tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger824125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-68244045939147958452020-01-10T13:05:00.003+05:302020-01-10T13:05:54.327+05:30जेएनयू की लहुलुहान पगडंडियो पर कभी कीट्स की प्रेम कविताये का जिक्र था...<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
अटखेलिया खाती इन पंगडंडियो के बीच से गुजरते हुये आपको एहसास प्रकृति का ही होगा । जो सुंदर दृश्य आपकी आंखो के सामने है वह बेहद आसानी से आपको उपलब्ध है । ये आपके भीतर की सुंदरता होगी कि आपके एहसास प्रकृति से जुड जाये आपके भीतर प्रेम जागे । जान कीट्स की कविता ‘ओड टू ए नाइटेंगलट’ को पढियेगा तो समझ जायेगें , प्रकृति कैसे अनुराग को अभिव्यक्ति देती है क्योकिं ‘ सुदंरता ही सत्य है , सत्य सुंदर है । इतना ही तो जानने की आवश्यकता है । “ ये संवाद 1988 का है । जेएनयू के गंगा हास्टल ढाबे से ओपन थियटर तक चलते हुये दिल्ली विश्वविघालय के वाइस चासंलर मुनीस रजा का छात्रो के साथ बातचीत । तब जेएनयू के वाइस चासंलर मोहम्मद शफी आगवानी हुआ करते थे । लेकिन जेएनयू को गढने वाले मुनीस रजा को जेएनयू से कुछ ऐसा प्रेम था कि वह अक्सर शाम के वक्त जेएनयू कैपंस पहुंच जाते थे । जेएनयू के संस्थापको में से एक मुनीस रजा ही वह शख्स थे जिन्होने जेएनयू को कैसे बनाया जाये इसे मूर्त्त रुप दिया । नये कैपस में नदियो नाम पर हर हास्टल का नाम रखा । मसलन गंगा , कावेरी, ब्रहमपुत्र , महानदी आदि । और प्रतिकात्मक तौर भारत की पहचान को जोडने के लिये हास्टल के नाम साबरमती और पेरियार भी रखा गया । यूं शुरुआत में सिर्फ डाउन कैंपस हुआ करता था । जहा अब सीआरपीएफ कैप और कुछ दफ्तर है । और जिस जेएनयू कैपस और हास्टल ने अब खुद को घायल देखा है उसे प्रकृति के समंदर में समेटने की सोच लिये मुनीस रजा तो जेएनयू कैपस में छात्र-छात्राओ की गर्म होती सांसो को भी रोसेटी की कविता ‘ टू ब्लासम ‘ के जरीये मान्यता देने से नहीं कतराते थे । लेकिन अस्सी के दशक में येलावर्ती के जेएनयू वीसी रहते हुये और साल भर के भीतर पीएनश्रीवास्तव को वीसी बनाये के वक्त जिस तरह जेएनयू में पहली बार जबरदस्त हंगामा हुआ उसने इंदिरा गांधी की छवि को धूमिल जरुर किया । लेकिन 2019 में जेएनयू का टकराव तो सीधे सत्ता से हो चला है । और लहूलुहान जेएनयू के भीतर छात्र संगठनो के टकराव से ज्यादा बाहर से आये नकाबपोशो की मौजूदगी टराने वाली है । 80 के दशक में दिल्ली पुलिस घोडे पर सवार होकर छात्रो को रौंदते हुये अंदर दाखिल हुई थी । लेकिन इस बार पुलिस की मौजूदगी में जेएनयू घायल हुआ । तब जेएनयू में प्रवेश परीक्षा की प्रक्रिया में बदलाव किया गया था । छात्रो ने कैपस में रह रह अध्यपको पर हमला कर दिया था । तब चालिस छात्रो को कैपंस से बाहर कर दिया गया था ।लेकिन इस बार चालिस से ज्यादा बाहरी नकाबपोश कैपंस में गुसे और पुलिस किसी को रोकना तो दूर लहूलुहान हुये छात्रो की शिकायत को दर्ज करने से आगे बढ ही नहीं पायी । 72 घंटे बाद भी किसी की गिरफ्तारी तक नहीं हुआ । तब इंदिरा गांधी ने विरोध-प्रदर्शन करने वाले छात्रो से किसी तरह की बातचीत से साफ इंकार कर दिया था । लेकिन अब तो छात्रो के टकराव के हालात सत्ता को भी बाहरी नकाबपोश के साथ खडे देख रहे है । और पहली बार बौद्दिक जगत के लोग हो या सिल्वर स्क्रिन लोकप्रिय चेहरे । सामाजिक कार्यकत्ताओ का हुजुम हो या नोबल से सम्मानित जेएनयू के पूर्व छात्र । फिर मोदी सत्ता की कैबिनेट में शामिल जेएनयू के पूर्व छात्र हो या देश भर से दिल्ली पहुंचते प्रोफेशनल्स सभी जेएनयू को लेकर बंटे भी है और सडक पर संघर्ष करते हुये भी दिखायी दे रहे है । 38 बरस पहले जेएनयू के हंगामें को लेकर सत्ता में चिंता पैदा हुई थी कि अंतर्ष्ट्रीय तौर पर शिक्षा राजनीति के अड्डे में तब्दिल होकर भारत के शौक्षणिक हालात को दागदार ना कर दें । इसलिये 15 दिन के भीतर ही जेएनयू को लेकर तब की शिक्षा मंत्री शीला कौल ने जेएनयू वीसी से चार बार संवाद बनाये । लेकिन मौजूदा वक्त शिक्षा मंत्री के तौर पर निशंक की सिर्फ इतनी ही भूमिका नजर आयी कि जेएनयू के लहू लुहान होने के बाद वीसी जगदीश को बुलाया गया । जिसके बाद वीसी ने जेएनयू की घटना की निंदा की । और वीसी से लेकर शिक्षा मंत्री की भूमिका और सत्ता की खामोशी से लेकर दिल्ली पुलिस के मूकदर्शक होने को लेकर देश ही नहीं दुनिया भर में सवाल सडक पर हाथो में लहराते प्लेकार्ड से लेकर अखबारो की खबरो और आर्टिकल तक में झलके । और इन हालतो ने छात्रो को शिक्षा व्यवस्था को लेकर कई ऐसे सेंवेदनशील सवाल देश में खडा कर दिये ।जो जामिया या अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सटी या फिर जाधवपुर या उस्मानिया यूनिवर्सिटी में हुये हंगामे से हटकर है । पहली बार जेएनयू में पढते छात्रो के सामने ये भी सवाल है कि क्या सरकार अब शिक्षा पर सब्सिडी देने को तैयार नहीं है । क्या जेएनयू की खुलापन सरकार को बर्दाश्त नहीं है । क्या जिस न्यूनतम के संघर्ष में जिन्दगी यापन करने वाले समाज से बच्चे निकल कर जेएनयू पहुंचते है और जिन्दगी में तरक्की के रास्ते आगे बढते है क्या मध्यम वर्ग को समेटी राजनीति को ये भी बर्दाश्त नहीं है । या फिर ग्रामिण और गरीबी के बीच से बेहद कम फीस के साथ शिक्षा पाने के लिये जो छात्र जेएनयू पहुंच जाते है उन्हे वामपंथी सोच के दायरे में रखकर ‘ टुकडे टुकडे गैंग ‘ से परिभाषित कर नकाबपोश हथियारबंद बाहरी छात्रो को देशभक्त बताकर मामले को सियासी दायरे में लाया जा सकता है । इसमें दो मत नहीं है कि जेएनयू में वामपंथियो की छात्र यूनियन इसलिये काबिज रहती है क्योकि वहा सवाल वर्ग सघर्ष से होते हुये पेट के सावल को उठाता है । और जो गरीब-गांव से निकल कर जेएनयू पहुंचते है उन्हे वामपंथ के सवाल अपनी जिन्दगी के करीब लगते है । फिर जेएनयू का खुला वातावरण या वहा पढाई के तौर तरीके देश –दुनिया के हर मुद्दे पर अभिव्यक्त करने का वातावरण भी देते है । जबकि दिल्ली विश्वविघालय या जामिया यूनिवर्सिटी में अभिव्यक्ति की रुकवट तो नहीं है लेकिन गरीब या गांव से सीधे निकल कर आये छात्र भी यहा नहीं है या बेहद कम है । पर समझना ये भी जरुरी होगा कि जेएनयू मुंढने वाले करीब साढे आठ हजार छात्रो में पांच हजार से ज्यादा छात्र एमफिल-पीएचडी कर रहे होते है । और चूकि यूनिवर्सिटी पूरी तरह आवासिय है तो आपसी संवाद या अलग अलग विषयो को लेकर तर्क के तौर तरीके भी बेहद भिन्न होते है । बकायदा छात्र यूनियन हर विषयो के जानकार को लेकर शुक्रवार की रात हास्टल की मेस में या फिर आडिटोरियम में सेमिनार भी कराते है । लहूलुहान हुये जेएनयू में 24 घंटे पहले फीस बढोतरी और नई शिक्षा नीति को लेकर भी सेमिनार चल रहा था । और 1969 में जेएनयू की स्थापन के वक्त यही विचार इंदिरा गांधी के सामने मुनीस रजा ने रखा था कि , जेएनयू को अपने नाम यानी नेहरु के विचार को भी जीना होगा और भारतीय पहचान को भी साधन होगा । तभी तो जेएनयू के संविधान में जिक्र किया गया , ‘ राष्ट्रीय एकीकरण , सामाजिक न्याय , धर्मनिरपेक्षता , जिवन के लोकतांत्रिक पहलु , अंतर्ष्ट्रीय समझ और समाज की मुश्किलो को लेकर साइंटिफिक एप्रोच को अपनाना होगा । यूनिवर्सटी का वातावरण जानकारी को लेकर लगातार उर्जावान प्रयास से सराबोर रहे और खुद से सवाल करने की क्षमता पैदा हो । “ और ये उर्जा कैसे प्रकृति से जोड कर मुनिस रजा ने जेएनयू को गढा और 80 के दशक में जब जेएनयू की पगडंडियो से छात्रो के साथ गुजरते तो किट्स की कविता “ अ थिंग आफ ब्यूटी ‘ की लाइनो को सुनाते , ‘ सौंदर्य की खुशी सदैव कायम रहती है , इसकी मधुरता बढती रहती है . यह कभी खत्म नहीं होती...यह एक सपनों भरी नींद है....... ।“ पर पहली बार जेएनयू के सपनो पर हकीकत हावी है जहा पाश घुमडने लगा है..सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना.....</div>
Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-89877485599437641282020-01-09T21:26:00.001+05:302020-01-09T21:26:05.140+05:30प्रधानमंत्री मोदी ने बटन दबाया लेकिन किसानो तक कुछ नहीं पहुंचा <div class="adn ads" data-legacy-message-id="16f6fb00d7480363" data-message-id="#msg-a:r-6975824292920518057" style="background-color: white; border-left: none; color: #222222; display: flex; font-family: Roboto, RobotoDraft, Helvetica, Arial, sans-serif; padding: 0px;">
<div class="gs" style="margin: 0px; padding: 0px 0px 20px; width: 1184px;">
<div class="">
<div class="ii gt" id=":17b" style="direction: ltr; font-size: 0.875rem; margin: 8px 0px 0px; padding: 0px; position: relative;">
<div class="a3s aXjCH " id=":17a" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 1.5; overflow: hidden;">
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<div style="border-bottom: 1pt solid windowtext; border-left: none; border-right: none; border-top: none; padding: 0cm 0cm 1pt;">
<div class="MsoNormal" style="border: none; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0cm 0cm 10pt; padding: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">68 महिने में 168 योजनाओं का एलान । यानी हर 12 दिन में एक योजना का एलान । तो क्या 12 दिन के भीतर एक योजना पूरी हो सकती है या फिर हर योजना की उम्र पांच बरस की होती है तो आखरी योजना जो अटल भू-जल के नाम पर 25 दिसंबर 2019 में एलान की गई उसकी उम्र 2024 में पूरी होगी । या फिर 2014 में लालकिले के प्राचीर से हर सासंद को एक एक गांव गोद लेने के लिये जिस </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">सासंद आदर्श ग्राम योजना</span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">का एलान किया गया उसकी उम्र 2019 में पूरी हो गई और देश के 3120 </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">[</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;"> लोकसभा के 543 व राज्य सभा 237 सासंद यानी कुल 780 सांसदो के जरीये चार वर्ष में लेने वाले गांव की कुल संख्या </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;"> ]</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">गांव सासंद निधि की रकम से आदर्श गांव में तब्दिल हो गये । लेकिन ये सच नहीं है । सच ये है कि कुल 1753 गांव ही गोद लिये गये और बरस दर बरस सासंदो की रुची गांवो को गोल लेकर आदर्श ग्राम बनाने में कम होती गई । मसलन पहले बरस 703 गांव तो दूसरे बरस 497 गांव , तीसरे बरस 301 गांव और चौथे बरस 252 गांव सासंदो ने गोद लिये । पांचवे बरस यानी 2019 में किसी भी सांसद ने एक भी गांव को गोद नहीं लिया । लेकिन सच ये भी पूरा नही है । दरअसल जिन 1753 गांव को आदर्श ग्राम बनाने के लिये सांसदो ने गोद लिया उसमें से 40 फिसदी गांव यानी करीब 720 गांव के हालात और बदतर हो गये । ये कुछ वैसे ही है जैसे किसानो की आय दुगुनी करने के लिये 2013 में वादा और 2015 में एलान के बाद किसानो की आय देशभर में साढे सात फिसदी कम हो गई । लेकिन आंकडो के लिहाज से कृर्षि मंत्रालय ने और सरकार ने समझा दिया कि किसानो की आय डेढ गुनी बढ चुकी है जो कि 2022 तक दुनगुनी हो जायेगी । जाहिर है आकंडो की फेरहसित् ही अगर सरकार की सफलता हो जाये और जमीनी हालात ठीक उलट हो तो सच सामने कैसे आयेगा । यही से नौकरशाही , मीडिया , स्वायत्त व संवैधानिक संस्थानो की भूमिका उभरती है जो चैक एंड बैलेस का काम करते है । लेकिन सभी सत्तानुकुल हो जाये या फिर सत्ता ही सभी संस्थानो </span></div>
<div class="MsoNormal" style="border: none; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0cm 0cm 10pt; padding: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">या कहे लोकतंत्र के हर पाये को खुद ही परिभाषित करने लगे तो फिर सत्ता या सरकार के शब्द ही अकाट्य सच होगें ।</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">दरअसल इस हकीकत को परखने के लिये 2 जनवरी 2020 को कर्नाटक के तुमकर में प्रधानमंत्री मोदी के जरीये बटन दबाकर 6 करोड किसानो के बीच 12 हजार करोड की राशी प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत बांटने के सच को भी जानना जरुरी है । चूकि ये सबसे ताजी घटना है तो इसे विस्तार से समझे क्योकिनये साल के पहले दो दिन यानी 1-2 जनवरी 2020 को लगातार ये खबरे न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर रेगती रही और अखबारो के सोशल साइट पर भी नजर आई कि प्रदानमंत्री मोदी नये साल में किसानो को किसान सम्मान निधि का तोहफा देगें । और तुमकर में अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने बकायदा एलान भी किया उन्होने बटन दबाकर कैसे एक साथ 6 करोड किसानो के खाते में दो हजार रुपये पहुंचा दिये है । जाहिर है ऐसे में सरकार की सोशल साइट जो कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के ही नाम से चलची है उसमें ये आंकडा तुरंत आ जाना चाहिये । लेकिन वहा कुछ भी नहीं झलका । और आंकडो की बजीगरी में से साफ लगा कि जो बटन दबाया गया वो सिर्फ आंखो में घूल झौकने के लिये दबाया गया । क्योकि सरकार की सोशल साइट जो हर दिन ठिक की जाती है उसका सच ये है कि उसमें पहले दिन से लेकर आखरी दिन तक जो भी योजना के बारे में कहा गया या योजना को लागू कराने के लिये जो हो रहा है उसे दर्ज किये जाता है । बकायदा दर्जन भर नौकशाह उसे ठीक करते रहते है । लेकिन किसान सम्मान निधि का सच ये है कि 1 दिसबर 2018 को पहली किस्त के साथ इसे लागू किया गया । हर चार महीने में दो हजार रुपये कि किस्त किसान के खाते में जानी चाहिये । तो दूसरी किस्त 1 अप्रैल 2019 को गई । तीसरी किस्ता 1 अगस्त 2019 को गई और चौथी किस्त 1 दिसबंर 2019 को गई जिसकी मियाद 31 मार्च 2020 तक है यानी अब बजट में अगर सम्मान निधि की रकम जारी रखने के लिये 75000 करोड का इंतजाम किया जायेगा तो ये जारी रहेगी अन्यथा बंद हो जायगी । लेकिन उस जानकारी के सामानातंर जरी सच समझ लिजिये । प्रधानमंत्री ने कौन सा बटन बदाया और किन 6 करोड किसानो को लाभ मिला इसका कोई जिक्र आपको किसी सरकारी साइट पर नहीं मिलेगा । अगर सरकारी आंकडो को ही सच मान ले तो कुल किसान लाभार्थियो की संख्या देश में करीब साढे आठ करोड </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">[ 8,54,30,667 ] </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">है । जिन्हे दिसबंर 2019 से मार्च 2020 की किसत मिली है उनकी संख्य़ा तीन करोड से</span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">कम </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">[ 2,90,02,545 ]</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;"> है । यानी छह करोड तो दूर बल्कि जो बटन दबाया गया उसका कोई आंकडा इस किस्त में नहीं जुडा । क्योकि ये आंकडा सरकारी साइट पर 15 दिसंबर से ही रेंग रहा है । और हर दिन सुधान के बाद भी जनवरी में इसमें कोई बढतरी हुई ही नहीं है । असल में योजनाओ का लाभ भी कैसे कितनो को देना है ये भी उस राजनीति का हिस्सा है जिस राजनीति का शिकार भारत हर नीति और अब तो कानून के आसरे हो चला है । क्योकि झारखंड में 1 दिसंबर 2019 से 31 मार्च 2020 की किस्त किसी भी किसान को नहीं मिली । जबकि झरखंड में जिन किसानो का सम्मान निधि के लिये रजिस्ट्रशन है , उनकी संख्या 15 लाख से ज्यादा </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">[ 15,09,387 ] </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">है । और इसी तरह मध्यप्रदेश के 54,02,285 किसानो का रजिसट्रशन सम्मान निधि के लिये हुआ है लेकिन चौथी किस्त </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">[ 1-12-2019 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">से 31-</span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">3-2020 ] </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">सिर्फ 85 किसानो को मिली है । महाराष्ट्र में भी करीब 81 लाख </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">[81,67,923 ] </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">किसानो में से 15 लाख</span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;"> [ 15,28,971 ] </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;"> किसानो को ये किस्त मिली और यूपी में करीब दो करोड </span><span lang="EN-IN" style="font-size: 11pt;">[1,97,80,350 ] </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">किसानो में से करीब 77 लाख किसानो को ये किस्त मिली । दरअसल योजनाओ का एलान कैसे उम्मीद जगाता है और कैसे राजनीति का शिकर हो जाता है । ये खुला खेल अब भारत की राजनीति का अनूठा सच हो चला है । क्योकि ममता बनर्जी ने बंगाल के किसानो की सूची नहीं भेजी तो बगाल के किसी किसान को सम्मान निधि का कोई लाभ नहीं मिला । और बाकि राज्यो में जहा जहा बीजेपी चुनाव हारती गई वहा वहा किसानो को लाभ मिलना बंद होते गया ।</span></div>
</div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0cm 0cm 10pt;">
<span lang="EN-IN"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0cm 0cm 10pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">फिर योजनाओ के अक्स तले अगर सिर्फ ग्रामिण भारत या किसानो से जुडे दर्जन भर से ज्यादा योजनाओ को ही परख लें तो आपकी आंखे खुली की खुली रह जायेगी कि आखिर योजनाओ का एलान क्यो किया गया जब वह लागू हो पाने या करा पाने में ही सरकार सक्षम नहीं है । क्योकि 2014-19 के बीच एलान की गई योजनाओ के इस फेरहसित को पहले परख लें । किसान विकास पत्र, साइल हेल्थ कार्ड स्कीम,प्रधानमंत्री फसलबीमा योजना , प्रधानमंत्री ग्राम सिंचाई योजना , प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना , किसान विकास पत्र , प्रधानमंत्री खनिज क्षेत्र कल्याण योजना , प्रधानमंत्री ग्रामिण आवास योजना , ग्राम उदय से भारत उदय तक , प्रधानमंत्री ग्रामिण डिजिटल साक्षरता अभियान , प्रधानमंत्री ग्राम परिवहन योजना और इस कडी में अगर उज्जवला योजना और दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर शुरु की गई योजनाओ का जोड कर गांव क हालत को परखेगें तो सरकारी आंकडो का ही सच है कि मनरेगा में मजदूरो की तादाद बढ गई है । क्योकि भारत में पलायन उल्टा हो चला है । शहरो में काम नहीं मिल रही हा तो ग्रामिण भारत दो जून की रोटी के लिये दोबारा अपनी जमीन पर लौट रहा है । फिर खेती की किमत बढ गई है और बाजार में खेती की पुरानी किमत भी नहीं मिल पा रही है । किसान-मजदूर और ग्रामिण महिलाओं की खुदकुशी में बढोतरी हो गई है । यानी कौन सी स्कीम या योजना सफल है या फिर योजनाओ के आसरे कौन सा भारत सुखमय है इसके लिये दिन दयाल उपाध्याय के गांव को भी परख लेना चाहिये । क्योकि उनके नाम पर ग्राम ज्योती योजना , ग्रामिण कोशल्या योजना और श्रमेव जयते योजना का एलान हुआ है । जबकि दीन दयाल जी के गांव नगला चन्द्भान की स्थिति देखर कोई भी चौक पडेगा कि जिनके नाम पर देश के गांव को ठीक करने की योजनाये है उन्ही का गांल बदहाल क्यो है । मथुरा जिले में पडने वाले नंगला चन्द्भान गांव में पीने का साफ पानी नहीं है । हेल्थ सेंटर नहीं ह । स्कूली शिक्षा तक के लिये गांव से बाहर जाना पडता है । तो क्या योजनाओ का एलान सिर्फ उपलब्धियो को एक शक्ल देने के लिये किया जाता है जिससे भविष्य में कोई बडी लकीर खिंचनी ना पडे । और देश का सच योजनाओ के भार तले दब जाये । देश के हालात और योजनाओ की रफ्तार का आंकलन उज्जवला योजना से भी हो सकता है । उच्चवला योजना के तहत लकडी और कोयला जला कर खाना बनाते गरीहो का शरीर कैसे बिमारियो से ग्रस्त हो जाता है इसकी चिंता जतायी गई । लेकिन सच कही ज्यादा डरावना है ।क्योकि मौजूदा वक्त में उड्डवला योजना के तहत आये 85 फिसदी गरीब दुबारा लकडी और कोयले के घुये में जीने को मजबूर है । और इसकी वजह है कि पहली बार मुफ्त में गैस सिलेंडर मिलने के बाद दुबारा गैस सिलिंडर भरवाने के लिये दो साल में भी रुपये की जुगाड 85 फिसदी गरीब कर नहीं पाये । सरकारी आंकडे यानी पेट्रोलियम व प्रकृतिक गैस मंत्रालय की ही रिपोर्ट बताती है कि देश में उज्जवला योजना के तहत 9 करोड से ज्यादा आये गरीबो ने हर चार महीने में गैस सिलेडर बदला । जबकि सच ये है कि 85 फिसदी ने सिर्लेंडर रिफिलिंग कराया ही नहीं और बाकि 15 फिसदी ने सिलेडर बदला । क्योकि 14 किलोग्राम का गेस सिलेडर पर अगर दो वक्त का खाना बने तो डेढ से दो महीने से ज्यादा वह चल ही नहीं सकता है । और राष्ट्रीय औसत साल भर में 3 सिलिंडर को भरवाने का है । जबकि ओडिसा मद्यप्रदेश और असम या जम्मू कश्मीर में औसत दो ही सिलेडर में साल खपा देने वाली स्थिति रही । यानी हर छह महीने में एक सिलेंडर ।</span><span lang="EN-IN"></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0cm 0cm 10pt;">
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; font-size: 10pt; line-height: 15.3333px;">दरअसल सरकारी योजनाओ का एलान और देश की माली हालत कैसे दो दिशाओ में जा रही है या जा चुकी है उसे भी अब समझने की जरुरत है । क्योकि सवाल सिर्फ ग्रामिण भारत भर का नहीं है । शहर और महानगरो में भी जिस तरह एलान होते है उसे परखने की सोच मीडिया में खत्म हो चुकी है तो नौकरशाही सत्तानुकुल होकर ही बनी रह सकती है ये आवाज बुलंद है । मसलन नये साल के मौके पर बजट से ठीक महीने भर पहले वित्त मंत्री ने नयी योजनाओ के लिये 105 लाख करोड का ऐलान किया । लेकिन ये सवाल किसी ने नहीं पूछा कि इससे पहले जो योजनाये ठप पडी है उन्हे कब कैसे पूरा किया जायेगा । क्योकि दिंसबर 2019 के हालात को परखे तो 13 लाख तीस हजार करोड के पुराने प्रोजक्ट अधूरे पडे है । जिसेमें सरकार के प्रजोक्ट करीब तीन लाख करोड तो प्राइवेट प्रोजेक्ट 10 लाख करोड से ज्यादा के है । और योजनाओ के इस कडी में सबसे बडा सच तो स्वच्छ भारत मिशन का है । जो ये मान चुका है कि भारत पुरी तरह खुले में शौच से मुक्त हो चुका है । चूकि मिशन का अपना आंकडा तो उसने 90 फिसदी सफलता के साथ साथ महाराष्ट्र , आध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश , राजस्थान , तमिलनाडु, गुजरात , उत्तर प्रदेश और झारखंड में 100 फिसदी सफलता दिखा दी । लेकिन नेशनल सैपल सर्वे के मुताबिक महाष्ट्र में 78 फिसदी तो यूपी में 52 फिसदी , झारखंड में 58 फिसदी कतो राजस्थान में 65 और मद्यप्रदेश में 71 फिसदी ही सफलता मिल पायी है । यानी स्वच्छता मिशन भी सरकार की और नेशनल सैपल सर्वे भी सरकार की । लेकिन दोनो में करीब 20 फिसदी का अंतर । और मजेदार बात ये है कि यही बीत फिसदी सफलता बीते पांच बरस में पायी गई । यानी नेशनल सैपल सर्वे की माने तो सरकार ने सिर्फ 10 फिसदी काम पांच साल में किया और स्वच्छा मिशन चलाने वालो के मुताबिक हर बरस उन्हेनो दस फिसदी की सफलता पायी । यानी 40 फिसदी देश में शौचलय बना दिये जो कि 2014 से पहले 58 फिसदी थे । तो योजनाओ के इस खेल में सरकार अपनी उपल्ब्धिया अपने चश्में से देखने की आदि हो चली है और जनता भी वहीं चश्मा पहन लें इसके लिये सत्ताधारी पार्टी के साथ खडे पार्टी सदस्यो की कतार देश भर में सत्ता के शब्द ही चबाने की आदी है । इस कडी में अब स्वयसेवको का भी साथ है और हुकांर भरती मिडिया भी सत्ता के इसी ढोल को सफलता के साथ सुनाने में हिचकती नहीं तो ऐसे में स्वयसत्त या संवैधानिक संस्थानो को संभाले नौकरशाह भी सत्ता की भाषा को अपनाने में देर नहीं करते । तो ऐसे में इसकी त्रासदी कैसे उभरती है ये महाऱाष्ट्र में किसानो की खुदकुशी से समझा जा सकता है । जहा हर दो से तीन घंटे की बीच एक किसान खुदकुशी करता है और ये सिलसिला 2015 से लगातार है । 2015 में 3376 किसानो ने शुदकुशी की तो 2019 में 2815 किसानो ने खुदकुशी की । सिर्फ नवंबर के महीने में 312 किसानो ने खुदकुशी की । और खुदकुशी करने वाले ज्यादातर किसान सम्मान निधि से लेकर फसल बीमा और अन्य किसान योजनाओ से जुडे हुये थे । जिसमें सरकारी फाइलो में कईयो को कर्ज से भी मुक्त कर दिया गया था । लेकिन सच यही है कि जो सरकारी फाइलो में दर्ज है या फिर जो योजनाओ के एलान के साथ किसानो को राहत पहुंचा रहा है उनमें से कुछ भी किसानो तक पहुंच नहीं पाता है । चाहे प्रदानमंत्री कोई भी एलान करें या कोई भी बटन दबाये । </span></div>
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<div class="hi" style="background: rgb(242, 242, 242); border-bottom-left-radius: 1px; border-bottom-right-radius: 1px; margin: 0px; padding: 0px; width: auto;">
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<div class="gA gt acV" style="background: rgb(255, 255, 255); border-bottom-left-radius: 0px; border-bottom-right-radius: 0px; border-top: none; color: #222222; font-family: Roboto, RobotoDraft, Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 0.875rem; margin: 0px; padding: 0px; width: auto;">
<div class="gB xu" style="border-top: 0px; padding: 0px;">
<div class="ip iq" style="border-top: none; clear: both; margin: 0px; padding: 16px 0px;">
<div id=":17c">
<table class="cf wS" role="presentation" style="border-collapse: collapse;"><tbody>
<tr><td class="amq" style="margin: 0px; padding: 0px 16px; vertical-align: top; visibility: hidden; width: 44px;"><img class="ajn bofPge" data-hovercard-id="punyaprasun@gmail.com" id=":mu_0" jid="punyaprasun@gmail.com" name=":mu" src="https://www.google.com/s2/u/1/photos/public/AIbEiAIAAABECO3OwtiU6KKruAEiC3ZjYXJkX3Bob3RvKihiMDc1NWZhNGFkZDI3ZTM2ODE5Nzk3YWI0NTNhMjU4YjY1Y2E3YTIwMAEBiCv5_k7S-VuEpnzmQ7xhslkdEA?sz=40" style="border-radius: 50%; display: block; height: 40px; width: 40px;" /></td><td class="amr" style="margin: 0px; padding: 0px; width: 1184px;"><div class="nr wR" style="border-radius: 1px; border: none !important; box-sizing: border-box; color: #222222; margin: 0px !important; padding: 0px; transition: none 0s ease 0s;">
<div class="amn" style="align-items: center; color: inherit; display: flex; height: auto; line-height: 20px; padding: 0px;">
<span class="ams bkH" id=":175" jslog="21576; u014N:cOuCgd,Kr2w4b;" role="link" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; -webkit-user-drag: none; align-items: center; background: none; border-radius: 4px; border: none; box-shadow: rgb(218, 220, 224) 0px 0px 0px 1px inset; box-sizing: border-box; color: #5f6368; cursor: pointer; display: inline-flex; font-family: "Google Sans", Roboto, RobotoDraft, Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 0.875rem; height: 36px; justify-content: center; letter-spacing: 0.25px; margin-right: 12px; min-width: 104px; outline: none; padding: 0px 16px 0px 12px; position: relative; user-select: none; z-index: 0;" tabindex="0">Reply</span><span class="ams bkI" id=":176" jslog="21577; u014N:cOuCgd,Kr2w4b;" role="link" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; -webkit-user-drag: none; align-items: center; background: none; border-radius: 4px; border: none; box-shadow: rgb(218, 220, 224) 0px 0px 0px 1px inset; box-sizing: border-box; color: #5f6368; cursor: pointer; display: inline-flex; font-family: "Google Sans", Roboto, RobotoDraft, Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 0.875rem; height: 36px; justify-content: center; letter-spacing: 0.25px; margin-right: 12px; min-width: 104px; outline: none; padding: 0px 16px 0px 12px; position: relative; user-select: none; z-index: 0;" tabindex="0">Reply all</span><span class="ams bkG" id=":177" jslog="21578; u014N:cOuCgd,Kr2w4b;" role="link" style="-webkit-font-smoothing: antialiased; -webkit-user-drag: none; align-items: center; background: none; border-radius: 4px; border: none; box-shadow: rgb(218, 220, 224) 0px 0px 0px 1px inset; box-sizing: border-box; color: #5f6368; cursor: pointer; display: inline-flex; font-family: "Google Sans", Roboto, RobotoDraft, Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 0.875rem; height: 36px; justify-content: center; letter-spacing: 0.25px; margin-right: 12px; min-width: 104px; outline: none; padding: 0px 16px 0px 12px; position: relative; user-select: none; z-index: 0;" tabindex="0">Forward</span></div>
</div>
</td></tr>
</tbody></table>
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Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-85524954209649990512019-08-20T12:14:00.000+05:302019-08-20T12:14:27.989+05:30दिल में हिलोरे हो और बाहर ठहराव तो समझ लिजिये ये ख्य्याम का संगीत है<br />
ना तो सियासत में सुकुन । ना ही सिनेमा में सुकुन । ना तो संगीत में सुकुन । आपकी हथेलियों में घडकते मोबाइल और दिलो में कौघतें विचार ही जब जल्दबाजी में सबकुछ लुटा देने पर आमादा हो तब आप कौन सा गीत और किस संगीत को सुनना पसंद करेगें । यकीनन भागती दौडती जिन्दगी में आपको सुकुन गंगा, गांधी और गीत में ही मिलेगा । और इन तीनो के साथ एक इत्मिनान का संगीत ही आपको किसी दूसरी दुनिया में ले जायेगा । और इस कडी में नाम कई होगें लेकिन कोहूनूर तो मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम हाशमी उर्फ 'ख़य्याम' ही है । जिनका ताल्लुक संगीत की उस जमात से रहा है जहाँ इत्मीनान और सुकून के साये तले बैठकर संगीत रचने की रवायत रही है । ख़य्याम का नाम किसी फ़िल्म के साथ जुड़ने का मतलब ही यह समझा जाता था कि फ़िल्म में लीक से हटकर और शोर-शराबे से दूरी रखने वाले संगीत की जगह बनती है, इसलिए यह संगीतकार वहाँ मौजूद है । ख़य्याम का होना ही इस बात की शर्त व सीमा दोनों एक साथ तय कर देते थे कि उनके द्वारा रची जाने वाली फ़िल्म में स्तरीय ढंग का संगीत होने के साथ-साथ भावनाओं को तरजीह देने वाला रूहानी संगीत भी प्रभावी ढंग से मौजूद होगा । फेरहिस्त यकीनन लंबी है । लेकिन इस लंबी फेरहिस्त में से कोई भी चार लाइनें उठा कर पढना शुरु किजिये , चाहे अनचाहे आपके दिल-दिमाग में संगीत बजने लगेगा और यही संगीत ख्य्याम का होगा । और ख्य्याम यू ही ख्य्याम नहीं बन गये । सहगल के फैन । मुंबई जाकर हीरो बनने की चाहत । लाहौर में संगीत सीखने का जुनुन और फिर इश्क में सबकुछ गंवाकर संगीत पाने का नाम ही ख्य्याम है । ख्य्याम के इश्क में गोते लगाने से पहले सोचिये ख्ययाम संगत दे रहे है और पत्नी गीत गा रही है । और गीत के बोल है ......"तुम अपना रंज-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो , / तुम्हें ग़म की क़सम, इस दिल की वीरानी मुझे दे दो , / मैं देखूँ तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है , / कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो" .ख़य्याम के जीवन में उनकी पत्नी जगजीत कौर का बहुत बड़ा योगदान रहा जिसका ज़िक्र करना वो किसी मंच पर नहीं भूलते थे.अच्छे ख़ासे अमीर सिख परिवार से आने वाली जगजीत कौर ने उस वक़्त ख़य्याम से शादी की जब वो संघर्ष कर रहे थे. मज़हब और पैसा कुछ भी दो प्रेमियों के बीच दीवार न बन सका । यहा ख्य्याम को याद करते करते जिक्र जगजीत कौर [ पत्नी ] का जरुरी है क्योकि संगीत में संयम और ठहराव का जो जिक्र आपने कानो में ख्य्याम के गूंज रहा है वह जगजीत के बगैर संभव नही नहीं पाता । क्यकि ख्य्याम साहेब की पत्नी जगजीत कौर ख़ुद भी बहुत उम्दा गायिका रही हैं। अगर आपने ना सुना हो ये नाम तो फिर उनकी आवाज में फिल्म बाजार का नगमा ...' देख लो हमको जी भरके देख लो...' या फिर फिल्म उमराव जान में ...."काहे को बयाहे बिदेस.." सुनते हुये आपी आंखो में आंसू टपक जायेगें और एक इंटरव्यू में ख्य्याम साहेब ने जिक्र भी किया संगीत देते वक्त वह भावुक नहीं हुये लेकिन पत्नी की आवाज ने जिस तरह शब्दो को जीवंत कर दिया उसे सुनने वक्त वह रिकार्डिंग के वक्त ही रो पडे । लेकिन ख्य्याम के पीछे संगीत में संगत देने के लिये हर वक्त मौजूद रहन वाली जगजीत ने फिल्मो के गीतो को गाने को लकर ना तो जलदबाजी की ना ही गीतकारो में अपनी शुमारी की । सिर्फ सुकुन भरे संगीत के लिये ख्यायम के साथ ही खडी रही । इसका बेहतरीन उदाहरण उमराव जान और कभी कभी का संगीत है । और कल्पना किजिये साहिर की कलम । मुकेश की आवाज । उसपर ख्य्याम का संगीत.... यहाँ याद आता है कभी कभी का गीत - "मैं पल दो पल का शायर हूँ"….."कल और आएँगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले / मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले / कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे / मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यूँ वक़्त अपना बर्बाद करे / मैं पल दो पल का शायर हूँ.....70 के दशक के शायरो की पूरी पीढी ही इस गीत को गुनगुनाते ही बडी हो गयी । दरअसल ख़य्याम हर लिहाज़ से एक स्वतंत्र, विचारवान और स्वयं को सम्बोधित ऐसे आत्मकेंद्रित संगीतकार रहे हैं जिनकी शैली के अनूठेपन ने ही उनको सबसे अलग क़िस्म का कलाकार बनाया है । लेकिन ये सब इतनी आसानी से हुआ नहीं । क्योकि जिस परिवार का फिल्म या संगीत से कोई वास्ता ही नहीं था । उल्टे परिवार में कोई इमामको कोई मुअज्जिन । और 18 फ़रवरी 1927 को पंजाब में जन्मे ख़य्याम पर नशा के एल सहगल का । लेकिन असफलता ने पहुंचा लाहौर बाबा चिश्ती (संगीतकार ग़ुलाम अहमद चिश्ती) के पास ले गई जिनके फ़िल्मी घरानों में ख़ूब ताल्लुक़ात थे. लाहौर तब फ़िल्मों का गढ़ हुआ करता था । उस चौखट से जो सीखा उसकी परीक्षा की घडी भी भारत की आजादी के साथ जुडी है 1947 में हीर रांझा से ख्य्याम का सफर शुरु होता है । फिर रोमियो जूलियट जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया और गाना भी गाया. । लेकिन सबसे बेहतरीन वाकया है कि राजकपूर 1958 में जब फिल्म ' फिर सुबह होगी ' बनाते है तो वह ऐसे शख्स को खोजते है जिसने उपन्यास क्राइम एंड पनिशमेंट पढी हो । क्योकि फिल्म इसी उपन्यास से प्ररित या कहे आधारित थी । और ख्ययाम ने ये किताब पढ रखी थी तो राजकपूर उनसे ही संगीत निर्देशन करवाते है । ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए. ये शायद उनके करियर का गोल्डन पीरियड था.। याक किजिये इस गोल्डन दौर का एक गीत....."कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता / कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता / जिसे भी देखिए वो अपने आप में गुम है / ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता"...1981 में इस गीत को संगीत ख्य्याम ने ही दिया । क्या कहे ख्य्याम की तरह का संगीत रचने वाला कोई दूसरा फ़नकार नहीं हुआ । या फिर उनकी शैली पर न तो किसी पूर्ववर्ती संगीतकार की कोई छाया पड़ती नज़र आती है न ही उनके बाद आने वाले किसी संगीतकार के यहाँ ख़य्याम की शैली का अनुसरण ही दिखाई पड़ता है । तो क्या अब सुकुन और ठहराव की मौत सिल्वर स्क्रिन पर हो चुकी है । पर आधुनिक तकनीक की दौर में गीत-संगीत कहां मरेगें....मौका मिले तो अकेले में कभी इस गीत को सनिये....ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है / हर हे निगाह तक जहां , गुबार ही गुबार है ये किसी मकां पर हयात , मुझको ले कर आ गई / न बस खुशी पे है जहां ना गम पे इख्तियार है ... फिर सोचिये कोई अकेला और स्वतंत्र संगीतकार अपने भीतर क्या कछ समेटे रहा है । जो अंदर तो हिलोरे मारता है लेकिन बाहर ठहराव देता है ।<br />
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Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-37378942070781574922019-08-11T17:34:00.002+05:302019-08-11T17:34:55.691+05:30धारा 370 के हटने का पहला शिकार लोकतंत्र<br />
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" डायल किये गये नंबर पर इस समय इन-कमिंग काल की सुविधा नहीं है....'' इधर लोकतंत्र के मंदिर संसद में धारा 370 खत्म करने का एलान हुआ और उधर कशमीर से सारे तार काट दिये गये । धाटी के हर मोबाइल पर संवाद की जगह यही रिकार्डड जवाब 5 अगस्त की सुबह से जो शुरु हुआ वह 6 अगस्त को भी जारी रहा । यू भी जिस कश्मीरी जनता की जिन्दगी को संवारने का वादा लोकतंत्र के मंदिर में किया गया उसी जनता को घरों में कैद रहने का फरमान भी सुना दिया गया । तो लोकतंत्र का लाने के लिये लोकतंत्र का ही सबसे पहले गला जिस तरह दबाया गया उसके अक्स का सच तो ये भी है कि ना कशमीरी जनता से कोई संवाद या भरोसे में लेने की पहल । ना ही संसद के भीतर किसी तरह का संवाद । और सीधे जिस अंदाज में जम्मू कशमीर राज्य भी केन्द्र शासित राज्य में तब्दिल कर दिल्ली ने अपनी शासन व्यवस्था में ला खडा किया उसने पहली बार खुले तौर पर मैसेज दिया अब दिल्ली वह दिल्ली नहीं जो 1988 की तर्ज पर जम्मू कश्मीर चुनाव को चुरायेगी । दिल्ली 50 और 60 के दशक वाली भी नहीं जब संभल संभल कर लोकतंत्र को जिन्दा रखने का नाटक किया जाता था । अब तो खुले तौर पर संसद के भीतर बाहर कैसे सांसदो और राजनीतिक दलो को भी खरीद कर या डरा कर लोकतंत्र जिन्दा रखा जाता है , ये छुपाने की कोई जररत नहीं है । क्योकि लोकतंत्र की नाटकियता का पटाक्षेप किया जा चुका है । अब लोकतंत्र का मतलब खौफ में रहना है । अब लोकतंत्र का मतलब राष्ट्रवाद का ऐसा गान है जिसमें धर्म का भी ध्रुवीकरण होना है और किसी संकट को दबाने के लिये किसी बडे संकट को खडा कर लोकतंत्र का गान करना है । <br />
पर इसकी जररत अभी ही क्यों पडी या फिर बीते दस दिनो में ऐसा क्या हुआ जिसने मोदी सत्ता को भीतर से बैचेन कर दिया कि वह किसी से कोई संवाद बनाये बगैर ही ऐसे निर्णय ले लें जो भारत के भीतर और बाहर के हालातो के केन्द्र में देश को ला खडा करें । तो संकट आर्थिक है और उसे किस हद तक उभरने से रोका जा सकता है इस सवाल का जवाब मोदी सत्ता के पास नहीं है । क्योकि खस्ता इक्नामी के हालात पहली बार कारपोरेट को भी सरकार विरोधी जुबा दे चुके है । और कारपोरेट प्रेम भी जब सेलेक्टिव हो चुका है तो फिर संलेक्टिव को सत्ता लाभ तो दिला सकती है लेकिन सेलेक्टिव कारपोरेट के जरीये देश की इक्नामी पटरी पर ला नहीं सकती । और किसान-मजदूर-गरीबो को लेकर जो वादे लगातार किये है उससे हाथ पिछे भी नहीं खिंच सकते । यानी बीजेपी का पारंपरिक साथ जिस व्यापारी-कारपोरेट का रहा है उस पर टैक्स की मार मोदी सत्ता में सबसे भयावह तरीके से उभरी है । तो आर्थिक संकट से ध्यान कैसे भटकेगा । क्योकि अगर कोई ये सोचता है कि अब कश्मीर में पूंजीपति जमीन खरीदेगा तो ये भी भ्रम है । क्योकि पूंजी कभी वहा कोई नहीं लगाता जहा संकट हो । लेकिन कशमीर की नई स्थिति रेडिकल हिन्दुओ को घाटी जरर ले जायेगी । यानी लकीर बारिक है लेकिन समजना होगा कि नये हालात में हिन्दु समाज के भीतर उत्साह है और मुस्लिम समाज के भीतर डर है । यानी 1989-90 के दौर में जिस तरह कशमीरी पंडितो का पलायन घाटी से हुआ अब उनके लिये घाटी लौटने से ज्यादा बडा रास्ता उन कट्टर हिन्दुओ के लिये बनाने काी तैयारी है जिससे घाटी में अभी तक बहुसंख्यक मुसलमान अल्संख्यक भी हो जाये । दूसरी तरफ आर्थिक विषमता भी बढ जाये । और सबसे बडी बात तो ये है कि अब कशमीर के मुद्दो या मश्किल हालात का समाधान भी राज्य के नेता करने की स्थिति में नहीं होगें । क्योकि सारी ताकत लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास होगी । जो सीएम की सुनेगा नहीं । यानी सेकेंड ग्रेड सीटीजन के तौर पर कश्मीर में भी मुस्लिमो को रहना होगा । अन्यथा कट्टर हिन्दओ की बहुतायत सिविल वार वाले हालात पैदा होगें । दरअसल कश्मीरी की नई नीति ने आरएसएस को भी अब बीजेपी में तब्दिल होने के लिये मजबूर कर दिया । यानी अब मोदी सत्ता को कोई भय आर्थिक नीतियों को लेकर या गवर्नेंस को लेकर संघ से तो कतई नहीं होगा क्योकि संघ के एंजेडे को ही मोदी सत्ता ने आत्मसात कर लिया है । याद किजिये 1948 में महातामा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध ने संघ की साख खत्म कर दी थी और जब संघ पर से बैन खत्म हआ तो सामने मुद्दो का संकट था । ऐसे में 21 अक्टूबर 1951 में जब जंनसघ का पहला राष्टीय अधिवेशन हआ तब पहले घोषणापत्र में जिन चार मुद्दो पर जोर दिया गया उसमें धारा 370 का विरोध यानी जम्मूकश्मीर का भारतीय संघ में पूर्ण एकीकरण औऱ अल्संख्यको को किसी भी तरह के विशेषाधिकार का विरोध मुख्य था । औऱ ध्यान दें तो जून 2002 में कुरुक्षेत्र में हुई संघ के कार्यकारी मंडल की बैठक में जम्मू कश्मीर के समाधान के जिस रास्ते को बताया गया और बकायदा प्रस्ताव पास किया गया । संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने शब्दश उसी प्रस्ताव का पाठ किया । सिवाय जम्मू को राज्य का दर्जा देने की जगह केन्द्र शासित राज्य के दायरे में ला खडा किया ।<br />
तो आखरी सवाल यही है कि क्या कश्मीर के भीतर अब भारत के किसी भी प्रांत से किसी भी जाति धर्म के लोग देश के किसी भी दूसरे राज्य की तरह जाकर रह सकते है । बस ससे है । तो क्या कश्मीरी मुसलमानो को भी देश के किसी भी हिस्से में जाने-बसने या सुकुन की जिन्दगी जीने का वातावरण मिल जायेगा । क्योकि कश्मीर में अब सत्ता हर दूरे राज्य के व्यक्तियो के लिये राह बनाने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल को भेज चुकी है । लेकिन कश्मीर के बाहर कश्मीरियो के लिये जब शिक्षा-रोजगार तक को लेकर संकट है तो फिर उसका रास्ता कौन बनायेगा । Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-88353837505617501112019-07-22T11:05:00.001+05:302019-07-22T11:05:17.445+05:30लोकतंत्र की लिंचिग मत किजिये......<br />अगर कर्नाटक विधानसभा में सोमवार को भी स्पीकर बहुमत साबित करने की प्रक्रिया टाल देते है । यानी राज्यपाल और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को कुमारस्वामी सरकार अनदेखा कर देती है तो होगा कया ? जाहिर है सामान्य स्थितिया रहती तो स्पीकर के कार्य संविधान के खिलाफ करार दे दिये जाते । लेकिन टकराव की बात कर हालात को टाला जा रहा है । लेकिन नया सवाल से है कि आखिर हफ्ते भर से कौन सी ताकत कुमारस्वामी सरकार को मिल गई है जिसमें उसका बहुमत खिसकने बाद भी वह सत्ता में है । असल में लोकतंत्र का संकट यही है कि राजनीतिक सत्ता ही जब खुद को सबकुछ मानने लगे और संवैधानिक तौर पर स्वयत्त संस्थाये भी जब राजनीतिक सत्ता के लिय काम करती हुई दिखायी देने लगे तो फिर लोकतंत्र की लिचिंग शुरु हो जाती है । और रोकने वाला कोई नहीं होता । यहा तक की लोकतंत्र की परिभाषा भी बदलने लगती है । और ये असर सडक पर सत्ता की कार्यप्रणली से उभरता है । यानी सडक पर भीडतंत्र को ही अगर न्यायतंत्र की मान्यता मिलने लगे । हत्यारो की भीड के सामने राज्य की कानून व्यवस्था नतमस्तक होने लगे । तो असर तो लोकतंत्र क मंदिर तक भी पहुंचगा । तो आईये जरा सिलसिलेवार तरीके से हालात को परखे । कर्नाटक में बागी विधायको [ काग्रेस और जेडीएस ] ने विधायिका के सामने अपने सवाल नहीं उठाये बल्कि न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाया । और सुप्रीम कोर्ट ने भी बिना देर किये ये निर्देश दे दिया कि कि बागी विधायको पर व्हिप लागू नहीं होता । तो झटके में पहला सवाल यही उठा कि , ' क्या सुप्रीम कोर्ट ने विधायिका के विशेष क्षेत्र में हस्तक्षेप करके अपनी सीमा पार की है । ' क्योकि संविधान जानने वाला हर शख्स जानता है कि , ''संविधान में शक्तियों के विभाजन पर बहुत सावधानी बरती गई है. विधायिका और संसद अपने क्षेत्र में काम करते हैं और न्यायपालिका अपने क्षेत्र में. आमतौर पर दोनों के बीच टकराव नहीं होता. ब्रिटिश संसद के समय से बने क़ानून के मुताबिक़ अदालत विधायिका के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करती.'' तो फिर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश का मतलब क्या होगा जब वह कहता है कि ,स्पीकर को विधायकों के इस्तीफ़े स्वीकार करने या न करने या उन्हें अयोग्य क़रार देने का अधिकार है. लेकिन 15 बाग़ी विधायकों विधानसभा की प्रक्रिया से अनुपस्थित रहने की स्वतंत्रता दे दी। " यानी झटके में राजनीतिक पार्टी का कोई मतलब ही नहीं बचा । सवाल सिर्फ व्हिप भर का नहीं है बलकि राजनीतिक पार्टी के अधिकारों के हनन का भी है ।'' फिर सुप्रीम कोर्ट के तीन जजो की बेंच का फैसला ढाई दशक पहले 1994 में पांच न्यायधीशो वाली पीठ के फैसले के भी उलट है । क्योकि तब राजनीतिक दलो के विधायको के बागी होने पर ये व्यवस्था करने की बात थी कि विधायक जब जनता के बीच अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह के साथ गया । लडा और जीत कर विधायक बन गया तो फिर जनता ने उम्मीदवार के साथ राजनीतिक दल को भी देखा । ऐसे में बागी विधायक कैसे पार्टी नियम ' व्हिप ' से अलग हो सकता है । यानी अगर ऐसा होने लगे तो फिर किसी भी राज्य भी बहुमत की सरकार में मंत्री पद ना पाने वाले विधायक या फिर अपने हाईकमान से नाराज विधायक या मंत्री भी झटके में विपक्ष के साथ मिलकर चुनी हुई सत्ता भी गिरा देगें । फिर कर्नाटक में खुले तौर पर जिस तरह विधायको की खरीद फरोख्त या लाभालाभ देने के हालात है उसमें कोई भी कह सकता है कि जिसकी सत्ता है उसी का संविधान है उसी का लोकतंत्र है । और जब ये सोच सर्वव्यापी हो चली है तो फिर आखरी सवाल य भी है कि अगर कुमारस्वामी सरकार विधानसभा में बहुमत साबित करने को टालते रहे तो होगा क्या । लोकतंत्र की धज्जियां पहले भी उडी और बाद भी उडेगी । यानी झटके में ये सवाल उठने लगेगा कि सरकार गिराना अगर सही है तो फिर सरकार बचाना भी सही है । चाहे कोई भी हथकंडा अपनाया जाये । फिर ध्यान दिजिये तो विधानसभा में लोकतंत्र की इस लिचिंग के पीछे सडक पर होने वाली लिचिग का असर भी कही ना कही नजर आयेगा ही । क्यकि बीते पांच बरस में 104 लिचिंग की घटनाय देश भर में हुई । 60 से ज्यादा हत्याये हो गई । दो दिन पहले ही बिहार के छपरा में भी लिचंग हुई और लिचिंग से जयादा विभत्स स्थिति उत्तरप्रदेश के सोनभद्र में नजर आई । छपरा में तो चोर कहकर तीन लोगो की सरेराह हत्या कर दी गई । लेकिन सोनभद्र में सामूहिक तौर पर नंरसंहार की खूनी होली को अंजाम दिया गया । लेकिन इस कडी में कही ज्यादा महत्वपूर्ण है कि लिचिग करने वाले या हत्यारो को राजनीतिक संरक्षण खुलेतौर पर दिया गया । यानी हजारीबाग या नवादा में कैबिनट मंत्रियो के लिचिंग करने वालो की पीठ छोकना भर नहीं है बल्कि 2019 के चुनाव में लिचिंग के आरोपी चुनावी प्रचार में खुले तौर पर उभरे । जिला स्तर पर कई नेता भी बन गये । यानी 1994 में सुप्रीम कोर्ट जब राजनीतिक दल के साथ विधायक का जुडाव वैचारिक तौर पर देख रही थी और बागी विधायक को स्वतंत्र नहीं मान रही थी । 2019 में आते आते सुप्रीम कोर्ट विधायक को उसकी अपनी पार्टी से ही स्वतंत्र भी मान रही है और खुले तौर लिचिंग करने वाले भी अपनी वैचारिक समझ को सत्ता के साथ जोड कर कानून व्यवस्था को ठेंगा दिखाने से भी नही हिचक रहे है । और राजनीति भी सत्ता के लिये हर उस अपराधी को साथ लेने से हिचक नहीं रह है जो चुनाव जीत सकता है । जीता सकता है । या सत्ता का खेल बिगाड कर विपक्ष को सत्ता में बैठा सकता है । यानी मौजूदा लोकतंत्र का त्रासदीदायक सच यही है कि जनता सिर्फ लोकतंत्र के लिये टूल बना दी गयी है । विधानसभा में जनता ने जिसे हराया लोकतंत्र की लिचिंग का खेल उसे हारे हुये को मौका देता है कि जीते को खरीदकर खुद सत्ता में बैठ जाओ । और सडक पर लिचिंग करने वाले को मौका है कि हत्या के बाद वह अपनी धारदार पहचान बनाकर सत्ता में शामिल हो जायें । <br />
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Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-52269274438402805692019-07-17T18:59:00.001+05:302019-07-17T18:59:30.244+05:30 " भागी हुई लडकियां "घर की जंजीरे / कितना ज्यादा दिखायी पडती है / जब घर से कोई लडकी भागती है.... बीस बरस पहले कवि आलोक धन्वा ने " भागी हुई लडकियां " कविता लिखी तो उन्हे भी ये एहसास नही होगा कि बीत बरस बाद भी उनकी कविता की पंक्तियो की ही तरह घर से भागी हुई साक्षी भी जिन सवालो को अपने ताकतवर विधायक पिता की चारहदिवारी से बाहर निकल कर उठायेगी वह भारतीय समाज के उस खोखलेपन को उभार देगी जो मुनाफे-ताकत-पूंजी तले समा चुका है । ये कोई अजिबोगरीब हालात नहीं है कि न्यूचैनल की स्क्रिन पर रेगते खुशनुमा लडकियो के चेहरे खुद को प्रोडक्ट मान कर हर एहसास , भावनाये , और रिश्तो को भी तार तार करने पर आमादा भी है और टीआरपी के जरीये पूंजी बटोरने की चाहत में अपने होने का एहसास कराने पर भी आमादा है । दरअसल बरेली के विधायक की बेटी साक्षी अपने प्रेमी पति से विवाह रचाकर घर से क्या भागी वह सोशल मीडिया से लेकर टीवी स्क्रिन पर तमाशा बना दिया गया । भावनाओ और रिश्तो को टीआरपी के जरीये कमाई का जरीये बना दिया गया । तो कानून व्यवस्था से लेकर न्यायापालिका के सामने सिवाय एक घटना से दोनो रेंग ना सके । जबकि देश का सच तो ये भी कि हर दिन 1200 भागे हुये बच्चो की शिकायत पुलिस थानो तक पहुंचती है । हर महीन ये तादाद 3600 है और हर बरस चार लाख से ज्यादा । और तो और भागे हुये बच्चो में 52 फिसदी लडकिया ही होती है । लेकिन हमेशा ऐसा होता नहीं है कि लडका -लडकी एक साथ भागे । और पुलिस फाइल में जांच का दायरा अक्सर लडकियो को वैश्यावृति में ढकेले जाने से लेकर बच्चो के अंगो को बेचने या भीख मंगवाने पर जा टिकता है । लेकिन समाज कभी इस पर चिंतन कर ही नहीं पाती कि आखिर वह कौन से हालात होते है जो बच्चो को घर से भागने को मजबूर कर देते है । यहा बात भूख और गरीबी में पलने वाले बच्चो का जिक्र नहीं है बल्कि खाते पीते परिवारो के बच्च को जिक्र है । और इस अक्स में जब आप पश्चमी दुनिया के भीतर भागने वाले बच्चो पर नजर डालेगें तो आपको आश्चर्य होगा कि जिस गंभीर परिस्थियों पर बच्चो के भागने के बाद भी हमारा समाज चर्चा करने को तैयार नहीं है । उसकी संवेदनशीलता को समझने के लिये टीवी स्क्रिन पर खुशनुमा लडकिया ही समझने को तैयार नहीं है । वही इस एहसास को पश्चमी देशो ने साठ-सत्तर के दशक में बाखुबी चर्चा की । बहस की । सुधार के उपाय खोजे और माना कि पूंजी या कहे रुपया हर खुश को खरीद नहीं सकता है । यानी एक तरफ ब्रिटेन-अमेरीका में साठ के दशक में बच्चो के घर से भागने पर ये चर्चा हो रही थी कि क्या पैसे से खुशी खरीदी जा सकती है । क्या पैसे से सुकून खरीदा जा सकता है । क्या पैसे से दिली मोहब्बत खरीदी जा सकती है । यानी भारतीय समाज के भीतर का मौजूदा सच साक्षी के जरीये उस दिसा में सोचने ही नहीं दे रहा है कि बहत से मा बाप जो अपनी ज़िंदगी में पैसे कमाने में मशगूल होते हैं. वो अपने बच्चों को ढेर सारे खिलौने दिला देते हैं. तमाम तरह की सुख-सुविधाओं का इंतज़ाम कर देते हैं. नए-नए गैजेट्स, मोबाइल, शानदार गाड़ियां वग़ैरह...सामान की उनके बच्चों की कोई कमी नहीं होती. ऐसे बच्चों को कमी खलती है, मां-बाप की. उनकी मोहब्बत की. । बकायादा बीबीसी ने तो 1967 में घर से भागी उस लडकी के जीवन को पचास बरस बाद जब परखा तो ये सवाल कई संदर्भो में बडा हो गया कि क्या पचास बरस में वह चक्र पूरा हो चुका है जब हम जिन्दगी और रिश्तो के एहसास को खत्म कर चुके है । और दुनिया के सबसे बडे बाजार के तौर पर खुद को बनाने में लगा भारत भी हर खुशी को सिर्फ मुनाफे, पूंजी, रुपये में भी देख-मान रहा है । लेखक बेंजामिन ने तो अपनी रिपोर्ट में बताया कि ऐसे बहुत से बच्चे होते हैं, जो उकताकर घर छोड़कर भाग जाते हैं । और पिछली सदी के साठ के दशक में एक दौर ऐसा आया था जब पश्चिमी देशों में बच्चे ही अपनी दुनिया से उकताए, घबराए और परेशान थे. उन्हें सुकून नहीं था. उन्हें अपनी भी फ़िक्र हो रही थी और दूसरों की भी.। भारत में चाहे गढे जा रहे उपभोक्ता समाज को यह तमीज अभ भी नहीं है लेकिन 50 बर पहले लंदन से भागी एक लडकी की कहानी को ब्रिटिश मीडिया ने पूंजीवाद के संकट और बच्चो की दुनिया के एहसास तले उठाया था । और मीडिया की कहानी पढ़कर मशहूर रॉक बैंड द बीटल्स ने मेलानी की कहानी पर एक गाना तैयार किया था, जिसका नाम था- "शी इज लिविंग होम । " इस गाने को सर पॉल मैकार्टिनी और जॉन लेनन ने मिलकर तैयार किया था. गाने में मेलानी को और उस जैसे घर छोड़कर भागने वाले तमाम बच्चों का दर्द भी था, तो उनके मां-बाप की तकलीफ़ भी बयां की गई थी ।<br />
और बकायदा गाने के बोलों के ज़रिए कहा गया था कि मां-बाप अपने भागने वाले बच्चों के बारे में सोचते हैं कि उन्होंने तो उसे सब सुविधाएं दीं, फिर भी बच्चे उन्हें छोड़कर चले गए. । वहीं घर छोड़कर भागने वाले बच्चों की तरफ से भी गाने में कहा गया था कि वो अपने भीतर कुछ खोया सा, कुछ टूटा सा महसूस करते हैं. उन्हें लगता है कि बरसों से उनका हक़, उनके हिस्से की मोहब्बत छीनी जाती रही है । ऐसा ही गाना 1966 में साइमन और गारफंकेल ने" रिचर्ड कोरी " के नाम से तैयार किया था. इसमें भी पैसे और ख़ुशी के बीच की खाई को बयां किया गया था। भारत में तो सालाना चार लाख 30 हजार का आंकडा घर छोड बच्चो के भागने का है लेकिन तब अमेरिका में एक वक्त ये आंकडा पांच लाख पार कर गया था । 1967 से 1971 के बीच अमरीका में क़रीब पांच लाख लोग अपना घर छोड़कर भागे थे. ये लोग ऐसे समुदाय बनाकर रह रहे थे, जो बाक़ी समाज से अलग था. इसे नए तजुर्बे वाले समुदाय कहा जाता था. हर शहर में ऐसे समुदाय बन गए थे. जैसे सैन फ्रांसिस्को में डिगर्स के नाम से एक ऐसी कम्युनिटी बसी हुई थी । उस दौर में बच्चों के घर से भागने का आलम ये था मामला अमरीकी संसद तक जा पहुंचा था. संसद ने इस बारे में रनअवे यूथ एक्ट के नाम से 1974 में एक क़ानून भी बनाया था । और तब बच्चे समाजवादी और वामपंथी सोच से प्रभावित हुये । बहस ने राजनीतिक तौर पर चिंतन शुरु किया और साथ ही समाज में कैसे बदलाव लाया जाये उसे भी महसूसकिया । लेकिन इस समझ के अक्स में हम मौजूदा भारतीय समाज के उस खोखलेपन को बाखूबी महसूस कर सकते है जहा बेटी की पंसद के पति के साथ पिता के रिशतो के बीच जातिय संघर्ष है । हत्या का डरावना चेहरा है । कानून व्यवस्था का लचरपन है । मीडिया का सनसनीखेज बनाने के तरीके है । और कुछ नहीं है तो वह है भावनाओ की संवेदनशीलता या फिर गढे जा रहे भारतीय समाज का वह चेहरा जिसमें हिसंक होते समाज में बच्चो के लिये कोई जगह है ही नहीं । तभी तो बीस बरस पहले आलाक धन्वा की कविता की ये पंक्तिया कई सवाल खडा करती है , जब वह लिखते है , " उसे मिटाओगे / एक भाग हुई लडकी को मिटाओगे / उसके ही घर की हवा से / उसे वहा से भी मिटाओगे / उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर / वहा से भी / मै जानता हूं, कुलिनता की हिंसा । " <br />
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Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-24961164352938113092019-07-11T10:39:00.002+05:302019-07-11T10:39:57.482+05:30भारत नहीं हारा ...... क्रिकेट हार गयाक्रिकेट विश्व कप से भारत बाहर हो गया । दोष किसका है , किसी का नहीं । सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड ने अपनी फिल्डिंग और गेदबाजी के दम पर भारत को हरा दिया , गलती किसकी है किसी की नहीं । तो क्या वाकई हम एक ऐसे दौर में आ चुके है जहां अपने अपने क्षेत्र के नाकाबिल कप्तान हार के बावजूद दोषी नहीं होते है । कप्तान विराट कोहली ने शुरुआती पैतालिस मिनट के खेल को दोषी करार देकर दो दिन तक चले न्यूजीलैंड के मुकाबले में हार को महज इत्तेफाक कहकर खामोशी बरत ली और भारत के तमामलोगो ने मान लिया इससे बेहत भारतीय टीम हो नहीं सकती तो फिर 'वेलडन ब्याज' के आसरे जश्नमें कोई कमी रहनी नहीं चाहिये इसे भी दिखा दिया । सिवाय देश के मुख्य न्यायधिश के अलावे पीएम से लकर सीएम तक और कैबिनेट मंत्रियो से लेकर धराशायी विपक्ष के नेतओ ने भी सोशल मीडिया पर टीम इंडिया की हौसलाअफजाही करते हुये हार से कुछ इस तरह मुंह मोडा जैसे क्रिकेट के जश्न में कोई खलल पडनी नहीं चाहिये । आखिर बीसीसीआई दुनिया के सबसे ताकतवर खेल संगठन के तौर पर है । जिसका टर्नओवर बाकि नौ देशो के क्रिकेट संगठनो के कुल टर्नओवर से ज्यादा है तो फिर गम काहे का । और आईपीएल में तो सभी को कमाने-खाने भारत ही आना है । फिर भारत फाइनल में नहीं होगा तो लाड्स के फाइनल को देखने कौन पहुंचेगा । और विज्ञापन से कमाई भी थम जायेगी । टीवी राइंटस से भी आईसीसी की कमाई में पचास फिसदी तक की कमी आ जायगी । तो गम काहे का । और अब भारतीय क्रिक्रेट प्रेमी रविवार को लाडस का फाइनल देखने की जगह बिबलडन का फाइनल देखेगें जिसमें नडाल या फेडरर में से कोई तो पहुंचेगा ही । क्योकि शुक्रवार यानी 12 जलाई को सेमीफाइनल में यही दोनो टकरा रहे है । यानी टीवी पर विज्ञापनो का हुजुम क्रिकेट से निकल कर टेनिस में समा जायगा । क्योकि भारतीय कंजूयमर या कहे भारतीय बाजार क्रिकेट विश्व कप नहीं बल्कि विम्बलडन देख रहा होगा । तो पूंजी ,बाजार, जश्न ,जोश जब चरम पर हो और उसपर राष्ट्रवाद चस्पा हो तब क्रिकेट का मतलब सिर्फ खेल नहीं बल्कि देश को जीना होता है और देश कभी हारता नहीं । तो हार कर भी भारतीय टीम हारी नहीं है ये सोच जगाकर जरा सोचना शुरु किजिये आखिर हुआ क्या जो भारतीय टीम हार गई ।<br />
कही कप्तान की कप्तानी का अंदाज कुछ ऐसा तो नहीं हो चला था जहा वह जो करें वही ठीक । क्योकि पहले चालिस मीनट में रोहित और विजय के साथ विराट भी पैवेलियन वापस लट आये थे । और यही से शुरु होता है कि आखिर कप्तान का मतलब होता क्या है । और जीतने वाली न्यूजीलैंड टीम के कप्तान की पीठ हर कोई क्यो ठोंक रहा है । जबकि उसके दो धुरंधर गेदबाज बोल्ट और हेनरी ने कमाल किया । लेकिन विश्वकप के फाइनल मोड पर टीम के संयम और सटीक फिल्डिंग का जो अनुशासन न्यूलीलैंड के कप्तान विलिम्सन ने दिया वह अद्भूत था । लेकिन दूसरी तरफ तीन विकेट गिरने के बाद कार्तिक की जगह धोनी क्यों नहीं मैदान में उतारे गये कोई नहीं जानता । फिर रिषभ पंत पर भरोसा विश्वकप के बीच में क्यो जागा और भारतीय क्रकेट टीम के इतिहास में तीन विकेटकिपर टीम इलेवन में खेल रहे है ये भी अपनी तरह का नायाब दौर रहा । जडेजा को इंगेलैड के खिलाफ क्यों मैदान में नहीं थे । और शमी झटके में कैसे बाहर हो गये । कोई नहीं जानता । यानी चालिस मिनट में ढहढहायी टीम इडिया के कप्तान के पास प्लान बी क्या था । ये सबकुछ जानते हुये भी कोई नहीं जानता क्योकि हर किसी को याद होगा विश्वकप से पहले जब तमाम टीम आपसे में वार्म-अप मैच खेल रही थी तब भी न्यूजीलैंड के खिलाफ भारतीय टीम ऐसी ही ढहढहायी थी । कुला जमा 179 रन भारत ने बनाये थे और तब भी जडेजा ही एकमात्र खिलाडी थे जिन्होने पचास रन ठोंके थे । यानी न्यूलीजैड के तेवर को प्रेक्टिस मैच में भारत देख चुकी थी । और याद किजियेगा तो उस प्रेकटिस मैच में भी मौसम बिगडा हुआ था ।तब कोहली ने ' ओवरकास्ट ' यानी मौसम को दोष दिया था और उसके बाद कोहली ने टीम इलेवन को लेकर जो सोचा वह किया । और फिर कोच रवि शास्त्री की नियुक्ति तक पर जब कप्तान कोहली की चलने लगी हो तब मान लिजिये भारतीय क्रिकेट अपने अंहकार के चरम पर है । और हुआ यही है कप्तान की मनमर्जी या भारतीय क्रिकेट फैन्स का दीवानापन या बीसीसीआई की रईसी या फिर क्रिकेट को धर्म मानते हुये सचिन को भगवान मानने की पुरानी रीत के आगे अब क्रिकेट का जुनुन छद्म राष्ट्रवाद में समा चुका है । जिसे कई खोना नहीं चाहता है तो अठारह राज्यो के सीएम । देश के सोलह कैबिनेट मंत्री और विपक्ष में गांधी परिवार से लेकर क्षत्रपो की एक कतार भारतीय टीम का ढांढस इसलिये बंधाती है क्योकि उसे पता चल चुका है अब कप्तान के होने का मतलब क्या है । और खेल भावना सिर्फ कप्तान के साथ खडे होने में ही क्यों है । क्योकि लोकतंत्र की परिभाषा भी जब सत्तानुकुल हो चुकी होगी तो फिर कर्नाटक या गोवा में पाले बदलने से लेकर पाला बदलने से रोकने वालो को ही मुबंई के होटल के बाहर पुलिस गिर्फतार करने से चुके गी नहीं । यानी विकल्प हर किसी के पास कम हो चले है । राजनीति कहती है या तो सत्ता के साथ आ जाओ तमाम सुविधा मिलगी । नहीं आओगे तो जांच एंजेसी आपके दरवाजे पर खडी है । खेल कहता है , कप्तान के साथ खडे हो जाओ तो सभी खेलते रहगें । नहीं तो अंबाती रायडू की तरह सन्यास लेना पडेगा । और फैन्स कहते है , इंडिया , इंडिया । बाकि आप जो सोचते है उसका कोई मतलब नहीं है कि क्योकि देश मान चुका है भारत हारा नहीं है क्रिकेट हारा है । क्योकि बिना भारत विश्वकप क्रिकेट का क्या महत्व है । कोई देखने वाला ना होगा । कोई सट्टा लगाने वाला ना होगा । कोई विज्ञापन देने वाला ना होगा । तो क्रिकेट ने बाजार गंवाया और हम क्रिकेट में हार कर भी क्रिकेट के बाजार में सबसे ज्सयादा मुनाफा पाने वालो में है । Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-14945394063086394922019-07-04T12:33:00.003+05:302019-07-04T12:33:43.057+05:30किसानो की खुदकुशी रोकने वाले बजट का इंतजार....<br />
वाकई ये सवाल तो है कि जब देश की सियासत में किसान-किसान की आवाज सुनायी देती है । सत्ता परिवर्तन से लेकर सत्ता बचाने के लिये किसान राग देश में गाया जा रहा हो । आने वाल वक्त में किसानो के संघर्ष के आसरे ही व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद-आस समाजसेवी जगाने में ले हो तब कोई पूछ बैठे कि क्या , 2019 का आम बजट ये वादा कर पायेगा कि आने वाल वक्त में किसान खुदकुशी नहीं करेगा ? ये ऐसा सवाल है जिसे बजट के दायरे में देखा जाये या ना देखा जाये अर्थशास्त्री इसे लेकर बहस कर सकते है । लेकिन एक तरफ जब सरकार 2022-23 तक देश की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डालर तक पहुंचाने का वादा कर रही हो तब उसका आधार क्या होगा । कैसे होगा ये तो कोई भी पूछ सकता है । क्योकि दूनिया में भारत खेती पर टिके जनसंख्या को लेकर नंबर एक पर है । विश्व बैक की एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 44 फिसदी जनसंख्या खेती पर टिकी है । जबकि अमेरिका-बिट्रेन की सिर्फ एक फिसदी आबादी खेती से जुडी है । और एशिया में पाकस्तान के 42 फिसदी तो बांग्लादेश के 40 फिसदी और श्रीलंका के 26 फिसदी लोग खती स जुडे है । और भारत के इक्नामी इन सब से बेहतर है । लेकिन खुदकुशी करते किसानो की तादाद भी भारत में नंबर एक है । सिर्फ महाराष्ट्र में हर तीसरे घंटे एक किसान खुदकुशी कर लेता है [ चार साल में 12000 किसानो ने खुदकुशी की ] , तो देश में हर दूसरे घंटे एक किसान की खुदकुशी होती है ।और देश का अनूठा सच ये भी है कि भारत की जीडीपी में 48 फिसदी योगदान उसी ग्रामीण भारत का है जहा 75 फिसदी लोग खेती से जुडे है । तो फिर बजट से उम्मीद क्या की जाये । क्योकि 5 ट्रिलियन डालर इक्नामी के मतलब है उत्पादन की विकास दर 14.6 फिसदी हो जाये । कृर्षि विकास दर 10.1 फिसदी हो जाये । सर्विस क्षेत्र की विकास दर 13.7 फिसदी हो जाये । और जीडीपी की विकास दर 11.7 फिसदी हो । पर ये कैसे होगा कोई नहीं बताता । हालाकि किसान की आय 2022 तक दुगुनी हो जायेगी इसका राजनीतिक एलान पांच बरस पहले ही किया जा चुका है । लेकिन सच तो ये भी है किसान को फसल उगाने में जितने रकम खर्च होती है देश में एसएसपी उससे भी कम रहती है । मसलन हरियाणा को ही अगर आधार बना लें तो वहा प्रति क्विटल गेहू उगाने में किसान का खर्च होता है 2047 रुपया लेकिन एसएसपी है 1840 रुपये प्रतिक्विटल । एक क्विटल काटन उगाने में खर्च आता है 6280 रुपये लेकिन काटन का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी है 5450 रुपये । इसी तरह एक क्विटल मक्का को उगाने में खर्च आता है 2454 रुपये लेकिन एसएसपी है 1700 रुपये । और देश में किसानी का सच तो ये भ है कि 2002 से 2015 तक किसानो की आय में वृद्दि 3.7 फिसदी रही है । और 2014 से 2018 के बीच कृर्षि जीडीपी ग्रोथ 2.9 फिसदी रही । यानी किसान की आय की वृद्दि की रफ्तार जहतक 15 फिसदी के हिसाब से नहीं बढेगी तबतक दुगुनी आय कैसे होगी कोई नही जानता । फिर आलम तो ये भी है कि गन्ना किसानो का बकाया तक देने की स्थिति में सरार नहीं है । गन्ना मिल और राजनीति में शुगर लाबी की रईसी किसी से छुपी नहीं है । और सरकार भी उन्हे कितनी राहत कितनी सब्सीडी देती है ये सर्वव्यापी है, लेकिन यूपी में गन्ना किसानो का 10,183 करोड तो कर्नाटक में 1709 करोड और महाराष्ट्र में 1400 करोड रुपया बकाया है । और देश भर में गन्ना किसानो का बकाया 21000 करोड से ज्यादा का है ।<br />
तो बजट को कैसे परखा जाये ये सवाल तो हर जहन में होगा क्योकि देश में 5 करोड किसान बैक से कर्ज लेने पहुंचते है लेकिन कर्ज की रकम दस हजार पार नहीं करती कि उनके घर से बकरी-गाय तक उठाने बैककर्मी पहुंच जाते है । यहा तक की जमीन पर भी बैक कब्जा कर लेती है और बैक के बाहर किसानो की तस्वीर भी चस्पा कर दी जाती है । लेकिन इसी दौर में कोई कारपोरेट-उघोगपति या व्यापारी बैक से कर्ज लेकर ना लौटाने का खुला जिक्र कर ना सिर्फ बच जाता है बल्कि सरकार ही उसकी कर्ज ली हुई रकम अपने कंघो पर ढोने के लिये तैयार हो जाती है । आलम ये है कि बैको से क्ज लेकर ना लौटाने वालो की तादाद बरस दर बरस बढ रही है । 2014-15 में 5349 लोग थे तो 2016-17 में बढकर 6575 हो गये और ये बढते बढते 2018-19 में 8582 हो चुक है । और तो और मुद्रा लोन के तहत भी एनपीए बीते एक बरस में 68 फिसदी बढ गया । 9769 करोड से बढकर 16,480 करोड हो गया । तो क्या बजट सिर्फ रुपये के हेर फेर का खेल होगा । जिसमें कहा से रुपया आयेगा और कहा जायगा इसको लेकर ही बजट पेश कर दिया जायेगा । क्योकि अमेरिका की कतार में खडे होने की चाह लिये भारत ये भी नहीं देख पा रहा है कि जिस अमेरिका में सिर्फ एक फिसदी लोग किसानी से जडे है उनकी लिए भी 867 बिलियन डालर का विधेयक [ फर्म बिल 2019-28 ] लाया गया । जिसमें पोषण से लेकर बीमा और जमीन के संरक्षण से लेकर समुदायिक समर्थन तक का जिक्र है । <br />
ऐसा भी नहीं है कि सरकार की समझ अब किसानी छोड टेकनालाजी पर जा टिकी हो । तो बजट में उसका जिक्र होगा । सच तो ये है कि टाप 15 इंटरनेट कंपनिया 30 लाख करोड का वेलूय़न कर रही है और उनसे टैक्स वसूलने की हिम्मत सरकार कर नहीं पा रही है । गूगल ने ही 2015-16 में भारत में 6000 करोड का कारोबार बताया लेकिन बिसने वर्लड ने इस आंकडे को 4.29 लाख करोड बताया । अगले दो बरस में ई-कामर्स का बजट भारत में 200 बिलियन डालर हो जायेगा । लेकिन बजट बेफिक्र रहेगा और इस्ट इंडिया की गुलामी से उबर चुका भारत अब इंटरनेट कंपनियो की गुलामी के लिये तैयार है । और आखरी सच तो देश का यही है कि जिस महाराष्ट्र में बारिश ने कहर बरपा दिया । मुबंई पानी पानी हो गई । फ्लाइट रुक गई । रेलगाडी थम गई । सत्ता का गलियारी बारिश में तैरता दिखा . बिजली के करंट और दीवार गिरने से 50 से ज्यादा मौत हो गई उस मुबई के मेयर ये कहने से नहीं चुकते कि मुबई में पीने का पानी खत्म हो चला है । मराठवाडा-विदर्भ में भी पानी नहीं है । तो फिर किसानो की खुदकुशी का जिक्र किये बगैर कैसे किसानो का हित साधने वाला बजट आने वाला है इसका इंतजार आप भी किजिये...हम भी करते है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-34961963022189983762019-06-07T18:56:00.001+05:302019-06-07T19:12:33.263+05:30द ग्रेट मोदी<br />
हर चालिस मिनट मे एक किसान खुदकुशी करता रहा । लेकिन किसानो ने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । खेतो से जुडे मजदूरो की खुदकुशी हर घंटे होती रही । लकिन उसने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । बेरोजगारी के आंकडे हर दिन बढते रहे लेकिन बेरोजगार युवाओ ने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । दिल्ली, मुबंई, बेगलुरु सरीखे एजुकेशन हब में उच्च शिक्षा और रिसर्च स्कालर के सामने इन्फ्रस्ट्रक्चर का संकट गहराता चला गया लेकिन वोट नरेन्द्र मोदी के ही नाम पर पडे । बस्तर, पलामू,बुदेलखंड सरीखे इलाको से दो जून की रोटी के लिये गांव वालो का पलायन बढता चला गया , लेकिन इन इलाको में रहने वाले अपने तमाम मुश्किल हालात को भूल कर वोट नरेन्द्र मोदी को ही दे आये । दलितो का उत्पीडन बढा । सडक से लेकर यूनिवर्सिटी तक में दलित निशाने पर आया लेकिन उसने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । मुस्लिम समाज झटके में संसदीय चुनावी राजनीति में महत्वहीन हो या लेकिन उसने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । नोटबंदी हुई तो 45 करोड लोगो को समेटे असंगठित क्षेत्र में अव्यवस्था रेगने लगी और रोजगार से लेकर सरोकार की इक्नामी भी डांवाडोल हो गई । लेकिन चुनाव के वक्त अपनी मुश्किलो से पल्ला झाड कर वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । जीएसटी से छोटे व्यापारियो की कमर टूट गई । बडे व्यापारी किसी तरह अपनी जमा-पूंजी से व्यापार संभाले रहे । लेकिन चुनाव आया तो सभी ने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । बैकिंग सेक्टर से जुडे देशभर के बैककर्मी परेशान रहे लेकिन चुनाव के वक्त सभी ने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिया । बरस दर बरस बैकिंग फ्राड की तादाद और करोडो के वारे न्यारे होते रहे लेकिन बैको में अपने धन को जमा करने वाली जनता पर इसका असर पडा नहीं और उसने वोट नरेन्द्र मोदी को ही दिये । 2014 से 2018 तक महीने दर महीने योजनाओ के आसरे बदलते भारत की तस्वीर दिखाने बताने की पहल जमीन पर बेहद कमजोर रही लेकिन योजनाओ के एलान में गुम देश ने वोट नरेन्द्र मोदी के ही नाम किया । और कैसे 2014 की तुलना में 2019 में नरेन्द्र मोदी एक ऐसे स्टेट्समैन के तौर पर उभरे की तमाम मुश्किल हालात जो उन्ही के पांच बरस के पहले कार्यकाल [ 2014-18 ] में उभरी वह सब चुनाव के वक्त बेमानी हो गये और नरेन्द्र मोदी कभी ना हारने वाले नेता के तौर पर देश-दुनिया के सामने उभर कर आ गये । जिसके बाद भारत को रश्क हो चला है कि ऐसा नेता देश को पहले मिला होता तो भारत की वह गत ना होती जो 2014 से पहले देश की थी । ये सारे तथ्य इसलिये महत्वपर्ण हो चले है क्योकि जनता पार्टी की सरकार से लेकर मनमोहन की सरकार तक के दौर में यानी बीते 40 बरस के चुनावी दौर में हर वह प्रधानमंत्री हारा जिसकी योजनाओ ने देश से ज्यादा सत्ताधारियो का ही कल्याण किया । और पांच बरस पहले की कहानी याद करेगें तो 2014 में काग्रेस की घपले-धोटालो की सत्ता , क्रोनी कैपटलिज्म के मिजाज से तंग जनता ने काग्रेस को जमीन से ही उघाड दिया । नरेन्द्र मोदी पारंपरिक काग्रेसी सत्ता के खिलाफ जनता के आक्रोष को अपने भीतर समेट कर उम्मीद और भरोसे की पहचान लेकर उभरे । और जीत का सेहरा बांध कर नरेन्द्र मोदी ने हर उस लकीर के सामानातंर एक ऐसी बडा लकीर खिंचनी शुरु की जो समाज के भीतर के अंतर्विरोधो को उभार दे या फिर उस सच को सामने ला दें जिसे अभी तक पर्दे के पीछे से खेला जाता था । ये एक ऐसी लकीर रही जिसने समाज के भीतर अलग अलग जाति-धर्म-समुदायो के समाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधो के जरीये सियासी बिसात पर हर किसी को ये कहकर प्यादा बनाया कि उन्हे पारंपरिक सोच त्याग कर या तो सत्ता के साथ खडा होना होगा या फिर सत्ता जिस नये भारत को गढेगी उसमें उन्हे खुद ही अपनी जिन्दगी जीने की जरुरते दिखायी देने लगेगी । यानी मुद्दो के आसरे सियासत की सोच या फिर सत्ता के पांच बरस के कार्यकाल तले सफलता-असफलता की राजनीति नये दौर में किस्सो-कहानियों में तब्दिल हो गई और पारंपरिक राजनीति को संभाले सियासी पार्टियो या नेता समझ ही नहीं पाये कि भारत तो अपने अंतर्विरोध तले ही दब चुका है । और सत्ता की सोच नागरिको के घरो में घुस कर खुले तौर पर ये एलान करने लगी कि आपके जीने के तरीके । जायके का लुत्फ । समाज को देखने समझने का नजरिया । या तक ही भारत को चकाचौंध में समाने से पहले अपनी जडो को देखना समझना होगा । और ये नजरिया चाहे कारपोरेट की पीठ पर सवार हो कर किसान-मजदूर-गरीब गुरबो का मुखौटा हो लेकिन सही उसे ही मानना होगा । क्योकि अंतर्विरोध में तो गरीबी हटाओ का इंदिरा का नारा भी फरेब था और 1991 में आर्थिक सुधार के जरीये भारत को बाजार में तब्दिल करने की समझ भी धोखा थी । यानी 70 बरस के दौर में तमाम हालातो को जीते हुये जब आपको हमको या फिर देश के बहुसंख्यक तबके को राहत मिली ही नहीं तो फिर कोई शख्स अगर अपनी सत्ता तले सबकुछ बदलने पर आमादा हो जाये तो आपको अच्छा लगेगा ही । क्योकि परिवर्तन हो रहा है ये सोच कर ही जिन्जगी तो बदलने लगती है । और वजह भी यही है कि वोटो के गणित का सवाल जो भारतीय संसदीय राजनीति को हमेशा से हांकता रहा उसे ही 2019 के एक ऐसे जनादेश ने बदल दिया जिसे कोई देख नहीं पा रहा था । 2014-18 के दौर में जिन मुद्दो ने देश को परेशान किया वही मुद्दे चुनावी दौर में परेसानी करने वाले मोदी सत्ता को इनाम देने की स्थिति में आ गये । बहस होती रही कि गार्मिण भारत के हालात नाजुक है । किसान परेशान है । लेकिन जब 2019 का जनादेश आया तो पता चला कि 2014 में तो ग्रमिण भारत ने 30.3 फिसदी वोट बीजेपी को दिया था । जिसके नेता नरेन्द्र मोदी थी । पर 2019 में बोजेपी को अपने भीतर समा चुके नरेन्द्र मोदी की महाअगुवाई वाली बीजेपी को 37.6 फिसदी वोट ग्रामिण भारत से ही मिल गये । यानी पांच बरस बाद 7.3 फिसदी के वोट का इजाफा मोदी की लोकप्रियता तले हो गया । ये लोकप्रियता ना तो नोटबंदी से कम हुई ना ही जीएसटी से । क्योकि शहरो में भी 1.9 फिसदी वोट का इजाफा मोदी के लिये हो गया । 2014 में जहा 39.2 फिसदी वोट बीजेपी को मिले थे वहीं 2019 में ये बढकर 41,1 फिसदी हो गया । और जो ग्रामिण-शहरी मिजाज के बीज अर्द्द शहरी इलाके है वहा 2014 की तुलना में 2.3 फिसदी की बढोतरी 2019 में हो गई । 2014 में सेमी अर्बन इलाको में बीजेपी को 29.6 फिसदी वोट मिले थे तो 2019 में ये बढकर 32.9 फिसदी हो गये । और ध्याद दें तो बेहद बारिकी से जो नैरेटिव मोदी ने देश के सामने रखा उसमें जाति धर्म का पारंपरिक राजनीति सिरे से गायब थी । और जो परोसा गया उसके दो ही मायने रहे , स्थितियां या तो गरीब-अमीर की होती है या फिर उस इक्नामिक माडल की जिसमें मुनाफा ही हर किसी को चाहिये । यानी मुनाफा संवैधानिक संस्धानो को भी ढहा सकता है । लोकतंत्र को जीने के तरीके में भी बदलाव ला सकता है । क्योकि बीते पांच बरस के दौर में मीडिया की भूमिका अगर खुले तौर पर सत्ता से मिलने वाले मुनाफे पर जा टिकी तो हर्ज ही क्या है । आखिर मीडिया हाउस का जन्म तो पूंजी लगाकर पूंजी बनाना ही है । और अभी तक मुनाफे के रास्ते पत्रकारिता के मानदंडो पर टिके थे या फिर साख पर । तो सत्ता ने साख की परिभाषा और पत्रकारिय मानदंडो को ही बदल दिया और मुनाफा भी भरपूर दे दिया तो हर्ज क्या है । फिर देश के तमाम संवैधानिक-स्वयत्त संस्थानो को लेकर पारंपरिक बहस तो हमेशा से यही रही कि नौकरशाह भ्रष्ट्र होते है और सत्ता किसी की भी रहे भ्रष्ट्र कमाई के लिये सत्तानुकुल होकर काम करते है । यानी संवैधानिक संस्थानो के अंतर्विरोधो को जनता ने लगातार देखा समझा तो फिर संवैधानिक संस्थानो के स्वयत्त होने की परिभाषा ही अगर मोदी सत्ता ने बदल दी तो उसमें हर्ज ही क्या है । कल तक नौकरशाही के पास सत्ता से सौदेबाजी के पैतरे थे अब नौकरशाही को सत्ता के इशारे पर चलना है अन्यथा हाशिये पर चले जाना है । और इस कतार में सीबीआई, ईडी, सीवीसी ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग भी आ गये तो क्या फर्क पडता है । यू भी सुप्रीम कोर्ट के सरोकार आम जनता से कहा जुडे है और न्यायपालिका से न्याय लेना कितना मंहगा हो गया है ये जिले स्तर की कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक के हालात से समझा जा सकता है । और हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के बाहर लंबी लंबी गाडियो की कतार साफ बतलाती है कि रईसी कैसे न्यायपालिका में समा गई है । और चुनाव आयोग में एक वक्त मुख्यआयुक्त चावला भी तो काग्रेस को चुनावी तारिखो की जानकारी देने के आरोपो से घिर चुके है तो फिर अब सुनील अरोडा पर अगर सत्ता के लिये ही काम करने के आरोप लग रहे है तो इसमें गलत क्या है । और इस कतार में सबसे बडा सच तो जातियो के दूटने का है । गरीबो को इस एहसास में जीने का है कि आखिर सारा संघर्ष तो दो जून की रोटी का ही है । और 2014-18 के दौर में ये कमाल हुआ तो 2019 के जनादेश का मिजाज ही पहली बार बदल गया । 2014 में जिस गरीब के 24 फिसदी वोट बीजेपी को मिले थे । वह 2019 में मोदी के लिये बढकर 36 फिसदी हो गये । जो निम्न यानी लोअर तबका हो उसके वोट में भी 5 फिसदी की बढोतरी हो गई । 2014 में 31 तो 2019 में मोदी के नाम पर ये बढकर 36 फिसदी हो गये । फिर मद्यम वर्ग जिसकी उम्मीदे हर सत्ता से बहुत कुछ चाहती भी है और वोट के लिये सत्ता के तमाम नये सामाजिक-आर्थिक प्रयोग से सबसे ज्यादा वह प्रभावित भी होती है उसके वोटो में भी 6 फिसदी की बढतरी बीजेपी के लिये हो गई । 2014 में मध्यम वर्ग ने 32 फिसदी वोट बीजेपी को दिये थे तो 2019 में 38 फिसदी मोदी के नाम पर दिये । और जो अपर मिडिल क्लास यानी संघर्ष करते हुये सुविधाओ को भोगने वाले तबके का रुझान भी मोदी के खासा बढ गया । 2014 में उसने बीजेपी को 38 फिसदी वोट किये थे तो 2019 में मोदी के नाम पर 44 फिसदी ने वोट किये । यानी पहली बार गजब का बदलाब संसदीय राजनीति में ही नहीं बल्कि चुनावी मिजाज में भी आ गया और पहली बार सवाल ये भी उठा कि क्या बीजे 70 बरस के दौर को राजनीतिक सत्ता के जरीय भगते भोगते जनता उब चुकी थी और अब उसे राजनीति से नेताओ से घृणा हो चुकी थी तो उसने अपने ही कटघरे को तोड दिया और तमाम राजनतिक दलो को सीख दे दी कि अब और नहीं । क्योकि 2019 के जनादेश की नब्ज को पकडियेगा तो चौकाने वाले सामाजिक समीकरण नजर आयेगें । क्योकि किसानो ने 2014 में आय दुगुनी होने के वादे तले बीजेपी को 33 फिसदी वोट किये । लेकिन आय दुगुनी होना असंभव सा है ज ये किसानो को लगने लगा तब 2019 में किसानो ने 38 फिसदी वोट मोदी को किये । यानी किसानो ने 6 फिसदी ज्यादा वोट 2014 की तुलना में मोदी को दे दिये । दलितो के भीतर मायावती से लेकर तमाम दलित राजनीति करने वालो को लेकर कुछ सवाल हमेशा से थे तो 2014 में मोदी के दलित उत्पीडन बंद करने को लेकर जो आवाज आई उसमें दलतो ने 24 फिसदी वोट बीजेपी को किये । लेकिन उसके बाद दलितो पर उत्पीडन जिस तरह बढे और राजनीतिक सवाल मुद्दो की शक्ल मे जन्म लेने लगे तो 2019 में दलितो ने ही 33 फिसदी वोट मोदी के पक्ष में कर दिये । यानी 2014 की तुलना में2019 में दलितो के 9 फिसदी ज्यादा वोट बीजेपी को मिले । आदिवासी इलाको में संघ के आधिवासी कल्याण संघ का कामकाज आसर लाया तो 2014 की तुलना में 2019 में 6 फिसदी वोट ज्यादा बीजेपी को मिले । फिर ओबीसी या अन्य पिछडे वर्ग के भीतर जो सवाल 2014-18 के बीच हर योजना और नोटबंदी-जीएसटी को लेकर थे वह सब 2019 के जनादेश में काफूर हो गये । आलम ये हो गया कि निचले स्तर पर ओबीसी यानी लोअर ओबीसी वर्ग ने 2014 में बीजेपी को 42 फिसदी वोट दिये थे । तो उसके बाद बीजेपी अध्यक्ष ने जिस तरह देश को बताया कि प्रधानमंत्री मोदी ओबीसी है तो 2019 में लोअर ओबीसी के 48 फिसदी वोट मोदी को मिल गये । यानी 6 फिसदी वोट का इजाफा हो गया । लेकिन उससे भी बडी छलांग ओबीसी के उपरी तबके में लगी । जहा 2014 में सिर्फ 30 फिसदी वोट बीजेपी के हिस्से में आया था वहा 11 फिसदी की छलांग लगी और 2019 में 41 फिसदी अपर ओबीसी का वोट मोदी के हक में चला गया । और संभवत अखिलेश यादव को सबसे बडी झटका इसीलिये लगा कि जनादेश के बाद जो नैरेटिव उभरा उसमें यादव भी बंट गये । ना तो बिहार में आरजेडी और ना ही यूपी में सपा को एकमुश्त यादव वोट मिला । हालाकि ये सवाल अनसुळझा सा रहा कि जनादेश से पहले जाति-धर्म और गठबंधन को लेकर जो जिक्र सीएएसडीएस से लेकर समाम एक्जिट पोल वाले ये फिर मीडिया के धुरधंर पत्रकार कर रहे थे उनकी फिसाल्फी या उनका आंकलन जनादेश के बाद बदल कैसे गया । या फिर ये मान लया जाये कि अब समाजिक-आर्थिक-राजनीतिक आकंलन के भरोसे जनादेश नहीं आता बल्कि जनादेश के अनुकुल आंकलन करना होगा । ये सवाल सबसे महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक यानी मुस्लिम समुदाय को लेकर भी है । 2014 में काग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण निशाने पर थी । और मोदी उम्मीद का हिमालय संजोय सत्ता के लिये संघर्ष कर रहे थे तो 2014 में मुस्लिम के 9 फिसदी वोट बीजेपी के हक में गये जो खासी बडी बात थी । लेकिन 2014 से 2018 के बीच तीन तलाक के सवाल को एक तरफ मोदी ने अपनी सफलता की कुंजी माना तो दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय को जिस तरह बीजेपी संघ से बार बार संदेश सीधा गया कि वह खुद को मुसलिम ना मान कर देश के नागरिक या गरीबी से निजात पाने के सवाल तले रखे और फिर जिस तरह कड्डर हिन्दुवादियो के निशाने पर मु्सलिम आये उसमें विपक्ष ने माना कि अब तो मु्सिलम खामोश हो गया है और जनादेश के दौर में वह मोदी को हराने क लिये ही एकमुश्त उभरेगा . लेकिन जनादेश के आंकडे बताते है कि 2019 में भी 8 फिसदी मु्सिलमो ने मोदी को वोट दिया । यानी 2014 से 2019 की तुलना करते हुये सिर्फ मु्सिलम ही वह तबका है जिसने बीजेपी को दिये अपने वोट में महज एक फिसदी की कमी की । लेकिन वोट दिया । तो क्या सबका साथ सबका विकास का जादू काम कर रहा था । या फिर राजनीतिक पंडितो को ये समझ बी नहीं आ रहा था की देश इतना बदल चुका है कि उसे अब जाति धर्म में बांटा नहीं जा सकता है । हालाकि इस कडी में सबसे ज्यादा वोट मोद के पक्ष में उंची जतियो के पडे । जिसमें 7 फिसदी की बढोतरी हो गई । 2014 में जहा उंची जातियो के 54 फिसदी वोट बीजेपी को मिले थे वहीं 2019 में उंची जातियो के 61 फिसदी वोट मोदी के पक्ष में पडे । तो जनादेश की नब्ज जब ये बता रही है कि जातियों के खुद के बंधन को तोड दिया है । धर्म मायने नहीं रखता । मुद्दे बेमानी है । जिन्दगी जीने के दौरान संघर्ष या फिर उच्च शिक्षा के बाद भी समाज अब बराबरी की दिशा में जा रहा है , जहा बहुत पढा लिखा होना मायने नहीं रहता । बहुत पूंजी समेट रईसी या फिर रईसी और दंबगई के सहारे नेतागिरी करने की सोच भी अब गले में भगवा गमछा लपेटे गरीब गुरबो को ज्यादा अधिकार राहत देन पर उतारु है । कानून व्यवस्था का राज भी सत्ता के अनुकुल कार्य करने पर उतारु है क्योकि देश को मजबूत नेता पहले चाहिये संविधान या लोकतंत्र बाद में । और अब हमारे पास सबसे मजबूत नेता है । लोकतंत्र की ताकत समेटे सबसे शानदार मंत्रिमंडल है । और इस आभामंडल को बताते हुये देश को सही रास्ते पर लाने के लिये मीडिया संस्थानो में होड है । हर कोई कह रहा है , ' द ग्रेट मोदी ' । तो फिर आईये मिल कर गाये...वन्दे मातरम् । क्योक स्वतंत्रता का मंत्र, वंदे मातरम् ही था जो राष्ट्रगीत बना ...जो जल्द ही राष्ट्रगान बन सकता है... वन्दे मातरम्! / सुजलाम, सुफलाम् मलयज-शीतलाम् / शस्यश्यामलाम् मातरम् / वन्दे मातरम् / शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम् / फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् / सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम् / सुखदाम्, वरदाम्, मातरम्! / वन्दे मातरम् / वन्दे मातरम् .....Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com26tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-38204937472321535442019-06-01T12:39:00.001+05:302019-06-01T12:39:09.805+05:30रायसीना हिल्स पर बिछी रेड कारपेट पर सियासी जायका....<br />
राष्ट्रपति भवन की चकाचौंध । भव्यता से सराबोर शपथग्रहण । 48 घंटे में बनी रायसीना दाल का जायका लेता । अमित शाह का गृहमंत्री बनना । निर्माला सीतारमण का वित्त मंत्री बनना । बरोजगारी दर शहरो में सात फिसदी पार कर जाना । देश में बोरजगारी दल का संकट आजादी के बाद से सबसे ज्यादा गहरा जाना । विकास दर छह फिसदी से भी नीचे आ जाना । बजट से पहले पहली ही कैबनेट में 60 हजार करोड रुपया किसान-मजदूरो को देने का एलान कर देना । उत्पादन है नहीं । रुपया कहा इन्वेस्ट करें कुछ पता नहीं । तो सत्ता जीती है , विचारधारानहीं । तो सत्ता दूबाराज्यादा मजबूती से पाई है , इक्नामी कहीं ज्यादा कमजोर हुई है । राजनीतिक दलो से गठबंधन मजबूत हुआ है लेकिन समाज के भीतर दरारें साफ दिखायी देने लगी है । लेकिन अब कुछ भी चौकाता नहीं है क्योकि जनादेश तले ही अब देश की व्याख्या की जा रही है । जनादेश कह रहा है मुस्लिम-दलित-ओबीसी को भी मोदी सरीखा नेता मिल गया है तो फिर मंडल टूट चुका है । जाति गंठबंधन टूट चुका है । धर्म की लकीरे मिट चुकी है और देश में सिर्फ अब अमीर-गरीब नामक दो प्रजातिया ही बची है । जिनकी दूरियां पाटने के लिये देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी जान लगा चुके है । वाकई अब कोई भी तथ्य नहीं चौकाता । समझना वाकई मुश्किल हो चुका है कि जनादेश की व्याख्या करने वाले जनादेश से 48 घंटे पहले तक भारत में जातियों-समुदायो क राजनीति तले जनादेश क्यो देख रहे थे । और जनादेश आने के 100 घंटे बाद मंत्रिमंडल की जो तस्वीर उभरी उसमें जातिय-सामाजिक समीकरण क्यो देख गये । यूपी में ब्राहमण की जरुरत तले महेन्द्र नाथ पांडेय । तो हरियाणा में गैर जाट सासंद कृष्णपाल गुर्जर का मंत्री बनना । तो झारखंड में गैर आदिवासी सीएम है तो आधिवासी सांसद अर्जुन मुंडा को मंत्री बना देना । उमा भारती चुनाव मैदान से बाहर हो गई तो उनी एवज में प्रहालद पटेल को मंत्री बनाकर लोध समाज से तालमेल बैठाये रखना । उत्तराखंड में राजपूत सीएम है तो पोरियाल को लाकर ब्राहणण को साधना । राज्थान में शेखावत के जरीये जातिय समीकरण साधना । तो फिर जनादेश के पैमाने या उसी की व्याख्या तले मंत्रीमंडल भी क्यों नहीं बनाया गया । अब कुछ भी नहीं चौकाता है क्योकि एक तरफ मेनका गांधी , जंयत सिन्हा और अनंत हेगडे के जरीये मुस्लिम पर निशाना साधने वालो को या फिर लिचिग करने वालो को माला पहना कर स्वागत करने वाले को या संविधान पर अंगुली उठाने की बात कहने वाले को मंत्रिमंडल में ना लेकर अपनी सहिष्णुता और सादगी नरेन्द्र मोदी दिखाते है लेकिन गिरिराज सिंह , संजीव बालियान और ज्योति निरंजन साध्वी को मंत्रीमंडल मेंलेकर क्या संदेश देते है ये भी अब चौकाता नहीं है । अब तो ये भी नहीं चौकाता है कि बीते पांच बरस में कांल ड्राप के संकट से निजात ना दिला पाने वाले दुबारा उसी मंत्रालय को संभाल रहे है । ट्रेन की रफ्तार द्यादा तो नहीं लेकिन ट्रेन वक्त पर चला सके इसमेंअसफल रहने वाले वहीं विभाग संभालने जा रहे है । पांच बरस में देश को नई शिक्षा नीति तब नहीं मिल पायी जो 100 दिन में लाने के वादे क साथ 2014 में सत्ता में आयी थी । तो फिर शिक्षा मंत्रालय से निकले मंत्रियो को दूसरा विभाग सौप कर कौन सा तीर मारा गया । वाकई अब कुछ भी चौकाता । हां, य जरुर चौका गया कि किसानो की आय दुगुना करने का वादा करने वाले पीएम ने इस बार किसानो से कोई वायदा नहीं किया लेकिन पुराने कृर्षि मंत्री राधामोहन सिंह की जगह नरेन्द्र सिंह तोमर को कृर्षि मंत्री बना दिया । खेल मंत्रालय भी एक ओलपिंयन खिलाडी से लेकर पूर्वी भारत के रिजूजू के युवा होने को महत्वपूर्ण बना दिया । ये समझने की बात है कि मंत्रियो की फौज कितनी भी बडी हो चंद दिनो में ही आप भूल जायेगं कि कौन सा मंत्री किस विभाग को संभाले हुये है । ठीक वैसे ही जैसे आपको याद नहीं होगा कि 2014-19 के बीच देश का प्रयावरण मंत्री कौन था । और इस बार पार्यावरण मंत्री कौन है । ना तो हर्षवर्धन को तब काम था ना ही अब बाबुल सुप्रीयो को कोई काम होगा । जो कि नये पर्यावरण , जंगल ,क्लाइमेट चेंज वाले मंत्रालय को संभाल रह है । वैसे ये सवाल अमित शाह, निर्माला सीतारमण ,राजनाथ को लेकर भी हो सकता है कि आखिर इनकी मौजूदगी का मतलब होगा क्या । तो साफ है अमित शाह की दबंग छवि अब सिटिजन कानून से लेकर धारा 370 और 35 ए पर चोट करेगी तो कोई सवाल उठा तो अमित शाह के माथे पर । पर सफल हुये तो मोदी का प्रयोग लाजवाब है । निर्माला सीतारमण भी कैसे वित्त मंत्रालय संभालेगी । जबकि ये हर कोई जानता है कि वह फाइनेंस उतना ही समझती है जितनी समझ बाबूल सुप्रियो को पर्यावरण को लेकर है । तो डूबती इक्नामी को ना संभाल पाने का दाग निर्माला को खामोशी को ये जानते समझते हुये लेना होगा कि जैसे ही जनादेश आया था उसके तुरंत बाद रिजर्व बैक के गवर्नर ने तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली को इकनामी ही नही बैकिंग सर्विस का हाल भी बता दिया था । जिसके बाद जेटली को भी लगा अब बीमार इकानामी तले खुद को ज्यादा बीमार करने का कोई मतलब है नहीं । फिर जेटली के करीबी आर्थिक सलाहकार सुब्रहमण्यम भी जिस नोट पर सरकार का साथ छेड कर निकल गये थे , वह भी किसी से छुपा नहीं है । और राजनाथ सिंह के रक्षा मंत्रालय में आने का मतलब सिर्फ रफायल का सौदा भर नहीं है बल्कि आने वाले वक्त में तमाम डिफेन्स डील को लेकर जो बात राजनाथ कह पायेगें वह कोई दूसरा मंत्री कह नहीं पाता । यानी पीएम मोदी के लिये ये तीनो ढाल भी है । हथियार भी है । और कुछ भी नहीं के बाराबर भी है । क्योकि पीएमओ से तीनो मंत्रालय चलेगें ये किसी से छुपा नहीं है और तीनो खामोशी से पीएमओ के नौकरशाहो को देखेगे जिन्हें अब मंत्री स्तर की मान्यता सुविधा सबकुछ दिया जा चुका है । तो फिर चौकाता तो कुछ भी नहीं है । हां पहली बार रायसीना दाल ने जरुर चौकाया । 48 घंटे में धीमी आंच पर बनने वाली रायसीना दाल जब रायसीना हिल्स पर बने राष्ट्रपति भवन में शपथ समारोह के बाद परोसी गई तो जायका वाकई अद्भूत रहा होगा । कयोकि जिस तरह हिन्दुत्व की पोटली उठाकर देशभक्ति और राष्ट्रवाद के राग तले पीएम मोदी ने देश के हर जरुरी मुद्दे को ही चुनाव के वक्त दफ्त करा दिया और हर वोटर बोल पडा पहले देश बाद में गरीबी-मुफलिसी-बेरोजगारी-खुदकुशी-लिचिंग-अपराध संवैधानिक संस्था-सुप्रीम कोर्ट-सीबीआई-चुनाव आयोग तो लगा ऐसा कि देश वाकई बदल चुका है । और रौशनी से जगमग राष्ट्रपति भवन की लाल बदरी पर बीछे लाल कारपेट पर खडे -बैठे संघ के स्वयसेवको की कतार के सामानातार कारपोरेट के कतार । बालीवुड के चमकते चेहरो के बीच भगवा ओढे संतो का चमकदार मुख । मोदी-मोदी नारे और बीच बीच में सीटी बजाते राक्यत्ताओ की कतार के बीच आईएएस-आईपीएस का तमगा लिये नौकरशाहो के चेहरे की मुस्कान । पीएम के सामने झुके झके से राष्ट्रपति और सासंदो की करिष्माई मोदी से मिलने की होड । देश के आमंत्रित 8 हजार लोगो के इस समूह में शायद ही कोई ऐसा रहा होगा जो खुद में मोदी या मोदी के सबसे करीब होने का गुमान पाल कर वहा से ना निकला हो । इस दृश्य ने चाहे अनचाहे नागार्जुन की कविता की याद दिला दी जो इंदिरा पर लिखी गई थी । तब रानी थी आज कोई राजा है । तब प्रजातंत्र पर सवाल थे अब लोकतंत्र पर सवाल है । पर कवि नागाजुर्न की प्किताया अद्बूत है चाह तो रायसीना हिन्स पर अब भी फिट बैठ सकती है....आओ रानी , हम ढोयेगें पालकी/ यही हुई है राय जवाहर लाल की / रफू करेगें फटे पुराने जाल की / भऊखी भारत-माता के सूखे हाथो को चूम लो / प्रेसिडेन्ट की लंच हिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो / पद्म-भूषणों, भारत-रत्नो से उनके उद्दार लो / पालियामेंट के प्रतिनिधियो से आदर लों, सत्कार लो / मिनिस्टरो से शेकहैण्ड लो, जनता से जयकार लों / जांये-बांये खडे हजारी आफिसरो से प्यार लो / धनकुबेर उत्सुक दिखेंगे , उनको जरा दुलार लो / होठों को कंपित कर लो, रह रह कर कनखी मार लो / बिजली की यह दीपमलिका फिर-फिर इसे निहार लो / ये तो नयी -नयी दिल्ली है , दिल से इसे उतार लो / आओ रानी , हम ढोयेगे पालकी .......Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com41tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-70421572871632255032019-05-30T10:31:00.000+05:302019-05-30T10:31:28.454+05:30राहुल गांधी की कांग्रेस कैसी होगी .....काग्रेस में सन्नाटा है । सन्नाटे की वजह हार नहीं है । बल्कि हार ने उस कवच को उघाड दिया है जिस कवच तले अभी तक बडे बडे काग्रेसी सूरमा छिपे हुये थे । और अपने बच्चो के लिये काग्रेस की पहचान और काग्रेस से मिली अपनी पहचान को ही इन्वेस्ट कर जीत पाते रहे । पहली बार इन कद्दावरो के चेहरे पर शिकन दिखायी देने लगी है कि क्योकि उनका राजा भी चुनाव हार गया । और बिना राजा कोटरी कैसी । चापलूसी कैसी । कद किसका । और बिना कद कार्यकत्ताओ की फौज भी नहीं । मान्यता भी नहीं । और चाहे अनचाहे काग्रेसी राजा यानी राहुल गांधी ने उस सच को अपने इस्तीफे की धमकी से उभार दिया जिसे सुविधाओ से लैस काग्रेसी राहुल गांधी की घेराबंदी कर अपनी दुकान को अरामपस्ती से अभी तक चलाते रहे । काग्रेस खत्म हो नहीं सकती इसे तो नरेन्द्र मोदी भी जानते है और रईस काग्रेसियो का झुंड भी जानता समझता है । क्योकि काग्रेसी की पहल किसी राजनीतिक दल की तर्ज पर कभी हुई ही नहीं । उसे शुरुआती दौर में आाजादी के संघर्ष से जोड कर देखा गया तो बाद में व्यक्तितव का खेल बन गया । गांधी परिवार से जो जो निकला , उसका जादूई व्यक्तित्व जब जब जनता को अछ्छा लगा उसने काग्रेस के हाथो सत्ता सौप दी । नेहरु, इंदिरा, राजीव की राजनीतिक पारी में मुद्दो का उभारना और व्यक्तित्व का जादुई रुप ही छाया रहा । लेकिन सोनिया गांधी के दौर में विपक्ष के अंधेरे ने काग्रेस को सत्ता दिला दी । और राहुल गांधी के वक्त गांधी परिवार के व्यक्तितव की चमक को अपने नायाब नैरेटिव या कहे मुद्दो के काकटेल तले कही ज्यादा चमक रखने वाले मोदी उभर आये । लेकिन काग्रेस की व्याख्या या काग्रेस का परिक्षण का ये आसान तरीका है । दरअसल काग्रेस की यात्रा या कहे नेहरुकाल से भारत को गढने का जो प्रयास गवर्नेंस के तौर पर हुआ उसमें गांव या कहे पंचायत से लेकर महानगर या संसद तक काग्रेसी सोच बिना पार्टी संगठन के भी पलती बढती गई । सीधे समझे तो जिस तरह पन्ना प्रमुख से लेकर संगठन महासचिव के जरीय बीजेपी ने खुद को राजनीतिक दल के तौर पर गढा उसके ठीक उलट देश की नौकरशाही [बीडीओ से आईएएस़] , देश में विकास का इन्फ्रस्ट्क्चर , औघोगिक और हरित क्रातिं या फिर सूचना के अधिकार से लेकर मनरेगा तक की पहल को काग्रेसी सोच तले देखा परखा गया । यानी काग्रेसी कार्यकत्ताओ ने या फिर काग्रेसी संगठन ने जो भी काम किया वह काग्रेसी सत्ता से निकली निकली नीति या देश में लागू किये गये निर्णयो की कारपेट पर ही चलना सीखा । और सत्ता के मुद्दे के साथ गांधी परिवार के व्यक्तित्व से नहायी काग्रेस को इसका लाभ मिलता चला गया । जबकि इसके ठीक उलट ना तो जनता पार्टी की सरकार में ना ही वाजपेयी की सत्ता के दौर में कोई ऐसा निर्णय लिया गया जिसे कभी जनसंध या फिर बीजेपी को लाभ मिलता । बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद पहली बार मोदी कार्यकाल में ही नये तरीके से सत्ता के नैरेटिव को इतनी मजबूती से बनते देखा कि बीजेपी का संगठन या संगठन के साथ खडे स्वयसेवको की फौज यानी आरएसएस की चमक भी गायब हो गई । यानी एक वक्त मंडल को कउंटर करने के लिये कंमड की फिलासफी । या फिर अयोध्या आंदोलन के जरीये बीजेपी-संघ परिवार को एक साथ मथते हुये देश को पार्टी से जोडने की कोशिश जिस अंदाज में हुई वह बीजेपी को सत्ता मिलते ही गायब हो गई । यानी बीजेपी को सत्ता हमेशा अपने राजनीतिक संगठन की मेहनत से मिली । पर सत्ता मेंआते ही संगठन को ही कमजोर या घता बताने की प्रक्रिया को भी बीजेपी ने ही जिया । लकिन काग्रेस ने कभी संगठन पर ध्यान दिया ही नहीं और संगठन हमेशा काग्रेसी सत्ता के निर्णयो या कहे कार्यों पर ही निर्भर रहा । शायद इसीलिये पहली बार जब बीजेपी का अंदाज बदला । उसका सबकुछ नेतृत्व में समाया तो काग्रेस के सामने संकट ये उभरा कि वह पारंपरिक राजनीति को छोडे या फिर पारंपरिक राजनीतिक करने वाले दिग्गज नेताओ को ही दरकिनार करें । क्योकि काग्रेस मथने की जो पूरी प्रक्रिया है उसमें नेतृत्व को ना सिर्फ क्रूर होना पडेगा बल्कि निर्णायक भी होना होगा । और राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश इसी की शुरुआत है । क्योकि राहुल गांधी भी इस सच को जाने है कि जबतक उनके पास संपूर्ण ताकत नही होगी तबतक चिंदबरम या गहलोत या कमलनाथ के बेटे कही ना कहीं टकराते रहेगें । सिंधिया का महाराजा वाला भाव जागृत रहेगा । और चारो तरफ से चापलूस या गांधी परिवार के दरवाजे पर दस्तक देने की हैसियत वाले ही काग्रेस क भीतर बाहर खुद को ताकतवर दिखलाकर कद्दावर कहलाते रहेगें । राहुल गांधी अब काग्रेस के उस ठक्कन को ही खोल देना चाहते है जिस ठक्कन के भीतर सबकुछ गांधी पारिवार है । यानी सोनिया गांधी के आगे हाथ से राह दिखाते नेता , प्रियका गांधी के आगे खडे होकर रास्ता बनाते नेता या फिर खुद उनके सामने नतमस्तक भूमिका में खडेहोकर बडे काग्रेसी बनने कहलाने की सोच लिये फिरते काग्रेसियो से काग्रेस को मुक्त कैसे किया जाये अब इसी सवाल से राहुल गांधी ज्यादा जुझ रहे है ।<br />
सवाल है कि अगर चिंदबरम, कमलनाथ या गहलोत को राहुल गांधी रिटायर ही कर दें तो किसी पर क्या असर पडेगा । या फिर इस कतार में सलमान खुर्शीद हो या पवन बंसल या फिर श्रीप्रकाश जयसवाल या सुशील कुमार शिंदे या फिर किसी भी राज्य का कोई भी वरिष्ट काग्रेसी । सभी के पास खूब पैसा है । सभी के लिय काग्रेस एक ऐसी राजनीति की दुकान है जहा कुछ इनवेस्ट करने पर सत्ता मिल सकती है यानी लाटरी खुल सकती है । और काग्रेस क पास अगर इन नेताओ का साथ ना रहेगा तो होगा क्या ? शायद पहचान पाये चेहरो की कमी होगी या फिर गांधी परिवार के सामने संकट होगा कि वह खुद को कद्दावर कैसे कहे जब वह काग्रेसी कद्दावरो से घिरे हुये नही है तो । लेकिन इसका अनूठा सच तो गुना संसदय सीट पर मिले जनादेश में जा छुपा है । जहा महाराज जी को उनका ही कारिदा या कह जनता से निकला एक आम शख्स हरा देता है । और वही से सबसे बडा सवाल भी जन्म लेता है कि बदलते भारत में पारंपरिक नेताओ को लेकर जनता में इतनी घृणा पैदा हो चुकी है कि वह उसकी रईसी से तंग आ चुका है । फिर युवा के मन में कभी कोई नेता आदर्श नहीं होता । और ना ही युवा किसी भी कद्दावर नेता को बर्दाश्त करता है । युवा भारत जब बोलने की स्वतंत्रता को ना सिर्फ राजनीतिक मिजाज से अलग देखता है बल्कि क्रियटीव होकर अब तो वह राजनीतिक पर किसी भी विपक्ष की राजनीतिक समझ से ज्यादा तीखा कटाक्ष करता है । तो ऐसे में नेताओ का भी संवाद सीधा होना चाहिये । साफगोई नीतियो के सामने आना चाहिये । और ये समझ कैसे काग्रेसी समझ ना पाये ये सिर्फ सिंधिया ही नहींबल्कि मल्लिकाजुर्न खडगे की चुनावी हार से भी समझा जा सकता है । यानी कल तक संसद में काग्रेस का नेता । विपक्ष का नेता । और भूमि अधिगरहण से लेकर नोटबंदी और जीएसटी भी इन्ही के काल में मोदी सत्ता ल कर आई तो फिर विपक्ष के नेता के तौर पर सिर्फ दलित सोच को उभारकर मल्लिकाजुर्जन खडके को आगे करने की जरुरत क्या थी । क्या 2014 में कमलनाथ विपक्ष के नेता के तौर पर सही नहींथे । तो फैसले गलत लिये गये या गलत होते चले गये । और एक वक्त के बाद काग्रेसी ही जब गांधी परिवार से थक हार जाता रहा तो फिर उसका संयम सिवाय काग्रेस से कमाई के अलावे कुछ रहा भी नहीं । राजनीति और चुनाव के वक्त जो सामाजिक-आर्थिक या कहे राजनीतिक नैरेटिंव भीचाहिये उसपर क्या किसी ने कभ सोचा । और नहीं सोचा तो मल्लिकाजुर्न इतनी बडी पहचान के वाबजूद चुनाव हार गये । यानी जिनका पहचान ही रही कि कभी चुनाव नहीं हारते है , इसलिये मल्लिकाजुर्न खडके को " सोल्लिडा सरदारा " भी कहते थे । लेकिन काग्रेस जबसिर्फ गांधी परिवार के कंधे पर सवार होकर राजनीतिक चुनावी प्रचार ही देखती रही और राहुल गांधी अभिमन्यु की तरह लडते लडते थके भी तब भी काग्रेस में अपने अपनी गरिमा समेटे कौन सा नेता निकला । तो क्या राहुल गांधी अब अभिमन्यु नहीं बल्कि अर्जुन की भूमिका में आना चाहत है जहा उनके जहन में कृष्ण का पाठ साफ तौर पर गूंज रहा है कि काग्रेस को जिन्दा रखना है तो कोटरी, चापलूस और डरे-सहमे रईस काग्रेसो का वध जरुरी है ।<br />
और जिन काग्रेसियो से राहुल गांधी घिरे हुये है वह घबरा भी रहा है कि कही राहुल गांधी वाकई काग्रेस को पूरी तरह बदलन ना निकल पडे । तो वो पंजाब, राजस्थान , मद्यप्रदेश , छत्तिसगढ में काग्रेस की जीत का सहरा भी अपने माथे बांध लेता है । लेकिन इस सच को कोई नहीं कहता है कि इन राज्यो में काग्रेस की जीत से पहले बीजेपी की सत्ता की हार जनता ने चुनी । इसीलिये जब नारे लगते रहे कि "वसुंधरा तेरी खैर नहीं , लेकिन मोदी से बैर नहीं " तो भी काग्रेसी समझ नहीं पाये कि कौन सी व्यूबरचना मोदी ने अपने कद के लिये बना रखी है या भी वह लगातार बना रह है । बीजेपी में कद्दावर क्षत्रप भी मोदी को बर्दाश्त नहीं और काग्रेस में खुद को मजबूत क्षत्रप के तौर पर मान्यता पाने की होड अब कैप्टन से लेकर कमलनाथ और गहलोत से लेकर बधेल तक में है । लेकिन काग्रेस को पार्टी के तौर पर अवतरित सिर्फ 10 जनवपथ या 24 अकबर रोड में डेरा जमाये काग्रेसियो से मुक्ति भर से नहीं होगा बल्कि मोदी की सत्ता काल में बीजेपी की कमजोरी को काग्रेस कैसे ताकत बना सकती है और कैसे ग्राम सभा से लेकिन लोकसभा तक की लकीर सबको साथ जोडने वाली विचारधारा के साथ लेकर चला सकती है । इम्तिहान इसी का है । और इस परिक्षा का पहला सामना तो राहुल गांधी को ही करना होगा जिनके पास अभी तक जमीनी राजनीतिक समझ ही नहीं बल्कि समाज को समझने वालो की टीम तक नहीं है । जो अभी तक ये नहीं समझ पाये है कि संगठन का विस्तार या कारगर रणनीति बनाते रहना या फिर जनता से सीधा संपर्क कैसे बनाये इस समझ को अपनी कोर टीम में विकसित कर पाये । अगर अतीत में ना भी झांके की ममता और जगन ने काग्रेस क्यो छोडी या फिर वह सफल क्यो हो गये लेकिन भविष्य तो देख समझ सकते है कि आखिर ममता का साथ छोडने वाले बीजेपी से पहले काग्रेस की तरफ क्यो नहीं देख सकते है । वामपंथियो के 22 फिसदी वोट बंगाल में बीजेपी के पास क्यो चले गये जबकि वाम की पूरी फिलोस्फी ही काग्रेस ने अपने मैनिफेस्टो में डाल दी । फिर भी काग्रेस को लक भरोसा क्या नहीं जागा ।<br />
इतना ही नहीं संगठन में बूथ लेबल पर काम करने वाल काग्रेसी जिन्हे एक वक्त वोट कलेक्टर माना जाता था उन्हे बेहद सम्मान मिलता था वह कहां गायब हो गये । आलम तो ये हो गया कि बूथ पर बैठे काग्रेसियो को ग्वालियर संभाग में तीन बजे के बाद खाना तक नहीं मिल पाया तो बीजेपी का बूथ लगाये लोगो ने भोजन दिया । और माहौल इस तरह बनता क्यो चला गया कि जिसने मोदी को वोट नहीं दिया वह भी बाहर आकर कहने लगा कि उसने मोदी को वोट दिया और दिसने काग्रेस को वोट दिया वह भी काग्रेस जिन्दाबाद के नारे लगाने में हिचकने लगा । कहीं तो नैतिक पतन है या फिर कहीतो राहुल गांधी को अकेले लडते छोड रईस काग्रेसियो में राहुल को लेकर ही सवाल है इसलिये सभी अपनी सुविधा बनाये रखने के लिये राहुल के इस्तीफे को भी नाटक मान रहे है और फैला भी रहे है । फिर ये सवाल अब भी अनसुलझा सा है क्या वाकई राहुल गांधी बतौर राजनीतक कार्यकत्ता रह सकते है । या फिर सिर्फ अध्यक्ष के तौर पर रह सकते है । या फिर गांधी नाम रखे हुये अध्यक्ष की कुर्सी संभालते हुये उस काग्रेसी कटघरे से बाहर निकल कर काग्रेसियो को ये पाठ पढा सकता है कि जो उनके अगल बगल खडाहोकर खुद को मजबूत मानता है दरअसल वह सबसे भ्रष्ट्र है । क्योकि सच तो ये भी है कि दिनभर राहुल के इर्द गिर्द मंडराते रईस, चेहरे वाले काग्रेसी रात में मोदी तक बात पहुंचा कर अपने नंबर संबह शाम में जोडते है और हमेशा खुश खुश नजर आते है और जब युद्द की मुनादी राहुल गांधी करते है तो पहले सभी समझाते है युद्द से कुछ नहीं होगा । फिर खुद को युद्द से बाहर कर नजारा देख हसंते ठिठोली कर शुश होते रहते है । और जब राहुल गांधी कहते है तुम्ही संभालो काग्रेस को तो रुआसा सा चेहरा बनाकर कहते है " राहुल गांधी है तो काग्रेस है ।" <br />
तो बदलाव की बयार काग्रेस में बहेगी या फिर काग्रेस धीरे धीरे सिर्फ नाम भर में तब्दिल हो कर रह जायेगी ये नया सवाल है । जबकि इतिहास में राहुल गांधी के पास सबसे बेहतरीन मौका काग्रेस को संवारने का है । और इसकी सबसे बडी वजह मोदी सत्ता में बीजेपी-संघ परिवार की सोच के खत्म होने का है । सिर्फ मोदी की गरिमामय मौजूदगी और लारजर दैन लाइफ का जो खल खुद मोदी ने बीजेपी के 11 करोड कार्यकत्ता और 60 लाख स्वयसेवक के साथ साथ सवा सौ करोड भारतीय के नाम पर शुरु किया है । वह भारतीय राजनति के उस संघर्ष को ही झुठला रहा है जो कभी नेहरु-इंदिरा के खिलाफ लोहिया-जेपी ने किया । आज की तारिख में पुराने लोहियावादी हो या जेपी संघर्ष के दौर में तपे समाजसेवी सभी खुद को अलग थलग पा रहे है । मोदी काल में उनकी जरुरत ना तो बीजेपी को है ना ही संघ परिवार को । तो काग्रेस ने जब अपनी आर्थिक नीतियो में परिवर्तन कर कारपरेट इक्नामी को नकारना सीखा है । ग्रामिण भारत और किसान-मजदूरो के साथ न्याय को जोडा है । वामपंथी-समाजवादी एंजेडो को अपने लोकप्रिय अंदाज में समेटा है । और जिस तरह मोदी सत्ता अब अपने जनादेश को मंडल के खत्म होने के साथ जोड रही है और क्षत्रपो के सामने आस्तितव का संकट है उसमें काग्रेस के लिये खुद को खडे करने का इससे बेहतरीन मौका कुछ हो नहीं सकता । तो आखरी सवाल यही है कि क्या राहुल गांधी भी काग्रेस के इस ब्लूप्रिट को समझ रहे है और उसे जमीन पर उतारने के लिये अब उन्हे बिलकुल नये सिपाही चाहिये । नये सिपाहियो के जरीये संघर्ष की मुनादी से पहले सिर्फ गांधी पारिवार का नाम नहीं बल्कि सारे अधिकार चाहिये । और जब राहुल गांधी काग्रेस के उस ठक्कन को खोल कर बोतल में बंद राजनीति को आजाद कर काग्रेस को भारत के सामाजिक-सास्कृतिक मूल्यो से जोड कर बीजेपी के छद्म राष्ट्रवाद , मोदी मैजिक और भावनात्मक हिन्दुत्व से मुक्ती दिलाने की दिशा में बढना चाहते है तो फिर सफेद कुर्ते-पजामे में खुद को समेटे गांधी पारिवार की चाकरी कर काग्रेसी होने का तमगा पाये लोगो से मुक्ति तो चाहिये ही होगी । Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com30tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-6612449627224266822019-05-27T17:49:00.000+05:302019-05-27T18:06:25.985+05:30यूं ही नहीं ढह गया भारत का चौथा स्तम्भ ..नरेन्द्र मोदी को 722 घंटे तो राहुल गांधी को 252 घंटे ही न्यूज चैनलो ने दिखया । जिस दिन वोटिंग होती थी उस दिन एक खास चैनल नरेन्द्र मोदी का ही इंटरव्यू दिखाता था । बालीवुड नायक अक्षय कुमार के साथ गैर राजनीतक गुफतगु या फिर मोदी की धर्म यात्रा को ही बार बार न्यूज चैनलो ने दिखाया ।मीडिया के मोदीनुकुल होने या फिर गोदी मीडिया में तब्दिल होने के यही किस्से कहे जा रहे है या कहे तर्क गढे जा रह है । लेकिन मीडियाको लेकर मोदीकाल का सच दरअसल ये नहीं है । सच तो ये है कि पांच बरस के मोदीकाल में धीरे धीरे भारत के राष्ट्रीय अखबारो और न्यूज चैनलो से रिपोर्टिग गायब हुई । जनता से जुडे मुद्दे न्यूजचैनलो में चलने बंद हुये । जो आम जन को एहसास कराते कि उनकी बात को सरकार तक पहुंचाने के लिये मीडिया काम कर रहा है । और धीर धीरे संवाद एकतरफा हो गया । जो मोदी सरकार ने कहा उसे ही बताने का या कहे तो उसके प्रचार में ही मीडिया लग गया । मीडिया ने अपनी भूमिका कैसे बदली या कहे मीडिया को बदलने के लिये किस तरह सत्ता ने खासतौर से मीडिया पर किस तरह का ध्यान देना शुरु किया । या फिर सत्तानुकुल होते संपादक-मालिको की भूमिका ने धीरे धीरे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को ही खत्म कर दिया । कमोवेश यही हाल लोकतंत्र के बाकि तीन स्तम्भ का भी रहा लेकिन बाकि की स्वतंत्रता पर तो सत्ता की निगाह हमेशा से रही है और हर सत्ता ने अपने अनुकुल करने के कई कदम अलग अलग तरीको से उठाये भी है । लेकिन मीडिया की भूमिका हर दौर में बीच का रास्ता अपनाये रही । इस पार या उस पार खडे होने के हालात कभी मीडिया में आये नहीं । यहा तक की इमरजेन्सी में भी कुछ विरोध कर रहे थे पर अधिकतर रेंग रहे थे । लेकिन पहली बार उस पार खडे [ सत्तानुकुल ना होने ] मीडिया को जीने का हक नहीं ये मोदी का में खुल कर उभरा । और जब लोकतंत्र ही मैनेज हो सकता है तो फिर लोकतंत्र के महापर्व को मैनेज करना कितना मुश्किल होगा ।<br />
ध्यान दिजिये 2014 में मोदी की बंपर जीत के बाद भी मीडिया मोदी से सवाल कर रहा था । तब निशाने पर हारी हुई मनमोहन सरकार थी । काग्रेस का भ्रष्ट्राचार था । घोटालो को फेरहिस्त थी । पर मोदी को लेकर जागी उम्मीद और लोगो का भरोसा कभी गुजरात दंगो की तरफ तो कभी बाईब्रेट गुजरात की दिशा में ले ही जाती था । और राज्य दर राज्य की राजनीति ने मोदी सत्ता ही नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी से भी सवाल पूछने बंद नहीं किये थे । केन्द्र में मनमोहन सत्ता के ढहने का असर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड की काग्रेस सत्ता पर भी पडा । 2014 में तीनो राज्य काग्रेस गंवा दियें या कहे मोदी सत्ता का असर फैला तो बीजेपी तीनो जगहो पर जीती । लेकिन 2015 में दिल्ली और बिहार दो ऐस राज्य उभरे जहा मोदी सत्ता ने पूरी ताकत झोक दी लेकिन उसे जीत नहीं मिली । और अगर उस दौर को याद किजियगा तो बिहार में जीत को लेकर आशवस्त अमित शाह से जब चुनाव खत्म होने के दिन 5 नवंबर को पूछा गया तो वह बोले मै 8 नवंबर को बोलूगा । जब परिणाम आयेगें । और 8 नवंबर 2015 को जब बिहार चुनाव परिणाम आये तो उसके बाद अमित शाह ने खामोशी ओढ ली । और तब भी मीडिया ना सिर्फ गुजराज दंगो को लेकर सवाल कर रहा था बल्कि संघ परिवार की बिहार में सक्रियता को लेकर सवाल कर रहा था । क्योकि तब यही सवाल नीतिश - लालू दोनो अपने अपने तरीके से उछाल रहे थे । वैसे उस वक्त बिहार और गुजारत के जीडीपी से लेकर कृर्षि विकास दर तक को लेकर मीडिया सक्रिय रहा । रिपोर्टिंग -आर्डिकल लिखे गये । मनरेगा के काम और न्यूनतम आय को लेकर रिपोर्टिंग हुई । इसी तरह दिल्ली चुनाव के वक्त यानी 2015 फरवरी में भी दिल्ली में शिक्षा, हेल्थ , प्रदूषण , गाडियो की भरमार सरीखे मुद्दे बार बार उठे । और शायद 2015 ही वह बरस रहा जिसने मोदी सत्ता को भारतीय लोकतंत्र का वह ककहरा पढा दिया जिसके अक्स में गुजरात कहीं नहीं है ये समझा दिया । यानी 6 करोड गुजराती को तो एक धागे में पिरोयो जा सकता है लेकिन 125 करोड भारतीय की गवर्नेंस एक सरीखी हो नहीं सकती । और उसी के बाद यानी 2016 में मोदी सत्ता का टर्निग पाइंट शुरु होता है जब वह ऐसे मुद्दो पर बड निर्णय लेती है जो समूचे देश को प्रभावित करें । भूमि अधिग्रहण , नोटबंदी और जीएसटी । ध्यान दिजिये तीनो मुद्दो से हर राज्य प्रभावित होता है लेकिन राज्यो की सियासत या क्षत्रपो से कही ज्यादा बडी भूमिका में काग्रेस आ जाती है । बहस का केनद्र संसद से सडक तक होता है । और यही से मीडिया के सामने जीने के विकल्प खत्म करने की शुरुआत होती है । हर मुद्दे का केन्द्र दिल्ली बनता है और ह मुद्दे पर बहस करती हुई कमजोर काग्रेस उभरती है । जिसकी राजनीतिक जमीन पोपली थी और मजबूत क्षत्रपो के विरोध की मौजूदगी सिवाय विरोध की अगुवाई करती दिखती काग्रेस के पीछे खडे होने के अलावे कुछ रही ही नहीं । यानी 2016 से राज्यो की रिपोर्टिग अखबारो के पन्नो से लेकर न्यूज चैनलो के स्क्रिन से गायब हो गई । अपने इतिहास में सबसे कमजोर काग्रेस संसद के दोनो सदनों बेअसर थी ।इसी दौर में भीडतंत्र का न्याय सडक पर उभरा । राजनीतिक मान्यता कानून की मूक सहमति के साथ बीजेपी शासित राज्य में उभरी । देश भर में 64 हत्यायें हो गई । लेकिन सजा किसी हत्यारो को नहीं हुई । क्योकि हत्या पर कोई कानूनी रिपोर्ट थी ही । इस कडी में नोटबंदी क दौर में लाइन में खडे होकर नोट बदलवाने से लेकर नोट गंवाने के दर्द तले 106 लोगो की जान चली गई । लेकिन सत्ता ने उफ तक नहीं किया तो फिर संसद के भीतर हंगामे और सडक पर शोर भी बेअसर हो गया । क्योकि खबरो का मिजाज किसी मुद्दे से पडने वाले असर को छोड उसके विरोध या पक्ष को ही बताने जताने लगा । तो पहली बार जनता ने भी महसूस किया कि जब उसकी जमीन भूमि अधिग्रहण में जा रही है और मुआवजा मिल नहीं रहा है । नोटबंदी में घर से नोट बदवाने निकले परिवार के मुखिया का शव घर लौट रहा है । और अखबरो के पन्नो से लेकर न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर आम जन का दर्द कही है ही नहीं । बहस सिर्फ इसी बात को लेकर चल रही है कि जो फैसले मोदी सत्ता ने लिये वह सही है या नहीं । या फिर अखबारो के पन्नो को ये लिख कर रंगा जा रहा है कि लिये गये फैसले से इक्नामी र क्या असर पड रहा है या फिर इससे पहले की सरकारो के फैसले की तुलना में ये फैसले क्या असर करेगें । ये लकीर बेहद महीन है कि मोदी सत्ता के जिन निर्णयो ने आम जन पर सबसे ज्यादा असर डाला उन आम जन पर पडे असर की रिपर्टिग ही गायब हो गई ।<br />
खासतौर से न्यूज चैनलो ने गायब होती खबरो को उस बहस या स्टूडियो में चर्चा तले शोर से ढक दिया जो जब तक स्क्रिन पर चलती तभी तक उसकी उम्र होती । यानी ऐसी बहसो से कुछ निकल नहीं रहा था । चर्चा खत्म होती फिर अगली चर्चा शुरु हो जाती और फिर किसी और मुद्दे पर चर्चा । हां , सिवाय तमाम राजनीतिक दल के ये महसूस करने के कि उनहे भी न्यूज चैनलो में अपनी बात कहने की जगह मिल रही है । लेकिन इस एहसास से सभी दूर होते चले गय कि हर राजनीतिक दल के जन सरोकार खत्म हो चले है । और उसमें सबसे बडी भूमिका चाहे अनचाहे मीडिया की ही हो गई । क्योकि जब मीडिया में रिपोर्टिंग बंद हुई । जन-सरोकार बचे नहीं तो फिर किसी भी मीडिया हाउस को लेकर जनता के भीतर भी सवाल उठने लगे । राष्ट्रीय न्यू चैनलो में काम करने वाले जिले और छोटे शहरो के रिपोर्टरो के सामने ये संकट आ गया कि वह ऐसी कौन सी रिपोर्ट भेजे जो अखबारो मेंछप जाये या न्यूज चैनलो में चल जाये । क्योकि धारा उल्टी बह रही थी । जनता की खबर से सत्ता पर असर पडने की बजाय सत्ता के निर्णय से जनता पर पडने वाले असर पर बहस होने लगी । और धीर धीरे स्ट्रिगर हो या रिपोर्टर या पत्रकार उसकी भूमिका भी राजनीतिक दलो के छुटमैसे नेताओ को सूचना या जानकारी देने से लेकर उनकी राजनीतिक जमीन मजबूत कराने में ही पत्रकारिता खत्म होने लगी । 2016 से 2019 तक हिन्दी पट्टी [ यूपी, बिहार , झारखंड, छत्तिसगढ, मध्यप्रेदश , राजस्थान , पंजाब , उत्तराखंड ] के करीब पांच हजार से ज्यादा पत्रकार अलग अलग पार्टियो के नेताओ के लिये काम करने लगे । सोशल मीडिया और अपने अपने क्षेत्र में खुद के प्रोफाइल को कैसे बनाया जाता है या कैसे पार्टी हाइकमान को दिखाया जाता है इस काम से पत्रकार जुड गये । इसी दौर में दो सौ से ज्यादा छोटी बडी सोशल मीडिया से जुडी कंपनिया खुल गई जो नेताओ को तकनीक क जरीये सियासी विस्तार देती ष उनकी गुणवत्ता को बढाती । और राज्यो की सत्ताधारी पार्टियो से काम भी मिलने लगा उसकी एवज में पैसा भी मिलने लगा । बकायदा राज्य सरकार से लेकर निजी तौर पर राज्यस्तीय नेता भी अपना बजट अपने प्रचार के लिये रखने लगा । और इस काम को वहीं पत्रकार करते जो कल तक किसी न्यूज चैनल को खबर भेज कर अपनी भूख [ पेट- ज्ञान ] मिलाते । हालात बदले तो नेताओ से करीबी होने का लाभ स्ट्रिगर-रिपोर्टरो को राष्ट्रीय चैनलो की सत्तानुकुल रिपोर्टिंग करने से भी मिलने लगा । और ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ नीचले स्तर पर हो । दिल्ली जैसे महानगर में भी दो सौ से ज्यादा बडे पत्रकारो [ कुल दो हजार से ज्यादा पत्रकार ] ने इसी दौर में राजनीतिक दलो का दामन थामा । कुछ स्वतंत्र रुप से तो कुछ बकायदा नेता या पार्टी के लिये काम करने लगे । दिल्ली में काम करते कुछ पत्रकार दिलली में बडे नेताओ के सहारे राज्यो के सत्ताधारियो के लिय काम करने के लिय दिल्ली छोड रराजधानियो में लौटे । आलम ये है कि 18 राज्यो के मुख्यमंत्रियो के सलाहकारो की टीम में पत्रकारिता छोड सीएम सलाहकार की भूमिका को जीने वाले लोग है । और इनका कार्य उसी मुख्यधारा के मीडिया हाउस को अपनी सत्तानुकुल करना है जिस मुख्यधारा की पत्रकारितो को छोड कर ये सलाहकार की भूमिका में आ चुके है । और मीडिया की ये चेहरा चूकि राजनीति के बदलते सरोकार [ 2013-14 के चुनाव प्रचार केतौर तरीके ] और मीडिया के बदलते स्वरुप [ इक्नामिक मुनाफे का माडल ] से उभरा है तो फिर 2016 से 2018 तक के सफर में सरकार का मीडिया को लेकर बजट पिछली किसी भी सरकार के आकडे को पार कर गया और मीडिया भी अपनी स्वतंत्र भूमिका छोड सत्तानुकुल होने से कतराया नहीं । मोदी सत्ता ने 2016-17 में न्यूज चैनलो के लिये 6,13,78,00,000 रुपये का बजट रखा तो 2017-18 में 6,73,80,00,000 रुपये का बजट रख । प्रिट मीडिया के कुछ कम लेकिन दूसरी सरकारो की तुलना में कही ज्यादा बजट रखा गया । 2016-18 के दौर में 9,96,05,00,000 रुपये का बजट प्रिट मीडिया में प्रचार के लिये रखा गया । यानी मीडिया को जो विज्ञापन अलग अलग प्रोडक्ट के प्रचार प्रासर के लिये मिलता उसके कुल सालाना बजट से ज्यादा का बजट जब सरकार ने अपने प्रचार के लिये रख दिया तो फिर सरकार खुद एक प्रोडक्ट हो गई और प्रोडक्ट को बेचने वाला मीडिया हो गया । हो सकता है इसका एहसास मीडिया हाउस में काम करते पत्रकारो को ना हो और उन्हे लगता हो कि वह सरकार के कितने करीब है या फिर सरकार चलाने में उनी की भूमिका पहली बार इतनी बडी हो चली है कि प्रधानमंत्री भी कभी ट्विट में उनके नाम का जिक्र कर या फिर कभी इंटरव्यू देकर उनके पत्रकारिय कद को बढा रह है । और इसी रास्ते धीरे धीरे मीडिया भी पार्टी बन गया और पार्टी का बजट ही मीडिया को मुनाफा देने लगा । यानी एक ऐसा काकटेल जिसमें कोई गुंजाइश ही नहीं बचे कि देश में हो क्या रहा है उसकी जानकारी देश के लोगो को मिल पाये । या फिर संविधान में दर्ज अधिकारो तक को अगर सत्ता खत्म करने पर आमादा हो तो भी मीडिया के स्वर सत्तानुकुल ही होगें । इसीलिये ना तो जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट से निकली आवाज ' लोकतंत्र पर खतरा है ' को मीडिया में जगह मिल पायी । बहस हो पायी । ना ही अक्टूबर 2018 में सीबीआई में डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर का झगडा और आधी रात सरकार का आरपेशन सीबीआई कोई मुद्दा बन पाया । और ना ही मई 2019 में चुनाव आयोग के भीतर की उथल पुथल को मीडिया ने महत्वपूर्ण माना । ध्यान तो तीनो ही संवैधानिक और स्वयत्त संस्था है और तीनो के मुद्दे सीधे सत्ता से जुडे थे । और मीडिया इसपर बहस चर्चा या फिर खबर के तौर पर परतो को उघाडने के लिये तैयार नहीं था । तो मीडिया निगरानी की जगह सत्तानुकुल हो चला और लोकतंत्र की नई परिभाषा सत्ता में ही लोकतंत्र खोजने या मानने का हो जाय पर्सेप्सन इसी का बनाया गया । हालाकिं इस पूरे दौर में विपक्ष ने ना तो बदलते हालात को समझा ना ही अपनी पारंपरिक राजनीति की लीक को छोडा । यानी लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दल बेहद कमजोर साबित हुये । जिनके पास ना तो अपने राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक नैरेटिव थे ना ही हिन्दुत्व में लिपटे राष्ट्रवाद की थ्योरी का कोई विकल्प । तो मीडिया ने खुद को छोडा और सत्ता को थामा । <br />
यानी एक तरफ मोदी काल के पहले पांच साल में 164 योजनाओ के एलान की जमीनी हकीकत है क्या , इसपर मेनस्ट्रीम मीडिया ने कभी गौर करना जरुरी नहीं समझा । उसके उलट अपनी ही योजनाओ की सफलता के जो भी आकडे सत्ता ने बताये उसे सफल मानकर विपक्ष से सवाल मीडिया ने किया जैसे विपक्ष ही मीडिया की भूमिका में हो और मीडिया सत्ताधारी की भूमिका में । और दूसरी तरफ संविधान के जरीये बनाये गये अलग-अलग संस्थानो के चैक एंड बैलेस को ही सत्ता की कार्यप्रणाली ने डिगाया तो भी मीडिया के सवाल सत्ता के हक में ही उठे । और राष्ट्रीय मीडिया में हिन्दी हो या अग्रेजी में होने वाली पत्रकारिता के नये मिजाज को समझे तो सत्ताधारियो का इंटरव्यू । उनसे संवाद बनाना । उनकी योजनाओ को उन्ही के जरीये उभारना । सत्ता के मुद्दो पर कई पार्टियो के नताओ को बैठाकर चर्चा करने से आगे अब हालात ठहर गये है । और चाहे अनचाहे न्यू मीडिया के केन्द्र में सत्ता की खासियत है । यानी 2014-19 मोदी काल के पहले सियासी सफर ने चुनावी जीत को अपने अनुकुल बनाने का हुनर पा लिया । लोकतंत्र मैनेज इस अंदाज में हुआ जिसमें जमीनी सच और जनादेश के अंतर पर कोई सवाल ना कर सके । तो कल्पना किजिये 2019-24 में आप हम या भारत किस सफर पर निकल रहा है । क्योकि अब ये दुविधा भी नहीं है कि मीडिया कोई सवाल करेगा । ये उलझन भी नहीं है कि स्वयत्त संस्धानो में कोई टकराव होगा । शिक्षा संस्थान या कहे प्रीमियर एजुकेशन सेंटर [ जेएनयू, बीएचयू ,जामिया या अलीगढ समेत तमाम राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी ] से भी कोई आवाज उठेगी नहीं । मुस्लिम या दलित के सवालो को उके अपने समुदाय से आवाज उठाकर राजनीति करने वालो की हैसियत खत्म की जा चुकी है । मायावती कमजोर हो चुकी है । काग्रेस में बैठे सलमान खुर्शिद या गुलाम नबी आजाद सरीखे नेताओ के पास ना तो पालेटिकल नैरेटिव है ना ही राजनीतिक जमीन । बीजेपी के सहयोगी दलो को प्रधनमंत्री ने एनडीए की बैठक में ही एहसास करा दिया कि जो उनके साथ है वह बचेगा बाकि खत्म हो जायेगें । जैसे राहुल अमेठी में हार गये । सिधिया गुना में हर गये जंयत बागपत में हार गये । डिंपल कन्नोज में हार गई । दिग्विजय भोपाल में हार गये । दीपेन्द्र हुडा रोहतक में हार गये । लालू के परिवार का पूरी तरह सफाया हो गया । तो फिर आगे सवाल करेगा कौन और जवाब देगा कौन । ये सवाल अब मोदी सत्ता के दूसरे काल किसी के मन में घुमड सकता है । क्योकि अब तो बीजेपी में कोई क्षत्रप बचा नहीं और दूसरे दलो के मजबूत क्षत्रप कमजोर हो चुके है । पर जो अब होगा उसमें अगर मीडिया तंत्र भी ना होगा तो यकीन जानिये जो मीडिया आज सत्ता से चिपट मुस्कुरा रहा है गर्द उसकी भी कटेगी और मोहरे बदले भी जायेगें । क्योकि अब नये भारत की असल नींव पडगी और उसमें वह मोहरे कतई काम नहीं करेगं जिन्होने 2014 से 2019 तक के दौर में ना तो पकौडे पर सवाल किया ना ही कारपोरेट पर अंगुली उठायी । या फिर जो इंटरव्यू लेते लेते आत्ममुग्ध होकर मोदीमय हो गये । और धीरे धीरे युवा पत्रकारो के सामने भी ये सवाल तो उभरा ही क्या पत्रकारिता यही है । क्योकि संपादक ही जब सवाल पूछने से कतराये या फिर इंटरव्यू का अंदाज ही जब सामने वाले के कसीदे पढने में जा छुपा हो तब भविष्य में पत्रकारो की कौन सी टीम जवा होगी । और मोदी दौर में मीडिया सस्थानो से जुडे युवा पत्रकार क्या वाकई अपने संपादको को आदर्श मानेगें या फिर मोदी सत्ता को मीडिया को रेगते हुये बनाते के तौर पर देख पायेगें और भविष्य में उसकी व्याख्या करेंगे । जाहिर है ये सवाल किसी भी देश को मजबूत शासक से नहीं जोडते । क्योकि ये मोदी भी समझते है जिस भारत को वह गढना चाहते है उसमें ईंट और गारद बनने वाले मीडिया की उपयोगिता इमारत बनते ही खत्म हो जाती है । और 2019 का जनादेश बताता है कि मोदी इमारत बना चुके है अब उसमें जिन विचारो की जान फूंकनी है और खुद को अमर करना है उसके लिये नये हुनरमंद कारिगर चाहिये जो 2014-19 के दौर में मर चुके सवालो को 2019-24 के बीच जीवित कर सके । जिससे संघ के सौ बरस का जश्न सिर्फ स्वयसंवको की टोली या नागपुर हेडक्वाटर भर में ना समाये बल्कि भारत को नेहरु -गांधी की मिट्टी से आजाद कर सावरकर- हेडगेवार- गोलवरकर के सपनो में ढाल दें । Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-1490204908273772242019-05-24T10:38:00.000+05:302019-05-24T10:38:46.170+05:30ना मुद्दे ना उम्मीदवार सिर्फ मोदी सरकार<br />
गुलाब की पंखुडियों से पटी पडी जमीन। गेंदा के फूलो से दीवार पर लिखा हुआ धन्यवाद । दरवाजे से लेकर छत तक लड्डु बांटते हाथ । सडक पर एसयूवी गाडियो की कतार । और पहली बार पांचवी मंजिल तक पहुंचने का रास्ता भी खुला हुआ । ये नजारा कल दिल्ली के नये बीजेपी हेडक्वाटर का था । दीनदयाल मार्ग पर बने इस पांच सितारा हडक्वाटर को लेकर कई बार चर्चा यही रही कि दीनदयाल के आखरी व्यक्ति तक पहुंचने की सोच के उलट आखरी व्यक्ति तो दूर बीजेपी कार्यकत्ताओ के लिये हेडक्वाटर एक ऐसा किला है जिसमें कोई आसानी से दस्तक दे नही सकता । जबकि अशोक रोड के बीजेपी हेडक्वाटर में तो हर किसी की पहुंच हमेशा से होती रही । और 2014 की जीत का नजारा कैसे 2019 में कही ज्यादा बडी जीत के जश्न के साथ अशोका रोड से दीनदयाल मार्ग में इस तरह तब्दिल हो जायेगा कि बीजेपी को समाज का पहला और आखरी व्यकित एक साथ वोट देगें । ऐसा कभी पहले हुआ नहीं था और ऐसा हो सकता है ये कभी किसी ने सोचा ना होगा कि बहुमत की सरकार दूसरी बार अपने बूते करीब 50 फिसदी वोट के साथ सत्ता में बरकरार रहे । और सिर्फ चार राज्य छोड कर [ तमिलनाडु , आध्रप्रदेश,केरल और पंजाब ] हर जगह बीजेपी ऐसी घमक के साथ सत्ता की डर अपने साथ रखगी कि ना सिर्फ क्षत्रप बल्कि राष्ट्रीय पार्टी काग्रेस को भी अपनी राजनीति को बदलने या फिर नये सिरे से सोचने की जरुरत पडेगी । जबकि देश के सामने सारे मुद्दे बरकरार है । बेरोजगारी , किसान , मजदूर , उत्पादन कुछ इस तरह गहरया हुआ कि आर्थिक हालात बिगडे हुये है । उसपर घृणा , पाकिस्तान से युद्द , हिन्दु राष्ट्र की सोच और गोडसे को जिन्दा भी किया गया लेकिन फिर भी जनादेश के सामने मुद्दे-उम्मीदवार मायने रखे ही नहीं । जातिया टूटती नजर आयी । उम्मीद और आस हिन्दुत्व का जोगा उडकर देशभक्ति व राष्ट्रवाद में इस तरह खोया कि ना सिर्फ पारंपरिक राजनीतक सोच बल्कि अतित की समूची राजनीतिक थ्योरी ही काफूर हो गई । पश्चिम बंगाल में धर्म को अफिम कहने मानने वाले वामपंथी वोटर खिसक कर धर्म का जाप करने वाली बीजेपी क साथ आ खडे हुये । और जिस तरह 22 फिसदी वामपंथी वोट एकमुश्त बीजेपी के साथ जुडे गया उसने तीन संदेश साफ दे दिये । पहला , वामपंथी जमीन पर जब वर्ग संघर्ष के नारे तले काली पूजा मनायी जाती है तो फिर वही काली पूजा , दशहर और राम की पूजा तले धर्मिक होकर मानने में क्या मुश्किल है । दूसरा , वाम जमीन पर सत्ता विरोध का स्वर हमेशा रहा है तो वाम के तेवर-संगठन-पावर खत्म हुआ तो फिर विरोध के लिये बीजेपी के साथ ममता विरोध में जाने से कोई परेशनी है नहीं । तीसरा , मुस्लिम के साथ किसी जाति का कोई साथ ना हो तो फिर मुस्लिम तुष्टिकरण या मुस्लिम के हक के सवाल भी मुस्लिमो के एक मुश्त वोट के साथ सत्ता दिला नहीं सकते या फिर सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में आ सकते है ।<br />
दरअसल , जनादेश तले कुछ सच उभर कर आ गये और कुछ सच छुप भी गये । क्योकि 2019 का जनादेश इतना स्थूल नहीं है कि उसे सिर्फ मोदी सत्ता की एतिहासिक जीत कर खामोशी बरती जा जाये । क्योकि बंगाल से सटे बिहार में एमवाय जोड टूट गया । लालू यादव की गैर मौजूदगी में लालू परिवार के भीतर का झगडे और महागंढबंधन के तौर तरीके ने उस मिथ को तोड दिया जिसमें यादव सिर्फ आरजेडी से बंधा हुआ है और मुसलिमो को ठौर महागंठबंधन में ही मिेलेगी ये मान लिया गया था । चूकि तेजस्वी, राहुल , मांझी , कुशवाहा , साहनी के एक साथ होने क बावजूद अगर महागंठबंधन की हथेली खाली रह गयी तो ये सिर्फ नीतिश-मोदी-पासवान की जीत भर नहीं है बल्कि सामाजिक समीकरण के बदलने के संकेत भी है । और जिस तरह बिहार से सटे यूपी में अखिलेश - मायावती के साथ आने के बावजूद यादव - जाटव तक के वोट ट्रासफर नहीं हुये उसमें भविष्य के संकेत तो दे ही दिये कि अखिलेश यादव ओबीसी के नेता हो नहीं सकते और मायावती का सामाजिक विस्तार अब सिर्फ जाटव भर है और उसमें भी बिखराव हो रहा है । फिर बीजेपी ने जिस तरह हिन्दु राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर वोट का ध्रुवीकरण किया उसने भी संकेत उभार दिये कि काग्रेस जिस तरह सपा-बसपा से अलग होकर उंची जातियो के वोट बैक को बजेपी से छिन कर अपने अनुकुल करने की सोच रही थी जिससे 2022 [ यूपी विधानसभा चुनाव ] तक उसके लिये जमीन तैयार हो जाये और संगठन खडा हो जाये उसे भारी धक्का लगा है ।<br />
जाहिर है बीजेपी और काग्रेस के लिये भी बडा संदेश इस जनादश में छुपा है । एक तरफ बीजेपी का संकट ये हो कि अब वह संगठन वाली पार्टी कम कद्दावर नेता की पहचान के साथ चलने वाली सफल पार्टी के तौर र ज्यादा है । यानी यहा पर बीजेपी कार्यकत्ता और संघ के स्वयसेवक की भूमिका भी मोदी के सामने लुप्त सी हो गई । जो कि वाजपेयी-आडवाणी युग से आगे और बहुत ज्यादा बदली हुई सी पार्टी है । क्योकि वाजपेयी काल तक नैतिकता का महत्व था । मौरल राजनीति के मायने थे । तभी तो मोदी को भी राजधर्म बताया गया और भ्र्ष्ट्र यदुरप्पा को भी बाहर का रास्ता दिखाया गया । लेकिन मोदी काल महत्वपूर्ण सिर्फ जीत है । इसलिये महात्मा गांधी का हत्यारा गोडसे भी देशभक्त है और सबसे ज्यादा कालाधन खर्च कर चुनाव जीतने का शाह मंत्र भी मंजूर है । पर इसके सामानांतर काग्रेस के लिये सभवत ये सबसे मुश्किल दौर है । क्योकि बीजेपी तो मोदी सरीखे लारजर दैन लाइफ वाले नेता को साथ लेकर भी पार्टी के तौर पर लडती दिखायी दी । लेकिन काग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी होकर भी सिर्फ अपने नेता राहुल गांधी को ही देखकर मंद मंद खुश होती रही । लड सिर्फ राहुल रहे थे । प्रिंयका गांधी का जादुई स्पर्श अच्छा लग रहा था । लेकिन काग्रेस कही थी ही नहीं । और शायद 2019 के जनादेश में जिस तरह की सफलता जगन रेड्डी को आध्रे प्रदेश में मिली उसने काग्रेस की सबसे बडी कमजोरी को भी उभार दिया कि उसने ना तो अपनो को सहेजना आता है ना ही काग्रेस को एक राजनीतिक दल के तौर पर संभालना आता है । क्योकि एक वक्त ममता भी काग्रेस से निकली और जगन रेड्डी भी काग्रेस से निकले । दोनो वक्त गांधी परिवार में सिमटी काग्रेस ने दिल बडा नहीं किया उल्टे अपने ही पुराने नेताओ के सामने काग्रेस के एतिहासिक सफर के अंहकार में खुद को डुबो लिया । और जिस मोड पर राहुल गांधी ने काग्रेस संभाली तो वह पार्टी को कम नेताओ को ही ज्यादा तरजीह दे मान बैठे कि नेताओ से काग्रेस चलेगी । असर इसी का है कि काग्रेस शासित किसी भी राज्य में नेता को इतना पावर नहीं कि वह बाकियो को हाक सके । तो मध्यप्रदेश में कमलनाथ के सामानातंर दिग्विजय हो या सिधिया या फिर राजस्थान में गहलोत हो या पायलट या फिर छत्तिसगढ में भूपेश बघेल हो या ताम्रध्वज साहू व टीएस सिंह देव । सभी अपने अपने तरीके से अपने ही राज्य में काग्रेस को हाकते रहे । तो कार्यकत्ता भी इसे ही देखता रहा कि कौन सा नेता कितना पावरफुल है और किसके साथ खडा हुआ जा सकता है या फिर अपनी अपनी कोटरी में सिमटे काग्रेसी नेताओ को संघर्ष की जरुरत क्या है ये सवाल ना तो किसी ने जानना चाहा और ना किसी ने पूछा । तो तीन महीने पहले अपने ही जीते राज्य में काग्रेस की 2014 से भी बुरी गत क्यो हो गई इसका जवाब काग्रेसी होने में ही छिपा है जो मान कर चलते है कि वे सत्ता के लिये ही बने है ।<br />
आखरी सवाल है , इस जनादेश के बाद होगा क्या ? क्योकि देश ना तो विज्ञान को मान रहा है । ना ही विकास को समझ सका । ना ही सच जानना चाहा है । ना ही प्रेम या सोहार्द उसकी रगो में दौड रहा है । वह तो हिन्दु होकर देशभक्त बनकर कुछ ऐसा करने पर आमादा है जहा शिक्षा-स्वास्थय-पानी-प्रर्यावरण बेमानी से लगे । और देश का प्रधानमंत्री उस राजा की तरह नजर आये जिसे जनता की फिक्र इतनी है कि वह दुश्मनके घर में घुस कर वार करने की ताकत रखता हो । और राजा किसी देवता सरीखा नजर आये । जहा संविधान , सुप्रीम कोर्ट , चुनाव आयोग भी बेमानी हो जाये । क्योकि तीन महीने पहले "इस बार 300 पार " का ऐलान करते हुये तीन महीने बाद तीन सौ पर कर देना किसी पीएम के लिये चाहे मुश्किल हो लेकिन किसी राजा या देवता के लिये कतई मुश्किल नही है । Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com29tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-10443358488548556092019-05-21T11:32:00.003+05:302019-05-21T11:32:59.142+05:30अंधेरे की सियासत का लोकतंत्रअंधेरा घना है और अंधेरे की सियासत तले लोकतंत्र का उजियारा खोजने की कोशिश हो रही है । मौजूदा वक्त में लोकतंत्र का ये ऐसा रास्ता है जिसने आजादी के बाद से ही सत्ता हस्तातरण के उस मवाद को उभार दिया है जिसमें देश चाह कर भी बार बार 1947 की उसी परिस्थिति में जा खडा होता है जहा न्याय और समानता शब्द गायब रहे । ये कोई आश्चयजनक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट आज लोकतंत्र को खतरे में होने एलान कर दें और देश में आह तक ना हो । न्यायपालिका खुद के संकट को उभारे और समाज में कोई हरकत ना हो । चुनाव आयोग की स्वतंत्र पहचान खुले तौर पर गायब लगे और आयोग के भीतर से ही आवाज आये कि सत्तानुकुल ना होने पर बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है या सत्ता के विरोध के स्वर को जगह भी चुनाव आयोद में दर्ज नहीं की जाती और समाज के भीतर कोई हलचल नहीं होती । एक तरफ ईवीएम के जरीय तकनीकी लोकतंत्र को जीने का सबब हो तो दूसरी तरफ यही ईवीएम सत्ता के लिये खिलौना सरीखा हो चला हो । पर देश तो लोकतंत्र तले जीने का आदी है तो कोई उफ नही निकलता । आश्चर्य तो इस बात भी नहीं हो पा रहा है कि रिजर्व बैक जनता के पैसो की लूट के लिये समूची बैकिंग प्रणाली को भी सत्ता के कदमो में झुकाने को तैयार है और जनता के भीतर से कोई विरोध हो नहीं पाता । खुलो तौर पर जनता के पैको में जमा रुपयो क कर्ज लूट होती है । रईस कानून व्यवस्था को घता बता कर फरार हो जाते है लेकिन संसद कानून का राज कहकर लोकतंत्र क चादर ओढ लेती है । और तो और किसी तरह की कोई बहस अपने ही बच्चो की शिक्षा के गिरते स्तर या शिक्षा की तरफ की जा रही अनदेखी को लेकर भी मां-बाप में नही जाग रही है । प्रीमियर जांच एंजेसी सीबीआई के भीतर डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर यानी वर्मा-आस्थाना के खुले तौर पर भ्रष्ट होने के आरोपो पर भी समाज में कोई हरकत नहीं हुईऔर खुले तौर पर पीएमओ की दखलअंदाजी को लेकर भी बहुसंख्यक तबका सिर्फ तमाशबीन ही बना रहा है । कैसे और किस तरह से पीने लायक पानी, स्वच्छ पर्यावरण, हेल्थ सर्विस सबकुछ बिगाड कर सत्ताधारियो ने लोकतंत्र का पाठ चुनाव के एक वोट पर जा टिकाया और बेबस देश सिर्फ देखता रहा । और कैसे बेबसी से मुक्ति के लिये हर पांच बरस बाद होने वाले चुनाव को ही उपचार मान लिया गया । यानी सत्ता परिवर्तन के जरीये लोकतंत्र के मिजाज को जीना और सत्ता के लिये देश में लूटतंत्र को कानूनी जामा पहना देना , दोनो हालातो को को देश के हर वोटर ने जिया है और हर नागरिक ने भोगा है । इससे इंकार कौन करेगा । 1947 के बाद संसद हर पांच बरस में सजती संवरती रही । जनता की भागीदारी संसद को ही लोकतंत्र का मंदिर मान कर समती गई । और 2014 में जब पहली बार किसी नये नवेले प्रधानमंत्री ने संसद की जमीन को माथे से लगाया तो लोकतंत्र का पावन रुप हर उस आंख में बस गया जिन आंखो ने 1952 से लेकर 2014 तक संसद के भीतर बाढ-सूखा की तबाही ,मंहगाई तले पिसते मध्यम वर्ग , अनाज की किमत तक ना मिलपाने से कर्ज में डूबे किसान की खुदकुशी , न्यूनतम मजदूरी के ना मिलने पर तिल तिल मरते परिवार , गांव गांव में पीने के पानी के लिये भटकते लोग , दो जून की रोटी के लिये गांव से पलायन करते किसानी छोड मजदूर बन शहरो की सडको पर भटकते परिवार के परिवार । तमाम मुद्दो पर संसद की अंसेवनशीलता भी हर किसी ने हर दौर में देखी । आलम ये भी रहा कि 15 फिसदी सांसदो की मौजदगी भी इन मुद्दो पर बहस के वक्त नहीं रहती और बिना कोरम पूरा हुये संसद में जिन्दगी से जुडे मुद्दो को सिर्फ सवाल जवाब में खत्म कर दिया जाता । जिन मुद्दो पर सत्ता को विपक्ष घेरता और उन्ही मुद्दो पर न्याय दिलाने की आस बनाकर विपक्ष सत्ता पाता और सत्ता पाने के बाद उन्ही मुद्द को भूल जाता । ये सब कैसे कोई भूल सकता है । शायद इसीलिये अंधेरा धीरे धीरे गहराता रहा और समूचे समाज ने आंखे मूंद रखी थी ।क्योकि लोकतंत्र के आदि हो चले भारत में आवाज उठाने कर असर डालने का हक उसी राजनीति , उस सियासत के मत्थे थोप दिया गया जिसने अंधेरे को फैलाया और धीरे धीरे गहराया । 1947 में बहस थी हाशिये पर जी रही जातिया या समुदायो को भारत की मुख्यधारा से जोडने के लिये आरक्षण के जरीये रियायत दी जाये । आर्थिक तौर पर विपन्न तबको को सत्ता रुपये बांट कर राहत दें । मुफ्त या सस्ते आनाज को बांटे । पर धीरे धीरे आरक्षण राजनीतिक हथियार बन गया और हाशिये पर रहने वाली जातियो को मुख्यधारा से जोडने के बदले उन्हे ही मुख्यधारा बनाने की कोशिश शुरु हो हई । दलित-आदिवासी-मुस्लिमो की बस्तियो मे स्कूल, हेल्थ सेंटर या जीने की जरुरतो की व्यवस्था नहीं की गई बल्कि हाशिये पर के लोगो को सियासी दान-दक्षिणा या सब्सडी या राजनीतिक रुपयो की राहत तले ही लाया गया । हर राज्य ने दो से पाच रुपये में सस्ता खाना मुहैया कराने के लिय दुकाने खोल दी । और लूट उसमें भी होने लगी । रईसो को मुफ्त आनाज बांटने का ठका भी चाहिये और मीड डे मिल का टेंडर भी चाहिये । क्योकि देश बडा है करोडो लोग है तो लूट का एक कौर भी करोडो के वारे न्यारे कर देता है ।<br />
ऐसे में कोई क्या कहे क्या सोचे कि 70 बरस की उम्र युवा लोकतंत्र के नारे तले छोटी लग सकती है लेकिन 70 बरस का मतलब पांच पीढियो का खपना है और 31 करोड की जनसंक्या से 130 करोड तक पहुंचना भी है । और साथ ही 1947 के वक्त के भारत के बराबर तीन भारत को गरीबी मुफलिसी , हाशिये पर ढकेल कर संसदीय लोकतंत्र के रहमो करम पर टिकाना भी है । और जो पीडा इस अंधेरे में समाये भारत के भीतर है उससे अनभिज्ञ या फिर उस तरह आंख मूंद कर कौन से भारत को विकसित बनाया ज सकता है ये सवाल मुबई की झोडपट्टियो में से निकले एंटीला इमरत को देख कर कुछ हद तक तो समझा जा सकता है । लेकिन समूचा सच 2014 के बाद जिस तरह खुले तौर पर उभरा उसने पहली बार साफ साफ संकेत दे दिये कि अंधेरो की रजामंदी से उजियारे में रहने वालो को खत्म किया जा सकता है या फिर उनके लोकतंत्र को धराशायी कर हशिये पर लडे तबको में इस उल्लास को भरा जा सकता है कि सत्ता ने उनके लोकतंत्र को जिन्दा कर दिया है । कयोकि देश में अब सिर्फ अंधेरा होगा । और सडक पर बिलबिलाते समाज को ये रोशनी दिखायी देगी कि उनके हिस्से का अंधेरा और हर जगह छाने लगा है । लोकतंत्र के इस मवाद को कोई सत्ता के लिये भी हथियार बना सकता है ये इससे पहले कभी किसी ने सोचा नहीं या फिर इससे पहले संसदीय लोकतंत्र की उम्र बची हुई थी इसलिये किसी ने ध्यान ही नहीं दिया । हो जो भी लेकिन अंधेरे की सत्ता लोकतंत्र के उजियारे को कैसे अपनी मुठठी में कौद कर सकती है और कैसे ढहढहाकर लोकतंत्र सत्ता के आगे नतमस्तक हो सकता है उसकी लाइव कमेन्ट्री देस देश भी रहा है और भोग भी रहा है । संसदीय लोकतंत्र में अब ये इतिहास के पल हो चुके है कि जनता के मुद्दे होने चाहिये । उम्मीदवारो की पहचान होनी चाहिये । मुद्दो के जरीये संसद की जरुरत होनी चाहिये और उम्मीदवारो क जरीये समाज के अलग अलग तबके से सरोकार होने चाहिये । यानी ये महसूस होना चाहिये कि संसद में जनता के प्रतिनिधित्व करने वाले पहुंचे है । और भारत की विवधता को संसद समेटे हुये है । पर अब तो ना मुद्दे मायने रखते है ना ही उम्मीदवार । और ना ही संसद की वह गरिमा बची है जिसके आसरे जनता में भावनात्मक लगाव जागे कि संसद चल रही है तो उनकी जिन्दगी से जुडे मुद्दो पर बात होगी । रास्ता निकलेगा । अब ना तो हमारे पास संसद की गरिमा है । ना ही हमारे पास संविधान की व्याख्या करने वाली सु्रीम कोर्ट है । ना ही कोई संविधानिक सस्थान है जो सत्ताधारियो पर लगते आरोपो की जाच तो दूर सत्ता की मर्जी के बिना अपने ही काम को कर सके । ना ही हर पांच बरस बाद लोकंतत्र को जीने की स्वतंत्रता का एहसास कराने वाला चुनाव आयोग है । ना ही मानवाधिकार आयोग है जो जनता के हक की रक्षा का भरोसा जगाये । ना ही किसान-गरीब-मजदूरो के हके के सवालो को लिये संघर्ष करने वाले समाजसेवी संगठन है । ना ही ऐसे शिक्षा संस्थान है जो दुनिया की दौड में भारतीय बच्चो पर खडा कर सके , शिक्षित कर सके । और ना ही हमारे पास राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का वो एहसास है जो राजनीति को सहकार-सरोकार और बहुसंख्यक जनता से जोडने की दिशा में ले जाये । अब हमारे पास मजदूरो की ऐसी फौज है जिसके लिये कोई काम है ही नहीं । किसानो की बदहाली है जिनके लिये सिवाय खुदकुशी के कुछ देने की स्थिति में सत्ता नहीं है । अब हमारे पास अरबपतियो की ऐसी कतार है जो देश में लूट मचाकर दुनिया के बाजार में अपन धमक बनाये हुये है । अब हमारे पास बेरोजगारो की ऐसी फौज है जो राजनीति पार्टियो में नौकरी कर रही है या कैरियर बनाने के लिेये नेताओ की चाकरी में जुटी है । अब हमारे पास अपराधी और भ्रष्ट्र सांसदो विधायको की ऐसी फौज है जो जनता के प्रतिनिधी बनकर संविधान को खत्म कर संविधान से मिले विशेषाधिकार का भी लुत्फ उठा रही है और अपराध भी खुले तौर पर कर रह है । अब हमारे पास कानून-व्यवस्था नहीं है बल्कि सडक पर लिचिंग कर न्याय देने का जंगल कानून है । अब हमारे पास ऐसी फौज है जो बिना वर्दी फौज से ज्यादा ताकत रखती है । फिर हमारे पास अब नये चेहरे के साथ नाथूराम गोडसे भी है । और इस आधुनिक पूंजी पर अंगुली उटाने वाले या सवाल करने वाले या तो लुटियन्स के बौध्दिक करार दिया जा चुके है या फिर शहरी नक्सलवादी या फिर खान मार्केट के ग्रूप या फिर देश द्रोही या पाकिस्तान की हिमायती । तो संविधान के नाम पर ही जब सत्ता लोकतंत्र को हडप कर अंधेरे को ही देश का सच बताने निकल पडी हो तो फिर सवाल ये नही है कि चुनाव के जरीये देश के नागरिको ने लोकतंत्र को जीया या नहीं । बल्कि सवाल तो ये है कि एक वोट का लोकतंत्र भी गायब हो गया । क्योकि नागरिक भी ईवीएम के सामने बौना हो गया और ईवीएम में समाये लोकतंत्र में सत्ता को ना तो बीजपी की जरुरत है और ना ही संघ परिवार की । तो लोकतंत्र को जीते देश में जनता के प्रतिनिधी हो या नौकरशाही या फिर न्यायपालिका हो या मीडिया । जो जितनी जल्दी मान लें कि उसकी भागेदारी बटी ही नहीं उसके लिये उतनी ही जलदी ठीक हालात होगें । क्योकि लोकतंत्र की नई परिभाषा में सत्ता के लिये काम करते लोकतंत्र के स्तम्भ ही असल स्तम्भ है । इसीलिये जो सोच रहे है कि आने वाले वक्त में चुनाव की जररत ही नहीं होगी । उसका पहला एहसास तो 2019 में ही हो गया कि जितना लोकतंत्र [ ईवीएम़ ] वोटिंग बूथों के भीतर थे उससे ज्यादा लोकतंत्र बूथो के बाहर था । आप बूथो के बाहर कतारो में खडे थे और बाहर बिना कतार ज्यादा अनुशासत्मक तरके से लोकतंत्र का ठप्पा लग रहा था । तो एक वक्त इंदिरा ने लोकतंत्र खत्म कर एमरजेन्सी को अनुशासनात्मक कारर्वाई कहा था और अब सत्तानुकुल अनुशासानात्मक ठप्पे को ही लोकतंत्र कहा ज रहा है । देश बहुत आगे निकल चुका है । आप कहीं पिछड तो नहीं गये । Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com39tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-4254771345075669792019-05-01T22:30:00.003+05:302019-05-01T22:30:40.119+05:30मोक्ष नगरी में मोदी का मायावी संसारखाक भी जिस ज़मी की पारस है, शहर मशहूर यह बनारस है। तो क्या बनारस पहली बार उस राजीनिति को नया जीवन देगा जिस पर से लोकतंत्र के सरमायेदारों का भी भरोसा डिगने लगा है। फिर बनारस तो मुक्ति द्वार है । और संयोग देखिये वक्त ने किस तरह पलटा खाया जो बनारस 2014 में हाई प्रोफाइल संघर्ष वाली लोकसभा सीट थी , 2019 में वही सीट सबसे फिकी लडाई के तौर पर उभर आई । जी, देश के सबसे बडे ब्रांड अंबेसडर के सामने एक ऐसा शख्स खडा हो गया जिसकी पहचान रोटी - दाल से जुडी है । यानी चाहे अनचाहे नरेन्द्र मोदी का ग्लैमर ही काफूर हो गया जो सामने तेज बहादुर खडा हो गया । राजनीतिक तौर पर इससे बडी हार कोई होती नहीं है कि राजा को चुनौती देने के लिये राजा बनने के लिये वजीर या विरोधी नेता चुनौती ना दे बल्कि जनता से निकला कोई शख्स आ खडा हो जाये , और कहे मुझ राजा नहीं बनना है । सिर्फ जनता के हक की लडाई लडनी है । तो फिर राजा अपने औरे को कैसे दिखाये और किसे दिखाये । कयोकि राजा की नीतियो से हारा हुआ शख्स ही राजा को चुनौती देने खडा हुआ है तो फिर राजा के चुनावी जीत के लिये प्रचार की हर हरकत अपनी जनता को हराने वाली होगी । जो जनता की नहीं राजा की हार होगी । और ये सच राजा समझ गया तो व्यवस्था ही ऐसी कर दी गई कि जनता से निकला शख्स सामने खडा ही ना हो पाये । तो सूखी रोटी और पानी वाले दाल की लडाई करने वाले तेजबहादुर का पर्चा ही उस चुनाव आयोग ने खारिज क दिया जो खुद राजा के रहनुमा पर जी रहा है । तो क्या ये मान लिया जाये कि ये बनारस की ही महिमा है जिसने मुक्ति द्वार खोल दिया है और मोक्ष के संदेश देने लगा है । क्योकि बनारस को पुराणादि ग्रंथो के आसरे परखियेगा तो पुराणकार बताते है कि काशी तीनो लोकों में पवित्रतम स्थान रखती है , ये आकाश में स्थित है तछा मर्त्यलोक से बाहर है....<br />
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वाराणसी महापुण्या त्रिषुलोकेषु विश्रुता । / अन्तरिक्षे पुरी सा तु मर्त्यलोक बाह्रात ।।<br />
हे पार्वती ! तीनो लोको का सार मेरी काशी सदा धन्य है :<br />
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वाराणसीति भुवनत्रयसारभूता धन्या सदा ममपुरी गिरिराजपुत्री ।<br />
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लेकिन बनारस तो सियासी छल कपट । घोखा फरेब की सियासत में इस तरह जा उलझी है । जहा राजा एक राज्य संभालते हुये चुनावी दस्तावेज में खुद को अविवाहित बताता है । लेकिन देश संभालने के वक्त खुद को विवाहित बताता है । शिक्षा करत हुये मिलने वाली डिग्री भी चुनाव दर चुनाव बदलती है । लेकिन राजा तो राजा है । इसलिये वसंतसेना भी जब पांच बरस में ग्रेजुएट से बारहवी पास हो जाती है तो भी चुनाव आयोग को कुछ गलत नहीं लगता । और तो और देश भर में चुनाव लडने वालो में 378 उम्मीदवार आपराधी या भ्रष्ट्राचर के दायरे में है , लेकिन लोकतंत्र ऐसी खुली छूट देता है कि चुनाव आयोग उन्हे छू भी नहीं पाता । लेकिन जनता से निकला तेजबहादुर जब राजा की नीतियो पर रोटी का सवाल उठाकर शिंकजा कसता है तो पहले नौकरी से बर्खास्गी फिर लोकतंत्र की परिभाषा तले चुनाव लडने पर ही रोक लगाने में समूचा अमला लग जाता है । जिससे राजा को कोई परेशानी ना हो कि आखिर वह जनता को क्या कहगा ..... जनता को हरा दो । मुस्किल है । तो फिर राजा काशी की महत्ता उसके सच को क्या जाने । वह तो आस्था को चुनावी भावनाओ की थाली में समेट पी लेना चाहता है । तभी तो काशी की पहचान को ही बदल दिया जाता है । ऐसे में काशी की वरुणा और अस्सी नदी तो दूर गंगा तक ठगा जा रहा है तो फिर अतित की काशी को कौन परखे कैसे परखे । एक वक्त माना तो ये गया कि वरुणा और अस्सी नदियो के बीच स्थित बनारस में स्नान , जप , होम, मरण और देवपूजा सभी अक्षय होते है । लेकिन गंगा का नाम लेकर सियासत इन्हे भूल गई और गंगा की पहचान बनारस में है क्या इस समझ को भी सत्ता सियासत समझ नहीं पायी । बनारस में गंगा का पानी भक्त कभी घर नहीं ले जाते । क्योकि बनारस में तो गंगा भी मुक्ति द्वार है । काशी के प्रति लोगो में आस्था इस हद तक बढी कि लोग विधानपूर्वक आग में जलकर और गंगा में कूदकर प्राण देने लगे , जिससे कि मृतात्मा सीधे शिव के मुख में प्रवेश कर सके । उन्नीसवी सदी तक लोग मोक्ष पाने के विचार से , यहा गंगा में गले में पत्थर बांधकर डूब जाते थे । आज भी इस विचार को समेटे लोगो के बनारस पहुंचने वाले कम नहीं है । लेकिन अब तो इक्किसवी सदी है । और गंगा मुक्ति नहीं माया का मार्ग है । इसीलिय तो बनारस की सडको पर मु्कित नहीं सत्ता का द्वार खोजने के लिये जब तीन लाख से ज्यादा लोगो को नरेन्द्र मोदी के प्रचार क लिये लाया गया और गंगा को समझे बगैर , बनारस की महत्ता जाने बगैर अगर मेहनताना लेकर सभी राजा के लिये नारा लगाते हुये आये और खामोशी से लोट गये तो फिर चाहे अनचाहे भगवान बुद्द याद आ ही जायेगें । भगवान बुद्द भी अपने धर्म का प्थम उपदेश देने सबसे पहले बनारस ही आये थे । उन्होने कहा था....<br />
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भेदी नादयितुं धर्म्या काशी गच्छामि साम्प्रतम ।<br />
न सुखाय न यशसे आर्तत्राणाय केवलम् ।।<br />
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यानी धर्मभेरी बजाने के लिये इस समय मै काशी जा रहा हूं - न सुख के लिये और न यश के लिये, अपितु केवल आर्तो की रक्षा के लिये ।<br />
तो हालात कैसे बिखरे है संस्कृति कैसे बिखरी है इसलिये बनारस की पहचान अब खबरो के माध्यम से जब परोसी जाती है तो चुनावी बिसात पर बनारस की तहजीब, बनारस का संगीत , बनारस का जायका या फिर बनारस की मस्ती को खोजने में लगत है । और काशी की तुलना में दिल्ली को ज्यादा पावन बताने में कोई कोताही भी नहीं बरतता है ।<br />
लेकिन 2019 में नरेन्द्र मोदी और तेज बहादुर का सियासी अखाड़ा बनारस बना तो फिर बनारस या तो बदल रहा है या फिर बनारस एक नये इतिहास को लिखने के लिये राजनीतिक पन्नों को खंगाल रहा है। बनारस से महज १५ कोस पर सारनाथ में जब गौतम बुद्द ने अपने ज्ञान का पहला पाठ पढ़ा, तब दुनिया में किसी को भरोसा नहीं था गौतम बुद्द की सीख सियासतों को नतमस्तक होना भी सिखायेगी और आधुनिक दौर में दलित समाज सियासी ककहरा भी बौध धर्म के जरीये ही पढेगा या पढ़ाने की मशक्कत करेगा। गौतम बुद्ध ने राजपाट छोडा था। मायावती ने राजपाट के लिये बुद्द को अपनाया। इसी रास्ते को रामराज ने उदितराज बनकर बताना चाहा और समाजवादी पार्टी ने तो गौतम बुद्द की थ्योरी को सम्राट अशोक की तलवार पर रख दिया। सम्राट अशोक ने बुद्दम शरणम गच्छामी करते हुये तलवार रखी और अखिलेश यादव ने तेजबहादुर के निर्दलिय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरन के बाद समझा कि समाजवादी बनाकर संघर्ष करवा दिया जाये तो सियासत साधी जा सकती है । तो अखिलेश ने सत्ता गच्छामी करते हुये सियासी तलवार भांजनी शुरु की। पर बनारस तो मुक्ति पर्व को जीता रहा है फिर यहा से सत्ता संघर्ष की नयी आहट नरेन्द्र मोदी ने क्यो दी। मोक्ष के संदर्भ में काशी का ऐसा महात्म्य है कि प्रयागगादु अन्य तीर्थो में मरने से अलोक्य, सारुप्य तथा सानिद्य मुक्ती ही मिलती है और माना जाता है कि सायुज्य मुक्ति केवल काशी में ही मिल सकती है। तो क्या सोमनाथ से विश्वनाथ के दरवाजे पर दस्तक देने नरेन्द्र मोदी 204 में इसलिये पहुंचे कि विहिप के अयोध्या के बाद मथुरा, काशी के नारे को बदला जा सके। या फिर संघ परिवार रामजन्मभूमि को लेकर राजनीतिक तौर पर जितना भटका, उसे नये तरीके से परिभाषित करने के लिये मोदी को काशी चुनना पड़ा। लेकिन 2019 में जिस तरह काशी को मोदी ने सियासी तौर पर आत्मसात कर लिया है उसमें मोदी कहीं भटके नहीं है । क्योंकि काशी को तो हिन्दुओं का काबा माना गया। याद कीजिये गालिब ने भी बनारस को लेकर लिखा,<br />
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" तआलल्ला बनारस चश्मे बद्दूर, बहिस्ते खुर्रमो फिरदौसे मामूर, इबादत खानए नाकूसिया अस्त, हमाना काबए हिन्दोस्तां अस्त। "<br />
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यानी हे परमात्मा, बनारस को बुरी दृष्टि से दूर रखना, क्योंकि यह आनंदमय स्वर्ग है। यह घंटा बजाने वालों अर्थात हिन्दुओ का पूजा स्थान है, यानी यही हिन्दुस्तान का काबा है। तो फिर तेज बहादुर यहां क्यों पहुंचे। क्या तेज बहादुर काशी की उस सत्ता को चुनौती देने पहुंचे हैं, जिसके आसरे धर्म की इस नगरी को बीजेपी अपना मान चुकी है। या फिर तेजबहादुर के अक्स तले अखिलेश यादव को लगने लगा है कि राजनीति सबसे बड़ा धर्म है और धर्म सबसे बड़ी राजनीति। संघ परिवार धर्म की नगरी से दिल्ली की सत्ता पर अपने राजनीतिक स्वयंसेवक को देख रहा है। और अखिलेश यादव , तेजबहादुर यादव के जरीये काशी में नैतिक जीत से दिल्ली की त्रासदी से मुक्ति चाहने लगे । तो क्या सबे प्रचिन नगरी कासी को ही सियासत पंचतंत्र की कहानियो में तब्दिल करना चाहती है जिससे यहा की सासंकृतिक महत्ता खत्म हो जाये । क्योकि बनारस की राजनीतिक बिसात का सच भी अपने आप में चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि जितनी तादाद यहां ब्राह्मण की है, उतने ही मुसलमान भी हैं। करीब ढाई-ढाई लाख की तादाद दोनों की है। पटेल डेढ़ लाख तो यादव एक लाख है और जायसवाल करीब सवा लाख। मारवाडियों की तादाद भी ४० हजार है। इसके अलावा मराठी, गुजराती, तमिल , बंगाली, सिख और राजस्थानियों को मिला दिया जाये तो इनकी तादाद भी डेढ लाख से उपर की है। तो 17 लाख वोटरों वाले काशी में मोदी का शंखनाद गालिब की तर्ज पर हिन्दुओं का काबा बताकर मोदी का राजतिलक एक बार फिर कर देगा या फिर काशी को चुनौती देने वाले कबीर से लेकर भारतेन्दु की तर्ज पर तेजबहादुर की चुनौती स्वीकार करेगा। क्योंकि गालिब बनारस को लेकर एकमात्र सत्य नहीं है। इस मिथकीय नगर की धार्मिक और आध्यात्मिक सत्ता को चुनौतिया भी मिलती रही हैं। ऐसी पहली चुनौती १५ वी सदी में कबीर से मिली। काशी की मोक्षदा भूमि को उन्होंने अपने अनुभूत-सच से चुनौती दी और ऐसी बातों को अस्वीकार किया। उन्होंने बिलकुल सहज और सरल ढंग से परंपरा से चले आते मिथकीय विचारों को सामने रखा और बताया कि कैसे ये सच नहीं है। अपने अनुभव ज्ञान से उन्होने धार्मिक मान्यताओं के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जो एक ओर काशी की महिमा को चुनौती देता था तो दूसरी ओर ईश्वर की सत्ता को। उन्होंने दो टूक कहा-जो काशी तन तजै कबीरा। तो रामहिं कौन निहोरा। यह ऐसी नजर थी , जो किसी बात को , धर्म को भी , सुनी -सुनायी बातो से नहीं मानती थी। उसे पहले अपने अनुभव से जांचती थी और फिर उस पर भरोसा करती थी।<br />
काशी का यह जुलाहा कबीर कागद की लेखी को नहीं मानता था, चाहे वह पुराण हो या कोई और धर्मग्रंथ। उसे विश्वास सिर्फ अपनी आंखो पर था। इसलिये कि आंखों से देखी बातें उलझाती नहीं थी…तू कहता कागद की लेखी, मै कहता आंखन की देकी। मै कहता सुरझावनहरी, तू देता उरझाई रे। वैसे बनारस की महिमा को चुनौती तो भारतेन्दु ने १९ वी सदी में भी यह कहकर दी…..देखी तुमरी कासी लोगों , देखी तुमरी कासी। जहां बिराजे विस्वनाथ , विश्वेश्वर जी अविनासी। ध्यान दें तो बनारस जिस तरह २०१४ का सियासी अखाडा बन रहा था 2019 के हालात ठीक उसके उलट है । 2014 में नेताओ के कद टकरा रह थे । 2019 में जनता के कद के आगे राजा का बौनापन है जो बनारस को जीता है और जीत भी सकता है । यानी 2014 में सियासी आंकड़े में कूदने वाले राजनीति के महारथियो को जैसे जैसे बनारस के रंग में रंगने की सियासत भी शुरु हुई है। वह ना तो बनारस की संस्कृति है और ना ही बनारसी ठग का मिजाज। लेकिन अब तो वाकई काशी की जमीन पर गंवई अंदाज में काशी मे मुक्ति का सवाल है । और मुक्ति जीत पर भारी है । इसे दिल्ली का राजा चाहे ना समझे लेकिन काशी वासी समझ चुके है । पर उनकी समझ को भी राजा अपने छाती पर तमगे में टांगना चाहता है । पर राजा ये नहीं जानता कि काशी को जीत कर वह हार रहा है क्योकि राजा का लक्ष्य तो अमेरिका है । और बनारस को बिसमिल्ला खां के दिल को जीता है ।<br />
बिस्मिल्ला खां ने अमेरिका तक में बनारस से जुड़े उस जीवन को मान्यता दी, जहां मुक्ति के लिये मुक्ति से आगे बनारस की आबो हवा में नहाया समाज है। शहनाई सुनने के बाद आत्ममुग्ध अमेरिका ने जब बिस्मिल्ला खां को अमेरिका में हर सुविधा के साथ बसने का आग्रह किया तो बिस्मिल्ला खां ने बेहद मासूमियत से पूछा, सारी सुविधा तो ठीक है लेकिन गंगा कहा से लाओगे। और बनारस का सच देखिये। गंगा का पानी हर कोई पूजा के लिये घर ले जाता है लेकिन बनारस ही वह जगह है जहा से गंगा का पानी भरकर घर लाया नहीं जाता । तो ऐसी नगरी में मोदी किसे बांटेंगे या किसे जोड़ेंगे। वैसे भी घंटा-घडियाल, शंख, शहनाई और डमरु की धुन पर मंत्रोच्चार से जागने वाला बनारस आसानी से सियासी गोटियो तले बेसुध होने वाला शहर भी नहीं है। बेहद मिजाजी शहर में गंगा भी चन्द्राकार बहती है बनारस हिन्दु विश्वविघालय के ३५ हजार छात्र हो या काशी विघापीठ और हरिश्चन्द्र महाविघालय के दस -दस हजार छात्र। कोई भी बनारस के मिजाज से इतर सोचता नहीं और छात्र राजनीति को साधने के लिये भी बनारस की रंगत को आजमाने से कतराता नहीं। फिर बनारस आदिकाल से शिक्षा का केन्द्र रहा है और अपनी इस विरासत को अब भी संजोये हुये हैं। ऐसे में सेना के जवान हाथो में सूखी रोटिया और पानी की दाल का सच दिखाकर पहचान पाये है तो दूसरी तरफ गुजरात के राजधर्म और दिल्ली के लोकतंत्र पर चढाई कर नरेन्द्र मोदी बनारस में है । मोदी की बिसात पर बनारसी मिजाज प्यादा हो नहीं सकता और तेज बहादुर सियासी बिसात पर चाहे प्यादा साबित हो खारिज कर दिये गये लेकिन बनारसी मिजाज तो उन्हे मोक्ष दे रहा है । क्योकि मोदी वजीर बनने के लिये लालालियत है और तेज बहादुर मुक्ति पाने की छटपटाहट में बनारस पहुंचे है । तो फिर बनारस का रास्ता जायेगा किधर। नजरें सभी की इसी पर हैं। क्योंकि बनारस की बनावट भी अद्भुत है….यह आधा जल में है । आधा मंत्र में है । आधा फूल में है । आधा शव में है । आधा नींद में है। आधा शंख में है । और काशी का आखरी सच यही है कि यहा सूई की नोंक भर भी स्थान नहीं है , जहा जाने वाले को मोक्ष ना मिले । और मोक्ष में लिंग जाति वर्ण वर्ग का कोई भेद नहीं होता । तो आप तय किजिये मोक्ष किसे मिलेगा या किसे मिलना चाहिये ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-86478519548346107262019-04-19T10:35:00.001+05:302019-04-19T10:35:22.824+05:30स्वंयसेवक की चाय का कमाल...लोकतंत्र टूटने का भय और दिल्ली से मोदी के चुनाव लडने के संकेत<br />
तो वाजपेयी जी गर्म चाय पिजिये और आप फंडिग या छापो की सियासत से आगे बढ नहीं पाये । लेकिन जहा से हमने बात शुरु की थी वही दोबारा लौट चलिये । सवाल सिर्फ हिन्दू आंतकवाद शब्द के आसरे संघ को राजनीति मैदार में प्रज्ञा क जरीये लाने भर की चौसर नहीं है । बल्कि उसी महीनता को फिर पकडिये कि कैसे बीजेपी ने कार्यकत्ताओ का दायरा कितना बडा कर लिया है । यानी संघ के सवयसेवको की तादाद भी छोटी पड गयी है दस करोड बीजेपी सदस्यता के सामने । और इस ताकत को संख्याबल पर मोदी-शाह संघ को भी आईना दिखाने की स्थिति में है या कहे पार्परिक बीजेपी का तानाबान अब कितना बदल चुका है जरा इसे भी समझना जरुरी है । कयोकि संवयसेवक बिना वेतन काम करता है लेकिन बीजेपी ने बूथ स्तर पर भीकार्यकत्ताओ की संख्या बल को जिस तरह सुविधा या कहे वेतन के जरीये जोडा उससे जीत नहं मिलती ये बात बीजेपी की नई सोच समझ नहीं पा रही है । लेकिन बीजेपी बदली है तो फिर संघ को भी बदलना होगा ।<br />
क्यो , संघ का अपना रास्ता है<br />
प्रोफेसर साहेब आप बार बार इ हकीकत को भूल रहे है कि कल तक संघ का इशारा बीजेपी सत्ता के लिये काफी होता था लेकिन मोदी काल में सत्ता का इशारा संघ के लिये जीवन-मरण का सवाल इसलिये बना दिया गया क्योकि संघ की नीतियों या विचारधारा से इतर सत्ता पर बने रहने को संघ की जीत के तौर पर भी इस दौर में स्वीकार कर लिया गया है ।<br />
लेकिन बंधु क्या ये सच नहीं है कि जब जनसंघ का स्थिपना हो रही थी तब से लेकर 2019 तक की बीजेपी के हिन्दुत्व में बहुत अंतर आ गया है । और मोदी काल में हिन्दुत्व के नाम पर भी दो तरह के वोटर है । पहला जो शांत है पैसिव है । दूसरा जो वोकल है एक्टिव है । और जो वोकल है वह ज्यादा मध्य-उच्चवर्ग का तबका है । और उसके लिये मोदी भगवान सरीखे भी हो चले है ।<br />
हा हा ...और आप इसे भक्त भी कहते है । क्यों<br />
कह सकते है । जिस तरह स्वयसेवक बोले उसमें तंज भी था और मुश्किल हालात भी ।<br />
मुझे बात ये कहकर आगे बढानी पडी कि अटल बिहारी वाजपेयी के दौर और मोदी के दौर में हिन्दुत्व को लेकर भी सोच बदल गई है ।<br />
मेरे ये कहते ही स्वयसेवक महोदय बोल पडे । आपने उस नब्ज को पकडा है जिस नब्ज पर संघ भी ध्यान दे नहीं रहा है । क्योकि अटल बिहारी वाजपेयी बीजेपी का ट्रासफारमेशन काग्रेसी तर्ज पर कर रहे थे । इसलिये ध्यान दिजिये कि हिन्दु शब्द की गूंज वाजपेयी के सत्ता काल में नहीं थी । और धीर धीरे दलित-मुसलमान भी बीजेपी के साथ आ खडा ह रहा था । और मोदी इस सच को समझ नहीं पाते कि 2014 में मुसलमानो का वो भी बीजेपी को मिला और उसके पीछे वाजपेयी काल की खूशबू थी और मोदी काल को लेकर उम्मीद । लेकिन 2014 के बाद जिस तरह उग्र या कहे लुपंन हिन्दुत्व राजनीति के आसरे हिन्दु समाज में मो सत्ता ने सेंघ लगायी उसमें बीजेपी तो कही पीछे छूट ही गई । संघ को भी समझ नहीं आया कि वह कैसे हिन्दुत्व को सत्ता के नजरिये से इतर परिभाषित करें । असर इसी का है कि अब मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं करेगा और संघ को साजिश के कटघरे में खडा कर ही देखेगा ।<br />
ये आप कह रहे है ।<br />
बिलकुल .... हालात को समझे 18 अप्रैल को जब दूसरे चरण का मतदान हो रहा था तब इन्देश कुमार दिल्ली में मुसलमानो को मोदी के गुण समझा रहे थे । और वोट देने की गुहार लगा रहे थे । सवाल यही है कि भोपाल मे साध्वी को और श्रीनगर में खालिद जहांगीर को टिकट देने भर से क्या होगा ।<br />
तो क्या संघ इन हालातो को समझ रहा है ।<br />
प्रोफेसर साहेब मुश्किल ये नहीं है कि संघ क्या समझ रहा है ...मुश्किल तो ये है कि जिस रास्ते बीजेपी निकल पडी है उसमें अगर मोदी चुनाव हार जाते है तो फिर बीजेपी 20 बरस पीछे चली जायेगी । क्योकि सत्ता विचारधारा हो नहीं सकती और जिस तरह मोदी का खौफ दिखाकर सबको समेटने की चाहत ही विचारधारा हो गई है उसमें ये सवाल तो कोई भी अब कर सका है कि वाकई मोदी चुनाव हार गये तो बीजेपी का होगा क्या । क्योकि चुनावी जीत विचारधारा हो नहीं सकती और जीत के लिये चुनावी मंत्र सोच हो नहीं सकती है । ऐसे में चुनावी हार हो जाये तो फिर कौन सी नई सोच या कौन सी विचारधारा बीजेपी के पास बचेगी ये सवाल तो है कि क्योकि वैचारिक तौर पर बीजेपी को चुनावी हार के बाद खडा करना अनुभवी नेता के ही बस में होता है । और जब अनुभव को पार्टी में मान्यता ही नहीं दी जा रही हैतो फिर बीजेपी को पटरी पर लायेगा कौन । ये सवाल भी है । जो पटरी पर ला सकते है उन्हे खारिज कर हाशिये पर ढकेल दिया गया । और इसी दौर में काग्रेस ने बीजपी या कहे संघ के ही उन मुद्दो को अपना लिया जिन मुद्दो के आसरे संघ हमेशा काग्रेस को खारिज करती रही ।<br />
मसलन..<br />
मसलन किसान की कर्ज माफी । मजदूरो को न्यूनतम आय । बेरोजगारो को राहत । कारपोरेट विरोध । और ध्यान दिजिये को मोदी कारपोरेट प्रेम में और पालेटिकल फंडिग में इतने आगे बढ चुके है कि बीजेपी कार्यकत्ताओ या संगठन की पार्टी है ये शब्द भी तो गायब हो गया है ।<br />
तो इसके मतलब मायने क्या निकाले जाये ।<br />
हा हा .....खौफजदा शख्स ही खौफ पैदा करता है ।<br />
तो क्या आप भी फंडिग या छापो या फिर संस्थानो को धराशाही करने केअक्स में ये देख रहे है ।<br />
मेरे सवाल पर स्वयसेवक महोदय पहली बार बोले... हो सकता है लेकिन चार दिन पहले गुजरात में जब मोदी गुजरातियो को संबोधित करते हुये कहते है कि .... देख लेना काग्रेस के निशाने पर हो सभी .... तो संकेत कई है ।<br />
आपने जब इतना कह ही दिया तो आखरी बात मै भी कह दूं...अचानक प्रोफेसर साहेब बोले ...<br />
बिलकुल<br />
तो अगर मोदी चुनाव जीत जाते है तो फिर उस नब्ज को भी समझने की कोशिश किजिये कि हिन्दुस्तान का लोकतंत्र कैसे चलता है । लोकतंत्र का मतलब है संविधान की वो कारिगरी जिसमें सारी व्यवस्थाये स्वायत्त भी है और एक बिंदु से आगे एक दूसरे पर निर्भर भी है । यही चैक एंड बैलेस हमारा लोकतांत्रिक अनुशासन है । विधायिका स्वायत्त है । वह कानून बनाये । नौकरशही स्वायत्त है कि वह उसे लागू करें । लेकिन विधायिका का वह कानून खारिज भी हो सकता अगर न्यायापालिका की संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरती हो । न्यायापालिका संविधान की रोशनी हर फैसला करने का अधिकार और सामर्थ्य रखती है लेकिन उसका कोई भी फैसला संसद पलट भी सकती है । रिजर्व बैक , कैग , सीबीआई, संसदीय समितिया , चुनाव आयोग , प्रसार भारती , मीडिया सभी के साथ यही सच है । <br />
तो इसमें गडबडी क्या है प्रोफेसर साहेब ...<br />
यही कि मोदी सत्ता इनको अपनी सत्ता के आगे रोडा समझती है और इन्हे खत्म करने पर तुली है । इसलिये लोकतंत्र कमजोर पड रहा है । और यही दिशा आगे बढती चल गई तो लोकतंत्र ही टूट जायगा ।<br />
अगर आप ऐसा सोच रहे है तो फिर ये भी समझ लिजिये .... मोदी सिर्फ बनारस से चुनाव नहीं लडेगें । खासकर तब जब प्रियकां के जरीये समूचा विपक्ष मोदी को घेर रहा है । और सच ये भी है कि 2014 में मोदी महज तीन लाख वोट से जीते थे । और तब मैदान में केजरीवाल के अलावे काग्रेस सपा बसपा सभी के उम्मीदवार मैदान में थे ।<br />
तो क्या आप संकेत दे रहे है कि मोदी बनारस में निपट भी सकते है ।<br />
जी नहीं प्रोफसर साहेब मै सकेत दे रहा दूं कि मोदी आखिरी दम तक हार मानगें नहीं । इसलिये वह दूसरी सीट से भी चुनाव लड सकते है ।<br />
और वो दूसरी सीट होगी कौन सी .....मेरी उत्सुकता जागी । तो स्वयसेवक महोदय ठहाका लगाते हुये बोले... सवाल तो सबसे बडा यही है ।<br />
लेकिन आपको क्या लगता है । वह भी दक्षिण की कोई सीट......ना ना ये गलती मोदी नहीं करेगें ।<br />
तो<br />
तो क्या दिल्ली ।<br />
क्या कह रहे है आप....<br />
आप नहीं वाजपेयी जी ....दिल्ली का मतलब क्या होगा जरा समझे....<br />
ये तो ब्रेकिग न्यूज होगी ।<br />
हो सकता है ..... जी एक तीर से कई निशाने ..... लेकिन अभी सिर्फ हम सोच सकते है ।<br />
कमाल है .... आप सोचने की बात कर रहे है । ये रणनीति तो वाकई कमाल की होगी....<br />
पर अब प्रोफेसर साहेब ने मेरी तरफ देख कर कहा.....वाजपेयी जी...दिल्ली का सुल्तान या दिल्ली का ठग<br />
क्यों आप ये क्यो कह रहे है .... समझे जरा दिल्ली वाटरलू भी साबित हो सकती है ।<br />
और सुल्तान भी बना सकती है । स्वयसेवक महोदय ने कहते हुये जोरदार ठहाका लगाया......<br />
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Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-9033779552129916932019-04-18T12:56:00.003+05:302019-04-18T12:56:53.570+05:30स्वयंसेवक जब कहे मोदी आखरी लडाई लड रहे है तो.....<br />
<br />
ये कलयुग है और कलयुग में ना तो महाभारत संभव है ना ही गीता का पाठ । या फिर न्याय के लिये संघर्ष । जोडतोड की भी कलयुग में उम्र होती है । कलयुग में तो ताकत ही सबकुछ है और ताकत का मतलब ज्ञान नहीं बल्कि धोखा -फरेब के आसरे उस सत्ता का जुगाड है जिस जुगाड का नियम है खुद के साथ सबकुछ स्वाहा करने की ताकत । और जबतक ताकत है तबतक स्वाहा होते हालात पर कोई अंगुली नहीं उठाता । सवाल नहीं करता ।<br />
स्वयसेवक साहेब का यह अंदाज पहले कभी नहीं था । लेकिन आप ये कह क्यो कह रह है और हम सभी तो चाय के लिये आपके साथ इसलिये जुटे है कि कुछ चर्चा चुनाव की हो जाये । लेकिन आज आप सतयुग और कलयुग का जिक्र क्यो कर बैठे है । मुझे टोकना पडा । क्योकि मेरे साथ आज प्रोफेसर संघ के भीतर की उस हकीकत को समझने आये थे जहा प्रज्ञा ठाकपर को भोपाल से उतारने के पीछे संघ है या बीजेपी । या फिर संघ अब अपने पाप-पुण्य का परिक्षण भी मोदी के 2019 के समर में कर लेना चाहता है ।<br />
दरअसल प्रोफेसर साहेब के इसी अंदाज के बाद स्वयसेवक महोदय जिस तरह कलयुग के हालात तले 2019 के चुनाव को देखने लगे उसमें स्वयसेवक ने खुले तौर पर पहली बार माना कि मोदी-शाह की खौफ भरी बाजीगरी तले बीजेपी के भीतर की खामोश उथलपुथल। संघ का हिन्दु आंतक को लेकर प्रज्ञा क जरीये चुनाव परिक्षण । और जनादेश के बाद जीत का तानाबाना लेकिन हार के हालात में बीजेपी को जिन्दा रखने का कोई प्लान ना होना संघ को भी डराने लगा है ।<br />
तो क्या संघ मान रहा है मोदी चुनाव हार रहे है । प्रोफेसर साहेब ने जिस तरह सीधा सवाल किया उसका जवाब पहली बार स्वयसेवक महोदय के काफी हद तक सीधा भी दिया और उलझन भी पैदा कर दी । ....मैने आपको कहा ना ये महाभारत काल नहीं है लेकिन महाभारत का कैनवास इतना बा है कि उसमें कलयुग की हर चाल समा सकती है । सिर्फ आपको अपनी मनस्थिति से हालात को जोडना है । और अब जो मै कहने जा रहा हूं उसे आप सिर्फ सुनेगे....टोकेगें नहीं ।<br />
जी...मै और प्रोफेसर साहेब एक साथ ही बोल पडे ।<br />
तो समझे ...संघ तो भीष्म की तरह बिधा हुआ युद्द स्थल पर गिरा हुआ है । संघ जब चाहेगा उसकी मौत तभी होगी । लेकिन मौजूदा हालात में संघ की जो ताकत बीजपी को मिला करती थी वह मोदी के दौर में उलट चुकी है । कल तक संघ अपने सामाजिक-सास्कृतिक सरोकारो के जरीये राजनीति का परिषण करता था । अब संघ को परिषण के लिये भी बीजेपी की जरुरत है । और इसकी महीनता को समझे तो काग्रेस की सत्ता के वक्त हिन्दु आंतकवाद का सवाल संघ को नहीं बीजेपी को डरा रहा था । क्योकि बीजेपी को संघ की ताकत और समाज को प्रभावित करने की उसकी क्षमता के बारे में जानकारी थी । और राजनीतिक तौर पर संघ की सक्रियता के बगैर बीजेपी की जीत मुश्किल होती रही ये भी हर कोई जानता है । ऐसे में मोदी सत्ता काल में हिन्द आंतकवाद की वापसी का भय सत्ता जाने के भय के साथ जोड दिया गया ।<br />
किसने जोडा....प्रोफेसर बोले नहीं कि ...संवयसेवक महोदय बोल पडे । प्रोफेसर साहेब पुरी बात तो सुन लिजिये..क्योकि आपका सवाल बचकाना है । अरे सत्ता जिसके पास रहेगी वह कतई नहं चाहेगा कि सत्ता उसके हाथ से खिसक जाये । तो सत्ता बररार रखने के लिय उसके अपने ही चाहे नीतियो का विरोध करते रहे हो लेकिन सभी को जोडने के लिये कोई बडा डर तो दिखाना ही पडेगा । तो हिन्दु आंतकवाद का भय दिखाकर संघ को सक्रिय करने की बिसात भी मौजूदा सत्ता की ही होगी । और उसी का परिणाम है कि प्रज्ञा ठाकुर को भोपाल से बीजेपी के टिकट पर उतारा गया है ।<br />
लेकिन आप तो डर और खौफ को बडे व्यापक तौर पर मौजूदा वक्त में सियासी हथियार बता रहे थे ।<br />
वाजपेयी जी आप ठीक कह रहे है लेकिन उसकी व्यापकता का मतलब पारंपरिक तौर तरीको को खारिज कर नये तरीके से डर की परिभाषा को भी गढना है और ये भी मान लेना है कि ये आखरी लडाई है ।<br />
आखरी लडाई....<br />
जी प्रोफेसर साहेब आखरी लडाई ।<br />
तो क्या चुनाव हारने के बाद मोदी-शाह की जोडी को संघ भी दकरिनार कर देगा ।<br />
अब ये तो पता नहीं लेकिन जिस तरह चुनावी राजनीति हो रही है उसमें आप ही बताइये प्रोफेसर साहेब क्या क्या मंत्र अपनाये जा रहे है ।<br />
आप अगर मोदी का जिक्र कर रहे है तो तीन चार हथियार तो खुले तौर पर है ।<br />
जैसे<br />
जैसे मनी फंडिग ।<br />
मनी फडिग का मतलब ।<br />
मतलब यही कि ये सच हर कोई जानता है कि 2013 के बाद से कारपोरेट फंडिग में जबरदस्त इजाफा हुआ है । आलम ये रहा है कि सिर्फ 2013 से 16 के बीच 900 करोड की कारपोरेट फंडिग हुई जिसमें बीजेपी को 705 करोड मिले । इसी तरह 2017-18 में अलग अलग तरीके से पालेटिकल फडिग में 92 फिसदी तक बीजेपी को मिले । यहा तक की 221 करोड के चुनावी बाड में से 211 करोड तो बीजेपी के पास गये । लेकिन जब बैक में जमा पार्टी फंड दिखाने की स्थित आई तो 6 अक्टूबर 2018 तक बीजेपी ने सिर्फ 66 करोड रुपये दिखाये । और जिन पार्टियो की फंडिग सबसे कम हुई वह बीजेपी से उपर दिके । मसलन बीएसपी ने 665 करोड दिखाये और वह टाप पर रही । तो सपा ने 482 करोड और काग्रेस ने 136 करोड दिखाये ।<br />
तो इससे क्या हुआ ।<br />
अरे स्वयसेवक महोदय क्या आप इसे नहीं समझ रहे हैकि जिस बीजेपी के पास अरबो रुपया कारपोरेट फंडिग का आया है अगर उसके बैक काते में सिर्फ 66 करोड है जो कि 2013 में जमा 82 करोड स भी कम है तो इसके दो ही मतलब है । पहला , चुनाव में खूब धन बीजेपी ने लुटाया है । दूसरा , फंडिग को किसी दूसरे खाते में बीजेपी के ही निर्णय लेने वाले नेता ने डाल कर रखा है । यानी कालेधन पर काबू करेगें या फिर चुनाव में धनबल का इस्तेमाल नहीं होना चाहिये । इसे खुले तौर खत्म करने की बात कहते कहते बीजेपी संभालने वाले इतने आगे बढ गये कि वह अब खुले तौर पर बीजेपी के सदस्यो को भी डराने लगे है ।<br />
कसे डराने लगे है ।<br />
डराने का मतलब है कि बीजेपी के भीतर सत्ता संभाले दो तीन ताकतवर लोगो ने बीजेपी के पूर्व के कद्दावर नेताओ तक को एहसास करा दिया दिया है कि उनके बगैर कोई चूं नहीं कर सकता । या फिर जो चूं करेगा वह खत्म कर दिया जायेगा । इस कतार में आडवाणी , जोशी या यशंवत सिन्हा सरीखो को शामिल करना जरुरी नहीं है बल्कि समझना ये जरुरी है कि मोदी सत्ता के भीतक ताकतवर वहीं हुये जिसनी राजनीतिक जमीन सबसे कमजोर थी । सीधे कहे तो हारे,पीटे और खारिज कर दिये लोगो को मोदी ने कैबिनेट मंत्रि बनाया । और धीरे धीरे इसकी व्यापकता यही रही कि समाज के भीतर लुपंन तबके को सत्ता का साथ मिला तो वह हिन्दुत्व का नारा लगाते हुये सबसे ताकतवर नजर आने लगा ।<br />
तो दो हालात आप बता रहे है । वाजपेयी जी अपको क्या लगता है मोदी सत्ता ने जीत के लिये कौन से मंत्र अपनाया ।<br />
स्वयसेवक मोहदय जिस अंदाज में पूछ रहे थे मुझे लगा वह भी कुछ बोलने से पहले हमारी समझ की थाह लेना चाहते है । बिना लाग लपेट मैने भी कहा । डर और खौफ का असल मिजाज तो छापो का है । चुनाव का एलान होने के बाद नौ राज्यो में विपक्ष की राजनीति करते नेताओ के सहयोगी या नेताओ के ही दरवाजे पर जिस तरह इनकम टैक्स के अधिकारी पहुंचे । उसने साफ कर दिया कि मोदी अब आल वर्सेस आल की स्थिति में ले आये है । इसलिये परंपरा टूट चूकी है क्योकि मोदी को एहसास हो चला है कि जीत के लिये सिर्फ प्रज्ञा ठाकुर सरीखे इक्के से काम नहीं चलेगा बल्कि हर हथियार को आजमाना होगा । और इसी का असर है कि मध्यप्रदेश , कर्नाटक , तमिलनाडु,यूपी, बिहार, कश्मीर , बंगाल, ओडिसा में विपक्ष के ताकतवर नेताओ के घर पर छापे पडे ।<br />
तो क्या हुआ ....<br />
हुआ कुछ नहीं बंधुवर ..अब मुझे स्वयसेवक महोदय को ही टोकना पडा । दरअसल हालात ऐसे बना दिये गये है कि सत्ता से भागेदारी करते तमाम सस्थानो के प्रमुख को भी लगने लगे कि मोदी हार गये तो उनके खिलाफ भी नई सत्ता कार्रवाई कर सकती है .... तो आखरी लडाई संवैधानिक संस्थाओ समेत मोदी सत्ता से डरे सहमे नौकरशाहो की भी है ।<br />
तो क्या ये असरकारक होगी । कहना मुश्किल है । लेकिन मोदी का खेल इसके आगे का है इसलिये लास्ट असाल्ट के तौर पर इस चुनाव को देखा जा रहा है और संघ इससे हैरान-परेशान भी है ।<br />
क्यो...<br />
बताता हूं । लेकिन गर्म चाय लेकर आता हूं फिर ...<br />
जारी ....Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-24334383850909911962019-04-07T18:00:00.001+05:302019-04-07T18:00:44.664+05:30स्वंयसेवक की चाय पार्ट-2 , सबसे मुश्किल वक्त का सबसे मुश्किल चुनाव है संघ के लिये<br />
कभी कभी चुनाव जीत के लिये नहीं विस्तार के लिये भी होता है । और विस्तार के साथ जीत भी मिल जाये तो हर्ज ही क्या है । संघ सिर्फ चुनाव से प्रभावित नहीं होता लेकिन चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में संघ हमेशा रहता है । लेकिन पहली बार संघ के सामने भी यह चुनौती है कि वह संघ के मुद्दो पर कम और मोदी सत्ता के मुद्दो पर चुनाव में शिरकत करें । गर्म चाय देते देते लगभग बोलते हये स्वयसेवक महोदय संघ की उस सस्कृति से भी परिचित करा रहे थे जो सवाल हमारे सामने थे । और चाय की चुस्की लेते लेते प्रोफेसर साहेब भी बोल पडे , इसका मतलब है मोदी सत्ता ने संघ के सामने धर्म संकट पैदा कर दिया है कि वह खामोश रह नहीं सकती और बोलेगी तो संघ का समाज नहीं बल्कि मोदी का विकास निकलेगा ।<br />
हा हा ... लगभग ठहाका लगाते हुये स्वंयसेवक महोदय बोले मुश्किल तो यही हो चली है कि मोदी का विकास , संघ के मुद्दो से मिसमैच कर रहा है । और संघ के सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं है क्योकि जिस रास्ते बीजेपी को चलना था उस रास्ते को काग्रेस ने पकड लिया है और जिस बोली को मोदी ने कहना था वह शब्द राहुल गांधी ने अपना लिये है ।<br />
समझा नहीं बंधु...मुझे टोकना पडा । कुछ साफ किजिये ।<br />
वाजपेयी जी काग्रेस ने अपना पारंपरिक चेहरा ही बदल लिया है । ध्यान दिजिये काग्रेस कारपोरेट पर निशाना साध रही है । किसान काग्रेस के मैनीफेस्टो के केन्द्र में आ गया है । गरीब-मजदूर- बेरोजगारो की आवाज काग्रेस बनना चाह रही है । यूपी में गंठबंधन छोड अकेले चुनाव लडने के फैसले के साथ कार्यकत्ता के लिये काग्रेस राजनीतिक जमीन तैयार कर रही है । दिल्ली में गंठबंधन के लिये तो कई राज्यो में उम्मीदवारो के लिये कार्यकत्ताओ से फिड बैक लेकर उम्मीदवारो का एलान कर रही है । जबकि दूसरी तरफ पारंपरिक काग्रेस के तौर तरीको को बीजेपी ने अपना लिया है । बीजेपी में गांधी परिवार की तरह मोदी-शाह है । वही हाईकमान है उन्ही के इर्द गिर्द बीजेपी के नेताओ की पहचान है । मोदी का कारपोरेट प्रेम किसी से छुपा नहीं है । किसान की मुश्किल या रोजगार का दर्द भी युवाओ में कितनी गहरी पैठ जमा चुका है ये भी किसी से छुपा नहीं है । बीजेपी के कार्यकत्ता के सामने आसतित्व का संकट है क्योकि उम्मीदवार के लिये उससे पूछा हीं जाता और चुनावी जीत के सेहरा मोदी-शाह के सिर ही बंधता है । फिर बीजेपी में तीसरे नंबर के ताकतवर अरुण जेटली की पहचान लोकसभा चुनाव हारने वाली ज्यादा बनी हुई है बनिस्पत मोदी को बचाने वाली ।<br />
अरे ये तो आप हमारी सोच को ही कह रहे है । क्या वाकई संघ के भीतर इस तरह का चिंतन है । मुझे ना चाहते हुये भी बीच में टोकना पडा ।<br />
संघ कोई व्यक्ति नहीं है । या फिर संघ के भीतर उठते सवाल किसी एक व्यक्ति के विचार नहीं होते लेकिन समाज में जो हो रहा होता है या फिर देश की घटनाओ के असर स्वयसेवक पर भी सामान्य तरीके वैसे ही पडता है जैसे आप पर पडता होगा ।<br />
तब तो बंधु ये भी बता दिजिये कि शिवराज सिंह चौहाण हो या रमन सिंह या फिर वसुंधरा राजे सिधिया । उनकी जरुरत क्या लोकसभा चुनाव में है ही नहीं ।<br />
वाजपेयी जी यही बात तो मै भी कह रहा हूं कि आखिर मोदी काग्रेस से नही अपनो से लडकर उन्हे परास्त करने में ही लगे रहे है । तो चुनाव के वक्त जो वोटर या जनता जिन तीन नेताओ का जिक्र आपने किया उन्ही तीन राज्यो में बीजपी का वोटर क्या करेगा ।<br />
क्या करेगा ....प्रोफेसर साहेब<br />
याद रखिये राजस्थान , मध्यप्रदेश और छत्तिसगढ में लोकसभा की 25,29,11 सीट है यानी 65 सीट जिसमें 2014 में बीजेपी 62 सीट जीती थी । लेकिन तीनो राज्यो में बीजेपी का कोई चेहरा ना होना तो ठीक है लेकिन तीनो राज्यो के चेहरे को हो ही जब मोदी-शाह ने डंप कर किया तो झटके में बीजेपी को वोट कौन देगा ? और वोट जो भी देगा क्या उससे जीत मिल पायेगी ? इन वालो के अक्स में कोई भी कह सकता है कि बीजेपी तीनो राज्यो में आधी सीट पर आ जायेगी । लेकिन चुनाव सिर्फ हिसाब-किताब का खेल नहीं होता है । परसेप्शन क्या है नेता को लेकर । और कुछ यही हालात यूपी - बिहार के भी है । 2014 में सबसे सक्रिय राजनाथ सिंह 2019 में सिर्फ अपनी लखनउ सीट पर सिमट चुके है और 2014 में सिर्फ गोरखपुर में सक्रिय योगी आदित्यनाथ को भगवा पहनाकर पूरे देश में घुमाया जा रहा है । इससे होगा क्या ?<br />
तब तो यहा भी सीटे आधी हो जायेगी ।<br />
ठीक कह रहे है प्रोफेसर साहेब । और बिहार यूपी में 2014 की जीत की आधी सीट होने का मतलब है बीजेपी अपने बूते सत्ता में आ नहीं पायगी । और जब चुनाव बीजेपी लड ही नहीं रही है तो फिर चुनावी हार भी बीजेपी की नही मोदी-शाह की होगी । इसलिये मैने शुरु में ही कहा था कि 23 मई के बाद बीजेपी की सत्ता माइनस मोदी-शाह के कैसे बने हडकंप इस पर मचेगी ।<br />
वक्त काफी हो चला है ऐसे में एक बात आखिर में कह दूं कि काग्रेस मुक्त भारत बनाते बनाते मोदी-शाह ने काग्रेस को पांच बरस के भीतर वह जमीन देदी जो जमीन वह मंडल-कंमडल के दौर में गंवा चुकी थी ।<br />
एक बात और बता दिजिये बंधुवर...मैने भी चाय की आखरी चुस्की लेते हुये पूछा ।<br />
क्या<br />
यही की 2014 में लहर थी । 2019 क्या सामन्य चुनाव है ।<br />
हा हा .... स्वयसेवक महोदय ने जिस तरह ठहाका लगाया उसमें अजब सा रस था । फिर बोले जी नहीं 2019 सामान्य चुनाव नही है और मान कर चलिये ये संघ के लिये सबसे मुश्किल वक्त का सबसे मुशकिल चुनाव है । <br />
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Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com38tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-21482403756348082842019-04-06T22:28:00.000+05:302019-04-06T22:28:30.065+05:30स्वंयसेवक की चाय का तूफान....मोदी को काग्रेस नहीं जनता हरा देगी<br />
<br />
मोदी तो काग्रेस को 2014 में ही परास्त कर चुके थे । बीत पांच बरस से मोदी काग्रेस को नहीं बीजेपी और संघ परिवार को हरा रहे थे । इसलिये 2019 के चुनाव में काग्रेस से संघर्ष नहीं है बल्कि मोदी का संघर्ष बीजेपी और संघ परिवार से है । स्वयसेवक से इस तरह के जवाब की उम्मीद तो बिलकुल नहीं थी । लेकिन शनिवार की शाम चाय की चुस्क के बीच जब प्रोफेसर साहेब ने सवाल दागा कि इस बार काग्रेस अपनी जमीन पर दोबारा खडा होने की स्थिति मेंआ रही है तो स्वयसेवक ने पहली लाइन यही कही , बिलकुल काग्रेस 2019 में अपनी खोयी जमीन बना रही है । लेकिन उसके बाद स्वयसेवक ने जो कहा वह वाकई चौकाने वाला था ।<br />
<br />
तो फिर काग्रेस को क्या संघ परिवार गंभीरता से नहीं ले रहा है । मेरे इस सवाल पर स्वयसेवक महोदय उचक से गये । काग्रेस की विचारधारा को संघ कैसे मान्यता द सकता है । लेकिन आप किसी दूसरे मैदान की लकीर किसी दूसरे मैदान पर खिंचना चाह रहे है । मतलब ?<br />
<br />
मतलब यही कि नरेन्द्र मोदी के लिये 2019 का चुनाव आने वाले वक्त में मोदी की बीजेपी और मोदी का संघ हो जाये या फिर पूरी तरह उन्ही की सोच पर टिक जायेकुछ अंदाज यही है और संघ हो या बीजेपी दोने के पास दूसरा कोई विकल्प बच नहीं रहा है कि वह मोदी को मान्यता दें । उनकी सत्ता स्वीकार करें ।<br />
<br />
लेकिन ये तो मोदी की जीत पर टिका है । और कलपना किजिये की मोदी चुनाव हार गये तो । प्रोफेसर साहब की इस बात पर गंभीर होकर कह रहे स्वयसेवक महोदय ने जोर से ठहाका लगाया और बोल पडे प्रोफेसर आप चाय की चुस्की ले कर बताइये कि मोदी हार गये तो आप बीजेपी और संघ को कहां देखते है ।<br />
<br />
मै तो ये मान कर चल रहा हूं कि ओल्ड गार्ड के दिन चुनाव परिणाम के आते ही फिर जायेगें । क्योकि तब आवाज बीजेपी माइनस मोदी-शाह की उठेगी । और मौजूदा वक्त में बीजेपी की जो हालत है उसमें दूसरी कतार का कोई नेता है नहीं । जो कैबिनेट मंत्री के तौर पर बीते पांच बरस में दूसरी कतार में नजर भी आते रहे उनकी राजनीतिक जमीन कहीं है ही नहीं । यानी जो कही से जीत नहीं सकते उन्हे ही मोदी ने ताकत दी । जिससे अपनी ताकत में वह मोदी को ही देखते-ताकते रहे । और मोदी हारें तो फिर बीजेपी के नेता आडवाणी-जोशी-सुषमा के दरवाजे पर पहुंचेगें ।<br />
<br />
रोचक कह रहे है प्रोफेसर साहेब और संघ के बारे में क्या मानना है । संघ तो उसके बाद खुद को सामाजिक-सास्कृतिक तौर पर खुद की जमीन टटोलने निकलेगा । जहा उसके सामने अंतर्दन्द यह भी होगा कि वह बीजेपी को जनसंघ के तौर पर खत्म कर आगे बढने की सोचे । या फिर ठसक क साथ संघ के एंजेडे को ही बीजेपी के राजनीतिक मंत्र के तौर पर ओल्ड गार्ड को अपना लें ।<br />
<br />
और वाजपेयी जी आपको क्या लगता है । स्वयसेवक महोदय ने जिस अंदाज में पूछा ..... उसमें पहली बार लगा यही कि कोई बडी महत्वपूर्ण बात कहने से पहले स्वयसेवक हमें परख लेना चाहते है । तो बिना हिचक मैने तीन वाकये का जिक्र कर दिया । पहला , अहमदाबाद में लालजी भाई मिले थे , वह कह रहे थे कि मोदी जी तो संघ के प्रचारक कभी रहे ही नहीं । ओटीसी की कोई परिक्षा उन्होने पास ही नहीं की । दूसरा , भोपाल में शिवकुमार यानी ककाजी जो कि किसान संघ से जुडे रहे है उनका कहना है कि काग्रेस राक्षस जरुर है लेकिन इस बार बडे राक्षस को हराना है । तीसरा , जयपुर के घनश्याम तिवाडी से बात हुई । दशको तक संघ के पुराने स्वयसेवक रहे । दशको तक बीजेपी में रहे लेकिन अब बीजेपी छोड काग्रेस में शामिल हो गये है तो उन्होने कहा जिस तरह मोदी शाह चल निकले है उसमें बीजेपी-संघ के बारे में बात करना भी अपराध है । तो बाकि आप बताइये । स्वयसेवक महोदय को शायद ऐसे जवाब और फिर ऐसे सवाल की उम्मीद ना थी । तो बिना लाग लपेट के सीधे बोल पडे ।<br />
<br />
वाजपेयी जी आपके उदाहरण ने ही सारे सवालो का जवाब दे दिया । दरअसल मोदी-शाह अपनो को ही पटकनी देत देते इतने आगे निकल चुके है कि उन्हे काग्रेस नहीं हरायेगी बल्कि उन्हे बीजेपी-संघ से जुडा समाज ही हरा देगा । और अर्से बाद किसी सत्ताधारी के सामने कोई रानीतिक दल या उसका नेता महत्वपूर्ण उसके अपने राजनीतिक संगठन या राजनीतिक समझ की वजह से नहीं है । बल्कि जनता के बीच का जो बडा दायरा संघ परिवार का रहा है या फिर दशको से राजनीति करती बीजेपी की रही है वहा नरेन्द्र मोदी हार रहे है । और जिस संगठन या 11 करोड कार्यकत्ताओ के आंकडे के आसरे बीजेपी का इन्फ्रस्ट्कचर अमित शाह खडा कर सभी को डरा रहे है वह ताश के पत्तो की तरह ढहढहा जायेगा ।<br />
<br />
क्यो ? आपको ऐसा क्यो लगने लगा है । मेरे टोकते है स्वयसेवक महोदय बोल रहे । खामोशी से सुनिये । चितंन किजिये । फिर पूछिये ।<br />
जी ...<br />
दरअसल 2019 की बीजेपी कभी ऐसी थी ही नहीं । या फिर 2019 का आरएसएस भी कभी ऐसा था ही नहीं । जो अब हो चला है । और बदलाव की बडा वजह विचारधारा का गायब होना है । एंजेडा का बदल जाना है । समाज में जुडे रहने के तौर तरीको में बदलाव लाना है । और सत्ता के लिये जिस तरह मोदी-शाह चुनाव प्रचार में निकल रहे है क्या वह प्रचार है । दरअसल ध्यान दिजिये वह किसी शिकारी की तरह चुनाव प्रचार में निकलते है । जाल फेकते है । और पांच बरस तक जनता से लेकर सस्थान और नौकरशाह से लेकर नेता तक इसमें फंसते रहे । लेकिन अब चुनाव है तो कोई जाल में फंस नहीं रहा है । और जो तीन बातो को तीन स्वयसेवको के जरीये आपने जिक्र किया उसकी जमीन तो है ।<br />
यानी ? क्या वाजपेयी जी ने जो लालजी भाई की जानकारी बताई वह सही है कि नरेन्द्र मोदी ने ओटीसी भी पास नहीं की थी । झटके में प्रोफेसर साहेब जिस तरह बोले उसपर बेहद शांत होकर स्वयसेवक महोदय बोले ..... आपको नहीं लगता कि स्वयसेवक अतिप्रतिक्रियावादी नहीं होता । स्वयसेवक बडबोला नहं होता ।<br />
तो फिर आरएसएस को ये समझ में क्यों नहीं आया.... <br />
हा हा ...यही तो खास बात है । पर इसके लिये मोदी को नहीं संघ की कमजोरी को भी समझना चाहिय...उसे क्या चाहिये ये उसे पता है कि नहीं...<br />
पर संघ तो मोदी को जिताने की तैयारी कर रहे है । बकायदा टोली बनाकर सीट दर सीट या कहे पहले चरण से लेकर सातवें चरण तक की योजना तैयार कर ली है ।<br />
ये भी ठीक है.....लेकिन संघ मोदी के लिये नहीं समाज के लिये है ये भी समझना होगा...<br />
यानी ?<br />
यानी कुछ नहीं इशारा नहीं समझे तो ...मै और चाय लेकर आता हूं ...ये चाय ठंडी हो गई है । <br />
जारी... Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-63552042326022504342019-04-05T22:29:00.001+05:302019-04-05T22:29:23.244+05:30कैसे मनाये बीजेपी का 40वां जन्मदिन<br />
दिल्ली के 11 अशोक रोड पर खडे होकर आज भी कोई महसूस कर सकता है कि बीजेपी का मतलब था क्या । वाजपेयी की सादगी जो हर किसी का स्वागत करती । आडवाणी की मनन मुद्रा जो हंसी ठहाके के बीच गंभीर खामोशी ओढ लेती । मुरली मनोहर जोशी का चिंतन जो बिना किसी रैफरेन्स के बात ही नहीं करते । भैरो सिह शोखावत का गले लगाने का अंदाज । जसवंत सिंह का हाथ मिलाकर हाथ दबाते हुये आंखो से इशारो में समझाने की अदा । खुराना का बात बात पर ठहाके लगाना । 1989 में छलाग लगाकर 85 सीटो पर कब्जा करने का जश्न हो या फिर 1990 में आडवाणी का सोमनाथ से अयोध्या तक राम की मुद्रा में भ्रमण कर संघ परिवार को एकजूट कर उग्र हिन्दुत्व का सुलगाने का प्रयास । अशोक रोड तो हर बात का गवाह रहा है । और 1992 में बाबरी मस्जिद की भूमि को समतल करने के एलान और 1996 में 13 दिन में भी बहुमत ना जुटा पाने के बाद वाजपेयी का कथन, '"विपक्षी कहते है वाजपेयी तो अच्छा है पर बीजेपी ठीक नही है "। अशोक रोड ने हर बयान , हर कथन के पहले और बाद के हालात उसके झंझावतो को भी बाखूबी महसूस किया है । और महसूस तो वाजपेयी सत्ता के खिलफ दत्तोपंत ठेंगडी का स्वदेश राग हो या फिर अर्थनीति को विश्वबैक और आईएमएफ के गुलाम बनाने के तौर तरको को खुला विरोध , हर बात का गवाह अशोक रोड का बीजेपी हडक्वाटर रहा है । और तो और 2014 का मोदी जश्न भी 11, अशोक रोड को बाखूबी याद है । लेकिन 2019 की आहट से पहले 11, अशोक रोड पर सन्नाटा है । कौवो की आवाज है । लोगो की आवाजाही ठहरी हुई है । क्योकि 2019 के जनादेश को देखने क चाहत दिल्ली के ही दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर बने पांच मंजिला लेकिन सात सितारा इमारत से हो चल है । जहां हेडक्वाटर को देखने के लिये सिर उठाना पडता है । नजरो का सीधा मेल यहा किसी का किसी से नहीं होता । चूंकि मार्ग दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर है तो भरोसा जागना चाहिये था कि बीजेपी हेडक्वाटर जाते आते मौजूदा वक्त के बीजेपी के चेहर कम से कम आखरी व्यक्ति तक पहुंचने का प्रयास तो करेगें । लेकिन बीजेपी हेडक्वाटर तो आडवाणी-जोशी सरीखे अपने पहले लोगो से ही कट गया । तो क्या बीजेपी की उम्र 39 बरस की ही थी । जो 2019 में पूरी हो गई । क्योकि 2019 में चुनाव बीजपी नहीं लड रही है । 2019 के चुनाव में बीजेपी की विचारधारा को लेकर कोई चर्चा नहीं है । संघ परिवार जिन सांस्कृतिक मूल्यो का जिक्र करते हुये अपनी विचारधारा को वाजपेयी की सत्ता के दौर में भी उभारती रही वह भी 2019 के चुनाव में लापता है । यानी सत्ता ही विचारधारा हो जाये । और सत्ता पाने के तरीके ही संघ परिवार के सरोकार हो जाये तो फिर कोई भी सवाल कर सकता है कि बीजेपी है कहां । और 2019 में अगर मोदी चुनाव हार गये तो फिर बीजेपी होगी कहां । अशोका रोड लौटना चाहेगी या फिर सात सितारा पांच मंजिला लाल पत्थर में दफ्न हो जायेगी । शायद यही सवाल आडवाणी ने अपने ब्लाग में उठाया है । पहला संकेत तो यही दिया कि वह इशारो में बात कर रहे है तो मोदी समझ जाये कि उम्र उनपर हावी हुई नहीं है और वह अब भी जिन्दा है । दूसरा संकेत साफ है कि बीजेपी के भीतर भी लोकतंत्र खत्म हो चला है । यानी बीजेपी की विचारधारा को मोदी सत्ता ने हडप लिया है । और जब आडवाणी जिक्र करते है कि किसी को देशद्रोही करार देना या राजनीतिक तौर पर विपक्ष को दुशमन मान कर कार्रवाई करना बीजेपी की धारा नहीं रही है तो फिर अब समझने के जररत यह भी है कि 2019 के बाद क्या वाकई बीजेपी का पुनर्जन्म होगा या फिर बीजेपी फिर से 1980 में पहुंच जायेगी जब वाजपेयी जनसंघ के हिन्दु-मुस्लिम से निकल कर बीजेपी को गांधीवादी समाजवाद की थ्योरी तले ले कर आये । हालाकि 1984 में महज दो सीट की जीत ने बीजेपी के भीतर उग्र हिन्दुत्व के उभार को हथियार माना । इसलिये अयोध्या का राग विहिप ने पकडा और 1989 के चुनाव में 85 सीटो की जीत ने बीजेपी के भीतर इस उम्मीद को भर दिया कि वह कमंडल के राग तले और ज्यादा सफल हो सकती है । आडवाणी की रथयात्रा । बाबरी मस्जिद विध्वसं और फिर उग्र हिन्दुत्व के राग ने भी बीजेपी को अपने बूते सत्ता दिलायी नहीं । 1998-99 में 182 सीटो से आगे बीजेपी बढ नहीं सकी । और हो सकता है कि भारत के लोकतांत्रिक मिजाज को आडवाणी के उसके बाद ही समझा और बलाग के जरीये मोदी को सीख देनी चाही कि भारत तो लोकतंत्र के रंग में ना सिर्फ रंगा हुआ है बल्कि भारत की हवाओ में भी लोकतंत्र समाया हुआ है ऐसे में नरेन्द्र मोदी के कामकाज का तरीका अगर लोकतंत्र विरोधी है तो फिर वह बीजेपी नहीं है । यानी संकेत साफ है कि लोकसभा चुनाव के बाद आडवाणी-जोशी फिर बीजेपी नेताओ के कन्द्र में होगें । लेकिन संकेत यह भी है कि जब मोदी मुश्किल दिनो में अपने साथ खडे आडवाणी को हाशिये पर ढकेल सकते है तो आने वाले दिनो में मोदी का भी कोई प्रिय ताकतवर होते ही मोदी को भी हाशिये पर ढकेल देगा । यानी बीजेी के भीतर की नई पंरपरा और संघ परिवार के राजनीतिक शुद्दीकरण का ये नया मिजाज क्या बीजेपी का सच हो चुका है ।<br />
दरअसल बीजेपी को परखते हुये अब नरेन्द्र मोदी को समझना भी जरुरी है और इसके लिये आपको चलना होगा सन् 2000 में जब अटलबिहारी वाजपेयी अमेरिका की यात्र पर थे और वहा रह रहे मोदी के मित्र जो कि वाजपेयी जी को भी जानते थे उन्होने तब वाजपेयी जी से अमेरिका मे मुलाकात कर मोदी के बारे में वाजपेयी जी को जानकारी दी थी । पत्रकार विजय त्रिवेदी की किताब "हार नहीं मानूगां" में अपनी रिपोटिंग का जिक्र करते हुये वह लिखते है कि मोदी के मित्र से उनकी मुलाकात हुई और उन्होने बताया कि किस तरह वाजपेयी के पास जाकर उन्होने कहा कि नरेन्द्र मोदी भी अमेरिका में है । आपके कार्यक्रम से दूर है । लेकिन आप उनसे मिलना चाहेगें क्या । इसपर वाजपेयी जी बोले बिकुल । और जब वाजपेयी से मिलने मोदी पहुंचे तो वाजपेयी जी ने मोदी से कहां , " ऐसे भागने से काम नहीं चलेगा , कब तक यहा रहोगे ? दिल्ली आओ... " । और फिर गुजरात । गुजरात में गोधरा कांड । दंगो का होना । वाजपेयी का राजधर्म का पाठ । कोई कैसे भूल सकता है लेकिन अब जब आडवाणी का ब्लाग सामने आता है और बीत पांच बरस में मोदी कार्यकाल समझते हुये बीजेपी की विचारधारा या उसके तार को मोदी के काम के जरीये खोलने की कोशिश करने की इच्छा हो तो गुजरात के मोदी काल को समझना चाहिय । कैसे गोधरा के जरीये क्रिया की प्रतिक्रिया तले दंगो को हिन्दुत्व की थ्योरी तले परिभाषित किया गया । कैसे उसके बाद गुजराती अस्मिता के जरीये 6 करोड गुजरातियो के साथ क्षेत्रियता का भाव परिभाषित किया गया । कैसे बाइब्रेंट गुजरात के जरीये विकास के माडल को देश के लिये परिभाषित किया गया । और उसी कडी में कैसे देशभक्ति को अब दिल्ली की कुर्सी से परिभाषित किया जा रहा है । सबकुछ सामने है । और अब जब 6 अप्रैल 2019 को बीजेपी के 39 बरस पूरे हो रहे है तो फिर 40 वा बरस कैसे लगेगा इसके लिये 23 मई का इंतजार करना होगा जब तय होगा कि दिल्ली के लाल दीवारो में कैद सात सितारा बीजेपी हेडक्वाटर ही बीजेपी है या फिर बीजेपी को 11, अशोक रोड लौटना होगा । क्योकि वाजपेयी ने अशोक रोड में सांसे लेती बीजेपी के दौर में सत्ता नाम की कविता लिखा थी जो अब कागज से उतर कर कैसे गुजरात से होते हये पूरे देश में समा चुका है , और इनसे लडते वाजपेयी किन भावनाओ को जी रहे थे तो अटल बिहारी वाजेयी की कविता सत्ता को एक बार आप भी पढ लिजिये....मासूम बच्चों / बूढी औरतों / जवां मर्दो / कि लाशों के ढेर पर चढकर / जो सत्ता के सिहासन तक पहुंचना चाहते है / उनसे मेरा एक सवाल है / क्या मरने वालो के साथ / उनका कोई रिश्ता ना था / म सही धर्म का नाता,/ क्या धरती का भी संबंध नहीं था ? / अर्थवेद या यह मंत्र / क्या सिर्फ जपने के लिये है / जीने के लिये नहीं ? / आग में जले बच्चे, / वासना की शिकार औरतें, / राख में बदले घर / न सम्यता का प्रमाणपत्र है / न देशभक्ति का तमगा.. / वे यदि घोषमापत्र है तो पशुता का, / प्रमाण हो तो पतितावस्था का / ऐसे कपूतों से / मां का निपूती रहना ही अच्छा था.. Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-53447253545743080212019-04-01T21:57:00.001+05:302019-04-01T21:57:19.041+05:30मीडिया मंच पर भी पीएम गलत तथ्य रखे तो फिर मीडिया को सच बताना चाहिये<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">किसी भी मीडिया हाउस के लिये ये उपलब्धी हो सकती है कि उसके उद्धाटन में</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">प्रधानमंत्री आ जाये । ठीक वैसे ही जैसे 31 मार्च 2019 को दिल्ली में एक</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">न्यूज चैनल के उद्धाटन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहुंच गये । एतराज</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">किसी को होना हीं चाहिये । कयोकि न्यूज चैनल की शुरुआत ही अगर देश के</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">सबसे बडे ब्रांड की मौजूदगी के साथ ह रही है तो फिर बात ही क्या है ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">लेकिन इसका ये अर्थ भी कतई नहीं होना चाहिये प्रधानमंत्री की मौजूदगी में</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पत्रकारिता करना भूल जाया जाये । और वह भी तब जब देश लोकसभा चुनाव की तरफ</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">बढ चुका हो । नोटिफिकेशन जारी हो चुका है । 10 दिन बाद पहले चरण की</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">वोटिंग हो । दरअसल पत्रकारिता तलवार की धार पर चलने के समान है और यही</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">चूक बार बार मीडियाकर्मियो से हो रही है । ऐसे मौके पर पत्रकारिता का</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">मिजाज क्या कहता है । ये सवाल कोई भी कर सकता है । खासकर जो पत्रकार इस</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">दौर में समझ नहीं पा रह है कि सत्ता के करीब रहा जाये या सत्ता से दूर ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पत्रकारिता करने के लिये सत्ता से करीब या दूर होना कोई मायने नहीं रखता</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">है बल्कि पत्रकारिता तो तथ्यो के साथ सत्ता पर भी निगरानी रखती है और</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">सत्ता को राह भी दिखाती है कि वह गलत बयानी कर बच नहीं सकती । यानी सवाल</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">ये नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी प्रेस कान्फ्रेस नहीं करते है या फिर</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">न्यूज चैनलो में एकतरफा भाषण देकर चले जाते है । सवाल है कि प्रधानमंत्री</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">मोदी बतौर पालेटिशन अपना पोजिशनिंग करते है । लेकिन मीडिया खुद की</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पोजेशनिंग बतौर पत्रकार क्यों नहीं कर पाते । यानी पीएमने जो कहा वह सच</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">है भी नहीं ये तो मीडिया बता ही सकता है । यानी रियल टेस्ट प्रधानमंत्री</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">के भाषण के बाद होना चाहिये । कोई चैनल अगर शुरु ही प्रधानमंत्री के भाषण</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">से हो रहा है तो फिर अगला कार्यक्रम ना सही लेकिन शाम के प्राईम टाइम में</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">तथ्यो के साथ चैनल को ये बताने की समझ तो होनी चाहिये कि प्राधानमंत्री</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">जो कह गये वह कितना सही है । क्योकि देश में जब सत्ताधारी राजनीतिक दल ही</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">नहीं बल्कि कैबिनेट स्तर के मंत्री और खुद प्रधानमंत्री भी कोई भी आंकडे</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">रखकर अपने छाती ठोंकते हुये चले जाते है तो फिर सवाल ये नहीं कि सत्ता ने</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">गलत क्यो बोला । सवाल ये है कि पत्रकार ने सच या सही क्यो नहीं बताया ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">तो न्यूज चैनल के उद्धाटन में पीएम मोदी ने अपने भाषण में कालेधन पर नकेल</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">कसने का जिक्र किया । बैकिंग प्रणाली को कितना मजबूत किया है इसके</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">विस्तार से जिक्र किया ।और यही से सवाल उठा कि प्रधानमंत्री जो भी कह गये</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">क्या उस पर सवाल नहीं उठना चाहिये । मोदी बोले कि सप्रीम कोर्ट ने उनके</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पीएम बनने से तीन साल पहले से कह रखा था कि कालेधन पर एसआईटी बनाइये ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">लेकिन मनमोहन सरकार ने नहीं बनाया और सत्ता मेंआते ही पहली कैबिनेट में</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">उन्होने एसआईटी बनाने का निर्णय ले लिया । जबकि हकीकत ये है कि सप्रीम</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">कोर्ट ने 2011 कालेधन को लेकर मनमोहन सत्ता क्या कर रही है इसका जवाब</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">मांगा था । और साफ तौर पर कहा था कि विदेशो में कितना कालाधन है इसका कोई</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">आंकडा बताने की स्थिति में सरकार कब आ पायगी । और तब के वित्त मंत्री</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">प्रणव मुखर्जी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि जब तक दुनिया के तमाम देशो</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">के साथ ये समझता नहीं हो जाता है कि वहा के बौको में जमा भारतीय नागरिको</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">के कालेधन की जानकारी दें तब तक मुश्किल है । और समझना होगा कि एसआईटी</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">बानने का जिक्र सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2014 में किया । बकायदा आरटीआई</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">एक्ट के तहत आरटीआई को बनाने क लिये कहा । और तब मनमोहन सरकार को लगा कि</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">देश में चुनाव होने वाले है तो फिर चुनाव के बाद जिसकी सरकार बनेगी वह</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">एसआईटी बनाये तो बेहतर होगा । और 27 मई 2014 को मोदी ने अपने पही कैबनेट</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">में एसआईटी बनाने का एलान कर दिया । यानी सवाल तीन साल का नहीं था ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">लेकिन इसके साथ ही एक दूसरा सच जो पीएम मोदी हमेशा छुपा लेते है कि</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">एसआईटी तो आरटीआई कानून के तहत बना है तो सारी जानकारी जनता को मिलनी</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">चाहिये और इसी प्रक्रिया में एसआईटी बनने के बाद 28 अक्टूबर 2014 को</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">सुप्रीम कोर्ट ने बकायदा मोदी सत्ता को निर्देश दिया की 24 घंटे के भीतर</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">वह बताये कि विदेशी बैको में किन भारतीयो का कालाधन जमा है । और हालात</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">देखिये उसके बाद साढे चार बरस बीत गये लेकिन आजतक मोदी सत्ता ने उन नामो</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">का खुलासा नहीं किया जिनका कालाधन विदेशी बैको में जमा है । तो क्या</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">कालेधन पर पीएम के बयान से ही एक रिपोर्ट तथ्यो के साथ दिखायी नहीं जानी</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">चाहिये ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">खैर अपने भाषण में पीएम मोदी सबसे ज्यादा बैको को लेकर बोले कि कैसे</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">उन्होने पांच बरस के भीतर डूबती बैकिग प्रणाली को ठीक कर दिया । तो क्या</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">न्यूज चैनल का काम सिर्फ मोदी का भाषण अपने मंच से दिलवाना भर ही होना</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">चाहिये । या फिर चैनल को इससे सुनहरा अवसर नहीं मिलता कि उनके मंच पर आकर</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पीएम कुछ भी कहकर नहीं जा सकते । यानी शाम के प्राईम टाइम में तो बकायदा</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पांच बरस में कैसे बैको का बंटाधार हुआ है इसको लेकर घंटे भर का</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">कार्यक्रम तक बनाया जा सकता है । और खबर का पेग पीएम का भाषण ही है ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">क्योकि ये पहली बार हुआ कि कि बैको में जमा जनता की कमाई की रकम की लूट</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">को छुपाने के लिये मोदी सत्ता ही सक्रिय हो गई । हालात इतने बुरे हो गये</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">कि सत्ता मेंआने के बाद बरस दर बरस बैको क फाइल साफ सुधरी दिखायी दे उसके</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">लिये सिलसिलेवार तरीके से लूट की रकम को रिटन आफ किया गया । जबकि रिकवरी</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">ना के बराबर हुई । मसलन 2014-15 में 49,018 करोड रिटन आफ किया गया और</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">रिकवरी हुई सिर्फ 5461 करोड । 2015-16 में रिटन आफ किया गया 57,585 करोड</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">और रिकवरी की गई महज 8096 करोड । 206-17 में रिटन आफ किया गया 81,683</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">करोड और रिकवरी हुई 8680 करोड । 2017-18 में रिटन आफ किया गया 84,272</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">करोड रुपये और रिकवरी हुई महज 7,106 करोड रुपये । यानी पहले चार बरस में</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">बैको की फाइलो में कर्ज लेकर लूट लिये गये 2,72,558 करोड रुपये नजर ना</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">आये इसकी व्यवस्था की गई । जबकि बैको की सक्रियता इन चार बरस में रिकवरी</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">कर पायी सिर्फ 29,343 करोड रपये । तो फिर बैको में कैसे सुधार मोदी सत्ता</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">के दौर में आ गया क्योकि अनूठा सच तो ये भी है कि करीब 90 फिसदी एनपीए</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">रिटन आर कर दिया गया । और अगर बैको के जरीये हालात को समझे तो 2014 से</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">2018 के बीच यूको बैक ने कोई रकवरी की ही नहीं जबकि कर्ज दे दिया 6087</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">करोड जिसे मोदी सरकार ने रिटन आफ कर दिया । देश के सबसे बडे बैक स्टेट</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">बैक आफ इंडिया ने इन चार बरस में कर्ज की रिकवरी की सिर्फ 10,396 करोड और</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">जो रिकवरी नहीं हो पायी वह रकम है 1,02,587 करोड रुपये । और इस रकम को</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">बैको के फाइलो से रिटन आफ कर दिया । और ये बकायदा रिजर्व बैक के जरीये</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">जारी कि गई 21 बैको की सूची है जो साफ साफ बताती है कि आखिर जो एनपीए</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">2014 में सवा दो लाख करोड का था वह 2019 में बञते बढते 12 लाख करोड भी</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पार कर चूका है और एनपीए का बढना महज इंटरेस्ट रेट नहीं होता है बल्कि इस</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">दौर में कर्ज देकर लूट को बढाने की सिलसिला भी कैसे सिस्टम का हिस्सा का</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">हिस्सा हो गया ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">और लूट को रोकने का जो दावा प्रधानमंत्री चैनल के उदधाटन भाषण में कर गये</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">उस पर तो चैनल को अलग से रिपोर्ट तैयार कर बताना चाहिये कि कैसे बीचे</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पांच बरस के दौर में बैक फ्राड के मामले हवाई गति से बढे है । जरा इसके</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">सिलसिले को परखे एसबीआई [2466], बैंक आफ बड़ौदा [782] ,बैंक आफ इंडिया</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">[579], सिंडीकेट बैंक [552],सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया [527], पीएनबी</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">[471], यूनियन बैंक आफ इंडिया [368], इंडियन ओवरसीज बैंक[342],केनरा बैंक</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">[327], ओरियंट बैंक आफ कामर्स[297] , आईडीबीआई [ 292 ], कारपोरेश बैंक[</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">291], इंडियन बैंक [ 261],यूको बैंक [ 231],यूनिईटेड बैंक आफ इंडिया [</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">225 ], बैंक आफ महाराष्ट्र [ 170],आध्रे बैंक [ 160 ], इलाहबाद बैंक [</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">130 ], विजया बैंक [114], देना बैंक [105], पंजाब एंड सिंघ बैंक [58]</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">..ये बैंकों में हुये फ्रॉड की लिस्ट है। 2015 से 2017 के दौरान बैंक</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">फ्रॉड की ये सूची साफ तौर पर बतलाती है कि कमोवेश हर बैंक में फ्रॉड हुआ।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">सबसे ज्यादा स्टेट बैंक में 2466। तो पीएनबी में 471 । और सभी को जोड</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">दिजियेगा तो कुल 8748 बैंक फ्रॉड बीते तीन बरस में हुआ । यानी हर दिन</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">बैंक फ्रॉड के 8 मामले देश में होते रहे । पर सवाल सिर्फ बैंक फ्रॉड भर</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">का नहीं है। सवाल तो ये है कि बैंक से नीरव मोदी मेहूल चौकसी और माल्या</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">की तर्ज पर कर्ज लेकर ना लौटाने वालों की तादाद की है। और अरबों रुपया</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">बैंक का बैलेस शीट से हटाने का है। और सरकार का बैंको को कर्ज का अरबो</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">रुपया राइट आफ करने के लिये सहयोग देने का है । यानी सरकार बैंकिंग</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">प्रणाली के उस चेहरे को स्वीकार चुकी है, जिसमें अरबो रुपये का कर्जदार</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पैसे ना लौटाये । क्योकि क्रेडिट इनफारमेशन ब्यूरो आफ इंडिया लिमिटेड</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">यानी सिबिल के मुताबिक इससे 1,11,738 करोड का चूना बैंकों को लग चुका है।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">और 9339 कर्जदार ऐसे है जो कर्ज लौटा सकते है पर इंकार कर दिया। और पिछले</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">बरस सुप्रीम कोर्ट ने जब इन डिफाल्टरों का नाम पूछा तो रिजर्व बैंक की</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">तरफ से कहा गया कि जिन्होने 500 करोड से ज्यादा का कर्ज लिया है और नहीं</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">लौटा रहे है उनके नाम सार्वजनिक करना ठीक नहीं होगा। अर्थव्यवस्था पर असर</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पड़ेगा। तो ऐसे में बैंकों की उस फेरहिस्त को पढिये कि किस बैंक को कितने</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">का चूना लगा और कर्ज ना लौटाने वाले है कितने।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">तो एसबीआई को सबसे ज्यादा 27716 करोड का चूना लगाने में 1665 कर्जदार</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">हैं। पीएनबी को 12574 करोड का चूना लगा है और कर्ज लेने वालो की तादाद</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">1018 है। इसी तर्ज पर बैंक आफ इंडिया को 6104 करोड़ का चूना 314 कर्जदारो</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">ने लगाया। बैंक आफ बडौदा को 5342 करोड का चूना 243 कर्जदारों ने लगाया।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">यूनियन बैंक को 4802 करोड का चूना 779 कर्जदारों ने लगाया। सेन्ट्रल बैंक</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">को 4429 करोड का चूना 666 कर्जदारों ने लगाया। ओरियन्ट बैंक को 4244 करोड</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">का चूना 420 कर्जदारो ने लगाया। यूको बैंक को 4100 करोड का चूना 338</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">कर्जदारों ने लगाया। आंध्र बैंक को 3927 करोड का चूना 373 कर्जदारों ने</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">लगाया। केनरा बैंक को 3691 करोड का चूना 473 कर्जदारों ने लगाया।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">आईडीबीआई को 3659 करोड का चूना 83 कर्जदारों ने लगाया। और विजया बैंक को</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">3152 करोड़ का चूना 112 कर्जदारों ने लगाया । तो ये सिर्फ 12 बैंक हैं।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">जिन्होंने जानकारी दी की 9339 कर्जदार है जो 1,11,738 करोड नहीं लौटा रहे</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">हैं। फिर भी इनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई नहीं है उल्टे सरकार बैंकों को</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">मदद कर रही हैं कि वह अपनी बैलेस शीट से अरबो रुपये की कर्जदारी को ही</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">हटा दें।</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">जाहिर है पीएम को उद्धाटन में बुलाकर चैनल मे अपनी धाक जमा ली । लेकिन</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">पीएम के कथन के पीछे के सच को अगर चैनल दिखाने की हिम्मत रखता तो वह वाकई</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">भारतवर्ष कहलाता अन्यथा रायसीना हिल्स और लुटियनस की दिल्ली में बसे चमके</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">इंडिया की कहानी तो रेड कारपेट है । जिसपर चलते हुये दिखने का शौक अब हर</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">मीडियाकर्मी को हो चला है । और शायद इसीलिये अब तथ्यों पर उतना ध्यान ना</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">राजनीति देती है ना ही मीडिया । क्योकि सभी की नजर सत्ता की कुर्सी पर</span><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;" /><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">रहती है इसीलिये जन-सरोकार पीछे छूट रहे है ।</span><br />
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<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><br /></span></div>
<div class="yj6qo" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">
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Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-12452544153346444552019-03-29T13:35:00.002+05:302019-03-29T13:35:31.225+05:30साहेब का मेरठ...2014 में 1857 का गदर और 2019 में गालिब की 'सराब'<br />
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2 फरवरी 2014 और 28 मार्च 2019 का अंतर सिर्फ तारिख भर का नही है । बल्कि भारत जैसे देश में कोई सत्ता कैसे पांच बरस में हाफंने लगती है । कैसे पांच बरस में सपने जगाने का खेल खत्म होता है । पांच बरस में कैसे चेहरे की चमक गायब हो जाती है । पांच बरस बाद कैसे पांच बरस पहले का वातावरण बनाने के लिये कोई क्या क्या कहने लगता है । सबकुछ इन दो तारिखो में कैसे जा सिमटा है इसके लिये 2 फरवरी 2014 में लौट चलना होगा जब मेरठ के शताब्दी नगर के मैदान में विजय संकल्प रैली के साथ नरेन्द्र मोदी अपने प्रधानमंत्री बनने के लिये सफर की शुरुआत करते है । और प्रधानमंत्री बनने के लिये जो उत्साह जो उल्लास बतौर विपक्ष के नेता के तौर पर रहता है और जिस उम्मीद को जगा कर प्रधानमंत्री बनने के लिये बेताब शख्स सपने जगाता है । सबकुछ छलक रहा था । तब सपनो के आसरे जनता में खुद को लेकर भरोसा पैदा करने के लिये सिस्टम - सत्ताधारियो से गुस्सा दिखाया गया । गुस्सा लोगो के दिल को छू रहा था । नारे मोदी मोदी के लग रहे थे । तबकुछ स्वत:स्फूर्त हो रहा है तब मबसूस यही हुआ । लेकिन वही शख्स पांच बरस बाद 28 मार्च 2019 को बतौर प्रधानमंत्री जब दोबारा उसी मेरठ में पहुंचता है । और पाच बर पहले की तर्ज पर चुनावी रैली की मुनादी के लिये मेऱठ को ही चुनता है तो पांच बरस पहले उम्मीद से सराबोर शख्स पांच बरस बाद डरा सहमा लगता है । उत्साह-उल्लास का मुखौटा लगाये होता है । किसान मजदूर का जिक्र करता है तो वह भी मुखौटा लगता है । जनता में उम्मीद और भरोसा जगाने के लिये सिस्टम या सत्ताधारियो के प्रति आक्रोष नहीं दिखाता बल्कि सपनो की ऐसी दुनिया को रचना चाहता है जहा सिर्फ वह खुद ही हो । वह खुद ही देश हो । खुद ही संविधान हो । खुद ही सिस्टम । खुद ही आदर्श हो । तो ऐसे में शब्द वाण सही गलत नही देखते बल्कि शबदो का ही चीरहरण कर नई नई परिभाषा गढ करने की मदहोशी में खो जाते है । उसी से निकलता है 'सराब' । तो कुछ भी कहने की ताकत प्रधानमंत्री पद में होती है ...लेकिन कुछ भी कहने की सोच कैसे बातो के खोखलापन को उभार देती है ये भी खुले तौर पर उभरता है । यानी 2014 में मेरठ से शुरु हुये चुनावी प्रचार की मुनादी में 1857 के प्रथम स्वतत्रका संग्राम के जरीये काग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन पर निसाना साधने का माद्दा नरेन्द्र मोदी रखते है । लेकिन 2019 में उनके सामने काग्रेस नहीं बल्कि सपा-आरएलडी-बसपा का गठबंधन है तो वह तीनो को मिलाकर "सराब" शब्द की रचना कर देते है । मौका मिले तो यू ट्यूब पर नरेन्द्र मोदी का 2 फरवरी 2014 का भाषण और 28 मार्च 2019 का भाषण जरुर सुनना चाहिये । क्योकि दोनो भाषण के जरीये मोदी ने लोकसभा चुनाव में भाषण देने की रैलियो से शुरुआत की । और किस तरह पांच बरस में मुद्दो को लेकर । शब्दो को लेकर । सोच को लेकर । विचार को लेकर । सिस्टम को लेकर । या फिर देश कैसा होना चाहिये इस सोच को परोसने में कितना दिवालियापन आ जाता है , इसकी कल्पना करने की जरुरत नहीं है । सिर्फ उन्ही के मेरठ रैली के भाषणो को सुन कर आप ही को तय करना है । वैसे सराब शब्द शराब होती नहीं । लेकिन भाषण देते वक्त देश के प्रधानमंत्री मोदी को शायद इतिहास के पन्नो में झांकने की जरुरत होनी चाहिये या फिर उन्होने झांका तो जरुर होगा क्योकि 2014 के भाषण में वह 1857 के गदर का जिक्र कर गये थे तो 2019 में सराब शब्द से शायद उन्हे गालिब याद आ रहे होगें क्योकि गालिब तो 1857 में भी दिल्ली से मेरठ शराब लेने ही जाया करते थे । खैर इतिहास को देश के प्रधानमंत्री की तर्ज पर याद करने लगेगें तो फिर इताहिस भी कितना गड्डमगड्ड हो जायेगा इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है । और समझ के खोखलेपन की कल्पना तो अब इस बात से भी की जा सकती है कि कैसे चौबिसो घंटे सातो दिन न्यूज चैनलो पर बीजेपी के प्रवक्ता या मोदी कैबिनेट के मंत्री क्या कुछ आकर कहते है । शब्दो की मर्यादा को प्रवक्ता भूल चुके है या फिर उनकी सत्ता का वातावरण ही उन्हे ऐसी सथिति में ले आया है जहा उनका चिल्लाना, झगडना, गाली गलौच करना , बिना सिरपैर के तर्क गढना , आंकडो का पहाड खडा कर मोदी से उस पर तिरगा फहरा देना । फिर सीमा की लकीर समाज - समुदाय के भीच खिंचकर शहादत के अंजाद में खुद को देशभक्त करार देना या फिर सामने वाले को देशद्रोही करार देते हुये खुद को देशभक्ति का तमगा दे देना । खोखले होते बैको तले देशहीत जोड देना । घटते उत्पादन और बढती बेरोजगारी से अपने इमानदार होने के कसीदे गढ लेना । जाहिर है जो लगातार कहा जा रहा है और जिस अंदाज में कहा जा रहा है वह सियासत की सस्कृति है या फिर वाकई देश को बीते पांच बरस में इतना बदल दिया गया है कि देश की सस्कृति ही गाली-गलौच वाली हो गई । लिचिंग से लेकर लाइन में खडे होने से मौत । गौ वध के नाम पर हत्या। आंतक-हिंसा को कानून व्यवस्था के फेल होने की जगह घर्म या समुदायो में जहर खोलने का हथियार । बिगडती इक्नामी से बेहाल उघोग त्रसदी में फंसे व्यापारी और काम ना मिलने से दो जून की रोटी के लिये भटकते किसान- मजदूर के सामने भ्रष्ट्रचार मुक्त भारत के लिये उठाये कदम से तुलना करना । शिक्षा के गिरते स्तर को पश्चमी शिक्षा व्यवस्था से तुलना कर भारतीय सस्कृति का गान शुरु कर देना ।<br />
जाहिर है जब सत्ता में है तो जनता ने चुना है के नाम पर किसी भी तरह की परिभाषा को गढा तो जा सकता है । और देश के सर्वौच्च संवैधानिक पदो पर बैठा शख्स संविधान को ढाल बनाकर पदो की महत्ता तले कुछ भी कहे सुनने वालो में भरोसा रहता है कि झूठ-फरेब तो ऐसे पदो पर बैठकर कोई कर नहीं सकता या कह नही सकता । लेकिन पांच बरस की सत्ता जब दोबारा उसी संवैधानिक पद पर चुने जाने के लिये चुनावी मैदान में "सराब" की परिभाषा तले खुद की महानता का बखान करें तो फिर अगला सवाल ये भी है कि क्या देश इतना बदल चुका है जहा बीजेपी के प्रवक्ता हो या दूसरी पार्टियो के नेता और इन सबके बीच एंकरो की फौज । जिन शब्दो के साथ जिस लहजे में ये सभी खुद को प्रस्तुत कर रहे है उसमें इनके अपने परिवार के भीतर ये मूखर्तापूर्ण चर्चा पर क्या जवाब देते होगें । बच्चे भी पढे लिख है और मां बाप ने भी अतित की उस राजनीति को देखा है जहा प्रधानमंत्री का भाषण सुन कर कुछ नया जानने या समझदार नेता पर गर्व करने की स्थितिया बनती थी । लेकिन जब कोई प्रधानमंत्री हरसेकेंड एक शब्द बोल रहा है । टीवी, अखबार, सोशल मीडिया , सभी जगह उसके कहे शब्द सुने-पढे जा रहे है । और पांच बरस के दौर में नौकरशाही या दरबारियो के तमाम आईडिया भी खप चुके है तो फिर भाषण होगा तो जुबां से "सराब" ही निकलेगा , जिसका अर्थ तो मृगतृष्णा है लेकिन पीएम ने कह दिया कि स और श मेंकोई अंतर नहीं होता फिर मान लिजिये ' सराब ' असल में ' शराब ' है । और याद कर लिजिये 1857 के मेरठ को जहा की गलियो में दिल्ली से निकल कर गालिब पहुंचे है और गधे पर 'सराब' लाद ये गुनगुनाते हुये दिल्ली की तरफ रवाना हो चुके है ...आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक / कौन जीता है तिरी जुल्फो के सर होने तक...Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-3750942415985254142019-03-27T22:29:00.001+05:302019-03-27T22:29:08.967+05:30इंतजार किजिये...23 मई के बाद नई भूमिका में होगें मोदी-राहुलमोदी कैबिनेट के चेहरे रविशंकर प्रसाद को पटना एयरपोर्ट पर काले झडे दिखा दिये जाते है । झंडे दिखाने वाले बीजेपी के ही राज्यसभा सदस्य आर को सिन्हा के समर्थक थे । मोदी कैबिनेट के सबसे बडबोले मंत्री गिरिराज सिंह का टिकट नवादा से कट जाता है और गिरिराज इसके लिये बिहार प्रदेश के अध्यक्ष नित्यानंद राय को कटघरे में खडा करते है । शत्रुध्न सिन्हा खुल्लमखुला मोदी के खिलाफ खामोश कहकर काग्रेस का रास्ता पकडते है और लालकृष्ण आडवाणी को बतौर फिलोस्फर गाईड के तौर पर याद करते है । आडवाणी टिकट ना मिलने पर किसी के ना पूछने तक का जिक्र कर चुप हो जाते है । मुरली मनोहर जोशी तो खुल तौर पर रामलाल की टिकट ना मिलने की ना का सार्वजनिक बयान कर देते है । उमा भारती अनमने ढंग से चुनाव ना लडने का जिक्र कर देती है । सुषमा स्वराज जब से बिगडी सबियत का जिक्र कर चुनाव ना लडने का एलान करती है तभी से बतौर विदेश मंत्री उनकी सक्रियता बढती नजर आती है । छत्तिसगढ के पूर्व सीएम रमन सिंह के बेटे को भी टिकट नहीं दिया जाता । और राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की टिकट बंटवारे में कोई बात सुनी ही नहीं जाती । तो मध्यप्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान के आगे पारपंरिक सीट छोड काग्रेस के दिग्विजय के सामने भोपाल से लडने की चुनौती है । तो क्या बीजेपी जो उपर से दिखायी दे रही है वह अंदर से बिलकुल अलग है । यानी चेहरो में बिखरी बीजेपी में संगठन संभले कैसे या फिर मोदी-शाह के खेल में बीजेपी को जीत मिले लेकिन जीतने वाले बिना आधार के नेता ही रहे जिससे कोई चुनौती ना बने । यानी बीजेपी के भीतर की चौसर कुछ ऐसी बिछ चुकी है जिसमें बीजेपी का संगठन चेहरो में बंटा हुआ है ।अनुशासनहीनता के हालात कार्रवाई करने की इजाजत नहीं दे रहे है । कद और अनुभव को मान्यता देना कही नहीं है । और इन हालातो के बीच बिहार में नीतिश का कद । महाराष्ट्र में उद्दव का कद । यूपी में छोटे दलो की हैसियत । और बिना कद वाले विरोधियो का बीजेपी में शामिल होने पर जश्न मनाकर जीत का राह बन रही है ये सोच हावी हो चली है ।<br />
बीजेपी के इस अंदाज के सामानातंर काग्रेस क्षत्रपो के अंतर्विरोधो को ढाल बनाकर अपनी सौदेबाजी का दायरा बढाने से नहीं चुक रही है । बिहार में महागठंबधन की चौसर पर काग्रेस का पासा पप्पू यादव है जिससे आरजेडी के यादव को काउंटर किया जा सकता है तो फिर यूपी में भीम आर्मी के चन्द्रशेखर के जरीये गठबंधन में मायावती को । बंगाल में ममता बर्दाश्त नहीं है तो आध्र में चन्द्रबाबू नायडू । और दिल्ली में केजरीवाल की जमीन को नकारना भी मुश्किल है लेकिन भविषय की जमीन को बनाने के लिये केजरीवाल की जमीन को नकारना भी जरुरी है ।<br />
यानी बीजेपी-काग्रेस की चौसर पर फेकें जा रहे पांसे साफ दिखायी दे रहे है । मोदी शाह की जोडी 23 मई के बाद त्रिशुकं जनादेश के हालात में बीजेपी के भीतर खुद को नकारे जाने के लिये तैयार नहीं है । तो अभी से बीजेपी के उम्मीदवारो की लिस्ट के जरीये बीजेपी की घेराबंदी की जा रही है । जिससे कोई सर उठा ना सके । तो काग्रेस त्रिशंकु जनादेश के हालात में विपक्ष में सबसे बडी ताकत के साथ खडे होने की तैयारी में है तो गठबंधन की सोच तले अकेले ल़डते हुये ज्यादा से ज्यादा सीटो पर लडने के हालात बना ही है । और ये दोनो रास्ते साफ बता रहे है कि 2014 की मोटी लकीर 2019 में इतनी महीन हो चुकी है जहा इस या उस पार के हालात चुनावी जनादेश तले रेगने लगे है । तभी तो चुनाव आयोग नीति आयोग के चैयरमैन राजीव कुमार को राहुल के न्यूनतम आय पर टिप्पणी करने को सही नहीं मान रहा है । खुद प्रधानमंत्री को ' मिशन शक्ति ' का सहारा लेकर सुर्खियो बनानी पड रही है । राहुल गांधी चौकीदार के लोकप्रिय अंदाज के साथ गरीबो को 72 हजार सालाना का ऐसा गंभीर इक्नामिक माडल रखने से नहीं चूक रहे जहा कारपोरेट के साथ दिखने वाली पारपंरिक काग्रेस की रंगत ही बदल जाये । और समाजवादी-वामपंथी विचारधारा का लेप काग्रेस खुद पर लगाकर उस बीजेपी से भी कई कदम आगे निकल पडी है जो बीजेपी कभी स्वदेशी या देसी इकनामी की बात करी थी ।<br />
यानी सियासत की महीन लकीर में मोदी-शाह ने अपने लिये इतनी मोटी लकीर खिंच ली है कि वह नेहरु गांधी परिवार की ताकत से ज्यादा बडी ताकत लये खुद को बीजेपी में जमा चुके है । और राहुल गांधी खुद में काग्रेस समेटे सामूहिकता का ऐसा औरा बना रहे है जहा काग्रेस अब क्षत्रपो के सामने झोली पसारने की जगह अपनी झोली में क्षत्रपो के वोटो को समेटने की स्थिति में आ जाये । यानी चुनावी शह मात का ये खेल पहली बार मोदी और राहुल को एक ऐसे चक्रव्यू में खडा कर चुका है जिसमे बाहर वही निकलेगा जो त्रिशकु जनादेश को अपने पक्ष में गढने का हुनर जानता होगा । Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com54tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-66014106581260457082019-03-25T21:51:00.000+05:302019-03-25T21:51:01.918+05:30अब तो जाग जाईये...वरना 23 मई के बाद लंबी नींद <br />
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जो पाठ मोदी एंड कंपनी काग्रेस के 70 बरस के नाम पर कर रही है । और अपने पांच बरस छुपा रही है । जो मंत्र इंदिरा के गरीबी हटाओ के नारे को जप कर बीजेपी अपने सच को छुपा रही है । यह संकेत है कि लोकतंत्र इतिहास दोहराने को तैयार है । यकीन मानिये भरोसा काग्रेस पर से भी टूटा और इदिरा से भी टूटा है और भरोसा मोदी से भी टूटेगा । लेकिन इतिहास के पन्नो को पलटने से पहले सोचना शुरु किजिये ऐसे जनतंत्र पर किसका भरोसा बचेगा जो सत्ता पाने के लिये आम वोटरो की त्रासदी को खेल बनाता हो ।<br />
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इंदिरा का नारा गरीबी हटाओ । 1971 का चुनाव और इसी नारे के सहारे शोषित और उपेक्षित समाज की भावनाओ को उभारा गया । भाषण हो । पोस्टर हो । वादे हो । सबकुछ गरीबी हटाओ पर टिका । सत्ता मिली और जीत के तुरंत बाद पूंजीपतियो के संगठन में इंदिरा ने जो भाषण दिय वह उन नीतियो के ठीक उलट था जो गरीबी हटाओ के इर्द गिर्द ताना बाना बुने हुये था । और तब पहली बार चन्द्रशेखर ने ही सवाल उठाया कि अगर सरकार वादे पूरे नहीं करती । या फिर चुनावी नारो के जरीये लोगो की भवनाओ से खिलावड करती है तो फिर जनतंत्र से लोगो का भरोसा उठ जायेगा ।ये बात चन्द्रशेखर ने "यंग इंडिया " के संपादकीय में लिखा था । लेकिन अब सोचना शुरु किजिये कि इंदिरा का तो एक ही नारा था । और आने वाले वक्त में मोदी को कैसे लोग याद करेगें...या फिर याद करने की नौबत ही नहीं आयेगी क्योकि 2014 में गरीब गुरबो की भावनाओ से जुडे नारो की भरमारे बाद सत्ता पाते ही जिस तरह मुकेश अंबानी के अस्पताल में प्रधानमंत्री मोदी अंबानी हो गये और उसके बाद लगातार देश में जिस तरह नीरव को मोदी होने पर गर्व होने लगा । चौकसी को मोदी के याराने पर गर्व होने लगा । कारपोरेट का खुला खेल चंद हथेलियो पर रेगंने लगा उसमें 2019 का चुनाव भरोसा जगाने वाला चुनाव है या टूट चुके भरोसे में भी जंनतंत्र की मातमपुर्सी करते विपक्ष की रुदन वाला चुनाव है । या फिर चुनाव सिर्फ एवीएम मशीन और पूंजी के पहाड तले अपराध-भ्रष्ट्राचार की चादर ओढ कर सिर्फ वोटो की गिनती तक के जुनुन को पालने वाला है ।<br />
कोई पैलेटिकल नैरेटिव जो बताता हो मई 2019 के बाद देश किस रास्ते जायेगा । कोई विजन जो समझा दें कि कैसे युवा हिन्दुस्तान सडक पर नहीं कल कारखानो या यूनिवर्सिटी या खेत खलिहानो में नजर आयेगा । कोई समझ जो बता दें मंडल- कमंडल और आर्थिक सुधार की उम्र पूरी होने के बाद भारतीय राजनीति को अब क्या चाहिये । या फिर राष्ट्रवाद या देशभक्ति तले सीमा पर जवानो की शहादत और देश के भीतर रायसिना हिल्स पर रौंदे जाते संविधान को ही मुद्दा बनाकर लोकतंत्र का नायाब पाठ याद करने का ही वक्त है । तो क्या लोकतंत्र-जंनतत्र अब सिर्फ शब्द भर है और इन शब्दो को परिभाषित करने की दिशा में देश की समूची पूंजी जा लगी है । और जो सत्ता के नयेपरिभाषा को याद कर बोलेगा नहीं वह कभी लिचिंग में । कभी लाइन में। कभी गौ वध के गुनहगार के तौर पर तो कभी भीड तले कुचल दिया जायेगा और कानून का राज सिर्फ यही संभालने में लग जायेगा कि कोई हत्यारा कही अपराधी ना करार दिया जाये । जब सबकुछ आंखो के सामने है तो फिर सोचना शुरु किजिये एक सौ तीस करोड के देश में । नब्बे करोड वोटरो के बीच । 29 राज्य और सात केन्द्र शासित राज्यो के बीच । देश के सामने 15 ऐसे नाम भी नहीं जो लोकतंत्र की तस्वीर लिये फिरते हो । मोदी-शाह , राहुल-प्रियका , मायावती-अखिलेश, नीतिश-लालू, ममता-चन्द्रबाबू , नवीन-स्टालिन , उद्दव-बादल और उसके बाद सांस फूलने लगेगी कि कौन सा नाम लें जो 2019 के चुनाव में अपनी सीट से इतर प्रभाव पैदा करने वाला है । या फिर लोकतंत्र को जिन्दा रख जनता को मौका दे दे कि जनतंत्र से भरोसा टूटना नहीं चाहिये । इस लोकतंत्र के हालात ठीक वैसे ही है जैसे बरसात में भीग चुके माचिस बेचने वाले के होते है । माचिस जला कर खुद मेंआग की तपन पैदा नहीं करेगा तो मौत हो जायेगी और तपन पैदा कर लेगा तो फिर भूख मिटाने के लिये माचिस बेच कर दो पैसे कमाने की स्थिति भी नहीं बचेगी ।<br />
तो क्या 2019 का चुनाव वाकई मोदी-राहुल । या सत्ता-विपक्ष के बीच का है या फिर जनता और वोटर के बीच 2019 का जनादेश आकर उलझ गया है । जहा मोदी चुनाव हार चुके है और राहुल चुनाव जीत नहीं सकते । लेकिन हार - जीत जनता और वोटरो की ही होनी है । वोटिंग का दिन । घंटे भर की कतार । फिर दो मिनट में एवीएम का बटन । और 19 मई तक हर वोटर जीत जायेगा । और 23 मई को जनता हार जायगी ।<br />
कल्पना किजिये या ना किजिये लेकिन सोचिये आखिर 23 मई के बाद जनता को क्या मिलने वाला है । और जनता अगर 11 अप्रैल से 19 मई क बीच वाकई जाग गई और खुद ही जनतंत्र का राह तय करने निकलने लगी तो फिर 23 मई को लोकतंत्र को बंधक बनाये चेहरो का नहीं जनता का जश्न होगा । पर भरोसा तो टूट चुका है । तो फिर मान लिजिये ये सपने में लिका गया आलेख है । और अब सपना टूट गया । Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com37tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-45647648444359886542019-03-24T18:54:00.001+05:302019-03-24T18:54:20.268+05:30धीरे धीरे बिसात पार्ट - 2 ..... संघ की चुनावी राजनीतिक सक्रियता <br />
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मोदी के सामने मुश्किल खूब है तो दूसरी तरफ सरसंघचालक मोहन भागवत की भी परिक्षा है । मोदी को एहसास है 2014 के दिखाये सपने अगर 2019 में पूरे हो नहीं पाये है तो फिर हवा उल्टी जरुर बहेगी और मोहन भागवत को भी एहसास है कि प्रचारक के बनने के बाद भी संघ के तमाम एंजेडा अगर मटियामेट हुये है तो फिर उनके पास दुबारा मोदी के लिये खडे होने के अलावे कोई विकल्प भी नहीं है । यानी 2019 के चुनाव में मोदी न कोई अलख नहीं जगायेगें न अपने उपर लगते आरोपो का जवाब देगें । यानी राफेल हो । बेरोजगारी हो । किसान का संकट हो । व्यापारियो की मुस्किल हो । मंहगाई की मार हो । घटता उत्पादन हो । शिक्षा-हेल्थ सर्विस का संकट हो । जवाब मोदी देगें नहीं । क्योकि चुनाव पांच साल के लिये मोदी ने लडा नहीं है बल्कि काग्रेस के वैचारिक जमीन कोखत्म कर संघ की जमीन को स्थापित करने का ही ये संघर्ष है और ये एहसास 2019 में संघ परिवार को भी करा दिया गया है या फिर उसे हो चला है कि हिन्दु राष्ट्र का जो भी रास्ता उसने देखा है वह काग्रेस को खत्म कर ही बन सकता है । और इसके लिये मोदी की चुनावी जीत जरुरी है । यानी सवाल तीन है । पहला , 2019 में मोदी-भागवत एक ही रास्ते पर है । यानी काग्रेस अगर संघ परिवार में मोदी को लेकर कोई भ्रम देख रही है तो ये काग्रेस का भर्म है । दूसरा , मोदी के अलाव संघ किसी दूसरे को नेतृत्व की सोच भी नहीं सकता है । यानी काग्रेस या विपक्ष अगर गडकरी या त्रिशकु जनादेश के वक्त मोदी माइनस बीजेपी को देख रहा है तो ये उसकी भूल होगी ।क्योकि उस हालात में भी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार मोदी के पंसदीदा होगें । जो आज की तारिख में महाराष्ट्र के सीएम देवेन्द्र फडनवीस हो सकते है । तीसरा , संघ के कैडर को इसका एहसास है कि मोदी की सत्ता नहीं रही तो फिर उनके बुरे दिन शुरु हो जायेगे यानी वह सवाल दूर की गोटी है कि मोदी को लकर संघ कैडर में गाय से लेकर मंदिर तक के जो सवाल पाच बरस तक कुलाचे मारते रहे कि वह चुनाव में मोदी के खिलाफ जा सकते है । असल में संघ के सामने भी चुनावी जीत हार आस्तितव के संकट के तौर पर है इसका एहसास मोदी ने बाखूबी संघ को अपने संकट से जोड कर करा दिया है ।ऐसे में संघ ने पहली बार दो स्तर पर चुनावी प्रचार की रुपरेखा तय की है । जिससे कमोवेश देश की हर सीट तक उसकी पहुंच हो सके । और पहली बार स्वयसेवक किसी राजनतिक कार्यकत्ता की तर्ज पर चुनावी क्षेत्र में ना सिर्फ नजर आयेगे बल्कि सात चरण में सात जगहो पर नजर भी आयेगें । तरीके दो है , पहला, राज्यवार एक लाख स्वयसेवको का समूह सीट दर सीट घुमेगा । दूसरा , स्वयसेवक मोदी के बारे में कम काग्रेस के बारे में ज्यादा बात करेगें । यानी 2019 की राजनीति को ही संघ अपने हिसाब से गढने की तैयारी में जुट चुकी है जहा मोदी के पांच बरस र कोई चर्चा नहं होगी लेकिन काग्रेस के होने से क्या क्या मुश्किल देश के सामने आती रही है उसे परोसा जायेगा । और ये प्रचार कितना तीखा हो सकता है ये इससे भी समझा जा सका है एक तरफसाक्षी महाराज का बयान है तो दूसरीतरफ इन्द्रेश कुमार का । साक्षी कहत है मोदी जीते तो फिर ्गला चुनाव होगा ही नहीं त इन्द्रेश कुमार कहते ह कि मोदी बने रहे तो चंद बरस में लाहौर , कराची , रावलपिंडी में भी भरतीय जमीन खरीद सकते है । यानी स्वयसेवको में ये भ्रम ना रहे कि असंभव किया नहीं जा सका । तो मोदी को लारजर दैन लाइफ के तौर पर संघ के भीतर भी रखा जा रहा है जिसमें हिन्दुस्ता के लोकतंत्र का मतलब ही मोदी है तो दसरी तरफ अंखड भारत का सपना दिख कर हर दिन शाखा लगाने वाले स्वयसेवक मान लें कि पाकिसातन भी मोदी काल में भारत का हिस्सा होगा । यानी बिना समझ के सडक की भाषा या अवैज्ञानिक तरीके से संवैधानिक सत्ता को भी सडक के सामानातांतर ला दिया जाये तो सोच का पूरा पैराडोक्स ही बदल जायेगा ।<br />
जारी...Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com12