tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-47607373971085036992011-05-14T21:36:00.005+05:302011-05-14T21:54:39.570+05:30युद्द नहीं नेतृत्व की जरुरतदुनिया के नक्शे पर पाकिस्तान की हैसियत चाहे सुई भर हो लेकिन पाकिस्तान का मतलब दुनिया के दो सबसे ताकतवर देशों अमेरिका और चीन के लिये अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की जमीन का होना है। वहीं समूचे अरब वर्ल्ड के लिये पाकिस्तान का मतलब एक ऐसा शक्तिशाली इस्लामिक राष्ट्र का होना है जो परमाणु हथियारों से लैस है। और आर्थिक तौर पर ताकतवर बनते भारत के लिये पाकिस्तान का मतलब आतंक को पनाह देने वाला पड़ोसी है। जाहिर है अपनी इसी महत्ता के आसरे पाकिस्तान ने समूची दुनिया से अपनी शर्तों पर ही हमेशा सौदेबाजी की है। क्योंकि उसकी अपनी जरूरत दूसरों की जरूरत बने रहने पर ही टिकी रही है। ऐसे में पहली बार अमेरिका के लादेन आपरेशन से झटका खाये पाकिस्तानी सत्ता का संकट उसके अपने नागरिकों का भरोसा डिगना है तो अरब वर्ल्ड में मिली मान्यता के डगमगाने का भी संकट खडा हुआ है। जबकि पाकिस्तान की पीठ को थपथपाते रहने वाले शक्तिशाली चीन के लिये यह बडा सवाल खडा हुआ है कि उसके चहेते पाकिस्तान को अमेरिका झटका देकर चला गया और चीन की वह समूची तकनीकी ताकत भी कोई पहल नहीं कर सकी जिसके आसरे पाकिस्तान हमेशा खुद को मजबूत मानता रहा है ।<br /><br />सही मायने में 1971 के बाद पहली बार पाकिस्तान के सामने ऐसी स्थिति आयी है जहां उसे भविष्य की ऐसी लकीर खींचनी है जिससे उसका रुतबा लौटे। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को गंवाने के बाद पाकिस्तान अर्से तक अपने देश के सवालो में ही उलझा था। कमोवेश यही स्थिति इस बार भी है। क्योंकि उस वक्त पूर्वी पाकिस्तान को ना संभाल पाने का दर्द पाकिस्तानी सत्ता को सालता रहा तो इस बार अपनी ही जमीन पर खुद की मात का दर्द पाकिस्तानी सत्ता को है । और सत्ता को निशाने पर लेने के लिये पाकिस्तान के नागरिक सवाल कर रहे है। यानी पाकिस्तान की सत्ता गिलानी-जरदारी के पास है या फिर कियानी-पाशा के पास यानी सेना-आईएसआई के पास। यह अंतर्विरोध भी खुलकर उभरा है। और पाकिस्तान पहले इसी बिखरी सत्ता को एकछतरी तले लाना चाहेगा । और इसके लिये एक दुश्मन चाहिये तो भारत से बेहतर टारगेट कोई दूसरा हो नहीं सकता। खासकर कश्मीर मसले के चलते। इसके पहले संकेत सेना-प्रमुख कियानी ने रावलपिंडी से दिये तो विदेश सचिव सलमान बशीर ने इस्लामबाद से और पाकिस्तानी सेना ने जम्मू सीमा पर। 5 मई को तीनो परिस्थितियों ने साफ जतलाया कि इस बार अपनी ताकत और सौदेबाजी को दोबारा पाने के लिये पाकिस्तान के निशाने पर भारत होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि भारत पर निशाना साध कर पाकिस्तानी सरकार ना सिर्फ अमेरिका को भारत के दबाव में लाकर अपनी सौदेबाजी को दुबारा बातचीत की टेबल पर ला सकती है बल्कि पाकिस्तानी नागरिकों को भी राष्ट्रवाद के नाम पर भारत के खिलाफ एकजूट करते हुये अपनी सत्ता बरकरार रख सकती है। इसकी पहल पाकिस्तान के विदेश सचिव या पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष कियानी के कड़े तेवरों के बीच बीते गुरुवार को लाइन ऑफ कन्ट्रोल से सटे मेंढर की तीन चौकियां क्राति, नंगीटोकरी और रावी पर पाकिस्तान की गोलीबारी से भी समझा जा सकता है।<br /><br />इस साल पहली बार सीजफायर तोडते हुये जिस तरह फायरिंग हुई उसने यह सवाल जरूर खड़ा कर दिया कि क्या कश्मीर एक बार फिर पाकिस्तानी सत्ता के निशाने पर आयेगा। दरअसल मेंढर वह जगह है जहां से पीओके शुरू होता है या कहें 22 बरस पहले 1989 में जब आतंकवाद की शुरुआत रुबिया सईद के अपहरण के वक्त से शुरु हुई तो मेढर से परिवार के परिवार पीओके चले गये। और पीओके में अब भी पाकिस्तान कश्मीर के आसरे यह सपना जिलाये हुये कि कश्मीर उसका है। जाहिर है पाकिस्तानियों के भीतर भी कश्मीर ही एक ऐसा मुद्दा है जिस पर किसी भी तरह की कार्रावाई अगर पाकिस्तानी सत्ता करती है तो पाकिस्तान एकजुट हो जाता है। ऐसे में भारत के सामने पाकिस्तान के संबंध या कहें कश्मीर को लेकर जारी डिप्लामेसी के बीच कई सवाल नयी परिस्थितियों में खडे हो सकते हैं।<br /><br />क्या आने वाले वक्त में पाकिस्तानी सेना एलओसी को लांघेगी। क्या बर्फ पिघलने के साथ ही करगिल के दौर की तरह सीमापार से आतंकवादियो की कश्मीर में घुसपैठ बढेगी। क्या कश्मीरी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के जरिये कश्मीरियों को फिर बरगलाने का खेल शुरू होगा। क्या कश्मीर के नाम पर भारत के साथ सौदेबाजी का दायरा बातचीत की मेज पर लाया जायेगा। क्या चीन का दखल भी कश्मीर में बढेगा। यह सारे सवाल फिलहाल पाकिस्तान के हक में इसलिये भी हैं क्योंकि लादेन आपरेशन में मुंह की खाये पाकिस्तानी सत्ता के सामने आज की तारीख में कुछ भी गंवाने के लिये नहीं है। और कश्मीर एक ऐसा मुद्दा है जिसके जरिये पाकिस्तान एक नयी तारीख की शुरुआत अपने लिये कर सकता है। लेकिन यहीं से बड़ा सवाल भारत के लिये शुरू होता है। कश्मीर को लेकर मनमोहन सरकार की कोई ऐसी नीति इस दौर में नहीं उभरी जिसमें आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान की सत्ता को कटघरे में खडा किया गया हो । क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में पाकिस्तान के साथ पेश कैसे आया जाये यह भी आर्थिक नीतियों पर प्रभाव ना पड़े इसे ही ध्यान में रखकर बातचीत हुई। <br /><br />अगर बीते छह बरस में मनमोहन सिंह की नीतियों को पाकिस्तान या आतंकवाद के परिपेक्ष्य में देखें तो सरकार की प्राथमिकता आर्थिक विकास को पटरी से ना उतरने देने वाले माहौल को बनाये रखने की है। पाकिस्तान के साथ आर्थिक संबंधों पर जोर देने का रहा। आतंकवाद को आर्थिक परिस्थितियों में सेंध लगाने वाला बताया गया। कारपोरेट विकास के लिये मलेशिया-मारिशस का हवाला-मनीलेंडरिंग का रूट भी खुला रहा। जबकि यह सवाल बार5बार उछला कि मारिशस या मलेशिया के रूट का मतलब कहीं ना कहीं आतंकवादी संगठनों के धंधे में बदले मुनाफे से भी खेल जुड़ा हो सकता है। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है टेलीकॉम लाईसेंस के खेल में जुड़े स्वॉन कंपनी के ताल्लुकात अगर एतिसलात से जुड़े तो एतिसलात के पीछे दाउद भी है। और आर्थिक मुनाफे के खेल में इस आर्थिक आतंकवाद पर नकेल कसने के लिये कोई रोक देश में नहीं है। इसके उलट हवाला या मनीलाडरिंग का जब तक पता नहीं चला तब तक सरकार के नजर में इन्हीं कारपोरेट घरानों की मान्यता खासी रही। यानी बाजार पर टिके मुनाफे के कारपोरेट खेल के तार उन आतंकवादी संगठनों को भी खाद-पानी देते हैं, जिन्हें भारत सरकार विकास के रास्ते में रोड़ा मानती है। <br /><br />जाहिर है यह कुछ ऐसा ही रास्ता है जिसमें ओसामा-बिन-लादेन को पैदा भी अमेरिका करता है और खत्म भी अमेरिका करता है। लेकिन अमेरिकी तर्ज पर भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं है या कहें भारत की वह ठसक अभी दुनिया में नहीं है जो अमेरिका की है। अमेरिका ने लादेन के सवाल को अपनी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति से यूं ही नही जोड़ा। 9/11 के बाद दस बरस में यूं ही 1.3 ट्रिलियन डालर खर्च नहीं किये। निशाने पर अफगानिस्तान को यूं ही नहीं लिया। जबकि भारत ने आतंकवाद के सवाल को भी इकनॉमी से जोडा। हाल के दौर में अमेरिका के साथ आतंकवाद पर बातचीत में भी आर्थिक माहौल ना बिगड़े इस पर ही ज्यादा जोर दिया गया। यानी चकाचौंध अर्थव्यवस्था को बनाये रखने के रास्ते में कोई ना आये, यह बैचेनी बार-बार मनमोहन सरकार के दौर में दिखी। जबकि पाकिस्तान के साथ संबंधों को लेकर इससे पहले जिस भी प्रधानमंत्री ने चर्चा की उसमें एलओसी उल्लघंन ,कश्मीर में सीमापार आतंक की दस्तक या आतंकवाद को पाकिस्तान में पनाह देने के नाम पर होती रही और भारत हमेशा पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करता रहा। लेकिन, पहली बार मनमोहन सरकार के दौर आतंकी कार्रवाई को आर्थिक स्थितियो में सेंघ लगाने वाला करारा दिया गया । मुंबई में सीरियल ब्लास्ट हो या 26-11, दोनों हमलों के बाद दुनिया में मैसेज यही गया कि भारत की आर्थिक राजधानी मुबंई में हमला कर आतंकवादी अर्थव्यवस्था पर चोट करना चाहते हैं। <br /><br />यही बात दिल्ली, हैदराबाद, अहमदाबाद सरीखे शहरों में हमले के बाद भी सरकार की तरफ से कही गयी। यानी ध्यान दें तो आतंकवाद और पाकिस्तानी सत्ता को मनमोहन नीति ने अलग-अलग ही खड़ा किया। और लादेन आपरेशन के बाद जो तथ्य निकले है उसमें पाकिस्तानी सत्ता ही जब आंतकवाद की जमीन पर खडी नजर आ रही है तब बडा सवाल यही है कि अब मनमोहन सरकार का रुख पाकिस्तान को लेकर क्या होगा । क्योंकि भारत फिलहाल आतंकवाद के मुद्दे पर एक सॉफ्ट स्टेट की तरह खड़ा किया गया है और अमेरिका ने नया पाठ यही पढा़या है कि आर्थिक तौर पर संपन्न होने का मतलब सॉफ्ट होना कतई नहीं होता। जाहिर है अमेरिकी कामयाबी के बाद तीन बड़े सवाल भारत के सामने हैं। पहला अब अमेरिका का रुख आंतकवाद को लेकर क्या होगा । दूसरा अब पाकिस्तान किस तरह आतंकवाद के नाम पर सौदेबाजी करेगा। और तीसरा लादेन के बाद लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद सरीखे आंतकंवादी संगठनो की कार्रवाई किस स्तर पर होगी। जाहिर है लादेन की मौत से पहले तक तीनों परिस्थितियां एक दूसरे से जुडी हुई थी, जिसके केन्द्र में अगर पाकिस्तान था तो उसे किस दिशा में किस तरीके से ले जाया जाये यह निर्धारित करने वाला अमेरिका था और भारत के लिये डिप्लोमेसी या कहें अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के अलावे कोई दूसरा रास्ता था नहीं। लेकिन अब भारत के सामने नयी चुनौती है। एक तरफ अमेरिका के साथ खडे होकर पाकिस्तान से बातचीत का रास्ता भी भारत ने बनाये रखा और दूसरी तरफ तालिबान मुक्त अफगानिस्तान को खड़ा करने में भारत ने देश का डेढ सौ बिलियन डालर भी अफगानिस्तान के विकास में झोंक दिया। वही अब अमेरिका की कितनी रुचि अफगानिस्तान में होगी यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। क्योंकि अमेरिका के भीतर अफगानिस्तान को लेकर सवालिया निशान कई बार लगे। साढ़े तीन बरस पहले जॉर्ज बुश को खारिज कर बराक ओबामा के लिये सत्ता का रास्ता भी अमेरिका में तभी खुला जब डोमोक्रेट्रस ने खुले तौर पर आंतकवाद के खिलाफ बुश की युद्द नीति का विरोध करते हुये अफगानिस्तान और इराक में झोंके जाने वाले अमेरिकी डॉलर और सैनिकों का विरोध किया। और डांवाडोल अर्थव्यवस्था को पटरी<br />पर ना ला पाने के आोरपो के बीच एक साल पहले ही ओबामा ने इराक-अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिको की सिलसिलेवार वापसी को अपनी नीति बनाया। <br /><br />इन परिस्थितियों में लादेन की मौत के बाद भारत-पाकिस्तान ही नहीं अमेरिकियों को भी इस बात का इंतजार है कि ओबामा अब आंतकवाद को लेकर कौन सा रास्ता अपनाते हैं। लादेन की मौत के बाद अमेरिकी सत्ता अपने नागरिकों के बीच अपना युद्ध जीत चुकी है। इसलिये 9/11 के बाद से पाकिस्तान को 20.5 अरब डालर की मदद देने के बाद अगले पांच बरस में और 9.5 अरब डालर देने का वायदा करने के बावजूद वह पाकिसतान को अगर यह कह रही है कि जरुरत पड़ी तो और आपरेशन भी अंजाम दिये जा सकते हैं। और पाकिस्तान हेकडी दिखा रहा है कि अमेरिका अब लादेन सरीखे आपरेशन की ना सोचे। तो समझना भारत को होगा। जिसे आतंकवाद से राहत ना तो कभी पाकिस्तान ने दी और ना ही अमेरिका ने। उल्टे 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने जो रोक भारत और पाकिस्तान पर लगाये, उन प्रतिबंधों में ढ़ील भी 9/11 के बाद सिर्फ पाकिस्तान को दी। क्योंकि रणनीति पाकिस्तान के जरिये साधनी थी। वहीं भारत की सत्ता अपने नागरिकों को न्याय दिलाना तो दूर ओबामा की तर्ज पर यह कह भी नहीं पाती कि बीते ग्यारह बरस में आतंकवाद की वजह से हमारे पांच हजार से ज्यादा नागरिक मारे जा चुके हैं और उन्हें न्याय दिलायेंगे। वहीं अब सवाल है कि क्या अमेरिका यह कहने की हिम्मत दिखायेगा कि वह आतंकवाद के मुद्दे पर भारत से कहे कि पाकिस्तान से रणनीतिक साझेदारी तभी तक करनी चाहिये जब तक मकसद मिले नहीं। अंजाम तो अपने बूते ही देना होगा। जाहिर है अमेरिका यह कहेगा नहीं और भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि मनमोहन सिंह नेता नहीं अर्थशास्त्री हैं। और अर्थशास्त्र की कोई भी थ्योरी युद्द या हिंसा के बीच मुनाफा बनाने का मंत्र आजतक नहीं दे पायी है । लेकिन अंतर लोकतंत्र का भी है। अमेरिका दुनिया का सबसे मजबूत लोकतांत्रिक देश है इसलिये लादेन का पता खोजकर उसने कार्रवाई की । वही भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है जिसके पास 1993 के मुबंई सिरियल ब्लास्ट से लेकर संसद पर हमले और 26/11 को अंजाम देनेवालों का पता भी है । लेकिन वह कार्रवाई नहीं कर सकता।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-38674084895628214072009-01-09T10:30:00.004+05:302009-01-09T10:37:35.158+05:30किससे लड़ें - पाकिस्तानी आतंकवाद से या देशी राजनीतिक आतंकवाद से<p>इंदिरा गांधी होतीं तो पाकिस्तान के आतंकवादी कैपों पर 28 नवबंर को ही हमला बोल देतीं। मुंबई हमलों में आतंवादियों को मार गिराये जाने की खबर के साथ ही दुनिया तब पाकिस्तान के खिलाफ भारत की सैनिक कार्रवाई की खबर सुनता। लेकिन देश में लीडरशीप है नहीं तो घुडकी का अंदाज भारत की कूटनीति का हिस्सा बना हुआ है। समूची कूटनीति का आधार देश के भीतर बार बार यही संकेत दे रहा है कि चुनाव होने है...उससे पहले सरकार बांह चढाकर आम वोटरों की भावनाओं में राष्ट्रप्रेम का चुनावी संगीत भरना चाहती है...समूची कवायद इसी को लेकर हो रही है। </p><p><br />करगिल के जरिए जो काम एनडीए सरकार कर सत्ता में बनी रही, वैसा ही कुछ यूपीए सरकार भी करके सत्ता में बने रहने के उपाय ही करना चाह रही है। दरअसल, यह सारी सोच आम जनता के बीच चर्चाओं में जमकर घुमड़ रही है। पहली बार देशहित या राष्ट्रप्रेम को भी चुनावी रणनीति में लपेट कर कूटनीति का जो खेल खेला जा रहा है, उससे यह तो साफ लगने लगा है कि राजनीति अपने सत्ता प्रेम को पारदर्शी बनाने से भी नही कतराती। और जनता हाथों में हाथ थाम कर या मोमबत्ती जलाकर ही अपने आक्रोष को शांत करना चाहती है। टेलीविजन स्क्रीन पर वाकई रंग-रोगन कर तीखी बहस के जरिए देश पर हमले का जबाब देने को उतारु है।</p><p><br />जाहिर है इन सभी के पेट भरे हुये है और सुरक्षित समाज में सत्ता के करीब रहने का सुकून हर किसी ने पाला है तो युद्दोन्माद की स्थिति बरकरार रख जीने का सुकून सभी चाहने लगे हैं। सरकार से इतर बाकि राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं, यह कहीं ज्यादा त्रासदी का वक्त है। जो आरएसएस<br />1961 में चीन युद्द के दौरान जनता और सेना का मनोबल बढाने के लिये समाज के भीतर और सीमा पर सैनिकों के साथ खड़ा हो गया था, वह अब इस मौके पर आडवाणी की ताजपोशी की रणनीति बनाने में जुटा है। चीन युद्द के दौर में भारतीय सैनिकों के पास गर्म जुराबे तक नहीं थीं। हाथ में डंडे और दुनाली से आगे कोई हथियार नहीं था। उस वक्त आरएसएस गर्म कपड़े सैनिको में बांटा करता था। समाजवादी और लोहियावादी नेता नेहरु-मेनन की नीतियो के खिलाफ खुले रुप में खड़े हो गये थे। मेनन को तभी नेहरु ने हटाया भी। चीन को लेकर उस दौर में समाजवादी-लोहियावादी नेहरु की वैदेशिक नीति के खिलाफ थे। उसी विरोध के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने वैदेशिक नीति में अंतर लाया। वहीं अब खुद को समाजवादी-लोहियावादी कहने वाले सरकार से राजनीतिक सौदेबाजी का हथियार भी राष्ट्रहित को बनाने से नही चूक रहे।</p><p><br />हां, अभी के वामपंथियो को लेकर अच्छा लग सकता है कि वह किसी भूमिका में नहीं है । क्योंकि चीन युद्द के दौरान वामपंथी सीमा पर रहने वाले लोगो को राहत देने के लिये पार्टी सदस्य बनाकर कार्ड होल्डर बना रहे थे और कह रहे थे जब चीनी सैनिक आयें तो उन्हे यह लाल कार्ड दिखा दें, जिससे वामपंथी होने के तमगे पर उन्हे कोई कुछ नही कहेगा। असल में पाकिस्तान को लेकर कौन सी कूटनीति अब अपनायी जा रही है, जिसमें अमेरिका के बगैर भारत कुछ कर नही सकता और जबतक चीन पाकिस्तान के साथ खडा है अमेरिका कुछ कह नहीं सकता । </p><p><br />26 नबंबर 2008 यानी मुबंई हमलो के बाद के सवा महिनों में अमेरिका और चीन की सक्रियता भी गौर करने वाली है । हमलों के तुरंत बाद अमेरिकी विदेश मंत्री कोडलिजा राइस ने दिल्ली होते हुये इस्लामाबाद की यात्रा की । बचते-बचाते जिस तरह के बयान राइस ने दिये, उसमें दिल्ली यात्रा के दौरान भारत खुश हो सकता है और इस्लामाबाद यात्रा के दौरान पाकिस्तान को थर्ड पार्टी के होने की गांरटी मिल सकती है। यानी अमेरिकी हरी झंडी के बगैर भारत कुछ नहीं करेगा उसके संकेत राइस ने इस्लामाबाद यात्रा के दौरान ही दे दिया । लेकिन अमेरिकी कूटनीति की जरुरत पाकिस्तान है, इसलिये राइस के बाद अमेरिकी मंत्रियो और अधिकारियो की यात्राओं का सिलसिला थमा नहीं। जान मैकेन भी इस्लामाबाद पहुचे और सुरक्षा अधिकारियो के लाव-लश्कर के अलावा अमेरिकी रक्षा टीम ने पाकिस्तान का दौरा किया। हर यात्रा के बाद यही रिपोर्ट अमेरिकी मिडिया में निकल कर आयी कि भारत और पाकिस्तान के बीच सैनिक कार्रवाई की छोटी सी भी शुरुआत अमेरिका के 9-11 के बाद की पहल को खत्म कर देगी । जो अफगानिस्तान के भीतर और बाहर पाकिस्तान के सहयोग से नाटो फौजें कर रही हैं । पाकिस्तान के लिये भी कूटनीतिक सौदेबाजी में अमेरिका की कमजोरी से लाभ उठाना है। और उसने उठाया भी। भारत किसी तरह की सैनिक कार्रवाई नहीं करेगा । सिर्फ घुडकी देते रहेगा...तभी अल-कायदा और कट्टरपंथी कबिलायियों के खिलाफ पाकिस्तान की फौज नाटो को मदद जारी रख सकती है। लेकिन पाकिस्तान की रमनीति यहीं नहीं रुकी । जिन कबिलायी गुटों ने पिछले तीन महिनों से सीजफायर किया हुआ था, उन्होंने दुबारा युद्द का ऐलान कर दिया। पाकिस्तान के दौरे पर पहुंचे अमेरिकी सेक्रेटरी आफ स्टेट रिचर्ड बाउचर के सामने पाकिस्तान ने इससे पैदा होने वाली परेशानी को रखा।</p><p><br />बलूचिस्तान में सक्रिय विद्रोही कबिलाइयों को लेकर 2 दिंसबर को पहली बार पाकिस्तान के सेना प्रमुख असफाक कियानी ने यही कहा था कि कबिलाईयो के साथ तो बातचीत कर उन्हे समझाया जा सकता है लेकिन भारत ने किसी तरह की सैनिक पहल की तो पाकिस्तान की एक लाख फौज तत्काल एलओसी पर तैनात कर दी जायेगी । बाउचर ने पाकिस्तान की पीठ सहलायी और राष्ट्रपति जरदारी ने यह कहने में कोई देर नहीं लगायी कि रिचर्ड बाउचर की वजह से अमेरिका के साथ पाकिस्तान के द्दिपक्षीय संबंध खासे मजबूत और विकसित हुये है, इसलिये हिलाल-ए-कायदे-आजम सम्मान बाउचर को दिया जायेगा । महत्वपूर्ण है कि यह वही वाउचर हैं, जिन्हे अमेरिका के साथ भारत के परमाणु डील होने के बाद पाकिस्तान में ही यह कहते हुये लताडा गया था कि वह पाकिस्तान के हित को अनदेखा कर भारत के पक्ष में ही रिपोर्ट तैयार करते हैं। वहीं इस दौर में भारत और अमेरिका किस रुप में नजर आये इसका नजारा अबतक की सबसे बडी हथियारो की डील के जरीये सामने आया । नौसेना के लिये भारत ने अमेरिकी प्राइवेट कंपनी के साथ आठ मेरीटाइम एयरक्राफ्रट खरीदेने पर हस्ताक्षर किये । 600 नाउटीकल मील तक मार करने वाले इस एयरक्राफ्रट की पहली डिलीवरी चार साल बाद होगी और सभी एयरक्राफ्रट 2015-16 तक मिलेगे । लेकिन महत्वपूर्ण यह नही है , ज्यादा बड़ा मामला आर्थिक मंदी के दौर में इस सौदे की रकम है जो 2.1 बिलियन डालर की है । यानी दस हजार करोड़ की रकम का मामला है। ये रकम चार किस्तों में भारत देगा। अमेरिका के लिये कूटनीति का यही पैमाना भारत और पाकिस्तान को अलग करता है। पाकिस्तान दुनिया के पहले तीन देशो में आता है, जिनका सैनिक बजट सबसे ज्यादा है । जीडीपी का करीब साढे सात फिसदी । लेकिन पाकिस्तान के हथियारों की पूंजी उसके अपने विकास से नहीं जुड़ती बल्कि अमेरिका-चीन और अरब देशो के साथ कभी रणनीति तो कभी कूटनीतिक आधार पर पूंजी समेटने के आधार पर जुड़ती है। वहीं भारत का हथियारो पर खर्च उसके अपने विकसित होते पूंजीवादी परिवेश से निकलता है।</p><p><br />सरल शब्दो में अपनी कमाई का हिस्सा भारत को हथियार पर लगाना है और पाकिस्तान को कमाई के लिये हथियार खरीदने की स्थिति बनानी है। अमेरिका के साथ चीन की सक्रियता भी मुबंई हमलो के बाद समझनी होगी । चीन के उप विदेश मंत्री हे याफी दिल्ली पहुंचने से पहले इस्लामाबाद में थे । दिल्ली में उन्होंने पाकिस्तान को सौंपे गये सबूतो को लेकर या आतंकवादी हिंसा को लेकर कुछ भी कहने से साफ इंकार कर दिया । सिर्फ आर्थिक सुधार के मद्देनजर दोनो देशो के संबंधो पर चर्चा की । लेकिन इस्लामाबाद पहुंचते ही याफी ने साफ कहा कि पाकिस्तान खुद दोहरे आतंकवाद से जुझ रहा है,अल-कायदा और कट्टरपंथियो की हिंसा से। इसलिये दुनिया को पहले पाकिस्तान को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना चाहिये। जाहिर है चीन की कूटनीति भारत को उस दिशा में ले जाना चाहती है जहां पाकिस्तान अमेरिका के करीब आये और अमेरिक की कूटनीति भारत को चीन से दूर ले जाती है। इन परिस्थितयों में भारत आतंकवाद के घाव से कैसे बचेगा और आतंकवाद से सही ज्यादा खतरनाक जब देश की संसदीय व्यवस्था में सत्ता का जुगाड़ हो जाये तो पहले किस आतंकवाद से कैसे लड़ा जाये पाकिस्तानी आतंकवाद या देशी राजनीतिक आतंकवाद से ।<br /><br /></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com14