tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-88741159753892218442011-01-12T00:18:00.001+05:302011-01-12T00:20:35.177+05:30सत्ता का लोकतंत्रविनायक सेन का राजद्रोह न्यायपालिका के आईने में देखा जाये या राजनीति के आईने में। जो कानून छत्तीसगढ़ में लाया गया उसकी धारायें ही जब गुलाम भारत की याद दिलाती हैं। और न्यायपालिका को तो उन्हीं धाराओं के तहत पहल करनी है, तो क्या सिर्फ न्यायपालिका के भरोसे विनायक सेन का सवाल उठाना उचित है। काले कानून को छत्तीसगढ़ सरकार की कैबिनेट ने पास किया और उसपर दो तिहाई विधायकों में मोहर लगायी। तो इस कानून के तहत विनायक सेन क्या छत्तीसगढ़ में कोई व्यक्ति सरकार के नजरिये से इतर आदिवासियो के सवाल से लेकर मजदूरी के सवाल और ग्रामीण आदिवासी क्षेत्र में खनिज संसाधनों की लूट ही नही बल्कि नक्सलियों के सवालों के जवाब में राज्य की हिंसा का सवाल उठाकर दिखाये वह भी राजद्रोह के घेरे में आ सकता है। इसलिये बडा सवाल छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत के मैजिस्ट्रेट जज के फैसले को लेकर मचे बवाल का नहीं है बल्कि न्यायपालिका के दायरे में राज्य की तानाशाही पर खामोशी का है। या कहें समूची थ्योरी ही न्यायपालिका की उस प्रक्रिया पर थोपी जा रही है जहां विनायक सेन पर ऐसे हैरतहंगेज आरोप मढे गये जिसमें कोई भी पढ़ा-लिखा छात्र में बता सकता है कि ऐसा जानबूझकर किया गया। क्योंकि दिल्ली स्थित आईएसएसआई को पाकिस्तान की खुफिया एंजेसी मानना और कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल पार्ट -3 के जरिये राज्य के खिलाफ हिंसा का पाठ पढ़ने का आरोप निचली अदालत में पुलिसवालो के रखे।<br /><br />यानी निचली अदालत में चुटकुले गढे जा रहे थे और काला कानून अपना काम कर रहा था। आखिर में एक मैजिस्ट्रेट जज ने जो फैसला सुनाया उस पर समूचे देश में हंगामा खडा हो गया। दरअसल किसी भी देश का लोकतंत्र जब कमजोर पडता है तो सबसे पहले लोकतंत्र को संभालने वाले पाये ही कमजोर होते हैं। फिर यही पाये एक दूसरे का सहारा लेकर अपनी हुकुमत बनाये रखने की हिमाकत शुरु करते हैं। भारत का लोकतंत्र असल में इसी दौर से गुजर रहा है। जहां अपनी जरुरत बनाये रखने के लिये लोकतंत्र का हर पाया ही दूसरे कमजोर या घुन लग चुके पाये की जरूरत को सही ठहरा कर अपनी उपयोगिता को साबित करने में लगा है। भारत में तो संसदीय व्यवस्था को ही लोकतंत्र का पर्याय बनाया गया। यानी आम आदमी की नुमाइंदगी करती सरकार की नीतियों में ही आम जनता की जरूरत देखी गयी। लेकिन कार्यपालिका-विधायिका या न्यायपालिका के साथ साथ चौथा पाया मीडिया की भूमिका भी इस दौर में अपने से इतर दूसरे पाये की ही जरूरत बताती नजर आयी। यानी संसदीय लोकतंत्र पर आस बने रहे इसकी जद्दोजहद ही हर पाये ने अपने ऊपर से भरोसा उठने पर की। अगर छत्तीसगढ़ सरकार माओवादियों के नाम पर अपने खनन का रास्ता खोल कर करोड़ों के वारे न्यारे करना चाहती है, तो बंगाल की वामपंथी सरकार भी माओवाद के नाम पर अपनी उस राजनीति को सही ठहराना चाहती है जो जमीन, मजदूर, किसान से हटकर कैडर को लाभ पहुंचाने के लिये मुनाफे की थ्योरी तले कभी बाजारवाद तो कभी ओद्योगिकरण का राग अलापती है। यही खेल गुजरात में विकास तले मोदीत्व की राजनीति का अलख जगाने के लिये होता है और उसका भ्रष्ट चेहरा कर्नाटक में येदुरप्पा की नीतियों के जरिये उभरता है।<br /><br />विनायक सेन की पत्नी इलिना सेन तो दिल्ली पहुंच कर राज्य के आतंक को बयां भी कर पाती हैं। लेकिन सौराष्ट्र का मुसलमान और बेल्लारी के किसान तो अपने जिला मुख्यालय में कलेक्टर-एसपी या अदालत तक पहुंच कर यह बताने का दम नहीं रखता कि उसका जीना सत्ताधारी के आगे रेंगकर चलने के बाद भी संभव है। लेकिन यह आतंक लोकतंत्र का परचम लहराते हुये अक्सर न्यापालिका की दुहाई देने से नहीं कतराता। देश के गृहमंत्री चिदबरंम इलिना सेन को बहलाते हैं कि ऊपरी अदालत में अपील करने से विनायक का रास्ता निकल सकता है तो येदुरप्पा बेल्लारी के किसान-मजदूरो को फुसलाते है कि अगर उनकी जमीन पर कोई गैर कानूनी खनन कर रहा है तो अदालत का दरवाजा खटखटाये न्याय मिल जायेगा। जबकि राज्य व्यवस्था का पाठ पढ़े बगैर ही कोई भी यह जानता समझता है निचली अदालत के किसी जज का हाई कोर्ट के जज तक पहुंचने का रास्ता उसी मुख्यमंत्री के तले से गुजरता है जिसकी नीतियों को लागू कराने का काम पुलिस प्रशासन लगा रहता है। और अदालत भी कोई भी फैसला राज्य हित में कानून लागू करने के लिये देता है। लेकिन, कानून और राज्य हित ही अगर सत्ता बनाये रखने या सत्ता अपना मुनाफा बनाने के लिये शुरु कर दें तो फिर नकेल कसेगा कौन और न्याय की परिभाषा होगी क्या। यह सवाल विनायक सेन पर फैसले से लेकर महाराष्ट्र के दलित पत्रकार एक्टीविस्ट सुधीर धावले की गिरफ्तारी से भी उभरता है। विद्रोही नामक पत्रिका निकालने वाले सुधीर को पुलिस ने इसलिये पकड़ा क्योंकि वह विदर्भ से लेकर मुबंई तक में दलित से लेकर आम लोगो से जुडे मुद्दो में लोकतांत्रिक तरीके से शिरकत करता था। विदर्भ के खैरलांजी से लेकर मुंबई के रमाबाई अंबेडरनगर के आंदोलन से जुडा रहा। लोकतांत्रिक तरीके से लोगों को जोड़ा और दलितों के सवालों को हक के दायरे में रखकर संसदीय राजनीति से इतर अपने बूते अपने सवालों को उठाया।<br /><br />असल में लोकतंत्र के हर पाये को यह बर्दाश्त नहीं है कि उसकी जरूरत को ही उसके घेरे में कोई मुद्दा खत्म कर दे। माओवाद संसदीय राजनीति के खिलाफ है। यानी एक दूसरी व्यवस्था का सवाल। लोकतांत्रिक आंदोलन अदालती प्रक्रिया के खिलाफ है यानी कानूनी तौर तरीकों से इतर सहमति के आधार पर सामाजिक फैसलों को मानवाधिकार के तहत मानने की सोच। मानवाधिकार पहल उस नौकरशाही के खिलाफ है जिसे लागू करने का काम राज्य का है लेकिन भ्रष्ट बाबूओं की वजह से ही जब संविधान में दर्ज न्यूनतम मौलिक अधिकार भी नहीं मिलते तो मानवाधिकार हनन के खिलाफ संघर्ष सड़क पर होता है और पुलिस प्रशासन कितने अमानवीय है यह सवाल लोगों के बीच रेंगने लगता है। और इन तमाम पहलुओ को जनता के बीच दिखाने-ले जाने के बदले मीडिया भी यह बताने से नहीं चूकता कि जब लोकतंत्र का हर पाया मौजूद है तब जमा होकर आंदोलन या मानवाधिकार के सवालों को उठाना राज्य की संपत्ति को नुकसान पहुंचाना है। तभी यह सवाल खडा होता है कि लोकतंत्र की परिभाषा अब किस तरह गढ़ी जाये, क्योंकि कल तक संसदीय राजनीति ही लोकतंत्र का पर्याय थी लेकिन जब वही लोकतंत्रिक मूल्यों को खत्म कर तानाशाह के तौर पर अपनी हुकुमत को ही लोकतंत्र बताने लगेगी तो व्यवस्था बड़ी या आम आदमी यह सवाल उठेगा ही।<br /><br />हाल के घपलों-घोटालों में कैबिनेट मंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्री तक फंसे, भ्रष्टाचार के घेरे में जज से लेकर पूर्व चीफ जटिस्स तक का नाम आया। नौकरशाहों के फेरहिस्त में बीडीओ से लेकर केन्द्र में सचिव स्तर के अधिकारी तक फंसे। कारपोरेट जगत के सर्वेसर्वा से लेकर सिटी बैंक के सबसे बडे ऑफिसर तक ने घपला-घोटाला कर अपना लाभ बनाया। ज्यादातर मामलों में साफ-साफ दिखा कि देश को चूना लगाकर हर किसी ने कमाई की। लेकिन कभी कारपोरेट ने मंत्री की तो मंत्री ने न्यायपालिका की तो न्यायपालिका ने कानून मंत्रालय की तो कानून मंत्रालय ने लोकतंत्र की दुहाई देकर हर किसी की जरुरत देश में लोकतंत्र का नाम लेकर कानून का राज स्थापित करने की ऐसी-ऐसी परिभाषा दी जिसमें देश के प्रधानमंत्री भी यह कहने से नहीं चूके कि वह तो मि. क्लीन हैं अब उनके मातहत कोई भ्रष्ट है तो वह क्या करें। यानी शासन की समूची प्रक्रिया ही जब संविॆधान के दायरे में इस तरह बनायी गयी है जहा वी द पीपुल, फार द पीपुल का सवाल हर तरक्की के लिये वी द गवर्मेंट, फार द गर्वमेंट हो जाये और गर्वमेंट का मतलब कही पीएम, कही सीएम तो कही टाटा और कही रिलायंस और कही बरखा वीर हो जाये तब आप क्या करेंगें। यानी लोकतंत्र का हर पाया एक सरीखा हो तभी वह प्रभावी पाया माना जाये तो क्या होगा। दरअसल संसदीय व्यवस्था का यही चेहरा अभी का नायाब लोकतंत्र है। जिसमें चैक एंड बैलेस का खेल सिर्फ बैंलस पर जा टिका है और हर क्षेत्र में लोकतंत्र का तमगा उसी की छाती पर टंगा है जो अपने घेरे में सत्ताधारी है। यानी निर्णय लेकर उसे अपनी शर्तों पर लागू कराने के हिम्मत रखता है।<br /><br />आधुनिक लोकतंत्र तले इसे सिंगल विंडो विकास यानी एक खिडकी लाईसेंस माना जाता है। यूपी में मायावती, गुजरात में नरेन्द्र मोदी, दिल्ली में शीला दीक्षित, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह यानी हर राज्य हर सीएम, केन्द्र में कैबिनेट मंत्री से लेकर पीएम और दस जनपथ, नार्थ-साउथ ब्लॉक में नौकशाहों की पूरी फौज वहीं शास्त्री भवन के बाबू लोग से लेकर कारपोरेट समूहो के लॉबिस्ट और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी तले इलाहबाद हाईकोर्ट सरीखे अंकल जजों की फौज। इससे इतर लोकतंत्र कहा रेंगता है। लोकतंत्र तो नीतीश के सुशासन तले हाई प्रोफाइल भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या के बाद उभरे सवालों में भी दम तोडता नजर आता है। जिस बिहार में बीते पांच साल में 54 हजार अपराधियों के खिलाफ पुलिस-अदालत कार्रवाई करती है वहीं तीन साल से विधायक पर लगे यौन शोषण के आरोप पर पुलिस-प्रशासन खामोश रहती है और सत्ता इसे राजनीतिक साजिश करार देकर टालती है। उसका हश्र जब हत्या में तब्दील होता है और हत्यारी शिक्षिका बिना चेहरा छुपाये बेखौफ बोलती है कि उसे फांसी दे दी जाये तो समझना जरूरी है कि लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र के हर पाये के प्रभावी अपनी सत्ता की हिफाजत को ही लोकतंत्र क्यों कहने लगे हैं। अगर सत्ता का यह प्रभावी तबका खुद की गोलबंदी को ही लोकतंत्र कहने लगा है तो उसकी वजह क्या है। और लोकतंत्र की परिभाषा अगर सिर्फ सत्ता में बसा दी गयी है तो बड़ा सवाल अब लोकतंत्र का नहीं देश का है जिसके आगे संसदीय व्सवस्था भी छोटी है और संविधान भी कमजोर। इसलिये जो कानून विनायक सेन को राजद्रोही करार देता है उस कानून पर अंगुली उठाने से पहले सत्ता पर अंगुली उठाने की तमीज सीखनी होगी नहीं तो कल ऊंची अदालत विनायक सेन को रिहा कर देगा और फिर समूची बहस सत्ता की परछाई तले लोकतंत्र की परिभाषा तले दबकर सुधार का सवाल खड़ा कर खामोश हो जायेगी।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5