tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-56176905930522978222010-08-12T16:34:00.001+05:302010-08-12T16:36:05.447+05:30सरकार को चुनौती देता लालगढ का रास्तासरकार को भूमि अधिग्रहण के तौर तरीके बदलने होगें । विकास की लकीर के जो मापदंड सरकार अपना रही है वह चंद हाथों में मुनाफा देने का चेहरा है, यह अब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। यह शब्द मेघा पाटकर के हैं। और इसके बाद स्वामी अग्निवेश का ऐलान कि जंगलमहल में ग्रामीण आदिवासियों की जमीन पर कब्जा बंद नहीं होगा। उन्हें स्वाभिमान से जीने के अधिकार नहीं मिलेगा तब तक माओवादियों की बंदूक नीचे नहीं आ सकती। अब समाज को बांटने और असमानता फैलाने वाली सरकार की नीति बर्दाश्त नहीं की जा सकती। और फिर ममता बनर्जी का माओवादियों के प्रवक्ता आजाद के इनकाउंटर को फर्जी करार देते हुये हत्या की जांच कराने की मांग उठा देना।<br /><br />ममता बनर्जी की लालगढ रैली की इस राजनीतिक धार पर उस संसदीय राजनीति को एतराज हो सकता जो सहमति के आधार पर गठबंधन की राजनीति कर सत्ता की मलाई खाते हैं। इसीलिये बीजेपी का यह सवाल जायज लग सकता है कि माओवादियो के मुद्दे पर प्रधानमंत्री की कबीना मंत्री ही जब उनसे इत्तेफाक नहीं रखतीं तो फिर कैबिनेट में सहमति की संसदीय मर्यादा का मतलब क्या है। लेकिन इस सवाल का जवाब मांगने से पहले समझना यह भी होगा कि ममता बनर्जी ना तो प्रधानमंत्री की इच्छा से कैबिनेट मंत्री बनीं और ना ही मनमोहन सिंह ने अपनी पंसद से उन्हें रेल मंत्रालय सौंपा। ममता जिस राजनीतिक जमीन पर चलते हुये संसद तक पहुंची उसमें अगर कांग्रेस के सामने सत्ता के लिये ममता मजबूरी थी तो ममता के लिये अपनी उस राजनीतिक धार को और पैना बनाने की मजबूरी है जिसके आसरे वह संसद में पहुची और अपनी शर्तो पर मंत्री बनी हैं।<br /><br />सिंगूर से नंदीग्राम वाया लालगढ की जिस राजनीति को ममता ने आधार बनाया उसमें एसईजेड से लेकर भूमि अधिग्रहण और आदिवासियों से लेकर माओवादियों पर ममता का रुख ना सिर्फ एक सरीखा है बल्कि केन्द्र सरकार की नीतियों का विरोध भी ममता करती रही हैं। बाकायदा कैबिनेट की बैठक में भूमि-अधिग्रहण का सवाल हो या एसईजेड का या फिर विकास के इन्फ्रस्ट्क्चर में किसान और आदिवासियों को हाशिये पर ढकेलने की नीति, ममता ने बतौर केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री विरोध ही किया । यह कहा जा सकता है कि बंद कमरे में विरोध समझ के अंतर्विरोध को उभारते है जिस पर सहमति बनने की संभावना लगातार बनी रहती है। लेकिन ममता बनर्जी का राजनीतिक आधार ही जब यह विरोध हो तब सहमति की सोच मायने नहीं रखती । ऐसा नहीं है कि माओवादी आजाद के सवाल पर जो कांग्रेस आज खामोश है और जो बीजेपी या वामपंथी हाय तौबा मचा रहे हैं उन्हे सवा साल पहले लोकसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी का राजनीतिक मैनिफेस्टो याद ना हो। <br /><br />ममता बनर्जी ने उस वक्त भी लालगढ के संघर्ष को यह कहते हुये मान्यता दी थी कि यह राज्य के आतंक और उसकी क्रूरतम कार्रवाईयो के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक है। इतना ही नहीं लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने को उनके मानसम्मान और न्याय से जोड़ा। कमोवेश सिंगूर और नंदीग्राम में तो ममता बनर्जी ने खुद के संघर्ष को प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ और खेतिहर किसान-मजदूरो के हक से जोड़ा। अगर याद कीजिये तो लोकसभा चुनाव से पहले या कहे ममता के सरकार में शामिल होने से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिंगूर-नंदीग्राम को लेकर विकास की बात कह रहे थे और ममता बनर्जी खुल्लमखुल्ला सरकार की नीति को कारपोरेट घरानो और पूंजीवादी साम्राज्यवादियो के सामने घुटने टेकने वाला बता रही थीं। ममता बनर्जी उस वक्त खेत खलिहानो में किसान , मजदूर और आदिवासियो के संघर्ष को राजनीतिक धार दे रही थी और संयोग से उस वक्त इन्ही इलाको में सक्रिय माओवादी अपने संघर्ष को बंगाल के पारंपरिक विद्रोही संघर्ष का एक नया अध्याय खुद को मान रहे थे।<br /><br />ऐसा नहीं है कि केन्द्र सरकार या कांग्रेस इस हकीकत से अनभिज्ञ रही कि संघर्ष का क्षेत्र अगर ममता और माओवादियों का एक है और संसदीय राजनीति को लेकर दोनो में कोई टकराव नहीं है तो दोनो को एक-दूसरे की मदद भी मिलेगी और लाभ भी मिलेगा। मदद और लाभ की इस बारीक लकीर को वामंपथी सत्ता तब भी समझ रही थी और आज भी समझ रही है। क्योंकि सीपीएम एकवक्त खुद नक्सलबाडी का सवाल अपनी संसदीय राजनीति से जोड चुकी है। और बंगाल में कांग्रेस का सफाया नक्सलियो के संघर्ष पर संसदीय राजनीति का लेप चढा कर ही सीपीएम सत्ता में आयी यह भी हकीकत है।<br /><br />लेकिन अब जब सीपीएम का कांग्रेसिकरण हुआ है बंगाल के सामने अपने सवाल ज्यों के त्यों खडे है तो फिर कांग्रेस से निकली ममता बनर्जी की संसदीय राजनीति का ट्रांसफारमेशन 1967 के दौर के सीपीएम के तर्ज पर क्यो नही हो सकता है और नक्सलबाडी का नया चैप्टर लालगढ क्यों नहीं बन सकता है, यह सवाल अब हिलोरें मार रहा है और ममता बनर्जी इसी में चूकना नहीं चाहती । क्योंकि इस राजनीतिक धार ने ही पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा उपचुनाव और निकाय चुनाव तक में ममता का कद बढाया है। और अब ममता इसी राजनीतिक धार में अपना अक्स देख भी रही है और इस अक्स का परचम ही बंगाल विधानसभा चुनाव में लहराना चाहती हैं। इसलिये सवाल माओवादी आजाद के इनकाउंटर को हत्या करार देकर प्रधानमंत्री या केन्द्रीय गृहमंत्री को कटघरे में खडा करना भर नहीं है। सवाल है कि अगर संसदीय राजनीति उस राजनीतिक धार के आगे बंगाल में ही घुटने टेक रही है जहा लोहा तो ममता का है, मगर उसमें धार माओवादियो की है, तो फिर देश के सामने नया सवाल विकास की उस थ्योरी पर उठेगा जिसको लेकर अभी तक संसदीय सत्तायें इस मदहोशी में रही हैं कि सत्ता की पारंपरिक लकीर ही लोकतंत्र की असल परिभाषा है।<br /><br />इसलिये कथित विकास भी लोकतंत्र का ही चेहरा है। और सत्ता के लिये इसी लोकतंत्र के दायरे में ही संसदीय खेल खेलना होगा। मगर बीजेपी या वामपंथी लालगढ रैली में ममता बनर्जी के भाषण के उस अंश पर खामोश है जहा वह यह भी कहती है कि मुझे केन्द्र में मंत्री पद की कोई जरुरत नही है, मेरी पहली जरुरत जंगलमहल के विकास की है। आपको सम्मान के साथ जीने का हक दिलाने की है। यानी जिस लालगढ रैली को केन्द्र सरकार की नीतिया बदर्श्त नही है अगर उसी लालगढ का रास्ता ममता बनर्जी को राइट्स बिल्डिंग तक पहुंचाता है तो अब सवाल यह है कि क्या संसदीय राजनीति को यह बर्दाशत होगा । या सत्ता के लिये यहा ममता से समझौता करना संसदीय राजनीति की जरुरत होगी । और लोकतंत्र की नयी परिभाषा यही से गढी जायेगी ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8