जब आधी दुनिया सो रही थी, तब नेहरु आजाद भारत के सपनो को हकीकत की जमी दे रहे थे । आजाद भारत के पहले नायक नेहरु थे । पर दूसरी तरफ महात्मा गांधी आजादी के जश्न से दूर कोलकत्ता के बेलियाघाट के अंधेरे कमरे में बैठे थे । पर नेहरु की सत्ता के चमक भी महात्मा गांधी के सामने फीकी थी । इसीलिये महात्मा गांधी महानायक थे। और आजाद भारत में नायकत्व का ये कल्ट सिनेमाई पर्दे पर मिर्जा गालिब से शुरु तो हुआ । पर गांधी ना रहे तो फिर सिनेमाई पर्दे पर ही गालिब की भी मौत हो गई। और सिल्वर स्क्रीन कैसे नेहरु दौर में समाता चला गया इसका एहसास सबसे पहले राजकपूर ने ही कराया । और अपने नायकत्व को आवारा के जरीये गढा । “आवारा” कुलीनता के फार्मूले में कैद उस घारणा को तोडती है कि अच्छा आदमी बनाया नहीं जा सकता। वह पैदा होता है । और इसे गीत में राजकपूर पिरोते भी है । “बादल की तरह आवारा थे हम / हंसते भी रहे रोते भी रहे ...” और नेहरु के नायकत्व से टकराता राजकपूर का नायकत्व सिल्वर स्क्रीन पर नेहरु के सोशलिज्म को चोचलिज्म कहने भी भी कतराता और सामाजवादी राष्ट्रवाद को नये तरीके सेगढता भी है। “ मेरा जूता है जापानी, पतलून इंग्लिशस्तानी, सर पर लाल टोपी रुसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी “ । तो सियासत में नेहरु और सिल्वर स्क्रीन पर राजकपूर के नायकत्व को कोई चुनौती नहीं थी । पर इस दौर में नायकत्व के सामानांतर लकीर खींचने के लिये खांटी समाजवादी राम मनमोहर लोहिया राजनीति के मैदान में थे । जो आजादी के 10 बरस बाद ही सत्ता की रईसी और जनता की दरिद्रगी पर संसद में बहस करने के लिये तीन आना बनाम 16 आना की चुनौती नेहरु को ही दे रहे थे । तो सिल्वर स्क्रीन पर राजकपूर के नायकत्व को चुनौती देने के लिये दिलीप कुमार थे । और इस चेहरे का दूसरा रुप नेहरु की ही थ्योरी को सिल्वर स्क्रीन पर उतारने के लिये फिल्म नया दौर आई । मानव श्रम को चुनौती देती टेकनालाजी । पर ये दौर तो ऐसा था कि देश समाज और सिल्वर स्क्रीन भी नये नये नायको को खोज रहा था । 62 के युद्द ने नेहरु के औरे को खत्म कर दिया तो उससे पहले ही आजाद भारत में आधी रात को देखे गये नेहरु के सपनो के हिन्दुस्तान को गुरुदत्त ने सिल्वर स्क्रिन पर निराशा से देखा । और ये कहने से नहीं चूके 'ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ..... ।
पर निराशा के इस दौर से लाल बहादुर शास्त्री ने “जय जवान जय किसान “ जरीये उभारा । इस नारे ने शास्त्री के ननायकत्व को राजनीति में कुछ इस तरह गढा कि समूचा देश ही राष्ट्रवाद की उस परिभाषा में समा गया जहा इंडिया फर्स्ट था । और सिल्वर स्क्रीन पर मनोज कुमार ने नायकत्व के इस धागे को बाखूबी पकडा । नायकत्व की परिभाषा बदल रही थी । पर हमारे पास नायक थे । शास्त्री के बाद इंदिरा गांधी की छवि तो दुनिया के नायको के कद से भी बड़ी हो गई । 1971 के युद्द ने इंदिरा को जिस रुप में गढा वह दुर्गा का भी था । और अमेरिका जैसे ताकतवर देश के सातवे बेडे को चुनौती देते हुये ताकतवर राष्ट्रध्यक्ष का भी था । पर 71 के बाद इंदिरा का नायकत्व फेल होता दिखा क्योकि करप्शन और सत्ता की चापलूसी के लिये बना दिये गये वैधानिक संस्थानो के विरोध में एक नये नायक जेपी का जन्म हुआ । जेपी सत्ता से टकराते थे । और इमरजेन्सी में भी 72 बरस के बूढे को लेकर धर्मवीर भारती ने जब “ मुनादी “ कविता लिखी तो ईमानदार संघर्ष की इस तस्वीर को सिल्वर स्क्रीन पर सलीम-जावेद की जोडी ने अमिताभ बच्चन को गढ़ा । सिल्वर स्क्रीन पर अमिताभ एक ऐसा नायक बना जो अपने बूते संघर्ष करता । न्याय दिलाने के लिये किसी हद तक जाता । और देखने वालो की शिराओ में दौ़डने लगता । और राजनीतिक हालात से पैदा होती सामाजिक – आर्थिक त्रासदियों को भोगती जनता को लगता वह खुद ही इंसाफ कर सकती है । क्योकि भ्रम तो कालेज छोड़ जेपी के पीछे निकले युवाओं का भी टूटा । और झटके में नायकत्व को जीने वाले देवआंनद से लेकर राजेश खन्ना युवाओ के जहन से गायब
हो गये ।
पर इसके बाद कि सामाजिक-राजनीतिक निराशा ने नायको की लोकप्रियता खत्म की । असर ये हुआ कि एक तरफ भारतीय राजनीति में गठबंधन की सरकारो को सत्ता दिलायी तो सिल्वर स्क्रीन पर भी मल्टी स्टार यानी जोडी नायकों का खेल हो गया । याद कीजिये शोले , दोस्ताना ,काला पत्थर । और शायद यही वह दौर था जब राजनीति में क्षत्रपों का उदय हुआ तो दूसरी तरफ नायकी मिजाज सिल्वर स्क्रीन पर भी बदलता नजर आया । तो एक तरफ सिल्वर स्क्रीन के नायक सलमान/आमिर/शाहरुख/अजय देवगन/अक्षय कुमार /रितिक है तो दूसरी तरफ राजनीतिक मैदान में लालू /मायावती/मुलायम / नीतिश / चन्द्रबाबू /ममता नायक के तौर पर उभरे । ये वो चेहरे है जो अपने अपने वक्त के नायक रहे हैं । फिल्मी नायको की इस कतार ने अगर तीन पीढी की नायिकाओं के साथ काम लिया है
तो राजनीति के मैदान में बीते तीन दशक से ये चेहरे अपने अपनी बिसात पर नायक रहे हैं । इन नायकों में आपसी प्रतिस्पर्धा भी खूब रही है । सलमान-आमिर और शाहरुख की प्रतिस्पर्धा कौन भूल सकता है । और राजनीति में मुलायम मायावती , लालू नीतिश की प्रतिस्पर्धा कौन भूला सकता है । फिर अजय देवगन और अक्षय कुमार का कैनवास उतना व्यापक नहीं है । एक्शन को केन्द्र में रखकर संवाद कौशल से ही इन दोनो ने जगह बनायी । ठीक इसी तरह ,ममता बनर्जी और चन्द्रबाबू नायडू का भी कैनवास व्यापक नहीं रहा । दोनों ने अपनी राजनीतिक जमीन केन्द्र से टकराते हुये क्षत्रपों के तौर पर गढी । एक लिहाज से नायको की कतार यही आकर थम जाती है । क्योकि इन चेहरो के आसरे सिनेमाघर में हाउस फूल होता रहा । और राजनीति के नायक क्षत्रपो के सामने राष्ट्रीय राजनीतिक दल काग्रेस या बीजेपी भी टिक नहीं पाये । पर ये नायकों का आखिरी दौर था । क्योकि इसके बाद की कतार में आकार्षण है पर नायक नहीं । मसलन , सिल्वर स्क्रिन पर रणवीर कपूर /रणबीर सिंह / वरुण धवन /टाइगर श्राफ है तो राजनीतिक मैदान में अखिलेश यादव/तेजस्वी यादव /केजरीवाल/उद्दव ठाकरे / उमर अब्दुल्ला है । पर नायक नहीं है । तो क्या मौजूदा दौर में नायक गायब है । आकर्षण है । पर इनमें नायकत्व नहीं है जिसके आसरे कोई फिल्म हाउस फुल देदें । या फिर जिस नेता के आसरे देश में विकल्प नजर आने लगे । क्योकि इन तमाम चेहरो को देखिये और इनकी फिल्मो को याद किजिये तो सभी अचानक तेजी से चमके फिर गिरावट आ गई । आज फिर सभी संघर्ष के रास्ते पर है । यानी संघर्ष के आसरे सिल्वर स्क्रिन पर रणवीर कपूर या रणवीर सिंह या वरुण धवन सफल दिखायी दे सकते है । लेकिन सितारा आकर्षण इनके साथ अभी भी जुडा नहीं है। और यही हालत नये नेताओं की है । ये भी सफल होते है जैसे केजरीवाल तेजी से निकले पर नायक के तौर पर नहीं बल्कि संघर्ष करते हुये ठीक वैसे ही जैसे फिल्मों के लिये अच्छी कहानी , सधा हुआ निर्देशन चाहिये । वैसे ही इन नेताओं को भी राजनीति गढने के लिये मुद्दा चाहिये । उसे सफल बनाने के लिये प्रचार-प्रसार और कैडर की मेहनत चाहिये । और सफल होने के लिये अखिलेश सरीखे नेता को भी पुरानी पीढी की सफल मायावती के साथ जुड़ना पडता है । यानी मौजूदा वक्त में नायक की कमी कैसे राजनीति की कमान संभालने वालो से लेकर सिल्वर स्क्रीन तक पर है, ये भी साफ है । या फिर ये कहा जाये कि मौजूदा वक्त ने नायक की परिभाषा ही बदल दी है । क्योकि सिल्वर स्क्रीन पर बाहुबली और देश में पीएम मोदी ने नायकत्व को नई परिभाषा तो दी है । बाहुबली का डायलाग “मेरा वचन ही मेरा शासन है “ संभवत नौजूदा राजनीतिक सत्ता की कहानी भी कहता है । तो क्या ये नये दौर के नायकत्व की पहचान है । एक तरफ बाहुबली बने प्रभाश .है । तो दूसरी तरफ गुजरात माडल लिये पीएम मोदी । बाहुबली के सामने बालीवुड के सितारे भी नहीं टिके । और मोदी के सामने उनकी अपनी पार्टी बीजेपी का ही कद छोटा हो गया । तो क्या ये बदलाव का दौर है । दक्षिण से बाहुबली जैसी फिल्म बनाकर कोई निर्देशक देश दुनिया में तहलका मचा सकता है । और बालीवुड का एक निर्देशक उसका वितरक बनकर ही खुश हो जाता है कि उसके करोडो के वारे न्यारे हो गये । तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय नेताओ की कतार से इतर ही नही बल्कि हिन्दी पट्टी से दूर गुजरात से एक शख्स निकल कर देश की समूची राजनीति को ना सिर्फ बदल देता है बल्कि लोकतंत्र को नई परिभाषा भी दे देता है । और विपक्ष की समूची राजनीति एकतत्र होकर उसे हराने में ही अपनी जीत मानती है । यानी नायकत्व समेटे हालात क्या सिल्वर स्किर से लेकर राजनीति तक में बदल चुके है । क्योकि एक वक्त वाजपेयी नायक थे पर राजधर्म का पाठ जिन्हे पढाया आज वही शख्स नायक है । और एक दौर में जो बालीवुड मुगले आजम बनाता था । आज वही बालीवुड दक्षिण की तरफ देखने को मजबूर है ।
Sunday, April 22, 2018
Sunday, April 15, 2018
38 बरस की बीजेपी को कैसे याद करें ?
38 बरस की बीजेपी को याद कैसे करें। जनसंघ के 10 सदस्यों से बीजेपी के 11करोड़ सदस्यों की यात्रा । या फिर दो सांसद से 282 सांसदों का हो जाना । या फिर अटल बिहारी वाजपेयी से नरेन्द्र मोदी वाया लाल कृष्ण आडवाणी की यात्रा । या फिर हिन्दी बेल्ट से गुजरात मॉडल वाली बीजेपी । या फिर संघके राजनीतिक शुद्दिकरण की सोच से प्रचारकों को बीजेपी में भेजना और फिर 2014 में बीजेपी के लिये हिन्दु वोटर को वोट डालने के लिये घर से को बाहर निकालने की मशक्कत करना । पर बदलते राजनीति परिदृश्य ने पहली बार इसके संकेत दे दिये है कि 2018 में बीजेपी का आकलन ना तो 1980 की सोच तले हो सकता है और ना ही 38 बरस की बीजेपी को आने वाले वक्त का सच माना जा सकता है । बीजेपी को भी बदलना है और बीजेपी के लिये सत्ता का रास्ता बनाते राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को भी बदलना होगा । ये सवाल इसलिये क्योंकि तीन दशक की बीजेपी की सियासत में जितना परिवर्तन नहीं आया उससे ज्यादा परिवर्तन बीत चार बरस में मोदी काल में आ गया । इमरजेन्सी के गैर कांग्रेसवाद की ठोस हकीकत को जमीन पर विपक्ष की जिस एकजुटता के साथ तैयार किया । उसी अंदाज में मोदी दौर को देखते हुये विपक्ष एकजुट हो रहा है । सवाल ये नहीं है कि बीजेपी अध्यक्ष को मोदी की बाढ़ तले कुत्ता-बिल्ली, सांप-छछूंदर का एक होना दिखायी दे रहा है । सवाल है कि इंदिरा की तानाशाही तले भी जनसंघ और वामपंथी एक साथ आ खडे हुये थे ।
पर तब सत्ता का संघर्ष वौचारिक था । सरोकार की राजनीति का मंत्र कही ना कही हर जहन में था । तो जनता पार्टी बदलाव और आपातकाल से संघर्ष करती दिखायी दे रही थी। पर अब संघर्ष वैचारिक नहीं है । सरोकार पीछे छूट चूके हैं। नैतिक बल नेताओं और राजनीतिक दलो में भी खत्म हो चुका है । तो फिर राजनीति का अंदाज उस आवारा पूंजी के आसरे जा टिका है जो अहंकार में डूबी है। सत्ता की महत्ता उस ताकत को पाने का अंदेशा बन चुकी है जिसके सामने लोकतंत्र नतमस्तक हो जाये । यानी लोकतंत्रिक मूल्यों को खत्म कर संवैधानिक संस्धाओ को भी अपने अनुकूल हांकने की सोच है । यानी संघ परिवार भी जिन मूल्यों के आसरे हिन्दुत्व का तमगा छाती पर लगाये रही वह बिना राजनीतिक सत्ता के संभव नहीं है ये सीख बीजेपी के 38 वें बरस में संघ प्रचारकों ने ही दे दी। और हिन्दुत्व की सोच एक आदर्श जिन्दगी जिलाये रखने के लिये तो चल सकती है पर इससे सत्ता मिल नहीं सकती ये समझ भी सत्ता पाने के बाद संघ प्रचारक ने ही आरएसएस को दे दी । इन हालातों बने कैसे और अब आगे रास्ता जाता किस दिशा में है । इसे समझने से पहले बीजेपी और मौजूदा वक्त की इस हकीकत को ही समझ लें के भारतीय राजनीति में जो बदलाव इमरजेन्सी या मंडल-कंमडल पैदा नहीं कर पाया उससे ज्यादा बड़ा बदलाव 2014 के आम चुनाव के तौर तरीकों से लेकर सत्ता चलाने के दौर ने कर दिये। सिर्फ सोशल मीडिया या कहे सूचना तकनीक के राजनीतिक इस्तेमाल से बदलती राजनीतिक परिभाषा भर का मसला नहीं है । मुद्दा है जो राजनीतिक सरोकार 1952 से देश ने देखे वह देश के सामाजिक-आर्थिक हालातो तले राजनीति को ही इस तरह बदलते चले गये कि राजनीतिक सत्ता पाने का मतलब सत्ता बनाये रखने की सोच देश का संविधान हो गया । और सवा सौ करोड लोगों के बीच राजनीतिक सत्ता एक ऐसा टापू हो हो गया जिसपर आने के लिये हर कोई लालायित है । इसलिये अगर कोई बीजेपी को इस बदलते दौर में सिर्फ राजनीतिक जीत या संगठन के विस्तार या चुनावी जीत के लिये पन्ना प्रमुख तक की जिम्मदेरी के अक्स में देखता है तो वह उसकी भूल होगी । चाहे अनचाहे बीजेपी ही नहीं बल्कि संघ और कांग्रेस को भी अब बदलते हिन्दुस्तान के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य तले राजनीतिक दलों के बदलते चेहरे और वोटरों की राजनीतिक भागेदारी के नये नये खुलते आयाम तले देखना ही होगा ।
दरअसल जनसंघ से बीजेपी के बनने के बीच वाजपेयी जिस ट्रांसफारमेशन के प्रतीक रहे उसी ट्रासंफारमेशन के प्रतीक मौजूदा वक्त में नरेन्द्र मोदी है । जनसंघ का खांटी हिन्दुत्व और बनिया-ब्राह्मण की सोच का होना । और 1980 में वाजपेयी ने बडे कैनवास में उतारने की सोच रखी । और अपने पहले भाषण में गांधीवाद-समाजवाद को समेटा । पर 84 में सिर्फ दो सीट पर जीत ने बीजेपी को सेक्यूलर इंडिया में खुले तौर पर हिन्दुत्व का नारा लगाते हुये देश के उन आधारो पर हमला करना सिखा दिया जो वोट का ध्रुवीकरण करते और चुनावी जीत मिलती । पर उसमें इतना पैनापन भी नहीं था कि बीजेपी पैन-इंडिया पार्टी बन जाती । दक्षिण और पूर्वी भारत में बीजेपी को तब भी मान्यता नहीं मिली । और याद कीजिये नार्थ ईस्ट में चार स्वयंसेवकों की हत्या के बाद भी तब के गृहमंत्री आडवाणी सिर्फ झंडेवालान में संघ हेडक्वाटर पहुंच कर श्रदांजलि देने के आलावा कुछ कर नहीं पाये । पर वाजपेयी जिस तरह गठबंधन के आसरे 2004 तक सत्ता खिंचते रहे उसने पहली बार ये सवाल तो खड़ा किया ही कि कांग्रेस और वाजपेयी की बीजेपी में अंतर क्या है । कांग्रेस की बनायी लकीर पर बीजेपी 2004 तक चलती नजर आई । चाहे वह आर्थिक नीति हो या विदेश नीति । कारपोरेट से किसान तक को लेकर सत्ता के रुख में ये अंतर करना वाकई मुश्किल है कि 1991 से लेकर 2014 तक बदला क्या । जबकि इस दौर में देश के तमाम राजनीतिक दलों ने सत्ता की मलाई का मजा लिया । फिर ऐसा 2013-14 से 2018 के बीच क्या हो गया जो लगने लगा है कि देश की राजनीति करवट ले रही है । और आने वाले वक्त में राजनीति बदलेगी । राजनीतिक दल बदलेंगे । और शायद नेताओं के पारंपरिक चेहरे भी बदलेंगे । क्योंकि इस दौर ने समाज-राजनीति के उस ढांचे को ढहा दिया, जहां कुछ छुपता था । या छुपा कर सियासत करते हुये इस एहसास को जिन्दा रखा जाता था कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत में लोकतंत्र जिन्दा है । स की राजनीति ने इतनी पारदर्शिता ला दी कि विचारधारा चाहे वामपंथियो की या हिन्दुत्व की दोनो सत्ता के सामने रेगतें नजर आने लगे ।
देश में कारपोरेट की लूट हो या राजनीतिक सत्ता की कारपोरेट लूट दोनों ही एक थाली में लोटते नजर आये । किसान-मजदूर से हटकर देश का पढा लिखा युवा खुद को भाग्यशाली समझता रहा । पर पहली बार वोट बैंक के दायरे में सियासत ने दोनों को एक साथ ला खड़ा कर दिया । कल तक गरीबी हटाओ का नारा था। अब बेरोजगारी खत्म करने का नारा। पहली बार मुस्लिम देश में है भी नहीं ये सवाल गौण हो गया । यानी कल तक जिस तरह सावरकर का हिन्दुत्व और हेडगेवार का हिन्दुत्व टकराता रहा । और लगता यही रहा है मुस्लिमो को लेकर हिन्दुत्व की दो थ्योरी काम करती है । एक सावरकर के हिन्दुत्व तले मुस्लिमो की जगह नहीं है तो हेडगेवार के हिन्दुत्व में जाति धर्म हर किसी की जगह है । पर सत्ता के वोट बैंक की नई बिसात ने बीजेपी को मुस्लिम माइनस सोच कर सियासत करना सिखा दिया । पर देश के सामाजिक-आर्थिक हालात पारदर्शी हुये तो अगला सवाल दलितों का उठा और बीजेपी के सत्ताधारी गुट को लगा गलित माइनस हिन्दु वोट बैंक समेटा जा सकता है । पर देश की मुश्किल ये नहीं है कि राजनीति क्रूर हो रही है । मंदिरो में जा कर ढोगं कर रही है । और वोट बैंक की सियासत भी पारदर्शी हो तो सबकुछ दिखायी दे रहा है । कौन कहा खडा है । दरअसल मुश्किल तो ये है कि चुनावी लोकतंत्र एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है जहा राजनीति सत्ता पाने के लिये ऐसा अराजक माहौल बना रही है, जिसके दायरे में संविधान-कानून का राज की सोच ही खत्म हो जाये । कांग्रेस ने इन हालातों को 60 बरस तक बाखुबी जिया इससे इंकार किया नहीं जा सकता है पर इन 60 बरस के बाद बीजेपी की सत्ता काग्रेस से नहीं बल्कि देश से जो बदला अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिये उठा रही है उसमें वह कांग्रेस से भी कई कदम आगे बढ़ चुकी है । और इन हालातों ने भारतीय राजनीति में नहीं बल्कि जन-मन में चुनावी लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया है । और ये सवाल इसीलिये बड़ा होते जा रहा है कि वाकई मौजूदा बीजेपी सत्ता काी कोई विकल्प नहीं है । दरअसल हम विकल्प नहीं बदलाव खोज रहे है तो फिर हथेली खाली ही मिलेगी । यहां विकल्प या बदलाव का मसला राहुल गांधी या विपक्ष से नहीं जुड़ा है । बल्कि उन सवालो से जुड़ा है जो वर्तमान का सच है और आने वाले वक्त में सत्ता के हर मोदी को उस रास्ते पर चलना होगा अगर उसके जहन में विक्लप का विजन नहीं है तो । मसलन, नेहरु से लेकर मनमोहन तक का पूंजीवाद उघोगपतियो और कारपोरेट का हिमायती रहा । पर मौजूदा वक्त में कारपोरेट और उघोगपतियों में लकीर खिंच गई । चंद कारपोरेट सत्ता के हो गये । बाकि रुठ गये । किसान-मजदूरों का सवाल उठाते उठाते चुनावी लोकतंत्र ही इतना महंगा हो गया कि चुनाव जनता के पेट भरने का साधन बन गया और राजनीतिक दल सबसे बडे रोजगार के दफ्तर । 1998 से 2009 तक के चार आम-चुनाव में जितना पैसा फंड के तौर पर राजनीतिक दल को मिला । उससे दुगुना पैसा सिर्फ 2013-14 से
2015-16 में बीजेपी को मिल गया । सरसंघ चालक भागवत जेड सिक्यूरटी के दायरे में आ गये तो आम जन का उनसे मिलना मनुस्किल हो गया और बीजेपी हेक्वाटर दिल्ली में सात सितारा को ही मात देने लगा तो फिर जन से वह कट भी गया और जन से खुद को सात सितारा की पांचवी मंजिल ने काट भी लिया । पांचवी मंजिल पर ही बीजेपी अध्यक्ष का दफ्तर है । जहा पहुंच जाना ही बीजेपी के भीतर वीवीआईपी हो जाना है । यानी सवाल ये नहीं कि कांग्रेस के दौर के घोटालो ने बीजेपी को सत्ता दिला दी । और बीजेपी के दौर में घोटालो की कोई पोल खुली नहीं है । सवाल है कि घोटालो के दौर में बंदरबांट था । जनता भी करप्ट इक्नामी का हिस्सेदार बन चुकी थी । और इक्नामी के तौर तरीके सामाजिक तौर पर उस आक्रोष को उभरने नहीं दे रहे थे जो भ्रष्टाचार को बढावा दे रहे थे । पर नये हालात उस आक्रोष को उभार रहे है जिसे रास्ता दिखाने वाला कोई नेता नहीं है । भगवा गमछा गले में डाल कानून को ताक पर रखकर अगर गौ-रक्षा की जा सकती है तो फिर नीला झंडा उठाकर शहर दर शहर दलित हिंसा भी हो सकती है । फिर तो दलितो पर निशाना साध उनके घरो पर हमला करते हुये कही ऊंची जाति तो कही हिन्दुत्व का नारा भी लगाया जा सकता है । और इसके सामांनातार जनता का जमा पैसे की लूट कोई कारोबारी कर भी सकता है । और सरकार कारोबारियों को करोडों अरबों की रियायत दे भी सकती है । असल में सामाजिक संगठनों की जरुरत इन्ही से पैदा होने वाले हालातो को काबू में रखने के लिये होते है । पर जब हर संस्धान ने सत्ता के लिये काम करना शुरु कर दिया । या सत्ता ही देश और लोकतंत्र हो जाये तो फिर संविधान कैसे ताक पर है ये सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के चार जजो के खुलकर चीफ जस्टिस के खिलाफ आने भर से नहीं उभरता ।
बल्कि देश का चुनावी लोकतंत्र ही कैसे लोकतंत्र के लिये खतरा हो चला है इस दिशा में भी मौन चिंतन की इजाजत दे ही देता है । और जब लोकतंत्र के केन्द्र में राजनीत हो तो फिर आने वाले वक्त की उस आहट को भी सुनना होगा जो अंदेशा दे रही है कि देश बदल रहा है । यानी बीजेपी में नेताओ की जो कतार 2013 तक सर्वमान्य थी वह मोदी के आते ही 2014 में ना सिर्फ खारिज हो गई बल्कि किसी में इतना नैतिक साहस भी नहीं बचा कि वह पूर्व की राजनीति को सही कह पाता । और जिस लकीर को मौजूदा वक्त में मोदी खींच रहे है वह आने वाले वक्त की राजनीति में कहा कैसे टिकेगी खतरा यह भी है । और उससे भी बडा संकेत तो यही है कि चुनावी लोकतंत्र ही स्टेट्समैन पैदा करेगा जो मौजूदा राजनीति के चेहरो में से नहीं होगा । यानी बीजेपी के 38 बरस या कांग्रेस के 133 बरस आने वाले वक्त में देश के 18 से 35 बरस की उम्र के 50 करोड युवाओं के लिये कोई मायने नहीं रखते है । क्योंकि चुनाव पर टिका देश का लोकतांत्रिक माडल ही डगमग है । इसीलिये तो लोकसभा-राज्यसभा में बहुमत के साथ यूपी में बीजेपी की सत्ता होने के बावजूद राम मंदिर बनेगा नहीं । और 1980 में वाजपेयी का नारा अंधेरा छटेगा, कमल खिलेगा अब मायने रखता नही है । क्योकि 70 बरस बाद राष्ट्रीय राजनीति दलो की सत्ता तले चुनावी राजनीति ही चुनावी लोकतत्र का विकल्प खोज रही है ।
पर तब सत्ता का संघर्ष वौचारिक था । सरोकार की राजनीति का मंत्र कही ना कही हर जहन में था । तो जनता पार्टी बदलाव और आपातकाल से संघर्ष करती दिखायी दे रही थी। पर अब संघर्ष वैचारिक नहीं है । सरोकार पीछे छूट चूके हैं। नैतिक बल नेताओं और राजनीतिक दलो में भी खत्म हो चुका है । तो फिर राजनीति का अंदाज उस आवारा पूंजी के आसरे जा टिका है जो अहंकार में डूबी है। सत्ता की महत्ता उस ताकत को पाने का अंदेशा बन चुकी है जिसके सामने लोकतंत्र नतमस्तक हो जाये । यानी लोकतंत्रिक मूल्यों को खत्म कर संवैधानिक संस्धाओ को भी अपने अनुकूल हांकने की सोच है । यानी संघ परिवार भी जिन मूल्यों के आसरे हिन्दुत्व का तमगा छाती पर लगाये रही वह बिना राजनीतिक सत्ता के संभव नहीं है ये सीख बीजेपी के 38 वें बरस में संघ प्रचारकों ने ही दे दी। और हिन्दुत्व की सोच एक आदर्श जिन्दगी जिलाये रखने के लिये तो चल सकती है पर इससे सत्ता मिल नहीं सकती ये समझ भी सत्ता पाने के बाद संघ प्रचारक ने ही आरएसएस को दे दी । इन हालातों बने कैसे और अब आगे रास्ता जाता किस दिशा में है । इसे समझने से पहले बीजेपी और मौजूदा वक्त की इस हकीकत को ही समझ लें के भारतीय राजनीति में जो बदलाव इमरजेन्सी या मंडल-कंमडल पैदा नहीं कर पाया उससे ज्यादा बड़ा बदलाव 2014 के आम चुनाव के तौर तरीकों से लेकर सत्ता चलाने के दौर ने कर दिये। सिर्फ सोशल मीडिया या कहे सूचना तकनीक के राजनीतिक इस्तेमाल से बदलती राजनीतिक परिभाषा भर का मसला नहीं है । मुद्दा है जो राजनीतिक सरोकार 1952 से देश ने देखे वह देश के सामाजिक-आर्थिक हालातो तले राजनीति को ही इस तरह बदलते चले गये कि राजनीतिक सत्ता पाने का मतलब सत्ता बनाये रखने की सोच देश का संविधान हो गया । और सवा सौ करोड लोगों के बीच राजनीतिक सत्ता एक ऐसा टापू हो हो गया जिसपर आने के लिये हर कोई लालायित है । इसलिये अगर कोई बीजेपी को इस बदलते दौर में सिर्फ राजनीतिक जीत या संगठन के विस्तार या चुनावी जीत के लिये पन्ना प्रमुख तक की जिम्मदेरी के अक्स में देखता है तो वह उसकी भूल होगी । चाहे अनचाहे बीजेपी ही नहीं बल्कि संघ और कांग्रेस को भी अब बदलते हिन्दुस्तान के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य तले राजनीतिक दलों के बदलते चेहरे और वोटरों की राजनीतिक भागेदारी के नये नये खुलते आयाम तले देखना ही होगा ।
दरअसल जनसंघ से बीजेपी के बनने के बीच वाजपेयी जिस ट्रांसफारमेशन के प्रतीक रहे उसी ट्रासंफारमेशन के प्रतीक मौजूदा वक्त में नरेन्द्र मोदी है । जनसंघ का खांटी हिन्दुत्व और बनिया-ब्राह्मण की सोच का होना । और 1980 में वाजपेयी ने बडे कैनवास में उतारने की सोच रखी । और अपने पहले भाषण में गांधीवाद-समाजवाद को समेटा । पर 84 में सिर्फ दो सीट पर जीत ने बीजेपी को सेक्यूलर इंडिया में खुले तौर पर हिन्दुत्व का नारा लगाते हुये देश के उन आधारो पर हमला करना सिखा दिया जो वोट का ध्रुवीकरण करते और चुनावी जीत मिलती । पर उसमें इतना पैनापन भी नहीं था कि बीजेपी पैन-इंडिया पार्टी बन जाती । दक्षिण और पूर्वी भारत में बीजेपी को तब भी मान्यता नहीं मिली । और याद कीजिये नार्थ ईस्ट में चार स्वयंसेवकों की हत्या के बाद भी तब के गृहमंत्री आडवाणी सिर्फ झंडेवालान में संघ हेडक्वाटर पहुंच कर श्रदांजलि देने के आलावा कुछ कर नहीं पाये । पर वाजपेयी जिस तरह गठबंधन के आसरे 2004 तक सत्ता खिंचते रहे उसने पहली बार ये सवाल तो खड़ा किया ही कि कांग्रेस और वाजपेयी की बीजेपी में अंतर क्या है । कांग्रेस की बनायी लकीर पर बीजेपी 2004 तक चलती नजर आई । चाहे वह आर्थिक नीति हो या विदेश नीति । कारपोरेट से किसान तक को लेकर सत्ता के रुख में ये अंतर करना वाकई मुश्किल है कि 1991 से लेकर 2014 तक बदला क्या । जबकि इस दौर में देश के तमाम राजनीतिक दलों ने सत्ता की मलाई का मजा लिया । फिर ऐसा 2013-14 से 2018 के बीच क्या हो गया जो लगने लगा है कि देश की राजनीति करवट ले रही है । और आने वाले वक्त में राजनीति बदलेगी । राजनीतिक दल बदलेंगे । और शायद नेताओं के पारंपरिक चेहरे भी बदलेंगे । क्योंकि इस दौर ने समाज-राजनीति के उस ढांचे को ढहा दिया, जहां कुछ छुपता था । या छुपा कर सियासत करते हुये इस एहसास को जिन्दा रखा जाता था कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत में लोकतंत्र जिन्दा है । स की राजनीति ने इतनी पारदर्शिता ला दी कि विचारधारा चाहे वामपंथियो की या हिन्दुत्व की दोनो सत्ता के सामने रेगतें नजर आने लगे ।
देश में कारपोरेट की लूट हो या राजनीतिक सत्ता की कारपोरेट लूट दोनों ही एक थाली में लोटते नजर आये । किसान-मजदूर से हटकर देश का पढा लिखा युवा खुद को भाग्यशाली समझता रहा । पर पहली बार वोट बैंक के दायरे में सियासत ने दोनों को एक साथ ला खड़ा कर दिया । कल तक गरीबी हटाओ का नारा था। अब बेरोजगारी खत्म करने का नारा। पहली बार मुस्लिम देश में है भी नहीं ये सवाल गौण हो गया । यानी कल तक जिस तरह सावरकर का हिन्दुत्व और हेडगेवार का हिन्दुत्व टकराता रहा । और लगता यही रहा है मुस्लिमो को लेकर हिन्दुत्व की दो थ्योरी काम करती है । एक सावरकर के हिन्दुत्व तले मुस्लिमो की जगह नहीं है तो हेडगेवार के हिन्दुत्व में जाति धर्म हर किसी की जगह है । पर सत्ता के वोट बैंक की नई बिसात ने बीजेपी को मुस्लिम माइनस सोच कर सियासत करना सिखा दिया । पर देश के सामाजिक-आर्थिक हालात पारदर्शी हुये तो अगला सवाल दलितों का उठा और बीजेपी के सत्ताधारी गुट को लगा गलित माइनस हिन्दु वोट बैंक समेटा जा सकता है । पर देश की मुश्किल ये नहीं है कि राजनीति क्रूर हो रही है । मंदिरो में जा कर ढोगं कर रही है । और वोट बैंक की सियासत भी पारदर्शी हो तो सबकुछ दिखायी दे रहा है । कौन कहा खडा है । दरअसल मुश्किल तो ये है कि चुनावी लोकतंत्र एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है जहा राजनीति सत्ता पाने के लिये ऐसा अराजक माहौल बना रही है, जिसके दायरे में संविधान-कानून का राज की सोच ही खत्म हो जाये । कांग्रेस ने इन हालातों को 60 बरस तक बाखुबी जिया इससे इंकार किया नहीं जा सकता है पर इन 60 बरस के बाद बीजेपी की सत्ता काग्रेस से नहीं बल्कि देश से जो बदला अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिये उठा रही है उसमें वह कांग्रेस से भी कई कदम आगे बढ़ चुकी है । और इन हालातों ने भारतीय राजनीति में नहीं बल्कि जन-मन में चुनावी लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया है । और ये सवाल इसीलिये बड़ा होते जा रहा है कि वाकई मौजूदा बीजेपी सत्ता काी कोई विकल्प नहीं है । दरअसल हम विकल्प नहीं बदलाव खोज रहे है तो फिर हथेली खाली ही मिलेगी । यहां विकल्प या बदलाव का मसला राहुल गांधी या विपक्ष से नहीं जुड़ा है । बल्कि उन सवालो से जुड़ा है जो वर्तमान का सच है और आने वाले वक्त में सत्ता के हर मोदी को उस रास्ते पर चलना होगा अगर उसके जहन में विक्लप का विजन नहीं है तो । मसलन, नेहरु से लेकर मनमोहन तक का पूंजीवाद उघोगपतियो और कारपोरेट का हिमायती रहा । पर मौजूदा वक्त में कारपोरेट और उघोगपतियों में लकीर खिंच गई । चंद कारपोरेट सत्ता के हो गये । बाकि रुठ गये । किसान-मजदूरों का सवाल उठाते उठाते चुनावी लोकतंत्र ही इतना महंगा हो गया कि चुनाव जनता के पेट भरने का साधन बन गया और राजनीतिक दल सबसे बडे रोजगार के दफ्तर । 1998 से 2009 तक के चार आम-चुनाव में जितना पैसा फंड के तौर पर राजनीतिक दल को मिला । उससे दुगुना पैसा सिर्फ 2013-14 से
2015-16 में बीजेपी को मिल गया । सरसंघ चालक भागवत जेड सिक्यूरटी के दायरे में आ गये तो आम जन का उनसे मिलना मनुस्किल हो गया और बीजेपी हेक्वाटर दिल्ली में सात सितारा को ही मात देने लगा तो फिर जन से वह कट भी गया और जन से खुद को सात सितारा की पांचवी मंजिल ने काट भी लिया । पांचवी मंजिल पर ही बीजेपी अध्यक्ष का दफ्तर है । जहा पहुंच जाना ही बीजेपी के भीतर वीवीआईपी हो जाना है । यानी सवाल ये नहीं कि कांग्रेस के दौर के घोटालो ने बीजेपी को सत्ता दिला दी । और बीजेपी के दौर में घोटालो की कोई पोल खुली नहीं है । सवाल है कि घोटालो के दौर में बंदरबांट था । जनता भी करप्ट इक्नामी का हिस्सेदार बन चुकी थी । और इक्नामी के तौर तरीके सामाजिक तौर पर उस आक्रोष को उभरने नहीं दे रहे थे जो भ्रष्टाचार को बढावा दे रहे थे । पर नये हालात उस आक्रोष को उभार रहे है जिसे रास्ता दिखाने वाला कोई नेता नहीं है । भगवा गमछा गले में डाल कानून को ताक पर रखकर अगर गौ-रक्षा की जा सकती है तो फिर नीला झंडा उठाकर शहर दर शहर दलित हिंसा भी हो सकती है । फिर तो दलितो पर निशाना साध उनके घरो पर हमला करते हुये कही ऊंची जाति तो कही हिन्दुत्व का नारा भी लगाया जा सकता है । और इसके सामांनातार जनता का जमा पैसे की लूट कोई कारोबारी कर भी सकता है । और सरकार कारोबारियों को करोडों अरबों की रियायत दे भी सकती है । असल में सामाजिक संगठनों की जरुरत इन्ही से पैदा होने वाले हालातो को काबू में रखने के लिये होते है । पर जब हर संस्धान ने सत्ता के लिये काम करना शुरु कर दिया । या सत्ता ही देश और लोकतंत्र हो जाये तो फिर संविधान कैसे ताक पर है ये सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के चार जजो के खुलकर चीफ जस्टिस के खिलाफ आने भर से नहीं उभरता ।
बल्कि देश का चुनावी लोकतंत्र ही कैसे लोकतंत्र के लिये खतरा हो चला है इस दिशा में भी मौन चिंतन की इजाजत दे ही देता है । और जब लोकतंत्र के केन्द्र में राजनीत हो तो फिर आने वाले वक्त की उस आहट को भी सुनना होगा जो अंदेशा दे रही है कि देश बदल रहा है । यानी बीजेपी में नेताओ की जो कतार 2013 तक सर्वमान्य थी वह मोदी के आते ही 2014 में ना सिर्फ खारिज हो गई बल्कि किसी में इतना नैतिक साहस भी नहीं बचा कि वह पूर्व की राजनीति को सही कह पाता । और जिस लकीर को मौजूदा वक्त में मोदी खींच रहे है वह आने वाले वक्त की राजनीति में कहा कैसे टिकेगी खतरा यह भी है । और उससे भी बडा संकेत तो यही है कि चुनावी लोकतंत्र ही स्टेट्समैन पैदा करेगा जो मौजूदा राजनीति के चेहरो में से नहीं होगा । यानी बीजेपी के 38 बरस या कांग्रेस के 133 बरस आने वाले वक्त में देश के 18 से 35 बरस की उम्र के 50 करोड युवाओं के लिये कोई मायने नहीं रखते है । क्योंकि चुनाव पर टिका देश का लोकतांत्रिक माडल ही डगमग है । इसीलिये तो लोकसभा-राज्यसभा में बहुमत के साथ यूपी में बीजेपी की सत्ता होने के बावजूद राम मंदिर बनेगा नहीं । और 1980 में वाजपेयी का नारा अंधेरा छटेगा, कमल खिलेगा अब मायने रखता नही है । क्योकि 70 बरस बाद राष्ट्रीय राजनीति दलो की सत्ता तले चुनावी राजनीति ही चुनावी लोकतत्र का विकल्प खोज रही है ।