Thursday, May 31, 2018

जनता के रुपयों पर पर नेताओं की हर दिन होली रात दीवाली

देश के जितने भी सांसद विधायक मंत्री और जितने भी पूर्व सांसद विधायक मंत्री है उनपर हर दिन 3 करोड 33 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। इसमें पीएम और सीएम के खर्चे नहीं जोड़े गये हैं। और 30 लाख रुपये प्रतिदिन देश के राज्यपालो की सुविधा पर खर्च हो जाते हैं और इन दोनो के बीच फंसा हुआ है एक पैसा । जो बुधवार को लगातार 17 दिन पेट्रोल डीजल की कीमतों के बढ़ने के बाद सस्ता किया गया । कैसा होता है एक पैसा । लोग तो ये भी भूल चुके होगें । पर मुश्किल तो ये भी है लोग नेताओं की रईसी भी भूल चूके हैं । क्योंकि जिस पेट्रोल-डीजल के जरीये अरबो-खरबो रुपये मोदी सरकार से लेकर हर राज्य सरकार ने बनाये। कंपनियों ने बनाये । उसकी मार से आहत जनता के लिये प्रति लीटर एक पैसा कैसे कम किया जा सकता है । वाकई ये अजीबोगरीब विडंबना है कि जिस पेट्रोल की कीमतों के आसरे देश के 60 करोड़ लोगों की जिन्दगी सीधे प्रभावित होती हैं, उसकी किमत में एक पैसे की कमी की गई । और जिन्हे देश के लिये नीतिया बनानी होती है वह बरसो बरस से अरबो खरबो रुपये रईसी में उडाते है । मसलन आंकडों के लिहाज से समझे देश में कुल 4582 विधायकों पर साल में औसतन 7 अरब 50 करोड़ रुपए खर्च होते हैं । इसी तरह कुल 790 सांसदों पर सालाना 2 अरब 55 करोड़ 96 लाख रुपए खर्च होते हैं । और अब तो राज्यपाल भी राजनीतिक पार्टी से निकल कर ही बनते है तो देश के तमाम राज्यपाल-उपराज्यपालों पर एक अरब 8 करोड रुपये सालाना खर्च होते हैं । तो खर्चो के इस समंदर में पीएम और तमाम राज्यो की सीएम का खर्चा जोड़ा नहीं गया है । फिर भी इन हालातो के बीच अगर हम आपसे ये कहे कि नेताओं को और सुविधा चाहिये । कैसी सुविधा इससे जानने से पहले जरा खर्च को समझे जो एक दिन में उड़ा दी जाती है या कमा ली जाती है ।


एक दिन में पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी भर से केंद्र सरकार के खजाने में 665 करोड़ रुपए आ जाते हैं। राज्य सरकारों को वैट से 456 करोड़ की कमाई होती है। पेट्रोलियम कंपनियों को एक दिन में पेट्रोल-डीजल बेचने से 120 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफा होता है। प्रधानमंत्री के एक दिन के विदेश दौरे पर 21 लाख रुपए खर्च होते हैं तो केंद्र सरकार का विज्ञापनों पर एक दिन का खर्च करीब 4 करोड़ रुपए है। कितने उदाहरण दें । सिर्फ एक दिन में मुख्यमंत्रियों के दफ्तर में चाय-पानी पर 25 लाख रुपए खर्च होते हैं। प्रदानमंत्री के रा,ट्र के नाम एक संदेश में 8 करोड 30 लाख रुपये खर्च हो जाते है । और जिस अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों का हवाला देकर सरकार महंगे पेट्रोल का बचाव करती रही-उसका नया सच यह है कि बीते पांच दिन में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में पांच डॉलर प्रति बैरल की कमी आ चुकी है । यानी जब कच्चा तेल महंगा था-तब पेट्रोल उसकी वजह से महंगा था, और अब सस्ता हो रहा है तो क्यों पेट्रोल-डीजल सस्ता नहीं हो रहा-इसका जवाब किसी के पास नहीं है। अलबत्ता-खजाने पर चोट न पड़ जाए-इसकी चिंता राज्य सरकारों से लेकर पेट्रोलियम कंपनियों और केंद्र सरकार तक सबको है। ऐसे में सवाल दो हैं । पहला, क्या पेट्रोल-डीजल के दामों में और कमी की अपेक्षा बेमानी है? दूसरा, अगर पेट्रोल-डीजल के दाम अब और नहीं बढ़ेंगे तो क्या अब जीएसटी में लाने से लेकर वैट या एक्साइज ड्यूटी कम करने जैसे कदम अब जनता भूल जाए? या सरकारों ने इस मंत्र को बखूबी समझ लिया है कि पेट्रोल-डीजल पर जनता भले अभी रोए लेकिन चुनावी बिसात पर वोट जाति-धर्म के आसरे ही पढ़ेंगे और चुनावी खेल जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति ही अपनानी होगी। ऐसे में जनता को रोने दिया जाए या कभी कभार एक-दो पैसे का लॉलीपॉप पकड़ाकर पेट्रोल-डीजल की कीमतों को अपने आप स्थिर होने दिया जाए। 


तो ऐसे में जनता के लालीपाप के एवज में नेताओ को तमाम सुविधायें किस तरह चाहिये उसका एक नजारा ये भी है कि एक वक्त दिल्ली को राष्ट्र्रकवि दिनकर ने तो रेशमी नगर कहा था । और जेठ का अनूठा सच यही है कि जितनी बड़ी दिल्ली है उसे अगर खाली कराकर देश के नेताओ के हवाले कर कर दिया जाये । तो हो सकता है दिल्ली छोटी पड जाये । रईसी और ठाटबाट होते क्या है चलिये ये भी समझ लिजिये । लोकसभा राज्यसभा के 790 सांसद । देश भर के 4582 विधायक । देश के 35 राज्यपाल-उपराज्यपाल । देश भर के सीएम और एक अदद पीएम । देश भर हारे हुये या कहे पूर्व सीएम । नेताओ के नाम चलने वाले ट्रस्ट । यह फेरहिस्त लंबी भी हो सकती है । पर जरा समझ ये लिजिये कि इन्हे तमाम सुविधाओ के साथ जो रहने के लिये बंगला मिला हुआ है उस बंगले की जमीन को अगर जोड दें तो दिल्ली की साढ तीन लाख एकड जमीन भी छोटी पड सकती है । क्योकि यूपी में मायावती, अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, नारायण दत्त तिवारी । बिहार में राबड़ी देवी, जीतनराम मांझी, जगन्नाथ मिश्र । झारखंड में बाबू लाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबु सोरेन, मधु कोड़ा, हेमंत सोरेन । राजस्थान में अशोक गहलोत, स्व जगन्नाथ पहाड़िया । मद्यप्रदेश में उमा भारती, दिग्विजय सिंह, कैलाश जोशी, बाबूलाल गौर । जम्मू कश्मीर में उमर अब्दुल्ला, गुलाम नबी आजाद । असम में तरुण गोगोई, प्रफुल्ल कुमार । मणीपुर में ओकराम इबोबी सिंह ये तो चंद नाम हैं उन पूर्व मुख्यमंत्रियों के जो सत्ता जाने के बाद भी सरकारी भवनों पर काबिज रहे और अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी इनमें से कई उन सरकारी भवनों में जमे रहने का रास्ता ढूंढ रहे हैं। कब्जे के इस खेल में न दलों का भेद है न दिलों का । और बात सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री के नाम पर बंटें बंगलों की ही नहीं। तमाम नेताओं ने ट्रस्ट बनाकर भी सरकारी भवनों पर कब्जों का जाल फैलाया हुआ है । अकेले उत्तर प्रदेश में ऐसे 300 ट्रस्ट और संस्थाएं हैं जिनके नाम पर सरकारी भवन बांटे गए हैं । तो ये सवाल आपके जहन में होगा कि नेता तो करोडपति होते है फिर भी ये सरकारी सुविधा क्यो चाहते है । और मुलायम सिंह व अखिलेश यादव जिनकी संपत्ति 24 करोड 80 लाख है वह भी सुप्रीम कोर्ट ये कहते हुये पहुंच गये कि फिलाहाल बंगला रहने दिया जाये क्योकि उनके पास दूसरी कोई छत नहीं है । वैसे रईस समाजवादियो के पास छत नहीं । ऐसा भी नहीं है । मुलायम सिंह के नाम लखनऊ के गोमती नगर में करीब 71 लाख का बंगला है । इटावा में 2.45 करोड़ की कोठी है । तो अखिलेश के पास लखनऊ में ही करीब डेढ़ करोड़ का प्लॉट है ।

पर सवाल सिर्फ बंगले का नहीं । सवाल तो ये है कि कमोवेश हर राज्य में नेताओ के पौ बारह रहते है । सत्ता किसी की रहे रईसी किसी की कम होती नहीं । और नेताओ ने मिलकर आपस में ही यह सहमति भी बना ली कि नेता जीते चाहे हारे उसे जनता का पैसा मिलते रहना चाहिये । जी , अगर आपने किसी सांसद या विधायक को हरा दिया । तो उसकी सुविधा में कमी जरुर आती है पर बंद नहीं होती । मसलन सासंद हार जाये तो भी हर सांसद को 20 हजार रुपए महीने के पेंशन मिलते है । दस एयर टिकट तो सेकेंड क्लास में एक साथी के साथ यात्रा फ्रि में । टेलिफोन बिल भी मिल जाता है । और हारे हुये विधायको के बारे राज्य सरकारे ज्यादा सोचती है तो और हर पूर्व विधायक को 25 हजार रुपए की पेंशन जिंदगी भर मिलती रहती है । सालाना एक लाख रुपये का यात्रा कूपन भी मिलता है । सफर हवाई हो या रेल या फिर तेल भराकर टैक्सी सफर ।

महीने का 8 हजार तीन सौ रुपये । और अगर कोई पूर्व सांसद पहले विधायक रहा तो उसे दोनों की पेंशन यानी हर महीने 45 हजार रुपए मिलते रहेंगे । यानी जनता जिसे कुर्सी से हटा देती है । जिसे हरा देती है । उसके उपर देश में हर बरस करीब दो सौ करोड रुपये से ज्यादा जनता का पैसा लुटाया जाता है । और जो सत्ता में रहते है उनकी तो पूछिये मत । दिन मे होली रात दीवाली हमेशा रहती है ।

Monday, May 28, 2018

चौथे बरस के जश्न तले चुनावी बरस में बढ़ते कदम

परसेप्शन बदल रहा है तो फिर चेहरा-संगठन कहां मायने रखेगा

चौथे बरस का जश्न आंकड़ों में गुजरा। तो क्या परसेप्शन खत्म और सफल बताने के लिये आंकड़ों के जरिए दावे। कमोवेश हर मंत्री ने दावे पेश किये कि देश में कितना काम हुआ। देश भर के अखबारो में विज्ञापन के जरिए कमोवेश हर क्षेत्र में चार बरस के दौर में सफलता के आंकड़े। तो क्या मोदी सरकार चौथे बरस में डिफेन्सिव है। यानी जो आक्रामकता 2013 में 15 अगस्त के दिन बकायदा तब के पीएम मनमोहन सिंह के लालकिले के प्रचीर से देश के नाम संबोधन के खत्म होते ही गुजरात में लालकिले का मॉडल बना कर सीएम मोदी ने भाषण देने के साथ शुरु किया, वह पहली बार 2018 में थमा है। तो क्या अब मोदी सरकार के सामने वाकई अपने कामकाज की सफलता बताने का वक्त आ गया है। कह सकते हैं, चुनावी वर्ष शुरु हो गया तो फिर पांच बरस के कामकाज का कच्छा-चिट्टा तो रखना ही होगा । पर चौथे बरस ने राजनीति की उस परिभाषा को बदलना शुरु किया है जिस पारंपरिक राजनीति को बीते चार बरस में बहलते हुये देश ने देखा । दरअसल मोदी के दौर ने उस दीवार को ढहा दिया जो जनता और राजनीतिक वर्ग को अलग करती थी। सत्ता किसी की भी रहे पर राजनीतिक तबके में एक इमानदारी रहती थी कि दूसरे पर आंच ना आये। और इस दीवार के गिरने ने उस जनता को ताकत जरुर दी जो अभी तक हर नेता से डरती थी। और मोदी सत्ता ने इसी परसेप्शन को बनाया और भोगा जहा वह ईमानदार की छवि अपने साथ समेटे रही। तो फिर गवर्नेंस का सवाल हो या किसी नीति या किसी पॉलिसी या किसी भी नारे का और उसकी एवज में जो भी कहा गया, उसे बहुसंख्य तबके ने सही माना। क्योंकि निशाने पर वह राजनीति थी। जिससे आम लोग अर्से से परेशान थे। लकीर किस महीनता से खिंची गई इसका एहसास इससे भी हो सकता है कि नोटबंदी ने राजनीतिक दलों की फंडिंग के साम्राज्य को ढहा दिया। सत्ता के इशारे पर संवैधानिक संस्थाओं ने विपक्ष की राजनीति को डरा दिया। बीते चार बरस में कॉरपोरेट समेत जितने रास्तों से राजनीतिक दलों की फंडिंग हुई उसका 89 फिसदी बीजेपी के खाते में गया। जितनी भी राजनीतिक फाइलें सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स या किसी भी संवैधानिक संस्धा के तहत खुली संयोग से उस कतार में बीजेपी के किसी नेता का नाम जिला स्तर तक भी ना आया । देश में सडक पर न्याय करने के एलान के साथ कानून को ताक पर रखकर भीडतंत्र जहा जहा सामने आया संयोग से उनमें भी किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई कानून करते हुये नजर नही आया । ये भी पहली बार नजर आया कि कोई मुख्यमंत्री अपनी पार्टी के नेता - मंत्री के खिलाफ दर्ज कानूनी मामलो को ही खत्म नहीं करा रहा है बल्कि अपने खिलाफ दर्ज मामलो में भी खुद को ही माफी दे रहा है और सबकुछ ऐलानिया हो रहा है । तो चौथे बरस ने दो तरह के परिवर्तन दिखाने शुरु किये । पहला , जनता का पर्सेप्शन मोदी सरकार की ताकत को आंकडों में देखने लगा । यानी सत्ता जादुई आंकडे 272 पर ही टिका है। और कर्नाटक के जादुई आंकडे के करीब पहुंचकर भी जब कुमारस्वामी सरीखे आठ मामलो के आरोपी को भी लगने लगा कि बीजेपी के साथ खडा होना भविष्य की राजनीति को खत्म करना होगा । तो फिर झटके में नया पर्सेपशन भी बनने लगा कि अब बीजेपी के साथ खडी पार्टियों में अंसतोष उभरेगा। ये सिर्फ चन्द्रबाबू नायडू या चन्द्शेखर राव के अलग होने या शिवसेना के विद्रोही मूड भर से नहीं समझा जा सकता । ना ही नीतीश कुमार का चौथे बरस नोटबंदी को लेकर सवाल खड़ा करने से उभरता है। बल्कि विपक्ष के जुडते तार तले संघर्ष के उस पैमाने से समझा जा सकता है जो पहली बार बिना पॉलिटिकेल फंड राजनीतिक संघर्ष कर रही है । तो दूसरा परिवर्तन टूटते पर्शप्सन के बीच आंकडो का सहारा लेकर अपनी सफलता दिखाने का है । यानी बीजेपी के पास मोदी सरीखा चेहरा है जिसकी कोई काट विपक्ष के किसी नेता में नहीं है । फिर भी सफलता के लिये आंकडे बताये जा रहे है । बीजेपी के पास सबसे बडा संगठन है दस करोड सदस्य पार । और बूथ से लेकर पन्ना प्रमुख तक के हालात । तो भी मंत्री दर मंत्री और बीजेपी अध्यक्ष उज्जवला योजना से लेकर मुद्दा योजना के आंकडों में अपनी सफलता के चार बरस गिना रहे है तो संकेत साफ है । परसेप्शन बदल रहा है । और यही से बीजेपी के लिये खतरे की घंटी है । क्योकि मोदी सत्ता ने विपक्ष के उस राजनीतिक वर्ग के खिलाफ तो मुहिम चलायी जो फंडिग के आसरे राजनीति नये सिरे से खडा कर सकता है । पर मोदी सत्ता ने अपने ही उस परसेप्शन को बदल दिया जहा बिना पूंजी या बिना फंडिग उसकी राजनीति पाक साफ दिखायी दे । और पूंजी पर टिकी सियासत जब कर्नाटक में हार गई या हाफंती दिखी तो नया सवाल ये भी पैदा हुआ कि क्या वाकई संघर्ष करने के माद्दे का आक्सीजन विपक्ष की राजनीति को मिल गया । या फिर बीजेपी के भीतर भी चुनावी बरस में सवाल उठेगें । क्योकि संगठन हो या फंडिग या फिर चेहरा वह मायने तभी रखता है जन परसेप्शन अनुकुल हो । क्योकि 2012-13 के दौर को भी याद कर लें तो मनमोहन सरकार के खिलाफ बनते परसेप्शन ने नरेन्द्र मोदी को जन्म दिया । फिर 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर परसेप्शन खत्म हुआ तो बिना चेहरे ही हालात पलट गये । यानी चाहे अनचाहे चौथे बरस ने यह संदेश भी दे दिया कि जिस सोशल इंजीनियरिंग के आसरे एनडीए के गठबंधन को विस्तार मिला अब चुनावी बरस में वही सोशल इंजीनियरिंग यूपीए में शिफ्ट हो रही है। और हिन्दुत्व के एजेंडे पर बीजेपी लौटेगी तो फिर परसेप्शन हिन्दुत्व का बनेगा ना कि संगठन या चेहरे का । तो क्या आडवाणी का चेहरा और वाजपेयी के पीएम बनने के दौर को नये तरीके से संघ ने मोदी को लेकर जो प्रयोग किया उसकी उम्र पूरी हो गई है या फिर बीजेपी फिर आडवाणी युग यानी मंडल-कंमडल के दौर को नये तरीके से जीने को तैयार हो रही है । तो इंतजार कीजिये क्योंकि चौथे बरस के संकेत साफ है 2019 में या तो काग्रेस एकदम बदले हुये रुप में नजर आयेगी जहा उसका संघर्ष उसे मथ रहा है । या फिर बीजेपी सियासत के ककहरे को नये तरीके से ढाल देगी।

नीति आयोग को क्यों लगा कि 5 पिछड़े राज्यों ने देश के विकास का बेड़ा गर्क कर दिया ?

बिहार, यूपी, एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़। तो नीति आयोग की नजर में देश के पांच राज्यों के पिछड़ेपन ने देश के विकास का बेडागर्क कर रखा है। पर इन पांच राज्यों का मतलब है 47,78,44,887 नागरिक यानी एक तिहाई हिन्दुस्तान। दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने का रास्ता यानी लोकसभा की 185 सीट। तो बेड़ा गर्क किसने किया। राजनीति ने या यहां के लोगों ने। और ये राज्य तो से है जो खनिज संपदा के लिहाज से सबसे रईस है पर औद्योगिक विकास के लिहाज से सबसे पिछड़े। 

देश के टाप 10 औगोगिक घराने जो खनन और स्टील डस्ट्री से जुडे हुये हैं, उन्हें भी सबसे ज्यादा लाभ इन्ही 5 राज्यों के उद्योगों से होता है। पर इन 5 राज्यों की त्रासदी यही है कि सबसे ज्यादा खनिज संपदा की लूट यानी 36 फिसदी यही पर होती है। सबसे सस्ते मजदूर यानी औसत 65 रुपये प्रतिदिन यही मिलते हैं। सबसे ज्यादा मनरेगा मजदूर यानी करीब 42 फीसदी इन्हीं पांच राज्यों में सिमटे हुये हैं। तो फिर दोष किसे दिया जाये। यूं इन पांच राज्यों का सच सिर्फ यही नहीं रुकता बल्कि एक तिहाई हिन्दुस्तान समेटे इन 5 राज्यो में महज 9 फिसदी उघोग हैं। देश के साठ फिसदी बेरोजगार इन्ही पांच राज्यों से आते हैं। तो फिर इन राज्यों को ह्यूमन इंडक्स में सबसे पीछे रखने के लिये जिम्मेदार है कौन। 

खासकर तब जब इन राज्यों से चुन कर दिल्ली पहुंचे सांसदों की कमाई बाकि किसी भी राज्य के सांसदों पर भारी पड़ जाती हो। एडीआर की रिपोर्ट कहती है, इन पांच राज्यों के 85 फीसदी सांसद करोड़पति हैं। पांच राज्यों के 72 फीसदी विधायक करोड़पति हैं। यानी जो सत्ता में हैं, जिन्हें राज्य के विकास के लिये काम करना है, उनके बैंक बैलेंस में तो लगातार बढ़ोतरी होती है पर राज्य के नागरिकों का हाल है, क्या ये इससे भी समझ सकते है कि पांचों राज्यों की प्रति व्यक्ति औसत आय 150 रुपये से भी कम है। यानी विकास की जो सोच तमाम राज्यो की राजधानी से लेकर दिल्ली तक रची बुनी जाती है और वित्त आयोग से नीति आयोग उसके लिये लकीर खींचता है। संयोग से हर नीति और हर लकीर इन पांच राज्यों में छोटी पड़ जाती है। सबसे कम स्मार्ट सिटी इन्हीं पांच राज्यों में है। सबसे ज्यादा गांव इन्हीं पांच राज्यों में हैं। सबसे कम प्रति व्यक्ति आय इन्ही पांच राज्यों में है। अगर इन पांच राज्यों को कोई मात दे सकता है तो वह झारखंड है। अच्छा है जो झारखंड का नाम नीति आयोग के अमिताभ कांत ने नहीं लिया। अन्यथा देश की सियासत कैसे इन राज्यों की लूट के सहारे रईस होती है और ग्रामीण भारत की लूट पर कैसे शहरी विकास की अवधारणा बनायी जा रही है वह कहीं ज्यादा साफ हो जाता । क्योंकि देश के जिन छह राज्यों को लेकर मोदी सरकार के पास कौन सी नीति है इसे अगर नीति आयोग भी नही जानता है तो फिर बिहार, यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और झारखंड के इस सच को भी समझे की देश से सबसे पिछडे 115 जिले में से 63 जिले इन्ही छह राज्यों के है । और इन पिछड़े जिलों को नाम दिया गया है एस्परेशनल डिसट्रिक्ट। यानी उम्मीद वाले जिले। पर देश की त्रासदी यही नहीं रुकती बल्कि 1960 में नेहरु ने देश के जिन 100 जिलों को सबसे पिछड़ा माना था और उसे विकसित करने के लिये काम शुरु किया संयोग से 2018 आते आते वही सौ जिले डेढ़ सौ जिलो में बदल गये और उन्हीं डेढ़ सौ जिलों में से मोदी सरकार के 115 एस्पेशनल जिले हैं। तो आजादी के बाद से हालात बदले कहां हैं और बदलेगा कौन। ये सवाल इसलिये जिन 115 जिलो को उम्मीद का जिला बताया गया है । वही के हालात को लेकर 1960 से 1983 तक नौ आयोग-कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौपी । हर रिपोर्ट में खेती पीने का पानी, हेल्थ सर्विस और शिक्षा से लेकर ह्यूमन इंडक्स को राष्ट्रीय औसत तक लाने के प्रयास का ब्लू प्रिंट तैयार किया गया। और इन सबके लिये मशक्कत उघोग क्षेत्र, निर्माण क्षेत्र, खेती में आय बढाने से लेकर खनन के क्षेत्र में होनी चाहिये इसे सभी मानते रहे हैं। पर इस हकीकत से हर किसी ने आंखे मूदी कि ग्रमीण क्षेत्रो के भरोसे शहरी क्षेत्र रईसी करते है। यानी ग्रामीण भारत की लूट पर शहरी विकास का मॉडल जा टिका है। जो बाजारवाद को बढ़ावा दे रहा है और लगातार शहरी व ग्रामीण जीवन में अंतर बढ़ता ही जा रहा है। बकायदा नेशनल अकाउंट स्टेटिक्स की रिपोर्ट के मुताबिक देश की इक्नामी में ग्रामीण भारत का योगदान 48 फिसदी है। पर शहरी और ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति आय के अंतर को समझें तो शहर में 281 रुपये प्रति व्यक्ति आय प्रतिदिन की है तो गांव में 113 रुपये। 

तो सवाल तीन हैं। पहला, सिर्फ किसानों की दुगनी आय के नारे से ग्रामीणों की गरीबी दूर नहीं होगी । दूसरा, ग्रामीण भारत को ध्यान में रखकर नीतियां नहीं बनायी गई तो देश और गरीब होगा । तीसरा , विशेष राज्य का दर्जा या किसान-मजदूर-आदिवासी के लिये राहत पैकेज के एलान से कुछ नहीं होगा । यानी इक्नामी के जिस रास्ते को वित्त आयोग के बाद अब नीति आयोग ने पकड़ा है, उसमें पिछड़े जिले एस्पेशननल जिले तो कहे जा सकते है पर नाम बदल बदल कर चलने से पिछडे राज्य अगड़े हो नहीं जायेंगे और जब आधे से ज्यादा हिन्दुस्तान इसी अवस्था में है तो फिर चकाचौंध के बाजार या कन्जूमर के जरीये देश का ह्यूमन इंडेक्स बढ़ भी नहीं जायेगा । जिसकी चिंता नीति आयोग के चैयरमैन अमिताभ कांत ने ये कहकर जता दी कि दुनिया के 188 देशों की कतार में भारत का नंबर 131 है ।