tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-74364202728705743012012-03-21T09:30:00.002+05:302012-03-21T09:31:55.793+05:30बदलने लगी संघ की चाल और बीजेपी का चेहरा<div><span style="font-size: 100%; ">आरएसएस ने पहली बार राजनीतिक तौर पर सक्रिय रहे स्वयसेवकों को संगठन के भीतर जगह दी है, तो बीजेपी पहली बार अपने ही कद्दावर नेताओं को खारिज कर पैसेवाले उघोगपतियों को जगह दे रहा है। आरएसएस को लग रहा है कि आने वाले वक्त में संघ को राजनीतिक दिशा देने का काम करना होगा। तो बीजेपी को लग </span><span style="font-size: 100%; ">रहा है कि चुनावी सत्ता की नैया खेने के लिये आने वाले वक्त में सबसे जरुरी पैसा ही होगा। आरएसएस ने अपनी कार्यकारिणी में ऐसे छह नये चेहरों को जगह दी है जो इमरजेन्सी से लेकर मंडल-कमंडल के दौर में खासे सक्रिय रहे। सह-सरकार्यवाहक बने डा कृष्णा गोपाल तो 1975 में मीसा के तहत 19 महीने जेल में रहे। और मदनदास देवी की जगह आये सुरेश चन्द्रा तो अयोध्या </span><span style="font-size: 100%; ">आंदोलन के दौर में स्वयंसेवकों को राम मंदिर का पाठ ही कुछ यूं पढ़ाते रहे जिससे बीजेपी की राजनीतिक जमीन के साथ समूचा संघ परिवार खड़ा हो।</span></div><div><span style="font-family: Georgia, serif; "><br />इसी तर्ज पर एक दूसरे सहसरकार्यवाहक बने। केरल के के सी कन्नन ने स्वयंसेवकों की तादाद बढ़ाते हुये हिन्दुत्व की धारा को लेकर दक्षिण में तब जमीन बनायी जब वामपंथी धारा पूरे उफान पर थी। लेकिन इसके ठीक उलट बीजेपी ने अरबपति </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">एनआरआई अंशुमान मिश्रा और नागपुर के अरबपति अजय कुमार संचेती को अपना नुमाइन्दा बनाया है। एनआरआई अंशुमान लंदन में रहते हैं। पर्चा भरते वक्त पत्रकारों के कुरेदने पर यह कहने से नहीं चूकते जब झरखंड संभाले चौकडी अर्जुन मुंडा,बीजेपी के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ और वैकैया नायडू के अलावा वर्तमान अध्यक्ष नीतिन गडकरी का ही साथ हो तो फिर राजयसभा कितनी दूर होगी। वहीं उद्योगपति अजय कुमार संचती हर उस जगह बीजेपी के पालनहार बने </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">जहा पैसे की जरुरत रही। संयोग से झारखंड में अर्जुन मुंडा की सरकार बन जाये उसमें भी नागपुर से उडकर रांची में असल बिसात संचेती ने ही बिछायी थी। इतना ही नही नीतिन गडकरी के बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर हर छोटे-बडे बैठकों के लिये पैसे का इंतजाम उन्हीं पैसेवालों ने किया जो नीतिन गडकरी के करीब थे। यहां तक की पटना में बीजेपी की सरकार होने के बावजूद ना तो सुशील मोदी ना ही रविशंकर जैसे नेताओं ने पैसे का जुगाड कर पाये। आखिरकार रास्ता गडकरी ने ही दिखलाया। वहीं संघ के </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">मुखिया मोहन भागवत को अण्णा आंदोलन के दौर सें लगा कि अगर सामाजिक तौर पर अण्णा सरीखा कोई शख्स देश को झकझकोर सकता है तो फिर आने वाले वक्त में आरएसएस की उपयोगिता पर भी सवाल उठेंगे।<br /><br />और जब बीजेपी के पास समूचा राजनीतिक संगठन है और संघ के स्वयंसेवकों को महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार और कालेधन के सवाल पर बीजेपी के आंदोलन के साथ जुडने का निर्देश था, फिर भी सफलता बीजेपी को क्यो नहीं मिली । असल में 16-17 मार्च को नागपुर में संघ </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">के राष्ट्रीय अधिवेशन में यही सवाल उठा। और चितंन-मनन की प्रक्रिया में पहली बार आरएसएस ने माना ने बीजेपी की राजनीतिक दिशा कांग्रेस की लीक पर चलने वाली ही हो चुकी है । इसलिये आरएसएस को ही राजनीतिक बिसात बिछानी होगी । और इसी रणनीति के तहत पहली बार संघ की कार्यकारिणी राजनीति के उस महीन धागे को पकड़ना चाह रही है जहा से बीजेपी की साख दोबारा बने । यानी </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">संघ यह मान रहा है कि बीजेपी के नेताओ की साख नहीं बच रही इसलिये संगठन भी भोथरा नजर आ रहा है। वहीं नेताओं का मतलब नीतिन गडकरी सीधे दिल्ली की उस तिकडी पर डाल रहे हैं जो संसद से सडक और मीडिया से आम लोगों के ड्राईंग रुम तक में चेहरा है। बीजेपी ही नहीं संघ का भी मानना है कि लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली राजनीतिक तौर पर बीजेपी की पहचान है । लेकिन इन नेताओं की पहचान के साथ आरएसएस की खुशबू गायब है । इसका लाभ नीतिन गडकरी को मिल रहा है। और नीतिन गडकरी के रास्ते का लाभ आरएसएस को </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">मिल रहा है। क्योंकि संघ के भीतर गडकरी को लेकर पहचान मोहन भागवत के ऐसे सिपाही के तौर पर है जो मुहंबोले हैं। जिसने अब की कमान संभाले संघ कार्यकारिणी के हर उस शख्स को नागपुर में देवरस के उस दौर से देखा जब सभी रेशमबाग के इलाके में कदमताल करते हुये सदा-वस्तले गाया करते थे। उसमें मोहन भागवत भी रहे हैं। तो बीजेपी के चेहरों को खत्म करने की राजनीति में बीजेपी ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है जहां लोकसभा में प्रतिपक्ष के तौर पर बीजेपी की नेता सुषमा स्वराज के साथ बीजेपी अध्यक्ष की धुन बिगड चुकी है<br /><br /></span></div><div><span>राजयसभा में प्रतिपक्ष के बीजेपी के नेता के तौर पर अरुण जेटली के साथ नीतिन गडकरी की किसी मुद्दे पर साथ बैठते नहीं। लाल कृष्ण आडवाणी के घर का रास्ता भी गडकरी भूल चुके हैं। ऐसे में दिल्ली में डेरा जमाये दूसरी कतार के नेताओ की फौज चाहे रविशंकर प्रसाद से लेकर अनंत कुमार तक हो या शहनवाज हुयैन से लेकर मुख्तार अब्बास नकवी या रुढी की हो सभी गडकरी के </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">पीछे आकर खड़े हो गये हैं। ऐसे में बीजेपी के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वैकैया नायडू बेहद शालिनता से दिल्ली की तिकडी का साथ छोड़ गडकरी के पैसेवालो की चौसर के ऐसे पांसे बन गये जहा बीजेपी का मतलब गडकरी का खेल है। इसलिये उत्तराचल में काग्रेसी रावत के बगावत से जरा सी उम्मीद भी बीजेपी में जागती है तो निशंक के साथ गडकरी रात बारह बजे के बाद भी चर्चा करने से नहीं कतराते और राज्यसभा की सीट पर राज्यसभा के डिप्टी स्पीकर अहलूवालिया का पत्ता कैसे कटे इसकी बिसात झारखंड में पहले जमेशदपुर के उघोगपति आर के अग्रवाल के नाम से सामने आती है तो फिर एनआरआई</span></div><div><span>अंशुमान मिश्रा के जरीये मात मिलती है। वहीं खेल बिहार में भी खेला जाता है जहा अहलूवालिया का नाम छुपाकर सुरक्षा एंजेसी चलाने वाले आर के सिन्हा के नाम को आगे कर बिहार बीजेपी के भीतर ही लकीर खिंच कर जेडियू को मौका दिलाया जाता है । अगर </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">इतने बडे पैमाने पर लकीरें खिंची जा रही है तो सवाल यह नहीं है कि है कि क्या संघ से लेकर बीजेपी बदल रही है । सवाल यह है कि आगे जिस रास्ते को संघ और बीजेपी पकडने वाले है उसका असर देश की राजनीति पर पड़ेगा या फिर </span><span style="font-family: Georgia, serif; ">बदलती राजनीति ने ही बीजेपी-संघ को बदलने पर मजबूर कर दिया है।</span></div>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-2894086287594412162010-03-29T13:06:00.004+05:302010-03-29T13:06:55.582+05:30ये गड़करी की टीम नहीं, भागवत की हार है<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">उनसठ साल पहले श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर एक राष्ट्रवादी राजनीतिक दल की स्थापना के लिये तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवरकर से कार्यकर्ता मांगे थे। तब आरएसएस ने उन कार्यकर्ताओं को श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जाने की इजाजत दे दी जो राजनीतिक दल बनाने के पक्ष में थे। उसी के बाद </span>1951<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में जनसंघ आसतित्व में आया। और जनसंघ के अध्यक्ष डॉ मुखर्जी बने। और उनसठ साल बाद संघ के राजनीतिक दल भाजपा के अध्यक्ष नीतिन गड़करी ने सरसंघचालक से पार्टी का संगठन संभालने या कहें मथने के लिये संघ से कार्यकर्ता मांगे और संघ ने तीन कार्यकर्ताओ पर हरी झंडी दिखा दी। रामलाल के साथ वी सतीश और सौदान सिंह <span style="mso-spacerun:yes"> </span>। संघ के रास्ते ही मुरलीधर राव ने भी दस्तक दी। लेकिन मुरलीधर आरएसएस से ज्यादा स्वदेशी के झंडाबरदार दत्तोपंत ठेंगडी के प्रिय रहे हैं। मगर गडकरी ने देशी अर्थव्यवस्था का खासा पाठ ठेंगडी के जीवित रहते उनसे पढ़ा है तो मुरलीघर के प्रति सहोदर वाला भाव उनके भीतर है। असल में गड़करी की टीम यही तीन-चार की है। चूंकि गड़करी सिर्फ खाकी हाफ पैन्ट पहनने वाले संघी नहीं हैं। नागपुर में संघ के मोहल्ले में पले-बढ़े हैं। जहां हेडगेवार के भाषणों के कैसट और लघु पुस्तिका आज भी कई मौकों पर बांटी जाती है। और संगठन के बगैर पार्टी तो दूर देश भी नहीं बचता</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">यह पर्चा आज भी नागपुर के महाल में बतौर हेडगेवार भाषण के तौर पर मिल जायेगा। यह अलग बात है कि कागज में छपे हेडगेवार के विचार अब पुराने नागपुर शहर में ही किसी परचून की दुकान में पुलिन्दे में लिपटे भी मिल जायेंगे। जिसमें </span>1935<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI"> में पुणे में हेडगेवार के दिये उस तकरीर का भी हिस्सा मिलेगा, जिसमें कहा गया है</span>,</p> <p class="MsoNormal">" <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">किसी भी राष्ट्र का सामर्थ्य उसके संगठन के आधार पर निर्मित होता है। बिखरा हुआ छिन्न-भिन्न समाज तो एक जमघट मात्र है। और जमघट में परस्पर कुछ न संबंघ रखने वाले लोग होते हैं जबकि संगठन में एक अनुशासन होता है। जमघट भूर-भूरी मिट्टी की तरह होता है और संगठन ठोस चट्टान की तरह। जो हथौड़े से भी नहीं टूटता। संघ का जन्म समाज को ही संगठन में ढाल कर संगठित </span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">अभेघ और बलशाली बनाने के लिये हुआ है। " लेकिन समाज तो दूर आज की भाजपा को देखकर कोई भी कह सकता है कि यह जमघट है । जहा राष्ट्रवाद से लेकर सत्तावाद और समाजिक सरोकार से लेकर पूंजी की दरकार वाले लोगो का जमावड़ा है। तो क्या गड़करी ने भी हेडगेवार का यह पुलिन्दा पढ़ा और उसके बाद ही जमघट में तब्दील हो चुके भाजपा को संगठन में बांधने की सोची। या फिर सरसंघचालक मोहन भागवत ने हेडगेवार की तकरीर को गड़करी के कान में फूंका। हो जो भी लेकिन पहला संवाद यही निकलता है कि भाजपा जमघट में तब्दील हो चुकी है, जिसे संगठन में बांधना पहली जरुरत है। इसलिये संगठन बनाने का पूरा काम संघ के इन्हीं चार कार्यकर्ताओं को सौपा गया है। लेकिन गडकरी की टीम को देखकर एक दूसरा संवाद भी निकला कि भाजपा का संगठन बांधने की दिशा में गडकरी की टीम ही पहली नजर में संगठन की जगह जमघट हो गयी।<br /><br />वैसे जमघट को मथना और संवारना भी संघ को आता है</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:Mangal;mso-bidi-theme-font:minor-bidi;mso-bidi-language: HI"> </span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">इसकी ट्रेनिग हेडगेवार और गुरु गोलवरकर के दौर की पहचान रही है। क्योंकि पहली बार जब हेडगेवार ने महाराष्ट्र से बाहर आरएसएस को फैलाना चाहा तो नौ लोगो की टीम बनायी और उन्हें ही संगठन मजबूत करने के लिये तैयार किया। जिन नौ को चुना गया और उन्हीं के भरोसे संघ के विस्तार का सपना हेडगेवार ने देखा। जरा उस टीम को देखिये। भाउराव देवरस को लखनउ भेजा</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">तो राजाभाउ पातुरकर को लाहौर भेजा। इसी तरह वसन्त राव ओक को दिल्ली</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">एकनाथ रानाडे को महारौशल</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">माधवराव मुले को कोंकण</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">दादाराव परमार्थ को दक्षिण में तथा नरहरि और बापूराव दिवाकर को बिहार भेजा। जबकि बाला साहेब देवरस को कोलकत्ता भेजा गया । </span>1931 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">में यह टीम तैयार की गयी थी । उस वक्त आरएसएस के स्वंयसेवकों की संख्या करीब तीन हजार थी। लेकिन पांच साल बाद यानी </span>1936 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">में स्वंयसेवकों की तादाद देश भर में तीस हजार पार कर चुकी थी।<br /><br />कुछ ऐसा ही प्रयोग गोलवरकर ने किया और कुछ इसी तर्ज पर जनसंघ के विस्तार को पहला अंजाम </span>1952-53 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">में डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दिया। संघ और जनसंघ से होते हुये भाजपा में यह सिलसिला कब तक चला और कब थमा यह कहना तो मुश्किल है लेकिन जिस टीम के आसरे संगठन बनाते हुये </span><span lang="HI"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">भाजपा को मथते हुये दस फिसदी वोट बैंक बढ़ाने का सपना जिस तरह गड़करी ने पाला है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">वह पहली बार हुआ है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। सिल्वर स्क्रीन का जादू सिल्वर स्क्रीन के जरीये ही रेंगता है इसका एहसास आज के गडकरी और मोहनराव भागवत को चाहे न हो और भाजपा की टीम में बडे पर्दे से लेकर छोटे पर्दे तक से जादू बिखेरने वालो को भी संगठन की पंगत में बैठा नये भारत का सपना जागते हुये देखने की हिम्मत चाहे दिखायी गयी हो लेकिन साठ साल पहले बतौर सरसंघचालक </span>44 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">साल के गुरु गोलवरकर को भी इसका एहसास था कि सिनेमायी पर्दा आखिरकार सिनेमायी ही होता है। इसलिये उस दौर में जब वी. शांताराम से लेकर गीतकार प्रदीप की मान्यता किसी भी स्वंयसेवक से ज्यादा की थी, तब भी गोलवरकर ने यही माना कि राष्ट्रवाद को जगाने के लिये समाज के कंघे से कंघा मिलाकर चलना होगा। जिसमें प्रदीप के गीत मन में उंमग तो भर सकते है लेकिन सिर्फ गीत या प्रदीप के जरीये हिन्दू राष्ट्रीयता का भाव जाग जायेगा</span>, <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language: HI">ऐसा संभव नहीं है। यानी संघ के हर संगठन में मजबूती भी उसी दौर में आयी जब संगठन की दिशा का नजरिया साफ रहा। चाहे वह खुद आरएसएस हो या उससे बना जनसंघ या फिर स्वदेशी से लेकर विश्वहिन्दू परिषद और भारतीय मजदूर संघ से लेकर वनवासी कल्याण केन्द्र या भारतीय किसान संघ । यहा तक की विद्या भारती भी उसी दौर में फैली जब प्राथमिक शिक्षा को लेकर संघ का नजरिया साफ रहा। </span>1998 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">में जब संघ के स्वयंसेवक ही सत्ता में आये अगर उससे ठीक पहले संघी शिक्षा के विस्तार को विघा भारती तले ही देखे तो किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि </span>1998 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">तक देश में </span>13 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">हजार शिक्षण संस्थाओं से </span>73 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">हजार आचार्य और </span>17 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">लाख से ज्यादा छात्र जुड़े थे।<br /><br />लेकिन नजरिया डगमगाया तो शिक्षा देने और समाज को जोडने में लगे संगठन भी जमघट में तब्दील होते चले गये। और बीते बारह सालों में विद्या भारती से जुडे छात्रों की तादाद कम हो गयी । जो </span>15 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">लाख के करीब है। भाजपा को भी नयी टीम के जरीये मथने की तैयारी बिना नजरिये कैसे हो रही है। यह सरसंघचालक के दिल्ली की चौकड़ी को आईना दिखाने से लेकर गडकरी के गांव में कार्यकर्ताओ को भेजने और अंत्योदय कार्यक्रम के तहत आखिरी व्यक्ति तक पहुंचने के नारे से समझा जा सकता है। मोहनराव भागवत ने जिस दिल्ली की चौकडी को सीधे नकारा उसी की बी टीम गडकरी को बनानी पड़ी।<br /><br />यानी भागवत ने भाजपा के भीतर एयरकंडीशन कमरे में बैठकर भ्रष्टाचार के दलदल में गोते लगाते हुये सत्ता की जोड़तोड़ करने के तौर तरीक को कैंसर की संज्ञा देते हुये एक वक्त अंगुली उठायी और गडकरी की टीम में उन्हीं के एंजेट प्रभावी हो गये। वही मनमोहन इक्नामिक्स जब गांव को खत्म कर शहर में तब्दील करने पर तुले है और विकास की इसी लकीर को जब भाजपा के सबसे उदीयमान नेता नरेन्द्र मोदी भी अपनाये हुये हैं तो फिर गडकरी के गाव या अंत्योदय का अर्थ क्या निकाला जाये। खासकर तब जब देश में अस्सी करोड़ लोग सरकार की नीतियों में भी फिट ना बैठ रहे हों। जहां गरीबी की रेखा से नीचे जीने वालो की तादाद में लगातार बढोत्तरी हो रही हो। जहां बिना सरकारी मदद के और बिना इन्फ्रस्ट्रक्चर के खेती पर टिके साठ करोड़ लोगों की रोटी पर ही सीधे हमला खेती की जमीन छिनकर विकास के नाम पर सरकार कर रही हो और वैसे में गडकरी की टीम के </span>75 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">फिसदी मनमोहनइकनामिक्स की ही देन हो तो </span><span lang="HI"><span style="mso-spacerun:yes"> </span></span><span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">यह सवाल कौन उठायेगा कि भाजपा का नजरिया है क्या । शिक्षा से लेकर आर्थिक मुद्दों और आदिवासी से लेकर किसान तक पर बिना साफगोई नीति के कैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल चलाया जा सकता है। और यह सवाल किससे किया जा सकता है कि आपकी नीति आप ही से जुडे उन तमाम संगठन की है क्या जो समाज के तकरीबन हर हिस्से में संगठन बना कर चला रहे हैं। और अगर सिर्फ आंकड़ों के आसरे गडकरी या भागवत दावा करे कि इतना बड़ा परिवार और किसी के पास नहीं है</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">तो सवाल उठेगा यह जमघट है संगठन नहीं। क्योकि किसान संघ की नरेन्द्र मोदी अपने राज्य में नहीं सुनते। वनवासी कल्याण आश्रम छत्तीसगढ में रमन सरकार की विकास नीति में फिट नहीं बैठता। हिन्दु जागरण मंच और विश्व हिन्दुपरिषद में टकराव है। स्वदेशी जागरण मंच भाजपा की आर्थिक नीति में फिट नहीं बैठता । लघु उघोग भारती को लेकर कोई राजनीतिक सहमति स्वंयसेवको की सत्ता के दौर में नहीं हुई । और जिस हिन्दुत्व को लेकर हेडगेवार ने आरएसएस की नींव डाली उसी को हर कोई अपनी सुविधानुसार परिभाषित करने में लगा है ।<br /><br /></span>1992 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family: Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">में विश्व हिन्दु परिषद का दिया नारा</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif"; mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family: Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin;mso-bidi-language:HI">गर्व से कहो हम हिन्दु है आज की भाजपा के लिये राजनीतिक सुसाइड का नारा हो गया है। संघ के भीतर बाहर कितना कुछ बदल चुका है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि </span>9 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">जून </span>1940 <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri;mso-ascii-theme-font: minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-language:HI">को हेडगेवार के अपने आखिरी भाषण में कहा था</span>,-----"<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">प्रतिज्ञा कर लो कि जब तक जीवित है</span>,<span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">संघ कार्य को अपने जीवन का प्रधान कार्य मानेगे</span>, <span lang="HI" style="font-family:"Mangal","serif";mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin;mso-hansi-font-family:Calibri;mso-hansi-theme-font: minor-latin;mso-bidi-language:HI">हमारे जीवन में यह कहने का दुर्भाग्यशाली क्षण कभी ना आये कि मै भी संघ का स्वंयसेवक था ......। "सवाल है गडकरी की टीम के चमकते-दमकते चेहरे तो जानते तक नहीं कि आरएसएस है क्या और बुझे चेहरे छुपाते हैं कि वह संघ के स्वंयसेवक हैं। और जो ताल ठोंक कर कहते है कि संघ का कार्य जीवन का प्रधान कार्य है उनकी कोई राजनीतिक हैसियत पार्टी लीडर ही नहीं मानते। अब इस जमघट को संगठन में बांधना भी संघ की जरुरत है। इसलिय भाजपा की नयी टीम गड़करी की नही भागवत की हार है।</span></p>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-39707404239366539532009-08-25T00:02:00.001+05:302009-08-25T00:03:51.946+05:30रिंग में आडवाणी-भागवत आमने सामनेसंघ के इतिहास में यह पहला मौका है, जब आरएसएस को अपने ही किसी संगठन से सीधा संघर्ष करना पड़ रहा है। इस संघर्ष का महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यह सीधा संघर्ष विचारधारा से इतर शीर्ष पर बने रहने की लड़ाई है । जिसमें एक तरफ अगर सरसंघचालक खड़े हैं तो दूसरी तरफ संघ की छांव में बड़े हुये लेकिन सत्ता की जोड़-तोड़ में तपे भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी।<br /><br />सरसंघचालक मोहनराव भागवत अगर संघ परिवार के भीतर कुछ परिवर्तन करना चाहें और वह हो न पाये, ऐसा आरएसएस में कोई सोच नहीं सकता । लेकिन आरएसएस के बाहर अगर अब यब माना जाने लगा है कि आरएसएस का मतलब संघ परिवार नहीं बल्कि भाजपा हो चली है तो यह पहली बार हो रहा है। 1948 में जब तब के सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने देश के गृहमंत्री सरदार पटेल को लिख कर दिया था कि आरएसएस सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है, उस दौर में संघ ने चाहे सोच लिया होगा कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब देश को संघ के स्वयंसेवक ही चलाएंगे। लेकिन संघ ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि वहीं स्वयसेवक सत्ता में आने के बाद संघ को ही हाशिये पर ढकेलने लगेगा। वहीं स्वयंसेवक संघ के दर्द पर और नमक छिड़केगा। <br /><br />वाजपेयी के दौर में सत्ता में बैठे स्वयंसेवकों से सबसे बडा झटका आरएसएस को तब लगा जब उत्तर-पूर्वी राज्य में चार स्वसंवकों की हत्या हो गयी और देश के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने नार्थ ब्लाक से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर झडेवालान के संघ मुख्यालय जाकर मारे गये स्वयंसेवकों की तस्वीर पर फूल चढ़ा कर श्रद्धांजलि देना तक उचित नहीं समझा। बाकि कोई कार्रवाई की बात तो बेमानी है, चाहे उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन से लेकर भाजपा-संघ के बीच पुल का काम रहे मदनदास देवी ने गृहमंत्री आडवाणी से गुहार लगायी कि उन्हें जांच करानी चाहिये कि हत्या के पीछे कौन है। <br /><br />माना जाता है आरएसएस ने इसका बदला कंघमाल के जरिये भाजपा से लिया । भाजपा उड़ीसा में संघ के नेता की हत्या के बाद नवीन पटनायक को सहलाती-पुचकारती, उससे पहले ही संघ ने कंधमाल को अंजाम दे दिया । जिससे भाजपा को गठबंधन की राजनीति का सबसे बड़ा झटका ऐन चुनाव से पहले लगा । यह संघर्ष बढ़ते-बढ़ते एक -दूसरे के आस्त्वि पर ही सवालिया निशान लगाने तक आ पहुंचा। यह किसी ने सोचा नहीं था , लेकिन अब खुलकर नजर आने लगा है । <br /><br />सवाल यह नहीं है कि भाजपा के चिंतन बैठक से 24 घंटे पहले सरसंघचालक भागवत ने कैमरे पर इटरव्यू दे कर चिंतन बैठक को एक ऐसी दिशा देने की कोशिश की जिसपर निर्णय का मतलब झटके में भाजपा को बीच मझधार में लाकर न सिर्फ खड़ा करना होता बल्कि भाजपा में भी नताओ के सामने संकट आ जाता कि वह राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खुद की हैसियत को कैसे बरकरार रखते हैं । यह संकट ठीक वैसा ही है, जैसा मोहनराव भागवत के सामने सरसंघचालक बनने के बाद आया है । संयोग से सरसंघचालक भागवत की जितनी उम्र है, उससे ज्यादा उम्र लालकृष्ण आडवाणी ने आरएसएस और पार्टी को दिया है। यह समझा जा सकता है कि जब आडवाणी राजनीति में आये तब भागवत चन्द्रपुर में बच्चो के खेल में भविष्य के तार संजो रहे होंगे। लेकिन ज्यादा दूर न भी जायें तो लालकृष्ण आडवाणी जब देश के सूचना-प्रसारण मंत्री बने तब भागवत बतौर प्रचारक डंडा भांज रहे थे। यह संकट इससे पहले कभी सिर्फ सुदर्शन के सामने आया। क्योकि उम्र और स्वयंसेवक के तौर पर वाजपेयी-आडवाणी से सुदर्शन पांच साल छोटे थे। <br /><br />लेकिन संघ के साथ जुड़ने का सिलसिला इनमें दो साल के फर्क के साथ था। लेकिन वाजपेयी की राजनीतिक समझ के साथ साथ सामाजिक-सांसकृतिक समझ के दायरे में सुदर्शन खासे पीछे थे । इसलिये कई मौके आये जब बतौर सरसंघचालक सुदर्शन ने वाजपेयी को आरएसएस का पाठ पढ़ाने की कोशिश की लेकिन हर पाठ का महापाठ, जो वाजपेयी के पास था, उसका असर यही हुआ कि सुदर्शन को हर सार्वजनिक मौके पर वाजपेयी को खुद से बड़ा मानना पड़ा । और हमेशा लगा कि संघ भाजपा के पीछे खड़ी है । इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वाजपेयी के पास आडवाणी थे। जिसके जरिये वाजपेयी कभी संघ के लगे नहीं और आडवाणी कभी संघ से अलग दिखे नहीं। बदली परिस्थितियो में सुदर्शन और वाजपेयी मंच से उतर चुके हैं और आमने सामने और कोई नहीं वही भागवत और आडवाणी आ गये है, जो कभी सुदर्शन के सुर से परेशान रहते थे तो कभी वाजपेयी के सेक्यूलरवाद से। <br /><br />लेकिन दोनो के सामने अपने अपने घेरे में ऐसी चुनौतियां है, जो संयोग से एक-दूसरे से टकरा भी रही हैं और दोनो ही अपनी अपनी जगह व्यक्ति से बड़े संगठन के तौर पर जगह बनाये हुये हैं। वाजपेयी के दौर में भाजपा के पीछे खड़ा संघ आज भी वैचारिक तौर पर इतना पीछे खड़ा है कि उसे खुद को स्थापित करने के लिये सबसे पहले भाजपा को ही खारिज करना होगा। इसके लिये सामने आडवाणी खड़े हैं जो खुद को संघ से ज्यादा करीब भाजपा के भीतर हर दौर में बताते भी आये और डिप्टी प्रधानमंत्री बनने का जो खेल खेला, उसमें दिखा भी दिया। ऐसे में भागवत अगर आडवाणी को संघ के नियम-कायदे बताकर बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं, तो उन्हे हर बार मुंह की इसलिये खानी पड़ेगी क्योकि भागवत का तरीका राजनीति की वही चौसर है, जिसमें आडवाणी माहिर हैं। हिन्दु राष्ट्र की खुली वकालत करते भागवत एक अग्रेजी न्यूज चैनल और अंग्रेजी अखबार को इटरव्यू इसलिये देते हैं, क्योंकि एक तरफ वह देश के प्रभावी अंग्रेजी मिजाज में अपनी हैसियत दिखा सके और दूसरी तरफ दक्षिण में सक्रिय संघ के कार्यकर्ताओ में भाजपा से खुद को बड़ा दिखा सके या संघ की हैसियत का अंदाजा येदुरप्पा की कर्नाटक की सत्ता की मदहोशी में संघ को भुलाते स्वयंसेवकों में जतला सके। <br /><br />वहीं भागवत को भागवत के ही जाल में बिना बोले उलझाना किसी भी राजनेता के लिये मुश्किल नहीं है और आडवाणी इसमें माहिर है, यह कोई भी उनके पचास साल की ससंदीय राजनीति की जोड-तोड से समझ सकता है । खासकर वाजपेयी की शागिर्दगी जिसने की हो, उसके लिये संघ का उग्र चेहरा क्यों मायने रखता है। जब देश की सामाजिक-सांसकृतिक लकीर ही संघ से इतर रास्ता पकड़ रही हो । इसलिये सवाल यह भी नहीं है कि आडवाणी की चाल में संघ फंसकर जसवंत पर सफायी देने में लगा या फिर चिंतन के बाद उन्हीं राजनाथ सिंह को आडवाणी के विपक्ष के नेता पर बने रहने का ऐलान करना पड़ा, जो खुद को संघ के सबसे करीबी मानते हैं, और अध्यक्ष की कुर्सी पाने के पीछे भी संघ का ही आशिर्वाद मानते हैं । बल्कि समझना यह भी होगा कि आडवाणी का भाषण भी उन्हीं सुषमा स्वराज ने पढ़ा, जिसे संघ आडवाणी की जगह लाना चाहता था। यानी जसंवत हटे तो लगे कि संघ नहीं चाहता। सुधीन्द्र कुलकर्णी हटे तो लगे संघ पसंद नहीं करता । तो फिर आडवाणी बने रहे यह कैसे बिना संघ की इजाजत के हो सकता है । असल में आडवाणी धीरे धीरे संघ को उस घेरे में ले आये हैं, जहा संघ की हर पहल उसी तरीके से कट्टर लगे, जैसे वाजपेयी का हर बुरा निर्णय संघ के दबाब वाला लगता था। यानी नरेन्द्र मोदी को लेकर निर्णय ना लेने के पिछे संघ का दबाब था । तो सवाल है जसंवत को हटाने के पीछे भी संघ का ही दबाब था। यानी राजनीतिक तौर पर भाजपा जिस मुहाने पर खड़ी है और संघ खुद को जिस जगह खड़ा पा रहा है, उसमें कोई अंतर बचा नहीं है । क्योकि संघ नियम-कायदे के तहत आडवाणी के हटने का मतलब है कंधमाल से ज्यादा बड़ी राजनीतिक त्रासदी के लिये तैयार रहना। <br /><br />वहीं आडवाणी के ना हटने का मतलब है सरसंघचालक भागवत का अलोकप्रिय होना या कहे संघ का कमजोर दिखना। संघ का संकट यह है कि दोनों स्वयंसेवक संघ परिवार के रिंग में ही आमने सामने खड़े हो गये हैं। इसलिये नागपुर में संघ के मुखपत्र तरुण भारत में अगर एमजी वैघ सीधे आडवाणी को पद छोडने की हिदायत भी देते हैं और दिल्ली में मुखपत्र पांचजन्य में संपादकीय के जरीये पहले जसवंत सिंह के जिन्ना प्रेम पर निशाना साधता है और तीन पन्नो बाद देवेन्द्र स्वरुप के लेख के मार्फत कंधार अपहरण कांड का जिक्र कर जसवंत पर अंगुली उठाते हुये आडवाणी की घेराबंदी करता है। तो इसका मतलब यह भी है कि संघ अपने आस्तित्व के लिये अब भाजपा को खतरा मान रहा है क्योकि नागपुर से लेकर दिल्ली तक में हर पहल संघ को ही कमजोर कर रही है और राजनीति में हारे आडवाणी को कमजोर भाजपा से ज्यादा मजबूत मान रही है । माना जा रहा है सरसंघचालक भागवत संघ परिवार के इस रिंग में आखरी राउंड दिल्ली में ही खेलेंगे । 28-29 अगस्त को दिल्ली में वह कौन से तरकश के तीर निकालेंगे, नजर सभी की इसी पर हैं, और शायद आडवाणी भी इसी राउंड का इंतजार कर रहे हैं क्येकि इसके बाद भागवत अपने सरकार्यवाह भैयाजी जोशी के साथ संघ की जमीन टटोलना चाहते है और आडवाणी अपने उत्तराधिकारी के लिये रास्ता बनाना चाहते हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-4177597201850054282009-08-18T11:56:00.001+05:302009-08-18T11:58:02.591+05:30संघ के लिये तमाशा है बीजेपी की बैठकजब हेडगेवार और गुरु गोलवरकर के बगैर संघ अपना विस्तार कर सकता है तो वाजपेयी और आडवाणी के बगैर बीजेपी का विस्तार क्यो नहीं हो सकता ? यह सवाल 2005 में आरएसएस की बैठक में एक वरिष्ट्र स्वयंसेवक ने उठाया था । लेकिन चार साल बाद उसी बीजेपी के लिये उसी संघ परिवार का कोई प्रचारक कुछ कहने के लिये खड़ा नहीं हुआ। जब यह सवाल उठा कि बीजेपी को लेकर आरएसएस की दिशा क्या होनी चाहिये । तो क्या नागपुर से डेढ हजार किलोमीटर दूर शिमला में जब बीजेपी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंतन मनन करेगी तो आरएसएस खामोश ही रहेगी। <br /><br />असल में आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर जख्म कितने गहरे हो चले हैं, इसका अंदाज इस बात से लग सकता है कि बीजेपी के चिंतन बैठक को लेकर संघ के भीतर एक सहमति बन चुकी है कि यह एक तमाशा है । और अब तमाशे पर आरएसएस अपनी ऊर्जा नहीं खपायेगी । लेकिन तमाशे तक स्थिति पहुंची कैसे और आगे का रास्ता किधर जाता है, इसे लेकर संघ ने पहली बार बीजेपी को लेकर कोई लकीर खिंचने से साफ इंकार कर दिया है। इसलिये यह सवाल जब आरएसएस में कोई मायने नहीं रखता कि लालकृष्ण आडवाणी को सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने क्या कहा । तो मोहनराव भागवत के लिये यह कितना महत्वपूर्ण होगा कि वह आडवाणी को कुछ कहें। या कोई निर्देश दें। असल में सरसंघचालक मोहनराव भागवत की पहली जरुरत संघ परिवार का ऐसा विस्तार करना है, जिसमें हर तबके के लोग आरएसएस में अपनी जगह देखें। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि यह रास्ता हिन्दुत्व की जमीन पर रेंगेगा । लेकिन हिन्दुत्व को लेकर मोहनराव भागवत जिस जमीन को बनाना चाहते हैं, उसमें बीजेपी फिट नहीं बैठती। <br /><br />संघ मान रहा है कि हिन्दुत्व की राजनीतिक परिभाषा जिस तरह बीजेपी ने अपने राजनीतिक फायदे के लिये गढ़ी, उससे सबसे ज्यादा नुकसान संघ परिवार का ही हुआ है । बीजेपी ने हिन्दुत्व को एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा बना दिया, जिसमें हर तबके के सामने हिन्दुत्व का मतलब बीजेपी के साथ खड़ा होना या ना होना हो गया । यानी जिस हिन्दुत्व को संघ ने सामाजिक जीवन के तौर पर सत्तर साल में बनाया और खुद को स्थापित किया, वहीं हिन्दुत्व अयोध्या आंदोलन के बाद से सत्ता का एक ऐसा केन्द्र बनता चला गया, जिसके आयने में बीजेपी ने संघ को ही उतारने की कोशिश की। बीजेपी की इस राजनीतिक पहल को विश्व हिन्दू परिषद ने भी जमकर हवा दी । विहिप ने झटके में बीजेपी के खिलाफ खड़े होकर संघ परिवार को दोहरा झटका दिया । क्योंकि अयोध्या आंदोलन को लेकर आरएसएस ने ही विहिप को आगे किया लेकिन विहिप के कर्ताधर्ता मोरोपंत ठेंगडी ने पहले आंदोलन को हड़पा फिर राजनीतिक तौर पर बीजेपी और विहिप कुछ उस तरह आमने सामने खड़े हुये, जिससे देश भर में संकेत यही गया कि विहिप की लाइन संघ की लाइन है और बीजेपी संघ के खिलाफ सेक्यूलरइज्म का राग अटल बिहारी वाजपेयी के जरीये गा रही है। <br /><br />उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन थे । जो बीजेपी-विहिप के बीच पुल बनना भी चाहते थे और बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढाना भी चाहते थे । इसी पाठ के पहले अध्याय में ही वह वाजपेयी - आडवाणी को रिटायर होने की सलाह दे बैठे । यह तरीका आरएसएस का कभी रहा नहीं है, इसलिये सुदर्शन संघ के इतिहास में सबसे अलोकप्रिय सरसंघचालक साबित हुये । वहीं उस दौर में इन सारी स्थितियों को बारीकी से देख समझ रहे सरकार्यवाह मोहनराव भागवत की हर पहल नागपुर से दिल्ली पहुंचते पहुंचते बीजेपी की गोद में बैठने वाली होती रही, क्योंकि यही वह दौर था जब संघ के स्वयंसेवक देश चला रहे थे। और सरकार चलाते चलाते महसूस करने लगे कि देश आरएसएस से नही बीजेपी से चलेगी। संघ का एक तबका बीजेपी के इस गुरुर के आगे नतमस्तक भी हुआ और संघ-बीजेपी के बीच पुल का काम करने वाले स्वयसेवको को विचारधारा से ज्यादा राजनीतिक सत्ता भाने लगी। ऐसे में हिन्दुत्व का नया पाठ संघ की जगह बीजेपी-विहिप में बंट गया। इसीलिये सरसंघचालक बनने के बाद मोहनराव भागवत ने अपने पहले-दूसरे-तीसरे या कहे अभी तक के एक दर्जन से ज्यादा सार्वजनिक भाषणो में पहली और आखिरी लाईन हिन्दु राष्ट्र को लेकर ही कही। <br /><br />भागवत इस हकीकत को समझ रहे है कि सुदर्शन के दौर में संघ को बीजेपी केन्द्रीयकृत बना दिया गया । इसलिये मोहन भागवत की पहली लड़ाई बीजेपी के राजनीतिक हिन्दुत्व से है, जिसके आइने में पहली बार वह बीजेपी को उतरता हुआ देखना नहीं चाहते है । भागवत हिन्दुत्व का जो पाठ पढाना चाहते हैं उसमें देवरस की समझ भी है और गुरु गोलवरकर का कैनवास भी । हिन्दुत्व के बैनर तले ही देवरस ने वनवासी कल्याण आश्रम की शुरुआत की थी । सही मायने में कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैक आदिवासियो में पहली सेंध देवरस की इसी पहल से लगी थी । लेकिन सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने कभी जरुरत नहीं समझी कि वह आदिवासियो तो दूर वनवासी कल्याण आश्रम की सुध भी ले। इसी तरीके से हिन्दुत्व के बैनर तले ही 1972 में गुरु गोलवरकर ने ठाणे चितंक बैठक में अन्य पिछडे तबके यानी ओबीसी को संघ के साथ जोड़ने की पहल की। जिसका परिणाम हुआ कि गोपीनाथ मुंडे से लेकर शेवाणकर तक महाराष्ट्र में संघ परिवार से जुडे । और बाद में बीजेपी में । केरल के रंगाहरि को संघपरिवार में कौन नहीं जानता जो केरल से आने वाले ओबीसी ही है । जिन्होने बौघिक प्रमुख की भूमिका को बाखूबी लंबे समय तक निभाया। लेकिन बीजेपी ने राजनीतिक तौर पर ऐसी किसी सोशल इंजिनियरिंग की आहट कभी नहीं दी जिससे यह महसूस हो कि बीजेपी का कैनवास बढ रहा है । <br /><br />दत्तोपंत ठेंगडी ने किसान मंच और स्वदेशी को जिस आंदोलन के साथ खड़ा करने की सोच संघ परिवार के भीतर रखी , संयोग से जब उसमें धार देने का वक्त आया तो बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सरकार सत्ता में आ गयी, जिसने ठेंगडी की समझ को आगे बढाने के बदले आर्थिक सुधार का ट्रैक -2 पकड़ लिया । यशंवत सिन्हा के खिलाफ जब दत्तोपंत खुल कर सामने आए तो सुदर्शन ने ही उन्हे शांत कर दिया। इसी दौर में ट्रेड यूनियन बीएमएस के आर्थिक सुधार के खिलाफ खड़े होने के फैसले को भी संघ ने ही हाशिये पर ढकेल दिया । और सबकुछ पटरी पर लाने की बात कहने वाली बीजेपी ने गठबंधन की मजबूरी दिखा कर खुद को संघ से अलग कर लिया । इसलिये मोहनराव भागवत एक साथ दोहरी चाल चलने से भी नहीं कतरा रहे है । <br /><br />यह पहला मौका है कि सरसंघचालक और सरकार्यवाह दोनो नागपुर से निकले हुये है । दोनो को नागपुर में ही बैठना है । और दोनो की कोई राजनीतिक जरुरत नहीं है । मोहनराव भागवत और भैयाजी जोशी ने संघ परिवार के भीतर अपनी नयी पहल से इसके संकेत दे दिया है कि उनके लिये हिन्दुत्व मायने रखता है लेकिन हिन्दुत्व के आसरे कद बढाने वाली बीजेपी और विहिप मायने नहीं रखती । इसकी पहली पहल नये संगठन हिन्दु धर्म जागरण के जरीये मोहन भागवत ने शुरु की है । असल में धर्म जागरण को खड़ा कर विहिप को ठिकाने लगाने या कहे हाशिये पर ढकेलने का काम आरएसएस ने शुरु किया है । देश के हर हिस्से में संघ के प्रचारको को ही धर्म जागरण का काम आगे बढाने के लिये लगाया गया है । खास बात है कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन को भी जो नया काम सौपा गया है उसे भी धर्म जागरण के ही इर्द - गिर्द मथा गया है । मसलन भोपाल में सुदर्शन की नयी जगह निर्धारित की गयी है, जहां से वह देश भर का भ्रमण कर धर्माचार्यो और धर्मावलंबियो से मिलकर आरएसएस के हिन्दुत्व की दिशा में मजबूती देगै और धर्म जागरण के कार्यो में सीधा योगदान देकर इस नये संगठन को सामाजिक मान्यता दिलायेगे । <br /><br />खास बात यह भी है कि संघ धर्म जागरण के जरीये अयोध्या आंदोलन को नये तरीके से परिभाषित करना चाहता है । जिसका पहला निशाना अगर विहिप बनेगा तो दूसरा निशाना बीजेपी की हिन्दुत्व राजनीति पर होगा । क्यो कि संघ का मानना है कि अयोध्या के जरीये विहिप ने उसी उग्र सोच को आगे बढा दिया जिस लकीर पर कभी हिन्दु महासभा चला थी । जबकि बीजेपी ने अयोध्या के जरीये वोट बैंक की ऐसी राजनीति को आगे बढाया जिसमें अयोध्या हिन्दुत्व से ज्यादा सत्ता का प्रतीक बन गया । असल में मोहन भागवत की रणनीति हिन्दुत्व को लेकर एक ऐसी बड़ी लकीर खींचने वाली है, जिसे राजनीतिक तौर पर बीजेपी कभी हथियार ना बना सके । क्योंकि चुनाव से ऐन पहले भी अयोध्या जिस तरह बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो का हिस्सा बन गया उसके बाद कोई ठोस समझ पूरे चुनाव में आडवाणी के जरीये नहीं उभरी उससे संघ के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा कसमसाहट है कि सत्ता का प्यादा बने अयोध्या ने बीजेपी के भीतर संघ के स्वयसेवको को भी सत्ता का केन्द्र बना दिया है । यानी आडवाणी इसीलिये मान्य है क्योकि वह सबसे बुजुर्ग स्वयसेवक है । राजनाथ सिंह इसीलिये अध्यक्ष के तौर पर मान्य है क्योकि वह आडवाणी के खिलाफ संघ के प्यादे के तौर पर खडे है । यानी संघ भी बीजेपी के भीतर सत्ता का केन्द्र बना दिया गया है । <br /><br />ऐसी स्थिति में बीजेपी को लेकर कोई भी सवाल अगर आरएसएस करती है तो उसका लाभ - घाटा भी उन्ही नेताओ के इर्द-गिर्द सिमट जायेगा जो प्रभावी है , लेकिन संघ का नाम जपने के अलावे यह प्रभावी स्वयसेवक कुछ करते नहीं है । बीजेपी को लेकर संघ के भीतर किस तरह की खटास है इसका एहसास इससे भी किया जा सकता है कि नागपुर में स्वयसेवक गुरु गोलवरकर की जनसंघ को लेकर की गयी टिप्पणी को दोहराने लगे है । जनसंघ बनने के बाद जब गोलवरकर के सामने यह सवाल उभारा गया था कि राजनीतिक तौर पर मजबूत जनसंघ के स्वयसेवक के सामने आरएसएस के मुखिया का प्रभाव कितना मायने रखेगा तो गोलवरकर ने सीधा जबाब दिया था कि जनसंघ हमारे लिये गाजर की पूंगी है, बज गयी तो बज गयी..नहीं तो इसे खा जायेगे । नयी परिस्थितियों में यह आवाज संघ के भीतर बीजेपी को लेकर हो सकती है लेकिन सरसंघचालक और सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत और भैयाजी का रुख बीजेपी को लेकर बिलकुल अलग है । दोनों के ही करीबी स्वयसेवकों की मानें तो जिन परिस्थितयों में पिछले दस साल के दौर में संघ कमजोर हुआ, वहीं स्थितियां बीजेपी के साथ भी रहीं । पार्टी और संगठन की मजबूती का आधार उसी कमजोर होते संघ को बनाया गया जिसे राजनीतिक सत्ता के लिये स्वयसेवकों ने ही दफन करने की कोशिश की। <br /><br />ऐसे में अगर आरएसएस यह सोच भी ले कि वह पद ना छोडने वाले लालकृष्ण आडवाणी को हटाने में भिड जाये तो आडवाणी के हटने के बाद भी बीजेपी को कौन ढोएगा । तब संघ की समूची ऊर्जा तो बीजेपी को संभालने में ही लग जायेगी । क्योंकि वहा सत्ता महत्वपूर्ण हो गयी है । विचारधारा या संगठन का विस्तार नहीं । इसका असर किस रुप में बीजेपी के भीतर पड़ रहा है, यह बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के जरीये समझा जा सकता है । स्वयसेवकों का मानना है कि संघ के आशिर्वाद से ही राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने , यह सच है। लेकिन बतौर अध्यक्ष अगर उनकी मौजूदगी पार्टी में रही ही नहीं , या कहे वे बे-असर हो गये, तो इसमें संघ क्या कर सकता है । लेकिन यही परिस्थितयां बताती हैं कि बीजेपी की अंदरुनी हालत क्या है, इसलिये बीजेपी का चितंन शिविर बीजेपी के लिये नही बल्कि नेताओ को स्थापित करने के लिये है, जो पटरी से फिसल रहे है । <br /><br />चूंकि आलम यह है कि सभी अपनी अपनी राह पकडे हुये है । बीजेपी अध्यक्ष को जो चुनौती दे देता है वह मजबूत लगने लगता है । जो प्रभावी और नीतिगत फैसले लेने वाले है वह अपनी भूमिका पार्टी से हटकर, पार्टी को सत्ता में लाने की जोड-तोड में अगुवा नेता के तौर पर देखते है । यानी एक तरफ जोड-तोड़ की राजनीतिक सत्ता के लिये विचारधारा और पार्टी संगठन को भी सौदेबाजी में लगाते हैं, और दूसरी तरफ परिणाम अनुकूल नहीं होता तो हर जिम्मदारी से बच निकलना भी चाहते है । ऐसे में संघ ने अब बीजेपी को पार्किग जोन में खड़ा कर खुद को मथने का रास्ता अपनी शर्तो पर चुना है, इसलिये शिमला से बीजेपी चाहे कोई भी नारा लेकर निकले लेकिन पहली बार आरएसएस के लिये बीजेपी का चिंतन बैठक तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-79072810703203713732009-04-03T11:56:00.002+05:302009-04-03T12:08:10.514+05:30आडवाणी के बाद शुरु होगी संघ की असल पारी22 मार्च को करीब रात साढ़े दस बजे वरुण गांधी के खिलाफ चुनाव आयोग का फैसला आया। 11 बजने से पहले ही संघ के नये मुखिया मोहनराव मधुकर भगवत का नागपुर से ये निर्देश दिल्ली पहुंच गया कि वरुण का साथ संघ परिवार देगा और वह इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे । राजनीतिक मुद्दे को लेकर इतनी तत्परता इससे पहले कभी किसी सरसंघचालक ने दिखायी तो वह गुरु गोलवरकर थे। उन्होंने गांधी की हत्या के बाद मुस्लिमों को पुचकारने की सोच के खिलाफ आक्रोष को एक नयी जगह दी थी। हालांकि, उसके बाद संघ पर प्रतिबंध भी लगा।<br /><br />लेकिन देश के हालात साठ दशक में जिस तरह बदल चुके हैं, उसमें गीता की कमस खाकर हिन्दुओं पर उठे हाथ को काट लेने का वचन समाज में जगह पायेगा यह सोचना मुश्किल है लेकिन संघ की आंखों से देखे तो हालात साठ साल पहले जैसे हो चुके हैं और इसको अपने तरीके से मोहन भागवत न सिर्फ परिभाषित करने को तैयार है बल्कि बीजेपी के जरीये भारतीय राजनीति को भी नया मूलमंत्र देने की तैयारी कर रहे हैं। इसके संकेत संघ ने परंपरा तोड़ कर मोहन भागवत को सरसंघचालक बना कर की तो मोहन भागवत ने पहले भाषण में कर दिया ।<br /><br />संघ के मुखिया का पद संभालते ही मोहनराव मधुकर भागवत ने जो-जो बातें कहीं उसका लब्बो-लुआब यही निकला-"यह देश हिन्दुओं का है । हिन्दुस्तान छोड़कर दुनिया में हिन्दुओं की अपनी कहीं जाने वाली भूमि नहीं है । वह इस घर का मालिक है । लेकिन उसकी असंगठित अवस्था और उसकी दुर्बलता के कारण वह अपने ही घर में पिट रहा है। इसलिये हिन्दुओं को संगठित होना होगा । क्योंकि भारत हिन्दु राष्ट्र है।"<br /><br />असल में हेडगेवार के बाद सिर्फ गुरु गोलवरकर ही थे, जिन्होंने सरसंघचालक बनने के बाद बिना हेडगेवार का जिक्र किये सीधे उन्हीं की बात कही। यानी स्वयंसेवकों को इसका एहसास कराया कि हिन्दुत्व की सोच उनकी अपनी है, जो हेडगेवार की भी रही होगी। उसके बाद यह हिम्मत बालासाहब देवरस, रज्जू भैया और सुदर्शन दिखला नहीं पाये। नौ साल पहले सुदर्शन ने जब सरसंघचालक का पद संभाला था तो अपने पहले भाषण का निन्यानवे फीसदी संघ के गौरवशाली अतीत को समर्पित करते हुए हर बयान के साथ हेडगेवार का नाम लेते रहे थे। वह अपनी सोच को नहीं रख पाये। वहीं नौ साल पहले मार्च 2000 में जब मोहनराव भागवत ने सरकार्यवाह का पद संभाला तो हर बात अपनी कही..यहां तक की उन्हें सरकार्यवाह बनाने के बीच में जो स्वयंसेवक विरोध कर रहे थेस उन पर सीधा निशाना साध कर कहा," मेरे नाम के प्रस्ताव तथा अनुमोदन में बहुत सारी बातें जो कहीं गयी, वे क्यों कहीं गयी, यह मै जानता हूं। मै जानवरों का डॉक्टर हूं। जानवरों को इंजेक्शन देते समय सुई घोपना पड़ता है, उसके पहले उस जगह को हाथ से सहलाकर उस पशु का ध्यान बटाने की पद्दती मेरे शास्त्र में बतायी गयी है। इसलिये मैं भी और आप भी मेरी कमियो को जानते हैं।"<br /><br />वहीं नौ साल बाद जब उन्हे सरसंघचालक का पद मिला तो उन्होंने बेहिचक हेडगेवार का नाम लिये बगैर उनकी हर सोच को अपनी भाषा में ढाल कर स्वंयसेवको को इसका एहसास कराया कि वह हिन्दुत्व को किस रफ्तार से देखना चाहते हैं। असल में भागवत अब समझ चुके है कि संघ की सोच उन्हें लागू कर दिखानी है, इसलिये वह कोई वैसा भ्रम रखना नहीं चाहते है जैसा सुदर्शन के दौर में रहा। भागवत उस तरह के किसी राजनीतिक प्रयोग के भी पक्ष में नहीं है, जैसा देवरस ने इमरजेन्सी में कमाल कर दिखाया था । भागवत इस सच को समझ रहे है कि देवरस के पीछे सपना देखने वाले स्वयंसेवकों की फौज थी। वहीं भागवत के पीछे सपना टूटता हुआ देखने वालो की फौज है इसलिये कोई भी राजनीतिक प्रयोग संघ की विचारधारा के आसरे नहीं चल पायेगा जबकि विचारधारा विकसित होकर स्वयंसेवकों को जोड़ ले तो राजनीति को प्रयोग के लिये एक धारा तो मिल जायेगी । इसलिये भागवत ने उन मदनदास देवी को संघ की टीम में दरकिनार किया है, जो तीन दशको से राजनीति के खिलाडी के तौर पर संघ के भीतर से काम करते हुये बीजेपी को प्रभावित करते रहे। मदनदास देवी को प्रचारक प्रमुख बनाकर बुजुर्ग प्रचारको की सुविधा-असुविधा देखने में लगा दिया गया है। वहीं इमरजेन्सी में जो साथी प्रचारक भूमिगत होकर भागवत के साथ काम करते रहे उन्हे भागवत ने सहसरकार्यवाह बनाकर संघ में सीधा संदेश दिया है कि अब एक ही धारा पर संघ चलेगा। मन भेद का सवाल ही पैदा नहीं होता। भैयाजी जोशी ने इसीलिये अपनी टीम में विचारधारा और राजनीतिक नौकरशाही को जोडा है । सुरेश सोनी के साथ दत्तात्रेय होसबोले भी सह सर कार्यवाह बनाये गये है । कमोवेश यह मिजाज हर क्षेत्र में है लेकिन बडा सवाल उस राजनीति का है जिसपर बीजेपी को चलना है । भागवत ने सांगठनिक तौर पर संघ को एक धागे में जोड़ने की पहल जिन नौ सालो में की, संयोग से उस दौर में संघ के तेवर और समझ उस राजनीतिक प्रयोग की तरह होते गये, जिस पर चलते हुये बीजेपी ने सत्ता गंवायी और खुद का कांग्रेसीकरण किया।<br /><br />संघ के भीतर भी स्वयंसेवको की जमात सत्ता की मलाई को ही असल विचारधारा का परिणाम मानने लगी । पहली बार यह एहसास उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के तेवरो ने बार-बार कराया । वाजपेयी को रिटायमेंट की सीख देने से लेकर हिन्दुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की नसीहत देना और मुस्लिम समुदाय के बारे में ज्ञान दिखला कर आडवाणी के जिन्ना प्रेम को लोकतांत्रिक पहलुओं से जोड़कर देखना । भागवत ही नहीं संघ के भीतर एक पूरी पीढी पहली बार सरसंघचालक सुदर्शन के खिलाफ हो चली थी, जो खुलेतौर पर मान रही थी कि सुदर्शन के बने रहने का मतलब है संघ का बंटाधार । लेकिन संघ की पारंपरिक स्थितयां इस बात की इजाजत देती नहीं कि सरकार्यवाह जो सोचे वह सरसंघचालक की सहमति के बगैर पूरा हो सकती हैं। वहीं, सरसंघचालक के खिलाफ जाकर सरकार्यवाह संघ के नवनिर्माण का सवाल खडा करें, यह भी संभव नहीं है।<br /><br />लेकिन 1925 में गठित आरएसएस में पहली बार यह देखने को मिला कि सरसंघचालक को हटाने के लिये संघ के भीतर ही गोलबंदी शुरु हुई । मार्च के पहले हफ्ते में दिल्ली के झंडेवालान मुख्यालय में यह मुहर लग गयी कि सुदर्शन को अब अपनी गद्दी भागवत के लिये छोड़ देनी चाहिये । लेकिन संघ में यह परंपरा रही नहीं है कि दिल-दिमाग-शरीर से मजबूत सरसंघचालक अपनी विरासत कैसे किसी दूसरे को दे दे । संघ ने कितना कुछ गंवाया है और दोबारा खुद को खड़ा करने की कुलबुलाहट उसके भीतर कैसे हिलोरे मार रही है, इसका एहसास सुदर्शन का आखिरी भाषण कराता है । जिसमें एक मजबूत दिमाग और शरीर रखने वाला व्यक्ति बताता है कि सालो से जो रसोईया उसे खाना खिलाता रहा, अब वह उसको पहचान नहीं पा रहे हैं। तस्वीर देखने पर भी पहचान नहीं पाते हैं। मेडिकली कितना कमजोर हो चला था सरसंघचालक और अगर वह पद ना छोड़े तो संघ को आगे बढाने या सांगठनिक तौर पर मजबूत करने में संघ सक्षम नहीं हो पायेगा । जिस शख्स ने सरसंघचालक बनने के बाद अपने पहले भाषण में दसियों बार डॉ हेडगेवार का नाम लिया..वही शख्स पद छोडने का ऐलान करते वक्त सिर्फ अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में ही बताये। असल में सुदर्शन की विदाई ने ना सिर्फ संघ को अंदर से चेताया है, बल्कि बीजेपी के लिये भी भागवत एक नयी चेतावनी के साथ आये हैं।<br /><br />राजनीति में सिर्फ इंदिरा गांधी का ही नाम उभरता है, जो विरोधियो के मुंह से अपनी तारीफ करवाकर उन्हें हटाती थी । भागवत का आना कुछ ऐसा ही है । इसका पहला स्वाद वरुण गांधी को लेकर संघ के तौर तरीको ने दिखालाया । वरुण गांधी के आसरे संघ ने आडवाणी को भी संकेत दिये की उनकी आखिरी पारी में अगर बीजेपी को सत्ता मिलती है तो उन्हे अपने रहते संघ परिवार के अनुकुल नीतियो पर चलना हैं और अगर हार मिलती है तो भी जाते जाते संघ परिवार के अनुकुल ही लकीर खिंचनी है । यानी चुनाव के तुरंत बाद बीजेपी का नवनिर्माण की पहल तय है । असल में मोहन भागवत अपने नौ साल के उस कठिन दौर को भूले नहीं है जो बतौर सर कार्यवाह उन्होंने भोगे।<br /><br />कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार ठंडे बस्ते में डल चुका था।<br /><br />पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोड़ने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमों को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे, उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।<br /><br />जाहिर है, इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देखकर खुद को अलग थलग समझ रहा था, बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो जुड़ा तो संघ परिवार के साथ, लेकिन बार बार सावरकर की सोच उन्हे संघ से दूर ले जाती । इसी लिये भागवत ने संघ की जो नयी टीम बनायी, उसमें मराठियो को सबसे ज्यादा तरजीह ही नहीं दी बल्कि हर निर्णायक पद पर मराठी स्वयं सेवक को स्थापित किया । मोहन भागवत बीजेपी की नीतियों को संघ के ढर्रे पर लाकर परिवार को एकजुट करना चाहते हैं, जिससे किसी को ना लगे कि संघ को अपने संगठनों की लगाम कसनी नहीं आती । क्योंकि ढीली लगाम का असर उन्होने सुदर्शन के दौर में देखा है, जब 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया, जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनों में जाना शुरु कर दिया। महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी, जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया । भागवत इसी डोर को थामना चाह रहे हैं ।<br /><br />ऐसे में भागवत बीजेपी को खुला छोडेंगे, यह सोचना भी मुश्किल है । भागवत के सामने बोजेपी को लेकर जो चुनौती है, उसमें उनके पंसदीदा नेताओं के अंतर्विरोध हैं । बाल आप्टे को कोई जानता नहीं । नरेन्द्र मोदी को लेकर संघ के भीतर मनभेद है। जेटली सीधे जनता से चुनकर कर आते नहीं है । यानी जिस सोच को बीजेपी के जरीये भागवत को आगे बढाना है, उसमें यही तीन नेताओं के नाम अगर सबसे ऊपर होंगे, तो सवाल राजनाथ सिंह के उस संघ प्रेम का होगा जो एक साथ संघ की सोच को अकाट्य मानता हो तो दूसरी तरफ टेंटवाला यानी मित्तल के जरीये बीजेपी में बवाल भी खड़ा कराता है। भागवत को जानने वाले मानते हैं कि वह परिणाम प्रेमी है। यानी हाथ में रुद्दाक्ष की माला जप कर हिन्दुत्व का राग से बेहतर उन्हे लाठी लेकर जयश्रीराम का नारा लगाना भाता है । यह समझ अगर देश के भविष्य की राजनीति को साप्रायिकता के चोला ओढे दिखायी दे रही है तो इसके लिये देश को तैयार तो होना ही पड़ेगा क्योंकि भागवत वाकई एक ऐसे डाक्टर हैं, जिनकी सूरत डाक्टर हेडगेवार से मिलती है और सीरत वेटेनरी डाक्टर की है, जो पहले सहलायेगा और जैसे ही ध्यान बंटेगा वैसे ही इंजेक्शन घोप देगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-55960935712191912312008-11-24T08:42:00.003+05:302008-11-24T08:48:58.519+05:30आरएसएस को हिन्दुत्व का पाठ पढ़ाएंगी सावरकर की पातीराष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की मानें तो एटीएस पंचतंत्र की कहानी लिख रहा है। क्योंकि जो लोग मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी हो सकते हैं, वही लोग संघ के कार्यवाह मोहनराव भागवत और कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार की हत्या की साजिश कैसे रच सकते हैं। लेकिन हिन्दुत्व की जिस राह को 'अभिनव भारत' सरीखा संगठन पकड़े हुये है और हिन्दुत्व का नाम लेते लेते आरएसएस जिस राह पर जा चुका है अगर दोनो की स्थिति को दोनो के घेरे में ही देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि मालेगांव को लेकर जो सोच अभिनव भारत में है, कमोवेश वही सोच आरएसएस को भी लेकर है। यानी मालेगाव और संघ के हिन्दुत्व में कोई अंतर करने की स्थिति में 'अभिनव भारत' नहीं है।<br /><br />इस स्थिति को समझने से पहले जरा दोनों के अतीत को समझ लें। दरअसल, अभिनव भारत जिस हिन्दु महासभा से निकला उसके कर्ता-धर्त्ता सावरकर थे जो सीधे कहते थे," इस ब्रह्माण्ड में हिन्दुओं का अपना देश होना ही चाहिये, जहां हम हिन्दुओं के रुप में, शक्तिशाली लोगो के वंशज के रुप में फलते-फूलते रहें। सो, शुद्दि को अपनाये, जिसका केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक पहलू भी है । " वहीं हेडगेवार समाज के शुद्दिकरण के रास्ते हिन्दु राष्ट्र का सपना देशवासियो की आंखों में संजोना चाहते थे।<br /><br />सावरकर पुणे की जमीन और कोकणस्थ ब्रह्माणों के बीच से हिन्दुसभा को खड़ा कर सैनिक संघर्ष के लिये 1904 में अभिनव भारत को लेकर ब्रिट्रिश सरकार को चुनौती दे रहे थे। वहीं दो दशक बाद हेडगेवार नागपुर की जमीन पर तेलुगु ब्राह्मणों के बीच से हिन्दुओं के अनुकुल स्थिति बनाने के लिये कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर हिन्दुत्व शुद्दिकरण पर जोर दे रहे थे। उस दौर में सावरकर के तेवर के आगे आरएसएस कोई मायने नहीं रखती थी । ठीक उसी तरह जैसे अब आरएसएस के आगे हिन्दु महासभा कोई मायने नहीं रखती । सावरकर की पुत्रवधु हिमानी सावरकर 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हिन्दुमहासभा का अलख लिये चुनाव लड़ रही थीं। उस समय बीजेपी ही नहीं आरएसएस के स्वयंसेवक भी मजा ले रहे थे। हिमानी अपना चुनाव प्रचार करने ऑटो पर निकलती थीं और बीजेपी के समर्थक जो शायद आरएसएस से भी जुड़े रहे होगे, आटोवाले को कहते थे "हिमानी पैसा ना दे पाये तो हमसे ले लेना ।"<br /><br />लेकिन वही दौर ऐसा भी था जब आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर घमासान मचा हुआ था । इसलिये कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार में ठंडे बस्ते में डल चुका था ।<br />पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोडने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमो को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।<br /><br />जाहिर है इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देख कर खुद को अलग थलग समझ रहा था बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो सावरकर के आसरे कभी आरएसएस को मान्यता नहीं देता था, वह कहीं ज्यादा खिन्न भी था । 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनो में जाना शुरु कर दिया । महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया ।<br /><br />इस दौर में सावरकर -गोडसे की नयी पीढ़ी, जो संघ से पहले अंसतुष्ट थी, उसने सावरकर की संस्था 'अभिनव भारत' को फिर से सक्रिय करने की दिशा में वर्तमान कालखंड को ही उचित माना । इस विंग ने संघ पर भी मुस्लिम परस्ती और हिन्दु विरोधी सेक्यूलर राह पर जाने के आरोप मढ़ा। ऐसा नही है कि अभिनव भारत एकाएक उभरा और उसने संघ को निशाने पर ले लिया । दरअसल, 2006 में अभिनव भारत को दुबारा जब शुरु करने का सवाल उठा तो संघ के हिन्दुत्व को खारिज करने वाले हिन्दुवादी नेताओ की पंरपरा भी खुलकर सामने आयी। पुणे में हुई बैठक में , जिसमे हिमानी सावरकर भी मौजूद थीं, उसमें यह सवाल उठाया गया कि आरएसएस हमेशा हिन्दुओं के मुद्दे पर कोई खुली राय रखने की जगह खामोश रहकर उसका लाभ उठाना चाहता रहा है। बैठक में शिवाजी मराठा और लोकमान्य तिलक से हिन्दुत्व की पाती जोड कर सावरकर की फिलास्फी और गोडसे की थ्योरी को मान्यता दी गयी । बैठक में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी से लेकर गोरक्षा पीठ के मंहत दिग्विजय नाथ और शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद के भक्तो की मौजूदगी थी । या कहे उनकी पंरपरा को मानने वालो ने इस बैठक में माना कि संघ के आसरे हिन्दुत्व की बात को आगे बढाने का कोई मतलब नहीं है।<br /><br />माना यह भी गया कि बीजेपी को आगे रख कर संघ अब अपनी कमजोरी छुपाने में भी ज्यादा वक्त जाया कर रहा है इसलिये नये तरीके से हिन्दुराष्ट्र का सवाल खड़ा करना है तो पहले आरएसएस को खारिज करना होगा । हालांकि, ऐरएलएल के भीतर यह अब भी माना जाता है कि कांग्रेस से ज्यादा नजदीकी हिन्दुमहासभा की ही रही । 1937 तक तो जिस पंडाल में कांग्रेस का अधिवेशन होता था, उसी पंडाल में दो दिन बाद हिन्दुमहासभा का अधिवेशन होता। और मदन मोहन मालवीय के दौर में तो दोनो अधिवेशनों की अध्यक्षता मालवीय जी ने ही की। इसलिये आरएसएस कांग्रेस की थ्योरी से हटकर सोचती रही । लेकिन हिन्दु महासभा का मानना है कि संघ ने बीजेपी की सत्ता का मजा लेकर सत्ता दोबारा पाने के लिये खुद के संगठन का कांग्रेसीकरण ज्यादा कर लिया है और हिन्दु राष्ट्र की थ्योरी को पूरी तरह नकार दिया है।<br /><br />महत्वपूर्ण यह भी है ब्राह्मणों की पंरपरा को लेकर भी मतभेद उभरे। चूकि हेडगेवार की तरह सुदर्शन भी तेलुगु ब्रह्मण है, तो हिन्दुत्व पर कड़ा रुख अपनाने की सुदर्शन की क्षमता को लेकर भी यह बहस हुई कि संघ फिलहाल सबसे कमजोर रुप में काम कर रहा है। इसलिये संघ की मराठी लाबी भी सावरकर की सोच को आगे बढाने में मदद करेगी। इन सब का असर संघ पर किस रुप में पड़ा है या फिर देश में जो राजनीतिक हालात हैं, उसमे सरसंघचालक सुदर्शन भी अंदर से किस तरह हिले हुये है इसका अंदाजा पिछले महीने 7 नबंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर गो-रक्षा के सवाल पर हिमानी सावरकर के साथ मंच पर खडे सुदर्शन को देख कर समझा जा सकता था । यानी जो परिस्थितियां सावरकर और संघ को अलग किये हुये थीं, उसमे पहली बार संघ के भीतर भी इस बात को लेकर कुलबलाहट है कि जिस राह पर वह चल रही है वह रास्ता सही नहीं है।<br /><br />मामला सिर्फ मोहन भागवत या इन्द्रेश की हत्या की साजिश का नहीं है , पुणे में गोखले-साठे-पेशवा-सावरकर की कतार में खडे कोकनस्थ बह्मण अब स्वदेशी अर्थव्यवस्था के उस ढांचे को जीवित करना चाह रहे हैं, जिसकी बात कभी संघ के नेता दत्तोपंत ढेंगडी किया करते थे। लेकिन ढेंगडी अपनी बात कहते कहते मर गये मगर न वाजपेयी सरकार ने उनकी बात सुनी ना सरसंघचालक ने उन्हे तरजीह दी । जाहिर है, आजादी के बाद पहली बार अगर अभिनव भारत को बनाने की जरुरत सावरकर को मानने वाले कर रहे है तो इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दुत्व की जो थ्योरी सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अभी तक आरएसएस परोस रही है और बीजेपी उसे राजनीतिक धार दे रही है, वह अपने ही कटघरे में पहली बार खड़ी है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16