Tuesday, June 26, 2018

43 बरस बाद के हालात ने इमरजेन्सी की परिभाषा ही बदल दी

1975 से लेकर 2018 तक। दर्जन भर प्रधानमंत्रियों की कतार। इंदिरा गांधी से लेकर मोदी तक । इमरजेन्सी से लेकर अब तक। और 43 बरस पहले आज की तारीख यानी 25 जून को ही देश पर इमरजेन्सी थोपी गई। पर इन 43 बरस में देश का विस्तार कितना हुआ। देश कितना बदल गया। और कैसे 75 की इमरजेन्सी 2018 तक पहुंचते पहुंचते अपनी परिभाषा तक बदल चुकी है, ये आज की पीढ़ी को जानना चाहिये। क्योंकि हिन्दुस्तान का एक सच ये भी है 1975 में भारत की आबादी 57 करोड़ थी और 2018 में भारत की आबादी 125 करोड पार कर चुकी है। तो इस दौर में देश में संवैधानिक व्यवस्था हो या संविधान में दर्ज हक या अधिकार की बात । वह कैसे वक्त के साथ सत्ता की हथेलियों पर नाचने लगे। जो सवाल न्यायापालिका के सामने 1975 में उठे और इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को कठघरे में खड़ा कर दिया, वही सवाल अब सत्ता- व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं। तो देश भी अभ्यस्त हो चुका है। यानी 1975 के सवाल बीतते वक्त के साथ कैसे महत्व खो चुके है या फिर सिस्टम का हिस्सा बना दिये गये, इसे देश में कोई महसूस कर ही नहीं पाता है क्योंकि संविधान की जगह पार्टियो के चुनावी मेनिफेस्टो ने ले ली है। कैसे अदालत के कठघरे में खड़ी इंदिरा सत्ता 43 बरस पहले खुद को सही ठहराने के लिये कौन से प्रचार और किस तरह जनता के प्रयोजित हुजूम को हांक रही थी। और 43 बरस बाद कैसे प्रचार प्रसार के वहीं तरीके सिस्टम का हिस्सा बन गये या फिर राजनीतिक सत्ता की जरुरत बनते चले गये। और जनता अभ्यस्त होती चली गई। इस एहसास को इसलिये समझे क्योकि 1975 के बाद जन्म लेने वाले भारतीय नागरिकों की तादाद मौजूदा वक्त में दो तिहाई है । यानी 80 करोड़ लोगों को पता ही नहीं कि इमरजेन्सी होती क्या है। याद कीजिये 26 जून की सुबह 8 बजे आकाशवाणी से इंदिरा गांधी का संदेश , राष्ट्रपति ने इमरजेन्सी की घोषणा की है। इसमें घबराने की जरुरत नहीं है ..." ।

 तो हर सत्ता हर हालात को लेकर कुछ इसी तरह कहती है । घबराने की जरुरत नहीं है । आपके जेहन में नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्रइक आये या कुछ और मुद्दे उससे पहले याद कीजिये। 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से लेकर 25 जून 1975 तक देश में हो क्या रहा था और वह कौन से सवाल थे, जिसे अदालत सही नहीं मानता था औऱ इंदिरा गांधी ने सत्ता छोडने की जगह देश पर इमरजेन्सी थोप दी । तो 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सिन्हा ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123[ 7 ] के तहत दो मुद्दो पर इंदिरा गांधी को दोषी माना । पहला, रायबरेली में चुनावी सभाओ के लिये मंच बनाने और लाउडस्पीकर के लिये बिजली लेने में सरकारी अधिकारियों का सहयोग लेना । और दूसरा, भारत सरकार के अधिकारी जो पीएमओ में थे यशपाल कपूर की मदद चुनाव प्रचार में लेना। तो अब चुनाव में क्या क्या होता है और बिना सरकारी सहयोग के क्या सत्ता कोई भी चुनाव लड़ती है ये कम से कम वाजपेयी-मनमोहन-मोदी के दौर को याद करते हुये कोई भी सवाल तो कर ही सकता है । और इस दौर ने तो पीवी नरसिंह राव का सत्ता बचाने के लिये झाझुमो घूस कांड भी देख लिये । मनमोहन के दौर में बीजेपी का संसद में करोडो के नोट उडाने को भी परख लिया । यानी आप ठहाका लगायेंगे कि क्या वाकई देश में एक ऐसा वक्त था जब पीएमओ के किसी अधिकारी से चुनाव के वक्त पीएम मदद लें और चुनावी प्रचार के वक्त सरकारी सहयोग से मंच और लाउडस्पीकर के लिये बिजली ले जाये तो अपराध हो गया । इतना ही नहीं आज के दौर में जब चुनाव धन-बल के आधार पर ही लड़ा जाता है तो 1971 के चुनाव को लेकर अदालत 1975 में ये भी सुन रही थी कि क्या इंदिरा गांधी ने तय रकम से ज्यादा प्रचार में खर्च तो नहीं किये । वोटरों को रिश्वत तो नहीं दी । वायुसेना के जहाज-हेलीकाप्टर पर सफर कर चुनावी प्रचार तो नहीं किया । चुनाव चिन्ह गाय-बछड़े के आसरे धार्मिक भावनाओ से खेल कर लाभ तो नहीं उठाया । तो 43 बरस में भारत कितना बदल गया ये सत्ता के चुनावी मिजाज से ही समझ जा सकता है । जहा धर्म के नाम पर सियासत खुल कर होती है । हिन्दुत्व चुनावी जुमला है । सरकारी लाभ उठाना सामान्य सी बात है । क्योकि समूची सरकार ही जब चुनाव जीतने में लग जाती हो और सत्ताधारी पार्टी गर्व करती हो कि उसके पास मोदी सरीखा प्रचारक है । तो फिर अधिकारियो की कौन पूछे । फिर अब के वक्त तो खर्च की कोई सीमा ही नहीं है । हर चुनाव के बाद चुनाव आयोग के आंकड़े सबूत है । और 2014 तो रिकार्ड खर्च के लिये जाना जायेगा । जिसमें चुनाव आयोग ने ही इतना खर्च किया जितना 1998, 1999 , 2004 और 2009 मिलाकर खर्च हुआ उससे भी ज्यादा । फिर अब तो वोटरों को रिश्वत बांटना सामान्य सी बात है । आखिरी कर्नाटक विधानसबा चुनाव में ही दो हजार करोड पकड में आये जो वोटरो में बांटे जाने थे। तो क्या 43 बरस में चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल गई है । या कहे इमरजेन्सी के दौर में जो सवाल संविधान के खिलाफ लगते या फिर गैर कानूनी माने जाते थे,वही सवाल सियासी तिकडमों तले 43 बरस में ऐसे बदलते चले गये कि भारत के नागरिक ही हालातों से समझौता करने लगे। क्योकि 12 जून को इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किया था । छह बरस तक प्रतिबंध लगाया था । तब इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट से फैसला अपने हक में कराया और सत्ता में बने रहने के लिये  इमरजेन्सी थोप दी । फिर 1975 में 12 से 25 जून तक जो दिल्ली की सडक से  लेकर जिस सियासत की व्यूहरचना तब एक सफदरजंग रोड पर होती रही । उसे  इतिहास में काले अक्षरो में लिखा जाता है । पर वैसी ही तिकडमें उसके बाद  सियासत का कैसे हिस्सा बनते बनते लोगों को अभ्यत कराते चली गई । इस पर  किसी ने ध्यान दिया ही नहीं । क्योकि याद कीजिये 20 जून 1975 । कटघरे  में खडी इंदिरा गांधी के लिये काग्रेस का शक्ति प्रदर्शन । सत्ता के  इशारे पर बस ट्रेन सबकुछ झोक दिया गया । चारो दिशाओं से इंदिरा स्पेशल  ट्रेन - बस दिल्ली पहुंचने लगी ।लोगो को ट्रक्टर कार बस ट्रक में भरभरकर  बोट क्लब पहुंचाया गया । पूरी सरकारी अमला जुटा था । संजय गांधी खुद  समूची व्यवस्था देख रहे थे । इंदिरा की तमाम तस्वीरो से सजे 12 फुट उंचे  मंच पर जैसे ही इंदिरा पहुंचती है गगनभेदी नारे गूंजने लगते है । और माइक  संभालते ही इंदिरा कहती है ..""-देश के भीतर-बाहर कुछ शक्तिशाली तत्व  उनकी सत्ता पलटने का षडयंत्र रच रहे है । इन विरोधी दलो को समाचारपत्र  का समर्थन प्रप्त है और तथ्यों को बिगाडने और सफेद झूठ फैलाने की इन्हें  अनोखी आजादी प्रप्त है । सवाल ये नहीं है कि मै जीवित रहूं या मर जाती  हूं । सवाल राष्ट्र के हित का है ।" 25 मिनट के भाषण को दिल्ली दूरदर्शन  लाइव करता है ।आकाशवाणी से सीधा प्रसारण होता है ।

यानी अब का दौर होता  तो क्या क्या होता ये बताने की जरुरत नहीं है क्या क्या होता । कैसे  सैकडो चैनलो से लेकर  डिजिटल मीडिया तक सत्तानुकुल हो जाते हैं । और कैसे किसी भी चुनाव रैली को  सफल दिखाने के लिये ट्रेन-बस-ट्रको में भरभरकर लोगो को लाया जाता है ।  चुनावी बरस में सरकारी खर्च पर प्रचार प्रसार किसी से छुपा नहीं है । और  अब याद कीजिये रामलीला मैदान की 25 जून 1975 की तस्वीर जब जेपी की रैली  हुई । लाखो का तादाद में लोग सिर्फ जेपी के एक एलान पर चले आये । और जेपी  ने अपने भाषण मेंकहा , छात्र स्कल कालेजो से निकल आये और जेलो को भर दें  । पुलिस और सेना गैरकानूनी आदेशों का पालन ना करें। और जेपी को लोग  नजरअंजाद कर दें उनके भाषण को ना सुने । रामलीला मैदान से निकलकर पीएमओ  तक ना निकले । तो आकाशवाणी-दूर दर्शन पर शाम के समाचारो के बाद ये एलान  किया जाता है कि आज फिल्म "बाबी '" दिखायी जीयेगी । तो सत्ता अपने विरोध  को दबाने के लिये या कहे जनता का ध्यान बांटने के लिये कौन कौन सी मोहक  व्यूहरचना भी करती है और कानून का इस्तेमाल भी करती है । सुरक्षाकर्मियो  को उकसाने के लिये जेपी के खिलाफ राष्ट्द्रोह का मामला दर्ज होता है । 24  जून की रात भर 400 वारण्टो पर हस्ताक्षऱ हुये । जिसके बाद विरोधी नेताओ  की गिर्फतारी के आदेश 25 की सुबह 10 बजे तक भेजे भी जा चुके थे ।  यानी कैसे देश इमरजेन्सी की तरफ बढ रहा था और कैसे इंदिरा सत्ता एंडवांस  में ही हर निर्णय ले रही थी औऱ इसमें समूची सरकारी मशानरी कैसे लग जाती  है । यह हो सकता है आज कोई अजूबा ना लगे । क्योकि हर सत्ता ने हर बार कहा  कि जनता ने उसे चुना है तो उसे गद्दी से कोई कानून उतार नहीं सकता । ये  बात इंदिरा गांधी ने भी तब कही थी ।

Sunday, June 17, 2018

कहे कौन सेवक राजा है !

सत्ता जिसकी चौखट पर या जो सत्ता की चौखट पर वही रईस बाकी सब रंक
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कॉरपोरेट-उद्योगपतियों को धन देंगे। उससे कारपोरेट-कारोबारी धंधा करेंगे। मुनाफा अपने पास रखेंगे। बाकि टैक्स या अन्य माध्यमों से रुपया सरकार के खजाने तक पहुंचेगा। कॉरपोरेट-उद्योगपतियों की तादाद ज्यादा होगी तो उनमें सरकार के करीब आकर धन लेने से लेकर लाइसेंस लेने तक में होड होगी । इस होड का लाभ सत्ता में बैठे लोग उठायेंगे। कोई मंत्री। कोई नौकरशाह।

सत्ताधारी पार्टी के नेता। या फिर डील कभी बड़ी हो गई तो वह पीएम के स्तर तक पहुंचेगी। यह क्रोनी कैपटलिज्म होगी। और बाकि हालात में बाजारन्मुख इक्नामी। यानी बाजार में जिस चीज की मांग उसी अनुरुप उनसे जुड़ी कंपनियों को लाभ। और कमोवेश हर क्षेत्र में इसी तरह जिस कारपोरेट को काम करना है करें। सरकार बैंकों के माध्यम से कारपोरेट-उघोगपतियों को कर्ज देगी। कर्ज लेकर वह ज्यादा इंटरेस्ट रेट पर लौटायेंगे। तो बैंक भी फलेंगे फूलेंगे। जनता को बैंकों में रकम जमा करने पर ज्यादा इंटरेस्ट भी मिलेगा। यानी देश इसी तरह चलता रहेगा। कोई बड़ी फिलोस्फी या थ्योरी इसमें है नहीं कि इक्नामी अगर बाजार के लिये खोल दी जाये तो कैसे कारपोरेट-उगोगपति ही देश की जरुरतो को पूरा करेंगे। और कैसे इन्फ्रास्ट्र्कचर से लेकर
शिक्षा-हेल्थ-घर-रोजगार तक में यानी हर क्षेत्र में भागीदारी होगी। लेकिन कोई कड़ी टूट जाये या फिर कई कड़ियां टूट जाये तो क्या होगा। सरकार अपने पसंदीदा कारपोरेट को लाभ पहुंचाने लगें क्योंकि वही कारपोरेट चुनाव में होने वाले खर्च में साथ देता है। कॉरपोरेट बैंक से कर्ज लेकर धन वापस ना करें। और सरकार बैंकों को कह दें कि वह अपने दस्तावेजों से कर्जधारक कारपोरेट-उघोगपतियो का नाम हटा दें। उसकी एवज में कुछ रकम सरकार बैंकों को देगी। बैंक रुपये का अवमूल्यन करने लगे। यानी जनता का जमा सौ रुपया बरस
भर बाद पच्चतर रुपये की कीमत का रह जाये। यानी एक तो जमा रकम पर इंटरेस्ट रेट कम हो जाये, दूसरी तरफ महंगाई या वस्तुओं की सीमित आपूर्ति बाजार में वस्तुओ के दाम बढ़ा दें।

और इस पूरी प्रक्रिया में सरकार-सत्ता खुद को हाशिये पर पड़े तबके से जोडने के लिये टैक्स का पैसा कल्याणकारी सोच के नाम पर बांटने लगे। या फिर दो जून की रोटी के लिये तरसते 70 फिसदी आवादी के घर में चुल्हा-रोटी-बैंकअकाउंट की व्यवस्था कराने में ये कहकर लग जाये कि देश तो यही है । तो जिस कारपोरेट को 100 खरब का लाभ हुआ उसने सरकार के कहने पर एक खरब हाशिये पर तबके के बीच बांट दिया। या फिर जिस 30 फीसदी के लिये सिस्टम बनाकर बाजार अर्थव्यवस्था सोची गई । उसी 30 फिसदी के उपर कमाई के सारे रास्ते रास्ते तले बोझ इतना डाल दिया जाये कि वह चिल्लाये तो 70 फिसदी गरीबो का रोना रोया जाये। या फिर कारपोरेट जो पंसदीदा है उसके लिये देश के तमाम खनिज संसाधनों की लूट के रास्ते खोल दिये जाये। और लूट के अक्स में विकास का राग ये कहकर गाया जाये कि जो उपभोक्ता दुनिया के किसी भी हिस्से से भारत को देखे उसे यहा की वही जमीन दिखयी दे जिसपर चल कर वह भी लूट में शामिल हो सकता हो । यानी भारत को
ङथियार चाहिये या बिजली । कोयला चाहिये या चीनी । बुलेट ट्रेन टाहिये या छोटे हवाई जहाज । सबकुछ बाहर से आयेगा । पूंजी उन्ही की । काम उन्ही का । उत्पाद उन्ही का । सरकार सत्ता सिर्फ उसके एवज में टैक्स लेगी । और अगर जितना लगाकर बहुर्ष्ट्रीय कंपनिया काफी ज्यादा कमा रही है तो फिर किसी आने दिया जाये या किसे रोका जाये । ये अधिकार सत्ता-सरकार के हाथ में होगा । तो फिर क्रोनी कैपटलिज्म का दूसरा चेहरा कमीशन के तौर पर भी उभरेगा और लाभ देकर लाभ उठाने के रास्तों की दिशा में भी जायेगा । यानी चाहे अनचाहे सत्ता सरकार है कौन । और जनता के नुमाइन्दों को कैसे देखा जाये। ये सवाल आपके जहन में आना चाहिये। क्योंकि अगर सरकार खुद को इस भूमिका में ले आये कि जनता ने उसे पांच बरस के लिये चुना है और पांच बरस तक उसकी हर थ्योरी पर जनता की मुहर है । तो फिर सत्ता खुद को लाभ के पद से जोडेगी ही। खुद को मुनाफा कमाने वाली मशीन मानेगी ही। यानी सरकार जिससे जुडे उसे मुनाफा। जो सरकार-सत्ता से जुडे उसे मुनाफा। और चूंकि इक्नामी को देखने समझने का नजरिया ही जब राष्ट्रीय स्तर पर मुनाफा बनाने का हो चला हो तो फिर सत्ता खुद को कैसे मानेगी। या फिर सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी भी खुद को कैसे देखेगी। उसे लगेगा कि अगर वह माधुरी दीक्षित के घर गये तो माधुरी दीक्षित को लाभ। माधुरी दीक्षित को लगेगा सत्ता खुदचल कर उनके घर पहुंची है तो उन्हे भी लाभ।

क्योंकि सत्ता ही साथ है तो फिर कोई भी सिस्टम या सिस्टम के तहत कोई भी संस्थान कैसे खिलाफ में पहल कर सकता है। और सत्ता चूंकि हर संस्थान का प्रतीक है। यानी जिसकी सत्ता उसके सारे सस्धान वाली फिलास्फी जब उपर से नीचे तक चल पड़ी हो तो फिर न्यायपालिका हो या विधायिका। यानी मामला अदालत का हो या किसी संवैधानिक संस्था का। निर्णय तो सत्तानुकूल रहेंगे ही। और सत्ता को सत्ता में बने रहने के लिये हर क्षेत्र का साथ चाहिये। जो सरकारी है। संवैधानिक है। वह तो साथ खड़े होंगे ही। जो प्राइवेट है जब उन्हें भी जानकारी मिल जायेगी कि सत्ता के साथ रहे तो मुनाफा। और सत्ता साथ रही तो डबल मुनाफा। तो होगा क्या। हर स्कूल। हर अस्पताल। हर बिल्डर। हर दुकानवाला। हर तरह के धंधेवाला तो चाहेगा कि वह सत्ताधारियों तक कैसे पहुंचे या कैसे सत्ताधारी उसके दरवाजे तक पहुंच जाये। जो पैसे वाला होगा वह खर्च करेगा। जो समाज को प्रभाव करने वाला होगा वह अपने प्रभाव का प्रयोग सत्ता के लिये शुरु कर देगा। और जब सब तरफ सत्ताधारियों तक पहुंचने या नतमस्तक होने की होड़ हो जायेगी तो फिर सत्ताधारी खुद को पारस से कम तो समझेंगे नहीं। उन्हें लगेगा ही कि जिसे छू दिया वह सोना हो जायेगा। तो फिर क्या होगा । कमोवेश हर संस्धान और हर संवैाधानिक पद भी सत्ता की चौखट पर पड़ा होगा। सत्ता तय करेगी आज इसके दरवाजे पर चला जाये । या इस दरवाजे वाले को अपनी चौखट पर खडा किया जाये तो वह करेगा। और जनता-सत्ता के बीच संवाद बनाने वाली मीडिया भी फिर सत्ता की होगी। और सत्ता उन्ही के दरवाजे पर जायेगी या उन्हीं को अपने दरवाजे पर बुलायेगी जो सत्ता के सामने नतमस्तक को कर सवाल पूछे। फिर एक दिन सत्ता सोचेगी जब सबकुछ वहीं है। या वह नहीं तो फिर दूसरे को मुनाफा भी नहीं तो फिर सत्ता तय करेगी अब इस कौन कौन से दरवाजे को बंद कर दिये जाये। और चूंकि चुनावी लोकतंत्र ही जब सेवको के नाम पर मुनाफा देने-बनाने वाले धंधे में खुद को तब्दील कर लेता है तो फिर इस लोकतंत्र का सिरमौर यानी राजा क्या सोचेगा। वह चाहेगा हर जांच उसके अनुकूल हो । न्याय उसके अनुकुल हो। सिस्टम उसके लिये हो। और चौथा स्तम्भ भी उसका हो। और फिर राजा को जनता ने चुनाव है तो राजा की मनमर्जी जनता की मर्जी तो बतायी ही जा सकती है। तो फिर निर्णय होंगे। जो वस्तु दुनिया के बाजार में सस्ती है उसे देश में महंगा कर दिया जाये। दुनियाभर की सैर करते हुये देश को बताया जाये कि दुनिया कैसी है । शिक्षा-दीक्षा की परिभाषा पूजा-पाठ में बदल दी जाये। खान-पान के नियम कायदे धर्मयोग से जोड़ दिया जाये। वैचारिक सोच को राजधर्म के साये तले समेट दिया जाये। जो विरोध करें या फिर सवाल करें उसके दरवाजे पर कोई सतातधारी ना जाये। क्योंकि सिस्टम तो मिनाफे वाला है। मुनाफे का मतलब सत्ता के सामने नजमस्तक होकर कमाना है। तो जब पारस ना जायेगा तो लोहा लोहा रह जायेगा उसकी कोई कीमत ही नहीं होगी। फिर पांच बरस बीतने पर कोई दूसरा पारस होगा। उसके दूसरे चहते होंगे। पर सिस्टम तो यही होगा। सत्ता जिसकी चौखट पर या जो सत्ता की चौखट पर वही रईस बाकि सब रंक।

Friday, June 1, 2018

चेहरा , संगठन , रईसी सब कुछ है पर वोट नहीं ?

कैराना ,भंडारा –गोदिया , फूलपुर , गोरखपुर , अलवर ,अजमेर ,गुरुदासपुर , रतलाम । तो तो 8 सीट बीजेपी 2014 के बाद हार चुकी है । और शिमोगा-बेल्लरी लोकसभा सीट खाली पड़ी हैं । जहां जल्द ही उपचुनाव होंगे । तो 2014 में 282 से घटकर 272 पर आ गये । यानी लोकसभा के जादुई आंकड़े पर बीजेपी की सुई फिलहाल आ खड़ी हुई है । यानी 2019 की तरफ बढते कदम बताने लगे हैं कि बीजेपी अपने बूते सत्ता में आ नहीं पायेगी। तो उसे सहयोगी चाहिये। पर साथ खड़ी शिवसेना के सुर बताते है कि सबसे पुराना गठबंधन ही साथ रहना नहीं चाहता । तो क्या बीजेपी के लिये क्या ये खतरे की घंटी है कि 2019 का रास्ता बिना सहयोगियों के बनेगा नहीं । और सहयोगी ही गुस्से में है । मसलन नीतीश कुमार विशेष राज्य के मुद्दे पर नाराज हैं। रामविलास पासवान दलित मुद्दे पर गुस्से में हैं। दलित मुद्दे से लेकर दिल्ली के दलित बीजेपी संसाद उदितराज से लेकर यूपी के पांच बीजेपी सांसद तक नाराज है । तो क्या 2019 का रास्ता बीजेपी ने खुद अपने लिये ही मुश्किल भरा बना लिया है क्योंकि हिन्दुत्व का राग लिये वह मुस्लिम को अपना वोटर तक नहीं मानती । तो दलित के सामने बीजेपी अगड़ी और हिन्दू पार्टी हैं । और इन हालातों के बीच नया संदेश कैराना से लेकर गोदिया-भंडारा से निकला है। कैराना में गन्ना किसानों का सवाल भी था और एनकाउंटर में मारे जा रहे जाटों को लेकर भी है । 

सुंदर सिंह भाटी मारे गये । जो जाटो को लगा उनकी दबंगई पर भी हमला है । फिर ठाकुरवाद यूपी में इस तरह छाया है कि ऊंची जातियों में भी टकराव है । और महाराष्ट्र में शिवसेना भी टकरायी और गोदिया भंडारा में पटेल-पटोले एक साथ आ गये । तो क्या सिर्फ मोदी मोदी के नारे से काम चल जायेगा । या ये कहे कि यही वह शोर है जो नेता को लोकप्रिय चमकदार बनाता है । और पीछे दुनिया की सबसे बडी पार्टी बीजेपी है । संघ के स्वयंसेवकों की फौज है । तो फिर 2019 मुश्किल क्यों होगा । तो जिस बीजेपी के पास देश का सबसे चमकदार- सबसे लोकप्रिय चेहरा है । जिसका कोई विकल्प नहीं । और जो बीजेपी 10 करोड़ पार सदस्यों के साथ देश में सबसे बडा संगठन खड़ा कर चुकी है । कायदे से उसे तो हार मिलनी ही नहीं चाहिये। फिर एक के बाद प चुनाव में हार क्यों मिल रही है । तो क्या 2014 का चमकदार धारणा 2018 में ही बदलने लगी है। और 2019 की तरफ बढते कदम अभी से ये बताने लगे हैं कि संगठन या चेहरे के आसरे चुनाव लड़े जरुर जाते है । पर जीतने के लिये जो परसेप्शन होना चाहिये। वह परसेप्शन अगर जनता के बीच खत्म हो जाये तो फिर इंदिरा गांधी हो या राजीव गांधी या पिर अटल बिहारी वाजपेयी चमक काम देती नहीं है । कार्यकर्ता संगठन मायने रखता नहीं । क्योंकि इंदिरा गांधी तो नायिका थी . राजीव गांधी के पास तो दो तिहाई बहुमत था । और अटलबिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता के वक्त शाइनिंग इंडिया था । सब तो धरा का धरा रह गया । पर परसेप्शन बदल क्यो रहा है । जब मोदी फर्राटे से भाषण देते है । अमित शाह पन्ना प्रमुख तक को सांगठनिक ढांचे को खडा कर चुके है । और बीजेपी के पास फंड की भी कोई कमी नहीं है । और बाकि सभी को भ्रष्ट कहकर मोदी सत्ता ने इसी परसेप्शन को बनाया कि वह ईमानदार हैं। तो मोदी को ईमानदार कहने वालों के जहन में ये सवाल तो है कि आखिर 2014 में सबसे करप्ट राबर्ट वाड्रा को 2018 तक भी कोई छू क्यों नहीं पाया । फिर बीजेपी का परप्शशन सिर्फ पुराने अक्स भर का नहीं है । चुनाव जीतने के लिये दागी विपक्ष के नेताओं को साथ लेना भी गजब की सोशल इंजीनियरिंग रही । मुकुल राय हो या नारायण राणे या फिर स्वामी प्रसाद मोर्य । बीजेपी ने इन्हे साथ लेने में कोई हिचक नहीं दिखायी । और परसेप्शन बदलता है तो गोदिया के बीजेपी सांसद नाना पटोले ने किसान के नाम पर बीजेपी छोडी । कुमारस्वामी ने भविष्य पर दांव लगाया और काग्रेस के साथ खडे हो गये । और संयोग देखिये जिस पालघर से बीजेपी जीती वहा पर भी बीजेपी का उम्मीदवार पूर्व काग्रेसी सरकार में मंत्री रहे हुये है । दरअसल सच तो यही है कि बीजेपी के वोट कम हो रहे है । और बारीक लकीर को पकड़ियेगा तो जिस चकाचौंध की लकीर को 2014 में बीजेपी ने जीत के लिये और जीत के बाद खिंचा उसका लाभ उसे मिला है । मसलन वोट कम हो रहे है पर नोट कम नहीं हो रहे । 

एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में बीजेपी के पास फंडिग से 10 अरब 34 करोड 27 लाख रुपये आ गया । और देश की बाकि सभी पार्टियो के पास यानी काग्रेस समेत 38 राजनीतिक दलो के पास पंडिग हुई 8 अरब 45 करोड 93 लाख रुपये । यानी बीजेपी को लोकसभा में बहुमत मिला । राज्य दर राज्य बीजेपी को जीत मिलती चली गई तो देश के तमाम राजनीतिक दलो को मिलाकर हुई कमाई से भी दो अरब रुपये ज्यादा बीजेपी के फंड में आ गये । तो चुनावी जीत हार से इतर तीन सवालो का जवाब खोजिये । पहला , जो सत्ता में है उसे खूब पंड मिलता है । दूसरा , फंड देने वाले रुपये के बदले क्या चाहते होगें । तीसरा, इतना पैसा राजनीतिक दल करते क्या है । यानी हर चुनाव के बाद जब चुनाव आयोग ये बताता है कि उसने बांटे जा रहे सौ करोड जब्त कर लिये या कही हजार करोड जब्त हुये तो 2014 के बाद से देश में औसत नोटों की जब्ती हर चुनाव में 300 करोड तक आ बैठती है । यानी तीन अरब रुपये वोटरो को बांटने के लिये अलग अलग राजनीतिक निकले और जब्त हो गये । तो अगला सवाल है कि जो रुपया जब्त नहीं हुआ वह कितना होगा । और उससे आगे का सवाल जो सुप्रीम कोर्ट ने ही उठाया कि जो नोटो को बांटते हुये या ले जाते हुये पकडे गये लोगों के खिलाफ कार्रावाई क्यो नहीं होती । सजा क्यो नहीं मिलती । पर असल सवाल है कि 2014 के बाद से चुनाव का मतलब कैसे धनबल हो गया है यह चुनावी प्रचार के खर्च के आंकंड़ों से भी समझा जा सकता है और कारपोरेट समूह की राजनीति फंडिग और बैको से कारपोरेट समूह को कर्ज यानी एनपीए में तब्दिल होती रकम क्या ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें भारतीय लेकतंत्र
फंस चुका है । क्योकि संयोग से जिन कॉरपोरेट हाऊस ने राजनीतिक दलों को चुनावी फंडिंग की या राजनीतिक दलो के खातों में दान दिया। उनमें से अधिकतर बैको से लोन लेकर ना लौटापाने के हालातों में आ चुके है। और बैंकों के घाटे को पूरा करने के लिये दो लाख करोड़ से ज्यादा सरकार दे चुकी है। तो क्या बैंकों का घाटा । 

एनपीए की रकम । बट्टा खाते में डालने का सच सबकुछ चुनावी लोकतंत्र से जा जुडा है जहां पार्टी के पास पैसा होना चाहिये । खूब रुपया होगा तो प्रचार में कोई कमी नहीं आयेगी । यानी चुनाव के वक्त सबसे मंहगा लोकतंत्र सबसे रईस हो जाता है । क्योंकि सबसे ज्यादा काला-सफेद धन चुनाव के मौके पर बाजार में आता है । और ध्यान दीजिये तो 2019 के चुनावी बरस में कदम रखने की शुरुआत हो चुकी है तो मोदी सरकार के चौथा बरस पूरा होते ही राज्य सरकारों ने अपना खजाना खोल दिया है। धुआंधार विज्ञापन हर राज्य सरकार केंद्र के पक्ष में यह कहते हुए दे रही है कि मोदी सरकार की योजनाओं ने गरीब की जिंदगी बदल दी। दूसरी तरफ कॉरपोरेट बीजेपी के साथ है ही। बीजेपी को 53 फीसदी चंदा सिर्फ दो दानदाताओं से से मिला। सत्या इलेक्ट्रोरल ट्रस्ट ने 251 करोड़ रुपए । -तो भद्रम जनहित शालिका ट्रस्ट ने 30 करोड़ रुपए चंदे में दिए । दरअसल सत्या इक्ट्रोरल ट्रस्ट में दो दर्ज से ज्यादा कॉरपोरेट है । भारती एयरटेल से लेकर डीएलएफ और इनओक्स या टोरेन्ट से लेकर जेके टायर या ओरियन्ट सिमेनट या गुजरात पेट्रोकैमिकल लिं. तक । और ऐसा नहीं है कि इस ट्रस्ट ने सिर्फ बीजेपी को फंड दिया । काग्रेस को भी 15 करोड़ 90 लाख रुपये दिये । यानी ये ना लगे कि कारपोरेट बीजेपी के सामने नतमस्तक है तो काग्रेस को भी चंद रुपये दे दिये गये । पर सवाल तो यही है कि राजनीतिक दलो के तमाम कारपोरेट राजनीतिक पंड देकर कौन सा मुनाफा बनाते कमाते है । और जो फंड नहीं देता क्या उसका नुकसान उसे भुगतना पडता है या फिर जिसकी सत्ता रेह उसके अनुकुल हर कोरपोरेट को चलना पडाता है । तो आखिरी सवाल क्या बीजेपी ने चाहे अनचाहे एक ऐसे हालात विपक्ष के लिये बना दिये है जहा वह बिना पंड के काम करना सीखे और कैराना में विपक्ष की एकजुटता ने देश की सबसे रईस पार्टी को मात दे दी । यहीं से आखिरी सवाल है कि क्या 2019 को लेकर 2014 का परसेप्शन इतना बदल रहा है कि अब कॉरपोरेट भी फंडिग शिफ्ट करेगा।