Tuesday, August 20, 2019

दिल में हिलोरे हो और बाहर ठहराव तो समझ लिजिये ये ख्य्याम का संगीत है


ना तो सियासत में सुकुन । ना ही सिनेमा में सुकुन । ना तो संगीत में सुकुन । आपकी हथेलियों में घडकते मोबाइल और दिलो में कौघतें विचार ही जब जल्दबाजी में सबकुछ लुटा देने पर आमादा हो तब आप कौन सा गीत और किस संगीत को सुनना पसंद करेगें । यकीनन भागती दौडती जिन्दगी में आपको सुकुन गंगा, गांधी और गीत में ही मिलेगा । और इन तीनो के साथ एक इत्मिनान का संगीत ही आपको किसी दूसरी दुनिया में ले जायेगा । और इस कडी में नाम कई होगें लेकिन कोहूनूर तो मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम हाशमी उर्फ 'ख़य्याम' ही है । जिनका ताल्लुक संगीत की उस जमात से रहा है जहाँ इत्मीनान और सुकून के साये तले बैठकर संगीत रचने की रवायत रही है । ख़य्याम का नाम किसी फ़िल्म के साथ जुड़ने का मतलब ही यह समझा जाता था कि फ़िल्म में लीक से हटकर और शोर-शराबे से दूरी रखने वाले संगीत की जगह बनती है, इसलिए यह संगीतकार वहाँ मौजूद है । ख़य्याम का होना ही इस बात की शर्त व सीमा दोनों एक साथ तय कर देते थे कि उनके द्वारा रची जाने वाली फ़िल्म में स्तरीय ढंग का संगीत होने के साथ-साथ भावनाओं को तरजीह देने वाला रूहानी संगीत भी प्रभावी ढंग से मौजूद होगा । फेरहिस्त यकीनन लंबी है । लेकिन इस लंबी फेरहिस्त में से कोई भी चार लाइनें उठा कर पढना शुरु किजिये , चाहे अनचाहे आपके दिल-दिमाग में संगीत बजने लगेगा और यही संगीत ख्य्याम का होगा । और ख्य्याम यू ही ख्य्याम नहीं बन गये । सहगल के फैन । मुंबई जाकर  हीरो बनने की चाहत । लाहौर में संगीत सीखने का जुनुन और फिर इश्क में सबकुछ गंवाकर संगीत पाने का नाम ही ख्य्याम है । ख्य्याम के इश्क में गोते लगाने से पहले सोचिये ख्ययाम संगत दे रहे है और पत्नी गीत गा रही है । और गीत के बोल है ......"तुम अपना रंज-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो , / तुम्हें ग़म की क़सम, इस दिल की वीरानी मुझे दे दो , / मैं देखूँ तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है , / कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो" .ख़य्याम के जीवन में उनकी पत्नी जगजीत कौर का बहुत बड़ा योगदान रहा जिसका ज़िक्र करना वो किसी मंच पर नहीं भूलते थे.अच्छे ख़ासे अमीर सिख परिवार से आने वाली जगजीत कौर ने उस वक़्त ख़य्याम से शादी की जब वो संघर्ष कर रहे थे. मज़हब और पैसा कुछ भी दो प्रेमियों के बीच दीवार न बन सका । यहा ख्य्याम को याद करते करते जिक्र जगजीत कौर [ पत्नी ]  का जरुरी है क्योकि संगीत में संयम और ठहराव का जो जिक्र आपने कानो में ख्य्याम के गूंज रहा है वह जगजीत के बगैर संभव नही नहीं पाता । क्यकि ख्य्याम साहेब की पत्नी  जगजीत कौर ख़ुद भी बहुत उम्दा गायिका रही हैं। अगर आपने ना सुना हो ये नाम तो फिर उनकी आवाज में फिल्म बाजार का नगमा ...' देख लो हमको जी भरके देख लो...' या  फिर फिल्म उमराव जान में ...."काहे को बयाहे बिदेस.." सुनते हुये आपी आंखो में आंसू टपक जायेगें और एक इंटरव्यू में ख्य्याम साहेब ने जिक्र भी किया संगीत देते वक्त वह भावुक नहीं हुये लेकिन पत्नी की आवाज ने जिस तरह शब्दो को जीवंत कर दिया उसे सुनने वक्त वह रिकार्डिंग के वक्त ही रो पडे । लेकिन ख्य्याम के पीछे संगीत में संगत देने के लिये हर वक्त मौजूद रहन वाली जगजीत ने फिल्मो के गीतो को गाने को लकर ना तो जलदबाजी की ना ही गीतकारो में अपनी शुमारी की । सिर्फ सुकुन भरे संगीत के लिये ख्यायम के साथ ही खडी रही । इसका बेहतरीन उदाहरण  उमराव जान और कभी कभी का संगीत है । और कल्पना किजिये साहिर की कलम । मुकेश की आवाज । उसपर ख्य्याम का संगीत.... यहाँ याद आता है कभी कभी का गीत - "मैं पल दो पल का शायर हूँ"….."कल और आएँगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले / मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले / कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे / मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यूँ वक़्त अपना बर्बाद करे / मैं पल दो पल का शायर हूँ.....70 के दशक के शायरो की पूरी पीढी ही इस गीत को गुनगुनाते ही बडी हो गयी । दरअसल ख़य्याम हर लिहाज़ से एक स्वतंत्र, विचारवान और स्वयं को सम्बोधित ऐसे आत्मकेंद्रित संगीतकार रहे हैं जिनकी शैली के अनूठेपन ने ही उनको सबसे अलग क़िस्म का कलाकार बनाया है । लेकिन ये सब इतनी आसानी से हुआ नहीं । क्योकि जिस परिवार का फिल्म या संगीत से कोई वास्ता ही नहीं था । उल्टे परिवार में कोई इमामको कोई मुअज्जिन । और 18 फ़रवरी 1927 को पंजाब में जन्मे ख़य्याम पर नशा के एल सहगल का । लेकिन असफलता ने पहुंचा  लाहौर बाबा चिश्ती (संगीतकार ग़ुलाम अहमद चिश्ती) के पास ले गई जिनके फ़िल्मी घरानों में ख़ूब ताल्लुक़ात थे. लाहौर तब फ़िल्मों का गढ़ हुआ करता था । उस चौखट से जो सीखा उसकी परीक्षा की घडी भी भारत की आजादी के साथ जुडी है 1947 में हीर रांझा से ख्य्याम का सफर शुरु होता है । फिर रोमियो जूलियट जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया और गाना भी गाया. । लेकिन सबसे बेहतरीन वाकया है कि राजकपूर 1958 में जब फिल्म ' फिर सुबह होगी ' बनाते है तो वह ऐसे शख्स को खोजते है जिसने उपन्यास क्राइम एंड पनिशमेंट पढी हो । क्योकि फिल्म इसी उपन्यास से प्ररित या कहे आधारित थी ।  और ख्ययाम ने ये किताब पढ रखी थी तो राजकपूर उनसे ही संगीत निर्देशन करवाते है । ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए. ये शायद उनके करियर का गोल्डन पीरियड था.। याक किजिये इस गोल्डन दौर का एक गीत....."कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता / कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता /  जिसे भी देखिए वो अपने आप में गुम है / ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता"...1981 में इस गीत को संगीत ख्य्याम ने ही दिया । क्या कहे ख्य्याम की तरह का संगीत रचने वाला कोई दूसरा फ़नकार नहीं हुआ । या फिर उनकी शैली पर न तो किसी पूर्ववर्ती संगीतकार की कोई छाया पड़ती नज़र आती है न ही उनके बाद आने वाले किसी संगीतकार के यहाँ ख़य्याम की शैली का अनुसरण ही दिखाई पड़ता है । तो क्या अब सुकुन और ठहराव की मौत सिल्वर स्क्रिन पर हो चुकी है । पर आधुनिक तकनीक की दौर में गीत-संगीत कहां मरेगें....मौका मिले तो अकेले में  कभी इस गीत को सनिये....ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है / हर हे निगाह तक जहां , गुबार ही गुबार है ये किसी मकां पर हयात , मुझको ले कर आ गई / न बस खुशी पे है जहां ना गम पे इख्तियार है ...  फिर सोचिये कोई अकेला और स्वतंत्र संगीतकार अपने भीतर क्या कछ समेटे रहा है । जो अंदर तो हिलोरे मारता है लेकिन बाहर ठहराव देता है ।

Sunday, August 11, 2019

धारा 370 के हटने का पहला शिकार लोकतंत्र



"  डायल किये गये नंबर पर इस समय इन-कमिंग काल की सुविधा नहीं है....'' इधर लोकतंत्र के मंदिर संसद में धारा 370 खत्म करने का एलान हुआ और उधर कशमीर से सारे तार काट दिये गये । धाटी के हर मोबाइल पर संवाद की जगह यही रिकार्डड जवाब 5 अगस्त  की सुबह से जो शुरु हुआ वह 6 अगस्त को भी जारी रहा । यू भी जिस कश्मीरी जनता की जिन्दगी को संवारने का वादा लोकतंत्र के मंदिर में किया गया उसी जनता को घरों में कैद रहने का फरमान भी सुना दिया गया । तो लोकतंत्र का लाने के लिये लोकतंत्र का ही सबसे पहले गला जिस तरह दबाया गया उसके अक्स का सच तो ये भी है कि ना कशमीरी जनता से कोई संवाद या भरोसे में लेने की पहल । ना ही संसद के भीतर किसी तरह का संवाद । और सीधे जिस अंदाज में जम्मू कशमीर राज्य भी केन्द्र शासित राज्य में तब्दिल कर दिल्ली ने अपनी शासन व्यवस्था में ला खडा किया उसने पहली बार खुले तौर पर मैसेज दिया अब दिल्ली वह दिल्ली नहीं जो 1988 की तर्ज पर जम्मू कश्मीर चुनाव को चुरायेगी । दिल्ली 50 और 60 के दशक वाली भी नहीं जब संभल संभल कर लोकतंत्र को जिन्दा रखने का नाटक किया जाता था । अब तो खुले तौर पर संसद के भीतर बाहर कैसे सांसदो और राजनीतिक दलो को भी खरीद कर या डरा कर लोकतंत्र जिन्दा रखा जाता है , ये छुपाने की कोई जररत नहीं है । क्योकि लोकतंत्र की नाटकियता का पटाक्षेप किया जा चुका है । अब लोकतंत्र का मतलब खौफ में रहना है । अब लोकतंत्र का मतलब राष्ट्रवाद का ऐसा गान है जिसमें धर्म का भी ध्रुवीकरण होना है और किसी संकट को दबाने के लिये किसी बडे संकट को खडा कर लोकतंत्र का गान करना है । 
पर इसकी जररत अभी ही क्यों पडी या फिर बीते दस दिनो में ऐसा क्या हुआ जिसने मोदी सत्ता को भीतर से बैचेन कर दिया कि वह किसी से कोई संवाद बनाये बगैर ही ऐसे निर्णय ले लें जो भारत के भीतर और बाहर के हालातो के केन्द्र में देश को ला खडा करें । तो संकट आर्थिक है और उसे किस हद तक उभरने से रोका जा सकता है इस सवाल का जवाब मोदी सत्ता के पास नहीं है । क्योकि खस्ता इक्नामी के हालात पहली बार कारपोरेट को भी सरकार विरोधी जुबा दे चुके है । और कारपोरेट प्रेम भी जब सेलेक्टिव हो चुका है तो फिर संलेक्टिव को सत्ता लाभ तो दिला सकती है लेकिन सेलेक्टिव कारपोरेट के जरीये देश की इक्नामी पटरी पर ला नहीं सकती । और किसान-मजदूर-गरीबो को लेकर जो वादे लगातार किये है उससे हाथ पिछे भी नहीं खिंच सकते । यानी बीजेपी का पारंपरिक साथ जिस व्यापारी-कारपोरेट का रहा है उस पर टैक्स की मार मोदी सत्ता में सबसे भयावह तरीके से उभरी है । तो आर्थिक संकट से ध्यान कैसे भटकेगा । क्योकि अगर कोई ये सोचता है कि अब कश्मीर में पूंजीपति जमीन खरीदेगा तो ये भी भ्रम है । क्योकि पूंजी कभी वहा कोई नहीं लगाता जहा संकट हो । लेकिन कशमीर की नई स्थिति रेडिकल हिन्दुओ को घाटी जरर ले जायेगी । यानी लकीर बारिक है लेकिन समजना होगा कि नये हालात में हिन्दु समाज के भीतर उत्साह है और मुस्लिम समाज के भीतर डर है । यानी 1989-90 के दौर में जिस तरह कशमीरी पंडितो  का पलायन घाटी से हुआ अब उनके लिये घाटी लौटने से ज्यादा बडा रास्ता उन कट्टर हिन्दुओ के लिये बनाने काी तैयारी है जिससे घाटी में अभी तक बहुसंख्यक मुसलमान अल्संख्यक भी हो जाये । दूसरी तरफ आर्थिक विषमता भी बढ जाये । और सबसे बडी बात तो ये है कि अब कशमीर के मुद्दो या मश्किल हालात का समाधान भी राज्य के नेता करने की स्थिति में नहीं होगें । क्योकि सारी ताकत लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास होगी । जो सीएम की सुनेगा नहीं । यानी सेकेंड ग्रेड सीटीजन के तौर पर कश्मीर में भी मुस्लिमो को रहना होगा । अन्यथा कट्टर हिन्दओ की बहुतायत सिविल वार वाले हालात पैदा होगें  । दरअसल कश्मीरी की नई नीति ने आरएसएस को भी अब बीजेपी में तब्दिल होने के लिये मजबूर कर दिया । यानी अब मोदी सत्ता को कोई भय आर्थिक नीतियों को लेकर या गवर्नेंस को लेकर संघ से तो कतई नहीं होगा क्योकि संघ के एंजेडे को ही मोदी सत्ता ने आत्मसात कर लिया है । याद किजिये 1948 में महातामा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध ने संघ की साख खत्म कर दी थी और जब संघ पर से  बैन खत्म हआ तो सामने मुद्दो का संकट था । ऐसे में 21 अक्टूबर 1951 में जब जंनसघ का पहला राष्टीय अधिवेशन हआ तब पहले घोषणापत्र में जिन चार मुद्दो पर जोर दिया गया उसमें धारा 370 का विरोध यानी जम्मूकश्मीर का भारतीय संघ में पूर्ण एकीकरण औऱ अल्संख्यको को किसी भी तरह के विशेषाधिकार का विरोध मुख्य था । औऱ ध्यान दें तो जून 2002 में कुरुक्षेत्र में हुई संघ के कार्यकारी मंडल की बैठक में जम्मू कश्मीर के समाधान के जिस रास्ते को बताया गया और बकायदा प्रस्ताव पास किया गया । संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने शब्दश उसी प्रस्ताव का पाठ किया । सिवाय जम्मू को राज्य का दर्जा देने की जगह केन्द्र शासित राज्य के दायरे में ला खडा किया ।
तो आखरी सवाल यही है कि क्या कश्मीर के भीतर अब भारत के किसी भी प्रांत से किसी भी जाति धर्म के लोग देश के किसी भी दूसरे राज्य की तरह जाकर रह सकते है । बस ससे है । तो क्या कश्मीरी मुसलमानो को भी देश के किसी भी हिस्से में जाने-बसने या सुकुन की जिन्दगी जीने का वातावरण मिल जायेगा । क्योकि कश्मीर में अब सत्ता हर दूरे राज्य के व्यक्तियो के लिये राह बनाने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल को भेज चुकी है । लेकिन कश्मीर के बाहर कश्मीरियो के लिये जब शिक्षा-रोजगार तक को लेकर संकट है तो फिर उसका रास्ता कौन बनायेगा ।