tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-9300666467471901522009-11-17T11:49:00.005+05:302009-11-17T12:12:41.972+05:30अमिताभ बच्चन से साक्षात्कारकुछ दिनों पहले <a href="http://prasunbajpai.itzmyblog.com/2009/10/blog-post_28.html">अमिताभ बच्चन से इंटरव्यू का वीडियो</a> यहाँ ब्लॉग पर पोस्ट किया था। कुछ पाठकों ने उसका टेक्स्ट वर्जन पढ़ने की इच्छा जतायी थी। उस इच्छा को पूरा करने के लिए पेश है यह लिखित संस्करण -<br /><br /><b>सत्तर के दशक का विद्रोही, अस्सी के दशक का बगावती, और नब्बे में शहँशाह और इक्क्सवीं सदी में पा, जी पापा... लेकिन सवाल है ये सारे चरित्र जिस समाज के भीतर सिनेमाई सिलवर स्क्रीन पर जो शख्स जीता है, वो जिन्न होना चाहता है। वो शख्स साथ ही है हमारे। अमिताभ जी, तमाम चरित्रों को जीने के बाद जिन्न का खयाल आपके जहन में आया या लगा कि समाज वैसा हो गया है?</b><br />यह ख़्याल आया दरअसल निर्देशक के दिमाग़ में, हमारे दिमाग़ में तो हमको काम करने का एक अवसर मिल गया... और इस उम्र में काम मिलना बड़ा कठिन होता है, तो जब उन्होंने हमारे सामने ये प्रस्ताव रखा जिन्न का, तो हमने स्वीकार कर लिया। बचपन में कहानी सुनी थी अलादीन की और जिस तरह से सुजॉय ने इस कहानी को... इसकी पठकथा को बनाया, उससे लगा कि ये उस तरह की कहानी नहीं है, उसके गुण वही हैं। लेकिन उसको थोड़ा सा कन्टेम्प्रराइज़ कर दिया है आजकल के ज़माने के लिए।<br /><br /><b>यह जवाब एक कलाकार दे तो ठीक है लेकिन अमिताभ बच्चन दे, ये पचता नहीं है।</b><br />नहीं, सही कह रहा हूँ मैं। इसके अलावा मेरे मन के अन्दर कुछ और बात ही नहीं है।<br /><br /><b>हरिवंशराय बच्चन के बेटे हैं, नेहरू परिवार के क़रीबी, उस दशक को देखा, उस दौर को देखा जिस दौर में इमरजेंसी, उस दौर को देखा जब राजनीति हाशिए पर, जनता के बीच एक कुलबुलाहट... तमाम चरित्रों को जीने के बाद अब लगता है कि समाज में एक जिन्न की जरूरत आन पड़ी है?</b><br />काश कि ऐसा हो सकता, तो मैं अवश्य जिन्न बनता और बहुत सारे सुधार लाने का प्रयत्न करता। लेकिन हूँ नहीं ऐसा।<br /><br /><b>इस फ़िल्म के जरिए लगता नहीं है कि वो तमाम मिथ टूटेंगे, जो नॉस्टालजिआ है आपको लेकर?</b><br />नहीं, ऐसा तो नहीं है। मैं नहीं मानता हूँ कि... ये जीवन है, ये संसार है, इसमें मुलाक़ातें होती रहती हैं, लोग बिछड़ जाते हैं, नए मित्र मिलते हैं, सब जीवन है, इसके साथ हम...<br /><br /><b>ये नॉस्टेलजिआ हमने देखा कि हाल में जब छोटे पर्दे पर आप दुबारा आए बिग बी के जरिए, तो शुरुआत में उन तमाम चरित्रों के उन बेहतरीन डायलॉग्स को दुबारा दिखाया गया, जिसके जरिए आपकी पहचान है और लोगों की कहें तो आप शिराओं में दौड़ते थे। उसको उभारने की जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि मेरे ख्याल से आपकी छवि उसी में दिखाई देती है।</b><br />ये जो प्रोड्यूसर हैं टेलिविज़न चैनल के, उनकी ऐसी धारणा थी कि इस तरह का कुछ एक प्रज़ेंटेशन करना चाहिए, ये उनका क्रियेटिव डिसीज़न था। मैं उसमें मानता नहीं हूँ। ये केवल एक किरदार है और यदि लोग उन किरदारों से मेरा संबंध बनना चाहते हैं, तो मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ।<br /><br /><b>अमिताभ बच्चन महज एक किरदार हैं?</b><br />सिनेमा के लिए... और व्यक्तिगत जीवन में एक अलग किरदार है।<br /><br /><b>निजी जीवन का निर्णय था या सिनेमाई जीवन की तर्ज पर निर्णय था कि कभी राजनीति में आ गए थे आप?</b><br />हाँ, उसमें व्यक्तिगत निर्णय था ये। हमारे मित्र थे राजीवजी और लगा कि उस समय जो दुर्घटना हुई देश में, उस समय एक नौजवान देश की बागडोर को सम्हालने के लिए खड़ा हो रहा है। तो ऐसा मन हुआ कि हमें उसके साथ रहना चाहिए, उसके पीछे रहना चाहिए, उसका हाथ बँटाना चाहिए, तो हमने अपने आप को समर्पित किया और उन्होंने हमसे कहा कि आप चुनाव लड़िए, तो हम इलाहबाद से चुनाव लड़ गए और भाग्यवश उसे जीत गए बहुत ही दिग्गज हेमवती नन्दन बहुगणा जी के सामने। और फिर जब पार्लियामेंट में आए और धीरे-धीरे जब राजनीति को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला, तो लगा कि हम इस लायक नहीं है कि हम राजनीति कर सकें, हमें राजनीति आती नहीं थी और हमने अपने आप को असमर्थ समझा राजनीति में रहने के क़ाबिल और इसलिए हमने वहाँ से त्यागपत्र दे दिया।<br /><br /><b>आपकी हम एक किताब देख रहे थे, सुदीप बंधोपाध्याय ने लिखी है, उस पीरियड में आपने कहा है कि पिताजी कहते थे कि जिन्दगी में मन का हो तो अच्छा और न हो तो बहुत अच्छा...</b><br />ज़्यादा अच्छा।<br /><br /><b>...तो ज्यादा अच्छा, तो आपको क्या लगता है कि ज्यादा अच्छा हुआ कि कम अच्छा हुआ?</b><br />ज़्यादा अच्छा हुआ।<br /><br /><b>और व्यक्तिगत तौर पर आपके जीवन में सब कुछ ज्यादा ही अच्छा होता रहा है?</b><br />जब कभी ऐसा लगा कि मन का नहीं हो रहा है या मन के अन्दर ऐसी भावना पैदा हुई कि अरे! यदि ये ऐसा क्यों नहीं हुआ, ये तो ग़लत हो गया... लेकिन फिर थोड़ी-सी सांत्वना हम लेते हैं जो बाबूजी की सिखाई बातें हैं, कि अगर हमारे मन का नहीं हो रहा है तो फिर ईश्वर के मन का हो रहा है। और फिर वो तो हमारे लिए अच्छा ही चाहेगा।<br /><br /><b>कुछ पीड़ा नहीं होती है कि एक दौर में अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन के जरिए लोगों के अन्दर समाया हुआ था... वो कह सकते हैं कि वो टीम-वर्क था, सलीम-जावेद की अपनी जोड़ी थी, किशोर कुमार का गीत था, लेकिन धीरे-धीरे जो सारी चीजें खत्म होती गयीं, तो अमिताभ भी खत्म होता गया।</b><br />कलाकार के जीवन में होगा ऐसा। एक बार शुरुआत में अगर आप चरम सीमा छू लेंगे तो वहाँ से फिर आपको नीचे ही उतरना है। ये जीवन है।<br /><br /><b>नहीं-नहीं, चरम पर तो अब भी आप ही हैं...</b><br />नहीं-नहीं, ऐसा कहना ग़लत है। न...<br /><br /><b>कोई और लगता है?</b><br />और क्या, बहुत सारे। जितनी नौजवान पीढ़ी है, वो सब है।<br /><br /><b>नहीं, नौजवान पीढ़ी उम्र के लिहाज से है। हम एक्टिंग के लिहाज से कह रहे हैं।</b><br />नहीं-नहीं, वो तो जनता बताएगी न।<br /><br /><b>जनता तो बताती है। तभी तो आपको एक्सेप्ट करती है।</b><br />तो ये मेरा भाग्य है कि कुछ फ़िल्में जो हैं देख लेती है, कुछ नहीं देखती है, कुछ उसकी आलोचना करती है। पर ये उम्र के साथ होगा... अब धीरे-धीरे हमारा जो है शान्ति हो जाएगी, हमारी जो लौ है वो धीमी पड़ जाएगी और एक दिन बुझ जाएगी।<br /><br /><b>अक्सर कहते थे... कि उस दौर में आपसे पूछा जाता था कि ये आक्रोश आपके भीतर कहाँ से आता है? आप कहते मैंने वो पीड़ा देखी है, पीड़ा भोगी है, पिता के संघर्ष को देखा है।</b><br />नहीं, मैंने ये कहा था कि मैं मानता हूँ कि प्रत्येक इंसान के अन्दर कहीं-न-कहीं क्रोध होता है, और वो सबके अन्दर होता है और यदि उसके साथ अन्याय होगा तो वो क्रोध निकलता है। मेरे अन्दर से इस प्रकार से निकला जिस प्रकार लेखकों ने जो पटकथा थी, उसे लिखा और जिस प्रकार जनता ने जो देखा, उसे पसंद आया, तो वो एक व्यवसाय बन गया। लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ कि आपके अन्दर भी उतना ही क्रोध है जितना मेरे अन्दर है और यदि आपके साथ भी वही अन्याय होगा जो आम आदमी के साथ होता है, तो आपके अन्दर से भी वही क्रोध निकलेगा। उसमें कोई ऐसी बड़ी बात नहीं है।<br /><br /><b>अब नहीं आता है किसी बात पर क्रोध?</b><br />नहीं, अब आता है और उसे हम व्यक्त भी करते हैं।<br /><br /><b>मसलन?</b><br />कई ऐसी बातें होती हैं, निजी बातें होती हैं, व्यक्तिगत बातें होती हैं।<br /><br /><b>कोई पीड़ा नहीं होती है कि जिस मित्र की वजह से आप उस चीज को छोड़ के आ गए जो आपके जीवन का एक बड़ा हिस्सा था, एक सपना था? आप राजनीति में आ गए और उसी परिवार की वजह से आपको कहना पड़ता है “वो राजा हैं, हम रंक हैं”। ये सब भाव कहीं आता है?</b><br />मैंने उस बात से कभी अपने आप को दूर नहीं किया है। मैं तब भी मानता था और अब भी मानता हूँ।<br /><br /><b>आप छवि देखते हैं अपने मित्र की राहुल के भीतर?</b><br />हो सकता है...<br /><br /><b>नहीं, आप देखते हैं?</b><br />वो हमारे सामने पैदा हुए हैं और वो होनहार हैं, शिक्षित हैं और उनके हृदय में, मैं ऐदा मानता हूँ, दिल है।<br /><br /><b>नहीं, अकस्मात राजीव गांधी को देश सम्हालना पड़ा था। अकस्मात आपका आगमन हो गया था। शायद कहा गया बाद में कि आपने भावावेश में एक निर्णय ले लिया था?</b><br />हो सकता है। मैंने स्वयं माना है इस बात को कि ये एक भावनात्मक निर्णय था और मैं ऐसा मानता हूँ कि राजनीति में भावना जो है, उसका कोई दर्जा नहीं होता है।<br /><br /><b>भावनाएँ मायने नहीं रखती हैं?</b><br />नहीं।<br /><br /><b>ईमानदारी?</b><br />हो सकता है। मैं ऐसा मानाता हूँ कि बहुत से लोग हैं जो ईमानदारी से राजनीति करते हैं। वो चलती है, नहीं चलती – इसका मैं विवरण नहीं कर सकता।<br /><br /><b>वो लायक हैं, समझदार हैं, पढ़े-लिखे हैं...</b><br />जी, सभी हैं।<br /><br /><b>उनमें एक छवि भी देखते हैं कि वो देश को भी सम्हाल सकते हैं वो शख्स... राहुल गांधी?</b><br />क्यों नहीं, क्यों नहीं सम्हाल सकते। अगर जिस तरह से... और ये तो जनता बताएगी जब वो...<br /><br /><b>नहीं, हमें लगता है कि पता नहीं खाली बात कहते हैं, निकल जाते हैं दाएँ-बाएँ से, देश कोई और सम्हाल रहा है, आपके पास पावर है आप कुछ भी कह दीजिए... हमें ऐसा लगता है।</b><br />इतनी अगर मुझमें जिज्ञासा होती तो मैं राजनीति में होता, लेकिन मैं हूँ नहीं। इतनी जिज्ञासा मुझमें है नहीं कि किसी को परख सकूँ।<br /><br /><b>आपके मित्र राजनीति में हैं, पत्नी राजनीति में हैं।</b><br />जी।<br /><br /><b>फिर कैसे माना जाए आप नहीं हैं?</b><br />ये उनका अपना निर्णय है। मैं अमर सिंह जी से न कभी राजनीति की बात करता हूँ और न ही जया से। और न ही अमर सिंह जी मेरे से फ़िल्मों की बातें करते हैं कि आपने ऐसा किरदार क्यों किया, या ऐसी एक्टिंग क्यों की।<br /><br /><b>नहीं, वो तमाम प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में आपकी बड़ी तारीफ़ करते हैं आपकी - देखिए कमाल की एक्टिंग की है।</b><br />ठीक है, हम भी उनकी तारीफ़ करते हैं। और मैं उनको मित्र थोड़े न मानता हूँ, उनको परिवार का एक सदस्य मानता हूँ।<br /><br /><b>क्या आपको कहीं महसूस कभी होता है कि अब जो बॉलीवुड जिस रंग में रंग चुका है...</b><br />भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री, “बॉलीवुड” शब्द से हमको...<br /><br /><b>अच्छा ठीक है, भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री... इंडस्ट्री ही हो गयी है सिर्फ़, फ़िल्म गायब हो गया है?</b><br />नहीं, ऐसा नहीं है। फ़िल्म की वजह से ही है। इंडस्ट्री एक नाम कहते हैं, क्योंकि यहाँ पर व्यवसाय होता है। लोग काम करते हैं।<br /><br /><b>हम प्रोमो देख रहे हैं अलादीन का। आप नाक पकड़ते हैं, वो कुछ गुब्बारे की तरह फूल... क्या है ये? मतलब ये तो कमाल है न? ऐसा होता नहीं है जबकि।</b><br />जादू है, जिन्न का जादू। सिनेमा भी तो एक तरह से जादू है। सिंगल डाइमेंशन है, कहाँ थ्री डाइमेंशन है। कहाँ बैकग्राउण्ड म्यूज़िक बजता है, जब आप अपने निजी जीवन में किसी को मारते हैं या किसी के साथ प्रेम करते हैं। कभी सुना है आपने? यह एक मीडियम है।<br /><br /><b>ये भटकाव नहीं है?</b><br />नहीं।<br /><br /><b>वजह क्या है इसकी कि इस तरह की फ़िल्में होने लगीं?</b><br />हर क्रियेटिव इंसान को ये छूट मिलनी चाहिए कि वो अपनी क्रिएटिविटी को व्यक्त करे और फ़्रीडम मिले उसे। अगर हम एक प्रजातन्त्र में रह रहे हैं, तो हमें फ़्रीडम मिलना चाहिए एक्स्प्रेशन का, वो हमारे कॉन्स्टिट्यूशन में लिखा हुआ है।<br /><br /><b>कुछ भी किया जाए? कैसे भी पैसा कमाया जाए?</b><br />नहीं-नहीं, पैसा तो आप सभी कमा रहे हैं। आप भी कमा रहे हैं, हम भी कमा रहे हैं।<br /><br /><b>तरीका कुछ भी हो?</b><br />हाँ।<br /><br /><b>कोई भी तरीका आजमाया जा सकता है?</b><br />नहीं, हम यह नहीं कह रहे हैं। कानून के अनुसार, माध्यम के जो... जो माध्यम हमको दिया हुआ है कॉन्स्टीट्यूशन के अनुसार, उसके माध्यम से हम अगर पैसा कमा रहे हैं तो सही है।<br /><br /><b>कई बार पता नहीं क्यों ये फ़ीलिंग होती है कि अमिताभ बच्चन अपनी जो मौलिक चीज़ें थीं, उसे छोड़ रहा है। मसलन हमने बिग बॉस में बड़ा लम्बा-चौड़ा आप पर आर्टिकल लिखा भी है। आपका चश्मा जो है, आपकी आई कॉण्टेक्ट में रुकावट डालता है जो दर्शकों के साथ होता था। और उसमें वो नजर आ रहा था बहुत क्लीयर। तो हमें बड़ा अजीबो-गरीब लग रहा था, हम बोले ये यार क्या मतलब है इससे ये आई कॉण्टेक्ट...</b><br />अब क्या करें अगर वृद्धावस्था है, नज़र धुंधली हो गयी है।<br /><br /><b>अच्छा, राजनीति में जिस समय आपमें अरुचि पैदा हो रही थी, उस समय एक मीटिंग करायी गयी थी केतन देसाई के द्वारा आपकी और अनिल अम्बानी की। उस समय उन्होंने एक पत्र दिया था आपको, जो फ़ेयरफ़ेक्स के जरिए जांच का था, वो भी हमने आपकी बायोग्राफ़ी में चूँकि देखा है, तो हमें लगता है कि वो हिस्सा होगा आपके...</b><br />मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं है।<br /><br /><b>नहीं याद है?</b><br />न।<br /><br /><b>तब से आपकी दोस्ती हो चली अनिल अम्बानी से और अम्बानी परिवार से। तभी से वो चली आ रही है?</b><br />जी हाँ, जी हाँ। बहुत पुरानी दोस्ती है।<br /><br /><b>एक तरफ़ अमर सिंह हैं, एक तरफ़ अनिल अम्बानी, बीच में अमिताभ – ये शख्सियत तो देश को भी हिला सकते हैं अगर तय कर लें कि राजनीति...</b><br />ये आप लोगों की नज़र से ऐसा होगा, हम तो कभी इसे ऐसा देखते नहीं और न ही कभी हम मानते हैं। हमें जो चीज़ें एक मित्र की हैसियत से अच्छी लगती हैं, उसे हम करते हैं। हमने कभी इसको इस नज़र से नहीं देखा कि ये बहुत बड़े उद्योगपति हैं या अमर सिंह जी बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हैं। हमें उनकी दोस्ती, उनका प्यार, उनका स्नेह मिलता है और उसी के अनुसार हम अपना जीवन व्यतीत करते हैं।<br /><br /><b>फ़िल्म इंडस्ट्री में माना जाता है एक तरफ़ ख़ान बन्धु, हम उसका जिक्र नहीं करेंगे, लेकिन दूसरी तरफ़ ठाकरे बंधु – ये जीवन को प्रभावित करता है आपके?</b><br />किस नज़रिए से आप कहना चाह रहे हैं प्रभावित करता है?<br /><br /><b>एक ऐसा शख्स जो आपका फ़ैन भी है, वही शख्स कहता है कि अमिताभ बच्चन तो यूपी चले जाएँ।</b><br />जी, जी।<br /><br /><b>दर्द नहीं होता है कि क्या है ये?</b><br />ये प्रजातन्त्र है। हर एक को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की छूट है। ये भारत देश जो है, यहाँ सबको उतनी ही आज़ादी है, वो किसी भी जगह पर जा कर रहें। मैंने ऐसे चुना है कि मैं मुम्बई में आ कर के रहूँ और वहाँ पर रहूँ, जियूँ, सब-कुछ मुझे उसी शहर से मिला है। अब मैं उसे छोड़कर कहाँ जाऊँगा? अब उनके कहने से और करने से इसपर मैं आलोचना करूँ या उसको स्वीकार करूँ, इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। उनको जो कहना था, सो उन्होंने कह दिया है। लेकिन मैं तो मुम्बई में ही रहूँगा। क़ानूनन मुझे बताइए अगर मैं कोई ग़लत काम कर रहा हूँ?<br /><br /><b>नहीं-नहीं, आप गलत नहीं कह रहे हैं। हम कह रहे हैं कि आपकी अपनी शख्सियत, अपनी जो पहचान है...</b><br />ये होना चाहिए, ये होता है कई बार। कई लोग ऐसे होते हैं जो जब पब्लिक लाइफ़ में होते हैं या जो सिलेब्रिटी होते हैं, उनके ख़िलाफ़ बहुत-सी बातें कही जाती हैं। उनके ऊपर अन्याय होता है, क़ानूनन बहुत-सी चीज़ें हो जाती हैं, आरोप लगाए जाते हैं। ये होता है, ये जीवन है। हमारे साथ बहुत हुआ है। शायद ज़रूरत से ज़्यादा हुआ है। लेकिन मैं ऐसे मानता हूँ कि शुरु-शुरू में जब ये इसकी शुरुआत हुई थी, तो मुझे लगा कि ये क्यों हो रहा है और ये ग़लत चीज़ हो रही है और उससे बहुत कष्ट हुआ है, दुःख हुआ है। लेकिन अब मैंने मान लिया है कि हमारा जीवन ऐसा है, जहाँ पर हमारे ऊपर इस तरह के आरोप लगाए जाएंगे। यदि वो आरोप सही हैं, तो उसका हमें दण्ड दीजिए। लेकिन अगर सही नहीं हैं, तो हमें उसे सहना पड़ेगा।<br /><br /><b>कई दशकों से आपका एक दौर देखा गया है...</b><br />अरे, तो क्या... उसमें कौन-सी बड़ी बात हो गयी?<br /><br /><b>नहीं देखा गया?</b><br />नहीं।<br /><br /><b>चलिए आगे बढ़ते हैं। जो बालीवुड में अभी फ़िल्में बन रही हैं, आपको अच्छी लगती हैं। गुरुदत्त भी अच्छे लगते हैं, दिलीप कुमार साहब की आपको एक्टिंग भी अच्छी लगती थी और माना जाता था कुछ छवि भी वो दिखाई देती थी। अब के दौर में जब शाहरुख खान खड़े होते हैं, सलमान खान खड़े होते हैं। लगता क्या है कि अमिताभ बच्चन एक ऐसी जगह खड़ा है, जो एक तरफ़ यह परिस्थितियाँ थीं और दूसरी तरफ़ ये परिस्थितियाँ हैं।</b><br />नहीं, जो आपने कहा “ये परिस्थितियाँ हैं”, इस पर मुझे ऐसा लगा कि आप कह रहे हैं थोड़ी-सी कमज़ोरी है उनमें। मैं ऐसा नहीं मानता हूँ कि उनमें कोई कमज़ोरी है। सब अपनी-अपनी जगह सक्षम हैं और सब अपनी-अपनी जगह पर हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि हर युग में नई पीढ़ी को सामने आना चाहिए। नए कलाकार आएँ। कहाँ तक हम लोग उसको खीचेंगे या हम लोग ऐसा सोचेंगे कि सारी ज़िन्दगी जो है, जनता हमें ही प्रेम करती रहे, ऐसा होगा नहीं। और इस बात को हमने पहले ही मान लिया था।<br /><br /><b>बड़े लिब्रल डेमोक्रेटिक आन्सर होते हैं आपके।</b><br />नहीं-नहीं, बिल्कुल सही बात है। ये बिल्कुल सही बात है। प्रत्येक युग में आप देखेंगे या प्रत्येक दशक में नये कलाकार आए... और ये नयी पीढ़ी है। आपके हर व्यवसाय में ऐसा ही होगा। पिता जो है अपनी ज़िम्मेदारी पुत्र पर छोड़ देता है, चाहे वो बड़ा बिज़नेस हो, या वो मीडिया हो, चाहे वो फ़िल्म कलाकार हो, राजनीति हो। सब जगह ऐसा ही होता है।<br /><br /><b>एक सवाल बताइएगा। आखिरी सवाल आपसे जानना चाहेंगे कि ये आपका कमाल है या आपको लगता है कि हर चीज़ सिनेमाई हो गयी है। क्योंकि जब सिलसिला आयी थी तब ये कहा गया था कि अमिताभ बच्चन ही वह शख्स है जो पत्नी को भी ले आया और रेखा जी को भी ले आया...</b><br />वो दो कलाकार की हैसियत से लाए हम...<br /><br /><b>हम उसको आगे बढ़ा रहे हैं, उसको आगे बढ़ा रहे हैं... और एक वो दौर आता है जहाँ बेटा भी है, बहू भी है। सभी करेक्टर्स एक साथ स्क्रीन पर हैं।</b><br />अगर निर्देशक की नज़रों में कोई ऐसा कलाकार है, जो उनको लगता है कि ये सही है, ये जो सक्षम है इस रोल को निभाने के लिए, तो उसमें हम कभी भी रुकाव नहीं डालेंगे। मैंने आजतक कभी भी किसी निर्देशक से ये नहीं कहा, किभी निर्माता से नहीं कहा कि फ़लाँ को लो या फ़लाँ को न लो। ये उनके ऊपर निर्भर है। हाँ, वो मुझसे पूछते हैं कि हम फ़लाँ को ले रहे हैं, ये करेक्टर सूट करता है? मैं कहता हूँ ठीक है भैया। ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। मेरी ज़िम्मेदारी थोड़े ही न है। जो मेरी ज़िम्मेदारी है...<br /><br /><b>निजीपन स्क्रीन पर आ गया है?</b><br />कहाँ आया निजीपन?<br /><br /><b>नहीं आया?</b><br />नहीं, कैसे आ सकता है?<br /><br /><b>नहीं, वो केरेक्टर्स में तब्दील हो गए और वो परिवार के हिस्से भी हैं। जिन्दगी के हिस्से भी हैं।</b><br />नहीं, वो तो केवल एक इत्तेफ़ाक था। लेकिन वो केरेक्टर जो था, वो उसके अनुसार उन्होंने उन किरदारों को लिया। अब चाहे वो हमारी बहू हो, चाहे बेटा हो, चाहे पत्नी हो।<br /><br /><b>अलादीन की तीन इच्छाएँ हैं जिसे जिन्न पूरी करेगा, जो जीनियस है। आपकी भी कोई इच्छा है?</b><br />इक्यावनवाँ प्रश्न है जिसका अभी तक मैं उत्तर नहीं दे पाया। (हँसते हैं)<br /><br /><b>चलिए सर, बहुत-बहुत शुक्रिया। तो ये हैं अमिताभ बच्चन। इक्कसवीं सदी में पा की भूमिका के बाद जीनियस यानी अब जिन्न। और वो दौर भूल जाइए... भूल जाएँ न हम लोग... आक्रोश, विद्रोह, बगावत, शहंशाह...?</b><br />क्या पता कल फिर से जीवित हो जाए! कोई भरोसा नहीं है। (फिर हँसते हैं)<br /><br /><b>ये है मन का हो तो ठीक, न हो तो और ठीक। बहुत-बहुत शुक्रिया अमिताभ जी, बहुत-बहुत शुक्रिया।</b><br />धन्यवाद सर, धन्यवाद।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28998791855531764862009-01-24T08:30:00.000+05:302009-01-24T08:30:00.147+05:30स्लमडॉग मिलेनियर : ऑस्कर,अमिताभ,असलियतमिलेनियर के रास्ते स्लमडॉग का चलना कभी संभ्रात समाज को बर्दाश्त नहीं होता । जंजीर से लेकर अग्निपथ यानी करीब डेढ़ दशक तक समाज के भीतर के इसी टकराव की रोटी अमिताभ बच्चन ने चबायी है। जिसका ताना-बाना सलीम-जावेद की जोड़ी ने कागज पर उकेरा और शब्दों को अपनी अदाकारी में लपेट कर अमिताभ ने सिल्वर स्क्रीन पर जीया। अमिताभ के महानायक बनने की गाथा का सच यही है कि सैकडों दर्शकों के सामने भी अमिताभ हर दर्शक को इतना अलग कर संघर्ष के लिये तैयार करते कि हर किसी को यही लगता कि वह समाज के सबसे निचले पायदान से सबसे ऊपरी पायदान पर अपनी लड़ाई के बूते पहुंचेगा।<br /><br />पहले समाज की ठोकर फिर समाज को ठोकर मारने की जो रचना दीवार-लावारिस-मुकद्दर का सिकंदर सरीखे किरदार दो से तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने जीये कमोवेश उसका आधुनिक तरीका स्लमडॉग का सच है। समाज के भीतर के असमान लिचलिचेपन से जब कोई फिल्म टकराती है तो वह फिल्म महज कलाकारों की या डायरेक्टर की नहीं होती. बल्कि फिल्म आम लोगो की हो जाती हैं।<br /><br />स्लमडॉग का सच भी कुछ ऐसा ही है। पहले दिन का पहला शो। हाउस फुल सिनेमाघर । उसमें कौन बनेगा करोड़पति के खेल से लेकर स्लम की जिन्दगी जीने का जुनून। और सबकुछ खोते हुये सब कुछ पाने का ख्वाब। यह समझ बॉलीवुड की एक ऐसी हकीकत है, जिसे तीन घंटे की पोयटिक जस्टिस का नाम दिया जाता है और जिसे बच्चन के जरीये सलीम-जावेद ने खूब जीया है और खूब नाम कमाया है। इसी नब्ज को स्लमडॉग के डायरेक्टर डैनी बॉयल ने बेहद बारीकी से पकड़ा। डायलॉग की बारीकी देखने लायक हो। फिल्मी डायलॉग का पहला शब्द मादरचो.... का गूंजता है। इस एक शब्द से देखने वाले स्लमडॉग का सच समझ लें और दर्शकों में से आवाज आती है...यह तो अपनी ही फिल्म है गुरु...संवाद यही नहीं रुकता ....स्लमडॉग पुलिस के कब्जे में है, जिसके ज्ञान को पुलिस फ्राड-चीटर मान रही है।<br /><br />दूसरा संवाद उभरता है....जब डाक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर और पढ़े-लिखे लाख की रकम से आगे नही जा पाये तो यह स्लमडॉग करोड़ रुपये तक कैसे पहुंच गया और उस पर पुलिसिया थर्ड डिग्री के दर्द को झेलता स्लमडॉग का छोटा सा जबाब... मै हर जबाब जानता हूं......एक ऐसी हुक दर्शको में भरती है, जहां त्वरित कामेंट आता है....अबे किताब पढ़ने से सबकुछ नहीं आता। कौन बनेगा करोड़पति में अनिल कपूर के सवाल दर सवाल और जबाब देने से पहले हर सवाल को जिन्दगी में झेलने वाला स्लमडॉग । इससे ज्यादा खुरदुरी जमीन किसी फिल्म की कैसे हो हो सकती है जो एक तरफ करोड़पति बनने का रोमांच पैदा करे तो दूसरी तरफ मिलेनियर समाज का अंदर के मवाद को रिस रिस कर जख्म दर जख्म दिये जाए। इस तरह का सामंजस्य धारावी और सलाम बाम्बे में भी नही उभर पाया और बच्चन की फिल्मो में सलीम जावेद यहीं चूक जाते थे क्योंकि उन्हें अपने समाज को बेचना था और उसकी कमजोरियो में भी एक रोमाटिज्म पैदा करना भी था। इसलिये अमिताभ की फिल्म खत्म होने के बाद जीत का नशा तो पैदा करती, लेकिन देखने वाले को अकेला छोड़ देती, जहां वह समाज की विसंगतियों में रोमांच पैदा करके जी ले यही बहुत है।<br /><br />लेकिन स्लमडॉग जिस रास्ते को पकडती है, उसमें वह राज्य व्यवस्था के हर खांचे पर इतनी खामोशी से उंगली उठाती है कि देखने वाले के भीतर आक्रोष लाचारी के मुलम्मे में चढ़ा हुआ आता है । दंगो में जिन्दा जलते आदमी को देखने के बजाय पुलिस का ताश खेलना। चंद सेकेन्ड का दृश्य है मगर वह दिमाग में आखिर तक रेंगता है। स्लम से निकले जमाल और सलीम वैसे ही दो भाई हैं, जैसे अमिताभ की फिल्म दीवार में विजय और रवि फुटपाथ पर बड़े होते हैं। यहां विजय जिस रास्ते पर चलता है स्लमडॉग में काफी हद तक वही रास्ता सलीम पकड़ता है। दीवार में विजय यानी अमिताभ की मौत की वजह उसका अपना ही भाई रवि बनता है तो स्लमडॉग में सलीम की मौत की वजह भी उसका भाई जमाल बनता है। फिल्म दीवार में उस व्यवस्था के कवच को बचाया जाता है जिसके टूटने का मतलब नायक के हाथों राज्य व्यवस्था का हाशिये पर चले जाना है। इसलिये आदर्श की जीत होती है लेकिन स्लमडॉग किसी कवच को फिल्म में बनने ही नहीं देता उसलिये उसे बचाने का जिम्मा भी उसके कंधे पर नहीं है।<br /><br />लेकिन अपनों के लिये जीने और मरने का जो जज्बा स्लम में मिलता है, उसे ही फिल्म का पोयटिक जस्टिस बनाया गया। इसलिये सलीम की मौत जमाल के लिये कुर्बानी सरीखे या शहीद होने सरीखे हैं। जबकि विजय की मौत नायक को आदर्शवाद का पाठ पढ़ाने की है। जो जिसे समाज और सत्ता चबाकर आंखों के सामने अपनी सुविधानुसार परिभाषा गढने से नहीं चूक रहे। वहीं स्लमडॉग में झोपड़पट्टी के जीवन के सच के आगे संभ्रात समाज का जीवन इतना खोखला लगता है कि उससे घृणा भी नहीं हो पाती।<br /><br />अमिताभ बच्चन का दर्द यही है। क्योंकि स्लमडॉग की शुरुआत में जमाल का जुनून अमिताभ की ही तरह अमिताभ को लेकर कैसा है, इसे महज एक दृश्य में जिस तरह फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल ने दिखाया है वह सलीम-जावेद की जोड़ी पटकथा लिखते वक्त कभी सोच भी नहीं सकती थी। और अमिताभ इस दृश्य को सिनेमायी पर्दे पर जी भी नहीं सकते थे। फिल्म में जमाल की अमिताभ को देखने की चाहत पखाने के ढेर में नहला कर भी खुशी दे जाती है। भारतीय सिनेमा में यह दृश्य जुनून और सच की पराकाष्ठा है। संभवत यह दृश्य कोई दलित लेखक ही अपनी पटकथा में लिख सकता है। हांलाकि नामदेख ढसाल सरीखे दलित साहित्यकार भी ऐसे बिम्बो से चुके हैं। इसकी वजह हर आंदोलन के बाद दलित-पिछडे समाज के भीतर भी उसी संभ्रात समाज की तरह विकल्प बनाने की समझ है, जिसके खिलाफ आंदोलन शुरु होता है । यानी संघर्ष या आंदोलन के बाद खुरदुरी जमीन पर भी चकाचौंध दिखाने और जीने का खेल आधुनिक समाजिक आंदोलनों से जुड़ा रहा है। इसलिये दलित पिछडे ही नही बल्कि धारावी सरीके झोपडपट्टी के नेताओं का जीवन तो स्लम से शुरु होता है लेकिन धीरे धीर उसी स्लम को बनाये ऱखकर उसी पायदान को छूने की चाहत में आगे बढता है, जिसके खिलाफ बचपन से लड़ाई लड़ी।<br /><br />अमिताभ बच्चन का संकट यही है । जिन फिल्मो की कहानियों ने उन्हें महानायक बनाया संयोग से उसी सूत्र को पकडकर स्लमडॉग मिलेनियर ऑस्कर की दौड़ में आ गयी लेकिन इस दौर में अमिताभ का जीवन उस संभ्रात समाज का अक्स हो चुका है जहां संघर्ष या हक की लड़ाई के नायक पर सफल महानायक राज कर रहा है। जो सुविधा-चकाचौंध की हट में सब को डराना चाहता है । डराकर जीतने की चाहत बॉलीवुड का भी सच है। इसलिये बॉलीवुड की फिल्में कहानियों के साथ न्याय नहीं कर पाती। उन बिम्बो को साध नहीं पातीं जो क्रूर हकीकत हैं।<br /><br />स्लमडॉग में बच्चो से भीख मंगवाने के लिये पहले दर्शन दो घनश्याम.....गीत याद कराना और फिर गर्म चम्मच से आंखे निकाल लेना का दृश्य़ जब कौन बनेगा करोड़पति के सवाल से जुड़ता है और अनिलकपूर जमाल से सवाल करते है कि दर्शन दो घनश्याम...किसका गीत है...तुलसीदास-सूरदास-मीराबाई....और जबाब देने से पहले जमाल की आंखों के सामने उसकी अपनी हकीकत रेंगती है कि..वह बच गया....वरना आज वह भी सूरदास होता ...तो करोड़पति के खेल से भी देखने वाले को घृणा होती है। लेकिन इसे कहने के लिये फिल्म के नायक को अमिताभ की फिल्म की तरह अपनी छाती तान कर कुछ डायलॉग नही बोलने थे बल्कि स्लमडॉग पर मुंबई का चायवाला उपहास सुनते हुये महज सूरदास कहना था। यह बेचारगी ही दर्शको में हिम्मत भरती है। क्योंकि जो मौजूद है उसे बदलने का जज्बा तभी पैदा हो सकता है जब सच बताने और दिखाने पर अलग-अलग तबके और माध्यमों की तो सहमति हो जाये। लेकिन बॉलीवुड की फिल्में सिर्फ नायक में हिम्मत भरती है और देखने वालों को अकेला कर कमजोर करती है क्योकि वह असल जमीन से हटकर सिनेमायी संघर्ष का आगाज होता है।<br /><br />असल में फिल्म में मुंबई को जिस परछायी की तरह दिखाया गया वह स्लम के सामानांतर पांच सितारा अट्टालिकाओं पर भी उपहास करती है। लेकिन लाचारी और बेचारगी के बीच स्लम की जमीन पर बनी-बसी मुबंई की हकीकत का एहसास सलीम के जरीये कराने से नहीं चूकती, जहां वह मुंबई को दुनिया के बीच का शहर और खुद को मुंबई के बीच का केन्द्र मानता है । लेकिन सलीम का तरीका दीवार के विजय सरीखा लाखों की इमारत खरीद कर कराने का नहीं है। असल में अमिताभ बच्चन की सामाजिक ट्रेनिग उनकी फिल्मी सफलता का ग्राफ है जो चमकते-दमकते भारत में घुसने के लिये जोड़-तोड़ को संघर्ष का जामा पहनाता है। इसलिये महानायक बनते बनते उसकी फिल्मे नायक की धार खोकर शिक्षा और आदर्श का मुलम्मा चढाकर प्रगति गीत गाने से नहीं कतराती। सुविधा पर आंच आने या खुलेपन की कीमती चादर ओढकर कुछ भी करने में जरा भी ठेस लगती है तो अमिताभ का आक्रोष फिल्मी तर्ज पर उभरना चाहता है। इसलिये स्लमडॉग का मर्म अमिताभ के नायकत्व को हाशिये पर ले जाने का मर्म है इसलिये पश्चिम का दर्द इस तरह साल रहा है । जो इनका निजी दर्द है। ऑस्कर के दस नॉमिनेशन में से तीन में ए आर रहमान भी ऑस्कर की दौड़ में हैं। फिल्म का गीत ओ रे रिंगा....कमाल का है । हालाकि ऑस्कर की दौड में जय हो.. और ओ साया... है । लेकिन इस फिल्म को देखते वक्त कभी महसूस नहीं होता कि गीत-संगीत कहीं फिल्म को आगे बढा रहा है...बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद गीत दिखायी देता है, जिसका ट्रीटमेंट बतलाता है कि स्लमडॉग मिलेनियर महज कहानी है....सच से इतर। लेकिन यही फिल्म की सबसे बडी सफलता है, जहां दर्शक गीत सुनने के लिये सिनमाहाल में यह सोच कर नहीं रुकता कि जिस स्लम के सच को उसने देखा है उसे रोमाटिंक वह कैसे बना ले। असलियत यही है । इसीलिये यह ऑस्कर की दौड़ में है और अमिताभ का रोमाटिज्म यही मात खाता है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13