Tuesday, November 29, 2016

एकला चलकर बनेंगे मिस्टर क्लीन !

29 सितंबर सर्जिकल अटैक के बाद सीमा पर 26 जवान शहीद हो चुके हैं। 8 नवंबर, नोटबंदी के बाद कतार में सौ मौत हो चुकी हैं। 28 नवंबर कालेधन पर 50 फिसदी टैक्स देकर बचा जा सकता है। 29 नवबंर यानी आज बीजेपी के तमाम सांसद-विधायक अपने बैक स्टेटमेंट पार्टी अध्यक्ष को सौंपकर ईमानदारी के महापर्व में शामिल हो जायें। तो क्या वाकई प्रधानमंत्री मोदी मिस्टर क्लीन की भूमिका में आ चुके हैं और इसीलिये दागी सांसदों की भरमार वाली संसद में प्रधानमंत्री अब जाना नहीं चाहते हैं और देश में कानून बनाने के जो प्रवधान संसद में बहस और तर्को के आसरे लोकतंत्र के मंदिर की साख बनाये रखती है वह अब सिर्फ औपचारिकता बची है।

तो क्या पीएम मोदी लोकतंत्र की पारंपरिक राग को खारिज कर एकला चलो रे के रास्ते निकल पड़े हैं। क्योंकि उनके पास पूर्ण बहुमत है। और विपक्ष कमजोर है। यानी जैसे पचास दिन नोटबंदी के वैसे ही सरकार कैसे भी चलाये इसके लिये पांच बरस। तो बीच में कोई बहस कोई चर्चा क्यों हो। यानी ये सवाल करें कौन कि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सीमा पर हालात बदतर क्यों हुये। ये सवाल करे कौन कि अपनी ही करेंसी के इस्तेमाल पर रोक कैसे लग सकती है। ये सवाल कौन करे कि देश को लूट कर आधी रकम टैक्स में देने का ये कौन सा कानून है। यानी सजा का प्रावधान अब खत्म हो गया। और ये सवाल करे कौन कि सांसदों की कमाई देश के किसी भी नागरिको की तुलना में सौ फिसदी से ज्यादा तेजी से बढ़ कैसे जाती है। यानी आजादी के बाद पाकिस्तान और कालेधन का सवाल जिस तरह देश में नासूर बनता चला गया और नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक कै दौर में दोनों सवालों से हर सत्ता जुढती रही उसमें पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने इन्हीं दो सवालों से जनता को सीधे जोडकर संसद और संसदीय राजनीति के उस लोकतंत्र को ही ठेंगा दिखा दिया है, जिसे लेकर जनता ये हमेशा सोचती रही कि कोई सत्ता जब इसे सुलझा नहीं पाती तो फिर सत्ता का मतलब क्या हो। क्या ये माना जाये कि जन भावनाओं को साथ लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता चलाने के संसदीय लोकतंत्र को अपनी मुठ्ठी में कैद तो नहीं कर लिया। या फिर सत्ता के लिये संजीवनी इसी निरकुंश कार्रवाई में छिपी है। क्योंकि लग ऐसा रहा है जैसे भ्रष्ट राजनीति दरकिनार हो रही है और मोदी विरोध के राजनीतिक स्वर सिवाय सत्ता के लिये छटपटाते विपक्ष के अलावे और कुछ भी नहीं है। तो आईये जरा परख लें देश में क्या वाकई प्लेइंग फील्ड हर किसी के लिये बराबरी का है या फिर नया खतरा संविधान को भी सत्ता के जरीये परिभाषित करने का है। क्योंकि लोकसभा के सांसदों को ही परख लें।

2009 में लोकसभा के 543 सांसदों की कुल संपत्ति अगर 30 अरब 75 करोड़ रुपये थी। तो मौजूदा लोकसभा के 543 सांसदों की कुल संपत्ति 65 अरब रुपये है। यानी आजाद भारत की सबसे रईस संसद। जहां के मुखिया प्रधानमंत्री मोदी देश में अर्थक्रंति लाना चाहते है तो तमाम सांसदों को देश की गरीब जनता की फिक्र है। तो जनता और देश की फिक्र हर किसी को है लेकिन समूची संसद ही इस सच पर हमेशा मौन रहती है कि आखिर औसतन 12 करोड़ की संपत्ति जब हर सांसद के पास है तो फिर उनके सरोकार जनता से कैसे जुड़ते हैं। और बीते 5 बरस में संसद की रईसी दुगुनी कैसे हो गई। जबकि देश और गरीब हुआ । तो सांसदों के बैक स्टेटमेंट से होगा क्या। देखने में ये फार्म ईमानदारी का पाठ पढ़ा सकता है। लेकिन जरा समझे कैसे सांसद रईस होता है। और उस रईसी की वजह कोई नहीं जानता और सारी रईसी टैक्स देकर होती है। मसलन वर्तमान वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2006 में जब राज्यसभा की सदस्यता पाई थी तो उनके एफिडेविट के मुताबिक संपत्ति 23 करोड़ 96 लाख से ज्यादा थी, जो 2014 के लोकसभा चुनाव लड़ते वक्त दाखिल एफिडेविट में बढ़कर 1 अरब 13 करोड़, 2 लाख रुपए से ज्यादा हो गई। यानी पांच गुना से ज्यादा। इसी तरह कानून और दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 2006 में राज्यसभा का चुनाव लड़ते वक्त अपनी संपत्ति 1 करोड़ 71 लाख के करीब बताई थी, और 2014 में बतौर मंत्री अपनी संपत्ति बतायी 18 करोड़ 11 लाख 41 हजार 397 रुपये । यानी 8 बरस में करीब सोलह गुना संपत्ति बढ गई। तो संपत्ति कैसे बढ़ती है। ये सवाल इसलिये क्योकि इस दौर में ना तो सरकारी कर्मचारी की सपंतित की रफ्तार इस तेजी से बढती है ना ही दिहाडी मजदूर और देश के किसानों की। तो कल्पना कीजिये जब प्रधानमंत्री मोदी ही किसानों को 50 फिसदी न्यूमत समर्थन मूल्य कहकर बढ़ा नहीं पाये । तो फिर नेताओं की संपत्ति बढ कैसे जाती है । चाहे वह सांसद हो या विधायक। क्योंकि सवाल सिर्फ वित्त मंत्री या कानून मंत्री का नहीं सवाल तो हर सांसद का है । जो संसद में गरीबो के गीत गा रहा है या फिर संसद ठप कर प्रधानमंत्री मोदी को कटघरे में खड़ा कर रहा है। क्योंकि संसद के हंगामे का सच यही है कि संसद ना तो कारखाना है ना ही खेती की जमीन। फिर भी लोकसभा में बैठे 543 सांसदों की कुल संपत्ति 65 अरब रुपये की है। तो क्या संसद और
विधानसभा नेताओं को ऐसा विशेषाधिकार दे देती है, जहां वह किसी भी प्रोफेशनल्स से बड़े जानकार और किसी भी कारपोरेट से बडे कारोपरेट हो जाते है क्योंकि उन्हें जनता ने चुन कर भेजा है। दरअसल देश की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि गरीबी की रेखा खींचने से लेकर कारपोरेट को लाइसेंस देने का अधिकार राजनीतिक सत्ता के पास होता है। यूनिवर्सिटी के वीसी की नियुक्ति से लेकर हर संवैधानिक संस्था में डायरेक्टर की नियुक्ति सत्ता ही करती है । तो ऐसे में किसी भी पार्टी का कोई भी सांसद रहे वह अपने बैंक स्टेटमेंट को अगर देश के सामने रख भी देखा तो भी ये सवाल तो गौण ही रहेगा कि आखिर इनकी कमाई होती कैसे है । और होती है तो उसमें उनकी सियासी ताकत कैसे काम करती है । फिर मुद्दा किसी एक पार्टी या सत्ता का नहीं है। क्योंकि पूर्व टेलीकॉम मंत्री कपिल सिब्बल की संपत्ति देखें तो 2014 के लोकसभा चुनावों के वक्त 114 करोड़ थी,जो सत्ता गंवाने के बाद भी धुआंधार बढ़ी और जब इस साल राज्यसभा के लिए ऩामांकन किया तो उनकी घोषित संपत्ति 184 करोड़ हो गई थी। तो नेता अपना काम बखूबी करते हैं, और ये बात उनकी बढ़ती संपत्ति से समझी जा सकती है। लेकिन-सीधा सवाल यही है कि जब नेताओं को अपना धंधा ही चमकाना है तो उन्हें समाजसेवा या कहें राजनीति में क्यों आने दिया जाए। राजनीति से नेताओं की निजी बैलेंसशीट बढ़ रही है। उनकी संपत्ति बैंक में है तो वो व्हाइट है ही। या कहें कि वो पहले से आयकरवालों की निगाहों में हैं। तो ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी अगर 8 नवंबर से 31 दिसंबर के बीच बीजेपी सांसदों और विधायकों की बैंक में जमा राशि की रिपोर्ट पार्टी अध्यक्ष को सौंपने के लिए कह रहे हैं तो उसका मतलब है क्या। क्या ये खुद ही खुद को ईमानदारी की क्लीनचिट देने की कवायद है या पार्टी को लगता है कि आयकर विभाग का ही कोई मतलब नहीं।

Monday, November 28, 2016

काश ! मोदी जी के समाजवाद का सपना सच हो जाए

देश के शहर दर शहर घूम लीजिये। बाजारों में चकाचौंध है। दुनिया भर के ब्रांडेड उत्पाद से भरी दुकान\मॉल हैं। देखते देखते बीते 20 बरस में भारत का बाजार इतना ब़डा हो गया कि दुनिया के बाजार में भारत के बाजार की चकाचौंध की धूम तले हिन्दुस्तान का वह अंधेरा ही छुप गया जो बाजार में बदलते भारत से कई गुना ज्यादा बड़ा था। लेकिन सच यही है हिन्दुस्तान के अंधेरे की तस्वीर कभी संसद को डरा नहीं सकी। नेताओं के ऐश में खलल डाल नहीं सकी। अंधेरे में समाया हिन्दुस्तान अपनी मौत लगातार मरता रहा। और इनकम और कैलोरी की लकीर पर खड़ा होकर गरीबी की रेखा को पार करने के लिये ही छटपटाता रहा। तो हिन्दुस्तान की इस दो तस्वीरों को पाटने के लिये ही क्या नोटबंदी का जुआ प्रदानमंत्री मोदी ने चला है। या फिर उस राजनीति को साधने के लिये यह जुआ खेला, जिसमें वोटबैक जाति-धर्म की लकीर को छोड़ दें। यानी एक तरफ 45 करोड उपभोक्ता। जो दुनिया के किसी भी विकसित देश से कहीं ज्यादा। दूसरी तरफ 80 करोड भूख से बिलबिलाते नागरिक। जो दुनिया के कई देशो को खुद में समा लें। तो पहली बार खरीदारों या कन्ज्यूमर के हाथ बंध गये हैं। चकाचौंध बाजार की रईसी थम गई है। खरीद कम हो गई है ।

तो हर जहन में सवाल है कि क्या बाजार अर्थव्यस्था के दिन पूरे हो गये। यानी फिक्की और पीड्ल्यूसी की सितहबंर की रिपोर्ट जो भारत के बाजार को 2020 तक 3.6 ट्रिलियन डॉलर यानी 240 खरब रुपये की देख रहे थे । वह अब ढहढहाकर गिर जायेगी। क्योंकि भारत के उपभोक्ताओ की ताकत को दुनिया के बाजार में कंजमशन की हिस्सेदारी 5.8 फीसदी तक देखी जा रही थी । तो क्या वाकई भारत 80 करोड की गरीबी को ढोने के लिये बाजार अर्थव्यस्था की कमाई को उठाये हुआ था। या फिर भारत को बाजार में बदलने की जो सोच 1991 से चल रही थी, उसे बदलना पलटना इसलिये जरुरी था क्योंकि भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत पश्चिमी इकनॉमी को अपनाने की इजाजत देती नहीं है। इसीलिये संसद के सरोकार तक देश से मेल नहीं खाते है। कानूनी व्यवस्था तक में 80 करोड नागरिकों के लिये कोई जगह नहीं है। शिक्षा-स्वास्थ्य। बिजली -पानी। तक कन्जूयमर के लिये है लेकिन 80 करोड़ नागरिकों के लिये कुछ भी नहीं है। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का कदम सफल हो या असफल देश हमेशा के लिये एक ऐसे चक्र में जा खड़ा हुआ है, जहां से आगे का रास्ता अब मौजूदा हिन्दुस्तान में व्यापक बदलाव लायेगा ही। तो आइए देखते हैं अगर हिन्दुस्तान बदलेगा तो आने वाला हिन्दुस्तान होगा कैसा। लोकतंत्र का मंदिर ही माना जाता है संसद को। लेकिन ये भी अजीब बिडंबना है कि देश की ये एकमात्र इमारत है जो वोट लेने के लिये समूचे देश की नुमाइन्दगी करती है लेकिन उसके अपने सरोकार हिन्दुस्तान के नागरिकों से ही मैच नहीं करते। इतनी ही नहीं लोकतंत्र के इस मंदिर में बैठे सांसदों की आय किसी भी कारपोरेट या किसी भी जनहित वाली इमारत से कहीं ज्यादा महंगी है।

तो दो सवाल आपके जहन में आयेंगे। पहला, कैसे जनता के दर्द को ये बांट सकते है और अगर जनता के दर्द को ये आजादी के बाद से ही बांट नहीं पाये तो फिर दूसरा सवाल-क्या वक्त आ गया है कि उनकी जरुरतों की सीमायें बांध दी जाये। यानी नोटबंदी के बाद अगर उपभोक्ताओं की राशनिंग हो गई। तो नेताओं और सांसदो की राशनिंग क्यों नहीं होनी चाहिये । सांसदों को भी देशहित में सेवक की तर्ज पर क्यों नहीं रहना चाहिये । यानी लुटियन्स की दिल्ली जो सबसे महंगी है वहां रहने वाले मंत्री या संवैधानिक संस्थानों के प्रमुखों के लिये देश का इतना पैसा क्यो व्यर्थ हो। मसलन -पीएम का घर यानी 7 रेसकोर्स ही छह घरो को मिलकर बनाया गया है। बंगला नं 1,3,5,7, 9 और 11 को मिलकर बनाये गये पीएम निवास करीब सौ एकड़ में फैला हुआ है । जबकि घर की इमारत सिर्फ 12 एकड़ में है । वहीं राष्ट्र्पति का निवास 4 हजार एकड़ में फैला हुआ है । जबकि तीन सौ कमरे का राष्ट्रपति के घर का फ्लोर एरिया 2 लाख स्कॉयर फीट है । इसी तर्ज पर दुनिया का सबसे महंगा इलाका लुटियन्स की दिल्ली में मंत्रियों और संवैधानिक सस्थानों के प्रमुखों के घर भी औसतम 12 एकड़ में फैले हुये हैं। जाहिर है रहने के तौर तरीके अंग्रेजों के दौर के ही हैं। तो फिर आजादी के बाद जब भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्टा खोलने का जिक्र हो रहा है और देश में गरीबों का जिक्र हो रहा है तो फिर ये क्यों ना मान लिया जाये कि सत्ता और राजनेताओं की रईसी भी अब खत्म होगी। जो कि जनता और देश के पैसे की खुली लूट है। और इस दायरे को अगर बड़ा करें तो फिर करोड़पति सांसद और करोड़पति विधायकों की जो लंबी फौज है, क्या वह राजनीति में आने से पहले भी करोड़पति थे। एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 72 फिसदी नेता का करोड़पति होना सत्ता में आने के बाद हो पाता है। 44 फिसदी लोग नेतागिरी शुरु करने के बाद करोड़पति हो जाते हैं। देश के 34 फिसदी नेताओं के अपने धंधे होते हैं। तो क्या नोटबंदी का मंथन अब देश में बराबरी ककहरा सुना पायेगा। क्योकि देश बदलेगा तो फिर करोडों स्वाहा कर होने वाले चुनाव के तौर तरीके भी बदल जायेंगे। क्योंकि याद कीजिये 2014 के लोकसभा चुनाव को। चुनाव आयोग ने 38 अरब 70 करोड खर्च किये तो राजनीतिक दलों ने पैंतिस अरब रुपये। इसके अलावा करोडों- अरबों रुपया कालाधन कैसे चुनाव के वक्त फूंका जाता है ये 1993 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में खुले तौर पर कह दिया गया था कि कैसे ब्लैक मनी . करप्शन का पैसा और अपराधियो का मनी पावर भी चुनाव में जुड जाता है । तो क्या 2019 तक आते आते चुनाव के तौर तरीके बदल जायेंगे। यानी जब बाजार अर्थव्यवस्था ही ढह जायेगी तो फिर कारपोरेट और उद्योगपति राजनीतिक दल को चंदा क्यों देंगे। और जब कैशलैस समाज बनाने की दिशा में मोदी सरकार बढ़ चुकी है । तो फिर चुनाव के लिये एवीएम मशीन की जरुरत क्यों होगी। एप के जरीये या अलग अलग तरह के कार्ड के जरीये लोग घरों में बैठकर ही वोट क्यों नहीं पायेंगे। यानी चुनाव आयोग को चुनाव ने 2014 के चुनाव में जिस तरह 3870 करोड रुपये खर्च किये और उसके अलावा सुरक्षा बंदोबस्त, रेलवे का खर्चा, राज्यों में सुरक्षा का बाकि खर्चा । ये सभी खत्म हो जायेगा। क्योंकि चुनावी खर्च भी बढ़ रहा है और चुनाव लड़ने में जितना खर्चा उम्मीदवार करते है उससे लगता यही है कि अगर आप करोड़पति नहीं है तो चुनाव लड ही नहीं सकते है । क्योकि हर चुनाव इतना महंगा हो चला है कि अगर वह कालाधन ना हो या क्रोनी कैपटलिज्म का हिस्सा ना हो तो भारत अमेरिका से ज्यादा रईस लगेगा । लेकिन सच तो यही है कि चुनाव ही वह तंत्र है जब कालाधन बाहर निकलता है । अपराधी, कारपोरेट सभी अपने भ्रष्टाचार का बंदरबांट राजनीतिक दलों के साथ करते हैं। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2006 से 2016 के दौरान 8163 उम्मीदवारों की औसत संपत्ति एक करोड़ 57 लाख रुपये थी। चुने गये 596 सासंद विधायकों की औसत संपत्ति 5 करोड 45 लाख रुपये थी । यहीं से सवाल पैदा होता है कि क्या कैशलैस समाज की कोशिशों का एक सिरा वर्चुअल इलेक्शन से भी जुड़ता है। क्योंकि-इंटरनेट और मोबाइल एप्लीकेशन के आसरे मोदी जिस तरह कैशलैस समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं, और प्रधानमंत्री कार्यालय के कर्मचारियों तक को तकनीक की ट्रेनिंग देकर बताने की कोशिश की जा रही है कि भविष्य मोबाइल एप्लीकेशंस का ही है तो क्या मोदी का नया मंत्र वर्चुअल इलेक्शन भी होगा।

वर्चुअल इलेक्शन यानी न लंबी कतारों का झंझट, न फर्जी वोटों का खतरा, न ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप, न पोलिंग स्टेशनों पर धमकाए जाने की खबरें और वोटरों को प्रभावित करने के लिए लाखों का पेट्रोल फूंकती उम्मीदवारों की गाड़ियां। क्योंकि-वर्चुअल इलेक्शन होंगे तो चुनाव इंटरनेट और मोबाइल एप्लीकेशंस के जरिए ही होंगे। यानी आप अपने रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर या ईमेल या ऐसी ही किसी व्यवस्था से सीधे घर बैठे वोट कीजिए । अब सवाल ये कि क्या 2019 के चुनाव में वर्चुअल इलेक्शन का हाईटेक प्रयोग किया जा सकता है ? दरअसल,इंटरनेट से वोटिंग का सवाल कोई नया नहीं है। सवाल है बुनियादी ढांचे का। और जिस तरह कैशलैस सोसाइटी बनाने की कवायद की जा रही है-उसमें मोदी इवोल्यूशन के बजाय रिवोल्यूशन का रास्ता तो अपना ही चुके हैं। और रिवोल्यूशन का मतलब ही है बड़े बदलाव। और इस बड़े बदलाव में यह भी संभव है कि झटके में चुनावी प्रचार पर पाबंदी लगाकर उसे इंटरनेट एप्लीकेशंस से ही जोड़ दिया जाए। यानी -चुनावी पार्टियों से कहा जाए कि वो सिर्फ अपने चुनावी विज्ञापन अपनी वेबसाइट या सोशल साइट्स पर दिखा सकते हैं । देश में अभी 100 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फोन हैं, और करीब 46 करोड़ से ज्यादा इंटरनेट यूजर्स और ये संख्या तेजी से बढ़ रही है। अगर ये सब बदल रहा है तो फिर गांव भी बदलने चाहिये और राजनीति को गांव की जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहिये। क्योंकि जिस आदर्श ग्राम परियोजना के आसरे पीएम गांवो का हाल सुधारना चाहते थे-उसका दूसरा सच यह है कि 795 में से जिन 87 सांसदों ने दूसरा गांव गोद भी लिया उनके जरीये पहला गांव भी जर्जर ही है। तो फिर सांसदों को सांसद निधि का पैसा दिया ही क्यों जाये। यानी सांसद कोई जिम्मेदारी पूरी करते नहीं और गांवों के हालात को ठीक करना है तो सालाना 39 अरब 50 करोड रुपये जो प्रति सांसद को पांच करोड़ रुपये के हिसाब से बांटा जाता है उसे बंद कर दिया जाये। और किसी कंपनी या कारपोरेट को हर बरस 39 अरब रुपये देकर जर्जर गांवों को ठीक करने का जिम्मा सौप दिया जाये तो कही ज्यादा बेहतर होगा। क्योंकि राजनेताओं का सच तो ये हो चला है कि उनके भीतर के समाजसेवी और बिजनैसमैन का फर्क अब मिट चुका है। आलम ये है कि लोकसभा में 128 सांसद बिजनेस मैन भी है। राजयसभा में 125 सांसद बिजनेस मैन है । देश भर के 4228 विधायको में 1258 विधायक ऐसे है, जिनका अपना अलग धंधा भी है । तो कल्पना किजिये नोटबंदी के बाद किस धंधे या किस बिजनेस मैन पर कितना असर पड रहा होगा । और देश के चुने हुये नुमाइन्दों को क्या वाकई जनता से कुछ लेना देना भी है । और सांसदों या विधायको के बिजनेस मैन की कैटगरी में कारपोरेट इंडस्ट्रिस्ट से लेकर बिल्डर और कालेज स्कूल अस्पताल चलाने से लेकर होटल चलाने वाले राजनेता भी है। तो आने वाले वक्त में क्या धंधेबाजों की नेतागिरी बंद हो जायेगी। या पार्टियां उन्हें ही टिकट देगी जो वाकई समाजसेवी होगा । क्योंकि बिजनैसमैन समाजसेवी तो नहीं ही हो सकता है। तो क्या मोदी जी का समाजवाद वाकई कोई गुल खिलायेगा या उडन-छू हो जायेगा।







Thursday, November 24, 2016

भ्रष्ट सिस्टम और ब्लैक मनी पर टिकी राजनीति से सफाई कैसे होगी ?


पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गुरुवार के दिन राज्यसभा मेंप्रधानमंत्री मोदी को नोटबंदी पर चेतावनी दी। और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी गंभीर हुये कभी मुस्कुराये। और भोजनावकाश के बाद विधान पर टिके राज्यसभा का ही डिब्बा गोल हो गया क्योंकि सदन में पीएम नहीं पहुंचे। तो ऐसे में पूर्व पीएम ने भी नहीं सोचा कि सदन में आलथी पालथी मारकर तबतक बैठ जाये जब तक संकट में आये देश के निकलने का रास्ता पीएम मोदी आकर ना बताये। एक ने कहा। दूसरे ने सुना। और संसद ठप हो गई । तो 62 करोड़ नागरिक जो गांव में रहते है और करीब 29 करोड नागरिक जो शहरों की मलिन बस्स्तियों और झोपडपट्टियों में रहते हैं, उनकी जिन्दगी से तो जीने के अधिकार शब्द तक को छीना जा रहा है उस पर कब कहां किसी पीएम ने बात की। और 90 करोड़ नागरिकों से ज्यादा के इस हिन्दुस्तान का सच तो यही है कि न्यूनतम की जिन्दगी भी करप्शन और नाजायज पैसे पर टिकी है। गांव में हैडपंप लगाना हो। घर खरीदना हो । रजिस्ट्री करानी हो। सरकार की ही कल्याणकारी योजनाओं का पैसा ही बाबुओं से निकलवाना हो। बैंकों के जरीये सरकार के पैसे को बांटना हो। यानी जहां तक जिसकी सोच जाती हो वह सोच सकता है और खुलकर कह सकता है कि बिना कुछ ले देकर क्या कोई काम वाकई इस सिस्टम में होता है। दिल्ली में ही लाल डोरा की जमीन हो या जायज जमीन पर मकानबनाने का काम शुरु करना। पुलिस से लेकर इलाके के नेता वसूली के लिये कैसे टूट पड़ते हैं। किससे छुपा है। हर विभाग का एनओसी कितने में बिकता है, रेट तक तय है। नोटबंदी के दौर में टोल फ्री चाहे हो लेकिन दिल्ली से लेकर हर राज्य में पुलिसिया वसूली जारी है। ये सिस्टम ना चेक पर चलता है । ना क्रेडिट या डेबिट कार्ड पर। और यह सिस्टम चलता भी क्यों है, इस पर भी कोई पीएम तो दूर कोई मंत्री या नेता बोलना नहीं चाहता। लेकिन नोटबंदी के सवाल ने हर किसी को आम आदमी के दर्द से ऐसे जोड दिया है कि हर का सुर एक है। चाहे दोनों खिलाफ क्यों ना हो। जैसे यूपी में मायावती और मुलायम । तो क्या मायावती नोटो के हार को भूल गई। क्या शानदार दृश्य था। और समाजवादी भूल गये कैसे साइकिल की सवारी से दो करोड़ की बस के सफर पर अखिलेश यादव चुनाव प्रचार में निकल पड़े। 2012 में साइकिल पर यूपी में घूमे तो सत्ता मिली। और सत्ता दुबारा चाहिये तो साइकिल की तस्वीर दो करोड़ की बस पर लगाकर बुंदेलखंड सरीखे इलाके में भी जाने में परहेज नहीं।

जहां दो जून की रोटी अब भी सवाल है। यानी एक तरफ नेताओ के लिये भरे पेट जनता के सरोकार से जुडने की ऐसी वकालत है, जिसमें जीडीपी पर संकट दिखायी दे रहा है। लड़खड़ाती बाजार व्यवस्था नजर आ रही है। व्यापार ठप होने से माथे के बल पड रहे हैं। लेकिन इस महीन लकीर का जिक्र करने से हर कोई बच रहा है कि देश में संकट संसाधनों के खत्म होने से ही ये हालात बने हैं। इसीलिये पीएम ने रिजर्व बैक के अधिकार तक को हड़प लिया। तो फिर ऐसा सिस्टम बनाया किसने जिसमें सुप्रीम कोर्ट के वकील अरबपति हो गये। प्राइवेट अस्पताल चलाने वाले खरबपति हो गये। प्राइवेट शिक्षा संसाधन चलाने वाले अरबो खरबो के मालिक हो गये। इन्हें पैसा देता कौन है। और जो देता है वह है कौन। ये कहां किसी से छिपा है। हर पीएम जानता है। हर सरकार को इसकी जानकारी है। इसीलिये तो सुप्रीम कोर्ट तो दूर हाईकोर्ट तक क्यों कोई आम आदमी अपना केस नहीं लड़ पाता। बिना इश्योरेंस प्राइवेट अस्पताल में आम जनता इलाज नहीं करा पाती। निचली अदलत के चक्कर और बिना इश्योरेंस प्राइवेट अस्पताल मे इलाज किसी आम जनता के लिये घर-बार बेचने सरीखा हो जाता है। और यह पूरा खेल नकदी का है। तो क्या ये खेल नोटबंदी के 50 दिन के दर्द-परेशानी को सहने के बाद खत्म हो जायेगा। अगर प्रधानमंत्री मोदी भरोसा दिलाते है । हां खत्म हो जायेगा तो शायद हर कोई देश बदलने को तैयार है । लेकिन खत्म होगा नहीं । और ईमानदार भारत बनाने की भावनाओं के उभार का ये खेल है तो फिर ये भी मान लीजिए अंधेरा वाकई घना है । क्योंकि याद कीजिये ठीक 25 बरस पहले वीपी सिंह स्वीस बैंक का नाम लेते तो सुनने वाले तालियां बजाते थे। और 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी ने जब स्विस बैंक में जमा कालेधन का जिक्र किया तो भी तालियां बजीं। नारे लगे । 25 बरस पहले स्विस बैंक की चुनावी हवा ने वीपी को 1989 में पीएम की कुर्सी तक पहुंचा दिया। और ध्यान दें तो 25 बरस बाद कालेधन और भ्रष्टाचार की इसी हवा ने नरेन्द्र मोदी को भी पीएम की कुर्सी पर बैठा दिया। 25 बरस पहले पहली बार खुले तौर पर वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा स्विस बैंक में जमा होने का जिक्र अपनी हर चुनावी रैली में किया। हर मोहल्ले। हर गांव। हर शहर की चुनावी रैली में वीपी के यह कहने से ही सुनने वाले खुश हो जाते कि बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा कैसे स्विस बैंक में चला गया और वीपी पीएम बन गये तो पैसा भी वापस लायेंगे और कमीशन खाने वालो को जेल भी पहुंचायेंगे। तब वोटरों ने भरोसा किया। जनादेश वीपी सिंह के हक में गया। लेकिन वीपी के जनादेश के 25 बरस बाद भी बोफोर्स कमीशन की एक कौडी भी स्विस बैंक से भारत नहीं आयी। तो क्या 25 बरस बाद स्वीस बैक में जमा कालेधन से फिसल कर प्रधानमंत्री मोदी ने देश में जमा कालेधन का जिक्र कर जब नोटबंदी का शिकंजा कसा तो झटके में वही बाजार व्यवस्था आ गई जिसपर देश ही नहीं सियासत भी चल रही है । क्योंकि देश की इकनॉमी चलाने वाले राजनीति, कारपोरेट, औघोगिक घराने , बिल्डर से लेकर खेल और सिनेमा तक के घुरघंर है । इतना ही नहीं ड्रग, घोटाले, अवैध हथियार से लेकर आंतक और उग्रवाद तक की थ्योरी के पीछे बंधूक की नली से निकलने वाली सत्ता भी अगर कालेधन पर जा टिकी हो तो फिर नकेल कसने का तरीका नोटबंदी से कैसे निकलेगा । क्योंकि इनका कालाधन रुपये पर नहीं डॉलर पर टिका है। देश के नही दुनिया के बाजार में घुसा हुआ है। खनन से लेकर रियल इस्टेट का धंधा देश के बाहर कही ज्यादा आसान है। तो क्या कालेधन का सवाल राजनीतिक सत्ता के लिये किसी फिल्म के सुपर हिट होने सरीखा है। क्योंकि मोदी सरकार ने जिन 627 कालेधन के बैंक धारकों के नाम सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं। उन नामों को भी स्विस बैंक में काम करने वाले एक व्हीसिल ब्लोअर ने निकाले । जो फ्रांस होते हुये भारत पहुंचे।

और इन्हीं नामों को सामने लाया जाये इसपर पहले मनमोहन सरकार तो अब मोदी सरकार उलझी है। ध्यान दें तो वीपी सिंह के दौर में भी सीबीआई ने बोफोर्स जांच की पहल शुरु की और मौजूदा दौर में भी सुप्रीम कोर्ट ने 627 खाताधारकों के नाम सीबीआई को साझा करने का निर्देश देकर यह साफ कर दिया कि कालाधन सिर्फ टैक्स चोरी नहीं है बल्कि देश में खनन की लूट से लेकर सरकार की नीतियो में घोटाले यानी भ्रष्टाचार भी कालेधन का चेहरा है। जिसका जिक्र नोटबंदी के बाद से मोदी सरकार के मंत्री लगातार संसद के भीतर मनमोहन के दौर के घोटालो का जिक्र कर कह रहे है । ऐसे हालात में अगर कालेधन के इसी चेहरे को राजनीति से जोडे तो फिर 1993 की वोहरा कमेठी की रिपोर्ट और मौजूदा वक्त में चुनाव आयोग का चुनाव प्रचार में अनअकाउंटेड मनी का इस्तेमाल उसी राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खडा करती है जो सत्ता में आने
के लिये स्वीस बैंक का जिक्र करती है और सत्ता में आने के बाद स्वीस बैंक को एक मजबूरी करार देती है । यह सवाल इसलिये बडा है क्योकि कालाधन चुनावी मुद्दा हो और कालाधन ही चुनावी प्रचार का हिस्सा बनने लगे तो फिर कालाधन जमा करने वालो के खिलाफ कार्रवाई करेगा कौन । दूसरा सवाल जब देश की आर्थिक नीतियां ही कालाधन बनाने वाली हो तो फिर व्यवस्था का सबसे बडा पाया तो राजनीति ही होगी।

Wednesday, November 23, 2016

गरीबों पर कहा सबने लेकिन गरीबों की सुनी किसने ?

तो सत्ता संभालते ही गरीबो का दर्द जिस प्रधानमंत्री की जुबां पर हो। उस प्रधानमंत्री की हर निर्णय गरीबों के हित या फिर गरीबों की फ्रिक से जुड़ा क्यों ना होगा। ये अलग बात है कि सरकार का नजरिया गरीबों और ग्रामीणों से ज्यादा कारपोरेट हित को साधने में लगा। और वजह यही है कि कारपोरेट को तमाम तरह के टैक्स में हर बरस छूट औसतन 5 लाख करोड़ की मिलती रही। लेकिन दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्र के बुनियादी ढांचे, रोजगार, हेल्थ, शिक्षा , खेती सभी को लेकर भी बजट 4 लाख करोड़ से ज्यादा सरकार दे नहीं पायी। तो क्या गरीबो का जिक्र सिर्फ जुबां पर होता रहा है। क्योंकि इंदिरा गांधी ने भी गरीबी हटाओ का नारा दिया था। लेकिन गरीबी हटाओ के नारे के बाद बीते चार दशक में 8 करोड 90 लाख गरीबों की संख्या बढ गई।

लेकिन मोदी की नोटबंदी इंदिरा के गरीबी हटाओ से मेल नही खाती । क्योंकि इंदिरा तो अमीरों के खिलाफ नहीं थी । लेकिन मोदी ने झटके में अमीरों को खलनायक तो करार दे ही दिया है। तो क्या वाकई जिस बात का जिक्र आज गरीबों के नाम पर वित्त मंत्री कर गये वह सही है। तो याद कीजिये जेटली ने पहले बजट को पेश करते हुये साफ कहा था। गरीबों के लिये पैसा तो रईसो की जेब सेही आयेगा। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी अब 1991 में खिंची गई खुली अर्थव्यवस्था की इक्नामी को पलटने में लग गये है । या फिर प्रधानमंत्री मोदी इंदिरा की तर्ज पर उस रास्ते पर निकल चुके है जब 1971 में इंदिरा गांधी ने प्रीवी पर्स और बैंकों के ऱाष्ट्रीयकरण के जरीये कांग्रेस के भीतर के सिंडिकेट और बाहर विपक्षी को घराशायी कर 1971 का चुनाव जीता था। यानी मोदी बीजेपी की उस राजनीति को भी बदल रहे है जो कारपोरेट की हिमायती रही। या फिर गरीब और पिछड़ों के साथ खुद को खड़ाकर मोदी अब बीजेपी के लिये ही एक नयी राजनीति गढ रहे हैं,जहां बीजेपी अब व्यापारियो की पार्टी नहीं कहलायेगी। गरीब-पिछडो के बीच मोदी स्टेटेसमैन हो जायेंगे। यानी 1991 की जिस इक्नामिक थ्योरी की लीक पर बीते 25 बरस से पीवी नरसरिह राव से लेकर वीपी और वाजरपेयी से होते हुये मनमोहन सिंह का दौर खप गया । उस दौर में बाजार को मजबूत करने के लिये हर सत्ता ने सिर्फ लुटाया ही । और ग्रामीण भारत के लिये या कहे गरीबो पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं तो क्या मोदी अब शाइनिंग इंडिया के भ्रम को तोडकर खुरदुरे भारत को ठीक करना चाह रहे हैं। तो तीन सवाल हर जहन में आयेंगे। पहला ग्रामीण भारत को पटरी पर लाने के लिये पैसा कहॉ से आयेगा। दूसरा, ग्रामीण भारत को स्वावलंबी बनाने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर कहां से लायेंगे। तीसरा , बैंकिंग सर्विस भी 93 फिसदी ग्रमीण क्षेत्रों में कबतक पहुंचेगी । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है कि गरीबो के बिजली पानी रोटी हेल्थ रोजगार शिक्षा मिल जाये । यवाल ये है कि क्या वाकई अब हर घंटे 7 करोड रुपये डायरेक्ट कारपोरेट इन्कम टैक्स को माफ करना बंद हो जायेगा । हर बरस करीब 5 लाख करोड से ज्यादा की जो छूट तमाम टैक्सो में कारपोर्ट को मिल जाती है वह बंद हो जायेगी । खेती पर टिके 60 फिसदी भारत को दो जून की रोटी भी मिल जायेगी ।

ये सवाल इसलिये क्योकि जिस रास्ते देश चल रहा है । और जिस रास्ते देश को ले जाने का सपना प्रदानमंत्री मोदी दिखा रहे है । उसमे लगना उसी देश की सत्ता, सिस्टम और लोगो को है । जो अभी तक मैसेज यही दे रही है कि सत्ता घमंड से चूर है । नौकरशही चाटूकार है और जनता देशभक्ति की रौ में है और तीनो का काकटेल है कितना खतरनाक इसे प्रदानमंत्री मोदी जरुर समझ रहे होगें । क्योकि ग्रमीण भारत का ये सच है । 82 फिसदी परिवारो की आय 5 हजार रुपये महीने से कम की है । 7.9 फिसदी परिवारो की आय 10 हजार रुपये महीने से कम की है । और 4.7 पिसदी की आय 15 हजार रुपये महीने से कम की है । यानी जिस देश में गरीबी की रेखा 32 रुपये रोज पर टिकी हो । जिस देश में 80 फिसदी गाववाले भूमिहीन मजदूर हो । और जिस देश में मजदूरो के लिये मनरेगा के नाम पर हर साल 38 हजार करोड का बजट देकर सरकार अपनी पीठ ठोकती हो । तो ग्रामीण भारत के दर्द पर मनरेगा की उपलब्धि ही जब सरकारो को राहत दे देती हो तब इस सच को कौन कहेगा कि सिर्फ पीने का साफ पानी और दो जून की रोटी को देने के लिये भी सरकार के पास बजट नहीं है ।

यानी जिस चार लाख करोड से लहूलूहान गरीब भारत पर सरकार मलहम लगाने का काम मौजूदा सरकार कर रही है उसके भीतर का सच यही है कि दिल्ली में नेहरु से लेकर मौजूदा वक्त तक कोई पीएम हो गांव बचे कैसे इसपर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं । नदियो के जाल और उपजाउ जमीन के बीच इन्द्र देवता ही ग्रामीण भारत के फाइनेंस मनीस्टर से लेकर पीएम तक रहे । क्योकि 1950 से 2016 तक के दौर में सिर्फ 23 फिसदी सिचाई की व्यवस्था खेतो में हो पायी । 60 बरस के ग्रामीण विकास का बजट बीते 10 बरस के कारपोरेट छूट से भी कम रहा । यानी ये कल्पना के परे है कि गरीब और ग्रामीण भारत के सामानान्तर शहरी गरीब और आधुनिक शहरो पर जो खर्च तमाम सत्ता ने किये अगर उतना पैसा गांव के इन्फ्रस्ट्कचर पर हो जाता तो 12 करोड ग्रामीणो का पलायन शहरो में काम के लिये नहीं होता । 11 करोड शहरी गरीब प्रतिदिन 35 रुपये पर जिन्दगी बसर नहीं करते । यानी कैसे हर दौर में गाव और गरीबो के नाम पर दिल्ली की सत्ता ने देश को बेवकूफ बनाया गया है ये मौजूदा बजट से भी समझा जा सकता है । महज 1.51 करोड रुपये शिक्षा-हेल्थ समेत तमाम सोशल सेक्टर के लिये आवंटित किया गया वही 5,72,923 करोड रुपये कारपोरेट को टैक्स में छूट दे दी गई । यानी इक्नामी का रास्ता गांव से नहीं शहरो से निकला . इसीलिये स्मार्ट सिटी की लकीर भी मौजूदा वक्त में खिंची गई । क्योकि गाव के लिये पैसा आये कहा से ये सवाल शहरी सत्ता को आधुनिकतम विकास से जुडने के लिये मार्केट इक्नामी की तरफ ढकेलती रही । तो क्या जो सवाल नेहरु से इंदिरा और वाजपेयी से मनमोहन सिंह गरीबो को लेकर उठाते रहे उसे बिलकुल नयी परिस्थितियो में प्रदानमंत्री मोदी ले जा चुके है । जहा सियासत, समाजवाद और सत्ता का मिश्रण है ।

और दुनिया में कालाधन का सच यही है कि अमेरिका में सबसे ज्यादा कालाधन है, और भारत का नंबर कम से कम शुरुआती पांच देशों में नहीं है। और जिस कालाधन को रोकने के लिए 500 और 1000 के नोट पर पाबंदी के कदम को उठाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पीठ ठोंक रहे हैं, बिलकुल वैसा ही कदम 1969 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने उठाया था, जब उन्होंने झटके में 100 डॉलर से ऊपर के सारे नोट यानी पांच सौ, हजार, पांच हजार, दस हजार और एक लाख डॉलर का नोट रद्दी के टुकडे में तब्दील कर दिया था। उस कदम के बाद अमेरिका में बैंकिंग सिस्टम भले मजबूत हुआ लेकिन कालाधन नहीं रुका। और आज का सच ये भी है कि अमेरिका में कुल उपभोक्ता भुगतान का 80 फीसदी कैशलैस पेमेंट सिस्टम से होता है। यानी अमेरिका में नकदी का चलन  बहुत कम है-लेकिन फिर भी कालाधन बनने का सिलसिला जारी है। और बात सिर्फ अमेरिका की नहीं है। जर्मनी में 76 फीसदी कैशलैस पेमेंट होता है तो ब्रिटेन में 89 फीसदी और फ्रांस में 92 फीसदी कैशलैस पेमेंट होता है लेकिन कोई देश भ्रष्टाचार मुक्त नहीं है । तो सवाल सीधा है कि जिस कैशलेस सोसाइटी की दिशा में मोदी भारत को ले जाना चाह रहे हैं-उसका असल मकसद है क्या। कालेधन से मुक्ति या नकदी पर रोक । नगदी बाजार पर सत्ता की राशनिंग या कैशलैस बाजार को बढावा । लोकतंत्र की खुली हवा पर सत्ता की बंदिश या गरीबो के आक्रोष को दबाना ।कर्योकि एक तरफ देश के 6 लाख गांव में से 5 लाख 54 हजार गांव में बैक नहीं है । देश में क्रेडिड कार्ड संख्या फकत ढाई करोड़ है । यानी एक तरफ कैशलेस समाज भारत के लिये अभी दूर की कौड़ी है तो दूसरी तरफ कैशलेस देश ना तो कालेधन से मुक्त होता है ना ही भ्रष्ट्रचार से । अलबत्ता अमेरिका का सच यह है कि वहां राजनीतिक भ्रष्टाचार कालाधन की जननी है। दर्जन भर अमेरिकियो का कब्जा पूरी बैकिंग
सर्विस पर है भारत में बैकिंग सर्विस पर सरकार का कब्जा है यानी जो सत्ता में हो उसी के रास्ते देश को चलना पडेगा ये पाठ तो हर किसी ने पढ लिया लेकिन ये रास्ता कैसे लोतकंत्र की भी नई परिबाषा गढ रहा है जरा इसे भी समझ लें ।

Monday, November 21, 2016

पंडारा बॉक्स तो मोदी ने खोल ही दिया है

प्रधानमंत्री मोदी चौतरफा घिरे हैं और यही उनकी सफलता है। क्योंकि जिस नेता को केन्द्र को रखकर समूची राजनीति सिमट गई है। वह नेता जनता की नजर में भारतीय राजनीति की खलनायकी में खलनायक होकर भी नायक ही दिखायी देगा। क्योंकि राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में जनतंत्र है नहीं और राजनीतिक लोकतंत्र अपने गीत गाने के लिये वक्त-दर वक्त नायक खोज कर खुद को पाक साफ दिखाने से चूका नहीं है। तो सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर मुलायम या मायावती, संसद में सभी की जुबां पर मोदी हैं तो सड़क पर ममता और केजरीवाल के निशाने पर भी मोदी हैं। तो मोदी का कद झटके में सियासी पायदान पर सबसे उपर है। और जो दबाव धंधे वालों से लेकर गांव-खेत में दिखायी दे रहा है, उसकी बदहाली के लिये वही राजनीति जिम्मेदार है, जिसे मोदी डिगाना चाहते हैं। तो क्या पहली बार सत्ता ही जनवादी सोच लिये भ्रष्ट पारंपरिक राजनीति को ही अंगूठा दिखा रही है।

यानी इतिहास के पन्नों को पलटें तो जेपी चाहे संपूर्ण क्रांति का नारा देकर चूक गये। अन्ना हजारे चाहे जनलोकपाल की गीत गाकर चूक गये। लेकिन मोदी कालाधन का राग गाते हुये चूकेंगे नहीं क्योंकि सत्ता उनके पास है। और वह सीधे राजनीतिक सत्ताधारियों के तौर तरीकों के खिलाफ बोल ही रहे है। यानी राजनीतिक दलों की जिस कमाई पर पहले सत्ता खामोश रहती थी, अब मोदी ने उस डिब्बे को खोल दिया है। तो चिटफंड से लेकर दलाली और कैश चंदे से लेकर उघोगों को लाभ पहुंचा कर कमाई पर भी सीधे बोल है। तो क्या ये रास्ता राजनीतिक सफाई का साबित होगा। या फिर राजनीति के कटघरे में मोदी अभिमन्यु साबित होंगे। क्योंकि तीन सवाल नोटबंदी के बाद देश को डरा भी रहे हैं। पहला जब सिस्टम भ्रष्ट है तो वही सिस्टम भ्रष्टाचार को खत्म कैसे करेगा। दूसरा ,जब राजनीतिक सत्ताधारियों में लूट का समाजवाद रहा है तो मोदी का जनतंत्र कैसे काम करेगा। और तीसरा 1991 से कन्ज्यूमरइज्म यानी उपभोक्तावाद के आसरे ग्रोथ देखने वाले झटके में सोशल जस्टिस कैसे करेंगे । जाहिर है तीनों सवाल 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये रेफरेन्डम यानी जनमत संग्रह वाले हो सकते हैं। और उससे पहले कमोवेश हर राज्य के चुनाव में मोदी इसी नोटबंदी के आसरे आसमानता का जिक्र कर चुनावी जमनत संग्रह वाले हालात बनाने की दिशा में जायेंगे भी। क्योंकि सत्ता संभालने के 30 महीने बाद मोदी जिस मुहाने पर खडे है, वहां से सत्ता बरकरार रखने की जोडतोड़ में फंसना मोदी का इतिहास के पन्नों में गुम हो जाना साबित होता। और मोदी इस सच को समझ रहे हैं कि उन्होंने जो जुआ खेला है वह है तो सही लेकिन है वह जुआ ही। जिसे अभी तक रईस खेलते रहे पहली बार आम जनता भी इस सियासी जुए में भगीदार हैं।

लेकिन मौजूदा वक्त में अगर पीएम मोदी को क्लीन चीट दे भी दी जाये तो क्या बीजेपी या बीजेपी के साथ जुडे किसी भी चेहरे को लेकर कोई कह सकता है कि कोई दागदार नहीं है। वह चेहरा चाहे मध्यप्रदेश सीएम शिवराज से लेकर छत्तीसगढ सीएम रमन सिंह या राजस्धान की सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया का हो। या फिर पंजाब के बादल। बिहार के पासवान , महाराष्ट्र के उद्दव ठाकरे या यूपी में बीएसपी छोड बीजेपी में शामिल हुये स्वामी प्रसाद मौर्य का। यानी चेहरे चाहे बीजेपी के हो या बीजेपी के साथ अगल अलग राज्यों में साथ खडे चेहरे। दागदार तो हर कोई है। कोई व्यापम तो कोई पीडीएस। कोई ललित मोदी। तो पंजाब, बिहार. महाराष्ट्र और यूपी में बीजेपी के साथियों  का दामन भी पाक साफ नहीं है। और मोदी की नोटबंदी के खिलाफ कतारों में खड़े
मुलायम हो या मायावती। ममता बनर्जी हो या करुणानिधि या जयललिता। जब देश में हर राजनेता का दामन दागदार है तो फिर राजनीतिक ईमानदारी का पाठ नोटबंदी के जरीये पढाया जा सकता है इसे सच माने कौन। क्योंकि मोदी खुद उस राजनीतिक तालाब में खड़े हैं, जहां कालाधन राजनीति की जरुरत है। इसीलिये बीते दस बरस में 3146 करोड़ से ज्यादा कैश राजनीतिक दलों ने चंदे के तौर पर लिया। और किसी भी राजनीतिक दल ने कैश की जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी । फिर चुनाव आयोग के मुताबिक 20 हजार से ज्यादा कैश लेने पर जानकारी देनी होती है। तो हर राजनीतिक दलों ने सारे कैश 20 हजार से कम बताये। यानी किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि कैश 20 हजार से ज्यादा लिया। मायावती ने तो नब्ब फिसदी चंदा कैश में लिया। और हर से सिर्फ 20 हजार रुपये से कम बतायें। को क्या राजनीतिक सफाई की दिशा में मोदी बढ़ रहे हैं। या फिर प्रधानमंत्री ने चाहे अनचाहे विपक्ष को ही एक ऐसा हथियार दे दिया है जो सरोकार का सवाल उठाकर अभी तक के अपने दाग को इसलिये धो सकते हैं क्योंकि जनता परेशान हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर है नहीं। निर्णय लागू कराने में सिस्टम सक्षम नहीं है।

यानी जिस राजनीतिक व्यवस्था से लोगों का मन टूट रहा था वह मन फिर से समाधान के लिये उसी राजनीतिक व्यवस्था की तरफ देखने को मजबूर हो रहा है। जबकि जनता के पैसे पर सबसे ज्यादा रईसी राजनेता ही करते हैं। मसलन कुल 4120 विधायक और 426 एमएलसी है यानी कुल 4582 विधायक, जिन्हे औसत प्रतिमाह 2 लाख वेतन और भत्ता प्रतिमाह मिलता है  । जिसे जोड़ दें तो 91,640000 रुपये बनते हैं। यानी सालाना करीब 1100 करोड । इसी तर्ज पर अगर सांसदों का भी हाल देख लें । तो लोकसभा और राज्यसभा मिलाकार कुल 776 सांसदों को हर महीने औसतन 5 लाख रुपये वेचन और भत्ते केतौर पर मिलता है। जिसे जोड़े तो 38 करोड 80 लाख रुपये होते हैं। यानी लाना 465 करोड, 360 लाख रुपये। यानी विधायकों और सांसदों के वेतन भत्ते को मिला दे तो करीब 15 अरब 65 करोड 60 लाख रुपये होंगे। और इसमें आवास , यात्रा भत्ता, इलाज, विदेशी सैर सपाटा शामिल नहीं है। लेकिन सुविधाओं की पोटली यही खत्म नहीं होती बल्कि हर चुने हुये नुमाइन्दे को सुरक्षा चाहिये। सुरक्षा के लिहाज से हर विधायक को 2 बॉडीगार्ड और एक सेक्शन हाउस गार्ड यानी 5 पुलिस कर्मी। तो कुल 7 सुरक्षाकर्मी एक विधायक के पीछे रहते हैं। हर पुलिस कर्मी को औसतन 25 हजार रुपये के लिहाज से कुल एक लाख 75 हजार होते हैं। यानी कुल 4582 विधायकों पर 1 लाख 75 हजार के लिहाज से हर महीने 80 करोड 18 लाख रुपये होते हैं। और सालाना 9 अरब 62 करोड 22 लाख रुपये। इसी तर्ज पर अगर सांसदों की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मियों के खर्च को जोड़ लें तो सांसदों की सुरक्षा में हर बरस 164 करोड रुपये खर्च होते हैं। इसके अलवा पीएम सीएम कुछ मंत्री और कुछ राजनेताओं को जेड प्लस की सुरक्षा मिली हो होती है, उसके लिये 16 हजार सुरक्षाकर्मियों की तैनाती देश में होती है। जिनपर सालाना खर्चा 776 करोड़ के करीब होता है। यानी कुल 20 अरब का खर्चा चुने हुये नुमाइन्दो की सुरक्षा पर होता है। यानी हर साल चुने हुये नेताओ पर 50 अरब खर्च हो जाता है। और इस फेहरिस्त में राज्यपाल, पूर्व नेताओं की पेंशन, पार्टी अध्यक्ष या पार्टी नेता या फिर जिन नेताओं को सरकारें मंत्रियो का दर्जा दे देती है, अगर उन पर खर्च होने वाला देश या कहे जनता का पैसा जोड़ दिया जाये तो करीब 100 अरब रुपया खर्च हो जाता है। अब ये ना पूछिएगा गरीबों को या जनता को ही इससे मिलता क्या है।

Tuesday, November 15, 2016

संसद से नहीं बैंक से निकलेगा लोकतंत्र का नया राग

जब संसद सड़क के सामने छोटी लगने लगे तो फिर नेताओं का रास्ता जाता किधर है। सड़क के हालात बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में देश के करीब 55 करोड़ लोगों ने वोट डाले लेकिन आज की तारीख में शहर दर शहर गांव दर गांव 55 करोड़ से ज्यादा लोग सड़क पर उस नोट को पाने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं जिसका मूल्य ना तो अनाज से ज्यादा है और ना ही दुनिया के बाजार में डॉलर या पौंड के सामने कहीं टिकता है। फिर भी पहले वोट और अब नोट के लिये अगर सड़क पर ही जनता को जद्दोजहद करनी है तो क्या वोट की तर्ज पर नोट की कीमत भी अब प्रोडक्ट नहीं सरकार तय करेगी। क्योंकि मोदी सरकार को 31 फिसदी वोट मिले। यानी खिलाफ के 69 फिसदी वोट का कोई मूल्य संसदीय राजनीति में कोई मायने रखता ही नहीं है। ठीक इसी तरह 84 फीसदी मूल्य के नोट के खत्म होने के बाद 16 फिसदी मूल्य की रकम महत्वपूर्ण हो गई। यानी रोजाना चार हजार रकम के खर्च करने का समाजवाद सड़क पर आ गया। तो क्या समाजवाद के इस चेहरे के लिये देश तैयार हो चुका है या फिर जिस संसद की पीठ पर सवार होकर लोकतंत्र का राग देश में गाया जा रहा है, पहली बार संसदीय लोकतंत्र को ही सडक का जनतंत्र ठेंगा दिखाने की स्थिति में आ गया है। और यहीं से बड़ा सवाल निकल रहा है कि आखिर बुधवार की सुबह जब संसद शुरु होगी तब राजनीतिक सत्ता के कर्णधारों का रास्ता जायेगा किस तरफ। क्योंकि संसद का महत्व तो तभी है जब संसद में जनता के हित में कोई निर्णय है। या फिर संसद के सरोकार जनता से जुड़े।

और सच यही है कि पहली बार राजनीतिक सत्ता ने संसदीय राजनीति की धारा के खिलाफ निर्णय लिया है। और नया संकट उस पारंपरिक राजनीति के सामने है जो अभी तक ये सोचती रही कि संसद के दायरे से सड़क को संभाला जा सकता है। तो सवाल तीन हैं। पहला क्या संसद छोड़ सड़क की राजनीति को थामना ही अब हर राजनीतिक दल की जरुरत है। दूसरा ,क्या संसदीय राजनीति के भीतर का भ्रष्टाचार नई परिभाषा गढ रहा है। तीसरा , क्या संसदीय राजनीति का चेहरा इतना विकृत हो चला है कि पीएम ने खुद को ही जनता के साथ जोड़ लिया है। यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का मंदिर यानी संसद ही जब सड़क के जनतंत्र को संभालने की स्थिति में नही होगा तो क्या ये कहा जा सकता है कि भारत बदल रहा है । या फिर फेल भारत सफल होने के लिये छटपटा रहा है । क्योकि बीते 70 बरस की सियासत ने दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश को बाजार में बदल दिया है। नागरिकों को कन्ज्यूमर बना दिया है। उत्पादन से बड़ा नोट हो गया है। खेती से ज्यादा कमाई सेवा क्षेत्र ने समेट ली। और संसद की नुमाइन्दगी भी रईसों के इर्द -गिर्द घुमड़ने लगी। नीतियां पैसेवालों के लिये बनने लगी। योजनाओं के दायरे में 80 फीसदी नागरिक पैकेज पर टिक गया। 20 फीसदी उपभोक्ता के लिये बजट बनाया जाने लगा तो ऐसा फैसला चाहे अनचाहे देश को ऐसे मुहाने पर खड़ा तो कर ही गया है, जहां से हर राजनेता का रास्ता अब संसद की तरफ नहीं सडक की तरफ जाता है। क्योंकि सडक की सियासत का रास्ता अभी भी एक रुपये को महत्व देता है और संसद के भीतर 500 या दो हजार के नोट मायने रखते है। और कभी नोट को ध्यान से देखिये तो सिर्फ एक रुपये की जिम्मेदारी भारत सरकार लेती है। बाकि हर नोट पर रिजर्व बैक धारक को नोट देने का वायदा करता है। ये ठीक उसी तरह है जैसे खेत खलिहानों में किसानों को बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर मिल सके इस जिम्मेदारी की बात तो भारत सरकार करती है। लेकिन उपजाये गया अनाज की कीमत बाजार में होगी क्या ये भारत सरकार नहीं बल्कि मंडी चलाने वाले दलाल तय करते हैं। तो सोचना शुरु कीजिये आखिर क्यों देश की इकनॉमी नोटों की अर्थव्यवस्था पर चलायी जा रही है। ना कि उत्पादन। खेती और मानव संसाधन पर। आखिर ऐसे हालात क्यों बनाये जा रहे है, जहां किसान की फसल नोट के सामने बेबस है। उच्च शिक्षा हासिल करने वाले युवा छात्र अनपढ़ करोड़पति के सामने बेबस हैं। और अपनी ही कमाई को लेने के लिये हर नागरिक बैंक के सामने बेबस हैं।

तो क्या भारत की इकनामी धीरे धीरे व्यवसायिक बैंकों की खाली खातों में रकम लिखकर और भरकर आगे बढ़ कर रही है। यानी देश को बाजार में बदलने के बाद उपभोक्ता संस्कृति का असल चेहरा अब सामने आ रहा है जब बाजारों की चकाचौंध भी दुनिया के सबसे ज्यादा उपभोक्ता वाले देश में इसलिये थम गई है क्योंकि ना दिखाई देने वाली इक्नामी यानी नोट की कीमत सोना, चादी, जमीन, घर , अनाज से भी ज्यादा कीमती हो गई है और नोट के जरीये राजनीतिक सत्ता ही जनता से सिर्फ वायदा कर रही है कि अच्छे दिन आ जायेंगे। ठीक उसी तरह जैसे नोट पर रिजर्व बैक धारक को वायदा करता है। यानी सच पर अभासी सच हावी हो चला है । और अभासी सच का हथियार है बैंकिंग सर्विस । यानी बैंकिंग सर्विस ही अब देश की इकनॉमिक सर्विस होगी, ये संकेत तो साफ हो चले हैं। तो जिस बैंक की टकटकी लगाये हर आदमी आज देश में देख रहा है उस बैंकिंग सर्विस का सच भी समझ लीजिये। क्योंकि यही वह बैंक हैं, जिनसे विजय माल्या कर्ज लेकर बिना चुकाये लंदन भाग सकते है। और यही वो बैंक है, जिनसे कर्ज लेकर ना चुकता पाने पर किसान को खुदकुशी करता है। और देश के 20-30 औघोगिक घरानों के पास बैंक का सवा लाख करोड़ से ज्यादा पड़ा है लेकिन वह बैंक को लौटा नहीं रहे और बैंक ले नहीं पा रहा। तो दो सवालो को समझना होगा। पहला, बैंकों में पैसा देश के नागरिकों का ही है। दूसरा,बैंक का 90 फिसदी पैसा सरकार या उघोगपति कर्ज पर लेते हैं। यानी आज जिस तरह जनता अपने ही रुपयों को पाने के लिये नोट बदल रही हैं। अगर देश का नागरिक सोच लें कि वह बैंकों से सारा पैसा निकाल लेगा तो क्या बैक उसे सारा पैसा देने की स्थिति में होगा। यकीनन नहीं। तो जरा बैंकिंग सर्विस के जरीये उन हालातों को समझें जहा आप एक लाख रुपये बैक में जमा कराते है । बैक उघोगो से ब्याज लेकर 90 हजार रुपये कर्ज में दे देता है। 90 हजार लौटने पर बैक 81 हजार फिर ब्याज लेकर कर्जपर दे देता है। यानी जनता के पैसे से बैक ब्याज लेकर जनता के पैसे को ही उघोगों या कारपोरेट को कर्ज देता है। बैंक की अपनी लागत कुछ नहीं होती। लेकिन बैंक का टर्न ओवर बढता जाता है। औऱ इस प्रक्रिया में रुपये की कीमत गिरती जाती है। यानी अगर लोग ये सोच लें कि कि बैंक से रुपया निकाल कर वह जमीन, सोना या अनाज ही खरीद लें तो बैक के पास इतनी रकम होगी ही नहीं। यानी जो बड़े बुजुर्ग आज बैंक की लाइन में खडे होकर अपने ही पैसों के लिये तरस रहे है अगर वह ये सोच रहे होंगे कि पहले की ठीक था। जब सामान बदलकर जिन्दगी चलती थी। तो समझना होगा कि 1933 में बैंकों ने गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म इसीलिये किया। जिससे रुपये की ताकत खत्म हो जाये। यानी पहले जितना रुपया लेकर बैक में व्यक्ति जाता था उतने का सोना-चांदी मिल जाता था। अब ये संभव नहीं है कि जितना रुपया आपने बैंकों में जमा किया उस कीमत में एक बरस बाद उतना ही सामान मिल जाये जो जमा करते वक्त था। और अगर किसी देश को रुपये की जरुरत होगी तो वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ देशों को कर्ज देते हैं। देश कर्ज ना चुका पाने की स्थिति में नोट छापते हैं। और फिर महंगाई बढती है। समाज में असमानता बढ़ती है। और माना यही जाता है कि बैंकिंग सर्विस के जरीये ही सत्ता अपने नागरिको पर और ताकतवर देश कमजोर देशों पर राजकर अपनी नीतियों को लागू कराते है । तो लोकतंत्र का नया राग संसद से नहीं बैंक से मिलने वाले नोट पर जा टिका है।

Monday, November 7, 2016

चकाचौंध की व्यवस्था से अब तो सचेत हो जायें !

जब जिन्दगी पर बन आई तो हंगामा मच गया। हवा जहरीली हुई तो सांसें थमने लगीं। आंखों में जलन शुरु हुई तो गैस चेंबर की याद आ गई। लेकिन क्या वाकई जिन्दगी की परवाह किसी को है। मौजूदा वक्त में जो सवाल देश के है उन्हीं के आसरे जिन्दगी को टोटल लें तब हवा में जहर क्यों और दूर हो कैसे इसपर भी बात होगी। क्योंकि जिस दौर में देशभक्ति जवानों की शहादत पर जा टिकी है, उस दौर में इसी बरस 93 जवान सीमा पर शहीद हो गये। जिस वक्त फसल की जड़ यानी खूंटी के जलने से फैलते जहरीले धुयें में मौत दिखायी दे रही है, तब इसी बरस 1950 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। जब दिल्ली की सडक पर जेएनयू के छात्र नजीब के गायब होने पर हंगामा मचा है। तब देश में 26 हजार से ज्यादा बच्चे इसी बरस लापता हो चुके हैं। जिस दौर में सफाई और विकास पर जोर है उसी दौर में फैंके जाते कचरे में लगती आग। कच्चे उघोगों से निकलता धुआं और सडक निर्माण के लिये सीमेंट,लोहा, ईंट, कोलतार से निकलने वाला धुआं 22 फीसदी बढ़ चुका है। और इस कतार में डिजल के ट्रक-एसयूवी का इस्तेमाल 12 फिसदी बढ़ गया। लकडी-कोयले से निकलने वाले धुये में 3 फीसदी की बढोतरी हो गई। बिजली उत्पादन बढाने के प्रोजेक्ट ने 4 फिस जहर हवा में घोल दिया । तो क्या जिन्दगी धुआं धुआं है और विकास की रफ्तार बेफिक्र है। या फिर सरकारी नीतियां जिस रास्ते जिन्दगी जीने को मजबूर कर रही हैं, उस दिशा में अब भारत ने सोचना बंद कर दिया है।

ये सवाल इसलिये क्योंकि वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के ही मुताबिक भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में एक उपभोक्ता के बराबर 89 लोग हैं। यानी देश में विकास की समूची थ्योरी ही जब बाजार या कहें उपभोक्तावाद पर टिकी है तब जिस रास्ते कमाई या विकसित होने की नीतियां लाई जा रही हैं। उसमें डेढ़ करोड़ कन्जूमर के हत्थे देश के सौ करोड लोगों के जीवन से खिलवाड़ तो नहीं किया जा रहा है। क्योंकि गांव से औसत दो करोड़
लोगो का पलायन बीते 5 बरस में हर बरस हुआ। दिल्ली में ही 80 लाख रिहाइश बस्तियों में सिमटी है। कचरे से खाद बनाने की तकनीक जो दिल्ली में लगी है उसकी सीमा 10 फिसदी है। यानी दिल्ली की हवा में घुले जहर के साये में हर सवाल मौत से ज्यादा डरावना है। लेकिन अर्से बाद महानगर ही नहीं देश की राजधानी और उपभोक्ताओं की जिन्दगी पर बन आई है तो रास्ता किसी को नहीं सूझ रहा है। और सरकारें भी जिस डिहे पर खडी होकर खतरे की इस घंटी से निजात पाना चाहती है वह है कितना खोखला। उसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि सूखी जड़ों में लगी ये आग उतनी घातक नहीं है जितना मशरुम की तरह फैली देश झुग्गी-झोपडिया और बस्तियां है। जो असमानता का प्रतीक भी है और अंधेरे की जमीन पर चकाचौंध की शहरी सम्यता खड़ा करने की सोच भी है। क्योंकि जिस तरह कंक्रीट के मकान है। गाडियों का हुजूम है। और अव्यवस्थित-असमान समाज के विकास की सोच है। उसके भीतर का सच यही है कि खेती की सवा लाख हेक्ट्यर जमीन हर बरस शहरी कंक्रीट के लिये हड़पी जा रही है। 9 फिसदी नदियों की जमीन हथिया ली गई । 10 फीसदी जंगल काट लिये गये। 19 फिसदी गाडियां बढ़ गईं। 17 फिसदी कचरा बढ बीते पांच बरस में बढ़ चुका है। तो क्या वाकई देश जिस रास्ता निकल पडा है उसमें आने वाले वक्त में हर शहर को आगे बनने के लिये दिल्ली के रास्ते आना ही विकसित होना पडेगा । क्योंकि किसानों के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर हो क्या सरकार के पास कोई नीति नहीं है । शहरों हो कैसे , इसकी कोई योजना सरकारों के पास है नहीं । शहर या महानगर ही नहीं देश की राजधानी में भी पब्लिक ट्रासपोर्ट को कोई विजन है नहीं। निर्माण क्षेत्र कैसे पर्यावरण को प्रभावित ना करें कभी किसी ने सोचा ही नहीं। दिल्ली में तो हर वक्त निर्माण कार्य ने बिमारी फैलाने में इतनी सहूलियत पैदा कर दी है कि डेंगू हो या चिकनगुनिया या फिर अब बर्ड फ्लू । आदमी से ज्यादा मच्छर इसमें रहने और विकसित होने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हालात है कितने बुरे इसका अंदाज इसी से लग सकता है सिर्फ दिल्ली को अगर हवा में जहर से निजात दिलाना है तो खेतो में बडी गली फसल की जड यानी खूंटी ना जले इसके लिये 4 राज्यो के किसानो के लिये 3 लाख करोड चाहिये।

 पब्लिक ट्रासपोर्ट के लिये 9 हजार करोड तुरंत चाहिये। औघोगिक घुआं रोकने के लिये सवा लाख करोड तुरंत चाहिये। निर्माण कार्य का असर वातावरण पर ना पड़े तुरंत 80 हजार करोड चाहिये। यानी 6-7 लाख करोड का असर दिल्ली के वातावरण को तभी ठीक कर पायेगा जब दिल्ली को देश के हालात से काट कर कही और ले जाया जाये। जो संभव है नहीं तो फिर सवाल दिल्ली का नहीं देश का है। और देश मदमस्त है। तो भारत सरकार को कम से कम पर्यावरण पर बनी सबसे चर्चित फिल्म " वॉल.ई " देखनी चाहिये, जिसमें पृथ्वी डंपिग यार्ड में बदल जाती है। मनुष्य दूसरे ग्रह पर चले जाते हैं। गगनचुंबी इमारते कूडे के ढेर में बदल जाती है । रोबोट के जरीये पृथ्वी पर कूडे को व्यवस्थित रुप से रखा जाता है । और बाजार हो या बैक या फिर विकास की चकाचौध के सारे प्रतीक,सबकुछ कूड़ा रखने में ही काम आते है।