tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-79373079612885253482012-01-05T11:33:00.001+05:302012-01-05T11:34:44.174+05:30साड्डा हक कित्थे रख?"जन्नत" से संसद का नजारा<br /><br /><br />जब देश सड़क पर आंदोलन और संसद के भीतर बहस से गर्म था तब बर्फ से पटे पड़े कश्मीर में आग भीतर ही भीतर कहीं ज्यादा सुलग रही थी। क्रिसमस से लेकर नये वर्ष यानी साल के आखिरी हफ्ते में इस बार कश्मीर की वादियां पहली बार खुले आसमान तले खुल कर सांस ले रही थी। आसमान इतना खुला था कि दिन में सुर्ख धूप और रात में बर्फ की तरह जमा देने वाली ठंड ने 2011 में पहली बार 21-22 दिसंबर को हुई बर्फबारी की बर्फ को गलने नहीं दिया और सोनमर्ग से लेकर गुलमर्ग तक वादियों में रंगीन मिजाज का सुर पर्यटको के जरिए लगातार परवान चढता गया। लेकिन जमीन की बर्फ को किसी पाउडर की तरह उछालने के लिये मचलते पर्यटकों के दिलों को अपने पेट से जोड़ने में लगे सोनमर्ग में स्लेज खींचने वाले मजदूर हों या घोड़े की सवारी कराने वाले घुड़साल या फिर गुलमर्ग ले जाने के लिये तंगमार्ग में टैक्सी वालों का रेला। हर दिल के भीतर पेट की आग के साथ दिल्ली से लेकर मुंबई तक यानी संसद से सड़क तक की बहस और आंदोलन लगातार चीर रही थी। उनके भीतर के सवाल लगातार हर उस पर्यटक को मौका मिलते ही कुरेदने से नहीं चूकते कि आखिर अन्ना के आंदोलन और संसद की बहस में कश्मीर क्यों नहीं है। इस बार सवाल आजादी का था। सवाल घाटी में फैलते भ्रष्टाचार का था। सत्ताधारियों के भ्रष्ट फैसले से कटते देवदार और चिनार के पेड़ों का था। सूनी घाटियों तक की जमीन तक की कीमतों को कंस्ट्रक्शन के जरिए आसमान तक पहुंचाकर धंधा करते राजनेताओं के जरिए भ्रष्टाचार में गोते लगाते हर संस्थान के उसमें डूबकी लगाने का था। बर्फ से घिरे गुलमर्ग में अगर सड़क पर खड़े पुलिस की भारी होती जेब पर गुस्सा था तो श्रीनगर में डल झील की सफाई के लिये दिल्ली से पहुंचे सात सौ करोड़ के डकारने का गुस्सा शिकारा चलाते उन मजदूरो में था, जिनकी फिरन से निकलते हाथ से पानी को काटती चप्पी के आसरे डल लेक में तैरते शिकारे में बैठ कर जन्नत का एहसास हर उस को करा रहे थे जो क्रिसमस से लेकर नये वर्ष में ही खुद को खोने के लिये वादियों में पहुंचे थे। फूलों को बटोर कर केसर बनाने वाले नन्हे हाथ हों या माथे पर टोकरी को बांध कर अखरोट जमा करने वाली कश्मीरी महिलाएं, सर्द मौसम में सबकुछ ठहरा जाता है तो इनके भीतर के सवाल इसी दौर में जाग जाते हैं। खास कर श्रीनगर का डाउनटाउन इलाका। जहांगीर होटल से जैसे ही कदम ईदगाह की तरफ मुड़ते हैं, सड़क के दोनों तरफ के घरों की खिड़कियो के टूटे शीशे कुछ सवाल किसी भी उस पर्यटक के जेहन में खड़ा करते हैं, जो ईदगाह, जामा मस्जिद या हजरतबल देखने निकलता है। और टूटे हुए शीशों के अक्स में कोई सवाल अगर किसी भी दुकान या मस्जिद के साये में बैठी महिलाओं या सड़क पर खेलते बच्चों से कोई पूछे तो हर जवाब की नजर दिल्ली पर उठती है और सवाल के जवाब सवाल के रुप में आते हैं। जिसमें हर जानकारी किसी की मौत से जुड जाती है। और फिरन में कांगडी की गर्मी आधी रात में हारते लोकतंत्र पर डल झील में बोट हाउस की रखवाली करता एहसान डार 29 को आधी रात में यह कहने से नहीं चुकता, "जैसे कश्मीर की फिजा और सियासत पर मेरा हक नहीं वैसे ही भारत पर संसद का हक नहीं"। डल झील में कतारो में खड़े हर बोट हाउस में चाहे देशी-विदेशी पर्यटक 29 की रात सो गये। लेकिन पहली बार हर बोट हाउस में किसी ना किसी बुजुर्ग की आंखें संसद में होती बहस के साये में कश्मीर को खोजती दिखीं। आधी रात तक बहस के बाद भी सुबह शिकारे में घुमाने ले जाते पर्यटकों के बीच डल लेक में ही कश्मीरी सामानों को बेचने वाले यह सवाल जरुर करते कि क्या वाकई संसद के हाथ में देश की डोर है। कही भ्रष्टाचार की डोर ने तो संसद को नहीं बांध रखा है। और तमाम सवालों के बीच आखिरी सवाल हर चेहरे पर यही उभरता कि कश्मीरी सियसतदानों ने भी कही सत्ता की खातिर कश्मीर को भी संसद के हवाले कर चैन से कश्मीर में भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस तो नहीं ले लिया। तो क्या कश्मीरियों के बस में जन्नत को ढोना है और क्रिसमस से लेकर नये वर्ष के लुत्फ को अपने पेट से जोड़कर पर्यटन रोजगार को जिन्दा रखना है। इसका जवाब आजादी का सवाल खड़ा करते चेहरों के पास भी नहीं है। <br /><br />लेकिन जो सवाल संसद में उठे और जो जवाब अन्ना हजारे को चाहिए उनका वास्ता किसी आम हिंन्दुस्तानी से कितना है, यह पहली बार कश्मीरियों ने देखा और यह भी समझा कि कश्मीर में भी सियासतदान की तकरीर इससे अलग नही। श्रीनगर के लाल चौक इलाके में अपने छोटे से कमरे में फिरन और कागंडी में सिमटे जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक हों या राजबाग इलाके के अपने घर में कलम थामे कश्मीर के सच को पन्नों पर उकेरते अब्दुल गनी बट। हर किसी ने संसद की बहस और अन्ना के आंदोलन को घाटी की उस हकीकत को पिरोने की कोशिश की, जिसमें सड़क पर तिरंगे की जगह पत्थर उठाने का मतलब मौत होता है और संविधान की दुहाई देती सत्ता के लिये संसद का मतलब अपनी जरुरतों का ढाल बनाना और उससे इतर सवाल पर राष्ट्रभावना को उभारना। 29 की रात संसद की बहस देखने के बाद 30 दिसंबर की सुबह गुस्से भरे सवाल अगर यासिन मलिक के थे तो हुर्रियत कान्फ्रेन्स के अब्दुल गनी बट को अपनी किताब के लिये संसद की बहस ने ऊर्जा दे दी थी। बीते एक महीने से "बियांड मी " यानी जो मेरे बस में नही नाम से किताब लिखने में मशगूल अब्दुल गनी बट को भरोसा है कि इस ठंड में वह अपनी किताब पन्नों पर उकेर लेंगे। उनके किताबी सफर की शुरुआत 1963 से है। जब उन्हें प्रोफेसर की नौकरी मिली। लेकिन 1988-89 में जब पहली बार चुनाव में चोरी खुले तौर पर कश्मीरियों ने देखी और सैयद सलाउद्दीन {अब हिजबुल मुजाहिद्दीन के चीफ } को पाकिस्तान का रास्ता पकड़ना पडा और कश्मीर की सत्ता की डोर नेशनल<br />कॉन्फ्रेंस ने दिल्ली के जरीये पकड़ी। तब जो सवाल कश्मीर में उठे वही सवाल आने वाले दौर में अन्ना हजारे के जरिए हिन्दुस्तान की जनता के सामने भी उठेंगे। क्योंकि चार दशक पहले शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को लेकर सही सवाल गलत वक्त में उठाया था और उसका हश्र शेख अब्दुल्ला ने ही भोगा। चाहे उसका लाभ आज उनकी पीढ़ियां उठा रही हैं। कमोवेश अन्ना ने भी सही सवाल गलत वक्तं में उठाया है क्योंकि अभी सत्ता की रप्तार जनता के हक के लिये नहीं बाज़ार और पैसा बनाने की है। और कश्मीर के सवालों को समाधन के रास्ते लाते वक्त मैंने { अब्दुल्ल गनी बट } भी यह महसूस किया कि जो मेरे बस में नहीं था, वह जिसके बस में था उसकी प्रथमिकतायएं कश्मीर को कश्मीर बनाये रखने की थी। बियांड मी कुछ वैसा ही दस्तावेज होगा और शायद आने वाले वक्त में सियासत को भी लगे और हिन्दुस्तानियों को भी क्या संसद के बस में वह सब है जो अन्ना मांग रहे हैं। <br /><br />इसीलिये हक का सवाल भी कहीं कानून तो कही लोकतंत्र और कहीं संविधान की दुहाई में गुम हो रहा है। ब़ट ने कश्मीर के आइने में संसद की बहस को अक्स दिखाया और यह सवाल जब उस हाशिम कुरैशी के सामने रखा, जिन्होंने 1971 में जहाज का अपहरण कर लाहौर में उतारा था तो शालीमार-निशात बाग की छांव तले बने अपने आलीशान घर में चिनार से लेकर अंगूर और अखरोट से लेकर लहसन तक के पौधों को दिखाते हुये कहा कि कश्मीर में सिसमेटे किसी भी कश्मीरी के लिये मौत का सवाल अब सवाल क्यों नहीं है, यह समूचे डाउन-टाउन के इलाके में घरों और दुकानों के बीच कब्रिस्तान को देखकर होता है। दर्जनों नहीं सैकड़ों की तादाद में कब्रिस्तान। और हर मोहल्ले में कब्रिस्तान। लेकिन पर्यटको की आंखें सवाल कब्रिस्तान को लेकर नहीं बल्कि कब्रिस्तान में भी निकले चिनार को देखकर करती हैं। चिनार की इसी छांव में कश्मीर वादी की दिली आग भी हर किसी पर्यटक को लूभाने लगती है। लेकिन पहली बार संसद में आधी रात तक की बहस कश्मीरियों में बहस जगाती है कि उनके सवाल क्यों मायने नहीं रखते। जिस तरह सर्दी के मौसम में बर्फ से पटे पड़े पहाड़ों पर चिनार अपनी सूखी टहनियों के जरिए किसी विद्रोही सा खड़ा नज़र आता है, कमोवेश इसी तरह ठंड के तीन महीनो में हर कश्मीरी चाय-रोटी, कहवा-सिगरेट या फेरन-कागंडी में सिमट कर रहते हुये उन नौ महीनों के दर्द को बेहद महिन तरीके से प्रसव की तरह सहता है। शायद इसीलिये मुंबई में खाली पड़े मैदान में अन्ना के आंदोलन को लेकर बेकरी की दुकान चलाने वाला इम्तियाज यह कहने से नहीं चुकता कि जो अन्ना कश्मीर पर दिये अपने टीम के एक सदस्य के साथ खड़े नहीं होते तो वह आंदोलन को कैसे आगे ले जाएंगे।और संसद के भीतर नेमा हाल नहीं है। लेकिन फिल्म राक स्टार बनाने वाले इम्तियाज अली को सड्डा हक के बोल कश्मीर से ही मिले। मौका मिले तो उनसे पूछ लीजिएगा "साड्डा हक कित्थे रख", क्योंकि उन्होंने कश्मीर में भी खासा वक्त गुजारा है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-37223814414270615512008-09-07T10:28:00.001+05:302008-09-07T10:30:31.479+05:30कश्मीर के बहाने एक नया सवालबंधु...<br /><br />आपके कई जवाबों ने मेरे दिमाग में एक नया सवाल पैदा कर दिया है कि अगर देश को कश्मीर चाहिए और कश्मीरी नहीं तो क्या वाकई उदारवादी अर्थव्यवस्था ने जो चाहा उसे मिल गया है ? क्योंकि, न्यू इकॉनमी के दौर में ही यह बात दुनिया भर में उठती रही है कि कैसे आदमी एक प्रोडक्ट में तब्दील हो जायेगा । उसकी जरुरत उसके इर्द-गिर्द के वातावरण के हिसाब से तय होगी। उसके इर्द-गिर्द का वातावरण राज्य के एक तबके के बिजनेस के हिसाब से बनेगा । इस वर्ग या छोटे से तबके के बिजनेस का मूलमंत्र मुनाफा है तो बहुसंख्य तबके की जरुरत भी उसके व्यकितगत मुनाफे के हिसाब से ही तय होगी।<br /><br /> अगर इस प्रभावी छोटे से तबके को लगता है कि देश में अब बच्चो के लिये पार्क-मैदान नहीं होने चाहिये तो नहीं होगे । सिर्फ रिहायशी क्षेत्र होंगे । बच्चों के लिये जिम होंगे,कंप्यूटर होंगे । ऐसी तकनीक होगी, जिस पर बच्चो की उंगलिया रेंगे और बैठे बैठे बच्चे को महसूस हो कि दुनिया उसके सामने है। दुनिया की समूची समझ उसके अंदर है। उसे पता है कि कहां पर कौन किस रुप में मौजूद है। कौन कैसे काम करता है। कैसे जीता है । अच्छा कौन है -बुरा कौन है। उसे सब पता है । इतना ही नहीं उसके अपने स्कूल के बारे में दूसरों की कैसी राय है, वैसी ही राय उसकी भी हो । यानी हर दिन स्कूल में जाने के बावजूद--हर दिन पढ़ने के बावजूद , जो हो सकता है उसे अच्छा न लगता हो या कहें अच्छा लगता हो , लेकिन सूचना तकनीक का प्रचार-प्रसार अगर बच्चे की समझ के उलट बताता है, तो क्या होगा? यानी बच्चे को अच्छा न लगने वाला स्कूल अगर एक ब्रांड है। उसमें पढना सामाजिक हैसियत को बढाता है, तो बच्चा तो वहीं पढेगा ।<br /><br /> मुझे लगता है, हम सूचना तकनीक पर ठीक उसी तरह आश्रित हो गये हैं जैसे बाजार का कोई उत्पाद बेचने के लिये उसके प्रचार प्रसार में लगी कंपनी । सवाल है जो कंधमाल में हो रहा है । जो गुजरात में हुआ । जो कश्मीर में जारी है । जो उत्तर-पूर्वी राज्यो में हो रहा है । जिस हालात से बिहार का कोसी प्रभावित क्षेत्र दो -चार हो रहा है, इन सभी के बारे में सिर्फ पहला शब्द गूगल में लिखे तो समूची सूचना आपके पास आ जायेगी । अब आप इसे सूचना मानते है या जानकारी , हमें तय यही करना है। अगर यह सूचना है तो हमारा काम यही से शुरु होता है..जिसमे इस सूचना की भी एक रिपोर्ट तैयार करना है । यानी सूचना को समूची जानकारी नहीं माना जा सकता । सूचना एक इन्टरपेटेशन है । क्योकि जहां के बारे में सूचना कंप्यूटर देता है, वह उसकी पहुंच के दायरे में सिमटा है । मसलन अगर इंडिया के बारे में गूगल की मदद ली जाये तो आपको परेशानी हो सकती है कि आप किस देश में है । यह अब भी सांप-सपेरे-जादूगर-पंडितों का देश दिखायी देगा। तो तकनीक एक माध्यम है कोई ज्ञान नही है। <br /><br /> ज्ञानी मनुष्य है, जिसे अपने नजरिए से लोगों से सरोकार करते हुये समझ बांटनी है । और किसी भी नजरिए को स्पेस देना है । जिससे एक स्वस्थ वातावरण बन सके । जाहिर यह वातावरण बाजार को नही चाहिए । उस छोटे से तबके को नहीं चाहिये जो बाजार के नजरिए से राज्य को चलाना चाह रहा है और चलाने भी लगा है । उस तबके को अपने मुनाफे के आसरे एक ऐसा वातावरण चाहिये, जहां सूचना को ही अंतिम सत्य माना जाये और नया विश्व उसी के अनुसार चले । ब्लॉग भी एक माध्यम है । यह कोई ज्ञान का संसार नहीं है । सच तो कमरे से बाहर निकल कर आपस में मिलने और लोगो के साथ वक्त गुजारने पर ही पता चलेगा । सिर्फ तर्कों के आसरे जिन्दगी नहीं चलती है, यह आप भी जानते हैं मै भी समझता हूं......। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि बिना किसी आंतक के इस देश में बहस की गुजाइश बच रही है या वह खत्म हो गयी है । क्योंकि प्रतिक्रिया अगर इस तरीके की हो जो सामने वाले को चेताए कि या तो मेरी सुनो नहीं तो मारे जाओगे-यह खतरनाक है।<br /><br />खैर अगली चर्चा बंगाल पर।चार दशक पहले किसान चेतना को जगाने वाली वामपंथी राजनीति को अब पूंजीवाद क्यों भा रहा है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com8