tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-82556016024499593462011-05-22T11:41:00.003+05:302011-05-22T11:44:50.480+05:30नक्सलबाड़ी से जंगलमंहल तक'अमार बाडी नक्सलबाड़ी' यह नारा 1967 में लगा तो सत्ता में सीपीएम के आने का रास्ता खुला। और पहली बार 2007 में जब 'अमार बाडी नंदीग्राम' का नारा लगा, तो सत्ता में ममता बनर्जी के आने का रास्ता खुला। 1967 के विधानसभा में पहली बार कांग्रेस हारी और पहली बार मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन भी हारे। वहीं 2011 में पहली बार सीपीएम हारी और पहली बार सीपीएम के मुख्यमंत्री बुद्ददेव भट्टाचार्य भी हारे। बुद्ददेव को उनके दौर में मुख्यसचिव रहे मनीष गु्प्ता ने ठीक उसी तरह हराया जैसे 1967 में कांग्रेसी सीएम प्रफुल्ल सेन को उनके अपने मंत्री अजय मुखर्जी ने हराया था। ममता के मंत्रीमंडल के अनमोल हीरे मनीष गुप्ता हैं और 1967 में तो अजय मुखर्जी ही संयुक्त मोर्चे की अगुवाई करते हुये मुख्यमंत्री बने। 1967 में नक्सलबाड़ी से निकले वाम आंदोलन ने उन्हीं मुद्दों को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा किया जिसकी आवाज नक्सलवादी लगा रहे थे। किसान, मजदूर और जमीन का सवाल लेकर नक्सलबाड़ी ने जो आग पकडी उसकी हद में कांग्रेस की सियसत भी आयी और वाम दलों का संघर्ष भी। और उस वक्त कांग्रेस ने वामपंथियो पर सीधा निशाना यह कहकर साधा कि संविधान के खिलाफ नक्सवादियों की पहल का साथ वामपंथी दे रहे हैं। और संयोग देखिये 2007 में जब नंदीग्राम में कैमिकल हब के विरोध में माओवादियों की अगुवाई में जब किसान अपनी जमीन के लिये, मजदूर-आदिवासी अपनी रोजी-रोटी के सवाल को लेकर खडा हुआ तो इसकी आग में वामपंथी सत्ता भी आयी। और ममता बनर्जी ने भी ठीक उसी तर्ज पर माओवादियों के मुद्दो को हाथों-हाथ लपका जैसे 1967 में सीपीएम ने नक्सलवादियों के मुद्दों को लपका था। यानी इन 44 बरस में बंगाल में सत्ता परिवर्तन के दौर को परखें तो वाकई यह सवाल बडा हो जाता है कि जिस संगठन को संसदीय चुनाव पर भरोसा नहीं है उसकी राजनीतिक कवायद को जिस राजनीतिक दल ने अपनाया उसे सत्ता मिली और जिसने विरोध किया उसकी सत्ता चली गयी। <br /><br />1967 के बंगाल चुनाव में पहली बार सीपीएम ने ही भूमि-सुधार से लेकर किसान मजदूर के वही सवाल उठाये जो उस वक्त नक्सलबाड़ी एवं कृषक संग्राम सहायक कमेटी ने उठाये थे। 2007 में नंदीग्राम में कैमिकल हब की हद में किसानों की जमीन आयी तो माओवादियों ने ही सबसे पहले जमीन अधिग्रहण को किसान-मजदूर विरोधी करार दिया। और यही सुर ममता ने पकड़ा। 1967 से लेकर 1977 के दौर में जब तक सीपीएम की अगुवाई में पूर्ण बहुमत वाममोर्चा को नहीं मिला तब तक राजनीतिक हिंसा में पांच हजार से ज्यादा हत्यायें हुईं। जिसमें तीन हजार से ज्यादा नक्सलवादी तो डेढ़ हजार से ज्यादा वामपंथी कैडर मारे गये। सैकड़ों छात्र जो मार्क्स-लेनिन की थ्योरी में विकल्प का सपना संजोये किसान मजदूरों के हक का सवाल खड़ा कर रहे थे, वह भी राज्य हिंसा के शिकार हुये। दस हजार से ज्यादा को जेल में ठूंस दिया गया। और इसी कड़ी ने काग्रेसियों को पूरी तरह 1977 में सत्ता से ऐसा उखाड फेंका कि बीते तीन दशक से बंगाल में आज भी कोई बंगाली कांग्रेस के हाथ सत्ता देने को तैयार नहीं है। इसीलिये राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लिये कांग्रेस ने 1967 के दाग को मिटाने के लिये उसी ममता के पीछे खडा होना सही माना जिसने 1997 में काग्रेस को सीपीएम की बी टीम से लेकर चमचा तक कहते हुये कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में बगावत कर अपनी नयी पार्टी तृणमूल बनाने का ऐलान किया था। <br /><br />लेकिन ममता के लिये 2011 के चुनाव परिणाम सिर्फ माओवादियों के साथ खडे होकर मुद्दों की लडाई लड़ना भर नहीं है। बल्कि 1971-1972 में जो तांडव कांग्रेसी सिद्वार्थ शंकर रे नकसलबाड़ी के नाम पर कोलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज तक में कर रहे थे, कुछ ऐसी ही कार्रवाई 2007 से 2011 के दौर में बुद्ददेव भट्टाचार्य के जरिये जंगल महल के नाम पर कोलकत्ता तक में नजर आयी। इसी का परिणाम हुआ कि मई 2007 में नंदीग्राम में जब 14 किसान पुलिस फायरिंग में मारे गये, उसके बाद से 13 मई 2011 तक यानी ममता बनर्जी के जीतने और वाममोर्चा की करारी हार से पहले राजनीतिक हिंसा में एक हजार से ज्यादा मौतें हुईं। करीब सात सौ को जेल में ठूंसा गया। आंकड़ों के लिहाज से अगर इस दौर में दलों और संगठनों के दावों को देखें तो माओवादियों के साढ़े पांच सौ कार्यकर्त्ता मारे गये। तृणमूल कांग्रेस के 358 कार्यकर्त्ता मारे गये। सौ से ज्यादा आम ग्रामीण-आदिवासी मारे गये। सिर्फ जंगल महल के सात सौ से ज्यादा ग्रामीणों को जेल में ठूंस दिया गया। तो क्या जिन परिस्थितियों के खिलाफ साठ और सत्तर के दशक में वामपंथियो ने लड़ाई लड़ी, जिन मुद्दों के आसरे उस दौर में कांग्रेस की सत्ता को चुनौती दी, उन्हीं परिस्थितियों और उन्हीं मुद्दों को 44 बरस बाद वामपंथियो ने सत्ता संभालते हुये पैदा कर दिया। <br /><br />जाहिर है ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि सत्ता संभालने के बाद ममता बनर्जी नहीं भटकेंगी इसकी क्या गांरटी है। जबकि ज्योति बसु ने मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद जो पहला निर्णय लिया था वह नक्सलवादियों के संघर्ष के मूल मुद्दे से ही उपजा था। 21 जून 1977 को ज्योति बसु ने सीएम पद की शपथ ली और 29 सितबंर 1977 को वेस्ट बंगाल लैण्ड [ अमेन्डमेंट बिल ] विधानसभा में पारित करा दिया। और दो साल बाद 30 अगस्त 1979 में चार संशोधन के साथ दि वेस्ट बंगाल लैण्ड [फार्म होल्डिंग] होल्डिंग रेवेन्यू बिल-1979 विधानसभा में पारित करवाने के बाद कहा, "अब हम पूर्ण रुप से सामंती राजस्व व्यवस्था से बाहर आ गये। " और इसके एक साल बाद 27 मई 1980 को ट्रेड यूनियनो से छिने गये सभी अधिकार वापस देने का बिल भी पास किया। इसी बीच 10वीं तक मुफ्त शिक्षा और स्वास्थय सेवा भी ज्योति बसु ने दिलायी। यानी ध्यान दें तो सीपीएम पहले पांच बरस में नक्सलबाड़ी से उपजे मुद्दों के अमलीकरण में ही लगी रही। और जनता से उसे ताकत भी जनवादी मुद्दों की दिशा में बढते कदम के साथ मिली। लेकिन जैसे-जैसे चुनावी प्रक्रिया में सत्ता के लिये वामपंथियों ने अपनी लड़ाई पंचायत से लेकर लोकसभा तक के लिये फैलायी और चुनाव के केन्द्र में सत्ता ना गंवाने की सोच शुरु हुई वैसे-वैसे सीपीएम के भीतर ही कैडर में प्रभावी ताकतों का मतलब वोट बटोरने वाले औजार हो गये। और यहीं से राजनीति जनता से हटकर सत्ता के लिये घुमड़ने लगी। <br /><br />जाहिर है ममता ने भी चुनाव जनता को जोर पर 'मां,माटी और मानुष' के नारे तले जीता है। और सत्ता उसे जनता ने दी है। इसलिये ममता के सत्ता संभालने के बाद बिल्कुल ज्योति बसु की तर्ज पर बंगाल में कुछ निर्णय पारदर्शी होंगे। राज्य की बंजर जमीन पर इन्फ्रस्ट्रचर शुरू कर औद्योगिक विकास का रास्ता खुलेगा। छोटे-किसान, मजदूर और आदिवासियों के लिये रोजगार और रोजगार की व्यवस्था होने से पहले रोजी-रोटी की व्यवस्था ममता अपने हाथ में लेगा। बीपीएल की नयी सूची बनाने और राशन कार्ड बांटने के लिये एक खास विभाग बनाकर काम तुरंत शुरू करने की दिशा में नीति फैसला होगा। जमीन अधिग्रहण की एवज में सिर्फ मुआवजे की थ्योरी को खारिज कर औद्योगिक विकास में किसानो की भागेदारी शुरू होगी। यानी कह सकते हैं कि माओवादियों के उठाये मुद्दे राज्य नीति का हिस्सा बनेंगे। लेकिन, यहीं से ममता की असल परीक्षा भी शुरू होगी। जैसे कभी वामपंथियों की हुई थी और बुद्ददेव उसमें फेल हो गये। ममता के सामने चुनौती माओवादियों को मुख्यधारा में लाने की भी होगी और अभी तक सत्ताधारी रहे वाम कैडर को कानून-व्यवस्था के दायरे में बांधने की भी। <br /><br />ज्योति बसु ने नक्सलवादियों को ठिकाने अपने कैडर और पुलिसिया कार्रवाई से लगाया। और उस वक्त सत्ता राइट से लेफ्ट में आयी थी। लेकिन ममता का सच अलग है। यहां लेफ्ट के राइट में बदलने को ही बंगाल बर्दाश्त नहीं कर पाया। राइट से निकली ममता कहीं ज्यादा लेफ्ट हो गयीं। इसलिये बंगाल पुलिस के पास भी वह नैतिक साहस नहीं है जिसमें वह माओवादियों को खत्म कर सके। क्योंकि बंगाल पुलिस का लालन-पोषण बीते दौर में उन्हीं वामपंथियो ने किया जिसका कैडर वाम फिलॉसिफी को जमीन में गाढ़कर सत्ता में प्रभावी बना। लेकिन यहीं से कांग्रेस की नीतियों का सवाल शुरू होता है जो ममता के आईने में कैसा दिखायी देगा इसका इंतजार हर कोई कर रहा है। क्योंकि एक तरफ वामपंथियों की हार के बाद मनमोहन सरकार के लिये वह राहत का सबब है जो उसकी आर्थिक नीतियों को रोक लगाने के लिये सामने खडी हो जाती थी। वहीं दूसरी तरफ माओवादियों का सवाल है जिसे मनमोहन सिंह देश के लिये सबसे बडा दुश्मन मानते हैं और गृह मंत्री पी. चिदबरंम आंतरिक संकट की सबसे बड़ी जड़। और दूसरी तरफ ममता बनर्जी केन्द्र सरकार की इसी सोच पर सवालिया निशान लगाती है। इसलिये देखना यह भी होगा कि जंगल महल में केन्द्र और बंगाल के सुरक्षाकर्मी अभी भी माओवादियों के खिलाफ संयुक्त आपरेशन चला रहे हैं क्या वह बंद हो जायेगा। क्योंकि इस कार्रवाई को शुरू करते वक्त केन्द्र सरकार ने माओवादियों के खिलाफ इसे एक बडी कार्रवाई की जरूरत बताया था। और उसी वक्त ममता बनर्जी ने इस कार्रवाई को सीपीएम की राजनीतिक कार्रवाई करार देते हुये कहा था कि जो तृणमूल कांग्रेस का कैडर है और जो जंगल महल के आम ग्रामीण-आदिवासी है उन्हें ही निशाना बनाकर माओवादी करार दिया दिया जा रहा है। असल में ज्योति बसु के सामने भी सत्ता संभालने के बाद यही सवाल नक्सलबाडी को लेकर उभरा था। और तब ज्योति बसु ने नक्सलवादियों के मुद्दों को जरूर अपनाया, लेकिन पुलिस कार्रवाई भी समूचे नक्सबाड़ी में शुरू करवा दी।<br /><br />जाहिर है सीपीएम का हश्र तो ममता ने देख लिया इसलिये ममता ज्योति बसु के रास्ते पर चलेगी यह संभव नहीं है। फिर एक अंतर नक्सलबाड़ी और जंगलमहल को लेकर यह भी है कि नक्सलबाड़ी के दौर में किसान-मजदूरों का सवाल नीतिगत तौर पर खड़ा हुआ था जो समूचे देश में इस सवाल पर आग लगा रहा था और अतिवाम देश के कई हिस्सा में लगातार बढ़ रहा था। यानी सत्तर के दशक में सवाल नक्सलबाड़ी के विकास का नहीं था बल्कि देशभर में नक्सलियों के उठाये जा रहे सवालों का था। लेकिन ममता बनर्जी के सामने सवाल जंगलमहल के विकास का है। और जंगलमहल से निकले सवाल सिर्फ बंगाल को प्रभावित कर रहे हैं। वह ना तो झारखंड की सियासत को डिगा रहे हैं और ना ही छत्तीसगढ़ में कोई सियासी हलचल पैदा कर रहे हैं। और तेलांगना में भी प्रभावहीन होते जा रहे हैं। ऐसे में ममता का लोकप्रिय नारा विकास के नाम पर यह तो हो सकता है कि टाटा पहले जंगलमहल जाये फिर सिंगूर की तरफ देखे। लेकिन दूसरी परिस्थिति यह भी है जंगलमहल के विकास के लिये आखिरकार ममता को उसी केन्द्र सरकार से मदद का विशेष आर्थिक पैकेज भी चाहिये जिसकी नीतियों ने देश में बुंदेलखंड से लेकर विदर्भ तक को बंजर बनाकर रखा है। जबकि नक्सबाड़ी के बाद ज्योति बसु ने केन्द्र सरकार से भी दो-दो हाथ किये थे और नक्सलियों के न्यूनतम जरुरत के मुद्दों को लागू कराना शुरू किया। वहीं ममता को इस के दौर में सरकार से हाथ मिला कर माओवादियों के सवाल ही नहीं, बल्कि माओवादी प्रभावित जंगलमहल को भी मुख्यधारा से जोड़ना है। और बंगाल ही नहीं समूचे देश की नजर इसी पर है कि जिस बंगाल के मिजाज में अतिवाम के तौर तरीके हैं उस बंगाल में अतिवाम को साथ लेकर ममता कौन सा खेल करेंगी जिससे अतिवाम भी बदल जाये और बंगाल भी ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5