tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-54945630140254839362011-09-20T17:14:00.000+05:302011-09-20T17:15:01.490+05:30कांग्रेस के भीतर 10 जनपथ की कंपनबैंक का मुनाफा दर देश के महंगाई दर के आगे घुटने टेके हुये हैं। न्यूनतम जरुरतों की कीमत देश के औसत प्रति व्यक्ति आय पर भारी पड़ रही है। पैसे की कीमत बनाये रखने के लिये सोना का उछाल और फिर एकदम धड़ाम की स्थिति ने भरोसा यहां भी डिगा दिया है। फिर रियल-इस्टेट और भूमि कब्जा का रास्ता हवाला और मनी-लॉंडरिंग के हाथों हर दिन नया उछाल दर्ज कर रहा है। और इन परिस्थितियों के बीच कैबिनेट मंत्रियों की जमात देश को छोड़ कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे के लिये जिस तरह सरकारी नियमों की धज्जियों को उड़ाते दिख रही है, उसमें पहली बार सरकार भी फंसी है और सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस भी। अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था फेल दिख रही है तो कांग्रेस का हाथ भी आमआदमी पर पकड़ बना नहीं पा रहा है। और चूंकि दोनों के आगे-पीछे 10 जनपथ है, तो क्या यह सोनिया गांधी की हार है। चूंकि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री होने और अभी तक बने रहने के पीछे सोनिया गांधी है और 4 अगस्त से 8 सितंबर तक सोनिया की गैर मौजूदगी में सोनिया का नाम लेकर कांग्रेस को संभालने वाले ए के एंटोनी,जनार्दन द्विवेदी और अहमद पटेल की तिकड़ी फेल रही तो फेल तो सोनिया गांधी ही मानी जायेगी। <br /><br />लेकिन कांग्रेस का मतलब ही जब गांधी परिवार है तो सोनिया गांधी कैसे हार सकती है। संयोग से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मतलब भी सोनिया गांधी है। तो कौन किसे फेल कहेगा। यानी सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी का मतलब अगर सरकार और कांग्रेस की असफलता है, तो यह 10 जनपथ की सबसे बड़ी जीत हैं। तो क्या असफलता का सेहरा जीत में बदल सकता है। खासकर तब जब देश पटरी पर दौड़ नहीं रहा। सार्वजनिक संस्थान कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियो के आगे नतमस्तक है । अन्ना हजारे की दुबारा वापसी का खौफ सरकार के भीतर है और कांग्रेस भी सियासी जमीन खिसकती देख रही है तो सोनिया गांधी इस दौर में कर क्या रही है,यह उन्हीं के हारे प्यादों के खेल समझना होगा। सरकार बीजेपी की पहचान को कटघरे में खड़ा करना चाहते है। तो 10 जनपथ अन्ना हजारे की सफलता को तिलक के तौर पर अपने माथे पर लगाना चाहता है। सांप्रदायिक विधेयक के आसरे हिन्दुत्व की पहचान समेटे बीजेपी पर अब मनमोहन सिंह सीधी चोट करने को तैयार हैं, जिससे मुद्दों में उलझी सरकार को सियासी जगह मिल सके। वही दूसरी तरफ 10 जनपथ के पटेल अब जनलोकपाल पर सहमति बनाने के उपर सोनिया गांधी का ही सिक्का चलाने का खेल खेलना चाहते हैं। यानी सोनिया की गैरमौजूदगी में सोनिया के हारे प्यादो को अब लगने लगा है कि जिस दौर में वह कमजोर या असफल साबित हुये, उसकी वजह अगर सोनिया के निर्देशों को नजरअंदाज करने पर टिका दिया जाये तो उनका खेल आगे बढ़ सकता है। <br /><br />तीन स्तर पर इस खेल को अंजाम देने में लगे मनमोहन सिंह एक बार फिर 'क्रोनी कैपटलिज्म' का सवाल उठा कर अपने मंत्रिमंडल को संवारना चाहते हैं। खासकर पेट्रोलियम मंत्री रहते हुये मुरली देवडा के रिलायंस को लाभ पहुंचाने और उड्डयन मंत्री रहते हुये प्रफुल्ल पटेल का इंडियन एयरलाईन्स को चूना लगाकर निजी एयरलाइन्सों को लाभ पहुंचाने का खेल जिस तरह सीएजी रिपोर्ट में आमने आया उसमें अब मनमोहन सिंह यह सवाल खड़ा कर रहे हैं कि उन नेताओ को पार्टी मंत्री बनाने का दवाब ना बनायें, जिससे क्रोनी कैपटलिज्म को बढ़ावा मिले। और आम लोग खुले तौर पर सरकार की ईमानदारी पर सवालिया निशान लगायें। यानी कांग्रेस के भीतर जो खांटी कांग्रेसी मनमोहन सिंह पर आरोप लगाते हैं कि राजनीतिक सरोकार ना होने की वजह से सरकार बार बार हर मुद्दे पर फेल नजर आती है तो उसकी काट मनमोहन सिंह फिर ईमानदारी और कॉरपोरेट से मंत्रियो की दूरी तय कर अपनी ठसक बरकरार रखना चहते हैं। वहीं दूसरे स्तर पर सरकार के भीतर के सत्ता संघर्ष को लगाम लगाने के लिये मनमोहन सिंह अब चिदबरंम और प्रणव मुखर्जी को भी उनके दायरे में बांधना चाहते हैं। आंतरिक सुरक्षा के दायरे में दिल्ली घमाके से पहले जिस तरह हवाला और मनीलॉडरिंग का सवाल खडा कर गृह-मंत्रालय ने ईडी और सीबीडीटी में ताक-झांक शुरु की उससे परेशान प्रणव मुखर्जी और एके एंटोनी के सवालो से ही चिदंबरम को अब सोनिया के माध्यम से शांत किया जा रहा है। वहीं वित्त मंत्रालय ने जिस तरह सीबीडीटी के जरीये दागी निजी कंपनियों की निशानदेही तो की है लेकिन शिकंजे में कसना शुरु नही किया है और कालेधन को लेकर कोई ठोस पहल अबतक नहीं की है, उस पर भी मनमोहन सिंह अपने हाथ खड़े कर खुद को पाक साफ दिखलाने की कोशिश ही कर रहे है। <br /><br />वहीं दूसरी तरफ 10 जनपथ का खेल निराला है। एक वक्त सोनिया गांधी के सलाहकार के तौर पर गुलाम नहीं आजाद, अंबिका सोनी और अहमद पटेल की तिकड़ी काम करती थी। और यह तिकड़ी समूची पार्टी और सरकार को अपनी अंगुली पर रखती रही, इसे भी हर कांग्रेसी जानता है। लेकिन जिस तरह गुलाम नबी आजाद को कश्मीर भेजा गया और फिर अंबिका सोनी को कैबिनेट मंत्री बनवाकर 10 जनपथ पर अकेला राज अहमद पटेल का हुआ, उसका नया संकट सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी में तब उभरा जब किसी भी मुश्किल वक्त में अहमद पटेल ने ना तो पहल की और ना ही सरकार या पार्टी की तरफ से किसी ने 10 जनपथ के दरवाजे पर दस्तक दी। लेकिन सोनिया लौटी तो अहमद पटेल ने भी अपने सफल को कद बरकरार रखने के लिये अन्ना हजारे के जरीये लाभ उठाती बीजेपी की राजनीतिक जमीन में सेंध लगाने की व्यूह रचना भी शुरु की। विलासराव देशमुख सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि रालेगण सिद्दी में भी अपने प्यादो के जरीये अन्ना हजारे को सोनिया गांधी के दरवाजे पर लाने के लिये बिसात बिछा रहे हैं तो दिल्ली में अहमद पटेल सरकार के भीतर इसके संकेत दे रहे हैं कि जनलोकपाल को लेकर ऐसा रास्ता बनाया जाये जिससे स्टैडिंग कमेटी से लेकर संसद के भीतर वोटिंग तक की स्थिति में सिर्फ सोनिया की चलती दिखे। यानी जिस रास्ते आरटीआई कानून बना और वाहवाही सोनिया गांधी की हुई, वैसा ही रास्ता जनलोकपाल को लेकर भी बनना चाहिये। हालांकि हारे हुये प्यादो की यह सारी मशक्कत अपने कद को बरकरार रखने की भी है और सोनिया गांधी के सामने यह संकेत देना भी है कि उनसे बेहतर प्यादे कोई दूसरे हो नहीं सकते। लेकिन कांग्रेस का खेल अब सरकार से ज्यादा उस राजनीति पर जा टिका है, जिसकी बिसात पर मनमोहन सिंह हारे सिपाही लग रहे हैं, इसे सोनिया गांधी बखूबी समझ रही हैं। इसलिये कांग्रेस को यूपी से लेकर पंजाब तक के विधानसभा चुनाव में कैसे खड़ा किया जाये यह सवाल कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। यूपी में मुलायम सिंह के साथ खड़े होने का मतलब है मायावती की जीत और अकेले खडे होने का मतलब है तीसरे या चौथे नंबर की पार्टी बन त्रिंशकु विधानमभा के जोड़ तोड़ को देखना। कांग्रेस की इस हकीकत की काट सोनिया गांधी, राहुल गांधी में दिखलाना चाहती है। सोनिया इस हकीकत को समझ रही हैं कि राहुल गांधी की चमक अगर फीकी पड़ी है तो उसकी वजह बीजेपी या कोई राजनीतिक दल नहीं बल्कि अन्ना हजारे की वह गैर राजनीतिक सियासत है, जिसने राहुल की जमीनी चमक पर देश के सच की घूल डाल दी और मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि को भी लपेटे में ले लिया। ऐसे में तैयारी इसकी भी है कि संसद के विंटर सेशन में जनलोकपाल पर सोनिया का ठप्पा लगकर पहुंचे तो राहुल के जनलोकपाल पर उठाये सवाल की लोकपाल को संवैधानिक बॉडी के तौर पर होना चाहिये, को भी बिल के तौर पर संसद में लाया जाये और उसे सरकार व्हीप जारी करके पास करा दे। इसके सामांनातर किसानों के सवालो को नये भूमि अधिग्रहण बिल के जरीये भी विंटर सेशन में भी निपटा दिया जाये। और तीसरे स्तर पर यूपी की यूनिवर्सिटी में रुके चुनावो को आंदोलन के तौर पर कांग्रेसी पहल हो जिससे युवा ताकत राहुल के पीछे जुड़े।<br /><br />जाहिर है 10 जनपथ की कवायद हर मुद्दे पर सरकर को साथ लेकर चल रही है। लेकिन सोनिया गांधी के सामने सबसे बडा संकट मनमोहन सिंड्रोम का है। खांटी कांग्रेसियों का मानना है कि बीजेपी जिस तरह अपने सत्ता संघर्ष में फंसी है, ऐसे में उसे ताड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है। क्योंकि नरेन्द्र मोदी के उपवास मिशन ने ही बता दिया विपक्ष का रास्ता कांग्रेसीकरण के जरीये ही सत्ता तक पहुंच सकता है। तो फिर कांग्रेस को अपनी राजनीतिक बिसात बिछाने में कोई परेशानी है नहीं। लेकिन जिस देश का अर्थशास्त्र ईमानदार नागरिक को भी यह बता दे कि उसकी गाढी कमाई महंगाई दर तले लगातार कम होती जायेगी चाहे वह बैंक में जमा कराये या कही भी निवेश करें। और जो दिहाडी या महीनेवारी पर टिके हैं, अगर उन्हें दो जून की रोटी जुगाडने का संकट पैदा हो चुका है तो फिर सारा दोष तो अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के मथ्थे ही आयेगा, जिसकी काट किसी खांटी कांग्रेसी के पास भी नहीं है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-49406197961612857262010-11-04T23:21:00.001+05:302010-11-04T23:21:32.257+05:30सवा सौ साल की कांग्रेस की ईमानदारीठीक दो साल पहले मणिकराव ठाकरे विदर्भ में कलावती के घर पर साइकिल, सिलाई मशीन और छप्पर पर डालने वाली टीन की चादर लेकर पहुंचे थे। और दो साल बाद एआईसीसी के सालाना जलसे में मंच पर वह सोनिया गांधी के ठीक पीछे बैठे थे। इन दो बरस में यवतमाल के जिलाध्यक्ष से लेकर महाराष्ट्र प्रदेश काग्रेस अध्यक्ष के पद पर मणिकराव कैसे पहुंच गये, यह या तो राहुल गांधी जानते है या फिर विदर्भ के कांग्रेसी, जिन्होंने कलावती के जालका गांव में राहुल के पोस्टर तक से झोपडियों की छतों को ढकते हुये मणिकराव को देखा। यह अलग किस्सा है कि प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद मणिकराव ठाकरे ने अपने पद का इस्तेमाल कर बेटे अतुल ठाकरे को सिर्फ डेढ़ लाख के सोलवेन्सी सर्टिफिकेट यवतमाल में 262 एकड जमीन पर माइनिग का लाइसेंस दिला दिया। जबकि इसी जमीन पर 1250 करोड़ का सीमेंट प्लांट लगाने के लिये अंबुजा सीमेंट वालो ने भी माइनिंग लाइसेंस मांगा था।<br /><br />लेकिन विदर्भ का मतलब ही जब मणिकराव ठाकरे हो गया तब बेटे के व्यापार से बड़ा किसी उद्योग का प्लांट और निजी मुनाफे से बड़ा विकास का सवाल कैसे हो सकता है। इसलिये यह मुहावरा अब छोटा है कि कभी इंदिरा को इंडिया कहा गया। अब तो कांग्रेस भी पिरामिड की तरह ऊपरी चेहरे पर टिकी है। देश के लिये यह चेहरा सोनिया गांधी का हो सकता है लेकिन हर प्रदेश में सोनिया या राहुल का अक्स लिये कोई ना कोई चेहरा कांग्रेसी पहचान का है, जिसमें अपनी तस्वीर ना देखने का मतलब है बगावत। ऐसे में काग्रेसी नजरिये से भ्रष्टाचार को परिभाषित करना सबसे मुश्किल है। क्योंकि चकाचौंध भारत में तो लाइसेंस का आधार पूंजी है। और पूंजी पार्टी लाइन से उपर मानी जाती है। लेकिन अंधियारे भारत में से चकाचौंध निकालने का लाईसेंस सिर्फ सत्ताधारी ही पाते हैं। यानी जहां भाजपा की सत्ता है, वहा भाजपाई या संघी और जहां कांग्रेस की सत्ता है, वहां कांग्रेसियों के रिश्तेदार या खुद कांग्रेसी । <br /><br />चूंकि एआईसीसी सम्मेलन में सोनिया गांधी से महज दस हाथ से भी कम दूरी पर महाराष्ट्र के वही सीएम बैठे थे जो भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अपना इस्तीफा दो दिन पहले ही सोनिया गांधी को थमा आये थे। और पूरे सम्मेलन में सभी की नजर उन्हीं पर ज्यादा भी थी और कांग्रेसी उन्हीं को सबसे ज्यादा टटोल भी रहे थे कि मैडम ने कहा क्या। यानी मुंबई की जिस आदर्श इमारत ने काग्रेस की आदर्श सोच की बखिया उधेड़ दी, उसके खलनायक ही मंच पर नायक सरीखे लग रहे थे। और ऐसे में काग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने जब देश में बनते दो देशों का सवाल खड़ा किया, तब भी उनकी नजर अशोक चव्हाण की तरफ गयी या नहीं, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन कांग्रेसी चकाचौंध के लिये कैसे अंधेरिया भारत को और अधेंरे में लेजाते है यह महाराष्ट्र में बीते पन्द्रह बरस की काग्रेसी सत्ता के सरकारी आंकड़ों से भी समझा जा सकता है। <br /><br />इन 15 बरस में 70 फीसदी उद्योग बीमार होकर बंद हुये। रिकॉर्ड 90 लाख युवाओं के नाम रोजगार दफ्तर में दर्ज हुये। गरीबो की तादाद में 12 फीसदी का इजाफा हुआ। बीपीएल परिवार में 7 फीसदी का इजाफा हुआ। 15 बरस में सवा लाख किसानों ने खुदकुशी कर ली। खेती की विकास दर औसतन उससे पहले के 15 बरस की तुलना में 7 फीसदी तक घटी। सुनहरा कपास ऐसा काला हुआ कि सिर्फ विदर्भ के 30 लाख किसानों का जीवन सरकारी पैकेज पर आ टिका। यह सवाल अलग है कि विकास से पहले की न्यूनतम जरुरत पीने का साफ पानी, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और मध्यम दर्जे की शिक्षा अब भी 35 फीसद आबादी से दूर है। जबकि समूचे विदर्भ और मराठवाडा के वह हिस्से, जहां से अशोक चव्हाण, विलासराव देसमुख और सुशील कुमार शिंदे आते हैं, के करीब सत्तर फीसद कांग्रेसी नेताओ की औसतन संपत्ति डेढ़ करोड पार की है। जबकि इन क्षेत्रो में औसतन आय अभी सालाना 22 हजार तक नही पहुंची है। और ग्रामीण क्षेत्र में यह आय 12 हजार से ज्यादा की नहीं है। <br /><br />समझना होगा कि कैसे कांग्रेसी सफेद झक खादी पहन कर एआईसीसी की बैठक में नजर आते हैं। मराठवाडा और विदर्भ में करीब सत्रह सौ लाइसेंस माइनिंग के बांटे गये। जिसमें से 36 छोटे-बड़े उघोगों को निकाल दिया जाये तो सभी लाइसेंस वैसे ही कांग्रेसियों को दिये गये, जैसे यवतमाल में अतुल टाकरे या फिर कांग्रेसी विधायक के बेटे प्रवीण कासावर या कांग्रेसी लतीफ उदीम खानाला को। इसी तरह हर जिले में एमएईडीसी यानी महाराष्ट्र ओघोगिक विकास निगम की जमीन भी करीब 50 हजार से ज्यादा कांग्रेसियो को ही बांटी गयी, उसमें सासंद भी है और पार्टी के लिये पूंजी जुगाड़ने वाले स्थानीय व्यापारी नेता भी। कुल 54 कॉलेज इस दौर में खुले, जिसमें से 45 के मालिक कांग्रेसी हैं। असल में सत्ता का कैडर या कार्यकर्ताओ का जुगाड़ ही लाइसेंस के बंदरबांट से होता है और उसके आईने में विकास का पैमाना नापना होता है, उसे राहुल कितना समझते है, यह कहना वाकई मुश्किल है। <br /><br />लेकिन विकास का चेहरा केन्द्र से चल कर गांव की जमीन पर क्या असर दिखाता है, इसे किसानों को लेकर प्रधानमंत्री के करोड़ों के पैकेज से भी समझा जा सकता है। 2006 से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस बात पर गर्व कर रहे है कि उन्होंने साढ़े पांच हजार करोड़ का पैकेज विदर्भ के किसानो को दिया। लेकिन इस दौर में ग्रामीण बैंक के अधिकारी और बैक के कर्मचारी भी क्यों कांग्रेसी हो गये यह किसी ने नहीं जाना। क्यों कांग्रेसी विधायक से लेकर कांग्रेसी कार्यकर्ता की धाक उसी दौर में किसानों पर बढ़ी, जिस दौर में करोड़ों रुपये का पैकेज किसानों के लिये आना शुरु हुआ। बुलढाणा के कांग्रेसी विधायक दिलिप सानंदा तो एक कदम आगे बढ़ गये और किसानों के पैकेज के पैसे को ही किसानो में ब्याज पर बांटने लगे। असल में बुलढाणा के खामगांव में विधायक सानंदा का बंगला देखकर ही राहुल गांधी समझ सकते हैं कि देश के भीतर बनते दो देशों में अंधियारे के बीच भी कैसी चकाचौंध हो सकती है। <br /><br />खामगांव जैसे गांव में बने इस बंगले को देखकर तो लुटियन्स की दिल्ली भी शर्मा जाये। जबकि बुलढाणा में 78 फीसद ग्रामीण बीपीएल है । कुल 85 फीसदी गरीब है। असल में एआईसीसी की बैठक में दिल्ली के 10 जनपथ और 7 रेसकोर्स को छोड दें तो हर नेता बुलढाणा या यवतमाल सरीखे जिले से ही निकल कर मुबंई या दिल्ली की सत्ता तक पहुंचा है। ऐेसे में मंच पर अशोक चव्हाण हो या मंच के नीचे बैठे सुरेश कलमाडी या फिर सोनिया गांधी के ठीक पीछे बैठे मणिकराव ठाकरे और बायीं तरफ स्थायी आमंत्रित सदस्य विलासराव देसमुख। समझ सभी रहे थे कि असल में भ्रष्टाचार की गंगोत्री कांग्रेस में गांधी परिवार का नाम जपने के साथ मिलने वाले तोहफे से ही शुरु हो जाती है। इसीलिये महाराष्ट्र के सीएम भ्रष्ट है या नही इसकी जांच देश में पुलिस या कानून नहीं बल्कि कांग्रेस की ही प्रणव-एंटोनी कमेटी करती है। जिसके सर्टीफिकेट से तय होगा भ्रष्टाचार हुआ या नहीं। यानी कांग्रेस सर्वोपरि । इसीलिये राहुल गांधी ने भी मंच से सही ही कहा कि देश की एकमात्र पार्टी कांग्रेस है बकी सभी तो प्रांत-धर्म और जाति में सिमटे है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-29157499556936155752010-10-27T11:41:00.002+05:302010-10-27T12:03:24.364+05:30गांधी से गांधी परिवार का फर्ककरीब दस करोड़ रुपये की रैली में सवा लाख लोगो का जुगाड कोई सस्ता सौदा नहीं है। वह भी ऐसी जगह जिसकी पहचान लंगोटी और चरखा कात कर खादी बनाते हाथ हो। जहां सवा लाख से ज्यादा किसान सिर्फ दो जून की रोटी ना जुगाड़ पाने की जद्दोजहद में खुदकुशी करने पर आमादा हों। और बीते 10 साल में नौ हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर भी चुके हों। ऐसी जगह दो दर्जन से ज्यादा अरबपति और एक हजार से ज्यादा करोडपति अगर जुटे तो फिर रैली के लिये दस करोड रुपये का खर्चा कहने पर शर्म ही महसूस हो सकती है। और यह सब बातें अगर गांधी के वर्धाग्राम में गांधी परिवार की रैली को लेकर बात हो रही हों तो शर्म जरूर आ सकती है। कांग्रेस के सवा सौ बरस पूरे होने पर 15 अक्टूबर को वर्धा में जो नजारा नजर आया उसमें राहुल गांधी के उन सवालो का जवाब छिपा था जिसे वह लगातार यह कहकर देश नाप रहे है कि देश के भीतर बनते दो देश को कैसे पाटा जा सकता है और राजनीति में युवा आयें तो फिर राजनीति से बेहतर कोई माध्यम है नहीं कि इस विषमता को दूर करने का।<br /><br />पहला भारत वर्धा में मौजूद है जहां की प्रति व्यक्ति आय सालाना 18 से 20 हजार रुपये है। यानी महीने का डेढ हजार। लेकिन, सरकारी आंकड़ा यह भी बताता है वर्धा में साठ फीसदी ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। कुल 32 फीसदी लोग बीपीएल में हैं। और यहां नरेगा से भी बडा काम या कहें रोजगार अपनी जमीन को किसी बिल्डर या उद्योगपति के हवाले कर कंस्ट्रक्शन मजदूरी करना है। खेती के लिये बीज और खाद से सस्ता और सुलभ सीमेंट और लोहा है। वर्धा शहर में सिर्फ 18 दुकानें बीज खाद की हैं मगर सीमेंट-लोहे की छड़ या कंस्ट्रक्शन मैटेरियल की नब्बे से ज्यादा दुकानें यहां चल रही हैं। खासकर बीते तीन साल में यहां जब से थर्मल पावर प्रोजेक्ट का काम शुरु हुआ है तब से खेतीहर किसानों के मजदूर में बदलने की रफ्तार में 20 फीसदी की तेजी आ गयी है। पहले वर्धा के बारबडी गांव की जमीन को यूजीसीएल ने सौदेबाजी में हड़पा। फिर दुकान-मकान का खेल इसके अगल-बगल के छह गांव को निगल रहा है। <br /><br />करीब साढ़े सात सौ किसानों ने अपनी जमीन सरकारी बाबूओं के कहने पर बेच डाली की अब यहां खेती हो नहीं सकती। यह अलग मसला है कि कभी राजीव गांधी ने वर्धा के ही भू-गांव में यह कह कर स्टील प्लांट लगने नहीं दिया था कि वर्धा बापू की पहचान है और यहां खेती नष्ट की नहीं जा सकती। इसलिये कंक्रीट की इजाजत नहीं दी जायेगी। उसी का असर है कि बापू कुटिया हैरिटेज साइट बन गया। और नरसिंह राव के दौर तक में किसी कंपनी की हिम्मत नहीं हुई कि वह वर्धा में उद्योग लगाने की सोचे जिससे खेती नष्ट हो या फिर वहां के पर्यावरण पर असर पड़े। <br /><br />लेकिन दूसरे भारत का आधुनिक नजारा सोनिया गांधी की रैली में तब नजर आया जब बीस लाख से सवा करोड की गाडि़यां वर्धा में दौड़ती दिखीं और मंच से सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी सरकार भूख से लडने के लिये तैयार है। लिवोजीन से लेकर उच्च कवालिटी वाली मर्सिडिज और स्पोर्ट्स कार से लेकर दुनिया की जो भी बेहतरीन गाड़ी कोई भी सोच सकता है वह सभी गाडियां 15 अक्टूबर को वर्धा पहुंचीं। दर्जनों अरबपति और हजारों करोडपति कांग्रेसी नेता-कार्यकर्ताओं की फौज जो विदर्भ की है वह सभी एकजूट हो जाये तो देश की चकाचौंध कितनी निखर सकती है इसका खुला नजारा नागपुर से वर्धा की सड़क पर नजर आ रहा है। लेकिन वर्धा का नाम सेवाग्राम भी है और रैली झंडा यात्रा थी तो अरबपति दत्ता मेधे हो या फिर करोडपति शैला पाटिल। और इन सब के बीच में हजारों कांग्रेसी करोडपति कार्यकर्ता। <br /><br />करीब दो से चार किलोमीटर सभी पैदल चले। यह देश के लिये कुछ सेवा करने का कांग्रेसी जज्बा था। कुछ करोडपति कार्यकर्ता तो जनता के बीच भी बैठे। संयोग से यह भी खबर बनी और करोडपति कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के अखबारों में यह छपवाने में भी कोताही नहीं बरती कि वह दो किलोमीटर चरखा छपा तिंरगा लेकर चले। लेकिन किसी ने भी यह नहीं बताया कि नागपुर से वर्धा का 70 किलोमिटर का रास्ता चय करने के लिये उन्होने मुबंई, नासिक, पुणे,औरगाबंद से लेकर हर जिले से अपनी अपनी गाडि़यां पहले ही नागपुर हवाई अड्डे पर लगवा ली थी। और महाराष्ट्र सरकार का पूरा कांग्रेसी मंत्रिमंडल ही उस दिन नागपुर से वर्धा के बीच सोनिया गांधी को सलामी देने जुटा जिसमें राज्य सरकार का खजाना किताना खाली हुआ इसका ना कोई हिसाब है और नाही किसी ने कैमरे के सामने इसकी उस तरह गुफ्तगु की जैसी रैली के लिये दस करोड जुगाडने की गुफ्त-गु प्रदेश अध्यक्ष मणिकराव ठाकरे और नागपुर के कांग्रेसी नेता सतीश चतुर्वेदी ने हल्के अंदाज में कर ली। <br /><br />लेकिन इस दो भारत से इतर भी एक तीसरे भारत की तस्वीर भी उभरी। जब देश के रक्षा राज्य मंत्री पल्लमराजू अचानक बिना कार्यक्रम नागपुर पहुंचे और नागपुर के सोनेगांव वायुसेना स्टेशन से लेकर अम्बाझरी के आयुध फैक्ट्री में इस बिना पर घुम आये कि जिस वायुसेना के जहाज को लेकर वह दिल्ली से नागपुर पहुंचे उसकी उपयोगिता कुछ दिखायी जा सके। यानी किसी सरकारी बाबू की तरह सरकारी वाहन का इस्तेमाल कर फाइल भरने सरीखा काम ही रक्षा राज्य मंत्री पल्लमराजू ने किया। असल में वायुसेना का विमान देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर दिल्ली से नागपुर पहुंचा था तो आरोपों से बचने के लिये रक्षा राज्य मंत्री भी नागपुर चल पडे। और नागपुर के रक्षा विभाग में जहां-जहां वह पहुंचे वहां अधिकारी कम और कुर्सियां ही ज्यादा थी। सोनिया ने पौने दो घंटे वर्धा में बिताये तो रक्षा राज्य मंत्री ने कुर्सियों के साथ बैठक और नागपुर शहर में कार से सफर में पौने दो घंटे बिताये। सोनिया वर्धा से नागपुर लौटीं और वापस वायुसेना के विमान में सवार होकर दिल्ली लौट आयीं।<br /><br />यानी किसान-मजदूर पर भारी नेता-मंत्री और उसपर भारी केन्द्र सरकार -सोनिया गांधी। इस तीन भारत में किस से कौन सा सवाल ऐसा किया जा सकता है जिसमें यह लगे कि कोई तो है जो इन दूरियों को पाटने की हैसियत रखता है। या फिर तीन भारत की इमारत ही जब ऊपर से शुरू होती है तो फिर नीचे के किसान-मजदूर सेवाग्राम में जाकर बापू के सामने क्या कहते होगें। क्योकि वर्धा पहुंच कर सबसे पहले सोनिया गांधी भी बापू कुटिया ही गई थी, जहां उन्होंने चरखा कातते बापू भक्तों को देखा। बापू को याद किया। मिट्टी और घास-फूस से बने बापू कुटिया के दर्शन किये। उन तस्वीरों को देखा जो 1936 से 1943 तक सेवाग्राम में रहते हुये बापू काम किया करते थे। आत्याधुनिक हवाई गाडियों पर सवार कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने माना कि दस करोड रुपये में झंडा रैली सफल हुई क्योंकि बापू से कांग्रेस को जोडकर इससे बेहतर याद करने का कोई तरीका हो ही नहीं सकता है। सेवाग्राम के किसान मजदूर भी गांधी परिवार की शख्सियत सोनिया गांधी को देखकर तर गये क्योकि उन्होने माना कि बापू कुटिया में लिखी बापू की उस टिपप्णी को भी सोनिया गांधी ने जरुर पढा होगा जहां लिखा है , देश को असली आजादी तभी मिलेगी जब किसान का पेट भरा होगा और देश स्वाबलंबी होगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-76107771621033549932010-09-09T14:37:00.004+05:302010-09-09T14:47:54.990+05:30माओवादियों के पॉलिटिकल ड्राफ्ट के मायनेकांग्रेस के पास पूंजीवादी राज्य नहीं है और आदिवासी-ग्रामीणों को लेकर जो प्रेम सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी दिखला रहे हैं, उसके पीछे खनिज संसाधनों से परिपूर्ण राज्यों की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। कांग्रेस की रणनीति उड़ीसा, छत्तीसगढ,झारखंड,मध्यप्रदेश और कर्नाटक को लेकर है। चूंकि अब राज्यसत्ता का महत्व खनिज और उसके इर्द-गिर्द की जमीन पर कब्जा करना ही रह गया है, इसलिये कांग्रेस की राजनीति अब मनमोहन सरकार की नीतियों को ही खुली चुनौती दे रही है, जिससे इन तमाम राज्यों में बहुसंख्य ग्रामीण-आदिवासियों को यह महसूस हो सके कि भाजपा की सत्ता हो या मनमोहन की इकनॉमिक्स कांग्रेस यानी सोनिया-राहुल इससे इत्तेफाक नहीं रखते।" यह वक्तव्य किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं बल्कि सीपीआई (माओवादी) का पॉलिटिकल ड्राफ्ट है। <br /><br />माओवादियों की समूची पहल चाहे सामाजिक आर्थिक मुद्दों को लेकर हो लेकिन पहली बार हर मुद्दे का आंकलन राजनीतिक तौर पर किया गया है। जिसमें खासकर किसान और आदिवासियों के सवाल को अलग-अलग कर राजनीतिक समाधान का जोर ठीक उसी तरह दिया गया है जैसे संविधान में आदिवासियो के हक के सवाल दर्ज हैं। सरकार और राजनीतिक दलों की पहल पर यह कह कर सवालिया निशान लगाया गया है कि जब 5वीं अनुसूची के तहत आदिवासियों के अधिकारों का जिक्र संविधान में ही दर्ज है, तो कोई सत्ता इसे लागू करने से क्यों हिचकिचाती है। इतना ही नहीं किसानों की जमीन और आदिवासियों के जंगल-जमीन पर अलग-अलग नीति बनाते हुये माओवादी अब अपने संघर्ष में परिवर्तन लाने को भी तैयार हैं। और इसकी बडी वजह संसदीय राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों की नयी राजनीतिक प्राथमिकताओं को ही माना गया है । <br /><br /><br />माओवादियों का पॉलिटिकल ड्रॉफ्ट इस मायने में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है कि संसदीय राजनीति को खारिज करने के बावजूद संसदीय राजनीति के तौर तरीकों पर ही इसमें ज्यादा बहस की गयी है। ड्राफ्ट में माना गया है कि आर्थिक सुधार का जो पैटर्न 1991 में शुरू हुआ अब उसका अगला चरण पिछड़े क्षेत्रों की जमीन और खनिज संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार से जोड़ने का है। और चूंकि इस दौर में चुनाव लड़ने से लेकर सत्ता बनाना भी खासा महंगा हो चला है तो हर राजनीतिक दल उन क्षेत्रों में अपनी सत्ता चाहता है जहां उसे सबसे ज्यादा मुनाफा हो सके। आदिवासियों का सवाल इसी वजह से हर राजनीतिक दल की प्राथमिकता बना हुआ है क्योंकि आदिवासी प्रभावित इलाकों में गैर आदिवासी नेताओं की घुसपैठ तभी हो सकती है जब वहां के प्रभावी आदिवासी या तो राजनीतिक दलों के सामने बिक जायें या फिर आदिवासियों को उनके हक दिलाने के लिये कोई पार्टी या नेता आगे आये। <br /><br />माओवादियो का मानना है कि कांग्रेस अगर अभी आदिवासियों के हक का सवाल उठा रही है तो उसकी वजह वहां की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास है। क्योंकि उड़ीसा के नियामगिरी के आदिवासियों की तरह वह महाराष्ट्र के आदिवासियों को हक नहीं दिलाती है क्योंकि महाराष्ट्र में उसकी सत्ता बरकरार है। माओवादियों का मानना है कि आर्थिक सुधार के इस दूसरे चरण में सत्ता से उनका टकराव इसलिये तेज हो रहा है क्योंकि राज्य को जो पूंजी अब मुनाफे के लिये चाहिये वह शहरों में नहीं ग्रामीण इलाकों में है। और माओवादियों का समूचा काम ही ग्रामीण इलाकों में है। इसलिये सवाल माओवादियों का सरकार पर हमले का नहीं है बल्कि सत्ता ही लगातार हमले कर रही है। लेकिन इस पॉलीटिकल ड्रॉफ्ट में अगर सरकार की प्राथमिकता ग्रामीण किसान आदिवासी बताये गये हैं तो दूसरी तरफ माओवादियों ने अपनी प्रथामिकता में भी परिवर्तन के संकेत दिये हैं। यानी देहाती क्षेत्रों से इतर शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में अपने प्रभाव को फैलाने की बात कही गयी है। <br /><br />माओवादियों ने माना है कि शहरी क्षेत्रों में मजदूर आंदोलन में उनकी शिरकत नहीं के बराबर है। इसी तरह शहरी मध्य वर्ग की मुश्किलों से भी उसका कोई वास्ता नहीं है। जबकि संसदीय राजनीति के बोझ तले सबसे ज्यादा प्रभावित शहरी मध्य वर्ग ही है। खुद की जमीन को व्यापक बनाने के लिये माओवादी अगर एक तरफ किसान-आदिवासी के सवाल को अलग कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ किसानों से शहरी मजदूरों को जोड़ने पर भी जोर दे रहे हैं। यानी माओवादियों की नजर गांव से पलायन कर रहे उन किसानों पर कहीं ज्यादा है जो जमीन से बेदखल होने के बाद शहरों में बतौर मजदूर जी रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि बीते दस वर्षों में 5 करोड़ से ज्यादा किसान अपनी जमीन से बेदखल हुये हैं। और रेड कोरिडोर के इलाके में जितनी योजनाओं को मंजूरी दी गयी है अगर उन पर काम शुरू हो गया तो 5 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण-किसान-आदिवासी अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखल हो जायेंगे । जाहिर है माओवादियों का ड्राफ्ट इन आंकडों के दायरे में सामाजिक-आर्थिक समस्या को भी समझ रहा होगा और राजनीतिक दल भी इस नये शहरी मजदूरों के दायरे में अपनी राजनीतिक नीतियों को भी तौल रहे होंगे । लेकिन, माओवादियों के पॉलीटिकल ड्राफ्ट और राज्य सरकारों की विकास नीतियों के बीच कितनी महीन रेखा है इसका अंदाजा भी शहरीकरण की सोच और शहरी गरीबों की बढ़ती तादाद से समझा जा सकता है। <br /><br /><br />कांग्रेस और भाजपा के मुताबिक महाराष्ट्र, गुजरात दो ऐसे राज्य हैं जहा सबसे ज्यादा नये शहर बने। यानी विकास की असल धारा इन दो राज्यो में दिखायी दी। जबकि बाकी राज्यों में भी बीते एक दशक के दौरान गांवो को शहरों में बदलने की कवायद हर राजनीतिक दल ने की। लेकिन माओवादियों की राजनीतिक थ्योरी इसमें गरीबो की बढ़ती संख्या को माप रही है। माओवादियों के मुताबिक गांव की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर जिस तरीके से शहरी विकास का खांचा खींचा जा रहा है , उसमें मुनाफा ना सिर्फ चंद हाथो में सिमट रहा है बल्कि इन चंद हाथों के जरिये ही राज्यों में सत्ता निर्धारित हो रही है जिससे गरीबी और मुफलिसी का कारण भी राजनीतिकरण बन चुका है। माओवादियों के इस ड्राफ्ट में बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं पर टिकी येदुरप्पा सरकार का जिक्र उदाहरण दे कर किया गया है। यूं भी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी मानती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा शहरी गरीब महाराष्ट्र में है, जिसे कांग्रेस शहरीकरण के दौर में सबसे उपलब्धि भरा राज्य मानती है। खास बात यह है कि माओवादियों के इस पॉलिटिकल ड्राफ्ट में कही भी हिंसा का जिक्र नही किया गया है। उसकी जगह क्रांतिकारी आंदोलन शब्द का जिक्र यह कह कर किया गया है कि साम्राज्यवाद के खिलाफ संशोधनवादी पार्टियां या एनजीओ जो कुछ कर रहे है, वह धोखाधड़़ी के सिवाय और कुछ नहीं है। ऐसे में माओवादी अगर मजदूर-किसान मैत्री की स्थापना पर बल देते हुये धैर्यपूर्वक अपने क्रांतिकारी जन आधार को मजबूत बना पाने में सक्षम हो पायेंगे तो साम्राज्यवाद-फासीवाद दोनों के खिलाफ वास्तविक आंदोलन सही दिशा में चल पायेगा ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-18017064613818132502009-09-01T15:41:00.003+05:302009-09-01T15:42:54.326+05:30जनादेश की हवा में मनमोहन की रफ्तारप्रधानमंत्री दुखी हैं । देश के हालात से नहीं, भाजपा के भीतर मची उठापटक से । शनिवार को बाड़मेर में थे। भाजपा पर पत्रकारों ने प्रतिक्रिया पूछी । मनमोहन सिंह बोले- लोकतंत्र के लिये बेहद जरुरी है राजनीतिक दलो में स्थिरता रहे । संयोग से मनमोहन सिंह का यह दुख ठीक उसी दिन आया, जब सरकार के सौ दिन पूरे हुये । और इन सौ दिने में देश के भीतर जो हुआ सो हुआ, लेकिन मनमोहन सिंह ने भी यह समझा कि नहीं समझा कि लोकतंत्र के लिये देश के भीतर भी स्थिरता रहनी बेहद जरुरी है। ये तो सालों साल तक पता नहीं चलेगा लेकिन जनादेश मिलने के बाद जिस गर्व से सरकार ने लगातार दूसरी बार सत्ता संभाली, उसमें कौन कहां किस रुप में पहुंचा यह समझना जरुरी है। <br /><br />सत्ता सभालते वक्त मनमोहन सिंह ने दो बातों पर खास जोर दिया था। पहला अर्थव्यवस्था और दूसरा आंतरिक सुरक्षा । मंदी को लेकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का जो सपना विकास दर के आंकडों में देखने-दिखाने की कोशिश की जानी थी, उस सपने को सूखे ने सबसे पहले तोड़ा। विकास दर के आंकडो से लेकर महंगाई दर के आंकड़ों के लिये सरकार की कोई नीति काम करती है, इस पर तो कयास ही लगाये जा सकते है लेकिन सूखा से लड़ने के लिये नीति होनी चाहिये नहीं तो देश डगमगा सकता है, इसका अंदाज सूखे में डगमगाते देश और सरकार से लग गया। मानसून के हवा-हवाई होने के वक्त ही संसद का मानसून सत्र शुरु हुआ था। लेकिन सरकार ने सूखा तो दूर मानसून की कमी को भी नहीं माना। सूखे से देश के सत्तर करोड़ लोग जब सीधे प्रभावित हो रहे थे, तब सरकार शर्म-अल-शेख और बलूचिस्तान को लेकर संसद में उलझी थी। किसी ने हिम्मत नहीं दिखायी कि सूखा और उसके बाद महंगाई से खस्ता होते हालातों को लेकर संसद से कोई पहल हो। <br /><br />संसद का मानसून सत्र बिना मानसून जब आखिरी दौर में पहुचा तो सरकार और सांसदों को लगा कि उन्हें तो अब अपने लोकसभा क्षेत्र में भी जाना होगा तो रस्मअदायगी के लिये मानसून-सूखा-महंगाई का रोना रोया गया । जिसमें बहस के दौरान लोकसभा में कभी भी सौ सासंद भी नजर नहीं आये । सरकार के पहले बजट ने भी जतला दिया कि उसकी नजर वोट बैंक को खुद पर आश्रित किये रखने की है। इसलिये बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर के जरीये देश को मजबूत आधार देने के बदले मंत्रालयों को ग्रामीण समाज के विकास का पाठ पढाते हुये बजट का साठ फीसदी बांटा गया। यानी यह जानते समझते हुये किया गया कि अगर केन्द्र से साठ लाख करोड़ रुपया ग्रामीण विकास के लिये चलेगा तो निचले स्तर तक महज छह से नौ लाख रुपया ही पहुंच पायेगा । बाकि तो उस तंत्र में खप जायेगा जो सरकार के जरिये बीच का आदमी होकर वोटबैक भी बनाता-बनता है और इसी तंत्र को रोजगार मान कर सरकारो की नीतियों पर तालिया पीटता है । <br /><br />राष्ट्रीय रोजगार योजना यानी नरेगा इसी तंत्र में सबसे मजबूत होकर उभरा तो उसको चुनाव की जीत से जोड़ते हुये उस पर करोड़ों लुटाने की नीति बनी । नरेगा के तहत हर महीने साढ़े तीन हजार करोड़ से कुछ ज्यादा और साल भर में 44 हजार करोड का प्रवधान किया गया । लेकिन पहले सौ दिन में 12 हजार करोड़ रुपये नरेगा में देकर सरकार ने क्या किया, इसका कोइ लेखा-जोखा नही है । सिवाय इसके कि किस गांव पंचायत में किस किस नाम के किस ग्रामीण को रोजगार दिया गया । जो दिल्ली में बैठ कर फर्जी बनाया जा सकता है । सवाल है कि इसी नरेगा को किसी इन्फ्रास्ट्रक्चर की योजना से जोड़ा जाता तो नजर में काम भी आता और रोजगार भी। लेकिन यहा सिर्फ रुपया नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री कभी दुखी नहीं हुये कि उनके मंत्रालय में कैबिनेट स्तर के कृषि मंत्री ही सूखा और महंगाई को लेकर जमाखोरो और मुनाफाखोरो को लगातार संकेत दे रहे है कि जो कमाना है तो चीनी, दाल, चावल की जमाखोरी कर लो। <br /><br />यह पहली बार हुआ कि कृषि मंत्री शरद पवार ने देश में भरोसा पैदा करने की जगह संसद के परिसर से लेकर कृषि मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर कहा कि चावल-चीनी के दाम आने वाले वक्त में बढ़ सकते है । दाल की कमी हो सकती है । इस दौर में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने भी सूखे और महंगाई के मद्देनजर शरद पवार पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री अपनी टीम के वरिष्ठ मंत्री को लेकर न दुखी हुये न ही उन्होने कोई प्रतिक्रिया दी । बात हवा में उड़ा दी गयी। <br /><br />इसी दौर में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के इलाको को चिन्हित कर बुदेलखंड प्राधिकरण का सवाल राहुल गांधी ने उठाया । प्राधिकरण या कहे राहुल गांधी को लेकर उस राजनीति में भरोसा जरुर उठा जो बुंदेलखंड को संवार कर अपनी राजनीतिक जमीन बनाना चाहते है, लेकिन बुंदेलखंड के लोगो में कोई आस नही जगी । क्योंकि इन सौ दिनो में यहां के पांच लाख से ज्यादा लोगों को रोजी रोटी के लिये घरबार छोड़ना पड़ा। वहीं, इसी दौर में इसी इलाके में खनिज संपादा की लूट में हजारों एकड़ जमीन पर सिर्फ बारुद ही महकता रहे। माइनिंग के जरिये खनिज संपदा को निकालने के प्रक्रिया में तीन हजार से ज्यादा विस्फोट तो इन्हीं सौ दिनो में किये गये । और विश्व बाजार में दस हजार करोड़ से ज्यादा का खनिज यहां से निकाला गया। <br />किसानो को लेकर राहत का सवाल इन सौ दिनो में तीन बार सरकार की तरफ से किया गया, जिसमें दो बार वित्तमंत्री तो एक बार पीएम को ख्याल आया । याद करने के दौरान हर बार कुछ राहत देने की बात कही गयी लेकिन मुश्किल आसान करने की कोई नीति सरकार ने नहीं रखी । इन सौ दिनों में सरकार की तरफ से ऐसी कोई नीति लाने की भी नहीं सोची गयी, जिससे किसाने को कहा जा सके कि 2014 के चुनाव के वक्त कोई किसान आत्महत्या नहीं करेगा, ऐसी नीतिया हम ला रहे हैं। मनमोहन सिंह स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले से जब देश में दूसरी हरित क्रांति की जरुरत बता रहे थे, तब विदर्भ के पांच किसान खुदकुशी कर रहे थे। 2008 में भी मनमोहन सिंह ने ही लालकिले पर झंडा फहराया था और 2009 में भी । किसानो को लेकर दर्द दोनो मौकों पर उभारा था । लेकिन इस एक साल में देश भर में तीन करोड़ से ज्यादा किसान मजदूर हो गये । संयोग से आजादी के बाद मजदूरों में तब्दील होने का किसानो का यह सिलसिला सबसे तेजी से उभरा है। जिस आंध्र प्रदेश में वायएसआर ने किसानो का ही सवाल उठाकर सत्ता पायी और सौ दिन पहले दूसरी बार सत्ता जीत कर नायडू के इन्फोटेक को मात दी, वही वायएसआर ने भी कैसे किसानों से मुंह मोड़ लिया, यह भी इन्हीं सौ दिनो में नजर आया। सबसे ज्यादा किसानो ने इन्हीं सौ दिनो में खुदकुशी की। आंकड़ा पचास पार कर गया । <br /><br />लेकिन सवाल यह उभरा कि पीएम ने दूसरी हरित क्रांति को लाने के लिये किसे कहा। उनकी खुद की पहल क्या है । यह सवाल मौन है । पंचायती स्तर की राजनीति की वकालत तो पीएम भी करते हैं । लेकिन दिल्ली से महज सौ किलोमीटर की दूरी पर इन्ही सौ दिनो कोई पंचायत छह प्रेमी जोड़ों की हत्या कर दे और राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर पीएम तक खामोश रहे , तो क्या इसे महज सामाज की त्रासदी बताकर खामोशी ओढी जा सकती है। हरियाणा में तो वही कांग्रेसी सरकार है जो दुबारा सत्ता पाने के लिये सबकुछ योजनाबद्द तरीके से कर रही है। सोनिया गांधी से मुलाकात कर जल्द चुनाव कराकर सत्ता में दोबारा लौटने का जो बल्यू प्रिंट कांग्रेसी सीएम हुड्डा ने रखा, उसमें वह 8 हजार करोड़ का प्रचार भी था जो विधानसभा भंग करने से पहले न्यूज चैनलों, समाचार पत्रों, एफएम और तमाम हिन्दी-अंग्रेजी की पत्रिकाओं के लिये बुक कर लिये गये थे । अगर यही नीति और पैसा उन पंचायतो को आधुनिक समाज से जोड़ने में लगाया जाता, जहां पुलिस कानून को ठेंगा दिखाकर नौजवान प्रेमियो की हत्या कर दी जाती है तो कुछ बात होती । लेकिन हत्याओ के बाद सीएम का बयान भी यही आया कि समाज को भी देखना पड़ता है । पीएम तो देश का होता है । जब सरकार के ही आंकडे बताते है कि देस में 38 फीसदी गरीबी की रेखा से नीचे है और सत्तर करोड लोग दिन भर में महज बीस रुपये कमा पाते है तो फिर दस सेकेंड के लिये बीस हजार से लेकर नब्बे हजार तक न्यूज चैनलो में अपनी उपल्बधि बताने के लिये कोई कांग्रेसी कैसे लुटा सकता है। <br /><br />अर्थव्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा के छेद खुद सरकार भी बताती है । इन्ही सौ दिनो में हजार और पांच सौ रुपये के नकली नोट देश की अर्थव्यवस्था को खोखला करते गये । सरकार के माथे पर भी शिकन साफ दिखायी दी । बडे स्तर पर जांच की तैयारी भी की गयी लेकिन रिजर्व बैक ने जब यह कहा कि हर पांच नोट पर एक नकली नोट हो सकता है तो मामला जांच से आगे जाता है। लेकिन पीएम ने कोई पहल नहीं की। क्या यह संभव नही कि पांच सौ और हजार रुपये तत्काल बंद कर सिर्फ सौ रुपये का ही चलन कर दिया जाता। वैसे भी उन नोटो को रखने वाले देश के बीस फीसदी ही लोग हैं। लेकिन बात तो देश की होनी चाहिये। हां, इसमें काला धन रखने वालो को परेशानी जरुर होती। जो शेयर बाजार से लेकर अर्थव्यवस्था डांवाडोल कर सकते हैं। लेकिन उनके लिये भविष्य में कोई भी अनुकूल नीति बन सकती है। बात को पहले देश बचाने की होनी चाहिये। जहा तक आंतरिक सुरक्षा का सवाल है तो देश में सूखा साढे तीन सौ जिलों में है और माओवादी करीब दो सौ पच्चतर जिलों में । ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा का प्रभाव इतने जिलों में है । बीते सौ दिनो में माओवादियों ने बंगाल के छह नये जिलों को अपने प्रभाव में लिया है। लालगढ में कार्रवाइ के बाद इनके कैडर में करीब पांच हजार लोग जुड़े हैं। सौ दिनों में माओवादियों के दो दर्जन हमले हुये । जिसमें तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गये । छत्तीसगढ़ में तो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी मारे गये । आंकडे के लिहाज से इसी सौ दिनो में सबसे ज्यादा हि्सा माओवादियो के जरीये हुई है, और इन्हीं सौ दिनो में पुलिस प्रशासन सबसे निरीह नजर आया है। <br /><br />इसलिये सवाल भाजपा का नहीं है जिसकी अस्थिरता में लोकतंत्र की कमजोरी टटोली जाये , और दुखी हुआ जाये । कहा यह भी जा सकता है कि कमजोर नीति और मजबूत इरादे अगर सरकार में न हों तो लोकतंत्र कहीं ज्यादा कमजोर पड़ता है, जो सौ दिनो के दौरान नजर आया है। और इससे देश दुखी है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-28917937248258561172009-08-28T08:07:00.002+05:302009-08-28T08:09:03.227+05:30संघ या भाजपा में किसका ज़हर किसे डसेगा ?बीजेपी को कौन ठीक करेगा ? ये कुछ ऐसा ही है जैसे पीसा की झुकती मीनार को कौन सीधा कर देगा। यह टिप्पणी संघ के ही एक बुजुर्ग स्वयंसेवक की है, जो उन्होंने और किसी से नहीं बल्कि जम्मू में सरसंघचालक से कही । इसका जबाब भी सरसंघचालक की तरफ से तुरंत आया कि संघ सांस्कृतिक संगठन है, उसे राजनीतिक से क्या लेना देना। इस पर एक दूसरे स्वयंसेवक ने सवाल उठाया कि राजनीति करने वाले भी अगर स्वयंसेवक है और वह भटक गये हैं तो उन्हें कौन ठीक करेगा। इसपर सरसंघचालक का जबाब आया कि भटकाव की एक उम्र होती है, एक उम्र के बाद भटकाव नहीं निजी स्वार्थ होते हैं। उन्हे दुरस्त करने के लिये किसी भी स्वयंसेवक को पहले अपने आप से जूझना पड़ता है। यह शुद्दीकरण है। <br /><br />जाहिर है यह संवाद लंबा भी चला होगा । लेकिन यह संवाद संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक हेडगेवार की तरह का है । जब हेडगेवार ने हिन्दू राष्ट्र का सवाल काशी की एक सभा में उठाया तो वक्ताओ में से सवाल उछला कि कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है । इसपर हेडगेवार ने न सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को सामने रखा बल्कि हिन्दुओ को लेकर ही उस सवाल का भी जबाब दिया, जिसमें कहा गया कि चार हिन्दू भी कभी एक रास्ते नहीं चलते। जब तक शवयात्रा में शामिल न हों। <br /><br />लेकिन यही सवाल बदले हुये रुप में संघ के सामने 84 साल बाद भी भाजपा को लेकर खड़ा हो गया है। संघ के भीतर भाजपा को लेकर चार हिन्दुओ की कथानुसार सवाल उठने लगे हैं कि सत्ता के मारे भाजपा के चार नेता भी एक दिशा में नहीं चल रहे । और अगर सत्ता होती तो सभी एक दिशा में चल पड़ते । सवाल जबाब के इस सिलसिले में अपने ही राजनीतिक संगठन और अपने ही स्वयंसेवकों को लेकर सरसंघचालक मोहनराव भागवत को भी आठ दशक पुराने उन तर्को को ही सामने रखना पड़ रहा है, जिसको कभी हेडगेवार ने सामने रखा था । भाजपा की उथल-पुथल ने संघ को अंदर से किस तरह हिला दिया है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नागपुर के हेडगेवार भवन के परिसर में स्वयंसेवकों की सबसे बड़ी टोली जो हर सुबह शाम मिलती है, उसमें बीते रविवार इस बात को लेकर चर्चा शुरु हो गयी कि भाजपा की समूची कार्यप्रणाली सिर्फ राजनीतिक सत्ता की जोड़-तोड़ में ठीक उसी तरह चल रही है जैसे कांग्रेस में चला करती है। इसलिये भाजपा के स्वयंसेवक भी संघ से ज्यादा कांग्रेस से प्रभावित हैं। यानी कांग्रेसीकरण की दिशा को भाजपा ने आत्मसात कर लिया है ।<br /><br />असल में चर्चा इतनी भर ही होती तो भी ठीक है । कुछ पुराने स्वयंसेवको ने भाजपा की त्रासदी का इलाज हेडग्वार की सीख से जोड़ा । चर्चा में बकायदा हेडगेवार के उस प्रकरण को सुनाया गया जो उन्होंने कांग्रेस छोडकर आरएसएस बनाने की दिशा में कदम बढ़ाये । स्वयंसेवकों को जो किस्सा वहां सुनाया गया उसके मुताबिक, <br /><br />" कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार तीन हजार रुपये की नौकरी छोड़ कर नागपुर आ गये । जहा वह कांग्रेस में भर्ती हो गये। 1920 में नागपुर में काग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे । दिन रात परिश्रम करके उन्होने अधिवेशन को सफल बनाया । नागपुर के युवकों की ओर से पूर्ण स्वतंत्रता प्रप्ति तक अविराम संघर्ष करते रहने का प्रस्ताव भी उन्होंने अधिवेशन में रखवाया । 1921 के असहयोग आंदोलन में वे एक साल के लिये जेल भी गये । वहां उन्होंने देखा कि अपने भाषणो में बड़े-बड़े आदर्शो की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड के टुकड़ों के लिये कैसे लड़ते हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण,अनुशासनहीनता और निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओ को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया । इसके बाद ही उन्होंने सोचा ही बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान संभव नहीं है, क्योकि हिन्दू समाज ही देश का एकमेव समाज है। इसी के बाद 1925 में विजयी दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की स्थापना की।" <br /><br />हेगडेवार की इस कथा के बाद स्वयसेवक इस सवाल से जूझते है कि भाजपा की वजह से क्या संघ को लेकर हेडगेवार की सोच मर जायेगी । चर्चा आगे बढ़ती है तो भाजपा से बेहतर संघ के स्वयंसेवकों को वही काग्रेस भी नजर आने लगती है, जिसके खिलाफ कभी हेडगेवार कडे हुये थे । अनुशासन को लेकर कांग्रेस और भाजपा की तुलना । फिर निजी स्वार्थ को लेकर भाजपा नेताओं पर अंगुली उठाते हुये गिनती कम पड़ना । और फिर सत्ता के लिये गठबंधन की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से कहीं ज्यादा खतरनाक ठहराते हुये यह सवाल करना कि संघ को कहां तक भाजपा को फिर से मथने के लिये जुटना चाहिये। <br />संघ के स्वयसेवको के भाजपा को लेकर यह सवाल सिर्फ नागपुर तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है । यह सवाल राजकोट में भी मौजूद हैं और असम में भी । लेकिन संघ के लिये बड़ा सवाल यही से शुरु होता है । क्योंकि इस दौर में संघ अगर भाजपा को देखकर कोई टीका-टिप्पणी ना करे तो संघ की मौजूदगी का एहसास संघ में ही नहीं होता । इसलिये महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरसंघचालक भाजपा से जुडे हर सवाल का जबाब जहां जाते हैं, वहां पत्रकारों को देखकर या कहे कैमरो को देखकर देने लगते हैं। बल्कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देने लगे हैं । जैसा वह सरसंघचालक रहते हुये किया करते थे और सबसे अलोकप्रिय होते चले गये। स्थिति संघ के लिये इससे आगे बिगड़ रही है । पिछले दस वर्षो में वाजपेयी की अगुवायी में संघ के स्वयंसेवकों ने पांच साल देश जरुर चलाया। लेकिन इसी दौर में संघ अपनी जमीन पर ही परायी होती गयी और उसकी खुद की जमीन भी भाजपा की सत्ता महत्ता को बनाये रकने पर आ टिकी है। भाजपा के संकट ने संघ के सामने 84 साल में पहली बार ऐसी चुनौती रखी है, जहां से खुद का शुद्दीकरण पहले करना है। संघ का कोई संगठन पिछले दस वर्षो में सरोकार से नहीं जुटा। यानी जिस संगठन का जिस क्षेत्र में जो काम है, उसकी विसंगतियो से जूझते हुये हिन्दू समाज की व्यापकता को एकजुट करने की जो सोच हेडगेवार और गोलवरकर से होते हुये देवरस और रज्जू भैया तक फैली, उस पर भाजपा के उफान के दौर में कुछ इस तरह ब्रेक लगी कि संघ भी पिछडता चला गया । <br /><br />सवाल यह नहीं है कि जनसंघ और फिर भाजपा को संघ ने एक ठोस जमीन दी, इसीलिये उसे राजनीतिक सफलता मिली । महत्वपूर्ण है कि लोहिया से लेकर जेपी भी इस तथ्य को समझते रहे कि संघ के तमाम संगठन, जो अलग अलग क्षेत्रो में काम कर रहे हैं, अगर उन्हे साथ जोड़ा जाये तो राजनीतिक सफलता के लिये एक बडे समाजिक कार्य पर जाया होने वाले वक्त को बचाया जा सकता है। वनवासी कल्य़ाण आश्रम, भारतीय किसान संघ, विघा भारती, भारत विकास परिषद, संस्कार भारती, सेवा भारती, प्रज्ञा भारती, लधु उघोग भारती, सहकार भारती, विज्ञान भारती, ग्राहक पंचायत से लेकर हिन्दू जागरण मंच और विश्वहिन्दू परिषद जैसे दो दर्जन से ज्यादा संगठन संघ की छतरी तले देश के तीस करोड़ लोगो के बीच अगर काम रहे हैं तो उसका लाभ किसी भी राजनीतिक दल को मिल सकता है। इसका लाभ 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नारे लगाते लोहिया ने भी उठाया और 1977 में जेपी ने जनता पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भी उठाया । और यहां यह भी कहा जा सकता है कि 1990 में अयोध्या आंदोलन की अगुवायी करते लालकृष्ण आडवाणी उस मानसिकता के बीच नायक भी बनते चले गये जो चाहे अयोध्या आंदोलन का आडवाणी तरीका पंसद ना करता हो लेकिन संघ के तौर तरीके सो अलग अलग संगठनो के जरीये जुड़ा था। <br /><br />1999 में वाजपेयी की जीत के पीछे महज कारगिल जीत का भावनात्मक प्रचार नहीं था, बल्कि सुदूर गांवो में भी संघ की शाखा इस बात का एहसास करा रही थी कि भाजपा कहीं अलग है । या कहे कांग्रेस से अलग राजनीतिक दल है, जो सरोकार को समझता है । लेकिन इसका एहसास कियी को नहीं था कि भाजपा की सत्ता संघ के लिये धीमे जहर का काम करेगी । यह ज़हर संघ के भीतर बीते दस साल में किस तरह फैलता चला गया इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1998 के बाद से सिवाय विश्व हिन्दू परिषद के किसी संघठन की सदस्य सख्या में इजाफा नहीं हुआ। उतना ही नहीं जिन संगठनो ने जो भी मुद्दे उठाये, उन सभी मुद्दों का आंकलन राजनीतिक तौर पर भाजपा के घेरे में पहले हुआ, उसके बाद संघ के सरोकार का सवाल उठा। <br /><br />आदिवासी, मजदूर, किसान , शिक्षा व्यवस्था, स्वदेशी यानी कोई भी मुद्दा भाजपा के लिये घाटे का है या मुनाफे का, इसकी जांच परख पहले हुई । फिर सत्ता में भाजपा के साथ खड़े राजनीतिक दलों की भी अपनी अपनी राजनीतिक जरुरत थी, तो भाजपा की राजनीतिक प्रयोगसाला में आने के बाद किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, हिन्दू जागरण मंच सभी कुंद कर दिये गये। क्योंकि इनके मुद्दे सरकार को परेशानी में डाल सकते थे। और जो लकीर आर्थिक सुधार के भाजपा के दौर में भी खींची, उसको इतनी महत्ता दी गयी कि उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन ने अपने से बुजुर्ग और ज्यादा मान्यताप्राप्त दंतोपंत ठेंगडी को भी खामोश करा दिया। <br /><br />नया सवाल इसलिये गहरा है क्योंकि भाजपा के पास सत्ता है नहीं। और संघ के संगठनों की सामाजिक पहल भी भाजपा सरीखी ही हो चुकी है। यानी संघ का कोई संगठन अपने ही मुद्दे को लेकर कोई आंदोलन तो दूर मुद्दों पर सहमति बनाकर अपने क्षेत्र में ही किसी प्रकार का दबाब बना नहीं सकता है। स्थिति कितनी बदतर हो चली है, यह पिछले हफ्ते संघ के संगठनो की पहल से ही समझ लें। संघ के संगठनों ने पिछले हफ्ते जो काम किये, उसमें पर्यावरण को लेकर भोपाल में गोष्ठी है। जिसमें पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन ने कहा कि पश्चिमी देशो के सिद्दांत से ही पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है । हिन्दु मंच ने दिल्ली में आतंकवाद मुक्त पखवाड़ा मनाया, सेवा भारती ने उदयपुर में 695 मरीजो को शिविरो में जांचा । विश्वहिन्दू परिषद ने तमिलनाडु में कोडईकनाल के घने जंगलो में 207 वन बंधुओ की स्वधर्म वापसी करायी । नारी रक्षा मंच ने संस्कार को लेकर इंदौर में एक सम्मेलन किया। लखनऊ में स्व अधीश कुमार स्मृति व्याख्यानमाला हुई । आदित्य वाहिनी ने उड़ीसा में सनातन धर्म को बनाया। दुर्गा वाहिनी ने भारत तिब्बत सीमा पर सैनिको को रक्षा सूत्र बांधे। कह सकते हैं कमोवेश हर संगठन की कुछ ऐसी ही पहल बीते हफ्ते रही या कहें भाजपा के राजनीतिक हितो को साधने वाले संघ के तौर तरीको ने तमाम संगठनो को इसी तरह की सामाजिक कार्यो में लगा दिया। जहां सिवाय संबंघ बनाने और सामाजिक समरसता का भाव समाज में फैलाते हुये भरे पेट के साथ आराम तलबी के अलावे कुछ नहीं बचा। <br /><br />संघ की जब यह हालात अपने संगठनो को लेकर है तब सवाल पैदा होता है कि उससे भाजपा को क्या राजनीतिक फायदा हो सकता है और भाजपा संघ को महत्ता क्यो दे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संघ के इन्ही संगठनों को जिलाये बगैर भाजपा का भी राजनीतिक भला नहीं हो सकता है क्योकि राजनीति चाहे सरोकार से नहीं सौदेबाजी से चलती है, लेकिन भाजपा के नेताओं को सौदेबाजी के टेबल तक पहुचने के लिये संघ का सरोकार चाहिये ही। नया सवाल है कि इन संगठनों में सरोकार की जान कैसे फूंकी जाये । खासकर जब संगठन से बड़े मुद्दे हो चले हैं और मुद्दो को लेकर कोई राजनीति इस देश में बची नहीं है। यानी एक तरफ जिन मुद्दो के आसरे हेडगेवार हिन्दु राष्ट्र का सपना संजोये थे, वही मुद्दे कही ज्यादा व्यापक हो कर राजनीति और संगठन को ही खत्म कर रहे हैं। तब संकट यह है कि इन मुद्दो को किस तरह उठाया जाये, जिससे संघ की पुरानी हैसियत भी लौटे और भाजपा भी महसूस करे कि उसका राजनातिक लाभ संघ के बगैर हो नहीं सकता । क्योंकि नये तरीके की राजनीति और सरोकार गुजरात की तर्ज पर उठ रहे हैं, जो आतंक की लकीर तले विकास और सत्ता को इस तरह रखता है। राजनीति सिमटती है और विकास से जुड़े मुद्दे धर्म का लेप चढ़ा लेते हैं। इन सब के बीच गठबंधन की सोच सर्व धर्म सम्माव की धज्जिया उड़ाती है और नरेन्द्र मोदी सरीखी मानसिकता संघ से भी बड़ी हो जाती है और सत्ता की सौदेबाजी भी मोदी के आगे छोटी होने लगती है। <br /><br />इन नयी परिस्थितियो में अगर दिखायी देने वाला संकट विचारधारा के घेरे में संघ और भाजपा दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हुये हैं । तो संघ परिवार की नयी बैचेनी एक-दूसरे के अंतर्विरोध को ठिकाने लगाकर खुद को खड़े करने की पैदा हो चली है। इसमें मुश्किल यह हो गयी है कि भाजपा के भीतर अगर आडवाणी को चुनौती देने के लिये एक अदना सा कार्यकर्त्ता भी खुद को सक्षम मान रहा है तो संघ में एक अदना सा स्वयंसेवक सरसंघचालक से बेहतर समाधान की बात कहने लगा है । यानी सत्ता की लड़ाई में सत्ताधारी ही महत्वहीन बन गये हैं।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-76214751386969031742009-05-13T11:38:00.000+05:302009-05-13T11:39:52.091+05:30राहुल गांधी की मैराथन राजनीति में सौ मीटर की रणनीतिराहुल गांधी ने ऐसे वक्त राजनीति के तार छेड़े, जब कोई भी नेता या पार्टी अपनी राजनीतिक लीक को गाढ़ा करने पर भरोसा करता है, उसे मिटाना नहीं चाहता। चुनाव के वक्त वोट बैंक को लेकर सामाजिक समझ और अपने सहयोगियो को लेकर राजनीतिक समझ में कोई भी नेता या पार्टी दरार नहीं चाहती। लेकिन राहुल के तार ने कांग्रेस को लेकर बनायी गयी, उस राजनीतिक समझ को डिगाना चाहा है, जिसको परिभाषित करने वाले और कोई नहीं बल्कि उसके अपने ही साथी है। ऐसे साथी, जो भाजपा को राजनीतिक लकीर मान कर कांग्रेस के जरीये सेक्यूलरिज्म का अनूठा तमगा ठोंक रहे है । चुनाव के वक्त राहुल की राजनीति जब विरोधियों का गुणगान करती है, तो महज राहुल की सतही राजनीतिक समझ के दायरे में देखना भूल होगी। राहुल की राजनीतिक ट्रेनिंग को समझना होगा। राहुल उस गांधी परिवार के सदस्य हैं, जिसके साथ राजनीतिक अनुभव जैसे शब्द मायने नहीं रखते। किसी भी पद से बड़ी गांधी परिवार की परछाई है जो राजनीति को अपनी आगोश में ले ही लेती है।<br /><br />इसलिये, राहुल के साथ राजनीति करने से ज्यादा बड़ा सत्य प्रधानमंत्री होना जुड़ा है । क्योंकि भारतीय राजनीति में कांग्रेस खारिज हो नहीं सकती। लेकिन जिस दौर या कहें जिन मुद्दो के आसरे कांग्रेस को लेकर सवालिया निशान राजनीति में उठे, उसके कटघरे में भी सबसे पहले गांधी परिवार ही आया। राहुल गांधी की उम्र जब वोट डालने लायक हुई, संयोग से उसी साल राजीव गांधी पर भष्ट्राचार का आरोप उनके अपने ही वित्त मंत्री वीपी सिंह ने जड़ा था । 1988 में जिस बोफोर्स घोटाले के आसरे वीपी सिंह ने राजीव गींधी के खिलाफ देशव्यापी राजनीतिक मुहिम छेडी । उसका असर सिर्फ 1989 में राजीव की दो तिहायी बहुमत वाली सरकार का भरभराकर गिरना भर नही था, बल्कि गांधी परिवार पर भष्ट्राचार का धब्बा लगना था। <br /><br />हो सकता है कि उस वक्त राहुल गांधी के दिमाग में यह सवाल उठा हो कि किसी सरकार में प्रधानमंत्री भष्ट्र हो और वित्त मंत्री बेदाग हो, यह कैसे हो सकता है । राहुल ने पहली बार 1989 में ही वोट डाला होगा । लेकिन उसी चुनाव परिणाम के बाद गठबंधन की अनूठी राजनीति राहुल की समझ में आयी होगी, जब वीपी सिंह को उस भाजपा का समर्थन मिला, जिसके खिलाफ चुनाव में जमकर राजनीतिक पींगे वीपी ने दिखायी । कांग्रेस के लिये यह साल बिहार को लेकर भी खासा महत्वपूर्ण रहा, जहां भागलपुर दंगों के बाद लालूयादव की राजनीति को सहारा देने के लिये कांग्रेस को आगे आना पड़ा और उसके बाद वही बिहार कांग्रेस के लिये दूर की कौड़ी बनता चला गया, जहां कभी कांग्रेस के दिग्गजों ने इंदिरा गांधी तक को हड़काया। <br /><br />वोट का अधिकार मिलने के बाद अगर राजनीतिक समझ वोटरो में आ जाती है, जैसा अब के दौर में चुनाव आयोग वोट को वोटर की ताकत से जोड़ कर राजनीतिक समझ आने की बात कर रहा है, तो राहुल गांधी में निश्चित तौर पर राजनीतिक समझ उस दौर में विकसित हो चुकी होगी । बीस साल पहले 19 साल के राहुल अगर राजनीति समझ रहे होगे तो वीपी,लालू ही नहीं पचास से भी कम सांसदो के समर्थन वाले चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने और सरकार गिरने की वजहो की राजनीति को भी समझ रहे रहे होगे। मंडल की आग में धू-धू कर जलते कांग्रेस के वोट बैक को भी देख रहे होंगे और कमंडल के जरीये भाजपा की राजनीति में मौलाना होते क्षेत्रिय दलों के नेताओं का राजनीतिक चरित्र भी देख रहे होंगे । <br /><br />इसी दौर में शरद पवार का कांग्रेस की जमीन पर सेंध लगाकर अपना राजनीतिक प्रबंधन खड़ा करना भी राहुल ने देखा समझा होगा । राहुल गांधी के यह सारे एहसास 1991 में कही ज्यादा गहरे हुये होंगे, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने खुद को घर में बंद कर लिया होगा । हो सकता है राजीव गांधी की हत्या से उठे भावनात्मक वोट की जमीन पर बनी नरसिंह राव सरकार के दौर में राहुल ने हर क्षण यही महसूस किया हो कि राजनीतिक सत्ता मुद्दों से नहीं भावनाओं से चलती है । उसी दौर में बाबरी मस्जिद का सवाल अयोध्या के राम मंदिर के नारे तले भवनाओं का ऐसा आतंक खडा कर सकता है, जिसके तले देश की राजनीति न सिर्फ बंट जाये बल्कि सत्ता भी दिला दे, यह एहसास राहुल के लिये कांग्रेस से ज्यादा देश को समझने वाला हो। <br /><br />जाहिर है 19 से 39 साल के दौरान यानी बीस सालों तक जिस शख्स के सामने यह सारे राजनीतिक दृश्य घूमते रहे होंगे और वह शख्स यह समझ रहा हो कि उसे एक न एक दिन राजनीतिक पटल पर अपनी भूमिका निभाने के लिये आना ही होगा तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी । राहुल गांधी की राजनीतिक समझ को परिभाषित करना मुश्किल इसलिये भी है, क्योकि जो राजनीतिक किरदार अभी मंच पर अपनी भूमिका निभा रहे हैं, वह उस बीस साल के दौर की उपज है, जिसे राहुल गांधी अपने लिये फिट नहीं मानते हैं। इसका दूसरा जबाब यह भी हो सकता है कि जो राजनीति बीस साल से चली आ रही है, उसमें राहुल गांधी भी फिट नहीं बैठते है। जाहिर है यही से राहुल गांधी की असल राजनीति शुरु होती है, जिसमें टकराव के बाद चुनाव परिणाम चाहिये । इस राजनीति में बिहार या उत्तर प्रदेश या फिर महाराष्ट्र में कांग्रेस के लिये जमीन बनाना भर नहीं है । बल्कि उस राजनीति से टकराना है, जिसे लालू यादव,मुलायम यादव या शरद पवार ने शह दी है। यहां राहुल की राजनीतिक समझ सतही लग सकती है क्योंकि पिछडे वर्ग की राजनीति के चैम्पियन होने के बावजूद मुलायम , मायावती और लालू क्रमश लोहियावादी, अंबेडकरवादी और मध्यमार्गी पिछड़ा वर्ग राजनीति के सिरों पर खडे हुये है। लेकिन राहुल की हिम्मत की वजह अंबेडकरवादी मायावती की वह सोशल इंजिनियरिंग है, जिसे अंबेडकर ने जीते जी दलितो के खिलाफ माना, लेकिन मायावती ने उसे सत्ता का सफल समीकरण करके दिखा दिया। <br /><br />वहीं लोहियावादी मुलायम उसी कल्याण की थ्योरी को अपने घेरे में आजमाने लगे, जिसे कल्याण सांप्रदायिकता की राजनीति के जरीये पिछडे वर्गो और सवर्णो के गठजोड की अपील करते। मुलायम उसे मुसिलम-यादव-लोघ में जोड़ने मे जुटते । वही लालू यादव की थ्योरी यादव-पासवान-मुसलमान के रंग में कांग्रेस को धमकाने से नहीं कतराते। इस दौर में ठाकरे ब्राह्ममणवाद विरोधी हिन्दुत्वादी के तौर पर खुद को जमाते हैं, जो जयललिता द्रविड राजनीति और तमिल फिल्मो के संयोग पर टिकती हैं। <br /><br />लेकिन इन नेताओ की चमक के पीछे सत्ता और आर्थिक लाभ उन तबकों और जातियो तक भी पहुंचना भी है, जो आजादी के बाद सामाजिक श्रेणी में पहले से जमी बैठी जातियो तक ही सीमित थीं। राहुल गांधी की राजनीतिक समझ यानी 1989 से पहले जो दलित या गैर ब्रह्मण नेता उभरे भी वह अपने अपने तबके में अपेक्षाकृत संपन्न पृष्ठभूमि वाले ही थे। मसलन जगजीवन राम हो या चरण सिंह । खास बात े भी है कि उस दौर में इस तरह के नेताओ में जुझारु जाति चेतना थी भी नहीं और ये जाति चेतना को राष्ट निर्माण के खिलाफ भी मानते थे। कह सकते है कि उस दौर में सेक्यूलर अथवा धर्म-जाति निरपेक्ष समाज की परिकल्पना में ही सभी जीते थे । <br /><br />इसीलिये गांधी परिवार के लिये नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में वह संकट नहीं आया जो राहुल गांधी के सामने है । मसला सिर्फ इतना नही है कि महाराष्ट्र में ब्राह्ममण बनाम गैर ब्राह्मण के बदले मराठा बनाम महार और गुजरात में बनिया बनाम ब्रह्ममण की जगह पट्टीदार बनाम क्षेत्रिय शुरु हो गया। असल में संकट कहीं गहरा इसलिये है क्योकि राहुल गांधी के दौर में सत्ता की आकांक्षा और आर्थिक लाभों की मांग उपलब्ध संसधानो से कहीं ज्यादा हो चुकी है। कांग्रेस इस राजनीति में चूकी इसलिये भी जाति समूह के भीतर भी स्पर्धा शुरु हुई है, जिसमें राहुल जातिगत राजनीतिक उम्मदवारो के जरीये तो सेंध लगा सकते है लेकिन जाति समूहो की अगुवाई संभव नहीं है। कह सकते है कि जातिगत स्पर्धा भी है, जो राहुल की राजनीति को फिट बैठने नहीं देगी। <br /><br />जाहिर है राहुल जिस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिये तार छेड़ रहे हैं, उसमें नेहरु से इंदिरा युग की याद भी आ सकती है, जिसमें नेताओ की छवि चमकदार, आमतौर पर इमानदार, विवादो से परे, और राजनीति से उपर उठकर राष्ट्र निर्माण की चिंताओ में खोये रहने रहने वाले थी। आजादी के बाद की इस राजनीति को अपना चक्र पूरा करने में करीब चालीस साल लग गये । लेकिन अब राहुल इसके संकेत देना चाह रहे हैं कि राजनीति का दूसरा चरण जो 1989 में शुरु हुआ, उसका चक्र 2009 में यानी बीस साल में पूरा हो चुका है । लेकिन सवाल है कि वंशवाद जब कांग्रेस से निकलकर हर पार्टी का मूलमंत्र बन चुका हो । गांधीवादी प्रयोग अपनी सार्थकता खो चुका हो । मार्क्सवादी खुद ही क्रांति की बातों से बोर हो चुके हो । और राष्ट्रीय पार्टियां आंकडों के खेल में कथित बन चुकी हों, तब राहुल के राजनीतिक तार में से कौन सा संगीत निकलेगा, यह भविष्य नहीं वर्तमान में मौजूद है, जिसमें राहुल मैराथन दौडते हुये सौ मीटर की रणनीति अपनाते हैं, और कांग्रेस सौ मीटर दौड़ने के लिये मैराथन की रणनीति अपनाना चाहती है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-45507768290920025432009-04-01T09:45:00.000+05:302009-04-01T09:45:00.191+05:30क्या वरुण गांधी एक नयी राजनीति के संकेत हैं?राहुल गांधी से दस साल कम उम्र के वरुण गांधी हैं। लेकिन दोनों ने कमोवेश राजनीति में एक ही वक्त कदम रखा। राहुल चुनाव लड़कर संसद पहुंच गये लेकिन वरुण गांधी उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के साथ एक मंच पर बैठकर अपने राजनीतिक इरादों को हवा देते रहे। राहुल को सोनिया ने अमेठी लोकसभा विरासत में दी तो वरुण को पीलीभीत सीट मेनका गांधी ने। राहुल जिस दौर से राजनीतिक उड़ान की शुरुआत करते हैं और दलितों-पिछडों के घर रात बिताने से लेकर कलावती में विकास का अनूठा सच टटोलना चाहते हैं, उस दौर में वरुण कागज पर अपने दर्द को कविता की शक्ल देकर प्रिंस आफ वाड्स यानी जख्मों का राजकुमार रचते हैं। <br /><br />वह लिखते हैं- मैं मानता हूं /मै अपने पाप के साथ थोड़ी सी मुहब्बत में हूं/ क्योंकि मैं भटका हुआ हूं / इसलिये मुझे बताया गया है / सोचो मत सिर्फ देखो / चलना ही रास्ता दिखायेगा / इसलिये वहां कोई जवाबदेही नहीं है / एक अजनबी सिर्फ पीड़ित है / जिससे तुम कभी मिले नहीं..... तो क्या पीलीभीत में चली उन्मादी हवा ने पहली बार वरुण और राहुल को आमने सामने ला खड़ा किया है। बेटे की रक्षा के इरादे से पीलीभीत पहुंच कर मेनका गांधी कभी गांधी परिवार की दुहायी नहीं देती। वह खुद को सिख परिवार का बता कर हिन्दुओं की रक्षा का सवाल खड़ा करती हैं । ताल ठोंक कर वरुण के बयान को हिन्दुओं की रक्षा से जोड़कर छुपे संकेत भी देती हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चाहे बरगद गिरा हो लेकिन मेनका हिन्दुत्व की जमीन पर इंदिरा की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ भड़के दंगो पर मलहम लगाने को भी तैयार हैं। <br /><br />तो क्या राहुल-वरुण से पहले सोनिया-मेनका आमने सामने खड़ी हैं? सोनिया गांधी जब कांग्रेस में ही नहीं बल्कि सहयोगियों को खारिज कर राहुल के लिये एक नयी राजनीतिक बिसात बिछाने की तैयारी में है तो क्या मेनका गांधी वरुण के जरीये देश को यह एहसास कराना चाहती है कि इंदिरा-नेहरु की असल विरासत उनके परिवार से जुड़ी है। पीलीभीत के राजनीतिक समीकरण साफ बताते है कि वरुण वहां ना भी जाये तो भी उन्हें चुनाव में जीत हासिल करने में कोई बड़ी मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। तो क्या वरुण की पीलीभीत स्क्रिप्ट महज साप्रदायिकता को उभारने के लिये नहीं लिखी गयी बल्कि उसके पिछे वरुण के उस तेवर-तल्खी को भी उभारना है जो कभी संजय गांधी में देखी गयी थी। <br /><br />इंदिरा गांधी पर जितना हक राहुल का है उतना ही वरुण गांधी का है । राहुल में अगर राजीव गांधी का बिंब दिखाने में सोनिया जुटी है तो वरुण में संजय गांधी का बिंब दिखाने से मेनका चूकना नहीं चाहती हैं। और कांग्रेस के भीतर कद्द्दावर या ठसक वाले नेता को लेकर जो कसमसाहट लगातार महसूस की जा रही है तो क्या उसमें संजय गांधी के हारमोन्स की खोज हो रही है, जो युवा तुर्क पीढ़ी को दिशा दे सके । मेनका ने पहला राजनीतिक पाठ चन्द्रशेखर से पढ़ा था । माना जाता है इंदिरा गांधी के घर से बहु मेनका की विदाई को राजनीतिक तौर पर साधने की बात भी मेनका अक्सर चन्द्रशेखर से ही करती थी । सोनिया ने जब राजनीति का कहकरा नही पढ़ा था, उस वक्त मेनका राजनीतिक व्याकरण समझने लगी थीं। लेकिन मेनका जिस राजनीतिक जमीन पर खड़ी थीं, उसमें व्याकरण की नहीं फ्रंट रनर बनने के लिये अगुवायी करने की भाषा समझनी थी। यह भाषा इसलिये जरुरी थी क्योकि सोनिया के सामानातंर बगैर इसके, मेनका हो ही नहीं सकती थी। <br /><br />लेकिन,यह दांव मेनका के हाथ कभी नहीं लगा। राहुल के खड़े होने के बाद भी सिमटती कांग्रेस में सबसे बड़ा सवाल सभी के सामने यही उभरा कि लोकप्रियता वोट बैक में तब्दील नहीं हो पा रही है। राहुल गांधी परिवार के चिराग हैं, इसे देखने तो लोग जुट जाते है लेकिन वोट नहीं डालते। यह तथ्य राहुल से भी जुड़ा और सोनिया गांधी के साथ भी। यह कमजोरी मेनका के साथ भी रही । लेकिन वरुण की उन्मादी स्क्रिप्ट ने गांधी परिवार के भीतर पहली बार ठीक इसके उलट स्थिति बनायी है। यानी मुद्दे को राजनीतिक तौर पर मान्यता देने के लिये ना सिर्फ समूची बीजेपी जुट गयी बल्कि जो हालात मुलायम-लालू -पासवान के हाथ मिलाने से मंडल के दौर की जातीय गोलबंदी होने के कयास लगाये जा रहे थे, उसे भी वरुण की राजनीतिक तिकडम के आगे नये सिरे से सोचना पड़ रहा है। <br /><br />इतना ही नहीं मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की बिसात भी इसमें उलझी । धार्मिक उन्माद दलित और ब्राहमण को नये सीरे से साधेगा। मायावती इमसे इस तरह उलझी भी कि पीलीभीत की कानून व्यवस्था भी मुद्दा बना और रासुका लगाना भी। यानी दोनों स्थिति में बीजेपी के खेल में वरुण के पतीले को लगातार सुलगाने की सोच मायावती के दामन से जुड़ गयी । असल में वरुण गांधी ने सिर्फ वोट जुगाड़ने या बिगाड़ने का खेल नहीं खेला बल्कि इंदिरा गांधी के बाद पहली बार गांधी परिवार के किसी शख्स ने राजनीतिक जमीन को हर पार्टी के लिये उर्वर बनाकर खुद को महज प्यादे के तौर पर रखा है। असल में सोनिया गांधी इस हकीकत को समझ रही हैं कि काग्रेस के भीतर भी साफ्ट हिन्दुत्व का रोग है, जो आज से नहीं नेहरु युग से चला आ रहा है। सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण के पीछे सरदार पटेल की ही सोच थी। अयोध्या को लेकर नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के खेल ने ही कभी जनसंघ तो अब बीजेपी को मुद्दा थमाया। लेकिन इसके पिछे कहीं ना कही मुस्लिम समुदाय को साथ खड़ा करने की चाहत कांग्रेस के भीतर हमेशा रही। <br /><br />वरुण गांधी का हिन्दु रक्षा के उन्मादी भाषण सरीखा ही भाषण 15 मार्च को कांग्रेस के इमरान किदवई ने दिया। चूंकि वह अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के चेयरमैन हैं तो उन्होने साफ कहा कि, अगर मै मुफ्ती होता तो फतवा जारी कर देता कि भाजपा को वोट देना क्रुफ है। यानी इस्लाम विरोधी है। असल में वरुण ने गांधी परिवार को लेकर वही दुविधा खड़ी कर दी है, जिसे आजादी से पहले तक कांग्रेस भोग रही थी। कांग्रेस जन्म के साथ ही मुस्लिमो को कभी साथ नहीं ला पायी। मुस्लिम समाज कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होता नहीं था। उस दौर के तीन बड़े मुस्लिम नेता , सर सैयद अहमद खान, जस्टिस अमिर अली और लतीफ खान कांग्रेस को बंगाली हिन्दुओं की संस्था मानते थे। 1937 के चुनाव में 482 मुस्लिम सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ 25 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस ने मुस्लिमों को आकर्षित करने के लिये कुरान के अधिकारी व्ख्याकार मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को अध्यक्ष बनाया लेकिन सफलता तब भी नहीं मिली। 1945 के नेशनल असेंबली के चुनाव हों या 1946 के प्रांतीय असेम्बली के चुनाव, कांग्रेस का मुस्लिम सीटों पर जहां सूपडा साफ था, वहीं हिन्दु बहुल सीटो पर नब्बे फिसदी से ज्यादा सफलता मिली थी। <br /><br />तो क्या नया सवाल बीजेपी को लेकर कांग्रेस के भीतर कसमसा रहा है कि हिन्दु वोट बैक अगर बीजेपी के साथ है और मुस्लिम समुदाय अलग अलग क्षेत्रिय दलों में अपनी रहनुमायी देख रहा है तो कांग्रेस की जमीन बढ़ेगी कैसे। कहीं वरुण गांधी के जरीये तो भविष्य में काग्रेस अपना उत्थान नहीं देखने लगेगी। सोनिया काग्रेस के अतीत की हकीकत और भविष्य के दांव के बीच वर्तमान का संकट नहीं समझ पा रही हो, ऐसा हो नहीं सकता । राहुल गांधी की राजनीति जिस आम आदमी के हाथ का सवाल खड़ा करती है, उसमें विकास की बात अव्वल है। लेकिन आम आदमी की न्यूनतम की लड़ाई जितनी पैनी है, उसमें राहुल का नारा कांग्रेस को लोकप्रिय बना सकता है लेकिन वोट नहीं दिला सकता। जबकि आईडेंटिटी यानी पहचान की राजनीति ही कांग्रेस के साथ हमेशा जुड़ी रही। जातीय गोलबंदी से लेकर आदिवासी ,पिछडों और मुस्लिम को लेकर आईडेंटिटी की कांग्रेसी राजनीति ही चली और इसी के सामानातंर सॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर भी खिंची जाती रही। राहुल इस राजनीति की थाह को पकड नहीं पाये क्योंकि सोनिया गांधी ने पार्टी चलाने का समूचा खांचा इंदिरा गांधी सरीखा कर तो लिया लेकिन इंदिरा सरीखे सलाहकार नहीं रखे जो समाज की नब्ज पर उंगली रख कांग्रेस के भीतर गांधी परिवार की पैठ समाज तक ले जाते। <br /><br />संयोग से सोनिया के सलाहकार भी अपने घेरे में सोनिया से कही ज्यादा अलोकतांत्रिक हैं। इसलिये वरुण गांधी को साधने का तरीका भी सतही है । जिस मुद्दे को लेकर वरुण को कांग्रेस साधना चाह रही है , उसके पीछे गांधी की समझ और सेक्यूलर भाव से मुस्लिमों को साथ खड़ा करने की चाहत है । लेकिन उम्मीद महज इतनी है कि हिन्दु-मुस्लिम की लकीर सीधे वोट बैक बांट दे। यानी जिस राजनीति ने कांग्रेस और बीजेपी सरीखे राष्ट्रीय दलों को भी क्षेत्रीय दलो के सामने झुकने के लिये मजबूर कर दिया अगर वरुण गांधी के जरीये उस राजनीतिक वोट बैक में सेंध लगायी जा सकती है <br />लेकिन गांधी परिवार की लड़ाई यही से शुरु होती है क्योकि वरुण से उन्मादी बोली से कही तीखे शब्द विनय कटियार कहते रहते हैं। <br /><br />कल तक कल्याण सिंह भी कहते थे। नरेन्द्र मोदी ने भी उन्मादी शब्दों से परहेज अभी भी नहीं किया है। लेकिन वरुण का मतलब इन सबसे अलग है । चुनावी पटल पर मुद्दों के ही आसरे गांधी परिवार अगर दोनो तरफ खड़ा है तो बीजेपी की यह सबसे बडी हार है, उसे बीजेपी के रणनीतिकार समझ रहे है। क्योंकि मुद्दा हिन्दुत्व या सांप्रदायिकता नहीं है बल्कि गांधी परिवार है। और सोनिया के रणनीतिकारों ने अगर वरुण के जरीये ही कांग्रेस को बढ़ाने की व्यूहरचना की तो ना सिर्फ झटके में मंडल-कमंडल की राजनीति पर पनपी क्षेत्रीय राजनीति का बंटाधार होगा। बल्कि गांधी परिवार भी आधुनिक चेहरे के साथ उभरेगा, जिसमें मुखौटा नहीं होगा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-58853169172269090242009-03-13T09:15:00.000+05:302009-03-13T09:15:01.110+05:30तीसरा मोर्चा का गठन बनाम कांग्रेस-बीजेपी एक साथतीसरे मोर्चे की दस्तक, बीजू जनता दल की पहल और शरद पवार के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा ने पहली बार लोकसभा चुनाव से पहले इसके संकेत दे दिये हैं कि सत्ता के लिये जीत से पहले और सत्ता भोगने के लिये जीत के बाद के गठबंधन में खासा बदलाव तय है। तीसरे मोर्चे की कवायद में वाममोर्चा एकजुट है। लेकिन, वाम मोर्चे को लेकर उसका वोट बैंक पहली बार एकजुट नहीं है। सिर्फ पश्चिम बंगाल ही नही केरल में भी सेंध लगनी तय है। बंगाल में नंदीग्राम-सिंगूर-लालगढ तो केरल में भष्ट्राचार का मुद्दा वाममोर्चा की कम से कम 10 सीटों पर झटका देगा। <br /><br />वहीं, तीसरे मोर्चे को जमा करने वाले देवगौड़ा का संकट अपनी चार सीटों को बरकरार रखने का है। यही संकट टीआरएस का है। तेलागंना का मुद्दा केन्द्र की पहल के बगैर अंजाम तक पहुंच नहीं सकता है इसलिये चन्दशेखर राव की मजबूरी चुनाव के बाद दिल्ली में बनती सरकार की तरफ झुकना तय है। उनके पांच सांसद अभी हैं, जिसमें एक सीट का इजाफा हो सकता है। लेकिन राज्य में विधानसभा चुनाव भी हैं, इसलिये इसका खामियाजा टीआरएस को उठाना पड़ सकता है। तीन सीटें कम भी हो सकती हैं। चूंकि चन्द्रबाबू नायडू वामपंथियों के साथ तीसरे मोर्चे में खड़े हैं तो टीआरएस के लिये और मुश्किल होगी कि वह भी तीसरे मोर्चे में आ जाये। <br /><br />उधर, जयललिता का हाथ खाली है । इसलिये जयललिता के जरिये सर तो गिनाये जा सकते हैं लेकिन सौदेबाजी को कोई अमली जामा नहीं पहनाया जा सकता । बड़ा सवाल नवीन पटनायक या कहें उनकी पार्टी बीजू जनतादल का है । दस साल से बीजेपी की गोद में बैठकर राजनीति करने वाले नवीन पटनायक के लिये नये हालात में अपनी 11 सीटों को बरकरार रखना ही सबसे बड़ी चुनौती होगी। चूंकि विधानसभा चुनाव राज्य में साथ ही हैं तो नवीन पटनायक सत्ता बरकरार रखने की राजनीति को ज्यादा तवज्जो देंगे इसलिये दिल्ली की सरकार में उनका योगदान आंकडों को बनाने और समर्थन दलों के सर की तादाद बढाने में ही होगा । इसलिये तीसरे मोर्चे में सीधी पहल से बचकर राज्य की राजनीति में कोई सेंध लगे इसके लिये फूंक-फूंक कर कदम रखेंगे। <br /><br />हरियाणा से विश्नोई की मौजूदगी भी सरों की तादाद को बढाने वाली ही है । जाहिर है ऐसे में तीसरे मोर्चे की इस नयी दस्तक का आंकडा सौ को भी नही छू पायेगा , यह हकीकत है। लेफ्ट की पहल हर हाल में मायावती को साथ लाने की होगी। लेकिन मायावती का सोशल इंजीनियरिंग यहा फिट नही बैठता है। मायावती अपने पत्ते चुनाव परिणाम से पहले खोलना नहीं चाहती हैं। लेकिन वह किसी को निराश भी करना नहीं चाहती हैं। इसलिये तीसरे मोर्चे की पहल में सतीश मिश्रा के जरीये एक ऐसी नुमाइन्दगी कर रही हैं, जिसे झटके में झटका भी जा सके। वहीं तीसरे मोर्चे की अकसर खुली वकालत करने वाले मुलायम-मायावती-अजित सिंह-चौटाला जैसे दिग्गज खामोश होकर सत्ता समीकरण को अपने अनुकूल होते हुये अब भी देखना चाह रहे हैं। यानी तीसरा समीकरण कोई सकारात्मक रुप लेगा, इसकी संभावना बेहद कम है लेकिन बनते हर समीकरण में पहली बार इसका खांचा जरुर उभर रहा है कि यूपीए और एनडीए अपने बूते सत्ता बना नहीं पायेंगे और आंकडों की सौदेबाजी सबसे बड़ी हकीकत बनेगी। <br /><br />ये सौदेबाजी भारतीय राजनीति में कोई बड़ा बदलाव कर सकती है, यह सबसे बड़ा सवाल है। अगर 14वीं लोकसभा में एनडीए और यूपीए की तस्वीर को अब के हालात से जोड़कर देखें तो वाकई नयी परिस्थितियां एक नये मोर्चे की दिशा में ले जाती हुई भी दिख सकती है। पिछले चुनाव में एनडीए को कुल 185 सीटें मिली थीं, जिसमें से बीजू जनता दल, टीडीपी और तृणमूल खिसक चुकी हैं । यानी 18 सीटों का झटका लग चुका है। हालांकि अजित सिंह की रालोद और असमगण परिषद एनडीए के नये साथी हैं, लेकिन इनके पास कुल 5 सीटे है। यानी एनडीए का आंकडा पिछले चुनाव की तुलना में 13 सीट कम का ही है। <br /><br />वहीं, यूपीए की कुल सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में 219 थी। जिसमें से टीआरएस खिसक चुकी है और एमडीएमके की लिट्टे राजनीति तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ खड़े होने नही देगी। यानी कुल नौ सीटे यहां भी कम हो रही है । डीएमके की मजबूरी है कि वह कांग्रेस के साथ रहे क्योकि राज्य में उनकी सरकार को कांग्रेस का समर्थन है। जो निकला तो सरकार भी गिर जायेगी । यूपीए को नया मुनाफा ममता बनर्जी के साथ जुड़ने से हुआ है। ममता एकमात्र ऐसी सहयोगी हैं, जिनकी सीटो में इजाफा तय माना जा रहा है। फिलहाल दो सीटे हैं, जो आधे दर्जन को पार कर सकती हैं। इसका मतलब है यूपीए की स्थिति कमोवेश यही बनी रह सकती है। लेकिन सरकार बनाने में 272 का जादुई आंकडा जो पिछली बार वाममोर्चे के जरीये पूरा हो गया, इस बार वह फिसलेगा ही । क्योंकि बंगाल में ममता-कांग्रेस गठबंधन वामपंथियो को ही तोड़ेगा। और यूपीए कितनी भी मशक्कत कर ले, वह सेक्यूलरवाद के नारे तले वामपंथियो को साथ ला तो सकता है लेकिन 272 का आंकड़ा नहीं छू पायेगा। <br /><br />यह हालात एनडीए और यूपीए की उस धारणा को तोडेंगे, जिसमें वैचारिक मतभेद का सवाल अकसर दोनो से जुड़ जाता है । यानी सत्ता समीकरण के लिये ठीक वैसा ही कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम निकलेगा, जैसा एनडीए की सत्ता बनाने के लिये वाजपेयी सरकार ने अयोध्या-कामन सिविल कोड-धारा-370 को दरकिनार कर दिया था। लेकिन तब और अब के हालात खासे बदल चुके है । तब मुद्दो पर खामोश होना था, वहीं अब मुद्दों का समाधान देश को चाहिये। जो दो मुद्दे देश के सामने खड़े हैं, उसमें सुरक्षा और अर्थव्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण हैं । संयोग से आंतकवाद से लड़ने और देश की सुरक्षा में सेंध ना लगने देने को लेकर कोई बहुत अलग राय एनडीए और यूपीए की नहीं है। पोटा सरीखे कड़े कानून को देखने का नजरिया भी बदल चुका है। वहीं, आर्थिक सुधार को लेकर भी एनडीए-यूपीए की सहमति रही है। विरोध के सुर वामपंथियो ने गाहे-बगाहे जरुर उठाये लेकिन सत्ता का सुख भोगते वक्त वो भी लगाम पूरी तरह छोडे रहे। <br /><br />इन हालात में जब सरकार बनाने के लिये आंकडों के जुगाड़ की जरुरत पड़ेगी तो कई राजनीतिक दल इधर से उधर यह कहते हुये जरुर होंगे कि देश को स्थिरता देना उनकी पहली जरुरत है। फिर चुनाव नहीं चाहिये। एक कॉमन मिनिमम कार्यक्रम के जरीये गठबंधन की सरकारें पिछले दस साल से जब यूपीए-एनडीए के जरीये चली है तो इसको जारी रखने में फर्क क्या पड़ता है। <br /><br />लेकिन तीसरे मोर्चे की आहट और न्यूक्लियर डील के विरोध में वामपंथियो का सरकार को बीच में छोड़ने के बाद एक साथ कई सवालों ने भी जन्म लिया है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि देश जिन हालातों से गुजर रहा है, उसमे सत्ता से जुड़कर मलाई खाने की जो परंपरा राजनीतिक दलों की बन पड़ी है, उसमें सरकार चलाने की कांग्रेस और बीजेपी की अपनी सोच कहां टिकती है । बीजेपी दिन्दुत्व के नाम पर राजनीति करती है लेकिन मंदिर नहीं बनवा सकती । बनवायेगी तो सरकार गिर जायेगी । कांग्रेस जिस महिला-आदिवासी-पिछडों-किसानों का सवाल खड़ा कर उन्हे मुख्य़धारा से जोड़ने और राहत देने की बात करती है, वह कोई ऐसी नीति बना नही सकती जिससे उसके किसी सहयोगी का वोट बैंक आहत हो तो सरकार का मतलब है क्या। <br /><br />जाहिर है सरकार देश में होनी चाहिये। जिसकी नजर में आम आदमी हो। हर धर्म-प्रांत का व्यक्ति हो। देश की अर्थव्यवस्था बाजार पर नहीं खुद पर निर्भर हो। आतंकवाद के जरीये बंटते समाज को बांधा जा सके। पड़ोसी देश आंखे न तरेरे । सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद हो । यानी देश में कही सरकार है, इसका एहसास देश को हो । जिसमें राजनीतिक दलो की सौदेबाजी के बदले मुद्दो के समाधान के तौर तरीकों पर सहमति -असहमति के बीच नीतियों को अमली जामा पहनाने की पहल हो। मुश्किलों में मुहाने खड़े देश को लेकर कोई सहमति राजनीतिक दलों में बनती है तो आसान और मुश्किल दोनों तरीका बीजेपी और कांग्रेस को एक साथ देश चलाने के लिये ला सकती है। पिछले आम चुनाव में बीजेपी को 138 और कांग्रेस को 145 सीटे मिली थीं। दोनों को जोड़ने पर 278 का आंकड़ा पहुचता है यानी जादुई 272 से ऊपर । अगर यही स्थिति दोबारा देश में बन भी रही है तो सरकार नहीं देश चलाने के नाम पर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम क्या नही बन सकता । मंत्री पदो का बंटवारा नीतियो के तहत हो सकता है। जिसकी ज्यादा सीटे हों उसका प्रधानमंत्री । सहयोगी का उप-प्रधानमंत्री । सुरक्षा बीजेपी के पास तो गृहमंत्रालय कांग्रेस के पास । वित्त मंत्रालय कांग्रेस के पास तो वाणिज्य बीजेपी के पास। उघोग काग्रेस तो कृर्षि बीजेपी के पास । रेल काग्रेस के पास तो उड्डयन बीजेपी के पास । कोयला कांग्रेस के पास तो स्टील बीजेपी के पास । आईटी सेक्टर बीजेपी के पास तो दूर संचार कांग्रेस के पास । महिला कल्याण बीजेपी के पास तो युवा-खेल कांग्रेस के पास । पिछड़ा कांग्रेस का पास तो अल्पसंख्यक बीजेपी के पास । आपसी सहमति के जरीये कुछ नये मंत्रालय भी बनाये जा सकते है जो चैक एंड बैलैंस की तरह काम करे। <br /><br />जाहिर है यह समझ देश चलाने के लिये होगी तो सौदेबाजी की राजनीति कर अपने वोटबैंक को सत्ता से मलाई दिलाने की क्षेत्रिय राजनीति बंद हो जायेगी। और जनता भी समझेगी नेताओ के जरीये बेल-आउट से काम नही चलेगा। और अगर यह भी तरीका फेल हो जायेगा तो नयी स्थितियां नये समीकरण की दिशा में ले ही जायेगी...लोकतंत्र का मिजाज तो यही है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-55960935712191912312008-11-24T08:42:00.003+05:302008-11-24T08:48:58.519+05:30आरएसएस को हिन्दुत्व का पाठ पढ़ाएंगी सावरकर की पातीराष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की मानें तो एटीएस पंचतंत्र की कहानी लिख रहा है। क्योंकि जो लोग मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी हो सकते हैं, वही लोग संघ के कार्यवाह मोहनराव भागवत और कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार की हत्या की साजिश कैसे रच सकते हैं। लेकिन हिन्दुत्व की जिस राह को 'अभिनव भारत' सरीखा संगठन पकड़े हुये है और हिन्दुत्व का नाम लेते लेते आरएसएस जिस राह पर जा चुका है अगर दोनो की स्थिति को दोनो के घेरे में ही देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि मालेगांव को लेकर जो सोच अभिनव भारत में है, कमोवेश वही सोच आरएसएस को भी लेकर है। यानी मालेगाव और संघ के हिन्दुत्व में कोई अंतर करने की स्थिति में 'अभिनव भारत' नहीं है।<br /><br />इस स्थिति को समझने से पहले जरा दोनों के अतीत को समझ लें। दरअसल, अभिनव भारत जिस हिन्दु महासभा से निकला उसके कर्ता-धर्त्ता सावरकर थे जो सीधे कहते थे," इस ब्रह्माण्ड में हिन्दुओं का अपना देश होना ही चाहिये, जहां हम हिन्दुओं के रुप में, शक्तिशाली लोगो के वंशज के रुप में फलते-फूलते रहें। सो, शुद्दि को अपनाये, जिसका केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक पहलू भी है । " वहीं हेडगेवार समाज के शुद्दिकरण के रास्ते हिन्दु राष्ट्र का सपना देशवासियो की आंखों में संजोना चाहते थे।<br /><br />सावरकर पुणे की जमीन और कोकणस्थ ब्रह्माणों के बीच से हिन्दुसभा को खड़ा कर सैनिक संघर्ष के लिये 1904 में अभिनव भारत को लेकर ब्रिट्रिश सरकार को चुनौती दे रहे थे। वहीं दो दशक बाद हेडगेवार नागपुर की जमीन पर तेलुगु ब्राह्मणों के बीच से हिन्दुओं के अनुकुल स्थिति बनाने के लिये कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर हिन्दुत्व शुद्दिकरण पर जोर दे रहे थे। उस दौर में सावरकर के तेवर के आगे आरएसएस कोई मायने नहीं रखती थी । ठीक उसी तरह जैसे अब आरएसएस के आगे हिन्दु महासभा कोई मायने नहीं रखती । सावरकर की पुत्रवधु हिमानी सावरकर 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हिन्दुमहासभा का अलख लिये चुनाव लड़ रही थीं। उस समय बीजेपी ही नहीं आरएसएस के स्वयंसेवक भी मजा ले रहे थे। हिमानी अपना चुनाव प्रचार करने ऑटो पर निकलती थीं और बीजेपी के समर्थक जो शायद आरएसएस से भी जुड़े रहे होगे, आटोवाले को कहते थे "हिमानी पैसा ना दे पाये तो हमसे ले लेना ।"<br /><br />लेकिन वही दौर ऐसा भी था जब आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर घमासान मचा हुआ था । इसलिये कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार में ठंडे बस्ते में डल चुका था ।<br />पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोडने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमो को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।<br /><br />जाहिर है इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देख कर खुद को अलग थलग समझ रहा था बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो सावरकर के आसरे कभी आरएसएस को मान्यता नहीं देता था, वह कहीं ज्यादा खिन्न भी था । 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनो में जाना शुरु कर दिया । महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया ।<br /><br />इस दौर में सावरकर -गोडसे की नयी पीढ़ी, जो संघ से पहले अंसतुष्ट थी, उसने सावरकर की संस्था 'अभिनव भारत' को फिर से सक्रिय करने की दिशा में वर्तमान कालखंड को ही उचित माना । इस विंग ने संघ पर भी मुस्लिम परस्ती और हिन्दु विरोधी सेक्यूलर राह पर जाने के आरोप मढ़ा। ऐसा नही है कि अभिनव भारत एकाएक उभरा और उसने संघ को निशाने पर ले लिया । दरअसल, 2006 में अभिनव भारत को दुबारा जब शुरु करने का सवाल उठा तो संघ के हिन्दुत्व को खारिज करने वाले हिन्दुवादी नेताओ की पंरपरा भी खुलकर सामने आयी। पुणे में हुई बैठक में , जिसमे हिमानी सावरकर भी मौजूद थीं, उसमें यह सवाल उठाया गया कि आरएसएस हमेशा हिन्दुओं के मुद्दे पर कोई खुली राय रखने की जगह खामोश रहकर उसका लाभ उठाना चाहता रहा है। बैठक में शिवाजी मराठा और लोकमान्य तिलक से हिन्दुत्व की पाती जोड कर सावरकर की फिलास्फी और गोडसे की थ्योरी को मान्यता दी गयी । बैठक में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी से लेकर गोरक्षा पीठ के मंहत दिग्विजय नाथ और शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद के भक्तो की मौजूदगी थी । या कहे उनकी पंरपरा को मानने वालो ने इस बैठक में माना कि संघ के आसरे हिन्दुत्व की बात को आगे बढाने का कोई मतलब नहीं है।<br /><br />माना यह भी गया कि बीजेपी को आगे रख कर संघ अब अपनी कमजोरी छुपाने में भी ज्यादा वक्त जाया कर रहा है इसलिये नये तरीके से हिन्दुराष्ट्र का सवाल खड़ा करना है तो पहले आरएसएस को खारिज करना होगा । हालांकि, ऐरएलएल के भीतर यह अब भी माना जाता है कि कांग्रेस से ज्यादा नजदीकी हिन्दुमहासभा की ही रही । 1937 तक तो जिस पंडाल में कांग्रेस का अधिवेशन होता था, उसी पंडाल में दो दिन बाद हिन्दुमहासभा का अधिवेशन होता। और मदन मोहन मालवीय के दौर में तो दोनो अधिवेशनों की अध्यक्षता मालवीय जी ने ही की। इसलिये आरएसएस कांग्रेस की थ्योरी से हटकर सोचती रही । लेकिन हिन्दु महासभा का मानना है कि संघ ने बीजेपी की सत्ता का मजा लेकर सत्ता दोबारा पाने के लिये खुद के संगठन का कांग्रेसीकरण ज्यादा कर लिया है और हिन्दु राष्ट्र की थ्योरी को पूरी तरह नकार दिया है।<br /><br />महत्वपूर्ण यह भी है ब्राह्मणों की पंरपरा को लेकर भी मतभेद उभरे। चूकि हेडगेवार की तरह सुदर्शन भी तेलुगु ब्रह्मण है, तो हिन्दुत्व पर कड़ा रुख अपनाने की सुदर्शन की क्षमता को लेकर भी यह बहस हुई कि संघ फिलहाल सबसे कमजोर रुप में काम कर रहा है। इसलिये संघ की मराठी लाबी भी सावरकर की सोच को आगे बढाने में मदद करेगी। इन सब का असर संघ पर किस रुप में पड़ा है या फिर देश में जो राजनीतिक हालात हैं, उसमे सरसंघचालक सुदर्शन भी अंदर से किस तरह हिले हुये है इसका अंदाजा पिछले महीने 7 नबंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर गो-रक्षा के सवाल पर हिमानी सावरकर के साथ मंच पर खडे सुदर्शन को देख कर समझा जा सकता था । यानी जो परिस्थितियां सावरकर और संघ को अलग किये हुये थीं, उसमे पहली बार संघ के भीतर भी इस बात को लेकर कुलबलाहट है कि जिस राह पर वह चल रही है वह रास्ता सही नहीं है।<br /><br />मामला सिर्फ मोहन भागवत या इन्द्रेश की हत्या की साजिश का नहीं है , पुणे में गोखले-साठे-पेशवा-सावरकर की कतार में खडे कोकनस्थ बह्मण अब स्वदेशी अर्थव्यवस्था के उस ढांचे को जीवित करना चाह रहे हैं, जिसकी बात कभी संघ के नेता दत्तोपंत ढेंगडी किया करते थे। लेकिन ढेंगडी अपनी बात कहते कहते मर गये मगर न वाजपेयी सरकार ने उनकी बात सुनी ना सरसंघचालक ने उन्हे तरजीह दी । जाहिर है, आजादी के बाद पहली बार अगर अभिनव भारत को बनाने की जरुरत सावरकर को मानने वाले कर रहे है तो इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दुत्व की जो थ्योरी सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अभी तक आरएसएस परोस रही है और बीजेपी उसे राजनीतिक धार दे रही है, वह अपने ही कटघरे में पहली बार खड़ी है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16