दो सौ करोड़ । ये बच्चों का आंकडा है। दुनियाभर के बच्चो की तादाद। जिनकी सांसों में जहर समा रहा है । हवा में घुलते जहर को दुनिया में कहीं सबसे ज्यादा बच्चे प्रभावित हो रहे हैं तो वह उत्तर भारत ही है । तो जो सवाल दीपावली के बाद सुबह सुबह उठा कि दिल्ली में घुंध की चादर में जहर घुला हुआ है और बच्चों की सांसों में 90 गुना ज्यादा जहर समा रहा है । तो ये महज दीपावली की अगली सुबह का अंधेरा नहीं है। बल्कि यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली समेत उत्तर भारत में 8 करोड़ बच्चों की सांसो में लगातार जहर जा रहा है । और दीपावली का मौका इसलिये बच्चो के लिये जानलेवा है क्योंकि खुले वातावरण में बच्चे जब सांस लेते है तो प्रदूषित हवा में सांस लेने की रफ्तार सामान्य से दुगुनी हो जाती है । जिससे बच्चों के ब्रेन और इम्युन सिसंटम पर सीधा असर पडता है । ये कितना घातक रहा होगा क्योंकि दीपावली की रात से ही 30 गुना ज्यादा जहर बच्चों की सांसों में गया । लंग्स, ब्रेन और दूसरे आरगन्स पर सीधा असर पड़ा । तो क्या दीपावली की रात से ही दिल्ली जहर के गैस चैबंर में बदलने लगी । क्योंकि यूनीसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक बच्चो के लिये सबसे ज्यादा खतरनाक क्षेत्र साउथ एशिया है । जहा एक छोटे तबके के जीवन में बदलाव आया है और उससे गाडियों की तादाद , इन्फ्रास्ट्रक्चर का काम , एसी का उपयोग , लकडी-कोयले की आग । फैक्ट्रियों का धुंआ । सबकुछ जिस तरह हवा में घुल रहा है उसका असर ये है कि 62 करोड बच्चे सांस की बीमारी से जुझ रहे हैं। और इनमें से सबसे ज्यादा बच्चे भारत के ही है । भारत के 30 करोड़ बच्चे जहरीली हवा से प्रभावित हैं । और साउथ एशिया के बाद -अफ्रिका के 52 करोड़ बच्चे तो चीन समेत पूर्वी एशिया के 42 करोड बच्चे सांस लेते वक्त जहर ले रहे हैं। यानी जो सवाल दीपालवी की अगली सुबह दिल्ली की सडको पर धुंध के आसरे नजर आया । वह हालात कैसे किस तरह हर दिन 5 लाख बच्चो की जान ले रहा है। 2 करोड़ बच्चों को सांस की बीमारी दे चुका है। तीन करोड से ज्यादा बच्चों के ब्रेन पर असर पड़ चुका है ।12 करोड से ज्यादा बच्चो के इम्यून सिसंटम कमजोर हो चुका है । लेकिन हवा में घुलते जहर का असर सिर्फ दिल्ली तक नहीं सिमटा है । पहली बार लाइन आफ कन्ट्रोल यानी भारत पाकिस्तान सीमा पर जो हालात है उसने प्रवासी पक्षियो को भी रास्ता बदलने के लिये मजबूर कर दिया है ।
जी जिस कश्मीर घाटी में हर बरस अब तक साइबेरिया, पूर्वी यूरोप, चीन , जापान फिलिपिन्स से दसियो हजार प्रवासी पक्षी पहुंच जाते थे । इस बार सीमा पर लगातार फायरिंग और पाकिसातनी की सीमा से जिस तरह बार बार सीजफायर उल्लघन हो रहा है । मोर्टार से लेकर तमाम तरह से बारुद फेका जा रहा है उसका असर यही है कि सीमा पर पहाडो से निकलती झिले भी सूने पडे है । पहाडो की झीले गंगाबल, बिश्हेनसर,गडसार में इसबार प्रवासी पंक्षी पहुचे ही नहीं । इतना ही नहीं कश्मीर घाटी में हर बरस सितंबर के आखरी में दुनियाभर से सबसे विशिषट पक्षियो झंड में करीब 15 हजार की तादाद में अबतक पहुंच जाते थे । इस बार हालात ऐसे है कि घाटी के हरकाहार, सिरगुंड,हायगाम और शलालाबाग सूने पडे है । तो कया पहली बार कश्मीर घाटी की हवा में भी बारुद कही ज्यादा है । क्योकि पक्षी विशेषज्ञो की भी माने तो जो प्रवासी पक्षी कश्मीर घाटी पहुंचते है वह अति संवेदनशील होते है और अगर पहली बार घाटी के बदले कोई दूसरा रास्ता प्रवासी पक्षियो के पकडा है तो ये हालात काफी खतरनाक है । और असर इसी का है कि वादी के प्रसिद रिजरवायर बुल्लर , मानसबल और डल लेकर भी सूने पडे है । लेकिन घाटी के हालात में तो प्रवासी पक्षी ही नहीं बल्कि पहली बार बच्चो के भविष्य पर अंघेरा कही ज्यादा घना है । क्योकि स्कूल के ब्लैक बोर्ड पर लिखे जिन शब्दो के आसरे बच्चे देश दुनिया को पहचानने निकलते है अगर उन्हे ही आग के हवाले कर दिया गया तो इससे बडा अंधेरा और क्या हो सकता है । तो पहली बार कश्मीर घाटी में अंधेरा इतना घना है कि बीते साढे तीन महीनो से 2 लाख बच्चे स्कूल जा नहीं पाये है । और बीते दो महीनो में 12 हजार 700 बच्चो के 25 स्कूलो में आग लगा दी गई । घाटी की सियासत और संघर्ष के दौर में ये सवाल बडा हो चला है कि बच्चो के स्कूलो में आग किसने और क्यो लगायी लेकिन ये सवाल पिछे छूट चला है कि आखिर बच्चो का क्या दोष । जो उनके स्कूल खुल नहीं पा रहे है ।
कल्पना किजिये आंतकवादी सैयद सलाउद्दीन से लेकर अलगाववादी नेता यासिन मलिक और सियासत करने वाले उमर अब्दुल्ला से लेकर सीएम महबूबा मुफ्ती हक कोई सवाल कर रहा है कि स्कूलो में आग क्यो लगायी जा रही है । एक दूसरे पर आरोप प्रतायारोप भी लगाये जा रहे है लेकिन इस सच से हर कोई बेफ्रिपक्र है कि आखिर वादी के शहर में बिखरे 11192 स्कूल और वादी के ग्रमीण इलाको में सिमटे 3280 स्कूल बीते एक सौ 115 दिन से बंद क्यो है । ऐसे में सवाल यही कि क्या पत्थर फेंकने से आगे के हालात कश्मीर के भविष्य को ही अंधेरे में समेट रहे है । क्योकि आंतक की हिसा और संघर्ष के दौर में करीब 80 कश्मीरी युवक मारे गये ये सच है । लेकिन इस सच से हर कोई आंख चुरा रहा है कि बीते साढे तीन महीनो से घरो में कैद 2 लाख बच्चे कर क्या रहे है । जिन 25 सरकारी स्कूलो में आग लगायी गई उसमें 6 प्रईमरी , 7 अपर प्रईमरी , 12 हाई स्कूल व हायर सेकेंडरी स्कूल है । और अंनतनाग और कुलगाम के इन 25 स्कूलो में पढने वाले 12 हजार बच्चो का द्रद यही है कि कल तक वह किताब और बैग देख कर पढने का खवाब संजोये रखते थे । इनरके मां-बाप स्कूल घुमा कर ले आते थे । लेकिन बीते दो महीने से जो सिलसिला स्कूलो में आग लगाने का शुरु हुआ है उसका असर बच्चो के दिमाग पर पड रहा है । और ये सवाल घाटी के अंधेरे से कही ज्यादा घना हो चला है कि अगर बच्चो को कागज पेसिंल किताब की जगह महज कोरा ब्लैक बोर्ड मिला तो वह उसपर आने वाले वक्त में क्या लिखेगें ।
Monday, October 31, 2016
Thursday, October 27, 2016
जनता के पैसे पर सत्ता की रईसी
13 लाख 77 हजार करोड़। ये जनता के टैक्स देने वालों का रुपया है। केन्द्र सरकार इसका 40 फिसदी हिस्सा राज्यों को बांट देती है। और अलग अलग राज्यों में सत्ता के पास जनता का जो टैक्स पहुंचता है, वो 30 लाख करोड से ज्यादा का है। मसलन यूपी में टैक्स पेयर 340120 करोड रुपये तो पंजाब में 85595 करोड रुपये। और इसी तर्ज पर जम्मू-कश्मीर में 61681 करोड रुपये तो झारखंड में 55492 करोड। असम में 77422 करोड रुपये तो गुजरात में 116366 करोड रुपये। यानी देश में केन्द्र से लेकर तमाम राज्य सरकारों के पास टैक्स पेयर का करीब 43 लाख 77 हजार करोड रुपया पहुंचता है। और ये सवाल हमेशा अनसुलझा सा रहा जाता है कि आखिर जनता का पैसा खर्च जनता के लिये होता है कि नहीं। और जनता के पैसे के खर्च पर सत्ता की कोई जिम्मेदारी है या नहीं। क्योंकि एक तरफ गरीब जनता की त्रासदी और दूसरी तरफ सत्ताधारियों की रईसी जिस तरह सार्वजनिक तौर पर दिखायी देती है। उसने ये सवाल तो खड़ा कर ही दिया है कि क्या सत्ताधारी जनता के पैसे पर रईसी करते है। लंबी लंबी गाडियों से लेकर दुनिया भर की यात्रा से सीधा जनता का क्या जुड़ाव होता है। और एक बार सत्ता मिलने के बाद हर राजनेता करोडपति कैसे हो जाता है। सरकारी कर्मचारियो के वेतन में सालाना 2 फीसदी से ज्यादा की बढोतरी होती नहीं है। राजनेताओं की संपत्ति में औसतन 50 फिसदी की बढोतरी कैसे हो जाती है। और असंगठित क्षेत्र के कामगार-मजदूरो की कमाई सालाना दशमलव में भी नहीं बढ़ पाती है। तो ये सवाल है कि क्या राजनेताओं का जुड़ाव जनता की जरुरतों से ना होकर सत्ता बनाये रखने और संपत्ति बढ़ाने से ही जुड़ी रहती है। ये सवाल इसलिये क्योंकि मौजूदा वक्त में लोकसभा के 81 फिसदी सांसद करोडपति है। तो राज्यसभा के 99 फिसदी सांसद करोडपति है। और ज्य विधानसभा के 83 फिसदी विधायक करोड़पति है। तो ये सवाल हर जहन में उठ सकता है कि आखिर जो जनता अपने वोट से अपने नुमाइन्दों को चुनती है उनकी संपत्ति में सबसे तेज रफ्तार से बढोतरी क्यों है।
और अगर सामाजिक आर्थिक तौर पर सत्ताधारियो की क्लास जनता से दूर होगी। असमानता जनता और सत्ता के बीच होगी तो किसी भी सरकार की कोई भी नीति जनहित को कैसे साधेगी। इसके तीन उदाहरण को समझे तो खेती में पौने दो लाख करोड की सब्सिडी का जिक्र सरकार बार बार करती है। उसे ये बोझ लगता है। और कारपोरेट को सालाना साढे पांच लाख करोड की टैक्स सब्सिडी दी जाती है। जिसका कोई जिक्र तक नही होता। कमोवेश यही हालात शिक्षा, हेल्थ , पीने के पानी और सिचाई या इन्फ्रास्ट्रक्चर तक में है। शायद इसीलिये देश के सामने हर सरकार के वक्त संकट यही होता है कि देश को स्टेट्समैन क्यों नहीं मिलता। ौर विकास के नाम पर हर सरकार वक्त पूंजी या विदेशी निवेश ही क्यों देखती है। क्योंकि नेहरु से लेकर मोदी तक के दौर को परखें तो तमाम पीएम ने अपने अपने दौर में अपनी एक पहचान दी । और सभी ने जनता से अपने अपने दौर में किसी ना किसी मुद्दे पर कोई ना कोई आदर्श रास्ता बताया। जनता से उसपर चलने को कहा और ये सवाल बार बार उठता रहा कि क्या वाकई जनता अपने नेता के कहने पर उनके रास्ते चल पड़ती है या फिर हर प्रदानमंत्री को किसी भी काम को पूरा करने के लिये एक बजट चाहिये होता है। तो ऐसे मौके पर मौजूदा वक्त के आईने लाल बहादुर शास्त्री को याद करना चाहिये। क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने देश में अन्न के संकट के वक्त देशवालों से जब एक वक्त उपवास रखने को कहा तो देश के कमोवेश हर घर में शाम का चूल्हा जलना बंद हो गया।
और ये इसलिये क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने खुद को कभी जनता के आर्थिक हालात से अलग नहीं माना। विदेश यात्रा के वक्त पीएम होते हुये भी जब लाल बहादुर शास्त्री के परिवार वालों ने एक ओवर कोट सिलवाने को कहा। तो उन्होंने देश और खुद की हालात का जिक्र कर नेहरु के कोट की बांह छोटी करवाकर उसे ही पहन कर मास्को चले गये। वहीं मौजूदा पीएम मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत का एलान कर जनता को जोड़ने का एलान किया। और जुडाव के लिये भी एक बरस में महज प्रचार में 94 करोड़ खर्च हो गये। लेकिन देश की हालात है क्या ये कहा किसी से छिपा है। और इससे पहले मनमोहन सिंह ने भी स्व्च्छ और निर्मल भारत का स्लोगन लगा कर 2009 से 2014 के बीच 744 करोड प्रचार में खर्च कर दिये और हालाता जस के तस रहे।
और अगर सामाजिक आर्थिक तौर पर सत्ताधारियो की क्लास जनता से दूर होगी। असमानता जनता और सत्ता के बीच होगी तो किसी भी सरकार की कोई भी नीति जनहित को कैसे साधेगी। इसके तीन उदाहरण को समझे तो खेती में पौने दो लाख करोड की सब्सिडी का जिक्र सरकार बार बार करती है। उसे ये बोझ लगता है। और कारपोरेट को सालाना साढे पांच लाख करोड की टैक्स सब्सिडी दी जाती है। जिसका कोई जिक्र तक नही होता। कमोवेश यही हालात शिक्षा, हेल्थ , पीने के पानी और सिचाई या इन्फ्रास्ट्रक्चर तक में है। शायद इसीलिये देश के सामने हर सरकार के वक्त संकट यही होता है कि देश को स्टेट्समैन क्यों नहीं मिलता। ौर विकास के नाम पर हर सरकार वक्त पूंजी या विदेशी निवेश ही क्यों देखती है। क्योंकि नेहरु से लेकर मोदी तक के दौर को परखें तो तमाम पीएम ने अपने अपने दौर में अपनी एक पहचान दी । और सभी ने जनता से अपने अपने दौर में किसी ना किसी मुद्दे पर कोई ना कोई आदर्श रास्ता बताया। जनता से उसपर चलने को कहा और ये सवाल बार बार उठता रहा कि क्या वाकई जनता अपने नेता के कहने पर उनके रास्ते चल पड़ती है या फिर हर प्रदानमंत्री को किसी भी काम को पूरा करने के लिये एक बजट चाहिये होता है। तो ऐसे मौके पर मौजूदा वक्त के आईने लाल बहादुर शास्त्री को याद करना चाहिये। क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने देश में अन्न के संकट के वक्त देशवालों से जब एक वक्त उपवास रखने को कहा तो देश के कमोवेश हर घर में शाम का चूल्हा जलना बंद हो गया।
और ये इसलिये क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने खुद को कभी जनता के आर्थिक हालात से अलग नहीं माना। विदेश यात्रा के वक्त पीएम होते हुये भी जब लाल बहादुर शास्त्री के परिवार वालों ने एक ओवर कोट सिलवाने को कहा। तो उन्होंने देश और खुद की हालात का जिक्र कर नेहरु के कोट की बांह छोटी करवाकर उसे ही पहन कर मास्को चले गये। वहीं मौजूदा पीएम मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत का एलान कर जनता को जोड़ने का एलान किया। और जुडाव के लिये भी एक बरस में महज प्रचार में 94 करोड़ खर्च हो गये। लेकिन देश की हालात है क्या ये कहा किसी से छिपा है। और इससे पहले मनमोहन सिंह ने भी स्व्च्छ और निर्मल भारत का स्लोगन लगा कर 2009 से 2014 के बीच 744 करोड प्रचार में खर्च कर दिये और हालाता जस के तस रहे।
Wednesday, October 26, 2016
सिर्फ सियासत की...कोई चोरी नहीं की
कश्मीर 109 दिनों से कैद, यूपी में सत्ता सड़क पर, महाराष्ट्र में शिक्षा-रोजगार के लिये आरक्षण, मुंबई में देशभक्ति बंधक, बिहार में कानून ताक पर, पंजाब नशे की गिरफ्त में, गुजरात में पाटीदारों का आंदोलन ,दलितों का उत्पीडन, तो हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन, तमिलनाडु-कर्नाटक में कावेरी पानी पर टकराव, झारखंड में आदिवासी मूल का सवाल तो असम में अवैध प्रवासी का सवाल और दिल्ली बे-सरकार। जरा सोचिये ये देश का हाल है । कमोवेश हर राज्य के नागरिकों को वहां का कोई ना कोई मुद्दा सत्ता का बंधक बना लेता है। हर मुद्दा बानगी है संस्थायें खत्म हो चली हैं। संविधानिक संस्थायें भी सत्ता के आगे नतमस्तक लगती है। वजह भी यही है कि कश्मीर अगर बीते 109 दिनों से अपने घर में कैद है। तो सीएम महबूबा हो या राज्यपाल
वोहरा। सेना की बढ़ती हरकत हो या आतंक का साया। कोई ये सवाल कहने-पूछने को तैयार नहीं है कि घाटी ठप है। स्कूल--कालेज-दुकान-प्रतिष्ठान अगर सबकुछ बंद है तो फिर राज्य हैं कहां। और ऐसे में कोई संवाद बनाने भी पहुंचे तो पहला सवाल यही होता है कि क्या मोदी सरकार का मैंडेट है आपके पास । यूपी में जब सत्ता ही सत्ता के लिये सड़क पर है । तो राज्यपाल भी क्या करें। सीएम -राज्यपाल की मुलाकात हो सकती है । लेकिन कोई ये सवाल करने की हालात में नहीं कि सत्ताधारियों की गुडंगर्दी पर कानून का राज गायब क्यों हो जाता है। मुंबई में तो देशभक्ति को ही सियासी बंधक बनाकर सियासत साधने का अनूठा खेल ऐसा निकाला जाता है। जहां पेज थ्री के नायक चूहों की जमात में बदल जाते हैं। सीएम फडनवीस संविधान को हाथ में लेने
वाले पिद्दी भर के राजनीतिक दल के नेता को अपनी राजनीतिक बिसात पर हाथी बना देते हैं। और झटके में कानून व्यवस्था राजनेताओ की चौखट पर रेंगती दिखती है। बिहार में कानून व्यवस्था ताक पर रखकर सत्ता मनमाफिक ठहाका लगाने से नहीं चूकती। मुज्जफरपुर में महिला इंजीनियर को जिन्दा जलाया जाता है। तो सत्ताधारी जाति की दबंगई खुले तौर पर कानून व्यवस्था अपने हाथ लेने से नहीं कतराती। हत्या-अपहरण-वसूली धंधे में सिमटते दिखायी देते है तो सत्ता हेमा मालनी की खूबसूरती में खोयी से लगती है। बिहार ही क्यों दिल्ली तो बेहतरीन नमूने के तौर पर उभरता है। जहां सत्ता है किसकी जनता पीएम, सीएम और उपराज्यापाल के त्रिकोण में जा फंसा है । और देश की राजनधानी दिल्ली डेंगू, चिकनगुनिया से मर मर कर निकलती है तो अब बर्ड फ्लू की चपेटे में आ जाती है।
तो क्या देश को राजनीतिक सत्ता की घुन लग गई है। जो अपने आप में मदमस्त है। क्योंकि वर्ल्ड बैंक के नजरिये को मोदी सरकार मानती है। उसी रास्ते चल निकली है लेकिन जब रिपोर्ट आती है तो पता चलता है कि दुनिया के 190 देशों की कतार में कारोबार शुरु करने में भारत का नंबर 155 हैं। कर प्रदान करने में नंबर 172 है। निर्माण क्षेत्र में परमिट के लिये नंबर 185 है। तो ऐसे में क्या बीते ढाई बरस के दौर में प्रदानमंत्री मोदी जिस तरह 50 से ज्यादा देशों का दौरा कर चुके है और वहां जो भी सब्जबाग दिखाये । क्या ये सिर्फ कहने भर के लिये था । क्योंकि अमेरिका से ब्रिटेन तक और मॉरिशस से सऊदी अरब तक और जापान -फ्रास से लेकर आस्ट्रेलिया तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते ढाई साल में जहां भी गए-उन्होंने विदेशी निवेशकों से यही कहा कि भारत में निवेश कीजिए क्योंकि अब सरकार उन्हें हर सुविधा देने के लिए जी-जान से लगी है। और नतीजा सिफर
क्योंकि विश्व बैंक ने बिजनेस की सहूलियत देने वाले देशों की जो सूची जारी की है-उसमें भारत बीते एक साल में सिर्फ एक पायदान ऊपर चढ़ पाया है। यानी भारत 131 से 130 वें नंबर पर आया तो पाकिस्तान 148 से 144 वें नंबर पर आ गया । और चीन 80 से 78 वें पायदान पर पहुंच गया । और नंबर एक परन्यूजीलैंड तो नंबर दो पर सिंगापुर है । तो क्या भारत महज बाजार बनकर रहजा रहा है जहा कन्जूमर है । और दुनिया के बाजार का माल है । क्योंकि-जिन कसौटियों पर देशों को परखा गया है-उनमें सिर्फ बिजली की उपलब्धता का इकलौता कारक ऐसा है,जिसमें भारत को अच्छी रैंकिंग मिली है। वरना आर्थिक क्षेत्र से जुडे हर मुद्दे पर भारत औततन 130 वी पायदान के पार ही है । तो सवाल है कि -क्या मोदी सरकार निवेशकों का भरोसा जीतने में नाकाम साबित हुई है? या फिर इल्पसंख्यको की सुरक्षा । बीफ का सवाल । ट्रिपल तलाक . और देशभक्ति के मुद्दे में ही देश को सियासत जिस तरह उलझा रही है उसमें दुनिया की रुची है नहीं । ऐसे में निवेश के आसरे विकास का ककहरा पढ़ाने वाली मोदी सरकार के दौर में अगर कारोबारियों को ही रास्ता नहीं मिल रहा तो फिर विकास का रास्ता जाता कहां है। क्योकि एक तरफ नौकरी में राजनीतिक आरक्षण के लिये गुजरात में पाटिदार तो हरियाणा में जाट और महाराष्ट् में मराठा सडक पर संघर्ष कर रहा है । और दूसरी तरफ खबर है कि आईटी इंडस्ट्री में हो रहे आटोमेशन से रोजगार का संकट बढने वाला है ।
तो क्या देश में बेरोजगारी का सवाल सबसे बडा हो जायेगा । और इसकी जद में पहली बार शहरी प्रोपेशनल्स भी आ जायेगें । ये सवाल इसलिये क्योकि देश की तीन बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों की विकास दर पहली बार 10 फीसदी के नीचे पहुंच गई है। और अमेरिकन रिसर्च फर्म एचएफएस का आकलन है कि अगले पांच साल में आईटी सेक्टर में लो स्किल वाली करीब 6 लाख 40 हजार नौकरियां जा सकती हैं । और अगले 10 साल में मिडिल स्केल के आईटी प्रफेशनल्स की नौकरियो पर भी खतरे की घंटी बजने लगेगी । तो क्या जिस आईटी सेक्टर को लेकर ख्वाब संजोय गये उसपर खतरा है । और इसकी सबसे बडी वजह आटोमेशन है । यानी ऑटोमेशन की गाज लो स्किल कर्मचारियों पर सबसे ज्यादा पड़ेगी। और मिडिल लेवल के कर्मचारियों पर कम होते मुनाफे की मार पड़ना तय है। जिसके संकेत दिसंबर 2014 में उस वक्त मिल गए थे, जब टीसीएस ने 2700 से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी कर दी थी। इतना ही नहीं बैंगलुरु में बीते दो साल में 30 हजार से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी हुई है । तो क्या जिस स्टार्टअप और डिजिटल इंडिया के आसरे आईटी इंडस्ट्री में रोजगार पैदा करने का जिक्र हो रहा है वह भी ख्वाब रह जायेगा । क्योकि आईटी सेक्टर का विकास भी दूसरे क्षेत्रों
के विकास पर निर्भर है। और दुनिया के हालात बताते है कि रोबोटिक टेक्नोलॉजी ने मैन्यूफैक्चरिंग में पश्चिम के दरवाजे फिर खोल दिए हैं । यानी लोगो की जरुरत कम हो चली है । भारत के लिये ये खतरे की घंटी कही ज्यादा बडी इसलिये है क्योंकि -आईटी सेक्टर में बदलाव उस वक्त हो रहा है,जब भारत में बेरोजगारी संकट बढ़ रहा है।
वोहरा। सेना की बढ़ती हरकत हो या आतंक का साया। कोई ये सवाल कहने-पूछने को तैयार नहीं है कि घाटी ठप है। स्कूल--कालेज-दुकान-प्रतिष्ठान अगर सबकुछ बंद है तो फिर राज्य हैं कहां। और ऐसे में कोई संवाद बनाने भी पहुंचे तो पहला सवाल यही होता है कि क्या मोदी सरकार का मैंडेट है आपके पास । यूपी में जब सत्ता ही सत्ता के लिये सड़क पर है । तो राज्यपाल भी क्या करें। सीएम -राज्यपाल की मुलाकात हो सकती है । लेकिन कोई ये सवाल करने की हालात में नहीं कि सत्ताधारियों की गुडंगर्दी पर कानून का राज गायब क्यों हो जाता है। मुंबई में तो देशभक्ति को ही सियासी बंधक बनाकर सियासत साधने का अनूठा खेल ऐसा निकाला जाता है। जहां पेज थ्री के नायक चूहों की जमात में बदल जाते हैं। सीएम फडनवीस संविधान को हाथ में लेने
वाले पिद्दी भर के राजनीतिक दल के नेता को अपनी राजनीतिक बिसात पर हाथी बना देते हैं। और झटके में कानून व्यवस्था राजनेताओ की चौखट पर रेंगती दिखती है। बिहार में कानून व्यवस्था ताक पर रखकर सत्ता मनमाफिक ठहाका लगाने से नहीं चूकती। मुज्जफरपुर में महिला इंजीनियर को जिन्दा जलाया जाता है। तो सत्ताधारी जाति की दबंगई खुले तौर पर कानून व्यवस्था अपने हाथ लेने से नहीं कतराती। हत्या-अपहरण-वसूली धंधे में सिमटते दिखायी देते है तो सत्ता हेमा मालनी की खूबसूरती में खोयी से लगती है। बिहार ही क्यों दिल्ली तो बेहतरीन नमूने के तौर पर उभरता है। जहां सत्ता है किसकी जनता पीएम, सीएम और उपराज्यापाल के त्रिकोण में जा फंसा है । और देश की राजनधानी दिल्ली डेंगू, चिकनगुनिया से मर मर कर निकलती है तो अब बर्ड फ्लू की चपेटे में आ जाती है।
तो क्या देश को राजनीतिक सत्ता की घुन लग गई है। जो अपने आप में मदमस्त है। क्योंकि वर्ल्ड बैंक के नजरिये को मोदी सरकार मानती है। उसी रास्ते चल निकली है लेकिन जब रिपोर्ट आती है तो पता चलता है कि दुनिया के 190 देशों की कतार में कारोबार शुरु करने में भारत का नंबर 155 हैं। कर प्रदान करने में नंबर 172 है। निर्माण क्षेत्र में परमिट के लिये नंबर 185 है। तो ऐसे में क्या बीते ढाई बरस के दौर में प्रदानमंत्री मोदी जिस तरह 50 से ज्यादा देशों का दौरा कर चुके है और वहां जो भी सब्जबाग दिखाये । क्या ये सिर्फ कहने भर के लिये था । क्योंकि अमेरिका से ब्रिटेन तक और मॉरिशस से सऊदी अरब तक और जापान -फ्रास से लेकर आस्ट्रेलिया तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते ढाई साल में जहां भी गए-उन्होंने विदेशी निवेशकों से यही कहा कि भारत में निवेश कीजिए क्योंकि अब सरकार उन्हें हर सुविधा देने के लिए जी-जान से लगी है। और नतीजा सिफर
क्योंकि विश्व बैंक ने बिजनेस की सहूलियत देने वाले देशों की जो सूची जारी की है-उसमें भारत बीते एक साल में सिर्फ एक पायदान ऊपर चढ़ पाया है। यानी भारत 131 से 130 वें नंबर पर आया तो पाकिस्तान 148 से 144 वें नंबर पर आ गया । और चीन 80 से 78 वें पायदान पर पहुंच गया । और नंबर एक परन्यूजीलैंड तो नंबर दो पर सिंगापुर है । तो क्या भारत महज बाजार बनकर रहजा रहा है जहा कन्जूमर है । और दुनिया के बाजार का माल है । क्योंकि-जिन कसौटियों पर देशों को परखा गया है-उनमें सिर्फ बिजली की उपलब्धता का इकलौता कारक ऐसा है,जिसमें भारत को अच्छी रैंकिंग मिली है। वरना आर्थिक क्षेत्र से जुडे हर मुद्दे पर भारत औततन 130 वी पायदान के पार ही है । तो सवाल है कि -क्या मोदी सरकार निवेशकों का भरोसा जीतने में नाकाम साबित हुई है? या फिर इल्पसंख्यको की सुरक्षा । बीफ का सवाल । ट्रिपल तलाक . और देशभक्ति के मुद्दे में ही देश को सियासत जिस तरह उलझा रही है उसमें दुनिया की रुची है नहीं । ऐसे में निवेश के आसरे विकास का ककहरा पढ़ाने वाली मोदी सरकार के दौर में अगर कारोबारियों को ही रास्ता नहीं मिल रहा तो फिर विकास का रास्ता जाता कहां है। क्योकि एक तरफ नौकरी में राजनीतिक आरक्षण के लिये गुजरात में पाटिदार तो हरियाणा में जाट और महाराष्ट् में मराठा सडक पर संघर्ष कर रहा है । और दूसरी तरफ खबर है कि आईटी इंडस्ट्री में हो रहे आटोमेशन से रोजगार का संकट बढने वाला है ।
तो क्या देश में बेरोजगारी का सवाल सबसे बडा हो जायेगा । और इसकी जद में पहली बार शहरी प्रोपेशनल्स भी आ जायेगें । ये सवाल इसलिये क्योकि देश की तीन बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों की विकास दर पहली बार 10 फीसदी के नीचे पहुंच गई है। और अमेरिकन रिसर्च फर्म एचएफएस का आकलन है कि अगले पांच साल में आईटी सेक्टर में लो स्किल वाली करीब 6 लाख 40 हजार नौकरियां जा सकती हैं । और अगले 10 साल में मिडिल स्केल के आईटी प्रफेशनल्स की नौकरियो पर भी खतरे की घंटी बजने लगेगी । तो क्या जिस आईटी सेक्टर को लेकर ख्वाब संजोय गये उसपर खतरा है । और इसकी सबसे बडी वजह आटोमेशन है । यानी ऑटोमेशन की गाज लो स्किल कर्मचारियों पर सबसे ज्यादा पड़ेगी। और मिडिल लेवल के कर्मचारियों पर कम होते मुनाफे की मार पड़ना तय है। जिसके संकेत दिसंबर 2014 में उस वक्त मिल गए थे, जब टीसीएस ने 2700 से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी कर दी थी। इतना ही नहीं बैंगलुरु में बीते दो साल में 30 हजार से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी हुई है । तो क्या जिस स्टार्टअप और डिजिटल इंडिया के आसरे आईटी इंडस्ट्री में रोजगार पैदा करने का जिक्र हो रहा है वह भी ख्वाब रह जायेगा । क्योकि आईटी सेक्टर का विकास भी दूसरे क्षेत्रों
के विकास पर निर्भर है। और दुनिया के हालात बताते है कि रोबोटिक टेक्नोलॉजी ने मैन्यूफैक्चरिंग में पश्चिम के दरवाजे फिर खोल दिए हैं । यानी लोगो की जरुरत कम हो चली है । भारत के लिये ये खतरे की घंटी कही ज्यादा बडी इसलिये है क्योंकि -आईटी सेक्टर में बदलाव उस वक्त हो रहा है,जब भारत में बेरोजगारी संकट बढ़ रहा है।
Wednesday, October 19, 2016
राजनीतिक देशभक्ति की अंधेरगर्दी
ए दिल है मुश्किल रिलीज ना होने देने की देशभक्ति जब बालीवुड को डरा रही है । और ये सवाल जायज लग रहा है कि पाकिस्तानी कलाकारो को बालीवुड क्यों आने दिया जाये, जबकि पाकिस्तान आतंक की जननी है । तो अगला सवाल हर जहन में आना चाहिये कि क्या वाकई भारत सरकार का भी यही रुख है । यानी जो राजनीतिक देशभक्ति पाकिस्तानी आंतक को लेकर सडक पर हंगामा कर रही है उस राजनीतिक देशभक्ति तले बारत सरकार का रुख है क्या । तो देश का सच यही है कि प्रधानमंत्री मोदी चाहे ब्रिक्स में पाकिस्तान को आतंक की जननी कहें और सरहद से लगातार सीजफायर तोड़े जाने से लेकर तनाव की खबर आती रहें। लेकिन इस दौर सरहद पर सारी हालात जस के तस है यानी पुराने हालात सरीखे ही । मसलन , वाघा बार्डर पर अटारी के रास्ते , उरी में अमन सेतू के रास्ते और पूंछ रावलाकोट के चकन-द-बाग के रास्ते बीते 100 दिनों में ढाई हजार से ज्यादा पाकिस्तानी ट्रक भारत की सीमा में घुसे। इसी दौर में समझौता एक्सप्रेस से तीन हजार से ज्यादा पाकिस्तानी बाकायदा वीसा लेकर भारत आये ।
तो सदा-ए-सरहद यानी दिल्ली -लाहौर के बीच चलने वाली बस से दो सौ ज्यादा पाकिस्तानी उन्हीं 100 दिनो में भारत आये जब से आतंकी बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद से घाटी थमी हुई है । इतना ही 21 दिन पहले 28-29 सितंबर की जिस रात सर्जिकल अटैक हुआ । और सेना की तरफ से बकायदा ये कहा गया कि उरी हमले का बदला ले लिया गया है । तो 29 सितंबर को दिल्ली में जिस वक्त ये जानकारी दी जा रही थी उस वक्त उरी में ही अमन सेतु से पाकिसातन के 13 ट्रक भारत में घुस रहे थे । और भारत के भी 26 ट्रक 29 सितंबर को अमन सेतू के जरीये ही पाकिस्तान पहुंचे । यानी सरकार का कोई रुख पाकिस्तान के खिलाफ देशभक्ति की उस हुकांर को लेकर नहीं उभरा जो मुंबई की सड़क पर उभर रहा है । जबकि ढाई हजार ट्रको के आने से लाभ पाकिस्तान के 303 रजिस्टर्ड व्यापारियो को हुआ । वीजा लेकर भारत पहुंचे सैकडों पाकिस्तानी ने भारत के अस्पतालों में इलाज कराया । और इसी दौर में पाकिस्तान के गुजरांवाला से 86 बरस के मोहम्मद हुयैन भी विभाजन में बंटे अपने परिवार से मिलने 70 बरस बाद पहुंचे । और 1947 के बाद पहली बार राजौरी में अपने बंट चुके परिजनों से निलने नाजिर हुसैन पहुंचे । यानी सरहद पर जिन्दगी उसी रफ्तर से चल रही है जैसे सर्जिकल अटैक से पहले थी या उरी में सेना के हेडक्वाटर पर हमले पहले सी थी । और इससे इतर दिल्ली मुंबई की सडकों से लेकर राजनेताओं की जुबां और टेलीविजन स्क्रीन पर देशभक्ति सिलवर स्क्रीन से कही ज्यादा सिनेमाई हो चली है । तो अगला सवाल ये भी है कि क्या राजनीति करते हुये मौजूदा वक्त में सिस्टम को ही राजनीति हडप रही है या फिर अभिवयक्ति की स्वतंत्रता भी राजनीतिक ताकत की इच्छाशक्ति तले जा सिमटी है ।
ये सवाल इसलिये क्योकि या द किजिये आजादी के बाद आर्थिक संघर्ष से जुझते भारत की राजनीति जब दुनिया के सामने लडखडा रही थी तब भारत की स्वर्णिम संस्कृति-सभ्यता को सिनेमा ने ही दुनिया के सामने परोसा । खासकर मनोज कुमार की फिल्म पूरब और पश्चिम फिल्म में । और नेहरु के समाजवादी नजरिए से जब समाज में हताशा पनपी तो वामपंथी हो या तब के जनसंघी जो बात राजनीतिक तौर पर ना कह पाये उसे गुरुदत्त ने अपनी प्याजा में , ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ,गीत के जरीये कह दी ,। और तो और 9/11 घटना के बाद जब दुनिया सम्यताओं के संघर्ष में उलझा । अमेरिकी और यूरोपिय समाज में मुस्लिमो को लेकर उलझन पैदा हुई तो बालीवुड की फिल्म ने माई नेम इज खान में इस डॉयलग ने ही अमेरिकी समाज तक को राह दिखायी , माई नेम इज खान ष एंड आईिेएम नाट ए टैरर्रिजस्ट । इतना ही नहीं याद कीजिये फिल्म बंजरगी भाईजान का आखिरी दृश्य । पाकिस्तान के साथ खट्टे रिश्तों के बीच फिल्म के जरीये ही एलओसी की लकीर सिल्वर स्क्रीन पर बर्लिन की दिवार की तरह गिरती दिखी । और फिलम हैदर के जरीये तो आंतक में उल्झे कश्मीर के पीछे की तार तार होती सियासी बिसात को जिस तरह सिल्वर स्क्रीन पर उकेरा गया । उससे सवाल तो यही उभरे कि सिनेमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तले उन मुद्दो को उभारने की ताकत रखता है जिसपर राजनीति अकसर खुद उलझ जाती है या जनता को उलझा देती है । तो क्या अभिव्यक्ति के सश्कत और लोकप्रिय माद्यम पर हमला राजनीति साधने का नया नजरिया है ।वैसे राजनीति का ये हंगामा नया नही है । याद किजिये तो मराठी मानुष की थ्योरी तले एमएनएस ने एक वक्त अमिताभ बच्चन को भी निशाने पर लिया । हिन्दुत्व के राग तले शाहरुख खान को भी निशाने पर लिया था ।
यानी राजनीति साधने या राजनीतिक तौर पर लोकप्रिय होने की सियासत कोई नई नहीं है । लेकिन पहली बार बालीवुड को राष्ट्रवाद और देशभक्ति का पाठ जब राजनीतिक सत्ता ने पढाना शुरु किया । बकायदा रक्षा मंत्री पार्रिकर ने एक समारोह में अपने समर्थकों से कहा कि जो भी 'देश' के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए उसे बिल्कुल उसी तरह सबक़ सिखाने की ज़रूरत है जिस तरह उन्होंने देश केएक प्रसिद्ध अभिनेता को सिखाया.हालांकि उन्होंने आमिर ख़ान का नाम नहीं लिया था लेकिन उनका इशारा आमिर की ही तरफ़ था. यानी झटके में सत्ता के रुख ने विरोध के उन आधारो को मजबूती दे दी जो आधार राजनीति साधते हुये खुद को लाइम लाइट में लाने के लिये बालीवुड विरोध को हथियार बनाते रहे । यानी एक वक्त आमिक खान की अभिव्यक्ति पर राजनीतिक देशभक्ति भारी हुई तो उनकी फिल्म दंगल के रीलिज होने को लेकर सवाल उठे । और अब करण जौहर की पिल्म में पाकिस्तानी कलाकार है तो रीलिज ना होने देने के लिये राजनीतिक देशभक्ति सडक पर है ।तो मुश्किल ये धमकी नही है । मुश्किल तो ये है कि अंधेरे गली में जाती राजनीतिक देशभक्ति धीरे धीरे हर संवैधानिक संस्धान को भी खत्म करेगी । और देश में कानून के राज की जगह राजनीतिक राज ही देशभक्ति के नाम अंधेरेगर्दी ज्यादा मचायेगा ।
Monday, October 17, 2016
आतंक पर सिर्फ सवाल ही क्यों है मौजूदा दौर में?
दुनिया में आतंक का सवाल। देश में विकास का सवाल । यूपी में राम नाम का जाप । और सफलता की कुंजी सर्जिकल स्ट्राइक। जी, फिलहाल मोदी सरकार ने हर क्षेत्र की उस नब्ज को पकड़ा जिसमें दुनिया में आतंकवाद के सवाल पर भारत अगुवाई करें। तो देश में विकास के सवाल पर मोदी अगुवाई करते दिखें। और यूपी चुनाव में राम नाम का आसरा चुनावी राजनीति में नैया पार करा कर सत्ता दिला दें। और कोई कही सवाल करे तो सर्जिकल स्टाइक की चाबी हर किसी को दिखा दी जाये। वह भी संघ के स्वयंसेवक होने के नाम पर। तो क्या वाकई बेहतरीन सरकार चलाने की ट्रेनिंग के पीछे स्वयंसेवक होना है। या फिर पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने हर क्षेत्र के उस मर्म को समझा है, जिसे सीधे कहने से पहले के हर प्रधानमंत्री कतराते रहे। इसीलिये दुनिया ही नहीं देश और यूपी चुनाव तक में मोदी के इर्द गिर्द ही समूची दुनिया और समूची सियासत सिमटती दिख रही है। और ऐसी तस्वीरें दुनिया के मंच पर उभर रही है जो पहले देखने को नहीं मिलती थी। बिम्सटेक यानी 'द बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टरल टेक्निल एंड इकोनोमिक कोऑपरेशन' में मोदी हीबांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका और थाईलैंड की अगुवाई करते नजर आ रहे है तो ब्रिक्स में मोदी के उठाये आंतकवाद के सवाल पर हर देश का ठप्पा अपनी जरुरत के मुताबिक है। तो क्या वाकई सर्जिकल अटैक ने भारत को दुनिया के सामने ऐसे ऐसे ताकतवर देश के तौर पर रख दिया है जिसमें मंच पर वाह वाही दिखायी देने लगी है। या फिर जिस रास्ते मोदी निकल पड़े है उसमें देश दुनिया और यूपी में ही नयी चुनौती उभर सकती है। क्योंकि ब्रिक्स में आंतकवाद शब्द है लेकिन ना हाफिज सईद है ना अजहर मसूद। यानी लशकर और जैश पाकिसातन की जमीन पर काम कर रहे है इसकी चिंता ब्रिक्स देशों को नहीं बल्कि चिता इस्लामिक आंतकवादी संगठन आईएस की है जिसके आतंक से भारत नहीं बल्कि यूरोप, अमेरिका ज्यादा परेशान है। तो क्या सरकार सिर्फ रणनीतिक तौर पर सफल है।
यानी ये सोच सोच कर खुश है कि पाकिस्तान को उसने अलग थलग कर दिया या फिर पहली बार मोदी सरकार कोई अलग थलग रास्ता तलाशने की जुटी है। और देश में राष्ट्रवाद की हवा में राजनीति घुल रही है। क्योंकि व्यापार हो या पानी या कूटनीति। भारत पाकिस्तान के बीच कोई दरवाजा बंद नहीं हुआ है। और युद्द कोई रास्ता नहीं है । इसे हर देश मान रहा है। तो क्या देश दुनिया या यूपी चुनाव का चक्रव्यूह सियासत के लिये एक सरीखा है। क्योंकि दुनिया के मंच पर आतंकवाद का सवाल पाकिस्तान और सीरिया तले टकराता है। जहां अमेरिका अब एल्प्पो शहर को लेकर रुस से ही दो दो हाथ करने को तैयार है । तो देश के भीतर सत्ता का संघर्ष विकास के राग और राम नाम के नारे तले टकराता है । और अब हर किसी को इताजार है कि वाजपेयी के जन्म दिन यानी 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी के लखनऊ रैली का। वहां मोदी किस मुद्दे के लिये कौन सी कुंजी का इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि पिछले बरस प्रधानमंत्री मोदी 25 दिसंबर को लाहौर में थे। और नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई दे रहे थे। और इस बरस यूपी चनाव के मुहाने पर देश की राजनीति जा खड़ी हुई है तो 25 दिसंबर को मोदी लखनऊ में होंगे। को क्या वाकई सियासत ही हर मुद्दे को निर्धारित रती है। क्योंकि सिर्फ भारत ही नही बल्कि दुनिया के ताकतवर देश भी आतंकवाद के मुद्दे पर टकरा भी हे है और गलबहियां भी डाल रहे हैं। क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन ने रुस और सीरिया को चेतावनी दी है कि अगर उसने एलप्पो शहर पर बमबारी जारी रखी तो वह उनके खिलाफ नए आर्थिक प्रतिबंध लगा देंगे। तो पाकिस्तान में सक्रिय आंतकवादी संगठनों का नाम ब्रिक्स में ना आये इसके लिये चीन ने भारत के सामने अपना दबदबा दिखा दिया।
और उससे पहले अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकी देश मानने से इंकार कर दिया। तो अमेरिका भारत के कितना खड़ा है और जब अमेरिका रुस एलप्पो पर टकरायेंगे तब भारत का नजरिया होगा क्या। क्योंकि रुस के साथ भारत ने ब्रिक्स में कई समझौते किये तो चीन ने पाकिस्तान के साथ कई नये आर्थिक समझौतो का जिक्र किया। और इन हालातो के बीच -भारत सार्क के विक्ल्प के तौर पर बिम्सटेक को देख रहा है। तो पाकिस्तान सार्क के विक्लप के तौर पर ईरान समेत सेन्ट्रल एशियाई देशो को एकजुट कर रहा है। तो क्या मौजूदा दौर दुनिया में टकराव का नया चेहरा है। और युद्द सरीखी उन लकीरो की जड़ में आतंकवाद भी है और हथियारों का बिजनेस भी। और नयी विश्व व्यवस्था बनाने की कवायद भी । जिसके केन्द्र में भारत भी जा फंसा है। क्योंकि एक तरफ लग रहा है दुनिया आतंकवाद के सवाल पर बंट रही है। तो दूसरी तरफ लग रहा है पहली बार आतंकवाद को परिभाषित करने से बच रही है । क्योंकि पीएम बनने के बाद पहली बार मोदी ने आतंकवाद के सवाल पर यून में यूएन को ही घेरा था। और दो करीब दो बरस बाद जब ब्रिक्स में चीन-रुस की मौजूदगी में पाकिस्तान की जमीन पर पनपते आतंकवाद का जिक्र किया तो भारत को उम्मीद मुताबिक समर्थन नहीं मिला । क्योंकि समिट के बाद जारी संयुक्त घोषणापत्र में कहीं भी क्रॉस बॉर्डर टेरेरिज्म यानी सीमा पार आतंकवाद का जिक्र नहीं है । कहीं भी जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों का जिक्र नहीं है । जबकि इस्लामिल स्टेट, अल कायदा और सीरिया के जुबहत अल नुस्र का जिक्र है । इतना ही नहीं, जिस पुराने दोस्त रुस के साथ भारत ने 39 हजार करोड़ के रक्षा समझौते किए। उस रुस ने अपने बयान में आतंकवाद शब्द का ही जिक्र नहीं किया। चीन ने कश्मीर समस्या के राजनीतिक समाधान की जरुरत बतायी । ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका और ब्रिटेन अब रुस से कह रहे है कि एल्प्पो का राजनीतिक समाधान होना चाहिये। इसके लिये संघर्षविराम कर जेनेवा टेबल पर बातचीत के लिये रुस को आना चाहिये । और रुस ने इसी दौर में पाकिस्तान को हथियार न बेचने की अपनी स्वघोषित नीति खत्म कर दी है, और इसीलिए पहली बार पाक सेना के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किया । तो क्या आतंकवाद का सवाल ही दुनिया को आंतकवाद को खत्म करने के लिये आपस में लड़ायेगा। शायद दुनिया के सामने ये नया सवाल है । लेकिन भारत के सामने सवाल तो अपना ही है । और पीएम मोदी किस रास्ते को पकडेगें ये अब महत्वपूर्ण हो चला है । क्योंकि राष्ट्रवाद से पेट नहीं भरता । और आर्थिक सुधार के बाद 1991 के बाद से ही देश को ट्रेनिंग यही दी गई कि इक्नामी पुख्ता होनी चाहिये। जिसकी कोई सरहद नहीं होती । ध्यान दें तो अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, रुस , फ्रास सभी आंतकवाद के सवाल का जिक्र करते हुये भी अपनी अर्थव्यस्था को लेकर ही स्टैंड ले रहे है । ऐसे में भारत के सामने बडी मुशकिल चीन को लेकर भी है । क्योकि पहली बार इक्नामी और राष्ट्रवाद के बीच मोटी लकीर भी खिंच रही है । एक तरफ भारत में चार लाख करोड का चीनी माल हर बरस आता है । और दूसरा सच ये है कि आतंकवादी देश पाकिस्तान के साथ जब तक चीन खडा है,भारत के सामने अंतरराष्ट्रीय मंच पर क्या मुश्किल आ रही है ये यूएन से लेकर ब्रिक्स तक में सामने आ गया ।
तो ऐसे में चीन का जो विरोध सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है । जो तमाम ट्वीट और पोस्ट इस दिवाली पर चीन का माल न खरीदने की अपील के साथ की जा रही है और हैशटैग बॉयकॉट चाइना टॉप ट्रेंडिंग टॉपिक मे शुमार होता दिख रहा है । उसका मतलब है कितना। क्योंकि सच यह है कि चीन के सामान के बहिष्कार की कोई सरकारी नीति नहीं है। अलबत्ता विदेशी निवेश और चकाचौंध के घोड़े पर सवार प्रधानमंत्री मोदी की
नीति में चीन अहम कारोबारी साझेदार है। मोदी रेलवे, उत्पादन और स्मार्ट शहरों में चीनी निवेश को बढ़कर गले लगा रहे हैं। आलम ये कि -सिर्फ इस साल चीन का भारत में निवेश बीते एक दशक में हुए 40 करोड़ डॉलर के निवेश से दोगुना था। तो सरकार ना तो चीन के निवेश को रोक रही है ना निर्यात को । लेकिन आम लोग गुस्से में है तो फिर रास्ता जाता कहां है। और जहां रास्ता है वहा की तैयारी भारत में है नहीं । मसलन । करेंसी कमजोर है । दुनिया के बाजार में भारत का माल टिकता नहीं है ।शिक्षा, हेल्थ, इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर खेती के रिसर्च तक में चीनी दखल है । तो स्वालबंन के आसरे देश मजबूत होगा या गुस्से के आसरे । तय तो करना होगा नहीं तो राष्ट्रवाद को इक्नामी हरा देगी। और आतंकवाद का सवाल सियासत की भेंट चढ जायेगा।
यानी ये सोच सोच कर खुश है कि पाकिस्तान को उसने अलग थलग कर दिया या फिर पहली बार मोदी सरकार कोई अलग थलग रास्ता तलाशने की जुटी है। और देश में राष्ट्रवाद की हवा में राजनीति घुल रही है। क्योंकि व्यापार हो या पानी या कूटनीति। भारत पाकिस्तान के बीच कोई दरवाजा बंद नहीं हुआ है। और युद्द कोई रास्ता नहीं है । इसे हर देश मान रहा है। तो क्या देश दुनिया या यूपी चुनाव का चक्रव्यूह सियासत के लिये एक सरीखा है। क्योंकि दुनिया के मंच पर आतंकवाद का सवाल पाकिस्तान और सीरिया तले टकराता है। जहां अमेरिका अब एल्प्पो शहर को लेकर रुस से ही दो दो हाथ करने को तैयार है । तो देश के भीतर सत्ता का संघर्ष विकास के राग और राम नाम के नारे तले टकराता है । और अब हर किसी को इताजार है कि वाजपेयी के जन्म दिन यानी 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी के लखनऊ रैली का। वहां मोदी किस मुद्दे के लिये कौन सी कुंजी का इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि पिछले बरस प्रधानमंत्री मोदी 25 दिसंबर को लाहौर में थे। और नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई दे रहे थे। और इस बरस यूपी चनाव के मुहाने पर देश की राजनीति जा खड़ी हुई है तो 25 दिसंबर को मोदी लखनऊ में होंगे। को क्या वाकई सियासत ही हर मुद्दे को निर्धारित रती है। क्योंकि सिर्फ भारत ही नही बल्कि दुनिया के ताकतवर देश भी आतंकवाद के मुद्दे पर टकरा भी हे है और गलबहियां भी डाल रहे हैं। क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन ने रुस और सीरिया को चेतावनी दी है कि अगर उसने एलप्पो शहर पर बमबारी जारी रखी तो वह उनके खिलाफ नए आर्थिक प्रतिबंध लगा देंगे। तो पाकिस्तान में सक्रिय आंतकवादी संगठनों का नाम ब्रिक्स में ना आये इसके लिये चीन ने भारत के सामने अपना दबदबा दिखा दिया।
और उससे पहले अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकी देश मानने से इंकार कर दिया। तो अमेरिका भारत के कितना खड़ा है और जब अमेरिका रुस एलप्पो पर टकरायेंगे तब भारत का नजरिया होगा क्या। क्योंकि रुस के साथ भारत ने ब्रिक्स में कई समझौते किये तो चीन ने पाकिस्तान के साथ कई नये आर्थिक समझौतो का जिक्र किया। और इन हालातो के बीच -भारत सार्क के विक्ल्प के तौर पर बिम्सटेक को देख रहा है। तो पाकिस्तान सार्क के विक्लप के तौर पर ईरान समेत सेन्ट्रल एशियाई देशो को एकजुट कर रहा है। तो क्या मौजूदा दौर दुनिया में टकराव का नया चेहरा है। और युद्द सरीखी उन लकीरो की जड़ में आतंकवाद भी है और हथियारों का बिजनेस भी। और नयी विश्व व्यवस्था बनाने की कवायद भी । जिसके केन्द्र में भारत भी जा फंसा है। क्योंकि एक तरफ लग रहा है दुनिया आतंकवाद के सवाल पर बंट रही है। तो दूसरी तरफ लग रहा है पहली बार आतंकवाद को परिभाषित करने से बच रही है । क्योंकि पीएम बनने के बाद पहली बार मोदी ने आतंकवाद के सवाल पर यून में यूएन को ही घेरा था। और दो करीब दो बरस बाद जब ब्रिक्स में चीन-रुस की मौजूदगी में पाकिस्तान की जमीन पर पनपते आतंकवाद का जिक्र किया तो भारत को उम्मीद मुताबिक समर्थन नहीं मिला । क्योंकि समिट के बाद जारी संयुक्त घोषणापत्र में कहीं भी क्रॉस बॉर्डर टेरेरिज्म यानी सीमा पार आतंकवाद का जिक्र नहीं है । कहीं भी जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों का जिक्र नहीं है । जबकि इस्लामिल स्टेट, अल कायदा और सीरिया के जुबहत अल नुस्र का जिक्र है । इतना ही नहीं, जिस पुराने दोस्त रुस के साथ भारत ने 39 हजार करोड़ के रक्षा समझौते किए। उस रुस ने अपने बयान में आतंकवाद शब्द का ही जिक्र नहीं किया। चीन ने कश्मीर समस्या के राजनीतिक समाधान की जरुरत बतायी । ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका और ब्रिटेन अब रुस से कह रहे है कि एल्प्पो का राजनीतिक समाधान होना चाहिये। इसके लिये संघर्षविराम कर जेनेवा टेबल पर बातचीत के लिये रुस को आना चाहिये । और रुस ने इसी दौर में पाकिस्तान को हथियार न बेचने की अपनी स्वघोषित नीति खत्म कर दी है, और इसीलिए पहली बार पाक सेना के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किया । तो क्या आतंकवाद का सवाल ही दुनिया को आंतकवाद को खत्म करने के लिये आपस में लड़ायेगा। शायद दुनिया के सामने ये नया सवाल है । लेकिन भारत के सामने सवाल तो अपना ही है । और पीएम मोदी किस रास्ते को पकडेगें ये अब महत्वपूर्ण हो चला है । क्योंकि राष्ट्रवाद से पेट नहीं भरता । और आर्थिक सुधार के बाद 1991 के बाद से ही देश को ट्रेनिंग यही दी गई कि इक्नामी पुख्ता होनी चाहिये। जिसकी कोई सरहद नहीं होती । ध्यान दें तो अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, रुस , फ्रास सभी आंतकवाद के सवाल का जिक्र करते हुये भी अपनी अर्थव्यस्था को लेकर ही स्टैंड ले रहे है । ऐसे में भारत के सामने बडी मुशकिल चीन को लेकर भी है । क्योकि पहली बार इक्नामी और राष्ट्रवाद के बीच मोटी लकीर भी खिंच रही है । एक तरफ भारत में चार लाख करोड का चीनी माल हर बरस आता है । और दूसरा सच ये है कि आतंकवादी देश पाकिस्तान के साथ जब तक चीन खडा है,भारत के सामने अंतरराष्ट्रीय मंच पर क्या मुश्किल आ रही है ये यूएन से लेकर ब्रिक्स तक में सामने आ गया ।
तो ऐसे में चीन का जो विरोध सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है । जो तमाम ट्वीट और पोस्ट इस दिवाली पर चीन का माल न खरीदने की अपील के साथ की जा रही है और हैशटैग बॉयकॉट चाइना टॉप ट्रेंडिंग टॉपिक मे शुमार होता दिख रहा है । उसका मतलब है कितना। क्योंकि सच यह है कि चीन के सामान के बहिष्कार की कोई सरकारी नीति नहीं है। अलबत्ता विदेशी निवेश और चकाचौंध के घोड़े पर सवार प्रधानमंत्री मोदी की
नीति में चीन अहम कारोबारी साझेदार है। मोदी रेलवे, उत्पादन और स्मार्ट शहरों में चीनी निवेश को बढ़कर गले लगा रहे हैं। आलम ये कि -सिर्फ इस साल चीन का भारत में निवेश बीते एक दशक में हुए 40 करोड़ डॉलर के निवेश से दोगुना था। तो सरकार ना तो चीन के निवेश को रोक रही है ना निर्यात को । लेकिन आम लोग गुस्से में है तो फिर रास्ता जाता कहां है। और जहां रास्ता है वहा की तैयारी भारत में है नहीं । मसलन । करेंसी कमजोर है । दुनिया के बाजार में भारत का माल टिकता नहीं है ।शिक्षा, हेल्थ, इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर खेती के रिसर्च तक में चीनी दखल है । तो स्वालबंन के आसरे देश मजबूत होगा या गुस्से के आसरे । तय तो करना होगा नहीं तो राष्ट्रवाद को इक्नामी हरा देगी। और आतंकवाद का सवाल सियासत की भेंट चढ जायेगा।
Saturday, October 1, 2016
राहिल की बिसात पर वजीर से प्यादा हो रहे है नवाज
सत्ता पलट के हालात बन रहे है पाकिस्तान में ?
तो पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ दो महीने बाद 26 नवंबर को रिटायर होंगे और नवाज शरीफ की सत्ता की उम्र अभी पौने दो बरस बची हुई है । और इन दोनों के बीच सेना के पांच अफसर ऐसे हैं, जिनमें से कोई एक नवंबर के बाद पाकिस्तान का जनरल हो जायेगा । लेकिन ये कहानी सच्ची तो है लेकिन अच्छी नही लगती । क्योंकि पाकिस्तान में सत्ता यूं ही बदलती और कोई सामान्य तरीके से कोई रिटायर भी नहीं होता । तो जो कहानी सच्ची नहीं होती वह पाकिस्तान को लेकर अच्ची लगती है । और इस कहानी में असल पेंच आ फंसा है भारत का सर्जिकल आपरेशन । भारत के चार धंटे के इस आपरेशन ने पाकिस्तान के सियासी और सेना के इतिहास को ही उलट पलट दिया है । और पहली बार दोनों शरीफ पाकिस्तान के बीतर ही इस तरह कटघरे में आ खड़े हुये हैं कि अब दोनों को ये तय करना है कि साथ मिलकर चले या फिर एक दूसरे को शह मात देने की बिसात बिछा लें । और पाकिस्तान के हालात शह मात की बिसात में जाने लगे है । क्योंकि कैबिनेट की बैठक में नवाज अपने ही मंत्रियो को ये भरोसा ना दिला पाये कि वह चाहेंगे तो सेना कूच कर जायेगी । और दूसरी तरफ राहिल शरीफ रावलपिंडी में अपने सैनिक अधिकारियों को इस भरोसे मही लेने में लगे रहे कि सेना तभी कूच करती है जब उसे पता हो जाये कि जीत उसकी होगी ।
यानी नवाज शरीफ के कहने पर सेना चल नहीं रही है और नवाज शरीफ की बिसात राहिल शरीफ के रिटायरमेंट के बाद अपनी पसंद के अधिकारी को जनरल के पद पर बैठाने की है । यानी भारत के इस सर्जिकल आपरेशन ने पाकिसातन के भीतर के उस सच को सतह पर ला दिया है जिसे आंतकवाद से लडने ऐऔर कश्मीर के नाम पर अभी तक सत्ता सेना संभाले नवाज और राहिल किसी शरीफ की तरह ही नजर आ रहे थे । यानी नये हालात में तीन सवाल पाकिस्तान में गूंजने लगे है । पहला, राहिल रिटायरमेंट पसंद कर किसी सरकारी कारपोरेशन में सीईओ का पद लेना चाहेंगे । दूसरा, राहिल मुशर्ऱफ की राह पर निकल कर खुद सत्ता संभालने और अपने पसंदीदा को जनरल की कुर्सी पर बैठेंगे । तीसरा, नवाज शरीफ किसी भी हालात में सेना को सियासत से दूर करने के लिये युद्द में झोकना पंसद करेगें । यानी तरकीबी दोनों तरफ से चली जायेगी । और चली जा रही है । नवाज शरीफ के सामने दो बरस का वक्त अभी भी है लेकिन जिस तरह भुट्टो की पीपीपी और इमरान की पार्टी राहिल शरीफ के दंघो पर चढकर अब सत्ता पाने का ख्वाबा देखने लगी है वह नवाज के लिये खतरे की घंटी है क्योंकि नवाज के विरोधी अब पाकिस्तान की अवाम की भावनाओं के साथ सेना या कहे राहिल शरीफ को करीब बता रहे है और भारत के सर्जिकल अटैक के पीछे सेना की असफलता को ना कहकर नवाज की असफलता ही बता रहे है । यानी मोदी से नवाज की यारी भी पाकिसातन में नवाज शरीफ पर खतरे के बादल मंडराने लगी है । और राहिल शरीफ की बिसात पर वजीर नवाज कब प्यादा बना दिये जा सकते है इसका इंतजार सेना-सियासत दोनों करने लगे है । तो क्या पाकिस्तान में हालात ऐसे बन रहे हैं कि सत्ता पलट हो सकता है। ये सवाल इसलिए क्योंकि पाकिस्तान में सत्ता पलट का इतिहास है, और हर बार जब लोकतांत्रिक सरकार कुछ कमजोर होती है या पिर सत्ता पूरी तरह सेना की कारारवाई पर ही आ टिकती है तो सेना सीधे सत्ता संभालने से नहीं कतराती और फिलहाल पाकिसातन का रास्ता इसी दिशा में जा रहा है ।
क्योकि बीते 48 घंटो में नवाज शरीफ ने राहिल शरीफ के अलावे पाकिसातन में जिन दो अधिकारियों से संपर्क साधा वह दोनो जनरल बनने की रेस में है । और इन्हीं दोनों को रावलपिंडी में राहिल शरीफ ने अफगालनिस्तान की सीमा से भारत की सीमा यानी लाइन आफ कन्ट्रोल की दिशा में भजे जा रहे सैनिकों की निगरानी के निर्देश भी दिये है र बाकि तीन जो जनरल की रेस में है उन्हें भी राहिल शरीफ ने बीतते 48 घंटो में अपनी तीन बैठको में बुलाया । तो पाकिस्तान के भीतर सेना की हलचल बता रही है कि भारत के खिलाफ कोई भी कार्रवाई को वह राहिल शरीफ की बिसात पर करेगी ना कि नवाज शरीफ के सियासी फैसले पर । इसीलिये इकबाल रानाडे की निगरानी में इफगान बार्डर से एलओसी में ट्रांसफर किये जारहे सैनिको की अगुवाई का काम सौपा गया है । इकबाल ट्रिपलएक्सआई कोर्प्स के कमांडर हैं, 2009 में अफगानिस्ता सीमा के पास स्वात घाटी में पाकिस्तानी तालिबानी आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन को लीड किया। वही राहिल का परिवार जिस तरह सेना में रहा है उसमें जुबैर हयात का परिवार भी सेना में रहा है तो उनकी निगरानी में एलओसी की हरकत है । जुबैर हयात न केवल खुद लेफ्टिनेंट जनरल हैं उनके पिता मेजर जनरल असलम हयात नामी शख्सियतों में एक रहे। और राहिल शरीफ के चाचा के साथ सेना में रहे है । महत्वपूर्ण है कि नवाज शरीफ अज अपनी कैबिनटे में हालात को बताते हुये सेना के बारे में सिर्फ यही कह पाये कि संसद के विशेष सत्र में सारी जानकारी हर राजनीतिक दल और देश के सामने रखेंगे । यानी जो मूवमेंट पाकिस्तानी सेना के भीतर हो रहे हैं, उसे नवाज शरीफ या तो बता नहीं पा रहे है या फिर सर्जिकल अटैक के बाद सेना और सत्ता में ये दूरी आ गई है कि अब सफलता के लिये दोनो ही अपनी अपनी बिसात बिछा रहे है । इसीलिये पाकिसातन के कराची और रावलपिंडी के न्यूक्लियर प्लांट पर निगरानी का काम मजहर जामिल देख रहे रहे है । ये वही शख्स है जो करगिल के दौर में पाकिस्तान के न्यूक्किल कॉप्लेक्स देखते थे ।और तब मुशर्रफ के सत्ता पलट के दौर में ये नवाज शरीफ को कोई सूचना देने से पहले सेना हेडक्वार्टर के करीब रहे । तो नया सवाल ये भी है कि पाकिस्तान की सेना अगर एलओसी पर सक्रिय हो रही है तो फिर हमले या किसी कार्रवाई का निर्देश कौन देगा । या किस निर्देश को सेना मानेगी। और पाकिस्तान के भीतर की हलचल भारत में क्या असर डालेगी । ये सारे सवाल उस युद्द की ही दस्तक दे रहे है जिसे दुनिया नहीं चाहती है।
तो पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ दो महीने बाद 26 नवंबर को रिटायर होंगे और नवाज शरीफ की सत्ता की उम्र अभी पौने दो बरस बची हुई है । और इन दोनों के बीच सेना के पांच अफसर ऐसे हैं, जिनमें से कोई एक नवंबर के बाद पाकिस्तान का जनरल हो जायेगा । लेकिन ये कहानी सच्ची तो है लेकिन अच्छी नही लगती । क्योंकि पाकिस्तान में सत्ता यूं ही बदलती और कोई सामान्य तरीके से कोई रिटायर भी नहीं होता । तो जो कहानी सच्ची नहीं होती वह पाकिस्तान को लेकर अच्ची लगती है । और इस कहानी में असल पेंच आ फंसा है भारत का सर्जिकल आपरेशन । भारत के चार धंटे के इस आपरेशन ने पाकिस्तान के सियासी और सेना के इतिहास को ही उलट पलट दिया है । और पहली बार दोनों शरीफ पाकिस्तान के बीतर ही इस तरह कटघरे में आ खड़े हुये हैं कि अब दोनों को ये तय करना है कि साथ मिलकर चले या फिर एक दूसरे को शह मात देने की बिसात बिछा लें । और पाकिस्तान के हालात शह मात की बिसात में जाने लगे है । क्योंकि कैबिनेट की बैठक में नवाज अपने ही मंत्रियो को ये भरोसा ना दिला पाये कि वह चाहेंगे तो सेना कूच कर जायेगी । और दूसरी तरफ राहिल शरीफ रावलपिंडी में अपने सैनिक अधिकारियों को इस भरोसे मही लेने में लगे रहे कि सेना तभी कूच करती है जब उसे पता हो जाये कि जीत उसकी होगी ।
यानी नवाज शरीफ के कहने पर सेना चल नहीं रही है और नवाज शरीफ की बिसात राहिल शरीफ के रिटायरमेंट के बाद अपनी पसंद के अधिकारी को जनरल के पद पर बैठाने की है । यानी भारत के इस सर्जिकल आपरेशन ने पाकिसातन के भीतर के उस सच को सतह पर ला दिया है जिसे आंतकवाद से लडने ऐऔर कश्मीर के नाम पर अभी तक सत्ता सेना संभाले नवाज और राहिल किसी शरीफ की तरह ही नजर आ रहे थे । यानी नये हालात में तीन सवाल पाकिस्तान में गूंजने लगे है । पहला, राहिल रिटायरमेंट पसंद कर किसी सरकारी कारपोरेशन में सीईओ का पद लेना चाहेंगे । दूसरा, राहिल मुशर्ऱफ की राह पर निकल कर खुद सत्ता संभालने और अपने पसंदीदा को जनरल की कुर्सी पर बैठेंगे । तीसरा, नवाज शरीफ किसी भी हालात में सेना को सियासत से दूर करने के लिये युद्द में झोकना पंसद करेगें । यानी तरकीबी दोनों तरफ से चली जायेगी । और चली जा रही है । नवाज शरीफ के सामने दो बरस का वक्त अभी भी है लेकिन जिस तरह भुट्टो की पीपीपी और इमरान की पार्टी राहिल शरीफ के दंघो पर चढकर अब सत्ता पाने का ख्वाबा देखने लगी है वह नवाज के लिये खतरे की घंटी है क्योंकि नवाज के विरोधी अब पाकिस्तान की अवाम की भावनाओं के साथ सेना या कहे राहिल शरीफ को करीब बता रहे है और भारत के सर्जिकल अटैक के पीछे सेना की असफलता को ना कहकर नवाज की असफलता ही बता रहे है । यानी मोदी से नवाज की यारी भी पाकिसातन में नवाज शरीफ पर खतरे के बादल मंडराने लगी है । और राहिल शरीफ की बिसात पर वजीर नवाज कब प्यादा बना दिये जा सकते है इसका इंतजार सेना-सियासत दोनों करने लगे है । तो क्या पाकिस्तान में हालात ऐसे बन रहे हैं कि सत्ता पलट हो सकता है। ये सवाल इसलिए क्योंकि पाकिस्तान में सत्ता पलट का इतिहास है, और हर बार जब लोकतांत्रिक सरकार कुछ कमजोर होती है या पिर सत्ता पूरी तरह सेना की कारारवाई पर ही आ टिकती है तो सेना सीधे सत्ता संभालने से नहीं कतराती और फिलहाल पाकिसातन का रास्ता इसी दिशा में जा रहा है ।
क्योकि बीते 48 घंटो में नवाज शरीफ ने राहिल शरीफ के अलावे पाकिसातन में जिन दो अधिकारियों से संपर्क साधा वह दोनो जनरल बनने की रेस में है । और इन्हीं दोनों को रावलपिंडी में राहिल शरीफ ने अफगालनिस्तान की सीमा से भारत की सीमा यानी लाइन आफ कन्ट्रोल की दिशा में भजे जा रहे सैनिकों की निगरानी के निर्देश भी दिये है र बाकि तीन जो जनरल की रेस में है उन्हें भी राहिल शरीफ ने बीतते 48 घंटो में अपनी तीन बैठको में बुलाया । तो पाकिस्तान के भीतर सेना की हलचल बता रही है कि भारत के खिलाफ कोई भी कार्रवाई को वह राहिल शरीफ की बिसात पर करेगी ना कि नवाज शरीफ के सियासी फैसले पर । इसीलिये इकबाल रानाडे की निगरानी में इफगान बार्डर से एलओसी में ट्रांसफर किये जारहे सैनिको की अगुवाई का काम सौपा गया है । इकबाल ट्रिपलएक्सआई कोर्प्स के कमांडर हैं, 2009 में अफगानिस्ता सीमा के पास स्वात घाटी में पाकिस्तानी तालिबानी आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन को लीड किया। वही राहिल का परिवार जिस तरह सेना में रहा है उसमें जुबैर हयात का परिवार भी सेना में रहा है तो उनकी निगरानी में एलओसी की हरकत है । जुबैर हयात न केवल खुद लेफ्टिनेंट जनरल हैं उनके पिता मेजर जनरल असलम हयात नामी शख्सियतों में एक रहे। और राहिल शरीफ के चाचा के साथ सेना में रहे है । महत्वपूर्ण है कि नवाज शरीफ अज अपनी कैबिनटे में हालात को बताते हुये सेना के बारे में सिर्फ यही कह पाये कि संसद के विशेष सत्र में सारी जानकारी हर राजनीतिक दल और देश के सामने रखेंगे । यानी जो मूवमेंट पाकिस्तानी सेना के भीतर हो रहे हैं, उसे नवाज शरीफ या तो बता नहीं पा रहे है या फिर सर्जिकल अटैक के बाद सेना और सत्ता में ये दूरी आ गई है कि अब सफलता के लिये दोनो ही अपनी अपनी बिसात बिछा रहे है । इसीलिये पाकिसातन के कराची और रावलपिंडी के न्यूक्लियर प्लांट पर निगरानी का काम मजहर जामिल देख रहे रहे है । ये वही शख्स है जो करगिल के दौर में पाकिस्तान के न्यूक्किल कॉप्लेक्स देखते थे ।और तब मुशर्रफ के सत्ता पलट के दौर में ये नवाज शरीफ को कोई सूचना देने से पहले सेना हेडक्वार्टर के करीब रहे । तो नया सवाल ये भी है कि पाकिस्तान की सेना अगर एलओसी पर सक्रिय हो रही है तो फिर हमले या किसी कार्रवाई का निर्देश कौन देगा । या किस निर्देश को सेना मानेगी। और पाकिस्तान के भीतर की हलचल भारत में क्या असर डालेगी । ये सारे सवाल उस युद्द की ही दस्तक दे रहे है जिसे दुनिया नहीं चाहती है।