tag:blogger.com,1999:blog-82376613912458528172024-03-16T11:19:08.602+05:30पुण्य प्रसून बाजपेयीPunya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-18311859869892855682009-11-11T12:14:00.000+05:302009-11-11T12:15:35.421+05:30विकल्प देते देते प्रधानमंत्री विकल्प क्यों तालाश रहे हैंनक्सलियों के हिमायतियों ने भी ग्रामीण-आदिवासियों के विकास का कोई वैकल्पिक समाधान नहीं दिया है। यह बात और किसी ने नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कही है। दिल्ली में आदिवासियों के मसले पर जुटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को विकास और कल्याण का पाठ पढ़ाते हुये पहली बार प्रधानमंत्री फिसले और माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई का फरमान सुनाने वाले वित्त मंत्री की बनायी लीक छोड़ते हुये उन्होंने आदिवासियों के सवाल पर सरकार को घेरने वाले और माओवादियो के खिलाफ सरकार की कार्रवाई का विरोध करने वालों पर निशाना साधते हुये कहा कि आदिवासियों के लिये वैकल्पिक अर्थव्यवस्था या सामाजिक लीक किस तरह की होनी चाहिये इसे भी तो कोई सुझाये। <br /><br />जाहिर है, इस वक्तव्य को आसानी से पचाना मुश्किल है क्योंकि आदिवासियो के लेकर बीते साठ वर्षों में हर सरकार दावा करती रही है कि उसकी समझ आदिवासियो को लेकर ना सिर्फ संवेदनशील है बल्कि जो नीतियां वह बना रही है, उससे आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ जायेंगे । नेहरु का पहला प्रयास और मनमोहन का अभी का प्रयास आदिवासियों को आधुनिक ड्राईंग रुम में टेबल पर रखकर चिंतन वाला ही रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 1991 से पहले तक आदिवासियों को लेकर बनायी जाने वाली हर योजना में आदिवासियों को जंगल से जोड़कर ऱखा गया । जंगल गांव की परिभाषा भी तभी तक जीवित रही। <br /><br />लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री के दौर में जब आर्थिक सुधार की बयार बही तो पहली बार 1991 में ही जंगल गांव की मौजूदगी पर सवाल उठे। टाइगर परियोजना से लेकर एसईजेड तक के दो दशक के सफर में जमीन से आदिवासियो को बेदखल करने की योजना और कहीं नहीं बनी बल्कि उसी नार्थ-साउथ ब्लॉक में पेपर तैयार हुआ, जहां आदिवासियों के कल्याण के लिये प्रधानमंत्री के भाषण का पर्चा 4 नवबंर 2009 के लिये तैयार किया गया। यानी बीते 18 सालों में करीब पांच करोड़ आदिवासियों के पलायन या कहे अपनी जमीन छोड़ बेदखल होने के दर्द को प्रधानमंत्री कार्यालय ने कितना समझा, इस पर सवाल उठाना वाजिब नही होगा बनिस्पत प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाना कि 4 नवबंर 2009 को उन्हें पहली बार लगा कि विकल्प भी कोई सोच होती है। <br /><br />यह अलग मसला है कि इस दौर में परियोजनाओं पर सत्तर हजार करोड़ खर्च हो गये और आदिवासी कल्याण के लिये महज सत्तर करोड़ ही सरकार को पोटली से निकले। जिस रौ में मनमोहन सरकार आर्थिक सुधार की हवा बहाने को लेकर लगातार बैचेन रही है उसमें विकल्प शब्द भी बेमानी सा लगने लगा। क्योंकि विकास की जो लकीर आर्थिक सुधार तले खिंची गयी उसी का परिणाम है कि गरीब और दलित के घर रात बिताकर राहुल गांधी बार बार देश के सच से कांग्रेस को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। राहुल गांधी का कोई भी बयान जो ग्रामीण-आदिवासियों से लेकर गरीब-दलितों को लेकर दिया गया हो, अगर उसके आईने में आर्थिक सुधार की नीतियों को रख लें तो समझा जा सकता है कि अचानक प्रधानमंत्री के जेहन में विकल्प शब्द क्यों आ गया। <br /><br />अभी तक चिदंबरम-मोटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह की तिकड़ी ने उन्हीं आर्थिक नीतियों को विकल्प माना, जिसके विकल्प देने का चैलेंज वह नक्सलियों के हिमायतियो से कर रहे हैं। इसका एक मतलब तो साफ है कि जो नीतियां परोसी जा रही हैं, वह बहुसंख्यक समाज के लिये विकल्प नहीं है बल्कि त्रासदी ज्यादा हैं। और इसका दूसरा मतलब यही है कि सरकार के पास विकल्प की अर्थव्यस्था का कोई खाका नहीं है। जो अचानक नक्सली समस्या के साथ जरुरत बनती जा रही है। लेकिन आर्थिक सुधार के दौर में योजना आयोग से लेकर पीएमओ तक में बैठे अर्थशास्त्री कैसे आंखों पर सेंसेक्स और औघोगिक विकास की पट्टी बांध कर काम करते रहे, यह उस किसी से नहीं छुपा है जो बजट से पहले या फिर गाहे-बगाहे सुझावो के साथ नार्थ-साउथ ब्लाक में आमंत्रित किये जाते रहे हैं। <br />"जो सुझाव आप दे रहे है वह तो ठीक है लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये यह तो आप बताईये। " हर वैकल्पिक सुझाव के बाद पीएमओ में बैठे अर्थशास्त्रियों या नौकरशाहों की यही आवाज गूंजती है । किसानों की त्रासदी से लेकर बुंदेलखंड की बदहाली और औघोगिक विकास को जन भागीदारी के साथ जोड़ने से लेकर पंचायत स्तर पर स्वरोजगार का सवाल कमोवेश हर बजट से पहले और बाद में लाल पत्थरों के नार्थ-साउथ ब्लाक में हर साल अलग अलग खेमो और अलग अलग विचारधारा के तहत काम करने वाले लोगो ने उठाये। लेकिन इस दौर में हर सवाल का स्वागत कर जब बड़ा सवाल सामने रखा गया कि आपके विचार तो जायज है और सुझाव का भी स्वागत लेकिन इसे लागू कैसे किया जाये तब हर विकल्प छोड़ा पड जाता है कि सरकार का संकट जब लागू तक ना करा पाने का है तो विकल्प शब्द का मतलब क्या है। वाकई बाजार और मुनाफे की थ्योरी में विकल्प शब्द ना सिर्फ गौण हुआ बल्कि धीरे धीरे विकल्प का सुझाव देने वालो की तादाद भी सरकार के दरबार में घटती चली गयी। इसलिये जो सवाल राहुल गांधी उठाने लगे अचानक देश को वही विकल्प भी लगने लगे। दो देश में बंटता देश। ग्रामीण आदिवासियों और गरीब दलितों को मौका ना मिलना। यह बयान राहुल गांधी के हैं, जो इंगित करते हैं कि आर्थिक सुधार की नीतियों से देश का बंटाधार हुआ है।<br /><br />लेकिन इसका विकल्प क्या है यह सवाल प्रधानमंत्री को राहुल गांधी से भी पूछना चाहिये कि आपने भी तो कोई विकल्प बताया नहीं फिर देश के बदतर हालात पर अंगुली उठा कर प्रधाननमंत्री पद की गरिमा को क्यों मिटा रहे हैं। पीएमओ की दीवारों में इतनी ताकत है नहीं कि राहुल से विकल्प का सवाल उठा लें ऐसे में खुद लोग कैसे कैसे विकल्प पैदा कर रहे हैं, जिसपर नजर पीएमओ की भी नहीं होगी वह गौरतलब है । संयोग से जिस वक्त प्रधानमंत्री ग्रामीण-आदिवासियों के समाधान के लिये विकल्प का सवाल उठाकर नक्सलियो के हिमायितियों पर उंगली उटा रहे थे, उसी वक्त विदर्भ में छह किसान आत्महत्या की तैयारी कर रहे थे। और किसानों की खुदकुशी के बाद अब किसानों की विधवाओ ने मदद के लिये अपना विकल्प खुद तैयार किया है कि वह 11 नवबंर से अनिश्चितकालिन भूख-हडताल करेंगी जिससे कोई राहत उनतक पहुंच सके। यानी जिस भूख ने उन्हें विधवा बना दिया उसी भूख को वे जीने का विकल्प बना रही हैं। क्योकि सरकार को यही परिभाषा समझ में आती है । तो विकल्प का मतलब ही जिस व्यवस्था में जान जाना या जान बचाना भर हो, वहां पहले विकल्प की बात होगी या जान बचाने की इसे प्रधानमंत्री समझेंगे यह आस तो लगायी ही जा सकती है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8237661391245852817.post-53529766254135540032009-10-29T07:59:00.000+05:302009-10-29T07:59:00.540+05:30राजधानी की योजनाओं से दूर जंगल में 'राजधानी' फंसने का मतलबमाओवादी संकट कहीं राजनीति के अतर्विरोध को उभार तो नहीं देगा ? माओवादी संकट कहीं विकास की लकीर पर ही सवाल तो खड़ा नहीं कर देगा ? माओवादी संकट कहीं राजनीतिक मुनाफे के आगे नपुंसक होते संस्थानों के दर्द को विस्फोटक तो नहीं बना देगा ? यह सवाल खासे तेजी से उठने लगे हैं। दिल्ली में चिदंबरम चाहे माओवाद के खिलाफ आखिरी लड़ाई का ऐलान करे लेकिन राजनीतिक सत्ता के मुनाफे का टकराव हर लड़ाई को हवा-हवाई बना देगा। राजधानी एक्सप्रेस को पांच घंटे अपने कब्जे में कर अगर माओवादियों ने छत्रघर महतो की रिहायी की मांग की तो उसका दूसरा हिस्सा कहीं ज्यादा खतरनाक है। जिस वक्त जंगल में राजधानी एक्सप्रेस फंसी तो राजनीतिक सत्ता की लड़ाई में राजधानी उलझ गयी, जब हजारों यात्रियों के जेहन में यह सवाल उठ रहा होगा कि सरकार और सुरक्षा बंदोबस्त हैं कहां तो दिल्ली में रेल मंत्री ममता बनर्जी सीपीम को घेरने में लगी रहीं। एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा कि बंगाल के मुख्यमंत्री से वह बात कर रही हैं, उनकी जुबान पर उड़ीसा के सीएम का नाम तो आया लेकिन बंगाल के सीएम का जिक्र करना तक उन्होंने सही नहीं समझा।<br /><br />पॉलिटिकली करेक्ट रहने के लिये सीपीएम ने भी ममता बनर्जी को ही इस मौके पर घेरेने का प्रयास किया। हर कोई भूल गया कि राज्य की जिम्मेदारी क्या है और केन्द्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की भूमिका संकट के वक्त क्या होनी चाहिये। जाहिर है पॉलिटिकली करेक्ट रहने की समझ हर राजनीतिक सत्ता की जरुरत है, इसलिये दिल्ली में अगर कभी माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई पर दिल्ली में ठप्पा लग भी जाये तो भी राज्यों की भूमिका राज्यों की सीमा-दर-सीमा बदलगी क्योंकि सीमा बदलते ही राजनीतिक सत्ता भी बदलती है। पॉलिटिकली करेक्ट होने की होड़ पुलिस-सुरक्षाबलो को कैसे तोड़ सकती है इसका अंदाजा बंगाल के पुलिसकर्मियों के टूटते मनोबल से समझा जा सकता है। असल में जिस पुलिसकर्मी की रिहायी माओवादियों ने छाती पर युद्दबंदी का पोस्टर लगाकर मीडिया के हंगामे के बीच की। उस रिहायी के 14 घंटे पहले लालगढ़ में सुरक्षाबलों ने माओवादी किशनजी को घेर लिया था। किशनजी वही शख्स हैं, जो लालगढ की हर माओवादी कार्रवाई का अगुवा है। अपने घेरेबंदी की जानकारी किशनजी को भी थी। लेकिन उसी वक्त माओवादी नेता ने न्यूज चैनलों के जरिए सीधे कहा कि अगर तैनात फोर्स ने किसी भी तरह गोलिया चलायी या कार्रवाई की तो अपहर्त पुलिसकर्मी की हत्या कर दी जायेगी। <br /><br />बुद्धदेव सरकार ने तत्काल फैसला किया कि लालगढ़ में तैनात सुरक्षाकर्मी कार्रवाई नहीं करेंगे। कार्रवाई रोकी गयी और उसके बाद देश में अपनी तरह का पहला युद्दबंदी रिहा हुआ। रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी ने ना सिर्फ मीडिया के सामने इलाके में विकास का सवाल उठाकर माओवादियों को सही ठहराया बल्कि पुलिस को किस रुप में सत्ता देखती है और प्रचार प्रसार के जरीये उसे हर मामले में शहीद होने का तमगा लगा कर राजनीति पल्ला झाड लेती है, इसने रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी के उस तर्क के सामने सबकुछ खारिज कर दिया जब रिहायी के बाद पुलिसकर्मी ने ड्यूटी संभालना तो दूर सीधे कह दिया कि नयी परिस्थियों में वह पहले अपने परिवार से बात करेंगे। <br /><br />महत्वपूर्ण है इसी दौर में राज्य और केन्द्र सरकार सुरक्षाकर्मियों को माओवादियो के खिलाफ लड़ाई तेज करने के लिये लगातार जोर दे रही हैं। ऐसे में बंगाल के पुलिसकर्मियो के सामने एक साथ कई सवाल खड़े हुये हैं कि जिन माओवादियों ने एक पुलिसकर्मी को बंधक बनाया उन्हीं माओवादियों ने उससे ठीक पहले दो एएसआई दीपांकर भट्टाचार्य और साकोल राय की हत्या भी की। फिर रिहायी के वक्त बंधक पुलिसकर्मी, जिन माओवादियों से हाथ मिला रहे थे उन्हीं माओवादियो ने थाने पर हमलाकर दो पुलिसकर्मियों को मारा था । <br /><br />जाहिर है इसके बाद सुरक्षाकर्मियों ने जब माओवादियों को घेरा और ऊपरी निर्देश पर कार्रवायी रोक दी, उनके सामने सवाल है कि कल फिर राजनीतिक सत्ता की मजबूरी उन्हें ना रोके इसकी गारंटी कौन लेगा। वहीं तीसरा सवाल भी ‘राजधानी’ के जंगल में फंसने पर उठा। भुवनेश्वर से आने वाली राजधानी को रुकवाने के बाद वहां के ग्रामीण माओवादियो ने दो ही काम सबसे पहले किये। पहला तो रेलगाड़ी के डिब्बो पर छत्रघर महतो की रिहायी की मांग को लाल रंग से लिख डाला और उससे कहीं ज्यादा तेजी से पेन्ट्री कार और कंबल लूटने के लिये हमला किया। एक बांग्ला न्यूज चैनल के रिपोर्टर ने हिम्मत दिखाकर कुछ फर्लांग दूर वंशतोल और झारग्राम के बीच एक झोपडी में जाकर कैमरे से तस्वीरे लीं तो विकास के सवाल ने पाषाण काल की तस्वीर सामने ला दी। क्योंकि उस झोपड़ी में पेन्ट्री कार से लूटे गये खाने और उसकी चमकीली चिमनी के अलावा लूटा गया कंबल था, जो एक डोरी पर झूल रहा था। इसके अलावा कमरे में चटाई, बांस के डंडे, तेन्दू पत्तों की पोटली, मिट्टी का चूल्हा और लोहे की दो कड़ाई पड़ी थी। ओसारे पर मटमैली साड़ी,धोती और फटे हुये कुछ कपडे जरुर थे । इसके अलावा पूरी झोपड़ी में कुछ नहीं था। राजधानी मे यह सारे सामान फेंकने वाले होंगे, जिसकी कीमत लगाना बेमानी है लेकिन झारग्राम के इलाके का यही सच है। जाहिर है यह सारे सवाल उसी माओवाद से जा जुड़े हैं, जिनके प्रभावित इलाको में राजधानी की कोई योजना पहुंचती नहीं और राजधानी एक्सप्रेस फंस जाये तो राज्य और देश की राजधानी में राजनीतिक ब्रेक लग जाता है।Punya Prasun Bajpaihttp://www.blogger.com/profile/17220361766090025788noreply@blogger.com4