tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-68759264778819149522009-04-20T12:58:00.002+05:302009-04-20T12:59:31.393+05:30राजनीतिक अंधेरे में नक्सली हिंसा के मायनेचुनाव के पहले चरण में बैलेट पर बुलेट दाग कर नक्सलियों ने अपनी पांच साल पहले की उस सोच को ही मूर्त रुप देना शुरु किया है, जिसे एमसीसी और पीडब्लूजी ने मिलकर पाला था। ठीक पांच साल पहले 2004 में बिहार-झारखंड में सक्रिय माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और आंध्रप्रदेश से लेकर बस्तर तक में सक्रिय पीपुल्सवार ग्रुप यानी पीडब्ल्युजी एक हुये थे। उस वक्त नक्सली संगठनों के अंदर पीडब्ल्यूजी की पहचान हथियारबंद संघर्ष के लिये मजबूत ट्रेनिंग दस्ते का होना था तो एमसीसी की पहचान प्रभावित इलाकों में लोगो को सामूहिक तौर पर जोड़ कर किसी भी हमले को अंजाम देना था। <br /><br />लेकिन, 2004 में जब दोनों संगठन एक हुये और सीपीआई माओवादी का गठन किया तो पहला सवाल दोनों के बीच इसी बात को लेकर उठा कि संसदीय राजनीति के चुनाव में माओवादियों की पहल का तरीका इस तरह का होना चाहिये, जिससे आर्म्स स्ट्रगल में बहुसंख्यक लोगों की भागेदारी नजर आये। सांगठनिक तौर पर संघर्ष के नक्सली तरीकों में आम लोगो की गोलबंदी को एमसीसी ने बखूबी अंजाम देना जहानाबाद जेल ब्रेक से ही शुरु किया । जेल ब्रेक को सफल प्रयोग मान कर माओवादियो ने बीते पांच साल में जो भी प्रयोग किये, उसमें आंध्र के नक्सलियों ने अगर उपरी कमान संभाली तो बिहार झारखंड के नक्सलियों ने जमीनी कमान संभाली । <br /><br />पहले चरण के मतदान के वक्त माओवादियों की यही रणनीति सामने भी आयी । लेकिन माओवादियों की सोच को सिर्फ चुनावी हिंसा से जोडकर देखना भूल होगी । हकीकत में झारखंड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र के जिन इलाकों में नक्सली हिंसा हुई हैं, वहां की सामाजिक आर्थिक स्थिति के उपर पहली बार राजनीतिक हालात हावी हुये है। यानी पहले नक्सल प्रभावित इलाको में बहस की गुंजाइश विकास को लेकर होती रही। जिसमें रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरतों का सवाल माओवादी उठाते रहे। नक्सली संगठन पीपुल्सवार ने हमेशा इसी नजरिये को राजनीतिक आधार भी बनाया। जिस वजह से राष्ट्रीय राजनीति में हमेशा नक्सली संघर्ष को सामाजिक-आर्थिक समस्या के ही इर्द-गिर्द रखा गया। लेकिन बीते पांच साल में सीपीआई माओवादी ने सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से इतर राजनीतिक तौर पर ही अपने प्रभावित इलाकों में हर कार्रवाई शुरु की। जिसका असर आंध्र प्रदेश के तेलागंना, महाराष्ट्र के विदर्भ और छत्तीसगढ के बस्तर से लेकर मध्यप्रदेश, उडीसा, झारखंड बिहार और पश्चिमी बंगाल के हर उस मुद्दे में नजर आया जो राजनीतिक दलों को प्रभावित कर रहा था। <br /><br />तेलांगना में माओवादियों ने शुरु से ही इस प्रचार को आगे बढाया कि वह किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं है। और तेलागंना राष्ट्रवादी पार्टी की राजनीति उनकी सोच से अलग है। इस थ्योरी ने माओवादियो की राजनीतिक जमीन झटके में चन्द्रशेखर से अलग की और वायएसआर रेड्डी को भी चेताया कि वह एनटीआर की बोली अन्ना या बडे भाई वाली ना बोले। वहीं, विदर्भ के चन्द्रपुर और गढ़चिरोली में किसानों की आत्महत्या से लेकर उघोगपतियो के मुनाफे को भी उस राजनीति से जोड़ा, जहां सवाल सामाजिक-आर्थिक आधार पर रखकर पिछड़े आदिवासियों का आंकलन ना हो, बल्कि राजनीतिक दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का विद्रूप चेहरा ही उभरे। <br /><br />इसलिये कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों के जरीये उनके नेताओं के लाभ का लेखा-जोखा भी इन इलाको में रखा गया। कुछ उसी तर्ज पर छत्तीसगढ में भी माओवादियों की पहल राजनीतिक तौर पर ही हुई, जिसके एवज में सलमा जुडुम को राज्य सरकार ने खड़ा किया। लेकिन माओवादियों ने सलवा-जुडुम के सामानातंर उस राजनीतिक लाभ को इन इलाकों में उभारना शुरु किया जो प्रकृतिक संपदा को निचोड़ कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ कौडियो के भाव जा रहा है। इसी आधार का असर उडीसा में नाल्को के अधिकारियो पर हमले में नजर आया । जबकि झारखंड और बिहार में सीधे राजनेताओ पर निशाना साध कर माओवादियों ने राजनीतिक संदेश देने की ही पहल को आगे बढाया। <br /><br />असल में माओवादियों की नयी थ्योरी कहीं ज्यादा राजनीतिक चेतावनी वाली है । खासकर संसदीय राजनीति के उस तंत्र को वह सीधे चेतावनी देने की स्थिति में खुद को लाना चाहती है, जो अभी तक विकास के अंतर्विरोध के मद्देनजर ही पिछड़े इलाकों में सक्रिय माओवादियो का आईना देश को दिखाती रही है । एसइजेड यानी स्पेशल इकनॉमी जोन की अधिकतर योजनाएं उसी रेड कारिडोर में हैं, जहा माओवादी सक्रिय हैं । लेकिन पहली बार एसईजेड का विरोध सामाजिक-आर्थिक तौर पर करने की जगह माओवादियों ने उसे उसी राजनीति से जोड़ा, जिसकी आर्थिक नीतियों को लेकर आम शहरी जनता में भी सवाल उठ रहे हैं। नंदीग्राम और सिंगुर इस मायने में पारदर्शी राजनीति का प्रतीक है । जहां माओवादियो ने वाम राजनीति के सामानातंर उस प्रतिक्रियावादी राजनीति को आगे बढाया, जिसने वामपंथियों को सत्ता के लिये विचारधारा से उतरते देखा। बंगाल में वाममोर्चा का यह बयान दुरस्त है कि ममता के पीछे माओवादियो का राजनीतिक संघर्ष काम कर रहा है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि ममता की राजनीति उसी वाम राजनीति का विकल्प है। हकीकत में पहली बार माओवादी राजनीतिक तौर पर उस सोच को खारिज करना चाहते हैं जिसके जरीये यह सवाल खड़ा होता है कि सत्ता अगर बंदूक की नली से नहीं निकलती तो माओवाद की थ्योरी संसदीय राजनीति में सिवाय हिंसा के क्या मायने रखती है। यह सवाल माओवाद के सामने इसलिये भी बड़ा है क्योकि पहली बार केन्द्र सरकार ने नक्सल हिंसा को आंतकवाद सरीखा माना है। जिसे उन्हीं वामंपथियों ने सही ठहराया है, जो एक दशक पहले तक अतिवाम को भटकाव या बड़े भाई के तर्ज पर देखते थे। लेकिन सरकार की इस पहल को भी माओवादियों ने राजनीतिक तौर पर ही उठाया । जिसका असर नंदीग्राम में दिखा । लेकिन चुनाव में वोटिंग के दौरान नक्सली हिंसा लोकतंत्र के खिलाफ की भाषा मानी जायेगी, यह भी हकीकत है । <br /><br />लेकिन, देश की राजनीति का नया सवाल लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक दलों के आम लोगो से गैर सरोकार वाले मुद्दों का उठना भी है और सरोकार के उन मुद्दो को लोकतंत्र का ही नाम लेकर हाशिये पर ढकेल देना भी, जो लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाते हैं। मसलन , अपराधियों और बाहुबलियों से कोई राजनीतिक दल नहीं बच पाया है लेकिन इसे मुद्दा नहीं बनने दिया गया। बालीवुड या क्रिकेट खिलाडियों के जरीये राजनीति का गैर राजनीतिक राग हर राजनीतिक दल ने छेड़ा । रोजगार और मंहगाई के निपटने का कोई तरीका किसी दल के पास नहीं है। अगर इन सवालों ने गांव और छोटे शहरो में चुनाव के लोकतंत्र को लेकर वोटरो में सवाल खडे किये हैं तो आंतकवाद के सवाल ने शहरी मतदाताओ के बीच राजनीति को लेकर एक आक्रोष भी पैदा किया है। <br /><br />यह वही परिस्थितयां हैं, जिसमें पहली बार विकल्प का सवाल खड़ा तो हो रहा है लेकिन बिना किसी रास्ते के विकल्प का सवाल सवाल ही बना रह जा रहा है । इसलिये चुनाव के वक्त नक्सली हिसा ने नक्सल प्रभावित इलाको में कुछ नये सवाल पैदा कर दिये हैं। बिना स्थानीय मदद के चुनाव के वक्त हिंसा कैसे संभव है । स्थानीय वोटरों का यह एहसास खत्म हो चुका है कि वह चुनाव के जरीये लोकतंत्र को जीते हैं। राजनीतिक दलों के उम्मीदवार खलनायक माने जाते हैं। हिंसा का अंदेशा जब सरकार और सुरक्षाकर्मियों को भी था तो भी नक्सली कार्रवाई कर कैसे सुरक्षित निकल गये। राजनीतिक दलों ने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी। और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक को क्यों कहना पडा कि नक्सलियों से निपटने में राज्य सरकारें पूरी तरह विफल रही हैं। और उनसे नक्सल संकट सुलझ भी नही सकता है। असल में माओवादियों के लेकर बड़े सवाल अब शहरी मतदाताओ तक भी पहुंच रहे हैं । क्योंकि जिन राजनीतिक परिस्थियों से वोटर यह जानते समझते हुये गुजर रहा है कि चुनावी लोकतंत्र में उसकी शिरकत सिवाय वोट डालने भर की है। उसमें चुनाव के जरीये सत्ता बनाना या बदलना लोकतंत्र का नही सौदे का हिस्सा है, जो उन्हीं नेताओं के हाथ में है, जिन्हे वह लगातार सवाल उठाता रहा है । यानी चुनावी लोकतंत्र का जो खाका पिछले साठ साल से चला आ रहा है, उसमें राजनीति के जरीये विकल्प के सपनो को संजोना खत्म हो चला है। और माओवाद की नयी राजनीतिक दस्तक चुनावी लोकंतंत्र के टूटे सपने से निकल कर फिर से सत्ता बंदूक की नली से निकलने का अंदेशा जगाना चाह रही है ।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-34822875211212041762009-02-26T09:40:00.001+05:302009-02-26T09:40:00.278+05:30राजनीति की नयी लीक राहुल गांधी से लेकर नक्सली गणपति तक<em>("सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती" पर कई प्रतिक्रियाएं आयीं,जिन्होंने कई सवाल खड़े किये । लेकिन हर में महक विकल्प के खोज की ही नजर आयी। कुमार आलोक, गोंदियाल, विपिन देव त्यागी, कपिल, निरंजन हों या स्वपनिला....आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे एक नया कंटेट दिया कि मुख्यधारा की राजनीति में ही देश को देखना होगा। मैंने कांग्रेस के राजकुमार और नक्सली नेता गणपति को मिलाकर देखने की कोशिश की है। मुझे लग रहा है समाधान यह दोनों नहीं है लेकिन पहली बार मुख्यधारा की राजनीति सत्ता की खातिर राहुल को गणपति से ज्यादा खतरनाक मानने लगी है। आप पढ़ें पिर चर्चा करेंगे।............)<br /></em><br />" आप युवा हैं और आपके कंधों के सहारे नेता पहले टिकट पाते हैं और फिर गद्दी। नेता सत्ता की मलाई जमकर खाते है और आप यूं ही अंधेरे में गुम हो जाते हैं। इसलिये युवाओं को अब पहल करनी होगी, जिससे उम्र ढलने से पहले वह देश की कमान अपने हाथों में ले सकें। नहीं तो युवा अंधेरे में ही खो जायेगा।"<br /><br />"आप मजदूर हैं और आपकी मेहनत के सहारे ही देश आगे बढ़ता है। आपके खून-पसीने को मलाई में बदलकर मालिक-सरकार जमकर मौज उड़ाते हैं और आप अंधेरे में रहते हैं। इसलिये एक वर्ग की सरकार में बगैर हिस्सेदारी के भी रणनीति के तौर पर कैसे लाभ उठाया जाये, इसे समझना होगा । नहीं तो हम सभी मारे जाएंगे।"<br /><br />पहला वक्तव्य राहुल गांधी का है, जो उन्होंने दिल्ली में एनयूएसआई और यूथ कांग्रेस की सभा में 8 फरवरी 2009 को दिया। वहीं दूसरा वक्तव्य नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव गणपति का है, जो उन्होंने दिसंबर 2008 में दिया था। अपने अपने घेरे में कमोवेश दोनो बयान फार्मूले से हटकर हैं। राहुल का वक्तव्य संसदीय राजनीति की उस परिभाषा से हटकर है, जिसे पिछले साठ साल से तमाम नेता देश को पढ़ा रहे हैं। और गणपति का बयान अल्ट्रा लेफ्ट की उस राजनीति से हटकर है जिसका पाठ माओवादी पिछले चालीस साल से पढ़ रहे हैं। तो क्या देश का मिजाज हर स्तर पर बदल चुका है और जो शून्यता नजर आ रही है वह बदलते परिवेश को बदलने या ना बदले जाने के टकराव को लेकर ही है।<br /><br />कमोवेश संसदीय राजनीति के भीतर राहुल गांधी की मौजूदगी और नक्सली संगठनों के अंदर संघर्ष के बदलते तौर-तरीको ने पहली बार एक नया सवाल खड़ा किया है कि दोनो अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं और अब बदलाव जरुरी है। मसला यह नहीं है कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो सपना न्यू इकनॉमी के जरिये खड़ा किया गया, उसके ढहने के बाद संसदीय राजनीति का खोखलापन खुलकर सामने आ गया। जहां उसके पास जनवादी सोच के जरिये लोकतांत्रिक पहल करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है बल्कि संवैधानिक तौर पर देश की मजबूती के लिये जो जो खम्भे अलग-अलग संस्थानों के जरिये खड़े किये गये, वह सभी संसदीय राजनीति के दायरे में ढहाये गये । उन्हें इतना निकम्मा बनाया गया कि देश की सुरक्षा को बेचकर मुनाफा कमाने और बनाने की प्रवृति पैदा होती चली गयी।<br /><br />राहुल गांधी का भाषण या उनके राजनीतिक तौर-तरीके साठ साल की संसदीय राजनीति के सामने बचकाने हो सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि देश के किसी भी रंग को राहुल ने देखा समझा नहीं है इसलिये दलित के घर रात गुजारना और अगली सुबह पैरा-ग्लाइडिंग करना उनके राजनीतिक नौसिखियेपन को ही उभारता है। जिसमें राहुल ना राजनेता लगते हैं ना बिगडे युवा नेता। लेकिन जो मौजूदा राजनीति चालू है, उसमें किस नेता या किस राजनीति का दामन देश थामना चाहता है , यही सवाल राहुल की दिशा में युवा होने का नया पाठ पढ़ाता है।<br /><br />दूसरी तरफ नक्सली गणपति माओवाद की उस थ्योरी से अलग रणनीति की बात कर रहे हैं जो सत्ता बधूक की नली से निकलती है का पाठ पढती रही। संसदीय राजनीति में घुसे बगैर उसके अंतर्विरोध का लाभ लोगों के आक्रोष को गोलबंद कर ही उठाया जा सकता है। इसलिये मुंबई हमलों में मारे गये शहीद पुलिसकर्मियो को लाल सलाम देने के साथ साथ राजनेताओं को निशाना बनाने के बदले उनके निर्देश पर तैनात पुलिसकर्मियों को ही निशाना बनाने की थ्योरी ने माओवादियो के बीच भी एक नयी बहस शुरु की है। बहस इसलिये क्योंकि जिस संसदीय राजनीति को लेकर आम जनता में आक्रोष है अगर उस राजनीति से सत्ता साधने वाले नेताओं को माओवादी अपने निशाने पर नहीं ले सकते तो बदलाव या विकल्प को कैसे सामने लाया जा सकता है। माओवादियों की सेन्ट्रल कमिटी में पोलित ब्यूरो का एक सदस्य सवाल उठाता है कि पीपुल्स वार ग्रुप के पूर्व महासचिव सितारमैय्या 1987 में आंध्र प्रदेश के सात विधायको का अपहरण करने के बाद यह कहने से नही घबराते की राजनीतिक जरुरत के लिये राजीव गांधी का भी अपहरण किया जा सकता है। लेकिन इस सभा में चर्चा यही आकर खत्म होती है कि नेताओं को लेकर आम जनता के बीच आक्रोष जब संसदीय राजनीति और राज्य सत्ता पर सवालिया निशान खुद-ब-खुद लगा रहा है तो ऐसे में नेताओं को निशाने बनाने का मतलब होगा उनके प्रति जनता की संवेदनाओं को जोड़ना । या फिर माओवादी विचारधारा के खिलाफ लोगों की भावनाओं को जगाने का मौका देना। इससे अच्छा है हर ढहते संस्थान के समानांतर अपने संसथान को खड़ा करना। न्याय देने के लिये गांव गांव में अपनी पंचायत लगाकर तुरंत सुनावई और फैसला देना । यानी सजा भी तुरंत । जिसमें हाथ-पांव तोड़ने से लेकर मौत की सजा और भारी जुर्माने का भी प्रावधान। जंगल नष्ट करने वाले उघोगों और खनिज संपदा समेटकर देश के बाहर लेजाकर मुनाफा कमाने वालो के खिलाफ स्थानीय लोगो को गोलबंद कर आंदोलन की शुरुआत करना । जो बंगाल-उड़ीसा-झारखंड-छत्तीसगढ़ में जारी है। जिले और गांव के विकास के लिये आने वाले सरकारी धन की लूट कर स्थानीय जरुरत के मुताबिक विकास की लकीर खींचना। ट्रेड यूनियन से लेकर सरकारी कामगारों को साथ जोड़ना, जिससे मौका पड़ने पर आंदोलन खड़ा किया जा सके और सरकारी लूट को रोका जा सके। इसलिये सत्ता के तौर तरीको में सुधार की बात कर अतिवाम आंदोलन का घेरा पहले व्यापक करना होगा इसलिये इसे रणनीति के तौर पर उभारने की जरुरत है नही तो हम सभी मारे जायेगे । यह समझ गणपति के जरीय माओवादियो में निकली है।<br /><br />एक तरफ राहुल गांधी की राजनीति समझ में युवा शक्ति के जरीये पांरपरिक संसदीय राजनीति को ढेंगा दिखाना और दूसरी तरफ गणपति की अतिवाम राजनीति में संसदीय राजनीति के सामानांतर सुधारवादी वाम राजनीति का खाका रखने की थ्योरी ने इसके संकेत दे दिये है कि बदलाव का पहला तरीका अपने अपने घेरे में टकराव से ही होना है। पहले बात राजनीति की। पिछले एक दशक में हर राजनीतिक दल ने सत्ता का स्वाद गठबंधन के जरीये चखा। इसलिये 2009 के चुनाव में हर राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिये गठबंधन की सौदेबाजी का ही आंकलन ज्यादा कर रहा है कि उसे लाभ कहां-कैसे होगा । सत्ता के सामने विचारधारा की मौत हो चुकी है यह बात गठबंधन से लेकर सत्ता चलाने के दौरान नीतियों के जरीये खूब उभरी है।<br /><br />इन परिस्थितियो में राहुल गांधी का मतलब क्या है। राहुल गांधी के आने का मतलब उस लीक का टूटना है, जिसे अपने अनुकूल जनता पार्टी के प्रयोग से निकले नेता अभी तक चला रहे हैं । यानी 1977 के बाद से देश के सामाजिक-आर्थिक चेहरे में बदलाव आया लेकिन राजनीतिक सत्ता जस की तस चलती रही और उसी अनुरुप समाज को मानना और बनाने की थ्योरी संसदीय राजनीति रखती है। जाहिर है, ऐसे में राहुल की राजनीति का मतलब उन नेताओ का रिटायरमेंट है, जो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ध्रुवतारे की तरह चमक रहे हैं। प्रधानमंत्री से लेकर देश के मुख्य ओहदों के लिये नेताओं की फेरहिस्त तैयार है। कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी, चिदबंरम, एंटोनी, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, शिवराज पाटिल, एसएम कृष्णा सहित कोई भी नाम किसी भी ओहदे पर बैठकर देश चलाने का सपना संजोये हुये है। वहीं, शरद पवार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधी, पासवान से लेकर कोई भी क्षेत्रीय झंडबरदार देश की बागडोर संभालने के लिये बेकरार है। इन हालात में राहुल गांधी के मैदान में आने के तरीके ने कई सवाल एकसाथ खड़े किये हैं। क्योकि राहुल गांधी अगर सत्ता में आ जाते हैं तो उनका काम करने का तरीका जाहिर तौर पर उस प्रक्रिया सरीखा नहीं होगा, जहां दिल्ली से चला एक रुपया गांव तक पहुंचते पहुंचते छह पैसे में बचा रहे। देश की सुरक्षा के लिये हथियार खरीदी से लेकर आत्महत्या करते किसानों की जान बचाने के लिये पैकेज देने का जो तरीका अभी तक अपनाया जाता रहा है जाहिर है, वह बदल जायेगा । यानी कमेटियों और संस्थाओं के निरीक्षण-परिक्षण में ही कई साल गुजरते है और उसके बाद जो राशि निर्धारित होती है उसी की कीमत निर्धारित से कई गुना ज्यादा हो चुकी होती है। जाहिर है, राहुल के सत्ता में आने का मतलब महज युवाओं को सत्ता से जोड़कर देश चलाने का सपना जिलाना नहीं है। पहली बार परंपराओं से इतर राजनीतिक प्रक्रिया को चलाना होगा जो परिणाम दे। यह अच्छा-बुरा दोनो हो सकता है। लेकिन राहुल के तरीके नये और चौकाने वाले होगे क्योकि जो अपराध और भष्ट्राचार संसदीय राजनीति में घुस चुका है और पीढियों के लिये पूंजी बनाने से लेकर राजनीतिक जगह बनाने तक के लिये जद्दोजहद कर रही है, उसे युवा तबका तत्काल खारिज करेगा।<br /><br />इसीलिये 2009 के चुनाव संसदीय राजनीति के लिये मील का पत्थर सरीखा है। क्योंकि गठबंधन के तौर तरीके उन नेताओं को एक साथ लेकर आयेगे जो राहुल के सत्ता में आने के साथ ही रिटायर होने की स्थिति में आयेंगे । राहुल गांधी को रोकना उस संसदीय राजनीति की जरुरत है जो विशेषाधिकार की सत्ता बनाती है और जिसके घेरे में आने के लिये हर तरह के अपराधी बैचेन रहते है। 14 वीं लोकसभा इस सोच का ही प्रतीक है । इसमें सौ से ज्यादा सांसद ऐसे थे, जिनपर अपराध का कोई ना कोई मामला चल रहे हो।<br /><br />लेकिन संसदीय राजनीति का विकलप राहुल दे नहीं पाएंगे । बल्कि युवा पीढी के जरीये सत्ता विरासत की राजनीति को हवा देगी, यह भी सच है । क्योंकि युवा की तादाद देश के चालीस करोड वोटर के तौर पर है लेकिन नेता के तौर पर राहुल के साथ राजेश पायलट के बेटे से लेकर सिंधिया और मुरली देवडा के बच्चे हैं। यही हाल पवार की बेटी से लेकर मुलायम के बेटे का है। जिसकी लकीर कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला और पंजाब में प्रकाश शिंह बादल ने अपने अपने बेटों के जरीये खिंच कर दिखा दी है। राजनीतिक तौर पर विचारधारा की मौत संयोग से उसी दौर में हुई है जिस वक्त मुनाफे के लिये सबकुछ बाजार व्यवस्था पर टिका और फिर वह खुद ढह गया।<br /><br />सत्ता ने संसदीय राजनीति में लेफ्ट - राइट की बहस को ही बेमानी करार दिया । ऐसे में संसदीय राजनीति से इतर कहीं एक आस तो माओवादियों ने उन इलाको में दिखायी जो संसद की राजनीति और विकास की लकीर में हाशिये पर रहे। लेकिन पहली बार विचारधारा के सन्नाटे में कहीं ज्यादा घुप अंधेरा अतिवाम की राजनीतिक पहल में भी उभरा। जिस राजनीति के अंतर्विरोध को रणनीति के तौर पर साधने की पहल माओवादी गणपति ने कहीं उस दौर में नक्सल को लेकर सरकार का रवैया सामाजिक-आर्थिक समस्या से इतर कानूनी तौर पर आंतकवाद के सामानांतर मान लिया गया। सरकार ने जब नक्सलियों को आतंकवादी माना, उसी दौर में नक्सलियों के बीच सरकार के वैचारिक शून्यता को भरने की बहस गूंज रही है।<br /><br />पहली बार केन्द्र सरकार ने कानून बनाकर नक्सलियो को भी उस घेरे में लाने की पहल की, वहीं नक्सलियो के बीच यह सवाल उठा कि नक्सली आंदोलन कमजोर पड़ने की वजह सिर्फ बंदूक की भाषा को समझना है। गणपति ने माओवादियों के बीच यह सवाल उठाय़ा। पिछले डेढ़ दशक में नक्सलियों को सिर्फ सत्ता की बंदूक से बचाने के लिये ही समूची रणनीति बनानी पड रही है । इसलिये उनका आंदोलन सिमटा है लेकिन अब विस्तार के लिये जरुरी है सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को उलट कर सत्ता की कमजोर नली को ही हथियार बनाया जाये।<br /><br />सवाल यही है कि क्या राजनीति इतनी पोपली हो चुकी है, जहां राहुल गांधी के तेवर उन नेताओं को खारिज करने से नही चुक रहे, जिन्हे लगता है देश अब भी वही चला सकते है और माओवादी नेता गणपति उन्हीं नेताओ को बरकरार रख नक्सली जमीन मजबूत करना चाहते है, जिनके खिलाफ आम लोगो में आक्रोष है और जिन्हें राहुल खारिज कर रहे है। कहीं यह क्रातिकारी बदलाव के संकेत तो नहीं हैं?Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-86200882687470544242009-01-02T09:39:00.000+05:302009-01-02T09:39:00.902+05:30नये साल में फिर लगाएं नारा – लोकतंत्र ज़िंदाबादसाल नया है, उम्मीद भी नयी होगी। लेकिन जब देश के माथे पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने का तमगा लगा हो तो चुनाव से बड़ा लोकतंत्र कुछ हो नही सकता और इसे बरकरार रखने में दुनिया के सामने सबसे बडी राजनीतिक तानाशाही भी होती होगी। क्योंकि लोकतंत्र के उलट तानाशाही होती है।<br /><br />तो साल नया है। उम्मीदे चाहें जो हो लेकिन नज़रे सभी की आम चुनाव पर ही हैं। क्योंकि चुनाव का मतलब देश में रोजगार का सबसे बड़े धंधे का खेल है। जिसमें अरबों के वारे-न्यारे झटके में हो जाते है और देश नारा लगाता है चुनावी लोकतंत्र जिन्दाबाद। क्योंकि चुनावी राजनीति में जीत ही अगर देश के लोकतंत्र और संविधान की जीत है तो पांच राज्यों के चुनाव परिणाम में लोकतंत्र की राजनीतिक तानाशाही का अक्स छुपा है, यह भी अब खुलकर उभर रहा है। यह माना गया कि आतंकवाद को लेकर बीजेपी की राजनीति कांग्रेस के कुछ ना करने के सामने हार गयी। यह माना गया कि विकास का ढिढोरा न्यूनतम जरुरतों के सामने हार गया। यह माना गया कि महंगाई का दर्द नेताओ के लाभ भरे भरोसे के सामने हार गया। अगर यह सब हुआ है तो चुनावी लोकतंत्र को पूंछ से नही सूंड से पकड़ें।<br /><br />छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा माना जाता है। लेकिन यहां विकास की परिभाषा की लकीर इतनी छोटी है कि तीन रुपये चावल उपलब्ध कराने का ऐलान कर जीत के लिये चावल वाले बाबा का शब्द ‘मुख्यमंत्री’ पर भारी पड़ गया । जिन इलाको में तीन रुपये चावल करीब चालीस लाख परिवारों को मिलने का दावा किया गया है वह इलाका खनिज संपदा से भरा पड़ा है। अगर विकास की लकीर यहां जनता के अनुकूल खींच दी जाये तो समूचे इलाके में यानी करीब सात जिलो में चावल दस रुपये किलो बेच कर राज्य के खजाने पर बिना कोई बोझ डाले हुये भी इन्हीं चालीस लाख परिवारो को रोजगार और पैसा दोनों दिलाया जा सकता है। यानी किसी भी राज्य को चलाने की जो आर्थिक व्यवस्था होती है, उसे लागू किया जा सकता है।<br /><br />लेकिन यहां की बीस से पच्चीस हजार करोड़ से ज्यादा की खनिज संपदा कौडियों के मोल देशी विदेशी उधोगपतियों को दी गयी, जिसकी एवज में राजनीतिक सत्ता को मुनाफे के तौर पर दस से बारह फीसदी मिले और राज्य के खजाने में गये महज तीन फीसदी। अगर यहां विकास की सही लकीर मुनाफे की जगह कल्याणकारी राज्य की समझ के मुताबिक खींची जाये तो अनुमान के मुताबिक पचास हजार करोड़ से ज्यादा का मुनाफा राज्य के खजाने को सिर्फ प्रकृतिक संपदा के जरीये हो सकती है ।<br />लेकिन चुनावी लोकतंत्र में पांच सौ करोड़ का चावल सब पर भारी पड़ जाता है । चुनावी जीत का मतलब सलवा जुडुम को ना सिर्फ मान्यता मिलना है बल्कि नक्सली हिंसा से प्रभावित आदिवासियों के हाथो में हथियार थमाना भी सही है। चुनावी लोकतंत्र में सुरक्षा के लिये खुद ही हथियार लेने की थ्योरी उस राज्य व्यवस्था को ही खारिज कर रही है, जो बताती है कि कानून के दायरे में हथियार से मुकाबला करना राज्य पुलिस और सुरक्षाकर्मियो का काम है।<br /><br />जाहिर है कोई सत्ता सुरक्षा न देने के नाम पर खुद सुरक्षा के लिये हथियार उठाने का नायाब प्रयोग कर अपना वोटबैक बनाकर चुनाव जीत सकती है। यह चुनावी लोकतंत्र की जीत है। दुनिया भर के पच्चीस नोबल विजेताओं की नक्सलियो के हिमायती विनायक सेन को जेल से बाहर निकालने की मांग भी चुनावी लोकतंत्र के आगे हार गयी। राजनीति का पाठ तो यही कहता है कि विनायक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता होते तो सत्ताधारियों को हार मिलती। तब तो संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी देने की मांग बेमानी है । दिल्ली में जब चुनाव प्रचार का आखरी दिन था, उस वक्त मुंबई आंतकवादी हमलों से लहूलुहान थी। 27 नबंवर को दिल्ली के तमाम अखबारो में बीजेपी ने कांग्रेस पर आतंकवाद के सामने नतमस्तक होने का आरोप जड़ा और अफजल गुरु को फांसी तक न दे पाने की सोच को कांग्रेस का राजनीतिक परिहास करार दिया। दिल्ली की हर बड़ी सभा में बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने अफजल का मामला उठाया। मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार वीके मल्होत्रा ने तो हर सभा में अफजल को लेकर ही बात शुरु की। लेकिन चुनावी लोकतंत्र के आगे संसद पर हमले के दोषी की फांसी की मांग हार गयी।<br /><br />तो क्या अब बीजेपी यह मांग नहीं करेगी। रौशनी की चकाचौंध और फ्लाई-ओवर से लेकर पांच सितारा होटलों की जिंदगी को राहत देती दिल्ली में यमुनापार का नरकीय जीवन हार गया तो क्या पूर्वी दिल्ली की सात सीटों के छह लाख परिवार की न्यूनतम की जुगाड़ की मांग मायने नहीं रखेगी। बटला हाउस एनकाउंटर को लेकर कांग्रेस की कसमसाहट और शहीद पुलिसकर्मी को लेकर सवालो का घेरा सही है, तो क्या मान लिया जाये कि डेक्कन मुजाहिद्दिन का जुमला पुलिस ने गढ़ा। आजमगढ़ के सेक्यूलरवाद को घायल करने का काम एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया। बीजेपी ने समाज के ताने बाने को तार तार करने के लिये चुनाव के ठीक पहले राजनीतिक जुमले गढ़े। जिसकी हार हुई । दक्षिण दिल्ली में गाड़ीवालो की रफ्तार कम कर बीआरटी कारिडोर के जरिये आमलोगो की सार्वजनिक सवारी बस की रफ्तार को बढाने की जो थ्योरी शीली दीक्षित ने परोसी, क्या वह सही है। एक तरफ दिल्ली का मतलब रफ्तार और दूसरी तरफ न्यूनतम की लड़ाई । चुनावी लोकतंत्र का यह कौन सा समाजवाद है, जिसमें बीजेपी कॉरिडोर का विरोध करती है और यमुनापार के दर्द को उबारती है। वहीं कांग्रेस बीआरटी के साथ खड़ी होती है और मगज बीस लाख लोगों के लिये दिल्ली को पांच सितारा में बदलने का ख्वाब भी परोसती है। दिल्ली में लोगो की सुरक्षा दिल्ली सरकार नही कर सकती है इसलिये पूर्ण राज्य का दर्जा की मांग ही बेमानी है। इसे दस साल से सत्ता में बैठी शीला दीक्षित ने माना और लोगों ने हाथो हाथ ले लिया। जबकि, बीजेपी ने उलट राग दिया कि जो केन्द्र किसी को सुरक्षा नहीं दे सकता उसके पास दिल्लीवालो की सुरक्षा कैसे छोड़ी जा सकती है। बीजेपी ने पूर्ण राज्य की मांग चुनावी मैनिफेस्टो में रखा। वह चुनाव हार गयी। तो सुरक्षा केन्द्र ही देगा। लेकिन जहां राज्य ने सुरक्षा के बदले गोली दी उसका क्या होगा ।<br /><br />राजस्थान में गुर्जरो पर आरक्षण की मांग को लेकर नौ बार गोलियां चलीं। सौ से ज्यादा परिवारों में मातम मना। किसी का बच्चा मरा, किसी का पति । लेकिन चुनावी लोकतंत्र के सामने गोली का दर्द मलहम में बदल गया। गुर्जर बहुल इलाकों में अस्सी फीसदी सीटों पर उसी महारानी को जीत मिली जो आंदोलन के दौर में बातचीत करने तक से तकराती रही। आंदोलन की हिंसा में रेलवे को सौ करोड़ से ज्यादा का चूना लगा और देश को दो हजार करोड़ से ज्यादा का । हांलाकि महारानी गद्दी गंवा बैठी लेकिन उसकी वजह कांग्रेस का लोकहित का नारा या खालीपेट को भरने के लिये कोई शिगूफा काम नही किया बल्कि चुनावी लोकतंत्र में जीत के लिये संगठन और साथी-प्रभावी नेता का दगा देना ही रहा। भैरोसिंह शेखावत से लेकर महेशप्रसाद तक और आरएसएस के संगठन का रुठना ज्यादा मायने रहा। राज्य के करीब छह दर्जन योजनाओ को पांच साल के दौर में अमली जामा पहनाने का जिम्मा महारानी ने उठाया। पूरा कोई नहीं हुआ । इन पर पचास लाख करोड़ का खर्च आंका गया। कितना खर्च हुआ वह तो पांच साल के बजट में भी उभर नहीं पाया लेकिन कांग्रेस की माने तो पांच हजार करोड़ से ज्यादा का घपला हुआ। यानी अलग अलग योजनाओं में भ्रष्टाचार की यह कीमत कांग्रेस ने लगायी। लेकिन यहां समझना ये भी होगा कि पांच साल पहले हुये चुनाव में कांग्रेस की सरकार पर बीजेपी ने कमोवेश इतने ही रुपये का घपला करने का आरोप उसके शासनकाल में लगाया था । तब सत्ता बदली और अब भी सत्ता बदली। इस इधर उधर के खेल में तीन साल पहले आयी बाढ़ का मुद्दा चुनावी लोकतंत्र तले दब गया। रेत के टीलो पर जिन्दगी बचाने वाले हजारों राजस्थानी परिवार यह समझ ही नही पाये कि अगर फिर पानी आ जाये तो बचने का उपाय क्या है।<br /><br />राजनीतिक सहमति की डोर कैसे जिन्दगी लीलती है, यह जैसलमेर सरीखे जगहों पर बीजेपी-कांग्रेस के भाषणो में दिखा जो बताने को तैयार नही थे कि फिर बाढ आयेगी तो उससे बचने के उपाय वह पहले से कर देंगे। दोनो ने कहा भगवान ही जमीन पर आ जाये तो कोई क्या करे। रेगिस्तान की सरलता चुनावी लोकतंत्र तले कैसे हारी यह रोजगार मुहैया ना करा पाने और सत्ता में लौटने पर भी ना कर पाने की डोर में बीते दो दशक में बार बार उभरा । जातियो का दर्द कैसे लोगों को जुटा देता है और सबसे बडी सुरक्षा जातीय सुरक्षा होती है, जिसपर सत्ता का लेप चढ़ जाये तो मुनाफे के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं, यह पाठ राजस्थान के चुनावी लोकतंत्र ने जतला दिया। लेकिन जातीय राजनीति का पाठ धर्म के आगे नतमस्तक हो तो क्या भी चुनावी लोकतंत्र की जीत होगी।<br /><br />मध्य प्रदेश ने यह पाठ नये तरीके से पढ़ाया । पांच साल पहले बीजेपी की जो नेता भगवा पहन कर बीजेपी को सत्ता में लेकर आयी, पांच साल बाद वही उमा भारती खुद हार गयी। तो क्या पार्टी से बड़ा कोई नही होता है । अगर ऐसा हो तो इस चुनाव में दर्जनो निर्दलीय कैसे जीत गये। या फिर जिस राजधर्म का पाठ उमा भारती पढ़ा रही थीं, उसमें पांच साल में ही जंग लग गयी। इतना ही नही, उमा भारती के दौर में जो सीटें बीजेपी ने जीती थीं, उसमें से तीन दर्जन सीट शिवराज सिंह चौहान गंवा बैठे । लेकिन डेढ़ दर्जन कांग्रेस से उस दौर की झटक लीं, जो भगवा चादर ओढ कर उमा के साथ पांच साल जाने को बिलकुल तैयार नही थे। अब अगर चुनावी लोकतंत्र में नेता मायने रखता है तो मध्यप्रदेश में कभी दस साल तक कांग्रेस की कमान संभालने वाले दिग्गिविजय सिंह रायगढ की छह सीटे भी कांग्रेस की झोली में ना डलवा सके । कमलनाथ-सिंधिया-पचौरी का भी यही हाल अपने अपने जिले छिंदवाडा-ग्वालियर-भोपाल में हुआ। अर्जुन सिंह सरीखा शख्स भी अपने जिले की सिर्फ तीन सीटों पर ही कांग्रेस को जितवा सका। मध्यप्रदेश में पिछले पांच साल के दौर में ना सिर्फ प्रतिव्यकित आय में कमी आयी बल्कि देश के उन पिछड़े राज्यों की फेरहिस्त में आ गया, जहां पूरा भोजन सभी को नहीं मिलता। रोजगार के साधनों में बारह फीसदी तक की कमी आयी। आदिवासी बहुल छह जिलो में साफ पानी,पूरा खाना और काम तीनो से राज्य सरकार मुंह मोड़े हुये है। कुल बारह योजनाये इन इलाको के लिये बनी लेकिन पूरा होना तो दूर किसी योजना का असर आदिवासियों के जीवन पर नहीं है। उल्टे रोजमर्रा का जीवन और कमजोर हुआ है लेकिन वहां शिवराज ने चुनावी जीत हासिल की।<br /><br />जाहिर है यह सवाल मिजोरम को लेकर भी उठ सकता है कि क्षेत्रिय समझ को खारिज कर कांग्रेस को जिता कर मिजोरम मुख्यधारा से जुड़ना चाहता है। आंदोलन के जरीये समाधान मुश्किल है। चुनावी लोकतंत्र के आगे मिजो आंदोलन बेमानी साबित हो गया है तो अब आंदोलन खत्म हो जाना चाहिये। जाहिर है चुनावी लोकतंत्र में जीत का मतलब सत्ता है और हार का मतलब कुछ भी नहीं। तो कुछ भी नहीं के सामने विकल्प क्या होंगे और सत्ता को कुछ भी करने की जरुरत क्या है। यह सवाल इसलिये जरुरी है कि महज नब्बे दिनो के बाद इसी तरह के मुद्दे समूचे देश के सामने तमाम राजनीतिक दल फिर उठा रहे होंगे। आम चुनाव लोकतंत्र का फाइनल होता है । तो नेता और मुद्दे भी आखिरी लड़ाई लड़ रहे होते हैं। यह माना जाता है कि उस वक्त की जीत देश की धारा तय करती है, लेकिन जब चुनावी लोकतंत्र ही देश की धारा से न जुड़ी हो तो क्या हम नारा लगा सकते है लोकतंत्र जिंदाबाद। लेकिन नये साल में सिर्फ और सिर्फ आपको यही कहना होगा चुनावी लोकतंत्र जिन्दाबाद।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com10