tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-53438196603454162692013-04-12T14:40:00.000+05:302013-04-12T16:23:42.441+05:30बेइज्जत होता किसान-महाराष्ट्र सूखा पार्ट-1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
महाराष्ट्र में सूखा सिर्फ किसानों के लिये है। खेती की जमीन के लिये है। उद्योंगों, शुगर फैक्ट्री, पांच सितारा होटल , बीयर बार और नेता मंत्रियों के घरो से लेकर किसी भी सरकारी इमारत में पानी की कोई कमी नहीं है। बीते हफ्ते विदर्भ और मराठवाडा घुमने के दौरान मैंने पहली बार महसूस किया कि सिर्फ राजनेता ही नहीं हर तबके के सत्ताधारियो के विकास और चकाचौंघ के दायरे से किसान और खेती बाहर हो चुके हैं। सरकार की नीतियां ही ऐसी हैं जिस पर चलने का मतलब है किसानी खत्म कर मजदूरी करना। या फिर उघोग घंघों को लाभ पहुंचाने के लिये खेती करना। फसल दर फसल कैसे खत्म की जा रही है और खेती पर टिके 70 फिसदी से ज्यादा नागरिको की कोई फिक्र किसी को नहीं है। अपनी सात दिनो की यात्रा के दौरान मैने भी पहली बार जाना कि महाराष्ट्र के नेताओं की लूट ग्रमीण क्षेत्रो में सामंती तौर तरीको से कहीं ज्यादा भयावह है। और यह चलता रहे इसके लिये सरकार की नीतिया और नौकरशाही का कामकाज और इसमें कोई रुकावट ना आये इसके लिये पुलिस प्रशासन का दम-खम अपने रुतबे से कानून बताता है और एक आम नागरिक या किसान-मजदूर सिर्फ टकटकी लगाये अपना सब कुछ गंवाये देखता रहता है।<br />
<br />
इसकी शुरुआत मैं लातूर जिले के शिराला गांव में स्थित स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से कर रहा हूं। क्योंकि पहली बार मैंने किसानो को बे-इज्जत होते हुये सरेआम देखा। और बेइज्जत करने के तौर तरीको के पीछे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की गाइडलाइन्स बतायी गयी। पानी के लिये तरसते किसानों के खेतों में जाकर सवाल जवाब करने पर मुझे एक किसान ने लगभग रोते हुये बताया कि उसने बैंक से 70 हजार रुपये कर्ज लिये थे। चार साल हो गये हैं। कर्ज लौटा नहीं पा रहा हूं। हर बार कपास होता नहीं । पिछले बरस जब कपास ठीक ठाक हुआ तो किमत ही नही मिली । सरकार ने समर्थन मूल्य उपज के खर्च से भी कम कर दिया और दवाब डाला कि कपास की जगह मै गन्ना उगाउ । क्योकि लातूर में शुगर फैक्ट्री को गन्ना चाहिये । और महाराष्ट्र में सरकार ने फसल खरीद को लेकर जो समर्थन मूल्य तय किया है उसमें गन्ना इसलिये अव्वल है क्योंकि सारी शुगर फैक्ट्री उन्हीं नेताओं की है जो विधानसभा में नीतियों को बनाते हैं। लेकिन किसान ने डबडबायी आंखों से बताया कि बैक ने उन्हें नोटिस भेजा है और बैक की दीवार पर बडे बडे अक्षरो में यह लिख दिया है कि किसान मोटघरे ने चार बरस से बैक का कर्ज नहीं लौटाया है। और इस किसान का सार्वजनिक बहिष्कार होना चाहिये। किसान ने अगले तीस दिनो में अगर बैक का कर्ज नहीं लौटाया तो बैक के अधिकारी गांव में कर्जदार किसान के घर के बाहर ढोलक-डमरु बजाकर किसान को चोर करार देकर सार्वजनिक तौर पर बदनाम करेंगे।<br />
<br />
असल में शिराला बैक जाने पर जैसे ही कैमरे पर 100 से ज्यादा किसानों के नाम की सूची को हमने कैमरे में उतारा वैसे ही बैंक का मैनेजर सक्रिय हो गया। और गांव वालो को उकसाने लगा कि अगर इसी तरह बैक का नाम अखबार या टीवी में आने लगेगा तो गांव में बैक ही बंद करना पडेगा । फिर गांववालो को और मुश्किल का सामना करना पड़ेगा। जो किसान अपनी बदनामी के फैलने से रो रहे थे उन्हीं के खिलाफ बैक का पक्ष लेकर बाकि गांव वाले कर्जदार किसानों पर ही कसीदे गढ़ने लगे। पुलिस ने भी सरकारी कामकाज में रुकावट डालने के लिये कर्जदार किसनो को घेर लिया। जब बैंक मैनेजर से बात हुई तो उसने कहा उन्हे नादेंड हेडक्वार्टर से यह निर्देश आया है कि कर्जदार किसानों के नाम बैकं की दीवार पर चस्पा करें। ऐसे में लातूर के कई दूसरे बैक का दौरा करने पर देखा गया कि कर्जदार किसानों के नाम चस्पा हैं। जानकारी मिली कि पचास हजार से साढे पांच लाख तक के कर्जदार किसानों की तादाद सिर्फ महाराष्ट्र में 15 हजार है। और इन किसानो को लेकर बैंक का जो पैसा फंसा है वह 6 से 8 करोड के बीच है। और बैंक इस पैसे की उगाही तुंरत चाहते हैं ।जाहिर है उपर से देखने पर यह सही लगा कि बैंक क्या करें। लेकिन बैक के ही एक अधिकारी ने जब जानकारी दी कि किसानो ने चार बरस से अगर 6 से 8 करोड नहीं लौटाये हैं और उनके नाम चस्पा कर दिये गये है तो बीते 12 बरस से मराठवाडा के दो हजार उघोगो ने दस हजार करोड़ से ज्यादा की रकम बैंकों से कर्ज लेकर नहीं लौटायी है। और आजतक किसी उघोग का नाम या उघोगपति का नाम बैक की दीवार पर चस्पा नहीं किया गया। सिर्फ लातूर की शुगर को-ओपरेटिव पर ही बैक का ती सौ करोड़ से ज्यादा का कर्ज है। और कर्जदार तमाम बड़े राजनेता हैं। जिनकी दखल सरकार से लेकर हर बडे महकमे में है। लेकिन उनका नाम कभी सामने नही आया। जबकि उघोगपतियों ने कम से कम पांच करोड़ रुपये बैक से कर्ज लिया है। यानी सभी किसानो पर एक उघोगपति भारी हैं। और यह सवाल जब बैक मैनेजर के सामने रखा गया तो उसने सरकार के फरमान का जिक्र कर यह कहते हुये पल्ला झाड़ा कि उद्योगों को तो ई-मेल के जरीये नोटिस भेजा जाता रहता है। किसान अनपढ हैं, इसलिये बैंक की दीवार पर नाम चस्पां हैं।<br />
<br /></div>
Indiblogshttp://www.blogger.com/profile/09707909884476756113noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-61354456850939600092011-07-09T10:58:00.000+05:302011-07-09T10:59:30.336+05:30खेती की जमीन पर राज्य करें धंधा"सरकार से कौन लड़ सकता है । पहले भी कुछ नहीं कर पाये और अब भी कुछ नहीं कर सकते। आमदार-खासदार तो दूर सरपंच भी धोखा दे गया तो किसे भला-बूरा कहें। अब सरकार ही दलाल हो जाये तो किसान की क्या बिसात । एक शास्त्री जी थे, जिन्होंने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था । उस वक्त देश पर संकट आया था तो पेट काट कर हमने भी सरकार को दान दिया था। मेरी बीबी ने उस समय अपने गहने भी दान कर दिये थे। लेकिन अब सरकार ही हमें लूट रही है। किसानी से भिखारी बन गये हैं। बेटा-बहू उसी जमीन पर दिहाड़ी करते हैं, जिस पर मेरा मालिकाना हक था। जिस जमीन पर मैने साठ पचास साल तक खेती की । परिवार को खुशहाल रखा। कभी कोई मुसीबत ना आने दी । सभी जानते थे कि जमीन है तो मेहनत से फसल उगा कर सर उठा कर जी सकते हैं। लेकिन सरकार ने तो अपनी गर्दन ही काट दी...." <br /><br />एक सांस में सेवकराम झांडे ने अपने समूची त्रासदी को कह दिया और फकफका कर रोने लगे। बेटे, बहू, नाती पोतो के लिये यह ऐसा दर्द था कि किसी को कुछ समझ नहीं आया कि इस दर्द का वह इलाज कैसे करें । 72 साल के सेवकराम झाडे की जिन्दगी जिस जमीन पर अपने पिता और दादा के साथ खड़े होकर बीती और जिस जमीन के आसरे सेवकराम खुद पिता और दादा-नाना बन गये, उसी जमीन का टेंडर सरकार निकाल कर बेच रही है। असल में नागपुर में मिहान-सेज परियोजना के घेरे में 6397 हेक्टेयर जमीन आयी है और इस घेरे में करीब दो लाख किसानो के जीने के लाले पड़ गये हैं। क्योंकि महज डेढ लाख रुपये एकड़ मुआवजा दे कर सरकार ने सभी से जमीन ले ली है। लेकिन पहली बार एमएडीसी यानी महाराष्ट्र एयरपोर्ट डेवलपमेंट कों लिमिटेड की तरफ से अखबारों में विज्ञापन निकला कि 8 एकड जमीन 99 साल की लीज पर दी जा रही है। और विज्ञापन में जमीन का जो नक्शा छपा वह मिहान-सेज परियोजना के अंदर का है। और उसमें जिस जमीन के लिये टेंडर निकाला गया, असल में बीते सौ वर्षो से उस जमीन पर मालिकाना हक सेवकराम झाडे के परिवार का रहा है। एमएडीसी,वर्ल्ड ट्रेड सेंटर बिल्डिग, कफ परेड, मुबंई की तरफ से निकाले गये राष्ट्रीय अखबारो में अंग्रेजी में निकाले गये इस विज्ञापन को जब हमने सेवकराम को दिखाया और जानकारी हासिल करनी चाही कि आखिर उनकी जमीन अखबार के पन्नो पर टेंडर का नोटिस लिये कैसे छपी है, तो हमारे पैरों तले भी जमीन खिसक गयी कि सरकार और नेताओ का रुख इतनी खतरनाक कैसे हो सकता है। <br /><br />विज्ञापन देखकर छलछलाये आंसुओ और भर्राये गले से सेवकराम ने बताया कि 2003 में पहली बार खापरी गांव के सरपंच केशव सोनटक्के ने गांववालो को बताया कि उनकी जमीन हवाई-अड्डे वाले ले रहे हैं। क्योंकि यही पर अंतर्राष्ट्रीय कारगो हब बनना है। साथ ही वायुसेना को भी इसमें जगह चाहिये होगी। इसलिये जमीन तो सभी की जायेगी। उसके कुछ महिनो बाद गांव में बीजेपी के आमदार चन्द्रशेखर बावनपुडे आये। उन्होने नागपुर के हवाई-अडड् की परियोजना की जानकारी देते हुये कहा कि गांववाले चिन्ता ना करें और उन्हें वह मोटा मुआवजा दिलवायेंगे। फिर 2004 में बीजेपी आमदार के साथ नागपुर के ही उस वक्त बीजेपी के प्रदेशअध्यक्ष नीतिन गडकरी आये। उन्होंने कहा कि जो मुआवजा मिल रहा है वह ले लें और, बाद में और मिल जायेगा। 2004 में ही चुनाव के वक्त कांग्रेस के खासदार विलास मुत्तेमवार भी गांव में आये और उन्होने भरोसा दिलाया कि कि मुआवजा अच्छा मिलेगा। सरकार ही जब देश के लिये योजना बना रही है और वायुसेना भी इससे जुड़ी है तो कोई कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि सरकार देशहित में तो किसी की भी जमीन ले सकती है। और 2005 में खापरी गांव के तीन हजार से ज्यादा लोग जो जमीन पर टिके थे उनकी जमीन सरकार ने परियोजना के लिये ले ली। <br /><br />खापरी गांव की कुल 426 हेक्टेयर जमीन परियोजना के लिये ली गयी। जिसमें सेवकराम झाडे और उनके भाई देवरावजी झाडे की 11 एकड जमीन भी सरकार ने ले ली। मुआवजे में सरकार ने एक लाख 40 हजार प्रति एकड के हिसाब से सेवकराम के परिवार को 14 लाख 35 हजार रुपये ही दिये। क्योंकि सरकारी नाप में 11 एकड जमीन सवा दस एकड़ हो गयी। लेकिन जमीन जाने के बाद सेवकराम के परिवार पर पहाड़ दूटा। भाई देवराजजी झाडे की मौत हो गयी। सेवकराम की बेटी शोभा विधवा हो गयी। दामाद की मौत इसलिये हुई क्योकि खेती की जमीन देखकर उसने सेवकराम के घर शादी की। जमीन छिनी तो समझ नही आया कि किसानी के अलावे क्या किया जाये। भरे-भूरे परिवार को कैसे संभाले, उसी चिन्ता में मौत हो गयी। सेवकराम के तीनो बेटो के सामने भी रोजी रोटी के लाले पड़ गये। छोटे बेटे विष्णु ने किराना की दुकान शुरु की। बीच वाले बेटे विजय ने दिहाडी मजदूरी करके परिवार का पेट पालना शुरु किया तो बडे बेटे वासुदेव को उसी मिहान योजना में काम मिल गया जिस योजना में उसकी अपनी जमीन चली गयी। घर की बहू और बडे बेटे की पत्नी सिंधुबाई ने भी मिहान में नौकरी पकड़ ली। तीनो बेटे और विधवा बेटी से सेवक राम को 12 नाती-पोते हैं। सभी कमाने निकलते है तो घर में खाना बन पाता है , जबकि पहले सेवकराम किसानी से ना सिर्फ अपने परिवार का पेटे पालते बल्कि शान से दूसरो की मदद भी करते। लेकिन जमीन जाने के बाद सेवकराम ने अपने परिवार का पेट पालने के लिये पशुधन भी बेचना पड़ा है। बीस भैस और नौ गाय बीते दो साल में बिक गयीं। एक दर्जन के करीब बकरिया भी बेचनी पड़ी। आज की तारीख में सेवकराम के घर में संपत्ति के नाम पर तीन साइकिल और एक गैस सिलिंडर है, जो 14 लाख 35 हजार मिले थे वह खर्च होते-होते 80 हजार बचे है। जबकि सेवकराम के भाई देवराजजी झांडे के परिवार की माली हालत और त्रासदीदायक है। <br /><br />गांधी भक्त देवराजजी की मौत के बाद घर कैसे चले इस संकट में बडा बेटा शंकर दारु भट्टी में काम करने लगा है तो छोटा बेटा राजू नीम-हकीम हो गया । इसके अलावे तीन बेटियों की किसी तरह शादी हुई और फिलहाल परिवार में 15 नाती-पोतो समेत 23 लोग हैं, जिनकी रोटी रोटी के लिये हर समूचे परिवार को मर-मर कर जीना पड़ता है। आर्थिक हालत इतनी बदतर हो चुकी है कि घर का कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता। वहीं सेवकराम झाडे की जमीन पर निकले टेंडर फार्म की किमत ही लाख रुपये हैं। यानी जो भी टेंडर भरेगा उसे लाख रुपये वापस नहीं मिलेंगे। इस तरह की अलग अलग जमीन के टेंडर फार्म बेच कर महाराष्ट्र एयरपोर्ट डेवलपमेंट कारपोरेशन लि. ने पांच सौ करोड से ज्यादा बना लिये। जबकि राज्य की तरफ से कुल 35 हजार किसानों को सवा सौ करोड मुआवजे में निपटा दिया गया। यूं भी बीते दस बरस का सच महाराष्ट्र के किसानो के लिये कितना क्रूर साबित हुआ है, इसका अंदाज इसी से मिल सकता है कि करीब 78 लाख किसानों की जमीन सरकारी योजनाओ के नाम पर कॉरपोरेट या रियल इस्टेट वालो को दे दी गयी। किसानी पर टिके करीब दो करोड छोटे-किसान और मजदूर अपनी जमीन-घर से विस्थापित हो गये। सवा लाख किसानों ने खुदकुशी कर ली। औसतन विदर्भ, मराठवाडा और पश्चिम महाराष्ट्र में दिल्ली से सटे ग्रेटर नोयडा के किसानो की संख्या से पांच गुना ज्यादा किसान-मजदूर को जमीन से इसलिये बेदखल कर दिया गया क्योंकि देश के टाप कारपोरेट घरानों की योजनाओं के लिये जमीन चाहिये। और महाराष्ट्र में उसी कांग्रेस की सत्ता है, जिसका भविष्य राहुल गांधी के हाथ में है और वह दिल्ली से सटे यूपी में किसानों की जमीन का सवाल मुआवजे की थ्योरी तले उठा रहे हैं। लेकिन जमीन हड़पने वालों को अगर गिफ्ट देकर राज्य ही सम्मानित करने लगे तो क्या होगा। यह नागपुर के सेवकराम सरीखों की जमीन हड़पने वालो को देखकर समझा जा सकता है। मसलन खापरी गांव के सरपंच केशव सोनटक्के, जिनके कहने पर सेवकराम ने पहली हामी भरी थी, उसे हिंगना औघोगिक इलाके में 30 एकड माइनिंग का पट्टा फ्री में दे दिया गया। इसी तरह कुलकुही और तलहरा के 9625 परिवारों से 844 हेक्टेयर जमीन सरकार को दिलाने वाले सरपंच प्रमोद डेहनकर को भी 30 एकड माईनिंग का पट्टा फ्री में दिया गया। जबकि बीजेपी के नागपुर ग्रामीण क्षेत्र की नुमाइन्दगी करने वाले कामठी के आमदार चन्द्शेखर बावनपुडे के काले-पीले चिठ्ठे को संभालने वाले सुनील बोरकर को भी 30 एकड माइनिंग का पट्टा देने के अलावे सड़क और पुल के ठेके मिल गये। नागपुर से कांग्रेस के सासद के भी पौ बारह कई योजनाओं में करीबियो को ठेके दिलाकर हुये। और आखिरी सच यह है कि जिस सेवकराम को प्रति एकड एक लाख चालीस हजार रुपये दिये गये थे, उसकी कीमत मिहान परियोजना बनने के दौर में अभी 4 करोड रुपये एकड हो चुकी है क्योकि इस दौर में बीसीआई के नये स्टेडियम और पांच सितारा होटल से लेकर कारपोरेट घरानो का समूह वहां बैठ चुका है। इसलिये सरकार अब ऐसे घंघेबाज को जमीन देना चाहती है जो किसानो को दिये पचास करोड की एवज में 500 करोड बना ले। और मनमोहन इक्नामिक्स यही कहती है कि जिस धंधे में मुनाफा हो वही बाजार नीति और देश की नयी आर्थिक नीति है फिर अपराध कैसा।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-46711997750502876792009-07-23T11:33:00.000+05:302009-07-23T11:34:11.530+05:30कितना खतरनाक है किसान का सचमेरे पास पन्द्रह एकड़ जमीन है । मैं छतरपुर से चालीस किलोमॉीटर दूर विजावर में जसगुआं खुर्द गाव का जमींदार हूं । मैं आपसे पांच रुपये ज्यादा लेकर क्या करुंगा । मामला सिर्फ आम की सूखी लकड़ियों के मोल भाव का था । उसने पैंतीस रुपये मांगे और मैं तीस रुपये देने की बात कर रहा था। बस इसी बात पर वह बुजुर्ग व्यक्ति फूट पड़ा। इस तरह फूटा की उसकी आवाज में आक्रोष था, लेकिन आंखों में आंसू भी थे । आंसुओं में लाचारी कहीं ज्यादा थी। मानसून आया नहीं तो गांव में रह कर क्या करता। जमीन फट रही है। सोयाबिन की फसल जो अब तक जवान हो जाती है, इस बार बुआई तक नहीं हुई। पिछले साल 15 मई तक बुआई का काम पूरा हो गया था लेकिन अब तो जुलाई शुरु हो गया। गांव में जमींदार बनकर ऐसे ही कोई कैसे रह सकता है। खुद का पेट खाली होगा तो गांववालों के हक के लिये आवाज भी नहीं निकलती।<br /><br />सबकुछ एक सांस में जिस तरह लकड़ी बेचेने वाला वह शख्स महज पांच रुपये के सवाल पर कहता चला गया, उसने मुझे एक झटके में अंदर से हिला दिया। मैं आम की लकड़ी लेने निकला था । दिल्ली से सटे गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में पूजा -हवन के लिये आम की लकड़ी खोज रहा था। सड़क किनारे लगे पानवाले से लेकर कबाड़ी और फूल वाले सभी के ठेलो पर गया और पूछा कि आम की लकड़ी कहां मिलेगी। कोई नहीं बता पाया । भटकते भटकते इंदिरापुरम थाने के सामने पहुंच गया तो खाकी वर्दी को देख कर दिमाग में आया कि इसे जरुर पता होगा। पूछा तो एक पुलिस वाले ने अंगुली उठाकर इशारे से बताये कि वह सामने झोपड़ी में चले जाओ....और यही वह बुजुर्ग लकड़ी का कोयला और आम की लकड़ी बेचते मिल गए ।<br /><br />मुझे तीन चार किलोग्राम लकड़ी की जरुरत थी सो उन्होंने तौल दी ...मुझसे कहा पैंतीस रुपये हुये, मैंने तीस रुपये की बात कही तो यह शख्स फूट पड़ा। मै खुद को रोक नहीं पाया और झोपडी में बिछी चारपाई पर ही बैठ गया। बुजुर्ग के हाथ में चालीस रुपये रखते हुये कहा कि मुझे लगा कि खुले पैंतीस रुपये मेरे पास नहीं थे...मुझे लगा आपके पास भी नहीं होगे इसलिये तीस रुपये की बात कह दी। मेरे चारपाई पर बैठते ही उस बुजुर्ग का आक्रोष थमा...लोकिन सख्त तेवर में बोला पांच रुपये का मतलब शहर में नहीं होता लेकिन गांव में पांच रुपये आज भी बड़ी रकम है । लेकिन आपने बताया आप जमींदार हैं..तो इस तरह यहा आकर लकड़ी बेच कर क्या कमाई हो जाती होगी.....<br /><br />सवाल कमाई का नहीं पेट पालने का है । कमाई मुनाफे को कहते हैं। हम यहां मुनाफा बनाने नहीं आये हैं। बस अपना पेट पाल रहे हैं । सूखे ने पूरे परिवार को ही अलग थलग कर दिया है । मेरे चार बेटे हैं । पानी होता तो सभी किसानी करते । लेकिन सूखा है तो चारो बेटे भी रोजगार की तालाश में कही ना कही निकल पड़े । क्या बेटों के बारे में कोई जानकारी नहीं कि कौन कहां है । कैसे जानकारी होगी । हमी यहां लक्कड़ बेच रहे हैं, इसकी जानकारी गांव में किसे होगी । अब चारों बेटे कहा क्या कर रहे हैं, यह तो दशहरा में गांव लौटने पर ही पता चलेगा । लेकिन गांव में तो सरकार की भी कई योजना हैं। वहां रह कर भी तो कमाया खाया जा सकता है । बड़ी मुश्किल है । जैसे दिये में तेल ना डालो तो बुझ जाता है, वैसा ही सरकार की योजना का है। बाबुओं को तेल चाहिये। अब समूचे गांव में किसान के पास कुछ नगद है ही नहीं तो वह बाबुओ को दे क्या ।<br /><br />लेकिन सरपंच व्यवस्था के जरीये भी तो काम हो रहा है । सरपंच का मतलब है पैसे के बंटवारे का पंच। कोई योजना में कितना भी पैसा आये लेकिन सरपंच तभी केस बनाता है, जब उसे पचास फीसदी कमीशन मिल जाये । हमारे यहां नरेगा भी आया था। हर परिवार में एक व्यक्ति को काम मिलेगा, यह पोस्टर गांव गांव में चिपकाया गया। हमने भी सोचा कि छोटा बेटा, जिसकी शादी नहीं हुई है, वह गांव में ही रहे इसलिये उसी का नाम नरेगा के लिये दिया। लेकिन सरपंच को उसमे केस बनाने के लिये पचास फीसदी चाहिये। और बाबू को पन्द्रह फीसदी अलग। अब दिन भर मेहनत करके सौ रुपये के बदले पैतीस रुपया कमाने से क्या होगा। रजिस्ट्रर पर दस्खख्त कराता है सौ रुपया का और मिलता है पैतीस रुपया। कुछ गांव में तो पन्द्रह रुपया में भी गांव वालों ने काम किया है । क्योकि सरपंच तक पहुंच कर केस बनवाने में ही बीस-तीस रुपया खर्च हो जाता है।<br /><br />केस बनवाने का मतलब क्या है । केस का मतलब है, जिसको सरकार की योजना का लाभ मिल सकता है। इसपर सरपंच और बाबू बैठा रहता है । वह नाम लिखेगा ही नहीं तो काम मिलेगा ही नहीं। हां , अगर केस बना देगा कि इसको काम मिलना चाहिये तो मिल जायेगा। तो क्या आपको किसान राहत का भी कोई पैसा नहीं मिला । एक बार हल्ला हुआ था कि बैंक से जो पैसा लिये थे, वह भी माफ हो गया और बैक बिना कमीशन खेती के लिये कर्ज देगा। लेकिन पिछले साल तीन महीने बैंक का चक्कर जब गांव का जमींदार होकर हमीं लगाते रहे तो गांव वालों का क्या हाल हुआ होगा जरा सोचिये। हमनें बैंक से 18 हजार रुपया लिया था, लेकिन यहां आने से पहले बैंक को पूरा इक्कीस हजार लौटाये। कौन सा बैक था । ग्रामीण विकास बैंक । तीन बाबू बैठता है वहां । लेकिन कर्ज माफी तो दूर राहत सिर्फ इतना दिया कि कमीशन नहीं लिया । नहीं तो कई गांव में तो सरपंच के जरीये ही कर्ज लिये किसानों को धमकाया जाता कि अगर कर्ज का पैसा नहीं लौटाया तो कानूनी कार्रवाई होगी और जमीन जब्त हो जायेगी । इसीलिये वहा महाजनी जोर-शोर से चलता है। जिसके पास पैसा है, वह राजा है, जो किसान है, वह रंक है ।<br /><br />तो क्या खेती सिर्फ बारिश पर टिकी है । बारिश पर या कहें पैसे पर । क्योकि सिचाई की कोई व्यवस्था है नहीं। बिजली रहती नहीं है । जो मोटर पंप लगा रखे हैं उन्हें चलाने के लिये डीजल चाहिये । अगर पंप के भरोसे ही खेती करनी है तो हर महिने कम से कम दो हजार रुपया पास में रहना चाहिये। फिर बीज और खाद की जो व्यवस्था सरकार ने कम दाम पर कर रखी है, वह तभी मिल सकता है, जब पास में चार पांच सौ रुपये कमीशन देने या केस बनाने के हो। यहां भी केस बनता है। हां, अगर एकदम गरीब किसान है तो सरपंच के लिखने पर बीज बहुत ही कम कीमत पर भी मिल सकता है। तो बीज कम कीमत में तो मिल जाता है, लेकिन उसकी एवज पर आधा बीज मुफ्त में सरपंच अपने पास में रख लेता है। यह सिर्फ आपके इलाके में है या समूचे क्षेत्र में। यह न तो इलाके में है, न क्षेत्र में बल्कि पूरे राज्य में या कहे पूरे देश में ग्रामीण इलाको का यही हाल है ।<br /><br />मध्य प्रदेश से सटा विदर्भ का इलाका है । पहले यह मध्य भारत का ही हिस्सा था । हमारे बड़े बेटे की शादी वहीं हुई है । अकोला में । वहां भी हमारा जाना अक्सर होता । बेटा तो जाता ही रहता है । वहां के किसानों के सामने भी सबसे बडा संकट यही है कि बीज-खाद और डीजल का पैसा किसी के पास है नहीं । ग्रामीण बैक किसानों को उनका हक देता नहीं। वहां भी महाजनी ही किसानो को चलाती है। इतनी लंबी बहस के बाद जब मैने उन बुजुर्ग का नाम पूछा तो उल्टे हंसते हुये मुझी से मेरा नाम पूछ लिया। फिर कहा, हम ब्राह्ममण हैं। मेरा नाम जगदीश प्रसाद तिवारी है। इसलिये हम आम की लकड़ी यहां बेच रहे हैं। क्योंकि इस उम्र में कोई दूसरा काम कर नहीं सकते और धर्म कोई दूसरा काम करने का मन बनने नहीं देता। किसान शुरु से ही थे । कई पीढियों से किसानी चली आ रही है । लेकिन यह कभी नहीं सोचे थे कि जमीन रहने के बाद भी किसानी नहीं कर पायेगे। और जमीन रहने के बाद भी परिवार बिखर जायेगा।<br /><br />मेरे लिये कल्पना से परे था कि लकड़ी बेचता यह शख्स परिवार के बारे में बताते बताते रो पड़ेगा और कहने लगा कि मुझे पता ही नहीं है कि मेरा छोटा बेटा कहा कमाने खाने निकला। मैं तो यहां लकड़ी बेचने इसलिये पहुंच गया कि गांव के रामप्रसाद का बेटा यहां हवलदार है। मैंने उसके घर में तब पूजा करायी थी, जब उसके बेटे को नौकरी लगी थी । उसने मेरी व्यवस्था तो यहां करा दी । लेकिन छोटका होगा कहां........मैंने कहा मै आपसे इसीलिये बात कर रहा थी कि पत्रकार हूं । आपकी बात अखबार में लिखूंगा । मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा तो उस बुजुर्ग ने मुझे ही संभालते हुये कहा...घर में पूजा है क्या । हां.....तो जाओ पंडित जी इंतजार कर रहे होंगे फिर मुझे पांच रुपये लौटाते हुये कहा कि पैतीस रुपये हुये ...यह आपके पांच रुपये । मैं पांच रुपये जेब में डालने के लिये उठा तो वह बुजुर्ग कह उठा इस पांच रुपये को कम ना आंको। गांव में कईयो की जिन्दगी इसी में चलती है। और देश में शहर से ज्यादा गांव हैं। मुझे लगा मनमोहन सिंह हर गांव में शहर देखना चाहते है और राहुल गांधी हर गांव को अपने सपने से जोड़ना चाहते है । ऐसे में किसान का सच कितना खतरनाक है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com16