सत्ता का राष्ट्रप्रेम ..विपक्ष की राजनीतिक शून्यता ...संघ पर अंधेरे के बादल
चाय में तूफान....सुना था . पर पहली बार महसूस किया..जब चाय की चुस्की के बीच कांग्रेस के दौर में लूटते देश से भी बुरी लकीर 2018-19 में कोई शख्सये कहकर बताने लगा कि हालात तो मरने-मारने वाले होंगे । सवाल पेट से जुड़ रहा है । जो असंभव सियासी हालात को एकजुट करेगी और सामाजिक अंतर्विरोध भी विरोध के लिये एक साथ खडे होंगे । तो कल्पना कीजिय बीजेपी का भविष्य क्या होगा । बात तो अटल बिहारी वाजपेयी जी के जन्मदिन के दिन वाजपेयी जी के सक्रिय होने के दौर को याद करने से शुरु हुई थी । और संयोग से बातचीत का सिलसिला इस सच के साथ के साथ शुरु हुआ कि जो शख्स वाजपेयी जी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान से लेकर उसके बाद भी जन्मदिन के दिन सुबह सुबह वाजपेयी जी के घर पर महाभिषेक पूजा करने पहुंच जाता था, संयोग से उसे भी 25 दिसंबर 2017 को सुबह वाजपेयी जी के घर आने की इजाजत नहीं मिली । क्यों क्या कहा गया आपसे .... कुछ नहीं सिर्फ इतना की दस साढे दस बजे से पहले तो आप नहीं सकते । आइये तो पीएम के आने के वक्त या उसके बाद । तो क्या परेशानी थी..अच्छा तो था कि आप पीएम से भी मिल लेते? तो पीएम से मिलने नहीं बल्कि वाजपेयी जी के घर पर सुबह तो पूजा करने रहा हूं और इस बार भी सुबह ही जाना चाहता था । हर बरस की तरह । तो क्या वाजपेयी जी जब पीएम थे तब भी आप जाते थे । जी..बाप जी का ही ये प्रेम था । सफदर जंग रोड में जो पहला घर था पीएम वाजपेयी जी का । उसी घर में शिव जी की मूर्ति स्थापित की थी । और वहा से जब 3 रेसकोर्स में वाजपेयी जी पहुंचे तो शिव की मूर्ति भी वहा पहुंची । और ये सिलसिला तो हर जन्मदिन का रहा है । सुबह सात साढे सात बजे रुद्दाभिषेक । दो घंटे का पूजा पाठ । और फिर हम भी बा जी को प्रणाम और बधाई देकर निकल जाते ।
और उसी के बाद जन्मदिन के मौके पर वाजपेयी जी सभी से मिलते और दोपहर बाद कामकाज । तो मलाल है आपको । मलाल हे का । हम तो कहीं भी पूजा कर लेते है । इस बार अपने घर पर ही कर ली...बस ये बात अटक गई कि वाजपेयी जी के जन्मदिन के मौके पर किसी को किसी ने कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया....और परंपरा टूट गई । परंपरायें टूट नहीं रही बल्कि नई बनाने की कोशिश हो रही है । अचानक ही डीयू के एक कालेज की प्रिंसिपल बोल पडे । अरे आपको ऐसा क्यों लग रहा है । आप तो शानदार चाय का स्वाद लिजिये । जायके का जिक्र ना करें । क्यों । हालात को समझें । हालात क्या कहते हैं । हालात साफ बता रहे है जब लोकतंत्र में एक केन्द्र बिन्दु ही सारे अच्छे-बुरे परिणामों के लिये जिम्मेदार होता चला जाये तो फिर विरोध या सहमति के स्वर भी उसी के इर्द-गिर्द घुमड़ने लगते हैं। आप आथेटिरियन हालात के बारे में कह रहे है । मैं सिर्फ बिसात बताना चाह रहा हूं । कहना तो पंडित जी को चाहिये.जिनकी उम्र बीत गई संघियों के साथ । अरे आप इन्हें स्वयंसेवक भी कह सकते हैं । बीजेपी का भी कह सकते हैं। न न बीजेपी का नहीं । क्यों....क्योकि संघ की उम्र उसका अनुभव उसका राजनीतिक-सामाजिक शुद्दिकरण का सपना 100 बरस पूरे होने पर देख पायेगी या नहीं ..मौजूदा वक्त में ये सवाल तो है । क्या कह रहे है । और क्यों कह रहे है । देखिये भारते की सामाजिक व्यवस्था सियासत से नहीं सामाजिक ताने-बाने के बैलेंस से चलती है । और वह टूट रही है ....कैसे ये कैसे कह सकते है आप । मैं तो स्वयंसेवक होकर स्वयंसेवक की सोच तले संघ को ही भारत का आईना मानता हूं..और पहली बार उस आईने में आ रहे दरक को देख रहा हूं । आप कही भुवनेशवर में तोगडिया को हटाने की व्यूहरचना के वाबजूद तोगडिया के पक्ष में विहिप के खड़े होने के अक्स में तो बात नहीं कह रहे है । झटके में बेहद कम बोलने वाले स्वयंसेवक के ये शब्द पहली जनवरी की सर्द सुबह में अचानक गर्मी पैदा कर गये । तो मान्यवर लग रहा है बरस ही नहीं बदला..संघ भी बदल रहा है । चाय ठंडी ना हो चुस्की तो लीजिये...चाय ठंडी हो चुकी है जो घातक है । अरे आप तो बिंब में बात करने लगे ..सीधे कहिये...ये सवाल कल भी मौजू था और कल भी मौजू होगा । कौन सा सवाल। अब संघ अपने स्वयसेवक की सत्ता को सुझाव नहीं देता..बल्कि सत्ता संघ को निर्देश दे रही है । आपको ऐसा क्यो लगा ...भुवनेश्वर में कहा गया सत्ता को तकलीफ में लाने वाले कोई हालात पैदा ना करें और उज्जैन में कल यानी 2 जनवरी से शुरु हो रहे मंथन में कहा जायेगा सत्ता के अनुकूल संघ को चलना होगा । पर वाजपेयी के दौर में तो संघ ने इसे कभी नहीं माना । तो वाजपेयी के दौर में तो आपको भी किसी ने पूजा पाठ से नहीं रोका । हा ..हा हा हा ....ना न हंसिये मत ... वाजपेयी सत्ता के लिये नहीं थे ।
संघ सत्ता के लिये नहीं बना है । पर संघ अगर अब सत्ता के अनुकुल सत्ता बनी रहे इसके लिये है तो फिर चार संघठनो का अध्ययन कर लिजिये.....और उसी परिपेश्र्य में राष्ट्रवाद का भी अध्ययन कर लिजिये । हा हा आप पत्रकार है तो आप राष्ट्रवाद के सवाल को उभार कर सत्ता पर चोट करना चाहते है । न न मुझे तो लगता है कि देश की सुरक्षा और राष्ट्रवाद का सवाल हर मुद्दे को बौना बना देता है और इसका सामना कैसे हो इसपर राजनीतिक शून्यता है । और पत्रकारीय शून्यता । बिलकुल मुझें इंकार नहीं है ..इसी दौर में मैने खेमो में पत्रकारिता को बंटते देखा । आप कही नहीं खडे है तो आप पत्रकार नहीं है । तो फिर पत्रकारिता का कैनवास कितनाी छोटा है ....इसीलिये मैं कह रहा है कि संघ के कैनवास तले सत्ता को समझिये और उस कोहरे को साफ किजिये जो हर दायरे में सत्ता का सुकून पाने को बेताब है पर पहली बार संघ के चार संगठनों के सामने ये सवाल है कि वह सत्ता के निर्देश पर खिंची जा रही लक्ष्मण रेखा पार करें या ना करें । और आप कोई भ्रम में ना रहे कि काग्रेस या विपक्ष की राजनीति मौजूदा सत्ता के पालेटिकल डिस्कोर्स का विकल्प पैदा कर पायेगी । अरे पंडित जी हम राजनीति अखाडे में अभी ना कूदे । पहले समझ लें ये कहना क्या चाहते है । क्यों..क्योकि मुवनेशवर में सत्ता के बोल थे..तोगडिया एक बडी वजह बने बीजेपी को 99 तक पहुंचाने में । इस हकीकत से सत्ता के आंख मूंदने पर संघ ने भी आंखे मूंद ली कि ग्रामिण इलाको की बदहाली की वजह क्या है । युवाओ में गुस्सा क्यों है । विकास का ककहरा कमजोर क्यों पड रहा है ।
तो क्या शाइनिंग इंडिया के दौर की तरह संघ ने गुजरात में सत्ता का साथ नहीं दिया ....इसलिये 99 पर अटके । पंडित जी ये आपको कहां से बात याद आ गई । इसलिये याद आ गई क्योकि उस वक्त बीजेपी पर संघ ने ही आरोप लगाया ता कि उसका काग्रेसीकरण हो चला है । हा हा ...यही बात तो मै कहना चाहता था कि जिस कांग्रेसी सत्ता को हराकर नये सत्ताधारी बने उनका भी काग्रेसी सत्ताकरण हो चला है । मतलब ..मतलब ये है कि जब आर्थिक नीतियों पर ट्रैक 2 का रास्ता वाजपेयी सरकार ने पकडा था तब संघ ने कहा बीजेपी का कांग्रेसी करण हो गया । और कांग्रेस के करप्शन-बैड गवर्नेंस को निशाने पर लेकर 2014 में मनमोहन को
हटाया गया तो एहसास नयेपन का था । पर सत्ता की चाल ने कहा जो भी पर जमीन पर क्या-क्या लागू हुआ और लाभ किसको मिला ..मुश्किल में कौन आया ये सत्ता के काग्रेसीकरण की नई परिभाषा है । अंतर सिर्फ इतना है कि वाजपेयी के दौर में आर्थिक नीतियां थीं । मौजूदा दौर में आर्तिक नीतियां भी सत्ता बनाये रखने के विचार से जा जुड़ी है । वाजपेयी के दौर में क्रोनी कैपटलिज्म था । मौजूदा दौर में सत्ता बरकरार रखने का मैकेनिज्म है जो संयोग से हर संस्धान को प्रभावित कर रहा है । मसलन.....मसलन हर संस्धान को सत्ता के लिये सत्ता बरकरार रहे उसी लहजे में काम करना पड रहा है । वाजपेयी के दौर में ये दिखायी देता था क्योकि बाहर से प्रभावित किया जा रहा था । मौजूदा वक्त में ये दिखायी कम देता है क्योकि सिस्टम ही सत्ता बरकरार रखने के लिये है । हा हा ...आपने तो उस सवाल को जन्म दे दिया जिस सवाल का संघ को चाहिये । अच्छा किया जो आपने हालात कुछ पारदर्शी बना दिये...अब जरा एक दूसरी चाय बनावइये जब मैं आपको बताऊं कि चाय की प्याली में तूफान क्यों नहीं उठ रहा है या फिर तूफान संघ को खत्म कर दें उसके इंतजार में संघ क्यों है । दार्जिलिंग टी बनवाउ...या ये गरम मसाले वाली चाय चलेगी...। गरम मसाले वाली ही रहने दिजिये ...गर्मी तो उज्जैन के चितंन में होगी ...दिल्ली में तो ठंड है । ...............तो जरा समझने की कोशिश किजिये किसान संघ , भारतीय मजदूर संघ , स्वदेसी जागरण मंच और विश्व हिन्दु परिषद के अलावे संघ के किस संगठन की कितनी महत्ता सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में आपको बीते पांच दशको में देखने को मिली हैा । क्यों आदिवासी कल्याण संघ और शिशु मंदिर चलाने वाले संगठन । अच्चा किया जो आपने इनका नाम भी ले लिया । तो जरा समझे किसान-मजदूर-आदिवासी-शिक्षा-अर्थव्यवस्था और राम मंदिर पर निर्णय किसे लेना है । और अगर सारे निर्णय सत्ता ले रही है उसे चुनावी जीत मिल रही है तो फिर संघ के संगठनो का काम क्या होगा । और अगर संघ के संगठनों की शिक्षा-दीक्षा जिस सोच के तहत हुई है और सरकारी की नीतिया उस लकीर पर नहीं चल रही है तो फिर संघ के ये संगठन क्या करेंगें । और अगर सत्ता और संघ चलाने में अलग अलग विजन जरुरी है तो फिर स्वयसेवक के राजनीतिक शुद्दिकरण की संघ की सोच का मतलब क्या है ।
तो आप कह रहे है कि संघ फेल हो गया । ना ना ..मैं ये नहीं कह रहा हूं..मेरा कहना है कि संघ की सोच के लिये जो बडा कैनवास स्वयंसेवक में होना चाहिये अगर वह कैनवास बडा नहीं हुआ तो फिर स्वयसेवक का कैनवास भी सत्ता पाने और उसे टिकाये रखने पर जा टिकेगा । एक मिनट..आपकी ये बात कहीं ये तो इंगित नहीं करती कि कांग्रेस जिस तरह सिर्फ सत्ताधारी होकर खत्म होने के रास्ते पर आ गई उसी रास्ते पर मौजूदा सत्ता बीजेपी को ले आई है । और बीजेपी के कांग्रेसीकरण की ये नई परिभाषा है । आप पत्रकार है ...ये आपके कहने का अंदाज हो सकता है । पर मै तो संघ के कमजोर होने के हालात को देख रहा हूं । तो इसका अर्थ ये भी लगाया जा सकता है जिस तरह काग्रेसी सिर्फ गांधी-नेहरु परिवार या कहे आजादी से पहले से अपने पारपरिक सियासत की वजह से लोगों के जहन में बने हुये है उस पारंपरिक वोट बैक की ही देन है कि कांग्रेसी बने हुये है या उसका आस्त्तित्व बरकरार है । ठीक..अब आप उस महीन लकीर को पकड रहे है जहा भारत की युवा पीढी के सामने आने वाले वक्त में ना कांग्रेस मायने रखेगी और ना ही बीजेपी । बीजेपी क्यों ..उसकी परंपरा तो कांग्रेस सरीखी है नहीं .वह तो लगातार मशकक्त कर रही है । नई पीढी से जुडने के लिये सत्ता मन की बात कर रही है । हा हा ... मन की बात भी सत्ता में बने रहने के लिये है । पर बीजेपी के लिये परंपरा तो संघ है । और संघ को सत्ता के निर्देश पर अगर चलना है तो फिर बीजेपी से पहले संघ ढहेगी । उसकी साख खत्म होगी । उसके सरोकार खत्म होगें । जन से जुडाव खत्म होगा । और जो बीजेपी संघ पर आर्श्रित रही वही संघ बीजेपी पर आर्श्रित होने की स्थिति में आ रही है । तो क्या संघ खत्म हो जायेगा । आप संपादकीय टिप्पणी इतनी जल्दी ना करें । मैने संघ के चार संगठनो का जिक्र किया । तो जरा उनके भीतर की हलचल को समझे । इन चारो संगठनो के लिये काग्रेस की सत्ता के दौर में भी हालात ठीक नहीं थे और मौजूदा वक्त में भी ठीक नहीं है । पर संगठन तो काम कर रहे
है । और इनका काम ना करने पर इनकी जगह कौन लेगा ये भी सवाल होगा । इसे थोडा और साफ करें ....पंडित जी आप तो वाजपेयी जी के साथ रहे है । और मुझे याद है आपने एक बार वाजपेयी जी से कहा भी था..पीएम की कुर्सी की बायोप्सी होनी चाहिये ....। जो भी इस कुर्सी पर बैठता है.....हा हा आपको याद है...हा बिलकुल । और ये भी याद होगा कि वाजपेयी जी तब पीएम होते हुये भी ठहाका लगाकर हंस पडे थे । पर ये बात क्या किसी दूसरे से कही जा सकती है । सवाल ये है कि कांग्रेस का नजरिया भोगी-लोभी हो चला तो 2014 में वह खत्म होने वाले हालात में आ गई । और अब भोगी-लोभी की ही परिभाषा को बदल कर बीजेपी के भीतर का बडा कुनबा खामोशी से सत्ता के लिये काग्रेसी मन रखने से नहीं हिचक रहा । महाराष्ट्र, हरियाणा,झारखंड,कश्मीर, असम, बिहार ही नही हर उस राज्य को परख लिजिये जहा 2014 के बाद सीएम बने या सरकार बनाने
के लिये कही जाति तो कही तिकडमो का सहारा लिया गया । पर सत्ता है उसे भोगने है तो नये नवेले सीएम से लेकर हर हुनर को मान्ता दे दी गई । विचारधारा ताक पर आ गई । तो फिर ये क्यों ना मान लिया जाये कि बीजेपी के भीतर भी उबाल होगा । हो सकता है । पर उसका कोई महत्व नहीं है । और बीजेपी में उबाल भी आपको सत्ता के लिये ही दिखायीदेगा । यानी कल को बीजेपी हारने लगे तो कोई विरोध कर देगा ...पर वह विरोध सत्ता के लिये वैसे ही होगा जैसे सत्ता के लिये काग्रेस बनी हुई है ..वह मानती रही तो 24 अकबर रोड पर कौवे बोलने लगे । अब सत्ता के लिये कबूतरों का झुंड फिर जमा हो रहे है । पर महत्व तो संघ परिवार का है । काग्रेस भी निशाने पर संघ परिवार को लेती रही तो बीजेपी की सत्ता डोलती रही । पर जरा समझिये आज की तारिख में सत्ता संघ पर ऐसी हावी है कि संघ पर हमला करने से काग्रेस को कोई फायदा होगा नहीं क्योंकि सरसंघचालक का भाषण भी डीडी पर लाइव टेलिकास्ट होता है और भागवत जी भी किसी कैबिनेट मनिस्टर की तर्ज पर बोलते-सुनायी देते है । पर जरा हकीकत की जमीन पर पैर रखिये और सोचिये महाराष्ट्र में किसान आंदोलन हुआ ...मंदसौर में किसान संघर्ष हुआ । दिल्ली में देशभर के किसान-मजदूर जमा हुये । श्री श्री से लेकर स्वामी तक राम मंदिर बनाने निकल पडे..पर इस कडी में संघ के संगठनो ने क्या किया । जहा शिरकत की उनकी जुबा सत्ता ने सिल दी । कही पदाधिकारियो को हटा दिया गया । कहीं ये नाकाबिल साबित होते चले गये । गोवा में तो सत्ता के लिये स्वयंसेवक को दरकिनार किया गया । संघ का एंजेडा बीजेपी ने गोवा में बदल दिया । यानी चाहे अनचाहे संघ ने अपने को बचाने किये जब खुद को सत्ता से जोड लिया तो फिर हर स्वयसेवक को ये क्यों नहीं लगेगा कि वह भी अपने आप में सरकार हो सकता है.बीजेपी में घुस कर सत्ताधारी हो सकता है । दो सवाल , पहला अभी आपने कहा संघ ने खुद को बचाने के लिये..... और दूसरा क्या स्वयसेवक अपने आप में सक्षम नही है कि वह सामानांतर सत्ता बना लें । आप वाकई पत्रकार हो । बेहद बारीक लाइन पकड़ते हो । तो पहले सवाल का जवाब तो यही है कि सत्ता जब बेखौफ हो जाये तोडर किस बात का दिखलाती है इसके लिये आप कांग्रेस के दौर को याद कर लीजिये....यानी सत्ता में नहीं रहे तो हिन्दू आतंकवाद ...हा हा । और दूसरा..दूसरा तो यही है कि जिन चार संगठनों का मैंने जिक्र किया उसके स्वयसेवक त्यागी है । संघर्षशील है । अगर हालात यही रहे तो हो सकता है कोई सत्ता की संघ के जरीये खिंचवाई गई लक्ष्मण रेखा भी लांघ लें । और पहली बार सच तो यही है की संघ के भीतर का अंतर्विरोध कही नागपुर में सतह पर ना जाये । नागपुर से मतलब । नागपुर में ही मार्च में प्रतिनिधी सभा
होनी है । सहसरकार्यवाह भैयाजी जोशी की जगह दत्तात्रेय होसबोले लेंगे । वह सत्तानुकूल है तो हर संगठन को मथेंगे। और मथने की प्रक्रिया छह महीने से शुरु हो चुकी है । बीएमएस और किसान संघ के तीन प्रमुख पदाधिकारियों को हटाया गया या कहें बदला गया । पर विहिप में तोगडिया को हटाने से सफल हो नहीं पाये । तो क्या ये बदलाव संघ नहीं चाहता या संघ ही चाहता है । पंडित जी पत्रकार आपके मित्र है फिर भी आप ऐसे सवाल करते हो ...क्यों गलती हो गई क्या । न न गलती नहीं जब सत्ता संघ पर हावी है तो चाकू कद्दू पर गिरे या कद्दू चाकू पर होगा क्या । तो इसका मतलब है तोगडिया एक बडा चैलेंज है सत्ता के लिये । हा अब आपने सही लाइन पकडी । पर समझना ये भी होगी कि संघ बहुत धीरे धीरे बदलाव की दिशा में जाता है । और स्वयसेवक को राजनीतिक हुनरमंद होता नहीं । उसकी जरुरत ..उसकी समझ भी सामाजिक ट्रसंफारमेशन को ज्यादा परखती है । तो तोगडिया सरीखे स्वयंसेवकों राजनीति से दे दे हाथ करने का हुनर सिखना होगा । या क्या किसी को भी
सिखना होगा जो सत्ता के खोल से बाहर झांकना चाहता है । या कहे संघ का विस्तार चाहता है । उसे बचाये रखना चाहता है । अन्यथा 2025 में संघ का शताब्दी वर्ष कैसे मनेगा इसके सिर्फ सपने देख सकते हैं, दिखा सकते है । आज तो लंबी चर्चा हो गई चाय पर । हां हमे घर भी निकलना है फिर भी एक सवाल पत्रकार महोदय आप ही से...क्या राजनीति का मौजूदा रास्ता जारी रहेगा । मुशकिल है सटीक कहना । पर इससे इंकार तो नहीं किया जा सकता कि देश की सुरक्षा और राष्ट्रीयता का सवाल जिस तरह सत्ता उठाती है उसकी कोई काट किसी राजनीतिक दल के पास है । कोई नेता विपक्ष में है नहीं जिसकी साख मजबूत हो । राजनीतिक दलो में सहमती तक तो बनती नहीं । और विपक्षी नेताओ के आपसी अंतर्विरोध सत्ता की चाटुकारिता भी करते है और विरोध भी । तब तो मौजूदा सत्ता जो कर रही है उसे कोई डिगा नहीं सकता । हा हा यही तो सत्ता भी सोचती है । पर बिहार , दिल्ली और गुजरात चुनाव परिणामों के संकेत भी समझे । और देश के उन हालातों को भी परखे जहा ग्रामीण भारत की त्रासदी और युवा भारत की मुश्किले कैसे उसी इक्नामिक्स पर आ टिकी है जिसके भरोसे सत्ता के सेवक भोग लगा रहे है । और सपने दिखा रहे हैं । मतलब , पहली बार आर्थिक मुद्दे देश की सियासत की अगुवाई करने को तैयार हो रहे है । आर्थिक हालात समाज में आज नहीं तो कल टकराव भी पैदा करेंगे । कल तक भूख से मौत को सरकार स्वीकारती नहीं थी । अब भूख से मरना खबर है । देश के विकसित राज्यो में से एक महाराष्ट्र की 2016-17 में महाराष्ट्र अरोग्य और एकात्मिक बालविकास विभाग की रिपोर्ट के ही मुताबिक हर दिन महाराष्ट्र में 40 बच्चो की मौत हुई है । यानी बरस भर में 14,365 मौत । 78 हजार शिशु गंभीर हालत में है । यानी जाति-धर्म की सियासत राजनीतिक अंतर्विरोध का सिलसिला है । ये तो पहले भी रहा है । आंकडे परखने होगें । पर चाय की आखरी चुस्की के साथ आपको मोजूदा सत्ता के बधाई देनी चाहिये कि जो सियासत बीते दौर में छुप कर होती थी । वह मौजूदा सत्ता के दौर में ये खुलकर उभरी है । यानी जनता ने पांच बरस के लिये चुना है तो फिर काहे का संधिय ढांचा या काहे लोकतंत्र के खम्भे । न्यायपालिका हो या कार्यरपालिका या विधायिका या फिर मीडिया । सब को सत्ता के साथ चलना होगा क्योकि 2014 का जनादेश यही था । हा हा तो फिर हमने बेकार ही वाजपेयी जी के घर पर पूजा का जिक्र किया । और हम बेकार ही संघ परिवार की चिंता किये हुये है । हो सकता है । तो नववर्ष की शुभकामनायें ले लिजिये । मंगलमय क्यों नहीं । क्योकि मंगलमय तो खुद बनाना होगा ।