनी । जिस सोच के साथ राजनीति में आई । जो उम्मीद जनता ने बांधी वह सब इतनी जल्दी कैसे और क्यों मटियामेट होने लगी । तो सवाल तीन है। आम आदमी पार्टी में जो चेहरे जुड़े क्या वह वाकई संघर्ष करते हुये निकले। या फिर अन्ना के आंदोलन और राजनीति से होते मोहभंग की स्थिति में दिल्ली की जनता से आप का विकल्प चुना । जो चेहरे विधायक बन गये । जो चेहरे मंत्री बन गई । वह ईमानदारी या व्यवस्था बदलने की सोच को लेकर राजनीति में नहीं कूदे । बल्कि देश में एक हवा बही और उस हवा में मौका परस्ती के साथ ऐसे चेहरे आप में आ गये । तो क्या केजरीवाल इन हालातों को समझ नहीं पाये या फिर वह एसे लोगो की ही फौज को लेकर आगे बढ़ना चाहते थे । क्योकि वैचारिक तौर पर या कहे बोध्द्दिक तौर पर कोई प्रतिबद्दता समाज के साथ आप की विधायक बनी भीड़ में है भी या नहीं ये भी सवाल है ।
तो क्या जनता के सामन एक ऐसा शून्यता आ रही है, जहां राजनीतिक सत्ता से उसका भोहभंग हो जाये । क्योंकि हालात राजनीतिक सत्ता के साथ सुलझ सकते ये सवाल लगातार अनसुलझा है । सत्ता बदलती है । लेकिन हालात कही ज्यादा बदतर हो जाते है । तो क्या भारत में आंदोलन भी सिर्फ सत्ता पलटने से आगे बढता नहीं । और संघ ने इस महीन लकीर को पक़ड कर खुद की उपयोगिता लगातार बनायी रखी । तो क्या केजरीवाल को भी राजनीति में आने के बदले संघ की तर्ज पर दबाब समूह के तौर पर काम करना चाहिये था । क्योंकि याद कीजिये राजनीतिक भ्रष्ट्रचार के खिलाफ जेपी का आदोलन हो या अन्ना आंदोलन । दोनो ही दौर में संघ के स्वयसेवक आंदोलन के पीछे खडे नजर । और दोनो ही दौर में देश की राजनीतिक सत्ता पलटी । आंदोलन क राजनीतिक लाभ 1977 में जनता पार्टी की जीत के साथ सामने आया तो 2013 और 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की जीत और 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सू़पड़ा साफ होने के साथ सामने आया ।
यानी संघ की राजनीतिक दखलअंदाजी जनता के मर्म को छुने वाले मुद्दो पर खडे आंदोलनो को सफल बनाने की जरुर रही । लेकिन खुद किसी आंदोलन को खड़ा करने की स्थिति में सीधे तौर पर संध सामने कभी नही आया । और याद किजिये तो ये सवाल 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी उभरा की संघ की राजनीतिक सक्रियता का मतलब है मोदी को पीएम उम्मीदवार बनवाने से लेकर वोटरो को घरो से बाहर कैसे निकाला जाये । तो क्या संघ राजनीतिक सक्रियता सत्ता पलटने , दिलाने की भूमिका में रहती है क्योंकि वह राजनीति दाग में राजनेताओ की खत्म होती नैतिकता को पहचानती है । और केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन की बात कहकर भी खुद ही बदलते दिखे । और बीजेपी संघ का राजनीतिक संगठन बनकर सियासत को महत्व देती है संघ के आदर्श का नहीं । मसलन-गोवा में ईसाई वोटों के लिये बीजेपी समझौता कर सकती है संघ नहीं । कश्मीर में धार 370 पर सत्ता में रहकर बीजेपी खामोश रह सकती है संघ नहीं । जाति की राजनीति को सोशल इंजिनियरिंग का मुल्लम्मा बीजेपी चढा सकती है, संघ नहीं । यानी राजनीतिक दल कुछ भी कर राजनीति कर सकता है क्योकि उसके लिये नैतिकता या जिम्मेदारी कोई मायने नहीं रखती है । ध्यान दें तो आंदोलन से मिली सत्ता चाहे वह 1977 की हो या 2013 की । दोनो ही डगमगायी । 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार दो बरस में ही ढहढहाकर गिर गई । और दिल्ली में 2013 के 49 दिनो के बाद 2015 में दोबारा इतिहास रचकर केजरीवाल सत्ता में आये लेकिन डेढ बरस के भीतर ही राजनीतिक हमाम में सभी एक सरीखे दिखने लगे ।
इसीलिये सवाल सिर्फ इतना नहीं कि केजरीवाल के तीन मंत्री तीन ऐसे मामलो में फंसे जो आंदोलन में शामिल किसी के लिये भी शर्मनाक हों । सवाल तो ये भी है कि तोमर हो या असीम अहमद खान या फिर संदीप कुमार इन्होंने अन्ना आंदोलन में ना तो कोई भूमिका निभायी, ना ही केजरीवाल के राजनीति में कूदने से पहले कोई राजनीतिक संघर्ष किया। और दिल्ली जहां सबसे ज्यादा शिक्षित युवा है, वहां कैसे युवा विधायक बने। जो ग्रेजुएट भी नहीं थे । पांच विधायक नौंवी पास । तो 5 विधायक दसवीं पास । दर्जन भर विधायक ग्यारहवी और बारहवीं पास । और शुरु में ही कानून मंत्री बने जितेन्द्र तोमर तो कानून की फर्जी डिग्री के मामले में ही फंस गये। तो क्या आम आदमी पार्टी ने ठीक उसी तर्ज पर राजनीति में जीत के लिये बीज बो दिये जैसा देश की तमाम पार्टियां करती है । क्योंकि जिस जनलोकपाल का सवाल भ्रष्ट राजनीति पर नकेल कसने निकला। और दिल्ली में सत्ता पलट गई । उसी दौर में देश में जनता के मुमाइन्दे ही सबसे दागदार दिखे । मसलन लोकसभा में 182 सांसद दागदार है । देश भर की विधानसभाओं में 1258 विधायक दागदार हैं । तमाम राज्यो में 33 फीसदी मंत्री दागदार है । ऐसे में केजरीवाल के 11 दागदार विधायक भी चल गये । तो क्या राजनीति करते हुये सत्ता पाने का रास्ता ही दागदार है । तो फिर जनता से जुडे मुद्दे कहा टिकेंगे । या कितने मायने रखेंगे । और जब सत्ता ही जनता से घोखा देने वाली व्यवस्था बना रही हो तब दिल्ली के सीएम केजरीवाल का ये दर्द कितना मायने रखेगा कि सैक्स स्कैंडल में फंसे संदीप कुमार ने आंदोलन को धोखा दे दिया । क्योंकि सवाल ये नहीं है कि जो भ्रष्ट फर्जी या स्कैंडल में लिप्त पाया गया केजरीवाल ने उसे मंत्रीपद से हटा दिया । सवाल तो ये है कि जिन आदर्शो के साथ आम आदमी पार्टी बनी । जिस सोच के साथ राजनीति में आई । जो उम्मीद जनता ने बांधी वह सब इतनी जल्दी कैसे और क्यों मटियामेट होने लगी । तो सवाल तीन है। आम आदमी पार्टी में जो चेहरे जुड़े क्या वह वाकई संघर्ष करते हुये निकले। या फिर अन्ना के आंदोलन और राजनीति से होते मोहभंग की स्थिति में दिल्ली की जनता से आप का विकल्प चुना । जो चेहरे विधायक बन गये । जो चेहरे मंत्री बन गई । वह ईमानदारी या व्यवस्था बदलने की सोच को लेकर राजनीति में नहीं कूदे । बल्कि देश में एक हवा बही और उस हवा में मौका परस्ती के साथ ऐसे चेहरे आप में आ गये । तो क्या केजरीवाल इन हालातों को समझ नहीं पाये या फिर वह एसे लोगो की ही फौज को लेकर आगे बढ़ना चाहते थे । क्योकि वैचारिक तौर पर या कहे बोध्द्दिक तौर पर कोई प्रतिबद्दता समाज के साथ आप की विधायक बनी भीड़ में है भी या नहीं ये भी सवाल है ।
तो क्या जनता के सामन एक ऐसा शून्यता आ रही है, जहां राजनीतिक सत्ता से उसका भोहभंग हो जाये । क्योंकि हालात राजनीतिक सत्ता के साथ सुलझ सकते ये सवाल लगातार अनसुलझा है । सत्ता बदलती है । लेकिन हालात कही ज्यादा बदतर हो जाते है । तो क्या भारत में आंदोलन भी सिर्फ सत्ता पलटने से आगे बढता नहीं । और संघ ने इस महीन लकीर को पक़ड कर खुद की उपयोगिता लगातार बनायी रखी । तो क्या केजरीवाल को भी राजनीति में आने के बदले संघ की तर्ज पर दबाब समूह के तौर पर काम करना चाहिये था । क्योंकि याद कीजिये राजनीतिक भ्रष्ट्रचार के खिलाफ जेपी का आदोलन हो या अन्ना आंदोलन । दोनो ही दौर में संघ के स्वयसेवक आंदोलन के पीछे खडे नजर । और दोनो ही दौर में देश की राजनीतिक सत्ता पलटी । आंदोलन क राजनीतिक लाभ 1977 में जनता पार्टी की जीत के साथ सामने आया तो 2013 और 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की जीत और 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सू़पड़ा साफ होने के साथ सामने आया ।
यानी संघ की राजनीतिक दखलअंदाजी जनता के मर्म को छुने वाले मुद्दो पर खडे आंदोलनो को सफल बनाने की जरुर रही । लेकिन खुद किसी आंदोलन को खड़ा करने की स्थिति में सीधे तौर पर संध सामने कभी नही आया । और याद किजिये तो ये सवाल 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी उभरा की संघ की राजनीतिक सक्रियता का मतलब है मोदी को पीएम उम्मीदवार बनवाने से लेकर वोटरो को घरो से बाहर कैसे निकाला जाये । तो क्या संघ राजनीतिक सक्रियता सत्ता पलटने , दिलाने की भूमिका में रहती है क्योंकि वह राजनीति दाग में राजनेताओ की खत्म होती नैतिकता को पहचानती है । और केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन की बात कहकर भी खुद ही बदलते दिखे । और बीजेपी संघ का राजनीतिक संगठन बनकर सियासत को महत्व देती है संघ के आदर्श का नहीं । मसलन-गोवा में ईसाई वोटों के लिये बीजेपी समझौता कर सकती है संघ नहीं । कश्मीर में धार 370 पर सत्ता में रहकर बीजेपी खामोश रह सकती है संघ नहीं । जाति की राजनीति को सोशल इंजिनियरिंग का मुल्लम्मा बीजेपी चढा सकती है, संघ नहीं । यानी राजनीतिक दल कुछ भी कर राजनीति कर सकता है क्योकि उसके लिये नैतिकता या जिम्मेदारी कोई मायने नहीं रखती है । ध्यान दें तो आंदोलन से मिली सत्ता चाहे वह 1977 की हो या 2013 की । दोनो ही डगमगायी । 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार दो बरस में ही ढहढहाकर गिर गई । और दिल्ली में 2013 के 49 दिनो के बाद 2015 में दोबारा इतिहास रचकर केजरीवाल सत्ता में आये लेकिन डेढ बरस के भीतर ही राजनीतिक हमाम में सभी एक सरीखे दिखने लगे ।