tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-87252128773529445812011-11-25T10:30:00.000+05:302011-11-25T10:31:15.043+05:30कभी ममता के संघर्ष के साथ खड़े थे किशनजीक्या नक्सलवादियो को लेकर ममता बनर्जी भी सीपीएम की राह पर चल निकली हैं। चार दशक पहले नक्सलवाद की पीठ पर सवार होकर सीपीएम ने सत्ता से कांग्रेस को बेदखल किया और चार दशक बाद माओवादियों की पीठ पर सवार होकर ममता बनर्जी ने सीपीएम को सत्ता से बेदखल किया। लेकिन माओवादी कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी के मारे जाने के बाद एक बार नया सवाल यही उभरा है कि आने वाले वक्त में क्या माओवादियों के निशाने पर ममता की सत्ता होगी। यह सारे सवाल कितने मौजू हैं, दरअसल जंगलमहल के जिस इलाके में किशनजी मारा गया उसी जंगल में दो बरस पहले किशनजी ने इन सारे सवालों को खंगाला था। वह इंटरव्यू आज कहीं ज्यादा मौजूं इसलिये है क्योंकि तब बंगाल में वामपंथियों की सत्ता थी और ममता संघर्ष कर रही थीं। आज ममता सत्ता में है और वामपंथी संघर्ष कर रहे हैं। यानी सत्ता तो 180 डिग्री में खड़ी है लेकिन नक्सलवाद का सवाल सत्ता के लिये 360 डिग्री में घूमकर वही पहुंच गया,जहा से शुरु हुआ.... <br /><br />सवाल-कभी नक्सलबाड़ी में किसानों ने जमींदारों को लेकर हथियार उठाये। क्या लालगढ़ में भी किसान-आदिवासियों ने हथियार उठाये या फिर आंध्रप्रदेश से आये माओवादियो की लड़ाई लालगढ़ में लड़ी जा रही है।<br />जबाव-लालगढ़ पश्चिमी मिदनापुर का हिस्सा है और इस वक्त मिदनापुर के करीब साढ़े सोलह हजार गांवों में आदिवासी ग्रामीण सीपीएम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार हैं। इन ग्रामीणो की हालत ऐसी है जहां इनके पास गंवाने के लिये कुछ भी नही है। इन गांवो में खाना या पीने का पानी तक सरकार मुहैया नहीं करा पायी है। सरकारी योजनाओ के तहत मुफ्त अन्न हो या कुएं का पानी। इसके लिये इन्हे सीपीएम काडर पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गांव की बदहाली और सीपीएम काडर की खुशहाली देखकर यही लगता है कि इलाके में यह नये दौर के जमींदार है। जिनके पास सबकुछ है। गाड़ी,हथियार,धन-धान्य सबकुछ । लालगढ के कुछ सीपीएम काडर के घरो में तो एयरकंडीशर भी मिला। पानी के बड़े बड़े 20-20 लीटर वाले प्लास्टिक के टैंक मिले। जबकि गांव के कुओं में इन्होंने केरोसिन तेल डाल दिया जिससे गांववाले पानी ना पी सके। और यह सब कोई आज का किस्सा नहीं है। सालो-साल से यह चला आ रहा है। किसी गांववाले के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। जंगल गांव की तरह यहां के आदिवासी रहते है। यहां अभी भी पैसे से ज्यादा सामानों की अदला-बदली से काम चलाया जाता है। इसलिये सवाल माओवादियो का नहीं है। हमने तो इन्हें सिर्फ गोलबंद किया है। इनके भीतर इतना आक्रोश भरा हुआ है कि यह पुलिस-सेना की गोली खाने को भी तैयार हैं। और गांव वालों का यह आक्रोश सिर्फ लालगढ तक सीमित नही है।<br /><br />सवाल-तो माओवादियो ने गांववालों की यह गोलबंदी लालगढ से बाहर भी की है।<br />जबाब-हम लगातार प्रयास जरुर कर रहे है कि गांववाले एकजुट हों। वह राजनीतिक दलों के काडर के बहकावे में अब ना आयें। क्योंकि उनकी एकजुटता ही इस पूरे इलाके में कोई राजनीतिक विकल्प दे सकती है। हमारी तरफ से गोलबंदी का मतलब ग्रामीण आदिवासियों में हिम्मत पैदा करना है, जिन्हें लगातार राजनीतिक लाभ के लिये तोड़ा जा रहा था। सीपीएम के काडर का काम इस इलाके में सिर्फ चुनाव में जीत हासिल करना ही होता है। पंचायत स्तर से लेकर लोकसभा चुनाव तक में सिर्फ चुनाव के वक्त गांववालों को थोडी राहत वोट डालने को लेकर मिलती क्योकि इलाके में कब्जा दिखाकर काडर को भी उपर से लाभ मिलता। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में हमनें चुनाव का बायकाट कराकर गांववालों को जोड़ा और सीपीएम काडर पर निशाना साधा। उससे सीपीएम उम्मीदवार जीता जरुर लेकिन उनकी पार्टी में साफ मैसेज गया कि मिदनापुर में सीपीएम की पकड़ खत्म हो चुकी है। जिसका केन्द्र लालगढ है।<br /><br />सवाल-तो क्या ममता बनर्जी अब अपना कब्जा इस इलाके में देख रही है। इसीलिये वह आप लोगों को मदद कर रही हैं।<br />जबाब-ममता बनर्जी क्या देख रही है या क्या सोच रही है,यह तो हम नहीं कह सकते। लेकिन ममता ने नंदीग्राम के आंदोलन में जो सवाल उठाये उस पर हमारी सहमति जरुर है। लेकिन लालगढ में आंदोलन ममता को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिये हो रहा है, ऐसा सोचना सही नहीं होगा। ममता को लेकर हमें यह आशा जरुर है कि वह ग्रामीण आदिवासियो की मुश्किलों को समझते हुये अपने ओहदे से सरकार को प्रभावित करेगी। लेकिन संघर्ष का जो रास्ता यहा के आदिवासियों ने पकड़ा है उसे राजनीतिक तौर पर हम राजनीतिक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं क्योकि बंगाल की स्थितियां इतनी विकट हो चली हैं कि लालगढ आंदोलन को पूरे राज्य में बेहद आशा के साथ देखा जा रहा है। वामपंथी विचारधारा को मानने वाला आम शहरी व्यक्ति इसमें नक्सलबाडी का दौर देख रहा है।<br /><br />सवाल-नक्सलबाडी से लालगढ को जोड़ना जल्दबाजी नहीं है।<br />जबाब-जोडने का मतलब हुबहु स्थिति का होना नहीं है। जिन हालातो में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी। चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे हैं बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है। क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाममोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खडा किसान लहुलूहान हो रहा है तो उसका आक्रेश कहां निकलेगा। क्योंकि इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है । राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है । इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिये अधिग्रहित भी की गयी। लेकिन अधिग्रहित जमीन का 75 फीसदी कौन डकार गया इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा। छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहों पर जाने के लिये मजबूर हुये। इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारों की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालो से भी बदतर हालत है। इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते। लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है क्योंकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिसपर खेती हो नहीं सकती । और कंगाल होकर बंद हो चुके उगोगो की 40 हजार एकड जमीन फालतू पड़ी है। वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाल छीनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही है। यही हालात तो नक्सलबाडी के दौर में थे।<br /><br />सवाल-लेकिन बुद्ददेव सरकार अब माओवादियो पर प्रतिबंध लगाकर कुचलने के मूड में है।<br />जबाव-आपको यह समझना होगा कि सीपीएम का यह दोहरा खेल है। बंगाल में माओवादियो के खिलाफ सीपीएम सरकार का रुख दुसरे राज्यों से भी कड़ा है। हमारे काडर को चुन चुन कर मारा गया है। तीस से ज्याद माओवादी बंगाल के जेलो में बंद हैं। अदालत ले जाते वक्त इनका चेहरा काले कपडे से ढक कर लाया-ले जाया जाता है ...जैसा किसी खूंखार अपराधी के साथ होता है। दमदम जेल में बंद माओवादी हिमाद्री सेन राय उर्फ शोमेन इसका एक उदाहरण हैं। प्रतिबंध लगाना राजनीतिक तौर पर सीपीएम के लिये घाटे का सौदा है क्योंकि लालगढ सरीखी जगहों पर गांव के गांव माओवादी हैं। क्या प्रतिबंध लगाकर बारह हजार गांववालों को जेल में बंद किया जा सकता है। लेकिन चुनाव के वक्त चुनावी सौदेबाजी में यह गांववाले सीपीएम को भी वोट दे देते है क्योकि हम चुनाव लड़ते नहीं हैं। अगर प्रतिबंध लगता है तो गांव के गांव जेल में बंद तो कर नहीं सकते लेकिन पुलिस को अत्याचार करने का एक हथियार जरुर दे सकते हैं। जिससे सीपीएम के प्रति राजनीतिक तौर पर गांववालो में और ज्यादा विरोध होगा ही। अभी तो आंदोलन के वक्त ही पुलिस अत्याचार होता है। नंदीग्राम में भी हुआ और लालगढ में भी हो रहा है। महिलाओ के साथ बलात्कार की कई घटनाये सामने आयी हैं। लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद पुलिस की तानाशाही हो जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।<br /><br />सवाल- लेकिन काफी गांववाले माओवादियो से भी परेशान है, वह पलायन कर रहे हैं।<br />जबाब- हो सकता है...क्योकि पलायन तो गांव से हो रहा है। लालगढ में जिस तरह सीपीएम और माओवादियो के बीच गांववाले बंटे है उसमें पुलिस आपरेशन शुरु होने के बाद सीपीएम समर्थक गांववालों का पलायन हो रहा है...इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसकी वजह हमारा दबाब नही है बल्कि पुलिस कार्रवायी सीपीएम कैडर की तर्ज पर हो रही है। जिसमें गांव के सीपीएम समर्थको के इशारे पर माओवादी समर्थको पर पुलिस अत्याचार हो रहा है। इसलिये अब गांव के भीतर ही सीपीएम समर्थक ग्रमीणो का विरोध हो रहा है। उन्हें गांव छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है । जो गांव छोड रहे हैं उनसे दस रुपये और एक किलोग्राम चावल भी गांव में बचे लोग ले रहे है । जिससे संधर्ष लंबे वक्त तक चल सके । अब यह<br /><br />सवाल-आप ग्राउंड जीरो पर है। हालात क्या हैं लालगढ के।<br />जबाब-लालगढ टाउन पर पुलिस सीआरपीएफ ने कैंप जरुर लगा लिये हैं लेकिन गांवों में किसी के आने की हिमम्त नहीं है। आदिवासी महिलाएं-पुरुष बच्चे सभी तो लड़ने मरने के लिये तैयार हैं। लेकिन हम खुद नही चाहते कोई आदिवासी -ग्रामीण मारा जाये। इसलिये यह सरकारी प्रचार है कि हमनें गांववालों को मानव ढाल बना रखा है। पहली बात तो यह कि गांववाले और माओवादी कोई अलग नही है । माओवादी बाहर से आकर यहा नही लड़ रहे। बल्कि पिछले पांच साल में लालगढ में गांववाले सरकार की नीतियो के खिलाफ आवाज उढा रहे हैं। फिर हमारी तैयारी ऐसी है कि पुलिस चाह कर भी गांव तक पहुंच नहीं सकती है । जंगल में गुरिल्ला युद्द की समझ हमें पुलिस से ज्यादा है। इसलिये पुलिस वहीं तक पहुच सकी है जहां तक बख्तरबंद गाडियां जा सकती हैं। उसके आगे पुलिस को अपने पैरो पर चल कर आना होगा ।<br /><br />आखिरी सवाल-कभी सीपीएम के साथ खड़े होने के बाद आमने सामने आ जाने की वजह।<br />जबाव-अछ्छा किया जो यह सवाल आपने आज पूछ लिया। क्योकि आज 21 जून को ही बत्तीस साल पहले 1977 में ज्योति बाबू मुख्यमंत्री बने थे। उस वक्त जमीन के मुद्दे पर ज्योति बसु सरकार ने सीपीआई एमएल पर यह आरोप लगाया था कि उन्हें अतिवाम धारा ने नीतियों को लागू कराने का वक्त नहीं दिया। अब हमारा सवाल यही है कि जिन बातो को ज्योति बसु ने 32 साल पहले कहा था जब आजतक वही पूरे नहीं हो पाये तो अब और कितना वक्त दिया जाना चाहिये।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-35117618821331511862009-12-03T09:41:00.000+05:302009-12-03T09:41:00.577+05:30"20 साल पहले राजीव गांधी का अपहरण करना चाहते थे नक्सली और 20 साल बाद मनमोहन सिंह के अपहरण की जरुरत नहीं समझते माओवादी"<div>ठीक बीस साल पहले 1989 नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव सीतारमैय्या से जब यह सवाल किया गया था कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का भी आपहरण कर लेंगे । जवाब मिला था कि जरुरत पड़ी और परिस्थितियां अनुकूल हुईं तो जरुर करना चाहेंगे। यह सवाल 1987 में आंध्रप्रदेश के सात विधायकों के अपहरण के बाद पूछा गया था । और बीस साल बाद जब बंगाल के एक पुलिसकर्मी का अपहरण कर उसपर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर ऑफ वार लिखकर रिहा किया गया...तो अपहरण करने वाले सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव से मैंने यही सवाल पूछा कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपहरण कर लेंगे। जवाब मिला बिलकुल नहीं। इसकी जरुरत है नहीं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रधानमंत्री की नीतियों से ही हमारा सीधा टकराव देखा जाने लगा है तो जनता खुद तय करेगी, हमें पहल करने की जरुरत नही है। </div><div><br /></div><div>बीस साल के दौर में राजनीतिक तौर पर नक्सलियों में कितना बड़ा परिवर्तन आया है, यह जवाब उसका बिंब भर है। लेकिन इन बीस वर्षो में राजनीतिक तौर पर नक्सली कितना बदले है और उनकी राजनीति किस तरह अब सीधे संसदीय राजनीति को चेता रही है, यह गौरतलब है। बीस साल पहले मार्क्सवाद और माओवाद की धारा बंटी हुई थी। उस दौर में मजदूर-किसान के बीच भागेदारी को बढाने का सवाल ही सबसे बड़ा था। इसलिये इन दोनो धाराओं से जुड़ा अतिवाम आंध्रप्रदेश से लेकर बिहार तक में जो पहल कर रहा था, उसमें ग्रामीण क्षेत्रों से इतर का सवाल खासा गौण था। और जो सवाल नक्सली संगठन उठा रहे तो उससे राज्य सत्ता को कोई परेशानी नहीं थी। इसलिये बीस साल पहले नक्सल प्रभावित क्षेत्रो में विकास ना होना ही नक्सलियों के लिये भी मुद्दा था तो राज्य भी नक्सलियों पर विकास न करने देने का आरोप लगा कर समूचे इलाके को देश से अलग थलग दिखाने में कामयाब रहते। लेकिन बदलाव का दौर आर्थिक सुधार के साथ ही हुआ और राजनीतिक तौर पर एक नये तरीके से माओवादी और सरकार एक ही मुद्दे पर अपने अपने नजरिए से आमने सामने खड़े होते चले गये। इसलिये पहली बार सवाल सरकार की उन नीतियों को लेकर उठा, जिसपर बीस साल पहले राजनीतिक दल चुनाव लड़ सकते थे लेकिन अब वही सवाल संसदीय घेरे से होते हुये माओवादियों के दायरे में जा कर समाधान की बात कहने लगे और चुनावी राजनीति के भी आड़े अचानक माओवादी थ्योरी आ गयी। </div><div><br /></div><div>असल में 1991 से लेकर 2001 के दौर में नक्सली माओवादी और मार्क्सवादियो ने शहरों की तरफ ठीक उसी तरह कदम बढाना शुरु किया जिस तरह आर्थिक सुधार के नजरिये ने गांवों को शहरों में बदलना शुरु किया। इस दौर में राज्य ने बाजारवाद ने मुनाफे के आगे जब घुटने टेकने शुरु किये तो नक्सलियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही आयी कि शहरों में वह अपनी स्थिति दर्ज कैसे करायें। खासकर वो शहर, जो पूरी तरह राज्य की नीतियों या धनवानों से जुड़े रोजगार पर ही टिके थे । यानी गांव में खेती से जो स्वालंबन पैदा होता और ग्रामीण अपनी जमीन पर खड़े होकर नक्सली संघर्ष में साथ खड़ा होता, उस तरह के स्वाबलंबन का स्थिति शहरों में थी नहीं। इसलिये अखिल भारतीय कामगार संगठन बनाकर औधोगिक मजदूरो को जोड़ने का काम नक्सलियों ने महाराष्ट्र से शुरु किया जो कई ट्रेड-यूनियन सरीखे संगठनो के मार्फत उन सवालों को उठाना शुरु किया जो बाजारवाद के सामानांतर समाजवाद की थ्योरी को रखते। इस दायरे में न्यूनतम मजदूरी के मुद्दे को क्षेत्र की जरुरत के हिसाब से नक्सलियों ने उठाना शुरु किया। यानी अपने संघर्ष को राजनीतिक दलों से हटकर बताने और दिखाने की राजनीति शहरो में कदम रखने के साथ ही की जिससे यह भ्रम ना रहे कि नक्सली संगठनों की जरुरत क्या है या फिर आज नहीं तो कल यह संगठन भी सत्ता के लिये चुनाव लड़ने लगेंगे। अपने इस प्रयोग में नक्सलियो का प्रभाव बहुत ज्यादा या पिर ज्यादा भी रहा ऐसा सोचना बचपना होगा। क्योंकि नक्सलियो की शहरों में पहले से कोई राजनीतिक चुनौती पैदा होती ऐसी स्थिति उस पूरे रेड कारीडोर में नहीं उभरी जो आज सरकार के लिये चुनौती बन रही है । लेकिन उस दौर में बाजारवाद ने जिस तरह पंख फैलाये और डंक मारना शुरु किया उसका असर यह जरुर हुआ कि विकल्प का सवाल कामगारों की जरुरत बनने लगा। यानी शहरो में कामगारो से जुड़े मुद्दों को लेकर नक्सलियो का नजरिया अचानक कामगारों को प्रभावित करने लगा। खासकर खनन और पावर प्रोजेक्ट के इलाको में टेक्नालाजी और विदेशी कंपनियो ने पैर रखे तो अचानक मजदूरों का रोजगार हायर-फायर वाली स्थिति में आया। तब सवाल न्यूनतम मजदूरी से भी आगे निकलने लगा । क्योंकि कामगारो के समुद्र के आगे राज्य द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी मिलने का सवाल ही नहीं था। ऐसे में अलग अलग क्षेत्रों में नक्सली संगठनो ने परिस्तितियो को समझते हुये मजदूरी का सवाल उठाया। मसलन महाराष्ट्र में 85 रुपये न्यूनतम मजदूरी हो लेकिन मजदूरों को 20-22 से ज्यादा मिलती नहीं थी। तो अपनी मौजूदगी जताने ले लिये नक्सलियों ने इस मजदूरी को 25 रुपये कराने का निर्णय लिया। लंबी लड़ाई के बाद सफलता मिली तो अगली लडाई 28 रुपये को लेकर सफल हुई। और आज की तारिख में यह लड़ाई 50 रुपये को लेकर हो रही है। वही बंगाल में अभी भी यह लड़ाई 22 से 25 रुपये कराने को लेकर हो रही है और बीते तीन सालो में माओवादी बुद्ददेव सरकार से 25 रुपये मजदूरी नहीं करा पाये है जबकि राज्य द्रारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी 85 रुपये है। इसी तरह तैंदू पत्ता के सवाल पर पहली लडाई 25 पैसे को लेकर लड़ी गयी । जो अब पचास पैसे बढाने को लेकर हो रही है। एक हजार तेदूपत्ता पर फिलहाल एक रुपये 75 पैसे मिलते है, जिसे सवा दो रुपये कराने की लडाई तेदूपत्ता ठेकेदारे से की जा रही है। बीस साल पहले एक हजार तेदूपत्ता पर 35 पैसे मिलते थे । </div><div><br /></div><div>जाहिर है यहां दो सवाल खड़े होते हैं कि एक तरफ बीस साल में लड़ाई एक रुपये को लेकर ही हुई और दूसरा सवाल की देश में विकास का ऐसा कौन सा अर्थशास्त्र अपनाया गया, जिससे शहरों में जो सिक्के मिलने बंद हो गये.....गांवों में उसी सिक्के की लड़ाई में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गांव अब भी जी रहे हैं और संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन यहीं से नक्सलियों की उस राजनीति को भी समझना होगा जो तेंदूपत्ता की कीमत बढ़वाने के लिये ठेकेदारों की हत्या कर सकती है। या उन्हे चेता कर झटके में एक हजार तैंदूपत्ता की नयी कीमत पांच रुपये तय करवा सकता है। लेकिन राजनीति का मतलब लोगों की गोलबंदी और हक के साथ साथ संघर्ष करते हुये आगे बढाने की पूरी प्रक्रिया कैसे होती है असल में इसी का नायाब प्रयोग लगातार नक्सली राजनीति कर रही हैं। क्योंकि 2001 के बाद नक्सलियों के सामने बड़ी चुनौती उस राजनीति शून्यता के वक्त अपनी मौजूदगी का एहसास कराना था, जिसे माओवादी और मार्क्सवादी लगातार उठा रहे थे। </div><div><br /></div><div>2001 में अतिवामपंथियो के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में यह सवाल खुल कर उठा था बाजारवाद को जिस तरह संसदीय राजनीति हवा दे रही है, उससे समाज के भीतर विकल्प का सवाल राजनीतिक तौर पर जरुर उठेगा । साथ ही संसदीय राजनीति को लेकर निराशा भी आयेगी। इन्हीं परिस्थितियों के बीच माओवादियों और मार्क्सवादियों यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप के बीच गठबंधन की प्रक्रिया शुरु हुई और 2004 में यानी तीन साल की लंबी प्रक्रिया के बाद दोनो एकसाथ आये और सीपीआई माओवादी का गठन हुआ। राजनीतिक तौर पर माओवादियो ने अगर पहला प्रयोग बंगाल में 2005 में यह सोच कर शुरु किया कि वामपंथी सरकार से जनता का मोहभंग एक धक्के के साथ हो जायेगा तो यह गलत नहीं होगा। क्योंकि पीपुल्स वार ने इससे पहले कभी बंगाल का रुख नहीं किया था लेकिन बंगाल में माओवादियों की कमान को पीपुल्स वार ग्रुप के कोटेश्वर राव यानी किशनजी ने संभाला । 2004 में एनडीए के शाइनिग इंडिया के नारे तले एनडीए की हार और यूपीए की जीत के बाद वामपंथियो के समर्थन ने माओवादियो की सेन्ट्रल कमेटी में यह सवाल उठा था कि वामपंथी सरकार पर लगाम लगा पायेगे या जनता से उनकी लगाम भी ढीली पड़ जायेगी। इसीलिये सिंगूर और नंदीग्राम से लालगढ़ का रास्ता वामपंथी सरकार के लिये अगर भारी पड़ रहा है तो इसका संसदीय घेरे में लाभ चाहे ममता बनर्जी को मिले लेकिन जिस पूरे इलाके में जो गोलबंदी ग्रामीण-आदिवासियों को लेकर की गयी, उसे माओवादी कितनी बडी सफलता मान रहे है उसका अंदाज इसी से लग सकता है कि झारखंड,उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में इसी तरह से एसईजेड और खनन समेत एक दर्जन से ज्यादा लगने वाली कंपनियो को दी जाने वाली जमीन पर जिन्दगी चलाने वाले गांव के गांव में उन्हीं मुद्दों पर बहस की शुरुआत की गयी है, जो अगले तीन-चार साल में नंदीग्राम-लालगढ में तब्दील होंगे। हो सकता है इन क्षेत्रो में भी कोई ना कोई क्षेत्रीय राजनितिक शक्ति कांग्रेस या भाजपा को इसी दौर में चुनावी चैलेंज देने लगे और उन मुद्दों की वकालत करने लगे, जिसे माओवादी आज उठा रहे हैं।</div><div><br /></div><div>लेकिन पहली बार यही माओवादी राजनीतिक तौर पर एक नया सवाल खड़ा कर रहे है, कि संसदीय राजनीति सत्ता के लिये आर्थिक सुधार की हिमायती नहीं है बल्कि आर्थिक सुधार को बरकरार रखने के लिये संसदीय राजनीति चलनी चाहिये। और इसके अंतर्विरोध को माओवादी प्रक्रिया में संसदीय दल ही चुनावी संघर्ष में सामने उसी तरह लाये जैसे ममता उभार रही हैं। जो कांग्रेस को केन्द्र में समर्थन देते हुये मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में अहम पोर्टफोलियो भी ले ले और माओवादियो को देश का सबसे बड़ा खतरा बताने वाले मनमोहन सिंह की नीतियो का विरोध माओवादियों के हक की लड़ाई से जोडेते हुये अपनी राजनीति भी साधे। जाहिर है बीस साल पहले और अब के दौर में इतना फर्क वाकई आ गया है कि प्रधानमंत्री के अपहऱण की जरुरत माओवादियों को नहीं लगती ।</div><div><br /></div>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-79061737330721382062009-09-27T12:21:00.004+05:302009-09-27T12:27:11.348+05:30रात के अंधेरे में लालगढ़ से दिल्ली तक माओवादी नज़रिया<strong>-सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है और व्यवस्था बंदूक से चलती है </strong><br /><strong>- कोबाड के एनकाउंटर की तैयारी झारखंड में हो चुकी थी<br /><br /></strong>माओवादी कोबाड गांधी को पुलिस एनकाउंटर में मारना चाहती थी। लेकिन मीडिया में कोबाड की गिरफ्तारी की बात आने पर सरकार को कहना पड़ा कि कोबाड गांधी नामक बड़े माओवादी को दिल्ली में पकड़ा गया है, जो सीपीआई माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य है। यह बात अचानक किसी ने टेलीफोन पर कही। 24 सितंबर की रात के वक्त मोबाइल की घंटी बजी और एक नया नंबर देख कर थोडी हिचकिचाहट हुई कि कौन होगा...रात में किस मुद्दे पर कौन सी खबर की बात कहेगा....यह सोचते सोचते हुये ही मोबाइल का हरा बटन दब गया और दूसरी तरफ से पहली आवाज यही आयी कि मैं आपको यही जानकारी देना चाहता हूं कि सीपीआई माओवादी संगठन के जिस पोलित ब्यूरो सदस्य कोबाड गांधी को पुलिस ने पकड़ा है, उसके एनकाउंटर की तैयारी पुलिस कर रही थी।<br /><br />लोकिन आप कौन बोल रहे हैं ? मैं लालगढ़ का किशनजी बोल रहा हूं । किशनजी ....यानी सीपीआई माओवादी का पोलितब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव ...यह नाम मेरे दिमाग में आया तो मैंने पूछा, किशनजी अगर इनकाउंटर करना होता तो पुलिस कोबाड को अदालत में पेश नहीं करती।<br /><br />आप सही कह रहें है लेकिन पहले मेरी पूरी बात सुन लें .....जी कहिये । उन्होंने कहा, हमें कोबाड गांधी के पकडे जाने की जानकारी 22 सितबर की सुबह ही लग गयी थी । इसका मतलब है कोबाड को 22 सितंबर से पहले पकड़ा गया था। हमनें दिल्ली में पुलिस से पूछवाया। लेकिन पुलिस ने जब कोबाड को पकड़ने की खबर को गलत माना तो हमने 22 सितंबर को दोपहर बाद से ही तमाम राष्ट्रीय अखबारो को इसकी जानकारी दी। इसके बाद मीडिया के लगातार पूछने के बाद ही सरकार की तरफ से रात में कोबाड गांधी की गिरफ्तारी की पुष्टि की गयी। अगर मीडिया सामने नहीं आता तो दिल्ली पुलिस झारंखड पुलिस को भरोसे में ले चुकी थी और कोबाड के एनकाउंटर की तैयारी कर रही थी। क्योंकि दिल्ली पुलिस के विशेष सेल ने जब झारखंड पुलिस को कोबाड गांधी के पकड़ने की जानकारी दी तो झारखंड पुलिस ने इतना ही कहा कि कोबाड गांधी को एनकाउटर में मार देना चाहिये। नहीं तो माओवादी झारखंड समेत अपने प्रभावित क्षेत्रो में तबाही मचा देगे। हमारे एक साथी को झारखंड पुलिस ने पकड़ा था और दो महीने पहले ही हमने पांच राज्यो में बंद का ऐलान किया था। झारखंड में हमारी ताकत से सरकार वाकिफ है। इसलिये झारखंड में भी जब हमने पता किया तो यही पता चला कि 21 सितंबर को ही झारखंड पुलिस की तरफ से कोबाड गांधी के एनकाउंटर को हरी झंडी दे दी गयी थी।<br />लेकिन दिल्ली में एनकाउंटर करना खेल नहीं है। क्योंकि मीडिया है, सरकारी तंत्र है...फिर लोकतंत्र पर इस तरह का दाग सरकार भी लगने नहीं देगी!<br /><br />मै कब कह रहा हूं कि एनकाउंटर दिल्ली में होना था । झारखंड पुलिस चाहती थी कि 22 सितंबर की रात ही कोबाड गांधी को डाल्टेनगंज ले जाया जाये । वहां डाल्टेनगंज और चतरा के बीच पांकी इलाके में पहुंचाया जाये और एनकाउंटर में मारने का ऐलान अगले ही दिन 23 सितंबर को कर दिया जाये। माओवादी नेता कोटेश्ववर राव की मानें तो कोबाड गांधी के एनकाउंटर के जरीये झारखंड पुलिस के आईजी रैंक के एक अधिकारी इसके जरिए मेडल और बडा ओहदा भी चाहते थे, जो उन्हें इसके बाद गृह मंत्रालय की सिफारिश पर मिल भी जाता। मुझे लगा माओवादी पूरे मामले को सनसनीखेज बनाकर सरकार की क्रूर छवि को ही उभारना चाहते है। मैंने बात मोड़ते हूये पूछा, कोबाड गांधी की गिरफ्तारी का असर माओवाद के विस्तार कार्यक्रम पर कितना पड़ेगा ? करीब दो-तीन महीने तक संगठन का काम रुकेगा, जबतक दूसरे सदस्य कोबाड का काम नहीं संभाल लेते। मैंने देखा, रात के करीब साढे बारह बज रहे है..तो सोचा लालगढ के बार में भी माओवादियो की पहल और सोच क्या चल रही है, जरा इसे जान लेना भी अच्छा है, यह सोच मैने जैसे ही कहा, लालगढ़ मे तो आपको फोर्स ने घेर लिया है तो पल में जवाब आया, बिलकुल नहीं...आप यह जरुर कह सकते है कि लालगढ के जरीये पहली बार बंगाल में माओवादी कैडर और सीपीएम के हथियारबंद दस्ते आमने सामने आ खडे हुये हैं। प्रभावित इलाको के तीन ब्लाक मिदनापुर, सेलबनी और वाल्तोर में बीते तीन महिने की हिंसक झडपो में सीपीएम के सौ से ज्यादा हथियार बंद कैडर मारे जा चुके है । अभी तक इन क्षेत्रो में सीपीएम के चार सौ से ज्यादा हथियारबंद कैडर को जमीन छोड़नी पडी है जो कि 12 कैंपो में मौजूद थे।<br /><br />कैंप का मतलब...क्या सेना का कैंप ? जी नहीं. सीपीएम का कैंप, जहां उनके हथियारबंद कैडर रहते हैं। सबसे बड़ा कैप तो सीपीएम नेता अनिल विश्वास के घर पर ही था, जहां सीपीएम के 35 कैडर मारे गये। इसी के बाद सीपीएम के एक दूसरे बडे नेता सुशांतो घोष ने सार्वजनिक सभा में ऐलान किया कि "नंदीग्राम की तरह लालगढ़ पर हमला कर जीत लेगें।" तो इसका असर लोगो में किस तरह हुआ यह बेकरा गांव की सभी में देखने को मिला, जहां के गांववालों ने सुशांतो घोष की सभा नहीं होने दी । जब वह सभा को संबोधित करने पहुंचे तो गांववालो ने उन्हें खदेड़ दिया। गांववालों में सीपीएम को लेकर कितना आक्रोष है, इसका नजारा मिदनापुर में हमनें देखा । मिदनापुर में इनायतपुर के पोलकिया गांव में 21 सितंबर की रात सीपीएम के पांच लोग मारे गये। दस घायल हुये । यहां की तीन आदिवासी महिलाओ के साथ सीपीएम के हथियार बंद कैडर ने बदसलूकी की थी । जिसके बाद गांववालो में आक्रोष आ गया । गांववालो ने सीपीएम की शिकायत यहां तैनात ज्वाइंट फोर्स से की । लेकिन गांववालो की मदद ज्वाइंट फोर्स ने नहीं की । माओवादियो से गांववालो ने मदद मांगी । 10 घंटे तक फायरिंग हुई । जिसके बाद सीपीएम के पांच लोग मारे गये । इसी तरह सोनाचूरा में 8 सीपीएम कैडर मारे गये । सीपीएम को लेकर लोगो में आक्रोष है । यही हमें ताकत भी दे रहा है और हम उसी जनता के भरोसे संघर्ष भी कर रहे है।<br /><br />लेकिन अब केन्द्र सरकार भी माओवादियो को चारो तरफ से घेरने की तैयारी कर रही है। कैसे सामना करेंगे ? सवाल हमारा सामने करने का नहीं है । हम जानते है कि अबूझमाड यानी माओवादी प्रभावित क्षेत्र में घुसने के लिये 8 हैलीपैड बनाये गये है । आंध्र प्रदेश से सीमावर्ती चित्तूर , भद्राचलम से लेकर छत्तीसगढ के बीजापुर तक में अर्धसैनिक बलो को तैनात किया जा रहा है । लेकिन इसमें जितना नुकसान हमारा है, उतना ही सरकार का भी होगा। इसका एक चेहरा छत्तीसगढ के दंत्तेवाडा के पालाचेलिना गांव में सामने भी आया, जहां कोबरा फोर्स को पीछे हटना पड़ा। तो क्या यह चलता रहेगा। यह सरकार पर है। क्योंकि यहां के आदिवासी ग्रामीणो में गुस्सा है। वह हमसे कहते हैं मिलकर लडेगें, मिलकर मरेंगे। यह सरकार का काम है कि उनकी जरुरतो को उनके अनुसार समाधान करे। नहीं तो हम भी उन्हीं के साथ मिलकर लडेंगे, मिलकर मरेंगे ।<br /><br />तो क्या सरकार समझती है कि गांववालो की जरुरत क्या है ? देखिये , सवाल समझने का नहीं है । जिन पांच राज्यो को लेकर सरकार परेशान है। उनमें झारंखंड, छत्तीसगढ और उड़ीसा में सबसे ज्यादा खनिज संसाधन है। खनिज संसाधन की लूट के लिये तब तक रास्ता नहीं खुल सकता है, जब तक यहां के ग्रामीण आंदोलन कर रहे है और हम उनके साथ खड़े हैं। लेकिन सरकार विकास के रास्ते भी खनिज संपदा का उपयोग कर सकती है ? सही कह रहे हैं आप लेकिन आंध्रप्रदेश से लेकर बंगाल तक के रेड कारिडोर पर पहली बार अमेरिका की नजर है । उसे भारत का यह खनिज औने पौने दाम में मल्टीनेशनल कंपनियो को दिलाने का रास्ता खोलना है। हाल ही में गृह मंत्री चिदबंरम साहब पेंटागन गये थे। वहीं उन्हें ब्लू प्रिट दिया गया कि कैसे माओवादियो को इन इलाको से खत्म करना है। इसी लिये कश्मीर से फौज हटायी जा रही है, जिसे माओवादी प्रभावित इलाको में हमारे खिलाफ लगाया जा रहा है। लेकिन यह समझ भारत की नही, अमेरिका की है । अमेरिका समझ रहा है कि विश्व बाजार जब तक पहले की तरह चालू नहीं हो जाता तब तक मंदी का असर बरकरार रहेगा। इन इलाको के खनिज संसाधन अगर विश्वबाजार में पहुंच जायें तो दुनिया के सामने करीब पचास लाख करोड़ से ज्यादा का व्यापार आयेगा, जो झटके में मुर्दा पडी दुनिया की दर्जनों बड़ी कंपनियो में जान फूंक देगा। आप यही देखो की एस्सार का 15 हजार करोड का प्रोजेक्ट इसी दिशा में काम कर रहा है । बैलेडिला से लेकर बंदरगाह तक पाइप लाइन का उसका प्रोजेक्ट शुरु हुआ है । यानी यहां की खनिज संपदा कैसे बाहर भेजी इस दिशा में पहल शुरु हो चुकी है।<br /><br />लेकिन माना जाता है कि आप लोगो को राजनीतिक मदद भी है । आप लोगो को ममता बनर्जी की मदद मिल रही है। ऐसे मुद्दो को आप संसदीय राजनीति के जरीये उठा सकते है । इसके लिये हथियार उठाने की क्या जरुरत है ? आप ममता की क्या बात कर रहे हैं। वह तो खुद सौ फीसदी प्राइवेटाइजेशन की वकालत कर रही है । मैं आपको एक केस बताता हू ....आप खुद जांच लें । कोलकत्ता हवाइअड्डा से जब आप शहर की तरफ आते है तो रास्ते में राजारहाट पडता है । यहां उपनगरी तैयार की जा रही है । जहां अत्याधुनिक सबकुछ होगा । किसानों की जमीन हथियायी जा रही है । विप्रो और इन्फोसिस को दुबारा मनाकर लाया जा रहा है । लेकिन किस तरह राजनीति यहां एकजुट है, जरा इसका नजारा देखिये। यहां जो सक्रिय हैं, उनमें सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य गौतम देव, ज्योति बसु के बेटे चंदन बसु, तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय विधायक शामिल हैं। उसके अलावा बिल्डिग माफिया कमल नामक शख्स भी साथ है। सैन्ट्रल बैक आफ इंडिया इनका प्रमोटर है । और राजारहाट में अभी तक 600 किसान जमीन गंवा चुके है । जिसमें से 60 किसान मारे भी गये है । 100 से ज्यादा घायल होकर घर में भी पड़े हैं। लेकिन इन किसानो को राजनीतिक हिंसा का शिकार बता दिया गया । यानी किसान को भी राजनीतिक दल से जोडकर उपनगरी के मुनाफे में बंदरबांट सीपीएम और तृणमूल दोनो कर रही हैं ।<br /><br />तो क्या इसे जनता समझ नहीं रही है ? समझ क्यों नहीं रही है। ईद के दिन ही यानी 21 सिंतबर को ही तृणमूल का एक नेता निशिकांत मंडल मारा गया । निशिकांत सोनाचूरा ग्राम पंचायत का प्रधान था । तृणमूल नेता को क्या ग्रामीणों ने मारा ? आप कह सकते हैं कि ग्रामीण आदिवासियो की सहमति के बगैर इस तरह की पंचायत के प्रधान की हत्या हो ही नहीं सकती है । निशिकांत पहले सीपीएम में था। फिर तृणमूल में आ गया । ऐसे बहुत सारे सीपीएम के नेता है तो पंचायत स्तर पर अब ममता बनर्जी के साथ आ गये है । एसे में गांववाले मान रहे हैं कि ममता नयी सीपीएम हो गयी हैं। जबकि यह लड़ाई सीपीएम की नीतियो के खिलाफ और उसके कैडर की तानाशाही के खिलाफ शुरु हुई थी। वहीं स्थिति अब ममता की बन रही है। इसलिये अब देखिए निशिकांत की हत्या नंदीग्राम में हुई, जहां से ममता बनर्जी को राजनीतिक पहचान और लाभ मिला।<br /><br />तो क्या यह माना जाये कि 2011 के चुनाव में ममता नहीं जीत पायेगी ? यह तो हम नहीं कह सकते है कि चुनाव कौन जीतेगा या कौन हारेगा लेकिन अब ग्रामीण आदिवासी मानने लगे है कि ममता बनर्जी भी उसी रास्ते पर है, जिस पर सीपीएम थी । यानी ममता का मतलब एक नयी सीपीएम है । बाचतीत करते रात के डेढ़ बज चुके थे मैने फोन काटने के ख्याल से कहा कि .....चलिये इस पर फिर बात होगी। क्या आपके इस मोबाइल पर फोन करने पर आप फिर मिल जायेगे ? नहीं... फोन आप मत करिये। जब हमें बात करनी होगी तो हमीं फोन करेगे । बातचीत खत्म हुई तो मुझे यही लगा कि माओवादियो को लेकर सरकार का जो नजरिया है, उसके ठीक विपरित माओवादियो का नजरिया व्यवस्था और सरकार को लेकर है...यह रास्ता बंदूक के जरिये कैसे एक हो सकता है, चाहे वह बंदूक किसी भी तरफ से उठायी गयी हो।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-8302348056252225802009-08-23T12:27:00.000+05:302009-08-23T12:28:36.528+05:30जसवंत की किताब के बहाने माओवादियों के सवाल20 अगस्त की शाम मोबाइल पर एकदम अनजाना सा नंबर आया तो मैंने फोन को साइलेंट मोड में डाल दिया। लेकिन जब वही नंबर लगातार तीसरी बार मोबाइल पर उभरा तो मेरे हैलो कहने के साथ ही दूसरी तरफ से आवाज आई, अब आप दंगों का इंतजार करें। मैं चौंका...आप कौन बोल रहे हैं। हम बोल रहे हैं। हम कौन...मैंने आपको पहचाना नहीं। हम नक्सली....लालगढ वाले किशनजी । मैं चौका..तो क्या आप लालगढ में दंगों की बात कर रहे हैं। जी नहीं, हम जसवंत सिंह की बात कर रहे हैं। आप तो उसी खबर में लगे होंगे। इसीलिये कह रहा हूं, यह तो बीजेपी का पुराना स्टाइल है। जब कुछ ना बचे तो उग्र हिन्दुत्व की बात कर दो। अयोध्या भी तो इसी तरह उठा था और हाल में कंधमाल में भी आरएसएस ने ऐसा ही किया। कर्नाटक में भी ऐसा ही कुछ हुआ। <br /><br />मुझे झटका लगा कि कोई नक्सली कैसे इस तरह अचानक एकदम अनजान से मुद्दे पर टिप्पणी कर सकता है। कुछ गुस्से में मैने टोका, क्या लालगढ में सीआरपीएफ ने कब्जा कर लिया है। मैने आपको लालगढ पर बात करने के लिये फोन नहीं किया है, लालगढ में तो हमारा कब्जा बरकरार है, आप आ कर देख सकते है। यह भी देख सकते हैं कि कितनी बडी तादाद में इस पूरे इलाके के आदिवासी ग्रामीण हमारे साथ कैडर के तौर पर जुड रहे हैं। सरकार के कहने पर मत जाइयेगा कि उसने लालगढ में कब्जा कर लिया है और माओवादी भाग गए हैं। पुलिस-सीआरपीएफ सिर्फ शहरों तक पहुंचती है, जहां दुकानें होती हैं। दुकानें खुल जाएं...धंधा चलने लगे तो सरकार मान लेती है कि सब पटरी पर आ गया। लेकिन आप गांव में अंदर आकर देखेंगे तो आप समझेंगे कि सरकारी नजरिया किस तरह आदिवासियों को, ग्रामीणो को देखता समझता ही नहीं। मैने फोन इसलिये किया कि जिस तरह लालगढ को आप समझना नहीं चाहते वैसे ही विभाजन के दौर को कोई राजनीतिक दल समझना नहीं चाहता। <br /><br />बातों का सिलसिला बढने के साथ मेरी जिज्ञासा भी बढती गई। मैंने पूछ ही लिया, क्यों, आपने जसवंत सिंह की किताब पढ ली है? लगभग पढ ली है। तो क्या वह लालगढ तक पहुच गई। हम सिर्फ लालगढ तक सीमित नहीं हैं। और पढने-पढाने को हम छोड़ते भी नहीं हैं। हम आपसे कह रहे है कि विभाजन को लेकर सिर्फ जिन्ना-नेहरु-पटेल का खेल तो अब बंद करना चाहिये। देश की जो हालत है उसमें मीडिया को अपनी भूमिका तो समझनी चाहिये। आप तो लगातार उस किताब पर चैनल में प्रोग्राम कर रहे हो, आप ही बताइए कि किताब में 1919 से लेकर 1947 तक के दौर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का कोई जिक्र है, जिसके आधार पर लीग और कांग्रेस की राजनीति का खांचा खिंचा जा रहा है। सच तो यह है कि इसमें सिर्फ उन राजनीतिक परिस्थितियों को ही अपने तरीके से या यूं कहें कि अभी के परिपेक्ष्य में टटोला गया है जिन्हें़ विभाजन से जोडी जा सके। <br /><br />उसमें नेहरु-पटेल और जिन्ना के साथ साथ वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को भी किसी फिल्मी कलाकार की तरह सामने रखा गया है। गांधी को भी एक भूमिका में फिट कर दिया गया है जिससे उन पर कोई अंगुली ना उठे। आपको यह समझना चाहिये कि जहां राजनीति पर से लोगों का भरोसा उठ रहा है, वहा राजनेता ही दूसरे माध्यमो में घुस रहे है। जिन्ना पर यह यह किताब ना तो स्कॉलर की लगती है ना ही पॉलिटिशियन की। <br /><br />लेकिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में लिखी किताब में आप उस दौर के सामाजिक ढांचे पर बहस क्यो चाहते हैं।...क्योंकि बिना उसके सही संदर्भ गायब हो जाते है। आप ही बताइये, भारत लौटने पर गांधी ने समूचे देश की यात्रा कर क्या देखा। आप एक लाइन में कह सकते हैं कि देश को देखा। लेकिन सच यह नहीं है। गांधी ने उस जमीन को परखा जो भारत को जिलाये हुये है, जो उसकी धमनियों से होकर बहने वाला खून है, उसके फेफडों के अंदर जाने वाली हवा है। किसान मजदूर के बगैर भारत की कल्पऩा नहीं की जा सकती। इसलिये गांधी ने सबसे पहले उसी मर्म को छुआ। <br /><br />जसवंत की किताब में एक जगह लिखा है कि नेहरु-जिन्ना और गांधी तीनो ने पश्चिमी तालीम हासिल की थी । नेहरु-जिन्ना तो पश्चिमी सोच में ही ढले रहे और उसी आधार पर भारत-पाकिस्तान के उत्तराधिकारी बन कर खुद को उबारते चले गये। लेकिन गांधी में भारतीय तत्व था। लेकिन जसवंत सिंह यह नहीं बताते कि यह भारतीय तत्व कौन सा था। वह गांधी ही थे जिन्होंने किसान आंदोलन को दबाया। गांधी शांति की वकालत करते हुये सीधे कहते थे कि , <br />"यदि जमींदार आप पर उत्पीड़न करें तो आपको थोड़ा सह लेना चाहिये। यदि जमींदार आपको परेशान करें तो मै किसान भाई से कहूंगा कि वह लड़ें नहीं बल्कि मैत्रीपूर्ण रुख अपनायें।" गांधी की कथनी-करनी का फर्क जसवंत को रखना चाहिए जो अंग्रेजों के लिये मददगार साबित हो रहा था। चम्पारण, खेडा और बारडोली के किसान आंदोलन इस बात के सबूत हैं कि गांधी किसानों को बंधक बना रहे थे। क्योकि एक तरफ वह ग्राम स्वराज अर्थात परम्परागत हिन्दू ग्रामीण समाज के आत्मनिर्भर ढांचे को जिलाना चाहते थे पर उसके लिए बहुसंख्यक ग्रामीण समाज की आर्थिक और सामाजिक अस्मिता और नेतृत्वकारी शक्तियो को आगे बढाना उन्हे स्वीकार नहीं था। गांधी वाकई भारतीय मूल को ना समझते तो नेहरु-जिन्ना दोनों ही विभाजन के नायक भी ना हो पाते जैसा जसवंत लिख रहे है। लेकिन इस मूल को तो सामने लाना चाहिये...क्योकि गांधी परम्परागत ग्रामीण समाज को तोड़ कर उस पर थोपे गए जमीदांरों और साहूकारों के जरिये ही अपनी राजनीति कर रहे थे। <br /><br />मिसाल के लिये बारडोली में चलाये गये गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रम को ही लें। 1929 तक बारह सौ चरखे बारडोली में चलाये जा रहे थे लेकिन सभी धनी पट्टीदार परिवारों में थे। गरीब किसानो के घर एक भी चरखा नहीं था, जबकि चरखा लाया ही गरीब परिवारो के लिए गया था। फिर अस्पृश्यता हटाने के सवाल पर तो इतना ही कहना काफी होगा कि 1936 तक एक भी अछूत छात्र बारडोली क्षेत्र के पट्टीदार मंडल द्रारा चलाये जा रहे आश्रमों और होस्टल में भर्त्ती नहीं हुआ था। गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम तो पट्टीदारों और बंधुआ मजदूरों के बीच संबंधो में भी कोई अंतर नहीं ला पाया था। <br /><br />लेकिन जसवंत की किताब में मूलत: नेहरु और पटेल पर चोट की गई है। सही कह रहे हैं। किताब में एक जगह लिखा गया है कि नेहरु और पटेल को समझ ही नहीं थी कि विभाजन के बाद देश कैसे चलाना है। हो सकता है बीजेपी इसी से रुठी हो। लेकिन किसान-मजदूर की बात करने वाली बीजेपी को समझना चाहिये कि लौह पुरुष पटेल भी किसानो के हक में खडे नहीं हुए। साहूकार और बंधुआ किसानों को लेकर गांधी के सबसे बडे प्रतिनिधि वल्लभ भाई पटेल ने गरीब किसानो को सलाह दी, "सरकार तुम्हें और साहूकार को अलग अलग करना चाहती है ....यह तो पतिव्रता नारी से अपने पति को छोड देने की मांग जैसा हुआ । " जसवंत को किताब में बताना चाहिये कि पटेल का लोहा किस तरह घनी पट्टीदार और बनियों के लिये बज रहा था। <br /><br />जसवंत तो खुद राजस्थान से आते है। उन्होंने अपनी किताब में गांधी को कैसे क्लीन चीट दे दी। जबकि राजस्थान के राजपूताना इलाकों में मोतीलाल तेजावत ने रियासती जुल्म के खिलाफ जब किसानों को एकजुट किया तो रियासत ने अंग्रेजों के फौज की मदद से भीलों पर गोलियां बरसा दी थी। गांधी जी ने उस वक्त भी इस गोलीकांड की निंदा नहीं की। देखिये किताब इसलिये बेकार है क्योंकि इसमें जनता को जोडा ही नहीं गया है। <br /><br />नेहरु के जरिये कांग्रेस पर अटैक करने से जसवंत को लगता होगा कि उन्होंने अपना राजनीतिक धंधा पूरा कर लिया, जबकि कांग्रेस पर अटैक करना था तो सहजानंद सस्वती का जिक्र करना चाहिये था। चर्चा किसान सभा के संगठन की होनी चाहिए थी। 2 अक्टूबर, 1937 को पटेल ने राजेन्द्र प्रसाद को पत्र लिख कर आगाह किया कि भविष्यि में किसान सभा बहुत बडी बाधा उत्पन्न करेगी, हमें इसके गठन के खिलाफ खड़े होना होगा। इसी के बाद से धीरे-धीरे कांग्रेसियों ने सहजानंद सरस्वती का बायकॉट करना शुरु किया। बंबई में तो गांधी, जमुनालाल बजाज, सरदार पटेल, राजगोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद ने एक बैढक में सहजानंद को हिंसक , तोड़क और उपद्रवी तक घोषित कर दिया। <br /><br />आपका यह तो नहीं कहना है कि स्थितियां अभी भी नहीं बदली हैं। आप यह माने या ना माने ...हम यह नहीं कहते कि किताब में हिसंक आंदोलन का जिक्र होना चाहिए। सवाल यह है कि नेहरु - जिन्ना सरीखे चरित्र किस तरह खडे हो रहे थे। उन सामाजिक परिस्थितियों का जिक्र अगर किताब में नहीं है तो मीडिया को तो करना चाहिए, क्योंकि आपने ही ठीक सवाल रखा...स्थिति बदली कहां है। सहजानंद सरस्वती किसान सभा में गरीब और मंझोले किसानों का ज्यादा प्रतिनिधित्व चाहते थे। यह मांग हर क्षेत्र में आज भी है। जसवंत सिंह को सिर्फ धर्म के नाम पर आरक्षण दिखाई देता है..वह किताब में लिखते भी हैं कि धार्मिक आरक्षण राजनीति का हथियार बन गया है। जसवंत तो इस्लामिक राष्ट्र को भी बकवास बताते हैं लेकिन हिन्दू राष्ट्र पर खामोश हो जाते हैं, जिसे सावरकर ने ही सबसे पहले उठाया। नेपाल में जब कम्युनिस्ट सत्ता में आये तो बीजेपी को लगा एकमात्र हिन्दू राष्ट्र ध्वस्त हो गया। तो वह लगे विरोध करने। और मीडिया भी उसे तूल देता है, क्योंकि बाकी वर्गों को छूने पर देश में आग लग सकती है। <br /><br />जसवंत सिंह की किताब में विभाजन को लेकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले किरदार खत्म कहां हुए हैं।...वैसे ही किरदार तो अब भी राजनीति और समाज में मौजूद हैं। और उन्हे उसी तरह किताब लिखकर या मीडिया से प्रचारित कर के स्थापित किया जा रहा है। मेरा आपसे सिर्फ यही कहना है कि आप किताब को हर कैनवास में रखकर बताएं। चाहे किताब में कैनवास ना हो, नहीं तो भविष्य में यही बडे नेता हो जाएंगे जो किताब लिखने पर निकाले जा रहे हैं या जो निकाल रहे हैं। <br /><br />तो आप लोग किताब क्यो नहीं लिखते। हम लिखते भी हैं और बताते भी हैं, लेकिन लेखन का धंधा नहीं करते। किस तरह बहुसंख्यक तबके को दरकिनार कर सबकुछ प्रचारित किया जाता है, यह तो आप लालगढ से भी समझ सकते हैं। लालगढ में हमारी ताकत बढी है तो सरकार कह रही है ऑपरेशन सफल हो गया। आप आईये ..देखिये, अंदर गांव में स्थिति क्या है। लेकिन इसी तरह जसवंत की किताब को भी देखिये। यह कह कर किशनजी ने फोन काट दिया।<br /><br />किशन जी वही शख्सन हैं, जिसने लालगढ में आंदोलन खडा किया। असल में किशनजी माओवादी संगठन के पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव हैं। यह तथ्य लालगढ में हिंसा के दौर में खुल कर उभरा था। लेकिन सवाल है कि जो तथ्य विभाजन को लेकर नक्सली खींच रहे है, उसपर कोई राजनेता कभी कलम चलायेगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6