tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-172798991995727622009-12-07T07:44:00.000+05:302009-12-07T07:44:00.916+05:30प्रोजेरिया के बहाने राजनीति और मीडिया पर अमिताभ का आक्रोश है फिल्म "पा "<p class="MsoNormal">"<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">पा" को सिर्फ प्रोजेरिया के अक्स में देखना भूल होगी। प्रोजेरिया का मतलब सिर्फ </span>15 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">साल की उम्र में अस्सी साल का शरीर लेकर मौत के मुंह में समाना भर नहीं है। असल में प्रोजेरिया का दर्द मां-बाप का दर्द है। जब जिन्दगी के हर घेरे में पन्द्रह साल के बच्चे को लेकर हर मां-बाप के सपने उड़ान भरना शुरु करते हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">तब प्रोजेरिया से प्रभावित बच्चे के मां-बाप क्या सोचते होंगे....यह "पा" में नहीं है । किसी भी मां-बाप के लिये यह जानते हुये जीना कि उसके अपने बच्चे की उम्र सिर्फ </span>15 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">साल है लेकिन अपने बच्चे में उसे अपने भविष्य की छवि दिखायी दे जाये...यह भी "</span><span lang="HI"> </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">पा" में नहीं है। </span></p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI"><br />असल में "पा " में मां-बाप नहीं सिर्फ औरो है। जिसके एहसास मां-बाप पर हावी है। और असल में यहीं से लगता है कि फिल्म में अमिताभ बच्चन हैं, जो नायक है। जिसके भीतर का आक्रोश पर्दे पर आने के लिये कसमसा रहा है। और "पा " का नायक "औरो " प्रोजेरिया से नहीं बल्कि व्यवस्था की विसगंति को अक्स दिखाकर मरता है। खासकर राजनीति और मीडिया को लेकर जो जहर अमिताभ के भीतर अस्सी के दशक से भरा हुआ है...उसका अंश बार बार इस फिल्म में नजर आता है।<br /><br />फिल्म में "औरो" यानी अमिताभ अपने पिता अभिषेक बच्चन</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">जो कि युवा सांसद बने हैं, उनके सपनों के भारत पर कटाक्ष कर उस राजनीति को आईना दिखाने की कोशिश करते हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">जिसे संकेत की भाषा में समझे तो राहुल गांधी की छवि से टकराती है। और अगर अमिताभ बच्चन के ही अक्स में देखें तो </span>1984 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">में राजीव गांधी के कहने पर राजनीति में सबकुछ छोडकर एक बेहतर समाज और देश का सपना पाले अमिताभ का राजनीतिक चक्रव्यू में फंसने की त्रासदी सरीखा लगता है। अमिताभ </span>1988-89 <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI">में राजनीति के चक्रव्यूह को तोड़कर फिल्मी नायक की तरह राजनीति छोड़ना चाहते थे। लेकिन उस दौर में मीडिया ने भी उनका साथ नहीं दिया। और शायद पहली बार अमिताभ उसी वक्त समझे कि मीडिया के ताल्लुक राजनीति से कितने करीबी के होते हैं। और सही-गलत का आकलन मीडिया नहीं करता। इसलिये "पा" में भी युवा सांसद की भूमिका निभाते अभिषेक पारंपरिक राजनीति को अपनाने की सीख देने वाले अपने पिता परेश रावल के सुझाव को नहीं मानते बल्कि मीडिया से उसी की भाषा में दो -दो हाथ करने से नहीं कतराते, जो वह बोफोर्स कांड के दौर में करना चाहते थे।<br /><br />इतना ही नहीं इलाहबाद के सांसद के तौर पर इलाहबाद को लेकर विकास की जो सोच अमिताभ ने </span>1985-88 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">में पाली</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">उस पर वीपी सिंह ने जिस तरह रन्दा चला दिया। और इलाहबाद में बनाये जाने वाले पुल और झोडपपट्टी को लेकर विकास योजना में जिस तरह वीपी सिंह ने अंडगा लगाया, उस नैक्सेस को नये अंदाज में दिखाते हुये उसे तोड़ने की कोशिश अभिषेक के जरिए फिल्म में की गयी है । मीडिया और राजनीति को लेकर अमिताभ अपने आक्रोश को दिखाने की खासी जल्दबाजी में इस फिल्म में नजर आते हैं।<br /><br />राष्ट्रपति भवन जाने के लिये औरो की बैचैनी की वजह तो फिल्म नहीं बताती लेकिन राष्ट्रपति भवन पहुंचकर भी राष्ट्रपति भवन देखने से ज्यादा बाथरुम जाने की जरुरत यानी शिट के प्रेशर के आगे राष्ट्रपति भवन ना देखने का अद्भुत तरीका अमिताभ ने निकाला, जो झटके में अमिताभ के उस निजपन को उभारता है जो राजनीतिक व्यवस्था से घृणा करता है। सत्ता जिस तर्ज पर सुरक्षा घेरे में रहती है, उस पर भी सीधा हमला करने से औरो यानी अमिताभ कोई मौका नहीं चूकते। सुरक्षाकर्मियों को नेता किस तरह रोबोट बना देते हैं और अमिताभ उसके मानवीय पक्ष में जिन्दगी की न्यूनतम जरुरतों को जिस तरह टटोलते हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">उसे देख बरबस </span>1984 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">में राजनेता बने अमिताभ बच्चन याद आ जाते हैं जो नार्थ-साउथ ब्लाक से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय और घर के सुरक्षा घेरे से उस दौर में हैरान परेशान रहते थे। अक्सर राजीव गांधी से मिलने जाते वक्त अमिताभ को इसी बात की खासी कोफ्त होती थी कि सुरक्षा घेरे का मतलब है क्या । खासकर तब जब इंदिरा गांधी की हत्या सुरक्षा घेरे में सुरक्षाकर्मियों ने ही कर दी। इसलिये फिल्म का नायक ओरो यानी अमिताभ बार बार सांसद बने अभिषेक बच्चन के सुरक्षार्मियों की जरुरत या उनकी मौजूदगी पर ही सवालिया निशान लगाने से नहीं चूकता।<br /><br />वैसे, यह कहा जा सकता है कि जब समूची फिल्म में ना तो अमिताभ बच्चन का चेहरा नजर आता है और ना ही उनकी भारी आवाज सुनायी देती है तो अमिताभ की जगह एक उम्दा कलाकार का अक्स इसे क्यों ना माना जाये। यह तर्क उन्हे समझाने के लिये सही लग सकती है, जिन्होंने फिल्म देखी ना हो । असल में समूची फिल्म में प्रोजेरिया से ग्रसित औरो को अमिताभमयी छवि में इतना भिगो दिया गया है कि ना सिर्फ मां-बाप की छवि फिल्म से गायब हो जाती है बल्कि फिल्म के अंत में "औरो " की मौत भी अपने मां-बाप को मिलाकर कर कुछ इस तरह होती है जैसे "औरो" का नायकत्व व्यवस्था के खांचे को नकार कर अपने ही मां-बाप को प्रेम और सहयोग का एक ऐसा पाठ पढाता है, जिसका मूलमंत्र यही है कि जो गलती करता है उसे ही ज्यादा आत्मग्लानी होती है। इसलिये गलती करने वाले को माफ कर देना चाहिये।<br /><br />प्रोजेरिया से ग्रसित औरो के बहाने यह अमिताभ की ही फिल्म है जिसमें उनका चेहरा और आवाज तो नहीं है लेकिन हर डायलॉग में छवि उसी अमिताभ की है, जिसके भीतर व्यवस्था से आक्रोश है और सभी को पाठ पढाने का जज्बा है । जाहिर है फिल्म खत्म होने के बाद अमिताभ की हर फिल्म की तरह "पा" में भी सिर्फ अमिताभ ही दिमाग में रेंगते है।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8