Thursday, June 29, 2017

मोदी,संसद और गांधी....आधी रात का सच

" कई सालों पहले, हमने नियति के साथ एक वादा(Tryst with Destiny) किया था, और अब समय आ गया है कि हम अपना वादा निभायें, पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक तो निभायें. आधी रात के स्ट्रोक के समय, जब दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जाग जाएगा."

ये उस आधी रात का सच है जब आधी दुनिया सो रही थी और भारत आजादी के लिये जाग रहा था। 14-15 अगस्त 1947 की आधी रात संविधानसभा को सत्ता हस्तांतरित होनी थी। एतिहासिक और यादगार अवसर। रात 11 बजे वंदे मातरम से सभा की शुरुआत हुई। और ठीक बारह बजे नेहरु ने प्रसिद्द भाषण दिया । लेकिन संयोग देखिये आजादी की मशाल जिस शख्स ने उठायी और गुलामी के अंधेरे को जिस शख्स ने दूर किया, वह शख्स 15 अगस्त 1947 को संसद में नही बल्कि दिल्ली से डेढ हजार किलोमीटर दूर कलकत्ता के बेलियाघाट के घर में अंधेरे में बैठे रहे। ये शख्स और कोई और नहीं महात्मा गांधी थे। जो दिल्ली में आजादी के जश्न से दूर बेलियाघाट में अपने घर से राजगोपालाचारी को ये कहकर लौटा दिये कि घर में रोशनी ना करना। आजदी का मतलब सिर्फ सत्ता हस्तांतरण नहीं होता। लेकिन आजादी कैसे सिर्फ एक तारीख तले कैद हो गई। ये 1972 में आजादी के सिल्वर जुबली और 1997 में आजादी के गोल्डन जुबली को आधीरात के वक्त इसी संसद में मनाकर बताया गया। और आज कांग्रेस ने संसद को आधीरात को जगमग करने का खुला विरोध करते हुये बायकाट कर दिया, जिसे मौजूदा सत्ता ने जीएसटी तले देश को आर्थिक आजादी से जोड़ते हुये आधीरात को संसद को जगमग करने की सोची। तो सवाल सत्ता-विपक्ष के टकराव का नहीं है।

सवाल तो उस संसद की मर्यादा का है, जहा 70 बरस पहले नेहरु ने राष्ट्रसेवा का प्रण  लिया था। और 70 बरस बाद आजादी से आर्थिक आजादी के नारे तले भारत को संसद की जगमग तले चकाचौंध मानने के सपने संजोये जा रहे हैं। जबकि इन 70 बरस में किसान-मजदूरों की मौत ने खेती को श्मशान में बदल दिया है। औद्योगिक  मजदूरों की लड़ाई न्यूनतम को लेकर आज भी है। गरीबी की रेखा के नीचे 1947 के भारत से दोगुनी तादाद पहुंच चुकी है। पीने के साफ पानी से लेकर भूख की लडाई अब भी लड़ी जा रही है। तो 30 जून की आधीरात को पीएम क्या कहेंगे उसका तो इंतजार कीजिये लेकिन याद कर लिजिये 15 अगस्त 1947 की आधी रात  पहले पीएम नेहरु ने कहा, "भारत की सेवा मतलब लाखों पीड़ित लोगों की सेवा करना है. इसका मतलब गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और अवसर की असमानता को समाप्त करना है. हमारी पीढ़ी के सबसे महानततम व्यक्ति [ महात्मा गांधी ] की महत्वाकांक्षा हर आंख से एक-एक आंसू पौंछने की है. हो सकता है ये कार्य हमारे लिए संभव न हो लेकिन जब तक पीड़ितों के आँसू ख़त्म नहीं हो जाते, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा."

महात्मा गांधी ने तो गौ रक्षा का सवाल हो या किसानों का, हर सवाल को उठाया। संघर्ष किया तो क्या वाकई आधी रात को संसद को जगमग कर हालात सुधारने का ऐलान किया जा सकता है। क्योंकि याद कीजिये जिस गौ रक्षा के सवाल को लेकर देश के मौजूदा पीएम मोदी ने महात्मा गांधी को याद कर लिया। तो गांधी जी का क्या कहना था। छह अक्टूबर, 1921, को महात्मा गांधी ने  यंग इंडिया में लिखा , "हिंदू धर्म के नाम पर ऐसे बहुत से काम किए जाते हैं, जो मुझे मंजूर नहीं है....और गौरक्षा का तरीका है उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देना. गाय की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या करना  हिंदू धर्म और अहिंसा धर्म से विमुख होना है। हिंदुओं के लिए तपस्या द्वारा, आत्मशुद्धि द्वारा और आत्माहुति द्वारा गौरक्षा का विधान है. लेकिन आजकल की गौरक्षा का स्वरूप बिगड़ गया है।" तो करीब 96 बरस पहले  महात्मा गांधी ने गो रक्षा को लेकर जो बात कही थी-आज 96 बरस बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उन्हीं बातों के साए में गौ रक्षा पर अपनी बात कहनी पड़ी। तो क्या आजादी से 26 बरस पहले और आजादी के 70 बरस बाद भी सत्ता को गो रक्षा के नाम पर मानव हत्या के हालात से रुबरु होना ही पडाता है । तो भारत बदला कितना। संविधान अपना है। कानून अपना है। कानून की रक्षा के लिये संस्थाएं काम कर रही हैं। बावजूद इसके सिस्टम फेल कहां हैं,जो देशभर में कल लोग सडक पर उतर आये । सोशल मीडिया से शुरु हुए नॉट इन माई  नेम कैंपेन के तहत लोगो ने बोलना शुरु इसलिये कर दिया क्योकि सत्ता खामोश रही । और सिस्टम कही फेल दिखायी देने लगा । फेल इसलिये क्योकि गौरक्षा के  नाम पर पहलू खान से लेकर जुनैद तक। और 11 शहरों में 32 लोगो की हत्या गौ रक्षा के नाम पर की जा चुकी है। यानी शहर दर शहर भीड ने गो रक्षा ने नाम  पर जिस तरह न्याय की हत्या सडक पर खुलेआम की। और न्याय की रक्षा के लिये तैनात संस्थान ही फेल नजर आये उसमें महात्मा गांधी को याद कर पीएम का भावुक होना कैसे न्याय दिलायेगा ये सवाल भी उठा । तो राजनीति की अक्स तले गो रक्षा का सवाल भी अगर उठेगा तो फिर गोरक्षा के नाम पर मानवाता की
हत्या का सवाल उठाने वाले महात्मा गांधी की उस आवाज को सुन लें जो उन्होने 19 जनवरी, 1921 को गुजरात के खेड़ा जिले में स्वामीनारायण संप्रदाय के तीर्थस्थान पर एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए कही , " आप अंग्रेज अथवा मुसलमान की हत्या करके गाय की सेवा नहीं कर सकते, बल्कि अपनी ही प्यारी जान देकर उसे बचा पाएंगे. ...मैं ईश्वर नहीं हूं कि गाय  बचाने के लिए मुझे दूसरों का खून करने का अधिकार हो. ...कितने हिंदुओं ने बिना शर्त मुसलमानों के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर दिया है. वणिकवृत्ति से गाय की रक्षा नहीं हो सकती’"

फिर महात्मा गांधी ही क्यो विनोबा भावे  को भी याद कर लिजिये । क्योकि पीएम ने उन्हे भी तो याद किया । विनोवा भावे ने गौरक्षा के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी-देश में गौरक्षा के  लिए एक कानून बनाने की मांग को लेकर आंदोलन खड़ा किया, वो विनोबा भावे भी यह कहने से नहीं चूके , "हमें बचपन में सिखाया गया कि एक अस्पृश्य को छूने से जो अपवित्रता आ जाती है, वह गाय को छू लेने से दूर हो जाती है. जो जड़ बुद्धि एक मनुष्य को अपवित्र मानने की बात कहती है, वही एक पशु को मनुष्य से भी पवित्र मानने की बात कहती है. इस युग में यह मानने योग्य नहीं कि गाय में सभी देवताओं का निवास है और दूसरे प्राणियों में अभाव है. इस प्रकार की अतिशयतापूर्ण पूजा को मूढ़ता ही कहना होगा." तो अतीत की इन आवाजों का मतलब है क्या। क्योंकि महात्मा गांधी ने तो नील किसानो की मुक्ति के लिये चंपारण सत्याग्रह भी किया । और किसानों के हक को लेकर कहा भी , " मैं आपसे यकीनन कहता हूं कि खेतों में  हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं, जबकि अंग्रेज और आप वहां सोने के लिए आनाकानी करेंगे...... किसान तलवार चलाना नहीं जानते, लेकिन किसी की तलवार से वे डरते नहीं हैं.......किसानों का, फिर वे भूमिहीन मजदूर हों या मेहनत करने वाले जमीन मालिक हों, उनका स्थान पहला है। उनके परिश्रम से ही पृथ्‍वी फलप्रसू और समृद्ध हुई हैं और इसलिए सच कहा जाए तो जमीन उनकी ही है या होनी चाहिए, जमीन से दूर रहने वाले जमींदारों की नहीं।" तो गांधी ने किसानों से ऊपर किसी को माना ही नहीं। लेकिन गांधी का नाम लेकर राजनीति करने वालों के इस देश में किसानों का हाल कभी सुधरा नहीं-ये सच है। आलम ये कि मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान गोली चलने से 5 लोगों की मौत पर तो हर विपक्षी दल ने आंसू बहाए और विरोध जताया-लेकिन उसी मध्य प्रदेश में 6 जून के बाद से अब तक 42 किसान खुदकुशी कर चुके हैं,लेकिन चिंता में डूबी आवाज़े गायब हैं। हद तो ये कि 9 किसानों ने उसी सीहोर में खुदकुशी की-जो शिवराज सिंह चौहान का गृहनगर है। और मध्य प्रदेश में ऐसा कोई दिन नहीं जा रहा-जब किसान खुदकुशी नहीं कर रहा। और उससे सटे धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तिसगढ में बीते 15 दिनो में 10 किसानों ने खुदकुशी कर ली । मसलन , कुलेश्वर देवांगन, दुर्ग, 11 जून , भूषण गायकवाड़, ग्राम गोपालपुर डोंगरगढ़ 16 जून , रामझुल ध्रुव, लोहारा कवर्धा 17 जून , मंदिर सिंह ध्रुव भोखा बागबाहरा 22 जून , हीराधर निषाद जामगांव बागबाहरा 24 जून , ज्ञानी राम ग्राम अण्डी कांकेर 24 जून , सीताराम कौशिक मोहतरा
कवर्धा 24 जून , कुंवर सिंह निषाद बरसांटोला डोंगरगढ़ 25 जून , डेराह चंद ग्राम घुमका राजनांदगांव 25 जून , चन्द्रहास साहू ग्राम कुरुद जिला धमतरी 26 जून । तो किसानों के अच्छे दिन के बजाय हर सूबे में बुरे दिन क्यों आ गए और तमाम दावों के बावजूद देश के किसानों के अच्छे दिन नहीं आ पा रहे-ये सच है। तो सवाल यही है कि किसानों की दशा सुधरेगी कैसे। क्योंकि मौजूदा सत्ता कर्ज माफी से आगे देख नहीं पा रही है । जबकि महात्मा गांधी ने अपने हर आंदोलन के केन्द्र में किसानो को रखा। क्योंकि उनका मानना था कि भारत अपने सात लाख गांवों में बसता है, न कि चंद शहरों में।

Tuesday, June 27, 2017

ट्रंप-मोदी का गले मिलना गले की फांस ना बन जाये !

अमेरिका में ट्रंप -मोदी का गले मिलना चीन से लेकर पाकिस्तान और ईरान तक के गले नहीं उतर रहा है । तो चीन सिक्किम और अरुणाचल में सक्रिय हो चला है। तो पाकिस्तान कश्मीर और अफगानिस्तान के लिये नई रणनीति बना रहा है और पहली बार अमेरिका के इस्लामिक टैररइज्म के जिक्र के बीच ईरान ने बहरीन, यमन के साथ साथ कश्मीर को लेकर इस्लामिक एकजुटता का जिक्र कहना शुरु कर दिया है। और इन नये हालातो के बीच चीन ने एक तरफ मानसरोवर यात्रा पर अपने दरवाजे से निकलता रास्ता बंद कर दिया है । तो दूसरी तरफ कल जम्मू से शुरु हो रही अमरनाथ यात्रा में अब तक सबसे कम रजिस्ट्रेशन  हुआ है। जबकि परसों से भक्त बाबा बर्फानी के दर्शन कर सकेंगे। तो क्या आतंकवाद के खिलाफ भारत के साथ खडे हुये अमेरिका को लेकर साउथ-इस्ट एशिया नये तरीके से केन्द्र में आ गया है।

तो पहली बार अमेरिका ने आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा और भारत ने इस्लामिक आंतकवाद का शब्द इस्तेमाल ना कर आतंकवाद को कट्टरता से जोड़ा है। बावजूद इसके तीन हालातो पर अब गौर करने की जरुरत है। पहला, ट्रंप ने नार्थ कोरिया का नाम लिया लेकिन पाकिस्तान का नाम नहीं लिया। दूसरा, ईरान को इस्लामिक टैररइज्म से ट्रंप जोड़ चुके हैं। लेकिन भारत ईरान पर खामोश है। तीसरा,ईरान कश्मीर के आतंक को इस्लाम से जोड़ इस्लामिक देशों के सहयोग की बात कर रही है। तो सवाल कई हैं  मसलन आतंक को इस्लामिक टैररइज्म माना जाये। आतंक को दहशतगर्दों का आतंक माना जाये। आतंक को पाकिसातन की स्टेट पॉलेसी माना जाये। और अगर तीनों हालात एकसरीखे ही हैं सिर्फ शब्दो के हेर फेर का खेल है तो नया सवाल  अमेरिका के अंतराष्ट्रीय आतंकवादियों की सूची सैयद सलाउद्दीन के डालने का है। क्योंकि अमेरिकी सूची में लश्कर का हाफिज सईद है। आईएसएस का बगदादी है। हक्कानी गुट का सिराजुद्दीन हक्कानी है । अलकायदा का जवाहरी है।

लेकिन इन तमाम आतंकवादियो की हिंसक आतंकी कार्रवाई लगातार जारी है । और अमेरिकी आंतकी सूची पर यूनाइटेड नेशन ने भी कोई पहल नही की । और खास बात ये है कि अमेरिका के ग्लोबल आतंकवादियों की सूची में 274 नाम है । इसी बरस 25 आतंकवादियों को इस सूची में डाला गया है । यानी नया नाम सैययद सलाउद्दीन का है तो नया सवाल कश्मीर का है। क्योंकि 1989 में सलाउद्दीन  घाटी के इसी आतंकी माहौल के बीच सीमापार गया था और तभी से पाकिस्तान ने अभी तक सैय्यद सलाउ्द्दीन को अपने आतंक के लिये सलाउद्दीन को ढाल बनाया  हुआ था। लेकिन सवाल है कि क्या वाकई अमेरिकी ग्लौबल टैरर लिस्ट में सैयद सलाउद्दीन का नाम आने से हिजबुल के आंतक पर नकेल कस जायेगी। तो जरा आतंक को लेकर अमेरिकी की समझ को भी पहले समझ लें । दरअसल 16 बरस पहले अमेरिकी  वर्लड ट्रेड टावर पर अलकायदा के हमले ने अमेरिका को पहली बार आतंकवादियों की लिस्ट बनाने के लिये मजबूर किया ।

और बीते 16 बरस में अलकायदा के 34 आतंकवादियों को अमेरिका ने ग्लोबल टैरर लिस्ट में रख दिया । लेकिन आतंक का विस्तार जिस तेजी से दुनिया में होता चला गया उसका सच ये भी रहा कि बीते सोलह बरस में एक लाख से ज्यादा लोग आतंकी हिंसा में मारे गये । और अमेरिकी टेरर लिस्ट में अलकायदा के बाद इस्लामिक स्टेट यानी आईएस के 33  आतंकवादियों के नाम शामिल हुये। लेबनान में सक्रिय हिजबुल्ला के 13 आतंकवादी तो हमास के सात आंतकवादियो को ग्लोबल टैटरर लिस्ट में अमेरिका  ने डाल दिया । अमेरिकी लिस्ट में लश्कर और हक्कानी गुट के चार चार आतंकवादियों को भी डाला गया । यानी कुल 274 आंतकवादी अमेरिकी लिस्ट में  शामिल है । और अब कल ही सैयद सलाउद्दीन का नाम भी अमेरिकी ग्लोबल टैरर लिस्ट में आ गया । तो याद कर लीजिये जब पहली बार सलाउद्दीन ने बंदूक ठायी थी । 1987 के चुनाव में कश्मीर के अमिरकदल विधानसभा सीट से सैयद सलाउद्दीन जो तब मोहम्मद युसुफ शाह के नाम से जाना जाता था। मुस्लिम यूनाइटेड फ्रांट के टिकट पर चुनाव लड़ा। हार गया। या कहें हरा दिया गया। तब युसुफ शाह का पोलिंग एंजेट यासिन मलिक था। जो अभी जेकेएलएफ का मुखिया  है। और पिछले दिनो पीडीपी सांसद मुज्जफर बेग ने कश्मीर के हालात का बखान करते करते जब 1987 का जिक्र ये कहकर किया कि सलाउद्दीन हो या यासिन मलिक  उनके हाथ में बंदूक हमने थमायी। यानी उस चुनावी व्यवस्था ने दिल्ली के इशारे पर हमेशा लूट लिया गया। तो समझना होगा कि अभी कश्मीर में सत्ता पीडीपी की ही है। और पहली बार कश्मीर की सत्ता में पीडीपी की साथी  बीजेपी है जिसे घाटी में एक सीट पर भी जीत नहीं मिली।

इसी दौर में पहली बार किसी कश्मीरी आतंकवादी का नाम अमेरिका के अपनी ग्लोबल टैरर लिस्ट में डाला है। यानी उपरी तौर पर कह सकते हैं कि पाकिस्तान को पहली बार इस मायने में सीधा झटका लगा है कि कश्मीर की हिंसा को वह अभी तक फ्रीडम स्ट्रगल कहता रहा। कभी मुशर्रफ ने कहा तो पिछले दिनो नवाज शरीफ ने यूनाइटेड नेशन में कहा। और इसकी वजह यही रही कि भारत ने कश्मीरियों की हिसा को आतंकवाद से सीधे नहीं जोडा लेकिन अब जब सैयद सलाउद्दीन का नाम  ग्लौबल टैरर लिस्ट में डाला जा चुका है तो अब कशमीरियो की हिसा भी आंतकवाद के कानूनी दायरे में ही आयेगी । लेकिन भारत के लिये आंतक से  निपटने का रास्ता अमेरिकी सूची पर नहीं टिका है । क्योंकि सच तो ये भी है कि अमेरिकी ग्लोबल लिस्ट में जिस भी संगठन या जिस भी आतंकवादी का नाम है  उसकी आंतकवादी घटनाओ में कोई कमी आई नहीं है । यानी सिर्फ ग्लोबल टैरर लिस्ट का कोई असर पड़ता नहीं । और तो और यूएन की लिस्ट में लश्कर के हाफिज  सईद का नाम है । लेकिन हाफिज की आतंकी कार्रवाई थमी नहीं है । कश्मीर में आये दिन लश्कर की आंतकी सक्रियता आंतक के नये नये चेहरो के जरीये जारी है । यानी अमेरिकी पहल जब तक पाकिसातन को आंतकी देश घोषित नहीं करती तब तक पाकिस्तान पर कोई आर्थिक प्रतिबंध लग नहीं सकता । और प्रतिबंध ना लगने का मतलब अरबो रुपयो की मदद का सिलसिला जारी रहेगा । यानी अमेरिका अपनी सुविधा के लिये भारत के साथ खडा होकर उत्तर कोरिया का नाम लेकर चीन पर निशाना साध सकता है । लेकिन पाकिसातनी आंतकी संगठन जैश ए मोहम्मद के मुखिया अजहर मसूद को यूएन में चीन के क्लीन चीट पर भारत के साथ भी खडा नहीं होता। पाकिस्तान को आंतकी राज्य नहीं मानता क्योंकि अफगानिस्तान में उसे पाकिसातन की जरुरत है । तो फिर गले लगकर आतंक से कैसे लड़ा जा सकता है जब गले लगना गले की फांस बनती हो ।

Wednesday, June 14, 2017

क्या 2019 में किसान राजनीति का कोई नया मॉडल दे सकती है ?

मोदी के सामने कोई नेता नहीं टिकता। लेकिन देश में कोई मुद्दा बड़ा हो जाये तो क्या मोदी का जादू गायब हो जायेगा। ये सवाल इसलिये क्योंकि इंदिरा गांधी के दौर को याद कर लीजिये। कहां कोई विपक्ष का नेता इंदिरा गांधी के सामने टिकता था। खासकर 1971 के बाद इंदिरा लारजर दैन लाइफ की इमेज वाली जीती जागती नेता थीं। और कोई सोच भी नहीं सकता था कि इंदिरा की सत्ता जो 1973 तक अजेय दिखायी दे रही थी, 1974 के आते आते वही सत्ता डगमगाते दिखी । उस वक्त जेपी कोई इंदिरा के विकल्प नहीं थे। जेपी सिर्फ जनता के भीतर के सवालों को सतह पर ला रहे थे। और देखते देखते गुजरात से बिहार तक इंदिरा के खिलाफ आम जनता की गोलबंदी ही कुछ इस तरह होती चली गई कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी आंदोलन में शरीक हो गया। और संघ के भीतर की राजनीतिक कुलबुलाहट को भी पहली बार देवरस ने राजनीतिक शुद्दिकरण से कहीं आगे ला खड़ा किया। ठीक इसी तरह नया सवाल मोदी या कोई विकल्प के ना होने का नहीं बल्कि बेरोजगारी के बाद किसान के मुद्दों को लेकर जो कुलबुलाहट समाज के भीतर पनप रही है, अगर वह सतह पर आ जाये तो क्या देश की राजनीति बदल सकती है।

जाहिर है किसान या युवाओं से जुड़ा मुद्दा राष्ट् य राजनीति में ही उठा-पटक ना कर दे। इस पर बाखूबी मौजूदा सत्ता की नजर भी होगी और मौजूदा सत्ता को भी इंदिरा का दौर याद होगा। तो मुद्दा उभरेगा तो संघ की सक्रियता भी होगी। जैसे किसानों के मुद्दे पर किसान संघ सक्रिय है। यानी आने वाले वक्त में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहल मौजूदा सत्ता के लिये तमाम अवरोधों को दूर कर रास्ता निकालने की होगी ही। और मौजूदा हालात को देख कर कोई भी नौसिखिया राजनीतिज्ञ पहली जुबां में ये कह सकता है कि अब संघ स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिये दबाव बनायेगा और  आखिर में मोदी सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर खुद को नायक के तौर पर स्थापित कर लेगी। ये हो भी सकता है कि ये सब गुजरात चुनाव से एन पहले हो।

लेकिन ये भी पहली बार हो रहा है कि कोई एक दल यानी बीजेपी चुनाव दर चुनाव तो जीत रही है लेकिन देश में राजनीतिक शून्यता और गहरी होती जा रही है। यानी सवाल ये नहीं है कि कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर कोई भी विपक्ष या समूचा विपक्ष भी मौजूदा मोदी सरकार का विकल्प बन नहीं पा रहा है या इनका इकट्टा होना भी बीजेपी के लिये कोई खतरे की घंटी नहीं है। क्योंकि जब केन्द्र समेत 17 राज्यों में बीजेपी की सरकार हो चुकी हो और आने वाले वक्त में कर्नाटक, हिमाचल, ओड़िशा को लेकर भी लग रहा हो कि वहा भी बीजेपी आ जायेगी। तो फिर कह सकते है कि बीजेपी स्वर्णिम काल को  जी रही है। संघ के लिये बेहतरीन दौर है जब उसके प्रचारक सत्ता में है और एजेंडा देश में लकीर खींच रहा है। लेकिन इस दौर की बारीकी को समझें तो मुश्किल ये है कि बीजेपी जीत कर भी कमजोर हो रही है। संघ की सत्ता में होने के वाबजूद वह अपने ढलान पर है। और इसी कोई दूसर वजह नहीं बल्कि सिर्फ इतनी सी वजह है कि जिन मुद्दों के कटघरे में देश खड़ा है, उन मुद्दों को अभी तक सुलझाने के लिये जनता ने संघ परिवार या बीजेपी की तरफ देखा।


कांग्रेस सत्ताधारी है और उसकी सत्ता तले ही गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार , दलाली या संस्थानों के खत्म होने की शुरुआत हुई। और इन्हीं सवालों को नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार के वक्त मुद्दा भी बनाया। लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद अगर वही सवाल फन उठाये हुये हैं तो नया सवाल ये नहीं है कि फिर से जनता कांग्रेस को ले आये । नया सवाल ये है कि राजनीतिक व्यवस्था से मोहभंग के हालात बनना है। कांग्रेस की राजनीति का पर्याय बीजेपी में नहीं देखना है या कहें कमोवेश हर राजनीतिक दल का मतलब सत्ता में आने के बाद उसका कांग्रेसीकरण हो जाना है। ये भी कोई सोच सकता है। क्योंकि सरकारी आंकडो के लिहाज से ही समझें तो बीते 15 बरस में कमोवेश हर राजनीतिक दल ने एनडीए-यूपीए गठबंधन के दौर में सत्ता की मलाई चखी। लेकिन इन्ही 15 बरस में किसान ही नहीं बल्कि छात्र और बेरोजगार युवाओं की खुदकुशी के सच को परख लें तो हर घंटे दो किसान ने भी खुदकुशी की और हर घंटे दो छात्र या युवा बेरोजगार ने भी खुदकुशी की। 15 बरस में किसानों की खुदकुशी का आंकड़ा 2 लाख 34 हजार से ज्यादा का है। और इन्हीं 15 बरस में छात्रो की खुदकुशी 95 हजार से जेयादा तो युवा बेरोजगारों की खुदकुशी की संख्या एक लाख 44 हजार से ज्यादा की है। तो फिर सत्ता के परिवर्तन ने ही क्या किसान-युवाओ में उम्मीद जगाये रखी कि हालात ठीक हो जायेंगे। अगर ऐसा है तो अगला सवाल ये भी है कि पहली बार किसान जिस तरह अपनी फसल की किमत ना मिलने से परेशान है और सरकार को भी सुझ नहीं रहा है कि आखिर कैसे फसल की किमत को भी देने की व्यवस्था वह कर दें । तो समाधान के रास्ते कर्ज माफी और फसल बीमा से सुलझाने के प्रयास तल खोजे जा रहे हैं। लेकिन राजनीति इस सच से आखे मूंदे हुये है कि किसानों के मुद्दे से आंखे नेहरु के दौर में भी मूंदी गईं। तब लाल बहादुर सास्त्री ने जय जवान का नारे के साथ जय किसान को भी जोड़ा। लेकिन इंदिरा गांधी से लेकर मोदी तक के दौर में किसान कभी पंचवर्षीय योजनाओं में ही नहीं बल्कि हर बरस के बजट मे भी जगह पा नहीं पाया। और 1991 के बाजार इकनॉमी से पहले या बाद के 25 बरस के दौर में ये मान कर हर राजनीतिक सत्ता ने काम किया कि खेती पर जितनी बडी तादाद टिकी हुई है उसमें जीडीपी में खेती का योगदार कम होगा ही। यानी रुपया कहा से कमाया जाये और कहां खर्च किया जाए।

अर्थव्यवस्था की सारी थ्योरी इसी पर टिकी रही। यानी किसान का पेट भरा रहे । किसान के बच्चों को शिक्षा-स्वास्थ्य सर्विस मिले। देश के सोशल इंडेक्स को छूने की स्थिति में किसान भी रहे। ये कभी किसी सरकार ने सोचा ही नहीं। और चुनावी राजनीति को ही लगातार लोकतंत्र का जामा पहनाकर किसान ही नही युवा बेरोजगार और हाशिये पर तबको में जब यही आस जगायी गयी की सत्ता बदलने से हालात बदल जायेंगे तो क्या 2019 का चुनाव इस सोच के विकल्प के तौर पर याद किया जायेगा। क्योंकि 2014 में जो भी वादे गढ़े गये। जो भी राजनीतिक आरोप गढ़े गये, वह सही - गलत जो भी हो लेकिन पहली बार देश प्रचार प्रसार या कहे टेक्नालाजी के जरीये ऐसे चुनावी दौर में आया, जहां जो दिल्ली में दिखायी देता वही मंदसौर में दिखायी दे रहा था । जो मुंबई की हवा में राजनीतिक माहौल की गर्मी थी वही यूपी के किसी गांव में तपिश महसूस की जा रही थी । यानी आर्थिक असामनता के बावजूद चुनावी लोकतंत्र ने महानगर से लेकर गांव तक को एक प्लेटफार्म पर ला खडा कर दिया । और चाहे अनचाहे मोदी सरकार से नहीं बल्कि वोटरो की तादाद से भी चुनावी लोकतंत्र का आकलन होने लगा। और जब देश इतना राजनीतिक हो गया कि हर मुद्दे का राजनीतिक समाधान ही खोजने लगा तो फिर 2019 के चुनाव में ये अक्स क्या हालात पैदा कर सकता है ये किसे पता है। क्योंकि जिस तरह किसानों के संघर्ष व किसानों की त्रासदी , उनके दर्द को हडपने की राजनीतिक दल सोच रहे है उसमें पहली नजर में लग तो यही रहा है कि मोदी की राजनीति के सामने बौने पडते हर राजनीतिक दलों को पहली बार किसान संघर्ष में अपनी सियासी जमीन दिखायी देने लगी है। दरअसल, संसदीय चुनावी राजनीति के अक्स में अगर किसान को वोटर मान कर लोकतंत्र की धार को परखे तो फिर देश के इस अनूठे सच को भी समझ लें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल वोटर 83करोड 40 लाख , 82 हजार 814 वोटर थे । जिनमे से बीजेपी को 17 करोड 14 लाख 36 हजार 400 वोट मिले और दूसरी तरफ कांग्रेस को 10 करोड 67 लाख 32 हजार 985 वोट मिले । और देश में किसान मजदूर का सच ये है कि कुल 26 करोड 29 लाख किसान-मजदूर देश में है । जिनमें 11 करोड 86 लाख किसान तो 14 लाख 43 हजार मजदूर । यानी देश के ससंदीय राजनीति के इतिहास में 1951 से लेकर 2014 तक कभी किसी एक पार्टी को देश में मौजूद किसान-मजदूरों की तादाद से ज्यादा वोट नहीं मिला । लेकिन हर राजनीतिक दल के चुनावी घोषणापत्र में किसानों के हक की बात हर किसी ने जरुर की। 2014 में काग्रेस और बीजेपी दोनो ने बकायदा अपने अपने मैनिफेस्टो में किसानो  पर पन्ना भर खर्च भी किया गया। कांग्रेस ने उपलब्धियां गिनायी तो बीजेपी ने भी 2014 के चुनावी घोषणापत्र में 50 फीसदी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने का वादा किया । और सत्ता में आने अगले बरस ही केन्द्र सरकार 50 फिसदी समर्थन मूल्य बढाने से 2015 में ही पलट गई । बकायदा 21 फरवरी 2015 को कोर्ट में एफिडेविट देकर कहा कि 50 फीसदी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना संभव नहीं है। सरकार के मुताबिक ऐसा करने से बाजार पर विपरित प्रभाव होगा। और तो और जिन राज्यों में किसानों को प्रति क्विंटल धान पर तीन सौ रुपये का बोनस मिलता था वह भी बंद कर दिया गया । तो सवाल सिर्फ चुनावी वादे और उससे पलटने भर का नहीं है। सवाल तो ये भी है कि भारत ने डब्ल्यूटीओ के साथ समझौता कर 10 फिसदी से ज्यादा समर्थन मूल्य ना बढाने पर हस्ताक्षर किये हुये हैं। तो आखिरी सवाल ये भी है कि जब राजनीतिक सत्ता के लिये बाजार ही मायने रखता है। और बाजार अर्थव्यवस्था में किसान को कोई जगह है ही नहीं तो फिर संसदीय चुनावी लोकतंत्र का मतलब किसान के लिये है क्या। और अगर किसानों की खुदकुशी तले ही चुनावी राजनीति का लोकतंत्र जी रही है तो फिर किसान को करना क्या
चाहिये। क्योंकि एक सच तो ये भी है कि किसानों से जुडे देश भर में 62 किसान संघ काम कर रहे हैं यानी राजनीति कर रहे हैं। और राजनीति करने वाले किसानों की जिन्दगी बदल गई लेकिन किसान की हालत बद से बदतर ही हुई। तो फिर 2019 में राजनीति को ही चुनावी लोकतंत्र की चौखट पर किसान खारिज कर दें या नये तरीके से परिभाषित कर दें । मानिये या ना मानिये हालात उसी दिशा में जा रहे है। जो खतरे की घंटी है। सवाल यही है कि राजनीतिक सत्ता इसे समझेगी या सत्ता के लिये राजनीति इस आग को और भड़कायेगी। और किसान राजनीति के इस सच को समझेंगे और देश को ही राजनीति का नया मॉडल देंगे।

Monday, June 12, 2017

संघर्ष की मुनादी के लिये 72 बरस के बूढ़े का इंतजार

इंदिरा गांधी कला केन्द्र से प्रेस क्लब तक
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खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का / हुकुम शहर कोतवाल का... / हर खासो-आम को आगह किया जाता है / कि खबरदार रहें / और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से / कुंडी चढा़कर बन्द कर लें /गिरा लें खिड़कियों के परदे /और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें /क्योंकि , एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में / सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है ! धर्मवीर भारती ने मुनादी नाम से ये कविता नंवबर 1974 में जयप्रकाश नारायण को लेकर तब लिखी जब इंदिरा गांधी के दमन के सामने जेपी ने झुकने से इंकार कर दिया । जेपी इंदिरा गांधी के करप्शन और तानाशाही के खिलाफ सड़क से आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे । और संयोग देखिये या कहे विडंबना देखिये कि 43 बरस पहले 5 जून 1974 को जेपी ने  इंदिरा गांधी के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया । और 5 जून 2017 को ही दिल्ली ने हालात पलटते देखे । 5 जून को ही इंदिरा गांधी की तर्ज पर मौजूदा सरकार ने निशाने मीडिया को लिया । सीबीआई ने मीडिया समूह एनडीटीवी के प्रमोटरो के घर-दफ्तर पर छापा मारा । और 5 जून को ही  संपूर्ण क्रांति दिवस के मौके पर दिल्ली में जब जेपी के अनुयायी जुटे तो उन्हे जगह और कही नहीं बल्कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में मिली । यानी जिस दौर में जेपी के आंदोलन से निकले छात्र नेता ही सत्ता संभाल रहे हैं, उस वक्त भी दिल्ली में जेपी के लिये कोई इमारत कोई कार्यक्रम लायक हाल नहीं है जहा जेपी पर कार्यक्रम हो सके । तो जेपी का कार्यक्रम उसी इमारत में हुआ जो इंदिरा गांधी के नाम पर है । और जो सरकार या नेता अपने ईमानदार और सरोकार पंसद होने का सबूत इंदिरा के आपातकाल का जिक्र कर देते है । उसी सरकार , उन्हीं नेताओं ने भी खुद को इंदिरा गांधी की तर्ज पर खडा करने में कोई हिचक नहीं दिखायी ।

तो इमरजेन्सी को  लोकतंत्र पर काला धब्बा मान कर जो सरकार मीडिया पर नकेल कसने निकली उसने खुद को ही जब इंदिरा के सामानातंर खडा कर लिया तो क्या ये मान लिया जाये कि मौजूदा वक्त ने सिर्फ इमरजेन्सी की सोच को  परिवर्तित कर दिया है । उसकी परिभाषा बदल दी है । हालात उसी दिशा में जा रहे हैं? ये सवाल इसलिये  क्योंकि इंदिरा ने तो इमरजेन्सी के लिये बकायदा राष्ट्रपति से दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाये थे । लेकिन मौजूदा वक्त में कोई दस्तावेज नहीं है । राष्ट्रपति के कोई हस्ताक्षर नहीं है । सिर्फ संस्थानों ने कानून या
संविधान के अनुसार काम करना बंद कर दिया है । सत्ता की निगाहबानी में तमाम संस्धान काम कर रहे है । तो इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि जेपी का नाम भी लेंगे । और जेपी के संघर्ष के खिलाफ भी खड़े होंगे । इंदिरा का विरोध भी करेंगे और इंदिरा के रास्ते पर भी चलेंगे । दरअसल संघर्ष के दौर में जेपी के साथ खडे लोगों के बीच सत्ता की लकीर खिंच चुकी है । क्योंकि एक तरफ वैसे है जो सत्ताधारी हो चुके है और सत्ता के लिये चारदिवारी बनाने के लिये अपने  एजेंडे के साथ है तो दूसरी तरफ वैसे है जो सत्ता से दूर है और उन्हे लगता है सत्ता जेपी के संघर्ष का पर्याय नहीं  था बल्कि क्रांति सतत प्रक्रिया है। इसीलिये दूसरी तरफ खड़े जेपी के लोगों में गुस्सा है। संपूर्ण क्राति दिवस पर जेपी को याद करने पहुंचे कुलदीप नैयर हो या वेदप्रताप वैदिक दोनो ने माना कि मौजूदा सत्ता जेपी की लकीर  को मिटा कर आगे बढ रही है। वहीं दूसरी तरफ मीडिया पर हमले को लेकर दिल्ली के प्रेस क्लब में 9 जून को जुटे पत्रकारो के बीच जब अगुवाई करने बुजुर्ग  पत्रकारों की टीम सामने आई तो कई सवालो ने जन्म दे दिया। मसलन निहाल सिंह , एचके दुआ, अरुण शौरी , कुलदीप नैयर , पाली नरीमन सरीखे पत्रकारों, वकील जो जेपी के दौर में संघर्षशील थे उन्होंने मौजूदा वक्त के एहसास तले 70-80 के दशक को याद कर तब के सत्ताधारियों से लेकर इमरजेन्सी और प्रेस बिल को याद कर लिया तो लगा ऐसे ही जैसे सिर्फ धर्मवीर भारती की कमी है । जो मुनादी लिख दें । तो देश में नारा लगने लगे कि सिंहासन खाली करो की जनता आती है । लेकिन ना तो इंदिरा गांधी कला केन्द्र में संपूर्ण क्रांति दिवस के जरीय जेपी को याद करते हुये और ना ही प्रेस क्लब में अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल भागेदारी के लिये जुटे पत्रकारो को देखकर कही लगा कि वाकई संघर्ष का माद्दा कहीं  है क्योकि सिर्फ मौजूदगी संघर्ष जन्म नहीं देती । संघर्ष वह दृश्टी देती है जिसे 72 बरस की उम्र में जेपी ने संघर्ष वाहिनी से लेकर तमाम युवाओ को ही सडक पर खडा कर उन्ही के हाथ संघर्ष की मशाल थमा दी । और मशाल थामने वालो ने माना कि कोई गलत रास्ता पकडेंगे तो जेपी रास्ता दिखाने के लिये है ।

लेकिन मौजूदा वक्त का सब बडा सच संघर्ष ना कर मशाल थामने की वह होड है जो सत्ता से सौदेबाजी करते हुये दिके और सत्ता जब अनुकुल हो जाये तो उसकी छांव तले अभिव्यक्ति की आजादी के नारे भी लगा लें । और इंदिरा गांधी कला केन्द्र के कमान भी संभाल लें । अंतर दोनों में नहीं है । एक तरफ इंदिरा गांधी कला केन्द्र में जेपी का समारोह करा कर खुश हुआ जा सकता है कि चलो कल तक जहा सिर्फ नेहरु से लेकर राजीव गांधी के गुण गाये जाते थे अब उस इमारत में जेपी का भूत भी घुस चुका है । और प्रेस क्लब में पत्रकारो का जमावडे को जेखकर खुश हुआ जा सकता है चलो सत्ता के  खिलाफ संघर्ष की कोई मुनादी सुनाई तो दी । वाकई ये खुश होने वाला ही माहौल है । संघर्ष करने वाला नहीं । क्योकि जेपी के अनुयायी हो मीडिया  घराने संभाले मालिकान दोनो अपने अपने दायरे में सत्ताधारी है । और सत्ताधारियो का टकराव तभी होता है जब किसी एक की सत्ता डोलती है या दूसरे की सत्ता पहले वाले के सत्ता के लिए खतरे की मुनादी करना लगती है । लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं कि सत्ता इमानदार हो गई है । या सत्ता सरोकार की भाषा सीख गई है । ये खुद में ही जेपी और खुद में ही इंदिरा को बनाये रखने का ऐसा हुनर है जिसके साये में कोई संघर्ष पनप ही नहीं सकता है । क्योकि दोनो तरफ के हालातो को ही परख लें । मसलन जेपी के सत्तादारी अनुनायियो की फेहरिस्त को परखे तो आपके जहन में सवाल उटेगा चलो अच्छा ही किया जो जेपी  के संघर्ष में इनके साथ खडे नहीं हुए । लालू यादव, रामविलास पासवान , राजनाथ सिंह , रविशंकर प्रसाद , नीतीश कुमार से लेकर नरेन्द्र मोदी ही नहीं बल्कि मौजूदा केन्द्र में दर्जनों मंत्री और बिहार-यूपी और गुजरात में मंत्रियो की लंबी फेरहिस्त मिल जायेगी जो खुद को जेपी का अनुनायी । उनके संघर्ष में साथ खडे होने की बात कहेगे । और दूसरी तरफ जो मीडिया समूह घरानो में खुद को तब्दील कर चुके है वह भी इंदिरा के आपातकाल के खिलाफ संघर्ष करने के अनकहे किस्से लेकर मीडिया मंडी में घुमते हुये नजर आ जायेंगे । बीजेपी के तौर तरीके इंदिरा के रास्ते पर नजर आ सकते है और काग्रेस का संघर्ष बीजेपी के इंदिराकरण के विरोध दिखायी भी दे सकता है।

इंदिरा का राष्ट्रवाद संस्थानों के राष्ट्रीकरण में छुपा था । मौजूदा सत्ता का राष्ट्रवाद निजीकरण में छुपा है । इंदिरा के दौर में मीडिया को रेंगने कहा गया तो वह लेट गया और मौजूदा वक्त में मीडिया को साथ खडे होने कहा जा रहा है तो वह नतमस्तक है । इंदिरा के दौर में मीडिया की साख ने मीडिया घरानो को बडा नहीं किया था । लेकिन मौजूदा दौर में पूंजी ने मीडिया को विस्तार दिया है उसकी सत्ता को स्थापित किया है । इंदिरा गांधी के सामने सत्ता के जरीये देश की राजनीति को मुठ्ठी में करने की चुनौती थी । मौजूदैा वक्त में सत्ता के सामने पूंजी के जरीये देश के लोगो को अपने राजनीति एजेंडे तले लाने की चुनौती है । तब करप्शन का सवाल था । तानाशाही का सवाल था । अब राजनीति एजेंडे को देश के एजेंडे में बदलने का सवाल है। सत्ता को ही देश बनाने- मनवाने का सवाल है । तब देश में सत्ता के खिलाफ लोगो की एकजुटता  ही संघर्ष की मुनादी थी । अब सत्ता के खिलाफ पूंजी की एकजूटता ही सत्ता बदलाव की मुनादी होती है । इसीलिये मनमोहन सिंह को गवर्नेंस पाठ कारपोरेट घराने पढाने से नहीं चुकते । 2011-12 में देश के 21 कारपोरेट बकायदा पत्र लिखकर सत्ता को चुनौती देते है । और  मौजूदा वक्त में कारपोरेट की इसी ताकत को सत्ता अपने चहेते कॉरपोरेट में समेटने के लिये प्रयासरत है । तो लडाई है किसके खिलाफ । लड़ा किससे जाये । किसके साथ खड़ा हुआ जाये । इस सवाल को पूंजी की सत्ता ने इस लील लिया है कि कोई संपादक भी किसी को सत्ताधारी का दलाल नजर आ सकता है । और कोई सत्ताधारी भी कारपोरेट का दलाल नजर आ सकता है । लोकतंत्र की परिभाषा वोटतंत्र में इस तरह जा सिमटी है कि जितने वाले को ये गुमान होता है कि चुनावी जीत सिर्फ राजनीतिक दल की जीत नहीं बल्कि देश जीतना हो चुका है और उसकी मनमर्जी से ही अब लोकतंत्र का हर पहिया घुमना चाहिये । और लोकतंत्र के हर पहिये को लगने लगा है कि राजनीतिक सत्ता से आगे फिर वही वोटतंत्र है जिसपर राजनीतिक सत्ता खडी है तो वह करे क्या । ये ठीक वैसे ही है जैसे एक वक्त  राडिया टेप सिस्टम था । एक वक्त संस्थानो को खत्म करना सिस्टम है । एक वक्त बाजार से सबकुछ खरीदने की ताकत विकास था । एक वक्त खाने-जीने को तय करना विकास है । एक वक्त मरते किसानों के बदले सेंसेक्स को बताना ही विकास था । एक वक्त किसान-मजदूरो में ही विकास खोजना है । सिर्फ राजनीतिक सत्ता ने ही नहीं हर तरह की सत्ता ने मौजूदा दौर में सच है क्या । ठीक है क्या । संविधान के मायने क्या है । कानून का मतलब होना क्या चाहिये । आजादी शब्द का मतलब हो क्या । भ्रम पैदा किया और उस भ्रम को ही सच बताने का काम सियासत करने लगी । इसी के सामानांतर अगर मीडिया की स्तात को समझे तो राजनीतिक सत्ता या कहे राजनीतिक पूंजी का सिस्टम उसके जरुरत बना दी गई । प्रेस क्लब में अरुण शौरी इंदिरा-राजीव गांधी के दौर को याद कर ये बताते है कि कैसे अखबारो ने तब सत्ता का बायकॉट किया । प्रेस बिल के दौर में जिस नेता-मंत्री  ने कहा कि वह प्रेस बिल के साथ है तो उसकी प्रेस कान्फ्रेस से पत्रकारों ने उठकर जाने का रास्ता अपनाया । लेकिन प्रेस क्लब में जुटे मीडिया कर्मीयो में जब टीवी पत्रकारों के हुजूम को देखा तो ये सवाल जहन में आया । कि क्या बिना नेता-मंत्री के टीवी न्यूज चल सकती है । क्या नेताओं-मंत्रियों का बायकॉट कर चैनल चलाये जा सकते हैं। क्या सिर्फ मुद्दों के आसरे , खुद को जनता की जरुरतो से जोडकर खबरों को परोसा जा सकता है । जी हो सकता है । लेकिन पहली लड़ाई सस्ंथानों को बचाने की लड़नी होगी । फिर चुनावी राजनीति को ही लोकतंत्र मानने से बचना होगा । पूंजी पर टिके सिस्टम को नकारने का हुनर सिखना होगा । जब सरकार से लेकर नेताओं के स्पासंर मौजूद है तो प्रचार के भोंपू के तौर पर टीवी न्यूज चैनलों के आसरे कौन सी लडाई कौन लडेगा । जेपी की याद तारिखो में सिमटाकर इंदिरा कला केन्द्र अमर है तो दूसरी तरफ प्रेस कल्ब में इंदिरा की इमरजेन्सी को याद कर संघर्ष का रईस मिजाज भी जिवित है ।

मनाइए सिर्फ इतना कि जब मुनादी हो तब धर्मवीर भारती की कविता ' मुनादी ' के शब्द याद रहे......बेताब मत हो / तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है / बादश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से / तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए / बाश्शा के खास हुक्म से / उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा / दर्शन करो ! /वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी / बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी / ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा /नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा / और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा / लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में / और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो / ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से / बहा, वह पुँछ जाए ! / बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !.

Thursday, June 8, 2017

न कोई सरोकार, न कोई पॉलिसी फिर भी कहा "अन्नदाता सुखी भव"

बीते 25 बरस का सच तो यही है कि देश में सत्ता किसी की रही हो लेकिन किसान की खुदकुशी रुकी नहीं। और हर सत्ता के खिलाफ किसान का मुद्दा ही सबसे बड़ा मुद्दा होकर उभरा। तो क्या ये मान लिया जाये कि विपक्ष के लिये किसान की त्रासदी सत्ता पाने का सबसे धारधार हथियार है और सत्ता के लिये किसान पर खामोशी बरतना ही सबसे शानदार सियासत। क्योंकि राहुल गांधी तो विपक्ष की राजनीति करते हुये मंदसौर पहुंचे लेकिन पीएम खामोशी बरस कजाकस्तान चले गये। कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह दिल्ली छोड़ मंदसौर जाने के बदले बिहार चले गये। बाब रामदेव के साथ मोतीहारी में योग करने  लगे और किसानों के हालात पर बोलने की जगह योग पर ही बोलने लगे। तो क्या ये कहा जा सकता है कि राजनीति अपना काम कर रही है और किसान की त्रासदी जस की तस। यानी एक तरफ सत्ता योग कर रही है तो दूसरी तरफ विपक्ष सियासी स्टंट हो रहा है । दरअसल राजनीति के इसी मिजाज को समझने की जरुरत है क्योंकि किसान की फसल बर्बाद हो जाये तो मुआवजे के लाले पड़ जाते हैं।

कर्ज में डूब वह खुदकुशी कर लेता है लेकिन भारत में विधायक-सांसद चुनाव हार कर भी विशेषाधिकार पाये रहता है। हर पूर्व विधायक सांसद को भी किसान की आय से 300 से 400 गुना ज्यादा कम से कम मिलता ही है। देश में किसान की औसत महीने की आय 6241 रुपये है लेकिन विधायक सांसद को पेंशन-सुविधा के  नाम पर हर महीने 2 से ढाई लाख मिलते हैं। तो नेताओं के सरोकार किसान के साथ कैसे हो सकते हैं और संसद के भीतर याद कीजिये तो किसानों को लेकर किसी भी बहस को देख लीजिये संकट कोरम पूरा करने तक का आ जाता है। यानी 15 फिसदी  संसद में किसानों की समस्या पर चर्चा में शामिल नहीं होते। तो फिर किसानों का नाम लेकर राजनीति साधने या सत्ता चलाने का मतलब होता क्या है। क्योंकि राजनीति कर सत्ता पाने के लिये हर राजनीतिक दल को चंदा लेने की छूट है। और चंदा संयोग से ज्यादातर वही कारपोरेट और औघोगिक घराने देते हैं, जिनका  मुनाफा सरकार की उन नीतियो पर टिका होता है जो किसानों के हक में नहीं होती। मसलन खनन से लेकर सीमेंट-स्टील प्लांट की ज्यादातर जमीन खेती की जमीन पर या उसके बगल में होती है।

लेकिन मुश्किल इतनी भर नहीं है। राजनीति कैसे सांसद विधायक के सरोकार किसान-मजदूर से खत्म कर सिर्फ पार्टी के लिये हो जाते है ये एंटी डिफेक्शन बिल के जरीये समझा जा सकता है । मसलन मंदसौर की घटना पर मंदसौर के ही बीजेपी सांसद किसानों पर संसद में वोटिंग होने पर अपनी पार्टी के खिलाफ वोट नहीं दे सकते। यानी मंदसौर के किसान अगर एकजुट होकर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशो को लागू कराने पर  अड जाये तो मंदसौर का ही सांसद क्या करेगा। व्हिप जारी होने पर पार्टी का साथ देना होगा । क्योंकि याद कीजिये बीजेपी ने भी 2014 के चुनावी  घोषणापत्र में 50 फीसदी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने का वादा किया। लेकिन 21 फरवरी 2015 को कोर्ट में एफिडेविट देकर कहा कि 50 फीसदी न्यूनतम  समर्थन मूल्य बढ़ाना संभव नहीं है। क्योंकि ऐसा करने से बाजार पर विपरित प्रभाव होगा । यानी चुनावी घोषणापत्र जैसे दस्तावेज में किए वादे का भी  कोई मतलब नहीं। तो फिर चुनावी घोषमापत्र और सरकारो के होने का मतलब ही किसानो के लिये क्या है। क्योंकि महाराष्ट्र में तो बकायदा पीएम और सीएम दोनो ने ही लागत से पचास फिसदी ज्यादा देने का वादा किया था । यानी नेताओं  के सरोकार जब सामाजिक और आर्थिक तौर पर किसानों के साथ होते नहीं है तो  पिर किसानों की बात करने वाला विपक्ष हो किसानों के बदले योग करते हुये कृषि मंत्री हैं। किसानों के जीवन पर फर्क पड़ेगा कैसे। क्योंकि देश की अर्थव्यस्था में किसानी कही टिकती नहीं मसलन देश के ही सच को परख लें।  किसानो पर कुल कर्ज है 12 लाख साठ हजार करोड का है जिसमें फसली कर्ज 7 लाख 70 हजार करोड का है तो टर्म लोन यानी खाद बीज का लोन 4 लाख 85 हजार  करोड का है। और उसके नीचे की लकीर बताती है कि देश के 50 कॉरपोरेट का चार लाख सत्तर हजार करोड़ रुपए का कर्ज संकटग्रस्त है यानी बैंक मान चुकी  है कि वापस आने की संभावना बहुत कम है। कॉरपोरेट को चिंता नहीं कि संकटग्रस्त कर्ज चुकाएगा नहीं तो क्या होगा क्योंकि उसे एनपीए मानने से लेकर री-स्ट्रक्चर करने की जिम्मेदारी सरकार की है। और एनपीए का आलम ये है कि वह 6 लाख 70 हजार करोड़ का हो चुका है । और इन सब के बीच बीते तीन बरस में केन्द्र सरकार ने देश के ओघोगिक घरानों को 17 लाख 14 हजार 461 करोड़ की रियायत टैक्स इंसेटिव के तौर पर दे दी है। तो देश में कभी एनपीए, टैक्स माफी या सकंटग्रस्त तर्ज पर बहस नहीं होती। हंगामा होता है तो किसानों के सवाल पर । क्योंकि देस में 26 करोड पचास लाख परिवार किसानी से जुडे है । तो फिर राजनीति तो किसानी के नाम पर ही होगी । और बाजार इक्नामी के साये तले किसान की अर्थव्यवस्था कहा मायने रखती है। और शायद यही से सवाल खडा होता है कि कर्जमाफी से भी किसान का जीवन बदलता क्यों नहीं।  

ये सवाल इसलिए क्योंकि कर्ज माफी तात्कालिक उपाय से ज्यादा कुछ नहीं-लेकिन किसानों के दर्द पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हुए राजनेताओं ने इसी उपाय को केंद्रीय उपाय करार दे डाला है। सच तो यह है कि 70 बरस में ऐसी व्यवस्था नहीं हो पाई कि किसान खुद अपने पैर पर खड़ा हो सके। सिर्फ किसान ही क्यो पूंजी से पूंजी बनाने के खेल में जो नहीं है उसके लिये आगे बढने का या कहे जिन्दगी बेहतर बनाने को कोई इक्नामी प्लानिंग देश में हुई ही नहीं है । मसलन यूपी की दो तस्वीरों को याद कर लीजिये। राहुल गांधी की खाट सभा में लोग तीस सौ रुपये की खाट लूटने में ही लग गये और योगी की सभा के बाद लोग 40 रुपये का डस्टबीन लूटने में ही लग गये। जबकि दोनों ही किसान-मजदूर। सिस्टम को बेहतर बनाने की बात कर रहे थे। यानी देश में किसानों की जो माली हालत है, उसमें सुधार कैसे आये और किसान भी गर्व से सीना चौडा कर खेती करें, क्या ऐसे हालात देश में आ सकते है। ये सवाल इसलिये क्योंकि किसानी को बेहतर करने के लिए जो इंतजाम किए जाने चाहिए थे-वो तो हुए नहीं अलबत्ता दर्द से कराहते किसानों को कर्जमाफी के रुप में लॉलीपॉप थमाया गया। तो एक सवाल अब है कि क्या राज्य सरकारें किसानों का कर्ज माफ कर सकती हैं और क्या ऐसा करने से किसानों की दशा सुधरेगी। तो दोनों सवालों का जवाब है कि ये आसान नहीं। क्योंकि कई राज्यों का वित्तीय घाटा जीडीपी के 5 फीसदी से 10 फीसदी तक पहुंच गया है, जबकि नियम के मुताबिक कोई भी राज्य अपने जीडीपी के 3 फीसदी तक ही कर्ज ले सकता है । यानी पहले से खस्ता माली हालत के बीच किसानों की कर्ज माफी का उपाय आसान नहीं है क्योंकि राज्यों के पास पैसा है ही नहीं और विरोध प्रदर्शन के बीच कर्ज माफी का ऐलान हो जाए, बैंक कर्ज माफ भी कर दें तो भी साहूकारों से लिया लोन माफ हो नहीं सकता ।-किसान कर्ज माफी के बाद भी बैंक से कर्ज लेंगे और एक फसल खराब होते ही उनके सामने जीने-मरने का संकट खड़ा हो जाता है,जिससे उबारने का कोई सिस्टम है नहीं । फसल बीमा योजना अभी मकसद में नाकाम साबित हुई है । और कर्ज माफी की संभावनाओं के बीच भी किसान की मुश्किलें बढ़ती ही हैं,क्योंकि वो कर्ज चुकाना नहीं चाहता या चुका सकता अलबत्ता नए कर्ज मिलने की संभावना बिलकुल खत्म हो जाती है। तो सवाल कर्ज माफी का नहीं,सिस्टम का है। और सिस्टम का मतलब ही जब राजनीतिक सत्ता हो जाये तो कोई करें क्या  । तो होगा यही कि आलू दो रुपये किलो होगा और आलू चिस्प 400 रुपये किलो । टमाटर 5 रुपये होगा और टमौटो कैचअप 200 रुपये किलो । और संसद की कैंटीन में चिप्स है, कैचअप है । और पीएम भी कैंटीन की डायरी में लिख देते है, अन्नदाता सुखी भव ।

Tuesday, June 6, 2017

क्या देश मरघट हो चला है ?

हर घंटे खुदकुशी करता है किसान-छात्र-बेरोजगार युवा


छात्र हो किसान हो या बेरोजगार युवक हो । खुदकुशी लगातार जारी है । साल दर साल जारी है । और सत्ता किसी की भी रहे हालात इतने बदतर हैं कि बीते 15 बरस के दौर में 99 हजार 756 छात्रों ने देश में खुदकुशी कर ली। किसानों की खुदकुशी इन्ही 15 बरस में 2 लाख 34 हजार 642 तक हो गई । और बेरोजगारी भी कैसे देश के युवा को लील रही है, उसकी खुदकुशी के आंकड़े भी 1 लाख 44 हजार 974 है । और साल दर साल छात्र, किसान और बेरोजगारों की खुदकुशी के ये आंकडे सरकारी संगठन एनसीआरबी यानी नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के हैं । यानी बरस दर बरस खुदकुशी देश में कोई रुदन पैदा नही करती । और इन 15 बर के दायरे में कोई राजनीतिक दल ये कह नही सकता कि उसने सत्ता नहीं भोगी।

क्योंकि न 15 बरस में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह की सत्ता रही है । और मौजूदा वक्त में मोदी की सत्ता में भी खुदकुशी ना तो छात्रों की रुकी है ना किसानों की ना ही बेरोजगारों की। और सत्ता के लिये सत्ताधारियों से गठबंधन इन 15 बरस में देश की 37 राजनीतिक दलों ने किया । तो दोष दिया किसे जाये? कटघरा बनाया किसके लिये जाये? या फिर उलझ जाया जाये कि किसकी सत्ता में सबसे ज्यादा मौत हुई । सोचिये जो भी लेकिन इस सच के आईने में उस घने अंधेरे पर प्रहार जरुर कीजिये जो सत्ता की राजनीति तले ऐसे सच को भी सही तरीके से बता नहीं पाती । और लगता है जिन्दगी मौत पर भारी हो चली है और उसी जिन्दगी की जद्दोजहद में समाज कुंद हो चला है ।

और धीरे धीरे देश के हालात बताते है कि शिक्षा व्यवस्था चरमरा रही है तो छात्रो के सामने मुश्किल है। रोजगार निकल नहीं रहे तो बेरोजगारी कही ज्यादा मुश्किल हालात पैदा कर रही है। और किसान वह तो हमेशा ही संघर्ष की राह पर है वह पीढियों से देश को अन्न खिलाता जरुर आया है लेकिन खुद के भाग्य का पैसला वह आज भी नहीं कर सकता । और उसकी नियती खुदकुशी ही कैसे होती जा रही है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में बीजेपी लगातार चुनाव जीत रही है । शिवराज और रमन सिंह जीत की हैट्रिक लगाकार 15 बरस से सत्ता में है । वही महाराष्ट्र में कांग्रेस स्तात में 15 बरस रही और ढाई बरस पहले ही बीजेपी की सत्ता आई । लेकिन किसानो की खुदकुशी थमी नहीं । तो आंदोलन की तस्वीर से इतर खुदकुशी की तस्वीर है क्या । आलम ये है कि बीते 15 बरस में महाराष्ट्र में 56215 किसानों ने खुदकुशी की तो मध्यप्रदेश में 19778 किसानों ने खुदकुशी कर ली । ौर इन्ही 15 बरस में छत्तीसगढ में 16,153 किसानों ने खुदकुशी की ।

यानी 15 बरस का एनसीआरबी का ये खुदकुशी का आंकडा ये बताने के लिये काफी है कि किसी सरकार को कभी किसानों की खुदकुशी की फिक्र नहीं रही । यानी एनसीआरबीत हर दूसरे बरस किसानों की खुदकुशी का
आंकडा जारी करती है । तो पांच बरस के लिये सत्ता में आई सरकार को भी दो बरस बाद पता चलता है कि कितने किसानों ने खुदकुशी की । लेकिन बरस दर बरस जिस तरह किसानो की खुदकुशी तीनो राज्यो में होती रही उसमें सबसे बडा सवाल तो यही है कि फिर किसानो की फिक्र है किसे । और खुदकुशी से लेकर फसल के
समर्थन मूल्य और फसल बीमा के सवाल ही नहीं बल्कि खुदकुशी करने वाले किसानो के परिवार को राहत देने के एलान कितने पोपले होते है उसका अंदाज इसी से लग सकता है कि 15 फीसदी किसान परिवार तो ऐसे है जो खुदकुशी को भी विरासत के तौर पर अपना चुके है । और राज्य ही नहीं केन्द्र सरार के राहत पैकेज भी खुदकुशी क्यो रोक नहीं पा रहे है । ये सिर्फ सवाल नहीं बल्कि देश का ऐसा सच है जिससे हर सत्त आंख चुराती है लेकिन किसानो के हर में बोलने से नहीं घबराती । लेकिन कोई सरकार किसानों के हक में क्यो खडी हो नहीं पाती । ये सवाल कोई भी पूछ सकता है ।

तो किसान तो दूर देश में उपभोक्ता संस्कृति और सरकार का कारपोरेटीकरण किस दिसा में देश को ले जा रहा है इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि सेन्ट्रल इस्टीट्यूट आफ पोस्ट हारवेस्टिंग इंजिनियरिंग एंड टेक्नालाजी ने रिपोर्ट जारी की और बताया कि हर बरस औसतन 92 हजार 651 करोड रुपये का अनाज सरकार ही ब्रबाद कर देती है । और जो किसान आज पर दूध, सब्जी फल उडेल रहा है उसके पीछे का सच तो ये भी है कि सरकार ही हर बरस 31 करोड रुपये से ज्यादा की सब्जी और फल बर्बाद कर देती है । क्योकि सरकार के पास भंडारण के व्यवस्था नहीं है । किसानो की फसल की किमत देने तो दूर उसकी आधी किमत भी उन्हे मिल नही पा रही है । कल्पना किजिये कि हर बरस औसतन 7186 करोड का आम । 3903 करोड का केला । 5005 करोड का आलू और 3666 करोड़ का टमाटर यू ही बर्बाद हो जाता है । वह बी सरकार की ही नीतियों से । तो फिर सड़क पर बहते दूध या फल सब्जी के फेकें जाने से क्या वाकई सरकार दुखी है । ये मुश्किल है । क्योकि कोलकत्ता के इंडियन इंसट्टीटूट आफ मैनेजमेंट की रिसर्च कहती है कि देश में सरकार के पास सिर्फ 10 पिसदी के ही बंडारण के व्यवस्था है । जिस जहब से 2011-12 से लेकर 2016-17 के बीच 61 हजार 824 टन अनाज बर्बाद हो गया ।और जिस महाराष्ट्र में सत्ता किसानो के हक की बात करने के लिये अब बेताब नजर आ रही है उसका सच तो ये बी है कि 2016-17 में देश में कुल 8679 टन अनाज बर्बाद हुआ , उसमें सिर्फ महारा,्ट्र में 7963 टल अनाज बर्बाद हो गया । तो कौन सी सस्कृति में हम जी रहे है ये सवाल तो कोई बच्चा भी पूछ सकता है । खासकर जब देश में बात उपनिषद और गीता से लेकर गाय की हो रही है। पशुधन बचाने का जिक्र हो चला है । ऐसे में किसे फिक्र है कि देश में बीते 15 बरस में औसतन हर एक धंटे में दो किसान खिदकुशी कर रहा है । और छात्र और बेरोजगार युवाओ की तादाद मिला दे तो हर घंटे एक छात्र और एक युवा खुदकुशी कर रहा है । लेकिन इस सच से हर कोई आंख मूंदे हुये है कि जिसनी तादाद में इंसानो की मौत हो रही है उसके सामने संयोग से जानवरो की मौत भी कम पड जायेगी।