tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-30316665547599689392010-07-24T10:55:00.001+05:302010-07-24T10:55:51.521+05:30अमेरिकी डॉलर वाले काबुलीवाले का इंतजारजिसने भी साठ के दशक की फिल्म ‘काबुलीवाला’ देखी होगी, उसके जहन में काबुल के पठान को लेकर संवेदनायें आज भी होंगी । काबुलीवाला के जरीये कुछ लकीर तब के अफगानिस्तान की भी खींची गई । जो बदहाली का शिकार या कहें मुख्यधारा के विकास से कोसों कबिलाई सोच के साथ जी रहा था। कमोवेश चार दशक बाद अमेरिकी सेना के पीछे जो भी पत्रकार काबुल पहुंचे, उन्हें कोई फर्क अफगानिस्तान में नजर आया नहीं। रहने जीने के तौर तरीके भी कमोवेश काबुलीवाला के पठान की ही महक दे रहे थे। लेकिन इस दौर में अफगानी पठान के प्रति संवेदना नहीं जहर पैदा हो चुका था। बच्चो से प्यार करता 1960 का काबुलीवाला बादाम,काजू, किशमिश बांटा करता था। लेकिन 2001 के बाद वही पठान बंदूक और बारुद से प्यार करने वाला लगने लगा।<br /><br />अब यानी 20 जुलाई 2010 को जब अमेरिकी अगुवाई में पहली बार सत्तर देशों के प्रतिनिधी काबुल में जुटे तो दुनिया की दौलत से इसी अफगानिस्तान को बदलने का सपना संजोया गया। जो लकीर अफगानिस्तान को लेकर खींची गयी, उसमें ना तो काबुलीवाले की जगह है ना ही आतंक पैदा करने वाले पठान की। क्योंकि जबतक यह दोनों मौजूद हैं, तब तक दुनिया के नक्शे पर अफगानिस्तान को मान्यता नहीं दी जा सकती।<br /><br />यह अलग बात है कि 20 बिलियन डॉलर से नये अफगानिस्तान को बनाने की ट्रेनिंग बंदूक और बारुद तले ही होगी। फर्क सिर्फ इतना होगा यह बंदूक-बारुद अफगान सरकार के सैनिको के हाथ में होंगे और इसमें लगने वाली पूंजी वह तमाम देश मुहैया करायेंगे, जिन्हे अमेरिका का दुश्मन अपना दुश्मन लगता है। और जो यह सोचते है कि दुनिया के नक्शे पर अफगानिस्तान को अगर दिखायी देना है तो विश्वव्यापी बाजार या कहे अंतराष्ट्रीय धंधे पर कोई हमला अफगानिस्तान की जमीन से ना हो या यहा साजिश रचने वाले दिमाग भी ना बचे। और इस पर खुद अफगानियो को लगाम लगानी होगी, जिनके लिये दुनिया के खजाने खोंले जायेंगे। यानी राष्ट्रपति करजई के अफगानी पठान तैयार होंगे तालिबानी पठान के खिलाफ। क्योंकि समूची दुनिया ने माना है कि एक वर्ल्ड टावर के गिरने से जब 200 करोड बिलियन डॉलर का नुकसान दुनिया के धंधे पर हो सकता है तो फिर किसी भी अगले निशाने से पहले ही तालिबानी पठानों को नेस्तानाबूद क्यों ना कर दिया जाये चाहे अगले एक दशक में इसका खर्च दो करोड बिलियन डॉलर का क्यों ना हो।<br /><br />लेकिन दुनिया की इस दौलत से अफगानिस्तान के भीतर किसी काबुलीवाले की जिन्दगी संवरेगी या फिर आंतक फैलाने के लिये उठते हाथ थम जायेंगे। इसकी कोई लकीर ना तो मौजूद सत्तर देशों के नुमाइन्दगों ने खींची और ना ही राष्ट्रपति करजई कोई योजना बता पाये कि गरीबी और कबिलाई जीवन का तोड़ उनके पास सरकारी सैनिकों को अत्याधुनिक हथियार से लैस कर ट्रेनिग के अलावे और है क्या। गुरबत के आगे आतंक मायने नहीं रखता और तालिबान के खडे होने का कारण भी गुरबत ही है। जिसमें बारुद की गंध दीन-धर्म की चादर में समेटा जाती है और आतंक एक आसान और न्यायप्रिय तरीका लगने लगता है। ऐसे में शिक्षा और जीने की न्यूनतम जरुरत तक ना रहे तो तालिबान किस आसानी से खडा हुआ या हो सकता है, इसका जिक्र पाकिस्तानी लेखक सोहेल अब्बास ने अपनी किताब प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट में किया है।<br /><br />तालिबान के जेहादियों में सिर्फ 4 फीसदी ही हैं, जिन्होंने इस्लाम के इतिहास को पढ़ा है। जबकि 69 फीसदी पठान जेहादी ऐसे हैं, जिन्हें मस्जिदों के मुल्लाओं के जरीये इस्लाम का पाठ मिला है और कमोवेश सभी मानते है कि उनके हाथ में बंदूक हक के लिये है। और गरीबी का आलम अफगानिस्तान किस तरहल पसरा है, इसका अंदाजा यूएनडीपी की उस रिपोर्ट से लग सकता है जिसमें भारत के छह राज्यों को सहारा-अफ्रीकन देशो से ज्यादा गरीब बताया गया है। उस रिपोर्ट में अफगानिस्तान को इस काबिल भी नहीं समझा गया कि जो मापक गरीबी के रखे गये उसमें यह फिट भी बैठता हो।<br /><br />जाहिर है अफगानिस्तान को लेकर इसीलिय हेलेरी क्लिटन काबुल में यह कहने से नहीं चूकी कि दुनिया के नक्शे पर अफगानिस्तान दिखायी दे, इसलिये उसे समूची दुनिया की मदद देनी होगी । लेकिन दौलत से अफगानिस्तान कैसे बदलेगा, जहा फैशन सिर्फ डेढ़ फीसदी को घेरे हुये है । पेंट-शर्ट सिर्फ 14.5 फीसदी लोगों तक पहुंचा है। और सूचना तंत्र जो सबसे ज्यादा आधुनिक परिस्थियो से जोडने में सहायक होता है. उसका हर रुप बदरंग है। जिन हाथों ने तालिबान की बंदूक या दिमाग में तालिबानी विचार चस्पा किये हुये हैं, उनमें 80 से 95 फीसदी तक रेडियो-टेपरिकार्डर,कम्प्यूटर, म्यूजिक, टीवी, वीसीआर, इंटरनेट को जानते नहीं हैं। यानी कोई सरोकार इस आधुनिक तौर तरीको से इनका है ही नहीं, जिसके जरीये राष्ट्रपति करजई अमेरिकी सरपरस्ती में अफगानिस्तान को दुनिया की दौलत से बदलना चाह रहे हैं।<br /><br />समझना होगा कि अगर काबुलीवाले का मतलब अफगान नहीं है तो सिर्फ काबुल का भी नहीं है और अगर तालिबान अफगान का राजनीतिक चेहरा नहीं है तो करजई भी अफगानिस्तान के प्रतीक नहीं है। समूचे अफगानिस्तान के 9 फीसदी इलाके में ही करजई की सेना की आवाजाही हो सकती है। जबकि पाकिस्तान से सटा अफगानिस्तान का 36 फीसदी इलाका ऐसा है, जहां पाकिस्तान की सेना तो जा सकती है लेकिन करजई की नहीं। और इन इलाकों में अमेरिकी या कहे नाटो सेना को करजई से ज्यादा पाकिस्तान का साथ चाहिये। इसलिये काबुल में जब 70 देशों के नुमाइन्दगों की तस्वीर खींचने का मौका आया तो वहा मौजूद पाकिस्तान के विदेश मंत्री कुरैशी अमेरिकी विदेश मंत्री हेलेरी के ठीक पीछे खड़े थे। और भारत के एस एम कृष्णा एकदम बायी तरफ हिलेरी क्लिंटन से सबसे दूर। और तस्वीर ही अफगानिस्तान के उस सच को बयान कर रही थी, जहां 70 देश एकजुट हो कह रहे थे कि सभी का दुश्मन एक ही है तालिबान या कहें अलकायदा। जिसका सिरमोर और कोई नहीं ओसामा-बिन-लादेन है। और इस महासम्मेलन से ठीक 10 घंटे पहले हिलेरी क्लिंटन वाशिंगटन में फॉक्स न्यूज चैनल को इंटरव्यू में यह कहकर आयी थी कि ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान ने छुपाया है। और ऐसे में भारत काबुल में यह कहकर ताल ठोंक रहा है कि उसने इस्लामाबाद का जबाव काबुल में यह कह कर दे दिया कि आतंक के खिलाफ लड़ाई एक सरीखी होती है, उसे बांटा नहीं जा सकता।<br /><br />लेकिन अब इंतजार कीजिये 2014 का, जब करजई के मुताबिक दुनिया की दौलत से अफगानिस्तान उनका होगा और काबुल से कोई काबुलीवाला भारत आयेगा तो उसके झोले में अखरोट और किशमिश की जगह डॉलर होंगे, जो बच्चों को नहीं सरकार और कॉरपोरेट को लुभायेगाPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4