tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-38764156753923511552010-05-23T14:10:00.001+05:302010-05-23T14:11:00.977+05:30'काइट्स' यानी पैसा नहीं प्यार चाहिए !<div>पतंग को उड़ते हुये देखना। कटी पतंग को लूटना। और लूटी हुई पतंग और मांझे के साथ पतंग उड़ाने का सुकून मैंने बचपन में खूब लूटा। इसलिये फिल्म 'काइट्स' शुरु होते ही स्क्रीन पर जैसे ही पतंग उड़ती हुयी नज़र आयी, वैसे ही पतंगों को लेकर मेरे अपने अतीत के सपने उड़ान भरने लगे। इस अतीत को किसी शब्द की जरुरत नहीं थी तो पतंगों को देखकर यह भी ध्यान नहीं आया कि इन पतंगों के साथ फिल्मी नायक अपनी कहानी कहने की कोशिश कर रहा है। ध्यान दिया तो पतंगों के आसरे जिन्दगी की फिलासफी बताते शब्दों की कमेन्ट्री थी। लेकिन पतंग कभी जिन्दगी की प्रतीक नहीं होती, इसलिये काइट्स के पहले शब्द ही नागवार लगे। ऐसा लगा जैसे पतंगों को बांध बनाकर कोई अपनी जिन्दगी की कहानी उससे जोड़ना चाह रहा है। लेकिन पतंगों के अंधेरे में गुम होते ही एक अलग दुनिया की कहानी से भरे दृश्य एक-एक कर उभरने लगे। </div><div><br /></div><div>स्क्रीन पर रितिक रोशन था लेकिन नहीं था। हॉलीवुड की किसी फिल्म के काउबॉय सरीखा शख्स लगातार यह एहसास पैदा करने की कोशिश कर रहा था कि वह रितिक रोशन है। यकीनन पूरी फिल्म में कभी नहीं लगा कि रितिक रोशन किसी अंग्रेज काउ-बॉय सरीखा दिखने की कोशिश कर रहा है। बल्कि काउ-बॉय में रितिक रोशन को खोजने की पहल शायद काइट्स के पहले दिन के पहले शो में हॉल में बैठा हर युवा दिल कर रहा था। काइट्स ने रफ्तार पकड़ी तो अमेरिका में रहने वाले जे की कहानी भी साफ होने लगी। जे अमेरिका में रहते हुये हर उस गैर अमेरिकी लड़की के लिये अजीज है, जो ग्रीन कार्ड पा कर अमेरिका में रहना चाहती है। चंद डॉलर में शादी कर ग्रीन कार्ड दिलाते हुये डॉलर कमाने का आसान तरीका किसी भी युवा दिल को भा सकता है,क्योंकि भारत की इकॉनमी की उड़ान भी इसी रास्ते पर है,जहां हर हाल में नोट बनाना पहला और आखिरी लक्ष्य है। तो फिर जे का रास्ता तो हिन्दुस्तानी दिल या मनमोहन की अर्थनीति का रास्ता है। </div><div><br /></div><div>लेकिन मेरे दिमाग में तो पतंग की उड़ान थी जो पहले सीन में ही सिल्वर स्क्रीन पर झलक दिखा सपनों को कुरेद गयी। लेकिन जे तो हर हाल में डॉलर कमाना चाहता है। प्रेम के डोर में बंधना नहीं चाहता। लेकिन एक डोर जब घर का दरवाजा खुद ब खुद ठकठकाती है और उसमें उसे कारु का खजाना नजर आता है तो जे यानी रीतिक रोशन मचल जाता है। लेकिन यहां दिल नहीं शरीर मचलता है। और कंगना राणावत के रईस परिवार का हिस्सा इसलिये बनता है क्योंकि यह परिवार शहर के सबसे बडे कैसिनो का मालिक है। मचलने भर से कलाई में लाखों की घड़ी और सफर के लिये करोड़ों की सफारी मिल जाये तो सिल्वर स्क्रीन पर कौन सा हीरो नही मचलेगा। </div><div><br /></div><div>अरे यह तो अपना ही नायक है ! अपने ही समाज का प्रतिबिंब है ! और देश को बाजार में बदलने की जो होड़ चल पडी है, उसमें जिन्दगी का मतलब तो डॉलर ही है। लेकिन पतंगों का उड़ना डॉलर का मोहताज तो नहीं होता। कुछ इसी आशा-आशंका के बीच बारबारा मोरी यानी स्क्रीन की नताशा की हंसी में मधुबाला की झलक देखने की इच्छा जाग उठी। बारबारा भी डॉलर के चक्कर में उसी परिवार से इश्क लड़ा कर मचली, जिससे रितिक रोशन मचले थे । डॉलर के लिये बारबारा ने कंगना के भाई की घेराबंदी की क्योंकि गरीबी से निकली बारबरा ने ग्रीन कार्ड के लिये जब रितिक से शादी की तो उसके पास देने के लिये 442 डॉलर भी नही थे। और रितिक महज 400 डालर में 12 वीं शादी करने को सिर्फ इसलिये तैयार हो गये कि उन्हें 400 डॉलर तो मिल जायेंगे। गरीबी और तंगहाली में श्रम कोई मायने नहीं रखता। डॉलर कमाने के लिये नैतिकता नही बस सौदा देखा जाता है और रितिक-बारबरा तो इसी सौदे को आगे बढ़ा रहे हैं। </div><div><br /></div><div>फिर पतंग क्यों उड़ी? उसने सपनों को क्यों जगाया ? सबकुछ तो उस बाजार के लिये है, जहां खाली जेब वालों के लिये कोई जगह नहीं। माल बना सकते हो और खरीद सकते हो....तब तो ठीक नहीं तो काइट्स की कहानी और क्या हो सकती है। लेकिन अचानक पतंगों ने सपनों को जगाया । आमने-सामने। नजरों में नजरें डालकर जब रितिक-बारबरा का दिल मचला तो उसमें डॉलर की खनक सुनायी नहीं दी। अरसे बाद सिल्वर स्क्रीन पर नायक को नायकी से कहते सुना और नायिका ने भी मदहोशी में नायक को दिल निकाल देने वाले अंदाज में कहा कि डॉलर नहीं प्रेम सच है। तो मैं भी कुर्सी से उछल पड़ा। अरे यह तो मनमोहन सिंह को ठेंगा दिखाने का काम कर रहे हैं। प्यार के लिये पांच सितारा मस्ती। चकाचौंघ भरा जीवन सबकुछ दांव पर लगाने को तैयार है। और उस पर तुर्रा यह कि प्यार के लिये लाखों की घड़ी और करोडो की गाड़ी को ही मस्ती के धुएं में उड़ा रहे हैं। यानी सीधे सीधे जिन्दगी को पैसा बनाने की मशीन ना बनाकर जीना चाहते हैं। कमाल है यह तो राजकपूर की याद दिलाता है। जब फक्कड और मुफलिसी में भी प्यार कर उस पर मर-मिटने का मन करता था। और रईसी अक्सर बदबूदार लगती। </div><div><br /></div><div>राजकपूर-नर्गिस की आधी दर्जन फिल्मो के दृश्य उस वक्त आंखों के सामने रेंगने लगे जब रितिक-बारबरा एक-दूसरे में इस हद तक डूब गये कि रईसों के तौर-तरीका से घृणा होने लगी। अचानक पतंगों की उड़ान आसमान के पार जाती हुई लगी। क्योंकि राजकपूर के दौर में नेहरु की नीति थी जो सोशलिस्ट होने का नाटक करती थी और रितिक के दौर में मनमोहन सिंह की नीति है जो आदमी को आदमी तभी मानती है, जब वह उपभोक्ता हो जाये। मैं समझ चुका था पतंगों की उड़ान अब कटेगी। क्योंकि बाजार में प्यार खरीदा नहीं जाता और रितिक-बारबरा का प्यार फिल्मी खलनायक खरीदने पर उतारु है। मुश्किल दौर शुरु होना था। पतंगों को तेज हवा के झोकों का सामना करते हुये खुद को मिटाना था। और वह मिटे भी। लेकिन बाजार में बिकने से बेहतर उन्होंने खुद को मिटाना ही ठीक समझा। यह कुछ वैसा ही लगा जैसे मनमोहन सिंह के आर्थिक पैकेज से आजिज आकर किसान खुदकुशी कर लेता है। आखिर में सिल्वर स्क्रीन पर खलनायकी भरी रईसी बची रही। लेकिन फिल्म खत्म हो गयी। और फिल्म खत्म होते ही लगा क्या इसी तरह कभी मनमोहनोमिक्स बचेगा और देश खत्म हो जायेगा या फिर सिनेमा हाल में काईट्स से निराश युवा मन खुद को मनमोहन की इकनॉमिक्स में तब्दील कर देश चलाता रहेगा ।</div>Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com9