tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-40175484745777290182012-03-13T12:21:00.001+05:302012-03-13T12:23:08.911+05:30राष्ट्रपति का अभिभाषण और मायके का सच<div><span style="font-family: Georgia, serif; ">देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 1952 में सिर पर मैला ढोने वालों का जिक्र कर इसे भारतीय सामाजिक-सासंकृतिक परंपराओं की गुलामी करार दिया था और कहा था कि पहली पंचवर्षीय योजना के तहत इसे पूरी तरह समाप्त करने का बीड़ा देश को उठाना होगा। लेकिन त्रासदी देखिये राजेन्द्र बाबू के अभिभाषण के साठ बरस बाद भी न तो मैला ढोने वाले खत्म हुये और न ही राष्ट्रपति के भाषण में कोई परिवर्तन आया। जिस गुलामी को खत्म करने का जिक्र देश की पहली लोकसभा के सामने पहली पंचवर्षीय योजना के सामने चुनौती के रुप में राजेन्द्र बाबू ने रखा। उस गुलामी का जिक्र साठ बरस बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 15 वीं लोकसभा के बजट सत्र की शुरुआत के अपने अभिभाषण में 12 वीं पंचवर्षीय योजना को समवेशी विकास के साथ किया।</span></div><div><span ><br /></span></div><div><span >साठ बरस पहले इस काम को खत्म करने का सवाल था और साठ बरस बाद सिर पर मैला ढोने वालो को राहत और सुविधा देने की बात है। यह कितनी बड़ी त्रासदी है </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">कि परंपराओं के आसरे देश का लोकतंत्र मजबूत होते देखने की परंपरा ही वोटरों की बढ़ती तादाद के दायरे में सिमटा दी गयी। और यह परंपरा कैसे गुलाम हो रही है यह भी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के संसद में आखिरी संबोधन में ही झलका। 70 मिनट के संबोधन में मनमोहन सरकार के 36 मंत्रालयों की उपलब्धियों की दो-दो लाइनों से लेकर दो दो पेज तक को ही राष्ट्रपति ने यह जानते-समझते हुये पढ़ा कि उनकी सरकार का कद जनादेश के तौर पर इतना छोटा हो चुका है कि अपनी मर्जी के शख्स तक को वह अगला राष्ट्रपति नहीं बनवा सकतीं।</span></div><div><span ><br /></span></div><div><span >राष्ट्रपति के अभिभाषण की ऐसी परंपरा तले जब बजट सत्र राजनीतिक तौर पर मंगलवार [13 मार्च] से खुलेगा तो फिर जिन मुद्दो को सफलता के साथ राष्ट्रपति ने रखा है उसकी धज्जियां जब तथ्यों के आसरे उड़ेगी तो उसे लोकतंत्र का हिस्सा माना जायेगा या झूठ का अभिभाषण। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि भ्रष्टाचार,कालाधन, आंतरिक सुरक्षा, और ई-गवर्नेंस से इतर शिक्षा, स्वास्थ्य , खेती और हर पेट के लिये अनाज के सवाल को समाधान की लीक पर लाने की जो सोच राष्ट्रपति के अभिभाषण में उभरी उसके हर पायदान पर इतना बड़ा छेद है कि उसको समेटे हर राजनेता और कारपोरेट अपने आप में शहंशाह हैं। क्या बजट सत्र शुर होते ही इंतजार रेल बजट और आर्थिक सुधार की पटरी पर दौड़ते आम बजट का ही होगा जो अगले 100 घंटों में देश के सामने होगा। या फिर संसद के भीतर कोई यह सवाल भी उठायेगा कि देश के आमलोगों की न्यूनतम जरुरतों को ही जब चंद हथेलियो में सिमटा दिया गया है तो फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती और मुफ्त अनाज देने का सब्जबाग संसद की मर्यादा </span><span >को ताक पर रखकर क्यों दिखाया जा रहा है। ऐसी कौन सी परंपरा राष्ट्पति को सच के सामने आंख मूंद कर भाषण देने को मजबूर करती है, जबकि उनके अपने </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">मायके में सबसे बदतर हालात हैं। ऱाष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के मायके जाने के लिये नागपुर हवाई अड्डे पर उतरना ही पड़ेगा। और आंखे खुली हों तो उतरते जहाज की खिड़की से ही हवाई अड्डे के उस विस्तार को देखा जा सकता है जिसके दायरे में गांव, घर, खेती सबकुछ आ जाता है। और हवाई अड्डे से बाहर कदम रखते ही महज 500 मीटर के बाद नियान रोशनी से नहाये मिहान[ मल्टीमाडल इंटरनेशनल कारगो हेडलिंग] नाम की वह परियोजना बोर्ड पर लिखी नजर आती है, जिसके दायरे में अंतराष्ट्रीय कारगो से लेकर अत्याधुनिक टाउनशीप और आधुनिक बाजार का वह चेहरा है जो आर्थिक सुधार का अनूठी खिड़की है। लेकिन नजरों में अगर चकाचौंध तले अंधेरे को देखने की हिम्मत हो तो फिर नागपुर हवाई अड्डे से पांच सौ मीटर दूर जाने की भी भी जरुरत नहीं है। हवाई अड्डे की दीवार पार करते ही शिवणगांव के रास्ते पर टंगे ब्लैक बोर्ड को देखा जा सकता है। इस पर लिखा है, "वेलकम टू मिहान, शेतकरयांचे श्मशान'" यानी [ मिहान में स्वागत, किसानों का श्मशान]। और संयोग से नागपुर से </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">राष्ट्रपति के मायके अमरावती जाते वक्त अगर हाई-वे छोड़ गांवों की पगडंडी पकड़ें तो शिवण गांव, चिंचभुवन गांव, तेलहरा गांव , दहेगांव, कुलकुही गांव समेत दर्जनों गांव ऐसे पड़ते हैं, जिनकी करीब तीन हजार हेक्टेयर जमीन मिहान परियोजना तले ले ली गई है। और 50 हजार से ज्यादा किसान परिवार खेती-मजदूरी से भी गये और दो जून की रोटी के लाले सभी के सामने है। क्योंकि बीते दस बरस के खेती जमीन के हड़प के दौर में अब किसी परिवार के पास ना तो मुआवजे का एक रुपया बचा है और ना ही दो जून की रोटी जुगाड़ करने का काम।</span></div><div><span ><br /></span></div><div><span >सवाल यह भी नहीं है कि राष्ट्रपति ने सबको-शिक्षा की जो दुहाई अपने अभिभाषण में दी उसका असल चेहरा उन्हे अपने मयके विदर्भ में दिखायी ना देता हो। शिक्षा को लेकर सरकार का बजट 55 हजार करोड़ का हो। लेकिन विदर्भ का सच यह है कि यहा आज भी प्राथमिक शिक्षा का मतलब मिड-डे मील है। और उच्च शिक्षा का मतलब नेताओं के प्राईवेट स्कूल कॉलेज। 27 नेताओं के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेज यहां पर है। करीब 42 नेताओं के स्कूल विदर्भ में हैं। यह स्कूल कॉलेज हर राजनीतिक दल से जुडे नेता-मंत्री के हैं। जिनके जरीये औसतन मुनाफा हर बरस करीब 500 करोड़ का है। यानी शिक्षा कितना बडा धंधा है, यह राष्ट्रपति के मायके में घड़ल्ले से चलता भी है और घड़ल्ले से देखा भी जा सकता है। अभिभाषण ने संकेत दे दिये कि अब सरकार का मिशन स्वास्थ्य सेक्टर को लेकर है, जो एनएचआरएम यानी ग्रामीण क्षेत्र के बाद शहरों में जोर पकड़ेगा। और यह बजट में नजर भी आयेगा। लेकिन अगर राष्ट्रपति के मायके में झांक कर अस्पतालों और इलाज का हाल देख लें तो समझा जा सकता है कि देश में इलाज होता किसका है। विदर्भ के नौ जिलों में कुल 191 सरकारी अस्पताल है जो पेड़ के नीचे से लेकर झोपड़ी तक में चलते हैं। जबकि पूरे विदर्भ में </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">1095 निजी अस्पताल हैं। जहां इलाज के लिये जेब में कम से कम 500 रुपये जरुर होने चाहिये। जबकि 70 फिसदी लोगो की महीने भर की आय पांच सौ रुपये नहीं है। यहा सरकारी अस्पताल का मतलब है नब्ज पकड कर घरेलू दवाई का सुझाव देना या फिर बचे 16 जिला अस्पताओं में इलाज के लिये भेजना। राष्ट्रपति की आंख में संसदीय मर्यादा कैसे पट्टी बांध देती है, यह अभिभाषण में मुफ्त अनाज बांटने की सरकार की सोच या आर्थिक पैकेज के जरीये पेट और पीठ एक किये लोगो की राहत देने के एलान के दायरे में विदर्भ के सच से भी समझा जा सकता है। क्योंकि प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने के बाद जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदर्भ गये तो 22 हजार करोड़ के पैकेज का ऐलान कर चले आये। लेकिन 2007 के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल करीब दो दर्जन बार अपने मायके गई और नागपुर हवाई अड्डे से लेकर अमरावती में घर तक </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">में हजारों कागज राष्ट्रपति के हाथ तक पहुंचे, जिसमें सिर्फ इतना ही दर्ज था कि प्रधानमंत्री जो कहकर गये वह नहीं मिला। पैकेज का पैसा तो दूर मवेशियों तक को गिरवी रखना पड़ रहा है जिससे पैकेज का पैसा पाया जा सके। बैंक के कर्मचारी और सरकारी अधिकारी बिना घूस या कमीशन प्रधानमंत्री के पैकेज का एक पैसा भी नहीं देते। सरकारी खाद, बीज भी नहीं मिलता। इस बार तो पानी भी नहीं हुआ। कपास की खेती खत्म हो चुकी है। किसानों का कहना है कि जमीन हड़पने वालों के चंगुल से हमें बचायें। हम पीढियो का पेट भरती आई जमीन किसी को नहीं देना चाहते है। किसी तरह बेटे -बहु को कोई काम मिल जाये। और फलां तारीख को खुदकुशी करेंगे। यह सारे वक्तव्य उन दस्तावेजों का सच है, जो गाहे-बगाहे राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के पास विदर्भ के लोगों ने पहुंचाये। कभी अकेले। करीब समुदाय में। लेकिन इस सच पर कृषि </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">मंत्रालय के कागजी दस्तावेज या सरकार की नीतियों का फरेब कैसे भारी पड़ जाता है, यह भी राष्ट्रपति के अभिभाषण ने झलका दिया। जिसमें ऐसा कोई लफ्ज संसद में</span></div><div><span >राष्ट्रपति ने नहीं बोला जिसके अक्स में आम आदमी यह महसूस करता कि उसके दर्द उसकी त्रासदी या फिर उसके जीने के सच के साथ कोई सरोकार-संवाद भी संसद कर पा रही है। ऐसे में यह सवाल कितना बड़ा या कितना छोटा है कि पांच राज्यों के जनादेश तले संसद के बजट सत्र से क्या निकलेगा। और सरकार अब तो आर्थिक सुधार की उड़ान छोड जनता की नब्ज को पकड़ेगी। जबकि राष्ट्रपति को यह गर्व है कि सरकार का हर मंत्रालय देश के विकास में लगा हुआ है। </span></div><div><span ><br /></span></div><div><span >दरअसल, सरकार और आम आदमी के बीच की खाई कितनी बड़ी है यह कपास के निर्यात पर से प्रतिबंध उठान से लेकर खनिज संस्थानों के खनन को निजी हाथों में सौंपने के खेल से भी समझा जा सकता है। संयोग से राष्ट्रपति के पास आखिरी पर्चा विदर्भ के किसानों ने यह कहकर पहुंचाया था कि कपास उगाने के बाद उन्हें आधी कीमत भी नहीं मिलती और अब निर्यात के लिये रास्ता खुला है तो कीमत एक चौथाई भी नहीं मिलेगी क्योंकि सरकार की नीति से किसानों का नहीं उन निर्यातकों को फायदा होगा, जिनकी अंटी में रुपया भरा पड़ा है। वहीं खनन को निजी हाथों में सौंपने पर चन्द्रपुर के खनन मजदूरों ने गुहार लगायी थी कि उन्हें मनरेगा से भी कम मजदूरी मिलती है। सिर्फ 45 से 85 रपये रोज। और उसपर सरकार कोई न्यूनतम नियम बना दें तो उन्हें राहत मिले। संयोग से यह अर्जी भी राष्ट्रपति को ही चन्द्रपुर के मजदूरों ने यह सोच कर सौपी की राष्ट्रपति तो सरकार या नेताओ से ऊपर है। लेकिन अभिभाषण ने जतला दिया कि देश में नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह के काल तक या फिर पहली पंचवर्षीय योजना से लेकर 12 वी पंचवर्षीय योजना तक के दौर में सवाल वही अनसुलझे हैं, जिसे साठ बरस पहले ही सुलझाना था। अंतर सिर्फ इतना ही है कि 1952 में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद चुनी हुई सरकार को सुझाव भी देते थे लेकिन 2012 में राष्ट्रपति चुनी हुई सरकार के गीत ही गाते हैं।</span></div>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-26002146219329228742010-01-20T11:14:00.003+05:302010-01-26T14:12:39.480+05:30राष्ट्रपति के मायके का हाल : वेलकम टू मिहान, शेतकारी चे श्मशान<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgsBnVgDLeXEuQLNWFOVtgzE7bI-c70Ja-R9Ajv3yjGuIuEzinrKXh9k-ip0x-IAVjS2kuH9zn38xzGRpyAQJ0EuYqG8SA9mQEo0P7tsP1Q5kE4oe1GCRYtPlL44MrBdCXl_NoGthZQn_RI/s1600-h/IMG_1052.JPG"><img style="margin: 0pt 10px 10px 0pt; float: left; cursor: pointer; width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgsBnVgDLeXEuQLNWFOVtgzE7bI-c70Ja-R9Ajv3yjGuIuEzinrKXh9k-ip0x-IAVjS2kuH9zn38xzGRpyAQJ0EuYqG8SA9mQEo0P7tsP1Q5kE4oe1GCRYtPlL44MrBdCXl_NoGthZQn_RI/s320/IMG_1052.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5430966138484014482" border="0" /></a><span style=";font-family:";" lang="HI">विदर्भ की बहू प्रतिभाताई पाटिल जब राष्ट्रपति बनी तो तुलसाबाई गायकवाड ने सर मुंडा लिया। उसे भरोसा हुआ कि उसकी हालत देखकर राष्ट्रपति उनसे जरुर पूछेगी ऐसा क्यो किया और जब जानकारी मिलेगी तो प्रतिभा ताई जरुर कोई पहल करेंगी । हुआ भी यही राष्ट्रपति बनने के बाद जब पहली बार नागपुर हवाईअड्डे पर राष्ट्पति उतरी तो तुलसाबाई समेत सर मुंडाकर दर्जनों महिलाओं को उन्होंने हवाईअड्डे के बाहर प्रदर्शन करते देखा। हाथों में तख्तियां थीं, जिस पर लिखा था-गांव नहीं</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">खेती नहीं</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">आदमी भी नहीं....तो फिर मिहान-सेज भी नहीं । किसी तरह राष्ट्रपति तक एक पर्चा पहुंचाने में तुलसाबाई सफल हो गयीं। पर्चा लेकर राष्ट्रपति अपने ससुराल अमरावती चली गयीं। तुलसाबाई को लगा कि उनकी फरियाद जरुर सुनी जायेगी। और कोई ना कोई आदेश दिल्ली से जरुर आयेगा, जिसमें उनकी जमीन को उनको वापस देने का फरमान होगा। लेकिन तुलसाबाई का यह सपना राष्ट्रपति की अगली ससुराल यात्रा के साथ टूट गया जब नागपुर हवाईअड्डे पर शेतकारी समिति को खड़े देखकर राष्ट्रपति के सहायक ने उनसे जाकर कहा</span>," <span style=";font-family:";" lang="HI">आप सभी इतनी बडी योजना का विरोध क्यों कर रहे हैं। योजना पूरी होने दें । मुआवजा तो सभी को मिल ही रहा है। " तुलसाबाई को जब इसकी जानकारी मिली कि योजना को बनता हुआ देखना तो राष्ट्रपति भी चाहती हैं तो तुलसाबाई ने कीटनाशक दवाई खा ली। गांववालों को पता चला तो किसी तरह अस्पताल ले गये। और तुलसाबाई की जान बच गयी। </span><p class="MsoNormal"><span style=";font-family:";" lang="HI"><br /></span>29 <span style=";font-family:";" lang="HI">दिसंबर </span>2009 <span style=";font-family:";" lang="HI">को सुबह आठ-साढे आठ बजे के करीब मैं भी नागपुर हवाईअड्डे से सटे तुलसाबाई के गांव शिवणगांव पहुचा। गांव में घुसते ही सामने बडे से ब्लैक बोर्ड पर नजर पड़ी </span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">वेलकम टू मिहान</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">शेतकारी श्मशान । यह आप लोगों ने लिखा है । शिवणगांव के द्वार पर पंचायत सरीखे घेरे में बैठे लोगो से जब मैंने यह सवाल पूछा तो ठेठ मराठी अंदाज में सत्तर पार एक महिला ने कहा..मि ळिखतो । ऐसा क्यो</span>,....<span style=";font-family:";" lang="HI">ई श्मशान ऩाही-तर काय </span>? <span style=";font-family:";" lang="HI">आपका नाम</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">तुलसाबाई गायकवाड । तुलसाबाई के चेहरे पर आक्रोष की लकीरे साफ दिखायी दे रही थी लेकिन अपनी बात कहते हुये वह जिस साफगोई से सरकार और विकास के धंधे पर अंगुली उठा रही थी उसने एक साथ कई सवाल खडे किये। सत्तर पार तुलसाबाई सत्तर के दशक में भू-दान के लिये विनोबा भावे के साथ मध्य भारत के कई हिस्सो में महीनो घूमी। यह जानकारी जब गांववालों ने दी तो तुलसाबाई से मैने सीधा सवाल किया विनोबा बावे खुदकुशी के खिलाफ थे....आपने खुदकुशी करने का प्रयास भी क्यों किया। तब सरकार भूमिहिनों के साथ थी। किसानो की फिक्र सरकार को थी। तब भूमिहिनों के लिये जमीदारों से विनोबा जमीन दान करवा रहे थे</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">तो अब सरकार ही जमींदार बनना चाहती है। जिनके पास सबकुछ है, उन्हें आराम से हवाई सफर करवाना चाहती है और इसके लिये हमारी जमीन जबरदस्ती लेना चाहती है। तभी मेरी नजर इंडियनएयरलाइन्स के विमान पर पडी जो नागपुर हवाई अड्डे पर उतर रहा था । एकदम बगल से जहाज को उतरता हुआ हर गांववाले तो हर वक्त ऐसे ही देखते होंगे तो उनके दिल पर क्या बीतती होगी क्योकि शेतकारी समिति आंदोलन की कमान संभाले बाबा डेउरे ने बताया कि गांववालों की अधिकतर जमीन नागपुर में तीसरी हवाई पट्टी बनाने की योजना के घेरे में ही आ रही है और तुलसाबाई की जमीन भी।<br /><br />शिवणगाव की जिस </span>590 <span style=";font-family:";" lang="HI">हेक्टेयर जमीन पर सरकार आंखे गढाये बैठी है उसपर सीधे बीस हजार किसानों-मजदूर परिवारों की रोजी रोटी टिकी है। और यह अपनी तरह की पहली योजना है जिसमें शहर के हद में आने वाली जमीन को भी कौडियो का मुआवजा देकर परियोजना की बलि चढाया जा रहा है। तुलसाबाई की माने तो नागपुर शहर की सीमा के भीतर आने वाले शेवनगांव का यह नया सच है, गांव नहीं श्मशान है। असल में </span>1952 <span style=";font-family:";" lang="HI">से नागपुर म्यूनिसिपल कारपोरेशन की हद में आने वाले शेवनगांव को बीते पचास साल में कभी इसका अहसास नहीं हुआ कि समूचा गांव ही विकास की लकीर तले खत्म हो जायेगा । </span>21 <span style=";font-family:";" lang="HI">दिसबंर </span>2001 <span style=";font-family:";" lang="HI">को महाराष्ट्र कैबिनेट ने मिहान और एसइजेड पर जैसे ही मुहर लगायी वैसे ही दर्जन भर गांव के आस्तित्व पर सवालिया निशान लग गया और दर्जनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कमाई के वारे-न्यारे होते नजर आये। शिवनगांव और चिंचभुवन गांव अगर नागपुर शहर की हद में तो खापरी</span>,<span style=";font-family:";" lang="HI">तेलहरा</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">दहेगांव</span>,<span style=";font-family:";" lang="HI">कलकुट्टी और इसासनी गांव नागपुर सीमा से सटे ग्रामीण इलाके हैं। संकट दो लाख से ज्यादा लोगों पर है और सरकार के पास इन दो लाख से ज्यादा लोगों को संकट से उबारने के लिये डेढ़ लाख रुपये प्रति एकड़ का मुआवजा है। सवाल है कि नागपुर में </span>6397 <span style=";font-family:";" lang="HI">हेक्टेयर बंजर जमीन कहां से आयेगी। क्योंकि मिहान परियोजना के लिये </span>4311 <span style=";font-family:";" lang="HI">हेक्टेयर तो एसईजेड के लिये </span>2086 <span style=";font-family:";" lang="HI">हेक्टेयर जमीन चाहिये। मिहान का मतलब है मल्टी माडल इंटरनेशनल हब एयरपोर्ट। और चूंकि नागपुर हवाईअड्डा नागपुर शहर में है तो मिहान इससे अलग कैसे हो सकता है । और जब नागपुर शहर की शुमारी देश के दस सबसे तेजी से विकसित होते शहरो में हो तब डेढ़ लाख रुपये मुआवजे का मतलब विकास तले जमीन के गरीब मालिकों को चिटियों की तरह रौदंना भी है।<br /><br />ऐसे में सरकार दस चेहरे वाले रावण की तर्ज पर खुद को गांववालों के सामने रखे हुये है। हर चेहरा सरकार से जुडा है लेकिन हर चेहरे का धंधा अलग है और हर चेहरा गंववालों को बरगला रहा है कि जमीन दे दो....इतने में नहीं तो इतने में बस फायदे में रहेंगे। ज्यादातर जमीन खेती योग्य है, जिसमें तीन-चार फसली होती है। सरकार समझ रही है कि खेती योग्य जमीन को परियोजना के घेरे में लाने पर सवाल उठेंगे ही। इसलिये सरकार की तरफ से ही नेताओ ने जमीन के लिये घन की पोटली खोल रखी है। कमोवेश हर राजनीतिक दल का नेता यहा की जमीन पर कब्जा चाहता है, जिससे वह महाराष्ट्र के सबसे विकसित होते इलाके में अपने मुनाफे के अनुकूल होटल से लेकर कालेज या इंडस्ट्री बना ले। जो नेता चेहरा छुपाना चाहते है वह अपने करीबी धंधेवालों के जरीये मैदान में हैं। एक तरफ सरकारी मुआवजा डेढ लाख रुपये प्रति एकड़ है तो दूसरी तरफ यहा की जमीन ढाई करोड प्रति एकड़ तक बिकी है। किसी भी विकसित शहर में जो हो सकता है वह सब कुछ इन खेत खलिहानों के बीच अभी से मौजूद नजर आने लगा है। क्रिकेट स्टेडियम भी बनाकर बीसीसीआई ने यहा मैच कराना शुरु कर दिया क्योंकि बीसीसीआई के अध्यक्ष शंशाक मनोहर नागपुर के ही हैं। परियोजना के पचास फीसदी हिस्से के पुनर्वास का काम रिटोरक्स कंपनी को मिला है, जिसके सर्वेसर्वा शिरोडकर है और शिरोडकर के ताल्लुकात बीजेपी के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी से कितने करीबी के हैं, यह महाराष्ट्र की राजनीति में किसी से छुपा हुआ नहीं है क्योंकि सडक और पुल से लेकर पुणे-मुबंई एक्सप्रेस वे के जरीये बतैर पीडब्लूडी मेंत्री के तौर पर गडकरी को पहचान दिलाने में शिरोडकर की खास भूमिका भी रही। शहर के जीरो माइल से बीस किलोमीटर दूर खेत खलिहाने के बीच कंक्रीट का जो हौवा सरकार की परियोजनाओ से खड़ा किया गया है, इसमें किसानों के सामने संकट कुछ इस तरह खड़ा कर दिया गया है कि जैसे यहा रहते हुये खेती करना महापाप होगा और पांच सितारा संस्कृति के बीच किसानों की मौजूदगी सिस्टम को सडाद ही देगी इसलिये डेढ लाख प्रति एकड़ के मुआवजे और ढाई करोड प्रति एकड़ के बाजार रेट के बीच किसानों के पास जमीन बेचने के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं है। और जो किसानों की जमीन खरीदता भी है वह सरकारी परियोजना के घेरे में आयी जमीन का वारंट दिखाकर ढाई लाख रुपये से ज्यादा प्रति एकड़ लगाता नहीं। और किसान भी सरकारी डेढ़ लाख के बदले किसी निजी पार्टी के ढाई लाख रुपये ज्यादा पंसद करता है। लेकिन यही ढाई लाख प्रति एकड़ की जमीन प्राईवेट पार्टी के हाथ में आते ही रंग बदलने लगती है और पचास लाख से अस्सी लाख के बीच खर्च करने के बाद जमीन खुद-ब-खुद सरकारी परियोजना या मिहान या एसईजेड से बाहर हो जाती है और झटके में जमीन की कीमत ढाई करोड रुपये प्रति एकड़ छूने लगती है।<br /><br />यह गणित कितनी सरलता से किसानों के गांव के गांव को मरघट में बदलता है और मरघट को कैसे धंधेबाज किसी पांच सितारा जमीन में बदल देते है इस सब नंगी आंखों से राज्य की नीतियों को बनाने वाले ना सिर्फ देख रहे हैं बल्कि संयोग से इसमें शरीक भी है । </span>21 <span style=";font-family:";" lang="HI">दिनो के अन्नत्याग के बाद जिन्दगी त्यागने वाले नारायण बारहाते के पास बीस एकड़ जमीन थी । जमीन अब भी है लेकिन नारायण के तीन बेटे और इन तीन बेटों के आठ बेटों में जमीन के इतने टुकडे हो चुके हैं कि दो एकड़ भी किसी एक के हिस्से में नहीं आयेगी। तो जमीन जस की तस है जो बिना खेती बंजर हो रही है और मुआवजे को लेकर सरकारी अधिकारी सीधे कह रहे हैं डेढ लाख रुपये से ज्यादा मुआवजा बिलकुल नहीं। लेकिन बिलकुल नहीं का विचार बाजार को कैसे आगे कर सरकार की धंधेबाज नीति का विचार बन चुका है इसकी शिकायत सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। लेकिन विकास की मोटी लकीर के आगे सभी खामोश ही है और यह खेल कैसे चलता है यह शिवणगांव और चिचभुवन गांव के जरीये भी समझा जा सकता है। नागपुर शहर की हद में आने वाले दो गांव शिवनगांव और चिचंभुवन गांव की खेती की जमीन एक दूसरे से सटी हुई है। शिवनगांव में श्रीरामजी गिरे की </span>25 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ खेती की जमीन पर खड़े होकर कोई कह ही नहीं सकता कि उसके खेत से सटे </span>41.14 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन चिंचभुवन की है। दो अलग अलग गांव तो बंटते ही है परियोजना की नजर भी जमीन के मालिक को देखकर कैसे बदल जाती है यह श्रीरामजी गिरे की </span>25 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ पर गाढे जा रहे पिलर और उससे सटे </span>41.14 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन को कंटीले तार से घेर कर सुरक्षित जमीन के बोर्ड से भी समझा जा सकता है। यानी </span>25 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन तो परियोजना का हिस्सा है लेकिन उससे सटी </span>41.14 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन परियोजना से अलग है । यह </span>41.14 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन मुबंई हाईकोर्ट के जस्टिस जयनारायण पटेल की थी । </span>2002 <span style=";font-family:";" lang="HI">में जब कारगो हब के लिये जमीन रेखागिंत की जा रही थी तो चिंचभुवन की यह </span>41.14 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन भी परियोजना का हिस्सा बनी लेकिन छह महीने के भीतर ही यह जमीन परियोजना से अलग हो गयी और जस्टिस पटेल के परिवार के सदस्यो के नाम इस जमीन को </span>2.55 <span style=";font-family:";" lang="HI">प्रति एकड़ के हिसाब से बेच दी। </span>41.14 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन की कीमत </span>105 <span style=";font-family:";" lang="HI">करोड रुपये लगी। वहीं इस जमीन से सटे श्रीराम गिरे की जमीन जो शिवनगांव में आती है । उस </span>25 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन की एवज में सरकार की तरफ से महज साढे सैंतीस लाख रुपये मिले। इन साढे सैतीस लाख रुपये को लेकर गिरे परिवार ने क्या पाया क्या गंवाया इसका अंदाजा इसी से मिल जाता है कि श्रीरामजी गिरे के दो छोटे भाई संतोष और धनराज के अलावे की तीन बहनें आनंदा</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">अनुषा और अंधाना भी है। परिवार में तीनो भाइयों के नौ लड़के और पांच लड़कियां हैं। बैंक में रखे साढ़े सौंतीस लाख रुपये बीते छह साल में घटकर </span>18 <span style=";font-family:";" lang="HI">लाख रुपये पर पहुंच चुके हैं । रोजी रोटी का एकमात्र जरिया बैंक में जमा यही बचे </span>18 <span style=";font-family:";" lang="HI">लाख रुपये हैं। तीन बहनों की शादी के लिये अलग से कोई पूंजी परिवार के पास है नहीं। जब मुआवजा मिला था तब तीनो नाबालिक थीं अब शादी कैसे होगी यह परिवार में हर किसी की समझ से बाहर है। पहले खेती समेत एक एकड़ जमीन में अच्छा लडका गांव में मिल जाता था। वहीं अब छह लाख रुपये भी अच्छे लडके के लिये कम हैं। असल में जमीन का निर्धारण भी परियोजना के लिये जिस तर्ज पर हुआ है, उसमें हर गांववाला मारा गया और हर नेता या प्रभावी शख्स बच गया। कांग्रेस के पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी के कालेज परिसर की खाली जमीन शिवनगांव से सटी है लेकिन इस जमीन को परियोजना में नहीं लिया गया। अशोक चव्हाण मंत्रीमंडल में मंत्री विजय वहेट्टीवार के कालेज का निर्माणकार्य जारी है। उनकी जमीन परियोजना में नहीं आयी जबकि इसके आगे पीछे की जमीन परियोजना में आ गयी। पूर्व मंत्री रमेश बंग और वर्तमान मंत्री अनिल देशमुख की खेती की जमीन भी परियोजना के घेरे में नहीं आयी। मिहान परियोजना के बीच में सन एंड सैंड होटल की जमीन भी है लेकिन इस होटल की जमीन को परियोजना से बचाया भी गया और होटल ने अपनी बिल्डिग भी इस बीच खडी कर ली । खेत और परियोजना के उबड खाबड के बीच सन एंड सैंड होटल की सफेद इमारत किसके लिये बन कर खड़ी है यह अपने आप में बडा सवाल है। शानदार होटल सन एड सैंड जंगल में मंगल की तरह बन चुका....यह अलग बात है कि कोई सीधी सडक अभी भी होटल तक नहीं जाती।<br /><br />विकास की लकीर में किस तरह से प्रभावितों को मुनाफा बनाने के लिये लकीर खिंची जाती है, इसका एहसास तेलहरा डैम को देखकर लगाया जा सकता है। करीब </span>230 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ के इस डैम के चारो तरफ की सौ एकड़ जमीन सत्यम कंपनी के रियल एस्टेट कंपनी मायटस के अध्यक्ष आरसी सिन्हा को बेच दी गयी। सरकारी अधिकारी कहते है हमने तालाब तो बेचा नहीं है लेकिन गांववालों का सवाल है कि जब तालाब के चारो तरफ की जमीन ही बेच दी तो तालाब तक कोई पहुंचेगा कैसे। यानी सौ एकड़ जमीन के साथ तालाब की </span>230 <span style=";font-family:";" lang="HI">एकड़ जमीन भी खरीदने वाले को मुफ्त मिल गयी। महत्वपूर्ण है कि मायटास के अध्यक्ष रहे आर सी सिन्हा ही मिहान परियोजना के भी मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। लेकिन परियोजना से मुनाफा बनाने का धंधा यही नही रुकता। हर प्रभावी नेता का कोई ना कोई करीबी मिहान या एसईजेड से जुडा है। मुनाफे को लेकर लाललियत नेताओ की लंबी कतार और विकास के नाम पर परियोजना तले अपने धंधे को चमकाने में लगे देश के तमाम बड़ी औघोगिक कंपनियों की मौजूदगी के बीच उन दो लाख किसान-मजदूरो की हैसियत ही क्या हो सकती है जो अभी भी अपने संघर्ष से सिस्टम को डिगाना चाहते हैं। क्योंकि शिवणगांव के देवराव महादेवराव वैघ ने जमीन छिनने पर जब खुदकुशी की तो गांव के ही नारायण बारहाते और दत्तूजी बोडे ने इसे कमजोर पहल बताया । महात्मा गांधी के सत्याग्रह के हिमायती नारायण बारहाते ने देवराव वैघ की मौत पर गांववालों को समझाया की खुदकुशी के बदले अन्नत्याग का रास्ता ज्यादा सही है। क्योंकि इससे संघर्ष करने की क्षमता बढ़ती है। सरकार पर दबाब पडता है और लोग एकजुट होते हैं। नारायण बारहाते ने अन्नत्याग किया। इक्कीस दिनों के बाद नारायण बारहोते की मौत हो गयी। संघर्ष की इस लकीर को दत्तूजी बोडे ने संभाला। अठाहरवें दिन दत्तूजी की भी मौत हो गयी और अन्नत्याग की इस कडी में शामराव चंभारे</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">जीवलंग चौधरी और भीवाजी गायकवाड की मौत भी सोलह से बत्तीस दिनों के अन्नत्याग के बाद हो गयी। संघर्ष का कोई नतीजा नहीं निकला तो अन्नत्याग का रास्ता छोड लक्ष्मण वायरे और बापूराव आंभोरे ने कीटनाशक दवाई खा ली। दोनो की मौत तत्काल हो गयी। मरघट में तब्दील होते गांव के सामने बड़ा सवाल यही आया कि खुद को बचाने के लिये खुद को मारने के बाद भी जब कोई रास्ता नहीं निकल रहा तो संघर्ष को किस दिशा में ले जाया जाये। किसी को कुछ नहीं सुझा तो कभी विनोबा भावे के साथ भू-दान यात्रा कर चुकी तुलसाबाई गायकवाड गांव के द्वार पर काला ब्लैक बोर्ड लगा कर लिख दिया-वेलकम टू मिहान</span>, <span style=";font-family:";" lang="HI">शेतकारी श्मशान ।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8