tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-20132674843042338632013-08-14T10:06:00.001+05:302013-08-14T10:06:40.921+05:3015 अगस्त : वक्त मिले तो सोचिएगा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>क्या 1947 एक धोखा है और 1950 एक फरेब?</b><br />
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मुड़कर 66 बरस पहले के वक्त को देखना और यह सोचना कि तब आजादी का मतलब यह तो नहीं था जो आज हो चला है। कुछ कम वक्त तय करें तो 63 बरस पहले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा पाने का हक छाती से लटकाए अब यह सोचें कि लोकतंत्र के जिस राग को 63 बरस पहले सुना वह अब का लोकतंत्र तो नहीं। कैसे महज साठ बरस में अपने ही देश में नागरिक होना, कहलाना और बतौर नागरिक मौलिक अधिकार की मांग करना सबसे बड़ा गुनाह हो गया, यह किसने सोचा होगा। हालात तो यह है कि आज बात कहीं से भी शुरु करें और अंत कहीं भी करें 15 अगस्त 1947 धोखा लगता है और 26 जनवरी 1950 फरेब। चलिये इतिहास के नहीं भारतीय होने के पन्नों को पलटें। जो मां-बाप और दादा-नाना या परदादा के रास्ते हम तक पहुंचे है और हम हैं कि कहे जा रहे है, हम उस देश के वासी है जिस देश में गंगा बहती है। यह देश है वीर जवानो का। मेरे देस की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती..।<br />
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तो सच क्या है आजादी या संप्रभुता। अगर कहें दोनों ही सच नहीं हैं और लालकिले के प्राचीर से लहराता तिरंगा तक गुलामी और मुनाफे का ऐसा प्रतीक है, जहां नागरिकों की भागेदारी और देश के नागरिको से सरोकार खत्म हो चले हैं । संविधान में दर्ज नागरिकों के अधिकारों को चुनी हुई सरकारों ने ही बेच दिया है। और राजनीतिक दलों ने खुद को चुनी हुई सरकार का दर्जा देने के लिये संविधान में दर्ज नगरिक होने के पहले मौलिक अधिकार तक में सेंध लगा ली है। तो आप हमें राष्ट्रद्रोही तो नहीं मान लेंगे। वोट डालने का अधिकार। यही तो नागरिक होने की सबसे बड़ी पहचान है। देश का सबसे रईस शख्स हो या सबसे पावरफुल शख्स उसके वोट और सबसे गरीब के वोट की कीमत एक है। यही तो है लोकतंत्र का मजा। लेकिन क्या किसी ने सोचा आजादी के महज 62 बरस बाद ही वोट डालने के अधिकार की भी कीमत लगेगी। और संविधान की घज्जियां एक अदद वोटर कार्ड बनवाने में ही उडन-छु हो जायेगी। अगर घर नहीं है। रोजगार नहीं है। दो जून की रोटी की व्यवस्था का कोई स्थायी जुगाड़ नहीं है। यानी जीने की खातिर अपना गांव छोड़ शहर-दर-शहर भटकते देश के सात करोड़ लोगों के पास आज की तारीख में वोटर आई डी कार्ड नहीं है। यानी नागरिक हैं लेकिन वोट डालने का अधिकार नहीं है। देश के 28 राज्यों की राजधानियो में करीब तीन करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास छत तो है लेकिन छत का पता बताने के लिये कोई सबूत नहीं है। यानी दस्तावेज नहीं है तो वह भी नागरिक होते हुये भी उस पहले मौलिक अधिकार से वंचित हैं, जिसके खम्भे पर लोकतंत्र खड़ा है। और इसका दूसरा सच कहीं ज्यादा निराला है। लोकतंत्र के राग में मशगूल करीब चार दर्जन राजनीतिक दलों के नेता कमोवेश देश के हर राज्य में सक्रिय हैं, जो साठगांठ से बिना किसी सबूत के वोटर आई-कार्ड बेचते हैं। यहां बेचने का मतलब रुपया भी है और वोट की खरीद भी। बंगाल समेत सभी उत्तर पूर्वी राज्य और इनसे सटे रखंड,उडीसा,छत्तीसगढ में तो वोट डालने के राष्ट्रीय अधिकार को जहा धंधे में बदला जा चुका है। वहीं यूपी एक ऐसी जगह है, जहां राजनीतिक दल अपने अनुकुल वोट बैंक का दायरा बढ़ाने के लिये अपनी जातीय राजनीति के अनुकुल वोट का अधिकार कई गुना ज्यादा दिला देते हैं। यानी एक व्यक्ति के पास कई नाम से वोटर कार्ड हो जाता है और लोकतंत्र ठहाके लगाता है। वहीं लोकतंत्र के इस पहले आधार की धज्जियां घुसपैठ करने वाले सवा करोड़ बांगलादेशियों में से 65 लाख से ज्यादा के बने वोटर आई कार्ड से समझा जा सकता है, जो आपको बंगाल से दिल्ली तक कई खेप में छितराये हुये मिल जायेंगे। तो लोकतंत्र के तमगे में अगर यह सबसे बड़ा सूराख है तो इसके बाद शुरु होता है संविधान में दर्ज मौलिक अधिकारों का राजनीतिक चीरहरण। और यह चीरहरण कितना खतरनाक है इसका एहसास संविधान को के किसी भी पन्ने में अंगुली रख किसी भी विश्लेषण को पढ़ने के साथ ही शुरु हो सकता है। चूंकि मौजूदा वक्त में संविधान सिर्फ पदो को संभालते वक्त शपथ के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाता है तो लोकतंत्र को खारिज कर सत्ता की पहली हनक भी वहीं सुनायी देती है और संविधान झटके में राजनीतिक सत्ता का गुलाम लगने लगता है।<br />
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मुश्किल यह है कि संविधान को गुलाम बनाने और आजादी को अपनी परिभाषा में ढालने की कवायद उन्ही संस्थानों ने शुरु किया जिसे संविाधन ने सबसे ज्यादा अधिकार दिये और यह माना कि देश के उलझे हुये रास्तों को यही संस्थान रास्ता दिखायेंगे। लोकतंत्र के तीनो पाये। नौकरशाही, न्यायपालिका और संसद। लेकिन इस प्रक्रिया में संसद इतनी ताकतवर बन गयी की नेता-मंत्री खुद को मसीहा मन बैठे। यह संसदीय राजनीति की कवायद थी। सत्ता पाने की होड़ में ऐसी कवायद शुरु हुई कि जिस सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देश को देश से अवगत कराया गया वही बीते साठ बरस में बदल गया। राष्ट्रीय भाषा को लेकर आजादी के पहले 15 बरस में जो अध्ययन होना था, वह सरकते सरकते चार गुना वक्त भी गुजार गया और अपनी राष्ट्रीय भाषा को कमजोर दर कमजोर भी करता गया। आजादी के वक्त जो काम विदेशी या गुलाम भाषा के प्रतीक बने अंग्रेजी में 37 फीसदी होता था वह साठ बरस के सफर में 73 फीसदी जा पहुंचा । लेकिन बात यही नहीं रुकी बल्कि उत्तर में समाजवादी पार्टी तो दक्षिण में द्रमुक ने भाषा को राजनीतिक हथियार बना लिया। अब तो भाजपा को भी लगने लगा है कि भाषा पर सियासत हो सकती है तो वह भी संविधान का बात को अपने चुनावी मिशन से जोडकर देश को इसका एहसास कराने लगा है कि जो काम संविधान में दर्ज होने पर नहीं हुआ उसे वह सत्ता में आने के बाद कर देगा । संविधान का अगला माखौल पिछड़ी जातियों को लेकर हुआ। हाशिये पर पड़े जिस समाज की जिन पिछडी जातियों को मुख्यधारा में लाने के लिये 15 और 10 यानी कुल 25 बरस के सफर को तय यह कहते हुये किया गया कि तबतक आरक्षण सरीखे सुविधा का लाभ इन्हें देना जरुरी है । जब तक यह मुख्यधारा से जुड़ नही जाती । और इसके लिये ही सत्ताधारियों को कानून बनाने और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को एक घरातल पर लाने का अधिकार दिया गया। और इस आधार की जमीन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अध्ययन को बताया गया। लेकिन साठ बरस के सफर में आरक्षण का वही लाभ सबसे धारदार राजनीतिक हथियार बन गया। आजादी के वक्त जिस हाशिये पर पडे समाज को सामाजिक-आर्थिक तौर पर उसकी जनसंख्या के लिहाज से 80 फिसदी हिस्से को कमजोर माना गया, साठ बरस बाद उसका साठ फीसदी मुख्यधारा की जातियों की तुलना में सामाजिक-आर्थिक तौर पर मजबूत हो गया। लेकिन तादाद चूंकि 1950 की लक्षमण रेखा के तहत बनी तो राजनीतिक जूतम-पैजार आज भी उस कठघरे से बाहर झांकने को तैयार नहीं है। और क्षत्रपों की सियासत की जमीन ही संविधान बनाते वक्त उलझे कदमों को पटरी पर लाने की जगह पटरी से उतरी रहे यही मान ली गई। कुछ यही तासिर अल्पसंख्यकों को लेकर रही। खासतौर से जो रेखा आजादी के वक्त मुस्लिम समाज को लेकर दर्द और त्रासदी के साये में खिंची गई। वही दर्द और त्रासदी साठ बरस के सफर में वोट बैंक का सबसे सशक्त माध्यम बन गया। जाहिर है यह किसी ने आजादी के वक्त सोचा ना होगा, लेकिन साठ बरस बाद कई एलओसी समाज के भीतर खिंची और राज्यो में वोट बैंक की सियासत ने इस लकीर को और मजबूत ही किया। और संसदीय राजनीति का यही वोट बैंक सत्ता में आने या बाहर करने की लकीर तले देश को सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढायेगी यह भी किसी ने सोचा न होगा।<br />
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लेकिन आजाद भारत के नागरिकों को गुलाम बनाकर छलने का असल खेल तो राजनीतिक दलो के संविधान के अपहरण के साथ शुरु हुआ। संविधान को बनाते वक्त देश के हालात का अध्ययन कर जिस नतीजे पर देश को देखा-परखा गया और वोट डालने के समाजवादी चिंतन को अधिकारों की फेहरिस्त में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण जब करार दिया गया तो उसके अपहरण के बाद शुरु हुआ नागरिकों को संविधान से मिले अधिकारों के रास्ते में खड़े होकर राजनीतिक सत्ता का खुद को संविधान से बड़ा बताने और अधिकारो को पूरा करने का खेल। संविधान बनाते वक्त जीने की न्यूनतम जरुरत को मौलिक अधिकारों से जोड़ना तक जरुरी नहीं समझा गया। साठ बरस पहले यह माना गया कि संसद पीने का पानी, इलाज की जरुरत, दो जून की रोटी का जुगाड, पढ़ाई और छत तो हर नागरिकों को दिलवा ही देगी । उस वक्त बाबा साहेब अंबेडकर ने भी नहीं सोचा होगा कि पीने का पानी संसद नहीं कॉरपोरेट कंपनियां तय करेंगी। स्वास्थ्य सेवा संसद के हाथ से निकल कर कमाई के सबसे बड़े मुनाफे वाले घंघे में तब्दील हो जायेंगी। दो जून की रोटी का जुगाड़ संसद में पहुंचने वाले राजनीतिक दलों के चुनावी मैनिफेस्टो से लेकर राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बन जायेगा। और सत्ताधारी खुद का गुणगाण करेंगे कि वह हर पेट के लिये अनाज और हर हाथ के लिये काम ले कर आ गये। और तो और कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी संविधान द्वारा मिले राइट टू शेल्टर यानी छत के अधिकार को अपने राजनीतिक प्रोपोगेंडा से जोड कर कही इंदिरा आवास योजना तो कही वाजपेयी आवाज योजना चलेगी और हर मुख्यमंत्री के 10 से साठ सूत्री कार्यक्रमों में नागरिकों को उन्हीं सुविधाओं को देने का जिक्र होगा जिसे दस्तावेज की शक्ल में संविधान में साठ पहले ही लिख दिया जा चुका है।<br />
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संविधान को खारिज कर राजनीतिक दलो ने कैसे अपनी चुनावी बिसात चुनावी घोषणापत्र के जरीये बनायी और साठ बरस की यात्रा में कैसे हर नागरिक के लिये संविधान में दर्ज शब्द बेमतलब करार देते हुये राजनीतक दलों के चुनावी घोषणापत्र से लेकर सत्ताधारी की नीतियां ही राष्ट्रवाद भी हो गयी और लोकतंत्र का पैमाना भी यह सुप्रीम कोर्ट के सामने आये दो सौ से ज्यादा मामलो में से सिर्फ आधे दर्जन मामलों को देख-पढकर ही समझा जा सकता है ।<br />
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गोलकनाथ बनाम पंजाब 1967, केशवानंद भारती बनाम केरल 1973, मिनरवा मिल्स बनाम भारत सरकार 1980, वामनराव बनाम भारत सरकार 1981, भीम सिंह बनाम भारत सरकार 1981, सम्पत कुमार बनाम भारत सरकार 1987 । यह ऐसे मुकदमे हैं, जिनके जरीये नागरिक समझ सकते हैं कि कैसे संसद, सत्ताधारी और राजनीतिक दल के साये में नागरिकों को मौलिक अधिकारो की लूट शुरु हुई। और कैसे कारपोरेशन से लेकर कारपोरेट युग तक के दौर में राज्यसत्ता ने ही नागरिकों को पंगु बनाकर कभी कारपरेशन तो अब कारपोरेट को राज्यसत्ता के बराबर खड़ा कर दिया। और नागरिक यह सोचने लगा कि जिसे उसने चुना नहीं वही उसके जीवन से जुड़े हर तत्व का मालिक कैसे बन गया। इन नजरियों को साफ करने के लिये सुप्रीम कोर्ट की दो व्याख्या अपने आप में काफी हैं। पहली शिक्षा को लेकर है तो दूसरी कानून के समक्ष हर किसी के बराबरी का सवाल। 1981 में अजय हसिया बनाम खालिद मुजिब पर फैसला जस्टिस पी एन भगवती ने दिया था। और उसी वक्त उन्होंने इस सच की पूरी व्यख्या की थी कि कैसे नागरिकों के जीवन से किसी भी आर्थिक आधार के जुड़ने से, चाहे वह मौलिक अधिकार का हिस्सा ही क्यों ना हो नागरिकों को और कोई नहीं राज्यसत्ता ही ठगती है। और जब सवाल समानता के अधिकार से जुडते हुये कानून की बराबर मदद को लेकर आया तो सुप्रीम कोर्ट में ही नागरिकों को मिलने वाले हक को लेकर यह सवाल भी उठा कि कैसे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने की स्थिति इस देश में सिर्फ एक फीसदी लोगों से भी कम की है। क्योंकि वकीलों की रोजमर्रा की पेशी की जो औसत रकम है वह इस देश में 80 फीसदी नागरिकों के सालाना खर्च के बराबर है। तो ऊपरी अदलते सिर्फ उन्हीं की पैरोकारी और फैसलों के इर्द गर्द घुमती है, जिन्होंने राज्यसत्ता को संविधान से आम नागरिकों के अधिकारों को छिनने पर चुप्पी साध रखी है । या फिर संविधान द्वरा प्रदत्त नागरिको के हक को राजनीतिक सौदेबाजी का हिस्सा बना चुके हैं। और नागरिक अपने ही हक को लेकर अदालत तक पहुंच नही पाता। 1987 में प्रभाकरण नायर बनाम तमिलनाडु के मामले ने तो छत के अधिकार को ही ले उडी राज्य सरकार पर सीधी अंगुली उठायी दी । लेकिन सवाल सिर्फ अदालत की व्याख्या या संविधान को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जरीये सत्ताधारी राजनीतिक दलो को चेताने भर का नहीं है। अगर 2009 के लोकसभा चुनाव में घोषित राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को ही देख लें या फिर 2014 के लिये बिछती सियासी बिसात में उठाये जा रहे मुद्दों को परखें तो बीस किलो चावल से लेकर मुफ्त छत की व्यवस्था कराने और शिक्षा को अधिकार बनाते हुये सड़क, पानी बिजली पूरी करने की बात करने वाले राजनीतिक दलों से लेकर सरकार के नरेगा और फूड सिक्योरटी विधेयक के आइने में संविधान को कभी पढ़कर देखे तो समझ जायेंगे कि कैसे साठ बरस में राजनीतिक दलों की गुलामी और सत्ताधारियों के राष्ट्र में रहकर ही कोई नागरिक होने का हक पा सकता है । संविधान ने देश के नागरिकों को सबसे बड़ा माना। लेकिन संसदीय सत्ताधारियों ने झटके में नागरिको से सारे अधिकार छिन कर उपभोक्ताओं की ऐसी फौज खडी कर दी कि नागरिको को मिलने वाले सारे हक कारपोरेट और पैसो वालों के हाथ में आ गये। और नागरिकों के नाम पर जो बचा उसे कल्याण योजना का नाम दिया गया। संयोग से कल्याण योजनाओ को लेकर भी सत्ताधारियों ने ही माना कि सबसे बडी राजनीतिक और लोकतांत्रिक लूट तो वही होती है। कांग्रेस और भाजपा दोनों के 2009 के चुनावी मैनिफेस्टो में 40 फीसदी लोकप्रिय नारे संविधान से ही चुराये हुये थे। 2004 से 2012 तक सभी 28 राज्यों और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में कमोवेश हर राजनीतिक दल ने आम आदमी के हक या उसे जिन सुविधाओ को देने की बात अपने चुनावी घोषणापत्र में कही उसका 80 फिसदी हिस्सा किसी ना किसी रुप में संविधान के तहत नागरिकों के अधिकार क्षेत्र में आता है या फिर राज्यसत्ता का काम है कि वह उसे पूरा करें। लेकिन अपनी राजनीति सौदेबाजी के दायरे आमआदमी और देश के नागरिकों के साथ जो छल-कपट इस दौर में संसदीय राजनीति की जरुरत बन चुकी है परिणाम उसी का है कि संविधान की शपथ लेने के बाद भी संविधान को ही खारिज करने की सोच हर सत्ताधारी के भीतर तक समा चुकी है। और सत्ताधारियों ने मान लिया है कि चुन कर सत्ता में पहुंचने का मतलब है पार्टी का संविधान देश के संविधान से बड़ा हो जाना। यह सवाल इसलिये क्योंकि कोई भी नेता चुने जाने के बाद और कोई भी मंत्री बनते वक्त संविधान के अंतर्गत काम करने की कसम खाता है। और लोकतंत्र के दूसरे पाये के तौर पर नौकरशाही संविधान के तहत सीआरपीसी और आईपीसी की घाराओ को लागू करने का काम करती है। लेकिन औसतन हर बरस सवा सौ से ज्यादा आईएएस और आईपीएस के वैसे अधिकारी जो संविधान के मातहत काम करते है और ईमानदारी का पाठ सत्ताधारियों को भी पढ़ाने की हिम्मत रखते हैं उन्हे वही सत्ता संसपेंड कर देती है जो संविधान की कसम लेकर सत्ता चलाते हैं। किसी देश के ऐसे चीरहरण को अगर आजाद देश कहा जाये तो इसमें से कौन अपना नाम कटाना चाहेगा और कौन इसे बदलने के लिये संघर्ष का रास्ता अपनायेगा। इंतजार करना होगा या पहल करनी चाहिये। वक्त मिले तो सोचियेगा।</div>
Indiblogshttp://www.blogger.com/profile/09707909884476756113noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-65291807081051518852013-06-25T11:55:00.003+05:302013-06-25T12:00:28.580+05:30जिन्हें पहाड़ों पर ही रहना है उनकी सुध कौन लेगा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>पुण्य प्रसून वाजपेयी</b><br />
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उभनती नदी और उजाड केदारनाथ। टुकडो में फंसे
श्रद्धालु और पर्यटक। जमीन से आसमान तक मार्च करती सेना।उत्तराखंड में बीते
सात दिनो का सच यही है। लेकिन इस सच से इतर एक दूसरा खौफनाक सच अब भी
त्रासदी की चादर में ही लिपटा हुआ है। क्योकि यह ना तो केदारनाथ के दर्शन
करने आये और ना ही इन्हे दर्शन करके लौटना था। यह पर्यटक भी नहीं है जो
खुली आबो-हवा मे जिन्दगी तर कर लौटे। इनका सच ही इनकी त्रासदी है और इन्हे
कही लौटना नहीं है तो अभी तक किसी की नजर यहा गई भी नहीं है। खासकर
उत्तराखंड में गढवाल इलाके के तीन जिले उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चामोली।
और इन तीन जिलो के करीब 250 से ज्यादा गांव। -औसतन हर गांव की आबादी 300 से
400 लोगो की। और सौ से कम आबादी वाले करीब 500 से ज्यादा गांव। अब ना छत
है और ना ही सपाट जमीन। जिस जमीन पर गांववाले खडे है उस जमीन पर दो जून का
अनाज भी बचा नहीं है जो पेट भर सके। इन तीन जिलो के करीब करीब पचास हजार
लोगो के सामने संकट यह है कि बादल के फटने से लेकर नदी के उफान और पहाडो के
टूट कर गिरने के बाद जिन्दगी जीने का हर रास्ता बंद हो गया है। जो गांव
तबाह हुये है। जहा जिन्दगी अब दो जून की रोटी के लिये तरस रही है उसके
सामने सबसे बडा संकट यह है कि अगले 15- 20 दिनो में फंसे लोगो को तो निकाल
लिया जायेगा लेकिन उसके बाद शुरु होगी मौतो से होने वाली बीमारी की
त्रासदी। साथ ही बीतते वक्त के साथ जिन्दगी जीये कैसे यह संकट गहरायेगा और
अभी तक मदद के लिये कोई हाथ गांववालो के लिये उठा नहीं है। क्योकि खेती की
जमीन पर गाद भर चुकी है तो खेती हो नहीं सकती। तीन महिनो के लिये चार घाम
के खुलने वाले कपाट पर अब ताला लग चुका है। और इसी दौर में पर्यटन से होने
वाली कमाई रास्तो के टूटने से ठप हो चुकी है। यानी पहाड का जीवन जो यूं
भी संघर्ष के आसरे चलता है उसपर शहरी विकास की अनूठी दास्तान ने स्वाहा कर
दिया है। प्रकृतिक त्रासदी ने इन तीन जिलो में खेती लायक करीब सौ स्कावयर
किलोमिटर जमीन को पूरी तरह खत्म कर दिया है। करीब दस हजार परिवार जो पूरी
तरह पर्यटन और चार घाम को सफल बनाने के दौरान साल भर की कमाई दो-तीन महिनो
में करता है वह बंद हो चुकी है।<br />
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असल में कैसे उताराखंड को दोहा गया और जिन्दगी की अनदेखी की गई यह अपने
आप में मिसाल है। क्योकि केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड
वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों
को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई
तो वह अपने पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते
में बनाए गए सभी निर्माण बह गए. गांव के गांव इसलिये बहे है क्योकि पुराने
गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे.
वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में
नगर, गाँव, संस्थान, होटल सबकुछ बना दिए गए हैं.। ऐसे गाव के लोग चारधाम
करने आये लोगो से कमाते और घर चलाते। लेकिन अब घरवाले को प्रलय ने लील लिया
तो गांव में बचे है सिर्फ आंसू।<br />
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और अब इन आंसूओ को भी सरकार से ही आस है उसी सरकार से जिसने पर्यटकों
के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों
का जाल बिछाया है.लेकिन यह नहीं देखा कि ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई
जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं। भू-स्खलन के
मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को
जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं. ये मलबे अंदर से पहले से ही
कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू से बने होते हैं. ये अंदर से
ठोस नहीं होते.। लेकिन सरकार, राजनेता, इंजिनियर, ठेकेदार सभी ने आसान
रास्ता बना कर मौत को ही आसान कर दिया।<br />
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जबकि इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर
सड़कें बनाते। उसमें मुश्किल आती क्योकि चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान
नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है यानी कमाई नहीं होती लेकिन जिन्दगी
मजबूत होती। लेकिन इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की
निकासी के लिए समुचित उपाय तक नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना
चाहिए था रपट्टा की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी। अपने मलबे के
साथ स्वत्रंता के साथ बह सके. लेकिन कुछ नहीं किया गया। इसके उलट
पर्यटकों से कमाई के कारण दुर्गम इलाकों में होटल खोलने की इजाजत सरकार ने
दी तो रईसो के लिये बालकोनी खोल कर नदी और खुली हवा का मजा लेने का धंधा
पैदा किया गया।ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने जो मलबों से बना थी। नदी
ने मलबो को बहाया तो जिन्दगी बह गयी।<br />
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और इस दौर में वहा तक किसी बचाववाले की नजर अभी तक गई नही है क्योकि यह
लोग बाहर से आकर फंसे नहीं है बल्कि यही रहते हुये कभी पेड को बचाने के
लिये चिपको आंदोलन तो कभी अलग और अपना राज्य बनाने के लिये संघर्ष कर चुके
है। लेकिन अब इनके हाथ और हथेली दोनो खाली है। बावजूद सबके इन्हे यही रहना
है। जो दुनिया के मानचित्र में सबसे भयावह प्रकृतिक विपदा का ग्राउड जीरो
बन चुका है।</div>
Indiblogshttp://www.blogger.com/profile/09707909884476756113noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-55960935712191912312008-11-24T08:42:00.003+05:302008-11-24T08:48:58.519+05:30आरएसएस को हिन्दुत्व का पाठ पढ़ाएंगी सावरकर की पातीराष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की मानें तो एटीएस पंचतंत्र की कहानी लिख रहा है। क्योंकि जो लोग मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी हो सकते हैं, वही लोग संघ के कार्यवाह मोहनराव भागवत और कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार की हत्या की साजिश कैसे रच सकते हैं। लेकिन हिन्दुत्व की जिस राह को 'अभिनव भारत' सरीखा संगठन पकड़े हुये है और हिन्दुत्व का नाम लेते लेते आरएसएस जिस राह पर जा चुका है अगर दोनो की स्थिति को दोनो के घेरे में ही देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि मालेगांव को लेकर जो सोच अभिनव भारत में है, कमोवेश वही सोच आरएसएस को भी लेकर है। यानी मालेगाव और संघ के हिन्दुत्व में कोई अंतर करने की स्थिति में 'अभिनव भारत' नहीं है।<br /><br />इस स्थिति को समझने से पहले जरा दोनों के अतीत को समझ लें। दरअसल, अभिनव भारत जिस हिन्दु महासभा से निकला उसके कर्ता-धर्त्ता सावरकर थे जो सीधे कहते थे," इस ब्रह्माण्ड में हिन्दुओं का अपना देश होना ही चाहिये, जहां हम हिन्दुओं के रुप में, शक्तिशाली लोगो के वंशज के रुप में फलते-फूलते रहें। सो, शुद्दि को अपनाये, जिसका केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक पहलू भी है । " वहीं हेडगेवार समाज के शुद्दिकरण के रास्ते हिन्दु राष्ट्र का सपना देशवासियो की आंखों में संजोना चाहते थे।<br /><br />सावरकर पुणे की जमीन और कोकणस्थ ब्रह्माणों के बीच से हिन्दुसभा को खड़ा कर सैनिक संघर्ष के लिये 1904 में अभिनव भारत को लेकर ब्रिट्रिश सरकार को चुनौती दे रहे थे। वहीं दो दशक बाद हेडगेवार नागपुर की जमीन पर तेलुगु ब्राह्मणों के बीच से हिन्दुओं के अनुकुल स्थिति बनाने के लिये कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर हिन्दुत्व शुद्दिकरण पर जोर दे रहे थे। उस दौर में सावरकर के तेवर के आगे आरएसएस कोई मायने नहीं रखती थी । ठीक उसी तरह जैसे अब आरएसएस के आगे हिन्दु महासभा कोई मायने नहीं रखती । सावरकर की पुत्रवधु हिमानी सावरकर 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हिन्दुमहासभा का अलख लिये चुनाव लड़ रही थीं। उस समय बीजेपी ही नहीं आरएसएस के स्वयंसेवक भी मजा ले रहे थे। हिमानी अपना चुनाव प्रचार करने ऑटो पर निकलती थीं और बीजेपी के समर्थक जो शायद आरएसएस से भी जुड़े रहे होगे, आटोवाले को कहते थे "हिमानी पैसा ना दे पाये तो हमसे ले लेना ।"<br /><br />लेकिन वही दौर ऐसा भी था जब आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर घमासान मचा हुआ था । इसलिये कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार में ठंडे बस्ते में डल चुका था ।<br />पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोडने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमो को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।<br /><br />जाहिर है इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देख कर खुद को अलग थलग समझ रहा था बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो सावरकर के आसरे कभी आरएसएस को मान्यता नहीं देता था, वह कहीं ज्यादा खिन्न भी था । 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनो में जाना शुरु कर दिया । महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया ।<br /><br />इस दौर में सावरकर -गोडसे की नयी पीढ़ी, जो संघ से पहले अंसतुष्ट थी, उसने सावरकर की संस्था 'अभिनव भारत' को फिर से सक्रिय करने की दिशा में वर्तमान कालखंड को ही उचित माना । इस विंग ने संघ पर भी मुस्लिम परस्ती और हिन्दु विरोधी सेक्यूलर राह पर जाने के आरोप मढ़ा। ऐसा नही है कि अभिनव भारत एकाएक उभरा और उसने संघ को निशाने पर ले लिया । दरअसल, 2006 में अभिनव भारत को दुबारा जब शुरु करने का सवाल उठा तो संघ के हिन्दुत्व को खारिज करने वाले हिन्दुवादी नेताओ की पंरपरा भी खुलकर सामने आयी। पुणे में हुई बैठक में , जिसमे हिमानी सावरकर भी मौजूद थीं, उसमें यह सवाल उठाया गया कि आरएसएस हमेशा हिन्दुओं के मुद्दे पर कोई खुली राय रखने की जगह खामोश रहकर उसका लाभ उठाना चाहता रहा है। बैठक में शिवाजी मराठा और लोकमान्य तिलक से हिन्दुत्व की पाती जोड कर सावरकर की फिलास्फी और गोडसे की थ्योरी को मान्यता दी गयी । बैठक में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी से लेकर गोरक्षा पीठ के मंहत दिग्विजय नाथ और शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद के भक्तो की मौजूदगी थी । या कहे उनकी पंरपरा को मानने वालो ने इस बैठक में माना कि संघ के आसरे हिन्दुत्व की बात को आगे बढाने का कोई मतलब नहीं है।<br /><br />माना यह भी गया कि बीजेपी को आगे रख कर संघ अब अपनी कमजोरी छुपाने में भी ज्यादा वक्त जाया कर रहा है इसलिये नये तरीके से हिन्दुराष्ट्र का सवाल खड़ा करना है तो पहले आरएसएस को खारिज करना होगा । हालांकि, ऐरएलएल के भीतर यह अब भी माना जाता है कि कांग्रेस से ज्यादा नजदीकी हिन्दुमहासभा की ही रही । 1937 तक तो जिस पंडाल में कांग्रेस का अधिवेशन होता था, उसी पंडाल में दो दिन बाद हिन्दुमहासभा का अधिवेशन होता। और मदन मोहन मालवीय के दौर में तो दोनो अधिवेशनों की अध्यक्षता मालवीय जी ने ही की। इसलिये आरएसएस कांग्रेस की थ्योरी से हटकर सोचती रही । लेकिन हिन्दु महासभा का मानना है कि संघ ने बीजेपी की सत्ता का मजा लेकर सत्ता दोबारा पाने के लिये खुद के संगठन का कांग्रेसीकरण ज्यादा कर लिया है और हिन्दु राष्ट्र की थ्योरी को पूरी तरह नकार दिया है।<br /><br />महत्वपूर्ण यह भी है ब्राह्मणों की पंरपरा को लेकर भी मतभेद उभरे। चूकि हेडगेवार की तरह सुदर्शन भी तेलुगु ब्रह्मण है, तो हिन्दुत्व पर कड़ा रुख अपनाने की सुदर्शन की क्षमता को लेकर भी यह बहस हुई कि संघ फिलहाल सबसे कमजोर रुप में काम कर रहा है। इसलिये संघ की मराठी लाबी भी सावरकर की सोच को आगे बढाने में मदद करेगी। इन सब का असर संघ पर किस रुप में पड़ा है या फिर देश में जो राजनीतिक हालात हैं, उसमे सरसंघचालक सुदर्शन भी अंदर से किस तरह हिले हुये है इसका अंदाजा पिछले महीने 7 नबंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर गो-रक्षा के सवाल पर हिमानी सावरकर के साथ मंच पर खडे सुदर्शन को देख कर समझा जा सकता था । यानी जो परिस्थितियां सावरकर और संघ को अलग किये हुये थीं, उसमे पहली बार संघ के भीतर भी इस बात को लेकर कुलबलाहट है कि जिस राह पर वह चल रही है वह रास्ता सही नहीं है।<br /><br />मामला सिर्फ मोहन भागवत या इन्द्रेश की हत्या की साजिश का नहीं है , पुणे में गोखले-साठे-पेशवा-सावरकर की कतार में खडे कोकनस्थ बह्मण अब स्वदेशी अर्थव्यवस्था के उस ढांचे को जीवित करना चाह रहे हैं, जिसकी बात कभी संघ के नेता दत्तोपंत ढेंगडी किया करते थे। लेकिन ढेंगडी अपनी बात कहते कहते मर गये मगर न वाजपेयी सरकार ने उनकी बात सुनी ना सरसंघचालक ने उन्हे तरजीह दी । जाहिर है, आजादी के बाद पहली बार अगर अभिनव भारत को बनाने की जरुरत सावरकर को मानने वाले कर रहे है तो इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दुत्व की जो थ्योरी सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अभी तक आरएसएस परोस रही है और बीजेपी उसे राजनीतिक धार दे रही है, वह अपने ही कटघरे में पहली बार खड़ी है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16