tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-81553795568401642632010-12-11T14:41:00.003+05:302010-12-11T14:46:56.421+05:30बदलते दौर में कांग्रेस की मुश्किल<p>कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत क्या है। स्पेक्ट्रम घोटाला। कारपोरेट घरानों का फंसना। सीवीसी की नियुक्ति पर अंगुली उठना। कॉमनवेल्थ से लेकर आदर्श सोसायटी का घपला, कांग्रेसी नेताओं की अगुवाई में होना। आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी का बगावत करना। करुणानिधि का चेताना कि गठबंधन का टूटना दोनों के लिये घातक होगा। या फिर शरद पवार का सरकार को धमकाना कि कारपोरेट जगत के खिलाफ भ्रष्टाचार के नाम पर कार्रवाई सही नहीं है। या फिर मुश्किलों के इस दौर में कांग्रेस पार्टी में ही वह एकजुटता ना होना जैसा अक्सर इससे पहले के मुश्किल भरे मौके पर नजर आती थी। जाहिर है सोनिया गांधी ने सोचा भी ऐसा ना होगा कि 2004 के जनादेश से कहीं ज्यादा मजबूत होकर जब 2009 का जनादेश कांग्रेस के पक्ष में आने के बाद एक साल में संकट कुछ इस तरह आयेगा कि मनमोहन की मि. क्लीन छवि हो या "काग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' का नारा भी टूटता सा दिखने लगेगा। </p><p>असल में कांग्रेस की मुश्किलों या देश के सामने आये भ्रष्टाचार के संकट को समझने के लिये जरुरी है कि इस दौर में सरकार के कामकाज के तरीके और राजनीतिक दलों के संगठन के तौर-तरीकों को समझा जाये। अब सवाल सिर्फ जनता के बीच से निकले नेता के प्रधानमंत्री बनने की जगह सीईओ सरीखे एक नौकरशाह के प्रधानमंत्री बनने का नहीं है। बल्कि हर मंत्री की अपनी सत्ता है। और हर मंत्रालय के जरिये कोई भी मंत्री अरबों-खरबों का खेल जिस आसानी से विकास के नाम पर कर सकता है, उसमें किसी भी मंत्री के लिये राजनीतिक दल की जरूरत एक तमगे से अलग नहीं होती है। और यह सच केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों का है। यानी इस दौर में खुले बाजार को जिस माल की जरूरत है और वह उपभोक्ता से लेकर खनिज संसधानों और सस्ते मजदूर से लेकर सस्ते इन्फ्रास्ट्रचर में सिमटा हुआ है, और यह सब पूरा करने में भारत सक्षम है तो फिर हर सत्ताधारी की अपनी सत्ता हो ही जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता।</p><p>यहां सवाल सिर्फ ए.राजा का नहीं है जिन्होंने स्पेक्ट्रम के जरिये देश को चूना लगाया लेकिन पूंजी का जुगाड़ कर डीएमके में अपना कद बढाया और राजनीतिक तौर पर अपने भविष्य को भी सुरक्षित कर लिया। बल्कि कांग्रेस के नेता जो भी मंत्री है या फिर पहले किसी ना किसी रूप में सत्ता संभाल चुके है, उनकी हैसियत पार्टी में कैसी है यह विलासराव देशमुख या गुलाम नबी आजाद या फिर दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं को देखकर समझा जा सकता है। क्या कोई यह सोच भी सकता कि महाराष्ट्र में शिवसेना की ही सत्ता क्यों ना आ जाये और मध्यप्रदेश में भाजपा की ही सत्ता क्यों ना हो लेकिन विलासराव देशमुख या दिग्विजय सिंह का काम उनके राज्यों में पूरा नहीं होगा। असल में सत्ता जिस तेजी से मंत्री या मुख्यमंत्री के लिये पूंजी की उगाही करती है और कारपोरेट के साथ नेटवर्किंग कराती हैं उसमें सत्ता जाने के बाद भी निजी सत्ता हर पूर्व मंत्री की बरकरार रहती है। यह सत्ता से आगे स्थायी सत्ता होती है।और बीते दस साल का सच यही है कि हर राजनीतिक दल ने सत्ता भोगी है। यानी सत्ताधारियों को लेकर विपक्ष के किसी नेता को देखकर यह सोचना भी बेमानी है कि विपक्षी नेता का काम आज की तारीख में हो नहीं सकता, क्योंकि वह सत्ता में नहीं है।</p><p>राजनीतिक गलियारे में हर कोई जानता है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज अपने किसी भी काम को लेकर और किसी का नहीं बल्कि सुपर पीएम सोनिया गांधी या राहुल गांधी से बात करने की ताकत रखती है। साथ ही काम पूरा कराने की ताकत भी। इसी राजनीतिक गलियारे में हर काग्रेसी भी जानते है कि पी.चिदंबरम का बेटा अब राजनीतिक मैदान में कूदने के लिये तैयार है और चिदंबरम भी इस तैयारी में है कि तमिलनाडु में अब कांग्रेस उनके हिसाब से चले। और पूंजी की कमी है नहीं। यह ठीक वैसे ही है जैसे कर्नाटक में येदियुरप्पा आरएसएस से निकलकर सीएम बनने के बाद भाजपा की दिल्ली चौकड़ी को भी चेताने से नहीं घबराते कि उन्हें बेदखल किया तो वह भाजपा को ही बेदखल कर देंगे। </p><p>असल में यहीं से जगन रेड्डी का सवाल भी खड़ा होता है और 10 जनपथ की कोटरी का भी। जगन रेड्डी अगर आंध्र प्रदेश में अब कांग्रेस के लिये एक चेतावनी है तो फिर इसी तरीके से भविष्य में हरियाणा या पंजाब में भी कोई चेतावनी खडी हो सकती है, क्योंकि आंध्रप्रदेश में जब वायएसआर ने अपने बूते कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचा दिया तो वायएसआर सिर्फ सीएम नहीं थे बल्कि आंध्र प्रदेश में काग्रेस के संगठन भी वही थे। यानी काग्रेस ने कभी इसकी तैयारी नहीं कि संगठन भी साथ-साथ खडा होना चाहिये । लेकिन कांग्रेस इस हकीकत को भी जानती समझती है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही असल में पार्टी-सरकार-संगठन है, इसलिये सोनिया की खामोशी के वक्त सीताराम केसरी ने कैसे कांग्रेस का बंटाधार किया यह भी किसी से छुपा नहीं है। और सोनिया के खड़े होते ही कैसे झटके में बिखरी कांग्रेस एक लगने लगी यह भी कांग्रेसियो ने ही देखा है। मगर सरकार के कारपोरेटिकरण के दौर में पार्टी जनता से जुडे रहे और मंत्री-सीएम भी इसकी काट किसी के पास है नहीं, इसलिये राज्यो में सीएम का मतलब सिर्फ सरकार नहीं होता बल्कि बल्कि पार्टी-संगठन भी होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य की आकूत संपत्ति पर सीएम का बैठना होता है और राज्य के लिये पूंजी प्रवाह ही कैडर को नेता से जोड़ता है। यह वैसे ही है जैसे हरियाणा में फिलहाल भूपिन्दर सिंह हुड्डा सर्वोसर्वा है और पंजाब में अमरिन्दर सिंह। वही पार्टी के नेता भी हैं और संगठन भी। यानी कल कोई संकट यहां खडा होगा तो सत्ता ना मिलने पर कांग्रेस के सामानांतर इन्हीं का कोई दूसरा खड़ा हो जायेगा। </p><p>वहीं मुश्किल यह है कि सोनिया गांधी की कटोरी में कोई ऐसा है नहीं जिसने राज्य संभाला हो। इसलिये किचन कैबिनेट के सर्वेसर्वा अहमद पटेल के लिये किसी भी राज्य को कांग्रेस के लिये चैक एंड बैलेस करने का मतलब चंद चेहरों पर निगरानी रखना या सौदेबाजी करना ही होता है। ऐसे में जब चेहरे ही सत्ता और 10 जनपथ के प्रतीक बन जाये तो फिर संगठन गायब हो जाता है और टकराव की स्थिति में इन चेहरों के लिये बगावत का मतलब सिर्फ अपने चेहरों को बनाये रखना भर ही होता है क्योंकि उनके पीछे समर्थकों की ऐसी फौज होती है जो उसी नेता के पूंजी प्रवाह पर टिकी होती है। और इस भीड़ को गंवाने का मोह कोई नेता छोडना नहीं चाहता है। क्योंकि उसे पता होता है कि उसका चेहरा बना रहा तो पिर पार्टी खुद ब खुद उससे सौदेबाजी कर लेंगी। और जब तक टकराव नहीं होता इन्हीं समर्थकों को संगठन और कैडर माना जाता है। टकराव हुआ तो शरद पवार या ममता बनर्जी का उदाहरण तो सामने हैं ही। यानी राजनीतिक पार्टी जो पहले संगठन के बल पर खडी होती थी अब वह सत्ता और नेता को महत्व देने लगी हैं। जबकि इन परिस्थितियों के बीच मनमोहन सिंह के इक्नॉमिक्स के असर को भी समझना होगा जिसके जरिये हर मंत्रालय को संभालने वाले मंत्री की एक अपना इम्फ्रास्ट्क्चर खुद-ब-खुद उसके पद संभालते ही बन जाता है। और जनता के बीच से निकल कर लुटियन्स की दिल्ली में पहुंचते ही उसके मंत्रालय की कीमत किस योजना को लेकर कितनी है यह बाहरी ताकतें तय करने लगती हैं। </p><p>मसलन, पहली बार जब 2004 में टीआरएस के चंद्रशेखर राव मंत्री बने तो वह अपने मंत्रालय को समझ भी पाते उससे पहले ही गुजरात के अलग पोर्ट को लेकर उनसे सौदे करने कारपोरेट की एक टीम हैदराबाद पहुंच गयी और डेढ हजार करोड का खुला ऑफर भी दे आयी। सौदा हुआ या नहीं यह तो सामने नहीं आया लेकिन मंत्री पर छोड जब दोबारा चन्ध्रशेखर राव अपनी पार्टी को बिखरने से रोकने के लिये संघर्ष में उतरे तो उनके पास जनाधार से ज्यादा पूंजी थी। यह स्थिति देश के किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री को लेकर कैसे हो सकती है यह राजा, येदियुरुप्पा, जगन से लेकर सीएम पहकर शिवसेना छोड़ने वाले नारायण राणे तक से समझा जा सकता है। लेकिन नेता और मंत्री पद के पूंजी प्रवाह से कही ज्यादा ताकतवर इस दौर में कारपोरेट घराने हुये है, जो असल में देश को "बनाना रिपब्लिक" की तरफ ले जा रहे है, इससे कांग्रेस या सरकार कैसे निपटेंगी बड़ा सवाल यहीं पैदा हो गया है। यह तो संयोग है कि नीरा राडिया के टेप एक ऐसे दौर में सामने आये जब देश में भ्रष्टाचार को लेकर संघर्ष तूल पकड रहा है और लोकतंत्र का हर खम्भा दागदार भी नजर आ रहा है और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ मैदान में हौले-हौले उतरने की कोशिश भी कर रहा है । इसमें सफलता कहां तक मिलेगी यह तो दूर की गोटी है, लेकिन कांग्रेस की अब बड़ी मुश्किल यह है कि जिस मनमोहन इक्नामिक्स ने कारोपरेट घरानों के लिये रेड कारपेट बिछायी वही कारपोरेट सत्ता-सरकार से लेकर पार्टी और संगठन तक में घुन की तरह जा मिला है। नौकरशाह की नियुक्ति से लेकर मंत्री बनाने और पार्टी में ओहदा दिलाने से लेकर संगठन खडा करने में चंदा देने तक में कारपोरेट शामिल हो चुका है। </p><p>सोनिया गांधी के लिये यह मुश्किल घड़ी इसलिये ज्यादा है क्योंकि उन्हें राजीव गांधी का वह दौर याद आ रहा होगा जब धीरुभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया के संघर्ष में सरकार और जांच एंजेसी भी भागीदार बन गयी थी। तब के वित्त मंत्री वीपी सिंह से लेकर इन्वोस्मेंट टायरेक्ट्रोरेट के भुरेलाल की भी एक भूमिका थी और उस दौर में कैसे कारपोरेट युद्ध में दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार पांच साल पूरे नहीं कर पायी और चुनाव हुये तो देश ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नया नायक गढ दिया था। बाईस साल बाद कमोवेश वही स्थिति फिर फिर से खड़ी हो रही है क्योंकि कांग्रेस के सबसे कट्टर सहयोगी दुश्मन शरद पवार ही अब सरकार को पाठ पढा रहे है कि कारपोरेट घरानो को शक की बिला पर ना घेरें इससे गठबंधन की स्थायीतत्वता पर असर पड सकता है। यानी भ्रष्टाचार में फंसा कारपोरेट ही अब सियासत को ही अपनी बिसात बनाने की दिशा में ऐसे वक्त जा रहे हैं जब सोनिया गांधी या कहें काग्रेस राहुल गांधी को ताजपोशी के लिये तैयार कर रहा है। कारपोरेट अर्थव्यवस्था, चंदे पर टिका संगठन और चेहरों पर टिकी जो कांग्रेस कल तक मजबूत थी अब यही सब वजहें उसे को खोखला बना रही हैं।</p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-29157499556936155752010-10-27T11:41:00.002+05:302010-10-27T12:03:24.364+05:30गांधी से गांधी परिवार का फर्ककरीब दस करोड़ रुपये की रैली में सवा लाख लोगो का जुगाड कोई सस्ता सौदा नहीं है। वह भी ऐसी जगह जिसकी पहचान लंगोटी और चरखा कात कर खादी बनाते हाथ हो। जहां सवा लाख से ज्यादा किसान सिर्फ दो जून की रोटी ना जुगाड़ पाने की जद्दोजहद में खुदकुशी करने पर आमादा हों। और बीते 10 साल में नौ हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर भी चुके हों। ऐसी जगह दो दर्जन से ज्यादा अरबपति और एक हजार से ज्यादा करोडपति अगर जुटे तो फिर रैली के लिये दस करोड रुपये का खर्चा कहने पर शर्म ही महसूस हो सकती है। और यह सब बातें अगर गांधी के वर्धाग्राम में गांधी परिवार की रैली को लेकर बात हो रही हों तो शर्म जरूर आ सकती है। कांग्रेस के सवा सौ बरस पूरे होने पर 15 अक्टूबर को वर्धा में जो नजारा नजर आया उसमें राहुल गांधी के उन सवालो का जवाब छिपा था जिसे वह लगातार यह कहकर देश नाप रहे है कि देश के भीतर बनते दो देश को कैसे पाटा जा सकता है और राजनीति में युवा आयें तो फिर राजनीति से बेहतर कोई माध्यम है नहीं कि इस विषमता को दूर करने का।<br /><br />पहला भारत वर्धा में मौजूद है जहां की प्रति व्यक्ति आय सालाना 18 से 20 हजार रुपये है। यानी महीने का डेढ हजार। लेकिन, सरकारी आंकड़ा यह भी बताता है वर्धा में साठ फीसदी ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। कुल 32 फीसदी लोग बीपीएल में हैं। और यहां नरेगा से भी बडा काम या कहें रोजगार अपनी जमीन को किसी बिल्डर या उद्योगपति के हवाले कर कंस्ट्रक्शन मजदूरी करना है। खेती के लिये बीज और खाद से सस्ता और सुलभ सीमेंट और लोहा है। वर्धा शहर में सिर्फ 18 दुकानें बीज खाद की हैं मगर सीमेंट-लोहे की छड़ या कंस्ट्रक्शन मैटेरियल की नब्बे से ज्यादा दुकानें यहां चल रही हैं। खासकर बीते तीन साल में यहां जब से थर्मल पावर प्रोजेक्ट का काम शुरु हुआ है तब से खेतीहर किसानों के मजदूर में बदलने की रफ्तार में 20 फीसदी की तेजी आ गयी है। पहले वर्धा के बारबडी गांव की जमीन को यूजीसीएल ने सौदेबाजी में हड़पा। फिर दुकान-मकान का खेल इसके अगल-बगल के छह गांव को निगल रहा है। <br /><br />करीब साढ़े सात सौ किसानों ने अपनी जमीन सरकारी बाबूओं के कहने पर बेच डाली की अब यहां खेती हो नहीं सकती। यह अलग मसला है कि कभी राजीव गांधी ने वर्धा के ही भू-गांव में यह कह कर स्टील प्लांट लगने नहीं दिया था कि वर्धा बापू की पहचान है और यहां खेती नष्ट की नहीं जा सकती। इसलिये कंक्रीट की इजाजत नहीं दी जायेगी। उसी का असर है कि बापू कुटिया हैरिटेज साइट बन गया। और नरसिंह राव के दौर तक में किसी कंपनी की हिम्मत नहीं हुई कि वह वर्धा में उद्योग लगाने की सोचे जिससे खेती नष्ट हो या फिर वहां के पर्यावरण पर असर पड़े। <br /><br />लेकिन दूसरे भारत का आधुनिक नजारा सोनिया गांधी की रैली में तब नजर आया जब बीस लाख से सवा करोड की गाडि़यां वर्धा में दौड़ती दिखीं और मंच से सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी सरकार भूख से लडने के लिये तैयार है। लिवोजीन से लेकर उच्च कवालिटी वाली मर्सिडिज और स्पोर्ट्स कार से लेकर दुनिया की जो भी बेहतरीन गाड़ी कोई भी सोच सकता है वह सभी गाडियां 15 अक्टूबर को वर्धा पहुंचीं। दर्जनों अरबपति और हजारों करोडपति कांग्रेसी नेता-कार्यकर्ताओं की फौज जो विदर्भ की है वह सभी एकजूट हो जाये तो देश की चकाचौंध कितनी निखर सकती है इसका खुला नजारा नागपुर से वर्धा की सड़क पर नजर आ रहा है। लेकिन वर्धा का नाम सेवाग्राम भी है और रैली झंडा यात्रा थी तो अरबपति दत्ता मेधे हो या फिर करोडपति शैला पाटिल। और इन सब के बीच में हजारों कांग्रेसी करोडपति कार्यकर्ता। <br /><br />करीब दो से चार किलोमीटर सभी पैदल चले। यह देश के लिये कुछ सेवा करने का कांग्रेसी जज्बा था। कुछ करोडपति कार्यकर्ता तो जनता के बीच भी बैठे। संयोग से यह भी खबर बनी और करोडपति कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के अखबारों में यह छपवाने में भी कोताही नहीं बरती कि वह दो किलोमीटर चरखा छपा तिंरगा लेकर चले। लेकिन किसी ने भी यह नहीं बताया कि नागपुर से वर्धा का 70 किलोमिटर का रास्ता चय करने के लिये उन्होने मुबंई, नासिक, पुणे,औरगाबंद से लेकर हर जिले से अपनी अपनी गाडि़यां पहले ही नागपुर हवाई अड्डे पर लगवा ली थी। और महाराष्ट्र सरकार का पूरा कांग्रेसी मंत्रिमंडल ही उस दिन नागपुर से वर्धा के बीच सोनिया गांधी को सलामी देने जुटा जिसमें राज्य सरकार का खजाना किताना खाली हुआ इसका ना कोई हिसाब है और नाही किसी ने कैमरे के सामने इसकी उस तरह गुफ्तगु की जैसी रैली के लिये दस करोड जुगाडने की गुफ्त-गु प्रदेश अध्यक्ष मणिकराव ठाकरे और नागपुर के कांग्रेसी नेता सतीश चतुर्वेदी ने हल्के अंदाज में कर ली। <br /><br />लेकिन इस दो भारत से इतर भी एक तीसरे भारत की तस्वीर भी उभरी। जब देश के रक्षा राज्य मंत्री पल्लमराजू अचानक बिना कार्यक्रम नागपुर पहुंचे और नागपुर के सोनेगांव वायुसेना स्टेशन से लेकर अम्बाझरी के आयुध फैक्ट्री में इस बिना पर घुम आये कि जिस वायुसेना के जहाज को लेकर वह दिल्ली से नागपुर पहुंचे उसकी उपयोगिता कुछ दिखायी जा सके। यानी किसी सरकारी बाबू की तरह सरकारी वाहन का इस्तेमाल कर फाइल भरने सरीखा काम ही रक्षा राज्य मंत्री पल्लमराजू ने किया। असल में वायुसेना का विमान देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर दिल्ली से नागपुर पहुंचा था तो आरोपों से बचने के लिये रक्षा राज्य मंत्री भी नागपुर चल पडे। और नागपुर के रक्षा विभाग में जहां-जहां वह पहुंचे वहां अधिकारी कम और कुर्सियां ही ज्यादा थी। सोनिया ने पौने दो घंटे वर्धा में बिताये तो रक्षा राज्य मंत्री ने कुर्सियों के साथ बैठक और नागपुर शहर में कार से सफर में पौने दो घंटे बिताये। सोनिया वर्धा से नागपुर लौटीं और वापस वायुसेना के विमान में सवार होकर दिल्ली लौट आयीं।<br /><br />यानी किसान-मजदूर पर भारी नेता-मंत्री और उसपर भारी केन्द्र सरकार -सोनिया गांधी। इस तीन भारत में किस से कौन सा सवाल ऐसा किया जा सकता है जिसमें यह लगे कि कोई तो है जो इन दूरियों को पाटने की हैसियत रखता है। या फिर तीन भारत की इमारत ही जब ऊपर से शुरू होती है तो फिर नीचे के किसान-मजदूर सेवाग्राम में जाकर बापू के सामने क्या कहते होगें। क्योकि वर्धा पहुंच कर सबसे पहले सोनिया गांधी भी बापू कुटिया ही गई थी, जहां उन्होंने चरखा कातते बापू भक्तों को देखा। बापू को याद किया। मिट्टी और घास-फूस से बने बापू कुटिया के दर्शन किये। उन तस्वीरों को देखा जो 1936 से 1943 तक सेवाग्राम में रहते हुये बापू काम किया करते थे। आत्याधुनिक हवाई गाडियों पर सवार कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने माना कि दस करोड रुपये में झंडा रैली सफल हुई क्योंकि बापू से कांग्रेस को जोडकर इससे बेहतर याद करने का कोई तरीका हो ही नहीं सकता है। सेवाग्राम के किसान मजदूर भी गांधी परिवार की शख्सियत सोनिया गांधी को देखकर तर गये क्योकि उन्होने माना कि बापू कुटिया में लिखी बापू की उस टिपप्णी को भी सोनिया गांधी ने जरुर पढा होगा जहां लिखा है , देश को असली आजादी तभी मिलेगी जब किसान का पेट भरा होगा और देश स्वाबलंबी होगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-92070590253547427322010-10-15T16:50:00.003+05:302010-10-15T16:55:24.130+05:30आश्रम से कंक्रीट में बदल चुकी है बिहार कांग्रेसहो-हल्ला और जोर जोर की आवाज सुनकर सदाकत आश्रम के पीछे जैसे ही घुसा तो सैकड़ों पार्सल पैकेटों पर नजर पड़ी। इन पैकेटों को लेने को लेकर कुछ कांग्रेसी चिल्ला रहे थे। किसको कितने पार्सल देने हैं यह फाइल लिये एक महिला बता रही थी, बल्कि वो बाकियों पर चिल्ला रही थी। सैकड़ों की तादाद में जमीन पर बिखरे पड़े इन पार्सलों में है क्या... पूछने पर पता चला कि दो किलोग्राम से दस किलोग्राम तक के इन पार्सल पैकटों में चुनाव प्रचार की सामग्री है। जो हर कांग्रेसी उम्मीदवार को बांटी जा रही है। जिसमें गांधी परिवार के सदस्यों की ही तस्वीर,पोस्टर या बैनर है। इसके अलावा बैच और गले में लपेटने के लिये कांग्रेसी गमछा भी है, जिसमें गांधी परिवार की ही तस्वीर है। इस हंगामे को सुनता या कुछ और जानना चाहता, इससे पहले अचानक कांग्रेस हेडक्वार्टर के पिछवाड़े में टीन के शेड तले गदंगी और कूड़े के बीच पड़ी राजीव गांधी की मटमैली मूर्ति पर नजर पड़ी। शेड के नीचे एक एम्बेसडर कार लगी थी और पास कूड़े तले राजीव गांधी की डेढ फुट की इस मूर्ति की छांव में एक कुत्ता भी मजे में सो रहा था। <br /><br />असल में यह पूरी तस्वीर ही बिहार में कांग्रेस के हाल को बयां कर रही थी। जिस जगह पर पार्सल में प्रचार के लिये गांधी परिवार को लेने की होड़ थी वह सदाकत आश्रम का मजबूत कंक्रीट का हिस्सा था। जबकि जिस टीन के शेड में राजीव गांधी की मूर्ति आंसू बहा रही थी, वह 1966 से पहले के कुछ बरस के दौरान सदाकत आश्रम की पहचान समेटे हुये था। पता चला कि जिस शेड में आज राजीव गांधी की मूर्ति तले कुत्ता मजे में सो रहा है कभी इसी शेड पर खपरैल थी और इसके तले सैकड़ों कांग्रेसी भी सोये हैं। 1962 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन पहली और आखिरी बार पटना में हुआ था। तब सदाकत आश्रम की इमारत तैयार नहीं हुई थी। लेकिन, सदाकत आश्रम की नींव इसी टीन के शेड में थी और बडी तादाद में कांग्रेसियों का हूजुम यहां पुआल-दरी और सफेद चादर के ऊपर पटा पडा रहता था। 1962 में नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस के अध्य़क्ष थे और नेहरू ने अपने भाषण में चंपारण की यात्रा के जरिये महात्मा गांधी को याद किया था लेकिन राजेन्द्र प्रसाद पर खामोशी बरती थी जिनकी मौजूदगी से सदाकत आश्रम आबाद हुआ था। इस अदिवेसन के अगले ही साल 1963 में राजेन्द्र प्रसाद की मौत हुई और सदाकत आश्रम में सूनापन छा गया। <br /><br />मगर 2 अक्टूबर 1966 को जैसे ही सदाकत आश्रम की कंक्रीट की इमारत का उद्घाटन हुआ वैसे ही सदाकत आश्रम का मिजाज बदला और आश्रम दफ्तर में तब्दील हो गया। लेकिन सदाकत आश्रम की पहचान बदलने के 44 साल बाद कांग्रेस की इबारतें भी बदल जायेंगी...यह किसने सोचा होगा। कंक्रीट के बने सदाकत आश्रम की पहली मंजिल में एयर कंडीशनर फिट कर रहे रामानुज को इस बात से परेशान है कि तीन एसी तो वह फिट कर देंगें लेकिन करंट कहा से आयेगा इसकी कोई व्यवस्था बिल्डिंग में है ही नहीं । यानी पावर प्वाइंट है लेकिन उसमें करंट नहीं है यानी तार तक नहीं है। यह एसी बिहार प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष लल्लन कुमार के कमरे में लग रहा है। जहां तक करंट यानी पावर नहीं पहुंचा है। लेकिन, कांग्रेसियों को क्या लगने लगा है कि अब बिहार में पावर उनके हाथ आ सकता है। शायद सदाकत आश्रम की इमारत की तरह ही बिहार में कांग्रेस भी है। एसी है तो पावर नहीं...इसी तरह पैसा है लेकिन उम्मीदवार नहीं। कोई नेता ऐसा नहीं जिसके आसरे मुद्दों को लेकर आस जगायी जा सके या फिर कांग्रेस में आस जगे कि वह चुनावी दौड़ में है। दिल्ली की छांव तले बिहार में कांग्रेस को जगाने की कवायद का असर सिर्फ इतना है कि बाजार का ग्लैमर विकास की परिभाषा में जोड़ने की सोच प्रवक्ताओ में रेंगनी लगी है। <br /><br />दीवारों पर महात्मा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक के दौर के बीच तमाम उन कांग्रेसियो की तस्वीरें धूमिल हो चुकी हैं जिन्होंने बिहार में कभी कांग्रेस को खडा किया था। इसलिये उम्मीदवारों की होड़ चुनाव में जीतने या कांग्रेस की पैठ बढ़ाने से ज्यादा कांग्रेसी पैसे को कमाने पर है। उम्मीदवारों को 75 लाख रूपये लड़ने के लिये मिलेंगे...यह सच हो या शिगूफा लेकिन कांग्रेस का टिकट पाने के लिये असली होड़ की वजह यही है। क्योंकि सदाकत आश्रम का इतिहास किसी सूचना पटल की तरह एकदम सीढि़यों पर चढ़ने से पहले ही नजर आता है। जिसमें 1921 से लेकर 2010 तक के 37 अध्यक्षों को जिक्र है। बीते इक्कीस साल यानी 1989 से लेकर 2010 के दौरान कांग्रेस ने सबसे बुरे दिन बिहार में देखे हैं और इसी दौर में सबसे ज्यादा अध्यक्ष भी बने और बदले गये। 13 प्रदेश अध्यक्ष इन 21 साल में बने और हटे। लेकिन कोई भरोसे का चेहरा ऐसा नहीं मिला जो कांग्रेस की वैतरणी को पार लगा दे। <br /><br />1921 में पहले अध्य़क्ष मो. मजरुल हक थे और 90 साल बाद 2010 में अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कौसर हैं। लेकिन, मुस्लिमों का भरोसा बिहार में डगमगाया हुआ है। सिर्फ नाम के जरिये नुमाइंदगी किसी भी कौम में कैसे हो सकती है यह सवाल कोई आम मुस्लिम नहीं बल्कि टिकट की चाहत में सदाकत आश्रम पहुंचे बेलागंज के मो. इकराम और आरा के डॉ. अब्दुल मलिक भी खडा करते हैं। चुनाव के ऐलान से ऐन पहले बिहार प्रदेश अध्यक्ष बन महबूब अली कौसर इतनी हिम्मत नहीं दिखा पा रहे हैं कि वह सदाकत आश्रम में आकर बैठ जायें। कौसर ही नहीं पदों पर बैठे किसी भी कांग्रेसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वह जूते-चप्पल और गाली गलौज को रोककर कांग्रेसी परंपरा की दुहाई दे। सदाकत आश्रम के दरवाजे दरवाजे पर अपनी हूकुमती अंदाज में घुमते कांग्रेसी कार्यकर्ता जयलक्ष्मी तो सीधे कहती हैं, जो हो रहा है उसमें तो कांग्रेस का लालूकरण हो जायेगा। इसे रोकिये हर कोई राहुल गांधी और सोनिया गांधी की ओर ही टकटकी लगाये बैठा है। यहां ना कोई महिला है, ना कोई युवा, और ना ही कोई पुराना कांग्रेसी। जो धंधेबाज है, माफिया है वही टिकट ले जा रहे हैं। क्योंकि टिकट की भी कीमत लग रही है और कांग्रेसी खुश हैं कि पहली बार टिकटों को लेकर मारामारी है यानी कांग्रेस लोकप्रिय हो चली है। <br /><br />लेकिन कांग्रेस का सच तो कांग्रेस शताब्दी कक्ष तले भी रो रहा है। 14 अक्टूबर 1984 को चन्द्रशेखर सिंह ने शताब्दी कक्ष का उद्घाटन करते हुये कहा था अब कांग्रेस ही देश का सच है और देश के इतिहास के साथ कांग्रेस का इतिहास जुड़ चुका है और इस इबारत को मिटाने की हैसियत इस देश में किसी राजनीतिक दल की नहीं है। लेकिन शताब्दी कक्ष की चौखट पर ताश में रमे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को देख यही लगा कि सदाकत आश्रम एक आधुनिक आश्रम में बहल रहा है। और सदाकत आश्रम के गेट पर राहुल गांधी और सोनिया गांधी की लटकती तस्वीरों के पीछे बैनर-पोस्टर की दुकान लगाये आशीष सिंह ने यह कहकर आखिरी कील ठोंकी कि साहब इन तस्वीरों से काग्रेस की नैया बिहार में पार नहीं लगेगी इन्हे सशरीर आना होना। सशरीर मतलब.....मतलब सिर्फ भाषण नहीं... जुटना होगा खुद को बिहार से जोड़ना होगा। एक दिन में सौ रुपये का भी पोस्टर बैनर नहीं बिकता तो फिर काग्रेस पर बटन कौन दबायेगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-85478851247864083722009-05-21T10:30:00.000+05:302009-05-21T10:30:02.631+05:30मनमोहन, सोनिया और राहुल की "दीवार"1975 की प्रसिद्द फिल्म ‘दीवार’ का वह दृश्य याद कीजिये, जिसमें मंदिर में मां की पूजा के बाद अमिताभ और शशिकपूर दो अलग अलग रास्तों पर नौकरी के लिये निकल जाते हैं। अमिताभ एक ऐसे रास्ते चल पड़ता है, जहां पैसा है, सुविधा है। वहीं पैसा बनाने के इस धंधे में अपराध करते अमिताभ को रोकने के लिये उसी का भाई शशि कपूर सामने आता है। न्याय और अपराध के खिलाफ शशिकपूर की पहल को मां की हिम्मत मिलती है। अमिताभ मारा जाता है लेकिन उसका दम उसी मां की गोद में निकलता है, जिसकी हिम्मत से शशिकपूर अमिताभ पर गोली दागता है।<br /><br />कांग्रेस को लेकर जनादेश के डायलॉग भी कुछ इसी तरह की एक नयी राजनीति गढ़ रहे हैं। जिसमें मनमोहन और राहुल गांधी के कामकाज के रास्ते अलग अलग हैं। मनमोहन उस अर्थव्यवस्था से समाज को विकसित बनाने निकले हैं, जिसमें देश के भीतर दो देश बनने ही हैं। वहीं, राहुल देश के भीतर चौड़ी होती इस खाई को पाटना चाहते हैं। वह न्याय और सुशासन का ऐसा मेल राजनीति में चाहते हैं, जहां चकाचौंध से पहले सबका पेट भरा हुआ हो। और सोनिया राहुल को हिम्मत दे रही हैं।<br /><br />मनमोहन, राहुल और सोनिया गांधी की इस राजनीति को पांच साल के कामकाज के बाद ही ऐसी सफलता मिलेगी, यह उन राजनीतिक दलो ने सोचा भी न था जो मंडल-कमंडल के फार्मूले तले सत्ता की मलाई पिछले बीस साल से चखते रहे। असल में राहुल न्याय और सुशासन के जरिये जिस अलोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल उठा रहे हैं, वह मनमोहन की राजनीति का ही किया-धरा है। कह सकते है- पैसे से पैसा बनाने के मनमोहनोमिक्स के सामानांतर राहुल की रोजी रोटी की इमानदारी को कुछ इस तरीके से खड़ा किया गया है, जो बीस साल के फार्मूले को तोड़ सकती है। <br /><br />सवाल यह नही है कि इस बार चुनाव में जनादेश के जरिये वोटर ने ही राजनीतिक दलों की उस मुश्किल को आसान कर दिया जो गठबंधन के दौर में सौदेबाजी दर सौदेबाजी में उलझती जा रही थी। और हर राजनीतिक दल मुश्किल के दौर में हाथ खड़ा कर संसदीय राजनीति की त्रासदी भरी वर्तमान स्थिति का आईना सभी को दिखाता रहा। दरअसल, इस दौर में पहली बार कांग्रेस के भीतर ही उस राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयास शुरु हुआ, जिसमें कांग्रेस के महज बड़ी पार्टी होने भर का मिथ टूटे और एकला चलो की रणनीति का राजनीतिक प्रयोग सफल हो। लेकिन सत्ता तक पहुंचने और सत्ता चलाने की चुनौती अब उसी दो राहे पर कांग्रेस को खड़ा करेगी, जैसे अमिताभ को अंडरवर्ल्ड की कुर्सी ऐसे वक्त मिलती है, जब शशिकपूर को पुलिस की नौकरी इधर उधर भटकने और दर दर नौकरी के लिये ठोंकरे खाने के बाद मिलती है । मनमोहन सिंह की जीत उस अनिश्चय भरे माहौल से निजात पाने वालों को सुकून दे रही है, जो आर्थिक मंदी के दौर में लगातार सबकुछ गंवाते हुये समझ ही नहीं पा रहे थे कि राजनीति का उलटफेर उन्हें खुदकुशी की तरफ न ले जाये । उसपर वामपंथियो की हार ने उन्हे उल्लास से भर दिया। वजह भी यही है कि जनादेश के बाद सोमवार को जब शेयर बाजार खुला तो एक मिनट में तीन हजार करोड के वारे-न्यारे का लाभ छह लाख करोड रुपये तक जा पहुंचा। <br /><br />जाहिर है यह सलामी मनमोहनोमिक्स को है, लेकिन यह चकाचौंध राहुल की राजनीति के लिये टीस भी है। राजनीतिक तौर पर जो प्राथमिकता मनमोहन सिंह की है, उसी पर तिरछी रेखा की तरह राहुल की प्राथमिकता उभरती है। मनमोहन सिंह को मंदी का डर लोगों के जहन से निकालना है। सरकारी पूंजी के जरीये बेल-आउट की व्यवस्था पहले करनी है फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर की मजबूती का सवाल उठाकर उन सेक्टरों को मजबूती देनी है, जो मंदी की मार से निढाल हैं। अंतराष्ट्रीय बाजार से आहत निर्यात करने वालो के मुनाफे को देश के भीतर की अर्थव्यवस्था से भी जोड़ना है और बीपोओ से लेकर रोजगार की उसी लकीर को मजबूत करते हुये दिखाना-बताना है, जिससे राहुल के चकाचौंध युवा तबके का सपना बरकरार रहे। इन सवालो में आंतरिक सुरक्षा से लेकर शेयर बाजार की गारंटी सुरक्षा का ढांचा भी खड़े करना है, जिससे लचीली अर्थव्यवस्था की मजबूती नजर आने लगे। <br /><br />वहीं, राहुल गांधी का राजनीतिक संवाद ठीक उसके उलट है। सरकार का पैसा आम आदमी तक बिना रोक-टोक के पहुंच जाये, इसकी व्यवस्था उन्हें पहले करनी है। इस व्यवस्था का मतलब है नौकशाही पर लगाम और सामूहिक जिम्मदारी का खांचा खड़ा करना। दूसरा सवाल दलित-पिछड़ों की रोजी रोटी के जुगाड़ से लेकर रोजगार की व्यवस्था का एक ऐसा खांका खड़ा करना है, जो नरेगा से आगे ले जाये और सामाजिक विकास में एक तबके को दूसरे तबके से जोड़ सके। यह ग्रामीण परिवेश में स्वालंबन देने सरीखा भी है। किसान को बाबुओ की फाइल से होते हुये मुख्यधारा से जोड़ना कितना मुश्किल काम है, इसका एहसास राहुल गांधी को विदर्भ में किसानों से मुलाकात में भी मिला होगा। जहां मनमोहन सरकार का राहत पैकेज किसानों को आहत ज्यादा कर गया। खुदकुशी करने वाले किसानो की संख्या में पैकेज के ऐलान के बाद इजाफा हो गया। असल में राहत के नाम पर बडे उघोगों को ही राहत मिल सकती है, जो बेल-आउट को कम होते अपने मुनाफे से जोडते हैं, जबकि किसान के लिये राहत न्यूनतम जरुरत से जुड़ा होता है, जिसके बदले राजनीति अपना लाभ साधती है। राहुल की राजनीति को इसमें सेंध लगानी है। मनमोहन की प्राथमिकता औघोगिक विकास को बढाना होगा । जिसके लिये कृर्षि अर्थव्यवस्था पर चोट होगी। खेती योग्य जमीन भी उघोगो और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये खत्म की जायेगी। जबकि राहुल की सोच को अमली जामा पहनाने के लिये खेती से औघोगिक विकास को जोड़ना होगा। कृषि उत्पादन में वृद्दि किये बगैर औघोगिक विकास संभव तो है, लेकिन इसे भारत जैसे देश में बरकरार नही रखा जा सकता है। पारंपरिक अर्थव्यवस्था अपनानी होगी। कपास की पैदावार बढती है, तो कपडा उघोग बढ़ता है। जूट की पैदावार बढेगी तो जूट उघोग बढेगा। चीनी,खाने के तेल का उत्पादन,घी, बीडी, सरीखे सैकडो ऐसे उघोग है जो कृषि पर टिके है । <br /><br />राहुल की जिस थ्योरी को जनादेश मिला है उसमें देश की वर्तमान स्थिति पर सवालिया निशान लगाना भी है। क्योकि मनमोहनोमिक्स तले जो बेकारी, असमानता , गैरबराबरी बढ़ती गयी है, उससे समाज के भीतर आर्थिक कुंठा की स्थिति भी पैदा हुई है। इससे विकास भी रुका है और गतिरोध की स्थिति में कई ऐसे बुरे नतीजे भी निकले हैं, जो राहुल की राजनीति में भी दुबारा सेंध लगा सकते हैं। समाज के अंदर विभिन्न वर्ग है, आर्थिक विभाग है,धार्मिक अल्पसंख्यक गुट है और खास कर के प्रादेशिक और भाषिक गुट है, इनमें तनाव बहुत तेजी से बढ़ा है। <br /><br />सवाल यह नहीं है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था सिर्फ आर्थिक खुशहाली के जरीये समाधान देखती है। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की थ्योरी भी आर्थिक समृद्दि के जरीये सामाजिक, भाषिक, धार्मिक, राष्ट्रीय जैसे सारे सवालो का हल देख रही है । असल में राहुल की थ्योरी लागू हो जाये तो इन सवालो को सुलझाना आसान हो जायेगा। अन्यथा आर्थिक तनाव इतने ज्यादा हैं कि आंदोलन की राह पर हर तबका चल पड़ेगा और जिस जनादेश ने कांग्रेस को राजनीतिक राहत दी है, पांच साल बाद फिर बंदर बांट की राजनीति शुरु हो जायेगी । सवाल है कि अगर वाकई न्याय और सुशासन की हिमम्त राहुल को मिली है तो उसी कांग्रेस को उस भूमि सुधार के मुद्दे को छूना होगा, जिससे नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी तक ने परहेज किया। राहुल को भूमि-धारण सीमा के कानून को, वितरण के कानून को लागू करने की इच्छा शक्ति दिखानी होगी। जमींदारो का प्रभाव अभी भी अदालतो पर है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। राजनीति के सामानातंर अदालते भी पहल करें तो संपत्ति के प्रति मोह और पूंजीपरस्त वातावरण का वह मिथ टूट सकता है, जिसमें सत्ता और सरकार चलाने या डिगाने के पीछे पूंजी की सोच रेंगती रहती है। राजनीति ने तो हिम्मत नहीं दिखायी लेकिन जनादेश ने अर्से बाद यह महसूस कराया कि कारपोरेट सेक्टर की पूंजी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार कह तो सकती है, लेकिन बनाना उसी जनता के हाथ में है, जो सरकार की कारपोरेट नीतियो की मार तले दबा जा रहा है। <br /><br />सवाल है फिल्म दीवार में तो न्याय की बात करने वाले शशिकपूर को मेडल दे कर पोयेटिक जस्टिस किया गया लेकिन वहां अमिताभ की मौत में मां की हार भी छुपी रही। वहीं, कांग्रेस में सोनिया का संकट यही है कि जबतक मनमोहन की नीतियां हैं तभी तक राहुल गांधी के पोयटिक जस्टिस के सवाल हैं। ऐसे में राहुल जिस दिन कमान थामेंगे, उस दिन सोनिया जीत कर हारेंगी या हार कर जीतेंगी यह राहुल के अब के कामकाज पर टिका है, जिस पर जनता की बडी पैनी निगाह है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9